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समकिती छे. ते बधा एम माने छे के-राग मारो नथी, शरीर मारुं नथी; हुं तो ज्ञाता ज छुं. तेमने सम्यक्त्व थया पछी मांसादिनो आहार पण होतो नथी. तेमने तो समुद्रमां हजार जोजनना लांबा डोडा-कमळ थाय छे तेनो खोराक होय छे.
भगवाननो जीव जुओने! त्रिलोकनाथ भगवान महावीरनो जीव दशमा भवे सिंह हतो. ते सिंह हरणने थापो मारीने खाई रह्यो हतो. त्यां आकाशमांथी मुनिराज नीचे उतर्या अने ते सिंहनी समीप आववा लाग्या. अहा! मने दूरथी जोईने मनुष्य भागी जाय एने बदले आ मारी पासे आवी रह्या छे! शुं छे आ? एकदम परिणाममां पलटो आव्यो; तेना परिणाम फरी गया, कोमळ थया.
तो शुं एनी काळलब्धि आवी गई? काळलब्धि? पुरुषार्थ कर्यो ते ज काळलब्धि; पुरुषार्थ करे छे त्यारे काळलब्धि आवे ज छे.
प्रश्नः– पण जुओ, निमित्त आव्युं तो पुरुषार्थ थयो ने? समाधानः– ना; एम नथी. पुरुषार्थ पोताथी थयो छे त्यारे बीजी चीजने निमित्त कहेवामां आवे छे. निमित्त तो पर चीज छे; एनाथी शुं थाय? पोते अंदरमां पोताथी जागृत थयो तो मुनिराजने निमित्त कहेवामां आवे छे.
सिंहना परिणाम कोमळ थयेला जोईने मुनिराजे कह्युं-अरे सिंह! तुं आ शुं करे छे? भगवान श्री केवळीए कह्युं छे के-तारो जीव दशमा भवे त्रणलोकनो नाथ तीर्थंकर थवानो छे. भगवान! तुं साक्षात् भगवान थवानो छे ने! आ शुं? आ सांभळीने सिंहनी आंखमांथी आंसुनी धारा वहेवा लागी. परिणाम विशेष कोमळ थया अने अंतरमां स्मरण थयुं. अहा! हुं तो शुद्ध ज्ञायकस्वभावी परमब्रह्मस्वरूप एक चैतन्यमय परमात्मद्रव्य छुं. अरे! आ शुं? आम ध्यान करवाथी ते सिंह सम्यग्दर्शन पाम्यो. हजी पेटमां तो हरणनुं मांस पडयुं छे तोपण मुनिराजनी दिव्य देशना पामीने अंतर्निमग्न थई समकित पाम्यो. विकल्पथी-रागथी हठीने तत्क्षण भगवान ज्ञायकमां अंदर उतरी गयो ने धर्म पाम्यो.
प्रश्नः– मुनिराजे सिंहने जगाडयो ने? उत्तरः– भाई! सिंह जाग्यो के तेने जगाडयो? पोते पोताथी जाग्यो तो मुनिराजे जगाडयो एम निमित्तथी कहेवाय छे. शुं मुनिए देशना करी माटे जाग्यो छे? पोते पोताना उपादानथी जाग्यो छे, देशना तो निमित्तमात्र छे.
प्रश्नः– पण मुनिराज आव्या त्यारे जाग्यो ने? उत्तरः– भाई! ए वखते ज जागवानो पोतानो स्वकाळ हतो माटे जाग्यो छे.
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सम्यग्दर्शन पामवानो ते स्वकाळ हतो. स्वकाळ एटले? द्रव्यना प्रत्येक परिणमननी जन्मक्षण होय छे अर्थात् वस्तु क्रमबद्ध परिणमे छे. पण आवुं ज्ञान यथार्थ कोने थाय छे? के जेनी द्रष्टि शुद्ध ज्ञायक उपर पडेली छे तेने. अहा! केवळज्ञाननी ने वस्तुना क्रमबद्ध परिणमननी यथार्थ प्रतीति तेने थाय छे जेनी द्रष्टि शुद्ध द्रव्य उपर पडी होय छे, अने तेने ज समकितनो स्वकाळ पाके छे. समजाणुं कांई...?
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जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ।। २०९।।
यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम।। २०९।।
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम्।
अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद्
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः।। १४५।।
‘वळी आ (नीचे प्रमाणे) मारो निश्चय छे’ एम हवे कहे छेः–
वा अन्य को रीत जाव, पण परिग्रह नथी मारो खरे. २०९.
गाथार्थः– [छिद्यतां वा] छेदाई जाओ, [भिद्यतां वा] अथवा भेदाई जाओ, [नीयतां वा] अथवा कोई लई जाओ, [अथवा विप्रलयम् यातु] अथवा नष्ट थई जाओ, [यस्मात् तस्मात् गच्छतु] अथवा तो गमे ते रीते जाओ, [तथापि] तोपण [खलु] खरेखर [परिग्रहः] परिग्रह [मम न] मारो नथी.
टीकाः– परद्रव्य छेदाओ, अथवा भेदाओ, अथवा कोई तेने लई जाओ, अथवा नष्ट थई जाओ, अथवा गमे ते रीते जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं; कारण के ‘परद्रव्य मारुं स्व नथी, -हुं परद्रव्यनो स्वामी नथी, परद्रव्य ज परद्रव्यनुं स्व छे, - परद्रव्य ज परद्रव्यनो स्वामी छे, हुं ज मारुं स्व छुं, -हुं ज मारो स्वामी छुं’-एम हुं जाणुं छुं.
भावार्थः– ज्ञानीने परद्रव्यना बगडवा-सुधरवानो हर्षविषाद होतो नथी. हवे आ अर्थना कळशरूपे अने आगळना कथननी सूचनारूपे काव्य कहे छेः- *श्लोकार्थः–
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* आ कळशनो अर्थ आ प्रमाणे पण थाय छेः- इत्थं] आ रीते [स्वपरयोः अविवेकहेतुम्
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[सामान्यतः] सामान्यतः [अपास्य] छोडीने [अधुना] हवे [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं] स्व-परना अविवेकना कारणरूप अज्ञानने छोडवानुं जेनुं मन छे एवो आ [भूयः] फरीने [तम् एव] तेने ज (-परिग्रहने ज-) [विशेषात्] विशेषतः [परिहर्तुम्] छोडवाने [प्रवृत्तः] प्रवृत्त थयो छे.
भावार्थः– स्वपरने एकरूप जाणवानुं कारण अज्ञान छे. ते अज्ञानने समस्तपणे छोडवा इच्छता जीवे प्रथम तो परिग्रहनो सामान्यतः त्याग कर्यो अने हवे (हवेनी गाथाओमां) ते परिग्रहने विशेषतः (जुदां जुदां नाम लईने) छोडे छे. १४प.
‘वळी आ (नीचे प्रमाणे) मारो निश्चय छे.’ हुं तो ज्ञाता ज छुं, परिग्रह मारो नथी-एम मारो निश्चय छे एम हवे कहे छेः-
‘परद्रव्य छेदाओ, अथवा भेदाओ, अथवा कोई तेने लई जाओ, अथवा नष्ट थई जाओ, अथवा गमे ते रीते जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं;...’
