Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 207-208.

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एने प्रयोजन नथी; केमके एनाथी (व्यवहारथी) प्रयोजननी (मोक्षमार्ग अने मोक्षनी) सिद्धि थती नथी एक वात; अने जेनाथी प्रयोजननी सिद्धि थाय छे एवो चिन्मात्र- चिंतामणि भगवान आत्मा तेने प्राप्त थई गयो छे. समजाणुं कांई...? माटे हवे ते बीजाने (विकल्पोने) पकडीने शुं करे? शुं काम विकल्पोने पकडे? आ प्रकारे ज्ञानीने निर्जरा थाय छे एम कहे छे. भाई! तने मारग आकरो लागे छे पण आ ज सत्य मारग छे. शुभभाव करीए अने ते धर्ममां मददरूप थशे एम ज्ञानीने कदीय होतुं नथी.

प्रश्नः– हा, पण कर्मथी विकार थाय छे ने? अने कर्मनो अभाव थवाथी जीव मोक्षमार्गमां परिणमे छे ने?

समाधानः– भाई! एम नथी. परपदार्थथी (कर्मथी) पोतानामां विकार थाय छे ए मान्यता यथार्थ नथी. परपदार्थथी पोतानामां विकार केम थाय? विकार पोते पोताथी थाय छे; तेने कर्मनी अपेक्षा नथी. विकार थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे अने तेवी रीते मोक्षमार्ग पण तेनी उत्पत्तिना काळे सहज प्रगट थाय छे. अहा! आवो जेने निर्णय थयो होय छे तेनी द्रष्टि एक ज्ञायकभाव उपर ज होय छे. मोक्षमार्ग अर्थात् निर्मळ रत्नत्रय जे प्रगट थाय छे ते तेनी उत्पत्तिनी जन्मक्षण छे. तेनी उत्पत्तिना काळे कर्मनो अभाव हो भले, पण तेने कर्मना अभावनी के व्यवहारना विकल्पनी कोई अपेक्षा नथी. भाई! बधुं आवुं क्रमबद्ध न होय तो सर्वज्ञता ज सिद्ध नहि थाय. परंतु जेनी द्रष्टि शुद्ध ज्ञायकभाव उपर ज छे तेने ज क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय होय छे, बीजाने मिथ्याद्रष्टिने नहि.

भाई! रागनी उत्पत्तिनी पण जन्मक्षण छे; माटे जे समये जे राग थवानो छे ते ते ते समये थाय छे. तेवी रीते शुद्ध रत्नत्रयनी-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पण जन्मक्षण छे. परंतु एनी जन्मक्षणनो निर्णय अने अनुभव कोने थाय? के जेनी ज्ञायक उपर द्रष्टि छे तेने; अने तेने ज (शुद्ध रत्नत्रयनी) जन्मक्षणनो काळ साचो पाके छे. अहाहा...! अचिंत्यदेव भगवान चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्मानी जेने अंतरमां द्रष्टि थई तेने क्रमबद्धनो यथार्थ निश्चय थाय छे अने तेमां एक साथे निश्चयव्यवहाररत्नत्रय बन्नेनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे. त्यां व्यवहाररत्नत्रय छे ते आरोपित मोक्षमार्ग छे. आरोपित एटले? मोक्षमार्ग तरीके आरोपित छे, बाकी राग तरीके ते यथार्थ-सत्यार्थ छे.

शुं कह्युं ए? के राग तरीके ए व्यवहार आरोपित नथी, केमके राग दशाए तो ए सत्यार्थ ज छे परंतु तेने मोक्षमार्ग कहेवो ते आरोपित छे. समजाणुं कांई...?

अरे! जन्म-मरण करी करीने तुं हेरान-हेरान थई गयो छो बापा! जुओने,


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अकस्मातमां केवो कच्चरघाण नीकळे छे? अररर! आ दशा! रस्तामां बिचारां प्राणीओनो कचडाईने कच्चरघाण नीकळी गयो होय छे. भाई! तेने खबर नथी पण रागनी रुचिमां तारा स्वभावनो कच्चरघाण नीकळी गयो छे. माटे रागनी -व्यवहारनी रुचि तुं एकवार छोड अने चैतन्यचिंतामणि आनंदकंद प्रभु आत्मानी रुचि कर. एम करतां तुं न्याल थई जईश, तने चैतन्यचिंतामणि प्राप्त थशे, तने सर्व प्रयोजन सिद्ध थशे.

अहीं कहे छे-जेने चैतन्यचिंतामणि अमृतना नाथ प्रभु आत्मानी रुचि थई छे एवो ज्ञानी अन्यने पकडीने शुं करे? राग हो भले, पण तेनो परिग्रह-पकड करीने ज्ञानी शुं करे? जेनाथी सर्व प्रयोजन सिद्ध थाय एवो चैतन्यचिंतामणि हाथ आव्यो पछी रागथी-व्यवहारथी एने शुं मतलब? ज्ञानीने तो क्षणे क्षणे अशुद्धतानी अने कर्मनी निर्जरा ज थाय छे. हवे जे निर्जरे छे-टळी जाय छे तेने ज्ञानी केम पकडे? अहाहा...! जेने स्वाश्रयमां अद्भुत आनंद वेदाय छे ते हवे दुःखकारी रागने केम पकडे? अने ते हवे नवीन कर्मबंधमां निमित्त केम थाय? एने तो हवे निर्जरा ज छे. भाई! थोडुं लख्युं घणुं करीने मानजो, (बधुं करीने मानजो.) समजाणुं कांई...?

* कळश १४४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ ज्ञानमूर्ति आत्मा पोते ज अनंत शक्तिनो धारक देव छे अने पोते ज चैतन्यरूपी चिंतामणि होवाथी वांछित कार्यनी सिद्धि करनारो छे.’

