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हुं खाउं’ एवी पहेलां जे इच्छा हती ते रही नहि केमके ते वखते तो नवी बीजी इच्छा थई जाय छे. आम इच्छानो थंभाव ज नथी, ते क्षणे क्षणे नाश पामी जाय छे त्यां वेदकभाव शुं वेदे? बदलाती-बदलाती वांछाना प्रसंगमां वेदकभाव कोने वेदे? अहो! आ समयसारमां तो गजब वात छे! कहे छे-धार्युं तो वेदातुं ज नथी तेथी ज्ञानीने विभावभावनुं इच्छवापणुं नथी.
हवे कहे छे-‘जो एम कहेवामां आवे के...’ जोयुं? आ सामावाळानी दलील छे ते कहे छे-के ‘जो एम कहेवामां आवे के कांक्षमाण वेद्यभावनी पछी उत्पन्न थता बीजा वेद्यभावने वेदे छे, तो (त्यां एम छे के) ते बीजो वेद्यभाव उत्पन्न थया पहेलां ज ते वेदकभाव नाश पामी जाय छे; पछी ते बीजा वेद्यभावने कोण वेदे?’
जुओ, शुं कहे छे? के जे इच्छा करी हती के मारे आ पदार्थने आ रीते भोगववो ते इच्छा भोगववाना काळे तो चाली गई छे तेथी ते इच्छा तो वेदाई नहि. तो कोई कहे छे के बीजी इच्छा थाय छे तेने वेदे, बीजा वेद्यभावने वेदे. पण कहे छे-भाई! एम बनवुं शकय नथी. केम? केमके बीजा वेद्यभावने वेदे ते पहेलां ज वेदकभावनो काळ- भोगवनारा भावनो काळ चाल्यो जाय छे. जुओ, ए ज कहे छे के-‘तो (त्यां एम छे के) ते बीजो वेद्यभाव उत्पन्न थया पहेलां ज ते वेदकभाव नाश पामी जाय छे.’ अहाहा...! बीजी इच्छा थई ते पहेलां ज जे वेदकनो-अनुभववानो-भोगववानो काळ हतो ते काळ तो चाल्यो जाय छे. तो पछी ते बीजी इच्छाने कोण वेदे?
जुओ, पहेलां एम कह्युं के-भोगववानी इच्छानो काळ थाय छे त्यारे वेदकभावनो-भोगवनारा भावनो काळ होतो नथी अने वेदकभाव थाय छे त्यारे भोगववानी इच्छानो काळ चाल्यो जाय छे. हवे, बीजी इच्छा (वेद्यभाव) करे त्यारे थाय छे, परंतु ज्यारे बीजी इच्छा थाय छे त्यारे भोगववानो भाव-वेदकभाव-तो छे नहि, केमके बीजी इच्छा उत्पन्न थाय ते पहेलां ज वेदकभाव-भोगववानो भाव नाश पामी जाय छे. हवे आम छे त्यां बीजी इच्छाने-बीजा वेद्यभावने कोण वेदे? बीजी इच्छा पण वेदाया विना निष्फळ ज वही जाय छे. माटे, कहे छे-जेने अंतरमां आनंदनी अनुभूति छे, स्वभावनुं जेने सहज वेद्य-वेदकपणुं प्रगट छे तेने विभावना वेद्य-वेदकभावनी इच्छा होती नथी. अहा! आवी बहु सूक्ष्म वात भाई! सूक्ष्म पडे पण सत्यार्थ छे प्रभु!
भाई! सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कोई अलौकिक चीज छे! तेना विना अज्ञानी जेटलां व्रत ने तप करे ते बधांय बाळव्रतने बाळतप छे; केमके त्यां जेमनो परस्पर मेळ खातो नथी एवा विभावभावो-वेद्य वेदकभावो ऊभा छे. ज्यारे ज्ञानी तो तेमने निरर्थक जाणी वेद्य-वेदकभावोनी भावना ज करतो नथी एम अहीं सिद्ध करे छे.
अहाहा...! कांक्षमाण (वांछाना भाव) वखते जेने वेदवानी इच्छा थई छे ते
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वस्तु नथी; अने ज्यारे वस्तु आवी-वेदकभावनो काळ आव्यो त्यारे वेदवानी इच्छा नथी, वेदवानी इच्छा चाली गई छे. पछी वेदकभाव-वेदनारो भाव कोने वेदे?
त्यारे कहे छे-बीजा वेद्यभावने वेदे; बीजी जे इच्छा थई तेने वेदे. तो कहे छे-ए संभवित नथी केमके बीजो वेद्यभाव आवे त्यारे ते वेदकभाव- भोगवनारो भाव हतो तेनो काळ चाल्यो गयो होय छे. तेथी बीजा वेद्यभावने-बीजी इच्छाने कोण वेदे? माटे, अज्ञानीनी इच्छा निरर्थक ज छे एम सिद्ध थाय छे. अहा! आवी वात वीतरागना शासन सिवाय बीजे कयांय छे नहि. जुओने! केटली छणावट करी छे?
हवे कहे छे-‘जो एम कहेवामां आवे के वेदकभावनी पछी उत्पन्न थतो बीजो वेदकभाव तेने वेदे छे, तो (त्यां एम छे के) ते बीजो वेदकभाव उत्पन्न थया पहेलां ज ते वेद्यभाव विणसी जाय छे; पछी ते बीजो वेदकभाव शुं वेदे?’
शुं कह्युं? के ‘आ वस्तुने हुं वेदुं’-एवी वेद्यनी बीजी इच्छा थई त्यारे पहेलो वेदकभाव-भोगववानो भाव नथी, नाश पामी गयो होय छे; अने ज्यारे बीजो वेदकभाव आवे छे त्यारे बीजा वेद्यभावनो-वांछाना भावनो नाश थई जाय छे अर्थात् जे बीजी इच्छा थई हती ते इच्छा रहेती नथी. आम कयांय मेळ खातो नथी. भाई! आ तो धीमे धीमे कहेवाय छे; समजाय एटलुं समजवुं बापु! अहाहा...! जैन परमेश्वर भगवान जिनेश्वरदेवे जे धर्मसभामां कह्युं ते स्वरूप आ छे अने ते संतो जगत पासे जाहेर करे छे. भाई! तारा हितनो पंथ आ छे बापा!
कहे छे-‘ते बीजो वेदकभाव उत्पन्न थया पहेलां ज ते वेद्यभाव विणसी जाय छे, पछी ते बीजो वेदकभाव शुं वेदे?’ एटले के जे वखते बीजी इच्छा थई त्यारे जेने वेदवुं छे तेनो (पहेलो) वेदकभाव नथी, भोगववाना भावनो काळ नथी; अने ज्यारे बीजो वेदकभाव आव्यो त्यारे बीजो वेद्यभाव-वांछा करनारो भाव रहेतो नथी, विणसी गयो होय छे. आम छे त्यां बीजो वेदकभाव कोने वेदे? आ प्रमाणे इच्छेलुं वेदातुं ज नथी एम जाणीने जेने नित्यनी द्रष्टि थई छे एवो ज्ञानी अनित्य एवा विभावभावनी इच्छा करतो नथी.
प्रश्नः– पण ज्ञानी इच्छा करतो होय तेम देखाय तो छे? उत्तरः– भाई! ए तो थई जाय छे, करतो नथी. ज्ञानीने इच्छानी इच्छा होती नथी. ए तो जे इच्छा थाय छे तेनो जाणनार ज रहे छे.
ए ज कहे छे-के ‘आ रीते कांक्षमाण भावना वेदननी अनवस्था छे. ते अनवस्थाने जाणतो ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी.’
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जोयुं? कांक्षमाण भावना वेदननी अर्थात् इच्छायेला भावना वेदननी अनवस्था छे, अर्थात् इच्छायेला भावना वेदननो मेळ ज खातो नथी. अहो! आचार्यदेवनी समजाववानी कोई अद्भुत शैली छे! कहे छे-इच्छायेला भावने वेदवानो कोई मेळ ज खातो नथी. आवुं जाणतो ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी. भाषा जोई? ‘ज्ञानी न किञ्चिदेव कांक्षति’–ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी. ‘एव’ पद छे ने! मतलब के निश्चयथी ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी. एटले के आ लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र, परिवार, आबरू, राजपद के देवपद इत्यादि मने हो-एम कांई पण वांछतो नथी. भाई! आवुं सूक्ष्म छे, छतां समजाय एवुं छे हों. हवे भावार्थ कहेशे.
