Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 229-230.

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धर्मनुं पहेलुं पगथियुं जे चोथुं गुणस्थान तेमां धर्मी पोताना आत्माने आवो जुए छे. आवा धर्मीने कांई आकस्मिक थई जशे एवो भय कयांथी होय? न होय. ते तो-

‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति’ ते तो पोते निरंतर

निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

अहा! ते तो एटले सम्यग्द्रष्टि तो पर्यायमां पोते पोताथी निराकुळ आनंदनो अनुभव करे छे. स्वयं नाम पोते पोताथी छे तो पर्यायमां पण पोते पोताथी पोताना आनंदनो अनुभव करे छे. झीणी वात छे भाई! चीज मूळ अंदर सूक्ष्म छे ने? जुओने? छहढालामां शुं कह्युं? के-

“मुनिव्रत धार अनंत वार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायौ.”

भाई! आत्मज्ञान शुं चीज छे एनी एने खबर नथी. अनंतकाळमां एने ग्रीवक सुद्धां बधुं मळ्‌युं पण आत्मज्ञान मळ्‌युं नथी. अहीं कहे छे के जेने आत्मज्ञान मळ्‌युं ते धर्मी पुरुष तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञाननो-ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मानो-सदा अनुभव करे छे. अहा! आवी वात बीजे कयांय छे नहि. भाई! आ तो भगवाननो मारग बापा! आ तो शूरानो मारग भाई! कह्युं नथी के-

‘हरिनो मारग छे शूरानो नहि कायरनुं काम जो.’

बापु! सांभळीने जेनां काळजां कंपी उठे ते कायरनां आ काम नहि. आनंदकंद प्रभु आत्मानां द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता-ए शूरानुं काम छे, ए कायरनां-पावैयानां काम नथी. समजाणुं कांई...?

भाई! आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय ने कर्म इत्यादि तो जड धूळ-माटी छे. एनी साथे तो आत्माने कांई संबंध छे नहि. स्वस्वरूपनी अस्तिमां ते सर्वनी नास्ति छे; अने ते बधामां पोतानी एटले स्वस्वरूपनी नास्ति छे. वळी पुण्य-पापना भावनी पण स्वस्वरूपमां नास्ति छे. आवा स्वस्वरूपनो-सहज एक ज्ञायकभावनो धर्मी जीव सदा अनुभव करे छे, कदीक रागनो-दुःखनो अनुभव करे छे एम नहि. अहा! धर्मी जीव नरकमां हो तोपण सहज एक ज्ञानानंदस्वरूपनो ज अनुभव करे छे एम कहे छे. झीणी वात भाई! ए तो भजनमां आवे छे ने के-

“चिन्मूरत दगधारीकी मोहि रीति लगत है अटापटी,
बाहर नारकी दुःख भोगै अंतर सुखरस गटागटी.”

अहा! जेनी चिन्मूर्ति प्रभु आत्मामां द्रष्टि थई छे तेनी रीत अटपटी जणाय छे. बहार ते नरकनुं दुःख भोगवतो देखाय छे ज्यारे अंतरमां तेने सुखनी गटागटी


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होय छे. जुओ, श्रेणीक राजा हाल पहेली नरकमां छे. तेओ क्षायिक समकिती छे; भविष्यमां-आवती चोवीसीमां-तीर्थंकर थवाना छे. पण अत्यारे पहेली नरकमां छे, ने जेटलो (जे अल्प) राग छे एटलुं दुःखनुं वेदन पण छे, पण अंतरमां अनंतानुबंधीना अभावने कारणे अतीन्द्रिय आनंदनी गटागटी छे. झीणी वात छे भाई! अनंतकाळमां एणे सम्यग्दर्शन एक क्षण पण प्रगट नथी कर्युं अने तेथी पंचमहाव्रतादि पाळीने नवमी ग्रीवकमां उपज्यो तोपण दुःखी ज रह्यो छे.

अहा! अनादिथी जीवने पुण्य-पापना-शुभाशुभ रागना-विकल्पनुं वेदन छे. ते दुःखनुं वेदन छे, मिथ्या वेदन छे. एने आ शरीरनुं के बहारना संयोगरूप पदार्थनुं वेदन छे एम नथी केमके शरीरादि पदार्थो तो जड छे, पर छे. तेने तो जीव अडेय नहि ते केवी रीते भोगवे? तो केवी रीते छे? तो कहे छे-अज्ञानी मूढ जीव ते शरीरादि पदार्थने जोईने ‘आ ठीक छे, आ अठीक छे’-एम रागद्वेष उत्पन्न करे छे अने ते रागद्वेषने ते भोगवे छे, वेदे छे. ए रागद्वेषनुं वेदन दुःखनुं वेदन छे भाई! ज्यारे सम्यग्द्रष्टिए गुलांट मारी छे. गुलांट-गुलांट समज्या? एणे पलटो मार्यो छे. अहा! पहेलां नवमी ग्रीवक अनंतवार गयो हतो पण ए तो त्यां रागनुं-कषायनुं वेदन हतुं; ए मिथ्या दुःखनुं वेदन हतुं. पण हवे एणे पलटो मार्यो छे. हवे रागथी हठीने द्रष्टि भिन्न एक सहज ज्ञानस्वभाव पर स्थापी छे. सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि सहज एक ज्ञानस्वभाव पर रहेली छे. तेथी ते निरंतर ज्ञान ने आनंदने वेदे छे. आवी जन्म-मरणथी रहित थवानी रीत बहु जुदी छे भाई!

अहा! अनंतकाळथी जीव ८४ना अवतार करी करीने दुःखी छे. एक एक योनिने अनंत अनंत वार स्पर्श करीने ते जन्म्यो ने मर्यो छे. एना दुःखनुं शुं कहेवुं? भाई! आ पैसावाळा-करोडपति ने अबजोपति बधा दुःखी छे. भिखारी छे ने! पैसामां-धूळमां सुख माने छे ते बधा ज दुःखी छे. दरिद्री दीनताथी दुःखी छे ने पैसावाळा पैसाना अभिमानथी दुःखी छे; बेय दुःखी ज छे, केमके बन्नेय बहारमांथी सुख इच्छे छे. ज्यारे जगतमां एक सम्यग्द्रष्टि जीव ज सुखी छे केमके ते नित्य आनंदस्वरूप-सुखस्वरूप भगवान आत्माने निरंतर अनुभवे छे. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

रिद्धिसिद्धिवृद्धि दीसै घटमैं प्रगट सदा,
अंतरकी लच्छीसौं अजाची लच्छपति है;
दास भगवंत के उदास रहैं जगतसौं,
सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती हैं.

बाकी रागमां ने पैसामां सुख मानवावाळा जगतमां बधा ज दुःखनुं वेदन करे छे.


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तो सुखनुं वेदन बताओ ने? भाई! ए ज वात तो चाले छे. जुओने! आचार्य शुं कहे छे? अहा! दिगंबर संतोनी शैली तो जुओ! ओहो! कहे छे-ज्ञानी निरंतर निःशंक वर्तती थको सहज एक ज्ञानने सदा अनुभवे छे. ए ज्ञानीने सदा सुखनुं वेदन छे. सुख जेमां भर्युं छे तेने अनुभवे छे तेथी तेने सदा सुखनुं वेदन छे. अज्ञानी सहज एक ज्ञानस्वभावने तरछोडीने विभावनुं वेदन करे छे तेथी तेने दुःखनुं वेदन छे, ज्यारे ज्ञानी विभावने तरछोडीने सहज एक ज्ञाननुं वेदन करे छे तेथी तेने सुखनुं वेदन छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...? छये कळशमां आ लीधुं छे के-‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञाननं सदा विन्दति’ अहो! अतीन्द्रिय आनंदमां झूलवावाळा दिगंबर संतोए जंगलमां बेठां बेठां जगतने न्याल करी दीधुं छे!

हा, पण एनुं साधन शुं? समाधानः– रागथी भिन्न पडीने आत्मानुभव करवो ए साधन छे. भेदविज्ञान ए साधन छे. ए कह्युं ने के-

“भेदज्ञान साबू भयौ, समरस निरमल नीर;
धोबी अंतर आतमा, धोवै निज गुनचीर.”

