PDF/HTML Page 2521 of 4199
single page version
हवे कहे छे-‘माटे कथनने नयविभागथी यथार्थ समजी श्रद्धान करवुं. सर्वथा एकांत मानवुं ते तो मिथ्यात्व छे’
परने मारवानो अभिप्राय होय छतां, शास्त्रमां परघातथी ज्ञानीने बंध नथी एम कह्युं छे माटे हुं परने मारुं तो मने बंध नथी एम न मानी लेवुं. एम मानवुं ए मिथ्यात्व छे, बंधपद्धति छे. ज्ञानीने तो परजीवने मारवानो के जिवाडवानो अभिप्राय ज नथी; एने तो हुं चैतन्यघन प्रभु पूरण ज्ञाता-द्रष्टा छुं एम अभिप्राय छे. ते कदीय ज्ञानमां परनुं-रागनुं एकत्व करतो नथी.
अहाहा...! एणे शानां अभिमान करवां प्रभु? आ सुंदर रूपाळुं शरीर मारुं ने आ छोकरां मारां ने संपत्ति मारी एम अभिमान करे छे पण बापु! ए के दि’ तारां छे? बाप कोनो ने छोकरो कोनो? ने कोनी आ चीज बधी? आ शरीर, बायडी, छोकरां, धनसंपत्ति वगेरे प्रगट परवस्तु छे. वळी ए बधां छोडी जंगलमां जाय तो माने के मारे बधां हतां ते में छोडी दीधां. भाई! आवो परमां एकपणानो भाव-अभिप्राय मिथ्यात्व छे; तथा रागना एकत्वनो भाव पण मिथ्यात्व छे.
अहा! जेने शुद्ध चैतन्यनुं अवलंबन थयुं छे ने रागनुं अवलंबन मटी गयुं छे ते ज्यां हो त्यां आत्मामां छे. कदाच ते चक्रवर्तीना राजवैभवमां बेठेलो बहारथी देखातो होय तोपण ते आत्मामां छे, बहारमां छे ज नहि. आवी वात छे.
ज्यारे मारवानो अभिप्राय करे, रागनी रुचिमां रहे ने माने के मने परघातथी बंध नथी केमके हुं परने मारी शकतो नथी तो ते एनी सर्वथा एकांत मान्यता छे. अने ते मिथ्यात्व ज छे. वास्तवमां ते नयविभागने समजतो नथी. एणे तो पोताना ज्ञाता- द्रष्टा स्वभावने हण्यो छे माटे एने बंध थशे ज. समजाणुं कांई...?
हवे उपरना भावार्थमां कहेलो आशय प्रगट करवाने काव्य कहे छेः-
‘तथापि’ तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणोथी बंध कह्यो नथी अने रागादिकथी ज बंध कह्यो छे तोपण) ‘ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न ईष्यते’ ज्ञानीओने निरर्गल (- मर्यादारहित, स्वच्छंदपणे) प्रवर्तवुं योग्य नथी कह्युं.
अहाहा...! शुं कहे छे? के आ लोक, मन-वचन-कायानो योग, पर जीवनो घात वगेरे कारणोथी बंध कह्यो नथी पण रागादिकथी ज बंध कह्यो छे. रागादिकथी एटले राग छे ते हुं छुं एवी एकत्वबुद्धिथी बंध कह्यो छे. रागनुं अस्तित्व रागमां
PDF/HTML Page 2522 of 4199
single page version
छे, शुद्ध चैतन्यमां नथी. पण एम न मानतां रागनुं अस्तित्व पोतानुं मान्युं एवा मिथ्यात्वसहित रागादिकथी ज बंध छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-बस करवुं धरवुं (व्रत, तप आदि करवां-धरवां) कांई नहि एटले मझा.
तेने कहीए छीए-शुं करवुं छे भाई? शुं रागने करवो छे? अहा! रागने कोण करे? रागने करवो ए तो मिथ्यात्व छे. अरे प्रभु! राग विनानो अंदर चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मा छे तेमां जवुं ए शुं करवुं नथी? ए ज कर्तव्य छे भाई! पण अरे! एने बिचाराने एनी सूझ पडती नथी अने बहारनुं (रागनुं कर्तापणुं) छोडातुं नथी. शुं थाय? प्रभु! तुं अवळे (मार्गे) छो भाई!
आ तो गणधरो मुनिवरो ने एकावतारी ईन्द्रोनी समक्ष धर्मसभामां देवाधिदेव अरहंत परमेश्वर भगवान जिनेश्वरदेवनी जे वाणी खरी ते आ छे भाई! शुं कह्युं? के भगवाननी वाणीमां आ आव्युं छे के जे कोई प्राणी भगवान आत्मामां स्वभाव- विभावने एकपणे करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. हुं परने मारुं एम अभिप्रायथी स्व-परने एक करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.
अहा! चिदानंदघन अकृत्रिम प्रभु आत्मामां कृत्रिम रागने भेळववो ते मिथ्यात्व छे, संसार छे. एमां तो वीतरागता ने राग बेय मान्यतामां एक थया; पण एम कदीय बनवा योग्य नथी. पछी व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम कयां रह्युं?
अहा! जेने ज्ञान ने रागनी भिन्नता भासी छे ते समकिती कदीय रागने पोतानी चीज माने नहि एणे तो रागथी जुदो त्रणलोकनो नाथ ज्ञानानंदनो दरियो पोतानो आत्मा द्रष्टिमां लीधो छे. तेथी तेने मन-वचन-कायनो योग, इन्द्रियोनो वेपार के चेतन-अचेतननो घात इत्यादि बंधनां कारण थतां नथी.
अज्ञानी जीव पोताना त्रिकाळी स्वभावमां रागनुं एकत्व करे छे. तेथी कोई पण प्राणीने ते बहारमां हणतो नथी तोय ते छकायना जीवनो हिंसक छे. पोतानो, स्वरूपनो घात करे छे ने? तेथी ते हिंसक छे. (जुओ प्रवचनसार गाथा २३६ टीका). भजनमां आवे छे ने के-
अहा! आत्माने (अज्ञानीने) रागनी एकतारूप मिथ्यात्वनो दव लाग्यो छे. त्यां शुं थाय? तेने स्वभावनी हिंसा थाय ज छे, तेने बंध थाय ज छे.
अहीं कहे छे-लोक, मन-वचन-कायनो योग, इन्द्रियोनो वेपार ने चेतन- अचेतननो घात इत्यादि कारणोथी बंध नथी कह्यो, एक रागादिकथी ज बंध कह्यो छे
PDF/HTML Page 2523 of 4199
single page version
तोपण ज्ञानीओने निरर्गल प्रमादसहित प्रवर्तवुं योग्य नथी कह्युं. जीवोनो घात थयो तो थयो-एम प्रमादसहित विषय-कषायमां स्वच्छंदपणे प्रवर्तवुं योग्य नथी कह्युं. केम? तो कहे छे-
‘सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्–आयतनम् एव’ कारण के ते निरर्गल प्रवर्तन खरेखर बंधनुं ज ठेकाणुं छे. रागनी रुचिपूर्वक काम-भोग लेवो ते बंधनुं ज ठेकाणुं छे. अहा! बुद्धिपूर्वक विषय-कषायोमां निरंकुश आचरण ए बंधनुं ज स्थान छे. परघात वगेरेथी मने बंध नथी एवी युक्ति बतावीने स्वच्छंदे आचरण तो मिथ्याद्रष्टिने ज होय छे अने तेने अवश्य बंध थाय छे.
