Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 234-235.

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जुओ, एक भाई पूछता हता के-श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के हुं (-श्रीमद्) एक भवे मोक्ष जवानो छुं. तो शुं आवुं बधुं ते जाणी शके?

त्यारे कह्युं के-बापा! (न जाणी शके)-एम रहेवा दो भाई! श्रुतज्ञान सर्वने जाणे छे माटे तमे (तेओ केम जाणी शके?)-एम रहेवा दो. बापु! श्रीमदे जे कह्युं छे ते यथार्थ कह्युं छे-

‘अशेष कर्मनो भोग छे भोगववो अवशेष रे,
तेथी देह एक धारीने जाशुं स्वरूप स्वदेश रे...’

आ श्रीमदे जे कह्युं छे ते यथार्थ कह्युं छे.

बापु! आत्मा सम्यग्ज्ञानमां शुं न जाणे? एना महिमानी तने खबर नथी. अहा! जेना लक्षमां ज्ञान गयुं ते बधानो ज्ञान पत्तो लई ले छे, ताग मेळवी ले छे. अहा! ज्ञाननो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे के नहि? तो सम्यग्दर्शनमां आत्मानुं ज्यां भान थयुं त्यां प्रगट थयेला श्रुतज्ञाननुं एवुं माहात्म्य छे के ते ज्ञानमां बधुं जणाय. अहा! श्रुतज्ञान ने केवळज्ञानमां परोक्ष-प्रत्यक्षनो फेर पाडयो छे, पण सर्वमां (सर्वने जाणवामां) फेर पाडयो नथी.

अहा! स्वरूपथी ज स्वपरने जाणवानुं श्रुतज्ञाननुं सामर्थ्य छे. अहा! श्रुतज्ञान कांई रांकु (बळहीन) ज्ञान नथी. ए तो बळवंतनुं बळवंत ज्ञान छे. बळवंत एवा भगवान आत्मानुं ज्ञान छे अने तेथी ते ज्ञान पण बळवंत छे. हवे कहे छे-

‘तेने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी तेनी कोई पदार्थ पर अयथार्थद्रष्टि पडती नथी.’

‘शुं कह्युं? के समकितीने कोई पदार्थ पर अयथार्थद्रष्टि पडती नथी, एटले के पदार्थमां मोहद्रष्टि-मूढतानी द्रष्टि थती नथी, केमके रागद्वेषमोहनो तेने अभाव छे. ते पदार्थोने ईष्ट-अनिष्टपणे जाणतो नथी.

हवे कहे छे-‘चारित्रमोहना उदयथी इष्टानिष्ट भावो उपजे तोपण तेने उदयनुं बळवानपणुं जाणीने ते भावोनो पोते कर्ता थतो नथी तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध थतो नथी परंतु प्रकृति रस दईने खरी जती होवाथी निर्जरा ज थाय छे.’

शुं कह्युं? के पदार्थसंबंधी मोह छे माटे नहि पण जरा नबळाईने लीधे उदयमां जोडातां किंचित् अस्थिरतानो राग थाय पण ते उदयनुं कार्य छे एम जाणीने ज्ञानी पोते तेनो कर्ता थतो नथी; ज्ञानी तो मात्र तेनो ज्ञाता रहे छे. अत्यारे आवो राग छे एम ज्ञानी जाणे छे पण तेमां तेने स्वामीपणुं नथी. अहाहा...! शब्दे शब्दे


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मुनि भगवंतोए गागरमां जाणे सागर भरी दीधो छे! अहा! पंचम आराना साधु...! पण साधु छे तेमां आरो छे कयां?

कहे छे-‘ते भावोनो पोते कर्ता थतो नथी तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध थतो नथी परंतु प्रकृति रस दईने खरी जती होवाथी निर्जरा ज थाय छे.’ अहा! समकितीने परने कारणे नहि पण पोतानी कमजोरीवश जरा अस्थिरता आवी छे पण ते खरी जाय छे. ज्ञानी तेना ज्ञाता-द्रष्टा ज रहे छे. आनुं नाम सम्यग्द्रष्टि अने आने निर्जरा कहेवामां आवे छे.

[प्रवचन नं. ३०४ (शेष)*दिनांक २८-१-७७]

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गाथा–२३३
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं।
सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३३।।
यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगूहनकस्तु सर्वधर्माणाम्।
स उपगूहनकारी सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३३।।

हवे उपगूहन गुणनी गाथा कहे छेः-

जे सिद्धभक्तिसहित छे, उपगूहक छे सौ धर्मनो,
चिन्मूर्ति ते उपगूहनकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३३.

गाथार्थः– [यः] जे (चेतयिता) [सिद्धभक्तियुक्तः] सिद्धनी (शुद्धात्मानी) भक्ति सहित छे [तु] अने [सर्वधर्माणाम् उपगूहनकः] पर वस्तुना सर्व धर्मोने गोपवनार छे (अर्थात् रागादि परभावोमां जोडातो नथी) [सः] ते [उपगूहनकारी] उपगूहनकारी [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी, उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्तिनो वधारनार छे, तेथी तेने जीवनी शक्तिनी दुर्बळताथी (अर्थात् मंदताथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टि उपगूहनगुण सहित छे. उपगूहन एटले गोपववुं ते. अहीं निश्चयनयने प्रधान करीने कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडेलो छे, अने ज्यां उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडयो त्यां अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज न रही तेथी ते सर्व अन्य धर्मोनो गोपवनार छे अने आत्मशक्तिनो वधारनार छे.

आ गुणनुं बीजुं नाम ‘उपबृंहण’ पण छे. उपबृंहण एटले वधारवुं ते. सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धना स्वरूपमां जोडेलो होवाथी तेना आत्मानी सर्व शक्तिओ वधे छे-आत्मा पुष्ट थाय छे माटे ते उपबृंहणगुणवाळो छे.

आ रीते सम्यग्द्रष्टिने आत्मशक्तिनी वृद्धि थती होवाथी तेने दुर्बळताथी जे बंध थतो हतो ते थतो नथी, निर्जरा ज थाय छे. जोके ज्यां सुधी अंतरायनो उदय छे त्यां सुधी निर्बळता छे तोपण तेना अभिप्रायमां निर्बळता नथी, पोतानी शक्ति अनुसार कर्मना उदयने जीतवानो महान उद्यम वर्ते छे.


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समयसार गाथा २३३ः मथाळु

हवे उपगूहन गुणनी गाथा कहे छेः-

* गाथा २३३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’ शुं कहे छे? के जेने पूर्णानंदस्वरूप शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मानो अनुभव थयो छे, अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. तेनी द्रष्टिमां सदा एक ज्ञायकस्वभावमय आत्मा छे. अहा! निमित्त, राग के पर्याय उपरथी जेनी द्रष्टि उडी गई छे ने एक ज्ञायकस्वभावमय आत्मा पर स्थापित थई छे ते धर्मी सम्यग्द्रष्टि छे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-‘एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी...’

