Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 212.

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छे पण चोथे गुणस्थाने ज्यां धर्मनुं पहेलुं पगथियुं एवुं सम्यग्दर्शन थयुं छे त्यां पण धर्मीने स्वसंवेदननी-आत्मस्वरूपमां एकाग्रतानी ज भावना होय छे. छतां ज्ञानीने जे राग आवे छे, पापभाव थाय छे ते तेनी कमजोरी छे. ते समये रागनी उत्पत्तिनुं परिणमन स्वयं पोताना षट्कारकथी थाय छे. झीणी वात छे भाई!

शुं कह्युं? के जेम पोताना निर्मळज्ञाननुं-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं-पर्यायमां षट्कारकरूपे परिणमन पोताथी पोतामां थाय छे तेम राग जे थाय छे ते पण, पोते (- ज्ञानी) कर्ता थया सिवाय, पोताना (-रागना) षट्कारकना परिणाम नथी स्वतंत्र थाय छे. अहा! एक पर्यायना बे भाग! एक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय ने बीजी रागनी पर्याय. जे समये पोताथी-पोताना कर्ता-कर्म-करण-संप्रदान आदि छ कारकना परिणमनथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र उत्पन्न थयुं छे ते ज समये रागनी पण उत्पत्ति छे, पापभावनी पण उत्पत्ति छे. जोके आ पापभाव अज्ञानमय भाव छे केमके तेमां ज्ञानस्वभावनो अंश नथी तोपण ज्ञानीने ते मारो छे एम तेनुं स्वामित्व नथी, इच्छा नथी तेथी कह्युं के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव होतो नथी.

‘ज्ञानीने ज्ञानमय भाव ज होय छे.’ ज्ञानीने पोताना चैतन्यस्वभावनुं- ज्ञाता-द्रष्टास्वभावनुं परिणमन छे ने? तेथी तेने ज्ञानमय एटले वीतरागतामय, आनंदमय परिणमन ज होय छे. तेने जे किंचित् राग-पापभाव थाय छे तेने ते पोतानाथी पृथक्पणे मात्र जाणे ज छे. अहा! ज्ञानीने तो पोताना आत्मानुं ज्ञान अने ते रागनुं ज्ञान-एम ज्ञानमय भाव ज होय छे. अहो! आचार्यदेवे कोई अद्भुत शैलीथी वात करी छे!

प्रश्नः– ज्ञानीने कर्मना उदयनी बळजोरीथी राग आवे छे एम कोई ठेकाणे वात आवे छे ने?

उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तनी मुख्यताथी कथन छे. वास्तवमां तो पोतानी पर्यायमां कमजोरीथी विकार थाय छे अने ते ज समये ज्ञानीने ज्ञाता-द्रष्टास्वभावनुं परिणमन पण होय छे. (पुरुषार्थनी कमजोरीने उदयनी बळजोरी कहेवी ए कथनपद्धति छे). आवो वीतरागनो मारग छे.

हवे कहे छे-‘तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी अधर्मने इच्छतो नथी.’

शुं कह्युं? के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेनो अभाव छे. तेने पापभाव मारो छे-एम पापमां एकत्वनो अभाव छे. अहाहा...! ज्ञानीने पापनी भावना नथी, इच्छा नथी. पापभाव हो, पण एमां तेने मीठाश नथी, एकताबुद्धि नथी. तेथी ज्ञानी पापने इच्छतो नथी. आवो वीतरागनो मारग अत्यारे तो सांभळवा मळवोय दुर्लभ छे.


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भाई! एणे (जीवे) पुण्य कर्युं, व्रत पाळ्‌यां, तप कर्यां, भगवाननी भक्ति करी ने पूजा पण अनंतवार करी छे. परंतु अरे! अनंतकाळमां एक क्षणमात्र पण कयारेय एने धर्म कर्यो नथी. केम? केमके ए शुभरागने एणे आत्मानो धर्म मान्यो छे. पण भाई! ए शुभरागमां आत्माना स्वभावनो अभाव छे अने आत्माना स्वभावमां शुभरागनो अभाव छे. तेवी रीते अशुभरागमां आत्माना स्वभावनो अभाव छे अने आत्मस्वभावमां अशुभरागनो अभाव छे. तेथी शुभरागनी जेम ज्ञानी अशुभरागने- अधर्मने इच्छतो नथी.

अहा! कहे छे-‘ज्ञानी अधर्मने इच्छतो नथी; माटे ज्ञानीने अधर्मनो परिग्रह नथी.’

अहा! ज्ञानी अधर्मने एटले पापभावने इच्छतो नथी छतां ते पापभाव कमजोरीथी आवे छे. भारे विचित्र वात भाई! तेनी जन्मक्षण छे तो ते आवे छे पण ज्ञानीने एनी भावना नथी. पापभाव मने हो एनाथी मने लाभ छे-एवी बुद्धि ज्ञानीने होती ज नथी. माटे, ज्ञानीने अधर्मनो परिग्रह नथी, अर्थात् ज्ञानीने पापनी पकड नथी. ज्ञानी तो जे पापभाव आवे छे तेनो मात्र (परज्ञेयपणे) जाणनार ज रहे छे. आ पापभाव मारो छे एम ज्ञानीने पकड नथी.

प्रश्नः– ज्ञानी पापभावने जाणे छे तो शुं तेने दूर करवानो उपाय नथी करतो? समाधानः– भाई! तेने ज्ञानी जाणे ज छे-ए ज तेने दूर करवानो उपाय छे. अहा! अंदर आत्मानी भावना छे, अंतरमां एकाग्रता थाय छे-ए ज विकल्पने दूर करवानो उपाय छे. वळी खरेखर तो तेने (विकल्पने) दूर करवो एवुं पण कयां छे? ए तो पोताना ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मानी एकाग्रताना अभ्यासथी ते पुण्य पापना विकल्पोनो क्रमशः नाश थई जाय छे; अर्थात् पोताना ‘चैतन्यस्वभावनी एकाग्रतानो अभ्यास करवो ए ज कर्तव्य छे, ए ज उपाय छे.

अहा! ज्ञानीने रागभाव होय छे, पण तेनी एने इच्छा नथी; माटे ज्ञानीने परिग्रह नथी. ‘श्रीमद् राजचंद्र’ मां आवे छे ने के-

‘कया इच्छत खोवत सबै, है इच्छा दुःख मूल.’

हवे ज्यां आम छे त्यां ज्ञानीने कोनी इच्छा होय? आनंदस्वरूप भगवान आत्मानी भावना होय के दुःखरूप विकारनी-शुभाशुभ विकल्पनी भावना होय? शुभ- अशुभ विकल्पनी भावना तो बंधन छे अने ए तो अज्ञानीने होय छे. ज्ञानीने तो विकार होवा छतां विकारनी भावना नथी, इच्छा नथी. माटे ज्ञानीने अधर्मनो परिग्रह नथी, पकड नथी. आ रीते एने निर्जरा थई जाय छे. आवो वीतरागनो मारग बहु सूक्ष्म छे भाई! दुनिया तो बहारमां-स्थूळ रागमां-धर्म मानी बेठी छे पण सर्वज्ञ परमेश्वरे


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तो जेमां आत्मप्राप्ति थाय तेने धर्म कह्यो छे. अहा! आवो धर्म जेने प्रगट थयो छे एवा ज्ञानीने अधर्मनी-पापभावनी पकड होती नथी.

हवे कहे छे-‘ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) अधर्मनो केवळ ज्ञायक ज छे.’

अहाहा...! हुं तो शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप प्रभु ज्ञानमय आत्मा छुं, रागमय के उदयभावमय हुं नहि-आवुं जेने अंतरमां एक ज्ञायकभावना लक्षे भान थयुं छे तेने एक ज्ञायकभावनो सद्भाव छे. अहीं कहे छे-एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे ज्ञानी अधर्मनो केवळ ज्ञायक ज छे. अहा! पापना जे भाव थाय तेनो ते जाणवावाळो ज छे. केम? केमके तेने ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावनो सद्भाव छे अर्थात् ते ज्ञायकभावना स्वभावे परिणमी रह्यो छे. आवी वात! भाई! आ पैसा-बैसा तो जरी पुण्य होय तो मळी जाय छे, विशेष बुद्धि न होय तोपण पुण्य होय तो पैसा मळी जाय छे पण अंतर- पुरुषार्थ विना आत्म-प्राप्ति के धर्म थवो संभवित नथी.