‘वेदकभाव अने वेद्यभावने काळभेद छे. ज्यारे वेदकभाव होय छे त्यारे वेद्यभाव होतो नथी अने ज्यारे वेद्यभाव होय छे त्यारे वेदकभाव होतो नथी.’
जुओ, आमां पाछुं वेदक पहेलां ने वेद्यभाव पछी-एम लीधुं. ए तो मूळ पाठ छे ने? एनुं अनुसरण कर्युं छे. ज्यारे टीकामां वेद्य अने वेदक-एम लीधुं छे कारण के पहेलां वेद्य अने पछी वेदकभाव होय छे. आनो खुलासो पहेलां थई गयो छे.
अहीं कहे छे-वेदकभाव अने वेद्यभावने काळभेद छे. अर्थात् अनुभववाना काळनो अने इच्छाना काळनो परस्पर भेद छे.
पण आ तो बहुं झीणुं छे. भाई! आ तो हळवे हळवे कहेवायुं छे. समजाय एटलुं समजवुं बापु! झीणुं पडे तो उपयोग झीणो करीने विचारवुं. अरे! एणे कदी सांभळ्युंय नथी पछी नित्यस्वभावमां ते कयांथी जाय? अहा! एने कांक्षा नाम इच्छानो नाश केम थाय? करवानुं तो आ समजवानुं छे प्रभु! पण अरे! अनंतकाळमां ते आ समज्यो नथी! मोक्षमार्गप्रकाशकमां आवे छे के-निश्चयने (शुद्ध चैतन्यस्वरूपने) समजवानो काळ आव्यो त्यारे निश्चयने (शुद्ध आत्माने) मान्यो नहि अने तेनो व्यवहारमां-रागमां काळ वही गयो. अहा! रागनी मंदताना प्रयत्न वडे व्यवहारमां -रागमां एनो काळ वही गयो. अहा! रागनी मंदताना-दया, दान, व्रत आदिना विकल्पनी आडे एने निश्चय (शुद्ध चैतन्यस्वरूप) समजवानो काळ आव्यो ज नहि! खूब गंभीर वात छे भाई!
पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीना समयमां एक ब्र. रायमलजी थई गया छे, तेमणे लख्युं छे के-देव-गुरु-शास्त्र, दया, दान, व्रत, तप, शील, संयम, पूजा, भक्ति इत्यादि विषे जे परिणाम छे ते पर तरफना वलणवाळा मंद कषायना परिणाम छे. तथा छ द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ, गुणस्थान-मार्गणास्थान इत्यादि विशे चिंतवन
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करे ते एथीय विशेष मंदकषायना परिणाम छे. वळी द्रव्य-गुण-पर्यायना विचारमां उपयोगने लगावे तो अधिक-अधिक मंदकषायना परम शुक्ललेश्याना परिणाम थाय. मंदकषायनी अपेक्षाए सूक्ष्म लेतां लेतां ठेठ ‘हुं एक ज्ञायकभाव छुं’-एवो सूक्ष्म विकल्प पण मंदकषायना परिणाम छे, पण ते अकषायभाव नथी. भाई! कषायभावना आश्रये अकषायभाव-वीतरागभाव न प्रगटे. ज्यां सुधी अंदर ‘हुं एक ज्ञायकभाव छुं’ एवो पण विकल्प छे त्यां सुधी तेने स्वनो आश्रय नथी अने स्वना आश्रय विना, स्वमां अभेदरूप परिणमन थया विना वीतरागता के सम्यग्दर्शन थतुं नथी. पंडित श्री टोडरमलजीकृत मोक्षमार्गप्रकाशकमां पण आनो खुलासो छे. अहा! छतां आ अज्ञानीओ केम मानता नहि होय? अरे प्रभु! तुं शुं करे छे आ? भाई! तारी द्रष्टिने मेळ न खाय माटे सत्यने उडावी दे छे? भाई! एनुं फळ बहु आकरुं छे हों. व्यवहारना-रागना पक्षने लीधे अनंतकाळ प्रभु! तारो संसारनी रझळपट्टीमां-दुःखमां गयो छे.
अहीं भावार्थमां श्री जयचंदजी कहे छे-‘ज्यारे वेदकभाव होय छे त्यारे वेद्यभाव होतो नथी अने ज्यारे वेद्यभाव होय छे त्यारे वेदकभाव होतो नथी. ज्यारे वेदकभाव आवे छे त्यारे वेद्यभाव विणसी गयो होय छे; पछी वेदकभाव कोने वेदे? अने ज्यारे वेद्यभाव आवे छे त्यारे वेदकभाव विणसी गयो होय छे; पछी वेदकभाव विना वेद्यने कोण वेदे? माटे हवे कहे छे-‘आवी अव्यवस्था जाणीने...’ जोयुं? ज्ञानी पोते जाणनार ज रहे छे. आ सिद्धांत छे के ज्ञानी जाणनार ज रहे छे. कहे छे-‘आवी अव्यवस्था जाणीने ज्ञानी पोते जाणनार ज रहे छे, वांछा करतो नथी.’ आवी वात छे.
आनी स्पष्टता तो थई गई छे. अहीं शुं कहे छे? के वेदकभाव एटले वेदवानो- भोगववानो भाव. पर पदार्थना लक्षथी वेदवानो भाव ते वेदकभाव छे, अने वेद्य एटले वांछा करनारो भाव, अर्थात् आने हुं भोगवुं एवी इच्छा करनारो भाव ते वेद्यभाव छे. अहीं कहे छे-ते बन्नेने काळभेद छे. बन्नेनो मेळ खातो ज नथी. कोई पण सामग्रीनी- स्त्री, पैसा, मकान आदिनी वांछा थई ते वेद्यभाव. ते वेद्यभावना काळे ते वस्तु होती नथी. वस्तु जो होय तो वांछा शुं काम थाय? एटले इच्छाना काळे भोगववानो काळ होतो नथी. अने ज्यारे वस्तु आवे अने भोगववानो काळ होय त्यारे इच्छा चाली गई होय छे. पछी वेदकभाव कोने वेदे? आ प्रमाणे वेद्यभावना वेदननी अनवस्था छे, माटे ज्ञानी जाणनार ज रहे छे पण वांछा करतो नथी.
शुं कहे छे? के ज्ञानीने वेद्य-वेदकभाव होतो नथी. केम? केमके जेनी द्रष्टि ध्रुव स्वभाव एक चैतन्यभाव उपर पडी छे ते अत्यंत नाशवान एवा विकारभावनी वांछा अने तेना वेदननी वांछा केम करे? अहाहा...! कोई सम्यग्द्रष्टिने ९६ हजार स्त्री होय
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छतांय कहे छे के-तेने विभावभावनो वेद्य-वेदकभाव नथी. धर्मीने तो स्वभावभावनी द्रष्टि होवाथी स्वभावनी एकाग्रतानुं वेद्य-वेदकपणुं होय छे. अहाहा...! वेदवायोग्य पोते अने वेदवानो भाव पण पोते. अहीं जे वेद्य-वेदकनी वात छे ए तो विभावना वेद्य- वेदकनी वात छे. अहाहा...! स्वरूपनो-नित्यानंदस्वरूप भगवान आत्मानो जेने स्पर्श थयो ते...
प्रश्नः– स्पर्श थयो एटले शुं? उत्तरः– स्पर्श थयो एटले भगवान आत्मा प्रति झुकाव थयो. खरेखर पर्याय कांई द्रव्यने स्पर्शती नथी. पर्याय तो पर्यायरूप रहीने द्रव्यनां श्रद्धान-ज्ञान करे छे, पण ते कांई द्रव्यमां भळी जईने तेनां श्रद्धान-ज्ञान करती नथी, अने द्रव्य पण पोते पर्यायमां आवतुं नथी; परंतु पर्यायमां द्रव्य संबंधीनुं-द्रव्यना सामर्थ्यनुं ज्ञान ने श्रद्धान आवे छे. आ प्रमाणे अहाहा...! जेने नित्यानंदस्वरूप भगवान आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान थयां छे ते धर्मीने वांछा-आने हुं भोगवुं, वा मने आ हो-एवी वांछा थती नथी; केमके वांछाना काळने अने जे वांछयुं छे तेना भोगना-सामग्रीने भोगववाना-काळने भेद छे, बेनो मेळ थतो नथी. समजाणुं कांई...?
