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प्रश्नः– हा, पण ते बाधा तो नथी करता ने? समाधानः– भाई! वर्तमान (प्रगट मोक्षमार्गमां) बाधा नथी करता; तो पण ते छे तो विघन (विघ्न) रूप. वर्तमानमां जे राग आव्यो छे ते बाधक नथी केमके ज्ञानधारा ने कर्मधारा बेय एकसाथे होय छे; बेयने एकसाथे रहेवामां विरोध नथी ए वात तो आवी गई छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये वर्तमान जेटला सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम थया छे ते ज्ञानधारा छे अने ते ज काळे जेटलो राग बाकी छे तेने निमित्त तरीके-आ बीजी चीज छे एम-मात्र जाणवामां आवे छे; माटे वर्तमान विघन (विघ्न) नथी, छतां जेटली पर्याय रोकाई गई छे तेटलुं तो विघन छे; केमके वर्तमानमां जेटलो राग छे ते छे तो दोषरूप. भाई! व्यवहाररत्नत्रय पण दोषरूप ज छे. अहाहा...! चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानां द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता-ए त्रणेयनुं एकत्व परिणमन थवुं ते सत्यार्थ एटले निश्चय मोक्षमार्ग छे अने ते काळे जे राग होय छे ते तत्काल बाधक नथी तोपण ए स्वयं तो दोषरूप छे अने ज्ञानी तेनी निर्जरा करी दे छे. समजाणुं कांई...? अहा अज्ञानीने तो एवुं ऊंधुं शल्य पडी गयुं छे के-आ व्यवहार करवाथी निश्चय थशे, व्यवहार निश्चयनुं कारण छे; पण भगवाननो मारग बहु जुदो छे बापा!
शुं कीधुं? के सदाय परमात्मस्वरूप एवा भगवान आत्माना आश्रये जे दर्शन- ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणति उत्पन्न थई ते निश्चय मोक्षमार्ग छे अने ते धर्म छे. आवा धर्मना आचरणथी जेने अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी भरती आवी छे ते धर्मी छे. आवा धर्मी जीवनी अहीं वात चाले छे. कहे छे-उदयनो उपभोग त्रण प्रकारनो होय छे-अतीत, वर्तमान ने भविष्य. हवे ए त्रणमांथी प्रथम अतीत उपभोग तो वीती गयो छे, एटले के भूतकाळनो उपभोग तो वर्तमान छे नहि. माटे ते परिग्रहभावने धारतो नथी. शुं कह्युं? के भूतकाळनो राग तो चाल्यो गयो छे, माटे ते परिग्रहपणे वर्तमान छे नहि. आवी वात! हवे कहे छे-
‘अनागत उपभोग जो वांछवामां आवतो होय तो ज परिग्रहभावने धारे.’ जुओ, धर्मीने-के जेने आनंदनी दशा अंदर उत्पन्न थई छे तेने-भविष्यना कोई पण उपभोगनी वांछा नथी. भाई! भविष्यना कोई रागना के विषयना भोगनी वांछा धर्मीने होती नथी. अहाहा...! तेने तो एक निराकुल आनंदना उपभोगनी भावना होय छे. बहु झीणो धर्म प्रभु! भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद प्रभु छे. तेना आश्रये जेने पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद प्रगट थयो छे तेने धर्म प्रगट थयो छे अने ते धर्मी छे. ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’-एम आवे छे ने? ए तो द्रव्यस्वभाव हों, पर्याय नहि. पर्यायमां तो सिद्धपद त्यारे प्रगटे छे के ज्यारे परमानंदनी मूर्ति प्रभु आत्मानो परिपूर्ण आश्रय सिद्ध (प्रगट) थाय छे.
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अहाहा...! आनंद ए आत्मानो धर्म छे ने भगवान आत्मा धर्मी छे. हवे ते धर्म (- गुण, स्वभाव) तो त्रिकाळ छे अने तेना आश्रये प्रगट थयेलो वर्तमान आनंद ते वर्तमान धर्म छे. आनंदनी परम-उत्कृष्ट दशा प्रगटे ते सिद्धपद छे. ल्यो, आवुं बधुं समजवुं पडशे हों; बाकी बहारमां-धूळमां तो कांई नथी. भाई! आ समज्या विना कल्याण नथी.
अज्ञानी एम माने छे के-व्यवहार करतां करतां-व्रत, तप, भक्ति इत्यादि करतां करतां निश्चय थशे. पण तेनी ए मान्यता जूठी छे, साव विपरीत छे. अरे भाई! शुं राग करतां करतां वीतरागता थाय? न थाय. राग करतां करतां वीतराग दशा थाय एम मानवुं ए तो विरुद्ध छे. तद्न विरुद्ध छे. अहीं कहे छे-जेने वर्तमानमां आनंदनो अनुभव थयो छे अर्थात् जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-चारित्र भले वत्तुं-ओछुं हो- प्रगट थयां छे तेने भूतकाळनो उपभोग तो चाल्यो गयो होवाथी तेनी वांछा नथी अने तेथी तेनो एने परिग्रह पण नथी. तथा तेने भविष्यना भोगनी पण वांछा नथी; केमके जेने अंतरमां आनंदनो अनुभव विद्यमान छे तेने (अन्य) भोगनी वांछा कयांथी आवे? अहा! भारे वात भाई! आ तो अहीं निर्जरा कोने थाय छे एनी वात करे छे.
अहा! ज्ञानीने भविष्यना भोगनी पण वर्तमान वांछा नथी. ए तो हवे पछीनी २१६ मी गाथामां वेद्य-वेदकभाव द्वारा विस्तारथी समजावशे. वर्तमान कांक्षा करे छे ते वेद्यभाव छे अने भविष्यमां भोगववानो जे भाव आवे छे तेने वेदकभाव कहे छे. तो, विभावनी वर्तमानमां ज्ञानीने वांछा नथी अने भविष्यमां भोगववानो जे विभावभाव छे तेनी पण ज्ञानीने वांछा नथी. बहु झीणी वात छे भाई! आवुं होय तो ठीक-एम वांछा करवी ते वेद्यभाव छे. ते वेद्यभावना काळे वेदकभाव छे नहि केमके वर्तमानमां (वांछितनो) अनुभव तो छे नहि. अने ज्यारे वेदकभाव आवे छे त्यारे वेद्यभाव-वांछा रहेती नथी. माटे ज्ञानीने विभावनो वेद्य-वेदकभाव होतो ज नथी-एम कहे छे. आ तो गाथा २१६ नो उपोद्घात छे ने? विस्तारथी आ बधुं २१६ मी गाथामां आवशे. झीणी वात छे भगवान!
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदस्वरूपनी मूर्ति प्रभु छे. तेनी सन्मुख थतां आनंद ने वीतरागी शांति प्रगटे छे अने ते मोक्षमार्ग छे. अहा! आवा मोक्षमार्गने प्राप्त थवाथी जेने अतीन्द्रिय आनंदना रसनो स्वाद अंतरमां आव्यो छे तेने, कहे छे, भूतकाळनो भोग तो वर्तमानमां परिग्रहपणे छे नहि अने तेने भविष्यनी-भविष्यना भोगनी-वांछा नथी. आ कारणे तेने भूत ने भविष्यनो उपभोग परिग्रहभावने धारतो नथी. अहाहा...! कहे छे-भविष्यनो उपभोग जो वांछवामां आवे तो ज ते उपभोग परिग्रहभावने पात्र थाय छे; पण भविष्यना
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भोगनी तो ज्ञानीने वांछा छे नहि. माटे ज्ञानीने भविष्यनो उपभोग परिग्रहभावने धारतो नथी. बे (भूत ने भविष्य) नी वात आवी. हवे...
प्रश्नः– आ पांचमा गुणस्थाननी वात छे ने? समाधानः– ना, आ चोथा गुणस्थाननी वात छे. प्रश्नः– निदान तो पांचमे...? (पांचमेथी नथी होतुं ने?) उत्तरः– भाई! चोथे गुणस्थानेथी ज निदान छे नहि.
तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे ने? भाई! त्यां तो जेने मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य अने निदान शल्यनो-त्रणेनो अभाव थयो छे तेने सम्यग्दर्शन थयुं छे अने तेने अंतःस्थिरता वधे त्यारे व्रतनो विकल्प होय त्यारे तेने ‘व्रती’ कहेवामां आवे छे. शुं कह्युं? व्रती कोने कहीए? के जेने मिथ्यादर्शन गयुं छे, रागनी रुचि छूटी गई छे, जे व्यवहाररत्नत्रय होय तेनी पण जेने रुचि नथी अने स्वस्वरूपना आनंदनी ज जेने रुचि छे ते माया, मिथ्यात्व ने निदान एम त्रण शल्योथी रहित समकिती छे अने तेने ज्यारे व्रतनो विकल्प आवे छे त्यारे ते व्रती थाय छे. समजाणुं कांई...? भाई! मिथ्यात्वादि शल्य होय तेने व्रत होतां नथी एम वात छे.