‘ज्ञानिनां अकाम–कृत–कर्म तत् अकारणम् मतम्’ ज्ञानीओने वांछा विना कर्म (कार्य) होय छे ते बंधनुं कारण कह्युं नथी.
शुं कह्युं? के जेने इच्छा नथी, रागनी रुचि नथी एवा धर्मी जीवने निरभिलाष कर्म होय छे ते बंधनुं कारण नथी. जुओ नोआखलीमां (नोआखली पूर्वबंगाळनुं गाम छे) लोकोए काळो केर वर्ताव्यो हतो. मा-दीकराने ने भाई-बहेनने नागा करी भेगा करे एवो जुल्म! ए वखते बेयने थाय के अररर! धरती मार्ग आपे तो अंदर समाई जईए. एमां प्रेम छे जराय! जराय नथी. तेम ज्ञानीने रागमां आववुं झेर जेवुं लागे छे; रागनो भेटो करवो एने झेर समान भासे छे. ते अंदरमां रागनो भेटो (एकपणुं) करतो ज नथी. तेथी तेने रागनी रुचि वगर जे योग आदि क्रिया थाय छे ते बंधनुं कारण कह्युं नथी. ए ज द्रढ करे छे-
केमके ‘जानाति च करोति’–जाणे पण छे अने (कर्मने) करे पण छे ‘द्वयं किमु न विरुध्यते’ ए बन्ने क्रिया शुं विरोधरूप नथी? (करवुं अने जाणवुं निश्चयथी विरोधरूप ज छे.)
जाणे पण छे अर्थात् आनंदने अनुभवे छे अने वळी साथे रागादिने करे छे-एम बे क्रिया एकमां एक साथे केम होय? आत्मा एक साथे बे क्रिया केम करे? न ज करे. जे जाणे छे ते जाणे ज छे, करतो नथी. समजाणुं कांई...? बापा! आ तो वीतरागनो मारग! अंतरनी चीज प्रभु! एमां खाली विद्वता न चाले.
बहारनी क्रिया-ए मन-वचन-कायना योगनी क्रिया, रागनी क्रिया, हणवानी क्रिया वगेरे पोतानी चैतन्यसत्तामां कयां छे? पोतानी सत्तामां राग ज नथी त्यां बीजी योग के हणवा आदिनी क्रिया तेमां कयांथी आवी? अहा! जैन परमेश्वर सर्वज्ञदेवे कहेलो आवो मारग महा अलौकिक भाई!
जेनी एक समयनी पर्यायमां एकी साथे लोकालोक सहित अनंता केवळीओ जणाय ते सर्वज्ञ शुं छे भाई? बापु! जगतमां आवा सर्वज्ञनी सत्ता छे अने एवो
PDF/HTML Page 2524 of 4199
single page version
ज सर्वज्ञस्वभाव दरेक जीवनो छे. अहाहा...! भगवान आत्मा सर्वज्ञ थाय एवो ज एनो स्वभाव छे, अल्पज्ञ रहे ने विपरीतपणे रहे एवो एनो स्वभाव ज नथी .
अहीं कहे छे-करवुं अने जाणवुं निश्चयथी विरोधरूप ज छे. आने मारुं, आने सुखी करुं, आने दुःखी करुं, आने जिवाडुं वगेरे भाव अने वळी हुं ज्ञाता-द्रष्टा छुं-एम बेय भाव एक साथे केम रही शके? ए तो विरुद्ध छे. जाणे ते करे नहि अने करे ते जाणे नहि. ल्यो, आवी वात छे.
‘पहेला काव्यमां लोक आदिने बंधनां कारण न कह्यां त्यां एम न समजवुं के बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिने बंधना कारणोमां सर्वथा ज निषधी छे; बाह्यव्यवहार प्रवृत्ति रागादि परिणामने-बंधना कारणने-निमित्तभूत छे; ते निमित्तपणानो अहीं निषेध न समजवो.’
शुं कह्युं ? के बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति वखते बंध थतो ज नथी एम सर्वथा न मानवुं; केमके बाह्यप्रवृत्ति, रागादि परिणाम जे निश्चय बंधनुं कारण छे तेने निमित्तभूत छे. एटले अज्ञानीने ते व्यवहारथी बंधनुं कारण छे; केमके तेने रागादि हयात छे.
‘ज्ञानीओने अबुद्धिपूर्वक-वांछा विना-प्रवृत्ति थाय छे तेथी बंध कह्यो नथी, तेमने कांई स्वच्छंदे प्रवर्तवानुं कह्युं नथी; कारण के मर्यादारहित (अंकुश विना) प्रवर्तवुं ते तो बंधनुं ज ठेकाणुं छे.’
जुओ, धर्मी पुरुषो अवांछक होय छे. तेमने रागनी रुचि विना जे बाह्य- व्यवहारप्रवृत्ति थाय छे ते बंधनुं कारण थती नथी. तेथी कांई तेमने स्वच्छंदे प्रवर्तवानुं कह्युं नथी शुं कह्युं? गमे तेम खाओ, पीओ ने काम-भोगमां प्रवर्तो-एम निरंकुश प्रवर्तन करवानुं कह्युं नथी. धर्मीने तो जे क्रिया थाय छे तेनो ते जाणनार रहे छे अने तेथी तेने ए क्रियाथी बंध नथी. पण समकितीना नामे कोई गमे तेम स्वच्छंदपणे विषय-कषायमां प्रवर्ते तेने तो ते प्रवर्तन-आचरण बंधनुं ज ठेकाणुं छे, केमके बंधनुं कारण जे रागादि तेना सद्भाव विना निरंकुश प्रवर्तन होतुं नथी.
‘जाणवामां ने करवामां तो परस्पर विरोध छे; ज्ञाता रहेशे तो बंध नहि थाय, कर्ता थशे तो अवश्य बंध थशे.’
परनी क्रिया थाय एनो जाणनार रहेवुं अने ए क्रिया हुं करुं छुं एम तेनो कर्ता थवुं ए बन्ने तद्दन विरुद्ध छे; तेथी एक साथे ज्ञातापणुं ने कर्तापणुं संभवी शकतुं नथी. ज्ञाता रहे ते कर्ता नथी अने कर्ता थाय ते ज्ञाता नथी. त्यां ज्ञाता रहे
PDF/HTML Page 2525 of 4199
single page version
तेने बंध नथी केमके तेने बंधनुं कारण जे रागादिनो सद्भाव तेनो अभाव छे; ज्यारे कर्ता थाय तेने अवश्य बंध थशे केमके तेने रागादिनो सद्भाव छे. अहा! रागादिने परनी क्रियानो हुं करनारो छुं एम मानशे तेने मिथ्यात्व थशे अने तेथी तेने बंध थशे ज. आवी वात छे.
“जे जाणे छे ते करतो नथी अने जे करे छे ते जाणतो नथी; करवुं ते तो कर्मनो राग छे, राग छे ते अज्ञान छे अने अज्ञान छे ते बंधनुं कारण छे.” आवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः-
‘य जानाति सः न करोति’ जे जाणे छे ते करतो नथी ‘तु’ अने ‘यः करोति अयं खलु जानाति न’ जे करे छे ते जाणतो नथी.
शुं कह्युं? के जे कोई आत्मा पोताना शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्माने जाणे छे, अनुभवे छे ते करतो नथी. करतो नथी एटले के पोतामां रागने करतो नथी. ल्यो, रागने करतो नथी तो पछी परनी क्रिया करवानी तो वात ज कयां रही?
