Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 213-215 ; Kalash: 146.

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उपचार छे. पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां कह्युं छे के-“ जिनागममां निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन छे, तेमां यथार्थनुं नाम निश्चय तथा उपचारनुं नाम व्यवहार छे.” वळी त्यां ज कह्युं छे के-“निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे. अर्थात् साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते व्यवहार.” अहा! उपचारथी बीजे कथन आवे छे पण आ तो शुद्धनयनुं-यथार्थद्रष्टिनुं कथन छे एम कहे छे.

प्रश्नः– अहीं ‘शुद्धनयनी प्रधानताथी’-एम केम कह्युं? उत्तरः– भाई! यथार्थनयनी द्रष्टिथी तो आम छे के ज्ञानी तेने जे अशननी इच्छा थाय छे तेनो ज्ञायक ज छे, छतां उपचारथी कहीए तो कहेवाय के ज्ञानी भोजन करे छे, खाय छे, पीवे छे इत्यादि. परंतु ए तो उपचारनुं-असद्भुत व्यवहारनयनुं कथन छे. आवुं पण व्यवहारथी कही शकाय छे, बाकी वास्तवमां तो ते अशननो ज्ञायक ज छे.

[प्रवचन नं. २८६ (चालु)*दिनांक ८-१-७७]

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गाथा–२१३
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं।
अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१३।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति पानम्।
अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।।
२१३।।

हवे, ज्ञानीने पाननो (पाणी वगेरे पीवानो) पण परिग्रह नथी एम कहे छेः-

अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न इच्छे पानने,
तेथी न परिग्रही पाननो ते, पाननो ज्ञायक रहे. २१३.

गाथार्थः– [अनिच्छः] अनिच्छकने [अपरिग्रहः] अपरिग्रही [भणितः] कह्यो छे [च] अने [ज्ञानी] ज्ञानी [पानम्] पानने [न इच्छति] ईच्छतो नथी, [तेन] तेथी [सः] ते [पानस्य] पाननो [अपरिग्रहः तु] परिग्रही नथी, [ज्ञायकः] (पाननो) ज्ञायक ज [भवति] छे.

टीकाः– इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी. इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी, ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे; तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी पानने इच्छतो नथी; माटे ज्ञानीने पाननो परिग्रह नथी. ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) पाननो केवळ ज्ञायक ज छे.

भावार्थः– आहारनी गाथाना भावार्थ प्रमाणे अहीं पण समजवुं.

समयसार गाथा २१३ः मथाळु

हवे, ज्ञानीने पाननो (पाणी वगेरे पीवानो) पण परिग्रह नथी एम कहे छेः-

* गाथा २१३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जुओ, एकवार दाखलो नहोतो आप्यो? जामनगरवाळानुं द्रष्टांत आप्युं हतुं के- एक भाईने एकनो एक दीकरो हतो, ने ते भाई हंमेशां चूरमुं ज खाय. हवे अकस्मात तेनो जुवान-जोध दीकरो मरी गयो. बधां सगां-संबंधी तेनो दाह-संस्कार


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करीने पाछां आव्यां. पछी ते भाई कहे के अत्यारे रोटला बनावो. तो बधां सगां वहालां भेगां थईने कहेवा लाग्यां के-हा, ए तो ठीक छे, पण भाई! तमने रोटला पचता नथी ने तमे ते खाशो तो तमोने ते अनुकूळ नहि पडे, केमके रोटला तमारो खोराक नथी. पछी तो सगां-वहालांए भेगा थईने तेमना माटे चूरमुं बनाव्युं. २० वर्षना दीकराने बाळीने आव्या ने चूरमुं बनाव्युं !! चूरमुं थाळीमां नाख्युं ने ते भाईनी आंखमांथी आंसुनी धारा चाली. अहा! शुं तेने ते वखते चूरमामां प्रेम छे? जराय नहि. तेम ज्ञानीने रागमां किंचित् प्रेम नथी. तेने राग छे पण रागमां अनुराग नथी.

बीजुं द्रष्टांतः एक भाईने अफीणनुं भारे बंधाण; अफीण विना चाले ज नहि. एवामां एमनो एकनो एक दीकरो मरी गयो. तेने दाह दईने बधा पाछा आव्या. हवे अफीणनुं टाणुं थयुं. तेमने अफीणनी डाबली आपी. अफीण हाथमां राख्युं त्यां विचार आव्यो के-अरे! दीकरा विना चालशे तो शुं मने अफीण विना नहि चाले? आम विचारीने अफीण फेंकी दीधुं, बंधाण छोडी दीधुं. तेम ज्ञानी विचारे छे के-अहा! मारुं सत्त्व तो एक ज्ञान ने आनंद छे. अहा! हुं तो ज्ञान ने आनंदनुं परम निधान छुं. मारी चीजमां राग नथी. अहा! अनंतकाळमां हुं राग विना ज एक ज्ञायकपणे रह्यो छुं. तो मने रागथी शुं छे? अहा! आम विचारी जे राग आवे छे तेनो ज्ञानी मात्र ज्ञाता ज रहे छे; अने ज्ञाता रहेतो थको जे राग आवे छे तेने छोडी दे छे. आवी वात छे!

अहा! समकितीने अंतरमां गजबनो वैराग्य होय छे. समकिती चक्रवर्ती होय छे ने? तेने ९६ हजार स्त्रीओ होय छे. ३२ कवळनो तेने आहार होय छे. अहा! एक कवळ पण ९६ करोडनुं पायदळ पचावी न शके तेवा ३२ कवळनो तेनो आहार! हीरानी भस्ममांथी तेनो आहार बने छे. छतां पण समकिती छे ने? तेने इच्छानी इच्छा नथी; अर्थात् इच्छाने ते पोतानी चीज मानता नथी. अहा! आनंदनो-निराकुळ आनंदनो अनुभव ए ज जेनुं भोजन छे तेने (बीजा) अशननी के पाननी इच्छा नथी. भारे वात भाई! अहा! धर्म चीज बहु दुर्गम अने दुर्लभ छे; पण तेना फळ कोई अलौकिक छे. (परमपदनी प्राप्ति ए एनुं फळ छे).

हवे टीका-शुं कहे छे? के-‘इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी. इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी. ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे.’ जुओ, ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे, वीतरागतामय ज भाव होय छे पण रागमय भाव होतो नथी एम अहीं कहे छे. अहा! ज्ञानमय भावना कारणे इच्छाना काळे पण ज्ञानीने इच्छानुं ज्ञान सहज पोताथी थाय छे.


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प्रश्नः– ज्ञानी होय तेने मोक्ष अवश्य थाय छे. तो शुं ज्ञानीने राग पण होय छे अने मोक्ष पण थाय छे-ए बराबर छे?

समाधानः– अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? ज्ञानीने राग थाय छे पण शुं ते रागने करे छे? शुं तेने रागनी इच्छा छे? अने शुं तेनाथी (रागथी) तेने मुक्ति थाय छे? बापु! मुक्ति तो रागथी भिन्न पडवानी (भेदज्ञाननी) क्रियाथी थाय छे अने रागथी ज्यारे पूरण भिन्न पडी जाय अर्थात् पूरण वीतराग थइ जाय त्यार पछी तेने मुक्ति थाय छे. भाई! जेम कोईने एकनो एक दीकरो मरी जाय ने घरमां २० वर्षनी स्त्री विधवा थई होय त्यारे घरमां जे माल-सामान पडयो होय ते एने केवो लागे? शुं तेमां एने रस पडे? अहा! एवो उदासी-वैराग्यवंत ज्ञानी होय छे. द्रष्टांतमां तो जे वैराग्य छे ते मोहगर्भित छे, ज्यारे ज्ञानीने तो सहज स्वभावजनित वैराग्य होय छे. अहा! हुं तो ज्ञान ने आनंदनो पूरण भंडार छुं; मारा आनंदनुं परचीज कारण थाय एवी कोई चीज जगतमां छे नहि. आम तेने भेदज्ञान प्राप्त सहज स्वानुभवजन्य वैराग्य होय छे. माटे तेने राग होय छे तोपण रागनो परिग्रह नथी. ए ज कहे छे के-

‘तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी पानने इच्छतो नथी. माटे ज्ञानीने पाननो परिग्रह नथी. ज्ञानमय एवा ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) पाननो केवळ ज्ञायक ज छे.’

