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आत्मामां कयां छे? मारो तो अनंतगुणसमाजस्वरूप सदा एकरूप चैतन्यरूप प्रभु आत्मा ज छे. अहा! आवुं जाणता-अनुभवता ज्ञानीने आ लोकनो ने परलोकनो भय केम होय? कदी न होय. ‘ते तो पोताने स्वाभाविक ज्ञानरूप ज अनुभवे छे.’ अहाहा...! हुं ज्ञानरूप ज छुं एम ते अनुभवे छे अने आनुं नाम धर्म छे. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदरसनो रसियो धर्मी हुं एक ज्ञान ने आनंदस्वरूप आत्मा ज छुं एम निरंतर अनुभवे छे अने तेथी तेने आ लोक के परलोक संबंधी कोई भय होतो नथी. समजाणुं कांई...?
(अर्थात् वेद्य अने वेदक अभेद ज होय छे एवी वस्तुस्थितिना बळथी)...........
जुओ, २१६ गाथामां जे वेद्य-वेदक आव्युं हतुं ते बीजुं छे (अने आ बीजुं छे). त्यां (गाथा २१६मां) वर्तमान जे इच्छा थाय के ‘हुं आ पदार्थने भोगवुं’ ते इच्छाने वेद्य कह्युं. हवे ते इच्छा टाणे ते वस्तु-भोगववानी वस्तु होती नथी अने ते वस्तु ज्यारे आवे-भोगववानो काळ आवे त्यारे-पेली इच्छा रहेती नथी. शुं कह्युं? के इच्छाना काळे-वेद्यकाळे कांक्षमाण जे वस्तु ते छे नहि, अने ते वस्तु ज्यारे आवे त्यारे भोगववाना काळे-वेदककाळे ओलो वेद्यभाव होतो नथी. वेद्य ने वेदकनो एक काळ होतो नथी केमके बेय विभाव छे. तो आवा विभावनी कांक्षा अने तेनुं वेदन ज्ञानी केम करे? न करे. ज्ञानीने तो पोतामां अभेद वेद्य-वेदक होय छे. अहा! छे ने अंदर? के अभेदस्वरूप वर्तता वेद्य-वेदकना बळथी...’ अहाहा...! वेदनारो हुं अने वेदवायोग्य पण हुं; वेद्य-वेदक बन्ने अभिन्न. आनंदनुं (वेदवायोग्य) वेदन हुं ने आनंदनी भावनावाळोय हुं; ल्यो, आवी वात! बिचारा व्यवहारवाळाने आ आकरुं पडे छे, पण शुं थाय? मारग ज आ छे.
एने एम के बहारमां आप कांईक करवानुं कहो तो? समाधानः– पण भाई! शुं करवुं छे तारे? बहारनुं शुं तुं करी शके छे? राग- विकल्पनो पण जे कर्ता थाय छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ एक ज्ञानानंदस्वरूप छे. अहाहा...! अनंतगुणनो पवित्र पिंड प्रभु आत्मा परमात्मा छे. शुं तेनामां कोई विकार करवानो गुण छे के ते विकारने करे? अरे भाई! रागने करवो ने तेने वेदवो ते एना स्वरूपमां छे ज नहि. माटे धर्मीने तो नित्य आनंदनी भावना ने आनंदनुं ज वेदन होय छे, समजाणुं कांई...?
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त्यारे वळी ते कहे छे-पण एनुं कांई साधन तो हशे ने? समाधानः– हा, साधन छे; रागथी भिन्न पडीने अंदर निराकुळ आनंदनो अनुभव कर्यो ते साधन छे. ‘प्रज्ञाछीणी’ साधन छे. ‘प्रज्ञाछीणी’ ए शब्द छे. (तेनुं वाच्य आ छे के) रागथी भिन्न पडीने आत्माने अनुभववो एनुं नाम प्रज्ञाछीणी छे, अने ए ज साधन छे. पण ए सिवाय बीजा कोई क्रियाकांड साधन नथी.
अहीं कहे छे-‘अभेदस्वरूप वर्तता वेद्य-वेदकना बळथी...’ भाषा जुओ! के भेदरहित अभेद वेद्य-वेदक ज्ञानीने होय छे एम कहे छे. २१६ गाथामां जे वेद्य-वेदक कह्युं ए तो विभावनुं वेध-वेदक हतुं. विभावनुं वेद्य-वेदक ज्ञानीने नथी. ज्ञानीने तो भगवान आत्मानो आनंद वेदवाने लायक अने पोते आनंदनुं वेदन करनारो-एम अभेद वेद्य-वेदक छे. ‘उदित’ एटले आनंदनी जे प्रगट दशा तेने पोते ज वेदे छे, वेदवालायक पोते ने वेदनारो पण पोते ज छे. एक समयनी पर्यायमां ज्ञानीनुं वेद्य- वेदक छे, आवी वात छे.
प्रश्नः– द्रव्य वेदक ने पर्याय वेद्य एम छे के नहि? समाधानः– ना, एम नथी. पर्यायमां ज वेद्य-वेदक छे. वेदावानी लायकात (वेदावायोग्य) ज्ञान-आनंदनी पर्याय छे ने वेदनार पण ते पर्याय ज छे. द्रव्य तो द्रव्य छे; द्रव्यने कयां वेदवुं छे? ने द्रव्यने कयां वेदावुं छे? प्रवचनसारनी १७२ मी गाथाना अलिंगग्रहणना २० मा बोलमां कह्युं छे के-प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे सामान्यद्रव्य-भगवान आत्मा-तेने आत्मा वेदतो नथी; आत्मा तो पोतानी जे शुद्ध पर्याय छे तेने वेदे छे. माटे शुद्ध पर्याय छे ते आत्मा छे एम त्यां कह्युं छे. भले द्रष्टि द्रव्य उपर छे पण वेदन तो पर्यायमां छे. आत्मा वेदे छे एटले के पर्याय वेदे छे-एम अर्थ छे. आत्मा द्रव्यने वेदे छे कयां? आत्मा (-पर्याय) द्रव्य-सामान्यने तो अडतोय नथी. भाई! जे वेदन छे ए तो पर्यायनुं वेदन छे.
त्यां (प्रवचनसार गाथा १७२ मां) अढारमां बोलमां एम कह्युं के- अर्थावबोधरूप एवो जे विशेष गुण तेने आत्मा अडतो नथी अर्थात् भेदने अडतो नथी. अने अर्थावबोधरूप विशेष-पर्यायने पण आत्मा अडतो नथी. (१९ मो बोल). बापु! एनी रमतु बधी द्रव्य ने पर्याय वच्चे छे, बहारमां कांई नथी. वीसमा बोलमां कह्युं के -प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे सामान्य तेने अडतो नथी एवो शुद्ध पर्याय ते आत्मा छे. एटले के शुद्ध पर्यायनुं जे वेदन थयुं ते हुं छुं, केमके मारा वेदनमां पर्याय आवी छे; वेदनमां द्रव्य आवतुं नथी. आ मारग बापु! बहु जुदो छे भाई! लोकोने
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ते मळ्यो नथी एटले विरोध लईने बेसी जाय छे पण नयविवक्षा समजे तो सर्व विरोध मटी जाय.
आत्मा (-पर्याय) शुद्ध पर्यायने वेदे छे. द्रव्य-गुणने शुं वेदे? केमके द्रव्य-गुण तो सामान्य, ध्रुव अक्रिय छे. तेथी तो कह्युं के जे सामान्यने स्पर्शतो नथी एवो शुद्धपर्याय ते आत्मा छे. अहीं तो जे वेदनमां आव्यो ते (शुद्धपर्याय) मारो आत्मा छे एम कहे छे. झीणी वात बापु! एना जन्म-मरणना अंतना मारग बहु जुदा छे भाई! अहा! तुं कोण छो ने केवो छो भाई? तुं जेवो छो तेवो तें तने जाण्यो नथी अने बहारनी बधी मांडी छे, पण एथी शुं?
समकितीनी अभेद एक चैतन्यरूप आत्मा उपर द्रष्टि होवाथी तेनी पर्यायमां अभेदपणे वेद्य-वेदक वर्ते छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूपना लक्षे तेने जे निर्मळ निराकुळ आनंदनी दशा प्रगटी तेने वेदनारो य (पर्याय) पोते ने वेदनमां आवनारी पर्याय पण पोते; आवुं झीणुं, अहीं कहे छे-वेद्य-वेदक अभेद होय छे एवी वस्तुस्थितिना बळथी... , एटले शुं? के जे व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प छे एना बळथी नहि पण अभेदपणे वर्तता वेद्य-वेदकना बळथी समकितीने एक ज्ञान ज अनुभवमां आवे छे.
