Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 231-232.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 121 of 210

 

PDF/HTML Page 2401 of 4199
single page version

* गाथा २३०ः टीका उपरनुं प्रवचन *
‘कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’
जुओ, मूळ गाथामां
‘चेदा’ एटले चेतयिता शब्द छे. चेतयिता एटले

जाणवावाळो आत्मा. धर्मीजीव चेतयिता छे. धर्मी जीव एने कहीए के जे जाणवावाळो छे; मतलब के ते परने-रागादि ने पुण्यादि भावने-जाणे छे पण पोतानां न जाणे अने पोतानां न माने. ते ते सर्वने परज्ञेयपणे जाणे छे. अहा! ते पण व्यवहार छे. झीणी वात छे भाई! जाणवावाळो भगवान आत्मा ज्ञ-स्वभावी, ज्ञायकस्वभावी, सर्वज्ञस्वभावी प्रभु छे अने तेनी जेने द्रष्टि थई छे ते चेतयिता धर्मी छे, सम्यग्द्रष्टि छे. टीकामां चेतयितानो अर्थ सम्यग्द्रष्टि कर्यो छे.

अहा! भगवान आत्मा एक ज्ञायकभावमय ज्ञ-स्वभावी वस्तु छे. ते कोई परनुं पोतानामां पोताथी कार्य करे एवो नथी, अने पर वडे पोतानामां कार्य थाय एवो पण नथी. अहा! परने पोताना माने एम तो नहि पण परने जाणे एवो व्यवहार पण पोतानामां नहि. गाथामां चेतयिता शब्द मूकीने आ कह्युं छे. अरे भाई! ए तो पोताने जाणे छे, चेते छे. तेने पोताथी भिन्न रागादि परद्रव्यने जाणवावाळो कहेवो ए तो व्यवहार छे. वास्तवमां तो ए पोतानो चेतयिता-पोताने जाणवावाळो छे. आवा स्वस्वरूपने जेणे द्रष्टिमां ने अनुभवमां लीधुं छे ते धर्मी, सम्यग्द्रष्टि छे. आवी वात छे.

शुं कहे छे? के-‘सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधांय कर्मफळो प्रत्ये तथा बधा वस्तुधर्मो प्रत्ये कांक्षानो (तेने) अभाव होवाथी, निःकांक्ष (निर्वांछक) छे.’

अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि चेतयिता नाम एक ज्ञायकभावमय छे. हुं तो एक ज्ञायकभाव छुं एम अनुभवता ज्ञानीने कहे छे, बधांय कर्मफळो प्रत्ये कांक्षा नथी. अहा! धर्मीने पुण्यभावरूप व्यवहारधर्मनी तथा पुण्यकर्मना फळोनी वांछा नथी. अहा! जैनधर्म कोई अलौकिक वस्तु छे भाई! अहा! भगवान आत्मा चेतयिता प्रभु एक ज्ञायकभावमय ज्ञानानंदनुं धाम छे. तेमां वसेला जैनधर्मीने कर्मफळो प्रत्ये कांक्षा नथी, अर्थात् पूर्वे जे कर्म बांध्यां हतां तेना फळनी वांछा नथी. गजब वात छे भाई! ज्ञानीने पुण्य ने पुण्यनां फळोनी वांछा नथी.

ल्यो, आजे २६ मी जान्युआरी-स्वराज्य दिन छे ने? अरे भाई! स्वराज्य तो स्वमां होय के बहारमां होय? अनंतगुणोनुं साम्राज्य प्रभु आत्मा छे, अने तेने प्राप्त करवुं ते स्वराज्य-प्राप्ति छे. अहीं कहे छे-आवी स्वराज्य प्राप्ति जेने थई छे ते कर्मफळोने-पुण्य ने पुण्यनां फळोने-बहारनी चीजोने वांछतो नथी. ल्यो, बहारमां पोतानुं स्वराज्य छे एनी अहीं ना पाडे छे. समजाणुं कांई...?


PDF/HTML Page 2402 of 4199
single page version

‘बधांय कर्मफळो’-एम लीधुं ने? मतलब के १४८ कर्मप्रकृतिमांथी कोई पण कर्मना फळनी वांछा ज्ञानीने नथी. यशःकीर्ति के तीर्थंकर प्रकृति बंधाय तेना फळनी पण ज्ञानीने वांछा नथी एम कहे छे. अहा! अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ एवो भगवान आत्मा ज्यां अंदर जाग्रत थयो, निजस्वरूपनुं-अनंतगुणसाम्राज्यनुं ज्यां भान थयुं त्यां परस्वरूपनी वांछा केम थाय? न थाय. आ स्वराज्य छे, बाकी बहारमां तो धूळेय स्वराज्य नथी. ‘राजते–शोभते इति राजा’ पोताना एक ज्ञायकभावमां-अनंत- गुणसाम्राज्यमां रहीने शोभायमान छे ते राजा छे अने एवो सम्यग्द्रष्टि होय छे जे बधांय कर्मफळोने वांछतो नथी. समजाणुं कांई...?

आवो मारग बापा! ए मळ्‌या विना ते ८४ लाखना अवतारमां एक एक योनिमां अनंत अनंत अवतार करीने दुःखी थयो छे. अरेरे! मिथ्यात्वने लीधे ढोर- पशुना अनंत अवतार ने नरक-निगोदना अनंत अवतार एणे अनंतवार कर्या छे. अहा! ए जन्मसमुद्र तो दुःखनो ज समुद्र छे अने विना सम्यग्दर्शन तेने पार करी शकाय एम नथी. अहो! सम्यग्दर्शन ए अपूर्व चीज छे, अने ते एक ज्ञायकभावमय निज शुद्ध आत्मद्रव्यनो आश्रय करतां प्रगट थाय छे. अहा! निज ज्ञानानंदस्वरूपना आश्रये जेने अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थयो छे ते धर्मी, सम्यग्द्रष्टि छे अने ते सुखी छे केमके ते बधांय कर्मफळोने-बीजी चीजने-इच्छतो नथी. आवी वात!

अहीं कहे छे-ज्ञानीने बधांय कर्मफळो अने समस्त वस्तुधर्मो प्रति कांक्षानो अभाव छे. अहाहा...! समस्त वस्तुधर्मो कहेतां हीरा-माणेक-मोती अने पथ्थर, काच अने मणिरत्न, सोनुं-चांदी अने धूळ-कादव अने निंदा-प्रशंसा इत्यादि लोकना समस्त पदार्थो प्रत्ये ज्ञानीने वांछा नथी. केम? केमके सम्यक् नाम सत्द्रष्टिवंतने एक ज्ञायकभावमयपणुं छे. अहा! निंदा-प्रशंसाना भावने ते मात्र परज्ञेयरूपे जाणे ज छे, पण पोतानी प्रशंसा जगतमां थाय एम ज्ञानी कदी इच्छता नथी. अहा! आवो धर्म लोकोए बहारमां-दया पाळो ने तप करो ने भक्ति करो. इत्यादि रागमां-खतवी नाख्यो छे. पण अहीं तो कहे छे-ज्ञानीने रागनी-व्यवहारनी वांछा नथी. भाई! रागमां धर्म माने ए तो बहु फेर छे बापा! ए तो मिथ्याबुद्धि ज छे.

अहा! कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि,... बधांय कर्मफळो प्रत्ये तथा बधा वस्तुधर्मो प्रत्ये कांक्षानो (तेने) अभाव होवाथी, निःकांक्ष (निर्वांछक) छे, तेथी तेने कांक्षाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’

अहा! धर्मीने पोताना आनंदमूर्ति प्रभु आत्मानी भावना होवाथी परनी कांक्षानी भावनानो तेने अभाव छे. अहा! निश्चयथी हुं ज मारुं ज्ञेय ने हुं ज मारो ज्ञाता छुं- एम अभेदपणे पोताना आनंदस्वरूपने अनुभवतो ज्ञानी परनी कांक्षा करतो नथी.


PDF/HTML Page 2403 of 4199
single page version

पोते चेतयिता छे ने? तो स्वरूपनुं संचेतन करे छे, अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवे छे अने स्वरूपनी ज भावनामां रहे छे; तेथी तेने परनी कांक्षानो अभाव छे. माटे तेने कांक्षाकृत बंध नथी, पण निर्जरा ज छे. आनुं नाम निर्जरा छे पण बहारमां उपवासादि करे ए कांई निर्जरा नथी.

प्रश्नः– आ उपवास करे छे ते तप छे अने तपथी निर्जरा कही छे ने! समाधानः– तपथी निर्जरा छे पण ए कयुं तप? बापु! तने खबर नथी. पोताना चैतन्यस्वभावमां उग्रपणे लीन थवुं तेने तप कह्युं छे अने ते तपमां जे पूर्वनी इच्छा आदि होय छे ते निर्जरी जाय छे. ‘इच्छा निरोधः तपः’ एम कह्युं छे ने? पोताना नित्यानंद-परमानंदस्वरूपमां स्थिर थतां-जामतां इच्छानी उत्पत्ति न थाय ते इच्छानो निरोध छे, ते आनंदनी प्राप्ति छे अने तेने भगवान तप कहे छे अने ए तप वडे निर्जरा कही छे. भाई! आ तो लौकिकथी साव जुदो मारग छे बापा!