अहा! कोण? के सम्यग्द्रष्टि; सम्यग्द्रष्टि, द्रष्टिमां एक ज्ञायकभाव होवाथी, समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करे छे. अहो! आचार्यदेवे गजब वात करी छे! ‘सिद्धभत्तिजुतो’ - एम छे ने पाठमां? सिद्धभक्ति एटले? एटले के सदा सिद्धस्वरूप एवा आत्मानी अंतर-एकाग्रता. शुद्ध आत्मानी एकाग्रतारूप सिद्धभक्ति छे. शुं कह्युं? के भगवान आत्मा पूरण ज्ञान, पूरण आनंद, पूरण शांति, पूरण स्वच्छता एम अनंत पूरण स्वभावोथी भरेलो एवो शुद्ध सिद्ध परमेश्वर छे. आवा पोताना सिद्ध परमेश्वरनी-सिद्ध भगवान नहि हों-अंतर-एकाग्रता ते सिद्धभक्ति छे. अहा! आ तो भाषा ज जुदी जातनी छे भाई!

अहा! समकिती सिद्धभक्ति करे छे. केवी छे ते सिद्धभक्ति? तो कहे छे- पोते अंदर शुद्ध चैतन्यमय सिद्धस्वरूप परमात्मा छे तेनुं भजन करे छे, तेनुं अनुभवन करे छे अने ते परमार्थे सिद्धभक्ति छे. आ (पर) सिद्ध भगवाननी भक्ति ते सिद्धभक्ति-एम नहि, केमके ए तो विकल्प छे, व्यवहार छे.

जुओ, बधे (अगाउनी गाथाओमां) ‘चेदा’-‘चेतयिता’-एम आव्युं हतुं. ज्यारे अहीं तो सीधुं ‘सिद्धभत्तिजुत्तो’–एम लीधुं छे. ‘चेदा’–चेतयिता एक ज्ञायकभावमय छे. अने समकिती पोतानुं स्वरूप जे शुद्ध चैतन्यमय, एक ज्ञायकभावमय छे तेमां एकाग्रतायुक्त छे अने ते सिद्धभक्ति छे. आ परद्रव्य जे सिद्ध एनी भक्तिनी वात नथी. ए तो व्यवहार छे. आ तो पोतानी स्ववस्तु जे एक ज्ञायकभावमय प्रभु आत्मा छे तेमां एकाग्र थईने रहेवुं-ठरवुं-लीन थई जवुं एने अहीं सिद्धभक्ति कहे छे. समजाय छे कांई...? अहो! आ तो शुद्धिनी वृद्धिनुं अद्भुत मांगलिक कीधुं छे!

कहे छे-भगवान! तुं सिद्ध समान छो ने? आवे छे ने? के-


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‘चेतनरूप अनूप अमूरत सिद्ध समान सदा पद मेरो’

अहाहा...! भगवान! तुं सिद्ध समान छो. पर्याये सिद्धपणुं नथी पण द्रव्यस्वभावे तुं सिद्ध समान छो, सिद्धस्वरूप ज छो. जो न होय तो पर्यायमां सिद्धत्व आवे कयांथी? छे एमांथी आवे छे; माटे तुं सिद्धस्वरूप ज छो. आवा पोताना स्वरूपमां एकाग्रता- लीनता-स्थिरता करतो थको समकिती क्षणे क्षणे पोतानी जे अनंत शक्तिओ छे तेनी शुद्धिनी वृद्धि करे छे अने ते निर्जरा छे. संवरमां शक्तिनी अंशे निर्मळता प्रगट थई हती ने हवे अंतर्लीनता-अंतर-रमणता वडे शक्तिनी शुद्धिनी वृद्धि करे छे. आवो मारग छे! लोकोने आकरो पडे छे पण शुं थाय?

अहा! ‘समस्त आत्मशक्तिओनी...’ अहा! शुं भाषा छे? आचार्यनी वाणी खूब गंभीर बापा! अहा! दिगंबर संतो! ने तेमांय वळी कुंदकुंदाचार्य ने अमृतचंद्राचार्य! अहा! कहे छे-एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी...’

एटले सर्वगुणांश ते सम्यक्त्व एम ने? ए तो समकितनी वात छे, ज्यारे अहीं तो वृद्धिनी वात छे. निर्जरा अधिकार छे ने? तेने समकित तो थयुं छे. ए तो अहीं कह्युं ने? के ‘सम्यग्द्रष्टि, एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’; मतलब सम्यग्द्रष्टि थयो छे ने एटली शुद्धता तो छे, पण हवे शक्तिओनी शुद्धतानी पर्यायमां वृद्धि करे छे एम कहेवुं छे. अहा! स्व-आत्मानी अनंत शक्तिओ छे. तो जेटली अनंत गुणरूप शक्तिओ छे तेनी प्रगट शुद्धतानी वृद्धि करे छे एम वात छे. वस्तु साथे एकपणानी द्रष्टि तो थई छे, हवे तेमां ज रमवारूप- चरवारूप-लीनतारूप-स्थिरतारूप एकाग्रता करीने प्रगट शुद्धतामां वृद्धि करे छे एम कहे छे. बापु! आ तो कुंदकुंदनी वाणी! ओलुं कवि वृन्दावनजीनुं आवे छे ने? के-‘हुए न है न होंहिंगे...’ -अहा! श्री कुंदकुंदाचार्य जेवा कोई छे थया नथी, अने थशे नहि. अहा! तेनी आ वाणी छे. जुओ तो खरा! केटलुं भर्युं छे!

भगवान! सम्यग्द्रष्टि एटले? जे एक ज्ञायकभावनो स्वामी थयो छे अने जेनी अनंत शक्तिओ निर्मळपणे प्रगटी छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. ‘सर्वगुणांश ते सम्यक्त्व’ एम श्रीमदे कह्युं छे ने? तो सर्वगुणांश एटले शुं? एटले के जे अनंत शक्तिओ छे तेनी अंशे व्यक्तता सम्यग्दर्शन थतां थई जाय छे. पण अहीं तो ते शक्तिओनी अंतर-एकाग्रता वडे वृद्धि थवानी वात छे. अहा! धर्मनी आवी वात बीजे कयांय छे नहि. अज्ञानीने बिचाराने झीणुं पडे एटले बीजे (-दया, दान, भक्ति आदिमां) धर्म मानी ले छे.

अहा! ‘सम्यग्द्रष्टि, एक ज्ञायकभावपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी, उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्तिनो वधारनार छे.’


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शुं कह्युं? जे अनंत शक्तिओ-गुणो छे तेनो अंश तो सम्यग्दर्शननी साथे प्रगट थयो छे अने हवे अंतर-एकाग्रता द्वारा ते सर्व आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी ते उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्तिनो वधारनार छे. पाठमां ‘उवगूहण’–गोपववुं ते -एम छे; पण तेनुं अहीं वळी ‘उपबृंहक’ एटले आत्मशक्तिनो वधारनार-एम लीधुं छे.

जेम पैसावाळो धनथी रळे ने ढगला थाय तेम अहीं ज्यां अंदर आत्मधन (- समकित) प्रगटयुं छे त्यां तेनो अंतर-व्यापार थतां सर्व शक्तिओ वृद्धिगत थाय छे एम कहे छे. शुं कह्युं? के भगवान आत्मामां आकाशना (अनंता) प्रदेश करतां अनंतगुणी शक्तिओ छे. शक्तिओ एटले गुण. एक एक गुणमां अनंत शक्ति (सामर्थ्य) छे ए बीजी वात छे. अहीं तो आत्मामां संख्याए अनंत शक्तिओ छे एम कहेवुं छे. तो हवे ते शक्तिओने (-पर्यायमां) अंतःक्रिया द्वारा वधारे छे. जेम धन रळे ने ढगला थाय छे तेम समकितीने अंतःक्रिया वडे शुद्धिनी वृद्धिना ढगला थाय छे एम कहे छे.