त्यारे कोई पंडितो वळी कहे छे के-आत्मा परनुं करे; परनो कर्ता न माने ते दिगंबर नहि.
अरे भाई! आ शुं थयुं छे तने? आ तो महा विपरीतता छे, नरी मूढता छे. अहीं तो महान दिगंबराचार्य एम कहे छे के-जेणे एकला ज्ञान अने आनंदनो समुद्र विज्ञानघन प्रभु आत्माने पर्यायमां भाळ्यो-अनुभव्यो ते रागने-विकल्पने करतो नथी. अहा! जेने तत्त्वद्रष्टि सम्यक् प्रगट थइ ते द्रष्टिनी पर्यायनो कर्ता छे पण रागनो कर्ता नथी.
भगवान आत्मा एकला जाणग-जाणग स्वभावनुं दळ प्रभु नित्य ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावी छे. आवा पोताना स्वरूपनुं भान थइने जेने पर्यायमां निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्म प्रगटयो ए धर्मी जीवने, हजु पूरण वीतराग थयो नथी त्यां सुधी व्यवहाररत्नत्रयनो शुभ विकल्प होय छे, पण ते ए शुभ विकल्पने पोतानामां करतो नथी, तेने मात्र जाणे छे एम कहे छे. अहा! जे जाणे छे ते करतो नथी. गजब वात प्रभु!
वळी ‘जे करे छे ते जाणतो नथी.’ शुं कह्युं? के हुं दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदिनो करनारो एम जे व्यवहारधर्मना-व्यवहाररत्नत्रयना शुभरागने करे छे ते जाणतो नथी. जाणतो नथी एटले शुं? के जे रागने पोतामां करे छे ते अज्ञानी जीव पोतानो एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी आत्मा छे तेने जाणतो नथी. अहा! करे छे ते जाणतो नथी. रागने करे छे ते रागरहित शुद्ध आत्माने जाणतो नथी. अहा! आ तो जैनदर्शननुं परम अद्भुत रहस्य छे.
PDF/HTML Page 2526 of 4199
single page version
हवे विशेष कहे छे-‘तत् किल कर्मरागः’ जे करवुं ते तो खरेखर कर्मराग छे, ‘तु’ अने ‘रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः’ रागने (मुनिओए) अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे.
कोई लोको राड पाडे छे के-आ तो कांई करवुं नहि एम कहे छे. पण आत्मा तो कर्मने करे छे ने कर्मने भोगवे छे.
भगवान! तुं शुं कहे छे आ? प्रभु! तुं शुद्ध चैतन्यमय ज्ञानानंदस्वभावनो दरियो छे तेनी तने खबर नथी. अहा! जेने पोताना ज्ञानानंदस्वभावनुं अंतरमां अंतद्रष्टि थइने भान थयुं छे ते शुं करे? ते ज्ञान करे के राग करे? तेने रागनुं करवुं तो छे नहि, पण ते ज्ञान करे ए पण व्यवहार छे. द्रव्य पर्यायने करे एवो द्रव्य-पर्यायनो भेद पाडवो ते व्यवहार छे.
ज्ञानीने राग थाय खरो पण ते रागनो जाणनारमात्र रहे छे. आ अंतरनी (शुद्ध समकितनी) बलिहारी छे प्रभु! ज्यारे अज्ञानीनी द्रष्टि राग उपर छे. तेने करवुं, करवुं- एवो कर्मराग छे ने? ते रागने पोतानुं कर्तव्य माने छे तेथी रागथी भिन्न पडतो नथी ने अंदर ज्ञाता-द्रष्टास्वभावथी भरेला पोताना भगवानने जाणतो नथी, ओळखतो नथी.
अहा! गणधरो ने इन्द्रोनी सभामां भगवान सर्वज्ञदेवे जे धर्म कह्यो ते धर्मनी आ वात छे. तेमां आजे कोई लोकोने-पंडितोने मोटो फेरफार करी नाखवो छे. पण बापु! एमां फेरफार न थाय. (तारे फरवुं पडशे). धर्म तो त्रिकाळ धर्मरूप ज रहेशे. अहा! धर्म एटले त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभावी चिदानंदघन प्रभु आत्माना आश्रये निर्मळ वीतरागी दशा-निर्मळ रत्नत्रयनी दशा-प्रगट करवी ए एनुं कर्तव्य छे; पण राग करवो-दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनो राग करवो ए कांई कर्तव्य नथी. ए होय छे ए जुदी वात छे पण ए कांई कर्तव्य नथी. (बलके हेय ज छे).
त्यारे वळी लोको कहे छे-ते व्यवहारने हेय कहे छे ने वळी ते व्यवहारने करे तो छे.
भाई! ‘करे छे’-कोने कहेवुं? जेने कर्मराग छे ते करे छे; बाकी क्षणिक कृत्रिम राग ने त्रिकाळी सहज अकृत्रिम चैतन्यना उपयोगमय प्रभु आत्मा-ए बंनेनुं जेने भेदज्ञान वर्ते छे, स्वभाव-विभावथी जेने स्वने परपणे वहेंचणी थइ गइ छे ते रागने-व्यवहारने करतो ज नथी. ल्यो, आवुं झीणुं बहु; पण आ एक ज सत्य अने लाभदायक छे.
जेम सकरकंद मीठाशनो कंद छे, तेम भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो कंद छे, एनामां विकारने करे, दया, दान आदि विकल्पने उत्पन्न करे एवो कोई गुण नथी. अहा! आवो आत्मा के जे भगवान
PDF/HTML Page 2527 of 4199
single page version
सर्वज्ञदेवे जाण्यो, अनुभव्यो ने कह्यो तेनी जेने अंतद्रष्टि थइ ते धर्मी जीव धर्मपरिणतिने-वीतरागपरिणतिने करे पण रागादिपरिणतिने न करे; ते परद्रव्यनी परिणतिने करे ए तो प्रश्न ज नथी.
आमांथी कोई एम अर्थ काढे के कर्म आत्मामां छे ने कर्मने लइने जीवने विकार थाय छे तो एम नथी. भाई! जे विकार थाय छे ते पोतानी पर्यायमां पोताना ज अपराधथी थाय छे. कर्म निमित्त हो, पण विकार पोतानो ज अपराध छे, धर्मीनी द्रष्टि विकार उपर नथी पण शुद्ध चैतन्यस्वभाव उपर छे. तेथी ते विकारनो कर्ता नथी एम वात छे. वीतरागनो मारग बहु झीणो बापा! दुनिया साथे मेळ खाय नहि ने विरोध ऊभो थाय. पण शुं थाय?
भाई! तुं आत्मा छो ने! शुद्ध चैतन्यघन प्रभु तुं आनंदनुं धाम छो ने! भाई! तुं एमां जा ने, एमां ज स्थिति करीने रहे ने. तेथी तने निराकुल आनंद थशे अने करवानो बोजो रहेशे नहि.
करवुं ते तो कर्मराग छे. कर्मराग एटले रागादि क्रिया करवानी रुचि. शुं कह्युं? के रागादि क्रियानी रुचि-प्रेम ते कर्मराग छे. ते कर्मरागने भगवान गणधरदेवोए, मुनिवरोए अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे. रागनी रुचि वा उपयोगमां रागनुं एकत्व करवुं ते अज्ञानमय अध्यवसाय छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा चिदानंदघनप्रभु एक जाणग-जाणग-जाणग स्वभावमय छे; अने राग छे ते अज्ञानमय छे केमके तेमां ज्ञाननो अंश नथी. माटे कर्मरागने अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे. रागना कर्तापणानो अध्यवसाय अज्ञानमय अध्यवसाय छे अने ते ज मिथ्यादर्शनरूप महापाप ने महा अहित छे.
