Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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द्रव्य) तेमां आवी जती नथी. एक समयनी श्रद्धानी पर्यायमां आखी चीजनुं श्रद्धान आवी जाय छे, पण आखुं द्रव्य तेमां आवी जतुं नथी. द्रव्य तो त्रिकाळ भिन्न ज रहे छे. आम पोताना निर्मळ उपयोगमां-शुद्धोपयोगमां पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्माने जे अनुभवे छे ते ज्ञानी छे अने तेने निर्जरा थाय छे, धर्म थाय छे. आवी वात छे, समजाणुं कांई...?

अहा! अनंतकाळमां एणे पोतानी चिदानंदमय वस्तुनो स्पर्श-अनुभव कर्यो नथी. अरे! एणे रागादिना विकल्पनो स्पर्श-अनुभव करीने हुं धर्म करुं छुं एम मानी लीधुं छे! परंतु भाई! धर्म तो वस्तुनो स्वभाव छे. अहाहा...? वस्तु आत्मा जे धर्मी छे तेनो धर्म शुं छे? अहाहा...! अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रिय आनंद, अतीन्द्रिय स्वच्छता, अतीन्द्रिय प्रभुता, अतीन्द्रिय पुरुषार्थ ए तेनो धर्म छे. आवा धर्मथी अभेद धर्मी एवा प्रभु आत्मा उपर जेनी द्रष्टि पडी छे ते ज्ञानी छे; अने ते ज्ञानीने, अहीं कहे छे, ‘आ बधायमां राग नथी.’ ‘बधायमां’-एम एक शब्दे तो अहा! केटलुं भर्युं छे!! आ संसारसंबंधी कर्तापणाना राग प्रति के शरीरसंबंधी भोक्तापणाना राग प्रति ज्ञानीने राग नथी; केमके पोताना निराकुळ आनंदना स्वाद आगळ तेने कर्ता-भोक्तापणाना रागमांथी रस ऊडी गयो छे. जेने आत्मामां सुखबुद्धि थई छे तेने रागमांथी सुखबुद्धि ऊडी गई छे. माटे ज्ञानीने निर्जरा थाय छे. निर्जरा त्रण प्रकारे कही ने? १. कर्मनी निर्जरा, २. अशुद्धतानी निर्जरा अने ३. शुद्धोपयोगनी वृद्धि. आ प्रमाणे ज्ञानीने निर्जरा थती होय छे.

त्यारे कोई कहे छे-अशुभरागमांथी तो ज्ञानीने सुखबुद्धि उडी गई छे, पण शुभराग तो ते करे छे ने?

अरे भाई! शुभ ने अशुभ-बेयमांथी ज्ञानीने सुखबुद्धि उडी गई छे. ज्ञानी शुभराग करे छे वा तेने शुभरागनुं करवापणुं छे-एम छे ज नहि. झीणी वात छे. प्रभु! भगवाननो मारग-वीतरागतानो मारग बहु सूक्ष्म छे. अहीं कह्युं ने के-‘आ बधायमां ज्ञानीने राग नथी.’ ‘आ’ मतलब के संसारसंबंधी ने शरीरसंबंधी जेटला परिणाम छे ते बधायमां ज्ञानीने राग नथी.

जुओ, (टीकामां) पहेलां कह्युं के-‘जेटला (अध्यवसान) संसारसंबंधी छे तेटला बंधननां निमित्त छे अने जेटला शरीर संबंधी छे तेटला उपभोगमां निमित्त छे.’ पछी कह्युं के-‘जेटला बंधननां निमित्त छे तेटला तो रागद्वेषमोहादिक छे.’ अहा! राग छे ए आस्रवतत्त्व छे. तेने पोतानो (ज्ञायकरूप) मानवो ते मिथ्यात्वभाव छे, मोह छे. तथा पदार्थोने इष्ट-अनिष्ट कल्पवा ते रागद्वेष छे. भाई! पदार्थ तो इष्ट-अनिष्ट छे नहि, केमके पदार्थो तो बधाय ज्ञेय छे. ते ज्ञेयमां बे भाग पाडवा के आ इष्ट ने आ अनिष्ट ते रागद्वेष छे. तो आवा मोह अने


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रागद्वेषना परिणाम ज्ञानीने होता नथी एम कहे छे. भारे वात भाई! कोईने एम थाय के समकित बहु मोंघु करी नाख्युं; पण भाई! समकित तो छे एम छे; वीतरागनो मारग तो वीतरागताथी ज उत्पन्न थाय छे, रागथी नहीं, शुभरागथीय नहीं. पंचास्तिकायनी १७२ मी गाथामां आवे छे के शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे. त्यां कह्युं छे-‘जयवंत वर्तो वीतरागपणुं के जे साक्षात् मोक्षमार्गनो सार होवाथी शास्त्रतात्पर्यभूत छे.’ आम चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे. ए वीतरागता केम थाय? तो कहे छे के स्वना आश्रये थाय छे अने परना आश्रये तो राग ज थाय छे; केमके ‘स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः’ भाई! आ न्यायथी तो वात छे, कांई कचडी-मचडीने कहेवातुं नथी. भगवाननो मारग तो न्यायथी, युक्तिथी कहेलो छे.

कहे छे-‘आ बधायमां...’ ‘आ’-एटले? संसारसंबंधी कर्तापणाना रागद्वेषमोहना परिणाम ने शरीरसंबंधी भोक्तापणाना सुखदुःखादि परिणाम -ते जेटला अध्यवसायना परिणाम छे ते बधायमां ज्ञानीने राग नथी. गजब वात छे भाई! ‘आ’ शब्दे तो बधुं खूब भर्युं छे. अहाहा...! धर्मी एने कहीए, समकिती एने कहीए जेने रागमां ने रागना भोक्तापणामां-बेयमांथी रस ऊडी गयो छे, रुचि ऊडी गई छे. धर्मीने रागमां रस नथी, स्वामीपणुं नथी; ए तो रागथी भिन्न पडी गयो छे अने स्वभावमां एकत्व पाम्यो छे. एने तो आनंदस्वरूप भगवान आत्मा पोतानो छे. हवे आवुं जगतने (रागना पक्षवाळाओने) भारे कठण पडे छे, पण शुं थाय?

अनादि संसारथी परिभ्रमण करतां करतां अनंतकाळ वीती गयो प्रभु! ते पंचपरावर्तनरूप परिभ्रमण करतां करतां निगोदना अनंत भव कर्या, एकेन्द्रियादिना अनंत भव कर्या ने मनुष्यना पण अनंत भव कर्या. वळी तेमांय अनंतवार द्रव्यलिंग धारण कर्यां ने पंचमहाव्रत ने २८ मूलगुणना विकल्पनी क्रिया अनंतवार करी. पण अरे! शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि न करी. आत्मज्ञान न कर्युं; ने ते विना दुःख ज दुःख पाम्यो. छहढालामां आवे छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायौ.”

ल्यो, ‘सुख लेश न पायौ’ -एनो अर्थ शुं थयो? के महाव्रत पाळ्‌यां ए तो आस्रवभाव हतो, दुःख हतुं. आकरी वात प्रभु! पण आस्रवभाव दुःखरूप ज छे, एमां सुख छे ज नहि. सुख ने आनंदनो भंडार तो भगवान आत्मा छे.

अहीं ‘आत्मज्ञान’ कह्युं ने! तो शास्त्रज्ञान ते आत्मज्ञान एम नहि. नवपूर्वनी


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लब्धिरूप शास्त्रज्ञान तो एने अनंतवार थयुं. अगियार अंगनो पाठी पण अनंतवार थयो. जुओ, एक आचारांगमां १८ हजार पद छे अने एक पदमां एकावन करोड झाझेरा श्लोक छे. एम-एम (ए प्रमाणे) एनाथी बेगणुं (डबल) बीजुं अंग छे. एम अगियार अंग छे. ते अगियार अंगनुं ज्ञान पण एने अनंतवार थयुं. पण ते कांई ज्ञान नथी. एक आत्मज्ञान ज ज्ञान छे. ‘आतमज्ञान विना सुख लेश न पायौ’ एम कह्युं ने? त्यां आत्मानी पर्यायना ज्ञान विना, के रागना ज्ञान विना के निमित्तना ज्ञान विना-एम अर्थ नथी. पण शुद्धचिद्रूपोऽहम्, आनंदरूपोऽहम्–अहाहा...! शुद्ध चिद्रूप, नित्यानंदस्वरूप ध्रुव प्रभु आत्मा हुं छुं-एवुं स्वाश्रये प्रगट थयेलुं ज्ञान ते आत्मज्ञान छे; आवुं आत्मज्ञान एणे कयारेय प्रगट कर्युं नहि तेथी दुःखी रह्यो छे एम अर्थ छे. तेथी शास्त्रज्ञान ए मुख्य नथी, आत्मज्ञान मुख्य छे. समकिती तिर्यंच होय छे तेने नव तत्त्वनां नाम पण आवडतां नथी पण हुं आनंदस्वरूप आत्मा छुं एवा भान सहित तत्त्व-प्रतीति तेने होय छे, आत्मज्ञान होय छे. समजाणुं कांई...?

