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पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा अनंतगुणधाम सुखधाम छे. ‘स्वयंज्योति सुखधाम’ एम आत्मसिद्धिमां आवे छे ने? शुद्ध चैतन्यज्योत सुखधाम प्रभु आत्मा छे. अहाहा...! ते आनंदनुं स्थान छे जेमांथी आनंद ज पाके. तो जेने आनंद पाकयो छे तेवा जीवने परना नाना-मोटा संयोगने कारणे परिणाम पलटीने अपराधरूप-बंधरूप थई जाय एवी शंका न करवी एम कहे छे. संयोग आव्यो माटे मने बंध थशे एम शंका न करवी. झीणी वात छे प्रभु! आ तो वीतरागदेव वस्तुनो स्वभाव वर्णवे छे. कहे छे- भगवान! तारो स्वभाव तो शुद्ध छे ने? स्वभावनुं तने भान थयुं ने हवे कोई संयोगो देखाय छे तो तेनाथी अपराध थई गयो एम शंका न करवी. भाई! आ सिद्धांत कांई स्वच्छंदी थवा माटे नथी, पण तेने परना कारणे दोष थाय छे एवी शंकाथी पर थवा माटेनी वात छे. आवो भगवान वीतरागनो उपदेश छे!
हवे कहे छे-जो एवी शंका करीश तो ‘परद्रव्य वडे आत्मानुं बूरुं थाय छे’ -एवुं मानवानो प्रसंग आवे छे.”
शुं कहे छे? के परद्रव्यनो संयोग छे माटे मने नुकशान छे एम शंका करीश तो परद्रव्य वडे आत्मानुं बूरुं थाय छे एम मानवानो प्रसंग आवे छे. पण धर्मीने एवी शंका होती नथी. चक्रवर्तीने एक एक मिनिटनी अबजोनी पेदाश होय छे, मोटा नवनिधान होय छे छतां तेने लईने मने अपराध थशे-बंध थशे एवी शंका एने होती नथी. भाई! धर्मी बहारना घणा संयोगोमां देखाय माटे ते अपराधी छे एम माप न कर. तथा कोईने संयोगो मटी गया-नग्न थयो माटे ते धर्मी थयो एम पण माप न कर. नग्न मुनि थयो, राजपाट छोडयां, हजारो राणीओ छोडी माटे ते धर्मी एम मापवानुं रहेवा दे भाई! संयोगो घटया ते तेना कारणे घटया छे; ते घटया छे माटे त्यां धर्म छे एम छे नहि. शुद्ध चैतन्यस्वभाव पर द्रष्टि न होय तेने संयोगो घटया होय तोपण ते मिथ्याद्रष्टि छे तथा अनेक संयोगो वच्चे होय तोपण जेनी द्रष्टि शुद्ध आत्मद्रव्य-स्वद्रव्य पर छे ते निरपराध धर्मात्मा छे. आवी स्वद्रव्य-परद्रव्यनी भिन्नतानी सूक्ष्म वात छे.
‘भोगव’नो अर्थ ए छे के पूर्वना पुण्यना कारणे समकितीने संयोग घणा हो, पण एथी तेने नुकशान छे वा ते संयोग अपराध छे एम नथी. अहा! आवो मारग समजवो पडशे भाई! बहारथी माप काढीश के आने आ छोडयुं ने ते छोडयुं तो माप खोटां पडशे, केमके खरेखर वस्तुमां परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग छे ज नहि. सूक्ष्म वात छे भाई! परनो त्याग करवो ने परने ग्रहण करवुं ए वस्तुमां -आत्मामां छे ज नहि. ज्यां आम छे त्यां परनो त्याग थयो माटे त्यागी थयो एम माने ए तो अज्ञान छे.
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शुं कह्युं ए? के आत्मामां एक त्यागउपादानशून्यत्व शक्ति छे. अहाहा...! भगवान आत्मामां एक एवो गुण छे-अनादि सत्नुं सत्त्व एवुं छे-के परमाणुं परस्त्री इत्यादि पर पदार्थने आत्माए ग्रह्या नथी तेम ज तेने छोडतो पण नथी. परद्रव्यना ग्रहण-त्याग रहित ज तेनुं स्वरूप छे. हवे जेना ग्रहणत्यागथी रहित पोते छे तेने हुं त्यागुं तो धर्म थाय एम मानवुं ते अज्ञान छे. निश्चयथी तो रागना त्यागनुं कर्तापणुं पण आत्माने नथी एम वात छे. वीतरागस्वरूप भगवान पोते छे एम जेने अंतर्द्रष्टि थई छे तेने रागनो त्याग थयो एम कहेवुं ते नाममात्र छे; कारण के पोते (शुद्ध द्रव्य) रागरूपे थयो ज नथी तो रागनो त्याग कर्यो ए कयांथी आव्युं? ३४ मी गाथामां आवे छे के धर्मात्माए रागनो त्याग कर्यो छे ते नाममात्र कथन छे. हवे आम छे त्यां परनो त्याग कर्यो माटे धर्मात्मा थई गयो ए कयां रह्युं? एम मानवुं ए तो अज्ञान छे. ल्यो, आवी वातु छे! अहीं कहे छे-कोई (धर्मीजीव) परना घणा संयोगमां छे माटे ते अज्ञानी छे एम (मानवुं) प्रभु! रहेवा दे. एम वस्तुनुं स्वरूप नथी. भाई! श्लोक बहु आकरो छे. पण स्वच्छंदी माटे आ वात नथी. (आ तो ज्ञानी-धर्मीनी वात छे.)
कोईने वळी थाय के अमे गमे ते परद्रव्यने भोगवीए तो तेमां शुं (हानि छे)? समाधानः– अरे भाई! तुं परद्रव्यने भोगवे छे ज क्यां? परद्रव्यने ज्यां तुं अडतोय नथी त्यां तेने भोगववानो प्रश्न ज कयां छे? तथापि स्वच्छंदे भोगववानी तने जे चेष्टा छे ते अज्ञान छे, अने ते मोटुं नुकशान छे. समजाणुं कांई...? अहीं तो एम कहेवुं छे के-पूर्वना पुण्यने लीधे समकितीने झाझा संयोग छे तो भले हो, ते परद्रव्यरूप संयोगने लीधे तेना ज्ञान-श्रद्धानने कांई हानि थशे एम छे नहि. परद्रव्यने कारणे मने लाभ-हानि छे एम समकिती शंका करे नहि एम अहीं वात छे.
जुओ, स्वद्रव्यने भूलीने परद्रव्य साथे वा परभाव साथे एकपणुं करे ते अपराध छे अने ते अपराध पोतानो पोताथी छे, कोई परद्रव्य तेने पराणे अपराध करावे छे एम नथी. अने ज्ञानीनी द्रष्टि शुद्ध चैतन्यद्रव्य-स्वद्रव्य पर रहेली छे. तथापि पूर्वना पुण्यना कारणे परद्रव्यना संजोगो होय तो ते संजोगो मने समकितमां नुकशान करशे एवी शंका करवी छोडी दे एम अहीं कहे छे, कारण के निज स्वरूपथी पूर्ण एवुं स्वद्रव्य सदाय परद्रव्यथी भिन्न ज छे. आवी वात छे. प्रभु! तारी प्रभुतानो पार नथी. आवे छे ने के-
प्रभु मेरे! तू सब बाते है पूरा, परकी आश कहा करै प्रीतम... अहा! परकी आश कहा करै वहाला... कई बाते तू अधूरा... प्रभु मरे! सब बाते तू पूरा.