* गाथा २३०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्द्रष्टिने समस्त कर्मनां फळोनी वांछा नथी.’ शुं कहे छे? के जेणे जाणवावाळाने-एक ज्ञायकभावने जाण्यो तेने वांछा होती नथी. पोते चेतयिता छे ने? अहा! पोते तो भगवान सर्वज्ञस्वभाव छे. कोण भगवान? पोते आत्मा हों. अहा! सर्वज्ञ परमात्मा (अरिहंतादि) जे पर्यायमां सर्वज्ञ थया ते पर्याय कयांथी आवी? अंदर सर्वज्ञस्वभाव पडयो छे एमांथी आवी छे. कोईने वळी थाय के आ नाना मोंढे मोटी वात! पण भाई! एवी सर्वज्ञ पर्याय अपरिमित अनंत- अनंत सामर्थ्यथी भरेला सर्वज्ञस्वभावमांथी आवी छे. अहा! अनंतकाळ सुधी सर्वज्ञ पर्याय थया ज करे एवुं अपरिमित सर्वज्ञस्वभावनुं सामर्थ्य छे. समकितीने आवा पोताना सर्वज्ञस्वभावनी अंतरमां स्वसंचेतनमां प्रतीति थई छे तेथी कहे छे-ज्ञानीने समस्त कर्मनां फळोनी-राजपद, शेठपद, देवपद वा तीर्थंकरपदनी कांक्षा नथी. गजब वात छे भाई! मारग बहु आकरो बापा!

वळी कहे छे-‘वळी तेने सर्वधर्मोनी वांछा नथी.’ मूळ गाथामां बे बोल छे ने? ‘कम्मफलेसु अने सव्वधम्मेसु–एम पाठमां बे बोल छे. एक तो ज्ञानीने कर्मना फळोनी वांछा नथी अने सर्वधर्मोनी पण वांछा नथी. ‘सर्वधर्मो’ना तो घणा अर्थ छे. जेमके-सोनुं के पत्थर के हीरानी खाण देखे तो (अज्ञानीने) वांछा थई जाय ए धर्मीने छे नहि.

कोईने थाय के-एमां शुं? ए तो पुण्यनुं फळ छे. समाधानः– पुण्यनुं फळ?-एम नहि बापा! शुं पुण्यनां फळ तारां छे?


PDF/HTML Page 2404 of 4199
single page version

ए तो परचीज छे, ए तो ज्ञेयमात्र छे; व्यवहारे ज्ञेय छे. पहेलां (२२९ मी गाथामां) न आव्युं? के पोताना एक ज्ञायकभावमां परद्रव्यनो-पुण्यकर्म आदिनो संबंध मानवो ते मिथ्यात्व छे, केमके भगवान आत्मा ज्ञायकस्वरूप प्रभु त्रिकाळ मुक्तस्वरूप ज छे, तो पछी आ कर्मना फळरूप शरीर, मन, वाणी, दीकरा, दीकरी, कुटुंब-कबीला ने धनसंपत्ति ईत्यादि नोकर्म साथे संबंध मानवो एय मिथ्यात्व छे, त्यारे कोई एडवोकेट (मिथ्यात्वनो हों) कहे छे-

तो शुं नोटीस आपी देवी के तमारे ने अमारे संबंध नथी?

समाधानः– एम नहि भाई! जरा धीरो था बापु! एमां नोटीसनी जरूरत कयां छे? ए सर्वने पर जाणी पोताना एक ज्ञायकभावने ग्रहण करवो बस ए नोटीस थई गई. बाकी सर्व मारां छे, पुण्यनां फळ मारां छे एम जाणवुं अने ‘कांई संबंध नथी’ एम नोटीस देवानुं कहेवुं ए तो छळ छे बापा! अज्ञान छे, अनंतानुबंधीनो मायाचार छे. समजाणुं कांई? परद्रव्यथी (स्वामित्वनो) संबंध मानवो ए मिथ्यात्व छे भाई!

अहा! ज्ञानीने तो अंदरथी नोटीस ज छे के-मारे (-मारा आत्माने) ने दीकराने, मारे ने दीकरीने, मारे ने पत्नीने, मारे ने पतिने, मारे ने धनसंपत्तिने संबंध ज नथी. एनुं तो परिणमन ज एवुं ज्ञानमय छे. आवुं! बीजे तो कयांय सांभळवा मळवुं दुर्लभ छे.

अहा! प्रभु! तुं कोण छो? प्रभु! तुं तो चेतयिता एक ज्ञायकभावमय, ज्ञ- स्वभावमय, आनंदस्वभावमय त्रिकाळी ध्रुवस्वरूप आत्मा छो ने? तुं तो जाणग- जाणग-जाणग-एम जाणवास्वरूपे छो ने भगवान? तो शुं जाणवावाळो आ बधां परद्रव्य मारां छे एम जाणे? कदीय नहि. परद्रव्यने जाणवां एय ज्ञेयमात्रपणानो व्यवहार छे; तो पछी ए पर बधां मारां एम कयांथी आव्युं? अहा! तने शुं थई गयुं प्रभु? सर्वज्ञ परमेश्वरे तो आत्माने एक चिन्मात्रस्वभावी ज जोयो छे. तो एवो पोताने पोतानामां देखवाने बदले आ बधां पर मारां छे एम जाणवा लाग्यो तो तने शुं थई गयुं प्रभु? जो ने? के स्वरूपमां सदा सावधान एवो ज्ञानी तो परनी-परधर्मोनी-वांछा ज करतो नथी.

अहीं कहे छे-‘वळी तेने सर्वधर्मोनी वांछा नथी, एटले के कनकपणुं, पाषाणपणुं वगेरे तथा निंदा, प्रशंसा आदिनां वचन वगेरे वस्तुधर्मोनी अर्थात् पुद्गलस्वभावोनी तेने वांछा नथी-तेमना प्रत्ये समभाव छे,...’

शुं कह्युं? के वस्तुधर्मोनी अर्थात् पुद्गलस्वभावोनी ज्ञानीने वांछा नथी. सुवर्ण हो के पाषाण हो, निंदानां वचन हो के प्रशंसानां, काच हो मणिरत्न हो,


PDF/HTML Page 2405 of 4199
single page version

जश हो के अपजश हो-ए बधा जड पदार्थो पुद्गलस्वभावो छे, परस्वभावो छे. अहा! निज ज्ञानानंद स्वरूपनी भावना आगळ ज्ञानीने ए बधा पर पदार्थोनी वांछा रहेती नथी, समाप्त थई जाय छे, खलास थई जाय छे. अहा! जेणे अंतरमां पोतानुं ज्ञाननिधान जोयुं, अनंतगुणमय ज्ञाननो अखूट आश्चर्यमय खजानो जोयो तेने खजाने खोट कयां छे के ते परनी इच्छा करे? धर्मीने पोताना ज्ञानमां ने प्रतीतिमां अनंतनिधानस्वरूप आखो भगवान आवी गयो छे. हवे ते परनी केम इच्छा करे? आवे छे ने के-

“प्रभु मेरे! तुं सब बाते पूरा,
परकी आश कहा करै प्रीतम...
परकी आश कहा करै वहाला...
कई बाते तुं अधूरा? प्रभु मेरे? तुं सब बाते पूरा.”

पोतानी चीज ज अंदर पूरण छे तो परनी वांछा ज्ञानी केम करे? भाई! कोई गमे ते कहे, मारग तो आ छे बापा!

श्रीमदे कह्युं छे ने के-

‘कया इच्छत? खोवत सबै, है इच्छा दुःखमूळ’

अहा! भगवान! तुं आखो चैतन्यनिधान छो ने परनी इच्छा केम करे छे? परनी इच्छा करतां तो भाई! तारुं चैतन्यनिधान-चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्मा खोवाई जशे; तारुं सर्वस्व खोवाई जशे. परनी इच्छा तो दुःखनुं मूळ छे भाई! अहा! करोडो- अबजोनी संपत्ति होय तोपण तेने पुद्गलस्वभाव जाणीने ज्ञानी तेनी इच्छा करतो नथी.

कोईने वळी थाय के-आ कोनी वात छे? (एम के मुनिनी वात छे) समाधानः– आ तो भाई! जेणे अंदर पोतानुं मुक्तस्वरूप एवुं चैतन्यरूप भाळ्‌युं छे एवा सम्यग्द्रष्टिनी वात छे. जेनुं ध्येय मोक्षस्वरूप आत्मा छे एवा समकितीनी आ वात छे. अहाहा...! कहे छे के चक्रवर्तीनी संपदा हो के इन्द्रनां इन्द्रासन हो, समकितीने ए कशायनी इच्छा नथी. आवे छे ने के-

“चक्रवर्तीकी संपदा, अरु इन्द्र सरिखा भोग;
कागविट् सम गिनत है, सम्यग्द्रष्टि लोग.”

