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भगवाननी भक्ति-पूजा करवां इत्यादि राग तेने होय छे. ज्यां लगी पूरण वीतराग न थाय त्यां लगी रागभाव पण छे. स्वाश्रयथी वीतरागभाव छे तो परना आश्रये किंचित् रागभाव पण छे. एक ज्ञानधारा ने बीजी कर्मधारा -एम बन्ने साथे चाले छे. ए तो ‘यावत् पाकमुपैत्ति’... इत्यादि कळशमां आवे छे ने के-कर्मनी क्रिया पूर्णपणे अभावने प्राप्त न थाय त्यां सुधी कर्मनी क्रिया-रागादि पण ज्ञानीने होय छे. पण ते रागनो प्रेम ज्ञानीने नथी, ए तो रागने हेयबुद्धिए जाणे छे. माटे रागनी क्रिया तेने परिग्रहपणाने पामती नथी. शुं कह्युं? एम तो राग अभ्यंतर परिग्रह छे अने आ पैसा-धूळ आदि बाह्य परिग्रह छे. पण ‘आ रागादि मारा छे’-एम ज्ञानीने नथी तेथी ते रागादि क्रिया परिग्रहपणाने पामती नथी. अहो! दिगंबर संतो सिवाय तत्त्वनी स्थितिनी आवी वात बीजे कयांय छे नहि; संतोए वस्तुना स्वरूपने अत्यंत स्पष्ट कर्युं छे.
अहाहा...! कहे छे-‘ज्ञानी...’ ‘ज्ञानी’ शब्दे कोई एम मानी ले के जेने बहु जाणपणुं (क्षयोपशम) होय ते ज्ञानी तो एम नथी. तथा कोई एम कहे के अमे धर्मी छीए पण ज्ञानी नथी तो एम पण नथी. जे ज्ञानी छे ते धर्मी छे ने जे धर्मी छे ते ज्ञानी छे एम वात छे. सम्यग्द्रष्टिने भले अल्प क्षयोपशम होय पण ते ज्ञानी ज छे. स्वरूपना आश्रये आत्मज्ञान प्रगट थयुं छे तो ते ज्ञानी ज छे. भाई! थोडुं पण समकितीनुं ज्ञान विज्ञान छे, ने अज्ञानीनुं नव पूर्वनुं ज्ञान पण अज्ञान छे. सूक्ष्म वात छे भाई! जेने रागनी रुचि छे अने आत्मानी रुचि नथी एवा अज्ञानीने कदाचित् नव पूर्व सुधीनी लब्धि प्रगट थई जाय तोपण ते अज्ञान छे केमके ए बधुं परलक्षी ज्ञान छे; ज्यारे जेने द्रव्यस्वभावनो-विज्ञानघनस्वभावनो आश्रय थयो छे एवा समकितीने थोडुं ज्ञान होय तोपण ते विज्ञान छे केमके तेने स्वरूपलक्षी ज्ञान छे.
अहीं कहे छे-ज्ञानी रागरसथी रिक्त एटले खाली छे, माटे तेने कर्म एटले रागनी क्रिया परिग्रहपणाने पामती नथी. रागनी क्रिया तेने होय छे, पण ते परिग्रहभावने एटले के राग मारो छे एवा पकडरूप भावने धारती नथी केमके तेने रागमां रस नथी, रुचि नथी.
ज्ञानीने व्यवहार-राग होय छे तेथी कोई एम माने के व्यवहारथी निश्चय थाय छे तो तेम नथी. निश्चय (वीतराग परिणाम) थाय तेमां व्यवहार निमित्त छे, पण एनो अर्थ ज ए थयो के निमित्त जे व्यवहार छे ते निश्चयनो कर्ता नथी. जेम कुंभार, घडो थाय एमां निमित्त छे पण कुंभार घडानो कर्ता नथी तेम व्यवहार निमित्त हो, पण ते निश्चयनो कर्ता नथी. ३७२ मी गाथामां आचार्य अमृतचंद्र कहे छे-अमे तो घडो माटीथी उत्पन्न थयेलो जोईए छीए पण कुंभारथी उत्पन्न थयेलो
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देखता नथी केमके एक द्रव्य बीजा द्रव्यना गुणने (पर्यायने) उत्पन्न करे एवी तेमां अयोग्यता छे. अर्थात् एक द्रव्य बीजा द्रव्यना गुणने उत्पन्न करे ज नहि. माटे माटीना स्वभावे उपजेला घडाने ते काळे कुंभार निमित्त हो, पण कर्ता नथी. तेम ज्ञानीने व्यवहार हो, पण ते निश्चयना कर्ता नथी. आटलो बधो फेर मानवो जगतने कठण पडे छे. पण शुं थाय?
भाई! ज्ञानीने पोताना शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप प्रभु आत्मामां ममपणुं छे. जेम अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपमां ममपणुं छे तेम तेने रागमां ममपणुं नथी. जुओ, आ चोकलेट वगेरे देखाडीने नथी कहेता बाळकने के-‘ले, मम ले मम;’ तेम ज्ञानीनुं ‘मम’ आनंदघन प्रभु आत्मा छे. अहाहा...! तेने अतीन्द्रिय आनंदनो जे भोग छे ते तेनुं ‘मम’ छे; अने तेथी रागनुं तेने ‘मम’ (भोजन, भोग) होतुं नथी. शुं राग तेने भावे छे? नथी भावतो. जेम लाडु खातां कांकरी आवे तो फट तेने काढी नाखे तेम निराकुल आनंदनुं भोजन करतां वच्चे राग आवे तेने फट काढी नाखे छे, जुदो करी नाखे छे. जेने आत्मानो आनंद भावे छे तेने राग केम भावे? न भावे. ते कारणे राग तेने आवे छे ते परिग्रहपणाने पामतो नथी, आवी वात छे.
‘जेम लोधर, फटकडी वगेरे लगाडया विना वस्त्र पर रंग चढतो नथी तेम रागभाव विना ज्ञानीने कर्मना उदयनो भोग परिग्रहपणाने पामतो नथी.’
‘रागभाव विना’ एम कह्युं एनो अर्थ शुं? राग तो छे ज्ञानीने, पण रागनी रुचि नथी. तो रागनी रुचि विना ज्ञानीने कर्मना उदयनो भोग परिग्रहपणाने पामतो नथी एम अर्थ छे. अहा! भोगनी पर्याय उत्पन्न थाय पण ज्ञानीने ते झेर समान भासे छे. ज्ञानीने जे स्त्रीना विषयमां राग आवे छे ते झेर जेवो तेने लागे छे. अहा! अमृतना सागर भगवान आत्माना निराकुळ आनंदरूप अमृतनो जेणे स्वाद चाख्यो तेने राग भावतो नथी. ल्यो, जेने आत्मा भावे छे तेने राग भावतो नथी. जुओ, ज्ञानीने कर्मोदयनो भोग परिग्रहपणाने पामतो नथी’ -एम कह्युं तेथी करीने भोग करवा ने भोग ठीक छे-एम अहीं कहेवुं नथी.
कोई वळी कहे छे-ज्ञानी कुशील सेवे तोय पाप नथी. अररर! प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? प्रभु! अहीं तो व्यवहाररत्नत्रयनो भाव पण पाप छे एम कहे छे. (तो पछी कुशीलनी तो शुं वात?).
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आचार्य योगीन्द्रदेव आ कहे छे के-अनुभवी बुध पुरुष तो पुण्यने पण पाप जाणे छे. समयसारनो पुण्य-पाप अधिकार समाप्त करतां टीकामां आ कहे छे के-पुण्य- पापरूपे बे पात्ररूप थयेलुं कर्म एक पात्ररूप थईने बहार नीकळी गयुं. वळी त्यां कह्युं छे के-स्वरूपथी पतित थाय छे तो व्यवहाररत्नत्रय-राग उत्पन्न थाय छे माटे ते पाप छे. पहेलां तेने पुण्य कह्युं ने पछी तेने पापमां नाखी दीधुं. आम छे तो पछी ज्ञानीने पापनो प्रेम केम होय? अहा! ज्यां स्व-स्त्री संबंधी भोगना परिणाम पण पाप छे तो पछी परस्त्रीना भोगनुं तो कहेवुं शुं? ए तो महापाप छे, बापु!
