Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan Ratnakar Part-8 ; Bandh Adhikar; Kalash: 163-164 ; Gatha: 237-241.

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परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
बंध अधिकार

अथ प्रविशति बन्धः।

(शार्दूलविक्रीडित)
रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगत्
क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयेन बन्धं धुनत्।
आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फुटं नाटयद्
धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति।। १६३।।
रागादिकथी कर्मनो, बंध
जाणी मुनिराय,
तजे तेह समभावथी, नमुं सदा तसु पाय.

प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे बंध प्रवेश करे छे’. जेम नृत्यना अखाडामां स्वांग प्रवेश करे तेम रंगभूमिमां बंधतत्त्वनो स्वांग प्रवेश करे छे.

त्यां प्रथम ज, सर्व तत्त्वोने यथार्थ जाणनारुं जे सम्यग्ज्ञान छे ते बंधने दूर करतुं प्रगट थाय छे एवा अर्थनुं मंगळरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [राग–उद्गार–महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जे (बंध)


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जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि। ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं।। २३७।। छिंददि भिंददि य तदा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं।। २३८।। उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं। णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो।। २३९।। रागना उदयरूपी महा रस (दारू) वडे समस्त जगतने प्रमत्त (-मतवालुं, गाफेल) करीने, [रस–भाव–निर्भर–महा–नाटयेन क्रीडन्तं बन्धं] रसना भावथी (अर्थात् रागरूपी घेलछाथी) भरेला मोटा नृत्य वडे खेली (नाची) रह्यो छे एवा बंधने [धुनत्] उडाडी देतुं-दूर करतुं, [ज्ञानं] ज्ञान [समुन्मज्जति] उदय पामे छे. केवुं छे ज्ञान? [आनन्द–अमृत–नित्य–भोजि] आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन करनारुं छे, [सहज–अवस्थां स्फुटं नाटयत्] पोतानी जाणनक्रियारूप सहज अवस्थाने प्रगट नचावी रह्युं छे, [धीर–उदारम्] धीर छे, उदार (अर्थात् मोटा विस्तारवाळुं, निश्चळ) छे, [अनाकुलं] अनाकुळ (अर्थात् जेमां कांई आकुळतानुं कारण नथी एवुं) छे, [निरुपधि] निरुपधि (अर्थात् परिग्रह रहित, जेमां कांई परद्रव्य संबंधी ग्रहणत्याग नथी एवुं) छे.

भावार्थः– बंधतत्त्वे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो छे, तेने उडावी दईने जे ज्ञान पोते प्रगट थई नृत्य करशे ते ज्ञाननो महिमा आ काव्यमां प्रगट कर्यो छे. एवा अनंत ज्ञानस्वरूप जे आत्मा ते सदा प्रगट रहो. १६३.

हवे बंधतत्त्वनुं स्वरूप विचारे छे; तेमां प्रथम, बंधना कारणने स्पष्ट रीते कहे छेः-

जेवी रीते को पुरुष पोते तेलनुं मर्दन करी,
व्यायाम करतो शस्त्रथी बहु रजभर्या स्थाने रही; २३७.
वळी ताड, कदळी, वांस आदि छिन्नभिन्न करे अने
उपघात तेह सचित्त तेम अचित्त द्रव्य तणो करे. २३८.
बहु जातनां करणो वडे उपघात करता तेहने,
निश्चय थकी चिंतन करो; रजबंध थाय शुं कारणे? २३९.

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जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं।। २४०।। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु। रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण।। २४१।।

यथा नाम कोऽपि पुरुषः स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले।
स्थाने स्थित्वा च करोति शस्त्रैर्व्यायामम्।। २३७।।
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डीः।
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम्।। २३८।।
उपघातं
कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः।
निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिकस्तु रजोबन्धः।। २३९।।
यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः।
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः।। २४०।।
एवं मिथ्याद्रष्टिर्वर्तमानो बहुविधासु
चेष्टासु।
रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा।। २४१।।

गाथार्थः– [यथा नाम] जेवी रीते- [कः अपि पुरुषः] कोई पुरुष [स्नेहाभ्यक्तः तु] (पोताना पर अर्थात् पोताना शरीर पर) तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगावीने [च] अने [रेणुबहुले] बहु रजवाळी (धूळवाळी) [स्थाने] जग्यामां [स्थित्वा] रहीने [शस्त्रैः] शस्त्रो वडे [व्यायामम् करोति] व्यायाम करे छे, [तथा] अने [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः] ताड, तमाल, केळ, वांस, अशोक वगेरे वृक्षोने [छिनत्ति] छेदे छे, [भिनत्ति च] भेदे छे, [सचित्ताचित्तानां] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम्] द्रव्योनो [उपघातम्] उपघात (नाश) [करोति] करे छे; [नानाविधैः करणैः] ए रीते नाना प्रकारनां करणो वडे [उपघातं कुर्वतः] उपघात करता [तस्य] ते पुरुषने [रजोबन्धः तु] रजनो बंध (धूळनुं चोंटवुं) [खलु] खरेखर [किम्प्रत्ययिकः] कया कारणे थाय छे [निश्चयतः]

एम जाणवुं निश्चय थकी–चीकणाई जे ते नर विषे
रजबंधकारण ते ज छे, नहि कायचेष्टा शेष जे. २४०.
चेष्टा विविधमां वर्ततो ए रीत मिथ्याद्रष्टि जे,
उपयोगमां रागादि करतो रज थकी लेपाय ते. २४१.

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ते निश्चयथी [चिन्त्यताम्] विचारो. [तस्मिन् नरे] ते पुरुषमां [यः सः स्नेहभावः तु] जे तेल आदिनो चीकाशभाव छे [तेन] तेनाथी [तस्य] तेने [रजोबन्धः] रजनो बंध थाय छे [निश्चयतः विज्ञेयं] एम निश्चयथी जाणवुं, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायानी चेष्टाओथी [न] नथी थतो. [एवं] एवी रीते- [बहुविधासु चेष्टासु] बहु प्रकारनी चेष्टाओमां [वर्तमानः] वर्ततो [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि [उपयोगे] (पोताना) उपयोगमां [रागादीन् कुर्वाणः] रागादि भावोने करतो थको [रजसा] कर्मरूपी रजथी [लिप्यते] लेपाय छे-बंधाय छे.

टीकाः– जेवी रीते-आ जगतमां खरेखर कोई पुरुष स्नेहना (अर्थात् तेल आदि चीकणा पदार्थना) मर्दनयुक्त थयेलो, स्वभावथी ज जे बहु रजथी भरेली छे (अर्थात् बहु रजवाळी छे) एवी भूमिमां रहेलो, शस्त्रोना व्यायामरूपी कर्म (अर्थात् शस्त्रोना अभ्यासरूपी क्रिया) करतो, अनेक प्रकारनां करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो, (ते भूमिनी) रजथी बंधाय छे-लेपाय छे. (त्यां विचारो के) तेमांथी ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे? प्रथम, स्वभावथी ज जे बहु रजथी भरेली छे एवी भूमि रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं एवा पुरुषो के जेओ ते भूमिमां रहेला होय तेमने पण रजबंधनो प्रसंग आवे. शस्त्रोना व्यायामरूपी कर्म पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण शस्त्रव्यायामरूपी क्रिया करवाथी रजबंधनो प्रसंग आवे. अनेक प्रकारनां करणो पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण अनेक प्रकारनां करणोथी रजबंधनो प्रसंग आवे. सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करवाथी रजबंधनो प्रसंग आवे. माटे न्यायना बळथी ज आ फलित थयुं (-सिद्ध थयुं) के, जे ते पुरुषमां स्नेहमर्दनकरण (अर्थात् ते पुरुषमां जे तेल आदिना मर्दननुं करवुं), ते बंधनुं कारण छे. तेवी रीते-मिथ्याद्रष्टि पोतामां रागादिक (-रागादिभावो-) करतो, स्वभावथी ज जे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो छे एवा लोकमां काय-वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रिया) करतो, अनेक प्रकारनां करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो, कर्मरूपी रजथी बंधाय छे. (त्यां विचारो के) तेमांथी ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे? प्रथम, स्वभावथी ज जे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो छे एवो लोक बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो सिद्धो के जेओ लोकमां रहेला छे तेमने पण बंधनो प्रसंग आवे. काय-वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रियास्वरूप