त्यारे कोई कहे छे-व्यवहारधर्मनो आप लोप करो छो. तेने कहीए छीए-वात साची छे, बापा! ए तारी वात साची छे, केमके वस्तुमां व्यवहार छे कयां? अहा! (वस्तुमां) बधा पराश्रयी व्यवहारनो निषेध छे. अहीं तो एम कहेवुं छे के-जे व्यवहारनो विकल्प छे ते वेद्य-वेदकमां आवतो नथी अने तेने (- व्यवहारने) लईने वेद्य-वेदकनो अनुभव छे एम नथी. अहा! निर्मळानंदनो नाथ अभेद एक सच्चिदानंद प्रभु आत्मामां द्रष्टि अभेद थतां पर्यायमां निर्मळ आनंदनी दशा प्रगट थाय छे अने तेने वेद्य-वेदकपणे वेदे छे एनुं नाम धर्म छे. (व्यवहारधर्म तो वेद्य-वेदकथी कयांय भिन्न रही जाय छे). आवी वात छे!
त्यारे ते कहे छे-आ तो निश्चय-निश्चय-निश्चय छे? हा भाई! निश्चय छे; अने निश्चय एटले ज सत्य. भाई! तुं निश्चय कहीने तेनी ठेकडी न कर प्रभु! निश्चयथी दूर तारी एकांत मान्यता तने हेरान करशे भाई! एनुं फळ बहु आकरुं आवशे बापा! आत्मानी तो आ रीत छे भाई! के आत्मानो जे अभेदपणे अनुभव छे ते आत्मा छे. माटे एमां व्यवहारथी थाय एम रहेवा दे प्रभु! व्यवहार हो भले, पण एनाथी आत्मानुभव थाय ए वात जवा दे भाई! आ तारा हितनी वात छे प्रभु!
पण व्यवहार साधन कह्युं छे ने?
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समाधानः– धूळेय साधन नथी सांभळने. ए तो अंतरमां पोते स्वरूपनुं साधन प्रगट कर्युं छे तो जे राग छे तेने आरोप आपीने साधन कहेवामां आवे छे. ते कांई खरेखरुं साधन छे एम नथी. जुओ, सम्यक्त्वीने व्यवहार सम्यक्त्वमां निश्चय सम्यक्त्व गर्भित छे, निरंतर गमनरूप (परिणमनरूप) छे. (जुओ रहस्यपूर्ण चिट्ठी). पण ए व्यवहार समकित शुं छे? ए तो राग छे, चारित्रगुणनी उलटी पर्याय छे. छतां तेने व्यवहार समकित कहेवुं ए तो बापा! आरोपथी कथन करवानी शैली छे. तेम जे सत्यार्थ साधन नथी तेने साधन कहेवुं ते आरोप दईने कथन करवानी शैली छे. हवे आटले पहोंचे नहि, यथार्थ समजे नहि एटले लोको बहारथी विवाद ऊभा करे छे. पण शुं थाय भाई? अहा! आवां टाणां आव्यां ने यथार्थ समजण न करे तो कयारे करीश भाई? कयां जइश प्रभु! तुं? जवानुं तो वस्तुमां पोतामां छे. त्यां जा ने नाथ! रागमां ने बहारमां जवाथी तने शुं लाभ छे?
भाई! तुं अनंतकाळथी आकुळतानी चक्कीमां पीसाई रह्यो छे. अहा! आ शुभभाव ए पण आकुळता छे, दुःख छे हों. हवे ते दुःख आत्माना आनंदनुं कारण केम थाय? पण व्रतादिने मोक्षमार्ग कह्यो छे ने? भाई! ए तो जेने अंतरमां निर्मळरत्नत्रयरूप निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटयो छे तेने जे व्रतादिनो राग छे तेने व्यवहारथी मोक्षमार्ग (व्यवहार मोक्षमार्ग) कह्यो छे. पण ए तो आरोप दईने उपचार वडे कथन करवानी शैली छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां पंडित-प्रवर श्री टोडरमलजीए आनो स्पष्ट खुलासो कर्यो छे ने निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र आ लक्षण जाणवुं एम त्यां (सातमा अधिकारमां) कह्युं छे. अहा! टोडरमलजीए पण काम कर्युं छे ने! कोई अज्ञानीओ पंडिताईना मदमां आवीने तेमने मानता नथी अने आवी शुद्ध अध्यात्मनी वात करनाराओनी ठेकडी उडाडे छे, पण भाई! एथी तने कांई लाभ नथी बापा!
अहीं कहे छे-‘वस्तुस्थितिना बळथी’... , ए शुं कह्युं समजाणुं? के आनंदस्वरूप भगवान आत्मानी पर्यायमां आनंदनुं थवुं एटले के आनंदनी भावना अने आनंदनुं वेदन-बधुं एक साथे एक समयमां भेगुं छे. आ वस्तुस्थिति छे. आ तो अमृतचंद्राचार्य बापा! एक शब्द, एक पद लो तो तेमां केटकेटलुं भर्युं छे? ओहो! भगवान कुंदकुंदाचार्ये पंचम आरामां तीर्थंकर जेवुं काम कर्युं छे अने श्री अमृतचंद्रदेवे पंचम आरामां गणधर जेवुं काम कर्युं छे. अहा! वस्तुने सूर्यनी जेम आम स्पष्ट देखाय ए रीते मूकी छे, बापु! तुं आवो शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी छे ने नाथ! तुं देखनारने देख ने! अहा! देखाय छे जे बीजी चीज ए तो तारामां आवती नथी. देखनारो जेने देखे छे ते चीज तो देखवानी पर्यायमां आवती नथी. पण ज्यारे पर्याय देखनारने देखे छे त्यारे पर्यायमां देखनारनां ज्ञान-श्रद्धान प्रगट थाय छे, त्यारे अभेद वेद्य-वेदकपणुं प्रगट थाय छे अने ते धर्म छे. ल्यो, आवी वात!
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शुं कहे छे? के अभेदस्वरूप वर्तता वेद्य-वेदकना बळथी ‘यत् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकुलैः सदा वेद्यते’ एक अचळ ज्ञान ज स्वयं निराकुळ पुरुषो वडे (- ज्ञानीओ वडे) सदा वेदाय छे ‘एषा एका एव हि वेदना’ ते आ एक ज वेदना ज्ञानीओने छे.
जुओ, एक अचळ ज्ञान ज सदा वेदाय छे-एम कह्युं ने! त्यां अचळ तो त्रिकाळी छे. (ते कांई वेदातुं नथी. पण अचळ ज्ञान उपर द्रष्टि छे ने? माटे अचळ वेदाय छे एम कह्युं छे; बाकी वेदाय छे ए तो पर्याय छे. आ तो मंत्रो बापा! मोहनिद्रामांथी जगाडनारा आ महा मंत्रो छे. जाग रे जाग भाई! आवां टाणां आव्यां त्यारे सूवुं न पालवे नाथ! अहा! भगवान छो ने प्रभु! तुं? आ बहारनी- रागनी ने संयोगनी-धूळनी-महिमामां तुं भींसाई गयो ने प्रभु! त्यांथी हठी जा, ने आ अचळ एक ज्ञान ज तारुं स्वरूप छे तेनो अभेदपणे अनुभव कर.
अहीं कहे छे-‘एक अचळ ज्ञान ज स्वयं निराकुळ पुरुषो वडे...’ जोयुं? ज्ञान ने आनंद-बेय नाख्या. ‘एक अचळ ज्ञान ज’ अर्थात् राग नहि, पुण्य नहि ने विकल्प पण नहि पण एक ज्ञान ज वेदाय छे. वळी ‘स्वयं निराकुळ पुरुषो वडे’ एटले के जेमणे रागना अभावपूर्वक निराकुळ आनंदनो अनुभव कर्यो छे तेवा पुरुषो वडे ज्ञान ने आनंद ज वेदाय छे. भगवान आत्मा अचळ एक ज्ञानानंदनुं ध्रुव बिंब प्रभु छे. एनो जेने आश्रय वर्ते छे ते ज्ञानीओ निराकुळ पुरुषो छे अने तेओ वडे एक ज्ञान ज सदा वेदाय छे अर्थात् तेओने आत्मानां एक ज्ञान ने आनंदनुं ज वेदन होय छे.