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नाथ! तुं कई वाते अधूरो छे के आम परनी सामे जोया करे छे? पर मने लाभ करशे वा पर मने नुकशान करशे-एवी आशंका छोडी दे. भगवान! तुं सब (सर्व) भावे पूरो छे ने नाथ! ज्ञाने पूरो, वीर्ये पूरो, आनंदे पूरो, वीतरागताए पूरो, शांतिए पूरो, प्रभुताए पूरो, स्वच्छताए पूरो-एम अनंतगुणे तुं पूरो छे, ने नाथ! तो आवा प्रभु स्वरूपनो संग कर्यो ने हवे आ बहारनो परद्रव्यनो संग (संयोग) मने नुकशान करशे एवी आशंका रहेवा दे प्रभु! रागना संग विना असंग शुद्ध चैतन्यमहाप्रभुनो संग कर्यो तो हवे आ जरी राग आव्यो ने संयोग घणा आवी पडया एटले मने नुकशान छे एम (विचारवुं) रहेवा दे, केमके तुं तो ए सर्वनो जाणनार छो.
अहाहा...! भगवान आत्मा पोतानुं अने परनुं माप करे छे (ज्ञान करे छे) पण पर मारां छे एवुं कयां छे एमां? ‘प्रमाण’ कह्युं छे ने? तो प्रमाण करनारो कहो के माप करनारो कहो-एक ज छे. प्र+माण = विशेषे माप करनार. भगवान आत्मानी ज्ञानपर्याय माप आपे छे. अहाहा...! पोतानुं अने परनुं स्वरूप केवुं छे तेनुं ते माप आपे छे पण पर मारां छे एवुं ज्ञान-प्रमाणमां कयां छे? नथी. परद्रव्यनो संयोग थयो तेनुं प्रमाण ज्ञान करे छे पण ते संयोग लाभ-नुकशान करे एवुं एमां कयां छे? माटे मने अरे! आवा झाझा संयोग!-एम एनाथी मने नुकशान छे एवी आशंकाथी रहित थई जा-एम कहे छे. क्रोडो अप्सराओ छे माटे मने बंधनुं कारण छे एम रहेवा दे, एम छे नहि; अने अमे स्त्रीनो त्याग कर्यो छे, अमे बालब्रह्मचारी छीए माटे अमने धर्म थयो छे एम पण रहेवा दे, एम छे नहि. अहो! आ तो गजबनी शैली छे! वीतरागदेवनी आ वात बापु! बेसवी महा कठण छे अने जेने बेसी गई ए तो मानो न्याल थई गयो! समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे-‘आ रीते अहीं जीवने परद्रव्यथी पोतानुं बूरुं थतुं मानवानी शंका मटाडी छे; भोग भोगववानी प्रेरणा करी स्वच्छंदी कर्यो छे एम ज समजवुं. स्वेच्छाचारी थवुं ए तो अज्ञानभाव छे एम आगळ कहेशे.’
शुं कहे छे? के आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकभाव चैतन्य महाप्रभु छे. ते जेना स्वसंवेदनमां आव्यो, अनुभवमां आव्यो तेने कहे छे-भाई! संयोगो गमे ते हो, तेओ तने नुकशान करशे वा तेमनाथी तारुं अहित थशे एवी शंका न कर. आ प्रमाणे परद्रव्यथी पोतानुं बूरुं थतुं मानवानी शंका अहीं मटाडी छे, परंतु परनो संयोग कर ने स्वच्छंदे तेने भोगव, एथी तने कांई दोष नथी-एम स्वच्छंदी थवानी प्रेरणा करी नथी. भाई! द्रष्टि जो स्वद्रव्यथी खसी गई ने परद्रव्यथी एकपणाने पामी तो तो नुकशान ज छे, पछी भले परद्रव्यना संयोग हो के न हो. बाकी द्रष्टि जेनी एक ज्ञायकभाव पर स्थिर छे तेने संयोगना ढगला होय तोय शुं? केमके ते एकेय
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परचीज एनी कयां छे? एक होय के क्रोडो होय-ए बधी संख्या तो बहारनी छे. बहारनी संख्याथी आत्माने शुं लाभ-हानि छे? कांई लाभ-हानि नथी.
भाई! कोई नग्न दिगंबर मुनि थयो होय एने भले संयोग कांई न होय पण अंदरमां पोताना चिदानंद भगवान आत्माने छोडी पोताने रागवाळो मान्यो छे वा रागथी पोताने लाभ थवो मान्यो छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे अने ९६ करोड पायदळ इत्यादि वैभवनी वचमां भरत चक्रवर्ती पडयो होय ने रोज सेंकडो राजकन्या परणतो होय तोपण ते धर्मात्मा छे. केम? केमके एनी द्रष्टि शुद्ध चैतन्यमय स्वद्रव्य पर छे. बहारनो वैभव तो परद्रव्य छे. ए कयां स्वद्रव्यने अडे छे? द्रष्टिमां तो एने ए सर्वनो त्याग थई गयो छे. द्रष्टिमां तो ज्यां सर्व रागनोय त्याग छे त्यां परवस्तुनुं तो पूछवुं ज शुं? परवस्तुनो तो स्वभावमां त्याग ज छे. तेथी कहे छे के परवस्तुथी पोताने नुकशान थशे एवी शंका न करवी. पण तेथी करीने परवस्तुथी मने नुकशान नथी एम विचारीने स्वच्छंदी थई भोग भोगववामां लीन न रहेवुं, केमके स्वेच्छाचारी थवुं ए तो अज्ञानभाव छे एम आगळ कहेशे. स्वच्छंदी थईने परने ने रागने पोताना मानवा ए तो मिथ्यात्व छे, महा अपराध छे. समजाणुं कांई...?
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संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो कादुं।। २२०।।
तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे।
भुंजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं।। २२१।।
जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदृण।
गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे।। २२२।।
तह णाणी वि हु जइया णाणसहावं तयं पजहिदूण।
अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे।। २२३।।
शंखस्य श्वेतभावो नापि शक्यते कृष्णकः कर्तुम्।। २२०।।
तथा ज्ञानिनोऽपि विविधानि सचित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि।
मुञ्जानस्यापि ज्ञानं न शक्यमज्ञानतां नेतुम्।। २२१।।
गच्छेत् कृष्णभावं तदा शुकॢत्वं प्रजह्यात्।। २२२।।
हवे आ ज अर्थने द्रष्टांतथी द्रढ करे छेः-
पण शंखना शुक्लत्वने नहि कृष्ण कोई करी शके; २२०.
त्यम ज्ञानी विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त द्रव्यो भोगवे,
पण ज्ञान ज्ञानी तणुं नहीं अज्ञान कोई करी शके. २२१.
ज्यारे स्वयं ते शंख श्वेतस्वभाव निजनो छोडीने,
पामे स्वयं कृष्णत्व, त्यारे छोडतो शुक्लत्वने; २२२.
त्यम ज्ञानी पण ज्यारे स्वयं निज छोडी ज्ञानस्वभावने,
अज्ञानभावे परिणमे, अज्ञानता त्यारे लहे. २२३.
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अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत्।। २२३।।
गाथार्थः– [शंखस्य] जेम शंख [विविधानि] अनेक प्रकारनां [सचित्ताचित्त– मिश्रितानि] सचित्त, अचित्त अने मिश्र [द्रव्याणि] द्रव्योने [भुञ्जानस्य अपि] भोगवे छे-खाय छे तोपण [श्वेतभावः] तेनुं श्वेतपणुं [कृष्णकः कर्तु न अपि शक्यते] (कोईथी) कृष्ण करी शकातुं नथी, [तथा] तेम [ज्ञानिनः अपि] ज्ञानी पण [विविधानि] अनेक प्रकारनां [सचित्ताचित्तमिश्रितानि] सचित्त अचित्त अने मिश्र [द्रव्याणि] द्रव्योने [भुञ्जानस्य अपि] भोगवे तोपण [ज्ञानं] तेनुं ज्ञान [अज्ञानतां नेतुम् न शक्यम्] (कोईथी) अज्ञान करी शकातुं नथी.