जुओ, रागथी जे भिन्न पडयो छे ने जेने अंतरमां स्वानुभवजनित आनंद झरे छे तेवा धर्मीने पाणीनी इच्छा होय छे तोपण ते इच्छानी इच्छा नथी माटे तेने पाननो परिग्रह नथी. पान-ग्रहणनो जे भाव थाय तेनो ते मात्र ज्ञाता ज छे. ज्ञानीने पान ग्रहणनो भाव होय छे तोपण ते एक ज्ञायकभावना सद्भावने कारणे तेनो ज्ञाता ज छे. आवी वात छे.

* गाथा २१३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आहारनी गाथाना भावार्थ प्रमाणे अहीं पण समजवुं.’ ज्ञानीने पाननो (पाणी वगेरे पीवानो) पण परिग्रह नथी. ज्ञानी पाणी पीए छे तोपण तेने एनी इच्छा नथी, केमके पाणी पीवानी जे इच्छा थाय छे ते इच्छानी इच्छा नथी अर्थात् आ पाणी पीवानी इच्छा सदाय रहो एवी तेने इच्छाना अनुरागपूर्वक भावना नथी. ज्ञानी तो तेने रोग समान जाणे छे अने तेने मटाडवा ज इच्छे छे.

अशातावेदनीयना उदयना निमित्ते तेने तृषा उत्पन्न थाय छे. वीर्यांतराय कर्मना


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उदयना निमित्ते तेने एनी वेदना सहन थई शकती नथी अने चारित्रमोहनीयना निमित्ते पाननी इच्छा उत्पन्न थाय छे. छतां ते इच्छानी इच्छा ज्ञानीने नथी. ज्ञानीने इच्छानुं- परजन्य इच्छानुं स्वामीपणुं होतुं नथी. धर्मी जीवने तो पोताना द्रव्य-गुण ने शुद्ध पर्याय ए ज पोतानुं स्व छे अने तेनो पोते स्वामी छे पण राग तेनुं स्व नथी अने तेथी रागनुं एने स्वामीपणुं नथी. माटे ज्ञानी पाननी इच्छानो पण ज्ञायक ज छे. अहा! ज्ञानी पोताना ज्ञायकस्वभावमां स्थित थईने जे इच्छा थाय छे तेने पर तरीके मात्र जाणे ज छे. आवी वात छे.

कोईने वळी थाय के आ बधुं समजवा कयां रोकावुं? एना करतां तो जीवोनी दया पाळवी, प्रतिक्रमण आदि करवां ए सहेलुं पडे छे.

अरे भाई! तने जे सहेलुं पडे छे ए तो राग छे. अने रागमां धर्मबुद्धि थवी ए मिथ्यात्व छे. ज्ञानीने तो रागनो अनुराग नथी. ए तो मात्र जे राग थई आवे छे तेनो जाणनार ज रहे छे. समजाणुं कांई?

[प्रवचन नं. २८६ (शेष)*दिनांक ८-१-७७]

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गाथा–२१४
एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी।
जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ।।
२१४।।
एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावांश्च नेच्छति ज्ञानी।
ज्ञायकभावो नियतो निरालम्बस्तु सर्वत्र।। २१४।।

ए रीते बीजा पण अनेक प्रकारना परजन्य भावोने ज्ञानी इच्छतो नथी एम हवे कहे छेः-

ए आदि विधविध भाव बहु ज्ञानी न इच्छे सर्वने;
सर्वत्र आलंबन रहित बस नियत ज्ञायकभाव ते. २१४.

गाथार्थः– [एवमादिकान् तु] इत्यादिक [विविधान्] अनेक प्रकारना [सर्वान् भावान् च] सर्व भावोने [ज्ञानी] ज्ञानी [न इच्छति] ईच्छतो नथी; [सर्वत्र निरालम्बः तु] सर्वत्र (बधामां) निरालंब एवो ते [नियतः ज्ञायकभावः] निश्चित ज्ञायकभाव ज छे.

टीकाः– इत्यादिक बीजा पण घणा प्रकारना जे परद्रव्यना स्वभावो छे ते बधायने ज्ञानी इच्छतो नथी तेथी ज्ञानीने समस्त परद्रव्यना भावोनो परिग्रह नथी. ए रीते ज्ञानीने अत्यंत निष्परिग्रहपणुं सिद्ध थयुं.

हवे ए प्रमाणे आ, समस्त अन्यभावोना परिग्रहथी शून्यपणाने लीधे जेणे समस्त अज्ञान वमी नाख्युं छे एवो, सर्वत्र अत्यंत निरालंब थईने, नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहेतो, साक्षात् विज्ञानघन आत्माने अनुभवे छे.

भावार्थः– पुण्य, पाप, अशन, पान वगेरे सर्व अन्यभावोनो ज्ञानीने परिग्रह नथी कारण के सर्व परभावोने हेय जाणे त्यारे तेनी प्राप्तिनी इच्छा थती नथी. *

हवे आगळनी गाथानी सूचनारूप काव्य कहे छेः- _________________________________________________________________

* प्रथम, मोक्षाभिलाषी सर्व परिग्रहने छोडवा प्रवृत्त थयो हतो; तेणे आ गाथा सुधीमां समस्त परिग्रहभावने छोडयो, ए रीते समस्त अज्ञानने दूर कर्युं अने ज्ञानस्वरूप आत्माने अनुभव्यो.


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(स्वागता)
पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात्
ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः।
तद्भवत्वथं च रागवियोगात्
नूनमेति न परिग्रहभावम्।। १४६।।

श्लोकार्थः– [पूर्वबद्ध–निज–कर्म–विपाकात्] पूर्वे बंधायेला पोताना कर्मना विपाकने लीधे [ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु] ज्ञानीने जो उपभोग होय तो हो, [अथ च] परंतु [रागवियोगात्] रागना वियोगने लीधे (-अभावने लीधे) [नूनम्] खरेखर [परिग्रहभावम् न एति] ते उपभोग परिग्रहभावने पामतो नथी.

भावार्थः– पूर्वे बंधायेला कर्मनो उदय आवतां उपभोगसामग्री प्राप्त थाय तेने जो अज्ञानमय रागभावे भोगववामां आवे तो ते उपभोग परिग्रहपणाने पामे. परंतु ज्ञानीने अज्ञानमय रागभाव नथी. ते जाणे छे के जे पूर्वे बांध्युं हतुं ते उदयमां आवी गयुं अने छूटी गयुं; हवे हुं तेने भविष्यमां वांछतो नथी. आ रीते ज्ञानीने रागरूप इच्छा नथी तेथी तेनो उपभोग परिग्रहपणाने पामतो नथी. १४६.