अरे! अनंतकाळमां एणे सत्य शुं छे ए जाणवानी दरकार न करी अने बहारना बधा भपकामां-चमकदमकमां मुंझाय गयो! ए भपका तो एककोर रह्या; अहीं कहे छे- भगवान! अंदरमां जे राग थाय तेनो तुं कर्ता थाय ए तारुं महा अहित छे; महा अहित छे एटले के एना गर्भमां अनंता जन्म-मरणनां दुःख पडेलां छे. समजाणुं कां...?
अहाहा...! पोते एक ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे. आठ वर्षनी बालिका होय पण पोताना सहज परमात्मस्वरूपनी द्रष्टि थइने सम्यग्दर्शन पामे त्यारे, राग तो हजु छे ने तेथी लग्न करे तोय, तेने कर्मराग नथी; ए रागमां एकत्वबुद्धि नथी. जुओ, त्रण ज्ञानना स्वामी श्री शान्तिनाथ, श्री कुंथुनाथ अने श्री अरनाथ त्रणेय तीर्थंकर हता, चक्रवर्ती हता अने कामदेव पुरुष हता. शुं तेमना शरीरनुं सौंदर्य! अहो! छ खंडमां कयांय जोेवा न मळे तेवुं तेमनुं अद्भुत रूप हतुं. एमने छन्नु
PDF/HTML Page 2528 of 4199
single page version
हजारो स्त्रीओ अने छन्नु करोडनुं पायदळ आदि महावैभव हतो. अहा! पण ए सघळी चीजोमां मुंझायेला न हता. एना प्रति जे राग थतो हतो तेना पण ते कर्ता नहोता, मात्र एना ज्ञाता-द्रष्टा रहीने जाणता-देखता हता. अहो! जेमने कर्मराग नहोतो एवा ते धर्मात्मा हता.
अत्यारे तो प्ररूपणा ज आवी छे के-परनी दया पाळो तो धर्म थशे.
अरे भगवान! परनी दया तुं पाळी शकतो नथी, तथापि परनी दया पाळवानो जो तने कर्मराग छे, परनी दयाना भावमां जो तने लाभबुद्धि वा एकत्व छे तो तुं मिथ्याद्रष्टि छो. अहा! धर्मी पुरुष तो पोताने जे शुद्ध निर्मळ परिणति थाय एने जाणे छे अने साथे जे अशुद्ध रागांश होय तेने पण मात्र जाणे ज छे; जे रागांश थयो एने करे नहि, एने अडेय नहि, अडया विना ज्ञातापणे मात्र तेने जाणेे ज छे. आवी अद्भुत वात छे! अहो! आ कळश महा अलौकिक छे.
वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर जेने एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोक जणाया छे ते भगवान केवळीनी वाणीमां आ आव्युं छे. ‘भगवाननी वाणी’-एम कहेवुं ए व्यवहार छे; निमित्तनी मुख्यताथी कहेवाय के ‘भगवाननी वाणी’; बाकी वाणी वाणीनी छे; वाणी तो जड छे; वाणीनो कर्ता जीव नथी. स्वपरने जाणवानो स्वभाव जीवनो छे, पण परनुं-वाणीनुं कर्तापणुं जीवने नथी. छतां कोई वाणीनो कर्ता पोताने माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं बीजी विशेष वात छे. शुं? के वाणी इत्यादि परनी क्रिया थवामां जे इच्छा-राग उठे छे ते रागमां एकत्वबुद्धि होवी ते मिथ्यात्व छे. शुं कह्युं? हुं राग करुं एवो कर्मराग मिथ्या अध्यवसाय छे अने ते अवश्य मिथ्याद्रष्टिने ज होय छे. अहा! आवो मारग! अत्यारे तो बधुं लोप थइ गयुं छे. अहीं कहे छे-भगवान! एक वार सांभळ. तारा चैतन्यनी प्रभुतानुं जो तने भान थाय तो पामर एवा रागनुं तने कर्तृत्व न रहे, अने जो तने कर्मराग छे, रागनुं कर्तृत्व छे तो भगवान आत्मानुं भान नहि थाय, आनंदनी प्राप्ति नहि थाय. आ भगवान सर्वज्ञनुं कहेलुं सिद्धांततत्त्व छे.
अहाहा...! कहे छे-रागने अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे. जुओ, ‘अज्ञानमय अध्यवसाय’-एम पाठ छे के नहि? छे ने. अहीं राग एेेटले रागनी एकत्वबुद्धि लेवी छे. राग ते हुं छुं, रागथी मने लाभ छे-एवो जे अध्यवसाय ते रागनी एकत्वबुद्धि छे. ते नियमथी मिथ्याद्रष्टिने होय छे. अर्थात् अज्ञानमय अध्यवसाय जेने छे ते नियमथी मिथ्याद्रष्टि छे, केमके एनी एवी मिथ्या मान्यता छे के-बीजानी दया पाळी शकाय, बीजाने मारी शकाय, पैसा आदि धूळ कमाइने मेळवी शकाय ने बीजाने दइ शकाय इत्यादि.
PDF/HTML Page 2529 of 4199
single page version
अरे! अनादिकाळथी मिथ्यात्वने पडखे चढेलो ते दुःखी छे. ए मोटो तवंगर शेठ थयो, मोटो राजा थयो, मोटो देव थयो पण एमां बधेय ए मिथ्यात्वने लईने दुःखी ज दुःखी रह्यो छे. भाई! आ बधा करोडपति शेठिया मिथ्यात्वने लईने दुःखी ज छे. पण हुं ज्ञानानंदस्वरूपी चैतन्य महाप्रभु छुं एम ज्यारे भान थाय त्यारे ते निराकुळ आनंद अनुभवे छे. केमके त्यारे एने राग जे दुःख छे तेनी साथे एकत्वबुद्धि नथी. भाई! आ तो न्यायथी-लोजीकथी समजे तो समजाय एवुं छे. अहा! पोते हुं ज्ञानानंदस्वभावी छुं एम ज्यां सम्यग्दर्शनमां भान थयुं त्यां पछी स्वभावथी विपरीत विभावमां तेने एकत्व केम रहे? विभाव मारुं कर्तव्य छे एवी द्रष्टि तेने केम होय? अहा! राग थाय खरो, होय खरो, तोपण ज्ञानी रागमां नथी, ज्ञानमां छे, स्वभावना भानमां छे.
आमांय लोकोनी मोटी तकरार! शुं? के व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चय प्रगट थाय. अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे भाई? व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे ए शुद्ध चैतन्यस्वभावथी-वीतरागस्वभावथी विरुद्ध भाव छे. तो विरुद्ध एवा रागनो कर्ता थाय एने अकर्तापणुं (-वीतरागता) कई रीते प्रगट थाय? कोई रीते न थाय. अहीं तो रागना कर्तृत्वने मिथ्या अध्यवसाय कही ते नियमथी मिथ्याद्रष्टिओने होय छे एम कह्युं छे. समजाणुं कांई....?