‘एषा एका एव वेदना’ ते आ एक ज वेदना ज्ञानीओने छे. ‘एषा’–एम कह्युं ने? एटले आ प्रत्यक्ष जे आत्माना निराकुळ आनंदनुं वेदन छे ते एक ज वेदन ज्ञानीओने छे, पण रागनुं वेदन छे एम नहि. अहा! मारग बापु! वीतरागनो बहु झीणो छे. बहारनी प्रवृत्तिथी मळी जाय एवो आ मारग नथी, बहारनी प्रवृत्ति तो विभाव छे अने ते तेना (-जीवना) स्वभावमां नथी; पछी एनाथी स्वभावनी प्राप्ति केम थाय? अहा! आत्मा अनंतगुणनो पिंड प्रभु छे, पण तेमां एकेय गुण एवो नथी जे विकारने करे. पर्यायमां योग्यताने लईने विकार भले थाय, पण आत्मानो गुण- स्वभाव एवो नथी के विकारने करे ने विकारने वेदे. तेथी अभेदपणे वर्तता वेद्य-वेदकना बळथी ज्ञानीने एक ज्ञान ज वेदाय छे. आवी वात छे.
अहा! पर्याय तरीके आखो आत्मा पर्यायमां वेदाय छे, अने आ एक ज वेदना ज्ञानीने छे. मतलब के आ साता के असातानुं वेदन ज्ञानीने नथी एम कहे छे. पोते ज्ञान ज वेदावायोग्य अने पोते ज्ञान ज वेदनार एम कहे छे. आ बधी पर्यायनी वात छे हों. पर्यायमां पर्यायना षट्कारक छे ने! द्रव्य-गुणमां जेम ध्रुव षट्कारक छे
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तेम पर्यायमां कर्ता, कर्म, कारण आदि एक समयमां छये कारको छे. अहा! जैनदर्शन बहु सूक्ष्म छे बापा! जेने ते (स्वानुभवमां) प्राप्त थयुं तेने भव रहे नहि.
‘ज्ञानिनः अन्या आगत–वेदना एव हि न एव भवेत्’ ज्ञानीने बीजी कोई आवेली (-पुद्गलथी थयेली) वेदना होती ज नथी.
शुं कीधुं ए? के ज्ञानीने रागनुं वेदन होतुं नथी. केमके राग छे ए तो बहारनो आगंतुक भाव छे; मूळ भाव नथी, पण महेमाननी जेम आवेलो भाव छे. ‘आगत– वेदना’ कीधी छे ने? ज्ञानीने बीजी कोई आवेली-पुद्गलोथी थयेली-वेदना होती ज नथी. अहा! शुं कळश! ने शुं भाव!
प्रश्नः– तो शुं ज्ञानीने बहारना वेदननी पीडा न होय? उत्तरः– ना, न होय. ज्ञानीने बीजुं वेदन केवुं? अहीं तो एक मुख्य लेवुं छे ने? तो कह्युं के ज्ञानीने बीजी बहारनी आवेली वेदना नथी. ए तो स्वभावनी द्रष्टिमां जे रागनुं वेदन छे तेने गौण करीने कह्युं छे. बाकी द्रष्टिनी साथे जे ज्ञान विकस्युं छे ते जेटलो राग छे तेटलुं तेनुं वेदन छे एम यथार्थ जाणे छे. पण स्वभावनी द्रष्टिमां ते गौण छे. तो कह्युं के ज्ञानीने आगंतुक वेदना-बहारथी आवेली रागादिनी वेदना-होती नथी; एक ज्ञाननी-निराकुल आनंदनी ज वेदना तेने छे.
ज्ञानीने जे अस्थिरतानो राग आवे तेनो ते ज्ञाता ज छे; तेनो ते करनारो के वेदनारो नथी. झीणी वात छे प्रभु! अहाहा...! ‘हुं आनंद ज छुं’ एम ज्ञानी जाणे छे अने जे विकल्प आवे तेनो पण जाणनार ज छे. जुओ, शत्रुंजय पर धर्मराजा, भीम, अर्जुन, सहदेव ने नकुळ अंतर आनंदमां झूले छे. त्यारे तेमने शरीर उपर लोढानां धगधगतां मुगट आदि आभूषण पहेराव्यां. अहा! एवा काळे भगवाननी हयाती हती तेवा काळे-शत्रुंजय जेवा तीर्थ पर मुनिदशामां झूलता मुनिवरो उपर आवो उपसर्ग करनारा नीकळ्या! छतां मुनिवरो तो अंदर आनंदनी रमतुमां हता; तेमने असातानुं-खेदनुं वेदन न हतुं. त्यां सहदेव ने नकुळने विकल्प आव्यो के- अरे! महामुनिवरोने केम हशे? आ तो अस्थिरतानो विकल्प आव्यो पण तेना ते जाणनार ज हता, बाकी वेदन तो अंतरमां निर्मळ ज्ञानानंदनुं ज हतुं. ल्यो, आवी वात!
अहीं कहे छे-ज्ञानीने बीजी कोई आवेली-आगंतुक विभावनी-वेदना होती नथी, तेथी ‘तद्–भीः कुतः’ तेने वेदनानो भय कयांथी होय? ‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति’ ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे. जुओ, अहीं रागनुं वेदन गण्युं नथी. जोके तेने किंचित् रागनुं वेदन छे पण द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी मुख्यतामां रागनुं वेदन
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आगंतुक गणीने तेने छे नहि एम कह्युं छे. अहा! ज्ञानीने कोई बहारनी वेदनानो भय नथी केमके ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको एक स्वाभाविक ज्ञानने ज सदा अनुभवे छे.
‘सुख-दुःखने भोगववुं ते वेदना छे. ज्ञानीने पोताना एक ज्ञानमात्र स्वरूपनो ज भोगवटो छे.’
जुओ, शुं कह्युं? के धर्मीने पोताना एक ज्ञानमात्र स्वरूपनो ज, एक निज आनंदस्वरूपनो ज भोगवटो छे. व्यवहाररत्नत्रयना रागनो पण तेने भोगवटो नथी एम कहे छे; केमके ए तो तेनो (व्यवहाररत्नत्रयनो) ज्ञाता ज छे. ए तो बारमी गाथामां आव्युं ने के व्यवहार ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. व्यवहार होय छे तेने ज्ञानी जाणे ज छे बस एटलुं, पण वेदतो नथी. अहीं तो मुख्यनुं जोर छे ने? ज्ञानीने स्वभाव मुख्य छे अने स्वभावनी मुख्यतामां रागनी वेदनाने गौण करीने रागने ते वेदतो नथी एम कहेवामां आव्युं छे.
जुओ, श्रेणीक राजा क्षायिक समकिती हाल नरकमां छे. जेटलो कषायभाव छे तेटलुं त्यां दुःखनुं वेदन छे. परंतु ते कषायभाव वस्तुमां-आत्मामां नथी ने तेनी निर्मळ पर्यायमां पण नथी. जेने ते वेदे छे ते पर्यायमां कषायभाव कयां छे? नथी. माटे ज्ञानीने तो एक ज्ञानस्वरूपनो ज भोगवटो छे. आवो मारग छे.
विशेष कहे छे के-ज्ञानी ‘पुद्गलथी थयेली वेदनाने वेदना ज जाणतो नथी.’ जुओ, निर्जरा अधिकारनी १९४ मी गाथामां आव्युं के-वेदना शाता-अशाताने ओळंगती नथी. ज्ञानीने पण जरी वेदन आवी जाय छे, पण ते निर्जरी जाय छे. मुनिने पण जेटलो विकल्प छे तेटलो राग छे पण तेने अहीं गण्यो नथी अने कह्युं के-पुद्गलथी थयेली वेदनाने ज्ञानी वेदना ज जाणतो नथी.
ज्ञाननी प्रधानताथी वात होय त्यारे ज्ञानीने जे रागनुं परिणमन छे तेनो ते कर्ता छे ने तेने तेनुं वेदन पण छे एम कहेवाय छे. ए तो ते राग परने लईने ने परमां नथी पण पोतानी कमजोरीने लईने पोतामां छे एम ज्ञानी जाणे छे. अहा! कमजोरी छे ने? तो कमजोरी छे एम ज्ञानी जाणे छे. परंतु द्रष्टि ने द्रष्टिना विषयमां कय ां कमजोरी छे? कमजोरी द्रष्टिनो विषय नथी. पर्याय ज्यां द्रष्टिनो विषय ज नथी त्यां कमजोरी द्रष्टिना विषयमां कयांथी आवे? तेथी द्रष्टिनी मुख्यतामां कमजोरीने गणी ज नथी, अन्य वेदना गणी ज नथी.
तेथी कहे छे के-‘माटे ज्ञानीने वेदनाभय नथी. ते तो सदा निर्भय वर्ततो थको
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ज्ञानने अनुभवे छे.’ अहाहा...! स्वरूपमां निःशंकपणे वर्तता ज्ञानीने बहारनी कोई वेदनानो भय नथी.