*
समयसार गाथा २१४ः मथाळुं

ए रीते बीजा पण अनेक प्रकारना परजन्य भावोने ज्ञानी इच्छतो नथी एम हवे कहे छेः-

जुओ, आ निर्जरा अधिकार छे. धर्म कोने थाय अर्थात् कर्म तथा अशुद्धतानी निर्जरा कोने थाय तेनी आ वात चाले छे. अहाहा...! सर्वज्ञ परमेश्वर वीतराग परमात्माए जे आत्माने जोयो छे ते नित्य ज्ञानानंदस्वभावी छे. अहाहा...! भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु त्रिकाळ सच्चिदानंदमय वस्तु छे. आवा आत्मानां जेने अनुभव ने प्रतीति थयां छे ते समकिती ज्ञानी छे, धर्मी छे. तेने दया, दान, व्रत, भक्ति आदि पुण्यभावनी इच्छा नथी, तथा तेने पापभाव थई आवे तोपण तेनी इच्छा नथी. अहाहा...! ज्ञानीने पुण्य-पापना भावनी इच्छा नथी.

अहीं मुनिनी प्रधानताथी कथन छे ने? अहाहा...! अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनी-प्रचुर आनंदनी लहेरमां जे रमी रहे छे ते मुनि धर्मात्मा छे. एवा मुनिने, कहे छे, पुण्य-पापनी इच्छा नथी तथा आहार-पाणीनी इच्छा नथी. गजब वात छे भाई! मुनिराजने आहार-पाणीनो विकल्प तो थई आवतो होय छे, पण आ


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विकल्प मने सदाय रहेजो एम विकल्पनी तेमने इच्छा नथी. आम चार बोल आवी गया. मुनिराजने बीजुं कांई-वस्त्र-पात्र-आदि तो होतां नथी. अहा! जेने वस्त्र-पात्र होय ते तो मुनि ज नथी. वस्त्र-पात्र-सहित मुनिपणुं माने ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं तो पुण्य-पाप ने आहार-पाणीनी मुनिराजने इच्छा नथी एम चार बोलथी वात करी. हवे कहे छे के बीजा पण अनेक प्रकारना परजन्य भावोने ज्ञानी इच्छतो नथी.

गाथा २१४ः टीका उपरनुं प्रवचन

‘इत्यादिक बीजा पण घणा प्रकारना जे परद्रव्यना स्वभावो छे ते बधायने ज्ञानी इच्छतो नथी तेथी ज्ञानीने समस्त परद्रव्यना भावोनो परिग्रह नथी.’

जुओ, आ शरीर, मन, वाणी इत्यादि तो जड छे ज, परद्रव्य छे ज. एथी विशेष अहीं वात छे के-अंदर जे असंख्यात प्रकारे शुभाशुभ भाव पुण्य-पापना भाव थाय छे ते पण समस्त परद्रव्यना स्वभावो छे केमके ते स्वद्रव्यमय नथी. शुं कीधुं? के जे शुभाशुभभावना असंख्यात प्रकार छे ते सर्व परद्रव्यस्वभावो छे अने ते बधायने ज्ञानी इच्छतो नथी.

अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप भगवान आत्मानो जेने आनंदमय स्वाद आव्यो छे तेने ते निराकुळ आनंदना स्वादनी ज भावना छे, तेने अन्य कोई पण विकल्पनी भावना नथी. अहा! धर्मात्माने समस्त परद्रव्य ने परद्रव्यना लक्षे थता परद्रव्यना भावनी रुचि नथी, तेनुं तेने पोसाण नथी. अहा! जेने अंतरमां आनंदनो नाथ ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा पोसायो तेने परद्रव्यना भावोनुं पोसाण नथी. कमजोरीने लईने तेने कोई विकल्प-राग थई जाय छे पण तेने ते हेयबुद्धिए मात्र जाणे ज छे. हवे आवो मारग बिचाराने सांभळवाय मळे नहि ते के दि’ विचारे अने के दि’ पामे?

कहे छे-जे समस्त परद्रव्यना स्वभावो छे तेने धर्मी इच्छतो नथी. अहा! मुनिराजने व्रत, तप आदिना विकल्प होय छे, आहार-पाणीनो विकल्प होय छे पण ते विकल्पथी लाभ छे वा विकल्प आश्रय करवायोग्य छे एम ते मानता नथी. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद प्रभु आत्माना आनंदनो अंतरमां जेने स्वाद आव्यो ते (विरस एवा) विकल्पना स्वादने केम इच्छे? न इच्छे. विकल्पना स्वादनी मीठाश, पुण्यना स्वादनी मीठाश तो अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिने होय छे. ज्ञानी तो समस्त परद्रव्यना स्वभावोने इच्छतो नथी अने तेथी तेने समस्त परद्रव्यना भावोनो परिग्रह नथी, पकड नथी. अहाहा...! रागनी एकतानी गांठ जेणे खोली नाखी छे-तोडी नाखी छे, अने जेणे अंदर शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनी एकता प्रगट करी छे ते ज्ञानीने समस्त परद्रव्यना भावोनो परिग्रह नथी. आवी वात!


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प्रश्नः– तो आ बधा-स्त्री-पुत्रादि छे तेनुं शुं करवुं? तेमने कयां नाखी देवां? उत्तरः– अरे भाई! तेओ (स्त्री-पुत्र आदि) तारा हता के दि’? ते दरेक चीज तो प्रभु! पोत-पोताना अस्तित्वमां ज छे. तारा अस्तित्वमां ते कयांथी आवी गयां के तेनुं शुं करवुं एम विचारे छे? ए तो बधां भाई! ताराथी पृथक्-न्यारां ज छे. अहीं तो विशेष एम कहे छे के-आ राग-असंख्यात प्रकारे थता जे पुण्य-पापना भाव-ते पण भगवान! तारी शुद्ध चैतन्यसत्तामां नथी. तेओ रागना अस्तित्वपणे छे, पण तारा (शुद्ध आत्माना) अस्तित्वमां कयां छे? अहाहा...! आत्मा अने ते पुण्य-पापना भाव भिन्न ज छे. भाई! पुण्य-पापना भाव तो विकार छे, मेल छे. (अने तुं? तुं तो अत्यंत शुचि परम पवित्र पदार्थ छो).

जुओ, उमराळामां एक छोकरो हतो. सुंदर एनुं नाम. ते सुंदरने एवी टेव के ए नवरो थाय एटले नाकमांथी मेल काढे. आ गुंगो नथी कहेता? ए गुंगो नाकमांथी काढे अने पछी गुंगाने बे दांत वच्चे दाबे अने तेने जीभनुं टेरवुं अडाडे. आ प्रमाणे ते गुंगानो स्वाद ले. तो कोई मित्रो जोडे बेठा होय तो ते टकोर करे एटले गुंगो काढी नाखे. पण वळी ज्यां नवरो थाय त्यां बीजो गुंगो काढे ने स्वाद ले. तेम अज्ञानी जीव घडीक दया, दानना ने सेवाना जे शुभभाव थाय ते मारा छे एम मानीने तेनो स्वाद ले छे अने घडीकमां विषय-कषाय आदि पापना भावनो स्वाद ले छे, आ बेय गुंगा जेवो मेलनो स्वाद छे. आकरी वात छे प्रभु! पण यथार्थ छे. शुभ ने अशुभ विकल्पनो जे स्वाद छे ते मेलनो स्वाद छे, झेरनो स्वाद छे. छतां अरेरे! अज्ञानी जीव तेना स्वादमां अनादिथी रोकायेलो छे! अहा! ते दिगंबर साधु-मुनि अनंत वार थयो तोपण ते रागनो-जे महाव्रतादिना परिणाम हता तेनो-स्वाद लईने मानतो हतो के मने आत्मानो स्वाद छे! पण तेथी शुं? (सुख लेश न पायो).