अहाहा...! हुं तो अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदथी पूरण भरेलो, शाश्वत, शुद्ध टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभावी प्रभु आत्मा छुं एवी जेने अंतरमां द्रष्टि थई छे ते ज्ञानी छे, धर्मी छे. निज आत्मद्रव्यमां ज अहंबुद्धि होवाथी धर्मीने परद्रव्यमांथी अहंबुद्धि छूटी गई होय छे. धर्मी जीव कहे छे-परद्रव्य छेदाओ तो छेदाओ; मने शुं छे? अहाहा...! माराथी भिन्न परद्रव्य-आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय, कर्म ईत्यादि छेदाईजाय तोपण मने कांई नथी केमके ते मारी कांई (संबंधी) नथी. अहा! आ शरीरादिकना छेद-छेद-टुकडा-टुकडा थई जाय तोपण मने कांई नथी केमके ते मारी चीज नथी. आ शरीरादि तो जड-अजीव धूळ-माटी छे, ए कयां आत्मा छे?
प्रश्नः– शरीर जड, धूळ-माटी छे, पण कयारे? जीव चाल्यो जाय त्यारे ने? समाधानः– अरे भाई! आ शरीर अत्यारे पण जड, माटी छे. जीव चाल्यो जाय त्यारे तो जड छे ज; परंतु अत्यारे पण ते जड, माटी ज छे. वळी अत्यारे _________________________________________________________________
समस्तम् एव परिग्रहम्] स्व-परना अविवेकना कारणरूप समस्त परिग्रहने [सामान्यतः] सामान्यतः [अपास्य] छोडीने [अधुना] हवे, [अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं] अज्ञानने छोडवानुं जेनुं मन छे एवो आ, [भूयः] फरीने [तम् एव] तेने ज [विशेषात्] विशेषताः [परिहर्तुम्] छोडवाने [प्रवृत्तः] प्रवृत्त थयो छे.
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जे अंदरमां दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि शुभोपयोगरूप परिणाम थाय छे ते पण जड छे, ते हुं आत्मा नथी, ते मारी चीज नथी. अहा! आवुं माननारने मिथ्यात्वनो नाश थाय छे.
प्रश्नः– पण आ बधुं सांभळीने अमारे करवुं शुं? समाधानः– भाई! आ करवुं के-हुं शरीर ने रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्य- स्वभावमय आत्मद्रव्य छुं एम स्वीकारी तेनुं लक्ष करीने प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं केमके सम्यग्दर्शन विना कयारेय सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र होतां नथी. अहाहा...! शुद्ध चिदानंदमय स्वद्रव्य ज मारुं छे अने आ शरीरादि अने रागादि मारां नथी-आम श्रद्धा- ज्ञान करवां. हवे ज्यां राग ने शरीर भिन्न छे त्यां कुटुंब-कबीला ने लक्ष्मी आदि तो कयांय दूर रही गयां. तोपण आ पुत्र मारो, ने स्त्री मारी ने लक्ष्मी मारी एम जे माने छे ए तो स्थूळ मिथ्याद्रष्टि छे.
तो जे (पुत्र, लक्ष्मी आदि) होय तेनुं शुं करवुं? समाधानः– भाई! तेओ तारामां छे ज कयां? तेओ तो तेमनामां-पोत-पोतामां छे. पैसा पैसामां छे, स्त्री स्त्रीमां छे, पुत्र पुत्रमां छे. ए बधां होतां तारामां शुं आव्युं छे? तारुं शुं छे? कांई ज नहि. भाई? आ वात वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर श्री सीमंधरस्वामी भगवान के जेओ महाविदेहमां बिराजे छे त्यांथी आवी छे. दिगंबर संत श्री कुंदकुंदाचार्य संवत् ४९ मां त्यां भगवान पासे गया हता, आठ दि’ त्यां रह्या हता, परमात्मानी वाणी साक्षात् सांभळी हती अने त्यांथी भरतमां आवीने आ शास्त्र रच्युं छे. एमां आ कहे छे के-भाई! तारुं तो एक ज्ञायकस्वभावी स्वद्रव्य ज छे, ए सिवाय रागादि ने शरीरादि तारी कोई चीज नथी. समजाणुं कांई...?
जुओ, नव तत्त्व छे के नहि? (छे ने). तो अजीव तत्त्व ए पोतानुं (-जीवनुं) कयांथी आव्युं? वळी अंदर जे पुण्य-पापना भाव छे ते आस्रव तत्त्व छे. तो ते आस्रव तत्त्व पोतानुं (-जीवनुं) कयांथी थई गयुं? जो ते पोतानुं (-जीवनुं) थाय (होय) तो जीव, अजीव ने आस्रव तत्त्व भिन्न-भिन्न कयां रह्यां? अहा! आवुं अत्यारे समजवुं लोकोने कठण पडे छे केमके बिचाराओए कदी सांभळ्युं नथी. बस व्रत करो, अपवास करो, भक्ति करो, पूजा करो, धर्म थई जशे आवुं बधुं सांभळवा मळ्युं छे. पण बहु फेर छे भाई! भगवान आत्मा अंदर सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे. अहाहा...! सत् नाम शाश्वत ज्ञान अने आनंद जेनो स्वभाव छे एवो अनंत गुणनुं धाम-अनंत गुणनुं गोदाम-प्रभु आत्मा छे. धर्मीनी द्रष्टि आवा आत्मस्वरूप प्रति झुकेली छे. ते कहे छे- परद्रव्य छेदाओ तो छेदाओ, मने कांई नथी. आवी वात छे!
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प्रश्नः– आ तो मुनिनी वात छे ने? उत्तरः– भाई! आ तो समकितीनो अभिप्राय छे. मुनिनी तो शी वात! आ तो समकिती आम माने छे एम वात छे. भाई! रागनो एक कण अने रजकण पण मारो छे एम जे माने छे ते मूढ छे, अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे; तेने जैनधर्मनी खबर नथी. वीतराग सर्वज्ञ जैन परमेश्वरे आ कह्युं छे के-धर्मी समकिती जीव परद्रव्य-शरीर, धन, लक्ष्मी, कुटुंब आदि-छेदाई जाय तोपण ते मारां छे एम माने नहि, अनुभवे नहि; ए तो एक ज्ञायक ज मारुं स्वद्रव्य छे एम अनुभवे छे.
अहाहा...! प्रभु! तने जो धर्म थाय ने कर्मनी निर्जरा थाय तो ते कयारे थाय? तो कहे छे के ज्यारे तारी चीजमां-अखंड एक ज्ञायकस्वभावमां-तारी द्रष्टि पडी होय त्यारे; आ शरीरादि अने रागादिथी हुं भिन्न छुं एवी चैतन्यस्वरूपनी अनुभूति थाय त्यारे. भाई! आवी चैतन्यस्वरूपनी अनुभूतिमां राग के शरीर आवतां नथी केमके तेओ अनुभूतिथी भिन्न छे. झीणी वात छे प्रभु! प० थी पप गाथामां ‘अनुभूतिथी भिन्न छे’-एम आवे छे ने? एनो अर्थ ए छे के-हुं तो ज्ञानानंद-सहजानंद स्वरूपे छुं अने एनी जे अनुभूति छे तेमां राग के शरीरनो भाव आवतो नथी. आवी वात! बापु! आ तो जन्म-मरणथी रहित थवानी कोई अलौकिक वात छे! आ तो वीतरागनी वाणी! ए वाणीनी गोदमां बेठा-बेठा आ कहीए छीए के-हुं आत्मा एक ज्ञानानंदस्वभावी छुं अने मारा ज्ञाननी अनुभूतिमां आ रागादि ने शरीरादिना भाव आवता नथी, तेओ अनुभूतिथी भिन्न ज रही जाय छे.