‘आ बधायमां ज्ञानीने राग नथी;’ तो केम नथी तेनुं कारण हवे कहे छे-‘कारण के तेओ बधाय नाना द्रव्योना स्वभाव होवाथी, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानीने तेमनो निषेध छे.’

शुं कह्युं? के शुभाशुभभावना कर्तापणाना परिणामने शुभाशुभभावना भोक्तापणाना परिणाम-ए बधाय अनेकद्रव्यना स्वभावरूप छे, एक स्वभाव नथी, जीवस्वभाव नथी. ए तो बधा कर्मना संगे-कर्मने वश थईने उत्पन्न थयेला भाव छे ने? तेथी तेओ संयोगी विभावभाव छे, व्यभिचारी भाव छे. अहाहा...! अनंता पुद्गलद्रव्यना संगे उत्पन्न थयेला ते (रागादि) अनेक प्रकारना विकारी भाव छे तेथी ‘नाना द्रव्योना स्वभाव’ छे एम कह्युं छे.

भगवान आत्मा एक ज्ञानानंदस्वभाव छे; ज्यारे आ शुभाशुभभावरूप कर्ता- भोक्तापणाना परिणाम अनेकद्रव्यना स्वभाव छे. संयोगना लक्षे उत्पन्न थाय छे ने? तेथी ते संयोगीभाव अनेकद्रव्यना स्वभाव छे, व्यभिचारी भाव छे. शुभाशुभभाव कांई आत्मद्रव्यना लक्षे उत्पन्न थता नथी, पण कर्मना संयोगना वशथी उत्पन्न थाय छे, तेथी तेओ अनेकद्रव्यना स्वभाव छे. शुं कह्युं? न्याय समजाय छे ने? एम के-एक शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये विभाव-विकारना भाव कयारेय उत्पन्न थता नथी, पण तेओ संयोगी द्रव्यना-कर्मना वशे उत्पन्न थाय छे माटे तेओ अनेकद्रव्य स्वभाव छे. आ न्याय छे. वस्तुना स्वरूप तरफ ज्ञानने लई जाय तेनुं नाम न्याय छे. ‘नि’ धातु छे ने? एटले के लई जवुं, दोरी जवुं-जेवुं स्वरूप छे ते तरफ ज्ञानने लई जवुं तेनुं नाम न्याय छे. आ तमारा संसारना न्यायनी अहीं


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वात नथी. आ तो वस्तुनुं स्वरूप जेवुं भगवान केवळीए कह्युं छे तेने समजवा प्रति ज्ञानने दोरी जवुं ते न्याय छे एम वात छे. आ तो भगवानना कायदा छे भाई!

अहा! पंचम आरामां अत्यारे अहीं भरतमां भगवानना विरह पडया! केवळज्ञान रह्युं नहि, पण केवळीनी आ वाणी रही गई. ए वाणीनो आ पोकार छे के- प्रभु! तुं भगवान छो; प्रत्येक आत्मा निश्चयथी भगवान-स्वरूप ज छे. अहाहा...! निश्चयथी आ शुद्ध (एक ज्ञायकभाव) जे छे ते आत्मा छे, ज्यारे आ रागादि छे ए तो आस्रव छे, अनेक द्रव्यस्वभाव छे, जीवस्वभाव नहि. ज्यारे कर्म आदि छे ते अजीव छे, आत्माथी भिन्न छे. आस्रवभाव पण आत्माथी भिन्न छे. जो एम न होय तो नवतत्त्व रहे नहि. माटे आस्रवथी भिन्न आत्मा शुद्ध ज्ञायकस्वरूप चिदानंद प्रभु नित्य भगवानस्वरूप ज छे. अहाहा...! ‘भग’ नाम ज्ञानानंदनी लक्ष्मी अने ‘वान’ नाम स्वरूप जेनुं छे तेवो आत्मा निश्चये भगवान छे. अने ते आदरणीय छे. पर अरे! आ सांभळीने अज्ञानी राड पाडे छे के-अमे ते भगवान! पण बापु! तुं सांभळ तो खरो नाथ! जो तुं अंदर भगवान नथी तो तारी भगवाननी अवस्था प्रगटशे कयांथी? अंदर भगवान स्वभावमांथी ते उत्पन्न थशे, कांई बहारमांथी (रागमांथी) उत्पन्न नहि थाय. समजाणुं कांई...?

आत्मा स्वरूपथी भगवान छे; माटे अमने तो सर्व जीव साधर्मी छे. द्रव्य तरीके तो बधा आत्मा साधर्मी छे. आ ‘सत्त्वेषु मैत्री’ नथी आवतुं? ‘सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं’–एम आवे छे ने? अहाहा...! सर्व आत्मा सदा अंदर तो भगवान स्वरूप ज छे. आ नारकी, तिर्यंच, मनुष्य इत्यादि तो कर्मना निमित्तनी उपाधिना बोल छे. अने आ शुभाशुभभाव-कर्ता-भोक्तापणाना भाव ए पण कर्मना निमित्तनी उपाधिथी उत्पन्न थयेला औपाधिक भाव छे, अनेक द्रव्यना स्वभाव छे; ए कांई जीवनुं सत्यार्थ स्वरूपभूत नथी; तेओ कांई जीवना स्वरूपभूत नथी.

आत्मा एक ज्ञायकभाव त्रिकाळ शुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव छे; ज्यारे रागादि भावो - कर्ता-भोक्तापणाना भावो नाना द्रव्योना स्वभाव छे. पर संयोगे उत्पन्न थयेला तेओ परस्वभावो-अनेक द्रव्यना स्वभावो छे, जुओ छे अंदर? के ‘नाना द्रव्योना स्वभाव होवाथी’-अर्थात् आ कारणे-‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानीने तेमनो निषेध छे.’ ल्यो, ज्ञानी कोने कहेवो ए पण आमां खुलासो करी दीधो; के ‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवो ज्ञानी’ छे.

‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव’ एटले? छठ्ठी गाथामां आचार्य कुंदकुंदे ‘एक ज्ञायकभाव’ ना कह्यो? के-

‘ण वि होदि अपमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो’

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अहाहा...! एक ज्ञायकभाव एने कहीए के जेमां प्रमत्त के अप्रमत्त पर्यायना भेद नथी. अहाहा...! एकला ज्ञायकरस-चैतन्यरसनुं दळ चिन्मात्रस्वरूप एवो एक ज्ञायकभाव प्रभु आत्मा छे. आवो एक ज्ञायकभाव जेने पोतानो छे ते ज्ञानी छे अने ते ज्ञानीने, जे नाना द्रव्योना स्वभावो छे एवा रागद्वेषमोहनो कर्ता-भोक्तापणाना भावोनो निषेध छे. आवो मारग छे; आकरो पडे तोय एमां बीजुं शुं थाय? मारग तो आ एक ज छे. श्रीमद्मां आवे छे ने के-

‘एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ.’ अहाहा...! शुं गाथा छे! एक गाथामांय केटलुं भर्युं छे! गाथाए-गाथाए आखा समयसारनो सार भरी दीधो छे; अने एवी ४१प गाथा!! अहो! समयसार तो जगतनुं अजोड चक्षु छे.

कहे छे-संसारसंबंधी कर्तापणानो भाव रागद्वेषादि अने शरीरसंबंधी भोक्तापणानो भाव सुखदुःखादि कल्पना-ए बधायमां ज्ञानीने राग नथी, रुचि नथी. जेने शुद्ध ज्ञायकनी रुचि जागी तेने रागनी रुचि रहेती नथी. जेम एक म्यानमां बे तलवार रहे नहि तेम जेने रागनी रुचि छे तेने भगवान आत्मानी-ज्ञायकनी रुचि होती नथी अने जेने ज्ञायकनी रुचि थई जाय तेने रागनी रुचि रहेती नथी. बीजी रीते कहीए तो ज्ञायकभावमां रागनो अभाव छे अने रागमां शुद्ध ज्ञायकभावनो अभाव छे.

प्रश्नः– अत्यारे पण? उत्तरः– हा, अत्यारे पण अने त्रणे काळ; केमके राग छे ए तो आस्रव छे. शुं आस्रवभाव ज्ञायकपणे छे? जो आस्रव ज्ञायकभावपणे होय तो नव तत्त्व भिन्न भिन्न रहेशे केवी रीते? छठ्ठी गाथामां टीकाकारे ने भावार्थकारे स्पष्ट खुलासो कर्यो छे के- शुभाशुभभावना स्वभावे ज्ञायक थई जाय तो ते जड थई जाय; कारण के शुभाशुभभाव छे ते ज्ञानस्वभावथी रिक्त-खाली छे. भाई! राग छे ते पोताने जाणे नहि, जोडे ज्ञायक छे तेने पण जाणे नहि; ए तो बीजा द्वारा जाणवामां आवे छे. माटे राग अचेतन जड छे, अजीव छे; ज्ञायकमां एनो प्रवेश नथी. आवो एक ज्ञायकभाव छे, जे ज्ञानीनुं स्व छे. कह्युं ने अहीं के-‘एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानीने...’ छे के नहि पुस्तकमां? पुस्तक तो सामे राख्युं छे बापा! कया शब्दनो शुं भाव छे ते तो जाणवो जोईए ने? आ संसारना चोपडा मेळवे छे के नहि? तो आ भगवान शुं कहे छे ते मेळवने बापु!