आजकाल सामयिकोमां चर्चा आवे छे के-निमित्त अकिंचित्कर छे; माटे, पेट्रोलथी मोटर चाले छे एम नथी. भाई! आ वात भले शास्त्रमां न नीकळे, पण न्याय तो आवो नीकळे छे के नहि? पहेलां आवो दाखलो न हतो एटले शास्त्रमां मळे नहि, परंतु तत्त्व तो आम छे के नहि? पेट्रोलथी मोटर चाले नहि केमके पेट्रोल भिन्न चीज छे ने परमाणुनी गति भिन्न चीज छे. भिन्न चीज भिन्ननुं कार्य केम करे? हा, निमित्त हो, पण उपादानमां ते कार्य करे छे वा विलक्षणता पेदा करे छे एम छे नहि. भाई! एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कार्य करे नहि ए तो अचलित सिद्धांत छे. जो निमित्त परमां-उपादानमां कार्य करे तो निमित्त रहे ज नहि. माटे निमित्त परमां अकिंचित्कर छे ए यथार्थ छे.
प्रश्नः– आप कहो छो के पेट्रोलथी मोटर चाले छे एम नथी, पण जोवामां तो एम आवे छे के-मोटर पेट्रोलथी चाले छे, पेट्रोल न होय तो ते न चाले.
उत्तरः– अरे भाई! तुं संयोगने ज जुए छे. पण रजकणनी-स्कंधमां जे रजकणो छे ते प्रत्येक रजकणनी-पर्याय ते काळे (गतिना काळे) स्वकाळे स्वतंत्र पोताथी थाय छे. आवुं ज स्वरूप छे. माटे, मोटरनी गति पेट्रोलथी थाय छे एम छे नहि. (मोटरनी स्थितिना काळमां पण रजकणोनुं एवुं ज स्थितिरूप स्वतंत्र परिणमन होय छे). वात तो आ खरी छे. आ तो तत्त्वनुं स्वरूप समजाववा दाखलो आप्यो छे.
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जुओ, अग्निथी पाणी गरम थतुं नथी, केमके अग्नि छे ते भिन्न चीज छे ने पाणी छे ते भिन्न चीज छे. आम होतां अग्निथी पाणी केम गरम थाय? प्रत्येक द्रव्यनो स्वकाळ छे अने ते स्वतंत्रपणे कर्ता थईने ते ते पर्यायने करे छे. तेमां अन्य वस्तु निमित्त हो, पण ते निमित्त धर्मास्तिकायवत् छे अर्थात् निमित्त उपादानमां कांई करे छे एम नथी. भाई! आ वात अक्षरे-अक्षर सत्य छे, परम सत्य छे.
अहीं कहे छे-ज्यारे वेदकभाव होय छे अर्थात् सामग्रीने भोगववानो काळ होय छे त्यारे वेद्यभाव-वांछा करनारो भाव होतो नथी; अने ज्यारे वेद्यभाव-वांछानो काळ होय छे त्यारे वेदकभाव-भोगववानो काळ होतो नथी; इच्छाना काळे अनुभवनो काळ होतो नथी.
जुओ, नेमिनाथ भगवाने स्नान कर्या पछी एक वार श्रीकृष्णनी राणी रूकमणिने कह्युं के-कपडां धोई नाखो. त्यारे रूकमणिए कह्युं-अमे कांई तमारी स्त्री नथी ते तमे हुकम करो ने अमे कपडां धोई नाखीए. एवुं होय तो परणी जाओ ने! आम वातचीत करतां करतां परणवानुं खूब कह्युं त्यारे भगवाने ‘ओम्’-एम कह्युं. शुं? हा, एम नहि, पण ‘ओम्’-एटले के स्वीकारवानी वृत्ति आवी. तेओ तो समकिती हता. एटले आ लउं ने आ भोगवुं-एम कर्ताबुद्धि कयां हती? पण लग्ननी हा पाडी एटले साधारण (अस्थिरतानी) वृत्ति-वांछा आवी. हवे वांछा आवी त्यारे वेदकभाव नथी, अने ज्यारे लग्न करवा गया अने ज्यां पशुने जोयां त्यां थयुं के आ शुं? अमारा लग्न प्रसंगथी आ प्राणीओनो वध? आम जे वृत्ति-इच्छा हती ते रही नहि. जोयुं? लग्न करवा गया पण ‘सारथि! रथ पाछो हांक’-एम कह्युं. तो वृत्ति थई त्यारे वेदकभाव लग्नप्रसंग नहोतो अने लग्नप्रसंग आव्यो त्यारे वृत्ति विणसी गई. पछी तो एकदम पोताने वैराग्य थई गयो.
जुओ, आ तो तीर्थंकर अने त्रण ज्ञानना धणी हता, छतां आटलां वर्ष गृहस्थाश्रममां रह्या; केमके एम कांई तरत चारित्रपद आवी जाय एवुं थोडुं छे? भगवान ऋषभदेवे पण ८३ लाख पूर्व समकितमां गाळ्यां हतां. भगवान महावीरे पण समकितमां त्रीस वर्ष गाळ्यां हतां, अने पछी बार वर्ष दीक्षामां (मुनिदशामां) गाळ्यां हतां, त्रीस वर्ष तेमने अरिहंतदशा रही अने पछी ७२ वर्षे मोक्ष पाम्या.
प्रश्नः– पण सम्यग्द्रष्टिए चारित्र ने त्यागनो मारग तो ग्रहण करवो जोईए ने? उत्तरः– हा; परंतु भाई! क्यो त्याग? रागना त्यागनो मारग तो अंदर छे अने ते समकितीने समकितनी साथे ज अभिप्रायमां अंदर प्रगट थयो छे. अने अस्थिरताना त्यागनो मारग (चारित्र) तो अंदर स्थिरताना अभ्यास वडे तेना
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स्वकाळे प्रगट थाय छे. बाकी बहारनो त्याग ए कांई वास्तविक मारग नथी.
जुओ, आ भाव (विभावभावनुं वेद्य-वेदकपणुं) श्री नेमिनाथ भगवानने लागु न पडे. आ तो न्याय दर्शाव्यो छे. बाकी जे वृत्ति आवी तेना पण तेओ तो ज्ञाता ज छे, कर्ता नहि. अहाहा...! जरा वृत्ति आवी ने लग्ननी हा पाडी तोपण तेओ तो ते वृत्तिना ज्ञाता ज छे. समजाणुं कांई...?
अहीं तो ज्ञानीने वेद्य-वेदकभावनी-विभावभावोनी भावना होती नथी एम वात छे. केम होती नथी? केमके वेद्यभाव ने वेदकभावने काळभेद छे, बेनो कोई मेळ नथी. कोई मानो न मानो, मारग तो आवो छे. बापा! पंडित श्री दीपचंदजीए भावदीपिकामां कह्युं छे के-
अत्यारे आगम प्रमाणे जे सम्यक्श्रद्धान जोईए ते कयांय मने देखातुं नथी. तेम ज सम्यक् श्रद्धान-सम्यग्दर्शन आम ज थाय एम प्ररूपणा करनारो कोई वक्ता पण देखातो नथी. बे वात.
वळी जो हुं सम्यग्दर्शननी-निश्चयनी वात करवा जाउं छुं तो सीधुं मोढे कोई सांभळतुं नथी. त्रण वात.
तेथी हुं आ लखी जाउं छुं के-मारग तो आ ज छे भाई! २प० वर्ष पहेलां दीपचंदजी आम लखी गया छे. पहेलां करतां अत्यारे कांईक फेर छे; केमके आ जीव (पू. गुरुदेवनो जीव) अमुक जातनुं (तीर्थंकरनुं) द्रव्य छे ने? तेथी तेने तेवी जातना विशेष पुण्यनो योग छे. तो कहीए छीए के मारग तो आज छे के जेमां सम्यग्दर्शन प्रधान छे. माटे हे भाई! प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट कर; पोताना स्वरूपनो स्वानुभव करीने निर्णय कर.