प्रश्नः– पण बुद्धि होय तो पैसा खूब मळे ने? उत्तरः– भाई! बुद्धि होय तो ज पैसा मळे छे एम नथी, पुण्य होय तो पैसाना ढगला थई जाय छे. जुओने! बहु बुद्धिवाळाने मांड बे हजारनो पगार मेळववामां पसीनो उतरे छे ज्यारे बुद्धिना बारदान, जड जेवा मूर्ख होय ते लाखो-करोडो रूपिया कमाय छे. पण एथी शुं? पुण्य अने पुण्यना फळमां शुं छे? (एमां धर्म नथी, सुख नथी). अहीं कहे छे के ज्ञानीने पुण्य-पापनी रुचि नथी. तेने तो ज्ञानमय भावमां ए पुण्य-पापनुं ज्ञान ज छे. अहो! अलौकिक मार्ग छे! वीतरागनो मार्ग भाई! अंतर- पुरुषार्थ करे एवा शूरवीरने ज प्राप्त थाय छे. बीजे आवे छे ने के-

हरिनो रे मारग छे शूरानो, ए नहि कायरनां काम जो ने.
तेम
प्रभुनो मारग छे शूरानो, ए कायरनां त्यां नहि काम जो ने.

अहा! पुण्यमां धर्म मानवावाळा कायर-नपुंसकोनुं अहीं वीतरागमार्गमां कांई स्थान नथी; तेओ पंचमहाव्रतादि पाळे तोपण तेमने धर्म-प्राप्ति नथी.

अहीं कहे छे-ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे ज्ञानी अधर्मनो केवळ ज्ञायक ज छे. अहा! भाषा तो जुओ! ‘केवळ ज्ञायक ज’ छे-एम एकान्त कर्युं छे. आ सम्यक् एकान्त छे. ज्ञानीने ज्ञानमय भाव छे ने? तो एने जे विषय-वासना आदि पापभाव आवे छे तेनो ते केवळ ज्ञाता ज रहे छे. हवे आखो दि’


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वेपारधंधो ने बायडी-छोकरां साचववामां ने विषयभोगमां-एकला पापमां चाल्यो जाय एने बिचाराने आ समजवानो अवसर कयांथी मळे? एमांय वळी पांच-पचीस लाख एकठा थई जाय तो फूलाई जाय के-ओहो! हुं सुखी थई गयो! धूळेय सुखी नथी थयो सांभळने भाई! जो आनी (तत्त्वज्ञाननी) समजण न करी तो फेरो व्यर्थ जशे भाई! (एम के अनंतकाळे प्राप्त मनुष्यभव निष्फळ जशे).

अहा! प्रभु! तने धर्म केवी रीते थाय? तो कहे छे-अंदर भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी परमात्मा छे. तेनी सन्मुखता करी, तेमां एकाग्र थईने अनुभव करे तो सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे अने ते धर्म छे. अहा! आवो जेने अंतरमां धर्म प्रगट थयो छे ते चोथा गुणस्थानवाळो सम्यग्द्रष्टि प्रथम दरज्जानो धर्मी छे. पांचमा गुणस्थानवाळा श्रावकनी तो ऊंची वात छे. आ वाडाना श्रावक ते श्रावक नहि हों; आ तो आनंदस्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव थईने शांति-शांति- शांति-एम विशेष शांतिनी धारा अंदर जेने प्रगटी छे ते पांचमा गुणस्थानवर्ती श्रावक ऊंचा दरज्जानो धर्मी छे. अने मुनिराज? अहा! मुनिराज तो आत्माना ज्ञान-ध्यानमां लीन एवा जाणे अकषायी शांतिनुं ढीम छे. अहीं कहे छे- आवा धर्मी जीवने कदाचित् पापभाव आवे छे पण तेनी एने इच्छा नथी, पकड नथी, कर्ताबुद्धि नथी, ए तो केवळ तेनो ज्ञायक ज छे. रागनुं परिणमन छे ते अपेक्षाए ज्ञान तेने जाणे छे के ‘आ छे’ बस; आ मारो छे एम नहि. (अने ज्ञान एनुं (-रागनुं) छे एमेय नहि, ज्ञान तो ज्ञानमां एकपणे छे.) ओहो! गजब वात करी छे! ‘जाणगो तेण सो होदि’–एम चोथुं पद छे ने? अहा! आ तो भगवान कुंदकुंदनी रामबाण वाणी छे!

प्रश्नः– आप आ बधुं कहो छो पण अमारे करवुं शुं? समाधानः– अरे प्रभु! तारे शुं करवुं छे भाई? परद्रव्यनुं तो तुं कांई करी शकतो नथी केमके परद्रव्यमां तारो प्रवेश नथी. आ शरीर के वाणीनुं तुं कांई करी शके नहि केमके ए जड पदार्थोमां मारा चैतन्यनो प्रवेश नथी; अने प्रवेश विना तुं एनुं शुं करे? पोतानी सत्ता, परसत्तामां प्रवेश करे तो ज पोते परनुं करे, पण एम तो त्रणकाळमां संभवित नथी. भाई! आ शरीरनुं हालवुं-चालवुं थाय, भाषा बोलवानुं थाय के खावा-पीवानुं थाय-ए बधी जडनी क्रिया जडना कारणे थाय छे; एमां तारुं कांई कर्तव्य नथी. रही पुण्य-पाप करवानी वात. पण पुण्य-पापना करवापणे तो भगवान! तुं अनंतकाळथी दुःखी छो, चारगतिमां रखडो छो. माटे पुण्य-पापनी रुचि छोडी दे अने अंदर तुं पोते ज पूर्णानंदनो नाथ प्रभु त्रिकाळ परमात्मस्वरूपे पडयो छो तेनी रुचि कर, तेमां एकाग्र था; तने धर्म थशे, सुख


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थशे. बस आ करवानुं छे अने आ ज वीतराग सर्वज्ञदेवनी आज्ञा छे. समजाणुं कांई...?

आ रीते पुण्य-पापना बे बोल थया. हवे कहे छे-ए ज प्रमाणे गाथामां ‘अधर्म’ शब्द पलटीने तेनी जग्याए राग लेवो. मतलब के राग आव्यो तो रागनो पण ज्ञानी-धर्मी तो केवळ ज्ञाता ज छे. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर एवा आत्मानी जेने अंदरमां रुचि थई छे ते धर्मी जीवने रागनो राग होतो नथी. तेने राग आवे छे पण तेनी तेने रुचि नथी, इच्छा नथी, पकड नथी; ते तो मात्र एनो जाणनार ज रहे छे.

-एवी रीते द्वेष लेवो. द्वेष पण ज्ञानीने किंचित् थतो होय छे. सम्यग्द्रष्टि छे ते लडाईमां जाय तो कांईक द्वेष पण आवी जाय छे, पण तेने द्वेषनी भावना नथी. तेने तो आनंदस्वरूप निज परमात्मद्रव्यनी रुचि छे, द्वेषनी रुचि नथी.

रुचि नथी पण द्वेष तो होय छे? भाई! खरेखर तो तेने द्वेष होतो नथी पण एनुं ज्ञान ज होय छे. ज्ञानमय भावमांथी तेने ज्ञातानुं ज परिणमन थाय छे. ते द्वेषनो कर्ता-हर्ता के स्वामी थतो नथी, राग के द्वेषमां ते तन्मयपणे परिणमतो नथी. जुओ, श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ ने श्री अरनाथ-ए त्रणे तीर्थंकर चक्रवर्ती ने कामदेव हता. तो छ खंड साधवा जता हता त्यारे कंईक राग हतो, अने कोई शरणे न आवे तो त्यां द्वेष पण आवतो हतो. जोके तेओ महा पुण्यवंत हता तेथी राजाओ तरत ज नमी जता हता, छतां नमाववानो जरी भाव तो हतो ने? तो कांईक द्वेष हतो. अहा! छतां तेओ एना जाणनार ज हता. धर्मी जीव द्वेषनो पण जाणनार ज रहे छे, कर्ता थतो नथी, के द्वेषमय थतो नथी. अहा! ज्ञानी ज्ञानमय ज रहे छे. आवी वात छे.