अहीं तो ज्ञानीने रागमां रस नथी एम बताववुं छे; ज्ञानीने भोगना परिणाममां रस नथी तेथी ते परिग्रहपणाने पामता नथी एम वात छे. पहेलां कळश १३पमां आव्युं हतुं ने के-ज्ञानी सेवक छतां असेवक छे; बस आ वात अहीं छे. रागना ने भोगना परिणाममां प्रेम नथी तेथी तेने कर्मोदयनो भोग परिग्रहपणाने पामतो नथी.
फरी कहे छे केः-
आ निर्जरा अधिकार छे. तो निर्जरा कोने होय छे, धर्म कोने होय छे-एनी अहीं वात करे छे. कहे छे-‘यतः’ कारण के ‘ज्ञानवान्’ ज्ञानी ‘स्वरसतः अपि’ निजरसथी ज ‘सर्वरागरसवर्जनशीलः’ सर्व रागरसना त्यागरूप स्वभाववाळो ‘स्यात्’ छे.
जोयुं? अतीन्द्रिय आनंदरसना चैतन्यरसना निजरसथी ज ज्ञानी सर्व रागरसना त्यागरूप स्वभाववाळो छे. अहाहा...! जेने चैतन्यरस निजरस छे तेने रागनो रस निजरस नथी. ज्ञानीने निजरस जे चैतन्यरस-चिदानंदरस ते रागरसना त्यागरूप स्वभाववाळो छे. आ अस्ति-नास्ति कर्युं के ज्ञानीने निजरस चैतन्यरसपणे छे ने रागरसपणे नथी. रागरसनी निजरसमां-चैतन्यरसमां नास्ति छे. अहाहा...! जेने निजरस नाम वीतरागरसरूप चिदानंदरसनो स्वाद आव्यो छे तेने रागमां रस छे नहि. हवे आवी वातो लोकोने आकरी लागे छे! पण बापु! आ शास्त्र ज आम पोकार करे छे.
अहाहा...! जेने आत्मरस-अतीन्द्रिय आनंदनो रस अनुभवमां आव्यो छे ते ज्ञानी छे अने ते निजरसथी ज ‘स्वरसतः अपि’–सर्व रागना रसना त्यागरूप स्वभाववाळो छे. गजब वात छे भाई!
प्रश्नः– पण ए (आनंदरसनो अनुभव) तो क्रमबद्धमां आववावाळो हशे तो आवशे?
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समाधानः– अरे भाई! ए क्रमबद्धमां आववावाळो होय तो आवे एनो निश्चय कोने होय? के जेने चिदानंदघन प्रभु आत्मा छे तेमां झुकाव द्वारा निजरसनी- आनंदरसनी प्राप्ति थई होय. अने ते (आनंदरसनी प्राप्ति) स्वभाव प्रत्येना पुरुषार्थथी थाय छे. समजाणुं कांई? (बाकी तो खाली क्रमबद्ध कहे तेने तो संसारनुं ज क्रमबद्ध होय छे). आवो मारग! लोकोने लागे छे के आ नवो (सोनगढवाळानो) छे पण भाई! आ तो अनादिनो मारग छे; तें कदी सांभळ्यो नथी एटले नवो लागे छे.
अरे भाई! अनादि काळथी एने निजरस-चैतन्यरसना भान विना एकांत रागनो ज स्वाद आव्यो छे. अहा! द्रव्यलिंगी दिगंबर साधु थईने ते अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो तोपण त्यां एने एकांते रागनो ज रस हतो, निजरस न हतो. एणे पंचमहाव्रतादिनी शुभरागनी जे क्रियाओ करी ते सर्व रागरसने ज आधीन हती, अने ते रागरसनी रुचिमां पोताना निजरसने भूली ज गयो हतो. अहाहा...! ज्ञानी निजरसना स्वाद आगळ रागनो रस भूली जाय छे, त्यारे अज्ञानी रागरसनी रुचिना कारणे दया, दान, व्रत आदि रागमां एवो तल्लीन थई जाय छे के ते चैतन्यरसने भूली जाय छे. अरे भाई! अनंतकाळथी तुं चैतन्यरसथी विरक्त थईने रागरसमां रक्त रह्यो छे पण ते अज्ञान छे अने तेनुं फळ चारगतिरूप संसार छे. आवी वात छे.
अहा! जेने शुभभावमां रस छे ते अज्ञानी छे. रसनी व्याख्या तो आगळ आवी गई के-एकमां एकाग्र थईने बीजानी चिंता छोडी देवी तेनुं नाम रस छे. अहा! जेने दया, दान, व्रतादिना रागमां रस छे तेने तेमां एक ज (राग ज) चीज छे, पण बीजी चीज छे नहि. रागना रसमां आत्मा छे नहि.
त्यारे कोई कहे छे-आवो मोंघो धर्म! अरे भाई! धर्म तो जे छे ते छे. तें कदी सांभळ्यो नथी तेथी कठण लागे छे. अही कहे छे-भगवान! तुं आनंदरसथी-चैतन्यरसथी भरेलो छो ने नाथ! तुं रागरसमां लीन थईने निज आनंदरसने भूली गयो. प्रभु! जुओ, स्त्रीना देहनो, लक्ष्मीनो, मकाननो के आबरुनो रस तो कोईने छे नहि, केमके ए तो पर जड छे. परंतु ते तरफनुं लक्ष करतां जे राग थाय छे ते रागना रसमां अनादिथी अज्ञानी पडयो छे. वळी अनादिथी अज्ञानी व्रत पाळे, तप करे, भक्ति-पूजा करे तोपण ते रागना रसमां ज पडेलो छे. तेने कहे-भाई! धर्मी जीव तो निजरसथी ज सर्व रागरसथी विरक्त छे. तेने निजरसनो-चैतन्यरसनो-आनंदरसनो जे स्वाद छे ते धर्म छे. अहा! धर्म आवो सूक्ष्म छे. तें बहारमां धर्म मानी लीधो छे एटले तने कठण-मोंघो लागे छे.
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प्रश्नः– तो शुं आ उपवास करीए ते तप ने ते वडे निर्जरा-एम बराबर नथी? उत्तरः– धूळेय बराबर नथी सांभळने. भोजन न लेवुं तेने तुं उपवास कहे छे पण ए तो जडनी क्रिया छे, अने एनो जे शुभ विकल्प छे ते राग छे. एमां आत्मा कयां छे के एने तप कहीए? ते तप छे नहि अने एनाथी निर्जराय छे नहि. अहीं तो अतीन्द्रिय आनंदना नाथ प्रभु आत्माना समीप जतां जे आनंदना रसनो स्वाद आवे छे ते उपवास छे. ‘उपवसति इति उपवासः’ आत्मानी समीप नाम सन्निकट रहेवुं एनुं नाम उपवास छे. आनुं नाम धर्म छे, निर्जरा छे. अहीं कहे छे-ज्ञानीने निजरसथी ज सर्व रागरसनो त्याग छे. ‘सर्व रागरस’ एम शब्द छे ने? मतलब के गमे तेवो शुभराग हो, ज्ञानीने तेना रसथी विरक्ति छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यरसमां अनुरक्त एवा ज्ञानीने सर्व रागरसथी विरक्ति छे; ज्ञानी रागमां रक्त छे ज नहि. आवो मारग छे भाई!
प्रश्नः– सम्मेदशिखरनी जात्रा करी लईए तो? तो तो धर्म खरो ने? कह्युं छे ने के-‘एकवार वंदे जो कोई ताको नरक-पशु गति नहि होई’.
समाधानः– भाई! सम्मेदशिखरनी जात्राथी शुं वळे? ए तो शुभभाव-पुण्यभाव छे, एनाथी पुण्य बंधाशे, धर्म नहि थाय. आ भव पछी कदाचित् सीधी नरक-पशु गति न मळे तो पछी मळे, केमके ज्यां सम्यग्दर्शन नथी त्यां जन्म-मरणनो अंत नथी. मिथ्यादर्शननुं फळ तो परंपरा निगोद ज छे भाई! माटे सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ए अपूर्व छे अने ए प्रथम धर्म छे. वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग कोई अलौकिक छे भाई! तेनो लौकिक साथे कोई मेळ थाय एम नथी.