अहाहा...! व्रत कोने होय? के जेने मिथ्या शल्योनो नाश थयो होय तेने व्रत होय छे. मिथ्या शल्यनो नाश कयारे थाय? के पर पदार्थनी क्रिया हुं करी शकतो नथी, रागथी-व्यवहाररत्नत्रयना रागथी पण मने कोई लाभ नथी, एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्माना आश्रये ज मने लाभ (धर्म) छे आवुं स्वाश्रये ज्ञान-श्रद्धान करे त्यारे मिथ्या शल्यनो नाश थाय छे. अहा! स्वसन्मुखताना परिणाम विना सम्यग्दर्शन नहि अने सम्यग्दर्शन विना कोई व्रत होतां नथी. व्यवहाररत्नत्रय ए परसन्मुखताना परिणाम छे, माटे तेना आश्रये सम्यग्दर्शन के वीतरागता प्रगटतां नथी. आवी वात छे.
अरेरे! एणे अनंतकाळमां स्वदया नथी करी! भाई! रागनी उत्पत्ति न थवी ते स्वदया छे. भगवान! परनी दया तो तुं पाळी शकतो नथी अने परनी दया पाळवानो जे भाव थाय छे ते राग छे अने राग छे तेथी ते हिंसानो भाव छे. आकरी वात छे भाई! पण जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भाव पण अपराध छे, हिंसा छे. दिगंबर संत श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे श्री ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’मां (छंद ४४ मां) आम कह्युं छे.
आ समयसार मूळ कुंदकुंदाचार्यनुं छे, अने एनी टीका श्री अमृतचंद्राचार्ये करी छे. अहाहा...! ते वनवासी दिगंबर संतो भगवान केवळीना केडायतो छे. तेओ कहे छे- भगवान! तुं एक वार सांभळतो खरो! के जे भावथी तीर्थंकर-गोत्र बंधाय
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के जे भावथी आहारक शरीर बंधाय (आहारक शरीर आहारक ऋद्धिधारी मुनिने होय छे) ते भाव अपराध छे केमके ते राग छे, बंधनुं कारण छे. अहा!! जे बंधनुं कारण होय ते धर्म केम होय? धर्म तो अबंध परिणाम छे अने पंचमहाव्रतादिना परिणाम तो आस्रव-बंधरूप छे. मारग तो आवो छे भाई! कोई मानी ले के अमे महाव्रत पाळीए छीए ते धर्म छे तो एम छे नहि, केमके ए तो राग छे, चारित्रनो दोष छे, चारित्र तो स्वरूपमां रमवुं ते छे. श्री कुंदकुंदाचार्यनुं प्रवचनसार छे ने? तेमां ‘स्वरूपे चरणम् चारित्रम्’–स्वरूपमां चरवुं ते चारित्र छे एम कह्युं छे. अहाहा...! चारित्र कोने कहीए? के अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप भगवान आत्मामां-स्व-स्वरूपमां रमवुं, अंदर आनंदनी केलि करवी, अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनुं भोजन करवुं एनुं नाम चारित्र छे.
अहीं कहे छे-धर्मी जीवने एक आनंदनी ज भावना छे. अहाहा...! पोतानी दशामां एक आनंद प्रगट करवानी ज धर्मीने भावना छे. जुओ, अंदर अनंतगुणस्वरूप प्रभु आत्मामां एक ‘भाव’ नामनी शक्ति छे. शुं कह्युं? के जेम आत्मामां ज्ञानगुण छे, आनंदगुण छे तेम ‘भाव’ नामनो पण तेमां गुण छे. ४७ शक्तिना प्रकरणमां आ वात आवे छे. हवे जेने अखंड एकरूप चिद्रूप प्रभु आत्मानुं भान थयुं छे तेने ते भानमां अंदर जे भावशक्ति छे तेनी पण प्रतीति आवी छे. तो ते भावशक्तिनुं कार्य शुं छे? तो कहे छे के भावशक्तिना कारणे तेने वर्तमान कोई निर्मळ पर्याय थाय, थाय ने थाय ज; करवी पडे एम पण नहि, गजब वात छे भाई! भावशक्तिनो धरनारो गुणी-प्रभु आत्मा शुद्ध अने भावशक्ति पण शुद्ध. अने तेनुं कार्य शुं? तो एनुं कार्य ए छे के समये समये आत्मामां निर्मळ पर्याय थाय ज छे, होय ज छे.
शुं कह्युं? के कोई गुण छे तो तेनुं कार्य पण होय ने? तेनी पर्याय होय ने? तो भावशक्तिनुं कार्य शुं छे? तो कहे छे-जेने शक्ति अने शक्तिमान प्रभु आत्मानी प्रतीति थई छे तेने समये समये थवावाळी निर्मळ पर्याय थया विना रहे ज नहि, थाय ज-ए भावशक्तिनुं कार्य छे. जे राग थाय तेनी अहीं वात नथी केमके भावशक्तिनुं परिणमन तो निर्मळ परिणमन थवुं ते छे; अने त्यारे जे मलिन परिणाम आवे छे तेनो तो ते (ज्ञानी) ज्ञाता ज छे. वळी ते मलिन परिणामने जाणवावाळी पर्याय पण शुद्ध भावशक्तिना कारणे उत्पन्न थाय ज छे. झीणी वात छे भाई! भावशक्तिना कारणे उत्पन्न थयेली निर्मळ पर्याय, जे प्रकारनो राग बाकी छे तेने जाणती सहज पोताथी उत्पन्न थाय छे. अहाहा...! शुद्ध परिणति करवी एवुं पण त्यां कयां छे? अहो! संतोए अद्भुत वातो करी छे! अहा! जगतने न्याल करी दीधुं छे!
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अहाहा...! जेने पोतानी अनंत ऋद्धिनी-आनंदस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, पवित्रतास्वरूप, स्वच्छतास्वरूप, प्रकाशस्वरूप-एम अनंतगुणस्वरूप ऋद्धिनी द्रष्टि थई छे तेने कहे छे, भूतकाळनो भोग रह्यो नथी तेथी तेनो तेने परिग्रह रह्यो नथी. अने भविष्यना भोगनी तेने वांछा नथी केमके ज्यां आनंदस्वरूप भगवान आत्मा अनुभवमां आव्यो त्यां तेने भोगनी वांछा केम रहे? जेने अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनी भावना उछळे छे तेने अन्य भोगनी वांछाथी शुं काम छे? कांई नहि. हवे वर्तमाननी वात करे छे-
‘अने जे प्रत्युत्पन्न उपभोग ते रागबुद्धिए प्रवर्ततो होय तो ज परिग्रहभावने धारे.’
शुं कह्युं? के वर्तमान उपभोग जो रागबुद्धिए होय तो ज परिग्रहपणाने पामे. पण ज्ञानीने तो रागनो वियोग छे. अहाहा...! धर्मी जीवने राग आवे छे खरो, पण तेने रागनो वियोग छे, अर्थात् रागनो पर्यायमां सद्भाव नथी एम कहे छे. एटले शुं? के ज्ञानीने रागनी रुचि नथी, रागनो राग नथी. तेने राग छे पण द्रष्टिमां तेनो वियोग छे केमके ते हेय छे ने? ज्ञानीने राग हेय छे तेथी ‘राग छे नहि’-एम कह्युं छे. तेथी वर्तमान उपभोग धर्मीने छे नहि. आ प्रमाणे त्रणे काळनो उपभोग धर्मीने होतो नथी एम सिद्ध थाय छे. अहाहा...! त्रिकाळी भगवान ज्यां नजरमां-अनुभवमां आव्यो त्यां त्रणे काळना भोगनी वांछा समाप्त थई जाय छे, रहेती नथी. विशेष ए ज कहे छे-
‘प्रत्युत्पन्न कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने रागबुद्धिए प्रवर्ततो जोवामां आवतो नथी कारण के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव जे रागबुद्धि तेनो अभाव छे.’