‘जदि दाएज्ज पमाणं’–एम पांचमी गाथामां छे ने? अहाहा...! पांचमी गाथामां आचार्य कुंदकुंद कहे छे के हुं एकत्व-विभक्त आत्माने मारा निज वैभवथी बतावुं छुं अने जो हुं बतावुं तो तुं अनुभवथी प्रमाण करजे. मात्र ‘हा पाड’ एम नहि, पण स्वानुभवथी प्रमाण करजे एम कहे छे. अहाहा...! शुं दिगंबर संतोनी वाणी! अने तेमां पण श्री कुंदकुंदाचार्य!!!
प्रश्नः– आप एकला कुंदकुंदाचार्यने मानवा जशो तो बीजा आचार्योनुं बलिदान थई जशे?
समाधानः– अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? शुं आनो अर्थ आम थाय? भाई! जेम कुंदकुंदनी वाणी छे तेम अन्य मुनिवरोनी वाणी पण सत्यार्थ छे. परंतु भाई! जेनी वाणीथी प्रत्यक्ष उपकार भासे तेनो महिमा अंतरमां विशेष आवे छे. भगवान कुंदकुंदनी वाणीमां थोडा शब्दे अपार गांभीर्य अने स्पष्टता भास्यां तो
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तेमना प्रति अहोभाव-भक्तिभाव जाग्यो. (एमां बीजा मुनिवरो प्रति अभक्तिनो कयां सवाल छे?)
जुओने, दर्शनसारमां श्री देवसेनाचार्ये शुं लख्युं छे? के ‘श्री सीमंधरस्वामी पासेथी मळेला दिव्यज्ञान वडे श्री पद्मनंदीनाथे (श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे) बोध न आप्यो होत तो, मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?’ ल्यो, आथी शुं देवसेनाचार्यनी परंपरामां बीजा समर्थ गुरुवरो-मुनिवरो हता ज नहि एवो अर्थ थाय छे? एवो अर्थ न थाय भाई!
अत्यारे तो केटलाक अज्ञानीओ टीका करे छे के भगवान कुंदकुंदाचार्य श्री सीमंधर परमात्मा पासे गया हता ए वात संमत करवा योग्य नथी. त्यांथी (श्री सीमंधर भगवान पासेथी) वाणी लईने पाछा अहीं आव्या अने बोध कर्यो ए वात साची नथी एम कोई कोई कहे छे. पण भाई! आचार्य देवसेन तो आ कहे छे के-भगवान! आप सीमंधर परमात्मा पासे जईने आवी वाणी न लाव्या होत तो मुनिजनो सत्यार्थ धर्म केम पामत? माटे यथार्थ वात समजवी जोईए.
अहीं कहे छे-ज्यारे वेद्यभाव होय छे त्यारे वेदकभाव होतो नथी अने ज्यारे वेदकभाव आवे छे त्यारे वेद्यभाव विणसी गयो होय छे; पछी वेदकभाव कोने वेदे? भाषा सादी छे पण भाव तो एणे समजवो छे ने!
पण आप समजावो त्यारे समजीए ने? एम नथी भाई! जेनी ज्यारे लायकात होय त्यारे ते समजे छे. पण ए तो आपे उपादाननी वात करी. वात एम ज छे प्रभु! ‘तुं प्रमाण करजे’-एम (गाथा प मां) न कह्युं? मतलब के तुं ताराथी (स्वानुभवथी) प्रमाण करजे एम कह्युं छे. समजाणुं कांई...?
वळी कहे छे-अने ज्यारे वेद्यभाव आवे छे, अर्थात् हवे ज्यारे बीजी वांछानो काळ आवे छे त्यारे वेदकभाव विणसी गयो होय छे अर्थात् त्यारे अनुभवनो काळ होतो नथी; तो पछी वेदकभाव विना वेद्यने कोण वेदे?
‘आवी अव्यवस्था जाणीने...’ जोयुं? टीकामां ‘अनवस्था’ अर्थात् कयांय मेळ खातो नथी-एम हतुं. अहीं बेमां अव्यवस्था छे एम कह्युं. अहाहा...! ‘आवी अव्यवस्था जाणीने ज्ञानी पोते जाणनार ज रहे छे, वांछा करतो नथी.’
तो ज्ञानीने पण इच्छा तो थई आवे छे? हा; थई आवे छे, पण ‘आ मने हजो,’ ‘आने हुं भोगवुं’-एम एकत्व ज्ञानीने नथी. मात्र साधारण वृत्ति उठे छे अने तेना पण ते जाणनार ज छे. ते पण
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इच्छाकाळे इच्छानी हयाती छे माटे एने जाणे छे एमेय नहि. ए तो स्वने अने परने- इच्छाने जाणती ज्ञाननी पर्याय स्वपरप्रकाशकरूपे स्वतः परिणमे छे. अहाहा...! ज्ञानीने स्व अने परने जाणतुं ज्ञान पोताने पोताथी प्रगट थयुं होय छे. ज्ञानी कांई रागमां तन्मय थईने (रागने) जाणे छे एम नथी, ए तो रागने पृथक् परस्वरूपे ज जाणे छे. आवो झीणो मारग बापु! लोकोने बिचाराओने मूळ मारगनी खबर न मळे एटले बहारनां व्रत, तप, भक्ति ने पूजा इत्यादि लईने बेसी जाय पण भाई! ए तो बधा रागना-शुभरागना प्रकार छे, ए कांई धर्म नथी वा ए वडे धर्म पमाशे एम पण नथी.
अहाहा...! कहे छे-‘आवी अव्यवस्था जाणीने...’ शुं अव्यवस्था? के वांछाकाळे वेदकनो काळ नथी अने वेदकनो काळ आवे त्यारे वांछानो काळ रहेतो नथी, वीती गयो होय छे, बीजो काळ थई गयो होय छे. आ रीते ‘अव्यवस्था जाणीने ज्ञानी पोते जाणनार ज रहे छे.’ जोयुं? जे वृत्ति थई आवी तेनो ज्ञानी जाणनार ज रहे छे. तथा तेने भोगववाना काळे जरी वेदन थयुं तेनो पण ते जाणनार ज रहे छे. छतां (ज्ञाननी अपेक्षाए) भोगववाना काळे जे राग थयो एटलुं दुःख पण अवश्य छे. द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए तो ज्ञानी तेनो ज्ञाता ज छे. परंतु द्रष्टिनी साथे जे ज्ञान छे ते ज्ञाननी अपेक्षाए तेने किंचित् रागनुं-दुःखनुं वेदन छे. ज्ञानी पण ते प्रमाणे पोताने दुःखनुं वेदन छे एम जाणे छे.
अहा! जन्म-मरणना दुःखथी मुक्त थवानो आवो मारग! जेना फळमां ‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां’ अनंत अनंत सुखनी समाधि प्रगट थाय ते मारग भाई! अलौकिक छे. अने तेमांय अहो! सम्यग्दर्शन!! (अपूर्व अलौकिक!) ते सम्यग्दर्शननी साथे सम्यग्ज्ञान अने स्वरूपाचरणनो-चारित्रनो अंश पण होय छे. अनंतानुबंधीनो अभाव होवाथी स्वरूपाचरण-स्वरूपमां जरी स्थिरतानो अंश-होय छे परंतु तेने चारित्र नाम अपाय एम नहि. देशचारित्र के सकलचारित्र-एम चारित्र नाम पाडीए एवुं चारित्र त्यां छे एम नहि.
श्रावकपणुं ए ढीलापणुं छे. पण ज्यां पुरुषार्थ उग्रता धारण करे छे त्यां एकदम चारित्र अंगीकार करे छे. ‘णमो सिद्धाणं’–एम कहीने तीर्थंकरो चारित्र अथवा स्वरूपनी लीनता अंगीकार करे छे, शुद्धोपयोगनी स्थिरता अंगीकार करे छे.
अत्यारे वळी कोई कहे छे के-शुद्धोपयोग तो अत्यारे छे ज नहि, शुभोपयोग ज छे.
