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अहाहा...! आवा अबद्धस्पृष्ट प्रभु आत्माने जेणे द्रष्टिमां लीधो छे तेने बंधन छे नहि. भगवान आत्मा अंदर अबंधस्वरूप छे अने तेने द्रष्टिमां लेनारा परिणाम पण रागने परना संबंध रहित अबंध ज छे.
अहाहा...! जेणे रागथी भिन्न पडीने अंदर अबंधस्वरूप भगवान आत्माने भाळ्यो छे तेने बंधनरहित ज अमे कहीए छीए एम कहे छे. ज्ञाननी पर्यायमां पूर्णस्वरूप पोताना भगवानना भेटा थया ने! भले पर्यायमां भगवान आव्या नथी पण पर्यायमां भगवाननां ज्ञान-श्रद्धान आवी गयां छे. पहेलां पर्यायमां रागनी एकता आवती हती अने हवे पर्यायमां राग विनानो आखो चैतन्यनो पुंज प्रभु आव्यो छे. अहाहा...! रागनो अभाव थईने पर्यायमां पूरण द्रव्यस्वभाव जणायो छे. एवा स्वभावद्रष्टिवंतने, अहीं कहे छे, बंध नथी, निर्बंधता छे. आवी वात छे बापु! दुनिया साथे मेळववा जईश तो मेळ नहि खाय. पण कांई वादविवादे पार पडे एम छे नहि.
वळी कोई कहे छे-अमारी साथे वाद करो. पण भाई! वादथी वस्तु मळे एम नथी. कोनी वाद करीए? नियमसारमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे वाद परिहर्तव्य छे एम कह्युं छे; स्वसमय ने परसमय साथे वाद न करीश एम कह्युं छे. बनारसीदासे पण कह्युं छे के-
भाई! तने एम लागे के वाद करता नथी माटे आवडतुं नथी तो भले; तुं एम माने एमां मने शुं वांधो छे? एमां मने कांई नुकशान नथी,
अहा! खूबी तो जुओ! कहे छे-चोथे पांचमे गुणस्थाने अंतरंगमां निर्बंध ज जाणवा. एम केम कह्युं? कारण के रागनी एकतावाळो बंधमां छे अने रागथी भिन्न पडयो एने बंध छे नहि-एम अहीं सिद्ध करवुं छे, ओलो मुनिनो दाखलो आप्यो एमां मुनिराज प्रमादरहित समितिपूर्वक यत्नथी चाले छे त्यां मुनिराजने अहिंसा छे, (सर्वथा) बंध नथी. माटे त्यां एवा जीवने मुख्यपणे (द्रष्टांतमां) लीधो छे. पण अहीं तो रागनी एकता जेने तूटी छे एवो धर्मी पुरुष पण चोथे गुणस्थाने (पर्यायमां) निर्बंध छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?
‘बन्धकृत’ कर्मबंध करनारुं कारण, ‘न कर्मबहुलं जगत्’ नथी बहु कर्मयोग्य
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पुद्गलोथी भरेलो लोक, ‘न चलनात्मकं कर्म वा’ नथी चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् काय- वचन-मननी क्रियारूप योग), ‘न नैककरणानि’ नथी अनेक प्रकारनां करणो, ‘वा न चिद्–अचिद्–वधः’ के नथी चेतन-अचेतननो घात.
तो कर्मबंधनुं कारण शुं छे? तो कहे छेः-
‘उपयोगभूः रागादिभिः यद् एकयम् समुपयाति’ ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक साथे जे ऐकय पामे छे ‘स एव केवलं’ ते ज एक (-मात्र रागादिक साथे एकपणुं पामवुं ते ज) ‘किल’ खरेखर ‘नृणाम बन्धहेतुः भवति’ पुरुषोने बंधनुं कारण छे.
शुं कह्युं? ‘उपयोगभू’ -एटले भगवान आत्मानी भूमिका तो चैतन्यना उपयोगरूप छे. अर्थात् आत्मा जाणवा-देखवाना उपयोगस्वभावथी त्रिकाळ भरेलो छे; अने तेनुं वर्तमान पण चैतन्यमय उपयोग छे.
अहाहा...! आवा चैतन्यमय उपयोगनी भूमिकामां जे रागने करतो नथी, भेळवतो नथी ते ज्ञानी निर्बंध छे, अने एनी साथे जे रागादिकने एक करे छे ते ज खरेखर पुरुषोने (-आत्माने) बंधनुं कारण छे. ल्यो, आ चोकखुं लीधुं के ‘उपयोगभू’ - त्रिकाळ ज्ञानदर्शनना उपयोगस्वरूप जे आत्मा, एमां रागनी एकता करवी ते ज एने बंधनुं कारण छे. आमां समकितीना अस्थिरताना बंधने काढी नाख्यो छे, अर्थात् गणतरीमां लीधो नथी. मुख्य बंध मिथ्यात्व छे, मुख्य संसार मिथ्यात्व छे, मुख्य आस्रव मिथ्यात्व छे.
जेम ११ मी गाथामां त्रिकाळीने मुख्य करी सत्यार्थ निश्चय कह्यो तेम अहीं त्रिकाळी अबंधस्वरूपमां ज्ञान साथे रागनी एकता करवी एने मुख्य करीने संसार कह्यो, एने ज बंधनुं कारण कह्युं.
भावार्थः– ‘अहीं निश्चयनयथी एक रागादिकने ज बंधनुं कारण कह्युं छे.’ अहीं रागादिक एटले उपयोगमां रागादिकनुं एकत्व करवुं-एम लेवुं. हवे (हवेनी गाथाओमां) सवळेथी वात लेशे. आ भावार्थ पूरो थयो.
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जह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते। रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं।। २४२।। छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं।। २४३।। उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं। णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो ण रयबंधो।। २४४।। जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं।। २४५।। एवं सम्मादिट्ठी वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु। अकरंतो उवओगे रागादी ण लिप्पदि रएण।। २४६।।
सम्यग्द्रष्टि उपयोगमां रागादिक करतो नथी, उपयोगनो अने रागादिकनो भेद जाणी रागादिकनो स्वामी थतो नथी, तेथी तेने पूर्वोकत चेष्टाथी बंध थतो नथी-एम हवे कहे छेः-
व्यायाम करतो शस्त्रथी बहु रजभर्या स्थाने रही; २४२.
वळी ताड, कदळी, वांस आदि छिन्नभिन्न करे अने
उपघात तेह सचित्त तेम अचित्त द्रव्य तणो करे. २४३.
बहु जातनां करणो वडे उपघात करता तेहने,
निश्चय थकी चिंतन करो, रजबंध नहि शुं कारणे? २४४.
एम जाणवुं निश्चय थकी–चीकणाई जे ते नर विषे
रजबंधकारण ते ज छे, नहि कायचेष्टा शेष जे. २४प.
योगो विविधमां वर्ततो ए रीत सम्यग्द्रष्टि जे,
रागादि उपयोगे न करतो रजथी नव लेपाय ते. २४६.