अहा! जेने रागनो रस छे, ते पछी चाहे भगवाननी भक्तिनो हो के जात्रानो हो, ते भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदरसथी विरक्त छे, रहित छे अने ते मिथ्याद्रष्टि छे. ज्यारे चोथे गुणस्थाने समकिती के जेणे निजरस-आत्माना आनंदनो रस-चाख्यो छे ते निजरसथी ज रागथी विरक्त छे. असंख्य प्रकारे शुभराग हो, पण धर्मीने रागनो रस होतो नथी. शुद्ध चैतन्यना अमृतमय स्वाद आगळ धर्मीने रागनो रस झेर जेवो भासे छे
अहा! ज्ञानी निजरसथी ज रागरसना त्यागरूप स्वभाववाळो छे. हवे कहे छे- ‘ततः’ तेथी ‘एषः’ ते ‘कर्ममध्यपतितः अपि’ कर्ममध्ये पडयो होवा छतां पण ‘सकलकर्मभिः’ सर्व कर्मोथी ‘न लिप्यते’ लेपातो नथी, तेथी एटले ज्ञानी रागरसना त्यागरूप स्वभाववाळो होवाथी ते कर्म एटले कर्मजनित सामग्री-स्त्री, कुटुंब, लक्ष्मीधूळ, आबरू तथा अंदरमां जे रागादि-पुण्यपाप थाय ते क्रिया इत्यादिमां पडयो होवा छतां ते कर्मथी लेपातो नथी.
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अहाहा...! आखुं पडखुं बदलाई गयुं. अज्ञानदशामां रागरसमां-रागना पडखे हतो, ते हवे ज्ञान थतां, शुद्ध चैतन्यरसनो स्वाद आवतां चैतन्यना पडखे आव्यो. हवे रागनो रस रह्यो नहि, तो भलेने ९६ हजार स्त्रीओना वृंदमां हो तोपण ते लेपातो नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु! जेने अंतरमां चैतन्यनी प्रभुतानो रस आव्यो तेने पामर राग-रस छूटी जाय छे अने तेथी समकिती कर्मनी सामग्रीना मध्यमां पडयो हो के रागादिनी क्रियाना मध्यमां पडयो हो तोपण ते सर्व कर्मोथी लेपातो नथी; अर्थात् तेने ते बाह्य सामग्रीथी के अंदरना क्रियाकांडथी बंध थतो नथी. तेमां रस नथी ने? तेथी ते लेपातो नथी. आवी वात छे.
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णो लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं।। २१८।।
लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं।। २१९।।
नो लिप्यते रजसा तु कर्दममध्ये यथा कनकम्।। २१८।।
लिप्यते कर्मरजसा तु कर्दममध्ये यथा लोहम्।। २१९।।
हवे आ ज अर्थनुं व्याख्यान गाथामां करे छेः-
पण रज थकी लेपाय नहि, ज्यम कनक कर्दममध्यमां. २१८.
ते कर्मरज लेपाय छे, ज्यम लोह कर्दममध्यमां. २१९.
गाथार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी [सर्वद्रव्येषु] के जे सर्व द्रव्यो प्रत्ये [रागप्रहायकः] राग छोडनारो छे ते [कर्ममध्यगतः] कर्म मध्ये रहेलो होय [तु] तोपण [रजसा] कर्मरूपी रजथी [नो लिप्यते] लेपातो नथी- [यथा] जेम [कनकम्] सोनुं [कर्दममध्ये] काद्रव मध्ये रहेलुं होय तोपण लेपातुं नथी तेम. [पुनः] अने [अज्ञानी] अज्ञानी [सर्वद्रव्येषु] के जे सर्व द्रव्यो प्रत्ये [रक्तः] रागी छे ते [कर्ममध्यगतः] कर्म मध्ये रह्यो थको [कर्मरजसा] कर्मरजथी [लिप्यते तु] लेपाय छे- [यथा] जेम [लोहम्] लोखंड [कर्दममध्ये] काद्रव मध्ये रह्युं थकुं लेपाय छे (अर्थात् तेने काट लागे छे) तेम.
टीकाः– जेम खरेखर सुवर्ण कादव मध्ये पडयुं होय तोपण कादवथी लेपातुं नथी (अर्थात् तेने काट लागतो नथी) कारण के ते कादवथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळुं छे, तेवी रीते खरेखर ज्ञानी कर्म मध्ये रह्यो होय तोपण कर्मथी लेपातो नथी कारण के सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना त्यागरूप स्वभावपणुं होवाथी ज्ञानी
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कर्तु नैष कथञ्चनापि हि परैरन्याद्रशः शक्यते।
अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्सन्ततं
ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव।। १५०।।
कर्मथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळो छे. जेम लोखंड कादव मध्ये पडयुं थकुं कादवथी लेपाय छे (अर्थात् तेने काट लागे छे) कारण के ते कादवथी लेपावाना स्वभाववाळुं छे, तेवी रीते खरेखर अज्ञानी कर्म मध्ये रह्यो थको कर्मथी लेपाय छे कारण के सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना ग्रहणरूप स्वभावपणुं होवाथी अज्ञानी कर्मथी लेपावाना स्वभाववाळो छे.
भावार्थः– जेम कादवमां पडेला सुवर्णने काट लागतो नथी अने लोखंडने काट लागे छे, तेम कर्म मध्ये रहेलो ज्ञानी कर्मथी बंधातो नथी अने अज्ञानी कर्मथी बंधाय छे. आ ज्ञान-अज्ञाननो महिमा छे.
हवे आ अर्थनुं अने आगळना कथननी सूचनानुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [इह] आ लोकमां [यस्य याद्रक् यः हि स्वभावः ताद्रक् तस्य वशतः अस्ति] जे वस्तुनो जेवो स्वभाव होय छे तेनो तेवो स्वभाव ते वस्तुना पोताना वशथी ज (अर्थात् पोताने आधीन ज) होय छे. [एषः] एवो वस्तुनो जे स्वभाव ते, [परैः] परवस्तुओ वडे [कथञ्चन अपि हि] कोई पण रीते [अन्याद्रशः] बीजा जेवो [कर्तु न शक्यते] करी शकातो नथी. [हि] माटे [सन्ततं ज्ञानं भवत्] जे निरंतर ज्ञानपणे परिणमे छे ते [कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत्] कदी पण अज्ञान थतुं नथी; [ज्ञानिन्] तेथी हे ज्ञानी! [भुंक्ष्व] तुं (कर्मोद्रयजनित) उपभोगने भोगव, [इह] आ जगतमां [पर–अपराध–जनितः बन्धः तव नास्ति] परना अपराधथी ऊपजतो बंध तने नथी (अर्थात् परना अपराधथी तने बंध थतो नथी.)
भावार्थः– वस्तुनो स्वभाव वस्तुने पोताने आधीन ज छे. माटे जे आत्मा पोते ज्ञानरूपे परिणमे छे तेने परद्रव्य अज्ञानरूपे कदी परिणमावी शके नहि. आम होवाथी अहीं ज्ञानीने कह्युं छे के-तने परना अपराधथी बंध थतो नथी तेथी तुं उपभोगने भोगव. उपभोग भोगववाथी मने बंध थशे एवी शंका न कर. जो एवी शंका करीश तो ‘परद्रव्य वडे आत्मानुं बूरुं थाय छे’ एवुं मानवानो प्रसंग आवे छे. आ रीते अहीं जीवने परद्रव्यथी पोतानुं बूरुं थतुं मानवानी शंका मटाडी छे; भोग भोगववानी प्रेरणा करी स्वच्छंदी कर्यो छे एम न समजवुं. स्वेच्छाचारी थवुं ते तो अज्ञानभाव छे एम आगळ कहेशे. १प०.
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हवे आ ज अर्थनुं व्याख्यान गाथामां करे छेः-
‘जेम खरेखर सुवर्ण कादव मध्ये पडयुं होय तोपण कादवथी लेपातुं नथी कारण के कादवथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळुं छे,.......’
जुओ, शुं कह्युं? के-‘जेम खरेखर..... ‘यथा खलु’ एम पाठ छे ने? खलु एटले खरेखर, वास्तवमां, निश्चयथी सुवर्ण हजारो मण कीचडनी वच्चे पडयुं होय तो पण ते कादवथी लेपातुं नथी अर्थात् तेने काट लागतो नथी. शुं सोनाने काट लागे? न लागे. केम न लागे? कारण के तेनो स्वभाव ज अलिप्त रहेवानो छे. आ निर्जरानी वात द्रष्टांतथी कहे छे.