अरे भाई! जो शुद्धोपयोग नथी तो स्व-अनुभूति ज नथी, केमके चोथे गुणस्थाने जे अनुभूति थाय छे ते शुद्धोपयोगमां ज थाय छे. तेथी जो शुद्धोपयोग न
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होय तो, ए अर्थ थयो के त्यां चोथुं गुणस्थान ज नथी; छठ्ठुं तो कयांय रह्युं, शुद्धोपयोग विना तो चोथुं गुणस्थानेय नथी. अहा! पण अज्ञानीने कयां जवाबदारीथी वात करवी छे? एने तो वादविवाद करवो छे. पण भाई! वादविवादथी कांई साध्य नथी. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे-‘अहीं प्रश्न थाय छे के-आत्मा तो नित्य छे तेथी ते बन्ने भावोने वेदी शके छे; तो पछी ज्ञानी वांछा केम न करे?’
जुओ, आ सामा (शिष्य) वती पोते ने पोते भावार्थकार प्रश्न उठावे छे. शुं कहे छे? आत्मा पोते तो नित्य छे; एटले के वांछाकाळेय आत्मा छे अने भोगववाना काळेय ते छे. तेथी ते बन्ने भावोने वेदी शके छे. तेमां हरकत कयां छे? आत्मा नित्य होवाथी ते नित्य जे प्रमाणे इच्छे छे तेने ते प्रमाणे भोगवे छे. तेमां वांधो शुं आव्यो के ज्ञानी वांछा न करे?
आ प्रश्ननुं रूप समजाय छे? शुं कहे छे? के तमे ज्यारे एम कहो छो के वांछानो काळ अने भोगववानो काळ-ते बन्ने भिन्न छे; बन्नेने काळभेद छे तेथी बेनो मेळ खातो नथी. पण अमे कहीए छीए के आत्मा तो नित्य छे, तेथी वांछा काळे पण आत्मा छे अने भोगववा काळे पण आत्मा तो मोजूद छे. ते कारणे तेने वेद्य-वेदकभाव थाय तेमां वांधो शुं छे? वेद्य-वेदकभाव क्षणिक भले हो, पण आत्मा छे ए तो नित्य ज छे. प्रत्येक पर्यायकाळे आत्मा तो नित्यपणे छे ज. तेथी ते बन्ने भावोने वेदी शके छे, एम के इच्छेलुं वेदी शके छे. अने जो एम छे तो ज्ञानी वांछा केम न करे? आवो प्रश्न ऊठावीने पंडित श्री जयचंदजी समाधान करे छे.
तेनुं समाधानः– ‘वेद्य-वेदकभावो विभावभावो छे, स्वभावभाव नथी, तेथी तेओ विनाशिक छे;...’
वेद्य-वेदक भावो विभावो एटले विकारी भावो छे. एटले विकारी भावनुं करवुं ने भोगववुं धर्मीने होतुं नथी. नित्य होवा छतां-कायम रहेनारो होवा छतां -विकारनी वांछानो अने भोगववाना काळनो पण धर्मी ज्ञाता ज छे अने आ रीते (अनित्य भावोथी भिन्न) ते नित्य छे. झीणी वात छे भाई!
‘वेद्य-वेदक भावो विभावभावो छे,’ ज्यारे जे नित्य छे ए तो स्वभावभाव छे; अर्थात् नित्य जे आत्मा छे ए तो स्वभावभावथी नित्य छे. ज्यारे विभावभावो छे ए अनित्य ज छे, तथा तेओ स्वभावभाव नथी. पहेलां टीकामां आवी गयुं ने के -‘ज्ञानी तो, स्वभावभावनुं ध्रुवपणुं होवाथी टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप नित्य छे.’ अहा! ज्ञानी आ रीते नित्य छे एम कह्युं छे, पण जे जे पर्याय आवे छे
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त्यां त्यां तेने भोगववा काळे ते नित्य छे (तेनाथी ते सहित छे.) एम कयां कहेवुं छे? ए तो एक ज्ञायकभाव-स्वभावभावपणाने लीधे नित्य छे. भाई! आत्मा नित्य छे, नित्य छे माटे ते बेयमां (वेद्य-वेदक भावोमां) रही शके छे एम तुं कहे छे, पण अमे कहीए छीए के ए तो त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभावपणाथी-स्वभावभावपणाथी नित्य छे पण विभाविक पर्यायथी ते नित्य छे एम कयां छे? एम छे नहि.
शुं कह्युं ए? के ज्ञानी एक ज्ञायकस्वभावभावपणाथी नित्य छे, पण विभावभावरूप पर्यायथी नित्य छे एम नथी. तेथी स्वभावभावनी नित्यताना कारणे क्षणिक अने काळभेद उत्पन्न थता ते विभावोने ज्ञानी उत्पन्न करतो नथी अने भोगवतोय नथी. आवी वात!
कहे छे-वेद्य-वेदक भावो विभावभावो छे, ‘स्वभावभाव नथी.’ जोयुं? ज्ञानी तो अखंड एक ज्ञायकभावना ध्रुवपणाथी नित्य छे, अर्थात् तेनी द्रष्टिमां तो अखंड एक ज्ञायकभावपणे आत्मा नित्य छे पण विभावभावथी-पर्यायभावथी नित्य छे एम कयां छे? विभावभावो छे ए तो क्षणविनाशी अनित्य छे. माटे ते क्षणिक विभावनी इच्छाना काळे ने भोगववाना काळे-एमां ज्ञायकपणे नित्य एवो आत्मा छे एम छे नहि. हवे आ समजाय नहि एटले बिचारा अज्ञानीओ उपवासादि करे ने बहारना त्याग-ग्रहण करे पण स्वरूपना भान विना एमां धर्म कयांथी थाय?
प्रश्नः– श्री कुंदकुंदाचार्ये पण त्याग-ग्रहण तो कर्यो हतो? समाधानः– ए कयो त्याग बापु! ए कांई वस्त्रादि त्याग्यां ने व्रतादि लई लीधां एटले त्याग थई गयो? एम नथी भाई! ए तो समकितीने के पांचमा गुणस्थानवाळाने व्रतनो विकल्प आवे छे, हुं व्रत लउं एम एने थाय छे, पण अंदरमां ज्यारे ते द्रढपणे स्वाश्रय-स्वनो आश्रय करे छे त्यारे तेने चारित्रनी-त्रण कषायना त्यागनी-वीतरागतानी ने आनंदनी परिणति प्रगट थाय छे अने ते त्याग-ग्रहण छे. समजाणुं कांई...? व्रतना विकल्प लीधा माटे अंदर चारित्र प्रगट थई जाय छे शुं एम छे? एम नथी. राजवार्तिकमां दाखलो आप्यो छे के-अंदरमां मात्र समकित ज छे अने द्रव्यलिंग लीधुं. पण अंदरमां आश्रय अधिक थयो नहि, पुरुषार्थ विशेष थयो नहि ते कारणे पांचमुं के छठ्ठुं गुणस्थान प्रगटयुं नहि. बीजी रीते कहीए तो स्वनो आश्रय आवे त्यारे चारित्र प्रगट थाय छे पण व्रतनो विकल्प छे माटे चारित्र आवे छे एम छे नहि.
भाई! वीतराग मार्गमां चारेय अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता कह्युं छे. (जुओ पंचास्तिकाय गाथा १७२). तो वीतराग शासननुं कोई पण कथन-चाहे ते व्रत संबंधी हो, पर्याय संबंधी हो, विभाव संबंधी हो, के शुद्ध द्रव्य संबंधी हो-ते
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सर्वनुं तात्पर्य वीतरागता ज छे. तेवी रीते क्षणे क्षणे पर्याय क्रमबद्ध स्वकाळे प्रगट थाय छे एवुं कथन आवे तेनुं तात्पर्य पण वीतरागता ज छे. पण वीतरागता प्रगटे कयारे? के शुद्ध त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय ले त्यारे. भाई! चारे अनुयोगमांथी जे जे वाणी आवे तेनुं रहस्य वीतरागता छे एम तेमांथी काढवुं जोईए, अने वीतरागता स्वना आश्रये ज प्रगट थाय छे, माटे चारे अनुयोगमां एक स्वना आश्रयनुं ज कथन छे एम समजवुं जोईए. अहाहा...! स्व-सन्मुख थवुं ए ज वीतरागनी वाणीनो सार छे.