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(पृथ्वी)
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा
न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्।
यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्।। १६४।।

योग) पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो यथाख्यात-संयमीओने पण (काय-वचन-मननी क्रिया होवाथी) बंधनो प्रसंग आवे. अनेक प्रकारनां करणो पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो केवळज्ञानीओने पण (ते करणोथी) बंधनो प्रसंग आवे. सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेओ समितिमां तत्पर छे तेमने (अर्थात् जेओ यत्नपूर्वक प्रवर्ते छे एवा साधुओने) पण (सचित्त तथा अचित्त वस्तुओना घातथी) बंधनो प्रसंग आवे. माटे न्यायबळथी ज आ फलित थयुं के, जे उपयोगमां रागादिकरण (अर्थात् उपयोगमां जे रागादिकनुं करवुं), ते बंधनुं कारण छे.

भावार्थः– अहीं निश्चयनय प्रधान करीने कथन छे. ज्यां निर्बाध हेतुथी सिद्धि थाय ते ज निश्चय छे. बंधनुं कारण विचारतां निर्बाधपणे ए ज सिद्ध थयुं के-मिथ्याद्रष्टि पुरुष जे रागद्वेषमोहभावोने पोताना उपयोगमां करे छे ते रागादिक ज बंधनुं कारण छे. ते सिवाय बीजां-बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, मन-वचन-कायना योग, अनेक करणो तथा चेतन-अचेतननो घात-बंधनां कारण नथी; जो तेमनाथी बंध थतो होय तो सिद्धोने, यथाख्यात चारित्रवाळाओने, केवळज्ञानीओने अने समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिओने बंधनो प्रसंग आवे छे. परंतु तेमने तो बंध थतो नथी. तेथी आ हेतुओमां (-कारणोमां) व्यभिचार आव्यो. माटे बंधनुं कारण रागादिक ज छे ए निश्चय छे.

अहीं समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिओनुं नाम लीधुं अने अविरत, देशविरतनुं नाम न लीधुं तेनुं कारण ए छे के-अविरत तथा देशविरतने बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नथी तेथी चारित्रमोह संबंधी रागथी किंचित् बंध थाय छे; माटे सर्वथा बंधना अभावनी अपेक्षामां तेमनुं नाम न लीधुं. बाकी अंतरंगनी अपेक्षाए तो तेओ पण निर्बंध ज जाणवा.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [बन्धकृत्] कर्मबंध करनारुं कारण, [न कर्मबहुलं जगत्] नथी बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, [न चलनात्मकं कर्म वा] नथी चलनस्वरूप


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कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रियारूप योग), [न नैककरणानि] नथी अनेक प्रकारनां करणो [वा न चिद्–अचिद्–वधः] के नथी चेतन-अचेतननो घात. [उपयोगभूः रागादिभिः यद्–ऐक्यम् समुपयाति] ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक साथे जे ऐकय पामे छे [सः एव केवलं] ते ज एक (-मात्र रागादिक साथे एकपणुं पामवुं ते ज-) [किल] खरेखर [नृणाम् बन्धहेतुः भवति] पुरुषोने बंधनुं कारण छे.

भावार्थः– अहीं निश्चयनयथी एक रागादिकने ज बंधनुं कारण कह्युं छे. १६४.

*
समयसार बंध अधिकार

प्रथम अर्थकार पंडित श्री जयचंदजी मंगलाचरण कहे छेः-

“रागादिकथी कर्मनो बंध जाणी मुनिराय,
तजे तेह समभावथी, नमुं सदा तसु पाय.”

शुं कहे छे? के राग ने द्वेष, ने पुण्य ने पाप ईत्यादि जे विकारी भाव पर्यायमां थाय छे ते वडे कर्मबंध थाय छे; आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना जे शुभभाव थाय छे ते बंधनना भाव छे एम कहे छे. अहाहा..! व्रतादिना जे व्यवहार परिणाम थाय छे ते बंधनरूप छे एम मुनिराज जाणे छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, जे व्यवहारना रागने-बंधनने मुनिराज जाणे छे ते व्यवहारनय छे. (निश्चये तो ते स्वरूपविश्रांत छे)

तो शुं रागने-बंधने व्यवहारे जाणे छे एटलाथी मुनिराजने मुक्ति थाय छे? तो कहे छे-ना; तो केवी रीते छे? तो कहे छे-

‘तजे तेह समभावथी’,-शुं कह्युं? के रागने-बंधने जाणीने अंतर-एकाग्रता वडे समभावनी-वीतरागभावनी प्रगटता करीने ते रागने-बंधने छोडी दे छे ने मुक्तिने पामे छे. अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अभेद एक ज्ञायकभावमय वस्तु छे. मुनिराज आवा पोताना निज आत्मद्रव्यमां अंतरएकाग्रता वडे स्थिर थई शांत-शांत परम शांत वीतरागभावने-समभावने प्रगट करे छे ने ते वडे रागने-बंधने दूर करे छे ने मुक्ति पामे छे. ल्यो, आवा (स्वरूपमां विश्रांत एवा) मुनिराज होय छे अने तेमने, अर्थकार कहे छे-हुं सदा नमस्कार करुं छुं. अहा! शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये जेमने अत्यंत निर्विकार परिणमन थयुं ने कर्मबंधन टळी गयुं ते मुनिराजना चरणकमळमां हुं नित्य ढळुं छुं-नमुं छुं एम कहे छे. हवे-

‘प्रथम टीकाकार कहे छे के-हवे बंध प्रवेश करे छे. जेम नृत्यना अखाडामां


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स्वांग प्रवेश करे तेम रंगभूमिमां बंधतत्त्वनो स्वांग प्रवेश करे छे.

त्यां प्रथम ज, सर्व तत्त्वोने यथार्थ जाणनारुं जे सम्यग्ज्ञान छे ते बंधने दूर करतुं प्रगट थाय छे एवा अर्थनुं मंगळरूप काव्य कहे छे’ः-

बंधनो नाश करवा माटे मांगळिक कहे छेः-

* कळश १६३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘राग–उद्गार–महारसेन सकलं जगत प्रमतं कृत्वा’ -जे (बंध) रागना उदयरूपी महारस (दारू) वडे समस्त जगतने प्रमत (-मतवालुं, गाफेल) करीने. ‘रस– भाव–निर्भर–महा–नाटयेन–क्रीडन्तं बन्धं’ रसना भावथी (अर्थात् रागरूपी घेलछाथी) भरेला मोटा नृत्य वडे खेली (नाची) रह्यो छे एवा बंधने...

शुं कह्युं? के बंध-रागनी एकताबुद्धिरूप दारूए जगतना जीवोने प्रमत्त नाम गांडा-पागल करी दीधा छे. भाई! चाहे अशुभराग हो के शुभराग हो, -ए कांई आत्मानुं स्वरूप नथी. जुओ, आ जे भगवान (अरहंतादि) रागरहित वीतराग थई गया छे एमनी वात नथी; आ तो शुद्ध चैतन्यस्वभावमय सदा वीतरागस्वभावी पोते अंदर आत्मा भगवानस्वरूपे छे तेना स्वरूपमां शुभाशुभ राग नथी एम वात छे. बहु झीणी वात भाई! आवुं स्व स्वरूप छे तोपण, कहे छे, रागना एकत्वरूप महारस नाम दारू वडे जगत आखुं गाफेल-मतवालुं थई रह्युं छे. समजाणुं कांई...?