आत्मा ज्ञानस्वरूपी भगवान छे. तेमां नथी राग के नथी संसार, नथी शरीर के नथी कर्म. आवुं जे आत्मतत्त्व छे ते ज्ञानमूर्ति छे अने ते ज पोते अनंत शक्तिनो धारक देव छे. भाई! आ अरिहंत देव तो तारे माटे पर छे; ते कांई तारा देव नथी. तारो देव तो अनंत शक्तिनो धारक एवो ज्ञानमूर्ति भगवान तुं पोते ज छो. वळी तुं सर्व कार्यनी सिद्धि करे एवो चैतन्यचिंतामणि छो. तुं पोताथी कार्यनी सिद्धि करनारो देव छो. मतलब के रागना कारणे वांछित कार्यनी सिद्धि थाय छे एम नथी.

अहाहा...! चैतन्यचिंतामणि रतन भगवान आत्मा छे. तेथी तेनी वांछित भावना सिद्ध थाय तेवुं तेनुं कार्य पोताथी ज थाय छे; तेने राग के निमित्तनी अपेक्षा नथी. जीणी वात छे भाई! प्रभु! तुं पोते ज अंदर चैतन्यचिंतामणि देव अने भगवान छो. अरे! पण एने कयां एनी खबरेय छे? ए तो आ धूळ-पैसामां भरमाई गयो छे अने माने छे के-अमे करोडपति, आ भंडार मारो, आ बायडी-छोकरां मारां ईत्यादि. पण बापु! ए तो बधी जडनी संपदा जड छे, पर छे. (तारा भागे तो


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मिथ्यात्वादि ज आवे छे). ज्यारे धर्मीने तो चैतन्यचिंतामणिरूप निज स्वरूपसंपदा भासी छे. ए तो माने छे के-‘हुं देव छुं.’ आवे छे ने के-

‘शिवरमणी रमनार तुं, तुं ही देवनो देव.’

आ स्त्रीनुं (देहनुं) रमण तने न होय भगवान! तुं तो मोक्षरूपी लक्ष्मीनो रमनार देव छो, देवनोय देव छो, देवाधिदेव छो.

अहाहा...! सब देवन के देव-एवुं अचिन्त्य तारुं स्वरूप छे भगवान! जुओने, शुं कहे छे? के-‘चैतन्यरूपी चिंतामणि होवाथी वांछित कार्यनी सिद्धि करनारो छे.’ एटले के तेना कार्य माटे पर के निमित्त सामे ताकवुं पडे एम नथी. संवर ने निर्जरानी पर्याय प्रगट करवामां तेने परनी-निमित्तनी सामुं जोवानुं नथी, परंतु स्व सामुं जोतां ज संवर- निर्जराना परिणाम प्रगट थाय एवो चैतन्यचिंतामणी देव पोते छे. हवे आवी वात बिचारो धंधो-रोजगार ने बैरां-छोकरां साचववामांथी नवरो पडे तो सांभळे ने? भाई! बधा मजुर छे मजुर! आखो दि’ पापनी मजुरी करनारा मजुर छे! आ करुं ने ते करुं- एम कर्तापणानी होळीथी बिचारा बळी रह्या छे!! हवे तेमां ‘हुं अचिन्त्य देव छुं’-ए कयांथी भासे? अरेरे! जेने परमां दिव्यता भासे छे तेने आत्मा जे पोते देव छे तेनी दिव्यता कयांथी भासे? पण भाई! आ समजण ना करी तो अवसर चाल्यो जशे हों. (मतलब के भवभ्रमण ऊभुं रहेशे).

हवे कहे छे-‘माटे ज्ञानीने सर्व प्रयोजन सिद्ध होवाथी तेने अन्य परिग्रहनुं सेवन करवाथी शुं साध्य छे? अर्थात् कांई ज साध्य नथी. आम निश्चयनयनो उपदेश छे.’

जोयुं? ज्ञानीने सर्व प्रयोजन सिद्ध छे केमके तेने चैतन्यचिंतामणि एवा आत्मानी प्राप्ति थई छे. हवे ते पोतानुं वांछित (संवर, निर्जरा ने मोक्षरूप) कार्य सिद्ध करवा पोते ज समर्थ छे पछी तेने परिग्रहनुं सेवन करवाथी शुं साध्य होय? कांई ज साध्य नथी. राग ने विकल्पथी तेने कांई ज काम नथी. आवुं निश्चयनयनुं स्वरूप छे. व्यवहार दर्शाववामां आवे त्यारे तेने व्रतादिना विकल्प होय छे एनुं ज्ञान करवुं प्रयोजनवान छे, परंतु ते विकल्प साध्यनी सिद्धिमां बीलकुल प्रयोजनवान नथी-आवी वात छे.

[प्रवचन नं. २८१ शेष, २८२ *दिनांक ३-१-७७ अने ४-१-७७]

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गाथा–२०७
को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं।
अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो।। २०७।।
को नाम भणेद्बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यम्।
आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन्।। २०७।।

हवे पूछे छे के ज्ञानी परने केम ग्रहतो नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-

‘परद्रव्य आ मुज द्रव्य’ एवुं कोण ज्ञानी कहे अरे!
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये? २०७.

गाथार्थः– [आत्मानम् तु] पोताना आत्माने ज [नियतं] नियमथी [आत्मनः परिग्रहं] पोतानो परिग्रह [विजानन्] जाणतो थको [कः नाम बुधः] क्यो ज्ञानी [भणेत्] एम कहे के [इदं परद्रव्यं] आ परद्रव्य [मम द्रव्यम्] मारुं द्रव्य [भवति] छे?

टीकाः– जे जेनो स्वभाव छे ते तेनुं ‘स्व’ छे अने ते तेनो (स्व भावनो) स्वामी छे-एम सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी (पोताना) आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे, तेथी “आ मारुं ‘स्व’ नथी, हुं आनो स्वामी नथी” एम जाणतो थको परद्रव्यने परिग्रहतो नथी (अर्थात् परद्रव्यने पोतानो परिग्रह करतो नथी).

भावार्थः– लोकमां एवी रीत छे के समजदार डाह्यो माणस परनी वस्तुने पोतानी जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. तेवी ज रीते परमार्थज्ञानी पोताना स्वभावने ज पोतानुं धन जाणे छे, परना भावने पोतानो जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. आ रीते ज्ञानी परनुं ग्रहण-सेवन करतो नथी.