अहीं कहे छे-धर्मी जीवने समस्त परद्रव्य ने परद्रव्यना स्वभावोनो परिग्रह नथी, पकड नथी. तेने नथी पुण्यनी पकड के नथी पापनी पकड. अरे! जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भावनीय ज्ञानीने पकड नथी. अहा! जेणे अतीन्द्रिय आनंदनी मूर्ति प्रभु आत्माने अंतर अनुभव करीने ग्रह्यो छे तेने अन्य परिग्रह केम होय? ए तो गाथा २०७ मां आवी गयुं के धर्मी ने निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा जे परमात्मस्वरूपे अंदर विराजी रह्यो छे तेनो ज परिग्रह छे. आत्मा ज ज्ञानीनो परिग्रह छे. पछी पुण्य ने पापनी अने तेना फळनी पकड एने केम होय? न ज होय. हवे आवो वीतरागनो मार्ग! एनी दुनियाने खबर न मळे एटले बहारमां (क्रियाकांडमां) धर्म मानी बेसे पण एम कांई बहारथी धर्म थई जाय?

हवे कहे छे-‘ए रीते ज्ञानीने अत्यंत निष्परिग्रहपणुं सिद्ध थयुं.’


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अहाहा...! ‘णिरालंबो’–एम छे ने पाठमां? एटले ‘अत्यंत निष्परिग्रहपणुं’- एम टीकामां कह्युं. ज्ञानीने एक ज्ञायकस्वभावना आलंबन सिवाय अन्य परनुं आलंबन छे नहि तो तेने अत्यंत निष्परिग्रहपणुं छे एम कह्युं. झीणी वात छे भाई! अहा! दुनिया अनादिकाळथी दुःखना पंथे पडेली छे. तेने पोतानुं कांई भान नथी अने बहारमां माने के अमे कांईक (धर्म) करीए छीए. पण ए तो अज्ञान छे.

प्रश्नः– कोईकनी सेवा करीए तो ए वडे धर्म तो थाय ने? उत्तरः– धूळेय धर्म न थाय सांभळने. परनी सेवानो विकल्प ए तो राग छे, पुण्य छे; धर्म नथी. वळी परनी सेवा करवी-एवो जे अभिप्राय छे तथा ते वडे धर्म थाय एवो जे अभिप्राय छे ए मिथ्या अभिप्राय होवाथी मिथ्यादर्शन छे अने ए ज अनंत संसारनी वृद्धिनुं कारण छे.

प्रश्नः– हा, पण परनी सेवा करवी पण त्यां कर्ताबुद्धि न राखवी-एम अभिप्राय करी सेवा करे तो?

उत्तरः– भाई! परनी सेवा करवी ए मान्यता ज कर्ताबुद्धिनी छे, अने ए ज मिथ्यात्व छे सूक्ष्म वात छे भाई! (परनुं करवुं ने कर्ताबुद्धि न राखवी ए बेने मेळ कयां छे?) अहीं तो कहे छे के रागनी सेवा करे ने रागमां एकत्व पामे ते पण मिथ्यात्व छे.

प्रश्नः– तो पछी अमारे करवुं शुं? उत्तरः– रागथी भिन्न पडीने सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मानो अनुभव करवो-बस आ ज करवानुं छे. भाई! आ मोटा शेठीआ-करोडपति ने अबजोपति-बधाय भिखारा छे केमके अंदर अनंत अनंत चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार प्रभु आत्मा विराजे छे तेनुं एमने भान नथी. अहाहा... अनंतु केवळज्ञान प्रभु तारामां (स्वभावमां) छे. प्रगट केवळज्ञान तो एक समयनी पर्याय छे; पण एवी तो अनंती केवळज्ञाननी शक्तिनो प्रभु! तुं भंडार छो. आवी स्वरूपलक्ष्मीने तुं जुए नहि अने आ पुण्य अने पैसानी तने आकांक्षा छे? मूढ छो के शुं? भगवान! ए तो नरक ने निगोदमां जवानो पंथ छे. माटे त्यांथी पाछो वळ अने स्व-स्वरूपमां नजर कर. आ ज करवानुं छे.

अहीं कहे छे-धर्मीने अत्यंत निष्परिग्रहपणुं छे. पाठमां ‘सव्वत्थ णिरालंबो’–छे ने? अहाहा...! जेने व्यवहाररत्नत्रयना रागनुं के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाना रागनुं पण आलंबन नथी ते धर्मीने अत्यंत निष्परिग्रहपणुं छे-एम कहे छे. पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा अंदर अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदस्वरूपे बिराजमान छे; ज्ञानीने आवा निज स्वरूपनो ज परिग्रह छे अने तेथी तेने अत्यंत निष्परिग्रहपणुं छे.


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‘भरत घरमां वैरागी’-एम आवे छे ने? जुओ, भरत चक्रवर्तीने ९६ हजार राणीओ अने छ खंडनुं राज्य हतुं. छतां अंदरमां तेओ महा वैरागी हता. बस वैराग्य... वैराग्य... वैराग्य-एम के-मारी चीजमां आ कोई पर वस्तु नहि अने परमां हुं नहि; बस हुं हुंमां अने मने मारो ज (शुद्ध आत्मानो ज) परिग्रह छे-आम स्व-स्वभावना ग्रहण वडे तेओ अत्यंत वैराग्यभावे परिणमता हता. अहो! धर्मी जीवनुं अंतर- परिणमन ज्ञान अने वैराग्यथी भरपूर होय छे. अहा! स्व-स्वरूपना आचरणथी जेने निराकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते धर्मात्माने अत्यंत निरालंबनपणुं छे, अत्यंत निष्परिग्रहपणुं छे केमके तेने कोई पण परद्रव्य के परद्रव्योना भावोनी पकड नथी.

हवे कहे छे-‘हवे ए प्रमाणे आ, समस्त अन्यभावोना परिग्रहथी शून्यपणाने लीधे जेणे समस्त अज्ञान वमी नाख्युं छे एवो, सर्वत्र अत्यंत निरालंब थईने, नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहेतो, साक्षात् विज्ञानघन आत्माने अनुभवे छे.’

शुं कह्युं? के आ जे दया, दान, व्रत आदिना विकल्प ऊठे छे तेनाथी भगवान आत्मा शून्य छे. आवा रागरहित वीतरागस्वभावी भगवान आत्मानो जेने परिग्रह छे ते समस्त अन्यभावोना परिग्रहथी रहित ज्ञानी धर्मी छे. अरे! बिचारा अज्ञानीने मनुष्यपणुं तो अनंतवार मळ्‌युं पण आवी शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी वात एणे कदी सांभळी नहि! अहा भगवानना! समोसरणमां पण अनंतवार गयो ने त्यां दिव्यध्वनि पण सांभळी के-‘भगवान! तुं रागथी भिन्न परिपूर्ण एक विज्ञानघनस्वभावी प्रभु आत्मा छो.’ पण एणे एनी रुचि करी नहि अर्थात् भगवाननी वात सांभळी नहि. अहा! अनंतकाळमां एणे राग करवो ने राग भोगववो-बस ए बे ज वात सांभळी छे अने एनो ज एने अनुभव छे. ‘सुदपरिचिदाणुभूदा’–एम गाथा चारमां आवे छे ने? अरे! एणे काम एटले रागनी इच्छा अने भोग एटले रागनुं-झेरनुं भोगववुं -बस आ बे ज वात अनंतवार सांभळी छे. अहा! दया, दान आदि पुण्यना भाव के जे झेर छे-तेने करवा ने भोगववा एम अज्ञानीए अनंतवार सांभळ्‌युं छे. एने खबर नथी के पुण्यने पण ज्ञानी विष्टा-मेल जाणी तेने छोडी दे छे.