जुओ, राग शुभ हो के अशुभ हो; ज्ञानीनी द्रष्टिमां तो सर्व रागथी भेदज्ञान थयुं छे. अहाहा...! धर्मीने रागथी भेदज्ञान थयुं छे माटे तेने रागनो राग छे नहि. माटे तेने रागनो वियोग छे. जुओ, ‘वियोगबुद्धिए’–एम पाठमां छे ने? छे? बीजुं पद छे. अहाहा...! जेने आनंदना-निराकुल आनंदना-रसनो स्वाद आव्यो ते रागनी-दुःखनी भावना केम करे? वर्तमानमां राग आव्यो छे पण तेमां तेने एकत्व नथी. तेथी वर्तमान उपभोग परिग्रहपणाने पामतो नथी. अहाहा...! ‘राग मारो छे’ -एम परिग्रहपणाने पामतो नथी. अहा! आवो वीतराग मारग बापा! बहु सूक्ष्म! ने बहु दुर्लभ!
ज्ञानीने अनंतानुबंधी संबंधी राग छूटी गयो छे अने ते राग छूटी गयो छे तो तेने रागनो वियोग छे एम कहे छे. ज्ञानीने राग थाय छे छतां तेने रागथी संबंध ज नथी एम कहे छे. रागथी भेदज्ञान कर्युं छे ने! तेथी राग साथे तेने कांई संबंध नथी. अहा! आवी वात ने आवी सूक्ष्म वस्तु! वर्तमानमां तो एनी
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वात सांभळवा मळवी पण मुश्केल छे. ज्यां त्यां व्रत करो ने तप करो ने भक्ति करो;-ने कल्याण थई जशे-एवी प्ररूपणा चाले छे. पण भाई! एवी मान्यता मिथ्यात्व छे, एवुं श्रद्धान मिथ्या श्रद्धान छे. शुं रागनी क्रियाथी आत्मानुं कल्याण थाय? न थाय. आत्मानुं कल्याण तो एक वीतरागभावथी ज थाय छे.
त्यारे कोई कहे छे-ते (रागनी क्रिया) करतां करतां तो थाय ने? समाधानः– अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? शुं लसण खातां खातां कस्तूरीनो ओडकार आवे? न आवे. तेम शुं राग करतां करतां वीतरागी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय? न थाय. भाई! राग करतां करतां थाय ए तो भारे विपरीत मान्यता छे. अहा! सम्यग्दर्शन विना जेटलां व्रत, तप छे ते बधांय बाळव्रत ने बाळतप छे. भाई! आत्मकल्याणनो मार्ग बहु जुदो छे बापा!
अहीं कहे छे-वर्तमान कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने परिग्रहभावने धारतो नथी. केम? केमके तेने एमांथी सुखबुद्धि उडी गई छे. ए तो निर्जरा अधिकारनी (१९४ मी) गाथामां आवी गयुं के शाता-अशातानो उदय नियमथी वेदनमां तो आवे छे अने तेथी ज्ञानीने थोडी अशुद्धता थाय छे; परंतु ते खरी जाय छे माटे तेने निर्जरा कहे छे. तेम अहीं कहे छे-ज्ञानीने कंईक अशुद्धता छे, पण रागबुद्धि छूटी गई छे अने तेथी ते परिग्रहपणाने पामती नथी. अहा! आवो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई!
कहे छे-प्रत्युत्पन्न कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने रागबुद्धिए प्रवर्ततो जोवामां आवतो नथी. अहाहा...! ज्ञानी, राग मारुं कर्तव्य छे एम रागबुद्धिथी वा रागथी मने लाभ छे, सुख छे-एम रागमां सुखबुद्धिथी प्रवर्ततो जोवामां आवतो नथी. बहु सूक्ष्म वात छे भाई! अहा! आवी वात भगवान जिनेश्वरना मार्ग सिवाय बीजे कयांय छे नहि.
अहाहा...! जेने निज स्वसंवेदनज्ञानमां निर्मळानंदनो नाथ त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मा जणायो अने निराकुल आनंदनो स्वाद आव्यो तेने, अहीं कहे छे, पूर्वना उदयथी वर्तमान जे भोग छे तेमां रागबुद्धि नथी. तो केवी रीते छे? तो कहे छे-ज्ञानी तेमां वियोगबुद्धिए वर्ते छे. केम? तो कहे छे-कारण के अज्ञानमयभाव जे रागबुद्धि तेनो ज्ञानीने अभाव छे. छे? छे अंदर? अहाहा...! रागबुद्धि छे ते अज्ञानमय भाव छे अने तेनो ज्ञानीने अभाव छे.
जुओ, भगवान आत्मा ज्ञानमय भाव छे, ज्यारे राग अज्ञानमय भाव छे. केम? केमके रागमां ज्ञानमय भावनो अंश नथी. ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मानी ज्ञानपरिणतिनो
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अर्थात् पंचमभावनी परिणतिनो रागमां अभाव छे माटे ते अज्ञानमय भाव छे. अज्ञानमय भाव एटले मात्र मिथ्यात्वभाव ज एम नहि. हा, रागने पोतानो माने वा भलो माने ते मिथ्यात्व भाव छे अने ते ज्ञानीने नथी. अने जे दया, दान आदि रागभाव आवे छे ते पण अज्ञानमय भाव छे अने तेमां ज्ञानी रागबुद्धिए प्रवर्ततो नथी माटे तेनो एने परिग्रह नथी एम कहे छे. अहाहा...! ज्ञानसंपन्न एवो ज्ञानी, राग के जे अज्ञानमय भाव छे तेनो परिग्रह, तेनी पकड केम करे? ल्यो, आवुं बधुं झीणुं!
प्रश्नः– राग तो एक समयनो छे, तो तेने केवी रीते पकडी शकाय? उत्तरः– भाई! राग जे समये छे ते ज समये, ‘ते मारो छे वा एनाथी मने लाभ छे’-एम अज्ञानीने पकड होय छे. पकड तो ते एक समये ज होय, बीजा समये नहि. पहेला समये राग आवे ने तेने बीजा समये पकडवो एम नथी. परंतु ज्ञानीनो उपयोग तो स्वमां वळेलो छे ने? तेथी तेने ‘राग मारो छे’-एम रागनी पकड नथी एम कहे छे. अहाहा...! रागना काळे ज्ञानीने तो ज्ञाननी ने आनंदनी पकड छे; परंतु रागनी पकड नथी. रागने तो तेणे ज्ञानथी जुदो पाडी दीधो छे अने तेथी ज्ञानीने निर्जरा ज थाय छे. आवी वात छे! हवे कहे छे-
‘अने केवळ वियोगबुद्धिए ज (हेयबुद्धिए ज) प्रवर्ततो ते खरेखर परिग्रह नथी.’
जोयुं? ज्ञानीने राग छे तो खरो, पण केवळ वियोगबुद्धिए एटले हेयबुद्धिए छे. ज्ञानी रागबुद्धिए प्रवर्ततो नथी एम पहेलां नास्तिथी कह्युं ने हवे केवळ वियोगबुद्धिए ज प्रवर्ते छे एम अस्तिथी कहे छे. ज्ञानी (रागमां) हेयबुद्धिए प्रवर्तमान छे केमके व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण पोतानी चीज नथी एम ते माने छे. आ प्रमाणे केवळ हेयबुद्धिए ज प्रवर्तमान तेने राग खरेखर परिग्रह नथी. हवे आवो भगवाननो मारग छे; तेमां बीजुं शुं थाय? (मार्ग तो जेम छे तेम छे).
‘वियोगबुद्धि’ एटले शुं? समज्या? एटले के संबंधबुद्धि नहि, पण वियोगबुद्धि, हेयबुद्धि कहे छे-‘वियोगबुद्धिए ज प्रवर्ततो ते खरेखर परिग्रह नथी. माटे प्रत्युत्पन्न कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने परिग्रह नथी.’ अहाहा...! रागमां एकत्वबुद्धि नथी अने ते कारणे ज्ञानीने वर्तमान जे भोग छे ते परिग्रह नथी. हवे ज्यां रागनो परिग्रह नथी त्यां पैसा-बैसा आदिना परिग्रहनी वात तो कयांय रही गई. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-
‘जे अनागत उपभोग ते तो खरेखर ज्ञानीने वांछित ज नथी कारण के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव जे वांछा तेनो अभाव छे. माटे अनागत कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने परिग्रह नथी.’
