Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 228 ; Kalash: 155-161.

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चरमशरीरी हता, छेल्लो देह हतो, पण तेमने खबर नहि के आहार कई विधिथी आपवो. पण आम भगवाननी सामे नजर पडतां ज जातिस्मरणज्ञान थई गयुं के आठमा भवे अमे बन्नेए-पति-पत्नीए-मुनिने आहार आप्यो हतो. तरत ज विधि ख्यालमां आवी गई. ओहो! भगवान! तारी शक्तिनो अपार महिमा छे. केवळज्ञान एक समयमां ले एवी एनी शक्ति छे. त्यां आ न जणाय ए वात कयां रही? भाई! आ साधारण वात नथी. जुओने! आठमा भव पछी केटलां शरीर पलटाई गयां? अने आत्मा तो अरूपी छे के नहि? छतां ते वखते अमे-पति-पत्नीए-मुनिने आहार आप्यो हतो ते अने तेनी विधि याद आवी गयां, ने तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ एम बोल्या. हवे तेओ तो जुगलियामांथी आव्या हता अने आहार केम देवो एनी खबरेय तेमने के दि’ हती. छतां याद आवी गयुं.

जातिस्मरण ए मतिज्ञाननो भेद छे. श्रुतज्ञाननी तो विशेषता शुं कहेवी? आ तो मतिज्ञान के जेनी धारणामांथी जातिस्मरण थाय छे तेनी पण आ ताकात! भाई! पोते आत्मा ज्ञानस्वरूपी ज छे. तेने फलाणुं न जाणी शकाय एम न कहेवुं. ते तो बधुं जाणी शके, जाणी शके, जाणी शके. जुओने! राजकुमार श्रेयांसकुमार जेमने सुंदर- सोनाना ढीम जेवुं शरीर हतुं ते आम केड बांधीने ऊभा हता अने बोल्या-भगवान! तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ; केमके भगवानने जोईने विधि याद आवी गई. आत्मा अरूपी तो देखाय नहि छतां अंदरमां जातिस्मरण थयुं ने बराबर देख्युं के आ ज आत्मा (भगवाननो आत्मा) आठमा भवे आ आत्माना पति तरीके हतो अने हुं तेमनी पत्नी तरीके हतो. अहा! आ मनुष्यदेहमां रहेला आत्मानी-ज्ञाननी ताकात बापु! केवळज्ञान लेवानी छे; अने ते केवळज्ञान एक समयमां त्रणकाळना अनंता केवळीओने जाणे एवी ताकातवाळुं छे.

पण ए तो पूर्ण जाणे त्यारे ने? समाधानः– भाई! ए जाणवानी ताकात ज छे. ज्यारे जाणे त्यारे जाणवानी ताकात छे ज. अहा! तो पछी ए न जाणे एम केम होय? न जाणे ए तो नबळाई छे पण ए वात अहीं नथी. अहीं तो एनामां जाणवानी ताकात छे तो जाणे एम वात छे.

अहीं कहे छे-अकंप परम ज्ञानस्वभावमां स्थित एवो ज्ञानी रागनी क्रिया करे छे के नथी करतो ते कोण जाणे? अर्थात् ते अज्ञानीने शी खबर पडे? ज्ञानी तो बराबर जाणे छे के ते रागनो कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे.

जुओ, भाषा शुं करी छे? के ‘अकंप परम ज्ञानस्वभाव...’ अहाहा...! जे स्वभाव छे तेनी मर्यादा शी? परिमितता शी? हद शी? अहाहा...! परम ज्ञानस्वभाव


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छे तेनी हद शी? अंदर भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु स्वपरप्रकाशक सामर्थ्यसहित अपरिमित स्वभाववाळी वस्तु छे. अहाहा...! पोताना स्वभावनुं सामर्थ्य ज एवुं छे के ते स्व-परने संपूर्ण जाणे. वळी ते पर छे माटे परने जाणे एमेय नहि, पोताना सामर्थ्यथी ज ते सर्वने जाणे छे.

प्रश्नः– परम ज्ञानमां स्थित छे एवा धर्मीने राग तो छे? देखाय तो छे के ते राग करे छे?

समाधानः– भाई! ते करे छे के नथी करतो अर्थात् ते जाणनार ज छे तेनी तने (-अज्ञानीने) शी खबर पडे? ज्ञानीने क्रिया छे छतां ते एनो कर्ता नथी-एम अमे जाणीए छीए, केमके आत्मा बधुं जाणे छे. शुं न जाणे भगवान?

प्रश्नः– श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के-‘मारे एक भवे मोक्ष जवुं छे,’ तो आवुं पंचम आराना गृहस्थाश्रमी शुं जाणी शके?

समाधानः– न जाणी शके ए प्रश्न ज नथी. अहीं तो भगवान आत्मा बधुं जाणे एम वात छे. मतिज्ञान वडे उपयोग लागु पडी गयो तो एटलुं बधुं जाणे के केवळज्ञान कयारे थशे ए पण जाणी ले छे. माटे श्रीमदे कह्युं छे ते बराबर छे. आवी वात छे; ल्यो, डंका घडियाळमां पडे छे. (एम के घडियाळ पण वातनी साक्षी पूरे छे).

* कळश १प३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने परवशे कर्म आवी पडे छे तोपण ज्ञानी ज्ञानथी चलायमान थतो नथी.’ अहाहा...! शुद्ध ज्ञान ने आनंदस्वरूप प्रभु आत्मानुं जेने अंतरमुखाकार अनुभवन अने वेदन थयुं छे ते ज्ञानी छे. अहीं कहे छे-आवा ज्ञानीने परवशे अर्थात् पुरुषार्थनी कमजोरीना कारणे कर्म आवी पडे छे. शुं कह्युं? ज्ञानीने कर्मनी इच्छा नथी, रुचि नथी. तथापि नबळाईने कारणे तेने कर्म कहेतां रागनी क्रिया थई आवे छे; दया, दान, व्रत आदि रागनी क्रिया थई जाय छे. अहाहा...! तोपण ज्ञानी ज्ञानथी चलायमान थतो नथी; पोताना शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपथी ते भ्रष्ट थतो नथी. बहु झीणी वात भगवान!

आ निर्जरा अधिकार छे ने? तो कहे छे-‘आ ज्ञान ने आनंदस्वरूप आत्मा ते हुं’-एम जेने अंतरमां द्रढ श्रद्धान थयुं तेने कोई रागादिनी क्रिया थई जाय तो पण ते पोताना स्वरूपथी चलायमान थतो नथी. एटले शुं? के ते पोताना ज्ञानना अनुभवथी च्युत थईने रागमां एकरूप थतो नथी, रागथी एकता पामतो नथी. ज्ञानथी एकता थई छे ते हवे रागथी एकता करतो नथी. एने निर्जरा थाय छे; जे राग आवे ते निर्जरी जाय छे. समजाणुं कांई...?


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शुं कहे छे? भगवान आत्मा सदा ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी एक अतीन्द्रिय आनंदनो कंद प्रभु छे. अहाहा...! एकला ज्ञाननुं-आनंदनुं-सुखनुं-अमृतनुं दळ प्रभु आत्मा छे. आवा अतीन्द्रिय आनंदना-सुखना दळनुं जेने आस्वादन-वेदन थयुं छे तेने कदाचित् कोई राग आवी जाय छे तोपण ते ज्ञानथी चलायमान थतो नथी. एटले शुं? के ते ज्ञाननी एकाग्रता छोडीने रागमां एकाग्र थतो नथी, रागमां एकत्व करतो नथी. आवो वीतरागनो मारग! शुं? के ज्ञानी ज्ञानमय परिणमनने छोडीने रागमय थई जतो नथी. हवे कहे छे-

‘माटे ज्ञानथी अचलायमान ते ज्ञानी कर्म करे छे के नथी करतो ते कोण जाणे? ज्ञानीनी वात ज्ञानी ज जाणे. ज्ञानीना परिणाम जाणवानुं सामर्थ्य अज्ञानीनुं नथी.’

