Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 224-227 ; Kalash: 153-154.

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अहीं कहे छे-हे ज्ञानी! ‘ज्ञानिन्’ एम कह्युं ने? मतलब के आत्मानुं ज्ञान

अने आत्मानो स्वाद तने आव्यो छे तो हे ज्ञानी! परवस्तु, राग ने शरीरादि सामग्री कदी मारी नथी एम तो तुं माने छे अने छतां वळी तुं कहे छे के हुं तेने भोगवुं छुं तो ए कयांथी लाव्यो? मूढ छो के शुं? शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा ज हुं छुं अने आ राग-पुण्य-पापना परिणाम, शरीर अने आ बधी कर्मनी सामग्री पर छे, माराथी भिन्न छे एम तो तुं यथार्थ माने छे अने वळी तेने हुं भोगवुं छुं एम भोगववानो रस ले छे तो स्वच्छंदी छो के शुं? अहा! विषय भोगववामां जो तने रस छे तो अमे कहीए छीए के तुं दुर्भुक्त छो. खोटी रीते ज भोगवनार छो. धर्मी नाम धरावे अने कर्मना निमित्तथी मळेली सामग्रीमां-परद्रव्यमां भोगववानो रस पण धरावे तो तुं धर्मी छे ज नहि.

शुं कहे छे? के तने जो परने भोगववामां रस पडतो होय अने तुं तने धर्मी मानतो होय तो तुं मूढ स्वच्छंदी छो, धर्मी छो ज नहि. कह्युं ने के तुं खोटी रीते ज भोगवनार छो अर्थात् अज्ञानी ज छो. विशेष कहे छे के-

‘हन्त’ ‘जे तारुं नथी तेने तुं भोगवे छे ए महाखेद छे!’

शुं कहे छे? के शरीर, स्त्री-पुत्र-परिवार, पैसा, महेल-मकान इत्यादि पर छे, तारामां नथी छतां तेने तुं भोगवे छे ए महाखेद छे. आम कहीने धर्मात्माने ‘परने हुं भोगवुं-एम परमां कदीय सुखबुद्धि होती नथी एम कहे छे. धर्मी होवानी आ अनिवार्य शरत छे.

अरेरे! जिंदगी एम ने एम चाली जाय छे. केटलाकने तो ६०-७० वर्ष थई गयां. भाई! जेटलो समय जाय छे तेटली मरणनी समीपता थती जाय छे केमके आयुनी मुदत तो निश्चित ज छे; जे समये देह छूटवानो छे ते तो निश्चित ज छे. हवे एमां आ आत्मा शुं ने पर शुं एनुं भान न कर्युं तो बधा ढोर जेवा ज अवतार छे पछी भले ते करोडपति हो के अबजोपति हो.

अहीं आमां न्याय शुं आप्यो छे? के प्रभु! तुं ज्ञानी छो एम तने थयुं छे अने ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मानुं तने भान थयुं छे तथा पोताना चित्स्वरूप आत्मा सिवाय परवस्तु मारी नथी एवो तने निर्णय पण थयो छे छतां पण हुं परवस्तुने भोगवुं-एम भोगववानो तने रस छे तो तुं मूढ ज छो, दुर्भुक्त छो, मिथ्या भोक्ता छो अर्थात् अज्ञानी छो. अहीं धर्मभावना (रुचि) ने परनी भोक्तापणानी भावना ए बे साथे होई शकतां नथी, रही शकतां नथी एम कहे छे.

वळी कहे छे-‘यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात्’ जो तुं कहे के-‘परद्रव्यना भोगथी बंध थतो नथी एम सिद्धांतमां कह्युं छे माटे भोगवुं छे.’ ‘तत् किं कामचारः अस्ति’ तो शुं तने भोगववानी इच्छा छे?


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अहाहा...! शुं कहे छे? के परद्रव्यना भोगथी बंध थतो नथी एम सिद्धांतमां कह्युं छे माटे भोगवुं छुं तो पूछीए छीए के शुं तने भोगववानी इच्छा छे? इच्छा छे ने वळी तुं कहे के मने बंध नथी तो तेम छे नहि. जो तने इच्छा छे तो तुं भोगनो रसीलो छे अने तो तने जरूर बंध छे. माटे कहे छे-‘ज्ञानं सन् वस’ ज्ञानरूप थईने वस; अर्थात् शुद्ध स्वरूपमां निवास कर. ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मामां ज रहे. आवो मारग वीतरागनो छे.

शुं कहे छे? के ज्ञानरूप थईने वस; शुद्धस्वरूपमां निवास कर. एटले के घरमां नहि, कुटुंबमां नहि, पैसामां नहीं ने रागमां पण नहि पण शुद्ध चिन्मात्रवस्तु प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप पोते छे तेमां वस. ल्यो, परथी खस, स्वमां वस, एटलुं बस-ए टूकुं ने टच. भाई! आ शब्दो तो थोडा छे पण एनो भाव गंभीर छे. अहाहा...! अमृतनो सागर प्रभु आत्मा छे; तेना अमृतनां पान कीधां ने हवे परद्रव्यने भोगववानी वृत्ति-झेरने पीवानी वृत्ति केम होय? न होय. माटे कहे छे के अमृतस्वरूप एवा स्वस्वरूपमां वस.

‘अपरथा’ नहि तो अर्थात् भोगववानी जो इच्छा करीश वा जो अज्ञानरूपे परिणमीश तो ‘धुवम्’ स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि’ तुं चोक्कस पोताना अपराधथी बंधने पामीश.

शुं कहे छे? के शुद्धस्वरूपमां निवास कर; जो भोगववानी इच्छा करीश तो ‘धुवम्’ चोक्कस पोताना अपराधथी बंधने पामीश. अहाहा...! छे अंदर ‘ध्रुवम्’नो अर्थ चोक्कस कर्यो छे, एम के आत्माना आनंदरसने भूलीने जो तुं विषयना भोगनो रस लईश तो जरूर तने अपराध थशे अने ते पोताना अपराधथी जरूर तुं बंधाईश. भाई! आ फुरसद लईने समजवुं पडशे हों.

त्यारे कोई अज्ञानीओ वळी कहे छे-हमणां तो मरवानीय फुरसद नथी. अहा! आखो दि’ बिचारा पापनी मजुरीमां-रळवा-कमावामां, बायडी-छोकरां साचववामां ने भोगमां -एम पापनी प्रवृत्तिमां गाळता होय ते देखी कोई सत्पुरुषो करुणा वडे कहे के -भाई! कांईक निवृत्ति लई स्वाध्यायादि करो; त्यारे कहे छे-अमने तो मरवाय फुरसद नथी? अहाहा...! शुं मद (मोह महामद) चढयो छे!! ने शुं वक्रता!! कहे छे-मरवाय फुरसद नथी! पण भाई! एनुं फळ बहु आकरुं आवशे हों. हमणां जेने मरवाय फुरसद नथी तेने ज्यां वारंवार जन्म-मरण थाय एवा स्थानमां (निगोदमां) जवुं पडशे. शुं थाय? मिथ्यात्वनुं परंपरा फळ निगोद ज छे.

अहीं कहे छे-जेने आत्माना आनंदना रसनो अनुभव थयो छे एवा धर्मीने परद्रव्य प्रत्ये भोगववानो रस होतो नथी. अहाहा...! स्वरूपना रसियाने परद्रव्यने


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हुं भोगवुं एवो भाव होतो नथी. कांईक अस्थिरतानो भाव होय छे ए जुदी वात छे पण तेने विषयरसनी भावना होती नथी. जुओ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ तीर्थंकर हता, चक्रवर्ती हता ने कामदेव पण हता. ९६ हजार स्त्रीओनो ने अपार वैभवनो योग हतो पण तेमां तेओने रस न होतो. ज्यारे अज्ञानीने तो अंदर रागनो रस पडयो होय छे. अहीं कहे छे-जो भोगववाना रसपणे परिणमीश तो अवश्य अपराध थशे अने अवश्य बंधाईश. बापु! धर्म कोई अलौकिक चीज छे! एणे अनंतकाळमां धर्म प्रगट कर्यो नथी. जो एक क्षणमात्र पण अंदर स्वरूपने स्पर्शीने धर्म प्रगट करे तो जन्म-मरणनो नाश थई जाय एवी ए चीज छे.