अहा! अंदर पोते त्रणलोकनो नाथ सदा भगवानस्वरूपे-परमात्मस्वरूपे विराजी रह्यो छे पण एनी एने खबर नथी. रागनो भाव मारो छे, शुभराग भलो छे एम राग साथे एकपणाना मोहनो महारस एणे पीधेलो छे ने! (तेथी कांई सुधबुध नथी). आगळ कहेशे के मोटा मांधाता पंचमहाव्रतधारीओ (द्रव्यलिंगीओ) हजारो राणीओ छोडीने जंगलमां वसनाराओ पण, आ पंचमहाव्रतादिनो राग मारो छे एम राग साथे एकत्व करीने बधा उन्मत्त-पागल थई गया छे. अहा! आवी (गजब) वातु!! दुनिया आखीथी वीतरागनो मारग साव जुदो छे बापा! आमां कांई वादविवादे समजाय एवुं नथी.

भगवान आत्मा सहजानंदस्वरूप प्रभु एक ज्ञायकभावपणे सदा अंदर विराजमान छे. अहा! तेने भूलीने संसारी जीवोने जे रागनी रुचि-प्रेम छे ते मिथ्यात्वभाव छे, बंधभाव छे. अहा! ते मिथ्यात्वनो-बंधनो रस जगत आखाने उन्मत्त करीने रागरूपी घेलछाथी भरेला मोटा नृत्य वडे नाची रह्यो छे, शुं कह्युं? के अबंधस्वरूपी भगवान आत्मामां जेनी नजरुं नथी अने जेनी नजरुं रागरूप बंध पर छे (रागए भावबंध छे) एवा जगतने मिथ्यात्वरूपी बंधनो रस विकारथी भरेला


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महा नृत्य वडे नाची रह्यो छे. हवे कहे छे-एवा बंधने उडाडी देतुं सम्यग्ज्ञान हवे प्रगट थाय छे-

एवा बंधने ‘धुनत्’ उडाडी देतुं-दूर करतुं, ‘ज्ञानं’ ज्ञान ‘समुन्मज्जति’ उदय पामे छे.

शुं कहे छे! के जे बंधे आखा जगतने राग मारो छे एवी घेलछाथी गांडु बनाव्युं हतुं ते बंधने उडाडी देतुं ज्ञान नाम आत्मा-नित्यानंदस्वरूप भगवान उदय पामे छे. अहाहाहा...! सम्यग्द्रष्टि धर्मी पुरुष के जे रागरहित-बंधरहित सदा अबंधस्वरूप भगवान आत्माने जुए छे-अनुभवे छे तेने बंधने उडाडी देतुं ज्ञान उदय पामे छे एम कहे छे. जेने ज्ञानमां सच्चिदानंदस्वरूप नित्य अबंध भगवान आत्मा जणायो तेने ज्ञान नाम आत्मा उदय पामे छे. शुं करतो थको? तो कहे छे के जगत आखाने जेणे उन्मत्त बनाव्युं छे तेवा बंधने उडाडी देतो-दूर करतो थको. ल्यो, आवी वातो भारे; लोकोने लागे के आ तो एकली निश्चयनी वातो छे. तुं एम कहे प्रभु! -पण शुं थाय? मारग तो आ छे बापा!

अरे! रागना रसनी रुचिमां एणे चोर्याशीना अवतारमां-कागडा, कूतरा, कीडा ने एकेन्द्रियादि निगोदना अवतारोमां अनंत-अनंत भव कर्या छे. अहा! आ बंधे एने गाफेल करी चारगतिरूप संसारमां रागना नाचथी नचाव्यो छे, रखडाव्यो छे. अहीं कहे छे-हवे अंतरमां उदय पामेलुं ज्ञान-सम्यग्ज्ञान ते बंधने उडाडी दे छे. अहाहा...! हुं तो रागना संबंधथी रहित अबंधस्वरूप शुद्ध चैतन्यमय त्रिकाळी भगवान छुं एवुं जेमां भान थयुं ते सम्यग्ज्ञान बंधने उडाडी दे छे. आवी वात छे!

आमां हवे ओलुं सामायिक करवुं ने प्रतिक्रमण करवुं ने पोसा करवा इत्यादि तो आवतुं नथी?

भाई! सामायिक कोने कहेवी एनी तने खबर नथी. तुं जेने सामायिक आदि कहे छे ए तो राग छे. वास्तवमां अंदर ज्ञानानंदनी मूर्ति प्रभु आत्मा नित्य बिराजी रह्यो छे, तेनुं ज्ञान-श्रद्धान प्रगट थवुं अने तेमां ज ठरी जवुं तेने भगवान सामायिक कहे छे. अहाहा...! जेमां अतीन्द्रिय आनंदनो परम अद्भुत आल्हादकारी समरस प्रगट थाय तेने सामायिक कहे छे.

आत्मा आनंदरसकंद प्रभु छे. तेमां एकाग्र थई ठरतां आनंदनो-अमृतनो स्वाद प्रगट थाय छे; ज्यारे आ पुण्य-पापना रसनो स्वाद छे ए तो झेरनो स्वाद छे. शुं कह्युं? आ पुण्यभावनो (प्रशस्तरागनो) जे स्वाद छे ए झेरनो स्वाद छे. एना स्वादमां जगत आखुं गांडु थई रह्युं छे. परंतु कोई पुण्य-पापना रसथी भिन्न पडी ज्यां पोताना शुद्ध चैतन्यरसकंद परमानंदमूर्ति प्रभु आत्मामां द्रष्टि करे छे त्यां


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रागने-बंधने उडाडी देतुं ज्ञान-आत्मज्ञान उदय पामे छे. अहा! अंर्तद्रष्टि करतां अबंधस्वभावी एक ज्ञायकभावमात्र आत्मानी प्रतीति ने ज्ञान प्रगट थाय छे अने एनुं ज नाम धर्म छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! केवुं छे ज्ञान? अर्थात् केवो छे भगवान आत्मा? ज्ञान कहेतां आत्मा; तो कहे छे-

‘आनन्द–अमृत–नित्य–भोजि’ आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन करनारुं छे, शुं कह्युं? के वर्तमान प्रगटेलुं सम्यग्ज्ञान आनंदामृतनुं नित्य भोजन करनारुं छे. पहेलां (अनादिथी) जे रागनी एकतारूप दशा हती ते दुःखरूप दशा हती. परंतु रागथी-पुण्य- पापना विकल्पथी भिन्न पडीने ज्यारे आत्माने-चिदानंदरसकंद पोताना भगवानने- जाण्यो त्यारे, कहे छे के जे ज्ञान-सम्यग्ज्ञान प्रगट थयुं ते आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन करनारुं छे. अहाहा...! रागना-झेरना स्वादना वेदनथी छूटी जे ज्ञान शुद्ध चैतन्यरसना स्वादना वेदनमां पडयुं ते, कहे छे, आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन करनारुं छे. अहा! भाषा तो जुओ! आनंदरूपी अमृतनुं ‘नित्य’ भोजन करनारुं छे एम कहे छे.

‘नित्य–भोजि’ -एम पाठ छे ने? अहाहा...! भगवान आत्मा

सहजानंदस्वरूप प्रभु नित्य आनंदस्वरूप छे अने तेना स्वानुभव वडे प्रगट थयेलुं ज्ञान पर्यायमां नित्य आनंदनुं भोजन करनारुं छे. (मतलब के हवे पछी एने रागनो-झेरनो स्वाद नथी). गजब वात छे.