अहीं एम कहेवुं छे के ज्ञानीने ज्ञानमां द्विविधतानुं भान थाय छे एक पोतानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं भान अने बीजुं द्वेषनुं (पर्यायनुं) भान-आम बेयनुं भान थाय छे. ए तो सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां आवे छे के-द्वेषना ज्ञान वखते पण ज्ञाननी ज पुष्टि थाय छे, द्वेषनी नहि. अहा! पोतानुं ज्ञान छे त्यां द्वेषनुं पण ज्ञान थाय छे-आम बे प्रकारनुं ज्ञान ज्ञानीने उत्पन्न थाय छे. झीणी वात छे भाई! अनंतकाळमां एणे पोताना हित माटे कांई कर्युं नथी. अनंतकाळमां एणे परसन्मुखपणे राग ने द्वेष करी करीने पोताने मारी नाख्यो छे, दुःखमां नाख्यो छे. अहीं कहे छे-स्वसन्मुखनो झुकाव थया पछी जे जरी परसन्मुखनो द्वेष आवे छे तेनो ज्ञानी ज्ञाता ज रहे छे.

कोईने वळी एम लागे के शुं जैनधर्मनी आवी वात? शुं थाय? लोकोमां


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आ वात चालती नथी ने तेओ बहारना क्रियाकांडमां एवा डूबेला छे के वास्तविक जैनधर्म शुं छे एनी बिचाराओने खबर नथी. परंतु आ समज्ये ज (दुःखथी) छूटको छे.

हवे द्वेष पछी क्रोध; ‘अधर्म’ शब्द पलटीने क्रोध लेवो. ज्ञानीने क्रोध पण आवे छे परंतु क्रोधमय भाव ज्ञानीने होतो नथी. टीकामां ए ज कह्युं ने के-ज्ञानीने अज्ञानमय भाव होतो नथी, ज्ञानमय ज भाव ज्ञानीने होय छे. कमजोरीथी तेने क्रोध आवे छे पण तेमां एने एकताबुद्धि नथी अर्थात् तेने क्रोधनी भावना नथी. जे क्रोध आवी जाय छे तेने ते पोतानाथी भिन्न राखीने जाणे ज छे, एनो ज्ञाता-द्रष्टा ज रहे छे. अहा! ज्यां अंदर आनंदना निराकुल स्वादमां ज्ञानी पडयो छे त्यां किंचित् क्रोध थई आवतां ज्ञानीने ते झेर जेवो लागे छे, केमके तेने क्रोधनी रुचि ज नथी. अहा! आवो मारग-जैन परमेश्वरनो-दुनियाथी साव उलटो छे. भाई! आवो अलौकिक मारग बीजे कयांय छे नहि.

हवे मान; जुओ! श्री नेमिनाथ भगवान पांडवो ने बीजा महान जोद्धाओ सहित एकवार सभामां विराजता हता. त्यां वात नीकळतां नीकळी के पांडवो महान जोद्धा छे. तो कोईके कह्युं के बीजा पण महान जोद्धा छे. त्यारे कोईए कह्युं-बीजा भले महान जोद्धा हशे पण भगवाननी बराबरीना कोई महान जोद्धा नथी. श्री नेमिनाथ भगवान तो हजी गृहस्थाश्रममां हता ने त्रण ज्ञान तथा ज्ञायिक समकित सहित हता. हवे आवी वात चालती हती त्यां श्रीकृष्णे पडकार कर्यो के हुं तेनाथी पण महान जोद्धो छुं. तो भगवाने हाथ वांको वाळ्‌यो; श्रीकृष्ण हाथने टींगाई गया पण हाथने हलावी शकया नहि. अहा! आवुं शरीरनुं अतुल बळ भगवाननुं हतुं! आत्मबळनी तो शी वात! अहा! ज्ञानी हता तोपण त्यारे भगवानने माननो विकल्प थई आव्यो, पण तेना ते स्वामी न हता, तेओ तो तेना ज्ञाता ज हता. ज्ञानी तो तेने जे विकल्प आवे छे तेनो मात्र ज्ञाता ज रहे छे, कर्ता थतो नथी. आवो मारग बापा! वीतरागनो खांडानी धारथी पण आकरो छे! अहो! पण ते सुखरूप छे, आनंदरूप छे. अहा! अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ परमानंदस्वरूप प्रभु ज्यां सम्यग्दर्शनमां जाग्यो त्यां आवो सुखरूप मारग प्राप्त थाय छे.

अनादिथी व्यवहारमां सूतेलो जीव ज्यारे अंदर निश्चय स्वरूपमां जागृत थई जाय छे त्यारे तेने अतीन्द्रिय आनंद जेनी मुद्रा छे एवो मोक्षमार्ग प्राप्त थाय छे; अने आवा निश्चय मोक्षमार्गमां रहेला जीवने कदाचित् माननो विकल्प थई आवे तोपण तेनो ते ज्ञाता ज रहे छे. झीणी वात छे, भाई! अहा! आ तो महा गंभीर शास्त्र छे! एनुं एकेक पद बहु गंभीर छे! जुओने! आ (गाथानुं) चोथुं


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पद ‘जाणगो तेण सो होदि’!–तेनी गंभीरतानुं शुं कहेवुं! अहा! ज्ञानी तो माननो ज्ञायक ज रहे छे.

आ प्रमाणे आप ज्ञानीनो बचाव कर्या करो छो. एम नथी भाई! तने ज्ञानीना अंतरनी खबर नथी बापु! अहाहा...! अंदर ‘स्वयंज्योति सुखधाम’ प्रभु पोते छे. अहाहा...! एनुं स्वानुभवमां ज्यां भान थयुं त्यां, जे किंचित् मान आवे छे तेनो ज्ञानी ज्ञाता ज रहे छे, पण ते मानने ज्ञानी पोतानामां खतवतो नथी अर्थात् माननुं तेने स्वामित्व नथी. जन्म-मरण मटाडवानो आवो अंतरनो मारग भाई! स्वानुभव वडे प्राप्त करतां समजाय एवो छे.

हवे मान पछी माया; धर्मीने जरी माया पण आवी जाय छे पण तेने मायानी भावना-इच्छा नथी. ए तो मायानो ज्ञायक ज रहे छे. ज्ञानगुणमां स्व अने परने प्रकाशवानुं सामर्थ्य छे; एटले मायाना काळमां तेनुं (मायानुं) ज्ञान अने पोतानुं (आत्मानुं) ज्ञान एकसाथे उत्पन्न थाय छे. आ प्रमाणे ज्ञानी मायानो ज्ञाता ज छे, कर्ता नहि.

हवे लोभ; ज्ञानीने जरीक लोभ पण थई जाय छे पण तेने लोभनो लोभ होतो नथी. आत्माना निराकुळ आनंदना रस आगळ तेने लोभनो रस उडी गयो होय छे. अहा! तेने लोभ आवे छे पण तेनी मीठाश तेने उडी गई होय छे. स्वानुभवमां जेणे आत्मा जाण्यो अने अनुभव्यो छे तेने किंचित् लोभ आवे छे तोपण तेनो ते ज्ञायक ज रहे छे.

हवे कर्म. आठ कर्म जे छे ते मारां नथी एम ज्ञानी जाणे छे. गोम्मटसार आदिनो स्वाध्याय करे एटले तेने ख्यालमां आवे के आठ कर्म छे अने तेनी आवी आवी प्रकृति छे पण ज्ञानी तेनुं ज्ञान ज करे छे. कर्म मारां छे ने हुं कर्ममां छुं के कर्म वडे मने लाभ- नुकशान छे-एम ज्ञानी मानतो नथी. झीणी वात छे भाई! पोतानो आत्मा अति सूक्ष्म छे ने! अहाहा...! अति सूक्ष्म एवा ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानुं जेने अंतरमां वेदन प्रगट थयुं छे अर्थात् जेने स्वसंवेदनशक्ति प्रगट थई छे ते ‘कर्म छे’ बस एम जाणे छे अर्थात् ते, जे कर्म छे तेनुं मात्र ज्ञान करे छे पण कर्म भलां-बूरां छे, इष्ट- अनिष्ट छे एम ते मानतो नथी. अहा! जेणे शुद्ध आत्मस्वरूपना लक्षे सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं छे ते मोक्षना पंथे-सुखना पंथे छे. ते, कर्म जे छे तेने जाणे छे पण कर्म मने हेरान करे छे वा लाभ करे छे एम मानतो नथी.

ज्ञानीने हजी आठ कर्म तो छे, वळी ते आयु बांधे छे एम तो आवे छे? समाधानः– भाई! ज्ञानीने कर्मनो ख्याल आवतां तेनुं ते ज्ञान करे छे, पण


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कर्ममय पोते थई जाय छे एम नथी. अहा! कर्मथी भिन्न रहीने ए तो पोतानुं अने परनुं-कर्मनुं ज्ञान करे छे. अहा! कर्मे मारा आत्मानुं आवरण (घात) करी दीधुं छे एम ज्ञानीने होतुं नथी. जेने अंदर आत्मानुं ज्ञान थयुं ते जे कर्म आठ होय छे तेनुं पण ज्ञान करे छे.