अहीं कहे छे-‘वेद्य-वेदक भावो विभावभावो छे, स्वभावभाव नथी, तेथी तेओ विनाशिक छे; माटे वांछा करनारो एवो वेद्यभाव ज्यां आवे त्यां सुधीमां वेदकभाव (भोगवनारो भाव) नाश पामी जाय छे, अने बीजो वेदकभाव आवे त्यां सुधीमां (पहेलो) वेद्यभाव नाश पामी जाय छे; ए रीते वांछित भोग तो थतो नथी. तेथी ज्ञानी निष्फळ वांछा केम करे?’ जेनां फळ न आवे अर्थात् जे निरर्थक-निष्फळ जाय एवी वांछा ज्ञानी केम करे? न करे एम कहे छे. गाथा बहु ऊंची छे. तेने धीरजथी समजवी जोईए.
अहाहा...! वांछित वेदातुं नथी, पछी ज्ञानी निष्फळ वांछा केम करे? न करे. ए तो कहेवाई गयुं के ज्ञानी निज स्वरूपने-नित्यानंद प्रभु आत्माने-वेदे छे. आत्मा ज वेद्य छे अने आत्मा ज तेने वेदक छे. अर्थात् पोते ज वेदवायोग्य छे अने पोते ज आनंदनो वेदनारो छे. विकारनुं करवुं अने वेदवुं-ए बेय ज्ञानीने नथी, ज्ञानीने तो एनुं मात्र जाणवुं छे. अहीं तो द्रष्टि अने द्रव्यनी अपेक्षाए वात छे ने? बाकी ज्यारे ज्ञान अपेक्षाए वात ले त्यारे एम छे के-जे राग थाय छे ते पोताथी थयो छे अने पोते तेनो भोक्ता छे-एम ज्ञानी जाणे छे. भारे वात थई.
एक कोर कहे के सम्यग्द्रष्टिने बंध थतो नथी अने बीजी कोर कहे के दशमा गुणस्थान सुधी तेने राग छे, अने छ कर्म पण बांधे छे!!! आ केवुं!
भाई! ए तो द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय अभेद निर्विकल्प वस्तु छे. तेथी स्वभाव अने स्वभावनी द्रष्टिथी वर्णन होय त्यां एम आवे के धर्मीने स्वभावभाव व्यापक अने वर्तमान स्वभावपर्याय तेनुं व्याप्य छे; पण विकारी पर्याय स्वभावनुं व्याप्य नथी. तेथी स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीने राग ने रागजनित बंध नथी एम कह्युं. परंतु जे काळे द्रष्टि थई छे ते ज काळे ज्ञान पण साथे छे ने? द्रष्टिमां तो एकलो अभेद निर्विकल्प (स्वभाव) छे, अने द्रष्टि पण निर्विकल्प छे; पण ज्ञान ते काळे बेने (अभेद अने भेदने) जाणे छे. तो ते काळे प्रगट थयेलुं ज्ञान एम जाणे छे के-पर्यायमां जेटलो (अस्थिरतानो) राग छे ते पोतानुं परिणमन छे अने पोते तेनो कर्ता छे.
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राग करवा लायक कर्तव्य छे एम नहि, पण परिणमन अपेक्षाए ज्ञानी तेनो कर्ता छे. अहो! आ बहु गंभीर वात छे!
अहाहा...! चिद्-चिद्-चिद् एवो चिद्रूपस्वरूप प्रभु आत्मा छे. ते ‘भगवान’ छे ने? ‘भग’ नाम ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मी, अने ‘वान’ नाम रूप-स्वरूप. ज्ञान ने आनंद जेनुं ‘वान’ नाम स्वरूप छे ते आत्मा छे. आ नथी कहेता के आ काळे वाने छे ने आ धोळे वाने छे? ए वान तो भाई! शरीरनो बापा! तो आत्मा कया वाने छे? तो कहे छे-आत्मा ‘भगवान’ छे, अर्थात् ज्ञान ने आनंद जेनुं रूप छे ते आत्मा छे. अहाहा...! आवो आत्मा जेना अनुभवमां आव्यो ते (ज्ञानी), वांछित भोग थतो नथी तेथी, निष्फळ वांछा केम करे?
हवे एक कोर चक्रवर्ती रोज सो-बसो कन्याओ परणे अने एवी रीते ९६ हजार राणीओना वृंदमां रहे अने बीजी कोर एम कहेवुं के ते निष्फळ वांछा केम करे? तो आवुं केम मानवुं?
समाधानः– अरे भाई! तने खबर नथी बापु! ए तो जरी (अस्थिरतानो) लग्न करवानो विकल्प छे तेने ते जाणे छे अने विकल्पना भोगववाना काळे पण, तेना ज्ञाननी पर्याय ते ज प्रकारनी स्वपरप्रकाशकपणे प्रगट थाय छे तेथी, तेने (भोगववाना विकल्पने) पण ते जाणे ज छे. सामग्री मने (मारी) हो एवुं एने कयां छे? एने तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव होवाथी विकल्पोने ते मात्र जाणे ज छे, विकल्पोनुं करवापणुं के भोगववापणुं तेने होतुं नथी. आवी वात छे.
हवे कहे छे-‘ज्यां मनोवांछित वेदातुं नथी...’ जुओ, संक्षेपमां वेद्य ने वेदक एम बेय कही दीधुं, भाषा टूंकी करी दीधी. ‘मनोवांछित’-ए वेद्य अने ‘वेदातुं नथी’-ए वेदक. अहाहा...! पंडित जयचंदजीनी ईष्टार्थने कहेनारी केवी वाणी! आनुं नाम ते पंडित! कहे छे-‘ज्यां मनोवांछित वेदातुं नथी त्यां वांछा करवी ते अज्ञान छे.’ त्रण वात करी-
१. वेदक अने वेद्य भावो विभावभावो छे, विनाशिक छे. तेओ स्वभावभाव नथी. २. माटे, ज्ञानी तेने केम करे? अने केम भोगवे? ३. ज्यां मनोवांछित वेदातुं नथी त्यां वांछा करवी ते अज्ञान छे. आ तो खूब गंभीर वात छे बापा! तेनी गंभीरतानो कांई पार नथी.
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हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘वेद्य–वेदक–विभाव–चलत्वात्’ वेद्य-वेदकरूप विभावभावोनुं चळपणुं (अस्थिरपणुं) होवाथी ‘खलु’ खरेखर ‘कांक्षितम् एव वेद्यते न’ वांछित वेदातुं नथी.
जोयुं? वेद्य-वेदकरूप भावो विभावभावो छे, कर्मना उदये उत्पन्न थता विपरीत - विरुद्ध भावो छे; अने तेओ चळ-अस्थिर छे, अर्थात् क्षणिक-विनाशिक छे. अस्थिर होवाथी ते बेय भावोने मेळ-मेळाप नथी. वेद्य-वांछानो भाव होय त्यारे वेदकभावनो काळ होतो नथी अने वेदक थाय त्यारे वेद्य-वांछानो भाव रहेतो नथी, विणसी जाय छे, माटे ते बेयने मेळ नथी. तेथी खरेखर वांछित वेदातुं नथी. आवी वात! तेथी कहे छे-
‘तेन’ माटे ‘विद्वान किञ्चन कांक्षति न’ ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी. अहीं विद्वान एटले ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी एम कहे छे. विद्वान एटले घणां शास्त्रोनो जाणनार एम नहि, पण विद्वान एटले ज्ञानी तेने कहीए जेने निर्मळानंदस्वरूप प्रभु आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान अने वेदन प्रगट थयुं छे. आवो विद्वान कांई पण वांछतो नथी एम कहे छे. अहाहा...! वांछे ते विद्वान शानो? जेने रागनो रस छे, रागनी वांछा छे तेने तो भगवान आत्मा प्रत्ये द्वेष छे, क्रोध छे. अहीं कहे छे-जेने भगवान आत्मानी रुचि थई छे ते विद्वान छे अने ते कांई पण (राजपद, देवपद, आदि) वांछतो नथी.
ज्ञानीने विषयोमांथी सुखबुद्धि उडी गई होय छे. जुओ, समकिती इन्द्र एकावतारी छे अने तेने इन्द्राणी सहित क्रोडो अप्सराओ छे. पण तेने एमांथी सुखबुद्धि ऊडी गई छे, तेने तो भगवान आत्मामां सुखबुद्धि प्रगट थई छे, तेथी तेने वर्तमान जे किंचित् रागनी वृत्ति छे तेने ते मात्र जाणे ज छे. अहाहा...! पर्यायमां किंचित् आसक्ति होय छे तेनो ज्ञानी मात्र ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी, वांछक नथी.