प्रश्नः– शास्त्रमां-तत्त्वार्थसूत्रमां तो तपथी निर्जरा कही छे. ‘तपसा निर्जरा च’ अने उपवासादि करवा ते तप छे. तो ए तपथी निर्जरा छे के नहि?
समाधानः– भाई! ए तो बाह्य निमित्तथी कथन छे, बाकी निर्जरा तो पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां लीन थतां-स्थित थतां थाय छे. आत्माना आनंदरसमां लीन रहेवुं ते तप छे अने ते वडे निर्जरा छे. जेम सुवर्णने काट लागतो नथी तेम भगवान आत्माने, तेना अनुभवनी द्रष्टिमां रहेतां रागनो काट लागतो नथी अने तेथी तेने निर्जरा थाय छे.
आवी व्याख्या भारे आकरी! बापु! आ समज्या विना संसारमां रखडतां रखडतां अनंतकाळ गयो. एक- एक योनिमां एकेन्द्रियादिमां अनंत अनंत अवतार कर्या. ए जन्मथी मरण पर्यंतना दुःखनी कथा शुं कहीए? बापु! तुं भूली गयो छे. आ सक्करकंद, लसण, डुंगळी नथी आवतां? तेनी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य औदारिक देह छे; अने एक एक देहमां अनंत-निगोदना जीव छे. हवे आवा (निगोदना) पण अनंत भव कर्या छे के ज्यां मन नहि, वाणी नहि, मात्र देहनो संयोग हतो. आ पैसा ने मकान ने कुटुंब ने आबरू तो बधां कयांय रही गयां. भगवान एकवार सांभळ तो खरो! त्यां एक श्वासमां अढार भव एवा अनंता श्वासमां अनंत भव भगवान! एणे अनंतवार कर्या छे. एना दुःखने शुं कहीए?
हवे त्यांथी नीकळीने कोई मनुष्य थयो; अने भगवाननी वाणीनुं कारण पामीने स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ जाग्रत करीने अंतरमां आनंदना रसमां गयो तो परथी एनुं लक्ष छूटी गयुं. अहाहा...! परम अद्भुत रस एवा चैतन्यरसनो-आनंदरसनो
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अनुभव थतां तेने बहारना राग ने रागना फळरूप संयोग तरफनुं लक्ष छूटी गयुं. हवे ते ज्ञानी थयो थको, जेम कीचडमां पडयुं होवा छतां कंचन कादवथी लिप्त थतुं नथी तेम, ते कर्म मध्ये होवा छतां कर्मथी लेपातो नथी. गजब वात छे भाई! ए ज कहे छे के-
‘तेवी रीते खरेखर ज्ञानी कर्म मध्ये रह्यो होय तोपण कर्मथी लेपातो नथी कारण के सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना त्यागरूप स्वभावपणुं होवाथी ज्ञानी कर्मथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळो छे.’
अहाहा...! शुं कह्युं? के ‘ज्ञानी कर्म मध्ये रह्यो होय तोपण...’ एटले शुं? के धर्मी इन्द्रना सुखना भोगमां हो के चक्रवर्तीना अपार वैभवमां हो के पछी असंख्य प्रकारनी शुभरागनी क्रियानी मध्यमां हो तोपण ते कर्मथी लेपातो नथी, कारण के ते कर्मथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळो छे.
भगवान आत्मा चिदानंदघन प्रभु सदा निर्लेपस्वभावी छे. धर्मीने पोतानी द्रष्टि निरंतर सदा निर्लेपस्वभावी आत्मा पर छे, तेनी द्रष्टि राग पर नथी. तेथी ते अनेक रागनी क्रियाओ मध्ये होवा छतां कर्मथी लेपातो नथी. आवी वात सांभळवा मळवीय मुश्केल छे. लोको तो बहारनी हो-हा ने हरीफाई करवामां-गजरथ काढवामां ने पांच- पचीस लाख दानमां वापरवामां-इत्यादिमां धर्म थवानुं माने छे पण भाई! एमां तो धूळेय धर्म नथी. तने धर्मनी खबर ज नथी. वीतराग परमेश्वरे कहेलो धर्म तो निजानंदरसमां लीन थतां थाय छे अने धर्मीने पोतानी द्रष्टि सदा शुद्ध ज्ञायकस्वभाव पर रहेली होय छे.
अहाहा...! कहे छे-‘ज्ञानी’ ‘ज्ञानी’ एटले? कोई एम माने के बहु ज्ञान (क्षयोपशम) होय ते ज्ञानी तो एम वात नथी. अहीं तो ज्ञानी एटले शुद्ध चैतन्यरसमां-ज्ञानानंदरसमां लीन थई जे प्रवर्ते छे ते ज्ञानी छे. तेने ज्ञानी कहो के धर्मी कहो-एक ज छे. अहाहा...! जेने अंतरमां स्वानुभवरस प्रगट थयो छे ते चोथे गुणस्थानके वर्ततो जीव ज्ञानी छे, धर्मी छे. अने ते सर्व कर्म मध्ये-कर्म नाम शुभ क्रियाकांड अने कर्मनी सामग्री मध्ये-रह्यो होय तोपण ते कर्मथी लेपातो नथी. अहाहा...! जेने अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनो रस प्रगट थयो छे ने सर्व रागनो रस ऊडी गयो छे ते कर्मथी लेपातो नथी एम कहे छे. हवे आवी व्याख्यामां पोतानी मान्यता (दुरभिनिवेश) अनुसार कांई मळे नहि एटले कहे के नवुं काढयुं छे, पण बापु! आ कांई नवुं नथी, आ तो अनादिनो मारग ज आ छे. समजाणुं कांई...? एक तो संसारनां काममांथी नवरो थाय नहि अने कदाचित् नवरो पडे तो आवुं
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सांभळी आवे के-आ करो ने ते करो एटले धर्म थई जशे, पण बापु! एम ने एम जिंदगी एळे जशे. अहीं तो कहे छे-स्वरूपलीनता करवा सिवाय बीजो कोई मार्ग ज नथी.
जेम जेने दूधपाकनो स्वाद आव्यो तेने जुवारना रोटलानो स्वाद ऊडी जाय छे. तेम धर्मीने के जेने अनाकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो तेने आकुळतारूप रागनो रस ऊडी जाय छे. तेथी ते लिप्त थतो नथी.
केम लिप्त थतो नथी? कारण के सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना त्यागरूप स्वभावपणुं ज्ञानीने छे. अहाहा...! ज्ञानीने रागना अभावस्वभावपणुं छे. वस्तु आत्मा रागना अभावस्वभावपणे छे अने ज्ञानीने पण रागना अभावस्वभावपणुं छे. ओहो...! ! आ तो गजब टीका छे! संतो जगतने करुणा करीने मार्ग बतावे छे. प्रभु! एक वार सांभळ तो खरो! आ मनुष्यपणुं तो जोत जोतामां चाल्युं जशे; पछी कयां मुकाम करीश भाई! बहारमां तने कोई शरण नथी हों; अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ भगवान आत्मा ज एक शरण छे.
आ बधा शेठियाओ, राजाओ ने देवो-बधा दुःखी छे. केम? केमके तेओ बहारनी चमकमां-वैभवनी चमकमां गुंचाई गया छे, रोकाई गया छे. तथा कोई अज्ञानी व्रतादि पाळे तोपण ते दुःखी छे केमके ते शुभरागना पाशमां-प्रेममां गुंचाई गयो छे. कर्मजनित सामग्रीने अने शुभरागने तेओ पोताना माने छे ने? तेथी रागनी मध्यमां ने सामग्रीनी मध्यमां पडेला तेओ बंधाय छे; ज्यारे धर्मी बंधातो नथी? केमके धर्मीने तो रागना अभावस्वभावरूप स्वभावपणुं छे. अहाहा...! निजानंदरसना स्वभाववाळो धर्मी रागना त्यागस्वभावरूप स्वभाववाळो छे एम कहीने अहीं अस्तिनास्ति कर्युं छे. अहो! शुं अद्भुत चमत्कारिक शैली छे! आवी वात बीजे कयांय छे नहि.