[यदा] ज्यारे [सः एव शंखः] ते ज शंख (पोते) [तकं श्वेतस्वभावं] ते श्वेत स्वभावने [प्रहाय] छोडीने [कृष्णभावं गच्छेत्] कृष्णभावने पामे (अर्थात् कृष्णभावे परिणमे) [तदा] त्यारे [शुक्लत्वं प्रजह्यात्] श्वेतपणाने छोडे (अर्थात् काळो बने), [तथा] तेवी रीते [खलु] खरेखर [ज्ञानी अपि] ज्ञानी पण (पोते) [यदा] ज्यारे [तकं ज्ञानस्वभावं] ते ज्ञानस्वभावने [प्रहाय] छोडीने [अज्ञानेन] अज्ञानरूपे [परिणतः] परिणमे [तदा] त्यारे [अज्ञानतां] अज्ञानपणाने [गच्छेत्] पामे.
टीकाः– जेम शंख परद्रव्यने भोगवे-खाय तोपण तेनुं श्वेतपणुं पर वडे कृष्ण करी शकातुं नथी कारण के पर अर्थात् परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप करवानुं निमित्त (अर्थात् कारण) बनी शकतुं नथी, तेवी रीते ज्ञानी परद्रव्यने भोगवे तोपण तेनुं ज्ञान पर वडे अज्ञान करी शकातुं नथी कारण के पर अर्थात् परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप करवानुं निमित्त बनी शकतुं नथी. माटे ज्ञानीने परना अपराधना निमित्ते बंध थतो नथी.
वळी ज्यारे ते ज शंख, परद्रव्यने भोगवतो अथवा नहि भोगवतो थको, श्वेतभावने छोडीने स्वयमेव कृष्णभावे परिणमे त्यारे तेनो श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव थाय (अर्थात् पोताथी ज करवामां आवेला कृष्णभावरूप थाय), तेवी रीते ज्यारे ते ज ज्ञानी, परद्रव्यने भोगवतो अथवा नहि भोगवतो थको, ज्ञानने छोडीने स्वयमेव अज्ञानरूपे परिणमे त्यारे तेनुं ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान थाय. माटे ज्ञानीने जो (बंध) थाय तो पोताना ज अपराधना निमित्ते (अर्थात् पोते ज अज्ञानपणे परिणमे त्यारे) बंध थाय छे.
भावार्थः– जेम शंख के जे श्वेत छे ते परना भक्षणथी काळो थतो नथी परंतु ज्यारे पोते ज कालिमारूपे परिणमे त्यारे काळो थाय छे, तेवी रीते ज्ञानी
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भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः।
बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध्रुवम्।। १५१।।
कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।
ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा
कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः।। १५२।।
परना उपभोगथी अज्ञानी थतो नथी परंतु ज्यारे पोते ज अज्ञानरूपे परिणमे त्यारे अज्ञानी थाय छे अने त्यारे बंध करे छे.
हवे आनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [ज्ञानिन्] हे ज्ञानी, [जातु किञ्चित् कर्म कर्तुम् उचितं न] तारे कदी कांई पण कर्म करवुं योग्य नथी [तथापि] तोपण [यदि उच्यते] जो तुं एम कहे छे के ‘[परं मे जातु न, भुंक्षे] परद्रव्य मारुं तो कदी नथी अने हुं तेने भोगवुं छुं’, [भोः दुर्भुक्तः एव असि] तो तने कहेवामां आवे छे (अर्थात् अमे कहीए छीए) के हे भाई, तुं खोटी (-खराब) रीते ज भोगवनार छे; [हन्त] जे तारुं नथी तेने तुं भोगवे छे ए महा खेद छे! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात्] जो तुं कहे के ‘परद्रव्यना उपभोगथी बंध थतो नथी एम सिद्धांतमां कह्युं छे माटे भोगवुं छुं’, [तत् किं ते कामचारः अस्ति] तो शुं तने भोगववानी इच्छा छे? [ज्ञानं सन् वस] ज्ञानरूप थईने वस (-शुद्ध स्वरूपमां निवास कर), [अपरथा] नहि तो (अर्थात् जो भोगववानी इच्छा करीश- अज्ञानरूपे परिणमीश तो) [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि] तुं चोक्कस पोताना अपराधथी बंधने पामीश.
भावार्थः– ज्ञानीने कर्म तो करवुं ज उचित नथी. जो परद्रव्य जाणीने पण तेने भोगवे तो ए योग्य नथी. परद्रव्यना भोगवनारने तो जगतमां चोर कहेवामां आवे छे, अन्यायी कहेवामां आवे छे. वळी उपभोगथी बंध कह्यो नथी ते तो, ज्ञानी इच्छा विना परनी बळजोरीथी उदयमां आवेलाने भोगवे त्यां तेने बंध कह्यो नथी. जो पोते इच्छाथी भोगवे तो तो पोते अपराधी थयो, त्यां बंध केम न थाय? १प१.
हवे आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफलेन बलात् नो योजयेत्] कर्म ज
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अने राग विना कर्म करे छे एवो मुनि कर्मथी बंधातो नथी कारण के तेने कर्मना फळनी
इच्छा नथी. १प२.
कारण) बनी शकतुं नथी,...’
एकलो विकारी भाव एम नहीं पण कोई द्रव्य परद्रव्यना कोई पण भावरूप अन्य द्रव्यने
करी शकतुं नथी एम अर्थ छे.
प्रश्नः– आप कहो छो के परद्रव्यने कोई भोगवे-खाय नहीं अने पाछुं कह्युं के
तो कहे छे के शंख परद्रव्यने भोगवे-खाय तोपण शंखनुं श्वेतपणुं पर वडे कृष्ण
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जीवडां खाय तोपण तेथी कांई तेनुं श्वेतपणुं पर वडे पलटी जाय एम नथी. आ तो अहीं एक ज सिद्धांत कहेवो छे के कोई पण वस्तु कोई पण वस्तुने परभावरूप करी शकतुं नथी. मतलब के जे समये जे द्रव्यनी जे पर्याय तेना पोताथी थाय छे तेने कोई बाह्य निमित्त आवीने फेरवी दे एम छे नहि. कोई द्रव्य अन्यद्रव्यने तेना पोताना भावने पलटीने परभावरूप करी दे एम छे नहि.
तो निमित्त आवीने करे शुं? भाई! निमित्त बीजानुं (-उपादाननुं) शुं करे? निमित्त एनुं (पोतानुं) करे पण परनुं तो कांई न करे. ते बीजानी (उपादाननी) अपेक्षाए निमित्त छे, पण पोतानुं परिणमन करवामां तो उपादन छे. अहा! आत्मा परनुं कांई करी शके नहि ने परद्रव्य आत्मानुं कांई करी शके नहि एम कहे छे.
पण निमित्त होय छे ने? निमित्त हो, (ते नथी एम कोण कहे छे?); पण तेथी शुं छे? जे काळे जे द्रव्यनी पर्याय पोताथी थाय छे ते द्रव्यनी ते पर्याय, बीजा द्रव्यथी एटले के परद्रव्यना भावथी थाय छे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. अहा! आ तो महासिद्धांत छे.
हवे कहे छे-‘तेवी रीते ज्ञानी परद्रव्यने भोगवे तोपण तेनुं ज्ञान पर वडे अज्ञान करी शकातुं नथी कारण के पर अर्थात् परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप करवानुं निमित्त बनी शकतुं नथी.’
जोयुं? परना भोग वडे आत्मानुं ज्ञान अज्ञान थाय एम छे नहि. केम? केमके परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप करवानुं कारण बनतुं नथी. पर्यायमां उपादाननी योग्यता होय ते थाय छे अने अत्यारे परवस्तु निमित्त हो पण ते उपादानना भावने कांई करे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. आ तो गजब सिद्धांत छे भाई!
प्रश्नः– तो शुं चोखा एकला तेनी मेळे चडे छे? ऊनुं पाणी ने अग्नि होय त्यारे तो चडे छे. अग्नि ने पाणी विना ते लाख वरस रहे तोय न चडे.
समाधानः– भाई! चोखानी चडवानी पर्याय छे त्यारे ते चडे छे अने त्यारे अग्नि ने पाणी निमित्त छे, पण निमित्त वडे चोखा चडे छे एम छे नहि केमके परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप करी शकतुं नथी.