प्रश्नः– पण आ उकेलतां (वांचीने समजतां) न आवडे तेनुं शुं करवुं? समाधानः– शुं उकेलतां न आवडे? अरे! केवळज्ञान लेतां आवडे एवी एनामां शक्ति छे. शक्ति छे अने एने प्रगट करे एवुं सामर्थ्य पण छे. अंतः-


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मुहूर्तमां केटलाय जीवोए केवळज्ञान लीधुं छे. अहा! निगोदमांथी नीकळीने, एकाद भव बीजे करीने ज्यां मनुष्य थयो तो (आठ वर्ष पछी) भेदज्ञान करीने समकित पाम्यो अने दीक्षा लईने अंतःमुहूर्तमां केवळज्ञान ऊपजावी सिद्ध थयो.

हा, पण एवा केटला जीव? अरे भाई! एवी एनी ताकात छे के नहि? मोक्ष जाय एवी एनी अंदर ताकात छे, केमके पोतानो सर्वज्ञस्वभाव छे, पोते सदा एक ज्ञायकभाव छे. आ तो छे एने एनलार्ज करवो छे; बस, जे शक्तिरूपे छे तेने व्यक्तरूप करवो छे.

प्रश्नः– तो एनो संचो (साधन) छे के नहि? उत्तरः– छे ने; अंदर एक ज्ञायकभावमां एकाग्र थवुं ते एनो संचो (साधन) छे. जुओ, ए ज अहीं कह्युं के-टंकोत्कीर्ण अर्थात् टांकीने घडी काढेलो एवो ध्रुव शाश्वत एक ज्ञायकभाव ज्ञानीनी द्रष्टिमां निरंतर छे अने ए ज उपाय छे. भाई! आ झीणुं पडे पण शुं थाय? अनंत जिनवरदेवो-तीर्थंकरोनो आ ज उपदेश छे.

अहाहा...! ज्ञानीनी द्रष्टिमां एक ज्ञायकभाव ज तरवरे छे. तेने एक ज्ञायकमात्रभावनो ज निरंतर आश्रय छे. पर्याय छे ए तो जाणवा माटे छे, आदरणीय तो एक ज्ञायकभाव ज छे. आ शास्त्रनी अगियारमी गाथामां न आव्युं के-

‘व्यवहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ’

व्यवहारनय अभूतार्थ नाम असत्यार्थ छे, अने शुद्धनय याने एक ज्ञायकभाव त्रिकाळी शुद्ध शाश्वत चीज भूतार्थ छे. भाई! आ अगियारमी गाथा तो जिनशासननो प्राण छे.

प्रश्नः– व्यवहार अभूतार्थ-असत्यार्थ छे तेनो अर्थ शुं? समाधानः– व्यवहार असत्यार्थ कह्यो एनो अर्थ एम नहि के व्यवहारनो विषय जे पर्याय ते छे ज नहि. जो पर्याय ज नथी एम कहो तो तो वेदांत थई जाय, केमके वेदांत पर्यायने मानतुं नथी, एकला द्रव्यने (कूटस्थ) माने छे. पण एम छे नहि. तो केवी रीते छे? भाई! अहीं तो व्यवहार नाम पर्यायने गौण करीने अभूतार्थ कह्यो छे, अभाव करीने नहि. ‘भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ’–एम कह्युं ने? त्यां नय ने नयना विषयनो भेद काढी नाखीने शुद्धनय अर्थात् त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी आत्माने मुख्य करीने भूतार्थ कह्यो, सत्यार्थ कह्यो अने व्यवहारनयने अर्थात् पर्याय अने रागादिने गौण करीने असत्यार्थ कह्यो. त्यां पर्यायनो अभाव करीने (व्यवहारनय) असत्यार्थ कह्यो छे एम न समजवुं; केमके जो अभाव करीने असत्य कह्यो होय तो पर्यायनो नाश थई जाय अने तो द्रव्य पण न रहे. ए तो सम्यग्दर्शननुं


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प्रयोजन सिद्ध करवा माटे शुद्धनयने मुख्य करी भूतार्थ कह्यो ने व्यवहारने-पर्यायने गौण करीने अभूतार्थ कह्यो छे. भाई! आ केवळीनो पोकार छे अने ते कुंदकुंदाचार्ये जाहेर कर्यो छे.

‘भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ’ अहाहा...! शुद्धनय अर्थात् त्रिकाळ शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी छती शाश्वत चीज प्रभु आत्मा भूतार्थ छे एम बीजुं पद कह्युं ने पछी कह्युं के-‘भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो’ भूतार्थ मतलब शुद्ध एक ज्ञायकभावना आश्रये जीव सम्यग्द्रष्टि होय छे-थाय छे. भाई! आ तो अनंता तीर्थंकरोए-जिनवरोए प्रगट करेला जिनदर्शननो प्राण छे. आ तो जीवना जीवननुं वास्तविक जीवन छे. जुओने, ए ज कहे छे ने अहीं के-‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानीने तेमनो निषेध छे.’ एटले के भूतार्थनो जेने आश्रय वर्ते छे तेने रागादिना कर्ता अने भोक्तापणानो निषेध छे. भाई! टीकामां भाषा तो आ छे. अहो! अमृतचंद्रदेवे परम अमृत रेडयां छे! भगवान! तारा हितनी आ वात छे.

प्रश्नः– सात तत्त्वनी श्रद्धाने सम्यग्दर्शन कह्युं छे ने? समाधानः– भाई! सात तत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा ए कांई सम्यग्दर्शन नथी. सात तत्त्वनी अभेद श्रद्धा (सात तत्त्वनी पाछळ रहेला एक ज्ञायकभावनी श्रद्धा) ते सम्यग्दर्शन छे. त्यां तत्त्वार्थसूत्रमां ‘–तत्त्वम्’ एम एकवचन छे. एटले के भेदनी त्यां वात नथी. ज्यां एकवचन होय त्यां एकरूप स्वभावनो आश्रय थयो अने तेमां साते तत्त्वनुं श्रद्धान गर्भित थई गयुं; केमके निश्चयथी...’ जरी सूक्ष्म वात छे भाई! के ज्ञायकभाव अभेद एक छे तेनां ज्यां श्रद्धान-ज्ञान थतां तो तेमां (एक ज्ञायकभावमां) आ (आस्रवादि) पर्याय नथी एम तेनुं ज्ञान पण आवी जाय छे. स्यात् अस्ति अने स्यात् नास्ति एम भंग छे ने? अहाहा...! सप्तभंगी तो जैनदर्शननुं मूळ छे, अने जैनदर्शन-दिगंबर जैनदर्शन ए ज दर्शन छे. बीजुं कोई दर्शन-श्वेतांबरादि-जैनदर्शन छे ज नहि. पंडित श्री टोडरमलजीए तो मोक्षमार्ग प्रकाशकमां ए सर्वने अन्यमतमां लीधा छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?

आ बधा शेठिया माने के अमे मोटा करोडपति शेठिया छीए ने? अरे! धूळेय नथी शेठिया, सांभळने. आत्मामां कयां पैसा गरी गया छे? ‘नथी’ (आत्मा पैसा नथी) ए ज अनेकान्त थयुं. भगवान आत्मा ज्ञायकभावे छे ने रागादि परभावे नथी ए अनेकान्त छे. ओहो! भाग्य होय तो सांभळवाय मळे. अहा! आमां तो सत् ने पामवानी रीत ने पद्धति बतावी छे!

अहाहा...! ज्ञानी केवा होय छे? तो कहे छे-एक ज्ञायकभावस्वभाववाळा होय


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छे, पण व्यवहाररत्नत्रयना रागवाळा ज्ञानी होय छे एम नहि. बहु झीणी वात छे. बापु! निश्चय ने व्यवहारना विषय तो विरुद्ध छे. निश्चय अने व्यवहार एम बे नय छे ने? बेना विषय तो विरुद्ध छे. जो बेय नय एक सरखा होय तो बे नय पडे ज नहि. माटे बेमां विषयभेदे विरुद्धता छे. जेने निश्चय स्वीकारे छे तेने व्यवहार स्वीकारतो नथी अने जेने व्यवहार स्वीकारे छे तेने निश्चय स्वीकारती नथी. ज्ञानी निश्चयनो आश्रय करी निश्चयने स्वीकारे छे अने व्यवहार छे एनो मात्र ज्ञाता-जाणनार रहे छे. व्यवहारनो ज्ञानी आश्रय करतो नथी, मात्र एने जाणे छे बस. तेथी तो कह्युं के- ज्ञानी एक ज्ञायकस्वभाववाळो छे; अर्थात् एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे ते ज्ञानी छे; अने ज्ञानीने व्यवहारना भावोनो-रागादि भावोनो निषेध छे अर्थात् आश्रय नथी. बापु! आ न्यायथी-लोजीकथी-युक्तिथी तो कहे छे. पण हवे बेसवुं, न बेसवुं एमां तो सौ स्वतंत्र छे. बीजाने कोई बीजो बेसाडी दे (समजावी दे) एम छे नहि. भगवान तीर्थंकरदेव पण बीजामां शुं करे?