ज्ञानीने राग तो थाय छे, पण स्वरूपमां जेनी द्रष्टि एकाग्र छे ते राग करे छे के नथी करतो एनी तने (-अज्ञानीने) शी खबर पडे? ज्ञानीनी वात ज्ञानी ज जाणे. ज्ञानी ज्ञाता ज छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे, अज्ञानीने एनी खबर पडती नथी. ज्ञानीना परिणाम जाणवानुं सामर्थ्य अज्ञानीनुं नथी. ज्ञानीने राग थई आव्यो छे पण तेमां एना परिणाम लूखा छे, ज्ञानी तो ज्ञाता-द्रष्टापणे वर्ते छे एवुं यथार्थ जाणवानुं अज्ञानीनुं सामर्थ्य नथी. केम? केमके अज्ञानीने रागमां ने भोगमां मीठाश छे. अज्ञानी जीव भोगनी सामग्रीने बहारथी भोगवतो न देखाय छतां अंदर रागनी मीठाशमां-रुचिमां पडयो छे. बहारथी ते भोगवतो नथी छतां भोक्ता छे; पहेलां (गाथा १९७ मां) आवी गयुं ने के असेवक छतां सेवक छे. हवे एने ज्ञानीना परिणामनी शी खबर पडे? ज्ञानीना परिणामने समजवानुं एनुं सामर्थ्य ज नथी.

प्रश्नः– कया गुणस्थानथी राग नथी? उत्तरः– चोथाथी रागनी एकता नथी तो राग नथी. ए तो नीचे भावार्थमां छे के चोथे गुणस्थानथी मांडीने बधाय ज्ञानी छे. बापु! सम्यग्दर्शन एटले? अहाहा...! एनो स्पर्श थतां जीवनी रागमां ने भोगमां रुचि उडी जाय छे, सुखबुद्धि उडी जाय छे. ए तो जामनगरवाळानो दाखलो नहोतो आप्यो? (जुओ कलश १प१नो भावार्थ). तेम ज्ञानीने आत्माना आनंदना स्वाद आगळ रागनो-भोगनो स्वाद झेर जेवो भासे छे. जे किंचित् अस्थिरतानो राग छे तेनो स्वाद तेने झेर जेवो लागे छे. एने निर्जरा थाय छे एम अहीं कहे छे. अज्ञानी तो उपवास करीने बेसी जाय ने माने के तपश्चर्या थई गई ने निर्जरा थई गई, पण बापु! तुं बीजा पंथे छे भगवान! रागनी क्रियाथी कांई निर्जरा न थाय भाई! (एनाथी तो बंध ज थाय).

कहे छे-‘अविरत सम्यग्द्रष्टिथी मांडीने उपरना बधाय ज्ञानी ज समजवा.


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तेमां, अविरत सम्यग्द्रष्टि, देशविरत सम्यग्द्रष्टि अने आहार-विहार करता मुनिओने बाह्यक्रियाकर्म प्रवर्ते छे, तोपण ज्ञानस्वभावथी अचलित होवाने लीधे निश्चयथी तेओ बाह्यक्रियाकर्मना कर्ता नथी, ज्ञानना ज कर्ता छे.’

जोयुं? शुं कहे छे? के चोथे गुणस्थानथी मांडीने उपरना बधाय ज्ञानी ज छे. कोई वळी कहे छे के उपरना गुणस्थाने जाय त्यारे ज्ञानी थाय, नीचे तो धर्मी छे. पण ते बराबर नथी. हजी जेने अविरत भाव छे तेवा अविरत सम्यग्द्रष्टिथी मांडीने उपरना बधाय ज्ञानी समजवा एम कहे छे.

तेमां, चोथावाळो अविरत सम्यग्द्रष्टि, पांचमा गुणस्थानवाळो देशविरती अने आहार-विहार करता मुनिओने कहे छे, बाह्य क्रिया-कर्म अर्थात् दया, दान, व्रत, भक्ति आदि क्रियाकर्म प्रवर्ते छे तोपण निश्चयथी तेओ तेना कर्ता नथी. केम? कारण के तेओ ज्ञानस्वभावमां ज अचलित छे अर्थात् शुद्ध चैतन्यना अनुभवथी तेओ चलित थता नथी; रागादि क्रिया थाय छे तोपण तेओ ज्ञानना अनुभवथी खसता नथी माटे तेओ रागना कर्ता नथी पण ज्ञानना ज कर्ता छे. अहाहा...! धर्मी तो आत्मानी ज्ञानमय वीतरागी परिणतिना ज कर्ता छे.

हवे विशेष कहे छे-‘अंतरंग मिथ्यात्वना अभावथी तथा यथासंभव कषायना अभावथी तेमना परिणाम उज्ज्वळ छे. ते उज्ज्वळताने तेओ ज (-ज्ञानीओ ज) जाणे छे, मिथ्याद्रष्टिओ ते उज्ज्वळताने जाणता नथी.’

जोयुं? अंदर पोताना भगवानने भाळ्‌यो छे तेने अंतरंग मिथ्यात्वनो अभाव छे, भ्रान्तिनो अभाव छे. तो अंतरंग मिथ्यात्वना अभावथी तथा भूमिका प्रमाणे कषायनो अभाव वर्ततो होवाथी यथासंभव कषायना अभावथी तेमना परिणामो उज्ज्वळ छे. ल्यो, चोथे गुणस्थाने परिणाम उज्ज्वळ छे एम कहे छे. चोथे पण निर्मळ सम्यग्दर्शन ने अनंतानुबंधी कषायनो अभाव थयो छे ने? तो चोथे गुणस्थाने पण परिणाम उज्ज्वळ छे. तथा आगळ-आगळना गुणस्थानमां अप्रत्याख्यान आदि कषायनो जेम जेम अभाव थतो जाय छे तेम तेम परिणाम विशेष उज्ज्वळ-निर्मळ होय छे.

प्रश्नः– चोवीसे कलाक निर्मळ होय छे? उत्तरः– हा, निर्मळ होय छे. सम्यग्द्रष्टि लडाईमां ऊभो होय त्यारे पण जे मिथ्यात्व ने अनंतानुबंधी कषाय टळ्‌यां छे तेटला प्रमाणमां परिणाम तो तेना निर्मळ शुद्ध परिणतिरूपे उज्ज्वळ ज छे. झीणी वात छे भाई! मिथ्याद्रष्टि रागनी मंदतानी क्रियामां हो, अरे! छट्ठा गुणस्थाननी बहारनी क्रियामां हो, (छट्ठा गुणस्थानमां नहि हों) तोपण तेना परिणाम मलिन छे अने लडाईमां ऊभेला सम्यग्द्रष्टिना परिणाम निर्मळ छे. केम? केमके सम्यग्द्रष्टिए पडखुं फेरवी नाख्युं छे. रागना पडखेथी खसीने ते


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ज्ञानना पडखे गयो छे. तेनी द्रष्टि परमांथी खसीने स्वमां गई छे. ज्यारे अज्ञानीनी तो द्रष्टि ज पर उपर छे. आवी वात बहु झीणी बापा!

ए तो प्रवचनसार (गाथा २३६) मां न आव्युं? शुं? के काया ने कषायने पोताना माननारो बाह्यमां छकायनी हिंसा जराय न करतो होय तोपण ते छकायनी हिंसानो करनारो छे. भगवान आत्मा स्वभावथी कायारहित अकाय ने कषायरहित अकषायी छे. हवे आवा स्वभावने छोडीने जे काया ने कषायने पोतानां माने छे ते बहारथी भले नग्न दिगंबर साधु होय तथा बहारथी छकायनी हिंसा न करतो होय तोपण ते हिंसानो करनार छे, आत्मघाती छे. ज्यारे धर्मी आत्माना ज्ञान ने आनंदना अनुभवमांथी खसतो नथी तेथी कदाचित् रागनी क्रिया तेने थई जाय छे तोपण तेने अंतरनी निर्मळता छूटती नथी. तेथी तेना-ज्ञानीना परिणाम निरंतर उज्ज्वळ छे. आवो वीतरागनो मारग बहु सूक्ष्म भाई!