अहीं शुं कहेवुं छे? के भगवान आत्मा रागना त्यागस्वभावरूप प्रभु ज्ञानानंदस्वभाव छे. एटले के व्यवहाररत्नत्रयना रागना पण अभावस्वभावरूप आत्मा छे. एम छे के नहि? तो प्रभु! जेनो स्वभाव रागना अभावस्वभावरूप छे तेने व्यवहाररत्नत्रयथी केम लाभ थाय? न थाय. एम छे छतां भगवान! आ तुं शुं करे छे? व्यवहारथी-रागथी लाभ थाय एवी ऊंधी मान्यताथी तने नुकशान छे हों. तारा हितनी वात तो अहीं आ संतो कहे छे ते छे.
अहा! देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, पंच महाव्रतनो राग के शास्त्र भणवानो राग-इत्यादि सर्व रागना अभावस्वभावरूप आत्मा छे. अने आनंदरसना रसिया ज्ञानीने
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सर्व रागना अभावस्वभावपणुं छे, अलिप्तस्वभावपणुं छे. जुओने! शुं कहे छे? के सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना त्यागरूप स्वभाववाळो होवाथी ज्ञानी कर्मथी लेपातो नथी, बंधातो नथी. अस्थिरतानो थोडो राग जोके ज्ञानीने छे अने तेटलो तेने थोडो बंध पण छे, पण तेने अहीं गणतरीमां लीधो नथी. अहीं तो ज्ञानीनी द्रष्टि राग पर नथी, द्रष्टि शुद्ध एक ज्ञायकभाव पर छे तो कह्युं के कर्ममध्ये होवा छतां पण ज्ञानी कर्मथी लेपातो नथी. आवी वात!
सोनानुं द्रष्टांत आप्युं ने? के लाख मण चीकणा कादवनी मध्यमां सोनुं रह्युं होय-पडयुं-होय-तोपण लिप्त थतुं नथी, तेने काट लागतो नथी. केम? केमके कादवना त्यागस्वभावरूप सोनुं छे, अर्थात् कादवथी अलिप्त रहेवानो सोनानो स्वभाव छे. तेम ज्ञानी क्रियारूप रागनी मध्यमां अने कर्मना उदयनी सामग्रीना मध्यमां पडयो होय तोपण लिप्त थतो नथी केमके तेनाथी अलिप्त रहेवानो रागना त्यागरूप तेनो स्वभाव छे. अहाहा...! क्रियानो राग ने कर्मना उदयनी सामग्री-ए बधुं कादव छे; आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण कादव (-मलिन) छे भाई! लोकोने आकरुं लागे पण आ सत्य छे. आवे छे ने के-
धर्मी-सम्यग्द्रष्टि पुरुषो चक्रवर्तीनी संपदा ने इन्द्रना भोगोने अर्थात् पुण्य ने पुण्यना फळने कागडानी विष्टा समान गणे छे. आ माणसनी विष्ट तो खातरमांय काम आवे पण आ तो खातरमांथी जाय. मतलब के धर्मात्माने राग अने रागना फळमां किंचित् पण रस नथी, रुचि नथी. समजाणुं कांई...?
आ बधा पैसावाळा ने आबरूवाळा धूळना पति पुण्यरूपी झेरनां फळ भोगववामां पडेला छे. पांच-पचास करोड पैसा थाय एटले ओहोहो... जाणे अमे शुंय थई गया एम माने पण भाई! एमां धूळेय नथी सांभळने. ए तो बधां पुण्यनां- झेरनां फळ छे बापा! एमां कयां भगवान आत्मा छे?
हा, ज्ञानी तो एम ज कहे ने? अरे भाई! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे अने जेवुं छे तेवुं ज्ञानी कहे छे. बहारनी चीज-पैसा आदि-तो जडनी छे अने अंदरमां (भोगववानो) राग आवे छे ते विकार छे; ते कांई आत्मानो स्वभाव नथी. भगवान आत्मानो तो रागना त्यागरूप ज्ञानानंद स्वभाव छे अने स्वभाव पर जेनी द्रष्टि छे तेवो ज्ञानी पण रागना अभाव-स्वभावे परिणमे छे, ते रागना रसथी रहितपणे परिणमे छे. आनुं नाम धर्म छे. पण आ शेठियाओने पैसा कमावा आडे आ समजवानी नवराश कयां छे?
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पण पैसा होय तो निवृत्ति लई शकाय ने? निवृत्ति? पैसा होय तो निवृत्ति थाय एम नहि, पण पैसा मारी चीज नथी एम पैसा प्रत्येना रागथी निवृत्ति थतां निवृत्ति थाय छे. समजाणुं कांई...?
अहीं तो आ सिद्धांत छे के-परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना त्यागरूप स्वभावपणुं होवाथी ज्ञानी रागने ग्रहण करतो नथी, पण रागने पोताना ज्ञानमां रहीने परज्ञेय तरीके जाणे छे. ज्ञानी, जे राग आवे छे ते रागमां जईने (पेसीने) रागनुं ज्ञान करतो नथी पण पोतामां रहीने रागने अडया विना एनुं ज्ञान करे छे. आवी वात बीजे कयां छे? एटले तो बिचारा लोको कहे छे के आ नवी वात छे; एम के आवो जैनधर्म! जैनधर्म तो दया पाळवी, उपवास करवो, चोविहार पाळवा, कंदमूळ न खावुं, ब्रह्मचर्य पाळवुं-इत्यादि छे. अरे भाई! ए तो बधी रागनी क्रिया छे, ए कांई वीतरागनो धर्म नथी; वीतरागनो धर्म तो रागथी तद्न जुदो छे, बापा!
जुओने! कहे छे-‘सर्व परद्रव्यो प्रत्ये करवामां आवतो जे राग...’ आमां ‘सर्व परद्रव्य’ शब्दो पर वजन छे. एमां अरहंत, सिद्ध आदि परद्रव्य पण आवी गया. भाई! ज्ञानीने अरहंतादि प्रत्ये थता रागना त्यागरूप स्वभावपणुं छे. अहाहा...! व्यवहाररत्नत्रयना रागना त्यागरूप स्वभावपणुं ज्ञानीने छे एम कहे छे. अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय मारां कर्तव्य छे एम ज्ञानी मानतो नथी. अज्ञानी एम माने छे के व्यवहारथी निश्चय थाय छे, पण भाई! ए कांई वीतरागनो मार्ग नथी. वीतरागनो मारग तो व्यवहारथी-रागथी नहि पण वीतरागताथी शरू थाय छे. भाई! तने आकरी लागे पण तारा हितनी आ वात छे. त्यारे कोई वळी कहे छे-
आ तो व्यवहारनो लोप थई जाय छे? अरे प्रभु! तुं सांभळ तो खरो नाथ! व्यवहार तो ज्यां (जे गुणस्थाने) जेवो छे तेवो छे, पण एनाथी अंतरमां धर्म-वीतरागतारूप धर्म-प्रगट थयो छे एम नथी. ज्ञानी तो स्वभावसन्मुख थईने रागना अभाव-स्वभावे एक ज्ञायकभावपणे परिणम्यो छे. ते हवे रागनी रचना केम करे? रागनी रचना करे ए तो नपुंसक छे; शुभरागनी रचना करे एय नपुंसक छे, केमके जेम नपुंसकने पुत्र-प्रजा होय नहि तेम शुभरागनी रचनामां रहेलाने धर्मनी प्रजा थती नथी. ज्ञानीने जे राग-व्यवहार होय छे तेने ते मात्र स्वभावमां रहीने जाणे ज छे, करतो नथी. आवो मारग छे!
हवे कहे छे-‘जेम लोखंड कादव मध्ये पडयुं थकुं कादवथी लेपाय छे (अर्थात् तेने काट लागे छे) कारण के ते कादवथी लेपावाना स्वभाववाळुं छे,...’
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जुओ, पहेलां सोनानुं द्रष्टांत कह्युं. हवे लोढानुं द्रष्टांत कहे छे. कहे छे-लोढुं कादवमां पडयुं थकुं कादवथी लेपाय छे अर्थात् तेने काट लागे छे केमके कादवथी लेपावानो तेनो स्वभाव छे. स्वभावथी ज लोढुं कादवमां पडयुं काट खाई जाय छे. हवे कहे छे-
‘तेवी रीते खरेखर अज्ञानी कर्म मध्ये रह्यो थको कर्मथी लेपाय छे कारण के सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना ग्रहणरूप स्वभावपणुं होवाथी अज्ञानी कर्मथी लेपावाना स्वभाववाळो छे.’