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रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम्।। २४२।।
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डीः।
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम्।। २४३।।
उपघातं
यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः।
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः।। २४५।।
एवं सम्यग्द्रष्टिर्वर्तमानो बहुविधेषु योगेषु।
अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा।।
गाथार्थः– [यथा पुनः] वळी जेवी रीते- [सः च एव नरः] ते ज पुरुष, [सर्वस्मिन् स्नेहे] समस्त तेल आदि स्निग्ध पदार्थने [अपनीते सति] दूर करवामां आवतां, [रेणबहुले] बहु रजवाळी [स्थाने] जग्यामां [शस्त्रैः] शस्त्रो वडे [व्यायामम् करोति] व्यायाम करे छे, [तथा] अने [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः] ताड, तमाल, केळ, वांस, अशोक वगेरे वृक्षोने [छिनत्ति] छेदे छे, [भिनत्ति च] भेदे छे, [सचित्ताचित्तानां] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम्] द्रव्योनो [उपघातम्] उपघात [करोति] करे छे; [नानाविधैः करणैः] ए रीते नाना प्रकारनां करणो वडे [उपघातं कुर्वतः] उपघात करता [तस्य] ते पुरुषने [रजोबन्धः] रजनो बंध [खलु] खेरखर [किम्प्रत्ययिकः] कया कारणे [न] नथी थतो [निश्चयतः] ते निश्चयथी [चिन्त्यताम्] विचारो. [तस्मिन् नरे] ते पुरुषमां [यः सः स्नेहभावः तु] जे तेल आदिनो चीकाशभाव होय [तेन] तेनाथी [तस्य] तेने [रजोबन्धः] रजनो बंध थाय छे [निश्चयतः विज्ञेयं] एम निश्चयथी जाणवुं, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायानी चेष्टाओथी [न] नथी थतो. (माटे ते पुरुषमां चीकाशना अभावना कारणे ज तेने रज चोंटती नथी.) [एवं] एवी रीते- [बहुविधेषु योगेषु] बहु प्रकारना योगोमां [वर्तमानः] वर्ततो [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [उपयोगे] उपयोगमां [रागादीन् अकुर्वन्] रागादिकने नहि करतो थको [रजसा] कर्मरजथी [न लिप्यते] लेपातो नथी.
टीकाः– जेवी रीते ते ज पुरुष, समस्त स्नेहने (अर्थात् सर्व चीकाशने-तेल आदिने) दूर करवामां आवतां, ते ज स्वभावथी ज बहु रजथी भरेली भूमिमां (अर्थात् स्वभावथी ज बहु रजथी भरेली ते ज भूमिमां) ते ज शस्त्रव्यायामरूपी कर्म (क्रिया) करतो, ते ज अनेक प्रकारनां करणो वडे ते ज सचित्त-अचित्त वस्तुओनो
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तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत्।
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्द्रगात्मा ध्रुवम्।। १६५।।
घात करतो, रजथी बंधातो-लेपातो नथी, कारण के तेने रजबंधनुं कारण जे तेल आदिनुं मर्दन तेनो अभाव छे; तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि, पोतामां रागादिकने नहि करतो थको, ते ज स्वभावथी ज बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेला लोकमां ते ज काय-वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रिया) करतो, ते ज अनेक प्रकारनां करणो वडे ते ज सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो, कर्मरूपी रजथी बंधातो नथी, कारण के तेने बंधनुं कारण जे रागनो योग (-रागमां जोडाण) तेनो अभाव छे.
भावार्थः– सम्यग्द्रष्टिने पूर्वोकत सर्व संबंधो होवा छतां पण रागना संबंधनो अभाव होवाथी कर्मबंध थतो नथी. आना समर्थनमां पूर्वे कहेवाई गयुं छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [कर्मततः लोकः सः अस्तु] माटे ते (पूर्वोक्त) बहु कर्मथी (कर्मयोग्य पुद्गलोथी) भरेलो लोक छे ते भले हो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु] ते मन- वचन-कायाना चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् योग) छे ते पण भले हो, [तानि करणानि अस्मिन् सन्तु] ते (पूर्वोक्त) करणो पण तेने भले हो [च] अने [तत् चिद्–अचिद्– व्यापादनं अस्तु] ते चेतन-अचेतननो घात पण भले हो, परंतु [अहो] अहो! [अयम् सम्यग्द्रग्–आत्मा] आ सम्यग्द्रष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन्] रागादिकने उपयोगभूमिमां नहि लावतो थको, [केवलं ज्ञानं भवन्] केवळ (एक) ज्ञानरूपे थतो- परिणमतो थको, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति] कोई पण कारणथी बंधने चोक्कस नथी ज पामतो. (अहो! देखो! आ सम्यग्दर्शननो अद्भुत महिमा छे.)
भावार्थः– अहीं सम्यग्द्रष्टिनुं अद्भुत माहात्म्य कह्युं छे अने लोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यनो घात-ए बंधना कारण नथी एम कह्युं छे. आथी एम न समजवुं के परजीवनी हिंसाथी बंध कह्यो नथी माटे स्वच्छंदी थई हिंसा करवी. अहीं तो एम आशय छे के अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवनो घात पण थई जाय
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तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः।
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च।। १६६।।
तो तेनाथी बंध थतो नथी. परंतु ज्यां बुद्धिपूर्वक जीव मारवाना भाव थशे त्यां तो पोताना उपयोगमां रागादिकनो सद्भाव आवशे अने तेथी त्यां हिंसाथी बंध थशे ज. ज्यां जीवने जिवाडवानो अभिप्राय होय त्यां पण अर्थात् ते अभिप्रायने पण निश्चयनयमां मिथ्यात्व कह्युं छे तो मारवानो अभिप्राय मिथ्यात्व केम न होय? होय ज. माटे कथनने नयविभागथी यथार्थ समजी श्रद्धान करवुं. सर्वथा एकांत मानवुं ते तो मिथ्यात्व छे. १६प.
हवे उपरना भावार्थमां कहेलो आशय प्रगट करवाने, काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [तथापि] तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणोथी बंध कह्यो नथी अने रागादिकथी ज बंध कह्यो छे तोपण) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते] ज्ञानीओने निरर्गल (-मर्यादारहित, स्वछंदपणे) प्रवर्तवुं योग्य नथी कह्युं, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्–आयतनम् एव] कारण के ते निरर्गल प्रवर्तन खरेखर बंधनुं ज ठेकाणुं छे. [ज्ञानिनां अकाम–कृत–कर्म तत् अकारणम् मतम्] ज्ञानीओने वांछा विना कर्म (कार्य) होय छे ते बंधनुं कारण कह्युं नथी, केम के [जानाति च करोति] जाणे पण छे अने (कर्मने) करे पण छे- [द्वयं किमु न हि विरुध्यते] ए बन्ने क्रिया शुं विरोधरूप नथी? (करवुं अने जाणवुं निश्चयथी विरोधरूप ज छे.)
भावार्थः– पहेला काव्यमां लोक आदिने बंधनां कारण न कह्यां त्यां एम न समजवुं के बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिने बंधना कारणोमां सर्वथा ज निषेधी छे; बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामने-बंधना कारणने-निमित्तभूत छे, ते निमित्तपणानो अहीं निषेध न समजवो. ज्ञानीओने अबुद्धिपूर्वक-वांछा विना-प्रवृत्ति थाय छे तेथी बंध कह्यो नथी, तेमने कांई स्वछंदे प्रवर्तवानुं कह्युं नथी; कारण के मर्यादा रहित (अंकुश विना) प्रवर्तवुं ते तो बंधनुं ज ठेकाणुं छे. जाणवामां अने करवामां तो परस्पर विरोध छे; ज्ञाता रहेशे तो बंध नहि थाय, कर्ता थशे तो अवश्य बंध थशे. १६६.
“जे जाणे छे ते करतो नथी अने जे करे छे ते जाणतो नथी; करवुं ते तो
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जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः।
रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु–
र्मिथ्याद्रशः स नियतं स च बन्धहेतुः।। १६७।।
कर्मनो राग छे, राग छे ते अज्ञान छे अने अज्ञान छे ते बंधनुं कारण छे”. आवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः-
श्लोकार्थः– [यः जानाति सः न करोति] जे जाणे छे ते करतो नथी [तु] अने [यः करोति अयं खलु जानाति न] जे करे छे ते जाणतो नथी. [तत् किल कर्मरागः] जे करवुं ते तो खरेखर कर्मराग छे [तु] अने [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] रागने (मुनिओए) अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे; [सः नियतं मिथ्याद्रशः] ते (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियमथी मिथ्याद्रष्टिने होय छे [च] अने [स बन्धहेतुः] ते बंधनुं कारण छे. १६७.