आमां बे वात थई- १. टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे ते ज्ञानी छे-आ अस्ति थई. २. अने एवा ज्ञानीने रागनो निषेध छे, आश्रय नथी-एम नास्ति थई. ए तो पहेलां आवी गयुं ने? के जेटला संसारसंबंधी छे तेटला बंधननां निमित्त छे अने जेटला शरीरसंबंधी छे तेटला उपभोगनां निमित्त छे. हवे जेटला बंधननां निमित्त छे तेटला तो रागद्वेषमोहादिक छे अने जेटला उपभोगनां निमित्त छे तेटला सुखदुःखादिक छे. आ रागद्वेषमोहादिना कर्तापणाना अने सुखदुःखादिना भोक्तापणाना जेटला परिणाम छे ते बधायनो ज्ञानीने निषेध छे, ज्ञानी तेनो आश्रय करतो नथी. आवी वात छे.

अरे! अज्ञानीए कोई दि’ शास्त्र वांच्यांय नथी, सांभळ्‌यांय नथी. एने कयां फुरसद छे बिचाराने? ए तो बायडी-छोकरांमां ने भोगमां ने पैसा रळवामां गरी गयो छे. एने कहीए छीए के भाई! एमां कांई (माल) नथी. आ धूळनो (पैसादिनो) तो कोईने त्रणकाळमां भोग नथी. स्त्रीना शरीरनो भोग पण जीवने-अज्ञानीने पण-होतो नथी; केमके अरूपी भगवान आत्मा रूपीने अडेय नहि तो केम भोगवे? माटे जीव मकानने, स्त्रीना शरीरने के भोजनादिने कदीय भोगवे नहि. फक्त ते तरफनो ‘आ ठीक छे’-एम राग करीने अज्ञानी ते रागनो भोक्ता थाय छे, कर्ता पण थाय छे, परंतु ज्ञानी तेना कर्ता-भोक्ता नथी एम अहीं कहे छे.

अज्ञानी शेनो भोक्ता छे? अज्ञानी रागादिनो भोक्ता छे, पण परनो-शरीर, वाणी, मकान, धन, भोजनादिनो


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कदीय भोक्ता नथी. ते माने छे के हुं परने करुं छुं ने भोगवुं छुं तेथी ते तेवा रागनो कर्ता-भोक्ता थाय छे, पण परनो नहि केमके परने तो आत्मा अडतोय नथी. अहीं कहे छे-ज्ञानीने रागना कर्ता-भोक्तापणानो निषेध छे, अर्थात् ज्ञानी रागनोय कर्ता-भोक्ता छे नहि.

प्रश्नः– आ बंगलावाळाओने जेम पैसा थाय एम एनाथी मझा-आनंद आवे छे ने?

उत्तरः– भाई! ए बंगलावाळाओने कांई बंगला के पैसानो भोगवटो छे एम नथी केमके पैसा ने बंगला तो जड धूळ छे. बंगला बंगलाना (जड पुद्गलना) छे ने पैसा पण पैसाना (जड पुद्गलना) छे. पैसा थाय एमां आत्माने शुं आव्युं? आ बंगला ने पैसा ठीक छे एवा रागनो-कषायनो भोग तेने तो आवे छे अने तेमां हरख माने ए अज्ञान तेना पल्ले तो आवे छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– आप आ लाकडी फेरवो छो एटले पैसा वधे छे एम लोको कहे छे ते बराबर छे?

उत्तरः– धूळेय बराबर नथी सांभळने. आ लाकडी तो हाथमां परसेवो थाय तो शास्त्रने अडाय नहि ते कारणथी राखी छे. आ अत्यारे छे ए तो प्लास्टीकनी छे, पण पहेलां सुखडनी हती. ते सुखडनी हती तेने कोई लई गयुं; एने एम के एमां कंईक (चमत्कार) छे. पण बापु! आ तो धूळ छे. आ लाकडीमां शुं माल छे? माल तो बधो चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्मामां छे. अहीं तो एनी (चैतन्यनी वात करीए छीए ने तेने कोई एकचित्त थई सांभळे छे तो तेने ऊंचां पुण्य बंधाई जाय छे. बस, आ वात छे. बाकी लाकडी-बाकडीमां कांई (जादु) नथी. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आत्मा चैतन्यचमत्कारस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ अनंती शक्तिओनो भंडार प्रभु इश्वर छे. आत्मामां एक प्रभुत्वशक्ति छे. प्रभुत्वशक्ति वडे आत्मा पोताना अखंडित प्रताप वडे सदा स्वतंत्र शोभायमान छे. आ प्रभुत्वशक्ति-इश्वर शक्तिनुं एक एक गुणमां रूप छे. शुं कह्युं ए? जेम आत्मानो एक ज्ञानगुण छे तेम कर्तागुण छे. तो, कर्तागुण छे ते ज्ञानगुणमां नथी, पण ज्ञानमां कर्तागुणनुं रूप छे, केमके ज्ञानमां ज्ञाननुं करवापणुं स्वतंत्र पोताथी छे. झीणी वात छे भाई! आनो दीपचंदजी साधर्मीए चिद्दविलासमां विस्तारथी खुलासो कर्यो छे.

ज्ञायकभावस्वरूप अनंतगुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. आकाशना जेटला प्रदेश छे एनाथी अनंतगुणा आत्मामां गुण छे. अहाहा...! आकाश कोने कहीए? जेनो कयांय अंत नहि एवुं सर्वव्यापक! शुं कयांय एनो अंत छे? अनंत-अनंत-अनंत


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आकाश छे. तेमां एक परमाणु जेटली जगा रोके ते प्रदेश छे. आवा आकाशना अनंत- अनंत प्रदेश छे. अने एनाथी अनंतगुणा भगवान आत्माना गुण छे. ते एकेक गुणमां बीजा गुणनुं रूप छे. एक गुणमां बीजो गुण नथी, पण एकेक गुणमां बीजा गुणनुं रूप छे. ज्ञानगुणमां इश्वरशक्तिनुं रूप छे; अर्थात् ज्ञानगुण स्वयं पोताथी अखंड प्रतापवडे स्वतंत्र शोभायमान छे. तेवी रीते दर्शनगुणमां इश्वरशक्तिनुं रूप छे. दर्शनगुणमां इश्वरशक्ति नथी, पण इश्वरशक्तिनुं रूप छे. अहाहा...! आवो भगवान आत्मा अनंत महिमावंत चित्चमत्कार-स्वरूप महा पदार्थ छे. भाई! तने आ धूळनी-पैसानी ने बायडीना देहनी ने बंगलानी महिमा आडे तारी मोटपनी खबर नथी. ए बधी धूळमां तो कांई नथी पण जेना एकेक गुणमां इश्वरशक्तिनुं रूप छे एवो अखंड प्रताप जेनो छे एवो चैतन्यमहाप्रभु तुं इश्वर छो, परमेश्वर छो.

ज्ञानीने तो आ चैतन्यमहाप्रभु एक ज्ञायकभाव पोतानो छे. ‘एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवो ज्ञानी’-एम कह्युं ने? पण पुण्यवाळो के रागवाळो के पैसावाळो ज्ञानी एम न कह्युं? भाई! पुण्य, राग के पैसा छे कयां वस्तुमां? पैसा तो धूळ अजीव छे, तेनी जीवमां नास्ति छे; तथा पुण्य ने राग आस्रव छे, तेनी पण शुद्ध चैतन्यमां नास्ति छे. अहाहा...! आत्मद्रव्य एक ज्ञायकपणे अस्ति छे अने बीजा अनंतद्रव्यनी अने बीजा अनंत परभावनी तेमां नास्ति छे. आवा एक ज्ञायकभाववाळा ज्ञानीने, कहे छे, रागनो निषेध छे अर्थात् तेने रागनुं करवापणुंय नथी ने भोगववापणुंय नथी. एने तो मात्र ज्ञाताद्रष्टापणुं छे. धर्मी तो जाणवावाळो-ज्ञाताद्रष्टा छे. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

“करै करम सोई करतारा, जो जानै सो जाननहारा;
जो करता नहि जानै सोई, जानै सो करता नहि होई.”

जे राग करे ते कर्ता अज्ञानी छे अने जे जाणे ते ज्ञानी छे. जे करे ते ज्ञाता नहि अने जे जाणे ते कर्ता नहि. चाहे राग हो के शरीर हो, ज्ञानी तो एना जाणनार ज छे; ज्ञानी तेने व्यवहारे जाणे छे, निश्चयथी तो ते शुद्ध चैतन्यद्रव्यने जाणे छे, अनुभवे छे. आवुं लोकोने आकरुं लागे पण अनंत केवळीओए, गणधरोए अने मुनिवरोए कहेलो मार्ग आ ज छे.

आ अर्हंतादि पंच परमेष्ठी नथी? भगवान! ए पंच परमेष्ठीपद भगवान आत्मानां-तारां ज छे. तुं ज अर्हंतादिस्वरूप छो. ए पंचपरमेष्ठीपद आत्मानी पेदाश छे, ए कांई रागनी के शरीरनी-परनी पेदाश नथी; रागमां के परना स्वरूपमां आ पांच परमपद छे ज नहि.