कहे छे-‘विद्वान् किश्चन न कांक्षति’ विद्वान एटले शुं? तेमां बे शब्द छे- वित्+वान, वित् एटले ज्ञान, अने तेनो वान ते विद्वान छे. वित् एटले लक्ष्मी-पैसा अर्थ थाय छे. पण अहीं वित् एटले ज्ञान-लक्ष्मी एम कहेवुं छे. ज्ञानीनी लक्ष्मी ते ज्ञान छे, अज्ञानीनी पैसा. तो कहे छे-जेने ज्ञाननुं ज्ञान छे ते विद्वान छे. ज्ञान एटले आत्मा. ‘आत्मा ते ज्ञान’ -एम कह्युं छे ने? समयसारमां बधे ‘ज्ञान ते ज आत्मा’-एम शैली छे. समयसारना अर्थमां पण एम ज छे-‘ज्ञान ते आत्मा.’ प्रवचनसारमां एम लीधुं छे के ज्ञान ते आत्मा अने आत्मा ते ज्ञान, दर्शन, चारित्र ने आनंद पण छे. त्यां अपेक्षा बीजी छे. अहीं तो स्वभाव छे ते स्वभावी छे एम अभेदथी
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वात छे. तेथी ज्ञान जेनो स्वभाव छे ते आत्मा-स्वभावी ज्ञान ज छे. अहीं कहे छे- ज्ञानस्वभावी आत्माने जे जाणे छे ते विद्वान छे अने ते कांई वांछतो नथी केमके वांछित वेदातुं नथी.
समकिती कांई पण वांछतो नथी एम कहो छो अने छतां ते छ खंडनुं राज्य करे? शुं सामेथी छ खंडना राजाओने जीतवा जाय? बे भाई-बाहुबली ने भरत लडे?
समाधानः– बापु! ए बीजी वात छे. (तुं करे छे एम कहे छे पण) ए तो राग आवी जाय छे. करे कोण? शुं समकिती राग करे? भाई! ए तो जे राग आवी जाय छे तेने मात्र जाणे ज छे. राग करवा जेवो छे, ते मारुं कर्तव्य छे, ते मारुं स्वरूप छे एम ज्ञानीने कयां छे? ज्ञानीने रागनुं करवापणुं के स्वामीपणुं छे ज नहि.
ते तो ‘सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति’ सर्व प्रत्ये अति विरक्तपणाने (वैराग्यभावने) पामे छे.
जोयुं? आ वैराग्य लीधो. पहेलां ज्ञान लीधुं अने हवे विद्वानने अतिविरक्तपणुं होय छे एम लीधुं. ज्ञान ने वैराग्य बन्ने लीधा. पूर्णस्वरूप भगवान आत्मानुं ज्ञान- ज्ञाननुं ज्ञान अने रागना अभावरूप वीतरागभाव-वैराग्यभाव-एम बन्ने ज्ञानीने होय छे. अहाहा...! अहीं कहे छे-ज्ञानी सर्व प्रत्ये अति विरक्तपणाने पामे छे. माटे तेने कांक्षवुं ने वेदवुं ए होतुं नथी. जगत प्रति अत्यंत उदासीन एवा ज्ञानीने बस जाणवुं- जाणवुं-जाणवुं होय छे.
कोईने वळी थाय के आ ते वळी केवो धर्म! भाई! मारग तो आवो ज छे बापा! आ बीजे नथी आवतुं? शुं? के थोडुंक पण दुःख सहन करवानुं आवे छे ते सहन थतुं नथी तो पछी प्रभु! जेना फळमां महादुःख आवी पडे एवां कर्म (पुण्य-पापनी क्रिया) केम करे छे? प्रभु! आवां कर्म- शुभाशुभ बेय हों-के जेना फळमां तीव्र महादुःख भोगववां पडे ते तुं केम बांधे छे? क्षणवार पण प्रतिकूळता सहन थती नथी, एक गुमडुं नीकळ्युं होय त्यां राडा-राड करी मूके छे, साधारण ताव होय त्यां ऊंचो-नीचो थई जाय छे-हवे आवां अल्प दुःख पण सहन थई शकतां नथी तो एथी अनंतगणां दुःखो थाय एवां कर्म तारे बांधवां छे? भाई! तने शुं थयुं छे आ? अहा! बहारनुं बधुं भूली जा प्रभु! बहारनी चमक-दमक बधी भूली जा. अहीं अंदरमां देखवालायक देखनार भगवान छे तेने देख! भाई बहारनुं देखवामां जराय सुख नथी. अंदर देखनारो छे के नहि? छे ने. ते सुखधाम छे. तो बहारनुं देखवुं मूकी दईने अंदर देखनार जे तुं ज छे तेने देख. एम करतां तने समकित थशे, ज्ञान थशे अने
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आनंदनुं वेदन थशे. आ ज एक मार्ग छे. आवा मार्गने पामेला ज्ञानीओ कांई पण बीजुं इच्छता नथी.
भावार्थः– ‘अनुभवगोचर जे वेद्य-वेदक विभावो तेमने काळभेद छे, तेमनो मेळाप नथी (कारण के तेओ कर्मना निमित्ते थतां होवाथी अस्थिर छे); माटे ज्ञानी आगामी काळ संबंधी वांछा शा माटे करे?’ न करे. आ भावार्थ कह्यो.
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तथाहि–
संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो।। २१७।।
संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते रागः।। २१७।।
ए रीते ज्ञानीने सर्व उपभोगो प्रत्ये वैराग्य छे एम हवे कहे छेः-
ते सर्व अध्यवसानउदये राग थाय न ज्ञानीने. २१७.
गाथार्थः– [बन्धोपभोगनिमित्तेषु] बंध अने उपभोगनां निमित्त एवा [संसारदेहविषयेषु] संसारसंबंधी अने देहसंबंधी [अध्यवसानोदयेषु] अध्यवसानना उदयोमां [ज्ञानिनः] ज्ञानीने [रागः] राग [न एव उत्पद्यते] ऊपजतो ज नथी.
टीकाः– आ लोकमां जे अध्यवसानना उदयो छे तेओ केटलाक तो संसारसंबंधी छे अने केटलाक शरीरसंबंधी छे. तेमां, जेटला संसारसंबंधी छे तेटला बंधननां निमित्त छे अने जेटला शरीरसंबंधी छे तेटला उपभोगनां निमित्त छे. जेटला बंधननां निमित्त छे तेटला तो रागद्वेषमोहादिक छे अने जेटला उपभोगनां निमित्त छे तेटला सुखदुःखादिक छे. आ बधायमां ज्ञानीने राग नथी; कारण के तेओ बधाय नाना द्रव्योना स्वभाव होवाथी, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानीने तेमनो निषेध छे.
भावार्थः– जे अध्यवसानना उदयो संसार संबंधी छे अने बंधननां निमित्त छे तेओ तो राग, द्वेष, मोह इत्यादि छे तथा जे अध्यवसानना उदयो देह संबंधी छे अने उपभोगनां निमित्त छे तेओ सुख, दुःख इत्यादि छे. ते बधाय (अध्यवसानना उदयो), नाना द्रव्योना (अर्थात् पुद्गलद्रव्य अने जीवद्रव्य के जेओ संयोगरूपे छे तेमना) स्वभाव छे; ज्ञानीनो तो एक ज्ञायकस्वभाव छे. माटे ज्ञानीने तेमनो निषेध छे; तेथी ज्ञानीने तेमना प्रत्ये राग-प्रीति नथी. परद्रव्य, परभाव संसारमां भ्रमणनां कारण छे; तेमना प्रत्ये प्रीति करे तो ज्ञानी शानो?
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कर्म रागरसरिक्ततयैति।
रङ्गयुक्तिरकषायितवस्त्रे–
स्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह।। १४८।।
सर्वरागरसवर्जनशीलः।
लिप्यते सकलकर्मभिरेषः
कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न।। १४९।।
हवे आ अर्थना कळशरूपे तथा आगळना कथननी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः- श्लोकार्थः–
करवामां न आव्युं होय एवा वस्त्रमां [रङ्गयुक्तिः] रंगनो संयोग, [अस्वीकृता] वस्त्र वडे अंगीकार नहि करायो थको, [बहिः एव हि लुठति] बहार ज लोटे छे-अंदर प्रवेश करतो नथी, [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति] तेम ज्ञानी रागरूपी रसथी रहित होवाथी तेने कर्म परिग्रहपणाने धारतुं नथी.