अहाहा...! कहे छे-‘जो अज्ञानरूपे परिणमीश तो तुं चोक्कस पोताना अपराधथी...’ पाछी भाषा शुं छे जोई? के ‘पोताना अपराधथी’ बंधने पामीश. एम के भोगनी सामग्रीथी बंधने पामीश एम नहि, केमके सामग्री तो पर छे; पण पोताना अपराधथी बंधने पामीश. एम के शुद्ध चैतन्यरसने भूलीने तुं विषयरसमां-रागना रसमां जोडाईश तो ते तारो अपराध छे अने ते पोताना अपराधथी तुं बंधने जरूर पामीश. अहा! आ तो अध्यात्मनी वात! बापु! आ तो वीतरागनां-केवळीनां पेट छे! अरेरे! आनी समजण हमणां नहि करे तो कयां जईश प्रभु! भव समुद्रमां कयांय खोवाई जईश).

* कळश १प१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने कर्म तो करवुं ज उचित नथी.’ कर्म शब्दे क्रिया-पुण्य ने पापनी क्रिया ज्ञानीने करवी उचित नथी. दया, दान, व्रत आदि पुण्यनी क्रिया ने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदि पापनी क्रिया-एम सर्व कर्म ज्ञानीए करवुं उचित नथी. भोगना रसना परिणाम करवा ज्ञानीने उचित नथी.

‘जो परद्रव्य जाणीने पण तेने भोगवे तो ए योग्य नथी. परद्रव्यना भोगवनारने तो जगतमां चोर कहेवामां आवे छे, अन्यायी कहेवामां आवे छे.’

शुं कह्युं ए? के भगवान आत्माना आनंद सिवाय जे परवस्तु-शरीर, मन, वाणी, धनादि सामग्री ने पुण्य-पापना भाव छे तेने हुं भोगवुं छुं एम जो माने छे तो तुं चोर छो, लुंटारुं छो. अहा! वात तो एवी छे बापा! भगवान आत्माने तुं लूंटी नाखे छे प्रभु! भोगना रागना रसमां तुं तारा निर्मळ आनंदने खोई बेसे छे. अहा! परद्रव्यमांथी आनंद मेळववा जतां तुं तारा आनंदस्वरूपनो ज घात करे छे. अहा! तुं आ परद्रव्य छे एम जाणीने तेने भोगववाना भाव करे छे तो तुं चोर छो, अन्यायी छो; पण धर्मी तो रह्यो नहि, अधर्मी ज ठर्यो.


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‘वळी उपभोगथी बंध कह्यो नथी ते तो, ज्ञानी इच्छा विना परनी बळजोरीथी उदयमां आवेलाने भोगवे त्यां तेने बंध कह्यो नथी.’

जुओ, सिद्धांतमां उपभोगथी ज्ञानीने बंध कह्यो नथी कारण के तेने ते जातनो रस नथी. ज्ञानीने कोई कर्मने कारणे सामग्री होय ने तेमां जरी राग आवी जाय तो बळजोरीथी ते भोगवे छे, तेमां एने सुखबुद्धि नथी. पुरुषार्थनी मंदतामां रागनुं जोर छे एम जाणीने भोगवे छे, पण भोगववानी इच्छा नथी, सामग्रीनी इच्छा नथी. माटे त्यां तेने बंध कह्यो नथी. इच्छा विना परनी बळजोरीथी उदयमां आवेलाने भोगवे तो तेने त्यां बंध कह्यो नथी. भाई! आ तो थोडा शब्दे घणुं कह्युं छे. गागरमां सागर भर्यो छे.

हवे कहे छे-‘जो पोते इच्छाथी भोगवे तो तो पोते अपराधी थयो, त्यां बंध केम न थाय?’

शुं कहुं? के रस लईने भोगवे तो अवश्य बंध थाय. भोगववानो जे रस छे ते अपराध छे अने तेथी रस लईने भोगवे तो अपराधी थतां जरूर बंध थाय. पण ज्ञानीने रस नथी, इच्छा नथी. ए तो जामनगरवाळानो दाखलो आप्यो नहोतो?

के एक भाईने हंमेशां चुरमुं खावानी टेव-आदत. हवे बन्युं एवुं के एनो एकनो एक पुत्र मरी गयो. पुत्रने बाळीने आव्या पछी ते कहे के-आज तो रोटला करो. सगांवहालां कहे-भाई! तमे रोटला कदी खाधा नथी. ते तमने माफक पण नथी. तमारो तो चुरमानो खोराक छे एम कही तेमना माटे चुरमुं बनाव्युं थाळीमां चुरमुं आव्युं; पण त्यारे जुओ तो आंखमांथी आंसुनी धारा चाली जाय. शुं खावानो रस छे? चुरमुं हो के रोटला हो; भोजनमां रस नथी. एम धर्मीने सामग्री गमे ते हो पण तेने भोगववामां रस नथी; भोगववा काळे खरेखर एने अंतरमां खेद होय छे. आवी वात छे बापु! अत्यारे जगतमां बधी वात फरी गई छे. अरे! रागनी रुचिमां धर्म मनाववा लाग्या छे!

कहे छे-‘जो पोते इच्छाथी भोगवे...’ इच्छा एटले रस, रुचि हों, भोगववानो रस. ‘जो पोते इच्छाथी भोगवे तो तो पोते अपराधी थयो, त्यां बंध केम न थाय?’ ल्यो, बधुंय आमां आवी गयुं. ज्ञानीने शुभभावमां रस नथी. रसथी शुभभाव करे तो ते अपराधी थाय ने तो तेने अवश्य बंध थाय. भाई! दया, दान, व्रत आदिना शुभभाव छे ते राग छे, झेर छे. ए झेरनुं पान महा दुःखदायी छे पण एने खबर नथी.

प्रश्नः– पण ज्ञानी व्यवहारथी पुण्य-पापना भेद करे ने?


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समाधानः– व्यवहारथी करे छे, पण बेय बंधनां ज कारण छे एम ते जाणे छे. ए तो कह्युं तुं ने के-

‘चक्रवर्तीनी संपदा, इन्द्र सरिखा भोग...’

अहा! लोकोने खबर नथी के चक्रवर्ती कोने कहेवाय? जेनी सोळ हजार देवो सेवा करता होय, जेना घरे चौद रत्न ने नव निधान होय, जेने घेर ९६ हजार राणीओ होय, अहाहा...! जेने ७२ हजार नगर ने ९६ करोड गाम होय, जेनुं ९६ करोडनुं पायदळ होय-एवा अपार वैभवनो स्वामी चक्रवर्ती होय छे. तोपण कह्युं ने के-

“चक्रवर्तीकी संपदा, अरु इन्द्र सरिखा भोग;
कागविट् सम गिनत है सम्यग्द्रष्टि लोग.”

समकिती धर्मी जीव आ बधी संपदाने कागडानी विष्टा समान तुच्छ माने छे. केम? केमके एनी द्रष्टि शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा पर होय छे. आवो मारग बापा! दुनियाथी साव जुदो छे भाई! आ वेपार (पापनो) करी खाय ए वाणियाओने खबर नहि पण बापु! आत्मानो वेपार करतां आवडे ते खरो वाणियो छे.

अहीं कहे छे के जेने आत्माना निर्मळ निराकुळ आनंदनो रस आव्यो छे तेने परनो भोग झेर जेवो लागे छे अने ते धर्मी-धर्मात्मा छे.

*

हवे आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-

* कळश १प२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफलेन बलात् नो याजयेत्’ कर्म ज तेना कर्ताने पोताना फळ साथे बळजोरीथी जोडतुं नथी (के तुं मारा फळने भोगव).