अहा! ज्ञानीने कर्मराग नथी, अज्ञानमय अध्यवसाय नथी. तेथी ज्ञानी कदाचित् लडाईमां ऊभो होय तोपण तेने राग (-रागनी रुचि) विद्यमान नथी तेथी तेने बंध नथी; ज्यारे अज्ञानी मुनि थयो होय, छकायनी हिंसा बहारमां करतो-करावतो न होय तोपण अंदरमां व्यवहारना राग साथे एकत्व होवाथी तेने राग (-रागनी रुचि) विद्यमान छे तेथी तेने अवश्य बंध थाय छे. ल्यो, ए ज कह्युं छे के-
‘च’ अने ‘सः बन्धहेतुः’ ते बंधनुं कारण छे. अहा? कर्मराग के जे अज्ञानमय अध्यवसाय छे ते बंधनुं कारण छे. हवे आवुं सांभळवुंय कठण पडे तेने ते समजवुं तो क्यांय दूर रही गयुं. शुं थाय? बिचारो अज्ञानअंधकारमां अटवाई जाय!
PDF/HTML Page 2530 of 4199
single page version
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २४७।।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २४७।।
हवे मिथ्याद्रष्टिना आशयने गाथामां स्पष्ट रीते कहे छेः-
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २४७.
गाथार्थः– [यः] जे [मन्यते] एम माने छे के [हिनस्मि च] ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं (-हणुं छुं) [परैः सत्त्वैः हिंस्ये च] अने पर जीवो मने मारे छे’, [सः] ते [मूढः] मूढ (-मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत (अर्थात् आवुं नथी मानतो) ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.
टीकाः– ‘पर जीवो ने हुं हणुं छुं अने पर जीवो मने हणे छे’-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (-निश्चितपणे, नियमथी) अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
भावार्थः– ‘पर जीवोने हुं मारुं छुं अने पर मने मारे छे’ एवो आशय अज्ञान छे तेथी जेने एवो आशय छे ते अज्ञानी छे-मिथ्याद्रष्टि छे अने जेने एवो आशय नथी ते ज्ञानी छे-सम्यग्द्रष्टि छे.
निश्चयनये कर्तानुं स्वरूप ए छे के-पोते स्वाधीनपणे जे भावरूपे परिणमे ते भावनो पोते कर्ता कहेवाय छे. माटे परमार्थे कोई कोईनुं मरण करतुं नथी. जे परथी परनुं मरण माने छे, ते अज्ञानी छे. निमित्तनैमित्तिकभावथी कर्ता कहेवो ते व्यवहारनयनुं वचन छे; तेने यथार्थ रीते (अपेक्षा समजीने) मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.
हवे मिथ्याद्रष्टिना आशयने गाथामां स्पष्ट रीते कहे छेः-
“पर जीवोने हुं हणुं छुं अने पर जीवो मने हणे छे”-एवो अध्यवसाय
PDF/HTML Page 2531 of 4199
single page version
ध्रुवपणे (-निश्चितपणे, नियमथी) अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे.
शुं कीधुं? के पर जीवोने एटले के एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना बधा जीवो जे शरीर सहित छे तेमने हुं हणुं छुं-हणी शकुं छुं एम जे माने छे ते नियमथी मूढ अज्ञानी छे. बीजा जीवोने हणवुं एटले शुं? एनी व्याख्या एम छे के एने दश प्राण छे एनाथी हुं एनो जुदो करी शकुं छुं. पांच ईन्द्रिय, मन-वचन-काय, आयु ने श्वास वगेरेथी एना आत्माने जुदो करी शकुं छुं. भाई! हुं ईन्द्रियो कापी शकुं, आंखने फोडी शकुं ईत्यादि जे मान्यता छे ते नियमथी अज्ञान छे, मूढता छे.
प्राणो जड छे ने आत्मा चेतन छे. बन्ने जुदी जुदी चीज छे. कोई कोईने अडेय नहि तो पछी आत्मा जड प्राणोने जुदो केम करी शके? त्रणकाळमां न करी शके. बापु! आ वीतरागनो मार्ग दुनियाथी साव जुदो छे. एटले तो केटलाक कहे छे के आ सोनगढथी नवो काढयो छे. पण भाई! आ तो सनातन मार्ग छे, तेने अहीं आचार्य कुंदकुंदे प्रगट कर्यो छे अने ते अहीं कहेवाय छे. समजाणुं कांई...?
‘हुं परने हणुं ने परजीवो मने हणे’-एमां तो हुं ने पर-बन्ने भिन्न भिन्न द्रव्य छे. भाई! एक द्रव्यने अन्य द्रव्यनी क्रिया करतुं माने छे ए तो मूढ अज्ञानी छे. केम? केमके ए परनी क्रिया क्यां करी शके छे? परनुं जे अस्तित्व हयाती छे ते तो एने- पोताने लईने छे, कांई आने लईने नथी. अहो! आ त्रणलोकना नाथनो स्वतंत्रतानो ढंढेरो छे के-सर्व द्रव्यो स्वतंत्र छे, कोई कोईने लईने छे, वा कोई द्रव्य अन्यद्रव्यनी क्रिया करे छे एम छे ज नहि.
पण निमित्त तो छे ने?
उत्तरः– निमित्त छे एनो अर्थ शुं? एटलो ज के कार्यकाळे बीजी चीजनी हयाती- मोजुदगी छे, पण आमां-उपादानमां ते कांई करे छे एम छे नहि.
आगळनी गाथाओमां पण आवी गयुं के-रागनी एकताबुद्धि बंधनुं कारण छे पण मन-वचन-कायनी क्रिया के चेतन-अचेतननो घात आदि बहारनी क्रिया बंधनुं कारण नथी. मतलब के ते परनी क्रिया करी शकतो ज नथी. अहीं पण कहे छे के-हुं परने हणुं छुं के पर मने हणे छे एवो जे अध्यवसाय नाम मिथ्या मान्यता छे ते ध्रुवपणे एटले नियमथी चोक्कसपणे अज्ञान छे. हवे जैनमां जन्मेलाने पण खबर नथी के जैन- परमेश्वर शुं कहे छे? आ तो हणवानुं कीधुं छे, आगळ जिवाडवानुं पण कहेशे.
PDF/HTML Page 2532 of 4199
single page version
एकेन्द्रिय जे शाकभाजी-भींडा, तुरियां, दूधी ईत्यादिने हुं छरी वडे कापी शकुं छुं ने आंगळीथी चूंटी शकुं छुं-एम परनी क्रिया करी शकुं छुं एम माननारो मिथ्याद्रष्टि छे; केमके आत्मा शरीरादि परथी जुदो होवाथी ते आंगळी हलावी शके नहि ने आंगळीथी छरी वडे कापी शके नहि. बापु! आ तो जगत समक्ष वीतराग परमेश्वरनो पोकार छे. भाई! शुं तुं परनी क्रिया करी शके छे? परनी सत्तामां शुं तारो प्रवेश छे के तुं एने हणी शके? पर जीवनी सत्तामां के जड परमाणुमां तारो प्रवेश ज नथी, पछी तुं परने केम हणी शके? वळी तारी सत्तामां पर जीवनो के परमाणुनो प्रवेेश ज नथी; पछी पर जीवो तने केम हणी शके?
त्यारे केटलाकने एम थाय के-जो आम छे तो बधा एक बीजाने निरंकुश थई मारशे.
अरे भाई! कोई कोई अन्यने मारी शकतो ज नथी त्यां पछी प्रश्न शुं छे? भाई! आ तो ‘जिणपण्णत्तो धम्माे’-भगवान जिनेश्वरदेवे कहेलो धर्म महा अलौकिक! जे समजशे ते स्वरूपमां रहेशे, बाकी अज्ञानीनी शुं कथा? (ते तो रखडशे).