प्रश्नः– तो ‘श्रीमद् राजचंद्र’मां आवे छे के वेदनीय कर्मनो भोग भोगववो बाकी छे?

समाधानः– भाई! ए तो राग हजी बाकी छे एम त्यां बताववुं छे. थोडो राग हजी छे ने? आ भवे मोक्ष थशे एम देखातुं नथी, पर्यायमां हजु राग छे अने ते छूटतो जणातो नथी तो ज्ञानी जाणे छे के हजु एकाद भव करवो पडशे; ने त्यारे राग छूटीने केवळज्ञान पामशुं. ज्ञानीनी द्रष्टिमां-द्रष्टिना स्वभावमां-तो हुं रागनो कर्ताय नहि अने भोक्ताय नहि एम छे; पण ज्ञानमां, पर्यायमां जे रागनुं परिणमन छे ते मारुं छे ने हुं तेनो कर्ता-भोक्ता छुं-एम ज्ञानी जाणे छे; मात्र जाणे ज छे हों (कर्तव्य छे ने करे छे एम नहि). आवो अनेकान्त मारग छे. (ते स्याद्वाद वडे समजवो जोईए) अहीं कहे छे-कर्म मने आच्छादित करे छे एम छे ज नहि -एम ज्ञानी माने छे.

प्रश्नः– तो धर्मीने आवां-आवां कर्म होय छे ने आवुं आवरण होय छे एम आवे छे ने?

समाधानः– भाई! अहीं तो एम कहे छे के-ज्ञानी एम जाणे छे के कर्म मारा लक्षमां आव्यां छे, मने ते छे एनुं ज्ञान थयुं छे पण तेओ मने आच्छादित करे छे वा मारुं आवरण करे छे एम छे नहि. ज्ञानीने जे कर्म छे तेनुं ज्ञान थयुं छे; ज्ञाननी द्विरूपतामां पोतानुं ज्ञान ने कर्मनुं पण ज्ञान थयुं छे, पण कर्म स्वभावनुं आवरण करे छे एम छे नहि. मारामां (-आत्मामां) कर्म छे ने ते वडे हुं हीन छुं एम ज्ञानी मानतो नथी. एनी पर्यायमां जे हीनता थई छे ए तो एनी कमजोरीने लईने छे अने एनो पण ए तो ज्ञाता ज छे. हवे कर्मथी विकार थाय एवुं (विपरीत) माननारने आवुं बेसवुं कठण पडे, पण भाई! कर्मथी विकार थाय एवो आत्मस्वभाव ज नथी. अहा! कर्म मारी चीज नथी अने पर्यायमां जे विकार छे ते मारी नबळाईने लईने छे पण कर्मने लईने छे एम छे नहि-एम धर्मी जाणे अने माने छे.

हवे नोकर्म; आ शरीर, मन, वाणी आदि जेटलां बहारनां निमित्त छे ते नोकर्म छे; अर्थात् बधां नोकर्म निमित्तरूप छे. धर्मी तेनुं ज्ञान करे छे, बीजी चीज छे एम ज्ञान करे छे पण ते मारी छे एम मानता नथी. अहा! आ शरीर, मन, वाणी, धन-संपत्ति के स्त्री-पुत्र-परिवार इत्यादि मारां छे एम धर्मी जाणता अने मानता


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नथी. अज्ञानी दुकाने बेठो होय ने दिवसनी पांच-पचास हजारनी कमाणी थाय तो तेनो पावर फाटी जाय छे. तेने एम थाय छे के-ओहो! मने आटली लक्ष्मी आवी! -एम ते उन्मत्त थई जाय छे. ज्यारे ज्ञानी मात्र तेनुं ज्ञान ज करे छे. भाई! करवा योग्य तो आ छे; बाकी तो रळवा-कमावामां ने बायडी-छोकरां साचववामां पापनी मजुरी करीने तुं मरी गयो छे भगवान!

अहीं कहे छे-जे नोकर्म-निमित्त छे तेनुं ज्ञानी तो ज्ञान ज करे छे. त्यां निमित्त (नोकर्म) ज्ञान थवामां मदद करे छे एम नथी. ज्ञानीने जे निमित्तनुं ज्ञान थाय छे ते ज्ञाननी अवस्था सहज पोताथी पोतामां थाय छे, निमित्त छे तो ज्ञान थाय छे एम नथी. झीणी वात छे भाई! वीतरागनो मारग बापा! बहु सूक्ष्म छे. आ अज्ञानी मारो व्यवहार... व्यवहार... व्यवहार एम व्यवहारने गळे पडयो छे ने? अहीं कहे छे -भाई! व्यवहार (-राग) तारो छे एम छे ज नहि. ज्ञानी एने पोतानो मानता नथी, ए छे एम मात्र जाणे छे अने एनुं ज्ञान पण पोतामां रहीने ज करे छे. गजब वात छे भाई! व्यवहार कारण अने निश्चय कार्य एम छे ज नहि. ज्ञानी तो जे व्यवहार आवे छे तेने जाणे ज छे अने ते पण व्यवहार छे तो एनो ज्ञाता थयो छे एमेय नथी. ए तो पोतानी ज्ञाननी पर्याय स्वतंत्र कर्ता थईने तेने जाणती थकी प्रगट थाय छे. ए ज रीते ज्ञानी जे नोकर्म छे, निमित्त छे-तेने पण मात्र जाणे ज छे. अहो! आवो भगवाननो अलौकिक अद्भुत मार्ग छे जेने गणधरो, मुनिवरो अने एकावतारी इन्द्रो वगेरे महा विनयपूर्वक सांभळे छे. भाई! निमित्तथी आत्मामां कांई थतुं नथी तथा निमित्त जे छे तेनुं ज्ञान पण ज्ञानी पोते पोताथी ज करे छे. आवुं सर्वज्ञ परमेश्वरनुं फरमान छे. बेसे तो बेसाडो भाई!

हवे मन; छातीमां जड मन छे. जेम आ डोळा-आंख जड छे तेम मन पण जड छे. जुओ, जोवा-जाणवावाळी तो ज्ञानपर्याय छे; आ आंख कांई देखे छे एम नथी. तेम छातीमां जड मन छे ते विचार करवामां निमित्त छे, पण जड मन कांई जाणतुं नथी. तेथी मन छे ते पोतानी चीज नथी एम ज्ञानी माने छे. मन छे एम ज्ञानी जाणे छे पण मन मारी चीज छे वा एनाथी मने ज्ञान थाय छे एम ज्ञानी मानतो नथी. अज्ञानीने थाय के शुं भगवाने आवी वात करी हशे? हा, भाई! धर्मसभामां एकावतारी इन्द्रोनी हाजरीमां भगवाने आवी अलौकिक वात करी छे. तेनो लौकिक साथे मेळ बेसे एम नथी. अहो! आचार्य भगवंतोए गजब काम कर्यां छे!

अहा! ज्ञानी व्यवहारनुं ज्ञान करे छे ते व्यवहार छे माटे एनुं ज्ञान करे छे एम नथी; ए तो ज्ञाननी पर्याय ज ते काळे व्यवहार छे एने जाणती सहज पोताथी उत्पन्न थाय छे. तेम निमित्त पण हो, तथापि निमित्त छे तो तेनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. ए तो ज्ञाननी ए सहज स्वपरप्रकाशक शक्ति छे जेना कारणे निमित्तनुं


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ज्ञान पोताथी पोतानामां थाय छे. आवुं यथार्थ जाणे ते धर्मात्मा छे. अहो! आवी अलौकिक वात बीजे सांभळवा मळवी पण दुर्लभ छे.

अहीं कहे छे-भगवान! तुं चैतन्यस्वरूप छो ने! तारी शक्तिनुं सामर्थ्य तो जाणवा-देखवानुं छे. शुं आ राग तारी शक्तिनुं कार्य छे? ना. तारी शक्तिनुं सामर्थ्य तो जे राग आवे छे, जे कर्म-नोकर्म छे-तेने जाणवानुं छे. अहा! जाणवुं-जाणवुं-जाणवुं ए ज तारुं सामर्थ्य छे. भाई! आ जड मन तारी चीज नथी अने ते छे माटे एनुं ज्ञान छे एमेय नथी तथा एनाथी तने ज्ञान थाय छे एम पण नथी. समजाणुं कांई...?