अहा! पुण्यने लईने आ सामग्री आवी तो ते कांई एम नथी कहेती के- तुं मने भोगव. पण ‘फललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फलं प्राप्नोति’ फळनी इच्छावाळो ज कर्म करतो थको कर्मना फळने पामे छे. कर्मनुं फळ एटले रंजित परिणाम, भोगववाना काळे रागना रसनो भाव. अहा! रागमां जेने रस छे तेने कर्मना फळने भोगववानो भाव थाय छे. अहा! फळनी जेने इच्छा छे अर्थात् भोगववाना रागमां जेने रस छे ते कर्म करतो थको कर्मना फळने अर्थात् भोगववाना भावने प्राप्त थाय छे.

‘ज्ञानं सन्’ माटे ज्ञानरूपे रहेतो एटले के शुद्ध चिद्घन प्रभु आत्मामां रहेतो अने ‘तद् अपास्त–रागरचनः’ जेणे कर्म प्रत्ये रागनी रचना दूर करी छे अर्थात् रागने भोगववाना रसनो जेणे नाश करी नाख्यो छे एवो ‘मुनिः’ मुनि अर्थात् समकिती


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धर्मात्मा ‘तत्–फल–परित्याग–एक–शीलः’ कर्मना फळना परित्यागरूप ज जेनो एक स्वभाव छे एवो होवाथी, ‘कर्म कुर्वाणः अपि हि’ कर्म करतो छतो पण ‘कर्मणा नो बध्यते’ कर्मथी बंधातो नथी.

कळशटीकामां ‘मुनि’नो अर्थ शुद्धस्वरूपना अनुभवे बिराजमान सम्यग्द्रष्टि जीव- एम कर्यो छे. अहाहा...! केवो छे ते ‘मुनि’ कहेतां समकिती धर्मी जीव? तो कहे छे- कर्मना फळना त्यागरूप ज जेनो एक स्वभाव छे तेवो ते धर्मी छे. अहाहा...! धर्मीनो तो एक ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. शुद्ध ज्ञातास्वभावे रहेता तेने कर्म करवा प्रति ने कर्म भोगववा प्रति रागरस ऊठी गयो छे. अहाहा...! माता साथे जेम भोग न होय तेम धर्मीने जडना भोग न होय. तेने कर्मना उदयथी मळेली सामग्रीने भोगववानो रस, जेम मा-दीकराने भोगववानो रस होतो नथी तेम, ऊडी गयो छे. समजाणुं कांई...?

भारे कठण वात भाई! अरे प्रभु! तारा सत्नो मारग तें कदी सांभळ्‌यो नथी. अही कहे छे-‘तत्–फल–परित्याग–एक–शीलः’ कर्मना फळना परित्यागरूप ज धर्मीनो एक शील-स्वभाव छे. धर्मीनो तो रागना त्यागरूप ज एक स्वभाव छे. तेने राग करवा प्रति ने भोगववा प्रति रस ज नथी. माटे कहे छे-ते कर्म करतो छतो पण कर्मथी बंधातो नथी. गजब वात छे भाई!

प्रश्नः– तो बीजे आवे छे के अनासकितए भोगववुं; आ ए ज वात छे ने? उत्तरः– अरे भाई! अनासक्ति एटले शुं? अनासक्ति एटले भोगववा प्रति रस ज उडी गयो छे. माटे ‘भोगववुं’-एम जे भोगवे छे तेने अनासक्ति छे एम केम कहेवाय? भोक्ता थईने भोगवे छे तेने अनासक्ति छे ज नहीं. अहीं तो अनासक्ति एटले भोगववा प्रति रस ज ज्ञानीने उडी गयो छे-एम वात छे. अहा! धर्मीने आत्माना आनंदना रस आगळ चक्रवर्तीना राज्यनी संपदानो पण रस उडी गयो छे. जुओ, पहेला देवलोकनो सौधर्म इन्द्र छे. ते समकिती एक भवतारी छे. तेने क्रोडो अप्सराओ-इन्द्राणीओ छे. पण तेने भोग प्रत्ये उत्साह नथी-रस नथी; अंदरमां रस उडी गयो छे. जेम कोई आर्यना मोंमां कोई मांस मूकी दे तो तेमां शुं एने रस छे? जराय नहि. तेम धर्मीने आत्माना आनंदना रस आगळ पर चीजनी इच्छानो रस उडी गयो छे; तेणे परचीजनी इच्छाना रागनो नाश करी नाख्यो छे अने तेथी ते कर्म करतो छतो पण कर्मथी बंधातो नथी, पण तेने निर्जरा थाय छे.

अरे भाई! आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं ने जो आ न समज्यो तो बधा ढोरना अवतार तारा जेम निष्फळ गया तेम आ पण निष्फळ जशे. भले बहारमां खूब पैसा


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ने आबरू मेळवे के लोको तने बहु आवडतवाळो चतुर कहे पण आ अवसरमां आ न समज्यो तो तारा जेवो मूरख कोई नहि होय, केमके अहींथी छूटीने तुं कयांय संसारसमुद्रमां खोवाई जईश.

* कळश १प२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ निर्जरा अधिकार चाले छे. निर्जरा कोने थाय एनी आमां व्याख्या छे. कहे छे-‘कर्म तो कर्ताने जबरदस्तीथी पोताना फळ साथे जोडतुं नथी.’

कर्म शब्दे अहीं क्रिया अर्थ छे. कर्मना उदयथी मळेली जे सामग्री छे ते सामग्रीमां जे क्रिया थाय छे ते क्रिया जबरदस्तीथी कर्ताने पोताना फळ साथे जोडती नथी, अर्थात् ते क्रियामां प्रेम करवो के न करवो ते कांई क्रिया कहेती नथी. सूक्ष्म वात छे भाई! कर्म कहेतां क्रिया जबरदस्तीथी कर्ताने पोताना फळ साथे जोडती नथी.

‘परंतु जे कर्मने करतो थको तेना फळनी इच्छा करे ते ज तेनुं फळ पामे छे.’ शुं कहे छे? के क्रियाने करतो थको जे तेना फळनी वांछा करे ते ज तेनुं फळ-भोग सामग्री ने भोगपरिणाम-पामे छे.

‘माटे जे ज्ञानरूपे वर्ते छे अने राग विना कर्म करे छे एवो मुनि कर्मथी बंधातो नथी कारण के तेने कर्मना फळनी इच्छा नथी.’

अहाहा...! धर्मी तो, ‘हुं ज्ञान ने आनंदस्वरूप छुं’-एवा स्वरूपना अनुभवमां रहेवावाळो छे. तेने क्रियामां रस नथी, प्रेम नथी. तेथी तेने भविष्यमां फळ मळे तेवा भाव नथी.

शुं कहे छे? के धर्मी समकिती जीव जाणवा-देखवावाळो ने आनंदमां रहेवावाळो छे. ते पोताना ज्ञानस्वभावमां वर्ते छे पण रागनी-सामग्रीनी क्रियामां तेनुं वर्तवुं छे नहि. ते राग विना कर्म करे छे एटले शुं? एटले के तेने क्रियाकांडमां रस नथी. शरीरनी ने रागनी जे क्रिया थाय छे तेमां तेने रस नथी. माटे राग विना जे क्रिया करे छे एवो मुनि कर्मथी बंधातो नथी.

चिदानंदघन प्रभु आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे अने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो छे तेने एक आनंदनी भावना छे. तेने रागनी क्रिया थाय छे पण तेनी भावना नथी. ‘आ (-राग) ठीक छे’ अने ‘एनुं फळ मळो’-एवी भावना ज्ञानीने होती नथी. झीणी वात छे भाई! ज्ञानीने कर्मना फळनी इच्छा नथी. अहा! एने जे क्रिया थाय छे तेनुं फळ (स्वर्गादि) मने हो एवी इच्छा नथी. अहीं तो निर्जरा बताववी छे ने!