पण वगर पाणीए ते चडे केवी रीते? भाई! तेनी मेळे ते चडे छे; केमके ते पदार्थ छे के नहि? पदार्थ छे तो तेने पोतानी पर्याय होय छे के नहि? अने पर्याय प्रतिसमय पलटे छे के नहि? पलटे छे तो तेने परद्रव्य पलटावी दे एम छे नहि. भाई? कोई पण द्रव्यनो भाव कोई परद्रव्य (निमित्त)
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वडे करातो नथी ए मूळ सिद्धांत छे. भाई! आत्मानो विकारी के निर्विकारी भाव जे वखते थाय छे ते वखते परद्रव्य वडे ते भाव (-परभाव) करी शकाय छे एम छे नहि. (आत्मानो भाव परद्रव्यनी अपेक्षाए परभाव छे).
भाई! वस्तुनी स्थितिनी एवी मर्यादा छे के पोताना भावने पोते करे पण परद्रव्य वडे परद्रव्यनो भाव कराय एम कयारेय न बने; केमके कोई द्रव्य बीजा द्रव्यने- बीजा द्रव्यनो जे भाव छे तेने-करवानुं निमित्त-कारण बनी शकतुं नथी. अहा! निमित्त परमां अकिंचित्कर छे अर्थात् निमित्त परमां कांई पण करे नहि. अहा! जीव जे काळे जे भावथी परिणमे छे ते काळे बीजी चीज ते भावने करे के पलटावी दे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. जुओ आ महासिद्धांत छे!
प्रश्नः– नियतक्रममां तो नियतवाद थई जाय छे! समाधानः– एम नथी; केमके सम्यक् नियतक्रममां पांचे समवाय आवी जाय छे. अहा! जे समये थवानो पर्यायनो क्रम छे ते त्रिकाळमां पलटे नहि. वस्तु स्थिति ज आवी छे ने भाई! अने एनो यथार्थ निर्णय कोने छे? के जेनी द्रष्टि अंतरमां द्रव्यस्वभाव उपर गई छे. अहा! द्रव्यस्वभाव-शुद्ध एक चैतन्यघनस्वभाव उपर द्रष्टि जाय छे त्यारे तेने पर्यायमां पांचे समवायथी कार्य थयुं एम यथार्थ ज्ञान थाय छे. अहा! दरेकमां (विकारी के निर्विकारी पर्यायमां-दरेकमां) पांचे समवाय होय छे. जे समये जे पर्याय थाय छे त्यां स्वभाव छे, पुरुषार्थ छे, काळलब्धि छे, ते समयनो भाव-भवितव्य छे ने योग्य निमित्त पण छे. समवाय तो पांचे एकसाथे होय ज छे. जे समये चैतन्यनी जे पर्याय थवानो काळ छे ते समये तेने अनुकूळ बहिरंग निमित्त होय ज छे, जेम पाणी (नदीनुं) चाल्युं जतुं होय तेने बे कांठा अनुकूळ होय छे तेम.
पण निमित्त अनुकूळ छे ने? तो अनुकूळनो अर्थ शुं भाई! के बे कांठा छे, बस. बाकी पाणी जे चाले छे ते पोताने कारणे चाल्युं जाय छे, ते कांई बे कांठाने लईने नहि.
नदीनो प्रवाह बदलाय छे ने? ए तो पोताने कारणे बदलाय छे. ते काळे तेवी पर्याय थवामां तेनुं ज कारण छे अने निमित्त-कांठा पण एम ज अनुकूळ छे. कांठाना कारणे प्रवाह बदलाय छे एम छे नहि.
पण कांठा बांधे छे ने? कोण बांधे? ए तो सौ पोतपोताना कारणे होय छे. नदीनो प्रवाह वह्यो जाय छे ते कांई कांठाना कारणे नहि; प्रवाह प्रवाहना कारणे वहे छे ने कांठा कांठाना कारणे छे;
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कांठा प्रवाहने अनुकूळ छे बस एटलुं. ए तो बे वात (गाथा ८६ मां) आवे छे ने भाई? के निमित्त छे ते अनुकूळ छे अने नैमित्तिक छे ते अनुरूप छे.
अहा! जे पर्याय जे क्षणे ज्यां थाय छे त्यां तेने ते क्षणे अनुकूळ निमित्त होय छे. पण अनुकूळ कह्युं माटे तने लईने (उपादानमां) कार्य थयुं छे एम नथी. ए तो कह्युं ने अहीं के-परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप एटले के परभावना स्वरूपे करवानुं कारण बनी शकतुं नथी.
त्यारे कोई वळी कहे छे-आ तो एकांत थई जाय छे. निमित्त आवे तेवुं पण होय छे ने?
अरे भाई! निमित्त होय छे एनो कोने इन्कार छे. द्रव्यमां जे काळे जे पर्याय थाय छे ते काळे तेने उचित बहिरंग निमित्त होय छे; पण निमित्त द्रव्यनी पर्याय करे छे एम नथी.
हा; पण निमित्त होय, उपादान होय तोपण जो प्रतिबंधक कारण होय तो कार्य थाय नहि. जेमके-दीवो थवानी योग्यता छे, दिवासळी निमित्त छे परंतु जो पवननो झपाटो होय तो दीवो थाय नहि.
समाधानः– बापु! एम नथी भाई! कार्यनो थवानो काळ होय त्यारे सर्व सामग्री (पांचे समवाय) होय ने प्रतिबंधक कारण न होय. त्यारे उपादानेय होय अने निमित्त पण होय छे. छतां निमित्त छे ते बहारनी-दूरनी चीज छे. ते अंदर (उपादानने) अडे नहि, जो अडे तो निमित्त न रहे. बापु! एक द्रव्य बीजा द्रव्यने अडे नहि ए मूळ वात छे. झीणी वात छे प्रभु! अज्ञानीने मूळ तत्त्वद्रष्टि ज नथी, त्यां शुं थाय?
अहीं तो आ चोख्खी भाषा छे, बेयमां (द्रष्टांत ने सिद्धांतमां) छे ल्यो; निमित्त (शब्द) छे जुओ, ‘परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः’ छे के नहि? परभाव एटले जे द्रव्य छे तेनो भाव, अने तेने परद्रव्य-निमित्त ‘अनुपपतेः’ प्राप्त करावे एम छे नहि. शुं कह्युं? के निमित्त छे, पण ते परभावने एटले के जे द्रव्य छे तेना भावने प्राप्त करावे नहि. ल्यो, आवी वात! ए तो ‘हाजर’ एम आवे छे ने? शास्त्रमां ‘सान्निध्य’ शब्द आवे छे; एम के कार्यकाळे निमित्तनुं-बहिरंग उचित निमित्तनुं सान्निध्य होय छे. उचितनो अर्थ अनुकूळ छे. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे-‘माटे ज्ञानीने परना अपराधना निमित्ते बंध थतो नथी.’ देहादि परनी क्रिया थाय माटे ज्ञानीने अपराध-बंध थाय एम छे नहि, केमके परद्रव्य कोई द्रव्यने परभावस्वरूप करवानुं निमित्त बनतुं नथी; कोई द्रव्यना भावने कोई अन्य द्रव्य करे के पलटी दे एम वस्तुस्वरूप नथी.
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हवे कहे छे-‘वळी ज्यारे ते ज शंख परद्रव्यने भोगवतो अथवा नहि भोगवतो थको, श्वेतभावने छोडीने स्वयमेव कृष्णभावे परिणमे त्यारे तेनो श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव थाय (अर्थात् पोताथी ज करवामां आवेला कृष्णभावरूप थाय),...’