अहा! सम्यग्द्रष्टि धर्मी, हजी पहेला दरज्जानो जैन के जेणे पोतानो जैन- परमेश्वर प्रभु आत्मा अंदर भाळ्‌यो छे ते इन्द्रना इन्द्रासन ने चक्रवर्तीनी संपदाने कागडानी विष्टा समान तुच्छ माने छे; ते एनी इच्छाथी विरत्त थई गयो छे. अहा! आ सम्यग्द्रष्टि छे बापा! पोतानी निज संपदा-स्वरूप-संपदा आगळ


PDF/HTML Page 2406 of 4199
single page version

इन्द्रना भोग आदि बधुं आपदा छे, दुःख छे एम एने भासे छे. इन्द्रासननां सुख पण दुःख छे भाई! तो धर्मी दुःखनी भावना केम करे? अहा! आवुं जैनपणुं प्रगटवुं कोई अपूर्व चीज छे बापा! लोको तो साधारण एम मानी ले के-अमे जैन छीए पण बापु! जैनपणुं तो स्वरूपना आश्रये जे परनी वांछाने जीते छे तेने छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– हा; पण बीजा आ मानता नथी, अने अमे तो आ मानीए छीए; माटे बीजाओ करतां तो अमे सारा छीए के नहि?

उत्तरः– अरे भाई! बीजानी साथे तारे शुं संबंध छे? बीजा गमे ते माने अने गमे ते करे; एनी साथे तने शुं काम छे? अहीं तो हुं एक ज्ञायकस्वभावमय आत्मा छुं- एम अंतर्मुखाकार थई अनुभव करे एनाथी काम छे. आवो अनुभव करे एनी बलिहारी छे. बाकी तारामां अने बीजामां कोई फरक नथी.

अहीं ज्ञायकस्वभावनी मुख्यता केम लीधी? कारण के पर्यायमां ज्ञाननो अंश प्रगट छे तो (ते अंश द्वारा) आखो ज्ञायकभाव आत्मा छे एम द्रष्टि कराववा अहीं एक ज्ञायकभावनी मुख्यता लीधी छे. ज्यारे आनंद तो ज्ञायकभावनी द्रष्टि थाय छे त्यारे प्रगट थाय छे. (वर्तमान नथी).

अहीं कहे छे-जेने आत्मानुभव थयो छे तेने वस्तुधर्मोनी अर्थात् पुद्गलस्वभावोनी वांछा नथी-तेमना प्रत्ये समभाव छे. कनक-पाषाण प्रति, के निंदा- प्रशंसाना वचनो प्रति के जश-अपजश प्रति ज्ञानीने समभाव छे. अहा! पुण्य-पाप ने पुण्य-पापना फळो प्रति ज्ञानीने समभाव छे, केमके ए सर्वने ते पुद्गलस्वभावो जाणे छे. ज्ञानी तो ए सर्व प्रसंगमां एक ज्ञाताभावे रहे छे, पण तेना प्रति वांछाभाव करतो नथी. ल्यो आवो मारग बहु झीणो बापा! अरे भाई! अनंतकाळथी तुं चारगतिना परिभ्रमणथी हेरान हेरान थई रह्यो छो तो आचार्यदेव अहीं करुणा करीने तारां दुःख टाळवानो उपाय बतावे छे. (माटे सावधान था).

वळी विशेष कहे छे के-‘अथवा तो अन्यमतीओए मानेला अनेक प्रकारना सर्वथा एकांतपक्षी व्यवहारधर्मोनी तेने वांछा नथी-ते धर्मोनो आदर नथी.

शुं कह्युं? के अनेक प्रकारे अज्ञानीओए पुण्यकर्म आदि व्यवहारकार्योमां धर्म मान्यो छे. कोई इश्वरनी भक्ति वडे धर्म माने छे तो कोई दया, दान आदि क्रियाओमां धर्म माने छे. अहीं कहे छे-एवा एकांतधर्मी अज्ञानीओना व्यवहारधर्मोनी ज्ञानीने वांछा नथी. अहा! इश्वरनी भक्ति करनारा कोई मोटा राजा-महाराजा होय के अबजो द्रव्यना स्वामी होय तो, आवा मोटा लोको इश्वरना भक्त छे माटे एमां कांई माल हशे-एम ज्ञानीने एमां वांछा नथी; केम? केमके ते स्वरूपमां निःशंक छे.


PDF/HTML Page 2407 of 4199
single page version

अहा! जैनमां पण दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि बाह्य क्रियाकांड वडे धर्म माननार एकांत व्यवहारी अज्ञानी छे. व्रत, तप, उपवास आदि करतां करतां धर्म प्रगटी जशे एम मानवावाळा पण एकांत व्यवहारी मिथ्याद्रष्टि छे केमके तेओ कदीय रागथी भिन्न पडी आत्मद्रष्टि पामता नथी. आवा एकांत व्यवहारधर्मोने अनुसरनारा बहारमां भले गमे तेवा महान (महा मुनिराज) हो, मिथ्याद्रष्टि देवो पण तेमनी सेवा करता होय तेवा महान हो, तोपण एमां पण कांईक छे-एम ज्ञानीने एमां वांछा थती नथी केमके ज्ञानी स्वरूपमां निःशंक छे. आ प्रमाणे ज्ञानी निःकांक्ष छे; तेने समस्त कर्मफळोनी के सर्वधर्मोनी-व्यवहारधर्मो सहित सर्वधर्मोनी-वांछा होती नथी.

हवे कहे छे-‘आ रीते सम्यग्द्रष्टि वांछारहित होवाथी तेने वांछाथी थतो बंध नथी.’

अहा! धर्मीने अंदरमां एक ज्ञायकभावमय निज आत्मानो सत्कार थयो छे. अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव कर्यो छे ने? तेथी अंदरमां तेने एक चैतन्यभावनुं ज स्वागत छे. शुं कह्युं? अनादिथी रागनुं ने पर्यायनुं स्वागत हतुं, पण हवे ज्यां पूर्णानंदनो नाथ एक ज्ञायकभावमय प्रभु आत्मानो अनुभव थयो त्यां तेनुं स्वागत थयुं छे. हवे ते अतीन्द्रिय आनंदनी भावना छोडीने परनुं ने रागनुं स्वागत केम करे? न करे. आचार्य कहे छे-आ रीते धर्मी वांछारहित थयो छे. माटे तेने वांछाथी थतो बंध नथी. ल्यो, आ अरिहंतदेव श्री सीमंधरनाथनी दिव्यध्वनिमां प्रगट थयेलो ढंढेरो आचार्य श्री कुंदकुंद जाहेर करे छे. कहे छे-ज्ञानी समस्त कर्मफळो ने सर्वधर्मोनी वांछारहित होवाथी वांछाथी थतो बंध तेने नथी, तेने निर्जरा ज छे.

प्रश्नः– आमां बहार तो कांई करवानुं आव्युं नहि?

समाधानः– अरे भाई! बहारनुं ए शुं करे? बहारमां कयां कोई चीज एनी छे? आ शरीर, मन, वाणी इत्यादि जड माटी-धूळ छे; तथा आ करोडोना मकान-महेल पण जड माटी-धूळ छे. ए बधां अजीव तत्त्व छे. वळी कुटुंब-कबीला पण परद्रव्य छे. आम छे तो पछी तेनुं ते शुं करे? शुं पररूपे-जडरूपे ए थाय छे के ते परनुं करे? बापु! परनुं ए कांई करी शकतो ज नथी. मात्र ‘करुं छुं’-एम अभिमान करे पण ए तो मिथ्यात्व छे भाई! अहीं कहे छे-रागनुं करवुं पण समकितीने नथी. शुं कह्युं? के रागना कर्तापणानी भावना-वांछा ज्ञानीने नथी; व्यवहाररत्नत्रयने करवानी वांछा ज्ञानीने नथी. भाई! राग छे ए तो दुःख छे, विभाव छे. जेने निर्मळ स्वभावनी द्रष्टि थई छे ते विभावनी भावना केम करे? ते विभावनो कर्ता केम थाय? न थाय. अरेरे! अनंतकाळथी ते जिनेश्वर भगवानना कहेला मार्गे आव्यो नथी अने रखडया ज करे छे!


PDF/HTML Page 2408 of 4199
single page version

अहाहा...! धर्मीने पुण्य ने पुण्यना फळोनो आदर नथी, अर्थात् पुण्यादि भावोने धर्म मानवावाळा व्यवहारधर्मोनो (तेओ पुद्गलस्वभाव होवाथी) पण आदर नथी, स्वीकार नथी. आ रीते सम्यग्द्रष्टि वांछारहित होवाथी तेने वांछाथी थतो बंध नथी, निर्जरा ज छे.