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१. कर्मनुं झरवुं २. अशुद्धतानो नाश थवो ३. शुद्धतानी उत्पत्तिनी वृद्धि थवी. आ त्रण प्रकारे ज्ञानीने निर्जरा छे, केमके ज्ञानीने कर्मना फळनी इच्छा नथी. अहा! समकितीने शुद्ध एक आनंदस्वरूपनी ज रुचि छे. तेने रागनी क्रिया थई आवे छे पण एनी एने रुचि नथी. ‘काम करवुं पण अनासक्तिथी करवुं’ -एम जे अज्ञानी कहे छे ए आ वात नथी हों, ए तो परनां काम करवानुं माने छे, ज्यारे वास्तवमां आत्मा परनुं कांई करी शकतो ज नथी. आ तो अंतरमां पुरुषार्थ उग्र नथी तो राग थई आवे छे छतां ज्ञानीने रागमां (क्रियामां) रस नथी एम वात छे, अने तेथी भविष्यमां क्रियानुं फळ मळे एवुं छे नहि. फळनी इच्छा-रहितपणे थती क्रियानी ज्ञानीने निर्जरा ज थई जाय छे-एम कहे छे.

ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे एम जे कह्युं छे तेनो अर्थ आ छे. बाकी भोग तो राग छे. परंतु ज्ञानीनी द्रष्टिनुं जोर स्वभाव उपर छे, राग उपर तेनी द्रष्टि छे नहि. ज्ञानीनो तो रागना त्यागस्वभावरूप स्वभाव छे. छे ने कळशमां के ‘तत्–फल– परित्याग–एक–शीलः’ अर्थात् धर्मात्माने-सम्यग्द्रष्टिने रागनो त्याग छे अने तेथी (तेना) फळनो पण त्याग छे; आवो रागना त्यागस्वभावरूप ज्ञानीनो स्वभाव छे. तेथी रागनी क्रियामां रस नहि होवाथी ज्ञानीने बंधन थतुं नथी, फळ प्राप्त थतुं नथी पण राग आव्यो छे ते खरी जाय छे, झरी जाय छे. झीणी वात प्रभु!

शुं कहे छे? के ज्ञानी ‘एक शीलः’ एक स्वभाववाळो छे. वजन अहीं छे के- धर्मीने एक ज्ञायकस्वभाव-ज्ञानानंदस्वभाव एक स्वभावभाव छे. अहाहा...! तेनी द्रष्टिनो विषय एक स्वभावभाव छे. अहा! झीणी वात छे प्रभु! सम्यग्दर्शन अने तेनुं ध्येय जे एक स्वभावभाव-एक ज्ञायकभाव तेनी वात बहु झीणी छे. पूर्णानंदस्वरूप भगवान आत्मा ज सम्यग्द्रष्टिनुं ध्येय छे. ते कारणे तेनी द्रष्टि एक स्वभावभाव पर ज छे. तेथी तेने क्रियानो राग आव्यो छे पण तेमां रस नथी. अहाहा...! एक आनंदस्वभावमां लीन एवा ज्ञानीने जे क्रिया आवी पडे छे तेमां रस नथी अने तेथी तेने बंधन पण नथी अने भविष्यमां तेनुं फळ पण तेने प्राप्त थतुं नथी. आवी झीणी वात छे!

कहे छे-निमित्तथी, रागथी ने एक समयनी पर्यायथी हठीने जेणे शुद्ध एक ज्ञायकभावरूप सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मामां द्रष्टि अने रुचि लगावी छे तेने बीजे कयांय रुचि रहेती नथी. तेने भोगनो विकल्प आवे छे परंतु ते विकल्पमां रस नथी. तेने ए विकल्प झेर जेवा भासे छे. तेथी तेने बंधन थतुं नथी. अज्ञानीने


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रागमां मीठाश आवे छे; तेने रागमां रस छे अने ते कारणे रागनुं फळ, अत्यारे जेम संयोगी भोग मळ्‌यो छे तेम, भविष्यमां मळशे. पण ज्ञानीने तो कर्मनी निर्जरा थई गई छे अने तेथी तेने भोग मळशे नहि.

जुओ! ‘ज्ञानरूपे वर्ते छे’-एम कह्युं छे ने? एटले शुं? के ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा छे, तेमां ज एकत्व करीने सम्यग्द्रष्टि वर्ते छे, एमां ज एकपणुं करीने ते रहे छे. वळी ते राग विना कर्म करे छे. एटले के तेने जे दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे रागना विकल्प आवे छे ते विकल्पमां एने रस नथी, ए विकल्पमां ते एकमेक नथी. अहा! शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां एकपणुं पामेला ज्ञानीने रागनी क्रियामां रस नथी; अने जे राग आवे छे तेमां रस नथी माटे बंध नथी. अहीं आ अपेक्षाए वात छे के-रागमां रस नथी माटे बंधन नथी. बाकी जेटलो राग थाय छे तेटलो बंध थाय छे; पण एने अहीं गौण करीने कहे छे के-रागमां-क्रियामां रस नथी माटे बंध नथी, पण निर्जरा थाय छे. आवो वीतरागनो मारग समजवोय कठण छे! वीतरागनो मारग बहु दुर्लभ भाई!

अहा! सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरे जे आ आत्मा जोयो छे ते चिन्मात्र अतीन्द्रिय वीतरागी आनंदनो कंद प्रभु छे. तेमां राग नथी, पुण्य-पाप नथी. जे राग छे, पुण्य- पापना भाव छे ते आस्रव तत्त्व छे, ने भगवान आत्मा शुद्ध ज्ञायक तत्त्व छे. तथा आ शरीर, कर्म आदि छे ते अजीव तत्त्व छे. आ रीते एक ज्ञायकभावस्वरूप प्रभु आत्मा रागथी-पुण्यपापथी ने शरीरादिथी भिन्न छे. अहाहा...! आवुं जेने स्वरूपना आश्रये भेदज्ञान प्रगट थयुं छे ते धर्मात्मा छे, समकिती छे. अहीं कहे छे-जेने स्वरूपनो- ज्ञानानंदस्वभावनो आश्रय वर्ते छे तेने रागमां रस नथी. जेम एक म्यानमां बे तलवार रहे नहि तेम जेने भगवान आनंदना नाथनो प्रेम छे तेने रागनो प्रेम नथी; अने जेने रागनो प्रेम छे तेने आत्मानो प्रेम नथी. ल्यो, आवो मारग! तेथी कहे छे-ज्ञानीने कर्मफळनी-क्रियाना फळनी इच्छा छे नहि तेथी तेने बंधन थतुं नथी, निर्जरा ज थाय छे.

[प्रवचन नं. २९४ थी २९७ (चालु) * दिनांक १६-१-७७ थी २०-१-७७]

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गाथा २२४ थी २२७
पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं।
तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२४।।
एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं।
तो सो वि देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२५।।
जह पुण सो च्चिय पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं।
तो सो ण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२६।।
एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं।
तो सो ण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२७।।
पुरुषो यथा कोऽपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानम्।
तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२४।।
एवमेव जीवपुरुषः कर्मरजः सेवते सुखनिमित्तम्।
तत्तदपि ददाति कर्म विविधान् भोगान सुखोत्पादकान्।। २२५।।

हवे आ अर्थने द्रष्टांतथी द्रढ करे छेः-

ज्यम जगतमां को पुरुष वृत्तिनिमित्त सेवे भूपने,
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोग आपे पुरुषने; २२४.
त्यम जीवपुरुष पण कर्मरजनुं सुखअरथ सेवन करे,
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोग आपे जीवने. २२प.
वळी ते ज नर ज्यम वृत्ति अर्थे भूपने सेवे नहीं,
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोगने आपे नहीं; २२६.
सुद्रष्टिने त्यम विषय अर्थे कर्मरजसेवन नथी,
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोगने देतां नथी. २२७.