हवे अरक्षाभयनुं काव्य कहे छेः-
‘यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता’ जे सत् छे ते नाश पामतुं नथी एवी वस्तुस्थिति नियतपणे प्रगट छे.’
अहा! जे छे ते नाश शी रीते पामे? भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु सत् छे. सत् नाम शाश्वत छे ते नाश शी रीते पामे? जे छे तेनो नाश कोई दि’ थाय नहि एवी नियत वस्तुस्थिति छे. वस्तुनी आ नियत मर्यादा छे के जे छे ते कदी नाश पामतुं नथी.
‘तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत्’–आ ज्ञान पण स्वयमेव सत् (अर्थात् सत्स्वरूप वस्तु) छे (माटे नाश पामतुं नथी).
‘आ ज्ञान’ शब्दे भगवान आत्मा स्वयमेव सत्-सत्स्वरूप वस्तु छे. स्वयमेव सत् नाम पोते पोताथी ज सत् छे, कोई इश्वरे एने उत्पन्न कर्यो छे एम नहि अने ए कदी नाश पामी जशे एमेय नहि. अहाहा...! आत्मा स्वयमेव अनादि अनंत अविनाशिक अकृत्रिम वस्तु त्रिकाळ सत् छे.
‘तत अपरैः अस्य त्रातं किम्’–तेथी वळी पर वडे तेनुं रक्षण शुं? अहाहा...! जे छे... छे... छे... , छेपणुं जेनुं स्वयं स्वरूप छे तेनुं पर वडे रक्षण शुं? जे पोताथी ज छे तेनुं पर वडे रक्षण केवुं? ‘अतः अस्य किञ्चन अत्राणं न भवेत्’ आ रीते (ज्ञान पोताथी ज रक्षित होवाथी) तेनुं जरापण अरक्षण थई शकतुं नथी.
शुं कह्युं? के भगवान आत्मा त्रिकाळी सत् प्रभु पोते पोताथी ज सुरक्षित होवाथी तेनुं जरा पण अरक्षण थई शकतुं नथी. वस्तु आत्मा सच्चिदानंद प्रभु पोते पोताथी ज सत् शाश्वत पदार्थ छे. तेनुं कोई रक्षण करे तो ते रहे एम तो छे नहि. ए तो स्वभावथी ज शाश्वत सदा सुरक्षित वस्तु छे. तेनी तेनुं जरापण अरक्षण थई शकतुं नथी.
‘ज्ञानिनः तद्–भीः कुतः’ माटे (आवुं जाणता) ज्ञानीने अरक्षानो भय कयांथी होय? अहाहा...! पोताना सच्चिदानंदस्वरूपनो अनुभव थयो एवा धर्मीने अरक्षानो भय कयांथी होय? पोताना शुद्ध शाश्वत ज्ञानानंदस्वरूपनो अनुभव करवावाळाने अरक्षानो भय होतो नथी. ते तो...
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‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति’–ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे. रागादि होय तोपण ते सदा ज्ञानने ज अनुभवे छे. स्वने जाणे छे अने रागनेय जाणे छे-एम ज्ञानने ज अनुभवे छे. रागने जाणे छे एम कहेवुं ए पण अपेक्षाथी छे. खरेखर तो राग संबंधीनुं ज्ञान जे पोताथी पोता वडे ते काळे सहज थयुं छे ते पोताना ज्ञानने ते अनुभवे छे. ते ज्ञानने वेदे छे, रागने नहि तेथी तेने अरक्षाभय नथी.
अहीं अरक्षानो भय ज्ञानीने नथी ए अर्थ चाले छे. तो कहे छे- ‘सत्तास्वरूप वस्तुनो कदी नाश थतो नथी.’ जे वस्तु सत्तापणे-होवापणे छे तेनुं कोई काळे नहोवापणुं थतुं नथी. आ सर्वसाधारण नियम कह्यो. हवे कहे छे-
‘ज्ञान पण तो सत्तास्वरूप वस्तु छे; तेथी ते एवुं नथी के जेनी बीजाओ वडे रक्षा करवामां आवे तो रहे, नहि तो नष्ट थई जाय.’
ज्ञान नाम आत्मा स्वयं सत्तास्वरूप अथवा होवावाळुं तत्त्व छे. तेथी बीजा रक्षा करे तो रहे एवुं ते तत्त्व नथी. ए तो अनादिअनंत स्वयं रक्षित ज वस्तु छे. जे शाश्वत सत्तास्वरूप वस्तु छे तेने बीजानी शुं अपेक्षा छे? कांई नहि.
‘ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने अरक्षानो भय नथी.’ अहा! पोताना त्रिकाळी शाश्वत स्वरूपने-शुद्ध सच्चिदानंद भगवानने जेणे द्रष्टिमां लीधो छे तेने ‘कोई रक्षा करे तो रहुं’-एवुं कयां छे? हुं तो सदा शाश्वत शुद्ध चैतन्यस्वरूपी आत्मा छुं एम जेणे जाण्युं-अनुभव्युं छे ते धर्मी जीवने अरक्षानो कोई भय नथी. आ तो बापा! एकली माखण-माखणनी वात छे.
कहे छे-‘ते तो निःशंक वर्ततो थको पोते पोताना स्वाभाविक ज्ञानने सदा अनुभवे छे.’
निःशंक वर्ततो थको एटले निर्भयपणे पोताना पुरुषार्थथी वर्ततो थको ते सदा स्वाभाविक ज्ञानने अनुभवे छे. निःशंक नाम निर्भय; पोतानो चैतन्य किल्लो काळथी अभेद्य छे ने? पोतानी सत्ता त्रिकाळ शाश्वत छे. आवुं जाणतो ज्ञानी निःशंक थई पोताना स्वाभाविक ज्ञानने सदा अनुभवे छे. अहा! वस्तुना शाश्वत भावने द्रष्टिमां लीधो छे तेथी ते पर्यायमां निःशंकपणे तेने अनुभवे छे.
प्रश्नः– ते कई अवस्थामां निःशंक वर्ते छे? उत्तरः– सम्यग्दर्शननी अवस्थामां निःशंक वर्ते छे. मारी चीज त्रिकाळ शाश्वत छे एम सम्यग्दर्शनमां एने प्रतीति-भान थयुं छे. आ शरीर, मन, वाणी इत्यादि
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नाशवंत चीज तो पर छे, ते मारी चीज नथी. ते नाश पामो तो पामो; मारी तो एक त्रिकाळ शाश्वत शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप वस्तु छे. आवी जेने प्रतीति थई छे ते पोते पोताना स्वाभाविक ज्ञानने अनुभवे छे. भाषा जोई! स्वयं अर्थात् पोते पोताना भावथी अनुभवे छे.
पोते पोताना स्वाभाविक ज्ञानने अनुभवे छे. ज्ञान शब्दे अहीं पोताना आत्मानुं ग्रहण छे. जेने आत्माना स्वभावनी सत्तानो अनुभव थयो छे ते, निज सत्ताने स्वीकारीने अनुभवे छे एम कहे छे. आ धर्मदशा छे.
भगवान आत्मा अनंतगुणनो पिंड प्रभु स्वयंसिद्ध सत्ता छे. स्वयंसिद्ध नाम कोईथी नहि करायेली एवी अनादि अनंत अकृत्रिम वस्तु भगवान आत्मा छे. तेने धर्मी पुरुषे पोतानी द्रष्टिमां लीधी छे. तेथी स्वयं एटले रागनी अपेक्षा विना, व्यवहारना रागनी अपेक्षा विना, पोताना स्वाभाविक ज्ञानने निरंतर एटले अखंड धाराए-कोईवार रागनो अनुभव ने कोईवार ज्ञाननो अनुभव एम नहि-पण खंड न पडे एम अखंडधाराए अनुभवे छे.
अहीं ‘स्वयं’ एटले पोते पोताथी पोताने अनुभवे छे एम वात छे. त्यारे कोई वळी कहे छे-स्वयं एटले पोते पोतारूप अनुभवे छे, स्वथी वा परथी. पोताथी ज अनुभवे छे एम नहि पण परथी पण पोते पोतारूप अनुभवे छे एम एनुं कहेवुं छे.