जुओ, शुं कहे छे? शंख काळी माटी, कीडा आदिनुं भक्षण करे तोपण ते वडे ते काळो न थई शके, पण पोते ज्यारे धोळामांथी काळारूपे परिणमन करे छे त्यारे काळी माटी, कीडा आदिने भोगवे के न भोगवे, ते पोताना काळे परिणमी जाय छे. धोळामांथी काळारूपे परिणमन जे काळे थवा योग्य होय ते काळे शंख स्वयं ते-रूपे परिणमी जाय छे अने त्यारे तेमां बाह्य चीज अनुकूळ निमित्त होय छे. त्यां बीजी चीज (निमित्त) शंखनुं परिणमन करावी दे छे एम नथी. शंख तो पोते पोताने कारणे परिणमे छे त्यारे बहारनी चीज निमित्तमात्र छे. भाई आ तो जीवनी ने परमाणुनी-बधानी स्वतंत्रतानो (स्वतंत्र परिणमननो) ढंढेरो छे. स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षामां ‘कालाइलद्धिजुत्ता...’ इत्यादि गाथामां छ ये द्रव्यने काळलब्धि होय छे एम स्वामी कार्तिकेय कहे छे. प्रत्येक द्रव्यने समयसमयनी पर्यायनी लब्धि अर्थात् प्राप्तिनो काळ होय छे, अने तेनाथी ते समये समये परिणमे छे. प्रवचनसार गाथा १०२ मां तेनी (पर्यायनी) जन्मक्षण होवानी वात छे. बन्ने एक ज वात छे. तेथी, ते पर्यायनो उत्पत्तिनो काळ छे त्यारे उत्पन्न थाय छे.
आत्मामां उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व नामनी शक्ति छे अने तेमां अकार्यकारणत्व शक्तिनुं रूप छे. तेथी आत्मामां जे उत्पाद थाय छे ते, तेमां अकार्यकारणत्व शक्तिनुं रूप होवाथी, कोईनुं (अन्यनुं) कारण थाय नहि अने कोईनुं (अन्यनुं) कार्यपण थाय नहि. जेम आत्मामां एक ज्ञानगुण छे, अने तेमां अकार्य-कारणत्व शक्तिनुं रूप छे; तेथी ज्ञाननुं जे काळे जे परिणमन थाय छे ते कोईनुं (अन्यनुं) कारण नथी अने कोईनुं (अन्यनुं) कार्य पण नथी. आ प्रमाणे द्रव्यमां जे परिणमन थाय छे ते कोई अन्यना कारणे नथी अने ते कोई अन्यनुं कारण थाय एम पण नथी.
जुओ, अहीं टीकामां ‘स्वयमेव’ शब्द पडयो छे. पाठमां ते नथी. ‘स्वयमेव’ एटले पोताथी ज. पण कोई ‘स्वयमेव’ एटले पोताथी ज एम अर्थ करवाने बदले पोतारूप-जीवरूप, अजीवरूप-एम अर्थ करे छे. परंतु अहीं एम अर्थ नथी. ‘स्वयमेव’ एटले पोताथी ज अर्थात् पोताना कारणे ज ते ते पर्याय-परिणति थाय छे, पण निमित्तने कारणे थाय छे एम नहि; तथा प्रतिबंधक कारणने लईने ते अटके छे एम पण नहि, अने प्रतिबंधक कारण टळ्युं माटे ते पर्याय थाय छे एम पण नहि. अहा! आवी वात छे! अहीं ‘स्वयमेव कृष्णभावे परिणमे’-एना उपर वजन छे. अरे भगवान! आमां पोतानी (मिथ्या) द्रष्टिए शास्त्रना अर्थ करे ते न चाले. शास्त्र जे कहेवा मागे छे ते अभिप्रायमां पोतानी द्रष्टि लई जवी जोईए.
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आ वात अत्यारे चालती नहोती एटले केटलाक लोको ‘आ एकान्त छे एकान्त छे, आ नियतिवाद थई जाय छे’-एम राडो पाडे छे, पण बापु! आ सम्यक् नियति छे. नियतिवादमां-मिथ्या नियतिमां तो एकलुं थवा काळे थाय-एम होय छे, तेमां स्वभाव, पुरुषार्थ, निमित्त (निमित्तनो अभाव) इत्यादि होतां नथी. ज्यारे अहीं (सम्यक् नियतिमां) तो जे समये जे द्रव्यनी जे पर्याय थवा योग्य होय ते ते समये थाय ज अने तेमां ते काळे वीर्यशक्तिनुं पण परिणमन छे, स्वभावनुं पण परिणमन छे अने तेनामां अभाव नामनी एक शक्ति छे तेथी निमित्तना अभावरूप तेनुं परिणमन पण होय छे.
अहा! कर्मनो अभाव थयो माटे आत्मामां केवळज्ञान थाय छे एम नथी; पण पोतामां अभाव नामनी शक्ति छे तेथी ते (निमित्तना) अभावपणे परिणमे छे. आवी वात छे! आत्मामां एक भाव नामनी शक्ति छे. तेनुं कार्य शुं? के द्रव्यनी पर्याय जे काळे थवानी होय ते थाय ज. आ भावगुणनुं कार्य छे, पण निमित्तनुं कार्य नथी, तथा संयोगी चीज मळी माटे कार्य थयुं छे एम नथी. अहाहा...! भाव नामनो गुण छे अने ते गुणनो धरनार भगवान आत्मा भाववान छे. ते भाववान उपर ज्यां द्रष्टि गई त्यां भावगुणने लईने तेनामां निर्मळ पर्याय थाय ज छे; मलिननी अहीं वात ज नथी. आवी वात! भाई! हठ छोडी मध्यस्थ थईने समजे तो समजाय एवुं छे. आ कांई कल्पित वात नथी. आ तो अनंता तीर्थंकरोए दिव्यध्वनिमां पोकारेली वात छे. अहा! पण वीतरागदेवने समजवा महा कठण छे!
अरे भाई! आवो मनुष्यदेह मळ्यो, वीतरागनी वाणी सांभळवा मळी ने आ टाणे जो निर्णय नहि करे तो के दि करीश? भाई! आ निर्णय करवामां सम्यदर्शन छे. जे काळे जे थवा योग्य होय ते थाय अने निमित्त एमां कांई करे नहि एवी स्वतंत्रतानो निर्णय करवा जाय त्यां फट द्रष्टि पर्यायथी ने परथी खसी एक ज्ञायकभाव उपर जाय छे अने तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. जेम, सर्वज्ञ भगवाने जोयुं छे तेवुं पर्यायमां थाय-एवो निर्णय करनारनी द्रष्टि एक ज्ञायकभाव उपर जाय छे तेम त्रिकाळ ध्रुव सर्वज्ञस्वभावी एक ज्ञायकभाव प्रभु आत्माने कारण बनावे त्यारे पर्याय तेना स्वकाळे क्रमबद्ध थाय छे एवो निर्णय यथार्थ थाय छे. भाई! आ ‘मास्टर की’ (Master Key) छे, बधे लगाडी देवी. अहा! आ त्रणलोकना नाथनी रीत छे. अहा! आवो निर्णय कर्या विना कोई व्रतादि पाळे पण एथी शुं वळे!
अहीं कहे छे-‘शंख... श्वेतभावने छोडीने स्वयमेव कृष्णभावे परिणमे त्यारे तेनो श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव थाय.’ जोयुं? ‘स्वयमेव’ ने ‘स्वयंकृत’ एम बे शब्दो छे, संस्कृतमां पण बे छे. छे? छे के नहि? पहेलां शब्द छे ‘स्वयमेव’, एटले के पोताथी ज-एक वात. अने पछी शब्द छे ‘स्वयंकृत’, एटले के पोताथी
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करायेलो; अर्थात् शंख पोताथी ज कृष्णभावे परिणमे त्यारे तेनो श्वेतभाव पोताथी करायेला कृष्णभावने प्राप्त थाय छे. शुं कह्युं? के शंख छे ते ज्यारे पोते पोताथी ज काळो थाय अने स्वयंकृत एटले पोताथी काळो करायेलो होय त्यारे ते काळो थाय छे, परंतु ते परथी काळो करेलो के परथी काळो करायेलो नथी. स्वयमेव एटले पोताथी ज अने स्वयंकृत एटले पोताथी करायेलो; निमित्त के परकृत छे एम नहि.
