Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 236 ; Kalash: 162.

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गाथा–२३६
विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा।
सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३६।।
विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु भ्रमति यश्चेतयिता।
स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३६।।

हवे प्रभावना गुणनी गाथा कहे छेः-

चिन्मूर्ति मन–रथपंथमां विधारथारूढ घूमतो,
ते जिनज्ञानप्रभावकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३६.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे चेतयिता [विद्यारथम् आरूढः] विद्यारूपी रथमां आरूढ थयो थको (-चडयो थको) [मनोरथपथेषु] मनरूपी रथ-पंथमां (अर्थात् ज्ञानरूपी जे रथने चालवानो मार्ग तेमां) [भ्रमति] भ्रमण करे छे, [सः] ते [जिनज्ञानप्रभावी] जिनेश्वरना ज्ञाननी प्रभावना करनारो [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे ज्ञाननी समस्त शक्तिने प्रगट करवा-विकसाववा-फेलाववा वडे प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी, प्रभावना करनार छे, तेथी तेने ज्ञाननी प्रभावनाना अप्रकर्षथी (अर्थात् ज्ञाननी प्रभावना नहि वधारवाथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– प्रभावना एटले प्रगट करवुं, उद्योत करवो वगेरे; माटे जे पोताना ज्ञानने निरंतर अभ्यासथी प्रगट करे छे-वधारे छे, तेने प्रभावना अंग होय छे. तेने अप्रभावनाकृत कर्मबंध नथी, कर्म रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज छे.

आ गाथामां निश्चयप्रभावनानुं स्वरूप कह्युं छे. जेम जिनबिंबने रथमां स्थापीने नगर, वन वगेरेमां फेरवी व्यवहारप्रभावना करवामां आवे छे, तेम जे विद्यारूपी (ज्ञानरूपी) रथमां आत्माने स्थापी मनरूपी (ज्ञानरूपी) मार्गमां भ्रमण करे ते ज्ञाननी प्रभावनायुक्त सम्यग्द्रष्टि छे, ते निश्चयप्रभावना करनार छे.

आ प्रमाणे उपरनी गाथाओमां सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने निःशंकित आदि आठ


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(मंदाक्रान्ता)
रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्गैः
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन।

गुणो निर्जरानां कारण कह्या. एवी ज रीते अन्य पण सम्यक्त्वना गुणो निर्जरानां कारण जाणवा.

आ ग्रंथमां निश्चयनयप्रधान कथन होवाथी निःशंकित आदि गुणोनुं निश्चय स्वरूप (स्व-आश्रित स्वरूप) अहीं बताववामां आव्युं छे. तेनो संक्षेप (सारांश) आ प्रमाणे छे-जे सम्यग्द्रष्टि आत्मा पोतानां ज्ञान-श्रद्धानमां निःशंक होय, भयना निमित्ते स्वरूपथी डगे नहि अथवा संदेहयुक्त न थाय, तेने निःशंकित गुण होय छे. १. जे कर्मना फळनी वांछा न करे तथा अन्य वस्तुना धर्मोनी वांछा न करे, तेने निःकांक्षित गुण होय छे. २. जे वस्तुना धर्मो प्रत्ये ग्लानि न करे, तेने निर्विचिकित्सा गुण होय छे. ३. जे स्वरूपमां मूढ न होय, स्वरूपने यथार्थ जाणे, तेने अमूढद्रष्टि गुण होय छे. ४. जे आत्माने शुद्ध स्वरूपमां जोडे, आत्मानी शक्ति वधारे, अन्य धर्मोने गौण करे, तेने उपगूहन गुण होय छे. प. जे स्वरूपथी च्युत थता आत्माने स्वरूपमां स्थापे, तेने स्थितिकरण गुण होय छे. ६. जे पोताना स्वरूप प्रत्ये विशेष अनुराग राखे, तेने वात्सल्य गुण होय छे. ७. जे आत्माना ज्ञानगुणने प्रकाशित करे-प्रगट करे, तेने प्रभावना गुण होय छे. ८. आ बधाय गुणो तेमना प्रतिपक्षी दोषो वडे जे कर्मबंध थतो हतो तेने थवा देता नथी. वळी आ गुणोना सद्भावमां, चारित्रमोहना उदयरूप शंकादि प्रवर्ते तोपण तेमनी (-शंकादिनी) निर्जरा ज थई जाय छे, नवो बंध थतो नथी; कारण के बंध तो प्रधानताथी मिथ्यात्वनी हयातीमां ज कह्यो छे.

सिद्धांतमां गुणस्थानोनी परिपाटीमां चारित्रमोहना उदयनिमित्ते सम्यग्द्रष्टिने जे बंध कह्यो छे ते पण निर्जरारूप ज (-निर्जरा समान ज) जाणवो कारण के सम्यग्द्रष्टिने जेम पूर्वे मिथ्यात्वना उदय वखते बंधायेलुं कर्म खरी जाय छे तेम नवीन बंधायेलुं कर्म पण खरी जाय छे; तेने ते कर्मना स्वामीपणानो अभाव होवाथी ते आगामी बंधरूप नथी, निर्जरारूप ज छे. जेवी रीते-कोई पुरुष परायुं द्रव्य उधार लावे तेमां तेने ममत्वबुद्धि नथी, वर्तमानमां ते द्रव्यथी कांई कार्य करी लेवुं होय ते करीने करार प्रमाणे नियत समये धणीने आपी दे छे; नियत समय आवतां सुधी ते द्रव्य पोताना घरमां पडयुं रहे तोपण ते प्रत्ये ममत्व नहि होवाथी ते पुरुषने ते द्रव्यनुं बंधन नथी, धणीने दई दीधा बराबर ज छे; तेवी ज रीते


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सम्यग्द्रष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरङ्गं विगाह्य।। १६२।।

-ज्ञानी कर्मद्रव्यने परायुं जाणतो होवाथी तेने ते प्रत्ये ममत्व नथी माटे ते मोजूद होवा छतां निर्जरी गया समान ज छे एम जाणवुं.

आ निःशंकित आदि आठ गुणो व्यवहारनये व्यवहारमोक्षमार्ग पर नीचे प्रमाणे लगाववाः- जिनवचनमां संदेह न करवो, भय आव्ये व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी डगवुं नहि, ते निःशंकितपणुं छे. १. संसार -देह-भोगनी वांछाथी तथा परमतनी वांछाथी व्यवहारमोक्षमार्गथी डगवुं नहि ते निष्कांक्षितपणुं छे. २. अपवित्र, दुर्गंधवाळी- एवी एवी वस्तुओना निमित्ते व्यवहारमोक्षमार्गनी प्रवृत्ति प्रत्ये ग्लानि न करवी ते निर्विचिकित्सा छे. ३. देव, गुरु, शास्त्र, लोकनी प्रवृत्ति, अन्यमतादिकना तत्त्वार्थनुं स्वरूप-इत्यादिमां मूढता न राखवी, यथार्थ जाणी प्रवर्तवुं ते अमूढद्रष्टि छे. ४. धर्मात्मामां कर्मना उदयथी दोष आवी जाय तो तेने गौण करवो अने व्यवहारमोक्षमार्गनी प्रवृत्तिने वधारवी ते उपगूहन अथवा उपबृंहण छे. प. व्यवहारमोक्षमार्गथी च्युत थता आत्माने स्थित करवो ते स्थितिकरण छे. ६. व्यवहारमोक्षमार्गमां प्रवर्तनार पर विशेष अनुराग होवो ते वात्सल्य छे. ७. व्यवहारमोक्षमार्गनो अनेक उपायो वडे उद्योत करवो ते प्रभावना छे. ८. आ प्रमाणे आठे गुणोनुं स्वरूप व्यवहारनयने प्रधान करीने कह्युं. अहीं निश्चयप्रधान कथनमां ते व्यवहारस्वरूपनी गौणता छे. सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणद्रष्टिमां बन्ने प्रधान छे. स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी.