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* गाथा २१७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे अध्यवसानना उदयो संसारसंबंधी छे अने बंधननां निमित्त छे तेओ तो राग, द्वेष, मोह इत्यादि छे तथा जे अध्यवसानना उदयो देहसंबंधी छे अने उपभोगनां निमित्त छे तेओ सुख, दुःख इत्यादि छे.’

शुं कीधुं? राग-द्वेष-मोहनुं करवुं ते कर्तापणुं छे अने ते बंधनुं कारण छे, संसारनुं कारण छे. राग चाहे पुण्यनो हो के पापनो, पण एमां करवापणुं छे ते मिथ्यात्वभाव छे अने ते बंधननुं कारण छे. आ शुं कीधुं? समजाणुं कांई...? भगवान आत्मामां संसारसंबंधीना कर्तापणाना जे अध्यवसान भाव थाय छे ते बंधनां कारण छे अने तेओ राग, द्वेष, मोह छे. तथा जे देहसंबंधी अध्यवसानना भाव छे, भोक्तापणाना भाव छे तेओ सुख, दुःख इत्यादि छे. आमां पहेलुं कर्तापणुं ने बीजुं भोक्तापणुं नाख्युं छे. हवे विशेष सिद्धांत कहे छे के-

‘ते बधाय (अध्यवसानना उदयो) नाना द्रव्योना स्वभाव छे.’ शुं कहे छे? के संसारसंबंधी मिथ्यात्व अने पुण्य-पापना भाव बंधनुं कारण छे अने भोगसंबंधी जे भोक्तापणाना भाव छे ते सुख-दुःख छे. ते बधाय नाना द्रव्योना स्वभाव छे अर्थात् तेओ एक शुद्ध चैतन्यद्रव्यना स्वभाव नथी. रागद्वेषमोहना भाव तथा सुखदुःखनी कल्पना-ए बधाय कर्मना संयोगना निमित्तथी उत्पन्न थयेला छे अने तेथी तेओ व्यभिचारी भाव छे. जेम मैथुनमां बेना संयोगथी भाव उत्पन्न थाय छे तेम विकारना-कर्तापणाना ने भोक्तापणाना भाव एक जीव अने बीजा कर्मना निमित्तथी उत्पन्न थाय छे. बीजाना संबंधथी उत्पन्न थयेला ते भाव व्यभिचारी भाव छे. गाथा २०३ मां तेमने व्यभिचारी भाव कह्या छे. कर्मना निमित्तना वशे जे भाव उत्पन्न थाय ते व्यभिचारी भाव छे, ज्यारे शुद्ध चैतन्यस्वरूपना-एक ज्ञायकस्वरूप प्रभु आत्माना वशे उत्पन्न थयेला निर्मळ परिणाम अव्यभिचारी मोक्षमार्गना परिणाम छे.

भाई! व्यवहाररत्नत्रयना भाव पण जो कर्ताबुद्धिथी छे तो ते बंधभाव छे. व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम शुभराग छे अने तेनुं कर्तापणुं ए संसारसंबंधी बंधनना भाव छे; ज्यारे त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावना आश्रये उत्पन्न थयेला शुद्ध रत्नत्रयना परिणाम एक द्रव्यस्वभाव होवाथी अव्यभिचारी भाव छे. ए तो पुण्य-पाप अधिकारमां कळश १०६-१०७मां आवी गयुं के ज्ञाननुं थवुं एक द्रव्यस्वभावे होवाथी शुद्ध छे, पवित्र छे, मोक्षनुं कारण छे, ज्यारे कर्म (राग)नुं थवुं अन्य द्रव्यना स्वभावे होवाथी मोक्षनुं कारण नथी, बंधनुं कारण छे. त्यां (१०६-१०७ कळशमां) वृत्तं....


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इत्यादि शब्दो छे तेनो आ भाव छे. आखा कळशो तो थोडा याद रहे छे? पण आ भाव छे के शुद्ध आनंदकंद एक ज्ञायकभाव-चिन्मात्रभावना वशथी-आश्रयथी-अवलंबनथी जे भाव उत्पन्न थाय छे ते भाव पवित्र अव्यभिचारी भाव छे अने ते मोक्षनुं कारण छे; ज्यारे कर्मना निमित्तने अर्थात् अनेक द्रव्यने वश थईने -ताबे थईने जे भाव उत्पन्न थाय छे ते व्यभिचारी भाव छे अने ते बंधनुं कारण छे.

भाई! आ तो सिद्धांत छे के-‘स्वाश्रितो निश्चयः, पराश्रितो व्यवहारः’ अहीं कहे छे-जेटला पराश्रित भाव छे ते बंधनुं कारण छे. निश्चय अने व्यवहार -ए बे नयना विषयने विरोध छे. ‘उभयनयविरोधध्वंसिनि’... एम कळश आवे छे ने? निश्चय अने व्यवहार एम बे नयना विषयो भिन्न भिन्न छे. निश्चयनयनो विषय पूर्णानंदनो नाथ प्रभु ज्ञायकस्वभावथी मंडित एक शुद्ध आत्मद्रव्य छे अने तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. ए तो ११ मी गाथामां आवी गयुं के-‘भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो’! भाई! चारे कोरथी जुओ तो पूर्वापर विरोध रहित सिद्धांत सिद्ध थाय छे. पराश्रित भाव, व्यवहारना भाव -चाहे कर्तासंबंधी हो के भोगसंबंधी हो -बंधनुं कारण छे. त्यां गाथामां न आव्युं के –‘सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स कामभोगबन्धकहा’–एम के काम नाम रागनुं करवुं ने भोग नाम रागनुं भोगववुं -एवी बंधनी वात तो अनंतवार सांभळी छे, परिचयमां आवी छे, अनुभवमां आवी छे. त्यां ‘बंध कहा’नुं वाच्य तो ‘बंधभाव’ छे. अहा! एणे स्वथी एकत्व ने रागथी भिन्न एवा भावने कदी सांभळ्‌यो नथी!

प्रश्नः– संभळाववावाळा मळ्‌या नहि ने? उत्तरः– भाई! ए तो पात्रता जागृत थई नहि, पोते दरकार करी नहि तो संभळाववावाळा मळ्‌या नहि एम कहे छे. भगवान तो त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमेश्वर साक्षात् विदेहमां हमणां पण बिराजे छे. पण शुं थाय? सांभळवानी लायकात नथी तो त्यां उपज्यो नहि, जन्म्यो नहि.

प्रश्नः– तो शुं काळलब्धि पाकी नहि? समाधानः– भाई! पुरुषार्थ करे तो काळलब्धि पाके छे के बीजी रीते पाके छे? ए तो एक भाई साथे’ ८३ नी सालमां एटले प० वर्ष पहेलां चर्चा थई हती. ते कहे- काळलब्धि पाके त्यारे थशे. त्यारे कह्युं के-काळलब्धि शुं चीज छे? जुओ, मोक्षमार्गप्रकाशकमां तो श्री टोडरमलजी आम कहे छे के-काळलब्धि ने भवितव्य कांई वस्तु नथी. जे समये पुरुषार्थ द्वारा जे पर्याय प्राप्त थई ते काळलब्धि छे; अने त्यारे जे थवा योग्य भाव हतो ते थयो ते भवितव्य छे. आ वात श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्गप्रकाशकमां कही छे. आ मोक्षमार्गप्रकाशक पहेलां’ ८२ मां एटले प१ वर्ष पहेलां वांचेलुं. जुओ, तेना नवमा अधिकारमां आ छेः-


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प्रश्नः– “मोक्षनो उपाय काळलब्धि आवतां भवितव्यानुसार बने छे के मोहादिकनो उपशमादि थतां बने छे, के पोताना पुरुषार्थथी उद्यम करतां बने छे? ते कहो.” ल्यो, आ प्रश्न के मोक्षनुं कारण काळलब्धि छे, भवितव्य छे, के कर्मना उपशम-क्षयोपशमादि छे? के पछी मोक्षनुं कारण पोताना पुरुषार्थपूर्वक बने छे? हवे विशेष पूछे छे-

“जो पहेलां बे कारणो मळतां बने छे तो तमे अमने उपदेश शा माटे आपो छो? तथा जो पुरुषार्थथी बने छे तो सर्व उपदेश सांभळे छे छतां तेमां कोई पुरुषार्थ करी शके छे तथा कोई नथी करी शकता तेनुं शुं कारण?”

कहे छे-जो काळलब्धि अने भवितव्यता-एम बे कारणोथी मोक्षनो उपाय बने छे तो उपदेश देवानी कयां जरूर छे? अने जो पुरुषार्थथी बने छे तो उपदेश सर्व सांभळे छे छतां सर्वने मोक्षनो उपाय केम बनतो नथी? मोक्षनो उपाय तो कोईकने ज बने छे. सर्वने केम बनतो नथी?

एनुं समाधान करतां कहे छे-पुरुषार्थथी ज मोक्षप्राप्ति छे.