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शुं कीधुं? के ज्ञानीने अनागत नाम भविष्यना उपभोगनी वांछा ज नथी, केमके तेने भविष्यमां तो वर्तमान एकाग्रतानी पूर्णतारूप मोक्षनी ज वांछा छे. ज्ञानीने अज्ञानमय भाव जे वांछा तेनो अभाव होवाथी अनागत कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने परिग्रहपणुं पामतो नथी. अहाहा...! ज्यां रागनो तेने परिग्रह नथी त्यां लक्ष्मी, कीर्ति के चक्रवर्तीनो वैभव मने हो एवी पकड तो तेने होय ज कयांथी? आ प्रमाणे ज्ञानीने त्रणकाळ संबंधी उपभोग परिग्रहपणाने पामतो नथी.
‘अतीत कर्मोदय-उपभोग तो वीती ज गयो छे.’ भूतकाळनो उपभोग तो वर्तमान छे नहि. एटले ते उपभोगनो परिग्रह ज्ञानीने नथी. वळी,
‘अनागत उपभोगनी वांछा नथी; कारण के जे कर्मने ज्ञानी अहितरूप जाणे छे तेना आगामी उदयना भोगनी वांछा ते केम करे?
जोयुं? समकिती-ज्ञानी भगवान आत्माना ज्ञान ने आनंदनी भावना करे के रागनी? धर्मीने अनागत उपभोगनी वांछा नथी. जेने ते वर्तमानमां हेयपणे जाणे तेनी भविष्यना उपभोग माटे केम वांछा करे? न करे.
प्रश्नः– ए तो ठीक; पण हमणां पैसानुं दान करीए, भक्ति आदि करीए; धर्म तो पछीना भवमां करीशुं.
उत्तरः– अरे भाई! पैसा शुं तारा छे? अने तेनुं दान शुं तुं करी शके छे? पैसा तो जड, धूळ-माटी छे अने ते जडना छे. ए मारा छे अने तेनुं दान हुं करी शकुं छुं एवी मान्यता तो मिथ्यात्व छे जे वडे संसारनी ज वृद्धि थाय छे. हवे आवुं मिथ्यात्वनुं सेवन ज्यां छे त्यां हवे पछीनो भव केवो हशे? विचार कर भाई! (धर्म तो पछीना भवमां करीशुं ए तो शेखचल्लीनो विचार छे.)
प्रश्नः– परंतु दानथी कंईक धर्म तो थाय ने? उत्तरः– धूळेय धर्म न थाय सांभळने. दान-आहारदान, औषधदान, अभयदान, ज्ञानदान-शुभभाव छे ने एनाथी पुण्य थाय छे पण धर्म नहि. भाई! परद्रव्यना लक्षे जेटलो भाव थाय छे ते बधोय राग छे. एक स्वद्रव्यना लक्षे ज वीतरागता अर्थात् धर्म थाय छे. अहाहा...! त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव एम कहे छे के ज्यारे अमे छद्मस्थ मुनि हता त्यारे अमने कोईए आहार दीधो हतो तो तेने शुभभाव हतो पण धर्म नहीं; केमके परद्रव्यना आश्रये कयारेय धर्म थतो नथी, एक स्वद्रव्यना आश्रये ज धर्म थाय छे-आ महासिद्धांत छे.
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अहीं कहे छे के-ज्ञानीने अनागत उपभोगनी वांछा नथी, कारण के जे कर्मने ज्ञानी अहितरूप जाणे छे तेना आगामी उदयना भोगनी वांछा ते केम करे? न करे.
वळी, ‘वर्तमान उपभोग प्रत्ये राग नथी; कारण के जेने हेय जाणे छे तेना प्रत्ये राग केम होय?’ न ज होय. हवे सरवाळो कहे छे के-‘आ रीते ज्ञानीने जे त्रणकाळ संबंधी कर्मोदयनो उपभोग छे ते परिग्रह नथी.’ ज्ञानीने ज्ञाननी-आनंदनी ज भावना छे, रागनी भावना नथी तेथी त्रणकाळ संबंधी उपभोग ज्ञानीने परिग्रहपणाने पामतो नथी. हवे कहे छे-
‘ज्ञानी जे वर्तमानमां उपभोगनां साधनो भेळां करे छे ते तो पीडा सही शकाती नथी तेनो ईलाज करे छे-रोगी जेम रोगनो ईलाज करे तेम आ, नबळाईनो दोष छे.’
शुं कहे छे? ‘ज्ञानी जे वर्तमानमां उपभोगनां साधनो भेळां करे छे...’ भाई! आ तो जरी निमित्तथी समजाव्युं छे हो; बाकी बाह्य साधनो कोण भेळां करी शके? ते प्रकारनो राग आव्यो छे तो ‘साधनो भेळां करे छे’ एम कहेवामां आवे छे. बाकी परद्रव्यने कोण एकत्र करी शके? कोई नहि; केमके परद्रव्य तो जड स्वतंत्र पोते पोताथी परिणमे छे.
जुओ, कोई ज्ञानी पुरुषो होय ते विवाह आदि करे, छतां तेमां जे राग छे तेने ते दुःखरूप ने हेय माने छे. ए तो रागरूपी रोगना ईलाज तरीके तत्काल ते उपाय करे छे पण तेमां एने एकत्वबुद्धि नथी. श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ-ए त्रणेय तीर्थंकर भगवान त्रण ज्ञान ने क्षायिक समकित लईने जन्म्या हता. त्रणेय चक्रवर्ती हता, तीर्थंकर हता ने कामदेव पण हता. अहाहाहा...! ९६ हजार तो स्त्रीओ साथे लग्न कर्यां हतां. परंतु ते आ रीते-रागमां हेयबुद्धिए हों; रागना एक अंशने पण पोतानो मानता न हता. मात्र रोगनो उपचार (ईलाज) करता हता. कह्युं ने के-‘ज्ञानी जे वर्तमान उपभोगनां साधनो भेळां करे छे ते तो पीडा सही शकाती नथी तेनो ईलाज करे छे- रोगी जेम रोगनो ईलाज करे तेम.’
रोगी जे रोगनो ईलाज करे छे तेने ते शुं भलो जाणे छे? शुं ते एम माने छे के निरंतर रोग रहेजो अने तेनो ईलाज पण कायम करवानो रहेजो जेथी सौ जोवावाळा घणा माणसो नित आवता रहे? रोग होय तो माणसो जोवा आवे ने? तो शुं रोग अने तेनो ईलाज कायम रहे एवी शुं रोगीने भावना छे? ना; तेम धर्मीने रागना रोगनी पीडा छे अने तेनो उपभोग वडे ईलाज पण करे छे, पण ए बधुं हेयबुद्धिए. तेने रागनी के तेना उपचारनी भावना नथी. अहा! समकिती चक्रवर्तीने छन्नु हजार स्त्रीओ साथे क्रीडा करवानो राग आव्यो छे अने
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बहारमां सामग्री पण छे, छता ए सर्वमां तेने हेयबुद्धि छे, दुःखबुद्धि छे, समजाणुं कांई...? भाई! आ तो पोतानी जूनी (मिथ्या) मान्यतामां मींडां मूके तो समजाय एवुं छे. बाकी अज्ञानी तो पैसानुं दान कर्युं एटले धर्म थई गयो एम माने छे. पण एमां तो धूळेय धर्म थतो नथी सांभळने.
कोई लाखो-करोडो खर्च करीने बे-पांच मंदिरो बनावे तोय एमां धर्म थाय एम नथी. केम? केमके ए तो बधो शुभराग छे. ते वडे पुण्यबंध थशे, पण धर्म नहि. तथा जे मंदिरो बने छे ए तो जडनी क्रिया जडना कारणे बने छे. शुं ते आत्माथी बने छे? जुओ, आ परमागम मंदिर छे ने? ए तो ते समये एनी बनवानी क्रिया हती तो ते तेना कारणे बन्युं छे. तेनो बनावनारो कोई बीजो (आत्मा) छे ज नहि. आवी वात छे.
आ तो थई गया पछी आप कहो छो? भाई! थई गया पहेलां पण अमे तो आ ज कहेता हता. काठियावाडमां पहेलां कोई दिगंबर मंदिर न हतुं. त्यारे पण आ ज कहेता हता. आजे ३० थी ३प मंदिर थई गयां छे. (अत्यारे पण आ ज कहीए छीए).
पण ए तो आपना आधारे थयां ने? भाई! ए तो एम थवानुं हतुं तो थयुं छे. बाकी निमित्तथी कहेवाय ए जुदी वात छे. निमित्त छे ते कांई परनो कर्ता छे? निमित्त वस्तु छे, पण निमित्त (परनुं) कर्ता नथी. कोईने शुभभाव थतां भगवान निमित्त हो, पण भगवान तेना शुभभावना कर्ता नथी. आवी वात बापा! तत्त्वद्रष्टि बहु सूक्ष्म छे भाई!