त्यारे कोई कहे छे-धर्मीने पण कोई इच्छा आदि वृत्ति देखाय छे? अरे भाई! ते तो ‘वर्तमान पीडा सही शकाती नथी तेथी तेने मटाडवाना ईलाजनी वांछा सम्यग्द्रष्टिने चारित्रमोहना उदयने लीधे होय छे, परंतु ते वांछानो कर्ता पोते थतो नथी, कर्मनो उदय जाणी तेनो ज्ञाता ज रहे छे;...’

अहा! सम्यग्द्रष्टि-धर्मी एने कहीए के जे इच्छानो कर्ता नथी. अहा! इच्छा ए राग छे, विभाव छे अने विभाव दुःख छे. तो एवा दुःखनो कर्ता धर्मी केम थाय? धर्मी तो निरंतर अतीन्द्रिय आनंदनुं परिणमन करवावाळो ने अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने भोगववावाळो छे. अहा! ते विभावनो-दुःखनो कर्ता केम थाय? अरे! अनंतकाळमां जैनधर्म शुं छे ते एणे सांभळ्‌युं नथी, आवे छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायौ.”

अहा! ए महाव्रतादिना परिणाम पण राग छे, दुःख छे. तेथी धर्मीने तेनी वांछा नथी एम कहे छे. तथापि कमजोरीथी चारित्रमोहने वश थतां ज्ञानीने राग आवे छे, पण ते रागनी तेने वांछा नथी. जेम शरीरमां रोग आवे छे तेनी वांछा नथी तेम धर्मीने राग आवे छे तेनी वांछा नथी. अहा! इन्द्रना इन्द्रासननो संयोग हो तोपण तेना भोगनी धर्मीने वांछा नथी. ल्यो, आवो मारग छे प्रभुनो! आ चोख्खुं आमां लखाण छे पण बिचाराने फुरसद होय त्यारे जुए ने? अरे भाई! आ निर्भेळ तत्त्वने समज्या विना तारो अवतार एळे जशे; जेम अळसिया आदिना अवतार एळे गया तेम आ अवतार पण विना समजण एळे जशे भाई!

अहीं कहे छे-‘ते वांछानो कर्ता पोते थतो नथी.’ अहा! किंचित् रागनुं परिणमन थई जाय तोपण राग-वांछा करवालायक छे एवुं धर्मीने-पहेला दरज्जाना समकितीने- चोथे गुणस्थाने पण होतुं नथी. अहा! श्रावकदशा ने मुनिदशा तो कोई अलौकिक चीज छे. तेनी तो शी वात! आ तो चोथे गुणस्थाने धर्मीने कमजोरीथी कोई वांछा थई आवे छे तोपण ते वांछानो ते कर्ता थतो नथी, स्वामी थतो नथी -एम कहे छे. पूर्णानंदमय चैतन्यनिधान आखुं द्रष्टिमां-प्रतीतिमां आव्युं पछी बीजानी वांछा शुं होय? अहा! झीणी वात छे भाई! ज्यां स्वरूपमां निःशंकता थई त्यां अन्यत्र (मारापणे) वांछा केम थाय? न थाय. तथापि चारित्रमोहवश


PDF/HTML Page 2409 of 4199
single page version

किंचित् वांछा धर्मीने थई आवे छे ते वांछानो ते कर्ता थतो नथी पण कर्मनो उदय जाणी तेनो ज्ञाता ज रहे छे. ल्यो, आवो मारग! साधारण (अज्ञानी) लोकोए मान्यो छे एवो जैनधर्म नथी बापा!

शुं कहे छे? के-‘ते वांछानो कर्ता पोते थतो नथी, कर्मनो उदय जाणी तेनो ज्ञाता ज रहे छे; माटे वांछाकृत बंध तेने नथी.’

पोते चेतयिता छे ने? तो किंचित् राग थाय छे तेने कर्मनो उदय जाणी तेनो ज्ञाता रहे छे. अहा! आने जैन-सम्यग्द्रष्टि कहीए. रागनी-व्यवहारनी वांछा करे ते सम्यग्द्रष्टि केवो? ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे. आ बीजो (निःकांक्षितनो) बोल थयो.

पहेला बोलमां निःशंकनी वात करी. भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु सदा परमेश्वरस्वरूप छे. शुं कह्युं? परमात्मा स्वरूप ज पोतानी चीज छे. केमके तेमांथी ज परमात्मा थाय छे. परमात्मा कांई बहारथी नथी आवता. अहा! भगवान अरिहंतदेव वीतराग सर्वज्ञ थया ते कयांथी थया? शुं ते बहारमांथी (क्रियाकांडथी) थया छे? अंदर आत्मामां ते-रूपे चीज पडी छे तेमांथी थया छे. अहा! आवी जेने पोताना स्वरूपसंबंधी निःशंकता थई ते धर्मी छे, ज्ञानी छे. ए तो आवी गयुं ने? के सम्यग्द्रष्टि निःशंक छे. केम? कारण के बंधनुं कारण एवा जे मिथ्यात्वादि भावो छे तेनो तेने अभाव छे. ‘हुं पूर्ण नथी’ वा ‘रागनो मने संबंध छे’-एवा संदेहनो तेने अभाव छे. अहा! ज्ञानीने निःशंकतामां सर्व संदेहनो नाश थई गयो छे.

शुं कह्युं? के पूर्णानंदमय प्रभु आत्मा सदा वीतरागस्वरूपे, मुक्तस्वरूपे अंदर बिराजमान छे. तेमां ज्ञानीने निःशंकता छे, पण शंका नथी, संदेह नथी, केमके संदेह करनारा मिथ्यात्वादि भावोनो तेने अभाव छे. सम्यग्द्रष्टि मिथ्यात्वादि चारेयनो छेदवावाळो थयो छे अने तेथी ते स्वरूपमां निःशंक छे. खाली वांची जाय तो समजाय एवुं नथी बापु! आ तो केवळी भगवाननी वाणी बापा! खूब गरज करीने खास फुरसद लईने निरंतर स्वाध्याय करवो जोईए.

अहा! धर्मीने पोताना पूरण ज्ञानानंदस्वरूपमां निःशंकता छे. केम? कारण के ‘हुं अपूर्ण छुं’ अने ‘हुं रागना संबंधवाळो छुं’ एवा संदेहनो तेणे निज स्वरूपना लक्षे नाश करी दीधो छे. अहा! पोते पूरण आनंदस्वरूप ने वीतरागस्वरूप ज छे अने पर्यायमां जे आनंद ने वीतरागता आवे छे ते अंदर निज स्वरूपना आश्रयमांथी ज आवे छे आवी द्रढ प्रतीति धर्मीने थई छे. तेथी ते बहारना क्रियाकांड आदि सर्व परस्वभावो प्रति निरुत्सुक छे, निःवांछक छे. आ निःशंक ने निःकांक्ष ए बेनो सरवाळो छे.

अहा! निःशंकितमां एम आव्युं के-हुं पूर्ण ज्ञानस्वरूप, पूर्ण आनंदस्वरूप, पूर्ण वीतरागस्वरूप, पूर्ण प्रभुतास्वरूप, पूर्ण स्वच्छतास्वरूप-एम पूर्ण अनंतगुण-


PDF/HTML Page 2410 of 4199
single page version

स्वरूप प्रभु आत्मा छुं अने एवा स्वरूपमां अंतरएकाग्र थवा वडे ज पूर्ण दशा प्रगट थाय छे; अहा! धर्मीने स्वानुभवमां आवी निःसंदेहदशा प्रगट थई छे अने तेथी ते निःशंक छे. अहा! संतोनी-केवळीना केडायतीओनी शैली तो जुओ! आवो मारग ने आवी वात बीजे कयांय छे नहि.

हवे बीजा निःकांक्षित गुणमां एम आव्युं के-हुं पोते ज पोताथी परिपूर्ण छुं तो मने अन्य पदार्थनी शुं अपेक्षा छे? मने अन्य पदार्थथी शुं काम छे? आम पोतानी परिपूर्णताना भानमां धर्मीने परपदार्थनी वांछानो अभाव थई गयो छे. ‘हुं परिपूर्ण ज छुं’ -एम परिपूर्णनी भावनामां धर्मी जीव पुण्य ने पुण्यना फळो प्रति अने अन्य वस्तुधर्मो प्रति निःकांक्ष छे, उदासीन छे. दया, दान, व्रतादिना परिणाम तेने जे थाय तेना प्रति पण निःकांक्ष छे. भाई! दुनियाने मळी नथी एटले आ वात आकरी लागे छे, पण शुं थाय? आ तो वस्तुस्वरूप ज आवुं छे.