हवे, निर्जरानुं यथार्थ स्वरूप जाणनार अने कर्मना नवीन बंधने रोकी निर्जरा करनार जे सम्यग्द्रष्टि तेनो महिमा करी निर्जरा अधिकार पूर्ण करे छेः-

श्लोकार्थः– [इति नवम् बन्धं रुन्धन्] ए प्रमाणे नवीन बंधने रोकतो अने [निजैः अष्टाभिः अङ्गैः सङ्गतः निर्जरा–उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयन्] (पोते) पोतानां आठ अंगो सहित होवाना कारणे निर्जरा प्रगटवाथी पूर्वबद्ध कर्मोने नाश करी नाखतो [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि जीव [स्वयम्] पोते [अतिरसात्] अति रसथी (अर्थात् निजरसमां मस्त थयो थको) [आदि–मध्य–अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा] आदि-मध्य- अंत रहित (सर्वव्यापक, एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप थईने [गगन–आभोग–रङ्गं विगाह्य] आकाशना विस्ताररूपी रंगभूमिमां अवगाहन करीने (अर्थात् ज्ञान वडे समस्त गगनमंडळमां व्यापीने) [नटति] नृत्य करे छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टिने शंकादिकृत नवीन बंध तो थतो नथी अने पोते आठ अंगो सहित होवाने लीधे निर्जरानो उदय होवाथी तेने पूर्व बंधनो नाश थाय छे.


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इति निर्जरा निष्क्रान्ता। तेथी ते धारावाही ज्ञानरूपी रसनुं पान करीने, जेम कोई पुरुष मद्य पीने मग्न थयो थको नृत्यना अखाडामां नृत्य करे तेम, निर्मळ आकाशरूपी रंगभूमिमां नृत्य करे छे.

प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा थाय छे, बंध थतो नथी एम तमे कहेता आव्या छो. परंतु सिद्धांतमां गुणस्थानोनी परिपाटीमां अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने बंध कहेवामां आव्यो छे. वळी घातीकर्मोनुं कार्य आत्माना गुणोनो घात करवानुं छे तेथी दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य-ए गुणोनो घात पण विघमान छे. चारित्रमोहनो उदय नवीन बंध पण करे छे. जो मोहना उदयमां पण बंध न मानवामां आवे तो तो मिथ्याद्रष्टिने मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीनो उदय होवा छतां बंध नथी एम पण केम न मनाय?

समाधानः– बंध थवामां मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीनो उदय ज छे; अने सम्यग्द्रष्टिने तो तेमना उदयनो अभाव छे. चारित्रमोहना उदयथी जोके सुखगुणनो घात छे तथा मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सिवाय अने तेमनी साथे रहेनारी अन्य प्रकृतिओ सिवाय बाकीनी घातिकर्मोनी प्रकृतिओनो अल्प स्थिति- अनुभागवाळो बंध तेम ज बाकीनी अघातिकर्मोनी प्रकृतिओनो बंध थाय छे, तोपण जेवो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित थाय छे तेवो नथी थतो. अनंत संसारनुं कारण तो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी ज छे; तेमनो अभाव थया पछी तेमनो बंध थतो नथी; अने ज्यां आत्मा ज्ञानी थयो त्यां अन्य बंधनी कोण गणतरी करे? वृक्षनी जड कपाया पछी लीलां पांदडा रहेवानी अवधि केटली? माटे आ अध्यात्मशास्त्रमां सामान्यपणे ज्ञानी-अज्ञानी होवा विषे ज प्रधान कथन छे. ज्ञानी थया पछी जे कांई कर्म रह्यां होय ते सहज ज मटतां जवानां. नीचेना द्रष्टांत प्रमाणे ज्ञानीनुं समजवुं. कोई पुरुष दरिद्र होवाथी झूंपडीमां रहेतो हतो. तेने भाग्यना उदयथी धन सहित मोटा महेलनी प्राप्ति थई तेथी ते महेलमां रहेवा गयो. जोके ते महेलमां घणा दिवसनो कचरो भर्यो हतो तोपण जे दिवसे तेणे आवीने महेलमां प्रवेश कर्यो ते दिवसथी ज ते महेलनो धणी बनी गयो, संपदावान थई गयो. हवे कचरो झाडवानो छे ते अनुक्रमे पोताना बळ अनुसार झाडे छे. ज्यारे बधो कचरो झडाई जशे अने महेल उज्ज्वळ बनी जशे त्यारे ते परमानंद भोगवशे. आवी ज रीते ज्ञानीनुं जाणवुं. १६२.

टीकाः– आ प्रमाणे निर्जरा (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गई. भावार्थः– ए रीते, निर्जरा के जेणे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो हतो ते पोतानुं स्वरूप प्रगट बतावीने बहार नीकळी गई.


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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्कः।।

सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै दुःख संकट आये,
कर्म नवीन बंधै न तवै अर पूरव बंध झडै विन भाये;
पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढै निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां निर्जरानो प्ररूपक छठ्ठो अंक समाप्त थयो.

*
समयसार गाथा २३६ः मथाळु

हवे प्रभावना गुणनी गाथा कहे छेः-

* गाथा २३६ः गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

जुओ, आमां ‘चेदा’ नाम चेतयिता शब्द छे.

‘जे चेतयिता’-अहा! सम्यग्द्रष्टि चेतयिता छे. जाणग-जाणगस्वभावी भगवान आत्माने जाणे-देखे ते सम्यग्द्रष्टि चेतयिता छे.

अहा! कहे छे-‘जे चेतयिता विद्यारूपी रथमां आरूढ थयो थको ‘मनोरथपथेषु’ मनरूपी रथ-पंथमां भ्रमण करे छे ते ‘जिनज्ञानप्रभावी’ जिनेश्वरना ज्ञाननी प्रभावना करनारो सम्यग्द्रष्टि जाणवो.’

अहा! सम्यग्द्रष्टि विद्यारूपी रथमां कहेतां सम्यग्ज्ञानरूपी रथमां आरूढ थयो छे, अने ते ज्ञानरूपी रथने चालवानो जे मार्ग तेमां भ्रमण करे छे. अहा! भगवान आत्मानुं-त्रिकाळी शाश्वत विद्यमान पदार्थनुं-ज्ञान थवुं ते यथार्थ ज्ञान अर्थात् जिनज्ञान छे. आत्मा पोते जिनस्वरूप छे ने? तो निजस्वरूप निज आत्मानुं ज्ञान थवुं ते ज्ञान छे, विद्या छे. अहा! आ वकीलात ने डोक्टरीनुं जे लौकिक ज्ञान ते ज्ञान नथी; ए तो अज्ञान छे, मिथ्याज्ञान छे.

पण ते ज्ञानथी पैसा तो कमाय छे ने? धूळेय कमातो नथी सांभळने. शुं ज्ञानथी पैसा कमाय? अरे भाई! पैसा तो जड धूळ-माटी छे. एने ज्ञान शुं कमाय? ज्ञान नाम आत्मा तो एने (पैसाने) अडेय नहि. पैसानो संयोग तो पैसाना कारणे छे, ते कांई ज्ञानने कारणे आवे छे


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एम छे ज नहि. जोता नथी? साव मूर्ख जेवाओने पण अढळक धननो संयोग होय छे.

अहीं कहे छे-सम्यग्ज्ञानरूपी रथपंथमां विहरतो ज्ञानी जिनज्ञानप्रभावी अर्थात् वीतरागविज्ञाननो प्रभाव करनारो छे. वीतरागविज्ञान एटले पोतानुं वीतरागी ज्ञान हों. अहा! धर्मी जीव जिनेश्वरना ज्ञाननी प्रभावना करनारो छे अर्थात् स्व-आश्रये प्रगट थतुं जे वीतरागविज्ञान तेनी ते प्रभावना करनारो छे. आवो मारग छे.

तो ते बहारनी प्रभावना करे छे के नहि? ना; बहारनुं कोण करे? धर्मीने एवो विकल्प आवे पण ए तो राग छे. अहा! मोटा गजरथ चलाववानो भाव आवे ते शुभराग छे. (तेने प्रभावना कहेवी ए तो उपचारमात्र छे.) वळी तेमां (शुभरागमां) जो कोई अभिमान करे के अमे आ प्रभावना करी तो ते मिथ्यात्व छे. भाई! ज्ञानी तो रागनो कर्ता ज थतो नथी ने; त्यां ए बाह्य प्रभावना करे छे एम कयां रह्युं?

तो लोको कहे छे ने? लोक तो कहे; आ कहेता नथी? के ‘लोक मूके पोक.’ लोकने शुं भान छे? मोटा वकील-बेरिस्टर होय के दाक्तर होय के इंजनेर होय, आत्माना भान विनाना ते बधा ज अज्ञानी छे.

