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छे; एटले निश्चय होय छे ने व्यवहार पण होय छे. प्रमाणद्रष्टिमां बन्ने प्रधान छे, स्याद्वादमतमां कांइ विरोध नथी. पण तेथी व्यवहारथी निश्चय थाय ए स्याद्वाद छे-एम अर्थ नथी.
अहीं तो पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे तेना आश्रये समकित प्रगटतां धर्मीने जे निश्चय निःशंकित आदि गुणो प्रगट थाय छे तेनी मुख्यताथी आ निर्जरा अधिकारमां कथन छे. त्यां व्यवहारनी मुख्यताथी वात आवे त्यारे हमणां कह्या एवा व्यवहारना आठ बोल आवे; अने बन्नेने एक साथे कहेवा होय तो प्रमाणथी कहेवामां आवे. परंतु प्रमाणमां, निश्चयमां जे स्वीकार्युं छे तेने राखीने व्यवहारने साथे भेळववामां आवे छे. पण त्यां एम नथी के व्यवहारथी निश्चय थाय तो तेने प्रमाणज्ञान कहेवाय. व्यवहारथी निश्चय थाय तो निश्चय जुदुं न रह्युं अने तो प्रमाणज्ञान पण क्यां रह्युं? प्रमाणज्ञानमां तो निश्चय, ने व्यवहार बन्ने साथे छे एम वात छे पण व्यवहारथी निश्चय छे एम क्यां छे? अहा! वीतरागनो मारग बापा! बहु गंभीर ने सूक्ष्म छे भाई! (एम के उपयोगने सूक्ष्म करे तो समजाय एवो छे).
हवे निर्जरानुं यथार्थ स्वरूप जाणनार अने कर्मना नवीन बंधने रोकी निर्जरा करनार जे सम्यग्द्रष्टि तेनो महिमा करी निर्जरा अधिकार पूर्ण करे छेः-
‘इति नवम्बन्धं रुन्धन्’ –ए प्रमाणे नवीन बंधने रोकतो अने ‘निजैः अष्टाभि अंगैः संगतः निर्जरा–उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयन्’ (पोते) पोताना आठ अंगो सहित होवाना कारणे निर्जरा प्रगटवाथी पूर्वबद्ध कर्मोने नाश करी नाखतो ‘सम्यग्द्रष्टिः’ सम्यग्द्रष्टि जीव...’
अहा! परम आनंदरसमां निमग्न एवो सम्यग्द्रष्टि नवीन बंधने रोकी दे छे अने तेने निःशंकित आदि आठ गुण प्रगट थया होवाथी ते कर्मनी निर्जरा करनारो छे. तेने निरंतर शुद्ध ज्ञानमय परिणमन छे ने? तेथी ते वडे ते पूर्वबद्ध कर्मोनो नाश करी दे छे. अहा! ‘शुद्ध’ नुं जेमां परिणमन थयुं छे ते समकित कोइ अचिंत्य अलौकिक चीज छे बापा! अहा! एना विना बहारमां गमे तेवी क्रिया करे तोपण ए बधां थोथां एटले एकडा विनानां मींडां छे.
अहा! अज्ञानी कहे छे-सम्यग्दर्शन विना चारित्र न होय ए तो ठीक वात छे, पण सम्यग्दर्शननी खबर केम पडे? ए तो भगवान केवळी ज जाणे. माटे आ जे (आगममां कहेली) व्यवहारनी व्रतादि क्रिया करीए छीए ते साधन छे अने माटे ते मोक्षनो मारग छे.
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अरे भाई! समकितनी खबर न पडे ए ज अज्ञान छे. मिथ्यात्वमां रहे एने समकितनी खबर केम पडे? व्रत, तप आदि रागने साधन मानी तेमां लीन रहे ते मिथ्यात्वमां रहेलो छे. तेने समकित शुं समकितनी गंधेय आवे तेम नथी. समजाणुं कांइ...?
अहीं कहे छे-सम्यग्द्रष्टि जीव ‘अतिरसात्’ अति रसथी अर्थात् निजरसमां मस्त थयो थको....’
जोयुं? सम्यग्द्रष्टि आनंदना रसमां-चैतन्यना रसमां मस्त थयो छे. अहा! धर्मीनी दशा अतीन्द्रिय आनंदना रसमां तरबोळ थइ छे. अहा! संसारी अज्ञानी प्राणीओ ज्यारे विषय-कषायना रसमां-दुःखना रसमां तरबोळ छे त्यारे धर्मी जीव शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपथी नीपजेला आनंदना रसमां तरबोळ छे. अहा! विषय-कषायनो रस तो झेरनो रस छे, आकुळतानो रस छे. तेमां समकितीने शुं रस होय? समकिती तो आनंदनो-अमृतनो सागर प्रभु आत्मा छे तेमां निमग्न थवाथी उत्पन्न थयेला अतीन्द्रिय आनंदना रसमां तरबोळ थयो छे. समकितीनुं निर्मळ परिणमन निराकुळ आनंदमां रसबोळ छे.
‘अतिरसात्’ -अति रसथी एम कह्युं ने? त्यां ‘रस’ अने तेनी साथे ‘अति’ शब्द जोडयो छे; तो ‘निजरसमां मस्त’ -एम एनो अर्थ कर्यो छे. अहा! शुद्ध चैतन्यघन प्रभु आत्मा आनंदथी ठसोठस भरेलो भगवान आनंदघन छे. तेमां एकाकार थयेली धर्मीनी निर्मळ परिणति निजरसमां मस्त थइ छे, निराकुळ आनंदना रसमां मस्त थइ छे. आवी धर्मीनी परिणति ने आ धर्मीनी व्याख्या!