अहीं कहे छे के धर्मी जीव पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्माना आलंबन सिवाय परमां सर्वत्र आलंबनरहित छे अने तेणे समस्त अज्ञान वमी नाख्युं छे. एटले शुं? के रागना जे विकल्पो ऊठे छे ते सर्व-‘आ मारुं स्वरूप नथी’-एम जाणी धर्मीए ते सर्वने द्रष्टिमांथी छोडी दीधो छे, केमके ए तो मेल छे, गुंगानो स्वाद छे. हवे ज्यां आम छे त्यां पुण्यनां फळ जे करोडो ने अबजोनी धूळ-साह्यबी ए तो कयांय रही गई. समजाणुं कांई...? अहाहा...! पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे ते सर्वत्र निरालंब छे अने तेणे ‘राग मारो छे’ एवुं अज्ञान छोडी दीधुं छे.


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शुं कीधुं? वीतरागस्वभावथी पूरण भरेलो भगवान आत्मा-अहाहा...! अकषायरसथी-आनंदरसथी शोभतो प्रभु आत्मा पूरण विज्ञानघन वस्तु छे. अहाहा...! आवा अनंत अनंत स्वभावना सामर्थ्यथी परिपूर्ण प्रभु आत्मानी जेने अंतरमां द्रष्टि थई छे ते, बीजी कोई चीज मारी नथी एम जाणीने सर्वत्र निरालंब छे अने तेने समस्त अज्ञान मटी गयुं छे. छे? टीकामां छे के-जेणे समस्त अज्ञान वमी नाख्युं छे एवो ते छे. आवी वात! वमी नाख्युं छे एटले? जेम कोई मनुष्य भोजन जमीने वमी नाखे पछी तेने फरी ग्रहण न करे, तेम अहीं कहे छे- जेणे समस्त अज्ञान वमी नाख्युं छे अर्थात् जेणे राग मारो छे एवी द्रष्टि छोडी दीधी छे ते हवे फरीने ‘राग मारो छे’- एवुं अज्ञान ग्रहण नहि करे. अहाहा...! ज्ञानीए ‘राग मारो छे’-एवी द्रष्टि छोडी दीधी छे ते एवी छोडी छे के ‘राग मारो छे’-एम फरीथी ते नहि माने. आवी वात! अहो! आचार्यदेवे अंतरमां रहेला अप्रतिहत भावने खुल्लो कर्यो छे. (मतलब के हवे अमने फरीथी अज्ञान नहि थाय). हवे आवो मारग! लोको तो बिचारा दया पाळवी ने दान करवुं ने तपस्या करवी -एमां धर्म मानी जिंदगी आखी गाळी दे छे, पण भाई! ए रागनी क्रिया छे, धर्म नथी. अरे भाई! हमणां पण आवुं शुद्ध तत्त्व समजमां न आव्युं तो तारा परिभ्रमणनो अंत नहि आवे प्रभु!

अहीं कहे छे-‘जेणे समस्त अज्ञान वमी नाख्युं छे एवो, सर्वत्र अत्यंत निरालंब थईने, नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहेतो...’ अहाहा...! ज्ञानीने तो दरेक प्रसंगमां एक ज्ञायकभावपणे ज रहेवुं छे, एने प्रसंगना संगमां जोडावुं ज नथी-एम कहे छे. अहा! आवो-वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो हुकम छे! अहाहा...! हुं तो जाणग... जाणग... जाणग-एवो शाश्वत एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा छुं एवुं जेने अंतरमां भान थयुं छे तेने रागादि पामर (क्षुल्लक) वस्तुनी इच्छा केम रहे? ए तो सर्वत्र निरालंब थयो थको एक ज्ञायकभावपणे ज रहे छे, बस जाणुं... जाणुं... जाणुं (करुं कांई नहि)-एम जाणनारपणे ज रहे छे. बिचारा अजाण्या माणसने-नवो होय तेने-एवुं लागे के आवो उपदेश? आ बधुं (व्रत, भक्ति आदि) अमे करीए छीए ते शुं खोटुं छे?

भाई! तुं शुं करे छे? सांभळने! तुं तो मात्र राग करे छे. परनुं तो तुं कांई करी शकतो नथी अने पर्यायमां जे राग करे छे ते तो अज्ञान छे, अधर्म छे. भाई! रागनी साथे जे एकत्व छे ते अज्ञान छे. धर्मीए तो अज्ञान वमी नाख्युं छे अने ते सर्वत्र अत्यंत निरालंब थईने, नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहेतो, साक्षात् विज्ञानघन आत्माने अनुभवे छे. छे अंदर? साक्षात् एटले प्रत्यक्ष विज्ञानघनस्वरूप आत्माने अनुभवे छे. ल्यो, आवी वात!


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प्रश्नः– शुं ते मुनिदशा छे? समाधानः– ना, समकितनी दशा छे. मुनिदशा तो स्वरूपमां विशेष-विशेष रमणता-स्थिरतारूप छे. सम्यग्द्रष्टिने स्वरूपमां विशेष रमणता थतां प्रचुर आनंदनुं वेदन थाय छे त्यारे मुनिदशा आवे छे. मुनिपणुं आवतां अतीन्द्रिय आनंदनी मस्तीनी भरती आवे छे. भाई! आ नग्नपणुं के महाव्रतादि पाळवां ए कांई मुनिपणुं नथी; ए तो राग छे, दोष छे. पण अरे! एणे शरणयोग्य निज आत्मस्वभावनुं -अखंड एक ज्ञायकभावनुं -शरण कदीक पण लीधुं होय तो ने? (तो आ समजाय ने?)

कहे छे-ज्ञानी साक्षात् विज्ञानघन आत्माने अनुभवे छे. केवो थईने? सर्वत्र निरालंब थईने. अहाहा...! भगवान आत्मा अखंड एक विज्ञानघनस्वरूप छे. अर्थात् अन्य चीजथी रहित एकलो ज्ञाननो गांगडो-ज्ञाननो पुंज-चिदानंदघन प्रभु आत्मा छे. अने तेने ज्ञानी साक्षात् अनुभवे छे. जुओ आ धर्मी जीव! व्रत पाळे छे ने उपवासादि करे छे माटे धर्मी छे एम नहि. अहा! जे एक ज्ञायकभावने साक्षात् अनुभवे छे ते धर्मी छे. कोईने वात आकरी लागे पण भाई! व्रतादिना विकल्प तो आस्रवतत्त्व छे अने एथी भिन्न शुद्ध ज्ञायकतत्त्व भगवान आत्मा छे. शुद्ध ज्ञायकतत्त्वना अवलंबने तेनो साक्षात् अनुभव थवो ते धर्म छे. अहा! धर्मी जीव सर्वत्र निरालंब थईने अखंड एक विज्ञानघनस्वभावी आत्माने साक्षात् अनुभवे छे.

* गाथा २१४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पुण्य, पाप, अशन, पान वगेरे सर्व अन्यभावोनो ज्ञानीने परिग्रह नथी कारण के सर्व परभावोने हेय जाणे त्यारे तेनी प्राप्तिनी इच्छा थती नथी.’

शुं कीधुं? के दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि पुण्यभाव छे; ने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना ने काम-क्रोधादि पापभाव छे. ज्ञानीने ए सर्व पुण्य-पापना भावोनो, तथा आहार-पाणीना भावनो इत्यादि सर्व अन्यभावोनो परिग्रह नथी. अहाहा...! शुं शैली छे! एक गाथामां तो पूर्णस्वरूप कह्युं छे! सर्व अन्यभावोनो - परद्रव्यना भावोनो ज्ञानीने परिग्रह नथी. अहा! ते भावो मारा छे एम ज्ञानीने पकड नथी. ज्ञानी तो तेमने पोतानाथी भिन्न-पृथक तरीके जाणे छे अने तेओ हेय छे एम माने छे. जोयुं? सर्व परभावोने ते हेय माने छे. अहा! देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिना भावने पण ते हेय तरीके जाणे अने माने छे.