हवे आवो मारग! बिचारो साधारण माणस केवी रीते प्राप्त करे? तेने कहीए छीए-भाई! जेम मारग साधारण नथी तेम तुं पण साधारण नथी. तुं त्रणलोकनो नाथ प्रभु परमात्मस्वरूपे छो. ‘अप्पा सो परमप्पा’–एम आवे छे ने? अहाहा...! भाई! तुं परम जेनुं स्वरूप छे-ज्ञानने आनंद जेनुं स्वरूप छे तेवो ज्ञानानंदनो सागर प्रभु परमात्मा छो. भाई! आ शरीर ने राग तारी चीज नथी. माटे हठी जा त्यांथी, ने स्वरूपनुं लक्ष कर; तने तारा परमात्मानां दर्शन थशे अर्थात् सम्यग्दर्शन थशे. जो; जेने स्वरूपनुं भान थयुं छे एवो धर्मी जीव परद्रव्य-चाहे शरीर हो, पैसा हो, आबरू हो, के कांईपण हो-छेदाई जाय तोपण मने कांई नथी एम माने छे.
अहा! अज्ञानी एम माने छे के-अरे! मारी आबरू चाली गई, हुं आबरू विनानो थई गयो, मारुं अपमान थई गयुं! पण अरे भाई! आबरू ज तारी कयां हती? भगवान! तुं कोण छो एनी तने खबर नथी. तारुं अपमान कोण करी शके छे? जेने आत्मानुं ज्ञान छे ए तो करे नहि अने जेने आत्मानुं ज्ञान नथी-आत्मा जोयो नथी-ते पण अपमान करी शके नहि. (केमके आत्माने जोया विना
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अपमान केवी रीते करे?). आवो वीतराग परमेश्वरनो मारग सूक्ष्म छे भाई! अज्ञानीने एनी खबर नथी.
अहा! कहे छे-‘परद्रव्य छेदाओ’-एटले लक्ष्मी, शरीर आदिना टुकडा थई जाओ वा ‘भेदाओ’ अर्थात् तेनो भूको थई जाओ तोपण मने कांई नथी. पर चीज छेदाओ वा भेदाओ नाम भांगीने भूको थई जाओ तोपण मारामां कांई थतुं नथी एम कहे छे. जुओ आ धर्मी जीव! एकदम पांच-पचास लाख जमा थई जाय तोपण कहे छे के ते मारी चीज नथी ने आबरू चाली जाय तोपण कहे छे के ते मारी चीज नथी.
प्रश्नः– आबरू तो पोतानी (-जीवनी) छे ने? उत्तरः– भाई! आबरू कयां पोतानी (-जीवनी) छे? ए तो धूळनी छे. प्रश्नः– पण गाम तो आत्मानुं छे के नहि? तेनो ए बादशाह छे ने? उत्तरः– भाई! कोनुं गाम ने कोण बादशाह? ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्मा ते गाम छे अने पोते आत्मा तेनो बादशाह छे. आ सिवाय एनुं कोई गामेय नथी ने बादशाहेय नथी. श्री न्यालभाई सोगानीए ‘द्रव्यद्रष्टि प्रकाश’, मां लीधुं छे ने के-
कोई कहे छे-भरत चक्रवर्तीए छ खंड साध्या हता? तेओ (न्यालभाई) कहे-ना, ना; छ खंड तो परचीज छे. तेने भरत चक्रवर्तीए साध्या ज नथी.
त्यारे शुं साध्युं’तुं? अखंडने साध्यो हतो. अहा! खंड नहि पण अखंडनी साधना करी हती. अहा! गृहस्थाश्रममां रहेवा छतां “हुं पत्नीनो पति छुं, हुं लक्ष्मीपति छुं, हुं उद्योगपति छुं-एम धर्मी मानतो नथी.
प्रश्नः– आ तो भारे वात छे! आ तो बावो थाय तो बेसे एम छे. उत्तरः– भाई! आत्मा (परथी शून्य) बावो ज छे; आत्मामां कोई परचीज छे ज नहि. परथी अने रागथी आत्मा भिन्न ज छे. (जेम छे तेम श्रद्धान करवुं बस एटली वात छे).
अहा! निर्जरा एटले धर्म कोने थाय? के जेणे अंतरमां हुं ज्ञानानंदमूर्ति प्रभु आत्मा छुं एवी द्रष्टि करी छे तेने. अहा! परद्रव्य छेदाओ वा भेदाओ, ते मारी चीज नथी; हुं तो थवावाळी चीजने पोताना ज्ञाताद्रष्टापणामां रहीने जाणवावाळो छुं-ल्यो, आम जाणनारने निर्जरा ने धर्म थाय छे. अहा! परद्रव्य छेदाओ, अथवा भेदाओ, अथवा कोई लई जाओ,...’ अहा! छे? एम के परचीजने
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कोई चोर लई जाओ के बीजा लई जाओ; अमने शुं छे? ते कयां अमारी चीज छे के अमने हानि थाय? धर्मी आम माने छे.
प्रश्नः– तो पछी धर्मी ताळा-कुंची केम राखे छे? समाधानः– भाई! अज्ञानी ताळा-कुंची राखे छे त्यां तो एने ममता-मारापणानो भाव छे माटे राखे छे, ज्यारे ज्ञानी ताळा-कुंची राखे छे त्यां एने एटलो (अस्थिरतानो) विकल्प छे माटे राखे छे. ते काळे ते प्रमाणे बनवानो काळ छे तो तेवुं बने छे; बाकी आत्मा ताळुं दई शके छे एम छे ज नहि, केमके ताळुं देवुं ए तो जडनी क्रिया छे, तेने आत्मा करी शकतो नथी. गंभीर वात छे बापा!
प्रश्नः– तो तिजोरीने ताळुं देवुं के नहि? समाधानः– भाई! ताळुं कोण दे? ए तो जडनी-परमाणुनी दशा छे. ताळुं बंध थाय ने ताळुं खुले-ए तो तेना कारणे थाय छे; एने शुं जीव करे छे? श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के-मारामां एक तणखलाना बे टुकडा करवानी पण शक्ति नथी. अहा! श्रीमद् राजचंद्र गृहस्थाश्रममां हता ने मुंबईमां झवेरातनो लाखोनो वेपार करता हता. तेओए एकवार कह्युं के-एक तणखलाना बे टुकडा करवानी पण मारामां शक्ति नथी. भाई! तणखलाना बे टुकडा थाय ए तो जडनी क्रिया छे अने ते आत्मा करी शकतो नथी. समजाणुं कांई...? त्यारे कोई कहे छे-
पण ए तो एम कहीने पोतानी लघुता एमणे बतावी छे. भाई! एम नथी बापा! लघुता बतावी छे एम नथी पण वस्तुनुं स्वरूप बताव्युं छे. परनुं आत्मा कांई करी शके ज नहि एवुं वस्तुनुं स्वरूप छे. शुं आ आंगळी आत्मा ऊंची करी शके छे? ना; केमके ए तो जड छे अने एनुं ऊंचुं-नीचुं थवुं ए एनी-जडनी क्रिया छे. आत्मा तो एने अडेय नहि तो पछी एनुं शुं करे? भाई! आ वाणी जे नीकळे छे ने? ए पण जडनी क्रिया छे अने तेने आत्मा करे छे एम छे ज नहि. आवी वात छे!
तो आपे तो आत्माने साव पांगळो बनावी दीधो. भाई! आत्मा परमां पांगळो एटले पंगु ज छे. अहाहा...! पोतामां ते पूर्ण पुरुषार्थी छे; पोतानी सत्तामां ते उलटो के सुलटो पुरुषार्थ करी शके छे पण परमां कांई ज करी शके नहि एवो ते पंगु छे. भगवान! मारग तो आवो छे! अहा! जे आ बधा भभका देखाय छे-शरीर ने वाणी ने पैसा ने आबरू देखाय छे-ए तो बधो जडनो भभको छे प्रभु! अहा! ए तारी चीजमां कयां छे? ए तारी चीजमां नथी, तारी नथी अने तारामां आवी नथी.