*
समयसार गाथा २०७ः मथाळुं

हवे पूछे छे के ज्ञानी परने केम ग्रहतो नथी? तेनो उत्तर कहे छेः- _________________________________________________________________

१. स्व = धन; मिलकत; मालिकीनी चीज.


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* गाथा २०७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे जेनो स्वभाव छे ते तेनुं स्व छे अने ते तेनो (स्व भावनो) स्वामी छे- एम सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी (पोताना) आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे,...’

शुं कह्युं? के आत्मानो-पोतानो जे स्वभाव छे ते तेनुं-पोतानुं स्व छे. अहाहा...! पोतानो जे त्रिकाळी ज्ञानानंद स्वभाव छे ते पोतानुं स्व छे अने पोते तेनो स्वामी छे. -आम सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी आत्माने ज आत्मानो परिग्रह जाणे छे. जुओ, भगवान आत्मा सूक्ष्म निर्विकल्प वस्तु छे. तेने ज्ञानी सूक्ष्म ने तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिथी पकडे छे. भाई! आत्मा स्थूळ एवा शुभाशुभ विकल्पोथी पकडाय एवी चीज नथी. ज्ञानी तेने सूक्ष्म ने तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टि वडे पकडे छे. अहाहा...! आत्मा सूक्ष्म ने तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिथी एटले के अंतर्मुख थयेला उपयोग वडे ज पकडाय एवी चीज छे. ज्ञानी आवी सूक्ष्म अने तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी पोताना आत्माने ज पोतानो परिग्रह नियमथी जाणे छे.

धर्मी चक्रवर्ती होय ते छ खंडना राज्यवैभवमां पडेलो देखाय, पण आ ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा ते ज हुं छुं, ए ज मारो परिग्रह छे एवुं अंतरमां तेने निरंतर भान होय छे. आ स्त्री-कुटुंब परिवार ने छ खंडनुं राज्य हो, पण ते मारुं कांई नथी. अरे! आ दया, दान, पूजा, भक्ति इत्यादिना जे भाव आवे छे ते पण मारा कांई नथी. मारो तो एक ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा छे, भगवान आत्मानो ज मने परिग्रह छे-एम ते माने छे. ल्यो, आ ज्ञानीनो परिग्रह! अहो! एक आत्मा ज ज्ञानीनो परिग्रह छे. ज्यारे अज्ञानी बहारनो धनवैभव अने रागादि भावोने पोतानो परिग्रह माने छे. अहा! ते मूढ छे.

प्रश्नः– शुं आत्माने आत्मानो परिग्रह होय? समाधानः– हा; केमके ज्ञानीए आत्माने पकडयो छे ने? परि एटले सर्वथा-सर्व प्रकारे अने ग्रह एटले पकडवुं. ज्ञानीए एक आत्माने ज पकडयो छे; माटे ज्ञानीने तो आत्मा ज परिग्रह छे.

प्रश्नः– आ तो एक नवो परिग्रह कह्यो; अमे तो पैसा आदिने परिग्रह मानता हता.

समाधानः– नवो तो कांई नथी; अनादिकाळथी आत्माने आत्मानो ज परिग्रह छे. भाई! पैसा-हीरा-माणेक-मोती-रतन इत्यादि तो बधां धूळ-पुद्गल छे, पर छे. ते कय ांथी तेनो (आत्मानो) परिग्रह होय?


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प्रश्नः– हा, पण ते (हीरा-माणेक आदि) किंमती छे ने? ते वडे लोको सुखी जणाय छे ने?

उत्तरः– ए धूळनी भाई! (आत्मामां) कांई किंमत (-प्रतिष्ठा) नथी. जोता नथी आ पैसादिना कारणे तो लोक एकबीजाने मारी नाखे छे? तो पछी ते वडे लोक सुखी केम होय? ते सुखनुं कारण केम थाय? भाई! ए धूळेय सुखनुं कारण नथी सांभळने. आवुं तो (हीरा-माणेक आदिनो संयोग तो) अनंत वार थई गयुं छे प्रभु! पण तेथी शुं? ते कयां तारी चीज छे? तने खबर नथी बापु! पण एवा (-संयोगना) खेल तो तें अनंतवार खेल्या छे. (पण दुःख तो ऊभुं ज छे, भवभ्रमण ऊभुं ज छे).

अहीं कहे छे-नियमथी एटले निश्चयथी सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी आत्माने ज आत्मानो परिग्रह जाणे छे. अहा! हुं तो ज्ञानानंदस्वभावी छुं -एम जेने अंतरमां तेनी पकड थई गई छे तेने पोतानो आत्मा ज परिग्रह छे. जुओ, भरत चक्रवर्ती छ खंडना राजा हता. ३२ लाख विमाननो साह्यबो एवो स्वर्गनो इन्द्र एनो मित्र (मित्र एटले साथे बेसनारो) हतो. छतां एना अंतरमां आ हतुं के- ज्ञानानंदस्वभावी मारो आत्मा ए ज मारो परिग्रह छे; आ चक्रवर्तीनुं राज्य, के आ मित्र के आ जे राग छे ते मारी चीज नथी, तेनो हुं स्वामी नथी. आवी वात छे!

ऋषभदेव भगवान ज्यारे अष्टापद पर्वत उपरथी मोक्ष पधार्या त्यारे भरत चक्रवर्ती त्यां हाजर हता. अहा! समकिती-ज्ञानी होवा छतां तेमनी आंखमांथी आंसु आव्यां अने बोल्या, -‘अहा! भगवान मोक्ष पधार्या! अरे! भरतमां ज्ञानसूर्यनो अस्त थई गयो! हवे अमे कोने पूछशुं? कोने अमे सवाल करीशुं?’ त्यारे ते वखते एक एक विमानमां असंख्य देव एवा बत्रीस लाख विमानोनो लाडो-स्वामी इन्द्र साथे हतो ते भरतने कहे-‘अरे! आंखमां आंसु? तमे आ शुं करो छो, भरत? तमारे तो आ भवे मोक्ष जवुं छे. अमे तो हजु एक भव करीने मनुष्य थशुं त्यारे मोक्ष जशुं. तमारे तो आ छेल्लो देह छे, छतां आ शुं? त्यारे भरत कहे-‘सांभळ, इन्द्र! सांभळ; भगवानना विरहथी कंईक राग थई आव्यो छे केमके हजु पूरणता थवी बाकी छे ने? पण ते रागनी अमने पकड नथी; ते जाणेलो प्रयोजनवान छे -एम तेने जाणीए छीए बस; रागनुं अमने स्वामित्व नथी.’ जुओ, बारमी गाथामां आवे छे ने के-व्यवहार तदात्वे–ते ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे? तेम ज्ञानी ते काळे जाणे छे के आ व्यवहार-राग छे, बस एटलुं ज; ते मारो छे एम नहि. अहो! आचार्य भगवाननी कोई अद्भुत शैली ने अद्भुत वात छे!