जुओ, उपवास करीने शुद्धि वधारतो जाय छे एम नथी कह्युं परंतु पोताना एक ज्ञायकभावमां वर्ततो थको आत्मशक्तिओनी वृद्धि करे छे एम कह्युं छे. ‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावपणाने लीधे’-एम कह्युं छे के नहि? मतलब के द्रष्टि एक ज्ञायकभाव पर छे अने तेमां ज स्थिरता पामतो थको शुद्धिनी वृद्धि करे छे. शुद्धिनी वृद्धि थाय एनुं नाम अस्तिथी निर्जरा छे, ज्यारे अशुद्धतानुं टळी जवुं ने कर्मनुं खरी जवुं ए नास्तिथी निर्जरा छे. भगवाननो आवो मारग छे; ने आ विना बधुं (व्रत, तप) थोथेथोथां छे.

तो उपवास ते तप छे ने तपथी निर्जरा छे एम कह्युं छे ने? भाई! ए उपवास एटले कयो उपवास? ‘उपवसति इति उपवासः’ जे आत्मानी समीपमां वसवुं छे ते उपवास छे, अने ते तप छे अने एनाथी निर्जरा छे. अहा! आत्मानी समीपमां वसवानो अभ्यास करतां आत्मशक्ति वधे छे अने ते निर्जरा छे. त्यां शक्तिनी पूर्ण वृद्धि थई जवी एनुं नाम मोक्ष छे. आवी वात छे.

हवे कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि,... उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्तिओनो वधारनार छे, तेथी तेने जीवनी शक्तिनी दुर्बळताथी (अर्थात् मंदताथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’

शुं कह्युं? के सम्यग्द्रष्टिने, सम्यग्दर्शननी साथे शुद्धता तो प्रगटी छे, ने तेमां अंतर-एकाग्रताना वेपार द्वारा ते वृद्धि करे छे, अतीन्द्रिय आनंदरूपी अमृतना मालने वधारी दे छे. तेथी कहे छे, दुर्बळताने लईने जे बंध थतो हतो ते हवे थतो नथी. अहा! आत्मशक्तिनो वधारनार होवाथी तेने दुर्बळताथी थतो बंध थतो नथी. अहो! अलौकिक वात छे! आचार्य अमृतचंद्रे एकलां अमृत रेडयां छे. अहा! कहे छे


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-आनंद-आनंद-आनंद-अनाकुळ आनंद वधी जवाने कारणे समकितीने दुर्बळताथी थतो बंध थतो नथी पण जे दुर्बळता छे ते नाश पामी जाय छे. अहा! ज्यां सबळता प्रगटी त्यां दुर्बळता नाम अशुद्धता नाश पामी जाय छे अने तेथी तेने बंध थतो नथी, पण निर्जरा ज थाय छे. अहा! आवो अलौकिक मारग! बापु! जेना फळमां अनंत आनंद आवे, अहाहा...! सादि अनंत अनंत समाधि-सुखमय मोक्षदशा प्रगटे ते उपाय पण अलौकिक ज होय ने! आवे छे ने के-

“सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां,
अनंत दर्शन ज्ञान अनंत सहित जो...”

अहो! मारग ने मारगनुं फळ परम अलौकिक छे! भगवान! तने तारा अंतःतत्त्वना महिमानी खबर नथी. अहा! जेम सुवर्णने काट लागे नहि तेम कर्म तो शुं अशुद्धताय जेने अडती नथी एवो चैतन्यमूर्ति एक ज्ञायकभावरूप प्रभु अंदर आत्मा छे. तेनी जेने अंतर्द्रष्टि थई तेने समकित ने अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थाय छे. वळी तेमां ज अंतर-एकाग्रतानो अभ्यास करतां एवी सिद्धभक्ति वा आत्मभक्ति प्रगट थाय छे. अहा! आत्मशक्ति एवी वृद्धिगत थाय छे के तेमां दुर्बळता वा अशुद्धता क्रमे करीने नाश पामी जाय छे अने तेथी तेने दुर्बळताकृत बंध थतो नथी पण निर्जरा ज थाय छे. ल्यो, आनुं नाम निर्जरा ने धर्म छे अने आ सिद्धभक्ति छे. कोण सिद्ध? पोते अंदर स्वभगवान छे ते.

* गाथा २३३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्द्रष्टि उपगूहनगुण सहित छे. उपगूहन एटले गोपववुं ते अहीं निश्चयनयने प्रधान करीने कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडेलो छे,...’

जुओ, पाठमां उपगूहन छे ने? तो पाछुं अहीं ‘उपगूहन’ लीधुं छे. टीकामां उपबृंहक लीधुं’तुं, अहीं उपगूहन कहे छे. तो कहे छे-सम्यग्द्रष्टि उपगूहनगुण सहित छे. उपगूहन एटले गोपववुं ते.

वळी कहे छे-सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडयो छे. एटले शुं? एटले के पोते अंदर, भगवान सिद्धनी जेम स्वभावे त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे तेमां ज्ञानीए पोताना उपयोगने जोडयो छे. अहा! धर्मीए पोतानी परिणतिनो वेपार अंदर भगवान चैतन्यदेव साथे जोडयो छे. आनुं नाम धर्म छे अने निश्चयथी आनुं नाम भक्ति छे. अज्ञानीए तो बे-पांच मंदिरो बंधाववां, जिनबिंबनी प्रतिष्ठा करवी-कराववी अने तेनी पूजा-भक्ति-जात्रा आदि करवां-एमां धर्म मान्यो छे. पण एमां तो धूळेय धर्म नथी सांभळने ए तो धर्मीने अशुभथी बचवा एवो शुभभाव आवे छे,


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पण ते कांई धर्म नथी, वा धर्मनुं कारण पण नथी. धर्मनुं कारण तो एक ज्ञायकभावमयपणुं छे. जुओने! दरेकमां लीधुं छे के नहि? के ‘एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’; बापु! आ तो सर्वज्ञना दरबारनी वातु! एक ज्ञायकभावनी एकाग्रता ज धर्म ने धर्मनुं कारण छे.

हवे कहे छे-‘अने ज्यां उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडयो त्यां अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज न रही तेथी ते सर्व अन्य धर्मोनो गोपवनार छे अने आत्मशक्तिनो वधारनार छे.’