कहे छे ने के-‘पकड पकडमें फेर है;’ बिलाडी उंदरने मोंढामां पकडे छे अने पोताना बच्चाने पण मोढामां पकडे छे, पण ‘पकड पकडमें फेर है;’ बहारथी तो एकसरखी लागे पण बेय पकडमां फेर छे. (एकमां हिंसानो भाव छे, बीजामां रक्षानो भाव छे). तेम ज्ञानीने, आम बहारथी देखाय छे के तेने राग छे, पण रागनी पकड नथी; ज्यारे अज्ञानीने रागनी पकड छे-आ फेर छे.

अहाहा...! कहे छे-‘अंतरंग मिथ्यात्वना अभावथी तथा यथासंभव कषायना अभावथी तेमना परिणाम उज्ज्वळ छे. ते उज्ज्वळताने तेओ (-ज्ञानीओ) ज जाणे छे, मिथ्याद्रष्टिओ ते उज्ज्वळताने जाणता नथी.’ अहा! मिथ्याद्रष्टिनी द्रष्टि तो बहार छे, बहारनी क्रिया पर छे. ते बहारनी क्रियाथी धर्मीनुं माप काढे छे अने तेथी कोई अज्ञानी बहारनी क्रिया बराबर करतो होय तो तेने ते ज्ञानी माने छे अने कोई ज्ञानी जरीक भोगादिनी क्रियामां होय तो तेने ते अज्ञानी मानी ले छे. आ प्रमाणे अज्ञानी ज्ञानीना अंतरनी उज्ज्वळताने जाणतो नथी; पोताने उज्ज्वळता थया विना ते उज्ज्वळताने केवी रीते जाणे? ए तो सम्यग्दर्शननो कोई अचिंत्य महिमा छे के सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञानीओनी अंतःउज्ज्वळताने जाणे छे. ज्ञानी ज ज्ञानीओनी अंतरनी उज्ज्वळताने जाणे छे. अहो सम्यग्दर्शन! अहो! अंतःउज्ज्वळता!!

हवे कहे छे-‘मिथ्याद्रष्टि तो बहिरात्मा छे, बहारथी ज भलुं बूरुं माने छे; अंतरात्मानी गति बहिरात्मा शुं जाणे?’

मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा छे. एटले शुं? के तेने बहारनी चीजनी पकड छे ते बहारथी-बहारनी क्रियाथी जोनारो छे. ते अंदर कयां गयो छे के ते अंतरात्मानी


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गतिने जाणे? अहाहा...! राग ने जडथी भिन्न पडयो छे एवा भगवान आत्मानी उज्ज्वळ परिणतिने ते केम जाणे? जुओने! पोते (अज्ञानी) बालब्रह्मचारी होय छतां तेने रागनी एकताबुद्धि छे, अने ज्ञानीने ९६ हजार स्त्रीओ होय छतां रागनी एकताबुद्धि नथी. हवे आ फेरने अज्ञानी केम जाणे?-एम कहे छे. बाळब्रह्मचारी होवा छतां पोते (-अज्ञानी) शुद्धतानो स्वामी नथी तथा ९६ हजार स्त्रीओ होवा छतां मिथ्यात्व ने अनंतानुबंधी कषायना अभावथी उत्पन्न शुद्धतानो ज्ञानी-समकिती स्वामी छे. आवो फेर छे ते अज्ञानी जाणतो नथी.

मिश्रपणुं ज्ञानीने ज होय छे, केमके साधकपणुं होय त्यां ज किंचित् बाधकपणुं होय छे; अने छतांय ते (-ज्ञानी) तेनो (-बाधकपणानो) स्वामी नथी केमके तेने रागमांथी (-बाधकमांथी) रस ऊडी गयो छे. अहा! इन्द्रना इन्द्रासनमां पण तेने सुखबुद्धि नथी. इन्द्र क्रोडो अप्सराओ साथे रमतो देखाय छतां त्यां एने सुखबुद्धि नथी अने अज्ञानी बाळब्रह्मचारी होय के साधु थयो होय छतां रागमां तेने रस छे, परमां सुखबुद्धि ऊभी छे. आवी वात छे.

*

हवे, आ ज अर्थना समर्थनरूपे अने आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-

* कळश १प४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यत् भय–चलत्–त्रैलोक्य–मुक्त–अध्वनि वज्रे पतति अपि’ जेना भयथी चलायमान थता-खळभळी जता-त्रणे लोक पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां,...

अहा! देवो तरफथी वज्रपात थाय के आम आकाशमांथी अग्नि झरती होय ते वखते लोकमां अज्ञानीओ पोतानो मार्ग छोडी दे छे अर्थात् भयभीत थईने मार्गमांथी खसी जाय छे.

परंतु ‘अमी’ आ सम्यग्द्रष्टि जीवो ‘निसर्ग–निर्भयतया’ स्वभावथी ज निर्भय होवाने लीधे... , जोयुं? सम्यग्द्रष्टि स्वभावथी ज निर्भय छे. भगवान आत्मा निर्भयस्वभाव छे, आत्मामां-वस्तुमां भय नथी. आवा निर्भयस्वभावी आत्माना अनुभवने लईने सम्यग्द्रष्टि निर्भय छे. तेथी कहे छे-

स्वभावथी ज निर्भय होवाने लीधे ‘सर्वान् एव शंकां विहाय’ समस्त शंका छोडीने अर्थात् भयरहित थईने ‘स्वयं स्वं अवध्य–बोध–वपुषं जानन्तः’ पोते पोताने जेनुं ज्ञानरूपी शरीर अवध्य छे एवो जाणता थका, ‘बोधात् च्यवन्ते न हि’ ज्ञानथी च्युत थता नथी.


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अहाहाहा...! शुं कहे छे? के त्रिकाळी एक ज्ञायकस्वभाव जेनुं शरीर छे ते आत्मा छे. जाणग-जाणग-जाणग एवा स्वभावनो पिंड ते भगवान आत्मानुं शरीर छे, अने ते ज्ञानरूपी शरीर अवध्य छे अर्थात् कोईथी कदीय हणी शकाय नहि एवुं छे. अहाहा...! ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एवा ज्ञानशरीरी भगवान आत्मानो कोण वध करे? ए तो अवध्य छे. छे? छे ने पाठमां के-‘अवध्य–बोध–वपुषं’–

अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? तो कहे-आत्मा; तो एनुं शरीर शुं? ज्ञान तेनुं शरीर छे. आ औदारिक देह, के कर्मदेह के रागदेह-ते आत्मा नहि. अहाहा...! आ शरीर, मन, वाणी, कर्म-ते आत्मा नहि अने एक समयनी पर्याय ते पण आत्मा नहि. आत्मा तो ज्ञान जेनुं शरीर छे ते आत्मा छे. आत्मा त्रिकाळी ध्रुव-ध्रुव ज्ञानशरीरी छे ने ते अवध्य छे. अहाहा...! समकिती एम जाणे छे के- ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो मारो नाथ अवध्य छे, कोईथी कदीय हणी शकाय नहि तेवो छे. अहा! पोताने आवो जाणता-अनुभवता थका सम्यग्द्रष्टि जीवो ज्ञानथी च्युत थता नथी एटले के पोतानो जे शुद्ध चैतन्यघनस्वभाव छे त्यांथी खसता नथी. अहाहा...! धर्मी जीवो निराकुळ आनंदनो अनुभव छोडी दईने रागमां-झेरमां एकत्व पामता नथी. आवी व्याख्या छे.