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यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानम्।
तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२६।।
एवमेव सम्यग्द्रष्टिः विषयार्थ सेवते न कर्मरजः।
तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२७।।

गाथार्थः– [यथा] जेम [इह] आ जगतमां [कः अपि पुरुषः] कोई पुरुष [वृत्तिनिमित्तं तु] आजीविका अर्थे [राजानम्] राजाने [सेवते] सेवे छे [तद्] तो [सः राजा अपि] ते राजा पण तेने [सुखोत्पादकान्] सुख उत्पन्न करनारा [विविधान्] अनेक प्रकारना [भोगान्] भोगो [ददाति] आपे छे, [एवम् एव] तेवी ज रीते [जीवपुरुषः] जीवपुरुष [सुखनिमित्तम्] सुख अर्थे [कर्मरजः] कर्मरजने [सेवते] सेवे छे [तद्] तो [तत् कर्म अपि] ते कर्म पण तेने [सुखोत्पादकान्] सुख उत्पन्न करनारा[विविधान्] अनेक प्रकारना [भोगान्] भोगो [ददाति] आपे छे.

[पुनः] वळी [यथा] जेम [सः एव पुरुषः] ते ज पुरुष [वृत्तिनिमित्तं] आजीविका अर्थे [राजानम्] राजाने [न सेवते] नथी सेवतो [तद्] तो [सः राजा अपि] ते राजा पण तेने [सुखोत्पादकान्] सुख उत्पन्न करनारा [विविधान्] अनेक प्रकारना [भोगान्] भोगो [न ददाति] नथी आपतो, [एवम् एव] तेवी ज रीते [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [विषयार्थ] विषय अर्थे [कर्मरजः] कर्मरजने [न सेवते] नथी सेवतो [तद्] तो (अर्थात् तेथी) [तत् कर्म] ते कर्म पण तेने [सुखोत्पादकान्] सुख उत्पन्न करनारा [विविधान्] अनेक प्रकारना [भोगान्] भोगो [न ददाति] नथी आपतुं.

टीकाः– जेम कोई पुरुष फळ अर्थे राजाने सेवे छे तो ते राजा तेने फळ आपे छे, तेम जीव फळ अर्थे कर्मने सेवे छे तो ते कर्म तेने फळ आपे छे. वळी जेम ते ज पुरुष फळ अर्थे राजाने नथी सेवतो तो ते राजा तेने फळ नथी आपतो, तेम सम्यग्द्रष्टि फळ अर्थे कर्मने नथी सेवतो तो (अर्थात् तेथी) ते कर्म तेने फळ नथी आपतुं. एम तात्पर्य (अर्थात् कहेवानो आशय) छे.

भावार्थः– अहीं एक आशय तो आ प्रमाणे छेः- अज्ञानी विषयसुख अर्थे अर्थात् रंजित परिणाम अर्थे उदयागत कर्मने सेवे छे तेथी ते कर्म तेने (वर्तमानमां) रंजित परिणाम आपे छे. ज्ञानी विषयसुख अर्थे अर्थात् रंजित परिणाम अर्थे उदयागत कर्मने सेवतो नथी तेथी ते कर्म तेने रंजित परिणाम उत्पन्न करतुं नथी.

बीजो आशय आ प्रमाणे छेः- अज्ञानी सुख (-रागादिपरिणाम) उत्पन्न


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(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं
किंत्वस्यापि कुतोऽपि किञ्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्।
तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः।। १५३।।

करनारा आगामी भोगोनी अभिलाषाथी व्रत, तप वगेरे शुभ कर्म करे छे तेथी ते कर्म तेने रागादिपरिणाम उत्पन्न करनारा आगामी भोगो आपे छे. ज्ञानीनी बाबतमां आथी विपरीत समजवुं.

आ रीते अज्ञानी फळनी वांछाथी कर्म करे छे तेथी ते फळने पामे छे अने ज्ञानी फळनी वांछा विना कर्म करे छे तेथी ते फळने पामतो नथी.

हवे, “जेने फळनी वांछा नथी ते कर्म शा माटे करे?” एवी आशंका दूर करवाने काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [येन फलं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः] जेणे कर्मनुं फळ छोडयुं छे ते कर्म करे एम तो अमे प्रतीति करी शक्ता नथी. [किन्तु] परंतु त्यां एटलुं विशेष छे के- [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत्] तेने (ज्ञानीने) पण कोई कारणे कांईक एवुं कर्म अवशपणे (-तेना वश विना) आवी पडे छे. [तस्मिन् आपतिते तु] ते आवी पडतां पण, [अकम्प–परम– ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी] जे अकंप परमज्ञानस्वभावमां स्थित छे एवो ज्ञानी [कर्म] कर्म [किं कुरुते अथ किं न कुरुते] करे छे के नथी करतो [इति कः जानाति] ते कोण जाणे?

भावार्थः– ज्ञानीने परवशे कर्म आवी पडे छे तोपण ज्ञानी ज्ञानथी चलायमान थतो नथी. माटे ज्ञानथी अचलायमान ते ज्ञानी कर्म करे छे के नथी करतो ते कोण जाणे? ज्ञानीनी वात ज्ञानी ज जाणे. ज्ञानीना परिणाम जाणवानुं सामर्थ्य अज्ञानीनुं नथी.

अविरत सम्यग्द्रष्टिथी मांडीने उपरना बधाय ज्ञानी ज समजवा. तेमां, अविरत सम्यग्द्रष्टि, देशविरत सम्यग्द्रष्टि अने आहारविहार करता मुनिओने बाह्यक्रियाकर्म प्रवर्ते छे, तोपण ज्ञानस्वभावथी अचलित होवाने लीधे निश्चयथी तेओ बाह्यक्रियाकर्मना कर्ता नथी, ज्ञानना ज कर्ता छे. अंतरंग मिथ्यात्वना अभावथी तथा यथासंभव कषायना अभावथी तेमना परिणाम उज्ज्वळ छे. ते उज्ज्वळताने तेओ ज (-ज्ञानीओ ज-) जाणे छे, मिथ्याद्रष्टिओ ते उज्ज्वळताने


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(शार्दूलविक्रीडित)
सम्यग्द्रष्टय एव साहसमिदं कर्तु क्षमन्ते परं
यद्वजे्रऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि।
सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं
जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि।।
१५४।।

जाणता नथी. मिथ्याद्रष्टि तो बहिरात्मा छे, बहारथी ज भलुं बूरुं माने छे; अंतरात्मानी गति बहिरात्मा शुं जाणे? १प३.

हवे, आ ज अर्थना समर्थनरूपे अने आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [यत् भय–चलत्–त्रैलोक्य–मुक्त–अध्वनि वजे्र पतति अपि] जेना भयथी चलायमान थता-खळभळी जता-त्रणे लोक पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां, [अमी] आ सम्यग्द्रष्टि जीवो, [निसर्ग–निर्भयतया] स्वभावथी ज निर्भय होवाने लीधे, [सर्वाम् एव शङ्कां विहाय] समस्त शंका छोडीने, [स्वयं स्वम् अवध्य–बोध–वपुषं जानन्तः] पोते पोताने (अर्थात् आत्माने) जेनुं ज्ञानरूपी शरीर अवध्य (अर्थात् कोईथी हणी शकाय नहि एवुं) छे एवो जाणता थका, [बोधात् च्यवन्ते न हि] ज्ञानथी च्युत थता नथी. [इदं परं साहसम् सम्यग्द्रष्टयः एव कर्तु क्षमन्ते] आवुं परम साहस करवाने मात्र सम्यग्द्रष्टिओ ज समर्थ छे.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टि निःशंक्तिगुण सहित होय छे तेथी गमे तेवा शुभाशुभ कर्मना उदय वखते पण तेओ ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. जेना भयथी त्रण लोकना जीवो कंपी ऊठे छे-खळभळी जाय छे अने पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपने ज्ञानशरीरवाळुं मानतो थको ज्ञानथी चलायमान थतो नथी. तेने एम शंका नथी थती के आ वज्रपातथी मारो नाश थई जशे; पर्यायनो विनाश थाय तो ठीक ज छे कारण के तेनो तो विनाशिक स्वभाव ज छे. १प४.