जुओ, तो खरा! अहीं भाषा केवी लीधी छे? के धर्मी ‘जिनज्ञानप्रभावी’ छे. एटले शुं? के जिन नाम सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा पोते छे तेनुं ज्ञान नाम वीतरागविज्ञानरूप निर्मळ दशानी धर्मी प्रभावना करनारो छे. जिनज्ञान अर्थात् जिनेश्वरनुं ज्ञान एम कीधुं छे ने? मतलब के भगवान आत्मा पोते जिनेश्वर छे अने तेनुं ज्ञान ते जिनेश्वरनुं ज्ञान छे, अने धर्मी ते जिनेश्वरना ज्ञाननी प्रभावना करनारो छे. आ बहारनुं शास्त्रज्ञान के बीजुं लौकिक ज्ञान छे ते कांई जिनज्ञान नथी. आत्मज्ञान ते जिनज्ञान छे, ने धर्मी पुरुष तेनी प्रभावना करे छे.

पण धर्मी बीजाने ज्ञान थाय एम बहारमां प्रभावना तो करे ने? अरे भाई! पर साथे शुं संबंध छे? परने ज्ञान थाय ए कोण करे? ए तो धर्मीने उपदेशादिनो बाह्य प्रभावनानो विकल्प आवे, पण ए तो शुभराग छे, बंधनुं कारण छे; ए कांई जिनेश्वरनुं ज्ञान नथी. अहीं कहे छे-भगवान आत्मा पोते जिनेश्वर परमेश्वर एकला ज्ञानानंदरसनो समुद्र छे; तेनुं अंतर्मुखाकार ज्ञान ते जिनेश्वरनुं ज्ञान छे अने तेनी प्रभावना नाम प्रकृष्टपणे भावना करनारो सम्यग्द्रष्टि-धर्मी छे. आवो मारग बहु झीणो छे भाई! अज्ञानीने आमां एकांत लागे छे पण भाई! स्व-आश्रय विना बीजी रीते व्यवहारथी-रागथी जिनमार्गप्रभावना थाय छे एम छे नहि.


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* गाथा २३६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि,...’ जुओ, हुं नित्यानंदस्वरूप त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकभावमय आत्मा छुं-एम पोताना त्रिकाळी सत्नी जेने द्रष्टि थई छे ते सत्-द्रष्टि नाम सम्यग्द्रष्टि छे. अहा! जेनी द्रष्टिमां पोतानो पूरण चैतन्यमहाप्रभु आत्मा आव्यो ते सम्यग्द्रष्टि छे. तो कहे छे-

‘सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे........’ अहा! धर्मीने अखंड एक ज्ञायकभाव पर ज द्रष्टि छे. दुनियामां जे बहारमां (दया, दान, व्रत, भक्ति आदि) कराय छे ते आमां मळे नहि तथा धर्मीना अंतरमां जे ज्ञाननी अंतःक्रिया थाय छे तेने अज्ञानी अंतरमां जाणे नहि; शुं थाय? परमार्थ वचनिकामां आवे छे के-अज्ञानीने बाह्यक्रियारूप आगम-अंग साधवुं सहेलुं छे तेथी ते दया, दान, व्रत, भक्ति आदि बाह्य क्रियाओ करे छे परंतु ते अध्यात्मअंगना व्यवहारने जाणतो सुद्धां नथी. अहा! अंतरमां शुद्ध स्वरूपना आश्रये जे आत्मानां श्रद्धान, ज्ञान ने रमणता प्रगट थाय ते अध्यात्मनो व्यवहार छे. अज्ञानी आवा अध्यात्मव्यवहारने जाणतो पण नथी.

पण अंदर धर्म प्रगटयो तेनुं माप तो बाह्य व्यवहारथी नीकळे ने? अरे भाई! अंदर अध्यात्मक्रियानुं माप बाह्य व्यवहारथी-रागथी केम नीकळे? बाह्य व्यवहार-व्यवहाररत्नत्रय पण-राग छे, जड छे, अजीव छे. एनाथी चैतन्यनी धर्मक्रियानुं माप केम नीकळे ? बीलकुल न नीकळे. धर्म प्रगटयो तेनुं माप तो ज्ञायकपणानी परिणति ज छे. बीजुं कांई एनुं माप छे ज नहि. लोकोने थाय के आ सोनगढथी नवुं काढयुं छे, पण भाई! आ तो अनादिनुं छे. आ शास्त्रमां तो बधुं छे, जो ने? अरे भाई! शास्त्रमां व्यवहार (गुणस्थान प्रमाणे) जेम छे तेम बताव्यो छे पण व्यवहारथी निश्चय थाय एम एमां कयां छे? बापु? व्यवहारने जाणनारो (आत्मा) तो एनाथी भिन्न ज छे, अन्यथा व्यवहारने जाणे कोण? (माटे ज्ञान व्यवहारने-रागने जाणे छे, पण व्यवहार-राग ज्ञानने मापतुं-जाणतुं नथी). समजाणुं कांई...

अहीं कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि,... ज्ञाननी समस्त शक्तिने प्रगट करवा-विकसाववा - फेलाववा वडे प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी प्रभावना करनार छे.’

अहा! भगवान आत्मा एकला ज्ञाननो पुंज प्रभु छे. तेना आश्रये प्रगट थयेली ज्ञाननी पवित्र दशा ते ज्ञाननुं विकासपणुं-फेलावापणुं छे. ज्ञानी समस्त शक्तिने प्रगट


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करवा-विकसाववा प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी प्रभावना करनार छे. वर्तमानमां ज्ञाननी अंशरूप प्रगटता छे; हवे ते समस्त शक्तिने प्रगट करवा-फेलाववा ज्ञानी प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी प्रभावना करनार छे. आवी व्याख्या छे!

अहा! लोकमां तो मोटा गजरथ काढे ने पांच-पचास लाखना खर्चा करे तो लोको ‘संघवी’नुं पद आपे. पण एमां तो धूळेय नथी सांभळने. एमां तो कदाच शुभराग होय तो पुण्य थाय; पण जो अभिमान होय के-अमे बहार पडीए, लोकमां अमारी वाहवाह थाय अने अमने संघवीपद मळे तो ए तो नर्यो पापभाव छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, भगवान बाहुबली ध्यानमग्न हता; पण अंदर जरी विकल्प रह्या करतो हतो के आ राज्य भरत चक्रवर्तीनुं छे तो केवळज्ञान न थयुं. अहा! ए रागना-मानना गजे (हाथीए) चढया तो अंदर केवळ न थयुं. पण भरते आवीने ज्यारे वंदन कर्युं तो थयुं के-ओहो! आने (भरतने) तो कांई नथी. एम थतां वेंत ज एकदम (माननो) विकल्प छूटी गयो ने तत्काळ झळहळ ज्योतिरूप केवळज्ञान पाम्या, समस्त ज्ञानशक्तिनी प्रगटताने पाम्या. अहा! चैतन्यनी समस्त शक्ति प्रगट थई गई. आ अहीं कहे छे के सम्यग्द्रष्टि ज्ञाननी समस्त शक्तिने विकसाववा प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी अर्थात् प्रकृष्ट भाव नाम एकाग्रता उत्पन्न करतो होवाथी प्रभावना करनारो छे. गजबनी व्याख्या छे भाई!

अज्ञानी तो पांच-पचास लाख खर्चे ने त्यां एम माने के अमे प्रभावना करी. पण एमां तो धूळेय प्रभावना नथी सांभळने. शुभरागने पण व्यवहारे प्रभावना त्यारे कहेवाय छे के ज्यारे अंदर निश्चय ज्ञाननी प्रगटता ने विकास थतां होय. अज्ञानीना विकल्पमां तो उपचार पण संभवित नथी. आवी वात छे.

अहा! ज्ञानी प्रभावना करनार छे. हवे कहे छे-‘तेथी तेने ज्ञाननी प्रभावनाना अप्रकर्षथी (अर्थात् ज्ञाननी प्रभावना नहीं वधारवाथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’

शुं वात छे? के समकितीने आठ गुण होय छे. अहा! समकिती कोने कहीए? के जेणे पूरण एक ज्ञायकभावमयपणुं प्रगट छे अर्थात् जेनी द्रष्टि एक ज्ञायकभाव उपर स्थिर चोंटी छे अने जेनुं लक्ष निमित्त, राग के पर्याय उपरथी खसी गयुं छे ते समकिती छे ने तेने निःशंक्ति आदि आठ गुण होय छे.

१. अहा! सूर्यबिंबनी जेम हुं शुद्ध एक पूरण ज्ञानप्रकाशनुं बिंब प्रभु आत्मा छुं एम धर्मी स्वरूपमां निःशंक छे ते निःशंकितगुण छे.