‘बोधात् च्यवन्ते न हि’–अहाहा...! ज्ञानानंदनी मूर्ति प्रभु आत्मा छे, तेने भाळ्‌या पछी धर्मी त्यांथी च्युत थता नथी, भ्रष्ट थता नथी. एटले शुं? के ज्ञानभाव छोडीने रागमां आवता नथी. ओहो! जुओ आ धर्म! अरे भाई! भगवान जेने अंदरमां भेटया तेनी शी वात? भग नाम ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मी, वान नाम वाळो; अहा! आवा अनंत ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार प्रभु आत्मा ज्यां अनुभवमां आव्यो त्यां किंचित् राग थई आवे तोपण ज्ञानी स्वरूपलक्ष्मीना अनुभवथी च्युत थता नथी; पण जे रागनी क्रिया थाय छे तेने ते मात्र जाणे छे, आ राग छे, पर छे एम जाणे छे; ते पण राग छे माटे जाणे छे एमेय नहि.

अहाहा...! ‘जाणता थका’-एम छे ने? ‘अवध्य–बोध–वपुषं जानन्तः’–आत्मा कोईथी हणाय नहि एवो ज्ञानशरीरी प्रज्ञाब्रह्म प्रभु शुद्ध चैतन्यघनपिंड छे. तेने जाणता थका हों, रागने जाणता थका एम नहि. अहा! वीतरागनो मारग कोई अलौकिक छे! लोकोने ते मळ्‌यो नथी एटले बिचारा कयांय ने कयांय रोकाई जईने जिंदगी गाळे छे. तेओ भयभीत छे, दुःखी छे. अहीं कहे छे-जेने आ मारग मळ्‌यो छे तेने हवे कोई भय नथी, ते ज्ञानथी च्युत थता नथी. ज्ञानथी एटले के स्वरूपना अनुभवथी च्युत थईने ते रागमां आवता नथी. आवी वात छे. हवे कहे छे-

‘इदं परं साहसं सम्यग्द्रष्टयः एव कर्तुं क्षमन्ते’ आवुं परम साहस करवाने मात्र सम्यग्द्रष्टिओ ज समर्थ छे.


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अहाहा...! अग्निनो-वज्रनो उपरथी प्रपात थाय, अग्निना तणखा झरतां वज्र पडे तो त्रण लोकना जीवो खळभळी उठे छे ने भयभीत थईने पोताना मार्गने छोडी दे छे अर्थात् मार्गमांथी खसी जाय छे; त्यारे धर्मी सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञान ने आनंदमांथी खसता नथी एम कहे छे. अहाहा...! हुं त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छुं एम ज्यां श्रद्धानमां आव्युं तो स्वरूपमांथी कयारेय चलित न थाय एवो पुरुषार्थ जाग्रत थाय छे अने ते पुरुषार्थना बळे सम्यग्द्रष्टि स्वरूपमांथी विचलित थता नथी. तेने कर्म ने रागनी निर्जरा थाय छे. नियमसारमां (गाथा १८६मां) आवे छे ने के-कोई मंदबुद्धि लोको कदाचित् तारी निंदा करे तोपण हे भाई! तुं मारगमां अभक्ति न करीश; अहाहा...! तने जे वीतरागमार्ग मळ्‌यो छे एनाथी चलित न थईश. लोको निंदा करे के आ ते केवो धर्म! राग करे छे ने वळी कहे छे के करतो नथी, आनंदमां रहे छे!-एम अनेक कुतर्क करीने मत्सरभावथी निंदा करे तोपण तुं वीतरागभावथी चलित न थईश. जुओ आ शिखामण! अहीं कहे छे-मार्गमां द्रढपणे स्थित रहेवानुं साहस करवाने मात्र सम्यग्द्रष्टिओ ज समर्थ छे. अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि जीवो महा पुरुषार्थी छे, पराक्रमी छे.

* कळश १प४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सम्यग्द्रष्टि निःशंक्तिगुण सहित होय छे तेथी गमे तेवा शुभाशुभ कर्मना उदय वखते पण तेओ ज्ञानरूपे ज परिणमे छे.’

सम्यग्द्रष्टि निःशंक्तिगुण सहित होय छे एटले समकिती जीवो निर्भय होय छे. ‘शंकां विहाय’–एम कळशमां आव्युं ने? शंका कहो के भय कहो-एक ज छे. समकिती निःशंक कहेतां निर्भय होय छे. तेथी गमे तेवा शुभाशुभ कर्मना उदय वखते पण तेओ ज्ञानरूपे ज रहे छे. शुभकर्मना उदये बहु अनुकूळ सामग्री होय तेवी अनुकूळता वखते ने अशुभकर्मना उदये सातमी नरकना जेवी प्रतिकूळता आवे ते वखते पण ज्ञानी तो ज्ञानरूपे ज परिणमे छे.

शुं कह्युं ए? के शुभाशुभकर्मना उदय वखते पण ज्ञानी ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. क्रोडोगणी अनुकूळ सामग्री होय-हीरारत्नना मकान होय, मांही मखमलना गालीचा पाथर्या होय अने ते पण चारेकोर रत्नजडित होय इत्यादि शाताना उदयजनित सानुकूळ सामग्रीना ढग मळ्‌या होय तोय ज्ञानी ज्ञानभावथी चलित थतो नथी, ते सामग्रीने इष्ट जाणी तेमां एकपणुं करतो नथी. तथा अशुभना उदये काळुं शरीर, बहारमां निर्धनता इत्यादि अनेक प्रकारे प्रतिकूळताना गंज आवी पडया होय तोपण ज्ञानी ज्ञानथी च्युत थतो नथी. अर्थात् तेमां खेदभावने प्राप्त थतो नथी. ज्ञानी सामग्रीमां एकपणुं पामीने हरखातोय नथी ने खेदातोय नथी.


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हवे विशेष कहे छे के-‘जेना भयथी त्रण लोकना जीवो कंपी उठे छे-खळभळी जाय छे अने पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपने ज्ञानशरीरवाळुं मानतो थको ज्ञानथी चलायमान थतो नथी.’

शुं कह्युं? के ज्ञानीने तो एवो द्रढ विश्वास ने निर्णय थयो छे के-हुं तो जाणगस्वभावनो पिंड प्रभु आत्मा छुं. त्रिकाळी ध्रुव एवुं ज्ञान ते मारुं शरीर छे. आ शाता ने अशाताना उदयथी मळेली देहादि सामग्री ते कांई हुं नथी. ते मारामां नहि अने हुं तेमनामां नथी. अहा! आवो निःशंक थयेलो ज्ञानी ज्ञानथी अर्थात् स्वरूपना अनुभवथी चळतो नथी. तेने निर्जरा थती होय छे.

अशाता उदयने लईने जुओने! शरीरमां केटकेटला रोग थता होय छे! सातमी नरकना नारकीने भाई! पहेलेथी-जन्मथी ज शरीरमां सोळ-सोळ रोग होय छे. अने त्यांनी माटी एवी ठंडी छे के तेनो कटको जो अहीं आवी जाय तो १० हजार योजनमां माणस ठंडीथी मरी जाय. अहा! आवा अतिशय ठंडीना संयोगमां पण धर्मी स्वरूपथी चलायमान थतो नथी.

पण ते माटी शुं अहीं आवे? आवे शुं? आ तो त्यां ठंडी केवी छे ते बताववा दाखलो कह्यो छे. अहा! ते माटीनो एक टुकडो अहीं आवे तो दश हजार योजनना मनुष्यो मरी जाय. तेम पहेली नरकमां गरमी छे. केवी? के एनो एक तणखो अहीं आवी जाय तो दश हजार योजनमां माणसो मरी जाय. आवी ठंडी ने गरमीमां आ जीव त्यां अनंतवार रह्यो छे. समकिती पण त्यां छे. आ श्रेणीक राजा ज अत्यारे त्यां पहेली नरकमां छे. अहा! आवा संयोगमां पण ते ज्ञानथी चळता नथी. क्षणेक्षणे तेओ त्यां तीर्थंकर गोत्र बांधे छे. त्यांथी नीकळीने तेओ तीर्थंकर थशे. आवा पीडाकारी संजोगमां पण तेओ आनंदरसना घूंट पीए छे. गजब वात छे ने? भजनमां आवे छे ने के-

“चिन्मूरत द्रगधारीकी मोहि रीति लगत है अटापटी,
बाहिर नारकी दुःख भोगै अंतर सुखरस गटागटी.”