शुं कह्युं? ‘तेवी रीते खरेखर अज्ञानी...’ एटले के जेम लोखंड कादवथी लेपाय छे तेम रागनी क्रियामां ने कर्मना उदयनी सामग्रीमां एकत्व मानतो अज्ञानी कर्मनी मध्ये रह्यो थको कर्मथी लेपाय छे. आ शुभराग साधन छे, शरीर साधन छे, वाणी साधन छे, परद्रव्य मारां साधन छे-एम परथी एकपणुं माननार खरेखर अज्ञानी छे अने ते कर्म मध्ये रह्यो थको कर्मथी लेपाय छे. अहीं ‘कर्म’ शब्दे व्रत, तप, भक्ति इत्यादि क्रिया एम अर्थ छे. अज्ञानी क्रियाकांडने करतो थको कर्मोथी लेपाय छे, बंधाय छे. अहा! द्रष्टांत पण केवुं लीधुं छे! जेम लोखंड कादव मध्ये लेपाय छे तेम अज्ञानी कर्म मध्ये रह्यो थको कर्मोथी लेपाय छे.
अरेरे! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं अने जो तत्त्वनी समजण करीने सम्यग्दर्शन प्रगट न कर्युं तो अवतार ढोर जेवो छे भाई! पापनी मजुरी करी-करीने एणे मरवानुं छे, पछी भले प-१० करोडनी संपत्ति एकठी थई होय. अज्ञानीने पांच-दस करोड थई जाय एटले जोई ल्यो, जाणे ‘हुं पहोळो ने शेरी सांकडी एम एने थई जाय पण अरे भगवान! आ शुं थयुं छे तने? बापु! ए संपत्ति कयां तारामां छे? अहीं तो कहे छे- कोई दिगंबर नग्न मुनि थया, पांच महाव्रतादि पाळे पण जो तेने रागमां रस छे, एकत्व छे तो ते अज्ञानी छे अने तेने, जेम लोढाने कादवमां काट लागे छे तेम, मिथ्यात्वनो काट लागे छे; ते कर्मोथी लेपाय छे, बंधाय छे.
खरेखर अज्ञानी रागादि क्रिया ने कर्मना उदयथी मळेली सामग्रीनी मध्यमां रह्यो थको कर्मोथी लेपाय छे कारण के तेनी द्रष्टि राग उपर छे, पर उपर छे. पोतानुं अस्तित्व तो शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वरूपे छे; पण अज्ञानीने आवा निज स्वरूपनी द्रष्टि छे नहि. तेथी कयांय बीजे-दया-दान, व्रतादिना रागमां ने परमां तेणे पोतानुं अस्तित्व मान्युं छे. अहाहा...! हुं आनंदकंद प्रभु आत्मा छुं एम स्वीकारवाने बदले हुं राग छुं, हुं धनादिमय छुं एम अन्यत्र पोतानुं अस्तित्व अज्ञानीए मान्युं छे.
पैसाथी तो दुनियामां मोटां मोटां काम थाय छे ने? शुं थाय छे? धूळेय पैसाथी थतुं नथी सांभळने. शुं पैसाथी समकित थाय
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छे? पैसा तो धूळ-माटी छे. ए धूळमां शुं छे के एनाथी मोटां काम (समकित आदि) थाय? अहीं तो रागथी-शुभरागथीय आत्मामां (समकित आदि) कांई न थाय एम कहे छे, केमके रागमां आत्मा नथी ने आत्मामां राग नथी. भाई! आ दया, दान, व्रतादिनो भाव राग छे अने ते आत्मानी चीज नथी. खरेखर अज्ञानी रागनी क्रियामां पडयो थको हुं रागी छुं एम मानतो कर्मथी लेपाय छे.
जुओ, सर्वज्ञ परमात्मा महाविदेहमां सदा बिराजे छे. कयारेय-कोई दि’ महाविदेहमां भगवान तीर्थंकरदेवनो विरह होतो नथी. साक्षात् भगवान त्यां अत्यारे पण बिराजे छे ने समोसरणमां भगवाननी दिव्यध्वनि छूटे छे. हवे त्यां समोसरणनी मध्यमां बेठो होय तोपण अज्ञानी रागथी-मिथ्यात्वथी लिप्त थाय छे. केम? केमके अज्ञानीने सर्व परद्रव्य प्रत्ये करवामां आवतो जे राग तेना ग्रहणरूप स्वभावपणुं छे. जोयुं? शुभरागना ग्रहणरूप जेनो स्वभाव छे ते अज्ञानी छे. अज्ञानीनो रागना ग्रहणरूप स्वभाव छे. ज्ञानीने रागना त्यागस्वभावपणुं छे, ज्यारे अज्ञानीने रागना ग्रहणरूप स्वभावपणुं छे. बेमां आवडो मोटो फेर छे.
अज्ञानीनो रागने ग्रहण करवारूप स्वभाव छे. तेने शुद्ध चैतन्यनुं ग्रहण करवापणुं नथी तेथी रागने ग्रहण करवानो तेनो स्वभाव छे. अज्ञानीने रागनी पकड छे तेथी ते कर्म मध्ये रह्यो थको कर्मथी लिप्त थाय छे. ज्यारे ज्ञानीने राग आवे छे, पण रागनी पकड नथी. ज्ञानी तो रागना त्यागरूप स्वभाववाळो छे ने? तेथी तेने रागनी पकड नथी. तेथी ते कर्म मध्ये होवा छतां कर्मथी लिप्त थतो नथी. ज्ञानी स्वभावने पकडे छे ने रागने छोडी दे छे; ज्यारे अज्ञानी स्वभावने छोडी दे छे अने रागने पकडे छे तो ते रागथी बंधाय छे. आवी वात छे.
‘जेम कादवमां पडेला सुवर्णने काट लागतो नथी अने लोखंडने काट लागे छे तेम कर्म मध्ये रहेलो ज्ञानी कर्मथी बंधातो नथी अने अज्ञानी बंधाय छे. आ ज्ञान-अज्ञाननो महिमा छे.’
शुं कह्युं? के ज्ञानी शुभाशुभ परिणामनी मध्यमां रहेलो होय छतां तेने कर्म बंधातुं नथी. केम? केमके शुभाशुभना काळे पण तेनी द्रष्टि शुद्ध चैतन्यस्वभाव पर छे. ज्यारे अज्ञानी कर्मथी बंधाय छे. केम? केमके एनी द्रष्टि शुभाशुभ परिणाममां छे. शुभाशुभ परिणाम ज हुं छुं एम अज्ञानीनी परिणाम उपर द्रष्टि छे तेथी ते बंधाय छे. आवो ज्ञान-अज्ञाननो महिमा छे.
प्रश्नः– ज्ञाननो महिमा तो बराबर, पण अज्ञाननो महिमा शुं? उत्तरः– भाई! रागने-के जे पोतानो स्वभाव नथी तेने-पोतानो माने ते
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अज्ञाननो महिमा छे. अनुभव प्रकाशमां कह्युं छे के-तेरी शुद्धता भी बडी, तेरी अशुद्धता भी बडी. पार न पमाय तेवी प्रभु! तारी अशुद्धता छे, आ तो पर्यायनी वात हों; बाकी अंदर शुद्धतानी तो शुं वात! शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा शुद्ध शुद्ध शुद्ध एक चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर छे. अहाहा...! एनी शुं वात! अने एनी द्रष्टि थतां जे निर्मळ परिणति प्रगटे तेनी पण शी वात! ए निर्मळ परिणति अशुद्धताने पोतानामां भळवा देती नथी एवो कोई अचिंत्य ज्ञाननो महिमा छे.
अहीं कहे छे-जेने शुभाशुभ परिणाम थाय छे तेवा समकितीने शुभाशुभभाव उपर द्रष्टि नहि होवाथी अने शुद्ध चैतन्यस्वभाव उपर ज द्रष्टि होवाथी बंधन थतुं नथी ज्यारे शुभाशुभभाव उपर जेनी द्रष्टि छे अने जेणे चैतन्यमूर्ति भगवान आत्माने भाव्यो नथी तेवा अज्ञानीने बंधन थाय छे. आवी वात छे.