पुरुषार्थथी ज मोक्षप्राप्ति

उत्तरः– “एक कार्य थवामां अनेक कारणो मळे छे. मोक्षनो उपाय बने छे त्यां तो पूर्वोक्त त्रणे कारणो मळे छे तथा नथी बनतो त्यां ए त्रणे कारणो नथी मळतां; पूर्वोक्त त्रण कारण कह्यां तेमां काळलब्धि अने भवितव्य (होनहार) तो कोई वस्तु ज नथी.” बहु आकरा शब्दो भाई! पण वात यथार्थ छे.

अमारे तो पहेलेथी ज चर्चा चाली आवे छे ने? ७० मां दीक्षित थया पछी ‘७१ थी चर्चा चाले छे. तेओ कहे-कर्मथी विकार थाय छे.’ त्यारे कह्युं के कर्मथी विकार थाय ए मान्यता साव जूठी छे. परद्रव्यथी पोतामां विकार थाय एम होई शके नहि, ए तो पोताना विकारना समये पोताना ऊंधा-उल्टा पुरुषार्थथी स्वकाळे विकार उत्पन्न थाय छे अने तेमां कर्म तो निमित्तमात्र छे, कर्ता नहि. निमित्त कांई कर्ता नथी. जो कर्म (निमित्त) कर्ता होय तो, ते निमित्त ज रहे नहि.

‘७१मां आ प्रश्न (कर्मनो प्रश्न) चाल्यो, ने’ ७२मां आ प्रश्न चाल्यो-शुं के केवळज्ञानीए दीठुं हशे तो पुरुषार्थ थशे-ल्यो, ‘७२मां आ प्रश्न चाल्यो, केटलां वर्ष थयां? एकसठ थयां. बहु चर्चा चाली. बीजा तो बिचारा जाडीबुद्धिवाळा ते कांई समजे नहि, पण अहीं तो अंदरना संस्कार हता ने? तो अंदरथी सहज आवतुं हतुं; तो कह्युं के- केवळीए दीठुं हशे तो पुरुषार्थ थशे-ए बराबर नथी. हा, सर्वज्ञे जेम दीठुं छे तेम थशे- ए तो यथार्थ छे, पण सर्वज्ञ भगवान के जेमना एक


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ज्ञानगुणनी परिपूर्ण दशामां-केवळज्ञानमां अनंता केवळी जणाय, त्रणकाळ-त्रणलोकना द्रव्य-गुण-पर्याय जणाय-आवा केवळज्ञानना सामर्थ्यनुं जेने श्रद्धान थाय तेने भव होई शके नहि, अहाहा...! परिपूर्ण दशा जे केवळज्ञान तेनुं अनंत सामर्थ्य जेनी द्रष्टिमां बेसी गयुं तेने भवभ्रमण रहे अने पुरुषार्थहीनता होय ते होई शके नहि. कह्युं के-सर्वज्ञ केवळीए जेम दीठुं छे तेम थशे-एम सर्वज्ञनी श्रद्धावाळाने भव होता ज नथी, ए तो पुरुषार्थना पंथे ज छे. ए तो पछी प्रवचनसारमांथी नीकळ्‌युं, पण ते दि’ कयां प्रवचनसार जोयुं’तुं? प्रवचनसार तो’ ७८नी सालमां जोयुं; पण एनो भाव ते दि’ हतो.

भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य प्रवचनसारनी गाथा ८० मां फरमावे छे के-

जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।।

अहाहा...! कहे छे-जे कोई अरिहंतना द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे छे ते ‘जाणदि अप्पाणं’ आत्माने जाणे छे अने ‘माहो खलु जादि तस्य लयं’ तेनो मोह नाश पामी जाय छे अर्थात् ते क्षायिक समकितने प्राप्त थाय छे. जुओ, आचार्यदेवे जोर तो एटलुं दीधुं छे के-ते अप्रतिहत भावने पामे छे-एम कहेवुं छे. ‘लयं’ शब्द छे ने? ते अप्रतिहत भावने सूचवे छे. श्री अमृतचंद्राचार्य प्रवचनसारनी ९२मी गाथामां कहे छे के- अमे आगमकौशल्य तथा स्वानुभवमंडित आत्मज्ञान वडे मिथ्यात्वने हणी नाख्युं छे; हवे ते फरीने अमने आवशे नहि.

प्रश्नः– पण भगवान! आप छद्मस्थ छो ने? अने पंचम आराना मुनि छो ने? (छतां आवी अप्रतिहत भावनी वात करो छो?)

समाधानः– भाई! अमे आ कोलकरार करीए छीए ने? के अमे पंचम आरामां स्वानुभव वडे जे मिथ्यात्वनो नाश कर्यो छे ते तेनुं वमन करी नाख्युं छे; जेथी हवे ते फरीने आवशे नहि. प्रवचनसारनी ८० मी गाथामां मोहना नाशनी-वमननी वात छे. अहाहा...! जेने अरिहंतनुं-केवळज्ञाननुं अंतरमां भान थयुं तेने केवळज्ञाननी प्राप्तिनुं बीज एवुं सम्यग्दर्शन उत्पन्न थाय छे.

प्रश्नः– शुं आ पंचम आरानी वात छे? उत्तरः– हा; पंचम आराना मुनिराज तो कहे छे; तो ए कोनी वात छे? भाई! आ पंचम आराना जीवो माटेनी वात छे.

मोक्षमार्ग प्रकाशकमां कहे छे-‘काळलब्धि अने भवितव्य तो कोई वस्तु ज नथी.’ तो शुं श्री टोडरमलजी केवळी थई गया छे? शुं तेमने केवळज्ञान थई गयुं छे?


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अरे भाई! केवळी तो हमणां नथी, पण समकिती तो छे ने? केवळज्ञाननुं बीज एवुं सम्यग्दर्शन तो छे ने? केवळज्ञाननुं यथार्थ श्रद्धान तो छे के नहि? छे; तो तेओ यथार्थ ज कहे छे. समकितमां शुं फरक छे? समकितमां-तिर्यंचना समकितमां ने सिद्धना समकितमां-कोई फेर नथी.

तो (मोक्षमार्ग प्रकाशकमां) कहे छे-“काळलब्धि अने भवितव्य तो कोई वस्तु ज नथी, जे काळमां कार्य बने ते ज काळलब्धि तथा जे कार्य थयुं ते ज भवितव्य. वळी कर्मना उपशमादिक छे ते तो पुद्गलनी शक्ति छे, तेनो कर्ता-हर्ता आत्मा नथी, तथा पुरुषार्थथी उद्यम करवामां आवे छे ते आत्मानुं कार्य छे माटे आत्माने पुरुषार्थपूर्वक उद्यम करवानो उपदेश आपीए छीए.” अहाहा...! पं. श्री टोडरमलजीए कांई काम कर्युं छे! अज्ञानीना वर्षोना प्रश्नोना खुलासा कर्या छे, तेथी तो तेओ ‘आचार्यकल्प’ कहेवाया छे. अहो! शब्दे शब्दे आखा शास्त्रनो सार (-माखण भर्यो छे!

जे समये कार्य थयुं ते काळलब्धि छे अने जे भाव थयो ते भवितव्यता छे. हवे विशेष कहे छे-

“हवे आ आत्मा जे कारणथी कार्यसिद्धि अवश्य थाय ते कारणरूप उद्यम करे त्यां तो अन्य कारणो अवश्य मळे ज अने कार्यनी सिद्धि पण अवश्य थाय ज; तथा जे कारणथी कार्यसिद्धि थाय अथवा न पण थाय ते कारणरूप उद्यम करे तो त्यां अन्य कारण मळे तो कार्यसिद्धि थाय, न मळे तो न थाय, हवे जिनमतमां जे मोक्षनो उपाय कह्यो छे तेनाथी तो मोक्ष अवश्य थाय ज.” ल्यो, आ संप्रदायमां मोटी चर्चा चालती हती तेनो खुलासो.

भाई! भगवाने दीठुं हशे ते दि’ थाशे एम विचारी पुरुषार्थहीन थवुं, प्रमादी रहेवुं ए तो अज्ञान छे. भगवाने दीठुं हशे ते दि’ थाशे, माटे आपणे अत्यारे पुरुषार्थ करी शकीए नहि-एम जो होय तो आ दीक्षाथी शुं काम छे? अरे भाई! ज्यारे पुरुषार्थ स्वभावसन्मुखनो थयो त्यारे काळलब्धि थई गई अने भाव पण सम्यग्दर्शननो थई गयो. भाई! आ तो मताग्रह-हठाग्रह छोडीने समजवा मागे तो बेसी जाय एवी वात छे; बाकी मताग्रहथी के वादविवादथी बेसे एवी वात नथी. सम्यग्ज्ञानदीपिकामां आवे छे के ‘सद्गुरु कहै सहजका धंधा वादविवाद करै सो अंधा.” ल्यो, आ तमारा बधा तो (मताग्रहना) पापना धंधा छे, ज्यारे आ तो सहजनो धंधो छे. भगवान आत्मा सहजानंदस्वरूप प्रभु सहज एक ज्ञायकस्वरूप छे, केमके ते अकृत्रिम छे अर्थात् कोईए एने कर्यो छे एम नथी. अहा! तेना तरफनो पुरुषार्थ करीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी रमणता करवी ते सहजनो धंधो छे. तथा


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जे वादविवाद करे, वितंडावाद करे ते अंध छे केमके तेने भगवान आत्मा देखातो नथी, अनुभवमां आवतो नथी. ‘खोजी जीवै, वादी मरै’ एम आवे छे ने? भाई! सत्ना शोधवावाळानुं जीवन रहे छे अने जे वादी-मताग्रही छे ते मरे छे अर्थात् संसारमां चारगतिमां रझळे छे, डूबी मरे छे.