ए ज कहे छे के-‘परद्रव्य छेदाओ, अथवा भेदाओ, अथवा कोई तेने लई
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जाओ अथवा नष्ट थई जाओ, अथवा गमे ते रीते जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.’ अहा! परद्रव्यनुं थवुं होय ते थाओ, पण ते मारी चीज छे एम हुं नहि मानुं. हुं परद्रव्यनुं परिग्रहण-परद्रव्यमां एकत्वबुद्धि त्रणकाळमां नहि करुं एम कहे छे. अहा! स्त्री हो, पुत्र हो, पुत्री हो के धन हो-ते कोई चीज मारी छे नहि अने ते छेदाओ, भेदाओ वा नाश पामो तोपण मने कांई नथी अर्थात् तेथी मारामां कांई हानि नथी. अहा! आवी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे चारित्र तो कोई ओर अलौकिक चीज छे. ‘स्वरूपे चरणं चारित्रम्’ अहाहा...! स्वरूपनुं भान थया पछी स्वरूपमां चरवुं- रमवुं-ठरवुं ते चारित्र छे. अहो! चारित्र कोई अद्भुत अलौकिक दशा छे! भाई! आ नग्नपणुं के पंचमहाव्रतनो राग ए कांई चारित्र नथी. (तेने उपचारथी चारित्र कहेवुं ए जुदी वात छे).
प्रश्नः– चारित्र ग्रहवा माटे कपडां तो काढवां पडे ने? समाधानः– काढवां शुं पडे? ए तो एने कारणे नीकळी जाय छे बापु! ‘कपडां हुं छोडुं छुं’ ए तो त्यां छे ज नहि. ‘कपडां हुं छोडुं छुं’ ए तो मान्यता ज मिथ्या छे. शुं कपडां एनां छे ते ए छोडे छे? अने शुं ते कपडां काढी शके छे? कपडांनुं उतरवुं पण एना (कपडांना) पोताना कारणे थाय छे. खूब गंभीर वात भाई!
प्रश्नः– आ टोपी पोते (-आत्मा) सरखी पहेरी शके छे के नहि? उत्तरः– ए तो कह्युं ने के परमां आत्मा कांई न करी शके एवो ते पंगु छे. टोपी शुं पहेरे? भाई! टोपीनुं सरखुं पहेरवुं जे थाय छे ते तेने (टोपीने) कारणे थाय छे; तेना स्वकाळे ते पर्याय थवावाळी छे तो थाय छे, पण टोपीनी पर्याय पोते (-आत्मा) करे छे एम छे ज नहि. बहु आकरी वात बापा! वीतरागनो मारग बहु अलौकिक छे प्रभु!
अहीं कहे छे-‘हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं,’ केमके मारो तो चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा ज परिग्रह छे. ए तो गाथा २०७ मां आवी गयुं ने के ‘ज्ञानी पोताना आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे.’ अहा! हुं आनंदकंद प्रभु आत्मा छुं अने ते ज मारो परिग्रह छे-आम ज्ञानी जाणे छे. आम जाणतो ते परद्रव्यने-स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, झवेरात आदिने पोतानी साथे एकमेक करतो नथी.
प्रश्नः– तो आ बधुं-झवेरात आदि बधुं-कयां नाखवुं? समाधानः– अरे भाई! ए बधुं कयां तारुं (-आत्मानुं) छे? तो कोनुं छे? बापु? ए तो जगतनी जड चीज माटी-धूळ छे अने ते धूळ धूळनी-पुद्गलनी छे.
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बे-पांच करोड रूपिया होय तोय ते जड माटी छे, धूळ छे. ते तारामां कयां छे के ते तारी चीज होय? अहा! जगतथी-परथी भिन्न पडवुं अने पोताना स्वरूपमां आववुं ते अपूर्व पुरुषार्थ छे, केमके आवो पुरुषार्थ अनंतकाळमां कयारेय तें कर्यो नथी. छहढाळामां ना कह्युं के-‘मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायौ,’ भाई! तुं ग्रीवकमां उपज्यो एवां मुनिव्रत अनंतवार पाळ्यां, हजारो राणीओने छोडी दीधी, पण आत्मज्ञाननी प्राप्तिना अपूर्व पुरुषार्थ विना बधुं फोगट ज गयुं.
जुओ, २०७ मी गाथामां एम कह्युं के-ज्ञानी आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे.’ अहा! सम्यग्द्रष्टि जीव-धर्मना पहेला दरज्जावाळो जीव-एम माने छे के हुं शुद्ध चिदानंदमय आत्मा छुं, ने मारो आत्मा ज मारो परिग्रह छे. अहीं कहे छे-‘हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.’ अहा! आ लाखो-करोडोनी साह्यबी के आ भक्ति आदिनो राग जे पर छे तेने मारी चीज नहि मानुं एम कहे छे.
तो दया, दान, भक्ति आदिनो राग छे ने? भले हो. अशुभथी बचवा एवो अस्थिरतानो राग आवे छे पण तेने हुं नहि परिग्रहुं, ते मारी चीज छे एम नहि मानुं. केम? तो कहे छे-‘कारण के पर द्रव्य मारुं स्व नथी, -हुं परद्रव्यनो स्वामी नथी.’ आ दया, दान, भक्ति आदिना विकल्प मारुं स्व नथी, हुं तेनो स्वामी नथी एम कहे छे. अहा! जगतने आकरुं पडे एवुं छे, पण आ (सत्य) छे.
प्रश्नः– तो दया, दान, भक्ति इत्यादि शुभभाव करतां शुं धर्म न थाय? उत्तरः– भाई! भगवान जिनेश्वरदेव त्रिलोकनाथनुं आ फरमान छे के जे बधो शुभभाव छे ते राग छे, माटे एनाथी धर्म न थाय. (केमके धर्म तो वीतराग छे.)
धर्मात्मा कहे छे-‘हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं, कारण के परद्रव्य मारुं स्व नथी, हुं परद्रव्यनो स्वामी नथी.’ अहा! गजब वात छे! जे मारुं स्व नथी तेनो हुं स्वामी केम होउं? माटे हुं पत्नीनो पति नथी, लक्ष्मीपति नथी अने नृपतिय नथी. हुं तो आत्माना आनंदनो पति छुं.
पण आ शेठिया तो बधा करोडपति ने अबजपति कहेवाय छे ने? धूळमांय करोडपति के अबजपति नथी सांभळ ने. ए तो बधी धूळ छे, तो शुं धूळपति छे? अहा! आ मन (मारे मन) तो मागण-भिखारी छे. महिने जे पांच हजार मागे ते नानो मागण-भिखारी छे, ने महिने जे लाख मागे ते मोटो भिखारी छे तथा जे करोडो मागे ते भिखारीमां भिखारी छे. मागण छे मागण बधा;
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लाव, लाव, लाव... एम माग्या ज करे छे, (एनी तृष्णानो कयां थंभाव छे?), माटे दुःखी छे.
अहीं कहे छे-परद्रव्य मारुं स्व नथी ने परद्रव्यनो हुं स्वामी नथी. अहा! शरीरनो हुं स्वामी नथी, मननो हुं स्वामी नथी, वाणीनो हुं स्वामी नथी, इन्द्रियनो हुं स्वामी नथी. वळी मकाननो हुं स्वामी नथी, पत्नीनो हुं स्वामी नथी ने पुत्रनोय हुं स्वामी (पिता) नथी. गजब वात छे भाई! अहा! तारुं तत्त्व तो परथी भिन्न छे ने प्रभु! शुं आत्मा ने शरीर अने आत्मा ने राग भेळसेळ थई जाय छे? बीलकुल नहि, कदीय नहि. ए तो अज्ञानीए मानी राख्युं छे के हुं राग छुं ने हुं शरीर छुं. पण ए मान्यता महा पाप छे, केमके पर चीज आत्मामां केवी रीते भळे? ज्ञायक प्रभु आत्मा तो सदा ज्ञायकपणे ज रह्यो छे. अहाहा...! अनादि अनंत प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु आत्माना अस्तित्वमां रागेय नथी के शरीरेय नथी, पछी एनो स्वामी ते केम होय?