हवे वचन; आ वाणी छे ते जड छे; ते आत्मानी चीज नथी. आ जे वचन बोलाय छे ते आत्मा बोलतो नथी. वचन-वाणी छे ए तो जड धूळ-पुद्गल छे. ज्ञानीने तेनुं ज्ञान थाय छे के आ छे (बीजी चीज); पण हुं वचन बोलुं छुं वा आ बोलुं छुं ते हुं छुं-एम ज्ञानी मानतो नथी. तो कोण बोले छे? भाई! आ जे बोले छे ए तो जड भाषावर्गणानुं परिणमन छे. ज्ञानीने तेनी इच्छा होती नथी.

शुं कह्युं? के शरीर, मन, वाणी ने रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानी सन्मुख थईने जेणे सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट कर्युं छे ते ज्ञानी-धर्मी छे. ते धर्मीने वचन मारुं छे एम वचननी इच्छा होती नथी, माटे तेने वचननो परिग्रह नथी. अहा! वचन बोलवानी जे क्रिया थाय छे ए तो जड वचनवर्गणानी क्रिया छे; तेथी ज्ञानीने एवो अहंभाव थतो नथी के हुं बोलुं छुं. अहो! धर्मीनी आवी अलौकिक द्रष्टि अने दशा होय छे.

हवे कहे छे-ज्ञानीने कायानो परिग्रह नथी. भाई! आ शरीर तो जड अजीव छे, मडदुं छे.

हा, पण कयारे? अत्यारे, हमणां ज. ए तो ९६ मी गाथामां आवी गयुं छे के आनंदरूप अमृतनो सागर प्रभु आत्मा मृतक क्लेवरमां मूर्च्छाणो छे, मूर्च्छाई गयो छे. भाई! आ हाड-मांस ने चामडानुं बनेलुं कलेवर हमणां पण मडदुं ज छे. अहा! पोतानी चीज पूरण वीतरागता, अतीन्द्रिय ज्ञान ने अतीन्द्रिय आनंदथी भरी पडी छे. पण अरे! अज्ञानीने तेनी खबर नथी ने ते आ मृतक कलेवरने पोतानी चीज माने छे! ज्ञानी तो शरीरने ‘आ (बीजी चीज) छे’ बस एम जाणे छे पण ते मारुं (-आत्मानुं) छे एम कदीय मानतो नथी. अहा! आ शरीरनी क्रिया जे थाय छे ते हुं करुं छुं एम ज्ञानीने अभिप्राय होतो नथी. ज्ञानी तो शरीर अने शरीरनी जे अवस्थाओ थाय तेनो ज्ञाता-द्रष्टा ज छे.


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हवे श्रोत्र-कान; आ कान पण जडनी दशा छे. भाई! आ श्रोत्र-कान छे ते जड छे ने ज्ञानीने तेनो परिग्रह नथी. कान मारा छे ने हुं कान बराबर छे तो सांभळुं छुं वा कानथी मने ज्ञान थाय छे एम ज्ञानी मानतो नथी. खरेखर सांभळवाथी ज्ञान थाय छे एम छे ज नहि.

प्रश्नः– कान बहेरा थाय तो सांभळवानुं मशीन राखे छे ने? समाधानः– मशीन राखे तोय शुं? ज्ञान तो पोताथी (-आत्माथी) थाय छे. ज्ञान शुं ते मशीनथी के इन्द्रियथी थाय छे? ते मशीन के इन्द्रिय शुं आत्माना अवयव छे? के एनाथी ज्ञान थाय?) (ए तो जड पदार्थो बाह्य निमित्तमात्र छे). सूक्ष्म वात छे भाई! आनी यथार्थ समजण विना अनंतकाळथी तुं ८४ ना अवतार करी करीने महा दुःखी थयो छो. तने एनी खबर नथी; पण जो ने आ वादिराज मुनिए शुं कह्युं छे?

अहा! मुनिराज कहे छे-प्रभु! में भूतकाळमां एकेन्द्रियादि तिर्यंचयोनिमां अने नरकयोनिमां एवा एवा अवतार कर्या छे के एनुं दुःख याद करुं छुं तो मने आयुधनी जेम छातीमां कारमो घा वागे छे. अहा! आयुधनी जेम छातीमां वागे एवुं थाय छे. अहा! अज्ञानी पैसा ने आबरू ने कुटुंब-परिवारने याद कर्या करे छे पण एनी याद तो एकलुं पाप छे. आ तो वादिराज मुनि कहे छे-अहा! जनम-जनममां जे दुःख थयां ते प्रभु! हुं याद करुं छुं तो आयुध जेम छातीमां वागे एवुं थई आवे छे. (मुनिराज आ प्रमाणे वैराग्यनी भावना द्रढ करे छे).

आ वादिराज मुनिने शरीरमां कोढ हतो. राजाना दरबारमां चर्चा थई के मुनिराजने कोढ छे. तो त्यां कोई श्रावक हतो तेणे कह्युं के-अमारा मुनिराज नीरोगी छे, कोढरहित छे. पछी ते श्रावक वादिराज मुनि पासे आव्यो ने कहेवा लाग्यो-महाराज! हुं तो राजा पासे कहीने आव्यो छुं के आपने कोढ नथी. पण हवे शुं? मुनिराज कहे-ठीक. पछी तो मुनिराजे भगवाननी स्तुति उपाडी के-प्रभु! आपनो जे नगरीमां जन्म थाय छे ते नगरी सोनानी थई जाय छे ने आप ज्यां गर्भमां रह्यो छो ते मातानुं पेट स्फटिक जेवुं निर्मळ-स्वच्छ थई जाय छे. तो प्रभु! हुं आपने मारा अंतरमां पधरावुं ने आ शरीरमां कोढ रहे? अने चमत्कार ए थयो के कोढ मटी गयो अने शरीर सुवर्णमय थई गयुं! आ तो भक्तिनो एक प्रकार छे. शरीरनी अवस्था तो पुण्यनो योग हतो तो ते काळे जे थवायोग्य हती ते थई. कोढ मटी गयो ते कांई भक्तिथी मटी गयो एम नथी. भक्तिथी कोढ मटी गयो एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. आ वादिराज मुनि वैराग्यने द्रढ करतां कहे छे-प्रभु! अनंत-अनंतकाळमां ८४ लाख योनिमां भ्रमण कर्युं त्यां नरक-निगोदादिमां जे


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अपार दुःखो वेठयां ते याद करुं छुं तो जाणे छातीमां आयुधना घा वागे तेम थई आवे छे. मुनिराज आम याद करीने अहा! स्वरूपमां लीन थई जाय छे!! ध्यानमग्न थई जाय छे!!!

भाई! तारा दुःखनीय आ ज कहानी छे. अहीं करोडपति होय ने जो मायानी ममतामां पडया होय तो देहनो पडदो बंध पडतां मरीने तिर्यंचमां जाय छे, गलुडियां ने मींदडां थई जाय छे. अरे! आ अवतार? हा भाई! आवा अवतार तें अनंत-अनंत वार कर्या छे. भगवान! तुं माताना पेटमां ऊंधा मस्तके बार-बार वर्ष रह्यो छुं. नव महिना रहे छे ए तो साधारण छे. पण कोई एक माताना पेटमां बार वर्ष ऊंधा माथे रह्यो छुं, अने पाछो मरीने बीजीवार बार वर्ष माताना पेटमां रह्यो छुं. आम माताना पेटमां उपरा-उपरी २४ वर्ष रह्यो छुं. अहा! अनंतकाळमां आवा जन्म अनंतवार धारण कर्या छे. भगवान! आ जन्म-मरणना दुःखनी शी वात! अने एकेन्द्रियादि अवस्थानां दुःखोनुं शुं कहेवुं? ए तो वचनातीत छे.

अहीं धर्मी जीव कहे छे-मने अनंतवार श्रोत्रेन्द्रिय मळी तेने मारी मानीने में ममता करी ने तेने कारणे मिथ्यात्ववश हुं चारगतिमां रखडयो छुं. पण हवे आ श्रोत्रेन्द्रिय मारी नथी एम हुं मानुं छुं केमके ए तो जड पुद्गलनी छे. जो ते मारी होय तो ते मारी साथे ज सदाय रहे. पण एम तो छे नहि. माटे श्रोत्रेन्द्रिय मारी नथी. तेनी हवे मने ममता नथी, इच्छा नथी. हुं तो तेने मात्र जाणुं ज छुं.