अहा! सम्यग्दर्शननुं ध्येय पूरण ध्रुव परमात्मद्रव्य छे. ते कारणे समकितीने कदीय शंका पडती नथी के हुं पूरण नथी. तेथी पोतानी पूर्णतानी प्रतीतिना भानमां तेने पोताना सिवाय परपदार्थनी कांक्षा जागती नथी, अने वांछा थाय तेनो ते कर्ता थतो नथी आवी वातु छे! आ बे गुणमां आवुं समाडयुं छे. आ प्रमाणे निःशंकित अने निःकांक्षित बे समकितीना गुण नाम पर्याय छे. छे तो पर्याय पण गुण कहेवाय छे. आवो मारग छे प्रभुनो! कोई कोईने तो सांभळवोय कठण पडे छे. ए तो आवे छे ने के-

‘हरिनो मारग छे शूरानो, कायरनां नहि काम जो ने’

तेम अहीं कहे छे-

वीतरागनो मारग छे शूरानो, पामरनां नहि काम जो ने.

अहा! आ तो वीतरागनो मारग बापा! वीरोनो मारग छे. पुण्यथी धर्म थाय ने निमित्तथी लाभ थाय एवुं मानवावाळा पामरोनुं आमां काम नथी. भले ने मोटो अबजोपति शेठ होय के राजा होय के देव होय, पुण्य ने निमित्तनी वांछा करनारा ए बधा पामर छे, भिखारा छे. जेने आत्मानी-पोतानी पूर्णतानुं भान नथी ते बधा पामर-भिखारा छे. अहीं तो आवुं छे बापा!

अरे भगवान! तारुं स्वरूप अंदर जो ने! अरेरे! तारा स्वरूपनी तने खबर न मळे तो कयां उतारो करीश भाई! देह तो जोतजोतामां छूटी जशे; पछी कयां जईश प्रभु! प्रभु! तुं पूरण प्रभु छो एवा तारा स्वरूपने अंदर जो; एने जोतां ज तने शंका ने वांछा मटी जशे.

[प्रवचन नं. ३०३*दिनांक २६-१-७७]

PDF/HTML Page 2411 of 4199
single page version

गाथा–२३१
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं।
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३१।।
यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम्।
स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३१।।

हवे निर्विचिकित्सा गुणनी गाथा कहे छेः-

सौ कोई धर्म विषे जुगुप्साभाव जे नहि धारतो;
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३१.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे चेतयिता [सर्वेषाम् एव] बधाय [धर्माणाम्] धर्मो (वस्तुना स्वभावो) प्रत्ये [जुगुप्सां] जुगुप्सा (ग्लानि) [न करोति] करतो नथी [सः] ते [खलु] निश्चयथी [निर्विचिकित्सः] निर्विचिकित्स (-विचिकित्सादोष रहित) [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधाय वस्तुधर्मो प्रत्ये जुगुप्सानो (तेने) अभाव होवाथी, निर्विचिकित्स (-जुगुप्सा रहित छे, तेथी तेने विचिकित्साकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टि वस्तुना धर्मो प्रत्ये (अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावो प्रत्ये तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्यो प्रत्ये) जुगुप्सा करतो नथी. जुगुप्सा नामनी कर्मप्रकृतिनो उदय आवे छे तोपण पोते तेनो कर्ता थतो नथी तेथी जुगुप्साकृत बंध तेने थतो नथी, परंतु प्रकृति रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज थाय छे.

*
समयसार गाथा २३१ः मथाळु

हवे निर्विचिकित्सा गुणनी गाथा कहे छेः- जुओ, पोताना स्वद्रव्यने छोडीने जेने परपदार्थोनी अभिलाषा छे तेने हुं एक शुद्ध परिपूर्ण आत्मद्रव्य छुं-एम पोताना पूरण स्वरूपमां संदेह छे, अविश्वास छे अने तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. ते जूठी द्रष्टिमां रहेलो बिचारो दुःखना पंथे छे. परंतु


PDF/HTML Page 2412 of 4199
single page version

ज्यारे ते परद्रव्यनी रुचि छोडी परिपूर्ण एक ज्ञानानंदस्वभावी शुद्ध आत्मद्रव्यनां रुचि ने एकाग्रता करे छे त्यारे ते सम्यग्द्रष्टि थाय छे. तेने पोताना पूरण स्वरूपमां हवे संदेह नथी; हवे ते निःशंक छे अने तेथी तेने परद्रव्यनी वांछा होती नथी. अहा! समकितीने जेम परनी वांछा थती नथी तेम परपदार्थ कोई प्रतिकूळ होय तोपण तेना प्रति तेने ग्लानि-दुर्गंछा के द्वेष थतो नथी एम हवे गाथामां कहे छेः-

* गाथा २३१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि,...’ अहा! जेने हुं सच्चिदानंदस्वरूप पूरण परमात्मस्वरूप आत्मद्रव्य छुं-एम द्रष्टिमां-श्रद्धानमां आव्युं ते सम्यग्द्रष्टि छे. अहा! सम्यग्द्रष्टि एने कहीए के जेने आखो भगवान पोतानी प्रतीतिमां-भरोसामां आवी गयो छे.

८७ नी सालमां एक भाईए राजकोटमां प्रश्न कर्यो हतो के-महाराज! आप ‘आत्मा छे अने तेनी प्रतीति थाय छे’ एम आप कहो छो तो ते साचुं केम होय?

त्यारे कह्युं के-तमे जे बाई साथे लग्न करो छो ते परणीने पहेल-वहेली आवे त्यारे तो ते अजाण होय छे. अहा! अजाणी ने कयांकथी (-बीजेथी) आवेली होय छतां प्रथम दिवसेय तमने शंका पडे छे के आ स्त्री मने कदाच मारी नाखशे तो? नथी पडती. केम? केमके तमने त्यां विषयमां रस छे, प्रेम छे. ते प्रेममां एवो विश्वास ज छे के ते मने मारी नहि नाखे. तेम जेने पूर्णानंदना नाथ प्रभु आत्मामां रस-रुचि जाग्यां छे, जेने निर्मळानंदनो नाथ द्रष्टिमां आखो आव्यो छे तेने तेनो विश्वास थयो छे, संदेह नथी. शुं कह्युं? प्रथम द्रष्टिमां ज हुं आवो छुं एम प्रतीति थाय छे, संदेह रहेतो नथी. अहा! हुं आवो पूरणस्वरूप परमात्मा छुं एम ज्यां पोताना स्वरूपनो विश्वास आव्यो त्यां धर्मीने पर पदार्थनी कांक्षा रहेती नथी. ल्यो, आवो मारग! वीतरागनो मारग बापा! बहु अलौकिक छे. लोको एने बहारमां-दया, दान, व्रत, भक्ति आदिमां-धर्म मनावी बेठा छे पण भाई! ए तो राग छे, जैनधर्म नथी. जैनधर्म तो पोताना स्वरूपनां श्रद्धान, ज्ञान ने रमणतारूप जे वीतरागी दशा प्रगट थाय ते जैनधर्म छे.

अहीं कहे छे-सम्यग्द्रष्टि,...’ शुं कह्युं? के जेने भगवान आत्मानी-स्वद्रव्यनी पूर्णतानी-अंदर प्रतीति थई छे ते धर्मनी शरूआतवाळो सम्यग्द्रष्टि, ‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’ अहा! जोयुं? सम्यग्द्रष्टिने एक ज्ञायकभावमयपणुं छे. एटले के जाणग-जाणग-जाणग एवा स्वभावना परिपूर्ण भावथी भरेलो पोते भगवान आत्मा छे एम ते जाणे छे. अहा! चेतयिता शब्द छे ने पाठमां? एनो अहीं अर्थ कर्यो छे एक ज्ञायकस्वभावमय-जाणग-जाणगस्वभावी प्रभु आत्मा. अहीं ज्ञाननी प्रधानताथी


PDF/HTML Page 2413 of 4199
single page version

एक ज्ञायकभावमय आत्मा कह्यो. बाकी वस्तु तो छे अनंतगुणस्वभावमय ने तेने ज अहीं एक ज्ञायकभावमय कही छे. समजाणुं कांई...? अहा! वस्तु बापा! अद्भुत अलौकिक छे! एनुं दर्शन थतां दुनियानी-संसारनी होंशु तत्काल छूटी जाय एवी पोतानी चीज छे; हमणां ज एने भगवान-भगवान एटले पोतानो भगवान हों-मळी जाय एवी चीज छे.

अहा! ‘सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावपणाने लीधे बधाय वस्तुधर्मो प्रत्ये जुगुप्सानो (तेने) अभाव होवाथी, निर्विचिकित्स (-जुगुप्सा रहित) छे,...’