जुओ, आ शुं कह्युं? के उपयोग ज्यां सिद्धभक्तिमां एटले के शुद्ध चैतन्यस्वरूप निज परमात्मानी भक्तिमां जोडयो त्यां अन्यधर्मो पर द्रष्टि ज न रही. अहाहा...! कहे छे-समकितीने अंतर-एकाग्र थतां निमित्त ने राग ने पर्याय इत्यादि अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज न रही. जुओ आ वाणी! अहा! देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा के जेनी सभामां गणधरो, महामुनिवरो ने एकभवतारी इन्द्रो आवी विनम्र थई वाणी सांभळवा बेठा होय ते सभामां भगवाननी वाणीमां केवी वातु आवे! शुं दया पाळो, ने व्रत करो ने भक्ति करो इत्यादि राग करवानी वातु आवे? अरे भाई! एवी वात तो कुंभारेय (अज्ञानीय) करे छे. बापु! वीतरागनी वाणीमां तो अंतर-पुरुषार्थनी वात छे के- त्रणलोकनो नाथ वीतरागस्वरूपी अंदर तुं पोते ज परमात्मा छो; तो त्यां द्रष्टि कर ने उपयोगने तेमां जोडी दे; अहा! तेथी तारा पापनो-अशुद्धतानो नाश थई जशे. ल्यो, आवी वात! आ निर्जरानी वात छे ने?

अहा! भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अंदर अनंतगुणनो ढगलो छे. शुं कह्युं? ज्ञान, दर्शन, सुख, प्रभुता, स्वच्छता आदि अनंतगुणनो ढगलो प्रभु आत्मा छे. ते शरीरप्रमाण (अवगाहना) छे माटे नानो छे एम माप न कर. भाई! ते तो अनंतगुणना मापवाळुं महान् चैतन्यतत्त्व छे. हवे आवा महान् निज तत्त्वने जाणवा रोकाय नहि ने आखो दि’ वेपार-धंधामां रोकायेलो रहे ने वळी एमां जो पांच-पचास करोड धूळ थई जाय तो माने के अमे वधी गया. अरे! धूळमांय वध्या नथी सांभळने. ए बधुं कयां तारामां छे? अहीं तो समकिती जेने अनंतगुण अंशे प्रगट थया छे ते उपयोगने पोताना शुद्ध चैतन्यतत्त्वमां जोडे छे तो अनंत गुणनी वृद्धि थाय छे अने ते वृद्धि छे एम कहे छे.

अहाहा...! कहे छे-उपयोगने ज्यां सिद्धभक्तिमां जोडयो त्यां अन्य धर्मो उपर द्रष्टि ज न रही. भारे वात भाई! उपयोग ज्यां अंदर वस्तुमां जोडायो त्यां द्रष्टि अन्य धर्मो कहेतां व्रत, तप आदि राग उपर के देव-गुरु आदि निमित्त उपर के वर्तमान पर्याय उपर न रही. तेथी ते अन्य धर्मोनो गोपवनार छे एम कहे छे. भाई! भगवान जिनेश्वरदेवना मारग बहु जुदा छे.


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प्रश्नः– तो आ बधां मंदिर, स्वाध्याय भवन आदि शा सारुं बनाव्यां छे? उत्तरः– भाई! ए मंदिरादिने कोण बनावे? ए तो बधां जड परद्रव्य छे. एनी रचना तो एना कारणे एना काळे थई छे; तेमां आ जीवनुं कांई कर्तव्य नथी. जडनी पर्याय जड परमाणुओथी थई एमां जीवनुं कांई कर्तव्य नथी. तथापि धर्मी जीवने मंदिर आदि बनाववानो ने भक्ति-पूजा करवानो राग आवे छे. ते पुण्यभाव छे पण धर्म नथी. एवो पुण्यभाव धर्मीने जरूर आवे छे; तेनो कोई ईन्कार करे के-आ मंदिर, जिनप्रतिमा, भक्ति-पूजा आदि कांई छे नहि तो ते जूठो छे, अने ते वडे कोई धर्म मानी ले तो ते पण जूठो, मिथ्यावादी छे. समजाणुं कांई...? णभाई! लाख मंदिर बनावे ने कोई लाख करोडो रूपिया खर्च करे तोय धर्म थई जाय एम छे नहि. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे.

हा, पण प्रभावना तो करवी जोईए ने? समाधानः– अरे भाई! प्रभावना तो बहारमां होय के अंदर आत्मामां? ‘प्र’ नाम प्रकृष्ट ने भावना नाम आत्मभावना. आत्मभावना प्रकृष्ट थवी-वधवी एनुं नाम प्रभावना छे. अहा! अंदर अनंतगुणनो खजानो प्रभु आत्मा छे. तेनो प्रगट अंश पूर्णता भणी वृद्धि पामे ते प्रभावना छे. बाकी बहारमां तो प्रभावनानो शुभभाव होय छे ने ते पुण्यबंधनुं कारण छे. धर्मीना ते भावने व्यवहार प्रभावना कहे छे बाकी अज्ञानीने तो निश्चयेय नथी ने व्यवहारेय नथी, -समजाणुं कांई...?

अहाहा...! कहे छे-धर्मीने अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज न रही. ‘अन्य धर्मो’ एटले के व्रत, तप, भक्ति, पूजानो राग हो के देव-गुरु-शास्त्र आदि संयोगी चीज हो-ए सर्व अन्य पदार्थो परथी धर्मीनी द्रष्टि ज ऊठी गई छे अने तेथी अन्य धर्मोनो गोपवनार छे. अहा! अन्य धर्मो भणी द्रष्टि ज नहि होवाथी ते अशुद्धताने गोपवी दे छे अने शुद्धिने वधारे छे.

त्यारे कोईने वळी थाय के आ तो निश्चय-निश्चय बस एटलुं निश्चय छे, एकांत छे. अरे भाई! तने खबर नथी बापु! समकितीने व्यवहारधर्म तो छे पण ए तो बधो राग छे, पुण्यभाव छे. वास्तवमां ते व्यवहारने घटाडतो जाय छे अने अंतःशुद्धिने वधारतो जाय छे केमके तेने एक ज्ञायकभावपणुं छे. पण अज्ञानीए तो ज्ञायकने भाळ्‌यो ज नथी. तोपछी निश्चयधर्म विना तेने व्यवहार पण कयांथी होय? छे ज नहि. भाई! आ कांई वादविवादे पार पडे एवुं नथी. बापा! अहीं तो आचार्य एम कहे छे के जेणे पोताना शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप प्रभु आत्मानी भक्तिमां उपयोगने जोडयो छे तेने अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज रही नथी अने तेथी ते अशुद्धतानो गोपवनार छे अने आत्मशक्तिनो वधारनार छे. निर्जरानी आवी व्याख्या छे.


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तो कोई लोको राडो पाडे छे के-व्यवहारथी निश्चय थाय एम कहो तो अनेकान्त थाय.

तेने कहीए छीए के व्यवहारथी निश्चय थाय एवुं अनेकान्त छे ज नहि. बापु! अहीं तो एम कहे छे के-समकिती व्यवहारना रागने घटाडतो जाय छे ने निश्चय शुद्धता वधारतो जाय छे. आ अनेकान्त छे. भाई! व्यवहारथी निश्चय थाय ए तो तारुं मिथ्या एकान्त छे, ज्यारे निश्चय-शुद्ध आत्माना लक्षे ज निश्चय-शुद्ध परिणति थाय ए सम्यक् एकान्त छे. हवे एने बिचाराने कोई दि’ मार्ग मळ्‌यो ज नथी एटले दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभावमां गुंचाई पडयो छे. पण बापु! ए बधा रागना-पुण्यना भावो वडे जेनाथी जन्म-मरण मटे एवो धर्म कदीय थाय एम नथी. अन्य मारगमां गमे ते हो, वीतरागनो आ मारग नथी.