आ मैसूब, पतरवेलियां, स्त्रीनुं शरीर इत्यादिनो स्वाद तो एने छे नहि, पण ते ठीक छे एवो जे राग ते झेरना प्याला छे प्रभु! अने आत्मा आनंदरसकंद प्रभु जेवो छे तेवो स्वानुभवमां आववो ते अमृतना प्याला छे. आ अमृतना प्याला जेने प्रगटया तेने नित्य प्रगटया छे एम कहे छे. अत्यारे लोकोना अंतरमां ज्यां संसारनी-रागनी होळी सळगे छे त्यां तो आ वात छे नहि पण धर्मना बहाने ज्यां रागनी-शुभरागनी प्ररूपणा चाले छे त्यां पण आ वात छे नहि. शुं थाय? अरेरे! ज्यां सत्य सांभळवाय मळे नहि त्यां सत्यनो विचार क्यांथी उगे? त्यां सत्यनो (शुद्ध आत्मतत्त्वनो) विचार करवानो प्रसंग क्यांथी मळे? अने सत्य भणी झुकाव तो थाय ज क्यांथी? अहा! एम ने एम अवसर (मनुष्यभव) वेडफाई जाय!

भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो कंद प्रभु छे. तेना स्वानुभवमां प्रगटेलुं ज्ञान बंधनो छेद करीने नित्य आनंदामृतनुं भोजन करनारुं छे. आवी वात! हवे जेने इन्द्रियना विषयोमां सुख भासे छे ते विषयोना भिखारीने अतीन्द्रिय आनंदरसनो स्वाद क्यांथी आवे? अहा! कोईने स्त्री रूपाळी, सुंदर, नमणी होय अने


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तेनी साथे रमवामां आनंद भासे तेने अनुपम आनंदरसनुं नित्यभोजन क्यांथी होय? अहा! स्त्री आदि विषयोमां रमवामां जे आनंद भासे छे ते तो मिथ्यात्वनो भ्रमणानो- संसारनो रस छे अने ते चतुर्गतिपरिभ्रमण करावनारो छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– तो सम्यग्द्रष्टिने पण राग तो होय छे? (एम के तेने ‘आनंदामृत- नित्यभोजि’ केम कह्यो?)

समाधानः– सम्यग्द्रष्टि अर्थात् जेने आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा अनुभवमां द्रष्टिमां ने प्रतीतिमां आव्यो छे एने मुख्यपणे नित्य आनंदनुं भोजन छे. एने किंचित् राग छे ते अहीं गौण छे. कोई अहीं एम काढे (समजे) के समकिती नित्य आनंदने भोगवे, तेने दुःख होय ज नहि तो एम नथी. एने ‘आनंदामृतनित्यभोजि’ कह्यो ए तो एने जे वीतरागतानो-सुखनो अंश प्रगटयो एनी मुख्यताथी वात करी. पण भाई! एने जेटलो किंचित् राग छे तेटलुं दुःख छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता थई नथी त्यां सुधी दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना विकल्प तेने होय छे अने ते राग छे अने तेटलुं तेने दुःखनुं वेदन छे. पण अहीं तेने मुख्य न गणतां (गौण गणीने) एने नित्य आनंदनुं वेदन छे एम कह्युं छे. समजाणुं कांई...? अहा! द्रष्टि (दर्शन) निर्विकल्प छे अने तेनो विषय नित्यानंद प्रभु अभेद एक निर्विकल्प छे. तो द्रष्टिनी अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिने नित्य आनंदनो ज अनुभव छे एम कह्युं छे. बाकी द्रष्टि साथे जे ज्ञान प्रगट छे ते तो एम यथार्थ जाणे छे के जेटलो राग अवशेष छे तेटलुं दुःखनुं वेदन छे अने तेटलो बंध पण छे जे द्रव्यबंधनुं कारण थाय छे. आवी वात छे.

अहाहा...! जेम हजार पांखडीनुं फूल खीली ऊठे तेम अंतर्द्रष्टि करतां भगवान आत्मा सर्व असंख्यात प्रदेशे आनंदथी खीली ऊठे छे. ओहो! जे आनंद अंदर संकोचपणे-शक्तिपणे पडयो हतो ते, एना तरफनो आश्रय थतां ज, धर्मीने पर्यायमां उछळीने उल्लसित थाय छे. आनुं नाम धर्म ने आनुं नाम निर्जरा कहेवामां आवे छे. समकितीने निर्जरा छे एम आवे छे ने? आनुं नाम ते निर्जरा छे.

आ तो एक बे बहारथी उपवास करे ने माने के थई गई तपस्या ने थई गई निर्जरा तो तेने कहीए छीए के धूळेय नथी तपस्या सांभळने. बापु! मरी जाय ने तुं (उपवासादि राग) करी करीने; तोपण ज्यां सुधी निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्माना अंदर भेटा न थाय त्यां सुधी तपेय नथी ने निर्जराय नथी.

आ तो एने निर्जरा छे जेने आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन छे. आ लौकिकमां ‘अमृत’ कहे छे ए नहि हों. लोकमां तो अनेक प्रकारे अमृत कहे छे-ए वात नथी आ तो अतीन्द्रिय आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन एम वात छे. नित्य नाम सदा. निर्जरा अधिकारमां छेल्ले आव्युं ने? के-


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‘सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै...’

ए ‘सदा’नी व्याख्या छे ते अहीं पाछी आवी. वळी केवुं छे ज्ञान? तो कहे छे-

‘सहज–अवस्थां स्फुटं नाटयत’ पोतानी जाणनक्रियारूप सहज अवस्थाने प्रगट नचावी रह्युं छे.

पहेलां ए नाचतुं तो हतुं; ए तो आव्युं ने? के –‘रस–भाव–निर्भर–महा– नाटयेन क्रीडन्तं बन्धं’ पहेलां ए नाचतुं हतुं रागनी घेलछाभर्या नृत्यथी. हवे स्वभावद्रष्टि थतां तेने छोडीने पोतानी जाणनक्रियारूप सहज अवस्थाने प्रगट नचावी रह्युं छे. जुओ, आमां बंधनी सामे ज्ञान लीधुं. कोनुं? सम्यग्द्रष्टिनुं अहा! नित्य आनंदामृतनुं भोजन करे छे ते समकितीनुं ज्ञान जाणनक्रियारूप सहज अवस्थाथी नाची रह्युं छे. अर्थात् समकितीने जाणनक्रियामात्र पोतानी सहज निर्मळ अवस्था वर्तमान प्रगट थई छे. पहेलां राग प्रगट थतो हतो तेने बदले हवे ज्ञान प्रगट थयुं छे.

वळी केवुं छे ज्ञान? ‘धीर–उदारम्’ धीर छे, उदार छे.

अहा! सम्यग्ज्ञानीनुं ज्ञान धीर छे एटले शुं? के ते धीरुं थईने स्वरूपमां समाईने रहेलुं छे. आ करुं ने ते करुं-एवी बहारनी हो-हा ने धंधालमां ते परोवातुं नथी. अहाहा...! अज्ञानी ज्यां खूब हरखाई जाय वा मुंझाई जाय एवा अनुकूळ के प्रतिकूळ संजोगमां ज्ञानी तेने (-संजोगने) जाणवामात्रपणे-साक्षीभावपणे ज रहे छे, पण तेमां हरख-खेद पामतो नथी. शुं कह्युं? प्रतिकुळताना गंज खडकाया होय तोपण ज्ञानी स्वरूपमां निश्चळ रहेतो थको तेने जाणवामात्रपणे रहे छे पण खेदखिन्न थतो नथी. आवुं ज्ञानीनुं ज्ञान महा धीर छे. जे वडे ते अंतःआराधनामां निरंतर लागेलो ज रहे छे.