अहा! रागथी-पुण्यपापना विकल्पथी भिन्न पडीने अंदर निर्विकल्प निज आनंदस्वरूपनी द्रष्टि करी ते-‘भेदज्ञान साबू भयौ,’ अने त्यारे अनादिनो जे पुण्य- पापनो विषम रस हतो ते छूटीने ज्ञानानंदनो रस-समरस प्रगट थयो, अने ते ‘समरस निरमल नीर’ थयुं. ज्ञानी एमां विकारने धुए छे-नाश करे छे ने निरंतर सुखने भोगवे छे. मारग तो आ छे भगवान! अनंतकाळनो अजाण्यो मारग छे केमके सच्चिदानंदस्वरूप भगवान पोते ज छे पण एमां एणे कदी द्रष्टि करी नथी. अरेरे! बहारना रागना थोथामां ज ते रोकाई गयो छे.

अहा! पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद छे. तेनी रुचि करवाने बदले अज्ञानी जीव अनादिथी पुण्य-पापना भावनी रुचिमां पडयो छे. ते पैसामां ने राज्यमां ने देवपद आदिमां सुख छे एम माने छे अने तेथी पराधीन थयो थको ते राग-द्वेषादि विकारने-दुःखने पामे छे. परंतु ज्यारे ते परथी ने रागथी हठीने, ‘पूर्णानंदस्वरूप प्रभु हुं त्रिकाळ आत्मा छुं’-एम निज आत्मद्रव्य पर द्रष्टि करे छे त्यारे तेने द्रव्यद्रष्टि प्रगट थाय छे. अहो! द्रव्यद्रष्टि कोई अपूर्व चीज छे भाई! द्रव्यद्रष्टि प्रगटतां, स्वयं ज्ञानी थयो थको जीव सदा सहज एक ज्ञानने अनुभवे छे. द्रव्यद्रष्टिवंतने जगत आखुं फीकुं लागे छे, तुच्छ भासे छे. आवे छे ने के-


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“चक्रवर्तीकी संपदा अरु इन्द्र सरिखा भोग,
कागविट् सम गिनत है सम्यग्द्रष्टि लोग.”

अहा! द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि. द्रव्यद्रष्टिवंतने चक्रवर्तीनी संपत्ति ने इन्द्रना भोग कागडानी विष्टा जेवा तुच्छ भासे छे.

अहा! एम पण बने के सम्यग्द्रष्टि होय ने एने चक्रवर्ती आदि संपदा होय. आवे छे ने के-‘भरत घरमें वैरागी.’ भरत समकिती हता ने चक्रवर्ती पण. पण अंदर आत्माना आनंदना अनुभव आगळ चक्रवर्तीपद तुच्छ भासतुं हतुं; बहारना वैभव प्रति तेओ उदासीन हता. त्यारे तो कह्युं के-‘भरत घरमें वैरागी.’ जुओ, पहेला सौधर्म स्वर्गनो इन्द्र समकिती एकभवतारी छे. तेनी पत्नी शची पण एकभवतारी छे. ते इन्द्र सौधर्म देवलोकना ३२ लाख विमाननो स्वामी छे. पण ए बधा बहारना भोग-वैभवने ‘कागविट् सम गिनत है’-कागडानी विष्टा समान जाणे छे. बापु! सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे! सम्यग्द्रष्टि अंदरमां सहज एक ज्ञानने सदा अनुभवे छे अने विना सम्यग्दर्शन बधुं थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...?

* कळश १६०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कोई अणधार्युं अनिष्ट एकाएक उत्पन्न थशे तो?-एवो भय रहे ते आकस्मिक भय छे.’

अणधार्युं एटले नहि धारेलुं ओचिंतुं. कोई ओचिंतु अनिष्ट एकाएक आवी पडशे एवो अज्ञानीने सदा भय होय छे. ते आकस्मिक भय छे.

‘ज्ञानी जाणे छे के... आत्मानुं ज्ञान पोताथी ज सिद्ध, अनादि, अनंत, अचळ एक छे.’

अहाहा...! समकितीने तो अंदर प्रतीति थई छे के-हुं अंदर सदा सिद्ध समान भगवान आत्मा छुं, सदा अचळ एक चैतन्यरूप छुं. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

“चेतनरूप अनूप अमूरत सिद्ध समान सदा पद मेरौ,
मोह महातम आतम अंग, कियौ परसंग महा तप घेरौ;...”

अहा! मारी चीज सदा सिद्ध समान अनुपम बीन मूरत चिन्मूरत छे. छतां मैं परमां मोह करीने तेने रागमां घेरी लीधी छे. अहा! आत्मा भगवान प्रभु रागमां घेराई गयो छे, आकुळतामां घेराई गयो छे. अहा! बनारसीदासजी विशेष कहे छे-


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“ग्यानकला उपजी अब मोहि, कहौं गुन नाटक आगम केरौ;
जासु प्रसाद सधै शिव मारग, वेगी मिटै भवबास बसेरौ.”

अहो! हुं तो एक ज्ञानानंदस्वरूप भगवानस्वरूप आत्मा छुं-एवी ज्ञानकला मने जागी छे. आने सम्यग्द्रष्टि कहेवाय छे. कहे छे-मने हवे ज्ञानकला प्रगटी छे तेथी हवे भववास रहेशे नहि. अहा! आ हाडकां ने चामडांमां वसवानुं हवे ज्ञानकलाना बळे छूटी जशे; हवे शरीरमां रहेवानुं थशे नहि. ल्यो, आवी वात! अहो! ज्ञानकला!

प्रश्नः– पण आमां बंगलामां रहेवानुं तो न आव्युं? बंगलामां रहे तो सुखी ने?

उत्तरः– धूळेय सुखी नथी सांभळने. बंगला कयां तारा छे? आ बंगला तो जड माटी-धूळना छे; अने अमे एमां रहीए एम तुं माने ए तो मिथ्यात्वनुं महा पाप छे अने तेनुं फळ महा दुःख छे, चारगतिनी रखडपट्टी छे. भाई! आ शरीर पण जड माटी- धूळ छे. ए बधां जडनां-धूळनां घर छे बापा! भक्तिमां आवे छे ने के-

“हम तो कबहू न निज घर आये
परघर भ्रमत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराये... हम तो...”

अहा! हुं पुण्यवंत छुं ने हुं पापी छुं ने हुं मनुष्य छुं ने हुं नारकी छुं ने हुं पशु छुं,... इत्यादि (माने) पण अरे भगवान! ए तो बधा पुद्गलना संगे थयेला स्वांग छे. ए तो बधां पुद्गलनां घर छे प्रभु! एमां तारुं निजघर कयां छे? तारुं निजघर तो अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो साहेबो प्रभु आत्मा छे. भगवान! तुं अनादिथी एक क्षण पण निजघरमां आव्यो नथी!

अहीं तो जे निजघरमां आव्यो छे तेनी वात छे. अहा! ज्ञानी जाणे छे के-हुं तो स्वतःसिद्ध अनादि-अनंत छुं. अहा! मने कोई बनाववावाळो इश्वर आदि छे नहि एवो हुं अविनाशी अकृत्रिम पदार्थ छुं. वळी हुं अचळ, एक छुं. अहा! एमां एक ज्ञान-ज्ञान सिवाय बीजुं कांई छे नहि. वळी ‘तेमां बीजुं कांई उत्पन्न थई शकतुं नथी.’ जुओ, कलशमां भाषा छे ने के-‘द्वितीयोदयः न’–तेमां बीजानो उदय नथी. मारा एकमां द्वितीयनो बीजानो उदय-प्रगटवापणुं छे नहि. झीणी वात बापु! आवुं स्वरूप समज्या विना दया, दान, व्रत आदि अनंतवार कर्यां पण ए बधां फोगट गयां.