तेवी रीते चक्षुः आ चक्षु छे ते पण जड छे. आ चक्षु मारी छे एम चक्षुनी इच्छा के ममता ज्ञानीने होती नथी. अहा! हरणना जेवी चकचक करती आंखो होय तोय शुं? केमके ए तो जड माटी छे, धूळ छे. भाई! आमां (आ आंखमां) तो एक वार अग्नि लागशे. ज्यारे देह छूटशे त्यारे एमां अग्निना तणखा ऊठशे अने ते बळीने भस्म थई जशे. भाई! आ आंख तारी चीज नथी बापु! धर्मी जीव तो आंख ने आंखथी जे क्रिया थाय छे ते पोतानी छे एम स्वीकारतो नथी. तेथी तेने आंखनी इच्छा नथी. ते तो ‘आ (बीजी चीज) छे’ एम मात्र जाणे छे. आवी वात छे.

प्रश्नः– आ चश्मां छे तो आंखथी देखाय छे ने? उत्तरः– धूळेय चश्मांथी देखातुं नथी सांभळने. चश्मांथी देखातुं होय तो आंधळा छे तेने चश्मां लगावे ने? भाई! ए तो ते ते समयनी ज्ञाननी पर्याय देखे -जाणे छे. शुं जड आंख के चश्मां देखे जाणे छे? निमित्तप्रधान द्रष्टिवाळा मिथ्याद्रष्टि एम माने छे के चश्मां होय त्यारे आंखे देखाय छे. भाई! पोते ज ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा छे अने तेने पोतानी ज्ञानपर्यायथी ज्ञान थाय छे, आंखथी के चश्मांथी नहि.


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जुओ, लंडनमां कोहीनूर हीरो छे. तेने एक पंडित जोता हता. तो कोई ए त्यां पूछयुं के-केम, हीरो केवो लाग्यो? तो पंडित कहे-कहुं? हीराने तो आंख जुए छे, तो हीरानी किंमत कहुं के आंखनी? हीरो तो कांई जोतो (-जाणतो) नथी, पण जुए (- जाणे) छे तो आंख. तेम अहीं कहे छे-आंखनी किंमत छे के जाणनारनी? आंख तो कांई जाणती नथी; जड छे ने? तो ते कांई जाणती नथी. जाणनार तो प्रभु ज्ञायक अंदर छे ते जाणे छे. अरे भाई! आ आंख तो जड माटी छे. तेमांथी तो रसी नीकळे छे ने तेमां ईयळो पण पडे छे. तोपण प्रभु! एनो तने केम प्रेम छे? धर्मीने तो चक्षु इन्द्रियनो परिग्रह नथी; अर्थात् ते मारी छे अने तेनी जे जोवानी क्रिया थाय छे ते मारी छे एवी बुद्धि तेने होती नथी. अहा! ज्यां आंख पोतानी नथी त्यां पुत्रादि तो कयांय रही गया. समजाणुं कांई...?

तेवी रीते घ्राण-नाकः नाक पण अनंत परमाणुओनो स्कंध जड छे. नाक वा नाकनी जे क्रिया थाय छे ते मारी छे एम ज्ञानी मानतो नथी अने तेथी तेने नाकनो परिग्रह नथी. ए तो मात्र संयोगी चीज छे एम ज्ञानी जाणे छे.

हवे रसना-जीभः अहा! खावानी कोई सारी-स्वादिष्ट चीज होय तो अंदर जीभथी चाटे छे. पण अरे! शुं छे बापु? भाई! जीभ ज तारी चीज नथी ने? तो पछी जीभथी चाटवुं ए तारी आत्मानी क्रिया कयां रही? भगवान! ए तो जडनी क्रिया छे एम जाणी ज्ञानी जीभनो परिग्रह करता नथी. आवी वात छे.

हवे स्पर्शनः सुंवाळा शरीरना भोगमां अज्ञानीने शरीर माखण जेवुं लागे छे. पण भाई! आ शरीर तो जड माटी छे बापा! आ तो हाड-मांस ने चामडे मढेलुं पुतळुं छे. एमां शुं प्रेम करवो? ज्ञानी तो स्पर्शनथी हुं भोग लउं छुं एम मानतो नथी, केमके स्पर्शन तो जड पुद्गलनी अवस्था छे, तथा स्पर्शथी थती क्रिया जडनी क्रिया छे.

प्रश्नः– पण जीवित शरीरथी धर्म तो थाय छे ने? समाधानः– जीवित शरीर? अरे भाई! जीवित शरीर-सचेत शरीर तो निमित्तथी कहेवामां आवे छे. ए तो जीवनो शरीर साथे संयोग छे एम ज्ञान कराववानुं कथन छे; बाकी शरीर तो अचेत ज छे. गाथा ९६ नी टीकामां न आव्युं के-‘... मृतक कलेवर (शरीर) वडे परम अमृतरूप विज्ञानघन पोते मूर्छित थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे.’ अहा! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर अमृतस्वरूप भगवान आत्मा मृतक कलेवरमां मूर्छाई गयो छे! भाई! आ शरीर तो मृतक कलेवर एटले मडदुं ज छे, अत्यारे पण मडदुं ज छे. हवे एने जीवित मानी एनाथी धर्म थाय एम मानवुं ए तो केवळ मूर्छाभाव छे. अज्ञानीने उपवासादि


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शरीराश्रित क्रियाओनो हुं कर्ता छुं एवो अज्ञानमां भास थयो छे, ते मिथ्याभाव छे. समजाणुं कांई...?

अहा! प्रभु! तुं कोण छो? तुं अंदर अमृतनो-ज्ञानानंदनो सागर छो ने प्रभु! तारा अस्तित्वमां तो एकलां ज्ञान ने आनंद पडयां छे ने नाथ! अरे भाई! तारा अस्तित्वमां ज्यां रागेय नथी त्यां आ शरीर ने स्पर्शन मारां छे एम कयांथी आव्युं? ज्ञानी धर्मात्मा तो आ स्पर्शन इन्द्रिय अने एनी जे क्रिया थाय छे ते मारी छे एम कदीय मानतो नथी अने तेथी तेने स्पर्शननो परिग्रह नथी. आवी वात छे.

एम राग आदि सोळ शब्दो मूकी सोळ गाथासूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां. अहा! असंख्य प्रकारना जे शुभाशुभभाव छे ते हुं नथी अने तेओ मारा नथी, हुं तो एक शुद्ध चिन्मात्र चैतन्यघन प्रभु आत्मा छुं-एम भेदज्ञान करीने धर्मात्मा जीवे असंख्य प्रकारना जे अन्य भावो छे तेओने पोतानाथी भिन्न जाणवा-एम कहे छे.

[प्रवचन नं. २८प-२८६ (चालु)*दिनांक ७-१-७७ अने ८-१-७७]

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गाथा–२१२

अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं। अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१२।।

अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यशनम्।
अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।।
२१२।।

हवे, ज्ञानीने आहारनो पण परिग्रह नथी एम कहे छेः-

अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न इच्छे अशननै,
तेथी न परिग्रही अशननो ते, अशननो ज्ञायक रहे. २१२.

गाथार्थः– [अनिच्छः] अनिच्छकने [अपरिग्रहः] अपरिग्रही [भणितः] कह्यो छे [च] अने [ज्ञानी] ज्ञानी [अशनम्] अशनने (भोजनने) [न इच्छति] इच्छतो नथी, [तेन] तेथी [सः] ते [अशनस्य] अशननो [अपरिग्रहः तु] परिग्रही नथी, [ज्ञायकः] (अशननो) ज्ञायक ज [भवति] छे.

टीकाः– इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी. इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी, ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे; तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी अशनने इच्छतो नथी; माटे ज्ञानीने अशननो परिग्रह नथी. ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) अशननो केवळ ज्ञायक ज छे.

भावार्थः– ज्ञानीने आहारनी पण इच्छा नथी तेथी ज्ञानीने आहार करवो ते पण परिग्रह नथी. अहीं प्रश्न थाय छे के-आहार तो मुनि पण करे छे, तेमने इच्छा छे के नहि? इच्छा विना आहार केम करे? तेनुं समाधानः– अशातावेदनीय कर्मना उदयथी जठराग्निरूप क्षुधा ऊपजे छे, वीर्यांतरायना उदयथी तेनी वेदना सही शकाती नथी अने चारित्रमोहना उदयथी आहारग्रहणनी इच्छा उत्पन्न थाय छे. ते इच्छाने ज्ञानी कर्मना उदयनुं कार्य जाणे छे. रोग समान जाणी तेने मटाडवा चाहे छे. इच्छा प्रत्ये अनुरागरूप इच्छा ज्ञानीने नथी अर्थात् तेने एम इच्छा नथी के मारी आ इच्छा सदा रहो. माटे तेने अज्ञानमय इच्छानो अभाव छे. परजन्य इच्छानुं स्वामीपणुं ज्ञानीने नथी माटे ज्ञानी इच्छानो पण ज्ञायक ज छे. आ प्रमाणे शुद्धनयनी प्रधानताथी कथन जाणवुं.