अहा! जेम कोईने तरस लागी होय ने मोसंबीनो ठंडो रस गटगट पीवे तेम ज्ञानी आनंदरसने अंदर गटगट पीए छे. ते नरकनी पीडाना संयोगमां पण, आत्मजनित आनंदरसने गटगट पीए छे. केम? केमके ज्ञानीने बहारना संयोग साथे कयां एकपणुं छे? संयोगमां कयां आत्मा छे? अने आत्मामां कयां संयोग छे? अहा! संयोग ने संयोगीभावथी भिन्न पडेलो ज्ञानी बहारथी नरकनी पीडामां देखाय तोपण ए तो अंदरमां निराकुळ आनंदने ज वेदे छे. हा, जेटलो राग छे


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तेटलुं दुःख छे, तोपण अंतरमां जे आत्मानुं भान छे अने अनंतानुबंधीनो अभाव छे तेटलुं आनंदनुं वेदन तेने छे. अहा! आवुं अटपटुं ‘बाहिर नारकी दुःख भोगै अंतर सुखरस गटागटी.’ समजाणुं कांई...?

सम्यग्द्रष्टि शुभाशुभकर्मना उदयथी भिन्न पडी गयो छे; ते हवे उदयने अडे केम? ते उदय साथे एकमेक थतो ज नथी; ए तो निरंतर ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. शुभना उदयने कारणे चाहे तो चक्रवर्तीनी संपदा मळी जाय तोपण तेमां ते भरमातो नथी, ललचातो नथी, हरखातो नथी अने अशुभ उदयने कारणे नरकना जेवा पीडाकारी संयोगना गंज होय तोपण तेमां ते खेद पामतो नथी. आखुं जगत ज्यां चलित थई जाय एवा संजोगमां पण समकिती ज्ञानरूपे ज परिणमे छे, ज्ञानभावमां अचलितपणे स्थिर रहे छे. अहो! सम्यग्दर्शननो आवो कोई अचिंत्य अलौकिक महिमा छे! बापु! सम्यग्दर्शन प्राप्त करवुं ए वस्तु छे. बाकी (व्रत, तप, आदि) तो कांई नथी.

हवे कहे छे-‘तेने एम शंका नथी थती के आ वज्रपातथी मारो नाश थई जशे; पर्यायनो विनाश थाय तो ठीक ज छे कारण के तेनो तो विनाशिक स्वभाव ज छे.’

अहाहा...! वस्तु आत्मा अनादि अनंत अकृत्रिम त्रिकाळी ध्रुव तत्त्व छे. तेनो वळी नाश केवो? अने तेनो नाश कोण करे? कोई पण संजोगमां हुं नाश पामुं नहि एम समकिती निःशंक छे. तथा आ पर्याय छे, देहादि संयोग छे ए तो स्वभावथी ज नाशवंत छे अने तेनो नाश थाय तो तेथी मने शुं? हुं त्रिकाळ शुद्ध अविनाशी ज्ञायकतत्त्व छुं. ल्यो, एककोर जड शरीर विनाशिक ने एककोर ज्ञानशरीर पोते त्रिकाळ अविनाशी-एम समकिती निःशंक छे. आवी वात छे.

[प्रवचन नं. २९७ अने २९८ (चालु) *दिनांक २०-१-७७ अने २१-१-७७]
ॐॐॐ

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गाथा–२२८
सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका।। २२८।।
सम्यग्द्रष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन।
सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शङ्काः।।
२२८।।
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मन–
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः।
लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५५।।

हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः-

सम्यक्त्ववंत जीवो निःशंक्ति, तेथी छे निर्भय अन;े
छे सप्तभयप्रविमुक्त जेथी, तेथी ते निःशंक छे. २२८.

गाथार्थः– [सम्यग्द्रष्टयः जीवाः] सम्यग्द्रष्टि जीवो [निश्शङ्काः भवन्ति] निःशंक होय छे [तेन] तेथी [निर्भयाः] निर्भय होय छे; [तु] अने [यस्मात्] कारण के [सप्तभयविप्रमुक्ताः] सप्त भयथी रहित होय छे [तस्मात्] तेथी [निश्शङ्काः] निःशंक होय छे (-अडोल होय छे).

टीकाः– कारण के सम्यग्द्रष्टिओ सदाय सर्व कर्मोनां फळ प्रत्ये निरभिलाष होवाथी कर्म प्रत्ये अत्यंत निरपेक्षपणे वर्ते छे, तेथी खरेखर तेओ अत्यंत निःशंक दारुण (द्रढ) निश्चयवाळा होवाथी अत्यंत निर्भय छे एम संभावना करवामां आवे छे (अर्थात् एम योग्यपणे गणवामां आवे छे).

हवे सात भयनां कळशरूप काव्यो कहेवामां आवे छे, तेमां प्रथम आ लोकना तथा परलोकना एम बे भयनुं एक काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [एषः] आ चित्स्वरूप लोक ज [विविक्तात्मनः] भिन्न आत्मानो (अर्थात् परथी भिन्नपणे परिणमता आत्मानो) [शाश्वतः एकः सकल–व्यक्तः लोकः]


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(शार्दूलविक्रीडित)
एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः।
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५६।।

शाश्वत, एक अने सकलव्यक्त (-सर्व काळे प्रगट एवो) लोक छे; [यत्] कारण के [केवलम् चित्–लोकं] मात्र चित्स्वरूप लोकने [अयं स्वयमेव एककः लोकयति] ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकलो अवलोके छे-अनुभवे छे. आ चित्स्वरूप लोक ज तारो छे, [तद्–अपरः] तेनाथी बीजो कोई लोक- [अयं लोकः अपरः] आ लोक के परलोक- [तव न] तारो नथी एम ज्ञानी विचारे छे, जाणे छे, [तस्य तद्–भीः कुतः अस्ति] तेथी ज्ञानीने आ लोकनो तथा परलोकनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने (पोताना ज्ञानस्वभावने) सदा अनुभवे छे.

भावार्थः– ‘आ भवमां जीवन पर्यंत अनुकूळ सामग्री रहेशे के नहि?’ एवी चिंता रहे ते आ लोकनो भय छे. ‘परभवमां मारुं शुं थशे?’ एवी चिंता रहे ते परलोकनो भय छे. ज्ञानी जाणे छे के-आ चैतन्य ज मारो एक, नित्य लोक छे के जे सर्व काळे प्रगट छे. आ सिवायनो बीजो कोई लोक मारो नथी. आ मारो चैतन्यस्वरूप लोक तो कोईथी बगाडयो बगडतो नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने आ लोकनो के परलोकनो भय क्यांथी होय? कदी न होय. ते तो पोताने स्वाभाविक ज्ञानरूप ज अनुभवे छे. १पप.