वळी ते उदार छे. साधकने अनाकुळ आनंदनी धारा अविरतपणे वृद्धिगत थई परम (पूर्ण) आनंद भणी गति करे एवा अनंत अनंत पुरुषार्थने जाग्रत करे तेवुं उदार छे. भींसना प्रसंगमां पण अंदरथी धारावाही शान्तिनी धारा नीकळ्‌या ज करे एवुं महा उदार छे. ज्यां अज्ञानी अकळाई जाय, मुंझाई जाय एवा आकरा उदयना काळमां पण ज्ञानीनुं ज्ञान धारावाही शांति-आनंदनी धाराने तेमां भंग न पडे तेम टकावी राखे तेवुं उदार छे. अहाहा..! आवुं ज्ञानीनुं ज्ञान उदार छे.

वळी ‘अनाकुलं’ अनाकुळ छे. जेमां जराय आकुळता नथी तेवुं आनंदरूप छे. ज्ञानीने क्यांय हरख के खेद नथी. तेने किंचित् अस्थिरता होय छे ते अहीं गौण छे. वास्तवमां ते निराकुळ आनंदामृतनुं निरंतर भोजन करनारो छे. अहा! जाणवुं, जाणवुं मात्र जेनुं स्वरूप छे तेमां आकुळता शुं?


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वळी ज्ञान ‘निरुपधि’ निरुपधि छे. एटले के एने रागनी उपधि नथी, अर्थात् ते रागना संबंधथी रहित छे. सम्यग्ज्ञान परिग्रहथी रहित छे. तेमां कांई परद्रव्य संबंधी ग्रहण-त्याग नथी एवुं निरुपधि छे. आ प्रमाणे रागथी भिन्न पडीने भगवान आत्मामां अंतरएकाग्र थतां प्रगट थयेलुं ज्ञान बंधने उडाडी देतुं, आनंदामृतनुं नित्य भोजन करनारुं, जाणनक्रियारूप सहज अवस्थाने नचावतुं, धीर, उदार, अनाकुळ अने निरुपधि छे. आवुं सम्यग्ज्ञान महा मंगळ छे.

कळश १६३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन

बंधतत्त्वे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो छे,...’ रागनुं उपयोगमां एकत्व थवुं एनुं नाम बंधतत्त्व छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे. तेना उपयोगमां-ज्ञानमां विकारनुं-रागनुं एकत्व थवुं ते बंधतत्त्व छे जड कर्मनो बंध ए तो बाह्य निमित्त छे. अहीं कहे छे-ए बंधतत्त्वे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो छे. नाटकनी उपमा आपी छे ने? हवे कहे छे-

‘तेने उडावी दईने जे ज्ञान पोते प्रगट थई नृत्य करशे ते ज्ञाननो महिमा आ काव्यमां प्रगट कर्यो छे.’

अहीं कहे छे ते ज्ञान महा महिमावंत छे, मांगलिक छे जेणे उपयोग साथे रागनी एकताने तोडी नाखी छे अने जे नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मामां आश्रय पामीने स्वरूपमां एकत्वपणे परिणम्युं छे. उपयोगमां रागनुं एकत्व ते मुख्यपणे बंध छे. एवा बंधने उडावी दईने प्रगट थयेलुं ज्ञान निराकुळ आनंदनो नाच नाचे छे. अहाहा...! पहेलां रागना एकत्वमां जे नाचतुं हतुं ते ज्ञान हवे रागथी जुदुं पडीने निज ज्ञानानंदस्वभावमां एकत्व पामीने आनंदनो नाच नाचे छे. अहा! आनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे अने ते आनंदनुं देनारुं अत्यंत धीर अने उदार होवाथी महामंगळरूप छे. हवे कहे छे-

‘एवो अनंत ज्ञानस्वरूप जे आत्मा ते सदा प्रगट रहो.’ अहाहा...! आत्मा अनंत अनंत सामर्थ्यमंडित अनंत ज्ञानस्वरूप द्रव्य छे. एनो ज्ञानस्वभाव बेहद, अपरिमित छे. अहाहा...! जेनो जे स्वभाव छे एनी हद शी? क्षेत्रथी भले शरीर प्रमाण होय पण एनो स्वभाव बेहद अनंत ज्ञानस्वरूप छे. अहीं कहे छे-एवुं ज्ञानस्वरूप, आत्माने सदा प्रगट रहो शुं कीधुं? आ जेवो प्रगट थयो एवो ने एवो सादि-अनंत काळ रहो. एम कहे छे. समजाणुं कांई...? आ महा मांगलिक छे.

झीणी वात छे भाई! आ बधी बहारनी क्रिया करे ते क्रिया वडे बंध तूटे एम छे नहि. आ तो पर्यायबुद्धिमां जे विकारना एकत्वरूप परिणमन हतुं तेनो


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द्रव्यद्रष्टि वडे नाश कर्यो छे अने त्यारे प्रगट थयेलुं जे ज्ञान तेमां अनंतज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा जणायो अने तेनुं परिणमन शुद्ध निर्मळ निराकुळ आनंदनुं प्रगट थयुं. हवे कहे छे-ते अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा सदाय प्रगट रहो. ल्यो, आवी वात छे!

समयसार गाथा २३७ थी २४१ः मथाळुं

हवे बंधतत्त्वनुं स्वरूप विचारे छे; तेमां प्रथम, बंधना कारणने स्पष्ट रीते कहे छेः-

गाथा २३७ थी २४१ः टीका उपरनुं प्रवचन

‘जेवी रीते-आ जगतमां खरेखर कोई पुरुष स्नेहना (अर्थात् तेल आदि चीकणा पदार्थना) मर्दनयुक्त थयेलो,...’

‘आ जगतमां’ -एम कहीने जगत सिद्ध कर्युं. ‘स्नेहना मर्दनयुक्त थयेलो’ एटले एकलुं स्नेह नाम तेल चोपडेलुं एम नहि पण शरीर उपर खूब मर्दन करेलुं एम कहेवुं छे. जुओ, अहीं कोई तेलनुं मर्दन करे छे-करी शके छे एम सिद्ध नथी करवुं. आ तो द्रष्टांतमां तेलना मर्दन वडे चिकाशवाळो कोई पुरुष छे बस एटलुं ज कहेवुं छे. समजाणुं कांई...? शुं कीधुं? के-

‘जेवी रीते-आ जगतमां खरेखर कोई पुरुष स्नेहना मर्दनयुक्त थयेलो, स्वभावथी ज जे बहु रजथी भरेली छे (अर्थात् बहु रजवाळी छे) एवी भूमिमां रहेलो, शस्त्रोना व्यायामरूपी कर्म (अर्थात् शस्त्रोना अभ्यासरूपी क्रिया) करतो, अनेक प्रकारनां करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो, (ते भूमिनी) रजथी बंधाय छे- लेपाय छे.’

आ तो दाखलो छे. हवे एमांथी कोई कुतर्क करीने एम काढे के-जुओ, भूमिमां रह्यो छे के नहि? व्यायामरूपी क्रिया करे छे के नहि? व्यवहारे क्रिया करे छे के नहि? बापु! अहीं ए प्रश्न नथी. अहीं तो एनुं द्रष्टांत लईने सिद्धांतमां उतारवुं छे. हवे द्रष्टांतमां पण खोटा तर्क करीने वातने उडाडी दे ए केम हाले?

अहाहा...! ‘अनेक प्रकारना करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो’ -मतलब के सचित्त नाम एकेन्द्रियादि प्राणीओ अने अचित्त नाम पथ्थर आदि पदार्थोनो घात करतो-एम कह्युं तो कोई परनो घात करी शके छे एम अहीं सिद्ध नथी करवुं. आ तो द्रष्टांतमांथी एक अंश सिद्धांतनो काढी लेवो छे. द्रष्टांत कांई सर्व प्रकार सिद्धांत साथे मळतुं आवे एम न होय. ‘करणो वडे सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो’ -ए तो द्रष्टांत पूरतुं छे; बाकी आगळ कहेशे के-‘परवस्तुनो जीव घात करी शके नहि.’ तो एमां जीवनुं शुं कार्य छे?