जुओ, अहीं ‘स्वयम् अतिरसात्’ –एम बे शब्द पडया छे. अर्थात् धर्मी पोते पोताना आनंदना रसमां मस्त थयो छे एम कहे छे. केवो? तो एवो मस्त थयो छे के तेनी आगळ एने इन्द्रनां इन्द्रासन पण फीकांफच लागे छे वा झेर जेवां भासे छे. बापा! समकितीनी अंतरदशा कोइ अद्भुत अलौकिक होय छे. आ विषयलोलुपी जीवो अति रागथी हाड-मांसनां चूंथणां करे छे ने? अहा! समकितीने ए झेर जेवां भासे छे. अहा! वीतरागनो मारग वीतरागभाव प्रभु! एकला आनंदरसथी भरपूर भरेलो छे; तेमां विषयरसनुं झेर क्यां समाय?
सम्यग्द्रष्टि जीव ‘स्वयं अतिरसात्’ –आमां ‘स्वयं’ आव्युं ल्यो. कोइ अज्ञानी ‘स्वयं’ एटले ‘पोतारूप’ -एम अर्थ करे छे. स्वयं परिणमे छे एटले पोतारूप परिणमे छे एम अर्थ करे छे. परंतु बापु! ‘स्वयं’ एटले स्वतंत्रपणे पोताथी ज परिणमे छे एम अर्थ छे. अज्ञानीने निमित्ताधीन द्रष्टि होवाथी आ वात गोठती नथी. पण शुं थाय? अहीं कहे छे-धर्मी ‘स्वयं’ एटले पोते पोताथी ज ‘अतिरसात्’
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आनंदरसमां मस्त थयो छे. अहा! नरकनो नारकी होय तेने बहार संयोग जुओ तो ठंडी अने गरमीनो पार न मळे, छतां धर्मी जीव त्यां पोते पोताथी आनंदरसमां- निजानंदरसमां मस्त थयो छे. गजब वात छे भाई!
प्रश्नः– तो शुं आ समकिती छे एम जाणवामां आवे? उत्तरः– जाणवामां शुं न आवे? जाणवामां न आवे एवी चीज क्यां छे जगतमां? अने जाणनार शुं न जाणे? अहा! ज्ञाननो स्वभाव ज जाणवानो छे ते शुं न जाणे?
तो बीजो पण जाणी शके? ए ज कह्युं ने के जेने ज्ञानस्वभाव अंदर प्रगटयो छे ते शुं न जाणे? अहा! सिद्धांतमां-धवलमां ए वात लीधी छे. त्यां अवग्रह, इहा, अवाय ने धारणानी चर्चा करी छे त्यां वात लीधी छे के-आ जीव भवि छे के अभवि? -अहा! एम ज्यारे ज्ञानी विचार करे छे त्यारे ज्ञानमां एने एम भासे छे के-आने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे; माटे ते भवि ज छे, -आवो धवलमां पाठ छे. बीजे ठेकाणे अवग्रहनी वातमां आ काठियावाडी छे के क्यांना छे? -एम बहारनी वात लीधी छे; परंतु आमां (धवलमां) तो अंदरनी वात लीधी छे. अरे भगवान! तारुं ज्ञान शुं न जाणे प्रभु? ‘न जाणे’ -ए ज्ञानमां होतुं ज नथी; ज्ञान स्वने जाणे, परने जाणे, भगवाननेय जाणे ने बधायने जाणे एवुं एनुं सामर्थ्य ज छे.
प्रश्नः– पण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट न थयां होय तेने....? (भवि छे एम जाणे के नहि?)
उत्तरः– ए तो कह्युं ने? के प्रगट थयां होय तेने जाणे छे के आने प्रगट थयां छे माटे भवि छे. बाकी जेने नथी तेनो प्रश्न ज क्यां छे? केमके सम्यग्दर्शनादि प्रगटयां छे माटे आ भवि छे एम ज्ञानमां निर्णय थाय छे. बाकी जेने प्रगटयां नथी ए (भवि) छे के नहि ए प्रश्न ज अहीं नथी. आ तो भवि जीवनी लायकात -सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र-प्रगट थइ गइ छे तो तेनो ज्ञानीने ख्याल आवी जाय छे एनी वात छे. आने सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगटयां छे एवो अंदरमां निश्चय थइ जाय छे; मात्र बहारमां व्यवहारथी नहि, पण अंदर निश्चयथी निर्णय थाय छे. आवी वात छे. अहा! जगत आखुं बहारमां-विषय-कषायमां ने रागमां ठगाइ गयुं छे! आवे छे ने के-
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अहा! शुं करवा परण्या ‘ता? अमने निभाववा पडशे-एम स्त्री-परिवार आदि लूंटे छे. व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय; व्यवहार करवो जोइए-एम जगतना व्यवहारिया तने लूंटे छे. अहा! जुओ आ लूंटारा! अने पाछो वांक अनंत नाखे हों; बहानां अनंत काढे.
अहा! ‘विरला को उगरंत रे’ -अहा! कोइ विरल एमांथी नीकळी जाय छे. मारग बहु विरल छे भाई! अहा! सर्पिणी बच्चांने जन्म आपी तेमने कुंडाळुं करी घेरी ले छे ने एक एक करी बधाने खाइ जाय छे. तेमांथी कोइक बहार नीकळी जाय ते बची जाय छे. तेम आ जगतना फंदमां घेरायेला जीवो अरेरे! बिचारा लूंटाइ रह्या छे! कोइ भाग्यवंत विरल पुरुष तेमांथी नीकळी जाय छे.
अहा! जीव एकलो आव्यो, एकलो रहे छे अने एकलो जाय छे. ते एकलो ज छे; तेने जगतथी शुं संबंध छे?
पण ते एम माने तो ने? अहा! माननार मूर्खाइपणे गमे ते माने. पण तेथी वस्तु एम थोडी थइ जाय छे? श्री नियमसारमां (गाथा १०१मां) आवे छे ने के-
आ शरीरना रजकणो भाई! अहीं पडया रहेशे; अने आ मकान महेल पण बधा पडया रहेशे. बापु! एमांनी कोइ चीज तारा स्वरूपमां नथी. जीव तो प्रभु! जीवमां छे, पण आ शरीर, मकान, स्त्री आदि क्यां जीवमां छे? तेओ तो बधा भिन्न ज छे. तो तुं तेमना मोहपाशमांथी नीकळी जा. हवे लूंटावानुं रहेवा दे प्रभु!