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२. हुं पूरण छुं-एम पूर्णनी भावना होवाथी तेने परनी-रागनी कांक्षा नथी ते निःकांक्षित गुण छे.

३. पूर्ण स्वभावनी भावना वर्तती होवाथी तेने पर पदार्थोमां इष्ट-अनिष्टपणुं नहि भासतुं होवाथी पर पदार्थो प्रति तेने दुर्गंछा के द्वेष नथी. पर पदार्थो तो मात्र ज्ञेयपणे छे एम जाणतां ज्ञानीने द्वेष नहि होवाथी निर्विचिकित्सा गुण छे.

४. धर्मीने पर पदार्थो प्रति अयथार्थबुद्धि नथी. पर पदार्थो-धन, स्त्री, पुत्र, मित्र इत्यादि मारां छे एम मानवुं ते अयथार्थबुद्धि अर्थात् मूढता छे. ज्ञानीने मूढता नथी तेथी तेने अमूढद्रष्टि गुण छे.

प. धर्मी जीव दोषने गोपवे छे अने शक्तिने-आत्मशक्तिने वधारे छे तेथी तेने उपगूहन के उपबृंहण गुण छे.

६. पोताना स्वभावमांथी च्युत थवानो प्रसंग बनतां ते पोताने पोताना स्वभावमां शुद्ध रत्नत्रयमार्गमां ज स्थित करी दे छे तेथी तेने स्थितिकरण गुण छे.

७. पोतानो जे निर्मळ स्वभाव छे तेनां ज्ञान-श्रद्धान ने आचरणरूप जे मार्ग छे ते मार्गनी ज एने प्रीति छे तेथी तेने वात्सल्यगुण छे. धर्मीने रागनो व्यवहाररत्नत्रयनो प्रेम होतो नथी. एने पर प्रत्येनो प्रेम सर्वांशे ऊडी गयो होय छे, केमके परथी पोताने लाभ थवानुं ते मानतो नथी.

तो शुं देव-शास्त्र-गुरुथी य लाभ नथी? समाधानः– परथी धूळेय लाभ नथी सांभळने. अरे भाई! एनाथी लाभ मानतां नुकशाननो पार नथी. मूढ पुरुष ज देव-गुरु-शास्त्र आदि परथी लाभ माने छे. अरे भाई! लाभ तो ज्यां अनंत रिद्धि पडी छे त्यां द्रष्टि करवाथी थाय के परमां द्रष्टि देवाथी थाय? शुं परमां आ आत्मा-चीज छे? (के परथी लाभ थाय?) अहो! भगवाननो आ जाहेर ढंढेरो छे के स्वाश्रये सुख ने पराश्रये दुःख छे. माटे हे भाई! पराश्रयथी पाछो वळ अने ज्यां अतीन्द्रिय आनंदकंद प्रभु आत्मा छे त्यां जा ने त्यां रति कर, त्यां प्रेम कर. आनुं नाम वात्सल्य गुण छे.

बहारमां कोइ जाणे के देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति करुं तो मुक्ति थइ जाय. पण बापु! धर्मनुं ने मुक्तिनुं एवुं (पराश्रयरूप) स्वरूप ज नथी. माटे बापु! तुं त्यांथी (पहेलां परथी लाभ छे एवी मान्यताथी) पाछो वळ अने स्वरूपमां एकाग्र थइ त्यां ज रति पाम के ज्यां त्रण लोकनो नाथ चिदानंदकंद प्रभु सदा परमात्मस्वरूपे विराजमान छे.

८. हवे आ छेल्ली प्रभावनानी वात छे. तो कहे छे-ज्ञानी समस्त ज्ञानशक्तिनी


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प्रगटतानो प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी जिनमार्गनी प्रभावना करनारो छे अने तेथी जे ज्ञाननी प्रभावनाना अप्रकर्षथी बंध थाय ते तेने थतो नथी परंतु निर्जरा ज थाय छे. आवी वात छे.

* गाथा २३६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘प्रभावना ए टले प्रगट करवुं, उद्योत करवो वगेरे;....’ अहा! पोते पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चिद्रूपस्वरूप प्रभु आत्मा छे. तेमां एकाग्र थइने समस्त चित्शक्तिने पर्यायमां प्रगट करवी एनुं नाम प्रभावना छे. भाई! आंही तो जगत साथे वाते वाते फेर छे. दुनिया तो बहारमां प्रभावना माने छे, ज्यारे अहीं तो जे वडे शक्तिनी पूरण व्यक्ति थाय तेवी अंतर-एकाग्रताने प्रभावना कहे छे.

अहा! कहे छे-भगवान! तुं कोण छो? अहाहा...! स्वरूपथी ज प्रभु तुं पूरण परमेश्वर छो. अहा! तो तारी परम इश्वरताने पर्यायमां प्रगट करवी, विकसित करवी तेनुं नाम प्रभावना छे. आ बहारमां श्रीमंतो घणा पैसा खर्चेने प्रभावना थइ गइ एम माने तो अहीं कहे छे के प्रभावनानुं एवुं स्वरूप नथी.

भगवान आत्मा ‘श्री’ नाम स्वरूपलक्ष्मी-चैतन्यलक्ष्मीवाळो छे. अहा! अनंत अनंत शक्तिथी युक्त एवा अनंतगुणनो भंडार प्रभु आत्मा श्रीमंत छे. अहा! आवा आत्मानी समस्त शक्तिओने पूरणता सुधी प्रगट करवी-विकसाववी तेनुं नाम प्रभावना छे. हवे कहे छे-

‘माटे जे पोताना ज्ञानने निरंतर अभ्यासथी प्रगट कहे छे-वधारे छे, तेने प्रभावना अंग होय छे.’

जोयुं? शुं कह्युं आ? के पोतानुं जे ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप छे तेमां एकाग्रतानो निरंतर अभ्यास करवाथी शक्तिनी प्रगटता थाय छे, शक्तिनो पर्यायमां विकास थाय छे अने तेनुं नाम प्रभावना छे. अहा! शुद्ध चिद्रूपस्वरूप निज स्वरूपमां अंतर-एकाग्र थइने आत्मलीन समस्त शक्तिओनी प्रगटताने विकास करवां ते प्रभावना छे. हवे आवी वात लोकोने आकरी लागे छे पण शुं थाय? बहारनी क्रियामां, व्रतादि पुण्यनी क्रियामां लोको प्रभावना थवानुं माने छे पण एम छे नहि.

पण पुण्य करतां करतां निश्चय थाय ने? समाधानः– त्रणकाळमांय न थाय. ज्यां पोतानुं चैतन्यनिधान पडयुं छे त्यां


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एकाग्र थतां निश्चय थाय पण रागमां एकाग्र थतां त्रणकाळमांय न थाय. रागमां क्यां पोतानुं निधान छे? राग तो जड अज्ञानमय भाव छे. तेमां एकाग्र थनार वा एनाथी लाभ माननार तो मिथ्याद्रष्टि छे. आवी वात छे! अरे भाई! आ मनुष्यदेहमां आ काळे आ प्रमाणे जो यथार्थ समजण न करी ने आत्मा ख्यालमां न लीधो तो अवतार एळे जशे. पछी क्यारे करीश बापु? (एम के आ अवसर वीती गया पछी अनंतकाळे अवसर नहि आवे).

भाई! तुं भगवान आत्मा सिवाय बधुं भूली जा. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि रागने भूली जा ने रागरहित अंदर चैतन्य भगवान छे तेने याद कर.

भूली जा एटले शुं? एटले के रागादि परवस्तु परथी तारुं लक्ष हठावी ले. ए रागादिमां रखडवामां तने क्यांय आत्मा मळे एम नथी. ए बहारमां धूळेय प्रभावना थाय एम नथी; माटे अंदर चैतन्यनुं लक्ष करी तेमां ज मग्न थइ जा. आवी वातु!