‘सम्यग्द्रष्टि उपयोगमां रागादिक करतो नथी, उपयोगनो अने रागादिकनो भेद जाणी रागादिकनो स्वामी थतो नथी.’
शुं कहे छे? अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभाव परिपूर्ण चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मानां जेने ज्ञान-प्रतीति अने अनुभव थयां ते सम्यग्द्रष्टि छे. एवा सम्यग्द्रष्टिने शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि निरंतर होवाथी ते पोताना निर्मळ ज्ञानस्वभावमां रागने एकपणे करतो नथी. अहो! सम्यग्दर्शननो कोई अचिंत्य महिमा छे के द्रष्टिवंत पुरुष पोताना उपयोगमां रागनो संबंध-जोडाण ज करतो नथी. एटले शुं? के ते उपयोगने रागथी अधिक जाणी रागनो स्वामी थतो नथी. अहाहा...! शुद्ध उपयोगनी दशामां जेने अतीन्द्रिय आनंदस्वभावनुं भान थयुं ते हवे रागादिक जे दुःखमय छे तेनो स्वामी केम थाय? (न ज थाय).
‘तेथी तेने पूर्वोक्त चेष्टाथी बंध थतो नथी-ए हवे कहे छेः-’
पाठमां (गाथामां) ‘करेदि’ शब्द पडयो छे. एटले कोई एम कहे के परनी क्रिया आत्मा करे छे तो एम नथी. ए तो लोको एम (संयोगथी) जुए छे ने के-आ करे छे एटले ‘करेदि’ शब्द वापर्यो छे बाकी परनुं कोई करे छे एम छे
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नहि. भारे वात भाई! खरेखर तो ए रीते जे ते समये थाय छे एने लोकोनी (- व्यवहारनी) भाषामां ‘करेदि’ -करे छे एम कहेवाय छे.
वळी ज्ञानी रागमां वर्ततो नथी. त्यारे कोई कहे–‘वट्टंतो’ एम पाठमां छे ने? भाई! ए तो बहारथी जोनार दुनिया एम जाणे के आ योगादिमां वर्ते छे एटले ‘वट्टंतो’ शब्द वापर्यो छे. आ तो लोकव्यवहारनी भाषा छे बापु! बाकी जेने पोताना अपरिमित चैतन्यस्वभावमां सुख भास्युं छे ते, ज्यां सुख नथी त्यां (-रागमां) केम रहे? अहाहा...! जेणे पूर्ण एक ज्ञायकस्वभावी सुखधाम नित्यानंद प्रभु आत्मानो आश्रय लीधो ते हवे रागना आश्रयमां केम रहे? अहो! धर्मात्मा पुरुष पोताना उपयोगमां राग साथे संबंध ज करतो नथी. अहाहा...! सम्यग्दर्शननो आवो कोई अद्भूत महिमा छे! समजाणुं कांई...?
‘जेवी रीते ते ज पुरुष...’ शुं कह्युं? पुरुष तो एना ए ज छे; पहेलां जे तेलना मर्दनयुक्त हतो ते ज पुरुषनी वात छे तो कहे छे-
‘जेवी रीते ते ज पुरुष, समस्त स्नेहने (अर्थात् सर्व चीकाशने-तेल आदिने) दूर करवामां आवतां, ते ज स्वभावथी ज बहु रजथी भरेली भूमिमां (अर्थात् स्वभावथी ज बहु रजथी भरेली ते ज भूमिमां) ते ज शस्त्र व्यायामरूपी कर्म (क्रिया) करतो, ते ज अनेक प्रकारनां करणो वडे ते ज सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो, रजथी बंधातो-लेपातो नथी, कारण के तेने रजबंधनुं कारण जे तेल आदिनुं मर्दन तेनो अभाव छे.’
जुओ, आ द्रष्टांत छे. एमां आ करतो ने ते करतो-एम करतो, करतो आवे छे. तो कोई कहे-जुओ आमां लख्युं छे; तो करे छे के नहि?
एम न होय भाई! आत्मा परनुं करे ए तो मिथ्यात्वभाव छे. आ तो अहीं द्रष्टांतमां तेनो एक अंश लईने सिद्धांत समजाववो छे.
हवे द्रष्टांतने सिद्धांतमां उतारे छेः ‘तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि, पोतामां रागादिकने नहि करतो थको, ते ज स्वभावथी ज बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेला लोकमां ते ज काय- वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रिया) करतो, ते ज अनेक प्रकारनां करणो वडे ते ज सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो, कर्मरूपी रजथी बंधातो नथी, कारण के तेने बंधनुं कारण जे रागनो योग (-रागमां जोडाण) तेनो अभाव छे.’
जुओ, आ समकितनो महिमा! जे स्वभावनी द्रष्टिमां पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा भाळ्यो ते द्रष्टि नाम दर्शन-सम्यग्दर्शन शुं चीज छे ते बतावे छे.
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अहाहा...! कहे छे-सम्यग्द्रष्टि पोतामां रागादिकने करतो नथी. शुं कीधुं? के अज्ञानी पोताना ज्ञानस्वभावमां रागादिकने एकमेक करे छे, पण ज्ञानी सम्यग्द्रष्टि पोताना ज्ञानस्वभावमां रागादिकने एकमेक करतो नथी. बन्नेमां आवो (-आवडो मोटो) फेर छे! समजाणुं कांई...? अहा! लोकोने समकितना महिमानी खबर नथी. आ तो बहारमां त्याग करे एटले बधुं थई गयुं एम माने! ए व्रत ने नियम लीधां एटले समकित तो होय ज एम लोकोए मानी लीधुं छे. पण बापु! सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे भाई! समकिती तो एवो छे के जे व्रत, नियम आदिने पोतानामां (उपयोगमां) करतो नथी, भेळवतो नथी. ल्यो, आवी वात छे!
जुओ, अहीं शुं कहे छे? के सम्यग्द्रष्टिने बहारना संयोगो, पहेलां मिथ्याद्रष्टि हतो त्यारे जे हता तेवा ज होवा छतां ते बंधातो नथी. स्वभावथी ज बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेला लोकमां सम्यग्द्रष्टि छे, काय-वचन-मननी क्रिया पण ते ज प्रमाणे करतो होय छे, ते ज अनेक प्रकारना करणो नाम इन्द्रियो वडे सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो होय छे तोपण ते कर्मरजथी बंधातो नथी. गजब वात! केम बंधातो नथी? कारण के बंधनुं कारण जे मिथ्यात्व वा ज्ञानमां रागनुं एक करवुं-तेनो तेने अभाव छे. भाई! मिथ्यात्व ए ज संसार, ए ज आस्रव अने ए ज बंधनुं मूळ कारण छे. बीजी वातने (-अस्थिरताने) गौण करीने सम्यग्द्रष्टिने रागना योगनो जे अभाव छे तेनी मुख्यताथी ते निर्बंध ज छे, बंधातो नथी एम कह्युं छे.
गौणपणे बीजो बंध नथी एम नहि, पण एनी अहीं मुख्यता करवी नथी. सम्यग्द्रष्टि पुरुष बंधनुं मूळ कारण जे रागनो योग (रागमां जोडाण) ते करतो नथी ए मुख्य छे. अहाहा...! ज्ञानीने रागनो संबंध ज नथी केमके तेने ज्ञानमां-ज्ञानस्वभावमां जोडाण छे एटले रागमां जोडाण नथी. जुओ, समकिती चक्रवर्ती होय ते ९६ हजार राणीओना वृंदमां होय, लडाईमां ऊभेलो पण देखातो होय तोपण तेने बंध नथी. रागादिनो तेने संबंध नथी ने! जे राग छे ते अस्थिरतानो छे अने तेनी अहीं गणतरी नथी. पण ए (चक्रवर्ती) रागादिथी एकपणानो संबंध करे, रागनुं स्वामित्व करे तो ते मिथ्याद्रष्टि थईने बंध करे छे. अहा! आवी झीणी वात छे प्रभु!