अहीं कहे छे-मारी अनादि-अनंत नित्य चीजमां बीजुं कांई उत्पन्न थतुं नथी, बीजुं कांई आवतुं नथी; ‘माटे तेमां अणधार्युं कांई पण कयांथी थाय? अर्थात्


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अकस्मात कयांथी बने? आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय होतो नथी. ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना ज्ञानभावने निरंतर अनुभवे छे.’

अहा! ज्ञानी पोतानो जे ध्रुव स्वभावभाव अचळ एक ज्ञानभाव तेने निरंतर अनुभवे छे. आनुं नाम धर्म छे. अरे! लोको तो कांईनुं कांई (धर्म) माने छे. अरेरे! बिचाराओनी जिंदगी व्यर्थ चाली जाय छे!

‘आ रीते ज्ञानीने सात भय होता नथी.’ ज्ञानी पोताना एक अचळ ज्ञानमां निःशंक वर्ततो होवाथी तेने आलोकभय, परलोकभय, वेदनाभय, अरक्षाभय, अगुप्तिभय, वेदनाभय ने अकस्मातभय-एम सात भय होता नथी.

प्रश्नः– ‘अविरत सम्यग्द्रष्टि आदिने पण ज्ञानी कह्या छे अने तेमने तो भयप्रकृत्तिनो उदय होय छे तथा तेना निमित्ते तेमने भय थतो पण जोवामां आवे छे, तो पछी ज्ञानी निर्भय कई रीते छे?’ शिष्यनो प्रश्न छे के-चोथे गुणस्थाने भयप्रकृतिनो उदय छे अने तेने भय पण थाय छे; तो पछी अविरत समकितीने आप निर्भय केवी रीते कहो छो?

आनुं समाधान पंडित श्री जयचंदजी करे छे-

समाधानः– ‘भयप्रकृतिना उदयना निमित्तथी ज्ञानीने भय उपजे छे. वळी अंतरायना प्रबळ उदयथी निर्बळ होवाने लीधे ते भयनी पीडा नहि सही शकवाथी ज्ञानी ते भयनो इलाज पण करे छे. परंतु तेने एवो भय होतो नथी के जेथी जीव स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धानथी च्युत थाय.’

जुओ, श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता अने तीर्थंकर गोत्र बाध्युं हतुं. तो तीर्थंकर गोत्र बांधे छे ते वखते तेमनो पुत्र (मारी नाखवा) आव्यो तो जरी भय थयो पण ते अस्थिरतानो भय बापु! वस्तुनो भय नहि, वस्तुमां तो तेओ निःशंक निर्भय छे. अस्थिरताथी जरी भय आवी गयो. देह छूटी गयो ने नरकमां गया. क्षायिक समकिती छतां नरकमां गया केमके आयुष्यनो बंध पहेलां पडी गयो हतो. पण ए समकितनो महिमा छे के त्यांथी नीकळीने तेओ आवती चोवीसीमां पहेला तीर्थंकर थशे. ज्यारे मिथ्याद्रष्टि जीव चोख्खां-निर्मळ पंच महाव्रत पाळीने नवमी ग्रैवेयक जाय अने त्यांथी नीकळीने मनुष्य-पशु आदि चार गतिमां रखडपट्टी करे. अहो! समकित कोई अपूर्व अलौकिक चीज छे!

अहीं कहे छे-समकितीने जरी प्रकृतिनो उदय छे खरो, अने तेना निमित्त तेने भय पण छे तथा भयनो ईलाज पण ते करे छे; पण तेने एवो भय नथी के स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धानथी च्युत थाय. मारां स्वरूपमां कोई नुकशान थई जशे के स्वरूपनो


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नाश थई जशे एवो भय तेने नथी. पोताना स्वरूपना ज्ञान-श्रद्धानमां तो ते अचळ- अडग छे, निःशंक-निर्भय छे. हवे कहे छे-

‘वळी जे भय उपजे छे ते मोहकर्मनी भय नामनी प्रकृत्तिनो दोष छे; तेनो पोते स्वामी थईने कर्ता थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे. माटे ज्ञानीने भय नथी.’

प्रश्नः– आ तो प्रकृतिनो दोष थयो, जीवनो नहि? समाधानः– भाई! दोष तो जीवनो-जीवनी पर्यायमां छे; पण ते स्वभावमां नथी ते कारणे प्रकृतिना निमित्ते जे भाव थयो ते प्रकृतिनो छे एम कह्युं. ज्ञानीनी द्रष्टि तो एक स्वभाव पर छे ने? तो प्रकृतिना निमित्ते जे दोष थयो तेनो ते ज्ञाता ज रहे छे, पण तेनो स्वामी अने कर्ता थतो नथी. आवी भारे झीणी वात छे भाई!

दोष तो पोतानो पोतानी पर्यायमां थयो छे; कांई कर्मने लईने थयो छे वा कर्म वडे उत्पन्न थयो छे एम नथी. कर्म शुं करे?

‘कर्म बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई.’

परंतु पोतानी पर्यायमां दोष थवा छतां पण ज्ञाता-द्रष्टा रहीने ज्ञानी तेने परपणे जाणे छे अर्थात् जेम स्वभावथी एकमेक छे तेम ज्ञानी दोषथी एकमेक थता नथी. हवे आवी वातु छे! समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– पण अहीं तो प्रकृतिनो-कर्मनो कह्यो ने? समाधानः– भाई! ए तो निमित्तथी कह्युं छे. दोष स्वभावमां नथी अने स्वभावथी उत्पन्न थयो नथी माटे एम कह्युं छे. वात तो आ छे के भयनो ज्ञानी स्वामी थईने कर्ता थतो नथी. ते मारुं कर्तव्य छे एम ज्ञानी तेनो कर्ता थता नथी. हुं तो एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी आत्मा छुं एम जेने द्रव्यद्रष्टि थई छे ते रागनो ने भयनो कर्ता केम थाय? न थाय. माटे ज्ञानीने भय नथी एम कहे छे.

*

हवे आगळनी (सम्यग्द्रष्टिना निःशंकित आदि चिन्हो विषेनी) गाथाओनी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-

* कळश १६१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘टंकोत्कीर्ण–स्वरस–निचित–ज्ञान–सर्वस्व–भाजः सम्यग्द्रष्टेः’ टंकोत्कीर्ण एवुं जे निजरसथी भरपूर ज्ञान तेना सर्वस्वने भोगवनार सम्यग्द्रष्टिने.......

अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि कोने कहेवाय? के टंकोत्कीर्ण एवा निज स्वरूपथी परिपूर्ण ज्ञानना सर्वस्वने भोगवनार सम्यग्द्रष्टि छे. निजरसथी भरपूर कह्यो ने? अहाहा...! आत्मा नित्यानंद प्रभु पोते सदा ज्ञानानंदरसथी अत्यंत भरपूर छे. एवा निजरसथी-


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ज्ञानानंदरसथी परिपूर्ण एवा ज्ञानना-आत्माना सर्वस्वने भोगवनार सम्यग्द्रष्टि छे. अहा! आत्मानुं सर्वस्व तो एक ज्ञानानंद स्वभाव छे अने तेने भोगवे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. आवो मारग छे भाई!

शुं कहे छे? के ज्ञानी पोताना निजरसनो-पुण्य-पापना रागरसथी भिन्न पोताना ज्ञानानंदरसनो अनुभव करवावाळो छे. केवो छे निजरस? तो कहे छे-परिपूर्ण छे. आत्मामां ज्ञान ने आनंदनो रस परिपूर्ण छे; वळी ते ध्रुव छे. गजब वात छे! सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि एक ध्रुव उपर छे. एक ध्रुव ज एनुं ध्येय छे. तो कहे छे-निजरसथी भरपूर पोताना सर्वस्वने भोगवनार ज्ञानी छे. सर्वस्व कहेतां ‘सर्व’ नाम संपूर्ण ज्ञान ने आनंद अने स्व एटले पोतानो. पोताना संपूर्ण ज्ञान ने आनंदने ज्ञानी भोगवनारो छे.