अहीं कहे छे-‘ज्ञानी वर्तमानमां उपभोगनां साधनो भेळां करे छे...’ अहा! आ वांची अज्ञानी कहे छे-जुओ! समकिती साधन एकठां करे छे के नहीं?
अरे भाई! कई अपेक्षाए आ लख्युं छे ए विचार तो खरो. असद्भूत व्यवहारथी अने तेमांय उपचारथी आ कह्युं छे. असद्भूत उपचार ने असद्भूत अनुपचार-एम बे प्रकार छे. तेमां आ असद्भूत उपचार व्यवहारनयथी कथन छे. आत्मा कर्मने बांधे छे एम कहेवुं ते असद्भूत अनुपचार छे ज्यारे ज्ञानी सामग्री भेळी करे छे एम कहेवुं ते असद्भूत उपचार व्यवहारनय छे. भाई! आ तो उपचारनो उपचार छे. अहा! पण शुं थाय? (ज्यां अपेक्षाथी अर्थ न समये त्यां शुं थाय?)
अहाहा...! पोते (आत्मा) सदाय ज्ञानस्वरूप छे. ते शुं करे? शुं रजकणने करे? शुं आंखने फेरवे? शुं पांपणने हलावे? के शुं शरीरने चलावे? शुं करे आत्मा?
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अरे भाई! ए बधी तो जडनी क्रिया छे. आ वाणी बोलाय छे ते पण जडनी क्रिया छे. तेमां आत्मानुं कांई कर्तव्य नथी. आवी जेने अंतरमां द्रष्टि थई छे ए तो ज्ञाताद्रष्टा थाय छे. तेने जे राग आवे छे तेनो पण ज्ञाताद्रष्टा छे. ते साधनो भेळां करे छे एम कहेवुं ए तो उपचरित असद्भूत व्यवहार छे. खरेखर तो एने सर्व विकल्प प्रति हेयबुद्धि ज होय छे. कह्युं ने के छन्नु हजार राणीओ साथे लग्न करवाना परिणाम समकिती चक्रवर्तीने थता होय छे पण तेमां तेने सुखबुद्धि नथी पण हेयबुद्धि ज छे.
प्रश्नः– तो पछी ते लग्न शुं काम करे? समाधानः– पण तेवो राग आव्या विना रहेतो नथी. ते नबळाईनो दोष छे. पोतानी अशक्ति छे एटले राग आवे छे पण तेमां एने हेयबुद्धि ज छे, उपादेयबुद्धि नथी. ज्ञानी तो रागने रोग समान जाणे छे.
प्रश्नः– आ जे रोग थाय छे तेने तो डोकटर (-बीजा) मटाडे छे ने? समाधानः– रोग तो एने घेर रह्यो. रोगने अने आत्माने शुं छे? रोग तो शरीरनी-जडनी दशा छे. भाई! आ शरीर छे ते जड पुद्गलनी दशा छे. शरीरमां रोगनुं थवुं ते परमाणुओनी तेवी दशारूपे थवानी जन्मक्षण छे, तेनो उत्पत्ति काळ छे. तेम रोगनुं मटवुं ए पण शरीरना परमाणुओनी तेवी दशा तेना कारणे थाय छे. तेमां दाक्तरो शुं करे? धूळमांय दाक्तरो रोगने मटाडी दे नहि. (दाक्तर रोगने मटाडे छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे). आवी वात छे.
अहीं कहे छे-जेम रोगी रोगनो उपचार करे छे तेम ज्ञानी नबळाईना कारणे जे राग आवे छे तेनो ईलाज करे छे, पण हेयबुद्धिए ज.
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कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकांक्षतीति चेत्–
तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि।। २१६।।
तद्ज्ञायकस्तु ज्ञानी उभयमपि न कांक्षति कदापि।। २१६।।
हवे पूछे छे के अनागत कर्मोदय-उपभोगने ज्ञानी केम वांछतो नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-
–ए जाणतो ज्ञानी कदापि न उभयनी कांक्षा करे. २१६.
गाथार्थः– [यः वेदयते] जे भाव वेदे छे (अर्थात् वेदकभाव) अने [वेद्यते] जे भाव वेदाय छे (अर्थात् वेद्यभाव) [उभयम्] ते बन्ने भावो [समये समये] समये
[उभयम् अपि] ते बन्ने भावोने [कदापि] कदापि [न कांक्षति] वांछतो नथी.
टीकाः– ज्ञानी तो, स्वभावभावनुं ध्रुवपणुं होवाथी, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप नित्य छे; अने जे *वेध-वेदक (बे) भावो छे तेओ, विभावभावोनुं उत्पन्न थवापणुं अने विनाश थवापणुं होवाथी, क्षणिक छे. त्यां, जे भाव कांक्षमाण (अर्थात् वांछा करनारा) एवा वेद्यभावने वेदे छे अर्थात् वेद्यभावने अनुभवनार छे ते (वेदकभाव) ज्यां सुधीमां उत्पन्न थाय त्यां सुधीमां कांक्षमाण (अर्थात् वांछा करनारो) वेद्यभाव विनाश पामी जाय छे; ते विनाश पामी जतां, वेदकभाव शुं वेदे? जो एम कहेवामां आवे के कांक्षमाण वेद्यभावनी पछी उत्पन्न थता बीजा वेद्यभावने वेदे छे, तो(त्यां एम छे के) ते बीजो वेद्यभाव उत्पन्न थया पहेलां ज ते वेदकभाव नाश पामी जाय छे; पछी ते बीजा वेद्यभावने कोण वेदे? जो एम कहेवामां आवे के वेदकभावनी पछी उत्पन्न थतो बीजो वेदकभाव तेने वेदे छे, तो _________________________________________________________________
* वेद्य = वेदावायोग्य. वेदक = वेदनार, अनुभवनार.
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वेद्यते न खलु कांक्षितमेव।
तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान्
सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ।।
(त्यां एम छे के) ते बीजो वेदकभाव उत्पन्न थया पहेलां ज ते वेद्यभाव विणसी जाय छे; पछी ते बीजो वेदकभाव शुं वेदे? आ रीते कांक्षमाण भावना वेदननी अनवस्था छे. ते अनवस्थाने जाणतो ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी.
भावार्थः– वेदकभाव अने वेद्यभावने काळभेद छे. ज्यारे वेदकभाव होय छे त्यारे वेद्यभाव होतो नथी अने ज्यारे वेद्यभाव होय छे त्यारे वेदकभाव होतो नथी. ज्यारे वेदकभाव आवे छे त्यारे वेद्यभाव विणसी गयो होय छे; पछी वेदकभाव कोने वेदे? अने ज्यारे वेद्यभाव आवे छे त्यारे वेदकभाव विणसी गयो होय छे; पछी वेदकभाव विना वेद्यने कोण वेदे? आवी अव्यवस्था जाणीने ज्ञानी पोते जाणनार ज रहे छे, वांछा करतो नथी. अहीं पश्न थाय छे के-आत्मा तो नित्य छे तेथी ते बन्ने भावोने वेदी शके छे; तो पछी ज्ञानी वांछा केम न करे? तेनुं समाधानः– वेद्य-वेदक भावो विभावभावो छे, स्वभावभाव नथी, तेथी तेओ विनाशिक छे; माटे वांछा करनारो एवो वेद्यभाव ज्यां आवे त्यां सुधीमां वेदकभाव (भोगवनारो भाव) नाश पामी जाय छे, अने बीजो वेदकभाव आवे त्यां सुधीमां वेद्यभाव नाश पामी जाय छे; ए रीते वांछित भोग तो थतो नथी. तेथी ज्ञानी निष्फळ वांछा केम करे? ज्यां मनोवांछित वेदातुं नथी त्यां वांछा करवी ते अज्ञान छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः[वेद्य–वेदक–विभाव–चलत्वात्]वेद्य-वेदकरूप विभावभावोनुं चळ-पणुं (अस्थिरपणुं) होवाथी [खलु] खरेखर [कांक्षितम् एव वेद्यते न] वांछित वेदातुं नथी; [तेन] माटे [विद्वान् किञ्चन कांक्षति न] ज्ञानी कांई पण वांछतो नथी; [सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति] सर्व प्रत्ये अति विरक्तपणाने (वैराग्यभावने) पामे छे.
भावार्थः– अनुभवगोचर जे वेद्य-वेदक विभावो तेमने काळभेद छे, तेमनो मेळाप नथी (कारण के तेओ कर्मना निमित्ते थता होवाथी अस्थिर छे); माटे ज्ञानी आगामी काळ संबंधी वांछा शा माटे करे? १४७.