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जीव परवस्तुनो घात करवानो भाव करे ते एनुं कार्य छे, ते एनुं कर्म छे, परिणाम छे; पण परवस्तुनो घात थाय ए खरेखर जीवनुं कार्य नथी. कोईनो घात थाय ते समये कदाचित् बीजा कोई जीवनो घात करवानो भाव निमित्त होय छे तो आणे आनो घात कर्यो एम उपचारथी कहेवाय छे.

अहीं कहे छे-स्नेहना मर्दनयुक्त थयेलो पुरुष बहु रजभरेली भूमिमां शस्त्रो वडे व्यायाम करतो, अनेक करणो वडे सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो ते रजथी बंधाय छे-लेपाय छे. ‘(त्यां विचारो के) तेमांथी ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे?’ ल्यो, आ सिद्धांत सिद्ध करवो छे. तो हवे आगळ कहे छेः-

‘प्रथम, स्वभावथी ज जे बहु रजथी भरेली छे एवी भूमि रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं एवा पुरुषो के जेओ ते भूमिमां रहेला होय तेमने पण रजबंधनो प्रसंग आवे.’

शुं कीधुं? के जे भूमिमां घणी रज छे तेमां बीजा घणा पुरुषो तेल चोपडया विनाना पण होय छे. त्यां रजबंध तो तेलथी मर्दनयुक्त पुरुषने एकने ज थाय छे, बीजाओने नहि. तेथी एम सिद्ध थयुं के तेल आदिनी चिकाश जे लागेली छे ए ज रजबंधनुं कारण छे, पण बहु रजथी भरेली भूमि रजबंधनुं कारण नथी. केमके जो बहु रजथी भरेली भूमि रजबंधनुं कारण होय तो भूमिमां रहेला अन्य तेलनी चिकाशथी रहित जे पुरुषो छे तेमने पण रजबंध थवो जोईए.

हवे कहे छे-‘शस्त्रोना व्यायामरूपी कर्म पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण शस्त्र व्यायामरूपी क्रिया करवाथी रजबंधनो प्रसंग आवे.’ पण एम बनतुं नथी. मात्र जेना शरीरे तेल आदिनी चीकाश छे तेने ज रजबंध थाय छे, अन्यने नहि. तेथी एम नक्की थाय छे के तेलनी चीकाश ज रजबंधनुं कारण छे, परंतु शस्त्रोना व्यायामरूपी क्रिया रजबंधनुं कारण नथी.

त्रीजुं, ‘अनेक प्रकारनां करणो पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण अनेक प्रकारनां करणोथी रजबंधनो प्रसंग आवे.’ पण एम बनतुं नथी. अर्थात् मात्र जेना शरीर पर तेल आदिनी चीकाश छे तेने ज रजबंध थाय छे, अन्य पुरुषोने नहि. तेथी एम सिद्ध थयुं के तेल आदिनी चीकाश ज रजबंधनुं कारण छे, परंतु अनेक प्रकारनां करणो रजबंधनुं कारण नथी.

चोथुं, ‘सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण सचित्त


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तथा अचित्त वस्तुओनो घात करवाथी रजबंधनो प्रसंग आवे.’ पण एम बनतुं नथी. अर्थात् जेना शरीरे तेल आदिनी चीकाश छे तेने ज एकने रजबंध थाय छे, अन्य कोईने नहि. तेथी एम सिद्ध थयुं के तेल आदिनी चीकाश ज रजबंधनुं कारण छे, परंतु सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात रजबंधनुं कारण नथी.

हवे सरवाळो कहे छे. ‘माटे न्यायना बळथी ज आ फलित थयुं (-सिद्ध थयुं) के, जे ते पुरुषमां स्नेहमर्दनकरण (अर्थात् ते पुरुषमां जे तेल आदिना मर्दननुं करवुं), ते बंधनुं कारण छे.’

जुओ, आ न्यायना बळथी ज सिद्ध थयुं के ते पुरुषमां जे तेल आदिनुं मर्दन करवुं छे ते ज रजबंधनुं कारण छे. अहीं तेलनुं एकलुं चोपडवुं एम न लेतां तेलनुं मर्दन करवुं एम लीधुं छे केमके एमांथी सिद्धांत बताववो छे. शुं? के एकलो राग बंधनुं कारण नथी पण रागनुं मर्दन अर्थात् रागनुं उपयोग साथे एकत्व करवुं ए बंधनुं मुख्य कारण छे. आ द्रष्टांत थयुं.

हवे सिद्धांत कहे छेः- ‘तेवी रीते-मिथ्याद्रष्टि पोतामां रागादिक (-रागादिभावो) करतो, स्वभावथी ज जे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो छे एवा लोकमां काय-वचन- मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रिया) करतो, अनेक प्रकारनां करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो कर्मरूपी रजथी बंधाय छे. (त्यां विचारो के) तेमांथी ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे?’

शुं कीधुं? के आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु अखंड एक ज्ञानानंदस्वरूप छे. तेने न ओळखतां वर्तमान अवस्थामां जे शुभाशुभ रागादि थाय छे तेने पोतानुं स्वरूप माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्याद्रष्टि पर निमित्तादि संयोग अने संयोगीभावमां रोकाणो छे. अहा! चैतन्यस्वभावथी जड द्रव्य तो बाह्य ज छे. तथा शुभाशुभ रागना परिणाम पण शुद्ध चैतन्यथी बहार छे. ते बाह्य भावोने जे पोताना जाणे छे, माने छे ते बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि छे, अने ते रजथी बंधाय छे. अहीं पूछे छे के-रागथी संयुक्त ते बहु कर्मयोग्य रजकणोथी ठसाठस भरेला लोकमां, मन-वचन-कायनी क्रिया करतो अने अनेक करणो (-हस्तादि) वडे सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो कर्मरजथी बंधाय छे तो त्यां ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे? एनो निर्णय करावे छे.

‘प्रथम, स्वभावथी ज जे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो छे एवो लोक बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो सिद्धो के जेओ लोकमां रहेला छे तेमने पण बंधनो प्रसंग आवे.’ पण एम छे नहि; केमके लोकाग्रे बिराजमान सिद्ध भगवानने त्यां कर्मयोग्य पुद्गलो होवा छतां कर्मबंध नथी. कर्मबंध तो एक रागथी संयुक्त पुरुषने ज थाय छे. माटे उपयोगमां रागनुं संयुक्तपणुं ए ज बंधनुं


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कारण छे पण स्वभावथी ज बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक बंधनुं कारण नथी.

शुभभाव भलो ने अशुभ बुरो एवा बे भाग शुद्ध चैतन्यना एकाकार (चिदाकार) स्वभावमां नथी. अज्ञानने लईने मिथ्याद्रष्टिए एवा बे भाग पाडया छे. पण ए विषमता छे अने ते बंधनुं कारण छे. भगवान सिद्ध तो पूरण समभावे- वीतरागभावे परिणम्या छे तेथी त्यां कर्मयोग्य पुद्गलो होवा छतां पण सिद्ध भगवानने बंध नथी. माटे कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक बंधनुं कारण नथी.

बीजुं, ‘काय-वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रियास्वरूप योग) पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो यथाख्यात-संयमीओने पण (काय- वचन-मननी क्रिया होवाथी) बंधनो प्रसंग आवे.’

जुओ, मन-वचन-कायनी क्रियास्वरूप योग बंधनुं कारण नथी. जो योगनी क्रिया बंधनुं कारण होय तो यथाख्यात संयमीओने पण बंध थवो जोईए; अकषायी वीतरागी मुनिवरने योगनी क्रिया होय छे, तो तेने पण बंध थवो जोईए. अगियारमे-बारमे गुणस्थाने शुक्लध्यानमां पण मननुं निमित्त छे, मननी क्रिया छे, छतां त्यां कषाय नथी तेथी बंध थतो नथी, केमके योगनी क्रिया बंधनुं कारण नथी. तेरमे गुणस्थाने केवळीने पण वचनयोग छे, काययोग छे, परंतु त्यां कषाय नथी तेथी बंध थतो नथी. आ प्रमाणे सिद्ध थयुं के योग ते बंधनुं कारण नथी.