अरे भाई! पोते पोताथी ज सदा पोताने पोतारूप अनुभवे छे अने परथी कदीय नहि ए मूळ सिद्धांत छे. शुं पर वडे पोतारूप अनुभव थाय? न थाय. बापु! आ तो तारी मूळमां भूल छे प्रभु! वस्तु भगवान आत्मा अखंड एक ज्ञायकभाव परमपारिणामिक भाव छे. पारिणामिकभाव तो परमाणुय छे. पण आ तो ज्ञानस्वभावभाव छे ने! तेथी ते परमपारिणामिकभाव शाश्वत ज्ञायकभाव छे. तेने ज्ञानी स्वयं एटले पोताथी ज-पोताना आश्रये-परना आश्रय ने अवलंबन विना ज अनुभवे छे. सदा अनुभवे छे एम कहीने एम कह्युं के-‘राग मारो छे’ एम ज्ञानी कदीय अनुभवतो नथी पण ‘ज्ञान ज मारुं छे’-एम सदा अनुभवे छे. समजाणुं कांई...?
हवे अगुप्तिभवनुं काव्य कहे छेः-
‘किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति’ खरेखर वस्तुनुं स्व-रूप ज (अर्थात् निज रूप ज) वस्तुनी परम ‘गुप्ति’ छे.
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शुं कहे छे? के वस्तु पोते ज पोतामां गुप्त छे. तेमां बीजानो कोईनोय प्रवेश नथी. शरीर, मन, वाणी इत्यादि परनो तेमां प्रवेश नथी ए तो ठीक, तेमां रागादि विकल्पनोय प्रवेश नथी. भगवान आत्मा आनंदकंद प्रभु अखंड एक ज्ञायकस्वभावनी मूर्ति छे. ते स्वरूपथी ज परम गुप्त छे. तेमां दया, दान आदि विकल्पनोय प्रवेश नथी.
जुओ, वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति छे एम कहे छे. केम? तो कहे छे-‘यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्तः’ कारण के स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी. जुओ, जेम किल्लो होय अने तेमां कोई प्रवेशी शके नहि तेम पोते ज गुप्त किल्लो छे, ध्रुव अभेद्य किल्लो छे. तेमां शरीरादि तो शुं? व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पनो ने एक समयनी निर्मळ पर्यायनो पण प्रवेश नथी. अहा! अंदर परम गुप्त पदार्थ प्रभु आत्मा छे तेने पर्याय जुए छे, अनुभवे छे पण तेमां ते पर्यायनो प्रवेश नथी.
अहाहा...! पोतानुं स्वरूप जे शाश्वत ध्रुव ज्ञान ने आनंद छे तेमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी. ए ज कहे छे के-‘च’ अने ‘अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं’ अकृत ज्ञान (-जे कोईथी करवामां आव्युं नथी एवुं स्वाभाविक ज्ञान) पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप छे. पर्याय तो नवी थाय छे, पण ज्ञान अकृत छे. जाणग... जाणग... जाणग-एवो जे भाव ते अकृत नाम अकृत्रिम छे, अने ते आत्मानुं स्वरूप छे. तेथी ज्ञान आत्मानी परम गुप्ति छे, अर्थात् ज्ञानस्वभावी आत्मा परम गुप्त ज छे.
‘अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत्’ माटे आत्मानुं जरा पण अगुप्तपणुं नहि होवाथी ‘ज्ञानिनः तद–भीः कुतः’ ज्ञानीने अगुप्तिनो भय कयांथी होय? अहाहा...! आत्मामां बीजी चीज प्रवेशी शकती ज नथी तो धर्मीने अगुप्तिनो भय कयांथी होय? वस्तु ज सदा पोते गुप्त छे अने धर्मीनी द्रष्टि त्रिकाळी शाश्वत पोतानी गुप्त वस्तु पर छे, पछी एने अगुप्तिनो भय कयांथी होय? ए तो निर्भय ज छे, निःशंक ज छे.
‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति’ ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे. ल्यो, छये कळशमां आ शब्दो छे. (सात भय पैकी पहेला कळशमां आ लोकभय ने परलोकभय भेगा लीधा छे). कहे छे-पोते पोतानी पर्यायमां सहज ज्ञानानंदस्वभावने ‘सततं’ कहेता अखंडधाराए अनुभवे छे. भले विकल्पमां आव्यो-एम देखाय पण ते विकल्पमां आव्यो नथी एम कहे छे. एने तो शाश्वत एक ज्ञानस्वभाव प्रत्येनुं वलण निरंतर-अखंडधाराए
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रहेलुं होय छे. आवो मारग समजवो कठण पडे पण शुं थाय? मारग तो आ ज छे बापा!
अहा! आ संसार जुओने! आ नानी नानी उंमरमां क्षणमां देह छूटी जाय छे. ए तो देहनी स्थिति ज एवी होय त्यां बीजुं शुं थाय? आकस्मिक तो कांई छे नहि. ए तो १६० कळशमां कहेशे के अकस्मात जेवुं कांई छे ज नहि. लोकोने ख्यालमां न होय एटले लोको तेने अकस्मात कहे छे पण अकस्मात जेवुं कांई छे ज नहि, बधुं क्रमनियमित छे. वळी आ देह छे ए तो जड धूळ-माटी छे; तेने भगवान आत्मानो स्पर्श ज कयां छे? ए तो त्रीजी गाथामां आवी गयुं के-सर्व पदार्थो पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेल पोताना अनंत धर्मोना चक्रने चुंबे छे-स्पर्शे छे तोपण तेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी. अहा! भगवान आत्मा पोतानी शक्तिओने तथा पर्यायने स्पर्शे छे पण परमाणु आदिने स्पर्शतो नथी. ल्यो, आवी वात!
प्रश्नः– पिता पुत्रने चुंबे छे ने? समाधानः– भाई! कोण चुंबे? बापु! तने भ्रमणा छे. भगवान आत्मा पोताना अनंत गुण-स्वभावने अने तेनी निर्मळ पर्यायने चुंबे छे, स्पर्शे छे पण ते सिवाय शरीर, मन, वाणी, कर्म के स्त्री-पुत्र-परिवार इत्यादि कोई बहारना पदार्थोने कोई दि’ स्पर्श्यो नथी, स्पर्शतोय नथी. अहा! आवा भगवानस्वरूप आत्मामां जेणे पोतानी द्रष्टि स्थापी छे ते धर्मात्मा पुरुष निरंतर निःशंक वर्ततो थको एक ज्ञानस्वरूप आत्माने ज अनुभवे छे. ‘निरंतर निःशंक वर्ततो थको’-एम छे ने? मतलब के- अखंडधाराए जेम पोतानुं सत् छे तेम अखंडधाराए निःशंक तेमां ते वर्ते छे. बीजे आवे छे ने के-
भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु शाश्वत शुद्ध वस्तु सदा गुप्त छे. तेमां रागनो प्रवेश नथी. त्यां रागथी भिन्न शुद्ध शाश्वत स्वभावमां एकाग्र थवुं ते भेदज्ञान साबु छे. अने समरस-वीतरागरस-चैतन्यरसनी मूर्ति प्रभु आत्मामां निःशंक अखंडधाराए एकाग्रता थतां उत्पन्न थयेलो जे वीतरागपरिणतिरूप समरसभाव ते ‘समरस निर्मल नीर’ छे. अने ‘धोबी अंतर आतमा धोवै निज गुण-चीर’ एटले के अंतर-एकाग्रता वडे धर्मी मलिनता दूर करीने शुद्धतानी परिणतिने ऊभी करे छे.
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आ परिणतिनी वात छे हों; गुण तो गुण त्रिकाळ निर्मळ ज छे (एमां कयां कांई करवुं छे?). आवो मारग छे, भाई!
अहीं कहे छे-ज्ञानी निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने निरंतर एटले अखंडधाराए सदा अनुभवे छे. ल्यो, ‘सततं’ अने ‘सदा’ ज्ञानने अनुभवे छे. अखंडधाराए सदा ज्ञानने अनुभवे छे, कदीय रागने अनुभवे छे एम नहि. ओहो! जुओ आ निर्जरानी दशा! कहे छे के कर्मनी निर्जरा तेने थाय छे, तेने अशुद्धता झरी जाय छे अने तेने शुद्धिनी वृद्धि थाय छे के जे पोतानी शाश्वत शुद्ध चैतन्यसत्ताने निरंतर निर्मळ परिणति द्वारा अनुभवे छे. अहा! संवरमां शुद्धि प्रगटे छे, निर्जरामां शुद्धिनी वृद्धि थाय छे ने मोक्षमां शुद्धिनी पूर्णता थाय छे. अहा! आ तो दुनिया आखीथी जुदी वात छे. अत्यारे संप्रदायमां धर्मना नामे जे चाले छे एनाथी आ जुदी वात छे बापा!