अहा! अज्ञानीओ परने पोताना माने छे, पण अहा! पोते एकलो आव्यो, एकलो दुःख भोगवे ने पोताना एकत्वने पामीने मोक्षमां पण एकलो आनंद भोगवे छे; तेने कोइ पर साथे संबंध छे ज नहि, जुओने आ सिद्ध भगवान! अहाहा...! समीपमां (एकक्षेत्रावगाहमां) अनंत सिद्धो छे तोपण ते पोतानो आनंद एकला भोगवे छे, बीजाना आनंदने भोगवे नहि ने पोतानो आनंद बीजाने आपे नहि. अहा! आवुं वस्तुनुं ज एकत्व-विभक्तपणुं छे. समजाणुं कांइ...?
अहा! आ संसार तो नाटक छे बापा! न टके एवुं छे माटे आ बधुं नाटक छे. आ शरीर, मन, वाणी-बधुं न टके एवुं नाटक छे. त्रिकाळ टके एवो तो पोते अविनाशी भगवान आत्मा छे. बाकी तो बधां रखडवा माटेनां नाटक छे, धूळधाणी छे.
अहा! अज्ञानीने विषय-कषायना ने पैसा ने आबरूनां रसनां झेर चढी गयां छे, ते वडे ते बेहोश-पागल थइ गयो छे. धर्मी तो ‘स्वयम् अतिरसात्’ –पोते पोताथी
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निजानंदरसमां मस्त थइ गयो छे. तेना आनंदरसमां कोइ भागीदार नथी. ए तो अज्ञानीना दुःखना रसमांय बीजो भागीदार क्यां छे? अहा! ते जे रसमां तुं छे तेने भोगव बापु!
ए तो बे भाईनी वात नहोती कही? के नाना भाई माटे मोटो भाई दवा लावतो. हवे नाना भाईने कांइ खबर नहि के दवामां इंडानो रस हतो, तो नानो भाई तो पी जतो. हवे बन्युं एवुं के नानो भाई मरीने परमाधामी थयो अने मोटो भाई नारकी थयो. त्यां जातिस्मरणमां ख्यालमां आवी गयुं तो मोटो भाई कहे-
अरे भाई! पण ए पाप तो में तारा माटे कर्युं हतुं ने? त्यारे नानो भाई कहे-पण कोणे कह्युं’ तुं के तुं मारा माटे पाप करजे. माटे तारां करेलां पाप भोगव तुं-एम कही नानो भाई (परमाधामी) मोटा भाईने मारवा लाग्यो, तो मोटो भाई कहेवा लाग्यो-अरे! तुं मने मारे छे? शुं आ ठीक छे? हा, हुं तो मारनार छुं; परमाधामी छुं ने? नाना भाईए कह्युं.
प्रश्नः– पण आप तो हजारोमांथी आ एक दाखलो आपो छो? समाधानः– अरे भाई! आवा एक तो शुं अनंत-अनंत प्रसंग तने थइ गया छे. एक एक संसारी जीवने आवी अनंतवार स्थिति थइ छे. शुं कहीए बापा? पोते मरीने नारकी थाय ने स्त्री मरीने परमाधामी थाय. तारे आवा अनंत प्रसंग थइ गया भाई! आ तो संसारनुं रखडपट्टीनुं नाटक ज आवुं छे के बाप थाय नारकी ने छोकरो थाय परमाधामी. आमां नवुं शुं छे? (एनाथी छूटवुं होय तो समकित प्रगट कर.)
अहीं कहे छे-धर्मीने-समकितीने तो आत्माना आनंदनो रस चडयो छे ने बीजो (कषायनो) रस उतरी गयो छे. अहाहा....! छे अंदर? के सम्यग्द्रष्टि जीव ‘स्वयं अतिरसात्’ पोते निजरसमां मस्त थयो थको ‘आदि–मध्य–अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा’ आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक, एक प्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप थइने ‘गगन– आभोग–रंगं विगाह्य’ आकाशना विस्ताररूपी रंगभूमिमां अवगाहन करीने (अर्थात् ज्ञान वडे समस्त गगनमंडळमां व्यापीने) ‘नटति’ नृत्य करे छे.
अहाहा....! कहे छे-ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा छे तेने आदि-मध्य-अंत नथी. अहा! जे छे तेनी आदि शुं? ए तो छे, छे ने छे. अहा! तेने मध्य पण नथी ने अंत पण नथी. भगवान आत्मा आदि-मध्य-अंत विनानो सर्वव्यापक छे. एटले शुं? के ते सर्वने जाणनारो छे. अहा! सर्वने जाणनारो ते एक प्रवाहरूप धारावाही ज्ञानरूप थइने आकाशना विस्ताररूपी रंगभूमिमां अवगाहन करीने नृत्य करे छे. मतलब के ते सर्वने जाणनारो रहीने निजानंदमां मस्त थयो थको नाचे छे.
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अहा! धर्मी आनंदमां नाची रह्यो छे. केवो थयो थको? समस्त गगनमंडळने ज्ञान वडे जाणतो थको ते निजानंदमां नाचे छे. जुओ आ धर्मात्मा!
त्यारे कोइ अज्ञानीओ वळी कहे छे-टोडरमलजी ने बनारसीदासजी अध्यात्मनी भांग पीने नाच्या हता. (एम के तेओ पागल-मूर्ख हता).
अरे भगवान! आम न कहे प्रभु! श्री टोडरमलजी अने बनारसीदासजी तो निजानंदरसमां नाचनारा समर्थ ज्ञानी हता.