विषयरस, रागनो रस तो ज्ञानीने झेर जेवो छे. ज्ञानीने रागनो के विषयनो रस नथी. ज्ञानी तो निजानंदरसना सर्वस्वने भोगवनारो छे. अहा! आवो धर्मी पुरुष होय छे. अज्ञानीने तो पोतानो स्वभाव शुं छे एनी ज खबर नथी. बिचारो रागने-दुःखने भोगवे अने माने के-मने आनंद छे, धर्म छे. पण बापु! ए तो भ्रमणा छे, धोखो छे.

अहा! भाषा! तो जुओ! टंकोत्कीर्ण नाम एवो ने एवो ध्रुव शाश्वत आत्मा, स्वरस-निचित नाम निजरसथी परिपूर्ण, एवुं जे ज्ञान एटले के पोतानो स्वभाव तेना ‘सर्वस्व भाजः’-सर्वस्वनो भोगवनार सम्यग्द्रष्टि छे. अहाहा...! शुं कळश छे! शब्दे शब्दे गंभीर भाव छे.

आत्मा शुद्ध चिदानंद-निर्मळानंद प्रभु शाश्वत अंदर पडयो छे ते अनंत गुणनुं गोदाम छे, अनंत शक्तिनुं संग्रहालय छे. आवा निजरसथी भरपूर आत्माना सर्वस्वने भोगवनार सम्यग्द्रष्टि छे. एवा सम्यग्द्रष्टिने ‘यद् इह लक्ष्माणि’ जे निःशंकित आदि चिन्हो छे ते ‘सकलं कर्म’ समस्त कर्मने ‘ध्नन्ति’ हणे छे.

जुओ, सम्यग्द्रष्टिने निःशंक्ति, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा इत्यादि आठ गुण प्रगट थया छे एम कहे छे. छे तो ते पर्याय पण तेने गुण कहे छे. तो कहे छे-निजरसने भोगवता ज्ञानीने जे निःशंक्ति आदि आठ गुण प्रगट थया छे ते समस्त कर्मने हणे छे. अहाहा...! जेने भगवान आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते निःशंक थयो छे, तेने निःशंक्ति आदि आठ गुण प्रगट थया छे अने ते गुणो, कहे छे, समस्त कर्मनो नाश करे छे, कर्मनी निर्जरा करी दे छे. ल्यो, आवी वात!

अनादिथी अज्ञानने लीधे अज्ञानीनी द्रष्टि राग ने पुण्य-पापना विकल्प उपर पडेली छे. तेथी ते पुण्य-पापना-रागद्वेषना विकारी भावोने करतो थको रागद्वेषने ज


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भोगवे छे, विकारने ज भोगवे छे. अहा! ते विकारने भोगवे छे ते दुःख छे, अधर्म छे, केमके ते स्वभाव नथी. ज्यारे ज्ञानीनी द्रष्टि नित्यानंद अचळ एक ध्रुव ज्ञानानंद स्वभाव पर रहेली छे. तेथी (ते द्रष्टिना कारणे) ते पोतानुं सर्वस्व जे एक ज्ञानानंद स्वभाव तेने भोगवे छे.

अहा! मारा स्वरूपमां अल्पज्ञता नहि, विकार नहि अने निमित्त पण नहि एवो हुं निजरसथी भरेलो ज्ञानानंद-स्वभावी आत्मा छुं. अहा! द्रष्टिमां आवा आत्मानो जेने स्वीकार थयो छे ते धर्मात्मा छे, ज्ञानी छे. ते ज्ञानीने कहे छे, निःशंक्ति आदि आठ गुणो प्रगट थया छे ते समस्त कर्मने हणे छे. ल्यो, आ अशुद्धता अने कर्म केम हणाय छे ए कहे छे के पोताना परम शुद्ध पूर्णानंद स्वरूपने भोगवता ज्ञानीने जे निःशंक्ति आदि गुणो प्रगटे छे ते सर्व कर्मनो नाश करी दे छे, अशुद्धताने मिटावी दे छे. हवे कहे छे-

‘तत्’ माटे, ‘अस्मिन्’ कर्मनो उदय वर्ततां छतां, ‘तस्य’ सम्यग्द्रष्टिने ‘पुनः’ फरीने ‘कर्मणः बन्धः’ कर्मनो बंध ‘मनाक् अपि’ जरा पण ‘नास्ति’ थतो नथी.

कर्मनो बंध जरा पण थतो नथी एम कहे छे. अहा! पोतानुं सर्वस्व पोतानो जे अतीन्द्रिय ज्ञानानंदस्वभाव तेने भोगवतो ज्ञानी निःशंक्ति आदि प्रगट आठ गुण (- पर्याय) वडे कर्मने हणे छे. तेथी, कर्मनो उदय वर्ततां छतां, तेने फरीने जरा पण कर्मबंध थतो नथी. जुओ आ समकितीनी विशेष दशा!

अहीं ज्ञानीने किंचित् अल्प बंध थाय छे तेनी गणतरी गणी नथी. अहा! वीतरागस्वरूपी-ज्ञानानंदस्वरूपी अभेद एक आत्मानी ज्यां द्रष्टि ने अनुभव थयां त्यां धर्मीने कर्मनो उदय वर्ततां छतां, तेने बंध नथी, केम? केमके तेने उदयनुं वेदन नथी, पण तेने तो एक आत्माना आनंदनुं वेदन छे. अहाहा...! ज्ञानीने तो एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावनुं वेदन छे, रागनुं वेदन तेने छे नहि; माटे तेने नवां कर्म बंधातां नथी एम कहे छे. आवो मारग पाम्या विना जीव अनंतकाळमां ८४ ना अवतारमां दुःखी थयो छे.

जुओने! आ देह तो क्षणभंगुर छे. घडीकमां एनुं शुंय थई जाय (नाश पामी जाय). भाई! आ तो उपर चामडीथी मढेलो हाडकांनो माळो छे. तेनी तो क्षणमां राख थई जशे केमके ए तो राख थवायोग्य नाशवंत छे. पण अंदर भगवान आत्मा चिदानंद प्रभु अविनाशी छे. ज्ञानी तेने जाणे छे, अनुभवे छे. अहीं कहे छे-भगवान आत्माना आनंदने भोगवतो ज्ञानी, तेने कर्मनो उदय वर्ततो होवा छतां, नवीन कर्मबंधने पामतो नथी.

प्रश्नः– तो शुं दुःखनुं वेदन ज्ञानीने सर्वथा नथी?


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समाधानः– ना, एम नथी. पण आ कई अपेक्षाए वात छे ए तो समजवुं जोईए ने? धर्मीनी द्रष्टि एक पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्मा उपर छे. तेने जे निर्मळ स्वभावनुं परिणमन थाय ते एनुं व्याप्य छे, परंतु विकारनुं परिणमन एनुं व्याप्य नथी. द्रष्टि स्वभाव पर छे ने! तेथी विकारनुं परिणमन एनुं व्याप्य नथी. आ अपेक्षाए कह्युं के ज्ञानीने रागनुं वेदन नथी. बाकी ज्ञाननी अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिने तो शुं छट्ठे गुणस्थाने मुनिने पण किंचित् विकारभाव छे अने तेटलुं वेदन पण छे. परंतु द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए तेने गौण करीने समकितीने रागनुं वेदन नथी एम कह्युं छे. अहीं ते किंचित् अस्थिरताना वेदननी मुख्यता नथी एम यथार्थ समजवुं.

अहा! आ ज (एक आत्मा ज) शरण छे बापु! अहा! आखुं घर एक क्षणमां खलास थई जाय भाई! बे-पांच दीकरा ने बे-चार दीकरीओ होय तो ते बधां एक साथे खलास थई जाय. बापु! ए नाशवंतनो शुं भरोसो? भाई! ए बधी परवस्तु तो परमां परने कारणे छे; तेमां अविनाशीपणुं नथी. ए तो बधां पोतपोताना कारणे आवे ने पोतपोताना कारणे जाय. परंतु अहीं तो आत्मानी एक समयनी पर्याय पण नाशवंत छे एम कहे छे. अविनाशी तो नित्यानंदस्वरूप ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव चिदानंद प्रभु आत्मा छे. तेनो स्वीकार करतां, तेनो भरोसो-प्रतीति करतां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन आवे छे. अहा! आवा आनंदनुं वेदन करनारा ज्ञानीने पूर्वना कर्मनो उदय वर्ततो होय छतां ते खरी जाय छे, नवीन बंध करतो नथी.