भाई! कोई कोई परने मारी शकतो नथी ए सिद्धांत छे. मारवाना भाव होय, पण एथी ते सामा जीवने मारी शके छे कांई? बीलकुल नहि हों.
तो जुओ, राजाना हुकमथी पंडित श्री टोडरमलजीने हाथीने पगे मसळी नाख्या के नहि?
बापु! ए तो क्रिया जे काळे थवानी हती ते थई छे, एनो बीजो कोई (हाथी के राजा) करनारो नथी. (निमित्तथी कहेवाय ए वात बीजी छे). अहा! केवो ए धर्मनी द्रढतानो प्रसंग! मने कोई हणतुं नथी एवी श्रद्धानी समतानो ए महा अलौकिक प्रसंग हतो. अहा! पोते विषमता रहित भगवान ज्ञानस्वभावमां रही गया अने देह छूटी गयो.
बीजे, आत्मा अजर-अमर छे; माटे तुं मार, तने वांधो नथी-एम जे उपदेश छे ए तो तत्त्वथी तद्दन विपरीत वात छे. अहीं तो मारवानो जे अभिप्राय छे के हुं परने हणुं ने पर मने हणे ते मिथ्यात्व छे एम कहे छे, केमके कोई कोईने मारी शकतुं ज नथी. मिथ्यात्व एटले शुं? मिथ्यात्व एटले जे अनंत संसारनुं कारण छे एवुं महापाप. जे थई शके नहि ते थई शके छे एम अनंत-अनंत पदार्थ संबंधी मानवुं-एवी मिथ्याश्रद्धामां अनंत-अनंत रस-अनुभाग छे अने एना फळमां अनंत संसार छे.
हवे कहे छे-‘अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.’ अहा! ज्ञानीने, बीजो मारवा आवे ते काळे, मने ए मारी शकतो नथी एवा
PDF/HTML Page 2533 of 4199
single page version
अभिप्रायनी द्रढता होय छे तेथी समताभाव प्रगट थाय छे श्रीमद्ना ‘अपूर्व अवसर’मां आवे छे ने केः-
‘एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां, वळी पर्वतमां वाघ-सिंह संयोग जो; अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता, परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो.’ - अपूर्व
अहा! वाघ-सिंह खावा आवे तो जाणे मित्रनो योग थयो एम समजे; मतलब के ज्ञानीने ते काळे चित्तमां द्वेष के क्षोभ न उपजे. केम? केमके शरीर मारुं नथी, मारुं राख्युं रह्युं नथी अने ए लेवा आव्यो छे ते भले लई जाय, एमां मने शुं छे? आवी सम्यग्दर्शनमां समता होय छे. हुं परने हणुं ने पर मने हणे एवो अध्यवसाय जेने नथी तेने असाधारण समता होय छे. तेथी तो कह्युं के ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे. आवी वात छे!
‘पर जीवोने हुं मारुं छुं अने पर मने मारे छे’- एवो आशय अज्ञान छे तेथी जेने एवो आशय छे ते अज्ञानी छे-मिथ्याद्रष्टि छे अने जेने एवो आशय नथी ते ज्ञानी छे-सम्यग्द्रष्टि छे.
अहा! प्रत्येक सत्ता अभेद्य छे. कोईनी सत्तामां कोई अन्यनो प्रवेश ज नथी तो पछी कोई कोईने मारे ए वात ज क्यां रहे छे? माटे पर जीवोने हुं हणुं छुं अने पर मने हणे छे एवो आशय नाम अभिप्राय-रुचि अज्ञान छे. तेथी जेने एवो अभिप्राय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे अने जेने एवो आशय नथी ते ज्ञानी-सम्यग्द्रष्टि छे.
‘निश्चयनये कर्तानुं स्वरूप ए छे के-पोते स्वाधीनपणे जे भावरूपे परिणमे ते भावनो पोते कर्ता कहेवाय छे. माटे परमार्थे कोई कोईनुं मरण करतुं नथी. जे परथी परनुं मरण माने छे, ते अज्ञानी छे.’
दश प्राणोनो वियोग थवो एनुं नाम मरण छे. हवे ज्यां प्राण ज एनां नथी त्यां हुं एना प्राणने हणुं ए क्यां रह्युं? ज्यां प्राण ज मारा नथी त्यां मारा प्राणने बीजा हणे ए वात ज क्यां रही? भाई! कोई कोईनुं मरण करे ए वस्तुस्थिति ज नथी.
‘निमित्तनैमित्तिकभावथी कर्ता कहेवो ते व्यवहारनयनुं वचन छे; तेने यथार्थ रीते मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.’ व्यवहारथी कहेवाय के आणे आने मार्यो, आणे आने बचाव्यो. ए तो मरण-जीवनना काळे बहारमां बीजा कोनो भाव निमित्त हतो तेनुं ज्ञान कराववा माटे कथन छे; बाकी कोई कोईने मारे के बचावे छे ए वस्तुस्वरूप नथी. आम व्यवहारना वचनने अपेक्षा समजी यथार्थ मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. समजाणुं कांई....?
PDF/HTML Page 2534 of 4199
single page version
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्–
आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं।। २४८।।
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं।। २४९।।
आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम्।। २४८।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्।
आयुर्न हरन्ति तव कथं ते मरणं कृतं तैः।। २४९।।
हवे पूछे छे के आ अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेना उत्तररूपे गाथा कहे छेः-
तुं आयु तो हरतो नथी, तें मरण कयम तेनुं कर्युं? २४८.
छे आयुक्षयथी मरण जीवनुं एम जिनदेवे कह्युं,
ते आयु तुज हरता नथी, तो मरण कयम तारुं कर्युं? २४९.
गाथार्थः– (हे भाई! ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं’ एम जे तुं माने छे, ते तारुं अज्ञान छे.) [जीवानां] जीवोनुं [मरणं] मरण [आयुःक्षयेण] आयुकर्मना क्षयथी थाय छे एम [जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कह्युं छे; [त्वं] तुं [आयुः] पर जीवोनुं आयुकर्म तो [न हरसि] हरतो नथी, [त्वया] तो ते [तेषाम् मरणं] तेमनुं मरण [कथं] कई रीते [कृतं] कर्युं?
(हे भाई! ‘पर जीवो मने मारे छे’ एम जे तुं माने छे, ते तारुं अज्ञान छे.) [जीवानां] जीवोनुं [मरणं] मरण [आयुःक्षयेण] आयुकर्मना क्षयथी थाय छे एम [जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कह्युं छे; पर जीवो [तव आयुः] तारुं आयुकर्म तो [न हरन्ति] हरता नथी, [तैः] तो तेमणे [ते मरणं] तारुं मरण [कथं] कई रीते [कृतं] कर्युं?
टीकाः– प्रथम तो, जीवोने मरण खरेखर स्व-आयुकर्मना (पोताना आयुकर्मना) क्षयथी ज थाय छे, कारण के स्व-आयुकर्मना क्षयना अभावमां (अर्थात् पोताना
PDF/HTML Page 2535 of 4199
single page version
आयुकर्मनो क्षय न होय तो) मरण करावुं (-थवुं) अशक्य छे; वळी स्व-आयुकर्म बीजाथी बीजानुं हरी शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं आयुकर्म) पोताना उपभोगथी ज क्षय पामे छे; माटे कोई पण रीते बीजो बीजानुं मरण करी शके नहि. तेथी ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं अने पर जीवो मने मारे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (-निश्चितपणे) अज्ञान छे.