अज्ञानीने निश्चयस्वरूपनी सूझ छे नहि अने बहारमां ते मूढ थइने रह्यो छे. अहा! शुं थाय? ज्यां सूझ पडे एम छे त्यां तेने मुंझ (मूढपणुं) छे अने ज्यां मुंझ (मूढता) पडे एम छे त्यां तेने सूझ पडे छे. ज्यां व्यवहारमां अज्ञानीने सूझ पडे छे त्यां तो ते नरी मूढता छे अने स्वरूपमां सूझ पडे तेम छे त्यां तेनी सूझ नथी. पण बापु! आवो अवसर अनंतकाळे मळवो दुर्लभ छे हों. पैसा-धूळनो पति धूळपति-अबजोपति तो तुं अनंतवार थयो पण भाई! समकित थवुं महा महा दुर्लभ छे. हवे आ जिनवचन सांभळवुंय न गोठे तेनुं शुं थाय? (तेनुं तो दुर्भाग्य ज छे).
‘सम्यग्द्रष्टिने शंकादिकृत नवीन बंध तो थतो नथी अने पोते आठ अंगो सहित होवाने लीधे निर्जरानो उदय होवाथी तेने पूर्वबंधनो नाश थाय छे.’
अहा! सम्यग्द्रष्टिने एटले के जेने परमानंदमय पोतानो चैतन्य साहेबो द्रष्टिमां- प्रतीतिमां आव्यो छे तेवा सत्-द्रष्टिवंतने कहे छे, शंकादिकृत नवीन बंध थतो नथी. शंका, कांक्षा आदि नहि थवाथी नवीन बंध तो थता नथी अने आठ अंगो सहित होवाने लीधे तेने पूर्वबंधनो नाश थइ जाय छे.
‘तेथी धारावाही ज्ञानरसनुं पान करीने....’ जोयुं? समकिती धारावाही सतत ज्ञानरसनुं पान करे छे. श्री सोगानीजीए ‘द्रव्यद्रष्टि प्रकाश’ मां नथी लख्युं? के जेम तृषा लागी होय तो शेरडीनो रस घट-घट घूंटडा भरीने पीवे छे तेम अमे आनंदने पीए छीए. अहा! ज्ञानी निजानंदरसने घूंट भरी भरीने पीए छे. आवी वात!
अहीं कहे छे- ‘तेथी धारावाही ज्ञानरसनुं पान करीने, जेम कोइ पुरुष मद्य पीने मग्न थयो थको नृत्यना अखाडामां नृत्य करे तेम, निर्मळ आकाशरूपी रंगभूमिमां नृत्य करे छे.’
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अहा! ज्ञानी ज्ञानरसनुं पान करीने नाचे छे. ज्यारे! अज्ञानीए आत्माना आनंदना रसनुं पीवुं ते समकित अने ते धर्म छे एवुं कदी सांभळ्युं नथी. एटले बिचारो मंडी पडे व्रतने तप करवा अने माने के धर्म थइ गयो. पण अहीं कहे छे-आत्मा पूर्ण आनंदस्वरूप छे अने ज्ञानी तेना श्रद्धानरूपे परिणम्यो छे. एटले शुं थयुं? के एना श्रद्धाननी साथे आनंद आव्यो छे अने ते, मद्य पीने जेम कोइ नाचे तेम, आनंद पीने नाचे छे अर्थात् निजानंदने भोगवे छे. आनुं नाम धर्म छे. अज्ञानीनां व्रत ने तप तो बधां थोथां छे.
प्रश्नः– ‘सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा थाय छे, बंध थतो नथी एम तमे कहेता आव्या छो. परंतु सिद्धांतमां गुणस्थानोनी परिपाटीमां अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने बंध कहेवामां आव्यो छे. वळी घातीकर्मोनुं कार्य आत्माना गुणोनो घात करवानुं छे तेथी दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य-ए गुणोनो घात पण विद्यमान छे, चारित्रमोहनो उदय नवीन बंध पण करे छे. जो मोहना उदयमां बंध न मानवामां आवे तो ते मिथ्याद्रष्टिने मिथ्यात्व- अनंतानुबंधीनो उदय होवा छतां बंध नथी एम केम न मनाय?
जुओ, आ प्रश्न! आमां त्रण वात मूकी छे. १. ज्ञानीने चोथे, पांचमे आदि गुणस्थाने सिद्धांतमां बंध कहेवामां आव्यो छे, छतां तेने बंध नथी तेम आप कहो छो. समकिती अतीन्द्रिय आनंदमां मस्त छेए खरुं, पण तेने आ बंध छे ने? अने घात पण थाय छे ने? ए ज कहे छे-
२. तेने घाती कर्मने लइने ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य-ए गुणोनो घात पण विद्यमान छे.
३. वळी चारित्रमोहना उदयने लइने तेने नवीन बंध पण थाय छे. ज्ञानीने चारित्रमोहनो राग छे के नहि? छे; तो नवीन बंध पण थाय छे. माटे, जो चारित्रमोहना उदयमां पण बंध न मानवामां आवे तो मिथ्याद्रष्टिने मिथ्यात्व ने अनंतानुबंधीनो उदय होवा छतां बंध नथी एम केम न मानवुं?
तेनुं समाधानः– ‘बंध थवामां मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीनो उदय ज छे; अने सम्यग्द्रष्टिने तो तेमना उदयनो अभाव छे.’
ल्यो, आ मूळ वात कीधी. मिथ्यात्व कहेतां विपरीत मान्यता अने अनंतानुबंधीनुं परिणमन ए ज बंध थवामां मुख्य कारण छे. मिथ्यात्वनी साथे रहेलो कषाय ते अनंतानुबंधी कषाय छे. अने तेने ज बंधनुं मुख्य कारण कहेवामां आव्युं छे. परंतु सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व पण नथी अने अनंतानुबंधी कषाय पण नथी. सम्यग्द्रष्टिने तो ते बन्नेनो अभाव छे. हवे कहे छे-
‘चारित्रमोहना उदयथी जोके सुखगुणनो घात छे तथा मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी
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सिवाय अने तेमनी साथे रहेनारी अन्य प्रकृतिओ सिवाय बाकीनी घाति कर्मनी प्रकृतिओनो अल्प स्थिति-अनुभागवाळो बंध तेम ज बाकीनी अघातिकर्मोनी प्रकृतिओनो बंध थाय छे, तो पण जेवो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित थाय छे तेवो थतो नथी.’