आ अगुप्तिभयनो कळश चाले छे. कहे छे-ज्ञानी निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज एक ज्ञानने सदा अनुभवे छे; एटले के ते शाश्वत एक ध्रुवने अनुभवे छे, त्यां जोके अनुभवे छे तो पर्यायने, पण ते (पर्याय) ध्रुवनी सन्मुख छे ने? ध्रुवने अवलंबी छे ने? एटले ध्रुवने अनुभवे छे एम कह्युं छे. ११ मी गाथानी टीकामां आवे छे के- ज्ञायकभाव आविर्भाव पामे छे. हवे, ज्ञायकभाव तो ज्ञायकभाव (रूपे) ज छे; परंतु पर्यायमां ते जणायो तो ज्ञायकभाव आविर्भाव पाम्यो एम कहेवाय छे. अहा! भाषा तो एवी छे के ज्ञायकभाव आविर्भाव पामे छे, प्रगटे छे. अरे भाई! मोर जेम पोतानी पांखोनी कळाथी खीली नीकळे छे तेम भगवान आत्मा पोताना अनंतगुणनी पर्यायथी अंदर खीली नीकळे छे. पण ज्ञायक तो ज्ञायक ज रहे छे. ज्ञायकनो ज्यां आश्रय लीधो त्यां आश्रय करनारी पर्यायमां ज्ञायक जणायो तो ज्ञायक आविर्भाव पाम्यो एम कहेवाय छे. समजाणुं कांई...?
अज्ञानीए भगवान ज्ञायकभावने पर्याय ने रागबुद्धिनी आडमां तिरोभूत कर्यो हतो, ढांकी दीधो हतो. अहा! ज्ञायकभाव कांई तिरोभाव के आविर्भाव पामतो नथी; ए तो छे ते छे. परंतु राग ने पर्यायबुद्धिनी आडमां ते जणातो नहोतो तो पर्यायमां ते छती चीज जे ज्ञायकभाव ते ढंकाई गई छे एम कहेवाय छे. छे तो खरी, परंतु प्रगट पर्यायमां रागनुं-पर्यायनुं ज अस्तित्व स्वीकार्युं तो ज्ञायकभावनो स्वीकार छूटी गयो. पण ज्यारे त्रिकाळी ध्रुव नित्यानंदस्वरूप अखंड एक ज्ञायकभावनो पर्यायमां स्वीकार कर्यो त्यारे तेने ज्ञायकभाव आविर्भूत थयो-प्रगट थयो एम कहेवामां आवे छे. भाषा तो एम आवे के-ज्ञायकभाव प्रगट थयो, पण बापु! कई अपेक्षाए वात छे ते यथार्थ समजवुं जोईए. ज्ञायकभाव कांई नवो प्रगटे छे एम छे नहि; पण ज्ञायकभाव प्रति अंतर्मुख थयेली पर्यायमां-‘आ हुं छुं’-एम ज्ञायकभावनो
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पोतापणे स्वीकार थयो तो ज्ञायकभाव प्रगटयो एम कहेवाय छे. अने रागना एकत्वमां ज्ञायकभावनो स्वीकार नहोतो तो ज्ञायकभाव तिरोभूत-ढंकाई गयेलो छे एम कहेवामां आवे छे. आवो मारग बहु सूक्ष्म बापा!
हवे, आवी अज्ञानीने खबर न मळे ने मंडी पडे बहारमां सामायिक ने पोसा ने प्रतिक्रमण करवामां; पण भाई! एमां तो तारो अखंड एक ज्ञायकप्रभु ढंकाई गयो छे भगवान! ए कांई धर्मपद्धति नथी बापा! अरेरे! क्षण क्षण करतां अवसर तो वीततो जाय छे! पछी कयां जईने उतारा करवा छे प्रभु! तारे? हमणां ज पोतानी शाश्वत चीजनी संभाळ नहि करे तो कयारे करीश भाई! ‘पछी करशुं’मां तो पछी ज रहेशे. पेलो दाखलो छे ने के-‘वाणिया जमे आज ने बारोट जमे काल.’ अरे भाई! काल कोई दि’ आवे नहि ने बारोटनुं जमण कोई दि’ थाय नहि. तेम अज्ञानी ‘पछी-पछी’-एम कहे छे पण...
हा, पण हमणा काम होय तो शुं करवुं? काम? शुं काम छे? धूळेय काम नथी सांभळने. स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान ने आचरण बस ए एक ज काम छे; आ सिवाय एने बीजुं कोई काम ज नथी. अरे भाई! तुं बीजा कामना रागमां रहीने तो अनंतकाळथी जन्म-मरण करीने मरी गयो छो.
पण कर्मनो उदय होय तो? समाधानः– उदय एना घरे रह्यो; आत्मामां ते कयां छे? तेमां जो जोडाय तो उदय कहेवाय, अने न जोडाय तो उदय खरी जाय छे. उदयना काळे पोते स्वतंत्रपणे रागनी पर्यायने करे तो कर्मनो उदय निमित्त कहेवामां आवे छे. शुं कह्युं ए? के कर्ता थईने पोते रागने रचे तो ते उदयने निमित्त कहेवाय छे. बापु! कोई तने नडतुं नथी अने कोई चीज तने मदद करती नथी. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे हों; माटे जे करवा योग्य काम छे ते हमणां नहि करे तो कयारे करीश? (भाई! अनंतकाळेय आवो अवसर आववो मुश्केल छे).
हा, पण बहारनुं न करीए तो आ स्त्री-पुत्रादिनुं शुं करवुं? समाधानः– अरे भाई! तुं शुं परनुं कार्य करी शके छे? कदीय नहि. आ स्त्री- पुत्रादि तो सौ पोतपोताने कारणे छे. तेओ सदा छूटां ज छे. (तेओ तारामां -तारा द्रव्य-गुण-पर्यायमां-छे ज नहि). तेमनुं तुं शुं करे छे? कांई ज नहि. बापु! अनंतकाळमां तें कोईनुं कांई कर्युं नथी; मात्र अभिमान कर्यां छे. पण भाई! ए तो तारा अहितनो पंथ छे बापा! बीजानुं काम बीजो करे ए तो वस्तु-स्थिति ज नथी भाई!
पण आपना जेवा गुरु धार्या पछी शुं वांधो छे?
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समाधानः– अरे भाई! गुरु तो अंदर आत्मा पोते छे. अहाहा...! चैतन्य महाप्रभु आत्मा अंदर पोतानो गुरु परमात्मस्वरूपे विराजे छे, अने तेने पोते द्रष्टिमां ले त्यारे तेणे गुरु धार्या छे. स्वरूपमां द्रष्टि दीधा विना ‘गुरु धार्या छे’ ए कयांथी आव्युं? भाई! मास्टर-की (Master Key) छे. एने (मास्टरकीने) लगाडया विना बधुं रणमां पोक मूकवा जेवुं छे. समजाणुं कांई...?
आ माणसना मृत्यु पछी पाछळ रोककळ नथी करता? पण बापु! तुं कोने रोवे छे? तुं जो तो खरो के-‘रोनारेय नथी रहेनार रे’-रोनार पण रहेवानो नथी. समजे तो आटलामांय घणुं कह्युं भाई! बाकी तो रखडपट्टी ऊभी ज छे.
‘गुप्ति एटले जेमां कोई चोर वगेरे प्रवेश न करी शके एवो किल्लो, भोयरुं वगेरे; तेमां प्राणी निर्भयपणे वसी शके छे. एवो गुप्त प्रदेश न होय पण खुल्लो प्रदेश होय तो तेमां रहेनार प्राणीने अगुप्तपणाने लीधे भय रहे छे.’ शुं कह्युं? के खुल्ला प्रदेशमां प्राणीने अगुप्तपणाने लीधे भय रहे छे. तेथी प्राणीओ गुप्ति-भोयरुं-किल्लो आदि इच्छे छे.
हवे कहे छे-‘ज्ञानी जाणे छे के-वस्तुना निज स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी माटे वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे.’
अहा! शुं कह्युं? के वस्तुना निज स्वरूपमां अर्थात् चैतन्यपणे त्रिकाळ अस्तिरूप भगवान आत्मामां बीजा कोईनो प्रवेश नथी. गजब वात भाई! आ शरीरने जमैयो वागे ने? तो कहे छे के ते आत्माने अडयो नथी. झीणी वात छे प्रभु!
पण शरीरने अडे छे के नहि?