पण पूर्वना पुण्यनो योग होय तो पैसा मळे छे ने? भाई! ते (पैसाना) परमाणुनी पर्याय ते काळे ते रीते थवानी हती तो ते रीते थई छे; ते कांई एना पुण्यना कारणे थई छे एम नथी. पुण्यना रजकणो तो एनाथी भिन्न चीज छे, ते एने (पैसाना परमाणुने) अडताय नथी. झीणी वात छे भाई! वळी पैसा थाय छे ते पैसाना-धूळना छे, एमां जीवने शुं छे? अहा! दर्शनशुद्धि विना बधुं थोथेथोथां छे.
हवे कहे छे-‘तेवी रीते ज्यारे ते ज ज्ञानी, परद्रव्यने भोगवतो अथवा नहि भोगवतो थको, ज्ञानने छोडीने स्वयमेव अज्ञानरूपे परिणमे त्यारे तेनुं ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान थाय.’
जुओ, पोते स्वयमेव अज्ञानरूपे परिणमे छे अर्थात् विषय-भोगमां रस-रुचि करीने स्वयं अज्ञानभावे परिणमे छे एम कहे छे. विषयभोगमां रस छे, मीठाश छे-एवो जे अज्ञानभाव छे तेने अज्ञानी पोताथी ज करे छे; पण मोहनीय कर्मनो उदय तेने अज्ञान करावे छे एम नथी. अहा! केटलुं स्पष्ट छे!
प्रश्नः– दर्शनमोहनो उदय आव्यो त्यारे मोह थयो ने? क्रोध पछी मान थाय ने क्रोध न थाय एनुं कारण त्यां मानकर्मनो उदय छे ने?
समाधानः– भाई! अहीं तो कहे छे के उदय-निमित्त जीवना भावने करी शकतो नथी. कर्मनो उदय निमित्त हो, पण ते जीवना भावने करे छे एम नथी; जीव स्वयं पोते पोताथी ज अज्ञानभावने करे छे.
जुओ, अहीं कहे छे-‘ज्ञानी परद्रव्यने भोगवतो...’ भोगवतो एटले शुं? एटले के अंदर एनो राग करतो; परद्रव्य तो कयां भोगवाय छे? पण परद्रव्यना (भोगना) काळे राग होय छे तेथी भोगवे छे एम कहेवाय छे. ‘ज्ञानी परद्रव्यने भोगवतो अर्थात् नहि भोगवतो थको’-अर्थात् न पण भोगवे तोपण ‘ज्ञानने छोडीने’ -एटले के पोताना ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावने छोडीने स्वयमेव अज्ञानरूपे परिणमे छे. अहा! विषयमां, आबरूमां मझा छे-एम अज्ञानरूपे ते स्वयमेव परिणमे छे.
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हवे आवुं समजवुं एना करतां व्रत लईए ने तपश्चर्या करीए तो? भाई! अज्ञानभावे अनंतकाळ व्रतमां काढे तोय शुं? ने क्रोडो जन्म तपश्चर्या तपे तोय शुं? विना आत्मज्ञान संसार ऊभो ज रहे छे.
अहाहा...! कहे छे-‘स्वयमेव अज्ञानरूपे परिणमे त्यारे तेनुं ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान थाय.’ जुओ बेयमां ‘स्वयमेव’ ने ‘स्वयंकृत’ आव्युं छे. पहेलां शंखना द्रष्टांतमां आव्युं के-शंख धोळामांथी स्वयमेव काळुं थयुं छे अने ते काळापणुं स्वयंकृत छे, निमित्तथी करायेलुं नथी. हवे आ सिद्धांतमां कहे छे के-ज्ञान स्वयमेव अज्ञान थयुं छे अने ज्ञाननुं अज्ञान स्वयंकृत छे, निमित्तथी-कर्मथी करायेलुं छे एम नथी. अहा! केटली चोख्खी वात छे! पण अज्ञानी तो हुं परनुं करी दउं एम माने छे. ए तो पेलुं आवे छे ने के-
‘हुं करुं हुं करुं ए ज अज्ञानता, शकटनो भार जेम श्वान ताणे.’ गाडानी नीचे कुतरुं चालतुं होय ने गाडानुं ठाठुं तेने अडे एटले ते एम माने के माराथी गाडुं चाले छे, गाडानो भार हुं उपाडुं छुं तेम अज्ञानी दुकानना थडे बेसीने माने के हुं आ बधुं ध्यान राखुं छुं, दुकान हुं चलावुं छुं. भाई! एम माननारा अज्ञानी पण कूतरा जेवा ज छे, कांई फरक नथी.
पण आ बधुं काम अमे करीए तो छीए? भाई! ए बधां जडनां काम कोण करे? शुं आत्मा करे? आत्मा तो जडने अडतोय नथी. भाई! ए बधां जडनां काम तो एना पोताना कारणे थाय छे; आत्मा ए करी शकतो ज नथी. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-‘ज्ञानने छोडीने स्वयमेव अज्ञानरूपे परिणमे...’ जुओ, पेलामां (गाथा १२१ थी १२प मां) पण ‘स्वयं’ आवे छे ने के-जो ‘स्वयं’ परिणमवानी शक्ति न होय तो पर वडे केम परिणमावी शकाय? अने जो ‘स्वयं’ परिणमवानी शक्ति छे तो परनी शी जरूर छे? अहा! आवुं तो स्पष्ट छे बापु! अहा! जगतमां अनंत द्रव्य भगवाने कह्यां छे ते अनंत कयारे मान्यां कहेवाय? के अनंत द्रव्य पैकी प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र परनी सहाय विना स्वयं परिणमे छे एम मानवामां आवे तो अनंत अनंतपणे रहे अने तो अनंत द्रव्य साचां मान्यां कहेवाय. अहाहा...! अनंतद्रव्यो प्रत्येक स्वयंकृत होय तो ज अनंत द्रव्यो भिन्नपणे रहे; जो परथी कांई थाय छे एम मानवामां आवे तो अनंत भिन्न भिन्न रहे नहि; बधां एक बीजामां भळी जाय अने तो अनंतपणुं खलास थई जाय.
भाई! आ तो पोतामां परनी पर्याय कांई करी शके नहि एम कहे छे. अहाहा...!
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बहु भारे वात भाई! के शंखनो काळापणारूपे थवानो काळ होय छे त्यारे ते पोते पोताथी ज काळो थाय छे, ते पर वडे काळो थाय छे एम नहि. तेम ज्ञानीने पण ज्यारे परमां एकपणारूप रस-रुचि थाय छे त्यारे ते काळे ते पोते पोताथी ज अज्ञानपणे परिणमे छे’ परने वा दर्शनमोहने कारणे अज्ञानपणे परिणमे छे एम नहि. अहा! गाथामां केटलो खुलासो छे! छे के नहि अंदर? भाई! आ तो जे अंदरमां छे एनुं स्पष्टीकरण थाय छे.
आ कांई कल्पनानी वात नथी. आ तो जे अंदर छे तेनुं स्पष्टीकरण थाय छे. छतां कोई कहे छे के तमे घरनुं कहो छो. कहो तो कहो भाई! तमे पण भगवान छो बापु! अहा! एक समयनी भूल छे, बाकी एक समयनी भूल टळी जाय एवा सामर्थ्यथी युक्त तमे पण भगवान छो. त्रिकाळी आनंदकंद ज्ञानानंद प्रभु आत्मा तो भगवान छे ने! भले अत्यारे तेने आ विरुद्ध बेसे पण पोतानी भूल टाळशे त्यारे एक समयमां टाळी देशे. अहा! भगवान जिनेश्वरदेवनो-वीतरागदेवनो मार्ग समजवो बहु कठण छे भाई! पुरुषार्थविशेषथी-स्वभावसन्मुख पुरुषार्थथी ज प्राप्त थाय एम छे. हवे आवो मार्ग, स्व-आश्रयनो मार्ग प्राप्त कर्या विना कोई व्रत पाळे ने तप करे तोपण ए बधां बाळव्रत ने बाळतप एटले के मूर्खाई भर्यां व्रत ने मूर्खाई भर्यां तप छे.