हवे वेदनाभयनुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [निर्भेद–उदित–वेद्य–वेदक–बलात्] अभेदस्वरूप वर्तता वेध- वेदकना बळथी (अर्थात् वेध अने वेदक अभेद ज होय छे एवी वस्तुस्थितिना बळथी) [यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकुलैः सदा वेद्यते] एक अचळ ज्ञान ज स्वयं निराकुळ पुरुषो वडे (-ज्ञानीओ वडे) सदा वेद्राय छे, [एषा एका एव हि वेदना] ते आ एक ज वेद्रना (ज्ञानवेदना) ज्ञानीओने छे. (आत्मा वेदनार छे अने ज्ञान वेदावायोग्य छे. [ज्ञानिनः अन्या आगत–वेदना एव हि न एव भवेत्] ज्ञानीने बीजी कोई आवेली (- पुद्गलथी थयेली) वेद्रना होती ज नथी, [तद्–भीः कुतः] तेथी तेने वेद्रनानो भय क्य ांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थः– सुखदुःखने भोगववुं ते वेदना छे. ज्ञानीने पोताना एक ज्ञानमात्र


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(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थिति–
र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः।
अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५७।।
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य–
च्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः।
अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५८।।

स्वरूपनो ज भोगवटो छे. ते पुद्गलथी थयेली वेदनाने वेदना ज जाणतो नथी. माटे ज्ञानीने वेदनाभय नथी. ते तो सदा निर्भय वर्ततो थको ज्ञानने अनुभवे छे. १प६.

हवे अरक्षाभयनुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता] जे सत् छे ते नाश पामतुं नथी एवी वस्तुस्थिति नियतपणे प्रगट छे. [तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत्] आ ज्ञान पण स्वयमेव सत् (अर्थात् सत्स्वरूप वस्तु) छे (माटे नाश पामतुं नथी), [ततः अपरैः अस्य त्रातं किं] तेथी वळी पर वडे तेनुं रक्षण शुं? [अतः अस्य किञ्चन अत्राणं न भवेत्] आ रीते (ज्ञान पोताथी ज रक्षित होवाथी) तेनुं जरा पण अरक्षण थई शकतुं नथी [ज्ञानिनः तद्–भी कुतः] माटे (आवुं जाणता) ज्ञानीने अरक्षानो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थः– सत्तास्वरूप वस्तुनो कदी नाश थतो नथी. ज्ञान पण पोते सत्तास्वरूप वस्तु छे; तेथी ते एवुं नथी के जेनी बीजाओ वडे रक्षा करवामां आवे तो रहे, नहि तो नष्ट थई जाय. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने अरक्षानो भय नथी; ते तो निःशंक वर्ततो थको पोते पोताना स्वाभाविक ज्ञानने सदा अनुभवे छे. १प७.

हवे अगुप्तिभयनुं काव्य कहेः- श्लोकार्थः– [किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति] खरेखर वस्तुनुं स्व-रूप ज (अर्थात् निज रूप ज) वस्तुनी परम ‘गुप्ति’ छे [यत् स्वरूपे कः अपि


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(शार्दूलविक्रीडित)
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्।
तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५९।।

परः प्रवेष्टुम् न शक्तः] कारण के स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी; [च] अने [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं] अकृत ज्ञान (-जे कोईथी करवामां आव्युं नथी एवुं स्वाभाविक ज्ञान-) पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप छे; (तेथी ज्ञान आत्मानी परम गुप्ति छे.) [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत्] माटे आत्मानुं जरा पण अगुप्तपणुं नहि होवाथी [ज्ञानिनः तद्–भीः कुतः] ज्ञानीने अगुप्तिनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थः– ‘गुप्ति’ एटले जेमां कोई चोर वगेरे प्रवेश न करी शके एवो किल्लो, भोंयरुं वगेरे; तेमां प्राणी निर्भयपणे वसी शके छे. एवो गुप्त प्रदेश न होय पण खुल्लो प्रदेश होय तो तेमां रहेनार प्राणीने अगुप्तपणाने लीधे भय रहे छे. ज्ञानी जाणे छे के- वस्तुना निज स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी माटे वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे. पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे; ते ज्ञानस्वरूपमां रहेलो आत्मा गुप्त छे कारण के ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने अगुप्तपणानो भय क्यांथी होय? ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे. १प८.

हवे मरणभयनुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति] प्राणोना नाशने (लोको) मरण कहे

छे. [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं] आ आत्माना प्राण तो निश्चयथी ज्ञान छे. [तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते] ते (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होवाथी तेनो कद्रापि नाश थतो नथी; [अतः तस्य मरणं किञ्चन न भवेत्] माटे आत्मानुं मरण बिलकुल थतुं नथी. [ज्ञानिनः तद्–भीः कुतः] तेथी (आवुं जाणता) ज्ञानीने मरणनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थः– इंद्रियादि प्राणो नाश पामे तेने लोको मरण कहे छे. परंतु आत्माने परमार्थे इंद्रियादि प्राण नथी, तेने तो ज्ञान प्राण छे. ज्ञान अविनाशी छे-


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(शार्दूलविक्रीडित)
एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्धं किलैतत्स्वतो
यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः।
तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १६०।।

-तेनो नाश थतो नथी; तेथी आत्माने मरण नथी. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने मरणनो भय नथी; ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे. १प९.

हवे आकस्मिकभयनुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं] आ स्वतःसिद्ध ज्ञान एक छे, [अनादि] अनादि छे, [अनन्तम्] अनंत छे, [अचलं] अचळ छे. [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत्] ते ज्यां सुधी छे त्यां सुधी सदाय ते ज छे, [अत्र द्वितीयोदयः न] तेमां बीजानो उदय नथी. [तत्] माटे [अत्र आकस्मिकम् किञ्चन न भवेत्] ज्ञानमां आकस्मिक (अणधार्युं, एकाएक) कांई पण थतुं नथी. [ज्ञानिनः तद्–भीः कुतः] आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थः– ‘कांई अणधार्युं अनिष्ट एकाएक उत्पन्न थशे तो?’ एवो भय रहे ते आकस्मिकभय छे. ज्ञानी जाणे छे के-आत्मानुं ज्ञान पोताथी ज सिद्ध, अनादि, अनंत, अचळ, एक छे. तेमां बीजुं कांई उत्पन्न थई शकतुं नथी; माटे तेमां अणधार्युं कांई पण क्यांथी थाय अर्थात् अकस्मात क्यांथी बने? आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय होतो नथी, ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना ज्ञानभावने निरंतर अनुभवे छे.

आ रीते ज्ञानीने सात भय होता नथी. प्रश्नः– अविरतसम्यग्द्रष्टि आदिने पण ज्ञानी कह्या छे अने तेमने तो भयप्रकृतिनो उदय होय छे तथा तेना निमित्ते तेमने भय थतो पण जोवामां आवे छे, तो पछी ज्ञानी निर्भय कई रीते छे?

समाधानः– भयप्रकृतिना उदयना निमित्तथी ज्ञानीने भय ऊपजे छे. वळी अंतरायना प्रबळ उदयथी निर्बळ होवाने लीधे ते भयनी पीडा नहि सही शकवाथी ज्ञानी ते भयनो इलाज पण करे छे. परंतु तेने एवो भय होतो नथी के जेथी जीव


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(मंदाक्रान्ता)
टङ्कोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः
सम्यग्द्रष्टेर्यदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्माणि कर्म।
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव।। १६१।।

स्वरूपनां ज्ञानश्रद्धानथी च्युत थाय. वळी जे भय ऊपजे छे ते मोहकर्मनी भय नामनी प्रकृतिनो दोष छे; तेनो पोते स्वामी थईने कर्ता थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे. माटे ज्ञानीने भय नथी. १६०.