सम्यग्द्रष्टि आटआटला संयोगोमां होय एटले ‘करे छे’-एम कहेवाय; लोको पण संयोगथी जुए छे ने? एटले ‘करे छे’ -एम कहेवाय; बाकी ए तो एकलो पडी गयो छे त्यां (-रागथी छूटो-भिन्न पडी गयो छे त्यां) परने-रागादिने करे क्यांथी? न ज करे. निर्जरा अधिकारमां (गाथा १९३ मां) आवी गयुं ने? के-
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एककोर एम कहे के आत्मा परनो उपभोग करी शकतो नथी अने वळी अहीं (उपरनी गाथामां) कहे छे के चेतन-अचेतननो उपभोग सम्यग्द्रष्टि करे छे तो आ केवी रीते छे?
भाई! ए तो बहारथी दुनिया देखे छे ए अपेक्षाए वात करी छे. बाकी समकितीने तो रागना योगनो अभाव छे. अहाहा...! धर्मीने तो पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावमां संबंध थयो छे अने रागनो संबंध छूटी गयो छे; व्यवहाररत्नत्रयना रागनो पण संबंध छूटी गयो छे. एटले शुं? एटले के व्यवहाररत्नत्रयनुं पण एने स्वामित्व नथी.
प्रश्नः– तो पछी एनो कोना खातामां नाखवुं? उत्तरः– एने जडना खातामां नाखवुं. चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्माना उपयोगमां ते समाई शके ज नहि, समजाणुं कांई...? बापु! सम्यग्दर्शन मूळ महिमावंत चीज छे, ए विना व्रत, तप आदिनो कांई महिमा नथी; ए बधो राग तो थोथां छे.
अज्ञानी भले मुनि होय, पंचमहाव्रत पाळतो होय, अठ्ठावीस मूळगुण पाळतो होय पण एने रागनी साथे संबंध-जोडाण छे तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे, व्यभिचारी छे. आकरी वात प्रभु! रागनी साथे जेने संबंध छे ते व्यभिचारी छे अने जेने राग साथे संबंध नथी ते अव्यभिचारी-निर्दोष पवित्र छे. (खरेखर तो रागने अने आत्माने व्यवहारे ज्ञेय-ज्ञायकसंबंध छे, पण रागनी साथे बीजो आडो संबंध (-एकपणानो संबंध) करवो ते व्यभिचार छे.)
अहा! सम्यग्दर्शन शुं छे? एनी प्राप्ति केम थाय? ने ए प्राप्त थतां जीवनी शुं स्थिति होय?-हवे ए वात लोकोने सांभळवाय मळे नहि ए बिचारा के दि’ अंदर जाय? ए तो बहारमां व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना रागमां-दुःखमां रोकाई रहे, ज्यां (-सुखनिधि आत्मद्रव्यमां) सुख छे त्यां न आवे, भाई! आम ने आम अनंतकाळ वीती गयो छे बापु!
अहीं कहे छे-धर्मीने व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प होय छे पण एमां ते रोकाणो नथी, अर्थात् एनी साथे ते संबंध-जोडाण करतो नथी. धर्मीए तो जेमां अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत आनंद आदि अनंत अनंतगुण समृद्धि भरेली छे एवा निज आत्मा साथे संबंध कर्यो छे ते हवे रागथी संबंध केम करे? कदीय ना करे-एम कहे छे.
भाई! सम्यग्दर्शन एटले शुं? के जेणे संसाररूपी वृक्षनी जड तोडी नाखी छे एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन थया पछी अस्थिरताना राग-द्वेषरूपी डाळां-पांदडां रह्यां एनी शुं विसात? ए तो अल्पकाळमां सूकाई ज जवानां. मतलब
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के बे-पांच भवमां ए अस्थिरताना राग-द्वेष संपूर्ण टळी जइने वीतराग थइ एनो मोक्ष थशे. माटे अस्थिरताना रागादिना कारणे थता अल्पबंधने अहीं बंधमां गण्यो ज नथी.
पहेलां(कळश १६४मां) ‘उपयोगभू’ शब्द कीधो ने? एटले के जेमां जाणवा- देेखवानो स्वभाव छे, ज्ञानदर्शननो स्वभाव छे एवी उपयोगनी भूमिकामां धर्मी जीव दया, दान, व्रत आदिना रागने भेळवतो नथी. अहा! शुद्ध उपयोगस्वरूपनुं स्वामित्व छोडी ते व्रतादिमां स्वामित्व करतो नथी. शुं कह्युं? आ स्त्री-पुत्र-परिवार, तन-मन- वचन इत्यादि तो कयांय बाजुए रह्यां, अहीं तो कहे छे-समकिती पुरुष, तेने जे व्यवहाररत्नत्रय होय छे तेनो संबंध-स्वामीपणुं करतो नथी अरे! आवो भगवाननो मारग तो कयांय एक कोर रही गयो अने लोकोए बीजुं मान्युं! भाई! पण आना विना सिद्धि नथी हों.
आ वस्तुस्वरूप छे अने स्वरूपनो जाणनार समकिती स्वच्छंदे परिणमतो नथी. एम के मारे राग साथे जोडाण नथी तेथी मने बीलकुल बंध ज थतो नथी एम मानीने शुभाशुभ भावमां धर्मी स्वच्छंदपणे (कर्ताबुद्धिए) निरंकुश प्रवर्ततो नथी. स्वच्छंदे (कर्ता थइने) प्रवर्ते ए तो सम्यग्द्रष्टि ज नथी. सम्यग्द्रष्टिने एनी पर्यायमां नबळाइने लइने अस्थिरताना रागादि थाय छे ए बीजी वात छे अने कोई (-अज्ञानी) कर्ता थइने स्वच्छंदे प्रवर्ते ए बीजी वात छे. अहा! धर्मीने तो द्रव्यस्वभावनी साथे संबंध थयो होवाथी ते रागादिनो संबंध ज करतो नथी. आवी वात! हवे आवी वात अत्यारे कयांय चालती नथी ने लोकोने बिचाराने आ निश्चय छे, एकान्त छे एम भडकावीने मूळ वातने टाळी दे छे. पण भाई! ए हितनो मार्ग नथी हों. अहीं कहे छे-आत्मा त्रण लोकनो नाथ आनंदकंद प्रभु छे. तेनी प्रभुता भाव्या पछी रागने दुःख साथे संबंध कोण करे?
जोके व्यवहारनो अधिकार होय एमां एवुं आवे के ज्ञानी व्रत पाळे, तप आचरे, अतिचार टाळे इत्यादि. पण परमार्थे जोइए तो ते एनो स्वामी थतो नथी. अहा! जेनो ए स्वामी नथी तेने ए पाळे ने आचरे कयां रह्युं? समयसार परिशिष्टमां ४७ शक्तिओना अधिकारमां छेल्ली ‘स्वस्वामीसंबंध शक्ति’ कही छे. आत्मामां ‘स्वस्वामीसंबंध’ नामनो गुण छे. एटले शुं? के पोतानो भाव पोतानुं स्व अने पोते तेनो स्वामी-एवा संबंधमयी ‘स्वस्वामीसंबंध शक्ति’ छे. अहा! पोते शुद्ध चैतन्यघन द्रव्य, पोताना अनंत गुण ने एनी निर्मळ पर्यायए पोतानुं स्व अने पोते एनो स्वामी आवो पोतामां ‘स्वस्वामीसंबंध’ गुण छे. पण व्यवहाररत्नत्रयनो राग ए एनुं स्व कयां छे? तेथी आत्मा एनो
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स्वामी नथी. अहाहा....! आवो स्वस्वामी संबंध जेने निर्मळ परिणम्यो छे ते समकिती पुरुष व्यवहाररत्नत्रयना रागनो स्वामी नथी.