हवे कहे छे-‘परद्रव्य ज परद्रव्यनुं स्व छे, -परद्रव्य ज परद्रव्यनो स्वामी छे.’ शुं कह्युं? के शरीरनुं स्व शरीर छे ने शरीर ज शरीरनो स्वामी छे; लक्ष्मीनुं स्व लक्ष्मी छे ने लक्ष्मी ज लक्ष्मीनो स्वामी छे तथा रागनुं स्व राग ज छे ने राग ज रागनो स्वामी छे. हवे आवी वात सांभळवा मळवी पण मुश्केल छे. अत्यारे तो बधे एवी प्ररूपणा छे के- व्रत करो, तप करो, भक्ति करो, जात्रा करो, मंदिर बनावो, तमने धर्म थई जशे. पण भाई! एनाथी तो धूळेय धर्म नहि थाय सांभळने! ए तो बधो शुभभाव-राग छे. आकरी वात बापा!
प्रश्नः– पण आ बधा केटलाय मंदिरोनुं उद्घाटन आपे कर्युं छे ने? उत्तरः– अहीं तो भाई! आत्मानुं उद्घाटन कर्युं छे; बाकी मंदिरनुं-जडनुं उद्घाटन कोण करे? शुं आत्मा करे? मंदिर ज्यां पोतानुं (-आत्मानुं) स्व नथी तो तेनुं उद्घाटन आत्मा केवी रीते करे?
प्रश्नः– पण अमारा नामनी प्रशंसा थाय ते तो अमारी छे ने? समाधानः– भाई! नामनी प्रशंसामां तारी प्रशंसा कयांथी आवी? त्यां नाममां तुं (-आत्मा) कयां पेसी गयो छे? नाम तो भाई! जडनुं छे.
प्रश्नः– पण बधा भेगा ज छीए ने? समाधानः– कोई भेगा नथी, बधा भिन्न-भिन्न छे. अनंत आत्मा अने अनंता रजकणो जे भगवाने जोया छे ते बधाय भिन्न-भिन्न छे; कोईनो कोईनी साथे मेळ नथी. समजाणुं कांई? अरे भाई! रजकणे-रजकण भिन्न-भिन्न छे. आ आंगळी छे ने? एनो कोई रजकण बीजा रजकण साथे मळ्यो ज नथी. एक परमाणु
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बीजा परमाणु साथे मळेलो नथी तो भगवान आत्मा परमाणु साथे केवी-रीते मळे? भाई! शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, धन, धान्य आदि कोई चीज आत्मामां मळी नथी. झीणी वात छे बापा! वीतरागनो मारग बहु सूक्ष्म छे भाई!
हवे कहे छे-‘हुं ज मारुं स्व छुं, -हुं ज मारो स्वामी छुं-एम हुं जाणुं छुं.’ पहेलां कह्युं-‘परद्रव्य मारुं स्व नथी;’ हवे कहे छे-‘हुं ज मारुं स्व छुं’ जुओ आ अस्ति-नास्ति करीने अनेकान्त सिद्ध कर्युं. ‘हुं हुं छुं ने पर पण हुं छुं’-ए तो मिथ्याद्रष्टिनुं एकान्त छे. अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के-‘हुं ज मारुं स्व छुं, हुं ज मारो स्वामी छुं-एम हुं जाणुं छुं.’ जोयुं? ‘एम हुं जाणुं छुं’-मतलब के ज्ञानी एम जाणे छे के-हुं मारुं स्व छुं अने पर परनुं स्व छे; पर मारुं स्व नहि अने हुं परनो नहि. आ व्यवहाररत्नत्रयनो स्वामी व्यवहाररत्नत्रय छे, एनो स्वामी हुं नहि अने ते मारुं स्व नहि-एम कहे छे. आवी वात! त्यारे केटलाक कहे छे-
पण व्यवहार करतां करतां निश्चय पमाय ने? समाधानः– भाई! शुं लसण खातां खातां कस्तूरीनो ओडकार आवे? कदीय न आवे; लसण खातां लसणनो ज ओडकार आवे. तेम व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे ए मान्यता तद्न जूठी छे. अहीं तो आ कहे छे के-व्यवहार व्यवहारनुं स्व छे पण ते आत्मानुं स्व नथी. हवे जे आत्मानुं स्व नथी एनाथी आत्मा केम पमाय? न पमाय. हवे आवी वात अज्ञानीने आकरी लागे छे एटले पछी कहे छे के-सोनगढवाळा व्यवहारने उथापे छे. पण भाई! आ कोण कहे छे? आ कुंदकुंदाचार्य कहे छे के बीजुं कोई? भाई! आ तो भगवाने कहेली वात कुंदकुंदाचार्य कहे छे. एकवार तुं सांभळ तो खरो नाथ! अरे! आवुं मनुष्यपणुं चाल्युं जशे! मांड निगोदमांथी नीकळीने अनंतकाळे आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं छे. जो आ वात अत्यारे समजणमां न लीधी तो अवसर चाल्यो जशे, मनुष्यपणुं मळ्युं न मळ्युं थई जशे.
अहीं कहे छे-‘हुं ज मारो स्वामी छुं-एम जाणुं छुं.’ छे? ‘इति जानामि’–एम छे ने? एटले के ज्ञान करुं छुं एम कहे छे. हुं मारो छुं एम हुं जाणुं छुं ने पर परनुं छे एम पण जाणुं छुं. बस हुं तो जाणुं ज छुं. आवी जाणपणानी ज क्रियामां ज्यारे जीव रहे छे त्यारे तेने कर्मनी निर्जरा थाय छे अने त्यारे एने तपश्चर्या कहे छे.
‘ज्ञानीने परद्रव्यना बगडवा-सुधरवानो हर्ष-विषाद होतो नथी.’ अहीं ‘ज्ञानी’ शब्दे बहु ज्ञान (क्षयोपशम) होय ते ज्ञानी एम नहि पण
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जेने आत्मज्ञान थयुं छे ते सम्यग्द्रष्टि धर्मी ज्ञानी छे एम वात छे. अहा! आवा ज्ञानीने परवस्तुना बगडवा-सुधरवानो हरख-शोक होतो नथी. तेने कमजोरीथी राग आवे छे खरो, पण ते अस्थिरतानो दोष छे शुं कह्युं? परवस्तु-शरीर, मन, वाणी, धन-संपत्ति ईत्यादि जे परज्ञेय छे-तेना बगडवाथी द्वेष थवो के तेना सुधरवाथी राग थवो-एवुं ज्ञानीने छे नहि. ज्ञानीने पोतानी पर्यायमां नबळाईथी रागद्वेष थाय छे ते दोष छे एम जाणे छे पण परवस्तुना बगडवा-सुधरवाथी तेने हरखशोक थाय छे एम नथी. न्याय समजणमां आव्यो? के जे चीज पोतानी नथी तेना बगडवा-सुधरवाथी ज्ञानीने हरख- शोक केम थाय? न थाय. परवस्तुना बगडवा-सुधरवामां ज्ञानीने कांई नथी-हरखेय नथी, शोकेय नथी. आवी वात छे.
प्रश्नः– पण तेने रागद्वेष तो थाय छे? सम्यग्द्रष्टिने आर्तध्यान पण थाय छे ने रौद्रध्यान पण थाय छे?