अहाहा...! कहे छे-ज्ञानी, ज्ञानने छोडीने स्वयमेव अज्ञानपणे परिणमे त्यारे तेनुं ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान थाय. ‘माटे ज्ञानीने जो (बंध) थाय तो पोताना ज अपराधना निमित्ते अर्थात् पोते ज अज्ञानपणे परिणमे त्यारे) बंध थाय छे.’
अहा! ‘पोताना ज अपराधना निमित्ते’ एटले शुं? एटले के ज्ञाननुं अज्ञान थाय छे ते पोताना अपराधथी थाय छे. शरीरनी क्रिया के भोगनी बाह्य क्रिया थई माटे अपराध थाय छे एम नथी. केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! के पोते ज अज्ञानपणे परिणमे त्यारे बंध थाय छे. परमां-विषयमां मीठाश आवे, रस आवे ए अज्ञान कृत पोतानी बुद्धि छे अने एनाथी बंध थाय छे पण परने कारणे बंध थाय छे एम नथी एम कहे छे.
ज्ञानी शुद्ध चैतन्यमय पोताना अबंध परिणामनो कर्ता छे, ते बंधभावनो- विकारनो कर्ता थतो नथी तेथी तेने बंध थतो नथी. परंतु जो ज्ञानी शुद्ध ज्ञानस्वभावने छोडीने अज्ञानपणे परिणमे छे तो बंध थाय छे. अहा! तेने जो परमां मीठाश आवी जाय, रस आवी जाय तो परमां एकपणुं पामता तेने स्वयं ज्ञाननुं अज्ञान थाय छे अने तेथी तेने बंध थाय छे, पण बहारना विषयो तेने बंध करे छे एम नथी.
अहा! भरत चक्रवर्तीने ९६ हजार स्त्रीओ हती अने तेनो भोग छ लाख पूर्व सुधीनो हतो. एक पूर्वमां ७० लाख प६ हजार करोड वर्ष थाय. आवा छ लाख
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पूर्व सुधी भरतने भोग रह्यो, पण तेमां तेने एकपणानी आसक्ति क्यां हती? न हती. तो कहे छे-ज्ञानीने एनुं बंधन नथी. परंतु ज्यारे जे अस्थिरतानो राग छे. तेनो विचार करीए तो ज्ञानीने किंचित् अल्प राग छे अने तेनुं अल्प बंधन पण छे पण तेनी अहीं (स्वभावनी द्रष्टिमां) गणतरी नथी. अहा! भरतने ते अल्प दोष हतो पण ज्यां अंदरमां ध्यानमां उतरी गया त्यां अंतःमुहूर्तमां केवळज्ञान लीधुं. अहा! छ लाख पूर्व पर्यंतना भोगनी आसक्तिना दोषने अंतर्मुहूर्तमां फडाक दईने टाळी दीधो. दोर हाथमां हतो ने! शुद्ध चैतन्यमूर्ति चिदानंद भगवान आत्मानो दोर हाथमां हतो तो जे अल्प दोष हतो तेने अंतर्मुहूर्तमां टाळी दईने केवळज्ञान लीधुं. आ तो ज्ञानीने दोष केटलो अल्प हतो (होय छे) ए कहेवुं छे. अहीं ते अल्पदोषने काढी नाख्यो छे, गौण कर्यो छे. अहीं तो अज्ञानीने ज बंध छे एम सिद्ध करवुं छे.
जुओ, श्रेणीक राजाए सातमी नरकनुं आयुष्य बांध्युं हतुं. परंतु अहा! ज्यां सम्यग्दर्शन पाम्या त्यां एकदम ३३ सागरोपमनी जे स्थिति हती ते ८४ हजार वर्षनी थई गई. अहीं तो आ कहेवुं छे के परने लईने बंध नथी पण परमां जे एकपणानी आसक्ति छे तेनुं बंधन छे. ज्ञानीने परमां आसक्ति नथी तेथी बंध नथी. तथा किंचित् बंध छे ते पण केवो ने केटलो? जुओने! अंतर्मुहूर्तमां ३३ सागरनी स्थिति हती ते ८४ हजार वर्षनी थई गई.
भाई! जेनी एक क्षण पण सही न जाय एवी पीडा ने एवुं वेदन पहेली नरके छे. ए वेदनामां ८४ हजार वर्ष सुधी श्रेणीक राजा रहेशे, पण तेओने आत्माना सुख आगळ तेनुं लक्ष नथी. भजनमां आवे छे ने के-
अहा! नरकना दुःख भोगवे छतां अंतरमां तो सुखनी गटागटी छे, सुखना घूंटडा पीवे छे.
पण त्यां (नरकमां) सुखना कयां संजोग छे? भाई! अंदरमां रागथी भिन्न पडीने आत्मानो जेणे अनुभव कर्यो छे तेने नरकमां पण आनंदनी गटागटी छे अने अहीं (मिथ्याद्रष्टि कोई) अबजोपति होय तोपण तेने दुःखनी गटागटी छे. अहा! नरकमां बळता मडदा जेवां शरीर होय छे अने जन्मे त्यारथी ज सोळ रोग होय छे तोपण अंदर सच्चिदानंदमय पोताना भगवाननुं भान थयुं छे ने! तेथी नरकमां पण ज्ञानीने सुख छे. अहा! भ्रमणा ने अनंतानुबंधी कषाय टळ्यां छे तेटलुं त्यां ज्ञानीने सुख छे, कारण के जीवने कषायनुं ज दुःख छे, संजोगनुं नहि. तेथी अनंतानुबंधी कषाय टळ्यो छे तेनुं त्यां सुख छे.
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‘जेम शंख के जे श्वेत छे ते परना भक्षणथी काळो थतो नथी परंतु ज्यारे पोते ज कालिमारूपे परिणमे त्यारे काळो थाय छे,...’
अहा! अहीं कोईनो रंग धोळो होय ने ते गमे ते काळुं खाय तो तेथी शुं तेनो धोळो रंग चाल्यो जाय छे? ना. अने कोई काळो माणस होय-शरीरनी चामडी काळी होय ते एकलुं माखण खाय तो तेथी शुं एनो काळो रंग उतरी जाय छे? ना. अरे भाई! पोते दिशा पलटीने दशा पलटे नहि त्यां बधां थोथां छे. परनी दिशामां जे दशा छे ए तो मिथ्यादशा छे, अने ते पोतानी करेली छे, कोई कर्मने लईने छे एम नथी.
अहा! जैनमां कर्मनुं लाकडुं घणुं छे. कर्मने लईने आम (बंधन) थाय एम अज्ञानी माने छे पण एम छे नहि. अरे भाई! दुःख पण तें तारा कारणे ऊभुं कर्युं छे. कषाय अने मिथ्यात्वनी एकताबुद्धि ए ज महा दुःख छे; दुःखनो मूळ स्रोत ज मिथ्यात्व ने कषाय छे. बाकी जेणे आनंदमूर्ति प्रभु आत्मानी द्रष्टि करी छे, दिशा फेरवीने अंतर दशा प्रगट करी छे ते, निर्धन हो के नरकमां हो, सुखी छे. सातमे नारके पण समकिती सुखी छे. जोके अहींथी जाय त्यारे मिथ्यात्व लईने जाय छे अने त्यांथी नीकळे त्यारे मिथ्यात्व लईने नीकळे छे, पण वच्चेना गाळामां सम्यक् अनुभव पामे छे तो ते सुखी छे.