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प्रश्नः– हा, पण भगवान (ऋषभदेव) जे वखते मोक्ष पधार्या ते वखते बीजा पण केवळज्ञानीओ तो हशे ज ने?

उत्तरः– हा, हता ने; पण तीर्थंकरनी दिव्यध्वनिमां-ॐध्वनिमां तो त्रणकाळ- त्रणलोकनी वात आवे छे. (आवी सातिशय दिव्यध्वनि होय छे). आवे छे ने के-

“ॐकार धुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै,
रची आगम उपदेश, भविक जीव संशय निवारै.”

अहा! भगवाननी-तीर्थंकरनी दिव्यध्वनि सांभळीने चार ज्ञानना धणी गणधरदेवो बार अंग-चौद पूर्वनी रचना क्षणमां करे छे. अहो! ए दिव्यध्वनि अलौकिक होय छे!

तेमां आ आव्युं छे के-धर्मीने पोताना आत्मानो ज परिग्रह छे. अहा! विकल्प ऊठे छे छतां ते मारो नथी-एम जेने तेनी पकड नथी ते धर्मी छे. धर्मीने तो आनंदनो कंद सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा ज पोतानो छे. अरे! पण आवुं एने कयां बेसे छे? बेसे पण केवी रीते? तेने तो स्त्रीमां सुख, ने पैसामां-धूळमां सुख ने भक्तिमां सुख-एम परमां ज सुख भास्युं छे. तेथी पोताना आत्मामां सुख छे ते तेने भासतुं नथी. त्यारे जेने आत्मामां सुख छे एवो विश्वास थयो छे, जेने आत्मानी पकड थई छे तेवा धर्मीने अन्य परिग्रहना सेवनथी शुं छे? कांई ज साध्य नथी; केमके अन्य परिग्रह एनुं साध्य ज नथी. व्यवहार धर्मीनुं साध्य ज नथी. भगवान चिदानंद परमात्मस्वरूपे अंदर त्रिकाळ पडयो छे तेने पकडवो बस ते एक ज धर्मीनुं साध्य छे.

कहे छे के-‘सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे, तेथी “आ मारुं स्व नथी, हुं आनो स्वामी नथी” एम जाणतो थको परद्रव्यने परिग्रहतो नथी.’

अहा! राग ने रागनां फळ एवो बाह्य वैभव-धूळ आदि मारो छे एम ज्ञानी मानतो नथी. अहा! जुओ तो खरा! आ रागादि परद्रव्य मारुं स्व नथी अने हुं एनो स्वामी नथी एम धर्मी जाणे छे अने तेथी ते परद्रव्यने-रागादिने ग्रहतो-परिग्रहतो नथी. आ पत्नीनो हुं पति ने आ दीकरानो हुं बाप छुं एम धर्मी मानतो नथी. अरे! दीकरो ज ज्यां मारो नथी त्यां हुं एनो बाप केम होउं? दीकरो तो दीकरानो छे. तेनो आत्माय पर छे ने शरीरेय पर छे अहो! निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा जेने पकडमां आवी गयो छे ते धर्मी रागने के रागना फळने पोतानां मानीने तेनो स्वामी थतो नथी.

प्रश्नः– तो आ मकाननो कोण स्वामी छे? समाधानः– ए तो अज्ञानी एम माने छे के-हुं (-पोते) एनो स्वामी छुं.


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पण भाई! एनो स्वामी तुं कयांथी थयो? ए जड, तुं चेतन; एनो-जडनो स्वामी तुं केम होय? अरे! प्रभु! तुं आमां (परनो स्वामी थईने) कयां सलवाणो? तुं तो चैतन्यचिंतामणि अनंत आनंदनो सागर छो ने प्रभु! हवे एमां आ बीजां मारां छे अने हुं एनो स्वामी छुं ए कयांथी आव्युं? अरे! तुं जो तो खरो के आ भरतादि चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य ने छन्नु छन्नु हजार राणीओनो संयोग होवा छतां एमां कय ांय आत्मबुद्धि के स्वामीपणुं नथी! न्यालभाई सोगानीजीए कह्युं छे के चक्रवर्तीए छ खंड नथी साध्या, एणे तो एक अखंड आत्माने साध्यो छे. जगतथी साव जुदो आवो बापु! वीतरागनो मारग छे. आवो मार्ग ने आवी वात बीजे कयांय नथी. बीजे तो बधे गपेगप छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– तो शुं सोनगढ सिवाय वीतरागनो मार्ग कयांय नथी? उत्तरः– अरे भाई! आत्मा सिवाय (आत्माने पकडवा सिवाय) बीजे कयांय नथी एम वात छे. कह्युं ने के-ज्ञानी परद्रव्यने आ मारुं स्व नथी हुं एनो स्वामी नथी एम जाणे छे. व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प ऊठे छे ते मारुं स्व नथी एम धर्मी जाणे छे. ए सिवाय अज्ञानी कयां एवुं माने छे? अज्ञानी तो व्यवहाररत्नत्रयथी लाभ माने छे अने तेथी ते व्यवहार-मूढ छे.