अहीं कहे छे-‘ते बधाय (अध्यवसानो) नाना द्रव्योना स्वभाव छे; ज्ञानीनो तो एक ज्ञायकस्वभाव छे.’

जुओ, विकारना-विभावना परिणाम जीव ने कर्मना संबंधथी उत्पन्न थयेला छे, कर्मे उत्पन्न कर्या छे एम नहि, पण कर्मना निमित्तना वशथी उत्पन्न थया छे. तेथी तेओ नाना द्रव्योना स्वभाव छे. ज्यारे ज्ञानीनो तो एक ज्ञायकस्वभाव छे. संयोगवश उत्पन्न थयेला संयोगीभाव ज्ञानीना छे नहि; ज्ञानी तो तेनो मात्र जाणवावाळो छे. व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण संयोगीभाव छे, ज्ञानी तो तेनो पण जाणवावाळो छे, तेनो कर्ता नथी, वा तेनो स्वामी नथी; केमके ज्ञानी तो एक ज्ञायकस्वभाव छे. चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टि एक ज्ञायकस्वभाव छे. अहा! भाषा तो सादी छे, पण भाव सूक्ष्म छे. आ तो त्रणलोकना नाथ जिनेश्वर परमेश्वरनो मार्ग बापा! अहा! अलौकिक चीज छे प्रभु!

अहाहा...! ‘ज्ञानीनो तो एक ज्ञायकस्वभाव छे. माटे ज्ञानीने तेमनो (विभावोनो) निषेध छे.’ आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग के जे बे द्रव्योना संबंधथी उत्पन्न थवावाळो छे तेनो ज्ञानीने निषेध छे. टीकामां पण ए आव्युं हतुं के ज्ञानीने तेमनो निषेध छे. एटले शुं? के पुरुषार्थनी कमजोरीना कारणे ते उत्पन्न थाय छे पण ते हुं नथी, ते मारी चीज नथी-एम ज्ञानीने तेनो निषेध छे. हुं तो एक ज्ञायकस्वभाव ज छुं, अने कर्मना संबंधथी-वशथी उत्पन्न थयेलो आ राग मारी चीज नथी एम ज्ञानीने तेनो निषेध छे. २७२मी गाथामां आवे छे ने के-

“व्यवहारनय ए रीत जाण निषिद्ध निश्चयनय थकी;
निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी.”

जुओ, आमां पण व्यवहारनयनो निषेध आव्यो. निश्चयनुं उपादेयपणुं कह्युं ने व्यवहारनो निषेध कर्यो. एटले शुं? के जेणे निश्चय शुद्ध आत्मद्रव्यना लक्षे निश्चयरत्नत्रय प्रगट कर्यां तेने व्यवहारनो निषेध छे अर्थात् तेने व्यवहाररत्नत्रयनो राग मारो छे वा ते मारुं कर्तव्य छे एम छे नहि.

व्यवहारनय ज्ञानीने छे नहि एम नहि. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि व्यवहारनय ज्ञानीने छे खरो, पण द्रष्टिमां ज्ञानीने तेनो निषेध छे केमके ज्ञानीने तो एक ज्ञायकस्वभाव ज पोतानो छे, आवी वात छे.


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हवे कहे छे-‘तेथी ज्ञानीने तेमना प्रत्ये राग-प्रीति नथी.’ आ देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाना रागमां के पंचमहाव्रतना रागमां के शास्त्र भणवाना विकल्पमां ज्ञानीने राग-प्रीति नथी. शुं कह्युं? व्यवहाररत्नत्रय नथी एम नहि, पण व्यवहाररत्नत्रय प्रत्ये राग के प्रीति नथी. भाई! ज्यां पूर्ण वीतरागता न होय त्यां लगी ज्ञानीने व्यवहारनय होय छे, मुनिराजने के जेमने अंतरंगमां प्रचुर आनंदनुं स्वसंवेदन प्रगट छे तेमने पण प्रमत्तभाव छे, अठ्ठावीस मूलगुण आदिना विकल्प छे, पण द्रष्टिमां ते सर्वनो निषेध छे, अर्थात् तेनाथी मने लाभ छे अने ते मारुं कर्तव्य छे एम तेमने नथी. पोताना एक ज्ञायकस्वभाव सिवाय बीजा कोई पण संयोगीभावमां ज्ञानीने स्वामीपणुं होतुं नथी. आवी वात लोकोने आकरी पडे छे! पण शुं थाय?

अज्ञानीने तो एम सिद्ध करवुं छे के-व्यवहाररत्नत्रयथी-निश्चय थाय छे अने निमित्तथी उपादानमां कांईक (विलक्षणता) थाय छे. परंतु भाई! निमित्त छे ते परचीज छे, अने परथी परचीजमां कांईक थाय एवुं कयारेय बने खरुं? कयारेय न बने. एक द्रव्यनी पर्याय बीजा द्रव्यनी पर्यायमां शुं करे? कांई न करे; जो करे तो बे द्रव्य एक थई जाय, बे रहे नहि. एवी रीते व्यवहार पण निश्चयमां निमित्त छे. निमित्त जेम कर्ता नथी, उपस्थितिमात्र छे तेम व्यवहार पण निश्चयनो कर्ता नथी, निमित्तमात्र छे, सहचरमात्र छे. आवुं छे!

अहाहा...! ज्ञानीने राग प्रत्ये राग-प्रीति नथी. अहाहा...! एने तो निज निर्मळानंदना नाथनी रुचि-प्रीति थई छे ने? तो स्वभावनी रुचि थतां रागनी रुचिनो अभाव थई जाय छे. राग नथी होतो एम नहि, पण रागनी रुचिनो ज्ञानीने अभाव होय छे. हवे विशेष कहे छे के-

‘परद्रव्य, परभाव संसारमां भ्रमणनां कारण छे; तेमना प्रत्ये प्रीति करे तो ज्ञानी शानो?’

जोयुं? परद्रव्य छे ते रागनुं -विभावनुं निमित्त छे अने परभाव छे ते राग- विभाव छे. अहीं ते बन्नेने संसार परिभ्रमणनां कारण कह्यां छे केमके बन्ने प्रत्ये जे प्रीतिनो भाव छे ते मिथ्यात्वभाव छे. ज्ञानीने परद्रव्य ने परभाव बन्ने प्रत्ये प्रीति होती नथी. तेमना प्रत्ये प्रीति करे तो ज्ञानी शानो? अर्थात् तेमना प्रत्ये प्रीति करे ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे.

श्री पंचास्तिकायमां (गाथा १३६ मां) प्रशस्त रागना स्वरूपनुं कथन कर्युं छे. त्यां अप्रशस्त रागनो निषेध करनार देव-गुरु-धर्म प्रत्ये भक्तिनो जे अनुराग छे तेने प्रशस्त राग कह्यो छे. देव-गुरु-धर्म ए प्रशस्त विषयो छे ने? एटले तेमना प्रत्ये भक्ति ने अनुगमनना रागने प्रशस्त राग कह्यो छे. पण ए तो अस्थिरतानी अपेक्षाए


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वात छे. ज्ञानीने एवो अस्थिरतानो राग आवे छे पण तेने अस्थिरतानी रुचि के प्रीति होतां नथी, प्रशस्त रागनी पण ज्ञानीने रुचि होती नथी. ज्ञानीने तो एक ज्ञायकस्वभाव ज आदरणीय छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! कहे छे-परद्रव्य ने परभाव संसार परिभ्रमणनां कारण छे; तेमना प्रत्ये प्रीति करे तो ज्ञानी शानो? भाई! अरिहंतादि भगवान प्रत्ये पण प्रीति करे तो ते राग छे अने राग प्रत्ये प्रीति करे तो ते मिथ्यात्व छे. ए ज अहीं आव्युं ने के-‘परद्रव्य, परभाव संसारमां भ्रमणनां कारण छे.’ अहा! जुओने, पंडित श्री जयचंदजीए केवो सरस भावार्थ कर्यो छे!

तो ज्ञानीने पण अरहंतादिमां भक्ति तो होय छे? ते होय छे ने; तेनी कोण ना पाडे छे? पण तेने ते रागनो राग नथी वा ते राग भलो छे ने करवा योग्य कर्तव्य छे एम ज्ञानी मानता नथी. अहाहा...! सहजात्मस्वरूप सहजानंद प्रभु आत्मानो जेने प्रेम थयो तेने राग प्रत्ये प्रेम नथी, राग मारो छे, पर (अरहंतादि) मारा छे एम ममत्व नथी. आवी वात छे.

तो कहे छे ने के-धर्मीने स्त्री-कुटुंब-परिवार प्रत्ये राग होय छे तेथी अधिक राग देव-गुरु-धर्म प्रत्ये ने साधर्मी प्रत्ये होय छे?