त्रीजुं, ‘अनेक प्रकारनां करणो पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो केवळज्ञानीओने पण (ते करणोथी) बंधनो प्रसंग आवे.’

शुं कह्युं? के जो करणो बंधनुं कारण होय तो पूर्ण वीतरागपणे परिणमेला केवळी अरिहंतोने पण बंध थवो जोईए, केमके तेमने करणो नाम इन्द्रियो तो छे. पण एम बनतुं नथी. तेथी सिद्ध थयुं के अनेक प्रकारनां करणो बंधनुं कारण नथी. मिथ्याद्रष्टिने बंध छे केमके रागथी संयुक्तपणुं ज बंधनुं कारण छे.

चोथुं, ‘सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेओ समितिमां तत्पर छे तेमने (अर्थात् जेओ यत्नपूर्वक प्रवर्ते छे एवा साधुओने) पण (सचित्त तथा अचित्त वस्तुओना घातथी) बंधनो प्रसंग आवे.’

जुओ, सचित्त तथा अचित्त वस्तुओना घातथी बंध थतो होय तो ईर्यासमितिपूर्वक प्रमादरहित यत्नाचार वडे विचरता मुनिवरोने पण बंध थवो जोईए केमके तेमने पण समितिपूर्वक विचरतां शरीरना निमित्तथी सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात थाय छे. परंतु ते मुनिवरोने बंध थतो नथी तेथी सिद्ध थयुं के सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात बंधनुं कारण नथी.


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हवे बधानो सरवाळो करी सिद्धांत कहे छे-‘माटे न्यायबळथी ज आ फलित थयुं के, जे उपयोगमां रागादिकरण (अर्थात् उपयोगमां जे रागादिकनुं करवुं), ते बंधनुं कारण छे.’

अहाहा..! भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु सदा चैतन्य उपयोगस्वरूप छे. तेनो परिणमनरूप उपयोग जे ज्ञान तेमां रागनी एकता करवी ते बंधनुं कारण छे एम कहे छे. राग हो; पण ए बंधनुं (मुख्य) कारण नथी, परंतु रागमां एकताबुद्धि होय ते बंधनुं कारण छे. अहा! अहीं दर्शनशुद्धिथी एकदम वात उपाडी छे. मिथ्याद्रष्टिने रागमां एकताबुद्धि छे ते ज बंधनुं कारण छे एम सिद्ध करवुं छे ने? एटले सम्यग्द्रष्टिने जे अल्प राग छे अने तेनाथी मिथ्यात्व ने अनंतानुबंधी सिवायनो जे अल्प बंध छे तेने अहीं गौण गणी ते बंधनुं कारण नथी एम कह्युं छे. अहा! समकितीने अस्थिरताना रागने कारणे जे अल्पबंध छे तेने मुख्य न गणतां मिथ्याद्रष्टिने रागनी एकताबुद्धिथी जे मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनो बंध थाय छे ते ज मुख्यपणे बंध छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे.

‘ववहारोऽभूदत्थो’ -व्यवहार अभूतार्थ नाम असत्यार्थ छे एम गाथा ११ मां कह्युं छे. त्यां असत्यार्थ कहीने पछी १२ मी गाथामां कह्युं के व्यवहार छे, ते सत् छे, जाणेलो प्रयोजनवान छे. कोई ने एम थाय के ११ मी गाथामां व्यवहार असत्य छे अर्थात् छे नहि, अविद्यमान छे एम कह्युं तो पछी १२ मी गाथामां व्यवहार छे एम क्यांथी आव्युं?

भाई! एनो अर्थ एम छे के ११ मी गाथामां समकितीने शुद्धनयनो आश्रय (शुद्धनयना आश्रये ज समकित छे एम) सिद्ध करवो छे तेथी त्यां व्यवहारने गौण करीने नथी, अभूत-अविद्यमान छे एम कह्युं छे अने १२ मी गाथामां समकितीने अस्थिरतानो अल्प राग छे ते सिद्ध करवो छे तेथी व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एम त्यां कह्युं छे. तेथी तो पंडित श्री जयचंदजीए खुलासो कर्यो के व्यवहारने जे असत्य कीधो छे ते गौण करीने कीधो छे पण अभाव करीने असत्य कीधो नथी. बंधना कारणमां पण अहीं एम ज समजवुं.

अहा! आश्रय करवाना संबंधमां त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ज मुख्य छे. तेथी त्यां (११ मी गाथामां) मुख्य जे द्रव्यस्वभाव छे तेने निश्चय कहीने ते सत्यार्थ छे एम कह्युं छे अने पर्यायने व्यवहार कहीने असत् कीधी. आशय एम छे के मुख्य जे द्रव्यस्वभाव तेनी द्रष्टि करतां समकित थाय छे माटे ते सत्यार्थ छे एम कहीने पर्यायने गौण करी असत्यार्थ कहीने नथी एम कहेवामां आव्युं छे.

भाई! आ तो वीतरागनो मार्ग छे. एमां वीतरागता केम थाय एनुं रहस्य


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प्रगट कर्युं छे. पंचास्तिकाय गाथा १७२ मां आवे छे के शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे. अहा! चारे अनुयोगनो सार वीतरागता छे. ए वीतरागता प्रगट केम थाय? तो कहे छे के त्रिकाळी सत्यार्थ सदा वीतरागस्वभाव-चैतन्यस्वभावी एक भगवान आत्मानो आश्रय करतां वीतरागता प्रगट थाय छे. एटले त्रिकाळी ध्रुव निज परमात्मद्रव्यमां ज द्रष्टि करवी ए चारेय अनुयोगनो सार छे एम सिद्ध थयुं.

आ तारा हितनी वात छे भाई! अहाहा...! हित केम थाय? तो कहे छे-परम सत्रूप साह्यबो सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अंदर नित्य परमात्मस्वरूपे साक्षात् बिराजमान छे. आवा निज परमात्मस्वभावना आश्रये पर्यायमां निराकुल आनंदरूप परमात्मपद प्रगट थाय छे अने ते एनुं हित छे एने सुखनुं प्रयोजन छे ने? तो सुखधाम प्रभु आत्मा त्रिकाळ छे एनो आश्रय करवाथी सुखनी दशा प्रगट थाय छे. आ सिवाय बीजुं आडुं-अवळुं करे ए मार्ग नथी, उपाय नथी, समजाणुं कांई...?

हवे अहीं सिद्धांत शुं नक्की थयो? के ‘उपयोगमां रागादिकरण ते बंधनुं कारण छे.’ उपयोगमां रागनुं करवुं अर्थात् रागनी साथे एकत्वबुद्धि करवी ते बंधनुं कारण छे, ज्यारे उपयोगमां वीतरागस्वरूपनुं प्रगट करवुं ते अबंधनुं कारण छे, आनंदनुं कारण छे, सुखनुं अने शांतिनुं कारण छे. ल्यो, आवी वात! अरे! सत्य ज आ छे. बहारनी चीज जे राग के जे एना (निर्मळ) उपयोगमां नथी ते बहारनी चीजने उपयोगमां एकाकार करवी ए बंधनुं कारण छे, दुःखनुं कारण छे. समजाणुं कांई...? छहढाळामां आवे छे ने के-

“लाख बातकी बात यहैं, निश्चय उर लावो;
तोरि सकल जग दंद-फंद, नित आतम ध्यावो.”