समाधानः– भाई! ते पोतानी कमजोरीना कारणे थाय छे पण परवस्तुना बगडवा-सुधरवाना कारणे नहि. जेम कोई हरिजननी झुंपडी बळती होय तो तेना कारणे शुं गामना शेठने शोक थाय छे? ने तेनी झुंपडी बहु सारी होय तो तेना कारणे शुं शेठने हर्ष थाय छे? ना. केम? केमके एने परनी झुंपडीथी शुं संबंध छे? तेम आ शरीर परनी झुंपडी छे, लक्ष्मी, कुटुंब ईत्यादि बधुंय परनी झुंपडी छे, ज्ञाननुं ज्ञेय छे. एनाथी ज्ञानीने शुं संबंध छे? कांई नहि. तेथी ते परवस्तु बगडतां-सुधरतां ज्ञानीने हर्ष-विषाद थतो नथी. तथापि कोई ज्ञानमां एम जाणे के ए बधी मारी चीज छे ने एना बगडवा- सुधरवाथी हर्ष-विषाद पामे छे तो ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. परचीजना बगडवा-सुधरवाथी मिथ्याद्रष्टिने हर्ष-विषाद थाय छे, ज्ञानीने नहि.
२० वर्षनो पुत्र होय ने जे दिवसे लग्न कर्युं होय ते ज दिवसे अचानक सर्प करडवाथी मरी जाय तो तेना कारणे ज्ञानीने शोक न थाय ने सर्प पर द्वेष पण न थाय. कमजोरीने लईने कंईक शोक थाय ए जुदी वात छे. कमजोरीथी ज्ञानीने रागद्वेष होय ते बीजी वात छे केमके ए तो चारित्रनो दोष छे; पण परना बगडवा-सुधरवाथी मिथ्यात्व सहितनो रागद्वेष तेने होतो नथी.
हवे आ अर्थना कळशरूपे अने आगळना कथननी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-
‘इत्थं’ आ रीते ‘समस्तम् एव परिग्रहम्’ समस्त परिग्रहने ‘सामान्यतः’ सामान्यतः ‘अपास्य’ छोडीने...
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शुं कह्युं? सामान्यतः एटले एकसाथे बधी चीज मारी नथी, रागथी मांडीने जगतनी बधी चीज मारी नथी, मारामां नथी, एनुं मने स्वामीपणुं नथी एम पोताना आत्मा सिवाय समस्त अन्य वस्तुना परिग्रहनो त्याग कह्यो. पहेलां द्रष्टिमां त्याग होय छे हों. तो कहे छे समस्त परिग्रहने सामान्यतः छोडीने ‘अधुना’ हवे ‘स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं’ स्वपरना अविवेकना कारणरूप अज्ञानने छोडवानुं जेनुं मन छे एवो आ ‘भूयः’ फरीने ‘तम् एव’ तेने ज (-परिग्रहने ज) ‘विशेषात्’ विशेषतः ‘परिहर्तुम् प्रवृत्तः’ छोडवाने प्रवृत्त थयो छे. अर्थात् स्वपरनी एकत्वबुद्धि छोडवाना जेना भाव छे ते फरीने तेने ज-परिग्रहने ज विशेषतः छोडवाने प्रवृत्त थयो छे. हवे एक एक चीजनुं नाम लईने (आगळनी गाथामां) कहेशे.
हवे बीजो अर्थ आम छे- आ रीते स्वपरना अविवेकना कारणरूप समस्त परिग्रहने सामान्यतः छोडीने हवे, अज्ञानने छोडवानुं जेनुं मन छे एवो आ, फरीने तेने ज विशेषतः छोडवाने प्रवृत्त थयो छे. अहाहा...! मूळमांथी ज पकडे छे. मिथ्यात्व ने अज्ञानने छोडवाना जेना भाव छे ते फरीने पण तेने ज विशेषपणे छोडवाने प्रवृत्त थयो छे एम कहे छे. हवे गाथाओमां नाम लईने जुदा-जुदा कहेशे.
‘स्वपरने एकरूप जाणवानुं कारण अज्ञान छे.’ शुं कह्युं? के ज्ञान ने आनंदस्वरूप जे भगवान आत्मा ते स्व छे ने शरीरादि तथा रागादि पर छे. ते बन्नेने एक मानवा ते मिथ्यात्व छे, अज्ञान छे. अहाहा...! छे? कोईने शास्त्रनुं ज्ञान घणुं हो, पण जो तेने स्व अने परनी एकताबुद्धि छे तो ते अज्ञान छे. हवे कहे छे-
‘ते अज्ञानने समस्तपणे छोडवा इच्छता जीवे प्रथम तो परिग्रहनो सामान्यतः त्याग कर्यो अने हवे (हवेनी गाथाओमां) ते परिग्रहने विशेषतः (जुदां जुदां नाम लईने) छोडे छे.’
जुओ, पहेलुं पुण्य लीधुं छे. ज्ञानीने धर्मनो (-पुण्यनो) परिग्रह नथी एम प्रथम कहे छे. आम विशेष करीने परिग्रहने छोडे छे एम हवेनी गाथाओमां आवशे.
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अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१०।।
ज्ञानीने धर्मनो (पुण्यनो) परिग्रह नथी एम प्रथम कहे छेः-
तेथी न परिग्रही पुण्यनो ते, पुण्यनो ज्ञायक रहे. २१०.
गाथार्थः– [अनिच्छः] अनिच्छकने [अपरिग्रहः] अपरिग्रही [भणितः] कह्यो छे [च] अने [ज्ञानी] ज्ञानी [धर्मम्] धर्मने (पुण्यने) [न इच्छति] इच्छतो नथी, [तेन] तेथी [सः] ते [धर्मस्य] धर्मनो [अपरिग्रहः तु] परिग्रही नथी, [ज्ञायकः] (धर्मनो) ज्ञायक ज [भवति] छे.
टीकाः– इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी. इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी, ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे; तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी धर्मने इच्छतो नथी; माटे ज्ञानीने धर्मनो परिग्रह नथी. ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) धर्मनो केवळ ज्ञायक ज छे.
ज्ञानीने धर्मनो (पुण्यनो) परिग्रह नथी एम प्रथम कहे छेः-
‘इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी.’ शुं कह्युं? कोई पण पदार्थनी इच्छा थवी ते परिग्रह छे. पदार्थ-वस्तु परिग्रह नथी पण इच्छा परिग्रह छे. जेने इच्छा नथी तेने परिग्रह नथी. धर्मीने परवस्तु मारी छे-एम इच्छा ज नथी. परवस्तुमां मारापणानी धर्मीने भावना होती नथी. अहा! धर्मप्राप्तिनी बहु आकरी शरत छे! केमके इच्छा ए ज मूर्च्छा छे ने मूर्च्छा-मिथ्यात्व ए ज परिग्रह छे.
हवे कहे छे-‘इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी.’ ‘इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे.’ अहीं मिथ्यात्व सहितनी इच्छाने इच्छा कही
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छे. ज्ञानीने जे अस्थिरतानी इच्छा थाय छे तेने अहीं गणी नथी अर्थात् गौण करी छे केमके तेने तो ज्ञानी परज्ञेय तरीके मात्र जाणे ज छे. अहीं कहे छे-इच्छा एटले मिथ्यात्व सहितनो राग अज्ञानमय भाव छे, अने अज्ञानमय भाव अर्थात् मिथ्यात्व सहितनो राग ज्ञानीने होतो नथी. अहा! जेने अंदर भगवान आत्मानी एकाग्रतानी भावना प्रगट थई छे ते ज्ञानी पोताना शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावने छोडीने परवस्तु मारी छे एम इच्छा केम करे? न करे. अहा! जेने निराकुल आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते निज आनंदकंद प्रभु आत्माने छोडीने कोनी इच्छा करे? (कोईनीय न करे). ल्यो, आवी वात! के ज्ञानीने अज्ञानमय भाव होतो नथी. (अर्थात् ज्ञानी परनी वांछारहित एवो निःकांक्ष छे). हवे कहे छे-
‘ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे.’ एटले शुं? एटले के ज्ञाता-द्रष्टा जे पोतानो स्वभाव ते स्वभावमय ज परिणाम तेने होय छे अर्थात् तेने ज्ञानमय, आनंदमय, शांतिमय, वीतरागतामय ज भाव होय छे.