* * *
समयसार गाथा २२४ थी २२७ः मथाळुं

हवे आ अर्थने द्रष्टांतथी द्रढ करे छेः-

* गाथा २२४ थी २२७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम कोई पुरुष फळ अर्थे राजाने सेवे छे तो ते राजा तेने फळ आपे छे, तेम जीव फळ अर्थे कर्मने सेवे छे तो ते कर्म तेने फळ आपे छे.’


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शुं कहे छे? के जो कोई पुरुष फळनी इच्छाथी-जमीन, पैसा, धन-धान्य आदि मेळववानी भावनाथी-राजानी सेवा करे छे तो ते राजा तेने फळ कहेतां धनादि सामग्री आपे छे. तेवी रीते फळने अर्थे जो कोई जीव कर्मने सेवे छे अर्थात् क्रिया करे छे तो ते क्रिया तेने फळ आपे छे. शुं कह्युं? के कोई पुरुष मने आवा भोगो प्राप्त हो एवी वांछा जो क्रिया करे छे तो तेने ते क्रियाना फळमां बंध थईने भोगो -संयोगो प्राप्त थाय छे.

हवे कहे छे-‘वळी जेम ते ज पुरुष फळ अर्थे राजाने नथी सेवतो तो ते राजा तेने फळ नथी आपतो, तेम सम्यग्द्रष्टि फळ अर्थे कर्मने नथी सेवतो तो (अर्थात् तेथी) ते कर्म तेने फळ नथी आपतुं-एम तात्पर्य छे.’

शुं कहे छे? के जेम ते ज पुरुष फळ अर्थे राजाने नथी सेवतो तो ते राजा तेने फळ नथी आपतो. आ द्रष्टांत थयुं. तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि के जेनी द्रष्टि स्वसन्मुख थयेली छे ने जे शुद्ध आनंदरसनो रसियो छे ते फळ अर्थे कर्मने सेवतो नथी अर्थात् क्रिया करतो नथी तो ते क्रिया तेने फळ आपती नथी. झीणी वात भाई! ज्ञानीने जे क्रिया होय छे ते फळनी वांछारहितपणे होय छे अने तेथी ते क्रिया भविष्यमां भोगमां एकपणाना रंजित परिणाम थाय तेवुं फळ देती नथी. अहाहा...! क्रियामां रागनो रंग चढी जाय एवुं ज्ञानीने होतुं नथी. जेने आत्माना आनंदनो रंग (अमल) चढयो छे तेने वर्तमान क्रियामां रागनो रंग नथी; अने तो तेना फळमां तेने रंजित परिणाम थता नथी. रागनो रस नथी होतो ने? रागमां एकत्व नथी तेथी ज्ञानीने रागनुं फळ जे बंध ते थतो नथी.

सम्यग्द्रष्टि फळने माटे कर्मनी सेवा नथी करतो. रागनी क्रिया वडे मने कोई सानुकूळ भोगादि फळ मळे अने ते हुं भोगवुं एवा रंजित परिणामनी ज्ञानीने इच्छा होती नथी. अहा! ‘भरतजी घरमें वैरागी’-एम आवे छे ने? ९६ हजार स्त्रीओ, ९६ करोड पायदळ अने ९६ करोड गाम होवा छतां ए सर्व परचीजमां एमने रस नथी; पोतानो रस तो शुद्ध चैतन्यसत्तामां ज छे. ‘घरमां वैरागी’ ल्यो, गजब वात छे ने! भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु छे. सत् नाम शाश्वत, चिद्+आनंद नाम ज्ञान ने आनंदनो खजानो प्रभु आत्मा छे. आवा भगवान आत्मानो जेने रस आव्यो छे तेने चक्रवर्तीपद के इन्द्रपदमां रस आवतो नथी. आवो मारग छे!

* गाथा २२४ थी २२७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं एक आशय तो आ प्रमाणे छेः- अज्ञानी विषयसुख अर्थे अर्थात् रंजित परिणाम अर्थे उदयागत कर्मने सेवे छे तेथी ते कर्म तेने (वर्तमानमां) रंजित परिणाम आपे छे.’


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शुं कहे छे? के अज्ञानी विषयसुख अर्थे अर्थात् रागने भोगववाना हेतुए उदयागत कर्मने एटले कर्मनो जे उदय आव्यो छे तेने सेवे छे तेथी ते कर्म तेने रंजित परिणाम अर्थात् रागथी रंगायेला परिणाम आपे छे. हवे कहे छे-

‘ज्ञानी विषयसुख अर्थे अर्थात् रंजित परिणाम अर्थे उदयागत कर्मने सेवतो नथी तेथी ते कर्म तेने रंजित परिणाम उत्पन्न करतुं नथी.’

अहाहा...! ज्ञानी एटले के ज्ञान ने आनंदरसनो रसिक एवो धर्मी जीव विषयसुख अर्थे अर्थात् रंजित परिणाम अर्थे एटले के रागना रसना परिणामने माटे उदयागत कर्मने सेवतो नथी. तेथी ते कर्म तेने रंजित परिणाम अर्थात् रागना रसवाळुं परिणाम आपतुं नथी. अहा! ज्ञानीने भगवान आत्मा आनंदरूप लाग्यो छे ने राग दुःखरूप लाग्यो छे. तेथी रागमां तेने रस केम आवे? अहा! ज्ञानीने रागना रसथी भरेला परिणाम होता नथी. आवी बहु झीणी वात भाई! जैनदर्शनमां ज अने ते दिगंबर जैनमां ज आ अधिकार छे, बाकी बीजे आवी वात छे ज नहि. अहो! दिगंबर मुनिवरोए जंगलमां बेठा बेठा जगतने न्याल करी दीधुं छे!

कहे छे-जेने सम्यग्दर्शन थयुं छे, चिदानंदघन प्रभु आत्मामां सुखबुद्धि थई छे तेने रागमां रस उडी गयो छे, रागमां सुखबुद्धि उडी गई छे. अहा! ज्ञानीने रागमां ने भोगमां सुखबुद्धि उडी गई छे ते कारणे रंजित परिणाममां ते लीन थई जाय तेवा परिणाम तेने होता नथी. तेथी भविष्यमां जे कर्मोदय प्राप्त भोगसामग्री आवे तेमां रंजित परिणाम तेने थता नथी. अहा! आत्माना निराकुळ आनंदना ज्यां रंग चडया त्यां रंजित परिणाम होता नथी एम कहे छे. मारग बापा! आवो अलौकिक छे. ज्ञानी रंजित परिणाम अर्थे कर्मने सेवतो नथी तो कर्म तेने रंजित परिणाम उत्पन्न करतुं नथी.

‘बीजो आशय आ प्रमाणे छेः- अज्ञानी सुख (-रागादि परिणाम) उत्पन्न करनारा आगामी भोगोनी अभिलाषाथी व्रत, तप वगेरे शुभ कर्म करे छे तेथी ते कर्म तेने रागादिपरिणाम उत्पन्न करनारा आगामी भोगो आपे छे.’

शुं कहे छे आ? के अज्ञानी कर्म एटले व्रत, तप आदि क्रिया तेमां एकरस थईने करे छे. शा माटे रागादि परिणामोने उत्पन्न करनारा आगामी भोगोनी अभिलाषा छे तेथी; भविष्यमां पण राग थाय एवा भोगनी वांछा छे तेथी व्रत, तप आदि शुभकर्म ते करे छे, अज्ञानीने वर्तमान भोगमां पण अभिलाषा-मीठाश छे अने तेनुं फळ जे आवे तेमां पण तेने मीठाश छे. ज्यारे ज्ञानीने वर्तमान भोगमां मीठाश नथी अने भविष्ये जे भोगसामग्री मळे तेनी पण मीठाश नथी. आवी धर्मकथा छे अहा! जेणे अंदर आत्मामां रमतुं मांडी छे, भगवान आतमराम निजस्वरूपमां ज्यां


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रमे छे त्यां-तेने रागनी रमतु छूटी जाय छे. अने अज्ञानी जे रागनी रमतुमां रह्यो छे तेने आत्मानी रमतु छूटी गई छे.