शास्त्रमां भिन्न साधन-साध्यनुं कथन आवे छे. त्यां कह्युं छे के व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चयरत्नत्रय थाय, अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय साधन ने निश्चयरत्नत्रय साध्य छे. भाई! ए तो त्यां व्यवहाररत्नत्रयथी भिन्न साधन-साध्य होय छे एटलुं ज बताववुं छे. एटले के शुद्ध सम्यग्दर्शन निश्चय छे ते तो स्वना आश्रये प्रगट थयेली द्रष्टि छे, अने त्यारे बहारमां साचा देव-गुरु-शास्त्र प्रति श्रद्धानो राग होय छे. हवे त्यां निश्चय समकित तो स्वरूपना आश्रये ज प्रगटयुं छे, रागना कारणे नहि. तो पण तेने सहचर जाणी व्यवहारथी आरोप करीने साधन कहेवामां आवे छे. देव-गुरु- शास्त्रनी श्रद्धानो राग छे तो चारित्रनो दोष, छतां तेमां श्रद्धा गुणनी पर्यायनो आरोप करीने तेने व्यवहारथी सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे.
पंडित श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्गप्रकाशकमां घणी बधी स्पष्टता करी छे. ज्यां निश्चयरत्नत्रय प्रगटे छे त्यां देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धाना रागने दर्शन, शास्त्रादिना श्रवण-मननने ज्ञान अने पंचमहाव्रतादिना रागने चारित्र-एम रागने शुद्ध दर्शन-ज्ञान- चारित्रनो आरोप आपीने व्यवहाररत्नत्रय कह्यां छे. पण तेथी ए राग (- व्यवहाररत्नत्रय) शुद्ध रत्नत्रय बनी जतां नथी, मतलब के परमार्थे तेमां साधन- साध्यभाव नथी. वळी त्यां कह्युं छे के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र आवुं ज स्वरूप जाणवुं. मतलब के ज्यां व्यवहारनुं कथन होय त्यां ते उपचारमात्र आरोपित कथन छे एम यथार्थ जाणवुं.
अहीं कहे छे-सम्यग्द्रष्टिने बंधनुं कारण जे रागनो योग तेनो अभाव छे. एटले के तेने पोताना सच्चिदानंदस्वरूपमां जोडाण थयुं होवाथी तेना महिमा आगळ रागनो महिमा तेने भासतो नथी अने ते रागमां जोडाण-संबंध करतो नथी. जेम बीजां परद्रव्य छे तेम रागने पण पर तरीके जाणे छे. तेथी तेने बंध थतो नथी.
‘सम्यग्द्रष्टिने पूर्वोक्त सर्व संबंधो होवा छतां पण रागना संबंधनो अभाव होवाथी कर्मबंध थतो नथी. आना समर्थनमां पूर्वे कहेवाय गयुं छे.’
सम्यग्द्रष्टिने पूर्वोक्त सर्व संबंधो एटले कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, मन- वचन-कायनी क्रिया, पांचे इन्द्रियोनी प्रवृत्ति अने सचित्त-अचित्तनो घात-एम सर्व संबंधो होवा छतां रागनो संबंध-रागनुं एकत्व करवुं-नथी माटे तेने कर्मबंध नथी.
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सम्यग्द्रष्टिने अंदरमां रागनी एकताबुद्धि तूटी गइ छे. शुद्ध चैतन्यस्वभाव ने राग बन्ने भिन्नपणे भासता होवाथी एने रागनो संबंध नथी. तेथी बहारथी देखाय छे एवा बीजा सर्व संबंधो होवा छतां तेने रागनो संबंध नहि होवाथी कर्मबंध थतो नथी. पूर्ण मुक्तस्वरूप भगवान आत्मानो संबंध थतां तेने रागनो संबंध तूटी गयो छे; अने रागना संबंधना अभावमां तेने कर्मबंध थतो नथी. आवी वात छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘कर्मततः लोकः सः अस्तु’ माटे ते (पूर्वोक्त) बहु कर्मथी (कर्मयोग्य पुद्गलोथी) भरेलो लोक छे ते भले हो, ‘परिस्पन्दात्मक कर्म तत् च अस्तु’ ते मन- वचन-कायाना चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् योग) छे ते पण भले हो, ‘तानि करणानि अस्मिन् सन्तु’ ते (पूर्वोक्त) करणो पण तेने भले हो, ‘च’ अने ‘तत् चिद–अचिद्– व्यापादनं अस्तु’ ते चेतन-अचेतननो घात पण भले हो,...
अहाहा...! मुनिराज कहे छे-चेतन-अचेतनना घात आदि सर्व संबंधो भले हो. भाई! आथी एम न समजवुं के समकितीने जीवनो घात इष्ट छे. आ तो सर्व बहारना संबंधो प्रति समकितीने उपेक्षा छे एम वात छे. अहा! अमे एमां जोडाता नथी एम मुनिराज कहे छे. अमने अमारा स्वद्रव्यनी अपेक्षा थइ छे एमां सर्व परनी उपेक्षा छे एम वात छे. जेम स्ववस्तुनी अपेक्षा ए बीजी चीज अवस्तु छे तेम भगवान ज्ञायकनी द्रष्टिमां राग अवस्तु छे. राग रागमां भले हो, पण शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ए नथी, ए मारामां नथी एम कहे छे. भाई! वीतरागनो मारग खूब गंभीर छे!
बहु कर्मथी भरेलो लोक छे तो भले हो. मतलब के अनंत बीजा आत्माने अनंता परमाणु भले हो. तेओ पोतपोतानी अस्तिमां छे, तेओ मारामां कयां छे? मने एनाथी कांइ (संबंध) नथी. मन-वचन-कायानी क्रिया छे तो भले हो; ते एनामां छे; ए परनुं अस्तिपणुं छे ते कांइ थोडुं चाल्युं जाय छे? पण ते मारामां-शुद्ध चैतन्यमां नथी. एनुं अस्तित्व एनामां भले हो, मने कांइ नथी.
अहाहा...! कहे छे-ते पंचेन्द्रियोनो वेपार भले हो, ने ते चेतन-अचेतननो घात भले हो. गजब वात! कोई ने एम थाय के पंचेन्द्रियोनो विजय करनारा अने छकायनी रक्षा करनारा मुनिराज शुं आवुं करे? चेतनमां तो पंचेन्द्रियनो घात
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पण आवी गयो. समकिती लडाइमां ऊभो होय त्यारे हाथी, घोडा आदि पंचेन्द्रियनो पण घात थाय छे आम छतां पण पाप नहि?
भाई! अहीं कइ अपेक्षाथी कहे छे ते जरा धीरो थइने सांभळ. त्यां जे घात वगेरे होय छे ते तो एना कारणे एनामां होय छे; एमां मने शुं छे? हुं कयां एना जोडाणमां-संबंधमां ऊभो छुं? हुं एमां होउं तो ने ? (तो बंध थाय ने?) मने एनाथी कांइ नथी एम कहे छे. आनंदघनजी एक पद्यमां कहे छे-
अहाहा...! लोको तो बहारथी देखे छे, पण समयसार-सर्व सिद्धांतनो सार-एवा भगवान आत्मानो जेने संबंध थयो छे एने रागनो संबंध तूटी गयो छे; एने बहारना सर्व संबंधो प्रति उपेक्षा ज छे एम अहीं वात छे. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे-आ बधा संबंधो भले हो, परंतु ‘अहो’ अहो! ‘अयम् सम्यग्द्रग्आत्मा’ आ सम्यग्द्रष्टि आत्मा, ‘रागादीन् उपयोगभू मम् अनयन’ रागादिने उपयोगमां नहि लावतो थको, ‘केवलं ज्ञानं भवन्’ केवळ (एक) ज्ञानरूपे थतो- परिणमतो थको, ‘कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति’ कोई पण कारणथी बंधने चोक्कस नथी ज पामतो.