*

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समयसार गाथा २१२ः मथाळुं

हवे, ज्ञानीने आहारनो पण परिग्रह नथी एम कहे छेः-

* गाथा २१२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी.’ शुं कह्युं? आ रागनी इच्छा उत्पन्न थवी ते परिग्रह छे. अहा! जेने इच्छा ज नथी, आहारनी पण इच्छा ज नथी अर्थात् इच्छा थई छे पण इच्छानी जेने इच्छा नथी तेने परिग्रह नथी एम कहे छे.

प्रश्नः– ‘इच्छानी इच्छा’नो शुं अर्थ छे! समाधानः– इच्छानी इच्छा नथी एनो अर्थ ए छे के-इच्छा ठीक छे एवो ज्ञानीने मिथ्याभाव नथी. समजाणुं कांई...! हवे कहे छे-

‘इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी, ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे.’

शुं कह्युं? इच्छामात्रमां ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मानी चैतन्यज्योतिना तेजना नूरनो अभाव छे; इच्छामां आत्माना चैतन्यनुं किरण नथी. ते कारणे इच्छाने अज्ञानमय भाव कह्यो छे. ज्ञानीने इच्छा मारी छे वा जे इच्छा थाय छे ते भली-ठीक छे एवो भाव होतो नथी. ज्ञानी विचारे छे-अहा! हुं तो ज्ञानमय अने आनंदमय छुं, तो तेमां इच्छा मारी छे एम कयांथी आव्युं? ज्ञानीने इच्छानुं स्वामित्व होतुं ज नथी. इच्छा छे ए तो राग छे, अज्ञान छे. अज्ञान शब्दे मिथ्यात्व एम नहि, पण ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा जेम ज्ञानमय छे तेम राग-इच्छा ज्ञानमय नथी अने तेथी इच्छा अज्ञानमय छे. अज्ञान = अ+ज्ञान एटले ज्ञान नहि ते. ज्ञान तो आत्मा छे ने आत्मामां इच्छा नथी; माटे इच्छा अज्ञान छे. अहीं कहे छे-ज्ञानीने इच्छा मारी छे एम नथी तेथी तेने अज्ञानमय भाव होतो नथी.

अहा! ‘ज्ञानीने ज्ञानमय भाव ज होय छे.’ ज्ञानीने शुद्ध एक चैतन्यस्वभावनुं -ज्ञाताद्रष्टास्वभावनुं परिणमन होय छे तेथी तेने ज्ञानमय अर्थात् वीतरागतामय- आनंदमय भाव ज होय छे. तेने जे अल्प राग थाय छे तेनो ते मात्र ज्ञाता ज रहे छे. तेने तो पोताना स्वभावनुं ज्ञान ने जे राग छे तेनुं ज्ञान-एम ज्ञानमय भाव ज होय छे. अहा! आ तो कोई अलौकिक वात छे! हवे कहे छे-

‘तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी अशनने इच्छतो नथी; माटे ज्ञानीने अशननो परिग्रह नथी.’


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जुओ, ज्ञानी आहार लेवा जाय छे छतां, अहीं कहे छे, तेने आहारनी इच्छा नथी. केम? केमके तेने इच्छानी रुचि नथी. रुचि तो समकितीने भगवान आनंदनी छे. अहा! धर्मी सम्यग्द्रष्टिने तो पोताना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद लेवानी भावना होय छे. तेने अशननी-आहारनी भावना नथी माटे तेने अशननो परिग्रह नथी. आवी वात छे. ए तो जे आहारनो भाव थाय तेनो मात्र ज्ञाता ज छे. ए ज कहे छे-

‘ज्ञानमय एवा ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) अशननो केवळ ज्ञायक ज छे.’

अहाहा...! ज्ञानीने ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावनो सद्भाव छे. एटले शुं? एटले के हुं शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप प्रभु ज्ञायकस्वभावी आत्मा छुं, रागमय के उदयभावमय हुं नहि-आवुं जेने अंतरमां निज ज्ञायकस्वभावना आश्रये भान थयुं छे तेने एक ज्ञायकभावनो सद्भाव छे; अने ते कारणे ते अशननो केवळ ज्ञायक ज छे, ज्ञाता ज छे. अहाहा...! ज्ञानीने आहार होय छे तोपण ते एनो जाणनारो ज रहे छे. आवी वात!

* गाथा २१२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने आहारनी पण इच्छा नथी तेथी ज्ञानीने आहार करवो ते पण परिग्रह नथी.

अहीं प्रश्न थाय छे के-आहार तो मुनि पण करे छे, तेमने इच्छा छे के नहि? इच्छा विना आहार केम करे?’ एम के गृहस्थाश्रममां रहेला समकिती-ज्ञानी छे ते तो आहार करे छे, परंतु अरे! जेमणे गृहस्थाश्रम छोडी दीधो छे अने ते तरफनो राग पण जेमने नथी तेवा मुनि पण आहार तो करे छे. आप कहो छो तेमने आहारनी इच्छा नथी; तो इच्छा विना तेओ आहार केम करे? अर्थात् इच्छा विना आहार केम संभवे?

तेनुं समाधानः– ‘अशातावेदनीय कर्मना उदयथी जठराग्निरूप क्षुधा उपजे छे.’ एटले शुं? के जे जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न थाय छे तेमां अशातावेदनीय कर्मनो उदय निमित्त छे. जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न तो पोताथी थाय छे, जठराग्निना परमाणुओ पोते ज परिणमीने क्षुधारूपे ऊपजे छे अने त्यारे तेमां अशातावेदनीय कर्मनुं निमित्तपणुं छे. बस आटली वात छे. निमित्त कांई जठराग्निरूप क्षुधानो कर्ता छे एम नथी, पण निमित्त छे तो कह्युं के-अशातावेदनीयना उदयथी जठराग्निरूप क्षुधा उपजे छे. आ निमित्तनुं कथन छे. भाई! पोतानुं सत्त्व - असत्त्व शुं छे एनुं भेदज्ञान करवानी वात छे.


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जुओने! कुतरीने बहु भूख लागी होय तो पोताना बच्चाने खाई जाय छे. एवुं ज सर्पिणीमां छे. सापण सेंकडो बच्चांने जन्म आपे छे अने तेमना फरते गोळाकारे वींटळाईने तेमने एक एक करीने खाई जाय छे. तेमां जो कोई तरत ज बहार नीकळी जाय तो ते बची जाय छे. एवुं ज उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काळनुं छे. अहा! काळचक्रना पंजामां पडेलां प्राणीओ अनादिथी भेदज्ञानना अभावे निरंतर जन्म-मरण त्यां ने त्यां चारगतिमां कर्या ज करे छे. तेमांथी कोई भाग्यवान जीव भेदज्ञान करीने आत्मज्ञानी थाय छे ते काळचक्रनी बहार नीकळी जईने सिद्धदशाने पामे छे. बाकी तो एमां ने एमां ज जन्म-मरण करता रही जाय छे. भाई! अहीं तने जन्म-मरणथी उगरवानो पंथ आचार्यदेव बतावे छे.

कहे छे-ज्यारे जठराग्निना परमाणु क्षुधापणे उपजे छे त्यारे तेमां अशातावेदनीय कर्म निमित्त छे. जुओ, क्षुधाना जे परमाणु छे ते भिन्न चीज छे ने एमां निमित्त एवुं अशातावेदनीय कर्म पण भिन्न चीज छे, पण निमित्त छे एवुं ज्ञान कराववा टूंकामां कह्युं के-अशातावेदनीयना उदयथी जठराग्निरूप क्षुधा उपजे छे. आवी वात! (भाई! निमित्त छे एम जाणवुं पण ते कर्ता छे एम न मानवुं.)

हवे बीजी वातः- ‘वीर्यांतरायना उदयथी तेनी वेदना सही शकाती नथी.’ अर्थात् पोतानी योग्यतामां ज्यां सहन करवानी शक्ति नथी त्यां वीर्यांतरायना उदयने निमित्त कहेवामां आवे छे. ज्यारे क्षुधानी पीडा सही शकाती नथी त्यारे एमां वीर्यांतरायनो उदय निमित्त छे बस. बे बोल थया.