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हवे पूछे छे के अनागत कर्मोदय-उपभोगने ज्ञानी केम वांछतो नथी? शुं कहे छे? के अनागत एटले भविष्यना भोगने ज्ञानी वर्तमानमां केम वांछतो नथी-तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-
‘ज्ञानी तो, स्वभावभावनुं ध्रुवपणुं होवाथी, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावस्वरूप नित्य छे;...’
शुं कह्युं? के भगवान आत्मा ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एवा एक स्वभावभावरूप ज्ञायकभावस्वरूप नित्य छे. ज्ञानीनी द्रष्टि आवा एक त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकस्वभावमां संलग्न छे. अहाहा...! ज्ञानीने एक ध्रुव स्वभावभावनी अखंड एक ज्ञायकभावनी एकाग्रतानी भावना होय छे. तेथी ज्ञानी तो स्वभावभावनुं ध्रुवपणुं होवाथी टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप नित्य छे.
हवे कहे छे-‘अने जे वेद्य-वेदक (बे) भावो छे तेओ, विभावभावोनुं उत्पन्न थवापणुं अने विनाश थवापणुं होवाथी, क्षणिक छे.’
जुओ, वेद्य एटले के इच्छा करनारो भाव अने वेदक एटले के अनुभववा लायकनो भाव. अहीं कहे छे-आ बन्ने भावो विभावभावो छे अने तेओ उत्पाद- व्ययस्वरूप होवाथी क्षणिक छे. एटले शुं? के वर्तमान जे इच्छा थई के ‘हुं आने भोगवुं’ ते इच्छाकाळे-वेद्यकाळे भोगववानो काळ नथी. अहाहा...! इच्छाकाळे-वेद्यकाळे भोगववानो काळ नथी अने भोगववानो काळ आवे त्यारे वेद्य-इच्छानो काळ नथी केमके इच्छानो काळ त्यारे व्यतीत थई गयो छे. समजाणुं कांई...?
फरीने- शुं कहे छे? के धर्मीनी द्रष्टिमां तो ध्रुव स्वभावभाव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहेलो छे. अने वर्तमानमां ते जेने इच्छे छे ते वस्तु-वेदनलायक वस्तु तत्काळ तो छे नहि तथा ज्यारे वेदनलायक वस्तु आवे छे त्यारे वेद्य जे इच्छा थई हती ते होती नथी. माटे ज्ञानी कांई इच्छतो नथी.
अहा! धर्मीने वेद्य-वेदकभावनी भावना केम नथी? तो कहे छे-धर्मीनी द्रष्टि एक नित्य ध्रुवस्वभाव उपर रहेली छे; तेम ज वर्तमान कांक्षमाण जे वेद्यभाव के आने भोगवुं-पैसाने भोगवुं, स्त्रीने भोगवुं, मकानने भोगवुं-आवो जे वेद्यभाव तेना काळे वेदक वस्तु-पैसा, स्त्री, मकान-छे नहि अने ज्यारे वेदक वस्तुनो (पैसा
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आदिनो) अनुभव काळ आवे छे त्यारे ते काळे वेद्य जे इच्छा तेनो काळ नथी केमके बन्ने भावो क्षणिक छे. आम होतां इच्छा प्रमाणे वेदातुं नथी. माटे धर्मीने वेद्य-वेदकभावनी भावना नथी. अहा! आवुं झीणुं छे!
हा, अज्ञानीने पण आवुं तो घणी वखत बने छे? शुं बने छे? के ज्यारे इच्छा थाय त्यारे भोगववानी वस्तु न होय अने भोगववानो काळ आवे त्यारे इच्छा न होय.
अरे भाई! अहीं अज्ञानीनी कयां वात छे? वर्तमानमां भोगववायोग्य वस्तुनो जोग नथी माटे तो अज्ञानी इच्छा करे छे अने ज्यारे ते वस्तु आवे छे त्यारे ते इच्छा तो चाली गई होय छे. छे तो आम, छतां अज्ञानी तो इच्छा कर्या ज करे छे. अहीं तो ज्ञानी केम इच्छा करतो नथी, ज्ञानीने केम वेद्य-वेदकभावनी-विभावनी भावना नथी ए वात करे छे. समजाणुं कांई...!
जुओ, टीकामां पहेलां वेद्य छे अने पछी वेदक छे. पण पाठमां (गाथामां) वेददि वेदिज्जदि–एम पहेलो बोल वेदक अने पछीनो बोल वेद्य छे. पण ए तो गाथाना पदोने मेळववा एम कह्युं छे. तेनो खरो अर्थ तो एम छे के पहेलां वेद्य छे अने पछी वेदक छे. वेददि अर्थात् अनुभववालायकनो काळ अने वेदिज्जदि एटले वेदवानी इच्छा-आम (पहेलां वेदक ने पछी वेद्य) पाठमां छे. पाठ तो पद्य छे ने! एटले पद्यमां बंध बेसे तेम पाठमां कह्युं छे. बाकी टीकामां जेम अर्थ कर्यो छे तेम पहेलां वेद्य ने पछी वेदक छे.
आ कांईक इच्छा थाय के-स्त्री होय तो ठीक, दीकरो होय तो ठीक, आटला पैसा थाय तो ठीक-अहाहा...! आवी जे इच्छा-कांक्षमाण भाव ते वेद्य छे; अने ते तो क्षणिक छे केमके ते उत्पाद-व्ययरूप विभावभाव छे. हवे ज्यारे वेदवायोग्य आवे अर्थात् ज्यारे स्त्री, दीकरो के पैसानो जोग आवे त्यारे ते इच्छानो-वेद्यनो काळ होतो नथी, इच्छानो व्यय थई गयो होय छे. भाई! गाथा अलौकिक छे! शांतिथी धीरज राखीने सांभळवुं. शुं कहे छे? के हुं अमुक चीजने भोगवुं एम ज्यारे भोगववानी वांछा छे त्यारे ते चीज नथी; केमके जो ते चीज होय तो तेनी इच्छा केम थाय? अने ज्यारे ते चीजनो जोग मळ्यो, भोगववानो काळ आव्यो त्यारे इच्छानो जे काळ हतो ते तो चाल्यो गयो. मतलब के चीजने इच्छे छे ते वखते वेदन नथी अने वेदनना काळे जे इच्छा हती ते इच्छा नथी; केमके इच्छा क्षणिक छे. ए तो कह्युं ने के-‘जे वेद्य-वेदकभावो छे तेओ, विभावभावोनुं उत्पन्न थवापणुं अने विनाश थवापणुं होवाथी, क्षणिक छे.’ झीणी वात छे भाई! जरा धीमेथी समजवुं. गाथा ज एवी झीणी छे ने!
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अहीं कहे छे-एक ध्रुव स्वभावभाव निज ज्ञायकभावस्वरूप भगवान आत्मानुं जेने अंतरमां भान थयुं छे एवा ज्ञानीने पर पदार्थने भोगववानी आकांक्षानो वेद्यभाव होतो नथी. केम? केमके ते इच्छा करवी निरर्थक छे; कारण के इच्छा काळे (इच्छेली) वस्तु छे नहि अने ज्यारे वस्तु आवे छे त्यारे ते प्रकारनी इच्छा होती नथी. अहा! अज्ञानी इच्छे छे ते काळे वस्तु नथी अने वस्तुना भोगववा काळे व्यय पामी गई होय छे. माटे अज्ञानी जे इच्छा करे छे ते निष्फळ, निरर्थक छे. ‘श्रीमद् राजचंद्र’मां आवे छे ने के-
‘कया इच्छत खोवत सबै, है इच्छा दुःखमूळ.’ शुं इच्छवुं? इच्छायेलानी (ते काळे) प्राप्ति तेथी नथी, इच्छाकाळे वेदन (वस्तुनो भोगवटो) नथी. माटे इच्छा निरर्थक छे, दुःखमूळ छे. आवो झीणो मार्ग वीतरागनो! अज्ञानी तो ‘दया ते धर्म’-एम माने छे, पण भाई! वीतरागनो मारग बहु जुदो छे.
प्रश्नः– तो दया ते धर्म छे, संवर-निर्जरानुं कारण छे एम शास्त्रमां आवे छे ने? उत्तरः– हा, शास्त्रमां आवे छे; ‘दया विशुद्धो धर्मः’-एम आवे छे, पण ते कया नयनुं वचन छे? अने ते कई दया? जो स्वदया होय तो ते शुद्धोपयोगरूप धर्म छे अने एवा धर्मीने सहकारी परदयानो शुभराग होय छे तेने व्यवहारथी धर्म कहे छे. (पण परदयाने ज कोई धर्म माने तो ते यथार्थ नथी).