हवे कहे छे-‘आ गुणनुं बीजुं नाम ‘उपबृंहण’ पण छे. उपबृंहण एटले वधारवुं ते. सम्यद्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धना स्वरूपमां जोडेलो होवाथी तेना आत्मानी सर्व शक्तिओ वधे छे-आत्मा पुष्ट थाय छे माटे ते उपबृंहणगुणवाळो छे.’

सिद्धना स्वरूपमां उपयोग जोडे एटले शुं? अहीं सिद्ध एटले भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप पोते. आवे छे ने के-‘सर्व जीव छे सिद्धसम.’ अहा! भगवान आत्मा पोते चैतन्यचिंतामणि रत्न छे. धर्मीए पोतानो उपयोग तेमां जोडयो होवाथी तेना आत्मानी सर्व शक्तिओ वधे छे. आ तप ने निर्जरा छे. आत्मानी सर्व शक्तिओ जेमां वृद्धिगत थाय ते तप ने निर्जरा छे. बाकी बहारना उपवास आदि तो थोथां छे.

अहा! अज्ञानी जे महिना महिनाना उपधान करे छे ते केवळ पापनी मजुरी करे छे. केम? केमके मिथ्यात्व तो तेने ऊभुं छे. कांईक पुण्य पण कदाचित् थाय तेने मिथ्यात्व खाई जाय छे. हवे त्यां धर्म कयां थाय बापु? अहीं तो आ स्पष्ट व्याख्या छे के-परद्रव्यना आश्रयमां राग ज थाय छे अने स्वद्रव्यना आश्रयमां ज वीतरागता थाय छे. आ सर्वज्ञ परमेश्वरनो ढंढेरो छे. ‘स्वाश्रय ते निश्चय ने पराश्रय ते व्यवहार.’ आ मूळ सिद्धांत छे. भाई! जेटलो पराश्रयमां जाय छे तेटलो राग छे. तेथी तो कह्युं के-ज्ञानीए पराश्रयमांथी द्रष्टि ऊठावी लीधी छे.

अहा! कहे छे-उपयोग पोताना सिद्धस्वरूपमां जोडेलो होवाथी ज्ञानीने आत्मानी सर्वशक्तिओ वधे छे-आत्मा पुष्ट थाय छे. टीकामां ‘वृद्धि’ कही हती ने? अहीं आत्मा पुष्ट थाय छे एम कहे छे. एटले शुं? के जेम चणो पाणीमां पलळीने पोढो थाय छे तेम ज्ञानी भगवान आत्मामां-अनंतशक्तिनुं संग्रहालय एवा आत्मामां


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-तल्लीन थतां ते धर्मथी पुष्ट थाय छे, शांतिथी पुष्ट थाय छे, ज्ञानथी पुष्ट थाय छे. अहो! संतोनी वाणी अजब छे!

हवे कहे छे-‘आ रीते सम्यग्द्रष्टिने आत्मशक्तिनी वृद्धि थती होवाथी तेने दुर्बळताथी जे बंध थतो हतो ते थतो नथी, निर्जरा ज थाय छे. जोके ज्यां सुधी अंतरायनो उदय छे त्यां सुधी निर्बळता छे तोपण तेना अभिप्रायमां निर्बळता नथी, पोतानी शक्ति अनुसार कर्मना उदयने जीतवानो महान उद्यम वर्ते छे.’

जोयुं? सम्यग्द्रष्टिने आत्मशक्तिनी वृद्धि थती होवाथी दुर्बळताथी जे बंध थतो हतो ते हवे थतो नथी. मतबल के हवे सबळता वृद्धिगत थवाथी धर्मीने दुर्बळता रही नथी अने तेथी दुर्बळताकृत बंध तेने थतो नथी एम कहे छे.

वळी अंतरायना उदयमां जोडावाथी धर्मीने किंचित् नबळाई होय छे तोपण तेना अभिप्रायमां कयां निर्बळता छे? अभिप्रायमां तो पूरण प्रभुतानो स्वामी, अनंतवीर्यनो स्वामी पोते छे एम निर्णय कर्यो छे. अहा! धर्मीने तो अभिप्रायमां पूरण भगवान-प्रभु आत्मा वस्यो छे. तेथी भले ते चोथे गुणस्थाने नरकमां हो के तिर्यंचमां, तेने तो पोतानी पूरण प्रभुता ज देखाय छे. पर्याय उपरथी तो तेनी द्रष्टि ज हठी गई छे. तेथी तेने तो अनंत शक्तिनो सागर प्रभु पूरण ज देखाय छे.

आ प्रमाणे अभिप्रायमां निर्बळता ज्ञानीने छे नहि. तेथी निरंतर तेने पर्यायमां जे किंचित् नबळाई छे तेनो नाश करवानो तेने उद्यम वर्ते छे. आ प्रमाणे आठमांथी पांच गुण थया. हवे स्थितिकरण, वात्सल्य ने प्रभावना एम त्रण रह्या. ते हवे आवशे.

[प्रवचन नं. ३०प*दिनांक २९-१-७७]
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गाथा–२३४
उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा।
सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३४।।
उन्मार्गं गच्छन्तं स्वकमपि मार्गे स्थापयति यश्चेतयिता।
स स्थितिकरणयुक्तः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३४।।

हवे स्थितिकरण गुणनी गाथा कहे छेः-

उन्मार्गगमने स्वात्मने पण मार्गमां जे स्थापतो,
चिन्मूर्ति ते स्थितिकरणयुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३४.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे चेतयिता [उन्मार्गं गच्छन्तं] उन्मार्गे जता [स्वकम् अपि] पोताना आत्माने पण [मार्गे] मार्गमां [स्थापयति] स्थापे छे, [सः] ते [स्थितिकरणयुक्तः] स्थितिकरणयुक्त (स्थितिकरणगुण सहित) [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे, जो पोतानो आत्मा मार्गथी (अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गथी) च्युत थाय तो तेने मार्गमां ज स्थित करतो होवाथी, स्थितिकारी छे, तेथी तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– जे, पोताना स्वरूपरूपी मोक्षमार्गथी च्युत थता पोताना आत्माने मार्गमां (मोक्षमार्गमां) स्थित करे ते स्थितिकरणगुणयुक्त छे. तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु उदय आवेलां कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.

समयसार गाथा २३४ः मथाळु

हवे स्थितिकरण गुणनी गाथा कहे छेः-

* गाथा २३४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि,........’ अहा! सम्यग्द्रष्टि कोने कहीए? हजी तो आ चोथा गुणस्थाननी वात छे. पांचमा ने छट्ठा गुणस्थाननी वात तो कोई ओर छे बापा!