अहा! छे? अंदर छे? के ‘ज्ञानीनी बाबतमां आथी विपरीत समजवुं. अर्थात् ज्ञानीने जे वर्तमान व्रतादिना परिणाम छे एमां रस नथी, एकत्व नथी. वळी ते व्रतादिना फळमां जे संयोग मळे तेमां पण तेने रस नथी. हवे आवी खबरेय न मळे ने धर्म थई जाय एम अज्ञानी माने छे. पण भाई! आत्मा शुं? आत्मानुभूति शुं? सम्यग्दर्शन शुं? इत्यादि यथार्थ समजण विना धर्म कयांथी आव्यो? सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना चारित्र कयांथी आव्युं? बापु! विना सम्यग्दर्शन ज्ञान ने चारित्र वृथा छे, निःसार छे. छहढालामां कह्युं छे ने के-

‘सकल धरमको मूल यही, ईस बिन करनी दुःखकारी.’

अहींया शुं कह्युं? के अज्ञानी रागादि परिणाम उत्पन्न करवावाळा आगामी भोगोनी वांछाथी व्रत, तप आदि शुभक्रिया करे छे अने तेथी ते क्रिया रंजित परिणाम उत्पन्न करनारा आगामी भोगो आपे छे. ज्यारे ज्ञानीने-शुद्धद्रष्टिवंत पुरुषने-वर्तमानमां रागादि उत्पन्न करे तेवो भाव छे नहि; वर्तमानमां जे व्रत, तप आदि शुभकर्म छे तेमां तेने रस छे नहि, ए तो तेने ज्ञाता-द्रष्टाना भावे मात्र जाणे छे. अज्ञानी व्रतादि करे छे त्यां तेने व्रतादिना शुभरागनी वांछा छे. ज्ञानीने रागनी वांछा नथी. आवो क्रियासंबंधी बेमां फेर छे.

‘आ रीते अज्ञानी फळनी वांछाथी कर्म करे छे तेथी ते फळने पामे छे अने ज्ञानी फळनी वांछा विना कर्म करे छे तेथी ते फळने पामतो नथी.’

आ सरवाळो कह्यो. अज्ञानी जे व्रत, तप, आदि क्रिया करे छे ते फळनी वांछा सहित रागरस वडे क्रियामां एकाकार थईने करे छे तेथी ते फळने पामे छे अर्थात् रंजित परिणामने ने बंधने पामे छे. ज्यारे ज्ञानीने जे व्रत, तप आदि क्रिया होय छे ते रागरसथी रहित होय छे अने तेथी तेने जे राग आवे छे ते खरी जाय छे, पण फळ देतो नथी, रंजित परिणाम उत्पन्न करतो नथी. आवी वात छे.

*

हवे, “जेने फळनी वांछा नथी ते कर्म शा माटे करे?” एवी आशंका दूर करवाने काव्य कहे छेः-

* कळश १प३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘येन फलं त्यक्तं स कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः’ जेणे कर्मनुं फळ छोडयुं छे ते कर्म करे एम तो अमे प्रतीत करी शकता नथी.


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जुओ, हुं एक शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छुं एम जेने अंतरमां प्रतीति ने भान थयां छे तेने रागमां रस नथी अर्थात् तेणे रागनुं फळ छोडी दीधुं छे. हवे जेणे रागनुं फळ छोडी दीधुं छे ते ज्ञानी रागनी क्रिया करे छे एम, आचार्यदेव कहे छे, अमे प्रतीत करी शकता नथी. अहा! जे ज्ञाता थयो छे ते रागनो कर्ता छे एम अमे मानता नथी एम कहे छे.

हा, पण ते अज्ञानीने केम खबर पडे? (के ज्ञानी रागनो कर्ता नथी). अरे भाई! अज्ञानीने खबर न पडे तो तेनुं शुं काम छे? खुद आचार्य (परमेष्ठी भगवान) तो कहे छे के निज आनंदरसनो रसियो ज्ञानी के जेने रागनो रस छूटी गयो छे ते रागनी क्रिया तेमां एकाकार थईने करे छे एम अमे प्रतीत करी शकता नथी. अहा! बहु सरस अधिकार छे.

भाई! दिगंबर आचार्य अमृतचंद्रनो आ कळश छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यनी गाथा पर आ अमृतचंद्राचार्यनो टीका-कळश छे. अहा! ते वीतरागी मुनिवरो प्रचुर आनंदना अनुभवनारा शुद्धोपयोगी संत हता, जाणे चालता सिद्ध! अहाहा...! मुनि तो शुद्धोपयोगी होय छे. छहढाळामां आवे छे ने के-

“द्विविध संग बिन शुद्ध उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी”

हवे अज्ञानीने तो मुनिपणुं शुं ने सम्यग्दर्शन शुं एनीय खबर नथी तो तेने आवी खबर न पडे तो तेथी शुं छे? मुनिवरो तो आ कहे छे के-जेनी परिणति निर्मळ आनंदरसमां-एक चैतन्यरसमां लीन छे तेने रागनो रस ऊडी गयो छे अने तेथी ते क्रिया (राग) करे छे एम अमे प्रतीत करी शकता नथी.

प्रश्नः– तो बीजाने (-ज्ञानीने) एवो ख्याल आवी जाय एम ने? उत्तरः– हा, बधो ख्याल आवी जाय; प्ररूपणा ने आचरण द्वारा न्यायमां बधो ख्याल आवी जाय; न जणाय ए वात अहीं नथी. झीणी वात छे प्रभु! कहे छे-‘येन फलं त्यक्तं’ अहाहा...! जेणे क्रियानुं फळ छोडी दीधुं छे अर्थात् जेने वर्तमान क्रियामां रस नथी अने आगामी फळनी वांछा नथी ते क्रिया करे छे एम ‘वयं न प्रतीमः’ अमे प्रतीति करी शकता नथी. ज्ञानीने जे व्रत, तप, भक्ति आदि क्रिया होय छे ते क्रियाने ते करे छे एम अमे मानता नथी एम कहे छे. केम मानता नथी? कारण के तेने क्रियामां-रागमां रस नथी अने तेणे क्रियानुं फळ छोडी दीधुं छे. अहाहा...! शुद्ध आत्माना आनंदना रसमां एकाग्रपणे लीन एवा ज्ञानीए रागनुं फळ छोडी दीधुं छे. गजब वात छे भाई! वळी जे रागरसमां लीन छे, जे व्रत, तप, भक्ति आदि रागना रसमां चढी गयो छे अर्थात् जेने रागनो रंग चडी गयो


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छे तेने आत्मानो रस छे, धर्म-चारित्र छे एम अमे मानता नथी. आवो वीतरागनो मारग भारे सूक्ष्म भाई!

प्रश्नः– ज्ञानी राग करे छे एम आप प्रतीति करता नथी तो आप शुं प्रतीति करो छो?

उत्तरः– बस, आ-के ते ज्ञाता-द्रष्टा छे. अहाहा...! तेने जे व्रत, तप आदि क्रिया होय छे तेनो ते ज्ञाता-द्रष्टा छे; निजानंदरसलीन एवो ज्ञानी क्रियानो कर्ता नथी, ज्ञाता छे. झीणी वात छे बापा! वीतराग परमेश्वरनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे. एकदम बे फडचा करी नाख्या छे. शुं? के जे आनंदधाम-चैतन्यधाम प्रभु आत्माना आनंदरसमां लीन छे तेने रागमां रस नथी, क्रियामां रस नथी अने तेथी ते ज्ञाताद्रष्टा छे; अने जे रागना रसमां लीन छे ते क्रियानो (व्रत, तप आदि रागनो) करनारो कर्ता छे, तेने ज्ञातानुं परिणमन नथी, धर्म नथी. रागनो रस छे तेने धर्म छे ज नहि.