शुं कह्युं? के दुर्गंधमय अशुचि शरीर होय के विष्टा आदि दुर्गंधमय पदार्थो होय के निंदादिनां कठोर वचन होय तो तेना प्रत्ये समकितीने द्वेष थतो नथी, दुर्गंछा थती नथी. अहा! जेम प्रशंसाना वचनो प्रति वांछा थती नथी तेम धर्मीने निंदाना वचनो प्रति द्वेष थतो नथी. अहा! आवो धर्म छे! प्रथम दरज्जाना जैन समकितीने पण आवो धर्म होय छे.

‘बधाय वस्तुधर्मो प्रत्ये’-एटले शुं? एटले के पोतानी वस्तुनो धर्म तो जणायो छे, परंतु हवे पोताना सिवाय बीजी वस्तुना धर्मो अर्थात् क्षुधा, तृषा, ठंडी, गरमी, शरीरना रोग, विष्टा आदि मलिन द्रव्यो, निंदादि कठोर वचनो इत्यादि सर्व परद्रव्यना धर्मो प्रत्ये धर्मीने दोषबुद्धि अर्थात् द्वेषबुद्धि थती नथी. बधाय वस्तुधर्मो कह्या तो बधाय एटले के पोताना आत्मा सिवाय बधाय. आत्माना स्वरूपनुं तो तेने भान थयुं छे तेथी ते निज स्वरूपमां तो निःशंक छे अने तेथी तेने पोताना सिवाय बीजी जेटली वस्तुओ छे ते सर्व प्रत्ये ग्लानिनो, द्वेषनो, दुर्गंछानो, जुगुप्सानो अभाव छे.

अहा! सम्यग्द्रष्टिने बधाय वस्तुधर्मो प्रत्ये जुगुप्सानो अभाव छे. अहा! सडेलां कूतरां आदि होय ने ग्लानि थई आवे तेवी दुर्गंध मारतां होय तोपण धर्मीने तेना प्रति जुगुप्सा थती नथी? केम? केमके ए तो परद्रव्यना धर्म छे एम ते जाणे छे. दुर्गंधादि पदार्थो तो जडना जडमां छे, तेओ आत्मामां कयां छे? आत्मा तो पूरण आनंद ने ज्ञाननुं ढीम छे. आवुं जाणता ज्ञानीने बधाय वस्तुधर्मो प्रत्ये दुर्गंछा के जुगुप्सा थती नथी. जुओ, आ सम्यद्रष्टि धर्मीनुं लक्षण! अहा! जेम तेने अनुकूळ विषयो प्रत्ये प्रेम नथी तेम प्रतिकूळ प्रत्ये द्वेष पण नथी. अहो! वीतराग मारगनी आवी कोई अद्भुत लीला छे!

जुओ, एक भाई हता. तेमनुं शरीर बहु सडी गयेलुं अने गंध मारे; एम कहो के मरवानी तैयारी हती. त्यारे तेमनां पत्नी कहे-आजे आपणे ब्रह्मचर्य लईए. तो ते भाई कहे-आज नहि, आज नहि; जा’ शुं पछी. अहा! जुओ आ जगतना रस! अरे! आ संसार तो जुओ! अहा! बापु आ (-शरीर) तो जड छे, त्यां


PDF/HTML Page 2414 of 4199
single page version

कांई अमृतनां झरणां नथी. अहा! मरवानी तैयारी ने शरीर गंध मारतुं हतुं छतां विषयनो रस छूटयो नहि, शरीरनो रस-प्रेम छूटयो नहि. अरे! विषयना रसियाओने, शरीर दुर्गंधमय होय ने मरवा भणी होय तोपण विषयोने छोडवा गमता नथी! अहीं कहे छे-ज्ञानीने विषयो प्रत्ये वांछा तो शुं, प्रतिकूळ विषयो प्रति जुगुप्सा पण थती नथी, द्वेष पण थतो नथी.

अहा! एक वार वींछीना डंखपणे परिणमेला परमाणुओ अत्यारे अहीं आ शरीरपणे परिणम्या छे, अने पाछा कोई वार तेओ वींछीना डंखपणे परिणमशे. केम? केमके ए तो जडनी पर्यायनो स्वभाव छे. पण एमां जीवने शुं? जीव तो भिन्न एक ज्ञायकस्वभावमय, आनंदस्वभावमय छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपने निःशंक जाणतो- अनुभवतो ज्ञानी पर वस्तुधर्मो प्रत्ये दुर्गंछा पामतो नथी अने तेथी ते निर्विचिकित्स अर्थात् जुगुप्सारहित छे. अहा! आवो वीतरागनो मारग त्रिलोकीनाथ भगवान अरिहंतदेवे जगतना हित माटे कह्यो छे.

हवे कहे छे-‘तेथी तेने विचित्साकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’ अहा! ज्ञानी विचिकित्सारहित छे. गमे तेवा नरकादिना प्रतिकूळ संयोगना ढगलामां पडयो होय तोपण ज्ञानीने दुर्गंछा, द्वेष के अणगमो थतो नथी. चारित्रमोहना निमित्तने वश थतां जरी भाव थइ आवे छतां तेनो ते कर्ता नथी. माटे ज्ञानीने द्वेष नथी, विचिकित्सा नथी. तेथी तेने विचिकित्साकृत बंध नथी, परंतु निर्जरा ज छे. जरी परिणाम एवा कमजोरीना कारणे थया होय ते खरी जाय छे एम कहे छे.

* गाथा २३१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्द्रष्टि वस्तुना धर्मो प्रत्ये (अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावो प्रत्ये तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्यो प्रत्ये) जुगुप्सा करतो नथी.’

अहा! भूख, तरस, ठंडी, गरमी आदि भावो प्रत्ये के विष्टा, सडेलां शरीर इत्यादि मलिन द्रव्यो प्रत्ये के निंदा युक्त कर्कश वचनो प्रत्ये ज्ञानी दुर्गंछा, जुगुप्सा के द्वेष करतो नथी. अहा! मुनिनुं शरीर कोढियुं दुर्गंधवाळुं देखाय के मलिन देखाय तोपण ज्ञानी जुगुप्सा करतो नथी केमके ए तो शरीरनो (परनो) धर्म छे एम ते जाणे छे.

जुओ, एक माणसने दामनगरमां उलटी थती हती. तो एक वखत उलटीनुं एवुं जोर थयुं के अंदरथी उलटीमां विष्टा आवी. जुओ आ देह! शरीरनी आवी स्थिति थवा छतां धर्मीने तेना प्रत्ये द्वेष थतो नथी. अहा! जेना मोढे मीठां पाणी ने मीठी साकर आवे तेना मोढे अंदरथी विष्टा आवी! अने छतां जेणे अंदर पोताना भगवानने भाळ्‌या छे. अहा! त्रणलोकनो नाथ चिदानंद प्रभु आत्मानो जेने अंदर भास थईने भरोसो प्रगटयो छे ते धर्मीने एमां दुर्गंछा द्वेष के अणगमो थतो नथी.


PDF/HTML Page 2415 of 4199
single page version

बीलकुल अणगमो थतो नथी? अरे भाई! कमजोरीना कारणे किंचित् एवो भाव आवे छे पण तेनो धर्मी कर्ता थतो नथी ने माटे तेने अणगमो नथी. ए ज कहे छे जुओ-

‘जुगुप्सा नामनी कर्मप्रकृतिनो उदय आवे छे तोपण पोते तेनो कर्ता थतो नथी तेथी जुगुप्साकृत बंध तेने थतो नथी, परंतु प्रकृति रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज थाय छे.’

जोयुं? प्रकृतिना जोडाणमां जरी एवो अस्थिरतानो भाव (अणगमो) थई जाय पण तेनो ते कर्ता थतो नथी, तेनो मात्र ज्ञाता रहे छे. पोते ज्ञायक छे एम भास्युं छे ने? तेथी अस्थिरताना भावनो स्वामी थतो नथी पण जाणनारो रहे छे. तेथी जुगुप्साकृत बंध तेने थतो नथी, परंतु प्रकृति रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज थाय छे.

जुओने! शास्त्रमां आवे छे ने के चोथा आरे राजाए मुनिवरोने घाणीमां पील्या. अहा! ते काळ केवो हशे? अरे! राजाए हुकम कर्यो के मुनिवरोने घाणीमां पीलो. तोपण अहा! शांतरसमां लीन मुनिवरो तो शांत-शांत-शांत परम शांत रह्या; राजा प्रत्ये तेओने द्वेष न थयो.