तो शुं तेने राग होतो ज नथी? ना, तेने अस्थिरतानो राग तो होय छे पण रागनो राग तेने होतो नथी अर्थात् रागनुं तेने स्वामित्व नथी. जे राग होय छे तेने ते मात्र जाणे ज छे, बस. ते पोताना आत्माने जाणे छे अने पर्यायमां जे राग छे तेने पण जाणे ज छे. ‘व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे’-एम आवे छे ने बारमी गाथामां?-ए ज वात अहीं कहेवी छे. अहो! शुं अद्भुत शैली छे! दिगंबर संतोनी कोई अजब शैली छे!
हवे कहे छे-‘तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी धर्मने इच्छतो नथी.’
अहीं ‘धर्म’ शब्दे पुण्य कहेवुं छे. धर्म एटले आत्मानो धर्म-शुद्ध रत्नत्रयरूप धर्म-ए वात अहीं नथी. अहीं तो धर्म एटले पुण्यभाव, शुभभाव. अहा! ज्ञानी धर्मने एटले पुण्यने-व्यवहारने इच्छतो नथी. शुभरागने-दया, दान, व्रतादिने-ज्ञानी इच्छतो नथी. गजब वात छे भाई! अहो! वस्तुना स्वरूपनुं कथन करनारी दिगंबर संतोनी वाणी गजब छे!
जुओ, शुभरागनी जेने इच्छा छे ते धर्मी नथी, अज्ञानी छे केमके धर्मी पुरुषो तो धर्म एटले शुभरागने इच्छतो ज नथी. पुण्यभावनी-व्यवहारनी ज्ञानीने भावना होती नथी, चाह होती नथी. बहु आकरी वात भाई! पण जुओने! अहीं पहेलुं ज धर्म एटले पुण्यथी उपडयुं छे. अरे! पण व्यवहारनी रुचिवाळा व्यवहारमां एवा गरकाव छे के व्यवहार करवा आडे निश्चय स्वरूपनी वातथी पण भडकी उठे छे. भभकी उठे छे. पण शुं थाय? अरे! पण अत्यारे तो व्यवहारनां पण कयां ठेकाणां छे?
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कहे छे-ज्ञानी धर्मने इच्छतो नथी. अहाहा...! जेने शुद्ध चिदानंदकंद प्रभु आत्मानुं अंतरमां भान थयुं छे एवो धर्मी सम्यग्द्रष्टि जीव पुण्यने इच्छतो नथी. पुण्य एटले शुं? पुण्य एटले आ पुण्यनुं फळ (पैसादि) नहीं, पण पुण्य एटले शुभभाव. शुभभावथी पुण्य बंधाय छे ने एना निमित्ते आ लक्ष्मी आदि मळे छे; पण एनी अहीं वात नथी. अहीं तो शुभभावने धर्मी इच्छतो नथी एम वात छे, केमके ते राग छे. अहा! आवी अजब-गजब वात छे! अज्ञानीने बहु आकरी पडे एवी छे; पण छे के नहि शास्त्रमां?
प्रश्नः– तो ज्ञाता-द्रष्टा बनी रहो-एम ज आपनुं कहेवुं छे ने? उत्तरः– हा, एम ज वात छे भाई! तारो स्वभाव ज एवो छे प्रभु! भाई! ज्ञाता-द्रष्टा तारो स्वभाव छे अने ते स्वभावनुं परिणमन थाय ते ज धर्म छे. धर्म थवामां आ शरत छे के-पुण्यनी पण इच्छा न करवी. आवो मारग भाई! वीतराग परमेश्वरे फरमाव्यो छे अने ए ज दिगंबर संतो-केवळीना केडायतीओ जगत पासे पोकारीने जाहेर करे छे. कहे छे-धर्मी जीव पुण्यने इच्छतो नथी. अर्थात् पुण्यने पण जे इच्छतो नथी एवो धर्मी होय छे. अहा! धर्मीने दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादिनो शुभभाव होय छे, अंदर स्वरूपमां पूरण ठरी शके नहि त्यां सुधी शुभभाव आवे छे पण तेने ते इच्छतो नथी. (आवे छे ने इच्छतो नथी अने इच्छतो नथी ने आवे छे). आवी वात छे.
हवे कहे छे-‘माटे ज्ञानीने धर्मनो परिग्रह नथी’. ज्ञानीने धर्मनो एटले पुण्यनो परिग्रह नथी अर्थात् पुण्यनी पकड नथी. एने पुण्यभाव होय छे तोपण एमां एकत्वबुद्धि नथी, आत्मबुद्धि नथी अने तेथी एने पुण्यनो परिग्रह नथी.
आ तो आपे आवो अर्थ काढयो छे? भाई! आ तो मुनिराज-दिगंबर भावलिंगी संत-आम कहे छे बापा! आवो ज मार्ग छे भगवान! तें कदी सांभळ्यो न होय तेथी शुं थयुं?
वळी विशेष कहे छे के-‘ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) धर्मनो केवळ ज्ञायक ज छे.’
जुओ, पुण्यभाव छे तोपण ज्ञानी तेनो जाणवावाळो ज छे. ज्ञानी पुण्यने कदीय इच्छतो नथी. पुण्यभाव ज्ञानीने होय छे, मुनिने पण अंदर आनंदस्वरूपना भानमां न रही शके त्यारे पंचमहाव्रतादिना विकल्प होय छे पण तेनी एने इच्छा होती नथी. तेना तो ए केवळ ज्ञायक ज छे, जाणवावाळो ज छे. पोताने जेम जाणे छे तेम पुण्यनो पण ज्ञानी तो जाणनार ज रहे छे. आनुं नाम धर्मी ने सम्यग्द्रष्टि ने मुनि कहेवामां आवे छे.
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अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्मं। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।। २११।।
अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २११।।
हवे, ज्ञानीने अधर्मनो (पापनो) परिग्रह नथी एम कहे छेः-
तेथी न परिग्रही पापनो ते, पापनो ज्ञायक रहे. २११.
गाथार्थः– [अनिच्छः] अनिच्छकने [अपरिग्रहः] अपरिग्रही [भणितः] कह्यो छे [च] अने [ज्ञानी] ज्ञानी [अधर्मम्] अधर्मने (पापने) [न इच्छति] इच्छतो नथी, [तेन] तेथी [सः] ते [अधर्मस्य] अधर्मनो [अपरिग्रहः] परिग्रही नथी, [ज्ञायकः] (अधर्मनो) ज्ञायक ज [भवति] छे.
टीकाः– इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी. इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी, ज्ञानीने ज्ञानमय ज भाव होय छे; तेथी अज्ञानमय भाव जे इच्छा तेना अभावने लीधे ज्ञानी अधर्मने इच्छतो नथी; माटे ज्ञानीने अधर्मनो परिग्रह नथी. ज्ञानमय एवा एक ज्ञायकभावना सद्भावने लीधे आ (ज्ञानी) अधर्मनो केवळ ज्ञायक ज छे.