वात तो आवी छे बापु! तेमां बीजुं शुं थाय? अरे! शुभभावनी क्रियाथी पुण्यबंध थाय अने एनाथी संवर-निर्जरा पण थाय-एम माननारा अज्ञानीओए तो वीतराग मार्गने पींखी नाख्यो छे! अरे भगवान! आ शुं करे छे तुं बापु! पुरुषार्थसिद्धयुपायमां तो एवी चोख्खी वात करी छे के-जे अंशे राग ते अंशे बंध अने जे अंशे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते अंशे अबंध. आवी चोख्खी वात तो छे प्रभु! पछी शुभभाव वडे संवर-निर्जरा थाय ए वात कयां रही?
अहीं कहे छे-ज्ञानी के जेने ध्रुव एक नित्य ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मानो आदर थयो छे ते, अनित्य अने क्षणविनाशी एवा विभावभावनो आदर करतो नथी. तथा तेनी इच्छा करतो नथी. केम इच्छा करतो नथी? केमके जे वांछा-कांक्षमाण वेद्यभाव होय छे ते तो क्षणिक छे एटले क्षणमां नाश पामी जाय छे अर्थात् ज्यारे वेदननो काळ आवे छे त्यारे तो ते नाश पामी गयो होय छे. माटे ते कोने वेदे? इच्छा वखते इच्छायेलो पदार्थ त्यां छे नहि अने पदार्थने भोगववाना काळे इच्छा छे नहि, जेने वेदवुं हतुं तेनो भाव नथी. अहो! आ तो कोई गजब वात छे! शुं शैली छे! दिगंबर संतोनी समजाववानी कोई अजब शैली छे!!
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अहाहा...! धर्मीने तो, स्वभावभावनुं ध्रुवपणुं होवाथी, ध्रुव एक ज्ञायकस्वभाव उपर ज द्रष्टि छे. गृहस्थाश्रममां रह्या छतां समकितीने, स्वभावभावनी ध्रुवताने लईने अखंड एक ज्ञायकभावनो ज आश्रय होय छे. ते कारणे विभावभावरूप वेद्य-वेदकभावो के जेमनुं उत्पन्न थवुं ने नाश थवुं एवुं क्षणिकपणुं लक्षण छे तेने धर्मी केम इच्छे? (न ज इच्छे). अहाहा...! समकिती छ खंडना राज्यना वैभवमां होवा छतां तेने छ खंडना वैभव प्रति के हजारो स्त्रीना विषयमां रमवा प्रति भावना नथी, इच्छा नथी; केमके ते जाणे छे के ज्यारे इच्छा छे त्यारे भोगववानो काळ नथी अने भोगववाना काळे ते इच्छा नाश पामी गई होय छे. आवी निरर्थक वांझणी इच्छा ज्ञानी केम करे? अज्ञानी आवी निरर्थक इच्छा कर्या करे छे. अज्ञानी करो तो करो; ज्ञानी तो नित्य एक ज्ञायकभावने छोडीने क्षणिक निरर्थक भावोनी भावना करतो नथी, आवो झीणो मारग वीतरागनो! कदी सांभळवा न मळ्यो होय एटले ठेकडी करे के ‘आ तो निश्चयनी वात छे, निश्चयनी वात छे!’ पण एथी प्रभु! तने लाभ नहि थाय हों. आ निश्चयनी वात छे एटले ज सत्य वात छे.
प्रश्नः– तो शुं ज्ञानी भोग भोगवे छे छतां तेने भोगनी इच्छा नथी? उत्तरः– अरे भाई! ते कई अपेक्षाए वात छे? ज्ञानीने रागमां-भोगमां रस ऊडी गयो छे; छतां तेने जे राग-भोग होय छे-आवे छे तेने ते झेर समान जाणे छे. (तेथी तेने भोगनी इच्छा नथी एम कह्युं छे). ए तो पहेलां आ अधिकारमां (कळश १३प मां) आवी गयुं छे के ज्ञानी सेवक छतां असेवक ज छे. भाई! आवो मारग वीतराग सिवाय बीजे कयांय नथी. अहो! दिगंबर संतोए तो केवळीनां पेट खोलीने मूकयां छे. अहा! भगवान कुंदकुंदनी एक एक गाथा अपार ऊंडपथी भरेली छे.
अहाहा...! इच्छाकाळ अने भोगववानो काळ-ए बेनो मेळ खातो नथी. माटे एवी इच्छा कोण (ज्ञानी) करे?
प्रश्नः– पण इच्छा वखते पदार्थ होय एवुं बने के नहि? समाधानः– एवुं त्रणकाळमां बने नहि; केमके जो इच्छा वखते पदार्थ होय तो इच्छा शुं काम थाय? इच्छा ए एक समयनी पर्याय छे अने ते एक समयनी इच्छा वेद्य-कांक्षमाण छे. कांक्षमाण नाम ‘मारे आ जोईए,’ ‘हुं आने भोगवुं.’ आवी इच्छानो काळ क्षणिक छे. माटे ज्यारे चीज आवी जाय छे त्यारे इच्छानो काळ होतो नथी. तेथी ते इच्छा निरर्थक जाय छे. समजाणुं कांई...?
प्रश्नः– हा; पण पहेलां (गाथा २१प ना भावार्थमां) तो एम आव्युं के ‘ज्ञानी जे वर्तमानमां उपभोगनां साधनो भेळां करे छे ते तो पीडा सही शकाती नथी तेनो इलाज करे छे.’ तो आ केवी रीते छे?
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समाधानः– भाई! वर्तमान जे राग थयो छे तेने ज्ञानी पोतानाथी भिन्न ज जाणे छे; छतां राग छे, खसतो नथी तो उपभोगनी सामग्री अर्थात् रागने भोगववानां जे साधनो जे संयोगमां आवे छे ते पर तेनुं लक्ष जाय छे तो ‘ते सामग्री भेळी करे छे- जेम रोगी औषधथी ईलाज करे छे तेम’-एम कह्युं छे. परंतु भाई! ते रागने ने ईलाजने-बेयने, तेओ पोताना नित्य स्वभावभूत नहि होवाथी, निरर्थंक ज जाणे छे. समजाणुं कांई...?
एक बाजु कहे के ज्ञानीने विभावभावरूप जे वेद्य-वेदकभावो तेनी भावना-इच्छा नथी अने वळी कहे के ज्ञानीने राग आवे छे अने तेना ईलाजरूपे ते उपभोग सामग्रीने भेळी करे छे! भारे विचित्र वात! भाई! ए तो राग तूटतो नथी, बीजी रीते समाधान थतुं नथी तो संयोगमां आवेली सामग्री पर तेनुं लक्ष जाय छे परंतु तेमां तेने होंश नथी, भोगमां के रागमां तेने रस नथी. ते तो रागने झेर समान ज जाणे छे. तेथी ते सामग्री भेळी करतो जणाय छतां तेने वेद्यभाव छे अने वेदकभाव छे एम छे नहि. आवी वात छे!
जेमके-कोईए इच्छा करी के पांच लाख होय तो ठीक, हवे ते वखते पांच लाख छे नहि अने ज्यारे पांच लाख थाय छे त्यारे पहेलां जे इच्छा करी हती ते इच्छानो काळ विलीन थई गयो होय छे; चाल्यो गयो होय छे. माटे इच्छा करवी खाली निरर्थक छे एम जाणतो ज्ञानी इच्छा करतो नथी.
प्रश्नः– परंतु ज्यारे पांच लाख आवे अने बीजी नवी इच्छा करे त्यारे तो पांच लाख छे ने?
समाधानः– अरे भाई! ए तो अज्ञानी कर्ता थईने इच्छा कर्या करे छे; परंतु ज्ञानीने तेवुं (कर्ता थईने इच्छा करवी एवुं) कयां छे? निश्चयथी ज्ञानी इच्छा करतो ज नथी. तेने इच्छा-राग आवी जाय छे ए बीजी वात छे. ए तो आगळ कहेवाई गयुं के इच्छाना वखते-रागना वखते ज्ञानी रागने रोग तरीके जाणे छे. ए तो औषधनी जेम तेने जे उपभोगनी सामग्री छे तेना उपर एनुं लक्ष जाय छे के ‘आ सामग्री छे’-बस. पण तेने ए क्षणिक विभावनुं-इच्छानुं स्वामित्व नथी. अहाहा...! ते क्षणिक विभावनो- इच्छानो के भोगनो स्वामी नथी, कर्ताय नथी-एम अहीं कहेवुं छे. बहु झीणुं छे बापु! भाई! आ कांई वाद-विवादनो विषय नथी. जेने अंतरमां धर्मनी-वीतरागतानी जिज्ञासा छे तेने माटे आ वात छे.