अरे भाई! जगत तो अनादिथी अशरण छे, अने अरिहंत ने सिद्ध पण व्यवहारथी शरण छे. निश्चय शरण तो अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद प्रभु आत्मा छे. जुओने! ए ज कह्युं ने? के धर्मी निजरसथी भरपूर आत्माना सर्वस्वने भोगवनार छे. अहा! ते रागने भोगवनार नथी ने अपूर्णतानेय भोगवनार नथी. अहा! ‘सर्वस्व’ शब्द छे ने? अहा! अतीन्द्रिय आनंदनो कंद पूरण पूरण पवित्र अनंतगुणोनो एक ज्ञायकस्वरूप पिंड प्रभु शाश्वत आत्मा छे; अने तेनुं शरण ग्रहीने ज्ञानी तेना-शुद्ध चैतन्यना-सर्वस्वने भोगवनार छे-एम कहे छे. झीणी वात भाई! जिनेश्वरनो मारग सूक्ष्म छे बापा!

ज्ञानीने निःशंक्ति आदि गुणोना कारणे, कर्मनो उदय वर्ततां छतां, कर्मनो बंध जरा पण थतो नथी. हवे आना परथी कोई एम लई ले के समकितीने जराय दुःखनुं वेदन नथी तो ए बराबर नथी. अहीं तो द्रष्टि ने द्रष्टिनो विषय जे परिपूर्ण प्रभु आत्मा छे तेनी द्रष्टिमां ज्ञानी पोताना सर्वस्वने भोगवनार छे एम कह्युं छे. हवे आवी वातु लोकोने अत्यारे आकरी लागे छे केमके आ वात संप्रदायमां चालती ज नहोती ने! पण आ सत्य वात बहार आवी एटले लोकोमां खळभळाट थई गयो छे. बापु! खळभळाट थाओ के न थाओ, मारग तो आ ज छे भाई!


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द्रष्टिनो विषय नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा छे. अतीन्द्रिय आनंदनो भोगवटो भले पर्यायमां थाय. पण ते पर्याय द्रष्टिनो विषय नथी. द्रष्टिनो विषय तो अविकारी रसनो कंद चैतन्यमूर्ति नित्यानंद चिदानंदकंद प्रभु आत्मा छे, अने तेना सर्वस्वने भोगवनार ज्ञानी छे, केमके वस्तु तो अंदर परिपूर्ण छे. ज्ञानी शरीरने भोगवतो नथी, रागने भोगवतो नथी अने अल्पज्ञताने पण भोगवतो नथी. एनी द्रष्टि पूर्ण पर छे ने ते पूर्णने भोगवे छे. अहा! भोगवाय छे अल्पज्ञमां (पर्यायमां), पण भोगवे छे सर्वस्वने-पूर्णने. आवो मारग भाई! जन्म-मरण रहित थवानो पंथ आवो अद्भुत आश्चर्यकारी छे.

हवे कहे छे-‘पूर्वोपात्तं’ परंतु जे कर्म पूर्वे बंधायुं हतुं ‘तद्–अनुभवतः’ तेना उदयने भोगवतां तेने ‘निश्चितं’ नियमथी ‘निर्जरा एव’ ते कर्मनी निर्जरा ज थाय छे.

‘उदयने भोगवतां’ एम कह्युं ने? मतलब के उदयमां जरी लक्ष जाय छे पण ते खरी जाय छे, बंध पमाडतुं नथी. अहा! ‘धिंग धणी माथे क्यिो...’ पछी शुं छे? अर्थात् चैतन्यमहाप्रभु-पूर्ण सत्तानुं सत्त्व-जेणे द्रष्टिमां लीधुं, अनुभवमां लीधुं तेने नवां कर्मबंधन थाय नहि अने जूनां कर्म होय ते खरी जाय छे. ल्यो, आवी वात!

प्रश्नः– फळ आप्या विना खरी जाय? उत्तरः– हा, ते फळ आप्या विना खरी जाय छे. उदय छे ते निर्जरा थई जाय छे. अने कर्म तो शुं छे? ए तो जड छे; पण पर्यायमां जे दुःखनुं फळ आवतुं हतुं ते, आनंद तरफनो आश्रय छे तेथी, आवतुं नथी. अहा! आवो मारग बापा! ८४ ना जन्मसमुद्रमांथी तरवानो उपाय आ एक ज छे. एना विना तो ८४ना चक्रावाना दुःख ज छे.

* कळश १६१ः भावार्थ *

‘सम्यग्द्रष्टि पूर्वे बंधायेली भय आदि प्रकृतिओना उदयने भोगवे छे तोपण निःशंक्ति आदि गुणो वर्तता होवाथी तेने शंकादिकृत (शंकादिना निमित्ते थतो) बंध थतो नथी परंतु पूर्वकर्मनी निर्जरा ज थाय छे.’ अहीं ‘गुण’ शब्दे पर्याय छे एम समजवुं.

[प्रवचन नं. २९८ थी ३०२ (चालु) *दिनांक २१-१-७७ थी २प-१-७७]

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गाथा–२२९
जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे।
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २२९।।
यश्चतुरोऽपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबन्धमोहकरान्।
स निश्शङ्कश्चेतयिता सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २२९।।

हवे आ कथनने गाथाओ द्वारा कहे छे, तेमां प्रथम निःशंकित अंगनी (अथवा निःशंकित गुणनी-चिह्ननी) गाथा कहे छेः-

जे कर्मबंधनमोहकर्ता पाद चारे छेदतो,
चिन्मूर्ति ते शंकारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २२९.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे *चेतयिता, [कर्मबन्धमोहकरान्] कर्मबंध संबंधी मोह करनारा (अर्थात् जीव निश्चयथी कर्म वडे बंधायो छे एवो भ्रम करनारा) [तान् चतुरः अपि पादान्] मिथ्यात्वादि भावोरूप चारे पायाने [छिनत्ति] छेदे छे, [सः] ते [निश्शङ्कः] निःशंक [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एवा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे कर्मबंध संबंधी शंका करनार (अर्थात् जीव निश्चयथी कर्म वडे बंधायो छे एवो संदेह अथवा भय करनारा) मिथ्यात्वादि भावोनो (तेने) अभाव होवाथी, निःशंक छे तेथी तेने शंकाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टिने जे कर्मनो उदय आवे छे तेनो ते, स्वामित्वना अभावने लीधे, कर्ता थतो नथी. माटे भयप्रकृतिनो उदय आवतां छतां पण सम्यग्द्रष्टि जीव निःशंक रहे छे, स्वरूपथी च्युत थतो नथी. आम होवाथी तेने शंकाकृत बंध थतो नथी, कर्म रस आपीने खरी जाय छे.

समयसार गाथा २२९ः मथाळु

हवे आ कथनने गाथाओ द्वारा कहे छे. तेमां प्रथम निःशंकित अंगनी (अथवा निःशंकित गुणनी-चिन्हनी) गाथा कहे छेः-

* गाथा २२९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एवा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे....’ _________________________________________________________________

* चेतयिता = चेतनार; जाणनार-देखनार; आत्मा.


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अहा! सत्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि छे. भगवान आत्मा त्रिकाळी परिपूर्ण सत् छे. अहाहा...! अनंतगुणनो पिंड चैतन्यरसकंद प्रभु आत्मा त्रिकाळी सत्नुं पूरण सत्त्व छे. अहा! तेनी जेने द्रष्टि थई छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.