अहा! मुनिवरो तो महा पवित्रताना पिंडरूप हता. परंतु जिनमतनो द्वेष करनाराओए छटकुं गोठव्युं हतुं. विरोधीओए कोईकने नग्न साधु बनाव्यो ने तेने राजानी राणी साथे वार्तालापमां रोकयो. अने बीजी बाजु राजाने कह्युं-महाराज! जुओ आ नग्न साधु! तमारी राणी साथे पण संबंध करे छे! राजाने शंका पडी के आ नग्न साधु बधा आवा ज छे. एटले हुकम कर्यो के तेओने घाणीए पीलो. अहा! वीतरागरसना रसिया ते मुनिवरो ज्यारे प्रसंग आव्यो त्यारे ध्यानमां-निजानंदरसमां मग्न थई गया परंतु ए पीलनार प्रति के राजा प्रत्ये द्वेषनो अंश पण तेमने थयो नहि. अहीं कहे छे-ज्ञानीने बधाय वस्तुधर्मो प्रत्ये जुगुप्सानो अभाव छे, द्वेषनो अभाव छे. अस्थिरतावश कदाचित् कोई प्रकृतिना उदयमां जरी जोडाय तोपण तेनुं कर्तापणुं नहि होवाथी तेने बंध थतो नथी पण प्रकृति उदयमां आवी खरी जाय छे ने अशुद्धता पण खरी जाय छे ने तेथी तेने निर्जरा ज छे. आ त्रण बोल थया. हवे अमूढतानी वात कहेशे.

[प्रवचन नं. ३०४*दिनांक २८-१-७७]
×

PDF/HTML Page 2416 of 4199
single page version

गाथा–२३२
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु।
सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३२।।
यो भवति असम्मूढः चेतयिता सद्रृष्टिः सर्वभावेषु।
स खलु अमूढद्रष्टिः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३२।।

हवे अमूढद्रष्टि अंगनी गाथा कहे छेः-

संमूढ नहि जे सर्व भावे, –सत्य द्रष्टि धारतो,
ते मूढद्रष्टिरहित समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३२.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे चेतयिता [सर्वभावेषु] सर्व भावोमां [असम्मूढः] अमूढ छे- [सद्रृष्टिः] यथार्थ द्रष्टिवाळो [भवति] छे, [सः] ते [खलु] खरेखर [अमूढद्रष्टिः] अमूढद्रष्टि [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधाय भावोमां मोहनो (तेने) अभाव होवाथी, अमूढद्रष्टि छे, तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टि सर्व पदार्थोना स्वरूपने यथार्थ जाणे छे; तेने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी तेनी कोई पदार्थ पर अयथार्थ द्रष्टि पडती नथी. चारित्रमोहना उदयथी इष्टानिष्ट भावो ऊपजे तोपण तेने उदयनुं बळवानपणुं जाणीने ते भावोनो पोते कर्ता थतो नथी तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध थतो नथी परंतु प्रकृति रस दईने खरी जती होवाथी निर्जरा ज थाय छे.

*
समयसार गाथा २३२ः मथाळु

हवे अमूढद्रष्टि अंगनी गाथा कहे छेः- अहा! कोई मार के प्रहार करे तो-अहा! हुं तो आवो मुनिवर-आवो धर्मात्मा छतां आम केम? एवी ज्ञानीने मुंझवण थती नथी-एम अमूढद्रष्टिनी गाथा कहे छे-


PDF/HTML Page 2417 of 4199
single page version

* गाथा २३२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे.......’ अहा! छठ्ठी गाथामां आव्युं ने? के ‘हुं एक ज्ञायकभाव छुं.’ तो धर्मीनी द्रष्टि एक ज्ञायकभाव उपर छे; प्रमत्त-अप्रमत्तनी द्रष्टि-पर्यायद्रष्टि तेने उडी गई छे. अहा! मारग बहु झीणो बापा! ओला रूपिया मळी गया एवुं आ नथी. रूपिया तो पुण्यनो उदय होय तो महापापीने पण मळे छे.

प्रश्नः– आप वारंवार तो एम कहो छो के रूपिया कोईने (आत्माने) मळता नथी?

समाधानः– हा, निश्चयथी एम ज छे; कोईने मळता नथी. पण पैसा तेनी पासे (क्षेत्रे निकट) आवे छे त्यारे (अज्ञानीने) तेनी ममता मळे छे ने? तेथी, पैसा मळ्‌या एम कथनमात्र कहेवाय छे. बाकी एम छे नहि. ते कयां एना द्रव्य-गुण-पर्यायमां आवे छे?

अहा! अमेरिकामां एक जणने दोढ माईलमां जनावरोने कापवानुं कारखानुं छे, अने छतां ते मोटो धनाढय छे. ज्यारे बीजी बाजु कोई धर्मात्मा महामुनि संत होय तेने घाणीमां पीले. अहा! आ जगतना खेल-तमाशा तो जुओ! अरे! जगत हणाई रह्युं छे. अहा! आवा प्रसंगमां आम केम?-एम धर्मीने मुंझवण नाम मूढता नथी; एने तो समभाव छे, अमूढद्रष्टि छे-एम कहे छे. जुओ छे अंदर? के-‘बधाय भावोमां मोहनो (तेने) अभाव होवाथी अमूढद्रष्टि छे.’ अहा! ते मुंझातो नथी के आ शुं? अमने- आत्माना आराधकोने-अहा! आ लोको शुं करे छे?-एम मुंझातो नथी.

अहा! मिथ्याद्रष्टिओना मोटा हाथीए सत्कार थता होय, स्वागत थतां होय ज्यारे कोई धर्मात्मानो लोको अनादर करता होय तो तेवे प्रसंगे-आ शुं?-एम ज्ञानी मुंझातो नथी. केम? केमके ए तो बधी जे ते काळे थवायोग्य जडनी स्थिति छे-एम ज्ञानी जाणे छे. अहा! एवुं बने के धर्मीने सगवडतानो अभाव होय ने पापीने सगवडतानो पार न होय तो, आम केम?-एम ज्ञानी मुंझातो नथी; केमके पोते स्वस्वरूपमां निःशंक छे. हुं एक ज्ञायकभाव ज छुं अने आ तो बधी जडनी स्थिति ए एम ज्ञानी निःशंक छे.

श्री नियमसारमां (गाथा १८६ मां) आचार्य कुंदकुंद भगवाने न कह्युं? के हे भाई! तुं वीतरागस्वरूपनी द्रष्टिवाळो धर्मात्मा छो; अने तारी कोई निंदा करे तो मार्ग प्रति अभक्ति न करीश. अरे! आवी चीजमां हुं छुं अने आ लोको शुं कहे छे? -एम मुंझाईश नहि. ए तो शीखामणनो अर्थ एम छे के ज्ञानी मुंझातो नथी, मुढपणे परिणमतो नथी. समजाणुं कांई...?


PDF/HTML Page 2418 of 4199
single page version

कहे छे-‘बधाय भावोमां’-एटले के देव, गुरु, धर्म आदि बधाय भावोमां ज्ञानीने मुंझवण अर्थात् मूढता नथी. अहा! भगवान केवळीने आवुं केवळज्ञान के जे एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकना अनंता द्रव्य-गुण-पर्यायोने जाणे? अहा! एक समयमां उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-एम त्रणेयने जाणे? -एम ज्ञानीने मूढता के संदेह नथी.

श्री समंतभद्राचार्ये बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमां (११४ मा श्लोकमां) कह्युं ने? के प्रभु! तारुं सर्वज्ञपणानुं लक्षण अमे जाण्युं छे. केवी रीते? के प्रभु! तारी एक समयनी ज्ञानपर्यायमां जगतना अनंता द्रव्योना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तें जाण्या छे. अहा! सर्व अनंतने आपे जाण्या छे माटे आप सर्वज्ञ छो-एमां अमने संदेह नथी. वळी अमारो आत्मा पण तेवो ज सर्वज्ञस्वभाव छे एमां अमने संदेह नथी. अहा! सर्वज्ञनो निर्णय करनारो एवो अमारो आत्मा पोते सर्वज्ञस्वभावी छे ए निःशंक छे; अमने अमारा स्वरूपमां कोई शंका के मुंझवण नथी.

अहा! ‘बधाय भावोमां...’ , जुओ, बधे ठेकाणे सर्व-सर्व शब्द छे. आ गाथामां छे के ‘सव्वभावेसु,’ २३१ मी गाथामांय हतुं के ‘सव्वेसिमेव,’ अने २३० मांय छे के ‘सव्वधम्मेसु’ बधेय आवी पूर्णनी वात लीधी छे. निःशंक्तिमां (गाथा २२९) मां तो छेदे छे एम आव्युं. अहा! जेणे पूरण ज्ञानस्वभावी प्रभु आत्माने जाण्यो ने अनुभव्यो छे तेने ज्ञानस्वभावमां कांई शंका पडती नथी के आ केम हशे? कोई अज्ञानीने एकदम ज्ञाननो विकास देखाय ने पोताने ज्ञाननो विकास थोडो होय तो ते आम केम?-एम मुंझातो नथी. पोतानी परिणतिमां एटली कमी छे एम ते जाणे छे.