भावार्थः– जीवनी जे मान्यता होय ते मान्यता प्रमाणे जगतमां बनतुं न होय, तो ते मान्यता अज्ञान छे. पोताथी परनुं मरण करी शकातुं नथी अने परथी पोतानुं मरण करी शकातुं नथी, छतां आ प्राणी वृथा एवुं माने छे ते अज्ञान छे. आ कथन निश्चयनयनी प्रधानताथी छे.
व्यवहार आ प्रमाणे छेः- परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावथी पर्यायना उत्पाद-व्यय थाय तेने जन्म-मरण कहेवामां आवे छे; त्यां जेना निमित्तथी मरण (-पर्यायनो व्यय) थाय तेना विषे एम कहेवामां आवे छे के ‘आणे आने मार्यो’, ते व्यवहार छे.
अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनो सर्वथा निषेध छे. जेओ निश्चयने नथी जाणता, तेमनुं अज्ञान मटाडवा अहीं कथन कर्युं छे. ते जाण्या पछी बन्ने नयोने अविरोधपणे जाणी यथायोग्य नयो मानवा.
फरी पूछे छे के “ (मरणनो अध्यवसाय अज्ञान छे एम कह्युं ते जाण्युं; हवे) मरणना अध्यवसायनो प्रतिपक्षी जे जीवननो अध्यवसाय तेनी शी हकीकत छे?” तेनो उत्तर कहे छेः-
हवे पूछे छे के आ अध्यवसान अज्ञान कई रीते छे? तेना उत्तररूपे गाथा कहे छेः-
‘प्रथम तो, जीवोने मरण खरेखर स्वआयुकर्मना (पोताना आयुकर्मना) क्षयथी ज थाय छे...’
कोई बीजो मारे छे-मारी शके छे एम नहि, एनुं आयुष्य पूरुं थयुं एटले मरण थाय छे-देह छूटे छे. जे समये ने क्षेत्रे आयुष्य पूरुं थाय एटले ते समये त्यां देह छूटी जाय छे. समजाणुं कांई...? बापा! आ तो भगवान जिनेश्वरनी वाणी! गाथामां छे ने के-‘जिणवरेहिं पण्णत्तं’–भगवान जिनेश्वर आम कहे छे.
PDF/HTML Page 2536 of 4199
single page version
त्यारे कोई वळी कहे छे-ल्यो, जिनवर भाषा करी शके छे के नहि? जुओ, गाथामां-‘जिणवरेहिं पण्णत्तं’ एम छे के नहि?
अरे भाई! ए तो वाणीना काळे वाणीनुं बाह्य निमित्त कोण हतुं एनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे; बाकी वाणीरूपे तो भाषावर्गणाना पुद्गलोना स्कंध परिणम्या छे, भगवान जिनेश्वर नहि.
जयपुरमां खाणिया-चर्चामां आ प्रश्न थयो हतो के कुंदकुंदाचार्य पहेली गाथामां ‘वोच्छामि’-‘हुं कहुं छुं’ एम लख्युं छे ने तमे कहो छो आत्मा कही शके नहि-आ केवी वात?
बापु! आवी आडोडाई न शोभे भाई! ‘वोच्छामि’ कह्युं ए तो व्यवहारनयनुं वचन छे. भाषावर्गणाना परमाणुओनी शब्दरूपे परिणमवानी जे काळे जेम योग्यता होय ते काळे तेओ भाषारूपे तेम परिणमी जाय छे, बीजो जीव तो तेमां निमित्तमात्र छे. बाकी बीजो शुं करे? भाई! तुं नयविभाग जाणतो नथी तेथी बधा गोटा उठे छे.
अहीं कहे छे-जीवोने मरण स्व-आयुकर्मना क्षयथी ज थाय छे; कोई बीजो मरण करे छे एम नहि.
हवे आमांय लोको तर्क करे छे के-कर्मनो क्षय थाय छे त्यारे देह छूटे छे ने? जीव आयुकर्म होय त्यांसुधी ज देहमां रहे छे ने?
ए तो भाई! ज्यारे देह छूटवानो काळ होय त्यारे छूटी जाय छे अने ज्यां सुधी देहमां रहेवानो काळ होय त्यांसुधी देहमां रहे छे. जीवनी कोई एवी ज योग्यता छे ने आयुकर्मनो क्षय ने उदय ते ते काळे निमित्त होय छे. भाई! आयुकर्म तो जड भिन्न छे, ने जीव भिन्न छे. तो जडकर्म जीवने शुं करे? कांई नहि. अहीं तो जीवना मरण काळे आयुकर्मनो क्षय नियमथी निमित्त छे एम बताववुं छे. ‘खरेखर’- एम शब्द छे ने? ‘खरेखर’ शब्दथी आयुकर्मनो क्षय नियमरूप निमित्त छे एम बताववुं छे पण ए निमित्तथी मरण थाय छे एम बताववुं नथी. अहा! कोई पर, परनुं मरण करी शके छे एवी मिथ्या मान्यतानो निषेध करवा मरणकाळमां नियमरूप निमित्त जे आयुकर्मनो क्षय ते निमित्तनी मुख्यताथी गाथामां वात करी छे. समजाणुं कांई....?
शुं कहे छे? ‘प्रथम तो, जीवोने मरण खरेखर स्वआयुकर्मना क्षयथी ज थाय छे, कारणके स्व-आयुकर्मना क्षयना अभावमां मरण करावुं (-थवुं) अशक्य छे.’ पोताना आयुकर्मनो क्षय न होय तो मरण करावुं अशक्य छे. अर्थात् कोई बीजा कोईने मारी शके ज नहि आ सिद्धांत छे. आ छोकराओ कोई वेळा रमता
PDF/HTML Page 2537 of 4199
single page version
नथी? त्यारे चकलीनुं बच्चुं माळामांथी पडी गयुं होय त्यां उपर सुंडलो (टोपलो) ढांकी राखे. पोते माळामां ऊंचे पहोंची शके नहि एटले कोई आवशे तो ऊंचे माळामां मूकी देशे एम बचाववानो छोकराओनो भाव होय. पण ए भाव शुं करे? एनुं आयुष्य पूरुं थवानो काळ होय तो त्यां मींदडी आवीने सुंडलो ऊंचो करीने मारी नाखे; अने एनुं आयुष्य होय तो तेना जीवनने अनुकूळ बाह्य निमित्त त्यां मळी आवे. बाकी कोई कोईने मारे के जिवाडे ए वात ज सत्य नथी. कोण मारे? ने कोण जिवाडे? हवे कहे छे-
‘वळी स्व-आयुकर्म बीजाथी बीजानुं हरी शकातुं नथी, कारण के ते पोताना उपभोगथी ज क्षय पामे छे; माटे कोई पण रीते बीजो बीजानुं मरण करी शके नहि.’
शुं कीधुं? पोतानुं आयुकर्म कोई बीजो हरी शकतो नथी कारण के ते पोताना उपभोगथी ज क्षय पामे छे. पोते पोताने कारणे त्यां रहेवानो जेटलो काळ हतो तेटलो ज काळ आयुष्यने भोगवे छे. अहीं जड आयुकर्मने भोगवे छे एम वात नथी; पण पोतानी त्यां रहेवानी-भोगववानी योग्यता ज एटला काळनी हती, आयुकर्म तो एमां निमित्त छे. शुं थाय? नयकथन न समजे एटले लोकोने वाते वाते वांधा उठे छे!