हवे आगळनी (सम्यग्द्रष्टिना निःशंकित आदि चिह्नो विषेनी) गाथाओनी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [टङ्कोत्कीर्ण–स्वरस–निचित–ज्ञान–सर्वस्व–भाजः सम्यग्द्रष्टेः] टंकोत्कीर्ण एवुं जे निज रसथी भरपूर ज्ञान तेना सर्वस्वने भोगवनार सम्यग्द्रष्टिने [यद् इह लक्ष्माणि] जे निःशंक्ति आदि चिह्नो छे ते [सकलं कर्म] समस्त कर्मने [ध्नन्ति] हणे छे; [तत्] माटे, [अस्मिन्] कर्मनो उदय वर्ततां छतां, [तस्य] सम्यग्द्रष्टिने [पुनः] फरीने [कर्मणः बन्धः] कर्मनो बंध [मनाक् अपि] जरा पण [नास्ति] थतो नथी, [पूर्वोपात्तं] परंतु जे कर्म पूर्वे बंधायुं हतुं [तद्–अनुभवतः] तेना उदयने भोगवतां तेने [निश्चितं] नियमथी [निर्जरा एव] ते कर्मनी निर्जरा ज थाय छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टि पूर्वे बंधायेली भय आदि प्रकृतिओना उदयने भोगवे छे तोपण निःशंकित आदि गुणो वर्तता होवाथी तेने शंकादिकृत (शंकादिना निमित्ते थतो) बंध थतो नथी परंतु पूर्वकर्मनी निर्जरा ज थाय छे. १६१.

* * *
समयसार गाथा २२८ः मथाळु

हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः-

* गाथा २२८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कारण के सम्यग्द्रष्टिओ सदाय सर्व कर्मोनां फळ प्रत्ये निरभिलाष होवाथी...’ जोयुं? ‘सम्यग्द्रष्टिओ’-एम बहुवचन वापर्युं छे; केम? कारण के सम्यग्द्रष्टि जीवो अनेक छे. अल्प छतां अनेक छे एम सूचववा बहुवचन कह्युं छे. अहाहा...! _________________________________________________________________

१. निःशंक्ति = संदेह अथवा भय रहित. २. शंका = संदेह; कल्पित भय.


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तेओ सर्व कर्मोनां फळ प्रत्ये एटले पुण्यनां फळ प्रत्ये ने पापनां फळ प्रत्ये निरभिलाषी छे. जेम पापनां फळ प्रति निरभिलाषी छे. तेम पुण्यना फळ प्रति पण निरभिलाषी छे. ‘सर्व कर्मोनां’ कह्यां छे ने? एटले पाप ने पुण्य बन्ने आवी गयां. कर्मफळ नाम क्रिया ने प्राप्त सामग्री इत्यादि प्रत्ये सम्यग्द्रष्टिओ निरभिलाषी छे, निर्वांछक छे.

कहे छे-‘कारण के सम्यग्द्रष्टिओ सदाय सर्व कर्मोनां फळ प्रत्ये निरभिलाषी होवाथी कर्म प्रत्ये अत्यंत निरपेक्षपणे वर्ते छे, तेथी खरेखर तेओ अत्यंत निःशंक दारुण (द्रढ) निश्चयवाळा होवाथी अत्यंत निर्भय छे एम संभावना करवामां आवे छे.’

जोयुं? निःशंक होवाथी तेओ अत्यंत निर्भय छे. अहा! परमाधामी शरीरने अग्निमां नाखे अने शरीरना, पाराना जेम भुक्का थई जाय छे तेम, भुक्का थई जाय तोपण ‘मने कांई छे नहि, हुं तो छुं ते छुं, मारुं ज्ञानस्वरूप-ज्ञानस्वभावरूपी शरीर-कोईथी हणाय एवुं नथी’-एम सम्यग्द्रष्टिओ निःशंक ने द्रढ निश्चयवाळा होय छे. अहाहा...! आ शरीर तो हणाय केमके ए तो हणावा योग्य छे पण हुं तो अनादिअनंत अविनाशी तत्त्व छुं. आवो निःशंक द्रढ निश्चय जेमने थयो छे ते सम्यग्द्रष्टिओ अत्यंत निर्भय छे-एम कहे छे. अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध शाश्वत चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मानुं जेने भान थयुं छे, वेदन थयुं छे ते अत्यंत निःशंक अने निर्भय छे.

*

हवे सात भयनां कळशरूप काव्यो कहेवामां आवे छे, तेमां प्रथम आ लोकना तथा परलोकना एम बे भयनुं एक काव्य कहे छेः- सम्यग्द्रष्टिने निःशंक ने निर्भय कह्योने? तेथी हवे तेने सात भयनो अभाव छे एम काव्यो द्वारा प्रगट करे छेः-

* कळश १पपः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एषः’ आ चित्स्वरूप लोक ज.........

जोयुं? ‘एषः’–‘आ’ कहेतां जे ज्ञानमां प्रत्यक्ष थयो छे ते आ चित्स्वरूप- ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा ज मारो लोक छे एम ज्ञानी जाणे छे.

अहाहा...! कहे छे-आ चित्स्वरूप लोक ज ‘विविक्तात्मनः’ भिन्न आत्मानो अर्थात् परथी भिन्नपणे परिणमता आत्मानो ‘शाश्वतः एकः सकल–व्यक्तः लोकः’ शाश्वत, एक अने सकल-व्यक्त (-सर्व काळे प्रगट एवो) लोक छे.

अहाहा...! मारो तो शाश्वत, एक अने सकळ प्रगट-व्यक्त लोक छे एम धर्मी जाणे छे. वस्तु-आत्मा व्यक्त छे एम कहे छे. जोके (व्यक्त) पर्यायनी अपेक्षाए तेने अव्यक्त कहेवामां आवे छे ए बीजी वात छे. ४९मी गाथामां छ बोल आवे


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छे. तेमां छ बोलथी भगवान आत्माने अव्यक्त कह्यो छे. त्यां अपेक्षा बीजी छे. अही तो वस्तु तरीके भगवान आत्मा व्यक्त छे-सकलव्यक्त छे-एम कहे छे. अहाहा... कहे छे- मारो लोक शाश्वत छे, एक अर्थात् एकस्वरूपे छे तथा सकळ-प्रगट छे. ‘एषः’– आखो ध्रुव नित्यानंद प्रभु आत्मा सकळ-व्यक्त अर्थात् सर्वकाळे प्रगट छे एम कहे छे. जुओ! आ धर्मीनी द्रष्टि!

त्यां ४९मी गाथामां अव्यक्तना छ बोल छे ने के- १. छ द्रव्यस्वरूप लोक ज्ञेय छे, व्यक्त छे अने तेनाथी भगवान आत्मा भिन्न अव्यक्त

छे. त्यां छ द्रव्यो व्यक्त छे तेनी अपेक्षाए (भिन्न होवाथी) अव्यक्त कह्यो छे. परंतु
पोतानी अपेक्षाए व्यक्त-आखो प्रगट छे.

२. कषायोनो समूह जे भावकभाव व्यक्त छे तेनाथी जीव भिन्न छे माटे अव्यक्त छे. ३. चैतन्यसामान्यमां चैतन्यनी सर्व व्यक्तिओ अंतर्गत छे माटे ते अव्यक्त छे. ४. क्षणिक व्यक्तिमात्र-पर्यायनी क्षणिक व्यक्तिमात्र-नथी माटे भगवान आत्मा अव्यक्त

छे.

प. व्यक्त अने अव्यक्त एक साथे प्रतिभासवा छतां भगवान आत्मा व्यक्तने स्पर्शतो

नथी. शुं कह्युं? के व्यक्त नाम पर्याय ने अव्यक्त नाम द्रव्य-बेयनुं ज्ञान एक साथे
थवा छतां व्यक्तने द्रव्य अडतुं नथी माटे अव्यक्त छे. झीणी वात भाई!

६. पोते पोताथी ज बाह्याभ्यंतर अनुभवमां आववा छतां व्यक्त प्रति ते उदास छे माटे

अव्यक्त छे.

अहाहा...! पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्माने त्यां ४९ मी गाथामां अव्यक्त कह्यो छे तेने अहीं व्यक्त कह्यो छे. कोई दि’ आवी वात सांभळी न होय तेने थाय के-आ ते केवो उपदेश ने केवी वात! घडीकमां अव्यक्त ने घडीकमां व्यक्त कहो ते केवी वात! अरे भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए.