अहा! हुं आत्मज्ञानी छतां आवुं ज्ञान अल्प? अने आ बधा मिथ्याद्रष्टि मोटी ज्ञाननी वातु करे? (तेमने ज्ञाननो आटलो विकास?)-ज्ञानी एम मुंझातो नथी केमके पोते एक ज्ञायकभावमय पूरण छे एम विश्वास छे. ज्ञाननो क्षयोपशम ओछो-वत्तो होय एथी शुं छे? करवा योग्य तो एक ज्ञायकभावनी द्रष्टि ने स्थिरता छे. ए तो प्रवचनसार गाथा ३३ मां न आव्युं? के-“विशेष आकांक्षाना क्षोभथी बस थाओ; स्वरूप निश्चळ ज रहीए छीए.” एम के हवे अमारे बहु क्षयोपशमनी आकांक्षा नथी; बहु क्षयोपशमनी आकांक्षाथी बस थाओ; अमे तो एक आत्मस्वरूपमां ज निश्चळपणे रहीए छीए. मतलब के जेने अखंड एक ज्ञायकनी प्रतीति थई छे ते ओछा-वत्ता क्षयोपशममां गुंचाई जतो नथी, पण स्वरूपस्थिरतानो पुरुषार्थ करे छे.

अहा! धर्मी केवो होय? तो कहे छे के धर्मी एने कहीए के जेणे एक


PDF/HTML Page 2419 of 4199
single page version

ज्ञायकभावमय पूर्णानंद प्रभु आत्मानो अनुभव कर्यो छे. अहा! पोते सदाय अकषायस्वभाव, पूरण वीतरागस्वभाव छे एम जेनी प्रतीतिमां आव्युं छे ते धर्मी छे. आवा धर्मीने जगतना कोई पदार्थमां मुंझवण नथी. अहा! अमे धर्मी छीए ने अमने माननारा थोडा ने जगतमां बधा जूठाने माननारा घणा-एम धर्मीने मुंझवण नथी. धर्मी तो जाणे छे के जगतमां जूठाओनी त्रणे काळ बहुलता छे. वळी सत्ने संख्याथी शुं काम छे? सत् तो स्वयंसिद्ध स्वभावथी सत् छे. अहा! आवो मारग बापा! प्रभु! तारा मोक्षना पंथडा अलौकिक छे भाई! आ सत् केवुं छे ने तेने माननारा साचा केवा होय ते तने कदी सांभळवा मळ्‌युं नथी. पण भाई! एना विना जिंदगी एळे जशे हों.

अहा! देहदेवळमां भगवान आत्मा अनंतगुणनो सागर प्रभु सदा एक ज्ञायकभावपणे बिराजे छे. अंतरमां तेनो आदर करीने तेना उपर जेणे द्रष्टि स्थापी छे ते धर्मी-सम्यग्द्रष्टि छे. धर्मीने एक ज्ञायकभावमयपणुं छे एम आव्युं ने? एटले शुं? एटले एम के धर्मी जीवनो विषय पर नथी, राग नथी ने पर्यायेय नथी; पण तेनो विषय एक ज्ञायकभाव ज छे. तेथी कहे छे के धर्मीने कोई पर प्रत्ये सावधानी थती ज नथी. बहारमां प्रतिकूळता होय तो रंज नहि ने बहारमां अनुकूळता होय तो राजीपो नहि. सर्व परपदार्थ ज्यां ज्ञेयमात्र छे त्यां अनुकूळ -प्रतिकूळ शुं?-अहा! आम जाणतो ते परमां सावधानी करतो नथी ने स्वस्वरूपनी सावधानी छोडतो नथी. भाषा ज एम छे जुओने? के ‘मोहनो (तेने) अभाव होवाथी...’ , मोह कहेतां परमां सावधानीनो वा परमां मुंझाई जवानो समकितीने अभाव छे. मोह एटले ज परमां सावधानी अथवा मोह एटले परमां मुंझवण. तो ते मोह ज्ञानीने नथी माटे ते अमूढद्रष्टि छे-एम कहे छे.

हवे कहे छे-‘तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’

जोयुं? समकितीने स्वरूपमां सावधानी होवाथी कोई पर पदार्थमां मूढता नथी. जुओ, क्षायिक समकिती श्रेणीक राजाने पहेलां नरकनुं आयुष्य बंधाई गयुं तो तेओ हाल नरकमां छे ज्यारे कोई अनंत संसारी अभवि जीव पंचमहाव्रतादि चोख्खां पाळीने शुक्ललेश्यानी नवमी ग्रैवेयक जाय. पण एमां शुं छे? ए तो जे ते समयनी पर्यायनी योग्यता छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणतो होवाथी नरकना संयोगमां मुंझातो नथी. तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध नथी पण निर्जरा ज छे एम कहे छे.

* गाथा २३२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्द्रष्टि सर्व पदार्थोना स्वरूपने यथार्थ जाणे छे.’

जोयुं? पुण्यना भावने, पापना भावने, निमित्तने, संयोगने इत्यादि जगतना


PDF/HTML Page 2420 of 4199
single page version

प्रत्येक पदार्थना स्वरूपने ज्ञानी यथार्थ जाणे छे. अहा! कहे छे-‘सर्व पदार्थोना स्वरूपने...,’ अहा! भाषा तो देखो! एक भगवान आत्माने जाण्यो तो सर्व पदार्थोना स्वरूपने, तेओ जेवा छे तेवा यथार्थ जाणवानी समकितीमां शक्ति प्रगट थई छे. अहा! गजब वात छे भाई! अत्यारे तो सम्यग्दर्शन ने आत्मज्ञाननी मूळ वात ज लुप्त थई गई छे, ज्यां जुओ तो व्रत करो ने तपस्या करो ने भक्ति करो दान करो-एम प्ररूपणा चाले छे. पण एमां तो पुण्य थाय ने भव मळे, भवकट्टी न थाय.

अहीं भगवान कहे छे-भगवान! तारे पुण्यनुं शुं काम छे! (एक ज्ञायकनी द्रष्टिमां) तारे ज्यां पर्यायनुंय प्रयोजन नथी त्यां वळी तारे पुण्यनुं शुं काम छे? गंभीर वात छे भाई! ए तो पहेलां आवी गयुं के-ज्ञानी पुण्यने इच्छतो नथी. ज्ञानीने दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिनो पुण्यभाव आवे खरो पण एनी एने इच्छा होती नथी. पुण्यभावनुं एने कांई प्रयोजन नथी; एने तो एक ज्ञायकभावथी ज प्रयोजन छे. अहा! जेने वीतरागस्वभावी भगवानना भेटा थया ते रागने-रांकने केम इच्छे? न इच्छे. अहा! पोताना स्वरूपमां निःशंक परिणमेलो ज्ञानी जगतना दरेक पदार्थनी स्थिति जेवी छे तेवी यथार्थ जाणे छे, पछी ते एमां मोह केम पामे? न पामे.

अहा! जोयुं? आमां तो बधायने जाणे छे एम कह्युं छे. सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान सर्व पदार्थोना स्वरूपने यथार्थ जाणे छे. अहा! भाषा तो जुओ! कोईने थाय के शुं एटलुं बधुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने थई गयुं? हा, भाई! श्रुतज्ञानमां सर्व पदार्थोना स्वरूपने जाणवानुं सामर्थ्य छे. ते जेने पहोंचे छे ते सर्वने यथार्थ जाणी ले छे; अने तेथी समकितीने पर पदार्थोमां मुंझवण रहेती नथी. अहा! जेणे एक ज्ञायकने यथार्थ जाण्यो छे तेणे बधायने यथार्थ जाण्या एम कहे छे, केमके तेनुं बधुं ज्ञान यथार्थ थई गयुं छे. अहो! आत्मज्ञाननो महिमा अपरंपार छे. बाकी दया, दान, व्रत आदिनो कांई महिमा नथी केमके ए तो राग छे; ए धर्म नथी अने धर्मनुं कारणेय नथी.

जुओ, कोई प्रथम महापापी होय ते कारण पामीने समकित पामे ने पछी उग्र पुरुषार्थ द्वारा केवळ पामीने मोक्षे जाय. त्यारे कोई धर्मात्मा लाखो वर्ष सुधी चारित्रमां रहे, मोक्ष न पामे; तो त्यां ते मुंझाय नहि. अहा! ते पर्यायमां मुंझाय नहि ने पर्यायमां गुंचाय (रोकाय) पण नहि केमके तेने तो एक ज्ञायकभावनुं ज अवलंबन छे. पर्यायनी कचास तो ते ते पर्यायनी योग्यता ज छे-एम ते यथार्थ जाणे छे, अने ते माटे ते मुंझातो नथी. अहा! आचार्यदेवे ‘सव्व’ शब्द मूकीने तो गजब काम कर्युं छे.

अहा! समकिती थयो ते शुं सर्व पदार्थने जाणे?

भाई! श्रुतज्ञान साथे छे ने? तो, ते ज्ञान शुं न जाणे? ज्ञानमां शुं न जणाय? श्रुतज्ञानमां बधायनुं स्वरूप जणाय एवी ताकात छे.