प्रश्नः– व्यवहाररत्नत्रय छे तो आत्मा अनुभवमां आवे छे ने? समाधानः– भाई! एम नथी बापा! व्यवहाररत्नत्रय छे ए तो राग छे. आत्मानी ए चीज ज नथी त्यां एनाथी आत्मानुभव थाय ए वात कयां रही? रागथी वीतरागता थाय ए वात ज महा विपरीत छे. भाई! तारी ए द्रष्टिमां घणी उंधाई छे, पार विनानी उंधाई छे. बापु! एने लईने तुं वर्तमान दुःखी ज छो अने भविष्यमां पण दुःखना डुंगरे रखडवुं पडशे.

अहीं कहे छे-‘तेथी आ मारुं स्व नथी ने हुं आनो स्वामी नथी एम जाणतो थको ज्ञानी परद्रव्यने परिग्रहतो नथी. अहीं परद्रव्य शब्दे जे व्यवहाररत्नत्रयनो राग छे तेनो पण समावेश थई जाय छे केमके राग कांई स्वद्रव्यभूत-आत्मभूत नथी. ओहो! स्वद्रव्य तो दिव्यशक्तिमान चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्मा छे; ज्यारे दया, दान आदि विकल्प तेम ज ए पुण्यना फळ तरीके आ जे धूळ-संयोग मळेल छे ते बधुंय परद्रव्य छे. ते बधां (परद्रव्य) मारां छे नहि अने हुं तेनो स्वामी नथी. आवुं जाणतो ज्ञानी ते बधाने ग्रहतो नथी.

भाई! जे जडनो स्वामी थाय ते जड थई जाय. जेम भेंसनो स्वामी पाडो होय छे तेम ‘आ जड बधां मारां छे’-एम जडनो स्वामी थाय ते जड छे एटले के ते मूढ छे एम कहे छे. आकरी वात बापा! अहीं कहे छे-ज्ञानी परद्रव्यने


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पोतानो परिग्रह करतो नथी. एटले शुं? एटले के ते जे राग आवे छे तेने ज्ञाताद्रष्टापणे-साक्षीभावे मात्र जाणे ज छे. ते मारो छे एम नहि पण ते पर छे एम साक्षीभावे मात्र जाणे छे. आ प्रमाणे ज्ञानीने अशुद्धता ने कर्मनी निर्जरा अने शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. (केमके रागना अभावमां ज्ञानीने नवीन बंध थतो नथी.)

* गाथा २०७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘लोकमां एवी रीत छे के समजदार डाह्यो माणस परनी वस्तुने पोतानी जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. तेवी ज रीते परमार्थज्ञानी पोताना स्वभावने ज पोतानुं धन जाणे छे, परना भावने पोतानो जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. आ रीते ज्ञानी परनुं ग्रहण-सेवन करतो नथी.’

अहाहा...! जेने द्रव्यस्वभावनुं भान थयुं अर्थात् पूर्ण शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप प्रभु आत्मानो अंतरमां स्वीकार, सत्कार ने आदर थयो ते सम्यग्द्रष्टि जीव परमार्थ ज्ञानी छे. बहारनुं घणुं बधुं जाणपणुं होय ते परमार्थज्ञानी छे एम नहि, पण परम पदार्थ जे भगवान आत्मा तेनुं जेने अंतरमां ज्ञान थयुं छे ते परमार्थज्ञानी छे. अहीं कहे छे- आवो परमार्थज्ञानी जीव पोताना स्वभावनेज पोतानुं धन जाणे छे. अहाहा...! आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावनी लक्ष्मीथी भरेलो भंडार छे. ज्ञानी ते एक स्वभावने ज पोतानी संपदा माने छे; परंतु परना भावने पोतानो जाणतो नथी. जोयुं? आ बहारनां धन-लक्ष्मी, शरीर, मन, वाणी ईत्यादि परना भावने ते पोताना जाणतो नथी. वळी अंदरमां जे पुण्य-पापना भाव थाय ते पण परभाव छे. धर्मी ते परभावोने पोताना मानतो नथी.

शुं कह्युं? के दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा ईत्यादि जे पुण्यना भाव अने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना ईत्यादि जे पापना भाव तेने ज्ञानी पोताना जाणतो नथी केमके ते बधा परभाव छे. हवे आम छे तो पछी आ पैसा-बैसा तो कयांय वेगळा रही गया! समजाणुं कांई...! भाई! ए धूळ तो बधी धूळमां पुद्गलमां रही गई. अहीं तो पोतानी एक समयनी पर्यायमां जे पुण्य-पापना शुभाशुभ भाव थाय छे ते पण अवस्तु एटले परवस्तु छे एम ज्ञानी जाणे छे.

सूक्ष्म वात छे प्रभु! कहे छे-परमार्थज्ञानी धर्मी जीव परना भावने पोतानो जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. जुओ, शुभाशुभ भाव ज्ञानीने थाय तो छे, दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादिनो राग तेने आवे तो छे, पण तेने ते ग्रहण करतो नथी. एटले शुं? एटले के तेनी साथे ते एकत्व करतो नथी परंतु भेदज्ञानना बळ


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वडे तेने स्वरूपथी भिन्न परपणे जाणे छे. आ परभाव छे-एम बस जाणे छे; मने छे के मने लाभदायी छे एम नहि.

‘आ रीते ज्ञानी परनुं ग्रहण-सेवन करतो नथी.’ ल्यो, आ सरवाळो कह्यो. अहाहा...! ज्ञानानंद स्वभावनो जेने द्रष्टिमां स्वीकार थयो छे ते धर्मी जीव चाहे छ खंडना राज्यना संयोगमां देखाय चाहे व्यवहाररत्नत्रयने पाळतो देखाय पण ते ए सर्व परभावोनुं ग्रहण-सेवन करतो नथी. गजब वात छे भाई! धर्मीनी द्रष्टि पोतानी स्वरूपसंपदा-चैतन्यसंपदा पर छे ने! ते द्रष्टि आ परभावोने पोताना स्वीकारती नथी, ते पोताना छे एम मानती नथी अने ज्ञान तेने पोताथी भिन्न परपणे बस जाणे छे. हवे आवी वात लोकोने भारे आकरी लागे छे केमके आटली दया करी, ने आटलां तप कर्या ने आटला उपवास कर्या एटले थई गयो धर्म-एम माने छे ने? भाई! एमां (-रागमां) तो धूळेय दया ने तप नथी सांभळने. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर प्रभु आत्मा छे; एनी पर्यायमां अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनी भरती आवे तेने भगवाने धर्म कह्यो छे अने तेने साची दया अने साचुं तप कहे छे. समजाणुं कांई...?