ए ज प्रमाणे गाथामां ‘अधर्म’ शब्द पलटीने तेनी जग्याए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन अने स्पर्शन-ए सोळ शब्दो मूकी, सोळ गाथासूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
हवे, ज्ञानीने अधर्मनो (पापनो) परिग्रह नथी एम कहे छेः-
‘इच्छा परिग्रह छे.’ शुं कह्युं? के कोई पण पदार्थनी इच्छा ते परिग्रह छे.
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अहीं (१) पुण्यनी (२) पापनी (३) आहारनी अने (४) पाणीनी-एम चारनी वात लेशे; केमके मुख्यपणे मुनिनी व्याख्या छे ने? अने मुनिने तो आ ज (चार) होय छे, बीजुं तो कांई होतुं नथी. ज्ञानीने पुण्यना भाव आवे छे पण एनी इच्छा नथी, एकत्वबुद्धि नथी. एनो अर्थ ए छे के जे क्षणे धर्मनी उत्पत्ति छे ते क्षणे पुण्यनी पण उत्पत्ति छे, केमके तेनो स्वकाळ छे ने? छतां धर्मीने जेम धर्मनी भावना छे तेम पुण्य जे थाय छे तेनी पण भावना छे एम नथी. पुण्यभावनी भावना के इच्छा ज्ञानीने होती नथी. शुभभाव आवे छे खरो, पण ते भलो छे, ठीक छे-एम तेमां एकत्वबुद्धि ज्ञानीने होती नथी.
भाई! जे पुण्यने रळवा-कमावामां पडया छे ते बधा संसारना-दुःखना पंथे पडया छे; तेओ चारगतिमां रखडशे. त्यारे जेणे आत्मानुं स्वसंवेदनज्ञान प्रगट कर्युं छे ते धर्मना-सुखना पंथे छे. अहाहा...! जेणे निर्मळ स्वानुभूतिमां चिदानंदघनस्वरूप प्रभु आत्माने पकडयो छे तेने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. ते आनंदना काळमां तेने शुभभाव पण होय छे, छतां ते शुभभावनो ते समये ते मात्र ज्ञाता ज छे. गजब वात छे भाई! गाथामां ‘जाणगो’ एम कीधुं छे ने? एटले खरेखर तो ते पोतानो ज ज्ञायक छे, अर्थात् ते समये ते स्वस्वभावनो ज ज्ञायक छे; पण ज्ञाननो स्वपरप्रकाशक भाव छे तेथी ते शुभभावने पण प्रकाशे छे. शुं कह्युं? जे शुभभाव होय छे तेनो ज्ञानी मात्र जाणनार ज रहे छे अने तेने जाणवानी पर्याय पण पोताथी स्वतंत्र थई छे, शुभभाव छे तो एनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी. ते समये ज्ञाननी पर्याय एवा ज स्वपरप्रकाशकपणे स्वयं उत्पन्न थाय छे. माटे ते रागने ज्ञानी ग्रहण करतो नथी, पण राग संबंधी जे पोतानुं ज्ञान छे ते ज्ञानने जाणे छे. आवी वात छे.
-आ पुण्यनी वात करी. २१० गाथाना पाठमां एकलो ‘धर्म’ शब्द हतो ने! एनो अर्थ पुण्य थाय छे. जुओ, बीजा टीकाकार श्री जयसेनाचार्य कहे छे-‘तेन कारणेन स्वसंवेदनज्ञानी शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्मं विहाय शुभोपयोगरूप धर्मं पुण्यं नेच्छति’ मतलब के शुभोपयोगरूप धर्म ए पुण्य छे ने तेनी स्वसंवेदनज्ञानी-धर्मीने भावना होती नथी. ज्ञानीने तो आनंदस्वरूप भगवान आत्मानी भावना होय छे, शुद्धोपयोगरूप धर्मनी भावना होय छे.
हवे आ २११ मी गाथा पापनी छे. अहा! ज्ञानीने ज्यां पुण्यनी पण भावना नथी तो पापनी तो केम होय? ज्ञानीने पापभाव आवे छे खरो, तेने पापभाव - विषयवासना संबंधी राग-आसक्ति-होय छे. पण छे ते पर, पोतानुं स्वरूप नथी -एम ज्ञानी माने छे.
अहीं कहे छे-‘इच्छा परिग्रह छे. तेने परिग्रह नथी-जेने इच्छा नथी.’ शुं
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कह्युं? के परपदार्थनी इच्छा थवी ते परिग्रह छे. जेने परवस्तु मारी छे एम इच्छा नथी ते अपरिग्रही छे. धर्मीने परवस्तु मारी छे-एम इच्छा ज नथी. जेम तेने शुभभावनी इच्छा नथी तेम तेने अशुभभावनी-पापनी पण इच्छा नथी. पापभाव होय छे खरो, पण पापभावनी इच्छा होती नथी; अने तेथी तेने निर्जरा थाय छे. तेने जे अशुभभाव आवे छे तेनुं पोताना ज्ञानना वेदनमां ज्ञान थाय छे अने ते ज्ञान पोतानुं छे पण अशुभभाव पोतानो नथी एवी द्रष्टि अने ज्ञान प्रगट थयेलां होवाथी धर्मीने कर्मनी निर्जरा ने अशुद्धतानो नाश थाय छे.
हवे कहे छे-‘इच्छा तो अज्ञानमय भाव छे अने अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी.’
जुओ, राग छे ते अज्ञानमय भाव छे केमके तेमां ज्ञाननो अंश नथी, भगवान आत्माना चैतन्यनुं किरण नथी. अहाहा...! हुं सदाय ज्ञानानंदस्वरूप छुं-एम पोताना त्रिकाळी स्वभावनुं जेने भान थयुं छे एवा सम्यग्द्रष्टि धर्मीने जेम पुण्यभाव थाय छे तेम पापना परिणाम पण थाय छे, पण तेने ते पुण्य-पापना परिणाममां एकत्वबुद्धि नथी. तेने जेम पुण्यनी इच्छा नथी तेम पापनी पण इच्छा नथी. छतां तेने जे पुण्य- पापना भाव थाय छे ते अज्ञानमय छे.
तो शुं ज्ञानीने अज्ञानमय भाव होय छे? समाधानः– ज्ञानीने मिथ्यात्वसहित अज्ञानमय भाव होतो नथी. परंतु ‘अज्ञानमय’नो अर्थ मिथ्यात्वमय ज-एम थतो नथी. ज्ञानीने जे पुण्य-पापना परिणाम थाय छे (ते करे छे वा इच्छे छे एम नहि) तेमां भगवान आत्माना चैतन्यनुं किरण नथी ते अपेक्षाए तेने अज्ञानमय कह्या छे. ज्ञानीने पुण्य-पापना परिणाम छे, तेने ते जाणे पण छे, पण ते पुण्य-पापना परिणाममां ज्ञानस्वभावनो अंश नथी ते अपेक्षाए तेने अज्ञानमय कह्या छे.
प्रश्नः– तो ‘अज्ञानमय भाव ज्ञानीने होतो नथी’-अहीं तो एम कह्युं छे? समाधानः– भाई! अज्ञानमय भावनो अहीं अर्थ थाय छे मिथ्यात्वमय भाव; अने ते तो ज्ञानीने होतो ज नथी. तेथी कह्युं के-ज्ञानीने अज्ञानमय भाव होतो नथी. (वळी ज्ञानीने जे पुण्य-पाप थाय छे ते द्रष्टिमां गौण छे ते अपेक्षाए पण ज्ञानीने अज्ञानमय भाव नथी).
भाई! तने आ कदी सांभळवा मळ्युं नथी एटले कठण पडे छे. पण जो तो खरो! अहीं भारे विचित्र वात करी छे के-ज्ञानीने राग आवे छे पण तेनी एने इच्छा नथी. ज्ञानीने रागनी इच्छा नथी. अहीं तो मुनिपणानी मुख्यताथी वात करी