अरे भाई! शरीरनेय ते अडतो नथी सांभळने, अने शरीर आत्माने पण अडतुं नथी. ‘बहिः लुठति’-एम आवे छे ने? अहा! बहार लोटे छे पण अंदर अडतो नथी. भ्रमणाथी (अडे छे एवुं) माने छे. पण अरेरे! तुं शुं करे छे प्रभु! आ? अररर...! तारी आ अवस्था प्रभु! त्रणलोकनो नाथ तुं, ने आ शुं कहेवाय? तने शुं थयुं छे प्रभु? पोतानी निज रमतु मूकीने तुं परमां रमवा गयो अने व्यभिचारी थईने परमां वेचाई गयो! (भ्रमणा छोडी दे).
अहीं कहे छे-स्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेश करी शकतुं नथी माटे वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे. अहा! चिदानंदघन प्रभु आत्मामां कोण प्रवेश करे? जेम चक्रवर्तीना दरबारमां कोई दुश्मन प्रवेशी न शके.
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तेम त्रणलोकना नाथ चिदानंद भगवानना दरबारमां बीजुं कोई न प्रवेशी शके. कळश ११मां आवे छे ने के-आ बद्धस्पृष्टादि भावो उपर उपर तरे छे, अंदर प्रतिष्ठा पामता नथी. ज्यां पोतानी निर्मळ पर्यायनो प्रवेश नथी त्यां राग ने परनो प्रवेश तो कयांथी आव्यो? कोईनो (बीजानो) प्रवेश छे ज नहि एवो भगवान आत्मा अभेद्य किल्लो छे. अहा! आवा पोताना चिदानंदस्वरूपने अंदरमां ज्यां स्वीकार्युं त्यां शुं बाकी रह्युं? आनंदनी बादशाही ज्यां स्वीकारी त्यां पामरता कयां रही? तेने तो पर्यायमां प्रभुता प्रगटी.
अभेद्य किल्लो एवा ‘पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे; ते ज्ञानस्वरूपमां रहेलो आत्मा गुप्त छे कारण के ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने अगुप्तपणानो भय कयांथी होय? ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे.’
जेम जंगलनो स्वामी सिंह निर्भय छे तेम अनंतगुणनो स्वामी भगवान आत्मा अंदर निर्भय छे. केम? केमके अंदर बीजो प्रवेशी न शके तेवो ते अभेद्य किल्लो छे. अहा! पुण्य-पापनो तो ते थाप मारीने क्षणमां खातमो करी दे तेवो ते सिंह जेवो पराक्रमी छे. अनंतवीर्यनो स्वामी छे ने! अहा! तेना बळनुं अने तेना स्वभावना सामर्थ्यनुं शुं कहेवुं? अहाहा...! जेना स्वभावना अनंत-अनंत सामर्थ्यनुं वर्णन न थाय एवो आत्मा अंदर सिंह छे. मुनिराजने ‘सिंहवृत्तिवाळा’ नथी कहेता? मुनिवरोने सिंहवृत्ति होय छे. अहो! धन्य अवतार के जेमने अंदरमां सिंहवृत्ति प्रगट थई छे अने जेओ राग उपर थाप मारीने क्षणवारमां तेना भुक्का बोलावी दे छे.
अहा! कर्मना-पुण्य-पापना भुक्का उडावी दे एवो आत्मा अनंतबळनो स्वामी छे. तेनी शक्तिनुं शुं कहेवुं? ४७ तो वर्णवी छे, बाकी अनंत शक्तिओनो स्वामी आत्मा छे. ते अनंत शक्तिओमां रागनुं कारण थाय एवी कोई शक्ति नथी; तथा रागथी एनामां कार्य थाय एवुं पण आत्मामां नथी. आवुं अकार्यकारणनुं एनामां सामर्थ्य छे. अज्ञानी राडो पाडे छे, पण भाई! कोई पण रागनी वृत्तिथी तारामां कार्य थाय एवो तुं छो नहि. निर्मळ ज्ञान ने आनंदनी पर्यायने तुं करे ने भोगवे एवो तुं भगवान तारुं कारण छो. अहीं कहे छे-पोताना स्वरूपने कारणपणे ग्रहीने ज्ञानी निःशंक थयो थको निरंतर-अखंडधाराए पोताना ज्ञानानंद स्वरूपने ज अनुभवे छे. ल्यो, आवी वात छे.
हवे मरणभयनुं काव्य कहे छेः-
‘प्राणाच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति’ प्राणोना नाशने (लोको) मरण कहे छे. पांच
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इन्द्रिय, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास अने आयु-तेनुं छूटी जवुं तेने लोको मरण कहे छे. परंतु-
‘अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं’ आ आत्माना प्राण तो निश्चयथी ज्ञान छे.
ए शुं कह्युं? के बाह्य प्राणोना नाशने लोको मरण कहे छे पण आत्माना प्राण तो शुद्ध ज्ञानानंद छे. पहेली जीवत्वशक्ति कही छे ने? चैतन्य भावप्राणने धारण करनार जीवत्वशक्ति छे. ‘जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ’–बीजी गाथामां छे ने? एमांथी जीवत्वशक्ति काढी छे. अहा! जीव तेने कहीए के जेमां जीवत्व शक्ति होय अने जीवत्व शक्ति एने कहीए के जेमां ज्ञान, दर्शन, आनंद ने सत्ताना प्राण होय.
इन्द्रियादि जड प्राण असद्भूत व्यवहारनय छे, अने अशुद्ध भावप्राण जे वर्तमान-वर्तमान योग्यतारूप छे ते अशुद्ध निश्चयनय छे. माटे ते स्वरूपमां तो छे नहि. स्वरूपभूत प्राण तो शुद्ध ज्ञान, आनंद, शांति, स्वच्छता ने प्रभुता छे. अहाहा...! आत्मा पोते प्रभु परमात्मा छे जेना प्रभुत्व प्राण छे. अहा! ज्ञाननी प्रभुता, दर्शननी प्रभुता, आनंदनी प्रभुता, सत्तानी प्रभुता, वीर्यनी प्रभुता-ए जेना प्राण छे ते जीव छे. भगवान आत्मा ज्ञान ने आनंदना प्राणथी जीवी रह्यो छे, टकी रह्यो छे. आत्माना प्राण तो निश्चयथी ज्ञान छे. हवे कहे छे-
‘तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते’ ते (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होवाथी तेनो कदापि नाश थतो नथी; ‘अतः तस्य मरणं किञ्चन न भवेत्’ माटे आत्मानुं मरण बिलकुल थतुं नथी.
शुं कह्युं? के आत्माना ज्ञान, दर्शन, आनंद, शांति, स्वच्छता, सत्ता तो शाश्वत छे. तेमनो कदीय नाश थतो नथी. ज्ञान-दर्शन-आनंद-सत्ता जे स्वरूपभूत प्राण छे तेमनो कदी नाश थतो नथी. देहनो नाश तो थाय, कारण के ए तो नाशवंत छे, पण ज्ञान-दर्शनादि निश्चयप्राणनो नाश थतो नथी. माटे आत्मानुं मरण बीलकुल थतुं नथी.
‘ज्ञानिनः तद–भीः कुतः’ तेथी (आवुं जाणता) ज्ञानीने मरणनो भय कयांथी होय? अरेरे! हाय! हुं मरी जईश-एवो भय ज्ञानीने होतो नथी. केम? केमके प्रतिक्षण ज्ञानी तो पोताना शाश्वत ज्ञान ने आनंदमां छे. देह मरे-छूटे पण आत्मा मरतो नथी एवुं तेने यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान थयुं छे ने? तेथी ज्ञानीने देह छूटवा संबंधी मरणनो भय होतो नथी.
अज्ञानीने देहादि बाह्य प्राण छूटी जवानो निरंतर भय रहे छे. मोटो (अज्ञानी) चक्रवर्ती होय, सोळ सोळ हजार देवो तेनी सेवा करता होय पण देह छूटे तो थई रह्युं. परप्राणमां पोतापणुं मान्युं छे ने? तेथी ते भयभीत थयो थको बिचारो
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मरीने नरके जाय छे. पोताना शुद्ध चैतन्यप्राणनी ओळखाण कर्या विना अज्ञानी जीव मरणना भय वडे निरंतर पीडाय छे, ज्यारे निज शाश्वत चैतन्यप्राण वडे पोतानुं जीवन शाश्वत छे एम जाणता ज्ञानीने मरणनो भय नथी.
जुओ, आयुष्य छूटे छे माटे देह छूटे छे एम नथी. ए तो देहमां रहेवानी योग्यता ज जीवनी पोतानी पोताने कारणे एटली होय छे. ते कांई आयुष्यने कारणे छे एम नथी, केमके आयु तो निमित्त परवस्तु छे. हवे ते योग्यता पण पोताना स्वरूपभूत नथी. पोतामां तो पोताना ज्ञान, दर्शन, आनंद प्राण छे. अहा! आवी जेने अंतर-द्रष्टि थई छे तेने सम्यग्द्रष्टि कहे छे, धर्मी कहे छे अने तेने मरणनो भय होतो नथी. ज्यारे बीजा (अज्ञानी) तो बिचारा हाय-हाय करीने राड नाखी जाय छे.