अहाहा....! कहे छे-भगवान! तुं कोइ चीज वस्तु छे के नहि? (छे ने) तो एनो (तारी वस्तुनो) कोइ स्वभाव छे के नहि? अहा! लोजीकथी-न्यायथी तो समजवुं पडशे ने? अहाहा...! भगवान तुं आत्म-वस्तु आत्मतत्त्व छे ने ज्ञान, आनंद, शांति, स्वच्छता, प्रभुता इत्यादि अनंतगुणमय एनुं सत्त्व छे. अहा! अनंत शक्तिस्वभावोना रसनो एक पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी शक्तिओनो निरंतर अभ्यास नाम एकाग्रता ते प्रभावना छे. अहा! छे अंदर? के ज्ञानने (आत्माने) निरंतर अभ्यासथी अर्थात् ज्ञानस्वरूप भगवान आत्माने निरंतर अर्थात् अंतर पाडया विना धारावाही एकाग्रताथी प्रगट करवो ते प्रभावना छे. अहा! आवो मारग छे बाप!

अहा! जुओने! आ बहारनी (संसारनी) वातो सांभळीए छीए तो अंदर वैराग्य.... वैराग्य थइ जाय छे. अहा! केटकेटली महेनत करीने, केटकेटला पाप करीने आ बहारनी लौकिक विद्या लोको मेळवे छे? अहा! ए म्. अ ने ल्. ल्. ब्. ने म्. ड. नां पूछडां (पद, उपाधि) बधां पापनां पूछडां छे बापा! अने पछी पण एकली निरंकुश पापनी ज एने प्रवृत्ति छे. आ समकितनुं पद बस एक ज एवुं पद छे के जे पद ग्रहण करतां धर्मी जीव समस्त ज्ञानशक्तिनी प्रगटतारूप, समस्त आनंदशक्तिनी प्रगटतारूप-एम समस्त अनंतशक्तिनी प्रगटतारूप प्रभावनानो करनारो थाय छे. अहो समकित! अहो धर्मात्मा! अरे भाई! आ लौकिक पूछडां तो तने अनंत जन्म-मरण करावशे. माटे चेती जा अने अनंत सुख भणी लइ जनार समकितने ग्रहण कर.

अहा! आत्मा ज्ञानादि अनंतगुणनुं संग्रहस्थान नाम गोदाम छे. आ बहारमां


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गोदाम होय छे ते नहि हों. आ तो आ (अंदर आत्मा छे ने) गोदाम छे एम वात छे. अरे! अज्ञानी तो क्यांय बहारमां गरी गयो छे. अहीं तो जेमां अनंतगुण एकपणे अंदर पडया छे ते आत्मा अनंतगुणनुं गोदाम छे. प्रभु! तने तारा निजस्वरूपनी खबर नथी. पण जेनुं स्वरूप भगवाननी वाणीमां पण पूरुं न आवी शके एवो तुं वचनातीत, इन्द्रियातीत, विकल्पातीत, ज्ञानादि अनंतगुणनुं गोदाम छो. तो एवा पोताना स्वरूपमां अंदर ढळीने एकाग्रताना अभ्यास वडे शक्तिओनी-गुणनी प्रगटता करवी एनुं नाम निश्चयथी प्रभावना छे. धर्म छे. बाकी धर्मना नामे ‘आ करो ने ते करो’ -एम बहारनी जे क्रियाओ छे ए तो बधी थोथेथोथां छे (अर्थात् कांइ नथी). समजाणुं कांइ....?

अहा! जुओने आ बधा अबजोपति विदेशीओ! बिचाराओने क्यांय सुखशांति मळती नथी एटले धर्मने गोतवा नीकळ्‌या छे अने अहीं ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण’ एम जपे छे, नाचे छे. पण त्यां क्यां ‘हरे कृष्ण’ छे? ‘हरे कृष्ण’ तो आ पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. अहा! पापने अज्ञानने हरे ते भगवान आत्मा पोते ज हरि छे अने कर्मने कषे ते आत्मा पोते ज कृष्ण छे. पण एनी खबर न मळे एटले लोको तेमने बहारथी नाचता देखीने कहे के- ‘ओहोहो....! भारे धर्म करे छे. पण धूळेय एमां धर्म नथी सांभळने.

जेम लींडीपीपर रंगे काळीने ६४ पहोरी तीखाशथी भरेली छे; तेने धूंटता तेमांथी शक्तिनी व्यक्ति-चोसठ पहोरी अर्थात् पूरण रूपिये रूपियो तीखाश-बहार प्रगट आवे छे. तेम भगवान आत्मामां अनंत अनंत ज्ञान, आनंद आदि पूरण शक्ति पडी छे. तो तेमां एकाग्रता करीने शक्तिनी पूरण प्रगटता करवी एनुं नाम अहीं भगवान प्रभावना कहे छे. अहा! सम्यग्द्रष्टि के जेणे स्वरूपमां रहेली शक्तिओनी निःसंदेह प्रतीति करी छे ते स्वरूपनी निरंतर एकाग्रता वडे सम्यक् प्रभावनानो करनारो छे. आवी वातु छे!

प्रश्नः– आ तो अंदरनुं कह्युं, पण बहारमां शुं करवुं? उत्तरः– कांइ नहि; बहारमां ते करे छे शुं? बहारमां तो रागनी ने जडनी क्रियाओ थाय छे. ज्ञानीनुं तेमां कांइ कर्तव्य नथी. बहारमां वळी कांइ करवापणुं छे एम छे ज नहि.

प्रश्नः– हा, पण अंदर जवा प्रयत्न करीए छीए छतां अमारुं मन तो बहारमां ज भागे छे?

उत्तरः– तो एमां अमे शुं करीए? तारुं चित्त निमित्तमां ने रागमां-एम बहारनी रुचिमां ज फसायेलुं रहे छे तो अमे शुं करीए? भाई! निमित्त ने रागथी


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हठी जा अने अंदर निर्मळानंदनो नाथ प्रभु भगवान तुं पोते छो तेनी रुचिकर, तेमां चित्त लगाव. बस आ एक ज मार्ग छे.

पण कोइ सहेलो मार्ग छे के नहि? आ ज सहेलो छे. ज्यां पोते छे त्यां जवुं ए सहेलुं छे; अने ज्यां छे त्यां जवाने बदले बीजे जवुं ते कठण छे, दुष्कर छे ने विपरीत ने दुःखकारी पण छे.

अहाहा....! कहे छे-धर्मी जीव पोताना ज्ञाननी एकाग्रताना निरंतर अभ्यास वडे ज्ञानने प्रगट करे छे-विकसावे छे अने तेथी तेने प्रभावना अंग होय छे. माटे ‘तेने अप्रभावनाकृत कर्मबंध नथी, कर्म रस दइने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज छे.’

जोयुं? धर्मी जीव निरंतर पोताना विज्ञानघनस्वभावी आत्मामां एकाग्रतानो अभ्यास करतो थको वीतरागविज्ञाननी प्रगटता-विकास करतो होय छे. तेथी तेने अप्रभावनाकृत बंध नथी पण निर्जरा ज छे. हवे कहे छे-

‘आ गाथामां निश्चय प्रभावनानुं स्वरूप कह्युं छे. जेम जिनबिंबने रथमां स्थापीने नगर, वन वगेरेमां फेरवी व्यवहारप्रभावना करवामां आवे छे, तेम जे विद्यारूपी (ज्ञानरूपी) रथमां आत्माने स्थापी मनरूपी (ज्ञानरूपी) मार्गमां भ्रमण करे ते ज्ञाननी प्रभावनायुक्त सम्यग्द्रष्टि छे, ते निश्चयप्रभावना करनार छे.’

जुओ, भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवनी प्रतिमाने-जिनप्रतिमाने रथमां बेसाडीने नगर, वन वगेरेमां फेरवे छे ने? हा, पण ए तो व्यवहार छे, शुभभाव छे. ज्ञानीने तेवो व्यवहार होय छे, पण ए कांइ निश्चय प्रभावना नथी. निश्चय प्रभावना तो परम वीतरागस्वभावी जिनस्वरूपी भगवान आत्माने पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां स्थापीने तेमां ज रमणता करे ते छे. आत्मामां रमणता करवी ते ‘मार्गमां भ्रमण करवुं’ छे.

शुं कहे छे? के ज्ञानरूपी रथमां आत्माने स्थापीने-एटले के रागमां स्थापीने एम नहि-पण वर्तमान ज्ञाननी निर्मळ अवस्थामां आत्माने स्थापीने ज्ञानरूपी मार्गमां- शुद्धरत्नत्रयरूप मार्गमां भ्रमण करे ते ज्ञाननी प्रभावनायुक्त सम्यग्द्रष्टि छे. अहाहा...! ज्ञाननी प्रभावना करनारो सत्द्रष्टिवंत साचो साहेबो आवो होय छे. समजाणुं कांइ....?