भाई! तारो भगवान अंदर पूरण सुखधाम प्रभु बिराजे छे त्यां जाने! एनी ओथ (आश्रय) लेने! एना पडखे चढने! तुं रागादि पर्यायने पडखे चढयो छो ए तो दुःख छे. अहीं सिद्धांतमां तो आ कहे छे के-उपयोगमां रागनुं करवुं, ज्ञान साथे रागनुं मेळववुं ए बंधनुं कारण छे, दुःखनुं कारण छे.

प्रश्नः– ज्ञानीने मिथ्यात्व गया पछी राग तो रहे छे? ते एने बंधनुं कारण छे के नहि?

समाधानः– समाधान एम छे के ज्ञानीना ए रागनुं बंधन मिथ्यात्वना बंधनी अपेक्षाए अत्यंत अल्प छे तेथी एने गौण करीने तेने बंध नथी एम कह्युं छे; केमके मुख्यपणे तो ज्ञानमां रागना एकत्वरूप मिथ्यात्व ज बंधनुं कारण छे.

बीजी रीते कहीए तो व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे ए बंधनुं कारण छे ए अहीं सिद्ध नथी करवुं पण व्यवहाररत्नत्रयनो जे शुभराग-शुभोपयोग छे तेने आत्मा


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साथे एकत्व करवुं, भेळवी देवुं ते बंधनुं कारण छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे. वळी बीजी जग्याए जयां मोक्षनुं कारण सिद्ध करवुं होय त्यां एम आवे के-निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग ए मोक्षनुं कारण छे अने व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे ते बंधनुं कारण छे. पण ए तो (समकितीने) मोक्षना कारणनी ने बंधना कारणनी भिन्नता त्यां स्पष्ट करवी छे. अहीं तो मिथ्याद्रष्टिने केम बंध छे ए सिद्ध करवुं छे. तेथी एने तो रागनुं उपयोगमां एकत्व करवुं ए बंधनुं कारण छे एम सिद्ध कर्युं छे. आवी वात छे.

हवे आमां कोई कहे छे संगठन (संप) करवुं होय तो वीतरागभावथी पण लाभ थाय अने रागथी पण लाभ थाय एम अनेकान्त करो. मतलब के वीतरागभाव पण मोक्षनुं कारण छे अने शुभराग-पुण्यभाव पण मोक्षनुं कारण छे एम मानो तो संगठन थई जाय.

तो कहीए छीए के-प्रभु! आ तारा हितनी वात छे. शुं? के रागने-पुण्यने- भावने उपयोगमां एकत्व करवुं ए बंधनुं कारण छे अने रागने उपयोगथी भिन्न पाडीने एकलो (निर्भेळ) उपयोग करवो ए अबंध-मोक्षनुं कारण छे. आ महासिद्धांत छे. आमां जराय बांधछोड के ढीलापणुं चाली शके नहि. रागथी लाभ थाय एम माने ए तो रागथी पोतानुं एकत्व करनारो छे; ते मिथ्याद्रष्टि छे अने तेने बंध ज थाय, मोक्ष न थाय आवी वात छे!

अहाहा...! अहीं कहेवुं छे के आत्माना चैतन्यना वेपारमां रागनुं एकत्व करवुं छोडी दे केमके उपयोगमां-चैतन्यनी परिणतिमां रागनुं एकत्व करवुं ए बंधनुं कारण छे. भाई! चाहे तो देव-शास्त्र-गुरुनी भक्तिनो राग हो, चाहे महाव्रतादिनो विकल्प हो, वा चाहे गुण-गुणीना भेदनो विकल्प हो-एने चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा साथे एकत्व करे ए मिथ्यात्व छे अने ए ज संसार अने चार गतिमां रखडवानुं मूळियुं छे. शुं कह्युं? भक्ति के व्रतादिना विकल्प ते मिथ्यात्व छे एम नहि, पण ते विकल्पने-रागने उपयोगमां एकमेक करवो ते मिथ्यात्व छे अने ते बंधनुं संसारनुं मूळ कारण छे.

गाथा २३७ थी २४१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन

‘अहीं निश्चयनय प्रधान करीने कथन छे.’ एटले के व्यवहारनो राग छे एने अहीं गौण करी नाख्यो छे. ज्ञानीने अस्थिरतानो राग छे पण ए वात अहीं लेवी नथी. अहीं तो निश्चय वस्तु जे शुद्ध चैतन्य छे तेना उपयोगमां रागनुं करवुं ए बंधनुं कारण छे एम वात छे. सम्यग्दर्शन थया बाद जे अल्प राग थाय अने ते वडे तेने जे अल्प बंध थाय


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ए अहीं गौण करीने निश्चयनय प्रधान कथन कर्युं छे.

हवे अहीं निश्चयनी व्याख्या करे छे-‘ज्यां निर्बाध हेतुथी सिद्धि थाय ते ज निश्चय छे. बंधनुं कारण विचारतां निर्बाधपणे ए ज सिद्ध थयुं के-मिथ्याद्रष्टि पुरुष जे रागद्वेषमोहभावोने पोताना उपयोगमां करे छे ते रागादिक ज बंधनुं कारण छे.’ सम्यग्दर्शन पछी जे रागादिक एकला (अस्थिरताना) थाय छे ते बंधनुं (मुख्य) कारण नथी एम कहेवुं छे. हवे कहे छे-

‘ते सिवाय बीजां-बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, मन-वचन-कायना योग, अनेक करणो तथा चेतन-अचेतननो घात-बंधनां कारण नथी; जो तेमनाथी बंध थतो होय तो सिद्धोने, यथाख्यात चारित्रवाळाओने, केवळज्ञानीओने अने समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिओने बंधनो प्रसंग आवे छे. परंतु तेमने तो बंध थतो नथी.’

शुं कह्युं? के सिद्धो कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेला लोकमां होवाथी तेमने बंध थवो जोईए; यथाख्यात चारित्रवाळाओने मन-वचन-कायना योगनी क्रिया थाय छे तेथी तेमने पण बंध थवो जोईए, केवळज्ञानीओने पण करणो नाम इन्द्रियो छे तेथी तेमने पण बंध थवो जोईए अने समितिरूपे प्रवर्तता मुनिओने चेतन-अचेतननो घात थाय छे तेथी तेमने पण बंध थवो जोईए. परंतु, अहीं कहे छे तेमने तो बंध थतो नथी. हवे कहे छे-

‘तेथी आ हेतुओमां (-कारणोमां) व्यभिचार आव्यो.’ एटले के आ चारे प्रकार बंधना हेतु तरीके निर्बाधपणे सिद्ध थता नथी.

‘माटे बंधनुं कारण रागादिक ज छे ए निश्चय छे.’ उपयोगमां रागादिकरण ए एक ज बंधनुं कारण निश्चयथी निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे. अहा! उपयोगमां रागनी एकता-चिकाश ए ज निश्चयथी बंधनुं कारण छे.

‘अहीं समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिओनुं नाम लीधुं अने अविरत, देशविरतनुं नाम न लीधुं तेनुं कारण ए छे के-अविरत तथा देशविरतने बाह्य समितिरूप प्रवृत्ति नथी तेथी चारित्रमोहसंबंधी रागथी किंचित् बंध थाय छे; माटे सर्वथा बंधना अभावनी अपेक्षामां तेमनुं नाम न लीधुं. बाकी अंतरंगनी अपेक्षाए तो तेओ पण निर्बंध ज जाणवा.’

चोथा अने पांचमा गुणस्थानवाळाने, जेवी मुनिने होय छे तेवी व्यवहारनी समितिनो अभाव छे. तेथी तेमने सर्वथा बंधनो अभाव नथी पण कथंचित् बंध छे तेथी तेमनुं नाम अहीं न लीधुं. बाकी एने अंतरंगमां स्वभावद्रष्टि थइ छे अने रागनी एकताबुद्धि तूटी गई छे ए अपेक्षाए तो ते बंधरहित ज जाणवा समयसार गाथा १४- १प मां आवे छे ने के-