शुं कह्युं? के सम्यग्द्रष्टि पुरुष रागादिने एटले के पुण्य-पापना भावने उपयोगभूमिमां लावतो नथी. उपयोगभूमि एटले शुं? के जाणवा-देखवाना स्वभावमय जे चैतन्यनो उपयोग तेनी भूमि नाम आधार जे आत्मा तेमां धर्मात्मा रागनो संबंध करतो नथी. गजब वात छे भाई! धर्मी पुरुषनी अंतरदशा अद्भुत अलौकिक छे. अहो! शुद्ध रत्नत्रयनो धरनार धर्मात्मा व्यवहाररत्नत्रयना रागने आत्मामां लावतो नथी. आवी वात छे!
त्यारे कोई बीजा कहे छे के व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय.
अरे प्रभु तुं शुं कहे छे आ! जैनदर्शनथी ए बहु विपरीत वात छे भाई! आ तारा तिरस्कार माटेनी वात नथी पण तारा सत्ना हितनी वात छे. भगवान! तुं पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति प्रभु अंदर परमात्मस्वरूप भगवान छो ने? अहा! तारा चैतन्य भगवाननी अंदरमां रागथी लाभ थाय एम रागने लाववो ए मोटुं नुकशान छे. प्रभु! भाई! तें रागना रस वडे सच्चिदानंद भगवानने बहु रांको करी नाख्यो! महा महिमावंत चैतन्यमहाप्रभु एवो तुं, अने तेने शुं राग जेवा विपरीत, पामर ने दुःखरूप भावथी लाभ थाय? न थाय हों. तेथी तो कहे छे के
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ज्ञानी, निश्चय-व्यवहार बन्ने साथे होवा छतां, कोई पण रागने चैतन्यनी भूमिमां- आत्मामां लावतो नथी.
द्रव्यसंग्रहमां (गाथा ४७ मां) आवे छे के-
अहा! धर्मात्मा स्वरूपना आश्रयमां गयो त्यारे तेने ध्यानमां निश्चय (रत्नत्रय) प्रगट थाय छे. अने ते काळे जे राग बाकी छे तेने व्यवहार (रत्नत्रय) कहे छे. आ प्रमाणे मुनिने निश्चय-व्यवहार-बंने रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग ध्यानमां प्राप्त थाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी ए व्यवहारने निश्चयमां लावतो नथी. एनामां (-निश्चयमां) ए (- व्यवहार) छे ज नहि पछी व्यवहारथी निश्चय थाय ए प्रश्न ज कयां छे? एने ने व्यवहारने संबंध ज नथी अने जो व्यवहारनो संबंध करे तो मिथ्याद्रष्टि थइ जाय. समजाणुं कांई...?
अहो! त्रण लोकना नाथनी अमृत झरती वाणीमां एम आव्युं के-भगवान! तुं निर्मळानंदनो नाथ प्रभु अमृतनो सागर छो. अहा! आवो अमृतनो सागर जेने पर्यायमां उछळ्यो-प्रगट थयो ते हवे तेमां रागना झेरने केम भेळवे? अंदरमां प्रभुत्वशक्ति जेने प्रगट थइ छे ते अखंडित प्रताप वडे स्वतंत्र शोभायमान पोताना प्रभुमां पामर रागने केम भेळवे? अहो! दिगंबर संतोए अमृत रेडयां छे.
अहा! कहे छे-सचेतनो घात हो तो हो; हवे सचित्तमां एकला एकेन्द्रिय छे कांई? एमां तो एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय बधाय आवी गया. बधा हो तो हो; एमां तने शुं छे? हवे आनो अर्थ न बेसे एटले लोको टीका करे छे के-ल्यो, समकितीने पंचेन्द्रियनी हिंसा होय छे; आवो कंइ सम्यग्द्रष्टि होय? अरे भाई! आ तो सम्यग्द्रष्टिने उपयोगमां रागना संबंधनो अभाव छेे तेथी कदाचित् तेना निमित्ते बहारमां सचित्तनो घात थाय तोपण ते वडे तेने हिंसा नथी, बंध नथी एम कहे छे. भाई! आ तो अजर-अमर प्याला छे प्रभु! ए जीरवाय तो संसार छूटी जाय एवी वात छे. एने पचावतां आवडवुं जोइए.
‘रागादिकने उपयोगमां नहि लावतो थको’-एम ‘रागादिक’ शब्द लीधो छे ने? एमां शुभाशुभ बधाय विभाव आवी गया. ते हिंसा जूठ, चोरी, विषयवासना आदिना रागने उपयोगमां लावतो नथी ए तो ठीक, पण ते अहिंसादिना तथा दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादिना रागनेय उपयोगमां लावतो नथी. अहाहा...! पोतानी पवित्र उपयोगभूमिमां ते कोई पण अपवित्रताने लावतो नथी. स्त्री-पुत्र-परिवार तथा वेपार- धंधो आदिना अशुभ रागने उपयोगभूमिमां लावतो नथी एटलुं ज नहि ते देव-गुरु- शास्त्र प्रत्येनी श्रद्धाना शुभरागने पण उपयोगभूमिमां लावतो नथी.
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अहाहा...! पोताना अमृतस्वरूप सत्मां ते असत् एवा रागादिना झेरने ते केम भेळवे? अहो! आचार्यदेवेे कोई गजबनी अद्भुत टीका करी छे!
अहा! टीकाकार आचार्य छेल्ले कळशमां एम कहे छे के- जुओ! आ टीका शब्दोनी बनी छे, अमाराथी नहि; अमे तो ज्ञानमां छीए. टीका करवाना विकल्पमांय नथी तो पछी भाषामां तो कयांथी आवीए? अहा! संतोने टीकाकार होवानो व्यवहारे आरोप आवे तेय गोठतुं नथी. त्यां कळशटीकामां श्री राजमलजीए खुलासो कर्यो छे के- ‘ग्रंथनी टीकाना कर्ता अमृतचंद्र नामना आचार्य प्रगट छे. (निमित्तपणे) तोपण महान छे, मोटा छे, संसारथी विरक्त छे, तेथी ग्रंथ करवानुं अभिमान करता नथी.’ एनो अर्थ ज ए थयो के तेमने ग्रंथनुं करवापणुं नथी एम ज ते यथार्थ जाणे छे.
कोईने थाय के-अध्यात्मग्रंथनी आवी सरस महान टीका प्रभु! आपे करी ने आप-हुं कर्ता नथी-एम कहो छो ए केवी वात!
सांभळ भाई! मुनिराज एम कहे छे-ए भाषाने तो भाषा करे; ए भाषामां हुं गयो नथी, ए भाषा मारामां आवी नथी; तो हुं एने केम करुं? अरे ते भाषाना काळे जे विकल्प उठयो छे ते विकल्पनेय मारा उपयोगमां लावतो नथी; ए विकल्प मारुं कर्तव्य नथी. ल्यो, आवी वात छे!
त्यां (त्रीजा) कळशमां आचार्यदेवे ना कह्युं के टीका करतां मारी परम शुद्धि थजो? त्यां एमां पण आ ज न्याय छे के टीकाना काळमां मारुं जे अंतर्द्रष्टिनुं जोर छे ते वृद्धि पामो, केमके टीकाना विकल्पने हुं मारा उपयोगस्वभावमां भेळवतो नथी. ल्यो, आवुं छे त्यां विकल्पथी-रागथी लाभ थाय ए वात कयां रही?