अहा! आत्मानो ज्ञान अने आनंद कायमी असली-अकृत्रिम स्वभाव छे. अहाहा... तेनी अंदरमां ज्यां द्रष्टि थई त्यां पर्यायमां ते ज्ञान अने आनंदनी निर्मळ दशा प्रगट थाय छे. ते निर्मळ पर्याय पोतानुं स्व छे. अहाहा...! द्रव्य-गुण अने तेनी निर्मळ पर्याय ते पोतानुं स्व छे, अने तेनो पोते (धर्मात्मा) स्वामी छे. जुओ, आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. तेमां एक ‘स्वस्वामीसंबंध शक्ति’ छे. ४७ शक्तिमां एक ‘स्वस्वामीसंबंध शक्ति’ कही छे. आ शक्तिना कारणे त्रिकाळी शुद्ध जे द्रव्य ते हुं आत्मा स्व छुं, त्रिकाळी पूर्ण शुद्ध जे गुणो ते मारुं स्व (स्वरूप) छे अने तेनी जे निर्मळ-शुद्ध स्वभावपर्याय प्रगट थाय ते पण मारुं स्व छे; अर्थात् पोताना शुद्ध द्रव्य-गुण अने शुद्ध पर्याय ते पोतानुं स्व छे ने तेनो आत्मा-धर्मी स्वामी छे. आ वात छे; बाकी ते पत्नीनोय पति नथी अने लक्ष्मीपतिय नथी-एम कहे छे.

उद्योगपति तो छे ने? धूळमांय उद्योगपति नथी सांभळने. ए तो रागनो अहोनिश उद्योग करे छे. शुं आत्मा तेनो (-रागनो) स्वामी छे? शुं राग आत्मानो छे? ना; तो पछी ए उद्योगपति कयांथी होय? (न होय).

अहीं कहे छे-‘ज्ञानी परनुं ग्रहण-सेवन करतो नथी.’ भाई! परमार्थे रागनुं कर्तापणुं अने रागनुं सेवन आत्माने छे ज नहि. एनामां कयां राग छे के ते रागने


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करे अने सेवे? आवी वात! बिचारा अज्ञानीने पोताना स्वरूपनी खबर नथी. पोते सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे, सत् नाम शाश्वत ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार प्रभु पोते छे. अहाहा...! आवा स्वस्वरूपनो स्वीकार करनार धर्मी सुखना पंथे छे. ते दया, दान आदिना विकल्पने (-दुःखने) पोतानो मानी सेवन करतो नथी; बस जाणे छे के ए ‘छे’ अने ते पण परपणे छे एम जाणे छे. आनुं नाम सम्यग्द्रष्टि ने धर्मी कहेवामां आवे छे.

[प्रवचन नं. २८३ (चालु)*दिनांक प-१-७७]

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गाथा–२०८
मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज।
णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ।। २०८।।
मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयम्।
ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम।।
२०८।।

“माटे हुं पण परद्रव्यने नहि परिग्रहुं” एम हवे (मोक्षाभिलाषी जीव) कहे छेः-

परिग्रह कदी मारो बने तो हुं अजीव बनुं खरे,
हुं तो खरे ज्ञाता ज, तेथी नहि परिग्रह मुज बने. २०८.

गाथार्थः– [यदि] जो [परिग्रहः] परद्रव्य-परिग्रह [मम] मारो होय [ततः] तो [अहम्] हुं [अजीवतां तु] अजीवपणाने [गच्छेयम्] पामुं. [यस्मात्] कारण के [अहं] हुं तो [ज्ञाता एव] ज्ञाता ज छुं [तस्मात्] तेथी [परिग्रहः] (परद्रव्यरूप) परिग्रह [मम न] मारो नथी.

टीकाः– जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं ‘स्व’ थाय, हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे (लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायक भाव ज जे ‘स्व’ छे, तेनो ज हुं स्वामी छुं; माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.

भावार्थः– निश्चयनयथी ए सिद्धांत छे के जीवनो भाव जीव ज छे, तेनी साथे जीवने स्व-स्वामी संबंध छे; अने अजीवनो भाव अजीव ज छे, तेनी साथे अजीवने स्व-स्वामी संबंध छे. जो जीवने अजीवनो परिग्रह मानवामां आवे तो जीव अजीवपणाने पामे; माटे जीवने अजीवनो परिग्रह परमार्थे मानवो ते मिथ्याबुद्धि छे. ज्ञानीने एवी मिथ्याबुद्धि होय नहि. ज्ञानी तो एम माने छे के परद्रव्य मारो परिग्रह नथी, हुं तो ज्ञाता ज छुं.

*

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समयसार गाथा २०८ः मथाळुं

“माटे हुं पण परद्रव्यने नहि परिग्रहुं” एम हवे (मोक्षाभिलाषी) जीव कहे छेः-

* गाथा २०८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं “स्व” थाय, हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय.’

जुओ, शुं कहे छे? के ‘जो अजीव परद्रव्यने हुं...’ अहीं अजीव शब्दे मात्र शरीर, मन, वाणी ने पैसा-एम नहि पण पुण्य-पापना भाव जे राग छे ते पण अजीव छे एम वात छे. पुण्य-पापना भाव अजीव छे ए वात जीव-अजीव अधिकारमां पहेलां आवी गई छे. अहाहा...! जीव तो ज्ञान, दर्शन ने आनंदनी मूर्ति प्रभु छे. पण एने खबर नथी के स्व शुं छे ने पर शुं छे? अनादिथी आंधळे-आंधळो छे. अहीं तो आत्मानुं जेवुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे तेवुं जेने अनुभवमां अने प्रतीतिमां आव्युं छे ते सम्यग्द्रष्टि-धर्मी जीव एम माने छे के-‘जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं स्व थाय.’ शुं कह्युं? के राग जे अजीव परद्रव्य छे तेने हुं परिग्रहुं-मारापणे स्वीकारुं तो अवश्यमेव ते अजीव राग मारुं स्व थाय अने तो अवश्यमेव ते अजीव रागनो हुं स्वामी थाउं. (पण एम तो छे नहि).

अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञाता द्रष्टा ने पूर्णानंदस्वभावी वस्तु छे. ते पूर्णस्वभावी वस्तु ते हुं, तेना गुणो ते हुं अने तेनी निर्मळ पर्याय जे थाय छे ते हुं छुं. आम द्रव्य-गुण ने शुद्ध पर्याय ते मारुं स्व अने हुं तेनो स्वामी छुं. पण रागनो जो हुं स्वामी थाउं एटले के रागने मारो जाणी हुं तेने ग्रहण करुं तो हुं अजीव थई जाउं केमके राग जीवना स्वभावथी भिन्न अजीव छे. भाई! व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प के देव-गुरु- शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प जे छे ते अजीव छे. धर्मी कहे छे-तेने जो हुं परिग्रहुं-पकडुं तो जरूर ते मारुं स्व थाय अने हुं तेनो -अजीवनो स्वामी थाउं अने तो हुं अजीव ज थई जाउं. अहा! आवी वात छे!

प्रश्नः– देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा करवी ते शुं मिथ्यात्व छे? समाधानः– कोण कहे छे? देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा ए राग छे, मिथ्यात्व नहि; पण ते राग मारो छे एम माने ते मिथ्यात्व छे. भाई! देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग ए मिथ्यात्व नथी पण एनाथी मने लाभ छे अने ए मारो छे एम माने ते मिथ्यात्व छे. अरे प्रभु! आवुं (दुर्लभ) मनुष्यपणुं!! मांड तरवानो प्रसंग आव्यो छे हों. अहा! भवनो अभाव करीने नीकळवानां टाणां आव्यां छे तो आ तुं शुं करे


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छे भाई! बापा! आ अवसर फरी फरीने नहि आवे हों. भाई! जो तुं अवसर चूकी गयो तो कयांय एकेन्द्रियादिमां चाल्यो जईश. पछी आवुं विचारवानो तो शुं सांभळवानोय अवसर नहि होय. भाई! तुं एक वार तारो (मिथ्या) आग्रह छोडी दे.

अहीं कहे छे-ज्ञानी एम माने छे के-जो हुं रागने पोतानो मानुं तो जरूर ते अजीव मारुं स्व थई जाय अने हुं जरूर ते अजीवनो स्वामी थई जाउं. अहा! आवो वीतराग सर्वज्ञ परमात्मानो मारग महा अलौकिक छे! अहाहा...! तेमां जेने अंतरमां धर्मनी दशा प्रगटी छे ते कहे छे-जो तारे धर्म प्रगट करवो होय तो दया, दान आदिनो राग मारो छे एम न मान; राग मारुं स्व छे अने हुं तेनो स्वामी छुं एम तुं न मान; केमके राग अजीव छे, अचेतन छे. अने तुं? तुं एकलुं चैतन्य छो. भाई! रागमां चैतन्यनो कण पण नथी. राग पोतानेय न जाणे अने परनेय न जाणे एवो अचेतन आंधळो छे तेथी अजीव छे. हवे एक समयनी पर्यायमां थतो राग पण ज्यां तारो नथी तो स्त्री-पुत्र ने जर-झवेरात तो कयांय दूर रही गयां. समजाणुं कांई...?

त्यारे कोई वळी कहे छे-आत्मा पैसा तो कमाय ने? भाई! पैसा कोण आत्मा कमाय? आत्मा तो पैसाने अडेय नहि तो पैसा शुं कमाय? भाई! तने तारी चीजनी खबर नथी, पण त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमेश्वर भगवान जिनेन्द्रदेव अने तेमना केडायती संतो एम फरमावे छे के-नाथ! तुं एकला ज्ञान अने आनंदनो चैतन्यमय भंडार छो, ए तारुं स्व छे अने ए सिवाय जे कांई (राग, शरीर, पैसा इत्यादि) छे ते सर्व पर चीज छे. अहा! धर्मी पुरुषो आम ज माने छे.

धर्मी कहे छे-जो आ रागने हुं मारो मानुं तो ते राग मारुं स्व थई जाय अने तो हुं एनो जरूर स्वामी थई जाउं. अने ‘अजीवनो जे स्वामी (होय) ते खरेखर अजीव ज होय.’ जेम भेंसनो स्वामी पाडो होय, मनुष्य न होय तेम अजीवनो स्वामी अजीव ज होय, जीव न होय.

शुं कह्युं ए? के जेम भेंसनो स्वामी पाडो होय छे तेम जो हुं आ अजीवनो स्वामी थाउं तो हुं अजीव थई जाउं (आवी आपत्ति आवी पडे). अहा! प्रभु! एणे कोई दि’ आ सांभळ्‌युं ज नथी. पांच-दश हजारनो महिने पगार मळे ने कांईक करोड-बे करोड एकठा थई जाय एटले एने एम थई जाय के-ओहोहो...! अमे मोटा थई गया! धूळमांय मोटा थया नथी सांभळने. भाई! तें पर चीजथी पोतानी मोटप मानी


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एटले परनो स्वामी थयो एटले तुं पररूप-जडरूप थयो ने स्वरूप-चिद्रूपने चूकी गयो, निराकुल आनंदस्वभावने चूकी गयो. पण एनुं फळ बहु आकरुं आवशे भाई! धर्मी तो परभावने चूकी जाय छे अने चिदानंदस्वभावने पोतानो माने छे. अहो! ते अद्भुत अतीन्द्रिय आनंदने पामे छे. आवो मारग बापा! धर्म आवो छे भाई!