अहीं कहे छे-श्वेत शंख परना भक्षणथी काळो थतो नथी, परंतु पोते काळापणे परिणमे छे त्यारे काळो थाय छे. जुओ, केटली स्वतंत्रता! हवे कहे छे-‘तेवी रीते ज्ञानी परना उपभोगथी अज्ञानी थतो नथी परंतु ज्यारे पोते ज अज्ञानरूपे परिणमे त्यारे अज्ञानी थाय छे अने त्यारे बंध करे छे.’ ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु जे कह्यो छे ते आ अपेक्षाए छे. बाकी भोगमां तो राग छे अने ए तो दुःख छे, पाप छे. पण त्यां द्रष्टिनी प्रधानतामां स्वभावनी मुख्यतानुं जोर देवा, ज्ञानीने, द्रष्टिमां भगवान आत्मा अंदर बिराजे छे तेने, बंध नथी एम कह्युं छे. आवी वात छे.
हवे आनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘ज्ञानिन्’ हे ज्ञानी! ‘जातु किञ्चित् कर्म कर्तुम् उचितम् न’ तारे कदी कांई पण कर्म करवुं योग्य नथी.
शुं कहे छे? के राग करवो ए तारे योग्य नथी. अहाहा...! परवस्तुमां मीठाश आववी ए तने होय नहि-एम कहे छे.
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तो व्यवहार करवो योग्य नथी एम ने? अरे भाई! खरेखर व्यवहारने ज्ञानी करे छे कयां? ज्ञानीने व्यवहारनुं कर्तृत्व छे ज नहि. व्यवहार तो एने होय छे. निश्चयरत्नत्रयनी साथे व्यवहाररत्नत्रय एने होय छे. पण जेटलो व्यवहार छे ए तो बंध छे, बंधनुं कारण छे, माटे ज्ञानीने व्यवहारनो रस नथी. अहा! जेने अतीन्द्रिय आनंदना रसनो स्वाद आव्यो तेने रागना रसमां केम रस आवे? न आवे. अहीं तो विशेषे भोगनी वात लेवी छे. तेथी कहे छे-हे ज्ञानी! तारे कदी कांई पण कर्म करवुं योग्य नथी अर्थात् परवस्तुमां मीठाश छे एवा भोगना भाव तने होय ते योग्य नथी. आम कहीने एने स्वच्छंदीपणुं छोडाव्युं छे. गमे तेवा भोग थाय तोय अमारे शुं? जो एम स्वच्छंदे परिणमे तो कहे छे-भाई! मरी जईश; ज्ञानीने तो परद्रव्यने भोगववामां रस होय नहि-एम कहेवुं छे.
अहाहा...! आत्मा शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. आवा आत्मानो जेने अनुभव थयो छे, अहाहा... देह, मन, वाणीथी भिन्न अने दया, दान, व्रत, भक्ति आदि जे पुण्यभाव एनाथी जुदो ने हिंसादि पापना भावथी जुदो भगवान आत्मा अंदर पोते छे एवो अंतरमां स्वरूपसन्मुखता वडे जेने अनुभव थयो छे ते ज्ञानी छे. आवा ज्ञानीने पूर्वकर्मना उदयथी सामग्री अनेक प्रकारे मळे तोय ते सामग्रीने हुं भोगवुं एम रुचि होती नथी. किंचित् अस्थिरतानो भाव होय ए जुदी वात छे, पण ज्ञानीने भोग भोगववामां रुचि होती नथी. अहाहा...! विषयसुखनी तेने भावना होती नथी.
‘हे ज्ञानी! तारे कदी कांई पण कर्म करवुं योग्य नथी.’ हवे आ तो शब्द थया. एनो अर्थ शुं? एम के राग करवा जेवो छे एवुं तारे होय नहि. विषय-भोग करवा जेवा छे, इन्द्रियना विषयोमां सुख छे एवी परमां सुखबुद्धि तने होय नहि. अहाहा...! जेने अंदरमां आखुं आनंदनुं निधान प्रभु आत्मा नजरे पडयो तेने इन्द्रियना विषयोमां सुख छे एम केम भासे? न ज भासे.
अतीन्द्रिय आनंदनी खाण-खजानो प्रभु आत्मा छे. आवा आत्माना आनंदनो जेने स्वाद आव्यो छे ते ज्ञानी छे. भारे व्याख्या भाई! तो कहे छे-हे ज्ञानी! जो तने आत्माना आनंदनो स्वाद छे तो...
प्रश्नः– आत्माना आनंदनो स्वाद ए वळी शुं? आ पांच-पचास करोड पैसा मळे वा रूपाळी स्त्रीनो देह होय तेना भोगनो स्वाद तो आवे छे, पण आ आत्मानो स्वाद केवो?
समाधानः– अरे भाई! आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे, ने पैसा पण जड, माटी-धूळ छे. शुं एनो स्वाद आत्माने आवे? जडनो स्वाद तो कदी आत्माने होय ज नहि; परंतु एमां ‘आ ठीक छे’ एवो जे अज्ञानीने रागनो रस उत्पन्न थाय
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छे ते रागरसनो स्वाद अज्ञानी ले छे. अहा! मूढ अज्ञानी जीव, विषय-वासनानो जे राग उत्पन्न थाय छे तेने भोगवे छे, पण शरीरनो के पैसानो भोगवटो त्रणकाळमां एने छे नहि. आ मैसूब, मावो ने माखणनो भोगवटो एने छे नहि, केमके ए तो बधा भिन्न जड पदार्थो छे. पण आ बधा ‘ठीक छे’ एवा रागने मूढ अज्ञानी भोगवे छे. मूढ अज्ञानी केम कह्यो? केमके ए भोगवे छे रागने अने माने छे के हुं जड विषयोने भोगवुं छुं. आवी वात छे.
अज्ञानीने अनादिथी रागनो-झेरनो स्वाद छे. एमां (रागमां) ते मूढ थईने अनंतकाळथी चार गतिमां रखडया करे छे. अहा! अनादिथी ते दुःखना-रखडवाना पंथे छे. पण ज्यारे तेने अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी खाण चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मानी द्रष्टि थाय छे त्यारे तेने निर्मळ अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. आ अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ते आत्माना आनंदनो स्वाद छे ने ते एकला अमृतनो स्वाद छे. आवो निराकुळ आनंदनो स्वाद जेने आव्यो ते धर्मात्मा छे अने तेने, अहीं कहे छे. विषयोमां सुखबुद्धि होय नहि; हुं विषयो भोगवुं एवो भोगववानो रस होय नहि-एम कहे छे.
कोईने वळी थाय के भगवानना मार्गमां तो छ कायना जीवोनी दया करवी, व्रत करवा, उपवासादि तप करवां इत्यादि तो होय छे पण आ ते केवो मारग?
भाई! तुं कहे छे ए तो बधां थोथां छे, केमके दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे शुभभाव छे तेनाथी पुण्य बंधाय छे, पण धर्म न थाय. धर्म तो एक वीतरागभाव छे.
अहाहा...! कहे छे-हे ज्ञानी! तारे कदी कोई कर्म करवुं योग्य नथी अर्थात् राग करवा लायक छे एम मानीने राग करवानो तने होय नहि.
हवे कहे छे-“तथापि’ तोपण ‘यदि उच्यते’ जो तुं एम कहे छे के ‘परं मे जातु न, भुंक्षे’ “परद्रव्य मारुं तो कदी नथी अने हुं तेने भोगवुं छुं”, ‘भोः दुभुक्तः एव असि’ तो तने कहेवामां आवे छे (अर्थात् अमे कहीए छीए) के हे भाई, तुं खोटी (-खराब) रीते ज भोगवनार छे;
अहाहा...! आ शरीर तो जड मांस-हाडकांनुं पोटलुं छे, अजीव छे; स्त्रीनुं शरीर पण जड माटी-धूळ छे तथा पैसा पण जड माटी-धूळ छे. तो, तुं एम कहे के ए परद्रव्य मारुं कदी नथी अने वळी तुं कहे छे के हुं परद्रव्यने भोगवुं छुं तो ए कय ांथी आव्युं भाई? आकरी वात बापा! वीतरागनो मारग बहु आकरो छे, लोकोए जैनधर्मने अन्यधर्म जेवो मानी लीधो छे. वीतराग परमेश्वरे कहेलो मार्ग जाणे लुप्त थई गयो छे.