भाई! आ तो त्रणलोकना नाथनी वाणी, बापा! जेने सो इन्द्रो-असंख्य देवताना स्वामी इन्द्रो-धर्मसभामां गलुडियांनी जेम नम्र थईने सांभळे छे. बापु! ए वाणी केवी होय! अहाहा....! ज्यां मोटा सेंकडो वाघ ने सिंह जंगलमांथी आवी ने समोसरणमां अति शांतिथी बेसीने सांभळे ते वाणीनुं शुं कहेवुं? शुं न्याय अने शुं मारग!! भाई! ए कांई वादविवादे समजाय एवुं नथी हों.
हवे कहे छे-‘तेथी हुं पर जीवोने मारुं छुं अने पर जीवो मने मारे छे-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (-निश्चितपणे) अज्ञान छे.’ ल्यो, ए (-जीव) परनुं मरण करी शकतो नथी ने माने छे के करी शकुं छुं तेथी ए तेनुं नियमथी अज्ञान छे. ए अज्ञान दीर्घ संसारनुं कारण छे.
‘जीवनी जे मान्यता होय ते मान्यता प्रमाणे जगतमां बनतुं न होय, तो ते मान्यता अज्ञान छे. पोताथी परनुं मरण करी शकातुं नथी अने परथी पोतानुं मरण करी शकातुं नथी, छतां आ प्राणी वृथा एवुं माने छे ते अज्ञान छे. आ कथन निश्चयनयनी प्रधानताथी छे.’
‘व्यवहार आ प्रमाणे छेः- परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावथी पर्यायना उत्पाद-व्यय थाय तेने जन्म-मरण कहेवामां आवे छे; त्यां जेना निमित्तथी मरण (-पर्यायनो
PDF/HTML Page 2538 of 4199
single page version
व्यय) थाय तेना विषे एम कहेवामां आवे छे के-आणे आने मार्यो, ते व्यवहार छे.’ भाई! त्यां निमित्त कोण हतुं तेनुं ज्ञान कराववा ए व्यवहारथी कथन छे.
‘अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनो सर्वथा निषेध छे. जेओ निश्चयने नथी जाणता, तेमनुं अज्ञान मटाडवा अहीं कथन कर्युं छे.’
शुं कीधुं? परस्पर निमित्तथी क्रिया थाय छे त्यां कहेवाय छे के आणे आने मार्यो. आवो निमित्तनैमित्तिक संबंध छे. व्यवहार व्यवहारनी रीते बराबर छे, पण निश्चये एम नथी. जेओ निश्चयने-सत्यार्थने नथी जाणता ते तेमनुं अज्ञान छे. आ अज्ञानने मटाडवा अहीं निश्चयप्रधान कथन कर्युं छे. पोताथी परनुं मरण करी शकातुं नथी अने परथी पोतानुं मरण करी शकातुं नथी ए निश्चय छे, सत्यार्थ छे. हवे कहे छे-
‘ते जाण्या पछी बन्ने नयोने अविरोधपणे जाणी यथायोग्य मानवा.’
खरेखर तो परद्रव्यनी क्रिया-परने मारवानी क्रिया-आत्माना अधिकारनी वात नथी, तेवी रीते पर मने मारे-मारी शके एवो अधिकार परने पण नथी. आ वस्तुस्थिति छे. तथापि द्रव्योमां परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावथी क्रिया बने छे त्यां निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान कराववुं होय त्यारे आ निमित्तथी थयुं एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. आ प्रमाणे बन्ने नयोने अविरोधपणे जाणी यथार्थ मानवुं एम कहे छे. जीवनुं मरण नाम प्राणोनो वियोग तो एना काळे थवायोग्य सहज थयो छे त्यां पर पदार्थ निमित्तमात्र छे एम यथार्थ मानवुं. (पर पदार्थे मरण नीपजाव्युं छे एम न मानवुं)
ज्ञानी-सम्यग्द्रष्टि पण ज्यारे स्वरूपमां लीन त्रिगुप्ति-गुप्त समाधिस्थित होय त्यारे एने ‘परने मारुं’ एवो अभिप्राय तो दूर रहो, एवो विकल्पेय नथी. पण ज्यारे आनंदनी समाधिमांथी बहार प्रमाद दशामां आवे त्यारे कदाच विकल्प आवे के-‘आने मारुं,’ तोपण ते काळे मान्यता तो एम ज छे के हुं आने मारी शकतो नथी; जो ते मरे छे तो एनुं आयु पूरुं थवाथी मरे छे, हुं तो तेमां निमित्तमात्र छुं. जुओ, निमित्तमात्र जुदुं ने निमित्तकर्ता जुदुं हों. ज्ञानीने कर्तापणानो अभिप्राय नहि होवाथी परनी क्रियामां ते निमित्तमात्र छे अने अज्ञानीने, हुं करुं छुं एम कर्तापणानो अभिप्राय होवाथी ते निमित्तकर्ता कहेवाय छे. हुं कर्ता छुं एम अज्ञानी माने छे ने! तेथी ते निमित्तकर्ता छे.
ज्ञानी तो यथार्थ एम माने छे के- आ मारुं कार्य नथी, आ में कर्युं नथी. स्वरूपस्थिरता नथी तेथी प्रमादवश परघातनो विकल्प आव्यो छे, पण हुं एने मारी शकुं छुं, वा मारा विकल्पना कारणे ए मरशे एम ते मानतो नथी. ए मरशे तो
PDF/HTML Page 2539 of 4199
single page version
एनुं आयुष्य पूरुं थतां मरशे, हुं तो निमित्तमात्र छुं. तेने जे मारवानो विकल्प आव्यो छे ते अस्थिरतानो-चारित्रनो दोष छे, पण मिथ्यात्वनो दोष नथी. ज्यारे अज्ञानी तो एथी विपरीत एम माने छे के-आ मारुं कार्य छे, आ में कर्युं छे, हुं ते करी शकुं छुं ने कर्युं छे. आवो विपरीत अभिप्राय छे तेथी ते निमित्तकर्ता कहेवाय छे.
PDF/HTML Page 2540 of 4199
single page version
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २५०।।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २५०।।
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २प०.
गाथार्थः– [यः] जे जीव [मन्यते] एम माने छे के [जीवयामि] हुं पर जीवोने जिवाडुं छुं [च] अने [परैः सत्त्वैः] पर जीवो [जीव्ये च] मने जिवाडे छे, [सः] ते [मूढः] मूढ (-मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत (अर्थात् जे आवुं नथी मानतो, आनाथी ऊलटुं माने छे) ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.
टीकाः– ‘पर जीवो ने हुं जिवाडुं छुं अने पर जीवो मने जिवाडे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (-अत्यंत चोक्कस) अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
भावार्थः– ‘पर मने जीवाडे छे अने हुं परने जीवाडुं छुं’ एम मानवुं ते अज्ञान छे. जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते सम्यग्द्रष्टि छे.
फरी पूछे छे के-‘(मरणनो अध्यवसाय अज्ञान छे एम कह्युं ते जाण्युं; हवे) मरणना अध्यवसायनो प्रतिपक्षी जे जीवननो अध्यवसाय तेनी शी हकीकत छे?’-तेनो उत्तर कहे छेः-
‘पर जीवोने हुं जिवाडुं छुं अने पर जीवो मने जिवाडे छे-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (अत्यंत चोक्कस) अज्ञान छे.’