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शुं कहे छे? ‘कारण के सम्यग्द्रष्टि,...’ सम्यग्द्रष्टि एटले धर्मी; जुओ, ‘चेदा’ -चेतयिता शब्द छे आमां. सम्यग्द्रष्टि एटले चेतयिता अर्थात् जाणग-जाणग एवा एक ज्ञायकभावनो धरनारो धर्मी-सम्यग्द्रष्टि छे. शुं कह्युं? भगवान आत्मा एक ज्ञायकभावमय छे ने तेनो धरनारो सम्यग्द्रष्टि छे. अहा! समकितीनी द्रष्टि एक ज्ञायकभाव पर छे. भाई! आ तो थोडुं कह्युं घणुं करीने जाणवुं; केमके भाव तो अति गंभीर छे.

शुं कीधुं? के सम्यग्द्रष्टि नाम सत्-द्रष्टि एने कहीए के जेने सत् एवा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि थई छे. अहा! सत्नी द्रष्टिमां आनंदादि जे अनंती स्वरूपभूत शक्तिओ छे ते बधीयनो अंश जेने प्रगट अनुभवमां आव्यो छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. ‘सर्वगुणांश ते सम्यक्त्व’-एम श्रीमद् राजचंद्रमां आवे छे ने! रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां पण श्री टोडरमलजीए कह्युं छे के-“चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे तेनी तथा तेरमा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो सर्वदेशरूप प्रगट थया छे तेनी एक ज जाति छे.” अहा! समकितीने जेटला अनंत गुणो छे ते बधाय एकदेश-अंशरूप पर्यायमां प्रगट थाय छे. आवो धर्मी-समकिती होय छे.

तो कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावपणाने लीधे, जो पोतानो आत्मा मार्गथी च्युत थाय तो तेने मार्गमां ज स्थित करतो होवाथी, स्थितिकारी छे,...’

जोयुं? अहीं तो सम्यग्द्रष्टि पोते पोतामां स्थिति करे छे एम कहे छे. अहा! पोते कदाचित् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मार्गमांथी च्युत थाय तो पोताने मार्गमां ज स्थित करे छे एम कहे छे. अहा! जगतनी कोई भारे प्रतिकूळता भाळीने के अंदरमां पोतानी नबळाईने लईने कोई शंकादि दोष थई जाय तो तेने काढी नाखे छे-एम कहे छे.

‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’–एम सूत्र छे ने? एटले शुं? के शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानां प्रतीति, ज्ञान ने तेमां ज रमणता थवी ते सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग छे. हवे आवा शुद्ध रत्नत्रयरूप मार्गथी डगवानो प्रसंग थाय तेवा संजोगमां समकिती पोते पोताने मार्गमां ज स्थापित करे छे. अहा! जगतमां कोई पुण्यने लईने मिथ्याद्रष्टिनो लोको मोटो महिमा करता होय तेवे प्रसंगे समकिती धर्मीजीव खूब शांति ने धीरज राखे छे अने पोताने मार्गमांथी डगतो बचावी ले छे. तेने एम न थाय के आ शुं? पोते पोताने मार्गमां निश्चळ स्थित करी दे छे. ते विचारे छे के पुण्यने लईने अधर्मीनो पण लोको भारे महिमा करे तो करो, पण पुण्य कांई (हितकारी) वस्तु नथी.


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अहा! सम्यग्द्रष्टि शुद्ध रत्नत्रयरूप मार्गथी च्युत थाय तो पोते पोताने मार्गमां ज स्थित करी दे छे. तेने एक ज्ञायकभावमयपणुं छे ने? तो अंतःसन्मुखताना पुरुषार्थ द्वारा पोताने मार्गमां ज स्थित करी दे छे. जुओ, आ प्रमाणे पोते पोताने मार्गमां ज स्थित करतो होवाथी स्थितिकारी छे. धर्मीने स्थितिकरण छे.

हवे कहे छे-‘तेथी तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’

अहा! सम्यग्दर्शनमां जेने स्वस्वरूपनो-अतीन्द्रिय आनंदना नाथनो-भेटो थयो छे ते मार्गमांथी चळतो नथी अने कदाचित् च्युत थवानो प्रसंग आवी पडे तो पोते पोताने मार्गमां ज स्थापित करी दे छे. आ प्रमाणे स्थितिकरण नामनो गुण होवाथी समकितीने मार्गथी च्युत थवाना कारणे जे बंध थाय ते थतो नथी. स्थितिकरण छे ने? तेथी बंध थतो नथी परंतु निर्जरा ज छे. अहीं स्थितिकरण गुण कह्यो पण ए पर्याय छे. गुण तो त्रिकाळ होय छे. आ तो पर्यायमां स्थिरता करे छे तेने स्थितिकरण गुण कहे छे.

* गाथा २३४ः भावार्थ *

‘जे, पोताना स्वरूपरूपी मोक्षमार्गथी च्युत थता पोताना आत्माने मार्गमां (मोक्षमार्गमां) स्थित करे ते स्थितिकरणगुणयुक्त छे.’ जोयुं? मोक्षमार्ग स्वरूपरूप छे; मतलब के आ व्रतादि परिणाम ते मोक्षमार्ग एम नहि. मोक्षमार्ग स्वरूपरूप छे अने तेमां स्थित थवुं ते स्थितिकरण छे. समकिती स्थितिकरणगुण सहित छे. ‘तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी, परंतु उदयमां आवेलां कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.’

[प्रवचन नं. ३०प (शेष)*दिनांक २९-१-७७]

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गाथा–२३प
जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि।
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३५।।
यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे।
स वत्सलभावयुतः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३५।।

हवे वात्सल्य गुणनी गाथा कहे छेः-

जे मोक्षमार्गे ‘साधु’त्रयनुं वत्सलत्व करे अहो!
चिन्मूर्ति ते वात्सल्ययुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३प.

गाथार्थः– [यः] जे (चेतयिता) [मोक्षमार्गे] मोक्षमार्गमां रहेला [त्रयाणां साधूनां] सम्यग्द्रर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी त्रण साधको-साधनो प्रत्ये (अथवा व्यवहारे आचार्य, उपाध्याय अने मुनि-ए त्रण साधुओ प्रत्ये) [वत्सलत्वं करोति] वात्सल्य करे छे, [सः] ते [वत्सलभावयुतः] वत्सलभावयुक्त (वत्सलभाव सहित) [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने पोताथी अभेदबुद्धिए सम्यक्पणे देखतो (-अनुभवतो) होवाथी, मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्ग प्रत्ये अति प्रीतिवाळो छे, तेथी तेने मार्गनी *अनुपलब्धिथी थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– वत्सलपणुं एटले प्रीतिभाव. जे जीव मोक्षमार्गरूपी पोताना स्वरूप प्रत्ये प्रीतिवाळो-अनुरागवाळो होय तेने मार्गनी अप्राप्तिथी थतो बंध नथी, कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.

समयसार गाथा २३पः मथाळु

हवे वात्सल्यगुणनी गाथा कहे छेः-

* गाथा २३पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’ _________________________________________________________________ * अनुपलब्धि = प्रत्यक्ष न होवुं ते; अज्ञान; अप्राप्ति.


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अहा! सम्यग्द्रष्टि-धर्मनी शरूआतवाळो जीव-कोने कहीए? के जेने एक ज्ञायकभावमयपणानी द्रष्टि छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. धर्मीनी द्रष्टि एक ज्ञायकभाव उपर ज होय छे; तेनी द्रष्टि निमित्त के राग उपर नथी. एनो अर्थ ज ए छे के निमित्तथी (उपादानमां) कार्य थाय के रागथी-व्यवहारथी निश्चय थाय एवुं छे ज नहि. अहा! धर्मीनी धर्मद्रष्टि छे तो पर्याय पण ते पर्यायनो विषय त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव छे. आवो जैनधर्म बहु झीणो छे, भाई!

कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि, एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने पोताथी अभेदबुद्धिए सम्यक्पणे देखतो (अनुभवतो) होवाथी...’

जुओ, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने अहीं ‘साधु-साधक’त्रय कह्या छे. पाठमां ‘तिण्हं साहूण’ एम छे ने? एटले के ए रत्नत्रय ‘साधु-साधक’त्रय छे. पोतानो जे त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव छे तेनां श्रद्धान-ज्ञान ने चारित्र ए त्रण साधको छे. अहा! आत्मानी परमानंदरूप जे मुक्ति तेनुं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र साधन छे. ल्यो, अहीं तो आ साधन कह्युं छे. एक ज्ञायकभावमय नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्माने ध्येयमां लेतां समकितीने जे ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी साधकदशा छे ते पूर्णानंदरूप मोक्षनुं साधन छे एम कहे छे. आमां तो निमित्त साधन ने व्यवहार साधन छे ए वात ज उडावी दीधी छे.

अहा! वस्तु छे ए तो त्रिकाळ एक ज्ञायकभावपणे छे. अने तेनो अनुभव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी एक ज्ञायकभावपणाने लीधे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने पोताथी-आत्माथी अभेदपणे-एकपणे अनुभवे छे. आवी वातु! कोई दि’ सांभळी न होय एटले थाय के शुं आवो जैनधर्म! एम के दया पाळवी, तपस्या करवी, भक्ति-पूजा करवी इत्यादि तो जैनधर्ममां छे पण आ केवो धर्म! अरे भाई! दया आदि तो बधी रागनी क्रियाओ छे, ते कांई जैनधर्म नथी. जैनधर्म तो एक ज्ञायकभावनां ज्ञान-श्रद्धान-आचरणने पोतानाथी एकपणे अनुभववां ते छे. आनुं नाम मोक्षमार्ग अने आनुं नाम धर्म छे.

पण आनाथी कोई सहेलो मार्ग छे के नहि? अरे भाई! पोताना सहजात्मस्वरूपमां थई शके ते आ सहज अने सहेलो मार्ग छे. अनंतकाळमां तें कर्यो नथी एटले कठण लागे छे पण मार्ग तो आ ज छे. जुओने! कहे छे के-धर्मी जीव, एक ज्ञायकभावपणाने लीधे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी जे परिणति स्वाश्रये प्रगट थई तेने पोताथी एकपणे-अभेदबुद्धिए अनुभवे छे.

ए तो १६ मी गाथामां आव्युं नहि? के-‘दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं’–जे स्वद्रव्यना आश्रये दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे अर्थात् सम्यग्दर्शन-


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ज्ञान-चारित्र छे तेने सेववां. ‘ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं’–ते त्रणेय एक आत्मा ज छे. ते त्रणेय थईने आत्मा-एकत्व छे. अहा! आत्माना एकपणानो अनुभव ते ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो अभेदबुद्धिए अनुभव छे. झीणी वात छे भाई! भगवान केवळीनो कहेलो मारग बहु सूक्ष्म छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे तो पर्याय पण ते पर्यायनुं लक्ष्य-ध्येय त्रिकाळी ध्रुव छे.

अहा! कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि,... सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने पोताथी अभेदबुद्धिए सम्यक्पणे देखतो (-अनुभवतो) होवाथी, मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्ग प्रत्ये अति प्रीतिवाळो छे.’ अहा! थोडा शब्दोमां, जुओ तो खरा, आ मुनिवरोए केटलुं भर्युं छे! अहाहा...! पोताना एक ज्ञायकभावस्थित दर्शन-ज्ञान-चारित्रने पोताथी अभेदबुद्धिए अनुभववां ते मार्गवत्सलता छे. आनुं नाम वात्सल्य के मोक्षमार्ग प्रत्ये अत्यंत प्रेम छे एम कहेवामां आवे छे.

अरे भाई! आ जे सुंदर रूपाळां कांतिवाळां शरीर देखाय छे तेनी तो क्षणमां बापा! राख थई जशे. एमां तो धूळेय (माल) नथी. अहीं कहे छे-एनो प्रेम छोड, रागनोय प्रेम छोड ने एक समयनी पर्यायनो पण प्रेम छोड; अने एक ज्ञायकभावथी नातो जोड. त्यारे तने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो पोताथी एकत्वनो अनुभव थशे अने ते मार्गवत्सलता छे एम कहे छे.

अहा! धर्मी मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्ग प्रत्ये प्रीतिवाळो छे. एटले शुं? के चिदानंद सहजानंदस्वरूप भगवान आत्मानुं अंदर ज्ञान थईने जे प्रतीति थई छे, तेनुं जे ज्ञान थयुं छे अने तेमां जे रमणता-लीनता थई छे तेने धर्मी स्वपणे-एकपणे पोतामां अनुभवे छे, अने तेने मोक्षमार्ग प्रत्ये अत्यंत प्रीतिवाळो छे एम कहे छे. हवे आवुं कदी सांभळ्‌युंय न होय ते बिचारा शुं करे? परमां ने शुभरागमां प्रेम करे; पण परमां ने रागमां प्रेम करवो ए तो व्यभिचार छे.

अहा! शुभरागनो प्रेम ए तो वेश्याना प्रेम जेवो छे. प्रवचनसारमां (गाथा २७९मां) ‘अभिसारिका’ शब्द आवे छे. परपुरुष जे प्रेमी छे तेने मळवा जनारी स्त्रीने ‘अभिसारिका’ कहे छे. एम जे पोताना शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपने छोडीने रागमां प्रेम करे छे ते अभिसारिका समान व्यभिचारी छे, अने त्रिलोकनाथ सच्चिदानंदमय पोताना भगवानमां जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी परिणति एकरूप करे छे ते मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्गमां अत्यंत प्रीतिवाळो छे एम कहे छे. धर्मीने तो राग ने निमित्तनो प्रेम छूटी गयो छे. तेने तो एक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयनी ज भावना-प्रेम छे. हवे आवुं झीणुं पडे एटले अज्ञानी दया, दान, भक्ति, व्रत, तप आदिना शुभरागमां रोकाई जाय छे पण भाई! रागमां रोकाई रहेवुं ए तो मिथ्यात्व-


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भाव छे. पोताना ज्ञायकभावमां अभेदपणे-एकपणे द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता करवी ए ज सम्यक्भाव छे अने ए ज धर्मवत्सलता छे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-‘तेथी तेने मार्गनी अनुपलब्धिथी थतो बंध नथी, कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.’