प्रश्नः– देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिना भावने साधन केम कहेता नथी? उत्तरः– भाई! जे हेय छे तेने साधन केम कहेवुं? त्रण काळमां ते साधन नथी. अहीं कह्युं छे ने के-(ज्ञानी) ‘सर्व परभावोने हेय जाणे त्यारे तेनी प्राप्तिनी इच्छा थती नथी.’ अहाहा... जेणे शुद्ध चैतन्यमय एक आत्मानो अनुभव कर्यो ते


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ज्ञानी छे, अने ते सर्व परभावोने हेय जाणे छे. अने तेथी तेने आ भावो मारा छे अने तेने हुं मेळवुं एम इच्छा थती नथी. आवी वात छे.

पंडित श्री टोडरमलजीना वखतमां ब्र. रायमलजी थई गया छे. तेमणे ‘चर्चा संग्रह’ नामना पुस्तकमां कह्युं छे के-

प्रश्नः– आत्मा ही के ध्यानसे मोक्ष होना कही सो कारण कहा? मोक्ष तो एक वीतराग भावसों होय है, सो वीतराग भाव कोई ही कारण कर हुआ चाहिए. एक आत्मा ही के ध्यानका कहा प्रयोजन है? ताका उत्तरः-

उत्तरः– यह तर्क तैंने कही सो सत्य है. वीतराग भावोंसे ही मोक्ष होय है यामें तो संदेह नाहीं परंतु वीतराग भाव कारण के बिना होय नाहीं यह नियम है.

जैसे एक लोहेका पिंड अग्नि विषें डारिये तब वह लोहेका पिंड तप्तायमान उष्णताको प्राप्त होय है और अग्नि माँहि ते काढि फेरि अग्नि विषें ही डारिये तो त्रिकाल उष्णता को छाँडि शीतलताको प्राप्त होय नाहीं-और अग्नि माँहि सों काढि सूर्य के ताप विषें धरिये तो सर्व प्रकार संपूर्ण शीतल होय नाहीं, किंचित् उष्णता लिये रहे ही-और यदि जल विषें गोलाको क्षेपिये तो तत्काल अन्तर्मुहूर्तमें शीतल होय.

ऐसे ही आत्मा चिद्रूप पिंडको कषायोंका कारण पुत्र-पुत्री-स्त्री-धन-शरीरादि अशुभ कारण विषें उपयोगको लगाईये तो तीव्र कषाय उत्पन्न होय और फेरि विषयभोगकी सामग्री विषें उपयोगको लगाईये तो त्रिकाल विषें कषाय शान्त होय नाहीं, और देव-गुरु-धर्म-दान-तप-शील-संयम-त्याग-पूजा-सामायिक-दया आदि विषें परिणाम लगाईये तो मंदकषाय होय और षट्द्रव्य-नवपदार्थ-पंचास्तिकाय-सप्त तत्त्व - गुणस्थान-मार्गणा-कर्मकाण्डका चिंतवन करै तो विशेष अत्यंत मंदकषाय होय, और आत्मा के गुणपर्याय विषें उपयोग लगाये तो परम शुक्ल लेश्या होय, बहुरि आत्माका अभेदरूप अवलोकन करै तो सर्व प्रकार वीतराग भाव होय है. वीतराग भावों से मोक्ष होय है.’’ (हिन्दी आत्मधर्म, जान्यु. १९७७).

शुं कीधुं? के वीतरागभावथी मोक्ष थाय छे; अने ए वीतरागभाव केवी रीते उत्पन्न थाय छे? तो कहे छे-स्त्री-पुत्रादि प्रति लक्ष करो तो तीव्र कषाय थाय छे. देव- गुरु-शास्त्र प्रति लक्ष करो तो मंद राग थाय छे अने स्वस्वरूप संबंधी-द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी भेद-विचार करो तो अत्यंत मंद राग थाय छे. पण एमां वीतरागता कयां आवी? न आवी. वीतरागता तो चिदानंदमय वीतरागस्वभावी शुद्ध आत्माना आश्रये थाय छे अर्थात् शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्माने ज कारण बनावे तो


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वीतरागता थाय छे. आवो मारग छे! भाई! वादविवादे आ कांई पार पडे एम नथी.

त्यारे कोई वळी शरीरनी क्रियाथी-जीवित शरीरथी धर्म थाय एम माने छे. पण भाई! शरीर तो अजीव छे अने शरीरनी जे क्रिया थाय ते पण अजीव ज छे. शरीरनी क्रियाथी चेतनमां शुं थाय? कांई ज न थाय. आवो दुनिया माने एनाथी साव जुदो भगवान जिनेश्वरदेवनो मार्ग छे! संप्रदायमां तो आ वात पण मळवी मुश्केल छे.

*

हवे आगळनी गाथानी सूचनारूप काव्य कहे छेः-

* कळश १४६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पूर्वबद्ध–निज–कर्म–विपाकात्’ पूर्वे बंधायेला पोताना कर्मना विपाकने लीधे ‘ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु’ ज्ञानीने जो उपभोग होय तो हो,...

शुं कीधुं? के धर्मी जीवने वर्तमानमां अंदर आत्मभान होवा छतां पूर्वे अज्ञानभावथी बंधायेला पोताना कर्मना विपाकने लीधे जो उपभोग होय तो हो,...

प्रश्नः– पण कर्म तो पोतानुं नथी ने? उत्तरः– भाई! पोतानामां जे भाव अज्ञानपणे थयो हतो तेने अहीं पोतानां कर्म कहेवामां आवेल छे. अज्ञानभाव जे कोई कर्म पूर्वे बंधायेलां तेने अहीं पोतानां कर्म कह्यां छे. अने तेना विपाकने लीधे एटले के तेनो उदय थई आवतां ज्ञानीने जो उपभोग होय तो हो-एम कहे छे. अहीं बे वात करी छे. एक तो ए के-जेने अंदर आत्मानुं भान थयुं छे अर्थात् आत्मानुभव थईने सम्यग्दर्शन थयुं छे तेने पूर्व कर्मने लईने संयोग होय तो हो तथा बीजुं ए के-ते वस्तुना संयोगनो तेने उपभोग होय तो हो,...

‘अथ च’ परंतु ‘रागवियोगात्’ रागना वियोगने लीधे (-अभावने लीधे) ‘नूनम्’ खरेखर ‘परिग्रहभावम् न एति’ ते उपभोग परिग्रहभावने पामतो नथी.

अहाहा...! शुं कीधुं? के धर्मीने रागनो अभाव छे. संयोग छे, संयोगीभाव एवो (चारित्रमोहनो) राग छे तोपण तेने रागनी रुचि नहि होवाथी रागनो (मिथ्यात्व सहित रागनो) अभाव छे एम कहे छे. अहा! जेने रागनी रुचि छे तेने निर्मळानंदनो नाथ प्रभु जे आत्मा तेना प्रति अनादर छे, अरुचि छे. भाई! जेने पुण्यनी-दया, दान, व्रत आदि शुभरागनी-रुचि छे तेने शुद्ध चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा प्रति द्वेष छे. अने जेने भगवान आत्मानी रुचि थई छे तेने राग


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प्रति अरुचि होय छे. आवी वात छे. एक म्यानमां बे तलवार कदी रही शके नहि. एटले शुं? एटले के ज्यां रागनी रुचि छे त्यां आत्मानी रुचि होती नथी अने ज्यां आत्मानी रुचि जाग्रत थाय त्यां रागनी रुचि-द्रष्टि रहेती नथी. तेथी कह्युं के समकितीने रागनो अभाव छे.