जो रागादिने उपयोगभूमिमां भेळवतो नथी तो शेमां छो प्रभु? तो कहे छे- ‘ज्ञानीभवन् केवलं’–केवळ ज्ञानरूपे परिणमतो थको ज्ञाननी एकतामां छुं. अहो! दिगंबर संतोए जगतने न्याल करी दीधुं छे. एकलुं अमृत पीरसीेने एनी भूख भांगी नाखी छे. कहे छे-हुं तो ज्ञान साथे एकमेक परिणमुं छुं, बीजानी साथे मने कांइ संबंध नथी. तेथी कोई पण कारणथी बंधने चोक्कस नथी ज पामतो. ल्यो, ‘नथी ज पामतो’-एम ‘ज’ कह्युं छे.
कथंचित् अबंध ने कथंचित् बंध-एम कहो ने.
हवे सांभळने बापु! एम नथी. अहो! देखो! आ सम्यग्दर्शननो अद्भुत महिमा छे.
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‘अहीं सम्यग्द्रष्टिनुं अद्भुत माहात्म्य कह्युं छे अने लोक, योग, करण, चैतन्य- अचैतन्यनो घात-ए बंधना कारण नथी एम कह्युं छे.’
अहा! जेने पर निमित्त, राग ने एक समयनी पर्यायनी रुचि छूटी गइ छे, कर्मना उदयथी मळेली सामग्री प्रति जे निरभिलाष छे, उदासीन छे अने जेने ज्ञानानंदस्वभावी निज आत्मानी रुचि थइ छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. समकितीने ज्ञानानंदस्वरूपनी ज निरंतर रुचि होवाथी एना ज्ञान उपयोगमां राग एकपणुं पामतो नथी अने तेथी तेने बंध थतो नथी. पोताना अबद्धस्पृष्ट भगवाननुं भान थतां समकितीने कोई कारणथी बंध थतो नथी. अहो! आवुं आश्चर्यकारी सम्यग्द्रष्टिनुं माहात्म्य छे! सम्यग्दर्शनना महिमानी शी वात!
सम्यग्द्रष्टिने, कर्म थवाने लायक रजकणोथी भरेलो लोक होय एनाथी बंधन नथी. भगवान आनंदनो नाथ प्रभु पोते छे तेने ते आलोके छे, पोतानो लोक छे तेने ते आलोके छे तेथी तेने बंधन नथी. वळी मन-वचन-कायनी क्रिया जे छे ए पण एने बंधननुं कारण नथी, केमके ए सर्व एना ज्ञानमां परज्ञेय तरीके छे; मन-वचन-कायनी क्रियामां एने रुचि नथी. अहो! सम्यग्दर्शन एटले शुं एनी लोकोने खबर नथी. आ बाह्य त्याग कंइक करे एटले माने के त्यागी थइ गयो. पण बापु! सर्व संसारनो (- रागनो) त्याग ज्यां सुधी द्रष्टिमां न आवे अने पूर्णानंदना नाथ प्रभु आत्मानां द्रष्टि ने अनुभव न थाय त्यां सुधी ते मिथ्याद्रष्टि ज छे; बहारथी भले त्यागी होय पण खरेखर ते त्यागी छे ज नहि.
सम्यग्द्रष्टिने योगनी क्रिया होय तोपण ते बंधनुं कारण नथी, केमके तेमां एनी रुचि नथी, तेमांथी एनी रुचि उडी गइ छे. चेतन-अचेतननो घात पण एने बंधनुं कारण नथी. भारे गजब वात छे! पंचेन्द्रिय जीवोनो घात थाय, हाथी-घोडा-मनुष्य मरे तोपण त्यां एने रुचि नथी ने! अंतरमां ते प्रति अत्यंत उदासीन परिणाम छे तेथी ए घात तेने बंधनुं कारण नथी. वास्तवमां ए बधी क्रियाओ तेने ज्ञानमां परज्ञेय तरीके भासे छे, ते एनो करनारो थतो नथी.
अज्ञानी काया ने कषायने पोतानां माने छे. ते भले छकायनी हिंसामां वर्तमान प्रवृत्त न देखातो होय तोपण भगवान कहे छे के ते छकायनी हिंसा करनारो छे. अहा! जेणे पोताना अशरीरी भगवानने शरीरी मान्यो छे अने अकषायीने कषाययुक्त मान्यो छे, ते भले बहारथी मुनि थइ गयो होय, हजारो राणीओ छोडी होय अने जंगलमां रहेतो होय तोपण ते हिंसानो करनारो ज छे केमके तेने निरंतर पोताना चैतन्यनो घात-हिंसा थया ज करे छे. अहा! जेणे कषायनी मंदताना दयाना भाव पण पोताना मान्या तेणे अकषायी चैतन्यस्वरूपने रागयुक्त मान्युं;
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तेणे स्वरूपनी स्थितिनो इन्कार करीने स्वरूपनी ज हिंसा करी छे. माटे ते बहारमां हिंसा न करतो होय तोपण ते हिंसानो करनारो हिंसक ज छे. अने जेनी द्रष्टि शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मा उपर पडी छे तेने भले बहारमां सर्व संबंधो होय तोपण ते निर्बंध छे, कोई कारणो तेने बंधन करतां नथी.
हवे कहे छे-‘आथी एम न समजवुं के परजीवनी हिंसाथी बंध कह्यो नथी माटे स्वच्छंदी थइ हिंसा करवी. अहीं तो एम आशय छे के अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवनो घात पण थइ जाय तो तेनाथी बंध थतो नथी.’
जुओ आ स्वच्छंदी थवानो निषेध कर्यो. पोते रुचिपूर्वक-बुद्धिपूर्वक हिंसा करे ने एम कहे के अमे हिंसा करी नथी तो कहे छे के एम न चाले. उपयोगमां रागादिकनुं एकत्व करे अने परजीवना घात प्रति प्रवृत्त थाय अने कहे के अमने तेनाथी बंध नथी तो कहे छे-एम नहि चाले; एने तो बंध अवश्य थशे ज. आ तो जेने रागरहित निर्विकार नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा द्रष्टिमां आव्यो छे तेने, बुद्धिपूर्वक-रुचिपूर्वक परघातना परिणाम नथी तेथी कदाचित् अवशपणे परजीवनो घात थइ जाय तो ते बंधनुं कारण नथी एम वात छे. परंतु रागनी रुचिपूर्वक जे परघातनी प्रवृत्ति छे ते तो हिंसा ज छे, अने ए बंधनुं कारण छे. माटे स्वच्छंदी थइ हिंसा न करवी एम कहे छे.
पंचेन्द्रियनो घात थाय तोपण ज्ञानीने हिंसा कही नथी-एम मानीने, ए कथनने छळपणे ग्रहीने कोई अज्ञानी परघातमां रोकाय तो तेने तो अवश्य हिंसा थशे केमके तेने रागनी रुचि छे ज. ए ज विशेष कहे छे-
‘परंतु ज्यां बुद्धिपूर्वक जीव मारवाना भाव थशे त्यां तो पोताना उपयोगमां रागादिकनो सद्भाव आवशे अने तेथी त्यां हिंसानो बंध थशे ज.’
शुं कीधुं? बुद्धिपूर्वक एटले उपयोगमां रागनुं एकत्व करीने, हुं आने मारुं एम रुचिपूर्वक जीव मारवाना भाव थशे त्यां तो रागादिकनो सद्भाव थशे अने तेथी त्यां हिंसा थशे ज. बंध थशे ज. अहा वीतरागमार्ग कोई अलौकिक छे भाई! ज्ञानीने तो रागनी एकत्वबुद्धि नथी तेथी रागनो सद्भाव नथी. किंचित् (अस्थिरतानो) राग छे ते परमां जाय छे. तेने बधी क्रियाओ परमां जाय छे. ए परने परपणे जाणता ज्ञानीने रागनो सद्भाव नहि होवाथी बंध थतो नथी. आवी वात छे भाई! आ कांई वाद- विवादे पार पडे एवुं नथी.