जुओ, मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनी भूमिकामां जेवो बंध थाय छे तेवो बंध ज्ञानीने थतो नथी. अने ते अपेक्षाए तेने बंध नथी एम अहीं कहेवामां आव्युं छे.
‘अनंत संसारनुं कारण तो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी ज छे; तेमनो अभाव थया पछी तेमनो बंध थतो नथी; अने ज्यां आत्मा ज्ञानी थयो त्यां अन्य बंधनी कोण गणतरी करे?’
जोयुं? मिथ्या श्रद्धान ने अनंतानुबंधी कषाय ज अनंत संसारनी वृद्धिनुं कारण छे. ए ज बंधनुं ने संसारनुं मूळ कारण छे. अहा! आत्मा ज्ञानी थयो त्यां अनंत संसारनुं बंधन रह्युं नहि ने जे अल्प बंधन छे तेनी, कहे छे गणतरी शुं?
‘वृक्षनी जड कपाया पछी लीलां पांदडां रहेवानी अवधि शुं?’ मोटो आंबो के मोटी आंबली होय, पण तेनुं मूळ नीचेथी कापी नाखे तो पछी पांदडां रहेवानो काळ केटलो? बहु थोडो; केमके तेने पोषण नथी तेम मिथ्यात्वादि नाश पामी जतां किंचित् बंधन छे पण तेने पोषण नथी, ते बंधन नाश पामी जवा माटे ज छे.
‘माटे आ अध्यात्मशास्त्रमां सामान्यपणे ज्ञानी-अज्ञानी होवा विषे ज प्रधान कथन छे.’
ल्यो, अहीं तो ज्ञानी-अज्ञानी विषे ज मुख्य कथन छे. अस्थिरतानी वात अहीं मुख्य नथी. आ अध्यात्मशास्त्र छे ने? तो तेमां ज्ञानी-अज्ञानी होवा विषे ज मुख्य कथन छे.
‘ज्ञानी थया पछी जे कांइ कर्म रह्यां होय ते सहज ज मटतां जवानां.’ शुं कह्युं? के ‘ज्ञानी थया पछी....’ अहा! छे अंदर? अहा! भगवान आत्मा त्रिकाळ शुद्ध एक चैतन्यमात्र वस्तु छे. पण अनंतकाळथी तेनुं वेदन न हतुं; अनादिथी तेने विकारनुं- दुःखनुं वेदन हतुं. परंतु स्वसन्मुख थइ परिणमतां अंतरमां ज्ञाननी पर्यायमां स्वज्ञेय प्रभु आत्मा जणायो त्यारे तेने विकारनुं वेदन खसीने निर्विकार शुद्ध आनंदनुं वेदन शरू थयुं अने ते ज्ञानी थयो. हवे तेने ज्ञानमय परिणमन निरंतर रहेतुं होवाथी कहे छे, ज्ञानी थया पछी जे कांइ पूर्वनां कर्म रह्यां होय ते सहज ज मटतां जवानां.
नीचेना द्रष्टांत प्रमाणे ज्ञानीनुं समजवुंः- ‘कोइ पुरुष दरिद्र होवाथी झूंपडीमां रहेतो हतो. तेने भाग्यना उदयथी धन सहित मोटा महेलनी प्राप्ति थइ तेथी ते महेलमां रहेवा गयो, जोके ते महेलमां
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घणा दिवसनो कचरो भर्यो हतो तोपण जे दिवसे तेणे आवीने महेलमां प्रवेश कर्यो ते दिवसथी ज ते महेलनो धणी बनी गयो, संपदावान थइ गयो. हवे कचरो झाडवानो छे ते अनुक्रमे पोताना बळ अनुसार झाडे छे. ज्यारे बधो कचरो झडाइ जशे अने महेल उज्ज्वळ बनी जशे त्यारे ते परमानंद भोगवशे. आवी ज रीते ज्ञानीनुं जाणवुं.’
अहा! अनादिकाळथी आत्मा पुण्य-पापरूप वा रागद्वेष विकारनी झूंपडीमां हतो. पण पुण्यना फळमां तो महेल होय ने? समाधानः– धूळेय महेल नथी सांभळने. ए क्यां महेलमां छे? ए तो ज्यां होय त्यां रागमां-कषायमां छे. अरे भाई! ए महेलमां रह्यो छे के विकारमां-कषायमां? अनादिथी ते तो रागनी -कषायनी झूंपडीमां रह्यो छे. अहीं द्रष्टांतमां जेम भाग्यना उदयथी संपदा सहित महेल मळ्यो तेम धर्मीने स्वसन्मुखताना पुरुषार्थथी आनंदना अनुभव सहित भगवान आत्मा प्राप्त थयो छे. अहा! झूंपडीमां रहेतो हतो तेने महेल मळ्यो अने पाछो धनसहित हों; तेम धर्मी जीव कषायनी झूंपडीमां रहेतो हतो तेने आनंद सहित ज्ञानानंदमय आत्म-महेल मळ्यो. हवे ते ते महेलनो स्वामी थइ गयो. हवे तो कचरो काढवानो छे ते हळवे-हळवे काढशे.