अहा! जेने भगवान आत्माना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी भावना वर्ते छे तेने मार्गनुं वात्सल्य छे अने तेथी मार्गनी अनुपलब्धिना कारणे जे बंध थतो हतो ते हवे थतो नथी. ‘अनुपलब्धि’-एटले प्रत्यक्ष न होवुं ते, अप्रत्यक्षपणुं. अहा! शुद्ध चैतन्यघन सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माने जे प्रत्यक्ष मति-श्रुतज्ञानमां प्रत्यक्ष-वेदे छे, अनुभवे छे तेने आत्मानुं अप्रत्यक्षपणुं रहेतुं नथी. अहा! भगवान आत्मानुं तेना सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणमनमां धर्मीने प्रत्यक्षपणुं थयुं छे एम कहे छे; अने तेथी तेने आत्मा प्रत्यक्ष न होय एवी अनुपलब्धिनी दशा रही नथी. तेथी तेने बंध नथी, परंतु निर्जरा ज छे. सहेज उदयनो भाव आवे, पण अंदर मोक्षमार्ग प्रति वत्सलता वर्ते छे तेथी तेने उदय निर्जरी जाय छे. आवी वात भाई! मारग भगवाननो साव जुदो छे.

अहा! जेम अफीणीयो अफीण पीवे ने एने खुमारी चढी जाय छे तेम अहीं कहे छे-अमे मोक्षमार्गनी प्रीतिना प्याला पीधा छे, हवे अमने आत्मानी लगनी अने मोक्षमार्गनी लगनी छूटशे नहि-एवी खुमारी चडी गई छे. अहीं कहे छे-हे भाई! तारे प्रेम ज करवो छे तो अंदरमां जा ने मोक्षमार्गनो प्रेम कर. आ स्वाश्रये प्रगट थयेलां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए तारां साधर्मी-साधन छे; तेनो प्रेम कर एम कहे छे. बाकी धर्मीने अन्य साधर्मी प्रत्ये जे प्रेम छे ते व्यवहार छे. अज्ञानीने तो व्यवहारेय नथी. आवो मारग आकरो बापा! अजाण्यो छे ने? तो आकरो लागे छे पण मारग आ ज छे. परथी भिन्नता ने स्वमां एकता करवी ए ज मारग छे.

* गाथा २३पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘वत्सलपणुं एटले प्रीतिभाव.’

जुओ, गायने वाछरडा प्रति खूब प्रीति होय छे. वाछरडुं कांई मोटुं थईने घास- पाणी लावी दे ने गायने खवरावे-पीवडावे एवुं कांई नथी. छतां गायने वाछरडा प्रत्ये बेहद प्रेम होय छे. एक बाजु सिंह आवे तोय, पोताना बच्चाना प्रेम आगळ, सिंह पोताने हमणां मारी नाखशे एनी दरकार कर्या विना, तेनी सामे माथुं मारे छे. जुओ, आवो ज कोई कुदरती प्रेम गायने वाछरडा प्रत्ये होय छे. तेम अहीं कहे छे-धर्मीने मोक्षमार्ग प्रति अतिशय-बेहद वत्सलता होय छे; अहा! दुनियाना सर्व भोगो प्रति तेने रस उडी गयो छे. अहा! रोज लाखो-करोडोनी पेदाश थती


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होय, लक्ष्मीना गंज थता होय तोपण धर्मीने तेमां प्रेम नथी. एनी तो प्रेमनी- रुचिनी दिशा ज बदली गई छे. अहो! दर्शनशुद्धि कोई अजब चीज छे! एनी प्रगटता थतां जीवनी रुचिनी दिशा पलटी जाय छे; परमांथी खसी तेनी रुचि स्वमां जाग्रत थाय छे.

ज्ञानीने चारित्रमोह संबंधी दोष होय, पण दर्शनशुद्धि होवाथी तेने परपदार्थोमां मूढता नथी होती. जुओ, श्रेणीक राजा क्षायिक समकिती हता. अपार राज्यवैभव अने अनेक राणीओ हती. पण अंतरमां मोक्षमार्गनी-शुद्ध रत्नत्रयनी रुचि हती, राज्यमां ने राणीओमां प्रेम (मूढता) न हतो. अहा! ज्ञानीने अहीं (आत्मामां) जेवो प्रेम होय छे तेवो त्यां (परमां, बहारमां) प्रेम नथी. अज्ञानदशामां एथी उलटुं होय छे.

तो रामचंद्रजीने रागनो राग हतो के नहि? समाधानः– ना; रामचंद्रजीने रागनो राग न हतो. रामचंद्रजी जंगलमां सर्वत्र पूछता-मारी सीता, मारी सीता,... जोई? छतां ते राग अस्थिरतानो हतो, रागनो राग न हतो.

जुओ, सीताजी पतिव्रता हतां. राम सिवाय स्वप्नेय तेमने बीजो कोई विकल्प न हतो. रावण ज्यारे तेमने उपाडी जतो हतो त्यारे-अहा! आ मने उपाडी जाय छे तो मारे आ आभूषणोथी शुं काम छे? -एम विचारी सीताजीए आभूषणो नीचे नाखी दीधां. जोयुं? नजरमां राम हता तो बीजी कोई चीज वहाली लागी नहि. तेम धर्मीने नजरमां-द्रष्टिमां-रुचिमां आत्मा छे तो तेने जगतमां बीजी कोई चीज वहाली होती नथी. इन्द्रपद के चक्रवर्तीनां पद तेने वहालां नथी. अहा! अंदर दर्शन, ज्ञान ने स्वरूपाचरण जेने प्रगटयां छे तेने बधेयथी प्रेम उडी गयो छे. गजब वात छे भाई! आवे छे ने के-

“चक्रवर्तीकी संपदा, अरु इन्द्र सरिखा भोग,
कागविट् सम गिनत है सम्यग्द्रष्टि लोग.”

अहा! धर्मीने जगत आखुं तुच्छ भासे छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-‘जगत ईष्ट नहि आत्मथी.’ जेने आत्मा ईष्ट थयो तेने जगत फीकुं-फच लागे छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, कोई मकान करोडो अबजोनी सामग्रीथी भर्युं-भर्युं होय ने तेमां मडदुं राख्युं होय तो ते मडदाने ए सामग्रीथी शुं काम छे? तेने छे कांई? तेम भगवान आत्मा चैतन्यपरमेश्वर प्रभुनां प्रतीति-ज्ञान ने रमणतानी प्रीति जेने थई छे ते ज्ञानी बहारनी अनेकविध सामग्रीमां ऊभो होय तोपण सामग्री प्रत्ये ते मडदा जेवो उदास-उदास-उदास छे. अहा! अत्यारे तो अज्ञानीओए मारग आखो वींखी नाख्यो छे!


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आ करवुं ने ते करवुं-एम बहारनुं करवा उपर बधा चडी गया छे. पण भाई? एमां जन्म-मरण रहित थवानुं शुं छे? जेनाथी जन्म-मरण रहित न थवाय ते करवुं शुं कामनुं?

अहीं कहे छे-‘वत्सलपणुं एटले प्रीतिभाव.’ जे जीव मोक्षमार्गरूपी पोताना स्वरूप प्रत्ये प्रीतिवाळो-अनुरागवाळो होय तेने मार्गनी अप्राप्तिथी थतो बंध नथी, कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.’ हवे आठमो गुण-धर्मीनी निःशंकादि आठ दशा छे तेमां हवे प्रभावना गुणनी वात कहेशे.

[प्रवचन नं. ३०६*दिनांक ३०-१-७७]