ज्ञानीने इच्छानी इच्छा नथी. छतां आहारनी इच्छा उत्पन्न केम थाय छे एनी वात चाले छे. तो कह्युं के-

१. अशातावेदनीयना निमित्ते जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न थाय छे. अने २. वीर्यांतरायना निमित्ते एटले के पोतानी कमजोरीथी तेनी वेदना सहन थती नथी. आ बे वात थई.

हवे त्रीजी वातः- ‘चारित्रमोहना उदयथी आहारग्रहणनी इच्छा उत्पन्न थाय छे.’

प्रश्नः– पण चारित्रमोह तो पर-जड छे? (एनाथी इच्छा केम थाय?) समाधानः– भाई! आहारग्रहणनी इच्छा तो पोताथी थाय छे अने त्यारे एमां चारित्रमोहनो उदय निमित्त छे. निमित्त छे एवुं ज्ञान कराववा कह्युं के चारित्रमोहना उदयथी आहारग्रहणनी इच्छा उत्पन्न थाय छे. भाई! धर्मनी आवी (गूढ) वातो छे! आवे छे ने के-


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‘कर्म बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई.’

विकार जे थाय छे तेमां पोतानी ज भूल छे, ते पोतानो ज अपराध छे, कर्मनो कांई दोष नथी. पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी विकार-राग थाय छे अने सवळा पुरुषार्थथी ते टळी जाय छे. त्यां अज्ञानी जीव रागनो कर्ता थाय छे अने ज्ञानी कर्ता थतो नथी. ज्ञानीने किंचित् रागनुं परिणमन छे तेमां चारित्रमोहना उदय निमित्त छे एम अहीं कहे छे.

हवे कहे छे-‘ते इच्छाने ज्ञानी कर्मना उदयनुं कार्य जाणे छे.’ जोयुं? भाषा जुओ! एक शुद्ध चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिनी अपेक्षाए राग पोतानो (-जीवनो) स्वभाव नथी अने ते स्वभावनुं कार्य पण नथी. माटे आ अपेक्षाथी ‘इच्छाने ज्ञानी कर्मोदयनुं कार्य जाणे छे’-एम कह्युं छे.

प्रश्नः– तो आमां तो रागरूपी कार्य कर्मथी थाय छे एम आव्युं? समाधानः– भाई! रागरूपी कार्य पोतानुं (-स्वभावनुं) नथी ते अपेक्षाए आम कह्युं छे. बाकी राग छे तो पोतानी पर्यायनुं कार्य; परंतु ते पोताना स्वभावनुं कार्य नथी अने निमित्तना संगे थयुं छे तो ते अपेक्षाए ते कर्मोदयनुं कार्य छे एम कह्युं छे. अहा! पोते स्वतंत्र कर्ता थईने इच्छारूपी कार्य करे छे, छतां पोताना स्वभावमां ते इच्छा नथी ते कारणे, जे इच्छा उत्पन्न थई छे ते कर्मनुं कार्य छे एम जाणीने ज्ञानी तेनो नाश करी दे छे. अहा! वीतराग जैन परमेश्वरनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! बहु पुरुषार्थ वडे समजाय तेवो छे.

अहा! एक बाजु ‘जन्मक्षण’ कहे अर्थात् जे समये जे राग उत्पन्न थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे, उत्पत्तिकाळ छे, ते कर्मथी उत्पन्न थाय छे एम नथी-एम कहे अने वळी कहे के-इच्छाने ज्ञानी कर्मोदयनुं कार्य जाणे छे; अहा! आ ते केवी वात! भाई! ज्यां जे अपेक्षाए कथन छे त्यां ते अपेक्षा समजी यथार्थ जाणवुं जोईए.

अहीं कहे छे-हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मा छुं. अहा! सत् एवा मारा आत्मानुं सत्त्व तो ज्ञान अने आनंद छे अर्थात् एक ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी भरेलो हुं भंडार छुं. तो मारुं जे परिणमन थाय ते तो ज्ञाननुं ज परिणमन थाय छे, स्वभावनुं ज परिणमन थाय छे. हवे तेमां रागनुं परिणमन कयां आव्युं? ए तो रही गयुं कयांय बहार. तो ते रागनुं परिणमन कर्मोदयनुं कार्य छे एम जाणी भेदज्ञानपूर्वक तेने ज्ञानी छोडी दे छे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-‘रोग समान जाणी तेने मटाडवा चाहे छे.’ जुओ! ज्ञानीने इच्छा आवे छे पण तेने ते रोग समान जाणे छे. एटले शुं? के जेम रोगने सौ दूर करवा इच्छे तेम ज्ञानी इच्छाने दूर करवा-मटाडवा इच्छे छे. ‘इच्छा प्रत्ये अनुरागरूप


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इच्छा ज्ञानीने नथी.’ अहा! इच्छानी इच्छा ज्ञानीने नथी. अर्थात् ‘तेने एम इच्छा नथी के मारी आ इच्छा सदा रहो.’ अहा! आ तो रोग आव्यो-रोग आव्यो-एम जाणीने ज्ञानी इच्छाने छोडी दे छे. अहो! भेदज्ञाननो कोई अजब महिमा छे के जे वडे ज्ञानी इच्छानी इच्छाथी रहित होय छे. अज्ञानी तो बिचारो सामायिक ने प्रौषधना विकल्पमां अटकी रहे छे अने पोताने ते वडे धर्म थई गयो माने छे. पण ए तो नर्युं अज्ञान छे.

अहा! मारी आ इच्छा सदाय रहो एवी इच्छा ज्ञानीने नथी. जुओ! केवो सरस खुलासो पंडित श्री जयचंदजीए कर्यो छे! हवे कहे छे-‘माटे तेने अज्ञानमय इच्छानो अभाव छे.’ अहा! इच्छानो अनुराग ज्ञानीने नथी ते कारणे अज्ञानमय इच्छानो तेने अभाव छे. मने सदाय इच्छा रहो एम ज्ञानीने नथी तेथी तेने अज्ञानमय इच्छानो अभाव छे. तेने ज्ञानमय ज भाव छे ने? तेथी अज्ञानमय भावनो अभाव छे.

‘परजन्य इच्छानुं स्वामीपणुं ज्ञानीने नथी माटे ज्ञानी इच्छानो पण ज्ञायक ज छे.’ ए तो पहेलां ज कह्युं के ज्ञानी इच्छाने कर्मोदयनुं कार्य जाणे छे. हवे जेने परजन्य- कर्मोदयजन्य जाणे तेनो स्वामी पोते केम थाय? इच्छा-राग तो रोग छे. तो शुं ते रोगनो स्वामी थाय? कदीय न थाय. ज्ञानी रागनो स्वामी नहि थतो थको ए तो रागनो-इच्छानो पण ज्ञायक ज रहे छे. अहा! शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनो ज्ञाता ज्ञानी रागनो-इच्छानो पण ज्ञाता ज रहे छे. ल्यो, आ चोथा पदनो-‘जाणगो तेण सो होदि’–नो अर्थ छे. टीकामां हतुं ने के-‘अशननो केवळ ज्ञायक ज छे’-ए आ वात छे. अहा! ज्ञानी ज्ञायकस्वभावमां रहीने जे इच्छा थाय छे तेने पर तरीके मात्र जाणे ज छे. आवी वात छे.

प्रश्नः– आवी बधी वातो समजवानी अमने नवराश कयां छे? (एम के बीजुं कांई करवानुं कहो तो झट दईने करी दईए).

उत्तरः– अरे प्रभु! अनंत जनम-मरणना फेरा टाळवा माटे आ बधुं समजीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करवुं पडशे; केमके सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना बीजी कोई रीते (क्रियाकांडथी) जनम-मरण नहि मटे, संसार नहि मटे, दुःख नहि मटे. (भाई! भगवान केवळीए कहेली आ वात छे).

अहा! ‘परजन्य इच्छानुं स्वामीपणुं ज्ञानीने नथी. माटे, ज्ञानी इच्छानो पण ज्ञायक ज छे-आ प्रमाणे शुद्धनयनी प्रधानताथी कथन जाणवुं.’ शुं कीधुं? के शुद्धनयथी एटले के यथार्थद्रष्टिनुं आ कथन छे एम जाणवुं. बीजे व्यवहारनयथी कथन छे पण ए तो उपचारमात्र कथन छे. निश्चय ते यथार्थ छे अने व्यवहार ते