तो आ बधा बहारमां गजरथ वगेरे चलावे छे ते शुं खोटुं करे छे? समाधानः– अरे भाई! ए तो कह्युं ने के धर्मी जीवने एटले सम्यग्द्रष्टिने बहारमां एवी (व्यवहार) प्रभावनानो शुभभाव होय छे, पण ए कांइ निश्चयथी प्रभावना नथी, धर्म नथी. वळी अज्ञानी तो अनादिथी बधुं खोटुं ज करे छे केमके


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अंतरमां आत्मभान थया विना तथा आत्मानी एकाग्रताना अभ्यास विना प्रभावना गुण प्रगट थतो ज नथी. अज्ञानीने निश्चय के व्यवहार कोइ प्रभावना होती नथी. आवी वातु छे.

हवे कहे छे- ‘आ प्रमाणे उपरनी गाथाओमां सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने निःशंकित आदि आठ गुणो निर्जरानां कारण कह्यां. एवी ज रीते अन्य पण सम्यक्त्वना गुणो निर्जरानां कारण जाणवां.’ एम के आ तो आठ कह्याने बीजा-आनंद, शांति विगेरे पण निर्जरानां कारण जाणवां. हवे विशेष कहे छे-

‘आ ग्रंथमां निश्चयनयप्रधान कथन होवाथी निशंकित आदि गुणोनुं निश्चय स्वरूप (स्व-आश्रित स्वरूप) अहीं बताववामां आव्युं छे.’

जोयुं? आ ग्रंथमां निश्चयनयप्रधान कथन छे. एटले शुं? एटले के सत्यार्थ द्रष्टिने प्रधान करीने आमां कथन छे. तेमां निःशंकित आदि गुणोनुं निश्चय स्वरूप कह्युं छे, निश्चयस्वरूप एटले के स्व-आश्रित स्वरूप; पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्मानुं स्व- आश्रितस्वरूप ते निश्चयस्वरूप छे. आ निःशंकित आदि गुणो आत्माश्रित छे. अहा! अजाण्याने तो एम थाय के-आ शुं कहे छे? एने तो आ पागल जेवुं लागे; पण अंदर छे के नहि? अहा! पण लोकमां तो छेय एवुं हों;-के ज्ञानीने जगत आखुं पागल भासे छे ने (पागल) जगतनी द्रष्टिमां ज्ञानी पागल लागे छे. (ज्ञानीनी ने जगतनी द्रष्टिमां आवडो मोटो फेर छे).

अहा! आ ग्रंथमां निःशंकित आदि गुणोनुं स्वाश्रित स्वरूप बताव्युं छे. ‘तेनो संक्षेप (सारांश) आ प्रमाणे छेः-

जे आवी गयुं छे तेनो सारांश कहे छे- १. ‘जे सम्यग्द्रष्टि आत्मा पोतानां ज्ञान-श्रद्धानमां निःशंक होय, भयना निमित्ते स्वरूपथी डगे नहि अथवा संदेहयुक्त न थाय, तेने निःशंकित गुण होय छे.’ जोयुं? गमे तेवी प्रतिकूळता आवी पडे तोपण धर्मी जीव स्वरूपना श्रद्धान-ज्ञानथी डगतो नथी वा स्वरूप संबंधी संदेहयुक्त थतो नथी. समकिती स्वरूपना श्रद्धान-ज्ञानमां अचल रहे छे. आवो निःशंकित गुण-स्वाश्रित धर्मनी दशानो गुण-तेने प्रगट थयो होय छे.

प्रश्नः– पण लोको तो कहे छे- ‘जनसेवा ते प्रभुसेवा’; एम के भुख्यांने भोजन आपो, तरस्यांने पाणी आपो, रोगीने औषध आपो, निवास वगरनांने झुपडां बंधावी आपो-इत्यादि जनसेवा ते धर्म छे.

उत्तरः– एमां धूळेय धर्म नथी सांभळने. धूळेय धर्म नथी एटले सरखुं पुण्येय नथी. समकितीने जेवुं पुण्य बंधाय छे तेवुं आ वडे अज्ञानीने पुण्येय ऊंचुं थतुं नथी.


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२. ‘जे कर्मनां फळनी वांछा न करे तथा अन्य वस्तुना धर्मोनी वांछा न करे, तेने निःकांक्षित गुण होय छे. अहा! ज्ञानी पुण्यना फळनी के पुण्यभावनी के हीरा, मणि, रत्न इत्यादि अन्य वस्तुना धर्मोनी वांछाथी रहित एवो निःकांक्ष होय छे.

३. ‘जे वस्तुना धर्मो प्रत्ये ग्लानि न करे, तेने निर्विचिकित्सा गुण होय छे.’ ४. ‘जे स्वरूपमां मूढ न होय, स्वरूपने यथार्थ जाणे, तेने अमूढद्रष्टि गुण होय छे. अहा! समकिती स्वरूपमां मूढ नथी, ते स्वरूपने अन्यथा जाणतो नथी. तेथी तेने अमूढद्रष्टि गुण होय छे. अरे! जगत बिचारुं स्वरूपने जाण्या विना धर्मने नामे ठगाय छे!

प. जे आत्माने शुद्ध स्वरूपमां जोडे, आत्मानी शक्ति वधारे, अन्य धर्मोने गौण करे, तेने उपगूहन गुण होय छे.’ जुओ. ‘अन्यधर्मोने गौण करे’ -एटले व्यवहारने गौण करी तेनो अभाव करे तेने उपगूहन गुण छे.

६. ‘जे स्वरूपथी च्युत थता आत्माने स्वरूपमां स्थापे, तेने स्थितिकरण गुण होय छे.

७. ‘जे पोताना स्वरूप प्रत्ये विशेष अनुराग राखे, तेने वात्सल्य गुण होय छे.’ ८. ‘जे आत्माना ज्ञानगुणने प्रकाशित करे-प्रगट करे, तेने प्रभावना गुण होय छे.’ हवे कहे छे-

‘आ बधाय गुणो तेमना प्रतिपक्षी दोषो वडे जे कर्मबंध थतो हतो तेने थवा देता नथी.’

जुओ, शुं कह्युं? के आ निःशंकित आदि गुणो, तेनाथी विरुद्ध एवा शंकादि दोषोथी जे बंध थतो हतो ते थवा देता नथी. आवी वातु छे.

पण आमां करवुं शुं? व्रत करो, दया पाळो इत्यादि कहो तो कांइक समजाय पण खरुं?

समाधानः– अरे भाई! अंदर आत्मा पोते भगवान छे एनी दया पाळ ने! तेने ते जेवडो अने जेवो छे तेवडो अने तेवो मान तो तेनी दया पाळी कहेवाय. एनाथी जुदो-विपरीत मानवो ते एनी हिंसा छे. तने खबर नथी भाई! पण आत्माने पैसावाळो मानवो, स्त्रीवाळो मानवो ने रागवाळो मानवो ते आत्मानी हिंसा छे; ने तेने अनंतगुणमय चिन्मात्रस्वरूप मानवो ते तेनी दया छे. अहा! जीवनुं जीवन अनंतगुणथी टकी रह्युं छे; तो तेने ए रीते मानवो तेनुं नाम दया छे. अहा! आ तो अज्ञानी साथे वाते वाते फेर छे.

हवे विशेष कहे छे- ‘वळी आ गुणोना सद्भावमां, चारित्रमोहना उदयरूप


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शंकादि प्रवर्ते तोपण तेमनी (-शंकादिनी) निर्जरा ज थइ जाय छे, नवो बंध थतो नथी; कारण के बंध तो प्रधानताथी मिथ्यात्वनी हयातीमां ज कह्यो छे.’

जुओ धर्मीने चारित्रमोहना उदय संबंधी जरा रागादि थाय छे पण ते खरी जाय छे अने नवो बंध थतो नथी कारण के बंध तो मुख्यपणे मिथ्या श्रद्धा वडे ज थवानो कह्यो छे. समकितीने किंचित् रागथी जे बंध थाय तेने गौण करीने ते नथी एम अहीं कह्युं छे.