कोईने वळी थाय के आ तो जाणे कोई वीतरागी महा मुनिराजनी वात करे छे. पण भाई! सम्यग्द्रष्टि पण द्रष्टिए तो वीतराग ज छे. अहाहा...! वीतरागस्वभावी भगवान आत्मानी जेने द्रष्टि थई ते द्रष्टि अपेक्षाए वीतराग ज छे केमके तेने समस्त रागनी रुचि उडी गई छे. अहा! अहीं कहे छे ज्ञानीने परद्रव्यनो उपभोग होय तो हो, छतां तेने ते उपभोग परिग्रहभावने पामतो नथी केमके तेने रागनो (-रागनी रुचिनो) अभाव छे.

अहाहा...! कहे छे के-जेने अंदरमां स्वानुभव प्रगट थयो छे तेने पूर्वनां अज्ञानभावे बंधायेलां कर्मोथी संयोग हो तो हो, अने संयोग प्रति जरी लक्ष जतां जरी अस्थिरतानो अंश हो तो हो; छतां पण तेने परिग्रह नथी. केम? केमके तेने रागनो वियोग नाम अभाव छे. अहाहा...! जे राग छे तेनो ज्ञानीने राग नथी माटे तेने रागनो अभाव छे एम कहे छे. झीणी वात छे बापा! जेम हाथमां सर्प पकडयो होय तो ते हाथमां राखवा माटे पकडयो नथी पण छोडवा माटे पकडयो छे, तेम ज्ञानीने जे राग आवे छे ते छूटी जवा माटे छे; ज्ञानीने एनी पकड नथी. हवे आवी वात अज्ञानीने बेसे नहि एटले सामायिक ने पोसा ने प्रतिक्रमण इत्यादि बहारनी क्रियाओमां मंडयो रहे अने माने के धर्म थई गयो, पण एमां तो धूळेय धर्म न थाय, सांभळने. ए तो बधी रागनी क्रियाओ छे. भगवान आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान विना ए बधी क्रियाओ तो अज्ञानमय भाव छे, समजाणुं कांई...?

अहा! ज्ञानीने रागादि भावो किंचित् थाय छे खरा, पण ते भावो मारुं स्व छे अने हुं तेनो स्वामी छुं एवुं तेने नथी. जेम घरे लग्न-प्रसंग होय अने पोते साधारण स्थितिनो होय तो गामना शेठनां घरेणां लई आवे पण ते पोतानां छे एम शुं ते गणे छे? ए घरेणांनो पोते स्वामी छे एम शुं ते माने छे? ना; ए तो परभारां ज छे अने बे दिवस राखीने सोंपी देवानां छे एम माने छे. तेम धर्मी पोताने जे राग आवे छे ते परभारो छे, परनो छे, पोतानो नथी अने ते सोंपी देवानो छे एम माने छे. जेम कोईने रोग थाय तो तेने दूर करवाना उपचार करे पण रोग भलो छे एम जाणी कोई रोगने इच्छे खरो? न इच्छे. तेम धर्मी रागने इच्छतो नथी, बलके जे राग आवे छे तेने दूर करवानो ते उद्यम राखे छे. रागने रोगसमान जाणे छे तेथी धर्मीने खरेखर ते उपभोग परिग्रहभावने पामतो नथी. जे राग आवे छे ते राखवा जेवो छे वा एनाथी पोताने लाभ छे एम धर्मीने छे


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नहि. ए तो रागने रोग ज माने छे अने एनाथी सर्वथा छूटी जवा ज इच्छे छे. आवी वात छे.

* कळश १४६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पूर्वे बंधायेला कर्मनो उदय आवतां उपभोगसामग्री प्राप्त थाय तेने जो अज्ञानमय रागभावे भोगववामां आवे तो ते उपभोग परिग्रहपणाने पामे.’

जोयुं? आ पैसा आदि जे उपभोगसामग्री प्राप्त थाय ते पूर्वनां कर्मने लईने थाय छे, ते पोताना पुरुषार्थथी प्राप्त थाय छे एम नथी. कह्युं ने के-‘पूर्वे बंधायेला कर्मनो उदय आवतां उपभोगसामग्री प्राप्त थाय...’ भाई! आ स्त्री-पुत्र-परिवार, बाग- बंगला, महेल ने धनसंपत्ति इत्यादि जे प्राप्त थाय ते पूर्व कर्मना उदयना अनुसारे छे. हवे ते उपभोगसामग्रीमां जो रागनी मीठाश होय तो ते उपभोग परिग्रहपणाने पामे एम कहे छे. अहा! सामग्रीने जो अज्ञानमय रागभावे भोगववामां आवे तो ते उपभोग परिग्रहपणाने पामे छे. हवे कहे छे-

‘परंतु ज्ञानीने अज्ञानमय रागभाव नथी. ते जाणे छे के जे पूर्वे बांध्युं हतुं ते उदयमां आवी गयुं अने छूटी गयुं; हवे हुं तेने भविष्यमां वांछतो नथी.’

जुओ, आ कर्मनी निर्जरा कोने थाय एनी वात चाले छे. निर्जरा अधिकार छे ने? कहे छे-ज्ञानीने अज्ञानमय रागभाव नथी; राग भलो छे एवी रागनी मीठाश ज्ञानीने नथी. ए तो जाणे छे के पूर्वे जे कर्म बांध्युं हतुं ते उदयमां आवीने छूटी गयुं. अहाहा...! जेने पूर्णानंदनो नाथ चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा अनुभवमां आव्यो छे तेने कर्मना निमित्ते सामग्री मळे छे अने राग पण जरी थाय छे, छतां रागनी इच्छानो अभाव होवाथी ते राग छूटी जाय छे, निर्जरी जाय छे. आम ज्ञानीने निर्जरा थाय छे.

‘पुण्णफला अरहंता’–एम आवे छे ने प्रवचनसारमां? (गाथा ४प) भाई! अरिहंत भगवानने पुण्यना फळ तरीके अतिशय वगेरे होय छे पण भगवानने ते उदयनी क्रिया क्षणे-क्षणे खरी जाय छे माटे ते उदयनी क्रियाने क्षायिकी कही छे. जुओ, आ अपेक्षाए वात छे त्यां. तेम अहीं कहे छे-साधकपणामां जे जीव स्वभावसन्मुख थयो छे तेने, हजी रागादि पण होय छे पण ते क्रिया तेने खरी जाय छे, निर्जरी जाय छे माटे ज्ञानीने-साधकने निर्जरा छे. भगवान केवळीने वाणी, गमन इत्यादि मात्र जडनी क्रियाओनो ज उदय छे, ज्यारे साधकने तो रागादि छे, छतां ते रागादि तेने खरी जाय छे माटे तेने निर्जरा कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– ‘पुण्णफला अरहंता’–भगवानने पुण्यना फळपणे अरिहंतपणुं प्राप्त थयुं छे ने?