अहाहा...! कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एवा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’ अहा! गजब वात छे! रागेय नहि. एक समयनी पर्याय जेटलोय नहि तथा गुणभेदपणेय नहि, परंतु भगवान आत्मा एक ‘ज्ञायकभावमय’ छे; ‘ज्ञायकभाववाळो’ एमेय नहि, अहाहा...! अनंतगुणरसस्वरूप एक ‘ज्ञायकभावमय’ प्रभु आत्मा छे. अहा! सम्यग्द्रष्टिने आवो अभेद एक ज्ञायकभावमय आत्मा छे अर्थात् सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि एक ज्ञायकभावमय आत्मा उपर छे.

अहा! ‘सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एवा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे कर्मबंध संबंधी शंका करनारा (अर्थात् जीव निश्चयथी कर्म वडे बंधायो छे एवो संदेह अथवा भय करनारा) मिथ्यात्वादि भावोनो (तेने) अभाव होवाथी निःशंक छे.’

शुं कह्युं? कर्मथी बंधायेलो छुं एवो जेने संदेह नथी अर्थात् निश्चयथी बंधायो ज नथी एम जेने निश्चय छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. अहा! आ वस्तुस्वरूप छे. ज्यारे बंधायेलो छुं एवो संदेह ते मिथ्यात्वभाव छे. अहा! रागथी के कर्मथी बंधायेलो नथी एवो हुं अबद्ध-स्पृष्ट आत्मा छुं एम ज्ञानी पोताने जाणे छे, अनुभवे छे. पण कर्मबंध संबंधी जे संदेह छे के हुं रागथी बंधायेलो छुं ए मिथ्यात्वभाव छे. अरे भाई! अबद्ध-स्पृष्ट प्रभु आत्मा ते रागना संबंधमां बंधाय केम? जो परद्रव्यनो संबंध करे तो बंधाय, पण वस्तु-स्वद्रव्य तो परद्रव्यना संबंध विनानी छे.

अहा! कहे छे-‘कर्मबंध संबंधी शंका करनारा मिथ्यात्वादि भावोनो...’ अहा! भाषा तो देखो! हुं कर्मथी बंधायेलो छुं एम मानवुं ए संदेह छे, अने ए मिथ्यात्व छे. हुं तो कर्म ने रागना संबंधथी रहित अबद्ध-मुक्तस्वरूप ज छुं एम मानवुं ने अनुभववुं ते सम्यग्दर्शन छे. बीजी रीते कहीए तो मारुं स्वद्रव्य कर्मना संबंधमां छे एवो संदेह ज्ञानीने छे नहि केमके स्वद्रव्य जे एक ज्ञायकभाव तेमां बीजी चीज-कर्म के राग छे नहि; एक ज्ञायकभाव पोते सदा परना संबंधथी रहित ज छे. ल्यो, आवी वात!

ए तो श्रीमद् राजचंद्रजीए न कह्युं? शुं? के दिगंबरना आचार्योए एम स्वीकार्युं छे के-आत्मानो मोक्ष थतो नथी, पण मोक्ष समजाय छे. शुं कह्युं ए? के राग साथे संबंध छे एवी जे (मिथ्या) मान्यता हती ते जूठी छे एवुं भान थतां आत्मा मोक्षस्वरूप ज छे एम समजाय छे. अहाहा...! आत्मा अंदर पूर्णानंदनो


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नाथ शुद्ध चैतन्यघन प्रभु मुक्तस्वरूप ज छे, अबद्धस्वरूप ज छे. १४-१पमी गाथामां आव्युं ने के-‘जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं...’; भाई! आत्मा रागना बंध विनानो अबद्ध-स्पृष्ट-मुक्तस्वरूप ज छे. पण हुं रागना संबंधवाळो छुं एवो एनी मान्यतामां संदेह हतो ते दूर थतां पोते मोक्षस्वरूप ज छे एम जणाय छे. संदेह दूर थतां (अभिप्रायमां) एनो मोक्ष थई गयो.

कहे छे-जीव निश्चयथी कर्म वडे बंधायो छे अर्थात् खरेखर मने कर्मनो संबंध छे-एवो संदेह वा शंका ते मिथ्यात्वभाव छे. ज्ञानीने आवो संदेह होतो नथी. अहा! बंधना संबंधरहित अबंधस्वरूप चिन्मात्र वस्तुने जे देखे छे तेने बंधनी शंका होती नथी. पर्यायमां रागनो ने नैमित्तिकभावनो संबंध छे परंतु ए तो पर्यायबुद्धिमां (पर्यायनी द्रष्टिमां) छे. द्रव्यद्रष्टिए तो पूर्णानंदनो नाथ चिन्मूर्ति प्रभु आत्मा अबद्ध ज छे अने आवा अबद्धनो निःसंदेह अनुभव थतां तेने बद्धनां (बद्ध होवानां) संदेह-शंका-भय होतां नथी.

अरे भाई! ‘एक द्रव्य बीजा द्रव्य साथे संबंधमां छे’-एनो अर्थ शुं? अनंतगुणमय प्रभु आत्माने रागनो ने कर्मनो संबंध छे-एनो अर्थ शुं? अहा! ए तो मिथ्या भ्रम छे. अहीं तो आ कह्युं ने? के-‘एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे...’ अरे भाई! आत्मा एक ज्ञायकभावमय ज छे; रागमय के कर्ममय छे ज नहि; रागवाळो के कर्मवाळो के पर्यायवाळो आत्मा (शुद्ध द्रव्य) छे ज नहि. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– तादात्म्य संबंध न माने पण संयोग संबंध तो छे ने? समाधानः– अरे भाई! संयोग संबंधनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ज ए छे के ए संयोगी पदार्थ-कर्म के राग-भगवान ज्ञायकस्वरूप-आनंदस्वरूप आत्मामां छे ज नहि. अहा! आनंदस्वरूप भगवान आत्मा आनंदनी शक्तिथी भरपूर सत्त्वमय तत्त्व छे. ए तो अहीं ज्ञानथी (ज्ञाननी प्रधानताथी) लीधुं छे तेथी ‘ज्ञायकभावमयपणाने लीधे’ एम कह्युं छे. बाकी आनंदथी जुओ तो आत्मा एक आनंदमयभाव छे. तेने रागनो के कर्मनो संबंध छे एवी ज्ञानीने-अतीन्द्रिय आनंदना भोगवनारने-शंका नथी एम कहे छे.

अहा! पूर्णानंदनो नाथ नित्यानंद सच्चिदानंद प्रभु आत्मा अभेद एक आनंदमयभाव छे, एक ज्ञायकमयभाव छे, एक प्रभुतामयभाव छे. अनंतगुणनो एक पिंड छे ने? तेथी अनंतगुणस्वरूप प्रभु आत्मा एक ज्ञायकमयभाव छे. अहा! आवा निजस्वरूपनो अनुभव करनार ज्ञानीने, हुं रागना संबंधवाळो, विभावना संबंधवाळो छुं-एवी


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शंका होती नथी. आवो धर्म ने आवा धर्मात्मा! बापु! जेना फळमां अनंत अनंत आनंद प्रगटे तेवो उपाय पण आवो अलौकिक ज होय ने! अहो! गाथा कोई अलौकिक छे.

अहा! सम्यग्द्रष्टिने एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे कर्मबंध संबंधी शंका अथवा भय करनारा मिथ्यात्वादि भावोनो अभाव छे. जुओ, शुं कह्युं आमां? आ कर्मबंध संबंधी शंका करनारा भावो कोण छे? तो कहे छे-मिथ्यात्वादि भावो छे. कर्मबंध संबंधी शंका करनार मिथ्यात्वादि भावो छे-एम कहे छे. अहा! मिथ्यात्वने लईने संदेह पडे छे के-हुं बंधमां छुं, मने कर्मबंध छे.

अहीं मिथ्यात्वादिमां आदि एटले शुं?

आदि एटले अविरति, कषाय ने योग-बधा परिणाम. तेमां मूळ मिथ्यात्व छे. मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी कषाय इत्यादि बधा साथे भेगा ज छे ने?

प्रश्नः– तो शुं मिथ्यात्वादि चारेयनो (समकितीने) अभाव छे?