अहा! पूर्णानंदस्वरूप भगवान आत्मामां अपूर्णता मानवी, तेने रागवाळो मानवो वा रागनी क्रियाथी-पुण्यनी क्रियाथी तेने लाभ छे एम मानवुं ते मिथ्या श्रद्धान छे अने ए ज महापाप छे. मिथ्या श्रद्धाननी हयातीमां जे बंध पडे छे तेने ज प्रधान करीने बंध कह्यो छे. ज्ञानीने-समकितीने किंचित् रागादि थाय अने किंचित् बंध पण थाय ते अहीं गौण छे; अर्थात् तेनी गणतरी नथी. आम वाते वाते फेर बापा! ओलुं आवे छे ने के-

“आनंदा कहे परमानंदा, माणसे माणसे फेर;
एक लाखे तो न मळे, ने एक त्रांबियाना तेर.”

एम जगत (अज्ञानी) साथे ज्ञानीने-धर्मीने वाते वाते फेर छे. हवे विशेष कहे छे के- ‘सिद्धांतमां गुणस्थानोनी परिपाटीमां चारित्रमोहना उदयनिमित्ते सम्यग्द्रष्टिने जे बंध कह्यो छे ते पण निर्जरारूप ज जाणवो कारणके सम्यग्द्रष्टिने जेम पूर्वे मिथ्यात्वना उदय वखते बंधायेलुं कर्म खरी जाय छे तेम नवीन बंधायेलुं कर्म पण खरी जाय छे; तेने ते कर्मना स्वामीपणानो अभाव होवाथी ते आगामी बंधरूप नथी, निर्जरारूप ज छे.’

अहा! जोयुं? समकितीने पूर्वकर्मनो उदय तो निर्जरे ज छे, पण जे नवीन बंध थाय छे ते पण, कहे छे निर्जरारूप ज छे अर्थात् निर्जरा माटे ज आव्यो छे एम कहे छे. अहा! भगवान आत्मानुं ज्यां भान थयुं, श्रद्धान थयुं त्यां पूर्वना कर्मनो उदय राग करावतो नथी, पण जे अल्प राग थाय छे ते पण निर्जरी जाय छे. ज्ञानीने ते वडे किंचित् बंध थाय छे ते पण निर्जरा समान ज छे केमके ते पण झरी जवा माटे ज छे. अहो! सम्यग्दर्शननो कोइ अचिंत्य महिमा छे!

अने मिथ्याश्रद्धान? हा! मिथ्याश्रद्धान महा कष्टदायक अत्यंत निकृष्ट छे. तेनी हयातीमां जीवने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि पुण्यभावो भरपूर होवा छतां मिथ्यात्वनुं महापाप बंधाय छे.

अहा! भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पूर्ण पवित्रता स्वरूपे अंदर नित्य विराजमान छे. एनी पवित्र द्रष्टि जेने प्रगटी छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. अहीं कहे


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छे के समकितीने पूर्व कर्मनो उदय (अनंतानुबंधीनो) राग कराववा समर्थ नथी तथा तेने उदयमां जोडातां जरी अल्प राग थाय छे ते खरी जाय छे. तथा थोडां नवां कर्म तेने जे बंधाय छे ते पण खरी जवा माटे छे केमके तेने कर्मनुं स्वामीपणुं नथी. कर्मनो ते धणी थतो नथी माटे ते आगामी बंधरूप नथी पण निर्जरारूप ज छे.

अहा! धर्मी कर्मनो स्वामी थतो नथी अने तेथी तेने ते (-कर्म) छूटी जाय छे अथवा छूटया बराबर ज छे. एटले शुं? ए ज द्रष्टांत कहीने समजावे छे-

‘जेवी रीते-कोइ पुरुष परायुं द्रव्य उधार लावे तेमां तेने ममत्वबुद्धि नथी, वर्तमानमां ते द्रव्यथी कांइ कार्य करी लेवुं होय ते करीने करार प्रमाणे नियत समये धणीने आपी दे छे; नियत समय आवतां सुधी ते द्रव्य पोताना घरमां पडयुं रहे तोपण ते प्रत्ये ममत्व नहि होवाथी ते पुरुषने ते द्रव्यनुं बंधन नथी, धणीने दइ दीधा बराबर ज छे; तेवी ज रीते-ज्ञानी कर्मद्रव्यने परायुं जाणतो होवाथी तेने ते प्रत्ये ममत्व नथी माटे ते मोजूद होवा छतां निर्जरी गया समान ज छे एम जाणवुं.’

जुओ कोइ गरीब-साधारण माणस होय ने घरे दीकरानुं लग्न आव्युं होय तो ते कोइ शेठिया पासेथी प्रसंग पूरतो पहेरवा माटे दागीनो नथी लावतो? लावे छे, बे चार दिवस माटे दागीनो पहेरवा उछीनो करीने लावे छे. पण शुं ते दागीनो पोतानो छे एम पोतानी मूडीमां खतवे छे? ना; नथी खतवतो केमके तेमां तेने ममत्वबुद्धि-मारापणानी बुद्धि नथी. तेम धर्मीने जे कांइ कर्म-राग आवे छे तेने ‘ते मारो छे’ -एम पोताना स्वरूपमां खतवतो नथी; धर्मी ते कर्म-रागनो स्वामी थतो नथी.

वळी नियत समय सुधी-काम पते त्यां सुधी ते दागीनो घरमां रहे तोपण ते प्रत्ये मारापणानो भाव नहि होवाथी ते दागीनो घरमां पडयो पडयो पण पाछो दइ दीधा बराबर ज छे. तेवी रीते धर्मीने कर्म-राग प्रत्ये मारापणानो भाव नहि होवाथी, ते तेने परायी चीज जाणतो होवाथी, तेने किंचित् कर्म मोजूद होवा छतां निर्जरी गया समान ज छे-एम कहे छे. अहा! धर्मीने शुद्ध चैतन्यनी प्रभुतामां पोतापणुं प्रगट भास्युं छे ने कर्म-रागमां मारापणुं छे नहि तेथी अल्प रागने कर्म मोजूद होय तोपण ते निर्जरारूप ज छे. अहो! जयचंदजीए केवी सरस वात करी छे! कहे छे-ज्ञानीने थोडुं कर्म-राग आवे तोपण ते पराइ चीज छे ने संघरवा योग्य नथी-एम पोते तेनो स्वामी नहि थतो होवाथी ते पडयुं पडयुं पण निर्जरी गया समान ज छे. ल्यो, आवी वातु!

हवे जेने निःशंकित आदि निश्चय आठ गुण प्रगटया छे तेने बहारमां व्यवहार आठ गुण होय छे तेनी वात करे छे. परंतु त्यां जेने सम्यग्दर्शन नथी अर्थात् निःशंकित आदि निश्चय आठ गुण नथी तेने आ व्यवहार आठ गुणो पण कहेवामां आवता नथी,


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जुओ, १पप गाथामां आवी गयुं के-जीवादि पदार्थोना श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते सम्यग्दर्शन छे. अहाहा....! जीवादि पदार्थोनुं श्रद्धान एटले शुं? के श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं एटले के आत्मानुं थवुं-परिणमवुं ते जीवादिनुं श्रद्धान नाम समकित छे. ज्ञाननुं परिणमन नाम आत्मानुं परिणमन. अहाहा....! शुं कीधुं? के आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकभावस्वरूप छे तेनुं निर्मळ-शुद्धरूप स्व-आश्रित परिणमन ते सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्मनी पहेली सीढी छे. अहा! आवा सम्यग्दर्शनमां निःशंकित आदि आठ निश्चय गुण प्रगट होय छे अने ते निर्जरानुं कारण बने छे. अने आ जे व्यवहार आठ गुण कहेशे ए तो पुण्यबंधनुं कारण छे छतां ते ज्ञानीने होय छे; पूर्ण वीतराग न थाय त्यां लगी ज्ञानीने निःशंकित आदि आठ व्यवहार गुण पण होय छे.

तो कहे छे- ‘आ निःशंकित आदि आठ गुणो व्यवहारनये व्यवहारमोक्षमार्ग पर नीचे प्रमाणे लगाववाः-

अहा! जोयुं? व्यवहारनये व्यवहारमोक्षमार्ग एटले के पराश्रितभावे पराश्रित मोक्षमार्ग कह्यो.