भावार्थः– जेम लोधर, फटकडी वगेरे लगाडया विना वस्त्र पर रंग चडतो नथी तेम रागभाव विना ज्ञानीने कर्मना उदयनो भोग परिग्रहपणाने पामतो नथी. १४८.
फरी कहे छे केः- श्लोकार्थः– [यतः] कारण के [ज्ञानवान्] ज्ञानी [स्वरसतः अपि] निज रसथी ज [सर्वरागरसवर्जनशीलः] सर्व रागरसना त्यागरूप स्वभाववाळो [स्यात्] छे [ततः] तेथी [एषः] ते [कर्ममध्यपतितः अपि] कर्म मध्ये पडयो होवा छतां पण [सकलकर्मभिः] सर्व कर्मोथी [न लिप्यते] लेपातो नथी. १४९.
ए रीते ज्ञानीने सर्व उपभोगो प्रत्ये वैराग्य छे एम हवे कहे छेः-
‘आ लोकमां जे अध्यवसानना उदयो छे तेओ केटलाक तो संसारसंबंधी छे
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अने केटलाक शरीरसंबंधी छे. तेमां, जेटला संसारसंबंधी छे तेटला बंधनमां निमित्त छे अने जेटला शरीरसंबंधी छे तेटला उपभोगनां निमित्त छे.’
शुं कहे छे? के कर्मना संगमां जे रागादिनी उत्पत्ति थाय छे ते सर्व अध्यवसान- एकत्वबुद्धि छे. तेओ केटलाक तो संसारसंबंधी छे अने केटलाक शरीर संबंधी छे. जुओ, आ कर्ता-भोक्तापणुं कहे छे. कहे छे-जेटला संसारसंबंधी छे एटले के संसारना लक्षे जे रागादि अध्यवसान उत्पन्न थाय छे ते बंधनां कारण छे; तथा जेटला शरीरसंबंधी छे अर्थात् शरीरादि भोगववानी चीजना लक्षे जे रागादि अध्यवसान उत्पन्न थाय छे ते उपभोगनां निमित्त छे.
हवे कहे छे-‘जेटला बंधननां निमित्त छे तेटला तो राग-द्वेष-मोहादिक छे अने जेटला उपभोगनां निमित्त छे तेटला सुखदुःखादिक छे. आ बधायमां ज्ञानीने राग नथी.’
अहाहा...! ज्ञानी कोने कहीए? के जेने अंतरमां निर्मळानंदना नाथ अमृतस्वरूप भगवान आत्मानी अनुभूति थईने आनंदरसनो-निराकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते ज्ञानी छे. आवा ज्ञानीने भोक्तासंबंधी-शरीरसंबंधी रागमां के कर्तासंबंधी रागमां एकत्वबुद्धि नथी, एटले के पोतापणुं नथी. झीणी वात छे भाई!
आ निर्जरा अधिकार छे ने? तो निर्जरा कोने थाय छे एनी आ वात छे. अहाहा...! जेने अंदरमां पोते ज्ञानानंदस्वरूप छे, अतीन्द्रियज्ञान ने अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप छे एवो स्वना आश्रयपूर्वक स्वीकार आव्यो छे ते समकितीने निर्जरा थाय छे. चोथे गुणस्थानेथी समकितीने अतीन्द्रिय ज्ञान ने अतीन्द्रिय आनंदनी अनुभूति होवाथी निर्जरा थाय छे. आवी झीणी वात बापु!
अहीं ‘ज्ञानी’ कह्यो छे ने? तो ज्ञानीनी व्याख्या चाले छे के-‘बधायमां ज्ञानीने राग नथी.’ चाहे रागद्वेषादि उत्पन्न थाय चाहे सुख-दुःखनी कल्पना-ए बधाय विभाव छे अने स्वभावनी द्रष्टि जेने प्रगट छे, अहाहा...! स्वानुभूति जेने प्रगट छे ते ज्ञानी, ते विभाव पोताना छे एम मानतो नथी. भाई! अनंतकाळमां अंदर आत्मा पोते शुं चीज छे ते जाण्युं नथी. अहा! रागना संबंधथी रहित अबद्धस्पृष्ट प्रभु आत्मा अंदर चिन्मात्रस्वरूपथी शोभी रह्यो छे तेने एणे जाण्यो नथी. अहीं कहे छे-रागरहित सदा वीतरागस्वभावी भगवान आत्माने जाणनारो ज्ञानी आ बधाय विभावो मारा छे एम मानतो नथी. समजाणुं कांई...?
‘जो पस्सदि अप्पाणं...’ इत्यादि १प मी गाथा आवे छे ने! त्यां कह्युं छे के जे राग अने कर्मना संबंधथी रहित अबद्धस्पृष्ट आदि स्वरूप भगवान आत्माने
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अनुभवे छे ते सकल जिनशासनने देखे छे, जाणे छे. अहाहा...! जे मति-श्रुतज्ञानमां - निज शुद्धोपयोगमां-अबद्धस्पृष्ट, ज्ञानदर्शनादि भेदथी रहित अविशेष, पुण्य-पापथी रहित, ध्रुव-ध्रुव चिदानंद प्रभु आत्माने देखे छे, अनुभवे छे ते, ‘पस्सदि जिनशासनम् सव्वं’–सर्व जिनशासनने देखे छे. ल्यो, विदेहक्षेत्रे साक्षात् बिराजमान वीतराग सर्वज्ञदेव श्री सीमंधरनाथनी दिव्यध्वनि सांभळीने श्री कुंदकुंदाचार्य आ संदेश अहीं लई आव्या छे; एम के मारग आवो छे.
कहे छे-जेणे पोताना आत्माने सम्यग्दर्शन अने स्वानुभूतिमां ग्रह्यो छे ते ज्ञानी छे. सम्यग्दर्शन ते श्रद्धानरूप छे ज्यारे स्वानुभूति ते ज्ञान ने आनंदनी पर्याय छे. अहीं ‘ज्ञानी’ कह्यो छे ने? तो आ ‘ज्ञानी’नी व्याख्या चाले छे. कहे छे-‘आ बधायमां...’
‘आ बधायमां’ एटले? एटले के कोई पण-कर्तापणाना रागद्वेषमां, पुण्य-पापमां के शरीरसंबंधी - भोक्तासंबंधीना रागमां-ज्ञानीने राग नथी. तेने रागनो राग नथी. झीणी वात छे प्रभु! वीतराग सर्वज्ञना शासन सिवाय आ मारग कयांय छे नहि. आ पद्धति ज आखी (दुनियाथी) जुदी छे. आ तो भगवाननी ओम्ध्वनिमां आवेली वात छे. बनारसी विलासमां आवे छे ने के-
भगवान सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा होय छे. तेमनी वाणी ओम्ध्वनि होय छे. आवी (आपणा जेवी) खंडभाषा तेमने होती नथी. ए तो अनक्षरी ॐध्वनि होय छे. ते ॐध्वनि सांभळीने गणधरदेव तेमांथी अर्थ विचारे छे अने आगम-सूत्र रचे छे. ते सूत्र अनुसार आ समयसार एक सिद्धांत-शास्त्र छे. तेमां अहीं कहे छे-भगवान्! सांभळ तो खरो के निर्जरा शुं चीज छे? अने ते कोने होय छे?
अहाहा...! निर्जरा नाम धर्म-शुद्धिनी वृद्धि छे अने ते त्रण प्रकारे कही छे. तथा ते ज्ञानीने होय छे.
ज्ञानीने एटले? ज्ञानीने एटले सम्यग्द्रष्टिने होय छे. अहाहा...! जेणे पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्माने ज्ञानमां ज्ञेय बनावीने जाण्यो छे तेवा समकितीने निर्जरा थाय छे. वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां अभेद एक पूर्णस्वरूप प्रभु आत्मा जेणे जाण्यो छे ते ज्ञानी छे अने तेने निर्जरा थाय छे. जुओ, वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां आखी पूरण चीजनुं (आत्मद्रव्यनुं) ज्ञान थाय छे पण आखी ने आखी चीज (आत्म-