हवे कहे छे-‘त्यां, जे भाव कांक्षमाण (अर्थात् वांछा करनारा) एवा वेद्यभावने वेदे छे अर्थात् वेद्यभावने अनुभवनार छे ते (वेदकभाव) ज्यां सुधीमां उत्पन्न थाय
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त्यां सुधीमां कांक्षमाण (अर्थात् वांछा करनारो) वेद्यभाव नाश पामी जाय छे; ते विनाश पामी जतां, वेदकभाव शुं वेदे?’
शुं कहे छे? के वांछा करनारो वेद्यभाव थाय छे ते कयां सुधी? के ज्यां सुधी वेदकभाव उत्पन्न न थाय त्यां सुधी. ज्यां वेदकभाव उत्पन्न थयो त्यां कांक्षमाण वेद्यभाव विनाश पामी जाय छे. अहाहा...! जे वेद्यभाव छे ते वेद्यभावने अनुभवनार अर्थात् जे वेदवायोग्य छे तेने अनुभवनार वेदकभाव ज्यां सुधीमां उत्पन्न थाय छे त्यां सुधीमां तो कांक्षमाण वेद्यभाव विनाश पामी जाय छे. छे? सामे पाठ छे ने? (जरी जीणुं छे माटे) जरी धीमेथी ध्यान दईने सांभळवुं. आ तो धर्मकथा छे, आ कांई लौकिक वार्ता नथी.
अरे! एणे आ कोई दि’ सांभळ्युं नथी! अहीं शुं सिद्ध करवुं छे? के कांक्षमाण भाव-वेद्यभाव वखते वेदन करवा योग्य सामग्री नथी अने तेथी ते वखते वेदकभाव नथी; अने ज्यारे सामग्री आवी ने वेदकभाव थयो त्यारे वेद्यभाव रहेतो नथी. आम ते बेनो मेळ खातो नथी. माटे ज्ञानी तेने इच्छतो नथी.
प्रश्नः– पण जो मेळ खाय तो तो इच्छे खरो ने? उत्तरः– परंतु भाई! बेनो मेळ कदी खातो ज नथी. वर्तमान भावने भविष्यना भावनो-बेनो मेळ खातो ज नथी एम कहे छे. ए क्षणिक विभावभावो छे ने? तेथी तेथी बेनो मेळ खातो ज नथी; तेथी ज्ञानी वांछा करतो नथी.
अहाहा...! ज्ञानी कांई इच्छतो केम नथी? तो कहे छे के-जे भाव कांक्षमाण एवा वेद्यभावने वेदे छे ते वेदनारो-अनुभवनारो वेदकभाव ज्यां सुधीमां उत्पन्न थाय त्यां सुधीमां कांक्षमाण (वांछा करनारो) वेद्यभाव विनाश पामी जाय छे. जेमके वेदवायोग्य भाव आव्यो के मारे आ कन्या साथे लग्न करवां छे ने तेनी साथे रमवुं छे; परंतु ते समये तो तेनो प्रसंग नथी अने ज्यारे प्रसंग आव्यो त्यारे पहेली इच्छानो जे काळ हतो ते चाल्यो गयो छे. तेथी, हवे पाछी बीजी इच्छा थशे. अहा! आम इच्छानुं निरर्थकपणुं जाणीने ज्ञानी तो सर्व परभावनी वांछा छोडीने निज निराकुल आनंदस्वभावना वेदननी भावनामां ज रहे छे. अहाहा...! ज्ञानीने तो पोताना स्वभावनुं ज वेद्य-वेदक छे एम अहीं कहे छे. अहाहा...! ज्ञानीने आनंदनी अनुभूतिनुं वेद्य-वेदक छे, परनुं वेद्य-वेदकपणुं छे नहि.
अहाहा...! जुओ तो खरा! त्रण ज्ञानना धारी अने क्षायिक समकिती तीर्थंकरो (गृहस्थ दशामां, चक्रवर्ती पण होय तो) ९६००० स्त्रीओ परणे छे. तो पण, अहीं कहे छे, तेने भोगववानी इच्छा नथी. गजब वात छे भाई! वच्चे राग आवी जाय छे तो पण तेने तेओ इच्छता नथी, अर्थात् तेओ ते रागना स्वामी थता नथी; केमके
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तेमनी भावना तो निरंतर स्वभावसन्मुखतानी ज रहेली छे. ज्यारे अज्ञानी निरंतर इच्छाओ कर्या ज करे छे आ एनुं अज्ञान छे, मूढता छे.
शुं कहे छे? के ज्यारे कांक्षमाण (वांछा करनारो) वेद्यभाव छे त्यारे भोगववाना भावनो-वेदकभावनो काळ नथी अने ज्यारे भोगववाना भावनो काळ आवे छे त्यां सुधीमां कांक्षमाण (वांछा करनारो) वेद्यभाव विनाश पामी गयो होय छे; हवे ते विनाश पामी जतां वेदकभाव शुं वेदे? एटले शुं? के इच्छानो जे काळ हतो ते तो गयो, तो हवे वेदकभाव-भोगवनारो भाव तेने केवी रीते वेदे? अर्थात् तेणे जे इच्छेलो भाव हतो ते हवे कयां रह्यो छे के तेने वेदे? अहा! आवुं बहु झीणुं पडे पण आ समजवुं पडशे हों; खास फुरसद लईने समजवुं पडशे. अरे! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं अने जो एमां तत्त्वद्रष्टि नहि करे तो ते एळे जशे. अहा! जेम ईयळ इत्यादि अवतार एळे गया तेम तत्त्वद्रष्टि विना आ अवतार पण एळे जशे भाई!
अहा! माणसने (एकांतनो) पक्ष थई जाय छे ने? एटले पोतानी वातने सिद्ध करवा ते शास्त्रमांथी गोती-गोतीने वातो काढे छे. पण भाई! शास्त्रमां कया नयथी कहेलुं छे ए तो जाणवुं जोईशे ने? अहा! अज्ञानी पोताना (मिथ्या, एकांत) अभिप्राय साथे शास्त्रनो मेळ बेसाडवा जाय छे पण ते मेळ केम बेसे? बापु! सत्य तो आ छे के तारे शास्त्रनो अभिप्राय अंदर बेसाडवो पडशे; नहि तो मनुष्यपणुं एळे जशे भाई!
अहीं कहे छे-ते (वांछा करनारो भाव) विनाश पामी जतां वेदकभाव शुं वेदे? अहा! अज्ञानी जे पदार्थने इच्छे छे, इच्छाकाळे ते पदार्थ तो छे नहि; जो ते होय तो ते इच्छे ज केम? अने ज्यारे ते पदार्थ आवे छे त्यारे ओली इच्छानो जे काळ हतो के ‘आने हुं वेदुं’ ए तो रहेतो नथी. माटे जे वेद्य छे ते वेदाणुं नथी, वेदातुं नथी. वेदकपणे जे वेदाणुं छे ए तो ते वखतनो बीजो काळ (बीजी इच्छानो काळ) थयो छे. तेथी वेद्य एटले के जे इच्छा थई के ‘आने हुं वेदुं’ ते इच्छा वेदकनुं वेद्य थयुं नहि. अहा! वेदकभावना काळे-भोगववाना काळे तो बीजी इच्छा थई जाय छे. पहेलां धार्युं हतुं के ‘आ रीते मारे भोगववुं,’ पण भोगववाना काळे ‘बीजी रीते भोगवुं’ एम थई जाय छे. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां पंडित टोडरमलजी साहेबे पण आनो बहु खुलासो कर्यो छे. चीजने भोगववा काळे पण जे पहेली इच्छा हती के ‘आ रीते मारे भोगववुं’ ते बदलाईने बीजी रीते भोगववानी ईच्छा थई जाय छे, केमके बीजी इच्छा आवी ने? इच्छानो कयां थंभाव छे?
अहा! इच्छा थई के सक्करपारो होय तो ठीक. हवे ते समये तो सक्करपारो छे नहि; अने सक्करपारो आवे छे त्यारे पहेली इच्छानो काळ छे नहि; अर्थात् ‘सक्करपारो