अहा! अज्ञानभावे पूर्वे कर्म बंधायेलां छे ने? तो ते अंदर कचरो पडयो छे एम कहे छे. पण हवे अनंतलक्ष्मीना भंडार सहित भगवान आत्मानो धर्मी स्वामी थयो छे. अहा! पुरुषार्थनी जागृतिथी पोतानां सम्यक् प्रकारे ज्ञान-श्रद्धान थयां त्यारथी धर्मी जीव अनंती चैतन्यसंपदा सहित भगवान आत्मानो स्वामी थइ गयो छे. त्यां द्रष्टांतमां तो भाग्यना उदयथी लक्ष्मीयुक्त महेलनो स्वामी थयो छे पण धर्मी जीव तो पुरुषार्थनी जागृतिथी चैतन्यलक्ष्मीरूप आत्मानो स्वामी थयो छे; बेमां आटलो फेर छे.
अहाहा....! आत्मा अनंतगुणरिद्धिथी समृद्ध पूरण ज्ञान ने आनंदथी भरेलो भगवान छे. ‘भग’ नाम ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीथी भरेलो आत्मा भगवान छे. आवा शुद्धचिदानंदघन प्रभु आत्मानी द्रष्टि-प्रतीति थतां ते आत्मानो स्वामी थइ गयो छे. हवे तेने विकारनी द्रष्टि अने विकारनुं स्वामित्व नाश पामी गयां छे. तेथी पूर्वनां कर्मो कोइ हजु पडयां छे, कचरो पडयो छे ते स्वरूपनी एकाग्रताना अभ्यास वडे हळवे- हळवे टळी जशे, झरी जशे, नाश पामी जशे.
हा, पण ए बधुं आ बहारनुं (स्त्री-परिवार आदि) छोडशे त्यारे ने? समाधानः– बहारनुं कोण छोडे? अने शुं छोडे? ए बधां परने शुं एणे ग्रह्यां छे के छोडे? अरे भाई! परने हुं छोडुं छुं ए मान्यता ज मिथ्यात्व छे
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केमके परनां ग्रहण-त्याग आत्माने छे ज नहि. अहा! आत्मामां त्यागउपादानशुन्यत्व नामनी शक्ति छे. आ शक्तिना कारणे ते परनां ग्रहण-त्याग करे एवुं छे ज नहि. पोतानामां परनो ज्यां त्रिकाळ त्याग ज छे त्यां त्याग कोनो कहेवो? अहा! मिथ्यात्व अने रागने छोडयां एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा ज्यां द्रष्टिमां आव्यो त्यां मिथ्यात्व उत्पन्न ज थयुं नहि तो मिथ्यात्वने छोडयुं एम कहेवामां आवे छे. अहा! स्वभावनुं ग्रहण थतां विभाव छूटी गयो, उत्पन्न थयो नहि तो विभावने छोडयो एम नाममात्र कथनथी कहेवामां आवे छे.
ए तो गाथा ३४मां (टीकामां) आवे छे के आत्माने रागना त्यागनुं कर्तापणुं छे ए नाममात्र छे. हवे त्यां परना (धन, कुटुंबादिना) त्याग-कर्तानी तो वात ज क्यां रही? तेओ क्यां आत्मामां छे के तेनो त्याग करे? परनो तो स्वद्रव्यमां त्रिकाळ अभाव ज छे. परंतु अंदरमां पूर्णानंदना नाथ प्रभु आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान छोडीने अनंतकाळथी ते ‘राग ने पुण्य-पापना भाव ते हुं’ -एवी प्रतीतिमां वस्यो छे. ते विकारनी झूंपडीमां वसेलो दरिद्री भिखारी छे. अहा! अहीं बहारमां मोटो अबजपति शेठीओ होय पण विकारमां ते वसे छे तो भिखारी छे, दरिद्री छे. झीणी वात छे भाई!
अहा अनादिथी जे विकारमां वस्यो हतो तेने संसारनी प्राप्ति हती. परंतु हवे पुरुषार्थ जाग्रत करीने अंदर भगवान आत्माने भाळ्यो तो, द्रष्टांतमां जेम कोइने लक्ष्मी सहित महेल मळ्यो तेम, तेने अनंत अनंत आनंदनी लक्ष्मी सहित भगवान आत्मानी प्राप्ति थइ. हवे धीमे-धीमे ते अंदर जे पूर्वनो कचरो-कर्म छे तेने स्वरूपनी एकाग्रता वडे टाळशे. आ निर्जरा अधिकार छे ने? एटले कहे छे के तेने आ बाजु (स्वभावमां) एकाग्रता-लीनता करतां करतां पूर्वनी प्रकृति-कर्मअशुद्धता छे ते टळी जशे अने तेथी ते परमानंदने भोगवशे. अहा! ज्ञानीने आनंदनो अनुभव तो थयो छे, पण पूर्ण आनंदनो अनुभव नथी. एटले हवे ते पोताना स्वभावमां स्थिरता करीने पूर्वनां कर्म छे तेने खेरवी नाखशे अने त्यारे ते परमानंदने भोगवशे, अर्थात् परम आनंदरूप मुक्तदशाने प्राप्त थइ थशे. आवो मारग छे.
‘आ प्रमाणे निर्जरा (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गइ.’ एटले शुं? एटले के निर्जरानुं ज्ञान-भान थइ गयुं.
‘ए रीते, निर्जरा के जेणे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो हतो ते पोतानुं स्वरूप प्रगट बतावीने बहार नीकळी गइ.’
हवे बधानो (आखा अधिकारनो) सरवाळो-टोटल कहे छे-
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पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढै निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये.”
जुओ, आमां आखा निर्जरा अधिकारनो सार कह्यो. ‘सम्यक्वंत महंत....’ अहा! जेने अंदर पोताना चिदानंदघनस्वरूप आत्मानुं भान थयुं छे ते महंत कहेतां महान् आत्मा छे. अहा! समकिती पुरुष महंत छे. रागने आत्मा माननारो बहिरात्मा दुरात्मा छे अने समकिती महा आत्मा छे, महंत छे. आ लोकोमां महंत कहेवाय छे ते महंत नहि, आ तो अंदर चैतन्यमहाप्रभु पडयो छे तेनी जेने निर्मळ प्रतीति थइ छे ते समकिती महंत छे एम वात छे.