समाधानः– हा, चारेयनो अभाव छे. मूळ पाठमां छे, जुओने! छे ने पाठ? के- ‘जो चत्तारि वि पाए छिंददि’ मिथ्यात्वादि चारेय पादने जे छेदे छे-ते निःशंक्ति सम्यग्द्रष्टि छे. भाई! तेमां खूबी तो आ छे के एक ज्ञायकभावमयपणानी द्रष्टिमां, रागनो संबंध छे ने कर्मनो संबंध छे एवी शंका करनारा मिथ्यात्वभावनो अभाव छे. छे ने अंदर? भाषा शुं छे? जुओने? के-‘कर्मबंध संबंधी शंका करनारा’ -कोण? के ‘मिथ्यात्वादि भावो’-विपरीत मान्यता आदि. अहा! ज्ञानीने तेनो अभाव छे. विपरीत मान्यता छे ते कर्मना संबंधनी शंका करे छे, ज्यारे अविपरीत (यथार्थ) मान्यता अबंधपणाने मुक्तस्वभावने स्वीकारे छे.

प्रश्नः– चारेयनो अभाव कह्यो छे ते द्रव्यमां के पर्यायमां?

समाधानः– पर्यायमां अभाव छे. ए संदेहादिनो अभाव कह्यो ने? मिथ्यात्व, अविरति, कषाय ने योग ए चारेयनो ज्ञानीने अभाव छे, केमके ते एकेय वस्तुमां- पूर्णानंदस्वरूप मुक्तस्वरूप प्रभु आत्मामां कयां छे? नथी; तो आत्मद्रष्टिमां पण नथी. शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टिमां मिथ्यात्वादि चारेय नथी. भारे सूक्ष्म वात! बापा! आ तो केवळीनां पेट आचार्य भगवान खोले छे. आ पहेली निःशंकितनी गाथा बहु ऊंची छे भाई! हुं एक ध्रुव चैतन्यस्वरूप अबद्ध-स्पृष्ट-मुक्तस्वरूप ज छुं एवुं ज्यां भान थयुं त्यां ‘बंधायेलो छुं’-एवी शंका उत्पन्न करनारा मिथ्यात्वादिभावोनो अभाव थई जाय छे. अहो! सम्यग्दर्शन कोई अद्भुत अपूर्व चीज छे!

शुं कहे छे? जुओने! के ‘कर्मबंध संबंधी शंका करनारा मिथ्यात्वादि


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भावो...’ -एम छे के नहि? अहा! एकलो ज्ञायकभावमय-आनंदभावमय प्रभु आत्मा छे. अहाहा...! पर्याय विनानी पोतानी चीज ज आखी एक आनंदमय अने ज्ञानमय छे. अहा! आवा निजभावनो स्वामी धर्मात्माने कर्मबंध संबंधी संदेह करनारा मिथ्यात्वादि भावोनो अभाव छे. अहो! अजब वात छे!

प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टिने सिद्धदशा तो छे नहि? (एम के सिद्धदशा नथी तोय चारेयनो अभाव केवी रीते छे?).

समाधानः– भाई! सिद्धदशा ज छे सांभळने! तेने आत्मा मुक्त ज छे; अहाहा...! द्रष्टिमां ने ज्ञानमां सम्यग्द्रष्टिने ते मुक्तस्वरूप ज जणायो छे एम वात छे. अहा! मुक्त छे तेनो आश्रय थतां पर्यायमां पण मुक्तपणुं आव्युं छे, पण बंधपणुं आव्युं नथी. अहा! ‘चत्तारि वि पाए छिंददि’–आ पाठ छे ने? तो ज्ञानीनी द्रष्टिमां ए मिथ्यात्वादि चारेयनो अभाव छे.

‘चत्तारि वि पाए छिंददि’–एम कहीने चारेयनी हयातीनो सम्यक् नाम सत्यद्रष्टिमां अभाव छे एम कहे छे. अहाहा...! जेणे शुद्ध एक चैतन्यधातुने धारी राख्युं छे एवा शुद्ध चैतन्यधातुमय भगवान आत्मानो ज्यां सम्यक् नाम सत्- द्रष्टिमां स्वीकार थयो छे अर्थात् आवुं जे ध्रुव पूरण सत्-अबद्धस्वरूप सत्, ज्ञायकभावमय सत्, आनंदभावमय सत्- छे एनो ज्यां द्रष्टिमां स्वीकार थयो छे त्यां हवे समकितीने ‘राग ने कर्मना संबंधमां हुं छुं’-एवो संदेह करनारा मिथ्यात्वादि जे भावो छे तेनो अभाव छे एम कहे छे. झीणी वात छे भाई! (एम के उपयोगने झीणो-सूक्ष्म करवो जोईए).

कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि,............ मिथ्यात्वादि भावोनो (तेने) अभाव होवाथी, निःशंक छे तेथी तेने शंकाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.’

अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि निःशंक केम छे? अने तेने बंधन केम नथी? केमके तेणे एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे कर्मना संबंधमां हुं छुं एवी शंका करनारा मिथ्यात्वादि भावोने छेदी नाख्या छे. तेथी ते निःशंक छे अने तेथी तेने शंकाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे. अर्थात् कर्म आवीने-देखाव करीने-निर्जरी जाय छे. आवो धर्म, ल्यो!

त्यारे कोई वळी विवाद ऊभा करे छे के-व्यवहारथी (निश्चय) थाय ने निमित्तथी पण कार्य थाय.

अरे प्रभु! वस्तु आत्मा पूर्ण चैतन्यरूप शुद्ध वीतरागस्वरूप छे. तेने शुं व्यवहारथी-रागथी वीतरागद्रष्टि थाय? वीतरागद्रष्टिनो विषय तो पोतानी परिपूर्ण


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वस्तु छे भाई! रागेय नहि ने निमित्तेय नहि. तो रागथी ने निमित्तथी शुं थाय? कांई न थाय. (रागनी ने निमित्तनी द्रष्टिवाळाने तो चतुर्गतिरूप संसार फळे).

प्रश्नः– ‘छिंददि’–छेदे छे एनो अर्थ शुं?

समाधानः– छेदे छे एटले आखा छेदी नाखे छे. अबंधस्वभावनी द्रष्टिमां बंधना भावने छेदी नाखे छे, बधुं छेदी नाखे छे. अहा! परिपूर्ण ज्ञायकस्वभावी नित्यानंद प्रभु हुं ध्रुव छुं एवा सत्नी द्रष्टिना बळे समकिती ‘हुं कर्मथी बंधायेलो छुं’-एवी शंका उत्पन्न करनारा मिथ्यात्वादि भावोने छेदी नाखे छे. बापु! आवी वात तो बीजे कयांय छे नहि. आ निःशंकितमां तो गजबनी वात करी छे.

प्रश्नः– मिथ्यात्वसंबंधी भावनो अभाव छे के बधा (चारेय) भावोनो?

समाधानः– बधायनो; ते बधायनो अभाव छे. स्वभावमां-एक ज्ञायकभावमां तेओ कयां छे? नथी. तो शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी पूर्ण प्रभु आत्मानो जेमां स्वीकार थयो तेमां ते चारेय छे ज नहि. अहा! बहु सरस गाथा छे! शुं कह्युं? के पर्यायनो ने रागनो ने अपूर्णतानो ने निमित्तनो ज्यांसुधी स्वीकार हतो त्यांसुधी ते पर्यायद्रष्टि मिथ्याद्रष्टि हतो, अपूर्णद्रष्टि हतो. पोतानुं पूर्ण तत्त्व द्रष्टिमां आव्युं नहोतुं तेथी ते अपूर्णद्रष्टि हतो. पर्यायद्रष्टि कहो के मिथ्याद्रष्टि कहो के अपूर्णद्रष्टि कहो-बधुं एक ज छे. पण ज्यां पोताना त्रिकाळी पूर्ण सत्नुं सत्त्व एवा एक चैतन्यभाव- ज्ञायकमात्रभावनी द्रष्टि थई त्यां तेने ‘हुं कर्मना संबंधवाळो छुं’-एवा मिथ्याभावनो अभाव थाय छे अने त्यारे स्वरूपमां शंका उत्पन्न करनारा चारेय भावनो द्रष्टिमां अभाव थई जाय छे. सूक्ष्म तत्त्व छे भाई! भाग्यशाळी होय तो कानेय पडे एवी वात छे. भाई! आ अबजो पैसा मळे ते भाग्यशाळी एम नथी; वास्तवमां तो ए बधा भांगशाळी छे. (भांग मतलब नशो, एटले के तेओ मोहना नशावाळा छे). (आ तो आवा निर्भेळ तत्त्वनी वात सांभळवा ने समजवा मळे ते भाग्यशाळी छे एम वात छे).