भाई! स्त्री-कुटुंबादि प्रत्येना राग करता देव-गुरु-धर्म प्रत्येनो राग जुदी जातनो होय छे. जेने अंतरमां शुद्ध एक ज्ञायकभावनी रुचि जाग्रत थई छे तेना रागनी पण दिशा बदलाई जाय छे, तेने देव-गुरु-धर्म प्रत्येना प्रशस्त रागनी ज अधिकता होय छे. जो विशेष राग देव-गुरु-धर्म प्रति न होय अने कुटुंब-परिवार आदि अप्रशस्त विषयो प्रत्ये अधिक राग होय तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. तो ज्ञानीने देव-गुरु-धर्म प्रति विशेष राग तो होय छे पण तेने ते रागनो राग होतो नथी; आ देव-गुरु आदि मारा छे एवी मूर्च्छानो भाव तेनो होतो नथी. भाई! जेवो कुटुंबादि प्रत्ये राग छे तेथी विशेष देव-गुरु आदि पूजनीक पुरुषो प्रति राग न होय तो ते मिथ्याद्रष्टि छे अने देव-गुरु प्रत्ये तेओ मारा छे एवो ममत्वनो राग होय तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई...? अहीं आ ज कहे छे के-परद्रव्य ने परभाव एटले के विकारी शुभाशुभभाव संसारमां भ्रमणनां कारण छे अने जो तेमना प्रत्ये-भ्रमणना कारण प्रत्ये -प्रीति होय तो ज्ञानी केवो?

तो अनुभव प्रकाशमां आवे छे के-“जेम संध्यानो लाल सूर्य अस्ततानुं कारण छे तथा प्रभातनी संध्यानी लालाश सूर्योदयने करे छे, तेम विविध परमगुरु (पंच परमेष्ठी) विना शरीरादि-राग केवळज्ञाननी अस्ततानुं कारण छे (अने) पंच परम-


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गुरुनो राग केवळज्ञानना उदयनुं कारण छे; एवो पंच परमगुरु (प्रत्येनो) राग छे.” आ केवी रीते छे?

भाई! खरेखरे तो सवारनी संध्यामां रात (लालाश) छे, पण ए तो रात पछी सूर्य ऊगे छे ते कारणे प्रभातनी संध्यानी लालश सूर्योदयने करे छे एम कह्युं छे; बाकी रातने कारणे सूर्योदय थाय छे एम नथी. तेम देव-शास्त्र-गुरु प्रत्येनो राग ज्ञानीने होय छे. ते छे तो राग ज; पण तेनो व्यय थई वीतरागता ने केवळज्ञान उपजे छे तो ते देव- गुरु-शास्त्रनो राग केवळज्ञाननो उदय करे छे एम उपचारथी कह्युं छे. पण त्यां रागने कारणे वीतरागता ने केवळज्ञान थाय छे एम नथी. भाई! वास्तवमां ज्ञानीने तो रागनो निषेध ज छे अने रागनो परिपूर्ण निषेध करीने ते मुक्तिने प्राप्त थशे. आवो ज मारग छे बापु! अहा! जे परिभ्रमणनुं कारण छे तेना प्रत्ये ज्ञानीने प्रीति केवी? अने जो प्रीति होय तो ज्ञानी केवो? आवी वात छे.

*

हवे आ अर्थना कळशरूपे तथा आगळना कथननी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः-

* कळश १४८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इह अकषायितवस्त्रे’ जेम लोधर, फटकडी वगेरेथी जे कषायित करवामां न आव्युं होय एवा वस्त्रमां ‘रङगयुक्तिः’ रंगनो संयोग ‘अस्वीकृता’ वस्त्र वडे अंगीकार नहि करायो थको ‘बहिः एव हि लुठति’ बहार ज लोटे छे-अंदर प्रवेश करतो नथी...

शुं कहे छे? के वस्त्रनी अंदर प्रवेश नथी करतो. कोण? के रंग. केवा वस्त्रमां? तो कहे छे अकषाय वस्त्रमां. अकषाय वस्त्र एटले शुं? के जेने लोधर ने फटकडीनो ओप चढाव्यो नथी एवुं वस्त्र. शुं कह्युं? के जे वस्त्र पर लोधर ने फटकडीनो ओप चढयो नथी ते वस्त्र रंगने ग्रहण करतुं नथी; तेने रंग चढतो नथी. आ तो द्रष्टांत छे.

हवे सिद्धांत कहे छे-‘ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न एति’ तेम ज्ञानी रागरूपी रसथी रहित होवाथी तेने कर्म परिग्रहपणाने धारतुं नथी.

जेम अकषायित वस्त्र रंग ग्रहण करतुं नथी तेम रागरसथी रहित ज्ञानीने कर्म परिग्रहपणाने पामतुं नथी, अर्थात् ज्ञानी रागने ग्रहण करतो नथी, रागने पोताना स्वरूपभूत मानतो नथी, अहाहा...! पोते रागी थतो नथी. तो रागनुं शुं थाय छे? के राग बहार भिन्न ज रहे छे.

‘रागरसरिक्ततया’–एम कह्युं ने? मतलब के ज्ञानी राग-रसथी रिक्त-खाली छे. अहाहा...! सहजानंद चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना प्रेममां रागनो प्रेम ज्ञानीने


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छूटी गयो छे. राग छूटी गयो छे एम नहि, पण रागनो रस-प्रेम छूटी गयो छे. अहाहा...! अबंधस्वभावी भगवान आत्माना आनंदरसनी रुचिमां ज्ञानीने बंधभाव जे राग तेनो रस ऊडी गयो छे. माटे तेने कर्म नाम पुण्य-पाप आदि क्रिया परिग्रहपणाने प्राप्त थती नथी; अर्थात् ते क्रिया पोतानी छे एम ज्ञानी स्वीकारतो नथी, ग्रहतो नथी, कर्म शब्दे अहीं बधी क्रियाओनी वात छे.

जेम लोधर ने फटकडीनो ओप चढया विनाना वस्त्रमां रंग पेसतो नथी तेम कर्मना निमित्तथी उत्पन्न थयेली पुण्य-पापनी क्रियानो रंग ज्ञानीमां पेसतो नथी केमके ज्ञानी रागरसथी रहित छे. आ कारणे क्रियानुं परिग्रहपणुं तेने छे नहि; क्रिया मारी छे एम पकड एने छे नहि. कळशटीकामां पण कर्म एटले-‘जेटली विषयसामग्री भोगरूप क्रिया’-एम क्रिया अर्थ लीधो छे. कर्मनो अर्थ शुं? कळशटीकामां कह्युं छे के-कर्म एटले विषयसामग्री भोगरूप क्रिया ते सम्यग्द्रष्टि जीवने ममतारूप स्वीकारपणानो निश्चयथी प्राप्त थती नथी. ल्यो, राजमलजीए कर्मनो अर्थ आ कर्यो के-सामग्री अने रागादि- भोगरूप क्रिया.

शुं कह्युं? के जेम वस्त्र लोधर ने फटकडीथी ओपित थयुं न होय तो ते रंगने ग्रहण करतुं नथी तेम ज्ञानी रागरसथी रहित छे तेथी तेने रागनी क्रियानो रंग लागतो नथी अर्थात् रागनी क्रिया तेने परिग्रहभावने पामती नथी. दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि क्रिया ज्ञानीने होय छे पण तेमां पोतापणुं नथी तेथी ते परिग्रहपणाने धारती नथी. पूर्ण वीतराग न थाय त्यांसुधी ज्ञानीने यथासंभव राग आवे छे पण ते हेयबुद्धिए आवे छे, रसबुद्धिए नहि. अहाहा...! ज्ञानीने क्रियाथी एकत्व नथी. ल्यो, आवी वात हवे शुभरागना रसियाओने कठण पडे छे, पण शुं थाय? स्वरूप ज आवुं छे.

ज्ञानीने रागरूप रस नथी. एटले के राग नथी एम नहि. राग न होय तो पूरण वीतराग थई जाय. (परंतु एम नथी). एने रागनो रस नथी एटले रागनी रुचि नथी, रागमां पोतापणुं नथी. अहा! छट्ठे गुणस्थाने मुनिराजने प्रचुर आनंदनुं वेदन होय छे, तोपण पंचमहाव्रतादिना विकल्प तो होय छे, तद्न राग नथी एम नथी; पण रागनो राग नथी, राग भलो-हितकारी छे एम नथी; अथवा रागनो आश्रय के आलंबन नथी. अहा! ज्ञानीनो आश्रय-आलंबन तो एक ज्ञायकस्वभाव छे. ज्ञानीने तो द्रव्यद्रष्टि मुख्य छे; तेने द्रव्यद्रष्टि मुख्य छे ते कोई काळे गौण थई जाय ने रागद्रष्टि मुख्य थई जाय एम कयारेय थतुं नथी.

ज्ञानीने एक ज्ञायकभावनो रस छे, शुद्ध चैतन्यनो रस छे; तेथी रागनो रस तेने छे नहि. राग नथी एम नहि, राग तो छे; मंदिर बनाववुं, प्रतिष्ठा कराववी,