अरे भाई! आ इन्द्रियादि प्राण तारा कयां छे? ए तो जड पुद्गलना छे. छतां तेने पोताना माननारनुं ज्यारे मरण थाय छे त्यारे ‘अरे! हुं मरी गयो,’ मारा प्राण छूटी गया एम अज्ञानी भय पामीने दुःखी थाय छे. ज्यारे जड प्राण ज मारा नथी, तेना छूटवाथी हुं मरण पामतो नथी, हुं तो ज्ञानानंदस्वरूपे त्रिकाळ शाश्वत ध्रुव अनादि अनंत वस्तु छुं-एवुं जाणता ज्ञानीने मरणनो भय कयांथी होय? न होय.
‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति’ ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.
‘स्वयं’ शब्द आमां आव्यो छे. कोई अज्ञानी ‘स्वयं’ एटले पोतारूप-जीव जीवरूप-एम अर्थ करे छे. पण भाई! ‘स्वयं’ एटले पोते पोताथी-एम अर्थ थाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानस्वरूप आत्माने सदा अनुभवे छे.
‘इन्द्रियादि प्राणो नाश पामे तेने लोको मरण कहे छे. परंतु आत्माने परमार्थे इन्द्रियादि प्राण नथी, तेने तो ज्ञानप्राण छे. ज्ञान अविनाशी छे-तेनो नाश थतो नथी; तेथी आत्माने मरण नथी. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने मरणनो भय नथी; ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे. आ भावार्थ कह्यो.
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हवे आकस्मिकभयनुं काव्य कहे छेः-
‘एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकम्’ आ स्वतःसिद्ध ज्ञान एक छे, ‘अनादि’ अनादि छे, ‘अनन्तम्’ अनंत छे, ‘अचलं’ अचळ छे.
शुं कहे छे? के आ स्वतःसिद्ध ज्ञान एक छे. अहीं ज्ञान शब्दे आत्मा कहेवो छे. एम के-आत्मा स्वतःसिद्ध छे अने ते एक छे. ज्ञानानंदस्वरूपी आत्मा पोते पोताथी छे अने ते एक छे. मतलब के तेमां बीजुं कांई नथी. शरीर, मन, वाणी, राग इत्यादि बीजुं कांई एमां नथी. वळी ते स्वतःसिद्ध सत्स्वरूप भगवान अनादि-अनंत छे. जोयुं? बीजा बधा पदार्थो-राग, निमित्त आदि पदार्थो नाशवंत छे पण भगवान आत्मा त्रिकाळी सत् प्रभु अनादि-अनंत छे, सदा अविनाशी छे. अहाहा...! मारी चीज तो अनादिनी स्वतःसिद्ध एक ज्ञानस्वरूप छे अने हुं त्रिकाळ अनादि-अनंत एवो ने एवो रहेवावाळो छुं-एम धर्मीनी द्रष्टि पोताना शुद्ध एक चैतन्यतत्त्व उपर रहेली होय छे. वळी कहे छे-
ते (आत्मा) अचळ छे. अहा! मारी चीज चळाचळ छे ज नहि, ते तो जेवी छे तेवी त्रिकाळ अचळ छे. नित्य ध्रुव ज्ञानघन प्रभु आत्मा चळे कयांथी? हुं तो जेवो छुं तेवो चैतन्यमूर्ति प्रभु त्रिकाळ ध्रुव अचळ छुं एम ज्ञानी जाणे छे.
‘इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत्’ ते ज्यां सुधी छे त्यां सुधी सदाय ते ज छे ‘अत्र द्वितीयोदयः न’ तेमां बीजानो उदय नथी.
अहाहा...! शुं कहे छे आ? ‘ते ज्यां सुधी छे त्यां सुधी ते ज छे.’ अहाहा...! त्रिकाळी ध्रुव ज्ञानानंदस्वरूपी आत्मा त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वरूपी ज छे. तेमां बीजानो उदय नथी. भगवान आत्मामां बीजानुं प्रगटपणुं नथी. बीजी चीज तो बीजामां छे. अहाहा...! ज्ञानी कहे छे-मारी त्रिकाळी ध्रुव अचळ चीजमां बीजी चीजनो उदय नाम बीजी चीजनुं आववुं के घुसवुं छे नहि. मारुं तो सदा एकरूप ज्ञानरूप ज स्वरूप छे.
‘तत्’ माटे ‘अत्र आकस्मिकम् किञ्चन न भवेत्’ आ ज्ञानमां आकस्मिक (अणधार्युं, एकाएक) कांईपण थतुं नथी.
अहाहा...! अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदथी पूरण भरेलो एवो ज्ञानानंदनुं ध्रुव-धाम प्रभु आत्मा त्रिकाळ एम ने एम ज छे. अहा! वर्तमानमां पण त्रिकाळी जेवो छे तेवो ज छे, अचळ छे. तेमां बीजी कोई चीज छे नहि अने बीजी चीजनो प्रवेश
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पण तेमां छे नहि. माटे कहे छे-आत्मामां आकस्मिक-अणधार्युं कांई पण थतुं नथी. जुओ आ धर्मात्मानी द्रष्टि!
धर्मी एम जाणे छे के-हुं तो अनादि-अनंत ज्ञानानंदघन प्रभु अचळ अविनाशी तत्त्व छुं. आ शरीर, मन, वाणी, कर्म इत्यादि तो अजीव जड धूळ-माटी छे अने आ रागादि विकार तो अजीव आस्रव तत्त्व छे. ते बधां मारामां कयां छे? तेओ मारामां छे ज नहि. माटे मारामां कांई पण आकस्मिक थाय एम छे ज नहि. मारामां बीजी चीज ज नथी तो आकस्मिक शुं थाय?
अहा! धर्मीनी द्रष्टि अनंतगुणमंडित पोताना त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वरूपी आत्मा पर छे. पोताना आवा स्वरूपनो निर्णय जे पर्यायमां थयो ते पर्याय एम जाणे छे के-हुं तो ध्रुव अचळ आनंदनी खाण प्रभु आत्मा छुं, मारामां बीजी चीजनो प्रवेश छे ज नहि. आनंदधाम प्रभु आत्मा सिवाय बीजी चीजमां मारो आनंद छे ज नहि. आ प्रमाणे धर्मी जीवनी परपदार्थमांथी सुखबुद्धि उडी गई छे. अने पर पदार्थनुं अवलंबन पण तेने छूटी गयुं छे. झीणी वात छे प्रभु! तो कहे छे-नित्यानंद प्रभु आत्मामां बीजी चीज आवी जाय अने कांईक आकस्मिक थई जाय एम छे नहि. अहा! छे अंदर? के ज्ञानमां-ज्ञान नाम अचळ, एक अकृत्रिम, नित्य आनंदधाम प्रभु आत्मामां-आकस्मिक कांई पण थतुं नथी. अहा! कांई अकस्मात थाय एवी मारी चीज ज नथी.
तो अकाळ मरण छे के नहि?
समाधानः– अकाळ मरण पण नथी. अकाळ मरण-ए तो निमित्तनुं कथन छे. निश्चयथी अकाळ मरण जेवुं कांई छे ज नहि केमके प्रत्येक कार्य पोताना स्वकाळे प्रगट थाय छे. अहीं एम वात छे के समकितीनी द्रष्टि एक शुद्ध चैतन्यद्रव्य पर छे अने तेमां बीजी चीज तो कांई छे नहि तेथी तेमां कांई आकस्मिक बनतुं नथी एम ते जाणे छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’; शुं कह्युं? के चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टि जीव-पछी भले ते तिर्यंच हो के नारकी हो-हुं शुद्ध चैतन्यघन प्रभु सुखकंद आनंदकंद सदा सिद्ध समान परमात्मस्वरूप एक पारमार्थिक वस्तु छुं-एम प्रतीति अने ज्ञान करे छे. मारामां बीजी चीज छे ज नहि तो आकस्मिक शुं थाय? कांई न थाय. आवुं धर्मात्मा जाणे छे अर्थात् आवुं जाणे ते धर्मात्मा छे. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-
‘ज्ञानिनः तद्–भीः कुतः’ आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय कयांथी होय? न होय. अहाहा...! हुं ज्ञानानंद नित्यानंद प्रभु एक छुं; एमां अकस्मात शुं?