अहा! लोकोने सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एनी खबर नथी. आ तो बे-पांच दुकान छोडे ने आ छोडे ने ते छोडे-एम बाह्य त्याग करे एटले ओहोहोहो... केटलोय त्याग कर्यो एम थई जाय. पण भाई! मूळ अंदर मिथ्यात्वनुं शल्य छे ए तो ऊभुं छे. परने पोताना मानवारूप, रागने भलो मानवारूप अने अल्पज्ञने पूर्ण मानवारूप आदि-जे मिथ्यात्वभाव छे तेनो त्याग तो कर्यो नहि; तो शुं त्याग्युं? कांई नहि; एक आत्मा त्याग्यो छे. गंभीर वात छे प्रभु! अहीं कहे छे- पोतानी अल्पज्ञ पर्यायमां जेने परिपूर्ण सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मानो स्वीकार


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आव्यो तेने ए स्वीकारवामां मिथ्यात्वादि बधायनो त्याग थई जाय छे. समजाणुं कांई...?

अहा! वस्तु आत्मा अनंत गुणनो पिंड प्रभु पूरण सत् छे; अने ते शाश्वत छे. अहा! आवा शाश्वत् सत्नी स्वीकारवाळी द्रष्टि थतां मिथ्यात्वनो अभाव थई जाय छे, शंका-भय आदिनो अभाव थई जाय छे. अहा! ज्यां पोताना त्रिकाळी मुक्तस्वरूपने प्रतीतिमां लीधुं त्यां ‘मने कर्मबंध छे’-एवी शंकानो अभाव थई जाय छे तेथी ज्ञानी निःशंक छे. अने निःशंकपणे वर्तता तेने कदाचित् पूर्व कर्मनो उदय होय तोपण ते खरी जाय छे, निर्जरी जाय छे. अहा! निजानंदस्वरूपमां लीन एवा ज्ञानीने इन्द्रनां इन्द्रासन पण थोथां छे अर्थात् कांई नथी. तेथी कहे छे-ज्ञानीने बंध नथी, निर्जरा ज छे.

अरे भाई! दुनिया आखी भूली जा ने! अने पर्यायने पण भूली जा ने! तारे ए बधाथी शुं काम छे? पर्याय भले द्रव्यने स्वीकारे छे, पण हुं पर्यायमां छुं-एम भूली जा. अहा! आ देह तो नाशवंत छे; एनो तो क्षणमां नाश थई जाय बापा! जेम पाणीना परपोटा फूटतां वार लागे नहि तेम आ देहादि परपोटाने फूटतां शुं वार? अविनाशी तो अंदर त्रणलोकनो नाथ आनंदरसकंद प्रभु आत्मा छे. तेने पोताना भावमां भासित करवो ते सम्यग्दर्शन छे अने ते प्रथम दरज्जानो धर्म छे. बाकी आ स्त्री-पुत्र परिवार ने बागबंगला ए तो बधां स्मशाननां हाडकांना फोस्फरसनी चमक जेवां छे, जोतजोतामां विलय पामी जशे. समजाणुं कांई...?

* गाथा २२९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्द्रष्टिने जे कर्मनो उदय आवे छे तेनो ते, स्वामित्वना अभावने लीधे, कर्ता थतो नथी.’

अहा! शुं कहे छे? के स्वरूपनो जे स्वामी थयो छे ते सम्यग्द्रष्टिने कर्मना उदयना स्वामीपणानो अभाव छे अने तेथी ते कर्ता थतो नथी. जोयुं? जे रागादि थाय छे तेनो ते रचनारो-करनारो थतो नथी, पण तेनो जाणनारो रहे छे. पोते ज्ञायकस्वरूप छे ने? तेथी स्व ने परना प्रकाशक ज्ञानमां ते जाणनारो रहे छे. हवे कहे छे-

‘माटे भयप्रकृतिनो उदय आवतां छतां पण सम्यग्द्रष्टि जीव निःशंक रहे छे, स्वरूपथी च्युत थतो नथी.’

अहा! सम्यग्द्रष्टि जीव भयप्रकृतिना उदयमां पोताना ज्ञानानंदस्वरूपथी च्युत थतो नथी. अस्थिरतानो किंचित् भय आवे तो तेनो ते जाणनार रहे छे.


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‘आम होवाथी तेने शंकाकृत बंध थतो नथी, कर्म रस आपीने खरी जाय छे.’ शंकानी व्याख्या नियमसारमां करी छे ने? त्यां आप्तनी व्याख्या करतां कह्युं छे के-‘आप्त एटले शंका रहित. शंका एटले सकळ मोहरागद्वेषादिक (दोषो).’ शंकानी आ व्याख्या करी छे. अहा! भगवान आप्त-परमेश्वर शंकारहित एटले के सकळ मोहराग- द्वेषादि रहित होय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी शंकारहित निःशंक छे. द्रष्टि निःशंक छे ने! तेथी तेने शंका करनारा मोहादि भावोनो अभाव छे. माटे शंकाकृत बंध तेने नथी, परंतु निर्जरा ज छे; कर्म उदयमां आवीने-देखाव दईने -खरी जाय छे. अहा! कर्म प्रगट थईने चाल्युं जाय छे, खलास थई जाय छे. ल्यो, आवी वात छे. आ पहेली गाथा (निःशंक्ति गुणनी) पूरी थई.

[प्रवचन नं. ३०२ (शेष)*दिनांक २प-१-७७]
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गाथा–२३०
जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु।
सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३०।।
यस्तु न करोति कांक्षां कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु।
स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः।। २३०।।
जे कर्मफळ ने सर्व धर्म तणी न कांक्षा राखतो,
चिन्मूर्ति ते कांक्षारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २३०.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे चेतयिता [कर्मफलेषु] कर्मोनां फळो प्रत्ये [तथा] तथा [सर्वधर्मेषु] सर्व धर्मो प्रत्ये [कांक्षां] कांक्षा [न तु करोति] करतो नथी [सः] ते [निष्कांक्षः सम्यग्द्रष्टिः] निष्कांक्ष सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधांय कर्मफळो प्रत्ये तथा बधा वस्तुधर्मो प्रत्ये कांक्षानो (तेने) अभाव होवाथी, निष्कांक्ष (निर्वांछक) छे, तेथी तेने कांक्षाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टिने समस्त कर्मनां फळोनी वांछा नथी; वळी तेने सर्व धर्मोनी वांछा नथी, एटले के कनकपणुं, पाषाणपणुं वगेरे तेम ज निंदा, प्रशंसा आदिनां वचन वगेरे वस्तुधर्मोनी अर्थात् पुद्गलस्वभावोनी तेने वांछा नथी-तेमना प्रत्ये समभाव छे, अथवा तो अन्यमतीओए मानेला अनेक प्रकारना सर्वथा एकांतपक्षी व्यवहारधर्मोनी तेने वांछा नथी-ते धर्मोनो आदर नथी. आ रीते सम्यग्द्रष्टि वांछारहित होवाथी तेने वांछाथी थतो बंध नथी. वर्तमान पीडा सही शकाती नथी तेथी तेने मटाडवाना इलाजनी वांछा सम्यग्द्रष्टिने चारित्रमोहना उदयने लीधे होय छे, परंतु ते वांछानो कर्ता पोते थतो नथी, कर्मनो उदय जाणी तेनो ज्ञाता ज रहे छे; माटे वांछाकृत बंध तेने नथी.

*
समयसार गाथा २३०ः मथाळु

हवे निःकांक्षित गुणनी गाथा कहे छेः-