प्रश्नः– तो शुं ते आखो प्रगट छे? समाधानः– हा; ते आखो प्रगट छे. वस्तु छे ने? भगवान आत्मा चैतन्यबिंब प्रभु ज्ञान ने आनंदनुं धाम-गोदाम त्रिकाळ एक वस्तु छे. एमां एक एक एम अनंत शक्तिओ छे, अने एक एक शक्तिनुं-गुणनुं अपरिमित अनंत अनंत सामर्थ्य छे. आवो वज्रमय भगवान आत्मा एकरूप ध्रुव कोई दि’ हले नहि-परिणमे नहि एवो एक, शाश्वत एने सकळ-व्यक्त अहीं कह्यो छे. ज्ञानमां प्रत्यक्ष व्यक्त छे ने? तेथी अहीं सकळ-व्यक्त कह्यो छे. त्यां ४९ मी गाथामां अव्यक्त कह्यो छे ते बीजी अपेक्षाए छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ जाणवी जोईए.


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हवे कहे छे-‘यत्’ कारण के ‘केवलं चित्लोकं’ मात्र चित्स्वरूप लोकने ‘अयं स्वयमेव एककः लोकयति’ आ ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकलो अवलोके छे-अनुभवे छे.

आ चित्स्वरूप आत्माने आ आत्मा (ज्ञानी पुरुष) स्वयमेव एटले के कोई परनी अपेक्षा विना एकलो अनुभवे छे एम कहे छे. एकलो अनुभवे छे एटले के एने व्यवहाररत्नत्रयनी पण अपेक्षा नथी; पोते पोताथी ज अनुभवे छे-एम वात छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आ चित्स्वरूप लोक ज तारो (-पोतानो) छे एम अनुभवे छे. ‘तद्–अपरः’ तेनाथी बीजो कोई लोक-‘अयं लोकः अपरः’ आ लोक के परलोक ‘तव न’ तारो नथी एम ज्ञानी विचारे छे, जाणे छे. शुं कह्युं? के ज्ञानी पोताना शुद्ध चित्स्वरूप लोकने-त्रिकाळी भगवान आत्माने छोडीने आ लोक के परलोकसंबंधी जे विचार (चिंता) थाय ते पोतानुं स्वरूप नथी एम जाणे छे. तेथी-

‘तस्य तद्–भीः कुतः अस्ति’ ज्ञानीने आ लोकनो तथा परलोकनो भय कयांथी होय? न होय. ‘सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति’ ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने (पोताना ज्ञानस्वभावने) सदा अनुभवे छे; अर्थात् सहज शुद्ध आत्मस्वभावने ज निरंतर अनुभवे छे.

* कळश १पपः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ भवमां जीवन पर्यंत अनुकूळ सामग्री रहेशे के नहि?-एवी चिंता रहे ते आ लोकनो भय छे.’

‘शुं कह्युं? के मरण थतां सुधी आ बधी सगवडताओ रहेशे के नहि एवो भय अज्ञानीने रह्या करे छे. आ शरीरनी नीरोगता, शरीर ने कुटुंबने टकावनारी अनेक प्रकारनी बाह्य सामग्री जीवन पर्यंत सरखी रहेशे के नहि एवी चिंता रहे ते आ लोकनो भय छे. अहा! बिमारी आवी जशे तो? कुटुंबनो वियोग थई जशे तो? धनादि संपत्ति चाली जशे तो? आवी अनेक प्रकारे चिंता थवी ते आ लोकनो भय छे; अने ते ज्ञानीने होतो नथी एम कहे छे. अहाहा...! हुं तो ज्ञानानंदस्वभावी नित्य चिदानंद चैतन्यधातुमय आत्मा छुं अने ए ज मारो लोक छे, आ सिवाय बीजो लोक मारे कयां छे?-एम ज्ञानी जाणे छे. तेथी ज्ञानीने आ लोकनो भय नथी.

‘परभवमां मारुं शुं थशे?-एवी चिंता रहे ते परलोकनो भय छे.’ अरे हुं मरीने कयां जईश अने मारुं शुं थशे?-एम अज्ञानी साशंक रहे छे. तेथी अज्ञानी परलोक संबंधी भयभीत अने चिंताग्रस्त रहे छे. ज्यारे ज्ञानी तो जाणे छे के-‘आ चैतन्य ज मारो एक नित्य लोक छे के जे सर्व काळे प्रगट छे.’

हा, पण कोई अज्ञानीओ तो परलोकने मानता ज नथी?


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परलोकने न माने तेथी शुं? पोते अनादिअनंत वस्तु आत्मा छे के नहि? अने छे तो देहथी छूटीने कयांक जाय छे के नहि? अरे! पोताना स्वरूपना भान विना अज्ञानी चारगतिमां परलोकमां अनादिथी रखडे छे.

अहा! ज्ञानी जाणे छे के आ सदा चित्स्वरूप मारो आत्मा ज मारो एक, नित्य- शाश्वत लोक छे जे सर्वकाळे प्रगट छे. आवा स्वरूपनो समकितीने पर्यायमां निर्णय अनुभव होय छे. हवे कहे छे-

‘आ सिवायनो बीजो कोई लोक मारो नथी. आ मारो चैतन्यस्वरूप लोक तो कोईथी बगाडयो बगडतो नथी.’

भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूपी लोक छे. ‘लोक्यन्ते इति लोकः’ जेमां चैतन्य जणाय ते (आत्मा) लोक छे. ‘लोक्यन्ते इति लोकः’ं जेमां वस्तु (द्रव्यसमूह) जणाय ते लोक छे. आत्माने चैतन्यलोक केम कह्यो? केमके तेमां चेतन-अचेतन जणाय एवो तेनो स्वभाव छे. माटे जेमां मारुं चैतन्यस्वरूप जणाय ते चित्स्वरूप आत्मा मारो लोक छे. आ सिवाय बीजो कोई मारो लोक नथी.

पोतानी बहार कांई पण पोतानुं नथी? ना, पोतानी बहार कांई पण पोतानुं नथी. नाशवान् पोतानी पर्याय ज्यां त्रिकाळी शुद्ध आत्मामां नथी त्यां अन्यद्रव्यनी शुं वात! अहाहा...! एक ज्ञायकभाव नित्यानंद अविनाशिक प्रभु आत्मा जे ‘लोक्यन्ते’ मारामां जणाय छे ते ज मारो लोक छे अने ते त्रिकाळ एकरूप छे, कोईथी बगाडयो बगडतो नथी. आवा त्रिकाळ एकरूप शुद्ध चित्स्वरूप लोक सिवाय जगतमां बीजो कोई मारो लोक नथी.

हवे कहे छे-‘आवुं जाणता ज्ञानीने आ लोकनो के परलोकनो भय कयांथी होय? कदी न होय.’

अहाहा...! आ लोक ने परलोक संबंधी सामग्री अर्थात् जगत्ना पदार्थो बधा कालाग्निनां इंधन छे. लाकडां जेम अग्निमां बळी जाय तेम तेओ कालाग्निमां बळी जवा योग्य छे, ज्यारे पोते ज एक त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभावी भगवान छे. आवुं जाणता ज्ञानीने आ लोकनो के परलोकनो भय कयांथी होय? अज्ञानीने आ लोक ने परलोकनो भय छे केमके ते ज्यां पडाव नाखे छे त्यां ए बधुं मारुं छे एम मानी बेसे छे. अहा! त्रिकाळी आनंदनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु पोतानो छे त्यां पडाव करतो नथी अने ज्यां ज्यां (चार गतिमां) पडाव करे छे त्यां बधुं मारुं छे एम अज्ञानी माने छे. पण भाई! बहारना भभका-आ शेठपद, राजपद ने देवपदना भभका-बधा नाशवान छे.

अहाहा...! आ लोकनी सामग्री ने परलोकनी सामग्री मारा चैतन्यलोकमां-