कहे छे-‘पोताना उपयोगमां रागादिकनो सद्भाव आवशे’-भाषा जोइ? आने हुं मारुं ने आने जीवाडुं ने आनी साथे भोग लउं-एम स्वच्छंदे प्रवर्ते अने माने के में कयां हिंसा करी छे तो कहे छे-एम नहि हाले भाई! जेने परप्रवृत्तिनो-
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मारवा-जीवाडवानो के भोगनो-भाव थयो एने ज्ञानमां रागनी-कषायनी हयाती थइ गई. अहाहा...! भगवान आत्मा अकषायस्वभावी प्रभु त्रिकाळ पवित्र शुद्ध छे. एनी रुचि छोडी परप्रवृत्तिनी रुचि करे एने तो उपयोगमां रागादिनी हयाती थई जशे अने तेथी त्यां हिंसाथी बंध ज थशे एम कहे छे.
ज्ञानीने रागनी रुचि छूटी गइ छे. तेने जे चारित्रमोहसंबंधी राग होय छे ते पृथक ज रहे छे; तेमां ते एकत्वपणे वर्ततो नथी पण एनाथी पृथक्पणे वर्ते छे. खरेखर तो ज्ञानीना ज्ञानमां राग जणाय छे ते परज्ञेयपणे ज जणाय छे. ज्यारे अज्ञानीना ज्ञानमां रागादि जणाय छे ते एकमेकपणे जणाय छे, जाणे रागादि स्वरूपभूत होय तेम ते रागादिने आत्मामां स्थापे छे. तेथी रागनी रुचिवाळो अज्ञानी परने हणशे त्यां तेने हिंसा थशे ज. बंध थशे ज. अहा! आवी वात बीजे कयांय छे नहि.
हवे अहीं सिद्धांत कहे छे-‘ज्यां जीवने जिवाडवानो अभिप्राय होय त्यां पण अर्थात् ते अभिप्रायने पण निश्चयनयमां मिथ्यात्व कह्युं छे तो मारवानो अभिप्राय मिथ्यात्व केम न होय? होय ज.’
शुं कह्युं? हुं परद्रव्यनी पर्यायने करुं, परने जीवाडुं, समाजनुं भलुं करुं, कुटुंबनो निर्वाह करुं, लोकोने कारखानां चलावीने रोजी-रोटी दउं वगेरे बधा जे अभिप्राय छे ते मिथ्यात्व छे एम कहे छे. केटलाय लोको पासे करोडो-अबजोनी संपत्ति होय अने कारखानां वगेरे उद्योग-वेपार चलावे अने निवृत्ति न ले. वळी कहे के-अमे कांई पैसा कमावा उद्योग-वेपार करता नथी पण बिचारा हजारो माणसो पोषाय छे तेथी करीए छीए तेने कहीए छीए के भाई! तारो ए अभिप्राय मिथ्यात्व छे. बीजा लोको नभे छे ते शुं पोताना पुण्यथी नभे छे के तारा कारणे नभे छे?
आगळ आवशे के परने हुं सुखी करुं, आहार, औषध, वस्त्र आदि सगवडता बीजाने दउं-दई शकुं इत्यादि अभिप्राय मिथ्याद्रष्टिनो छे अने ते ज बंधनुं कारण छे, कोण दे बापु? एक रजकण पण ताराथी बीजे देवाय एवुं तारुं सामर्थ्य नथी. ए तो जगतनुं तत्त्व छे अने ते पोतानी क्रियावती शक्तिना कारणे पोतानी योग्यताथी आवे छे ने जाय छे. हवे एने ठेकाणे एम माने के में आहार-औषध आदि आप्यां, पैसा आदि आप्या तो ए तो मिथ्यात्व छे. ए पैसा आदि के दि’ एनामां (-आत्मामां) छे? ए तो जडना छे बापु! ने जडनो स्वामी जड होय. जडनो स्वामी पोते (-आत्मा) थाय ए तो मूढ मिथ्याद्रष्टि छे समजाणुं कांई...?
अहीं तो रागनो स्वामी थाय ए मिथ्याद्रष्टि छे तो पछी में आ दीधुं ने ते दीधुं एम अभिप्राय राखी परनो के जडनो स्वामी थाय एनी तो शी वात?
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ए तो महामूढ प्रगट मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! त्रण लोकना नाथनी वाणीमां तो आ आव्युं छे भाई!
जो परने जिवाडवानो अभिप्राय मिथ्यात्व छे तो परने जिवाडवुं ते दया छे ने दया छे ते धर्म छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?
समाधानः– दया छे ते धर्म छे ए तो सत्य छे; पण कोनी दया? स्वदया अर्थात् अंतरंगमां रागरहित वीतराग निर्विकार परिणामनी उत्पत्ति ते धर्म छे. पुरुषार्थसिद्धयुपायमां (श्लोक ४४ मां) ए ज कह्युं छे के-निश्चयथी रागादिनी उत्पत्ति न थवी ते अहिंसा नाम स्वदया छे. धवलमां पण आवे छे के दया ए जीवनो स्वभाव छे; पण ए कइ दया? ए स्वदयानी वात छे, परदयानी नहि. निश्चय स्वदयारूप धर्म जेने प्रगटयो छे ते धर्मात्माने बहारमां पर जीवोनी रक्षाना भाव आवे छे, तेने निश्चयना सहचर जाणी व्यवहारथी धर्म कहेवामां आवे छे; परंतु ते परदयाना भाव वास्तवमां तो पुण्यभाव छे, पुण्यबंधनुं कारण छे, धर्म नथी. तथापि तेने धर्म जाणी कोई परने जिवाडवानो अभिप्राय राखे छे तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. समजाणुं कांई...!
भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ विज्ञानघनस्वरूप प्रभु सदा वीतरागस्वरूप ज छे. तेने जेवो ने जेवडो छे तेवो ने तेवडो टकतो मानवो-स्वीकारवो तेनुं नाम अहिंसा छे. परंतु एनाथी विपरीत तेने अल्पज्ञ, अधुरो ने रागवाळो मानवो ते मिथ्यात्व छे, स्वरूपनी हिंसा छे. शुं कह्युं? पोते जीवतत्त्व पूरण ज्ञाता-द्रष्टा छे. तेने तेवो न स्वीकारतां हुं परने मारवावाळो ने जिवाडवावाळो एम मानवुं ते स्वरूपने नकारवारूप निश्चय हिंसा छे; अने ते काळे परघात थवो ते व्यवहारे हिंसा छे.
अरेरे! अनंतकाळथी ८४ना अवतारमां रखडतो ए जीव मिथ्यात्वने लइने रखडे छे हों. अहा! मिथ्यात्वने लइने प्रभु! तें एटलां अनंत-अनंत जन्म-मरण कर्यां के तारा मरण पछी जे अनंती माताओए आंसु सार्यां एनाथी समुद्रोना समुद्रो भराई जाय. भगवान! तुं ए बधुं भूली गयो छे केमके तने अनादि-अनंत तत्त्वनो विचार नथी. पण ए बधा अनंत भव मिथ्यात्वने लइने छे भाई! मिथ्यात्व ए ज संसार, मिथ्यात्व ए ज पाप, मिथ्यात्व ए ज आस्रव ने मिथ्यात्व ए ज भावबंध छे. मिथ्यात्व गया पछी जे चारित्रमोहसंबंधी राग छे तेने अहीं गणतरीमां नथी लेवो केमके ए तो निर्जरी जवा खाते छे अने परज्ञेयपणे छे. जेने रागमां एकत्वबुद्धि छे तेने ज रागनो सद्भाव छे एम कीधुं छे. माटे मिथ्या अभिप्रायने छोडी भगवान पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते ज्ञाता-द्रष्टा छे तेनी रुचि करवी.