प्रश्नः– ज्ञानीने आ द्रव्यलिंगी छे एम ओळखाण थई जाय? उत्तरः– हा, थोडो परिचय करे एटले ख्यालमां आवी जाय. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आवे छे के ज्ञानीने ख्यालमां आवी जाय के आ द्रव्यलिंगी छे. पण जो बहारमां २८ मूलगुण आदि आचरण साचुं-बराबर (आगमानुसार) होय तो जाहेर न करे.

जाहेर केम न करे? व्यवहारमां बहारथी बराबर छे ने? तो जाहेर न करे केमके एम करवाथी संघमां विरोध थाय. त्यां मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (आठमा अधिकारमां) आवे छे के- ज्ञानीने ख्यालमां आवी जाय के अंदरमां आने निश्चय धर्म नथी तथापि बहारमां आचरण बराबर आगमानुसार होय तो ते बहार न पाडे. वळी त्यां बीजी ए वात पण करी छे के धर्मीने खबर पडे के आने निश्चय धर्म छे नहि तोपण बाह्य आचरण, प्ररूपणा आदि यथार्थ छे तो ते तेनो वंदनादि विनय करे छे. व्यवहार साचो होवो जोईए. बराबर निर्दोष आहार लेतो होय, पोताना माटे करेलो आहार कदी न लेतो होय ईत्यादि बाह्य व्यवहार आगम प्रमाणे चोख्खो होय तो समकिती तेने आचरणमां बहारथी वडेरा छे एम जाणी वंदन करे छे. पण जो बाह्य आचरण बराबर न होय तो समकिती तेने वंदनादि विनय न करे. त्यां मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (छट्ठा अधिकारमां) द्रष्टांत आप्युं छे के-चोमासामां कोई चारण ऋद्धिधारी मुनिवर नगरमां आव्या तो श्रावकोने शंका थई के आटलामां कोई मुनि तो हता नहि तो


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कयांथी आव्या? तेथी तेमणे आहार न आप्यो. (जोके मुनिराज तो ऋद्धिने कारणे अद्धर रहीने आव्या हता). ल्यो, आवुं! तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट शिथिलाचारी होय तेने समकिती वंदन आदि न करे एवो मारग छे. मारग बहु आकरो बापा!

अहा! धर्मीए राग ने रागनुं फळ छोडी दीधुं छे ज्यारे अज्ञानी राग ने रागना फळनी वांछा करे छे. आम बे वच्चे मोटो फेर छे.

हवे कहे छे-‘किन्तु’ परंतु त्यां एटलुं विशेष छे के-‘अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत्’ तेने (ज्ञानीने) पण कोई कारणे कांईक एवुं कर्म अवशपणे (-तेना वश विना) आवी पडे छे. अर्थात् (पुरुषार्थनी) नबळाई (कमजोरी)ने कारणे राग अवशे-पोताना वश विना-आवी पडे छे. अहीं ‘अवश’नो अर्थ एम छे के ज्ञानीने रागनी रुचि नथी तोपण राग आवी पडे छे. हवे कहे छे-

‘तस्मिन् आपतिते तुं’ ते आवी पडतां पण, ‘अकम्प–परम–ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी’ अकंप परम ज्ञानस्वभावमां स्थित ज्ञानी... , जोयुं? राग आव्यो छे तोपण ज्ञानी पोते तो ज्ञानस्वभावमां स्थित छे, रागमां स्थित नथी केमके राग तो तेने झेर समान भासे छे. राग तो आवी पडेलो छे, एमां कयां एने रस छे. अहा! ज्ञानी तो परम ज्ञानानंदस्वरूपमां ज स्थित छे.

अहाहा...! आत्मा त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य प्रभु परम एक ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे; ते द्रव्य छे अने तेमां स्थित थवुं ते पर्याय छे. कोईने वळी थाय के आ ते वळी अमारे जाणवानुं? अरे भाई! वीतरागनो मारग ज आ छे. आ सिवाय व्रतादि रागनी क्रियामां जे तने रस छे ए तो अज्ञान छे, मिथ्यादशा छे. समजाणुं कांई...?

अहीं शुं कहे छे आ? के जे अकंप परम ज्ञानस्वभावमां स्थित छे एवो ज्ञानी ‘कर्म’ कर्म ‘किं कुरुते अथ किं न कुरुते’ करे छे के नथी करतो ‘इति कः जानाति’ ते कोण जाणे?

अहा! ज्ञानी कर्म नाम क्रिया-राग करे छे के नथी करतो तेनी अज्ञानीने शुं खबर पडे? अहा! जेने रागनी कर्ताबुद्धि उडी गई छे, भोक्ताबुद्धि उडी गई छे अने स्वामित्व पण उडी गयुं छे ते कर्म करे छे के नहि ते अज्ञानी शुं जाणे?

तो कोण जाणे छे? ज्ञानी जाणे छे के ते रागनो-क्रियानो कर्ता छे ज नहि, मात्र ज्ञाता छे. प्रश्नः– आ पोते पोतानी वात करे छे ने? उत्तरः– ना, सौनी (बधा ज्ञानीनी) वात करे छे. बीजा (ज्ञानी) राग करे छे के नहि ते कोण जाणे? अर्थात् अज्ञानीने एनी खबर न पडे पण अमे जाणीए छीए


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के ते राग करतो नथी. ‘कोण जाणे?’-एनो अर्थ एम नथी के ज्ञानी जाणतो नथी पण ज्ञानी राग करे छे के नहि ते तने-अज्ञानीने शी खबर पडे?-एम कहेवुं छे. अहा! जे ज्ञाता छे ते कर्ता छे ज नहि एम अमे जाणीए छीए. समयसार नाटकमां छे ने के-

“करै करम सोई करतारा,
जो जानै सो जाननहारा;
जो करता, नहि जानै सोई,
जानै सो करता नहि होई.”

आवो मारग बापा! आचार्य कहे छे-जेने रागमांथी रस उडी गयो छे अने अतीन्द्रिय आनंदनुं धाम प्रभु आत्मानो रस जाग्यो छे ते क्रिया करे छे के नथी करतो तेनी तने (-अज्ञानीने) शुं खबर पडे? अमे जाणीए छीए के ते कर्ता नथी, ज्ञाता छे. अज्ञानी तो ज्ञानी क्रिया करे छे एम माने छे केमके तेने तो संयोगद्रष्टि छे ने? संयोगथी जुए छे तो करे छे एम माने छे.

तो आमां समजवुं शुं? शुं समजवुं शुं? कह्युं ने के-ज्ञानी राग करतो ज नथी. तेने राग थाय छे छतां पण तेनो ते कर्ता नथी ज्ञाता छे केमके तेणे तो राग ने रागनुं फळ छोडी दीधां छे.

प्रश्नः– हा, पण आ ज्ञानी छे एम बीजाने शुं खबर पडे? समाधानः– ए तो न्याय जुए, एनी द्रष्टि (अभिप्राय) जुए, एनी प्ररूपणा- उपदेश आदि जुए एटले खबर पडी जाय.

पण ते केम देखाय? देखाय, देखाय, बधुं देखाय. पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते स्वपरप्रकाशक सदा जाणनार स्वभावे छे; तेने न जणाय ए वात केवी?

हा, पण ए तो सिद्धांत कह्यो? अरे भाई! जो ए सिद्धांत छे तो तेनुं फळ आ छे के ते जाणी शके. आत्मा जाणे; ते स्वने जाणे ने परने पण जाणे एवो तेनो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. तेथी ते बराबर जाणे, न जाणे ए वात नथी, जाणे ज.

जुओ, शास्त्रमां दाखलो आवे छेः- के राजकुमार श्रेयांसकुमारने स्वप्न आव्युं के कल्पवृक्ष सुकाय छे. त्यारे निमित्तज्ञानीने पूछयुं के आ शुं? तो कहे के-‘मुनि भगवान (छद्मस्थ दशामां) आहार लेवा आवशे, तेमने बार महिनाना उपवास थया छे.’ जुओ, भगवान ऋषभदेवने बार महिनाथी आहार नहोतो मळ्‌यो.

बन्युं एवुं के भगवान आहार माटे पधार्या. आ राजकुमार श्रेयांसकुमार तो