प्रश्नः– तो शुं पराश्रये मोक्षमार्ग होय छे? समाधानः– भाई! व्यवहारमोक्षमार्ग तो व्यवहारथी-उपचारथी कहेवाय छे. अहा! अंतरना शुद्ध चैतन्यना परिणमनरूप वास्तविक मोक्षमार्ग जेने प्रगट थयो छे तेने ज्यां सुधी पूर्णता-पूर्ण शुद्धता-नथी थइ त्यां सुधी पराश्रित एवो निःशंकित आदि व्यवहारनो भाव होय छे अने तेने उपचारथी व्यवहारमोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. एटले शुं? के ते मोक्षमार्ग तो छे नहि. पण मोक्षमार्गनी दशानी साथे रहेलो पराश्रित भाव छे तो तेने मोक्षमार्गनो सहचर जाणीने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. समजाणुं कांइ? तेने, कहे छे के व्यवहारमोक्षमार्ग पर नीचे प्रमाणे लगाववाः-

१. ‘जिनवचनमां संदेह न करवो, भय आव्ये व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी डगवुं नहि, ते निःशंकितपणुं छे.’

जुओ, निश्चयमां वस्तु पोते पूर्ण विज्ञानघनस्वरूप छे तेमां संदेह न थवो अने बहारमां जिनवचनमां संदेह न थवो तथा बहारमां गमे तेवी प्रतिकूळताना गंज आवे तोय व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी डगवुं नहि ते निःशंकितपणुं छे.

२. ‘संसार-देह-भोगनी वांछाथी तथा परमतनी वांछाथी व्यवहारमोक्षमार्गथी डगवुं नहि ते निःकांक्षितपणुं छे.’

अहाहा...! जुओ निश्चये जेने पुण्य ने पुण्यना फळोनी वा कोइ अन्य वस्तु-


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धर्मोनी वांछा नथी ते बहारमां संसार-देह-भोगनी वांछा वडे वा परमतनी वांछा वडे व्यवहारमोक्षमार्गथी डगतो नथी अने ते निःकांक्षितपणुं छे.

प्रश्नः– ज्ञानीने शंका, कांक्षा आदि होय छे ने? समाधानः– हा, होय छे. ज्ञानीने अतिचाररूपे ते दोष होय छे पण अनाचाररूपे नथी होता. जरी अस्थिरतानो एवो अल्प राग तेने होय छे पण तेने अहीं गणतरीमां लीधो नथी.

३. ‘अपवित्र, दुर्गंधवाळी-एवी एवी वस्तुओना निमित्ते व्यवहारमोक्षमार्गनी प्रवृत्ति प्रत्ये ग्लानि न करवी ते निर्विचिकित्सा छे.’

४. ‘देव, गुरु, शास्त्र, लोकनी प्रवृत्ति, अन्यमतादिकना तत्त्वार्थनुं स्वरूप ईत्यादिमां मूढता न राखवी, यथार्थ जाणी प्रवर्तवुं ते अमूढद्रष्टि छे.’

अहा! परमतमां पण साचा देव, साचा गुरु, साचां शास्त्रो हशे एवी मूढता न करवी. अहा! अन्यधर्मने मोटा मोटा राजाओ ने धनपतिओ माने छे माटे तेमां कांइक माल हशे एवी मुंझवण न करवी. भाई! जैनदर्शनना अंतरस्वरूप सिवाय बीजे क्यांय सत्य मार्ग छे नहि-एम यथार्थ जाणी प्रवर्तवुं ते अमूढद्रष्टि छे.

हा, पण एम तो दरेक पोताना मतने-धर्मने सत्य कहे छे? समाधानः– ए तो कहे ज ने? सौ कोइ पोतानुं सत्य छे एम तो कहे पण जे सत्य छे ते सत्य छे ने ते एक ज छे. भाई! असत्यने कोइ सत्य माने तेथी कांइ ते सत्य थइ जाय? न थाय.

जुओ, निश्चय ने व्यवहार बन्ने साथे होय छे. परंतु तेथी व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने ए तो जैनमतने छोडीने परमतमां भळ्‌यो छे. अहा! वीतरागनो मारग बापु! बहु जुदो छे. अहा! वीतरागस्वभावी पूरण शुद्ध चैतन्यघन प्रभु आत्माना आश्रये जे वीतराग परिणति प्रगट थाय अने तेनो पूर्ण आश्रय थतां अनंतज्ञान, अनंतसुख इत्यादिरूप जे पूर्ण मोक्षदशा प्रगट थाय ए ज बापु! धर्म छे अने ए सिवाय बीजो कोइ मारग छे ज नहि. अहा! वीतरागभावथी धर्म मानवाने बदले रागथी- पुण्यथी धर्म थवानुं माने ए तो अन्यमत छे भाई! ए वीतराग मार्ग नहि बापु! ज्ञानीने व्यवहार आवे खरो पण एमां ते मूढपणुं न राखे, एनाथी धर्म थाय छे एम ते न माने.

प्रश्नः– पण विघटन छे तेनुं संगठन करवुं जोइए. उत्तरः– हा, पण कइ रीते? शुं कोइनी साथे मेळ करवा माटे सत्यार्थ धर्मने छोडी देवो एम? अहा! शुं अज्ञानीओ माने छे ते प्रमाणे मानवुं? अरे


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भाई! सत्यने संगठन साथे रहे तो ठीक ज छे अने ते सत्यनो स्वीकार करवाथी ज बने तेम छे . (भाई! जे विघटन छे ते सत्यना अस्वीकारने लीधे छे). जुओ, कोइ लोको चाहे छे के-व्यवहारथी निश्चय थाय एम आप कहो तो मेळ थइ जाय. पण बापु! जो व्यवहारथी निश्चय थाय तो व्यवहारने निश्चय बे रहे छे ज छे क्यां? जो व्यवहारथी निश्चय थाय तो बन्ने एक थइ जाय. रागने वीतरागता बन्ने एक थइ जाय. पण वीतराग मारगनुं ए स्वरूप ज नथी. बापु! वीतरागनो मारग तो शुद्ध वीतरागतामय ज छे. एमां कोइ तडजोडनो के ढीलुं-पोचुं करवानो अवकाश ज नथी.

अहीं कहे छे-ज्ञानीने देवमूढता, गुरुमूढता के शास्त्रमूढता न होय; तेना स्वरूपने यथार्थ जाणीने प्रवर्तवुं ते अमूढद्रष्टि छे. समजाणुं कांइ....?

प. ‘धर्मात्मामां कर्मना उदयथी दोष आवी जाय तो तेने गौण करवो अने व्यवहारमोक्षमार्गनी प्रवृत्तिने वधारवी ते उपगूहन अथवा उपबृंहण छे.’

जुओ, धर्मात्माने कोइ दोष आवी जाय तो तेने गौण गणीने गोपववो ते उपगूहन छे. परंतु आ तो धर्मात्मानी वात छे; जेनी द्रष्टि ज मिथ्या छे अने जेने दोषनो कोइ पार ज नथी तेनी अहीं वात नथी. अहा! धर्मी जीवने कर्मना उदयवश कोइ दोष आवी जाय तो तेने गौण करवो अने व्यवहारमोक्षमार्गनी परंपराने वधारवी ते उपगूहन अथवा उपबृंहण छे आवी वात छे.

६. ‘व्यवहारमोक्षमार्गथी च्युत थता आत्माने स्थिर करवो ते स्थितिकरण छे.’ निश्चयमां निश्चयमोक्षमार्गथी च्युत थता आत्माने स्थिर करवो एम हतुं अने आमां व्यवहारमोक्षमार्गथी च्युत थता आत्माने स्थिर करवो ते स्थितिकरण एम कह्युं छे.

७. ‘व्यवहारमोक्षमार्गमां प्रवर्तनार पर विशेष अनुराग होवो ते वात्सल्य छे.’ निश्चयमां निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्ममां प्रेम होवो एम वात हती ज्यारे आमां धर्मात्मा प्रत्ये अनुराग होवानी वात छे. व्यवहार छे ने? धर्मीने धर्मात्मा प्रत्ये विशेष अनुराग होय छे अने तेने वात्सल्य कहे छे-

८. ‘व्यवहार मोक्षमार्गनो अनेक उपायो वडे उद्योत करवो ते प्रभावना छे’ आ व्यवहारे प्रभावना छे हों; निश्चय प्रभावना तो निश्चयस्वरूपने स्वाश्रये प्रगट करवाथी थाय छे. हवे कहे छे.

‘आ प्रमाणे आठे गुणोनुं स्वरूप व्यवहारनयने प्रधान करीने कह्युं. अहीं निश्चयप्रधान कथनमां ते व्यवहारस्वरूपनी गौणता छे. सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणद्रष्टिमां बन्ने प्रधान छे. स्याद्वादमतमां कांइ विरोध नथी.’

जुओ निश्चयनयनी द्रष्टिमां व्यवहार गौण छे, परंतु प्रमाणज्ञानमां बेय साथे