‘सम्यक्वंत महंत सदा समभाव रहै दुःख संकट आये.’ अहाहा...! शुं कहे छे? के दुःख नाम प्रतिकूळताना संयोगोना ढगलामां होय तोपण ज्ञानी धर्मी पुरुष तो समभावमां रहे छे. ज्ञानी छे ने? तो प्रतिकूळताना काळे जे द्वेष थतो ते अनुकूळताना काळे जे राग थतो ते वात हवे रही नथी केमके हवे परवस्तुमां इष्ट-अनिष्टपणानी बुद्धि नथी. अहा! सम्यक्वंत नाम सत्-द्रष्टिवंत महंत छे अने ते सदा समभावमां रहे छे. ‘सदा समभाव रहै’ -जोयुं? ‘सदा समभाव रहै’ -एम कह्युं छे. मतलब के समकितीने कोइ वखते पण विषमभाव छे नहि. ए तो सदा ज्ञाता- द्रष्टाभावे समपणे ज परिणमे छे.
तो शुं बे भाईओ (भरत, बाहुबली) लडया हता तोय तेमने समभाव हतो? हा, तेमने अंतरमां तो समभाव ज हतो. भरत ने बाहुबली बे लडया-ए तो उपरथी चारित्रनी अस्थिरतानो दोष छे. अंतरमां तो राग-रोषनो अभिप्राय छूटी गयेलो छे. तेमने प्रतिकूळता प्रत्ये द्वेष छूटी गयेलो छे. किंचित् अल्प द्वेष थयो छे तो ते प्रतिकूळताने कारणे थयो छे एम नथी पण पोतानी नबळाइने लइने किंचित् द्वेष उत्पन्न थयो छे. तेने पण समकिती तो हेय जाणे छे अने स्वरूपनी एकाग्रताना अभ्यास वडे अल्पकाळमां तेनो नाश करी दे छे.
अहा! कहे छे- ‘समभाव रहै, दुःख संकट आये’ -संकट नाम अनेक प्रकारे बहारमां प्रतिकूळता आवे तोपण समकिती समभाव राखे छे, जाणवा-देखवाना भावे परिणमे छे. २० वर्षनो जुवान दीकरो अवसान पामी जाय तोय समकितीने त्यां समभाव छे. जेम घेर महेमान आव्या होय ते थोडो वखत रही चाल्या जाय तेम कुटुंबीजनो पण थोडो काळ रही मुदत पाकी जतां चाल्या जाय छे; संयोगनुं स्वरूप ज आवुं छे एम ज्ञानी जाणे छे. तेने किंचित् रागादि थाय तोपण ते संयोगना कारणे
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नहि पण पोतानी कमजोरीना कारणे थाय छे. ज्ञानीने बाह्य अनुकूळ-प्रतिकूळ ज्ञेयने कारणे रागद्वेष थता नथी पण पोतानी कमजोरीने लइने किंचित् रागादि थाय छे अने तेने ते हेय जाणे छे. अज्ञानीने तो संयोगमां इष्ट-अनिष्टपणुं होवाथी तेने संयोगना कारणे (संयोगमां जोडावाथी) रागद्वेष थाय छे. आम बेमां बहु मोटो फेर छे. वीतराग मारग बहु अलौकिक बापा! एने जे समज्यो एनो तो बेडो पार थइ गयो.
अहा! त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्माने जे अनंतस्वभावो (अनंत चतुष्टय) प्रगट थया तेनी तो शी वात! पण तेने बहारमां जे अतिशय प्रगट थया छे ते पण अद्भुत आश्चर्य उपजावे तेवा छे. अहा! जुओ तो खरा! एनी सभामां सो सो इन्द्रो नतमस्तक छे. मोटा मोटा केसरी सिंहो गलुडियांनी जेम सभामां चाल्या आवे छे अने अत्यंत विनम्रपणे भगवाननी वाणी सांभळे छे. जंगलमांथी सिंह, वाघ, हाथी, पचीस-पचीस हाथ लांबा काळा नाग समोसरणमां आवे छे ने भगवाननी वाणी सांभळे छे. अहो! शुं ते वाणी! भव्य जीवोने आनंद आपनारी ने भवहारी ते वाणी कोइ जुदी जातनी होय छे. अहा! ते परम अद्भुत वाणी अहीं समयसारमां आचार्यदेवे प्रवाहित करी छे. तो कहे छे-
धर्मी-समकिती के जेने अनंतस्वभावथी भरेलो पोतानो चिदानंदस्वरूप आत्मा प्राप्त थयो छे ते महंत छे अने ते सदा समभावमां रहे छे. एटले शुं? के अनुकूळ- प्रतिकूळ संयोगमां तेने सदा समभाव छे, आनंद छे. ते सर्व संयोगो प्रति ज्ञाता-द्रष्टाना भावे ज रहे छे, पण तेमां विषमताने प्राप्त थतो नथी. ते कारणे ‘कर्म नवीन बंधै न तवै’ -धर्मी पुरुष नवां कर्म बांधतो नथी. अहा! बापु! समकित शुं अलौकिक चीज छे तेनी लोकोने खबर नथी. अहीं कहे छे-समकिती नवीन कर्म बांधतो नथी.
अहा! अज्ञानीने अंतरमां पोतानी मोटप बेठी नथी तेथी बहारमां व्रत, तप आदि रागना भाव वडे कल्याण थइ जशे एम माने छे, पण एथी तो धूळेय कल्याण नहि थाय. अहा! प्रभु! तने तारी मोटप बेठी नथी ने तुं धर्म करवा नीकळ्यो? बापु! एम धर्म नहि थाय. दया, दान, व्रत आदि तो बधी रागनी रांकाइ छे. अंदर पूर्ण भगवान स्वरूपे तुं अंदर पडयो छे तेनो महिमा लावी तेनो आश्रय कर जेथी तने समकित-पहेलामां पहेलो धर्म-प्रगटशे अने ते प्रगटतां नवीन कर्मबंध नहि थाय एम कहे छे. समजाणुं कांइ....?