हवे आ अर्थनुं अने आगळना कथननी सूचनानुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘इह’ आ लोकमां ‘यस्य याद्रक् यः हि स्वभावः ताद्रक् तस्य वशतः अस्ति’ जे वस्तुनो जेवो स्वभाव होय छे तेनो तेवो स्वभाव ते वस्तुना पोताना वशथी ज (अर्थात् पोताने आधीन ज) होय छे.
शुं कहे छे? के वस्तु-भगवान आत्मा शुद्ध शुद्ध परम पवित्र ज्ञानानंदस्वभाव छे अने ते स्वाधीन ज छे. अहाहा-! आत्मानो शुद्ध एक ज्ञायकभाव-चैतन्यभाव छे ते सहज स्वाधीन ज छे; ते पराधीन नथी. पर्यायमां जे अपवित्रता-अशुद्धता होय छे ते परने आधीन-निमित्त (कर्म)ने आधीन होय छे, पण शुद्ध एक स्वभाव-ज्ञायकस्वभाव तो सहज स्वाधीन ज होय छे.
हवे कहे छे-‘एषः’ एवो वस्तुनो जे स्वभाव ते, ‘परैः’ पर वस्तुओ वडे ‘कथञ्चन अपि हि’ कोई पण रीते ‘अन्याद्रशः’ बीजा जेवो ‘कर्तुं न शक्यते’ करी शकातो नथी. अहीं, सिद्धांत आ सिद्ध करवो छे के धर्मीने पोतानी वस्तुनो स्वभाव जे शुद्ध ने पवित्र छे ते, पर वडे-धर्मी परनी सामग्रीमां रहेतो होय तोपण-ते पर सामग्री वडे बीजा जेवो करी शकातो नथी. परपदार्थना कारणे धर्मीने अपराध थाय एम कदीय नथी.
ए ज विशेष कहे छे के-‘हि’ माटे ‘सन्ततं ज्ञानं भवत्’ जे निरंतर ज्ञानपणे परिणमे छे ते ‘कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत्’ कदी पण अज्ञान थतुं नथी.
अहाहा...! धर्मीने निरंतर शुद्ध चैतन्यस्वभावी प्रभु आत्मा पोतानो छे अने
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तेने निरंतर शुद्ध ज्ञानमय परिणमन छे. अहीं कहे छे ते कदीय (पर वडे) अज्ञान थतुं नथी. अहा! तेने कोई पण रीते परद्रव्यना कारणे अज्ञान थतुं नथी. जरा धीरे धीरे वात आवशे; आकरी वात छे प्रभु!
शुं कहे छे? के ‘ज्ञानिन्’ तेथी हे ज्ञानी! ‘भुंक्ष्व’ तुं (कर्मोदयजनित) उपभोगने भोगव.
भाई! अहीं कांई भोग, भोगववानुं कहे छे एम नथी. ए तो शब्दो छे. अहीं तो एम कहेवुं छे के-भगवान! तुं शुद्ध चैतन्यघन छो ने प्रभु! तो तने परद्रव्यनी परिणतिथी नुकशान थाय एम छे नहि. जडना उपभोगने जडनी परिणतिथी तारामां नुकशान थाय एम छे नहि, शुं कीधुं? के आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियो पैसा, लक्ष्मी, स्त्री, कुटुंब आदि तरफनुं लक्ष थतां तने ते जडना कारणे वा परना कारणे नुकशान थाय एम छे नहि. भगवान! तुं तो ज्ञानानंदस्वभावी छो, तो तने परवस्तुना अपराधे नुकशान थाय एम केम होय? एम छे नहि, झीणी वात छे भाई!
प्रश्नः– अहीं ‘भोगव’ एम चोकखुं कह्युं छे ने? समाधानः– भाई! आ तो मुनि (आचार्य) छे! शुं ते भोगववानुं कहे? (अने ज्ञानी क्यां भोगवे छे?) ‘भोगव’नो अर्थ तो एम छे के-‘परद्रव्यथी तने नुकशान नथी’-एम तेने निःशंक करावे छे. शरीरनी क्रिया के वाणीनी क्रिया के बहारना संयोगने लईने धर्मीने अपराध थाय, परद्रव्यने लईने धर्मीने अपराध थाय एम छे नहि एम द्रढ करे छे. स्वद्रव्यना स्वभावे निरपराधभावे परिणमता ज्ञानीने परद्रव्यथी अपराध थाय एम छे नहि एम अहीं कहेवुं छे. समजाणुं कांई...?
शुं कहे छे? के भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु छे. तेनो जेने अंतरमां स्वानुभवमां स्वीकार अने सत्कार थयो छे तेवा धर्मीने शुद्ध चैतन्यमय परिणमन होय छे अने ते निर्मळ परिणमन परद्रव्य वडे बीजुं करी शकातुं नथी. शरीरादिनी बहारनी गमे तेटली क्रिया थाय तोपण एनाथी निरपराधी भगवान आत्माने अपराधरूप करातो नथी एम कहेवुं छे.
अहाहा...! कहे छे-हे ज्ञानी! तुं कर्मोदयजनित उपभोगने भोगव अर्थात् बहारनी सामग्रीने तुं भोगव. एटले शुं? एटले के तारुं लक्ष त्यां सामग्रीमां जाय तेथी करीने परने लईने तने नुकशान छे एम नथी. तारुं लक्ष त्यां जाय अने विकल्प ऊठे ते तारो दोष छे, पण पर वस्तुने कारणे तने कांई दोष थाय छे एम छे नहि. पैसानो खूब संचय थयो के शरीरनी क्रिया-विषयादिनी-खूब थई तेथी ए जडनी क्रियाथी तने नुकशान थाय छे एम नथी. परंतु तारा भावमां (ए सामग्री मारी छे एवो) विपरीतभाव होय तो तने मोटुं नुकशान छे. आवी वात छे.
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ए ज कहे छे-‘इह’ आ जगतमां ‘पर–अपराध–जनितः बन्धः तव नास्ति’ परना अपराधथी ऊपजतो बंध तने नथी (अर्थात् परना अपराधथी तने बंध थतो नथी).
ल्यो; आ सिद्धांत कह्यो. शरीरनी क्रियाथी, पैसाथी, स्त्रीना देहथी के एवी जडनी क्रियाथी तने नुकशान थाय छे एम नथी, केमके ए तो परद्रव्य छे. भाई! अहीं ‘परना अपराधथी तने बंध थतो नथी’-आ सिद्ध करवुं छे होें.’ ‘भोगव’ एम कह्युं त्यां कांई भोगववानुं कीधुं नथी पण परद्रव्यना संबंधमां परद्रव्यने लईने तने नुकशान छे एम नथी एम समजाववुं छे, सिद्ध करवुं छे.
‘वस्तुनो स्वभाव वस्तुने पोताने आधीन ज छे. माटे जे आत्मा पोते ज्ञानरूपे परिणमे छे तेने परद्रव्य अज्ञानरूपे कदी परिणमावी शके नहि.’
शुं कहे छे? के आत्मानो ज्ञानानंदस्वभाव सहज स्वाधीन ज छे अने ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा जे ज्ञान ने आनंदरूपे परिणमे छे तेने परद्रव्य कोई दि’ अज्ञान करावी शके नहि. शरीरनी गमे तेटली क्रिया थाय ने लक्ष्मीना ढगला होय तोपण तेने लईने जीवमां अज्ञान थाय एम नथी; (जो अज्ञान थाय तो ते) पोताना अपराधथी थाय छे, पण अहीं तो ज्ञानीने ते (अज्ञान) छे नहि एम वात छे. धर्मीने तो शुद्ध एक चैतन्यस्वरूप आत्मा पोतानो छे ने? ते तो ज्ञानरूपे परिणमे छे एटले तेने परिणाममां (अज्ञानमय) अशुद्धता छे ज नहि. ज्ञानीने तो शरीरादिना भोगने काळे पण अशुद्धता (अस्थिरता) टळती जाय छे अने शुद्धता वधती जाय छे-एम वात छे; कारण के परने लईने जीवमां अशुद्धता (अज्ञान) थाय एम छे नहि. झीणी वात छे भाई! परंतु आथी कोई स्वच्छंदे परिणमे तो ए अज्ञानीनी अहीं वात नथी. अहीं तो सिद्धांत-निश्चय सत्य शुं छे ते सिद्ध करे छे.
भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु छे. अने तेने निहाळनारने-जोनारने तो ज्ञान अने आनंदना परिणाम थाय छे. ते ज्ञानमय परिणामने परद्रव्यनी क्रियाओ फेरवी दे-अज्ञानमय करी दे एम त्रणकाळमां नथी. अहा! ‘परद्रव्य अज्ञानरूपे कदी परिणमावी शके नहि’-आ सिद्धांत छे.
प्रश्नः– ९६ हजार राणीओ होय छतां चक्रवर्ती तीर्थंकर समकिती? समाधानः– भाई! सांभळ. ९६ हजार राणीओ ज्ञानीने तो परद्रव्य छे; ते नुकशाननुं कारण केम थाय? परद्रव्यने लईने नुकशान कयां छे? हा, तेने
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पोतानुं मानवुं ते मोटुं नुकशान छे, पण धर्मीने तो तेवी मान्यता छे नहि. मारग जुदा छे बापा! झाझा जडना संयोग छे माटे ज्ञानीने ते बंधनुं कारण थाय एम छे नहि अने कोईने (-अज्ञानीने) ओछा संयोग छे माटे बंध ओछो छे एम पण छे नहि.
निश्चयथी तो पूर्णानंदना नाथ प्रभु आत्मामां निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थवी ते संयोग छे अने पूर्वनी पर्यायनो व्यय थयो ते वियोग छे. धर्मीने आवो संयोग वियोग होय छे. शुं कीधुं ए? पंचास्तिकायनी १८ मी गाथामां आवे छे के वस्तु जे नित्यानंद प्रभु आत्मा छे तेने जे सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी पर्याय थाय ते संयोग छे अने पूर्वनी पर्यायनो नाश थयो ते वियोग छे. भाई! आ संयोग ने वियोग तेनी पोतानी पर्यायमां छे, पण बहारना संयोग वियोग ज्ञानीने कयां छे? बहारनी चीज तो परद्रव्य छे.
अहीं कहे छे-आ कर्म, शरीर, लक्ष्मी, कुटुंब आदि जे परद्रव्य छे ते परद्रव्यने कारणे आत्माने अज्ञान के बंधन थाय एम छे नहि. पोताने पूर्वे जे अज्ञान हतुं ते कांई परने लईने न होतु. पोते ज परथी ने रागथी एकताबुद्धि करी हती अने तेथी अज्ञान हतुं अने हवे स्वद्रव्यना लक्षे अज्ञान टाळीने ज्ञान कर्युं तो ते ज्ञानमय परिणमनने कोई परद्रव्य अज्ञानरूप करी दे एम छे नहि. चक्रवर्तीने झाझी राणीओ छे ने इन्द्रने झाझी इन्द्राणीओ छे तेथी ते परद्रव्य तेनी ज्ञानमय परिणतिने नुकशान करी दे एम नथी. भाई! आ तो तत्त्वद्रष्टिनी वात छे. जेने अंतरमां पोतानुं शुद्ध अंतःतत्त्व अनुभवायुं छे तेनी दशामां हवे परद्रव्य (संयोगी पदार्थ) थोडा हो के झाझा हो, तेओ ज्ञानने अज्ञान करी शकता नथी, केमके स्वद्रव्यने परद्रव्य तो अडतुं य नथी.
हवे कहे छे-‘आम होवाथी अहीं ज्ञानीने कह्युं छे के-तने परना अपराधथी बंध थतो नथी तेथी तुं उपभोगने भोगव.’
अहीं उपभोगने भोगव’ एम कह्युं छे परंतु शुं कोई धर्मात्मा भोगववानुं कहे? ना कहे. तो शुं आशय छे? भाई! अहीं तो परद्रव्यना कारणे तने अपराध थतो नथी एम द्रढ करवुं छे, एम के-आ धनादि वैभव ने घणी स्त्रीओ इत्यादि झाझो संयोग छे तो हो, ते संयोगो तारामां कयां छे के ते तने नुकशान करे? थोडा के झाझा संयोगमां तारुं जरी लक्ष जाय ने विकल्प थाय ए जुदी वात छे बाकी ते थोडा के झाझा संयोगो छे ते तने अज्ञान करी नाखे वा तारा परिणमनने बदलावी नाखे एम छे नहि. भाई! आ तो वीतरागना सिद्धांत छे बापा! समकिती चक्रवर्ती बाह्य वैभवना ढगला वच्चे होय तेथी ते बहारना वैभवना कारणे तेना ज्ञाननुं अज्ञान थई जाय एम छे नहि. तथा कोईने बहारना सर्व संयोगो छूटी गया होय, बहारथी
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लोकोने लागे के आ महा त्यागी छे एवी नग्न मुनिदशा होय, पण जो अंतरमां रागथी एकताबुद्धि होय तो ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे, त्यागी नथी; धर्मनो त्यागी छे. आवी सूक्ष्म वात भाई!
बहारना संयोग झाझा छे माटे अज्ञानी ने बहारना संयोग नथी माटे ज्ञानी एवी मान्यता यथार्थ नथी. ए ज अहीं कहे छे के-‘तने परना अपराधथी बंध थतो नथी तेथी तुं उपभोगने भोगव’ मतलब के परद्रव्यना संयोगमां तुं भले हो, पण तेनाथी तने बंधन छे एम नथी. भोगववानो अर्थ आ छे के संयोगमां तुं हो तो हो, एनाथी तने बंधन नथी. अत्यारे तो लोको कोई बहारना संयोग घटाडे एटले त्यागी थई गयो एम माने छे पण भाई! संयोग वडे ज्ञानी-अज्ञानीनुं माप नीकळतुं नथी. आ सत्यनो पोकार छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य ने अमृतचंद्राचार्य पोकार करे छे के-भगवान! तुं स्वद्रव्य छो ने! स्वद्रव्यनी द्रष्टिनुं तने परिणमन थयुं अने तने परद्रव्यना घणा संयोग छे तो ते संयोगने कारणे तने नुकशान छे एम नथी. लोको भले कहे के-आटलो बधो परिग्रह! आटली बधी स्त्रीओ! आटला बधा पुत्रो! चक्रवर्तीने तो ३२ हजार पुत्रीओ, ६४ हजार पुत्रो ने ९६ हजार स्त्रीनो संयोग छे. पण ते संयोग बंधनुं कारण छे एम नथी. भाई! परद्रव्य कांई बंधनुं कारण नथी; हा, स्वद्रव्यमां परने के रागने पोतानो मान्यो होय तो, भले ने कांई पण संयोग न होय तोपण, मिथ्यात्वनो अपराध ऊभो थाय छे.
भाई! शरीरनो थोडो आकार होय त्यां आत्माना प्रदेशनो आकार पण थोडो होय छे. परंतु तेथी तेने नुकशान छे के लाभ छे एम नथी. केवळी समुद्घात करे त्यारे लोकना आकार जेटलो आकार थई जाय छे, भगवानना प्रदेशनो आकार त्यारे लोकाकाश जेटलो थई जाय छे. पण आकार मोटो थयो माटे तेने नुकशान छे अने सात हाथनो आकार ध्यानमां-केवळज्ञानमां होय तो तेने लाभ छे एम नथी. हवे पोताना नाना-मोटा आकारथी पण ज्यां लाभ-नुकशान नथी त्यां परद्रव्यथी लाभ-नुकशान कयांथी होय? भाई! जैनदर्शननुं तत्त्व कोई अलौकिक छे! वीतराग परमेश्वर-जिनेश्वरनो मार्ग खूब गंभीर छे.
कहे छे-‘उपभोग भोगववाथी मने बंध थशे एवी शंका न कर.’ शुं कह्युं? के झाझा संयोगमां-शरीर, पैसा, स्त्री-कुटुंब-इत्यादिमां आव्यो माटे तेने लईने मने बंध थशे एवी शंका न कर. ल्यो, ‘भोगव’नो आ अर्थ छे के-संयोगो घणा हो पण एनाथी नुकशान नथी, बंध नथी. संयोग तो परचीज छे; ते स्वद्रव्यमां कयां छे के ते लाभ-नुकशान करे? भाई! तारी द्रष्टि जो रागने पुण्यना परिणामथी एकत्व पामे तो तने नुकशान ताराथी छे, पण परद्रव्यथी नथी.