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उत्तरः– एवुं कयां छे भाई! एमां? पुण्यनुं फळ तो तीर्थंकरोने (अरहंतोने) अकिंचित्कर छे-एवुं तो गाथानुं मथाळुं छे. त्यां तो एम कहे छे के-तीर्थंकरने पूर्वनां पुण्यने लईने समोसरणनी रचना, वाणी, विहार आदि क्रियाओ होय छे. ते उदयनी क्रिया क्षणेक्षणे नाश थती जाय छे. उदयभाव क्षणेक्षणे नाश पामतो जाय छे माटे ते उदयभावने क्षायिक कहेवामां आवे छे. तेवी रीते ज्ञानीने पूर्वना उदयने लईने जे सामग्री अने रागादि होय छे ते क्षणे क्षणे खरी जाय छे माटे तेने निर्जरा कहेवामां आवे छे. भगवान अरिहंतनी उदयनी क्रियाने क्षायिकी कहेवामां आवे छे, ज्यारे साधकनी उदयनी क्रियाने निर्जरा कहेवामां आवे छे. आ शैली छे! शुं कह्युं? फरीने-

के तीर्थंकर केवळी भगवान थाय छे ए तो केवळज्ञान, केवळदर्शन अने पूरण आनंदनी प्राप्ति वडे थाय छे. पण हवे तेमने पूर्वना पुण्यने लईने विहार, वाणी आदि जे होय छे ते बधी क्रियाओ उदयनी छे. पूर्व कर्मना उदयनी ते क्रियाओ क्षणेक्षणे नाश पामे छे माटे ते उदयनी क्रियाने क्षायिकी कही छे. ज्यारे साधकनी उदयनी क्रियाने निर्जरा कहे छे. -आ प्रमाणे ‘पुण्णफला अरहंता’–नी साथे मेळ छे. अरिहंत भगवानने उदयनो नाश थाय छे माटे तेने ‘क्षायिक’ कह्यो छे ज्यारे धर्मीने राग थाय छे ते निर्जरी जाय छे तो तेने निर्जरा कही छे.

अहीं कहे छे-ज्ञानीने अज्ञानमय रागभाव नथी. ते जाणे छे के जे पूर्वे बांध्युं हतुं ते उदयमां आवी गयुं अने छूटी गयुं; हवे हुं तेने भविष्यमां वांछतो नथी. जोयुं? ज्ञानीने उदयभावनी इच्छा नथी. ‘आ रीते ज्ञानीने रागरूप इच्छा नथी तेथी तेनो उपभोग परिग्रहपणाने पामतो नथी.’ ज्ञानीने रागनी इच्छानो अभाव छे तेथी तेनो उपभोग परिग्रहभावने प्राप्त थतो नथी. ल्यो, आवी वात छे.


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उप्पण्णोदयभोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं।
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी।। २१५।।
उत्पन्नोदयभोगो वियोगबुद्धया तस्य स नित्यम्।
कांक्षामनागतस्य च उदयस्य न करोति ज्ञानी।।
२१५।।

हवे, ज्ञानीने त्रणे काळ संबंधी परिग्रह नथी एम कहे छेः-

उत्पन्न उदयनो भोग नित्य वियोगभावे ज्ञानीने,
ने भावी कर्मोदय तणी कांक्षा नहीं ज्ञानी करे. २१प.

गाथार्थः– [उत्पन्नोदयभोगः] जे उत्पन्न (अर्थात् वर्तमान काळना) उदयनो भोग [सः] ते, [तस्य] ज्ञानीने [नित्यम्] सदा [वियोगबुद्धया] वियोगबुद्धिए होय छे [च] अने [अनागतस्य उदयस्य] आगामी (अर्थात् भविष्य काळना) उदयनी [ज्ञानी] ज्ञानी [कांक्षाम्] वांछा [न करोति] करतो नथी.

टीकाः– कर्मना उदयनो उपभोग त्रण प्रकारनो होय-अतीत (गया काळनो), प्रत्युत्पन्न (वर्तमान काळनो) अने अनागत (भविष्य काळनो). तेमां प्रथम, जे अतीत उपभोग ते अतीतपणाने लीधे ज (अर्थात् वीती गयो होवाने लीधे ज) परिग्रहभावने धारतो नथी. अनागत उपभोग जो वांछवामां आवतो होय तो ज परिग्रहभावने (परिग्रहपणाने) धारे; अने जे प्रत्युत्पन्न उपभोग ते रागबुद्धिए प्रवर्ततो होय तो ज परिग्रहभावने धारे.

प्रत्युत्पन्न कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने रागबुद्धिए प्रवर्ततो जोवामां आवतो नथी कारण के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव जे रागबुद्धि तेनो अभाव छे; अने केवळ वियोगबुद्धिए ज (हेयबुद्धिए ज) प्रवर्ततो ते खरेखर परिग्रह नथी. माटे प्रत्युत्पन्न कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने परिग्रह नथी (-परिग्रहरूप नथी).

जे अनागत उपभोग ते तो खरेखर ज्ञानीने वांछित ज नथी (अर्थात् ज्ञानीने तेनी वांछा ज नथी) कारण के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव जे वांछा तेनो अभाव छे. माटे अनागत कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीने परिग्रह नथी (-परिग्रहरूप नथी).

भावार्थःअतीत कर्मोदय-उपभोग तो वीती ज गयो छे. अनागत उपभोगनी वांछा नथी; कारण के जे कर्मने ज्ञानी अहितरूप जाणे छे तेना आगामी उदयना भोगनी वांछा ते केम करे? वर्तमान उपभोग प्रत्ये राग नथी; कारण के जेने हेय


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जाणे छे तेना प्रत्ये राग केम होय? आ रीते ज्ञानीने जे त्रण काळ संबंधी कर्मोदयनो उपभोग ते परिग्रह नथी. ज्ञानी जे वर्तमानमां उपभोगनां साधनो भेळां करे छे ते तो पीडा सही शकाती नथी तेनो इलाज करे छे-रोगी जेम रोगनो इलाज करे तेम. आ, नबळाईनो दोष छे.

*
समयसार गाथा २१पः मथाळुं

हवे, ज्ञानीने त्रणे काळ संबंधी परिग्रह नथी एम कहे छेः-

* गाथा २१पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कर्मना उदयनो उपभोग त्रण प्रकारनो होय-अतीत (गया काळनो), प्रत्युत्पन्न (वर्तमान काळनो) अने अनागत (भविष्य काळनो).’ भूत, वर्तमान ने भविष्य-एम त्रण काळ छे ने? तेनी आ वात करे छे.

‘तेमां, प्रथम, जे अतीत उपभोग ते अतीतपणाने लीधे ज (अर्थात् वीती गयो होवाने लीधे ज) परिग्रहभावने धारतो नथी.’

जुओ, आ निर्जरा अधिकार छे ने? एमां जेने निर्जरा थाय छे ते धर्मी कोने कहीए-एनी वात चाले छे. अहाहा...! जेने अंदरमां सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानो निराकुळ आनंद प्रगट थयो छे वा जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रयना परिणाम वा निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट थयो छे ते समकिती धर्मी छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये जे आत्मा निश्चयरत्नत्रयरूप परिणम्यो छे ते आत्माने निश्चयमोक्षमार्ग कहीए छीए अने ते सद्भूत व्यवहारनय छे. निर्मळ पर्याय छे ने? तेथी शुद्धरत्नत्रयरूप परिणत आत्माने निश्चयमोक्षमार्ग कहीए ते सद्भूत व्यवहारनय छे, अने त्यारे दया, दान, व्रतादिना जे परिणाम आवे छे तेने निमित्तरूपे (वा सहचररूपे) जाणवा ते असद्भूत व्यवहारनय छे. त्यां ए व्यवहाररत्नत्रय छे माटे निश्चयरत्नत्रय प्रगटयुं छे एम नथी अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय कांई निश्चयनुं कर्ता नथी.

प्रश्नः– पण ए निमित्त कारण तो छे ने? समाधानः– हा; निमित्त कारण छे. पण एनो अर्थ शुं? एने असद्भूत व्यवहारनयथी कारण कहेवामां आवे छे. एनो अर्थ ए ज थाय छे के ते वास्तविक-खरुं कारण नथी. तेने कारण मात्र आरोप आपीने कहेवामां आवे छे. झीणी वात छे भाई! व्यवहार समकित अर्थात् देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग अने पंचमहाव्रतादिना परिणामनो विकल्प-ए बधुं असद्भूत व्यवहारनय छे. एटले के ते वास्तविक कारण नथी पण आरोपित कारण छे. ते मोक्षमार्गमां कांई-किंचित् पण-कार्यकारी नथी.