अहाहा....! कहे छे- ‘कर्म नवीन बंधै न तवै अर पूरव बंध झडै बिन भाये’
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जोयुं? कर्म तो ‘बिन भाये’ -वगर भावनाए खरी जाय छे एम कहे छे. अहा! आंही ज्यां स्वभावमां एकाग्र थयो तो कर्म तेनी मेळे खरी जाय छे. ‘बिन भाये’ एटले के भावना कर्या विना एनी मेळे खरी जाय छे. आवो मारग छे. कोइने थाय के वळी आवो तो जैनधर्म हशे? एम के व्रत करवा, उपवास करवा, भक्ति करवी, जात्रा करवी इत्यादि तो जैनधर्ममां कह्यां छे पण आ ते केवो धर्म? अरे बापु! तने खबर नथी भाई! तुं जे क्रियाओ कहे छे ए तो बधो राग छे, ते कांइ शुद्ध चैतन्यनी क्रिया नथी, अने तेथी ते जैनधर्म नथी. अहा! जगतथी साव जुदी ज वात छे. (धर्मीने तेवो राग आवे छे ए जुदी वात छे पण ते कांइ धर्म नथी, धर्म तो अंतर एकाग्रतारूप छे).
अहा! सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरे जेवो आ आत्मा अंदर छे तेवो जोयो अने कह्यो छे. तो तेमणे जेवो आत्मा जोयो छे तेवो ज जेणे अंदरमां जोयो छे ते जीव ज्ञानी धर्मी छे; अने तेने नवीन बंध नथी तथा पूर्वनां कर्म आप मेळे खरी जाय छे. हवे कहे छे-
अहा! पूरण अंग-समकितना आठे गुण सहित ते सुदर्शन नाम सम्यग्दर्शन धरे छे अर्थात् निःशंकित आदि आठे गुण सहित ते शुद्ध पूर्ण समकितने धारे छे. तेथी ‘नित ज्ञान बढै’ ज्ञान नाम अंतःशुद्धता वधती जाय छे. निर्जरा छे ने? अहा! थोडा शब्दोमां केटलुं मूकयुं छे? कहे छे-
‘नित ज्ञान बढै निज पाये’ -अहा! शुद्ध स्वरूपने जे प्राप्त थयो छे तेने ज्ञाननी शुद्धता निरंतर वधती जाय छे. आवो धर्म लोकोने आकरो पडे छे एटले कहेवा लागे छे के आ सोनगढथी नवो काढयो छे. अरे भाई! आ नवो नथी बापा! आ तो वीतराग सर्वज्ञनो मार्ग अनादिथी छे भाई! भगवान! तने खबर नथी पण मारग तो आ ज अनादिथी छे.
त्यारे वळी कोइ कहे छे-तमे घरना अर्थ करो छो. एम नथी बापु! आ तो जे छे तेनो अर्थ करीए छीए. तने बेसे नहि एटले तुं गमे तेम माने; अत्यारे पुण्य हशे तो ‘फाव्यो’ -एम लागशे पण एनां (विपरीत मान्यतानां) फळ सारां नहि आवे भाई! अहा! वस्तु तो आवी ज छे प्रभु!
अहीं कहे छे- ‘पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै’ -सुदर्शन एटले सम्यग्दर्शन. ‘सु’ छे ने? तो आठो गुण सहित सम्यग्दर्शन धरे छे तेने ‘निज पाये’ -आत्मानी प्राप्ति द्वारा निरंतर ज्ञान नाम ज्ञाननी शुद्धता-आत्मानी शुद्धता वधती जाय छे. अहा! जेम जेम ज्ञानमां एकाग्रता वधती जाय छे तेम तेम तेनी शुद्धता वधती जाय छे; अर्थात् अशुद्धतानी विशेष-विशेष निर्जरा थती जाय छे. आवी वात छे.
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हवे कहे छे-
अहाहा....! ‘यों’ -एटले आ रीते मतलब के बीजी रीते नहि तेम-आ रीते भगवान केवळीए जे शिवमारग नाम मोक्षनो मार्ग कह्यो छे तेने निरंतर साधतो थको पोतानो आत्मा आनंदरूप वा पूर्ण अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप थइ जाय छे. आनुं नाम परमानंदस्वरूप मोक्ष छे. अहा! अंतरमां स्वरूपनुं ध्यान करे ते साधन छे, अने ते वडे धर्मी पुरुष साध्य जे परमानंदस्वरूप मोक्ष तेने प्राप्त थइ जाय छे; परंतु एम नथी के ते रागना साधन वडे परम आनंददशारूप मोक्षने प्राप्त थाय छे. समजाणुं कांइ?
हवे आत्मा शुं? ने धर्म शुं? -एनी खबरेय न मळे अने सामायिक आदि क्रिया करे पण एथी शुं? एमां क्यां सामायिक छे? पोते आत्मा शुं चीज छे अने तेमां ठरवुं कइ रीते ते जाण्या विना अज्ञानी ठरशे शेमां? रागमां ठरशे. आत्मामां ठर्या विना एने सामायिकेय नथी ने धर्मेय नथी; तो पछी मोक्षनी तो वात ज क्यां रही? बापु! मारग तो आवो अंदर स्वरूपमां ठरवारूप छे अने ते शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये प्रगट थाय छे, पण रागना आश्रये कदीय प्रगटतो नथी. समजाणुं कांइ....?
आ प्रमाणे आ समयसार शास्त्र उपर परम कृपाळु सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीनां प्रवचननो छठ्ठो निर्जरा अधिकार समाप्त थयो.
[प्रवचन नं. ३०६ (शेष) थी ३०८ * दिनांक ३०-१-७७ थी १-२-७७]
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सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
-रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!