भाई! आ तो देवाधिदेव अरिहंत परमात्माए जे कह्युं छे ते आ संतो अहीं कहे छे. अहा! दिगंबर संतो-भावलिंगी मुनिवरो ज्ञानी ने आत्मध्यानी स्वरूपमां निमग्न जाणे ‘भगवान’-स्वरूप ज हता. भगवाननी वाणी पण तेमने भगवानस्वरूप ज कहे छे. ‘भगवान श्री पुष्पदंत ने श्री भूतबलि’-एम षट्खंडागममां श्री पुष्पदंत ने श्री भूतबलिने ‘भगवान’ कह्या छे. अहा! जरी रागनो भाग न गणो तो (गौण करो तो) तेओ खरेखर भगवान ज छे. श्री नियमसारमां (कळश २प३ मां) आवे छे के-अरेरे! आपणे जडबुद्धि छीए के वीतराग परमेश्वर अने वीतरागपणाने पामेला मुनिवरो वच्चे भेद करीए छीए मतलब के वीतरागी मुनिवरो वीतराग परमेश्वर जेवा भगवानस्वरूप ज छे. त्यां (नियमसारमां) पहेलां ए वात करी के मुनिने कंईक राग छे एटलो फेर छे. पण पछी ते काढी नाखीने (गौण करीने) वीतरागपणानी मुख्यताथी तेओ भगवान ज छे एम कह्युं छे. अहो! मुनिवरो भगवान भट्टारक महा पूजनीक छे. भट्टारक एटले के सर्वज्ञस्वभावना अनुभवी अने अंदर आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन जेमने प्रगट थयुं छे ते मुनिवरोने भट्टारक कहेवामां आव्या छे.

आवा मुनिवरो-संतो अहीं कहे छे-अहो! हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं अने ते मारी चीज छे अर्थात् हुं ज मारुं स्व छुं अने तेनो हुं स्वामी छुं. मारा चैतन्यस्वभावथी भिन्न आ जे रागादि उत्पन्न थाय छे, व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प जे उत्पन्न थाय छे ते मारो नथी, हुं तेनो स्वामी नथी केमके ते अजीव छे. (जो विकल्प मारो होय तो हुं अजीव थई जाउं).

पण व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चय पमाय छे ने? समाधानः– एम नथी भाई! व्यवहाररत्नत्रय तो बापु! तें अनंतवार कर्यां छे. नवमी ग्रैवेयक गयो त्यारे एवा निश्चय विनाना व्यवहाराभास अनंतवार कर्या छे. भाई! तें द्रव्यलिंग धारीने पंच महाव्रत चोख्खां पाळ्‌यां, प्राण जाय तोय उद्देशिक आहार न लीधो, नवमी ग्रैवेयक जाय एवी शुक्ललेश्या (शुक्लध्यान नहि, शुक्लध्यान जुदुं अने शुक्ल लेश्या जुदी छे. शुक्ललेश्या तो अभवीने पण होय छे) अनंतवार करी. पण एथी शुं? ए तो बधो राग हतो. भाई! तुं रागथी धर्म थाय एवी मान्यतामां रागथी हठयो नहि अने तेथी तने अनंतकाळमां पण निश्चय प्रगटयो नहि. छहढाळामां आवे छे ने के-


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“मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायौ;
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायौ.”

अहा! आत्मज्ञान शुं चीज छे ते अज्ञानीने खबर नथी. भाई! आत्मज्ञान विना पंचमहाव्रतना परिणामथी लेश पण सुख न थयुं अर्थात् दुःख ज थयुं. भाई! पंचमहाव्रत पण दुःख छे एम कहेवुं छे.

तो शुं पंचमहाव्रतनी क्रिया ते चारित्र नथी? भाई! पंचमहाव्रतादि क्रियाने उपचारथी चारित्र कहेल छे. ते उपचार पण जेने निश्चय चारित्र प्रगटयुं छे तेवा समकितीनी क्रियाने लागु पडे छे. बाकी जेने पोतानी वस्तुनी खबर ज नथी ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्याद्रष्टिनी क्रियाने तो उपचार पण संभवित नथी. मारग बापु! भगवाननो साव जुदो छे. अहीं तो आ कहे छे के-राग जो मारो होय तो हुं जरूर अजीव थई जाउं. ए ज विशेष कहे छे के-

‘ए रीते अवशे (लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे.’ अहाहा...! ज्ञानी आम माने छे के-‘चिद्रूपोऽहं’–खरेखर हुं ज्ञानघन-चिद्घन चिद्रूपस्वरूप एवुं परमात्मद्रव्य छुं. हुं मारुं स्व अने तेनो हुं स्वामी छुं. पण कमजोरीथी पर्यायमां जे आ राग थयो छे तेने जो हुं मारो मानुं तो हुं तेनो स्वामी थाउं अने तो मने अवशे-लाचारीथी पण अजीवपणुं आवी पडे. जोयुं? देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग धर्मीने होय छे पण तेने ते पोतानो मानतो नथी, तेनो स्वामी थतो नथी. अहीं कहे छे-तेनो जो हुं स्वामी थाउं तो मने अवशे पण अवश्य अजीवपणुं आवी पडे. ल्यो, हवे आवी वात छे ज्यां त्यां आ लक्ष्मी मारी ने कुटुंब मारुं ने देश मारो अने हुं एनो स्वामी ए वात कयां रही? पर मारां छे एम माननार तो मूढ मिथ्याद्रष्टि अनंत संसारी छे.

हवे कहे छे-‘मारुं तो एक ज्ञायक भाव ज जे “स्व” छे, तेनो ज हुं स्वामी छुं.’ अहाहाहा...! धर्मी जीव पोताना एक ज्ञायक भावने ज पोतानो माने छे. भगवान आत्मा चैतन्यज्योतिस्वरूप सदा ज्ञायकस्वभावी प्रभु अंदर ज्ञानना नूरना पूरथी भरपुर पडयो छे. बस ते ज मारुं स्व छे अने हुं तेनो स्वामी छुं एम धर्मी जीव माने छे. अहो! अलौकिक गाथा ने अलौकिक टीका!

पण आ बधानुं-जर-झवेरातनुं शुं करवुं? कयां नाखवां? शुं बहार नाखी देवां? भाई! ए परने कोण नाखे ने कोण राखे? अहीं कहे छे-ए बधां मारां छे एवी मिथ्या मान्यताने काढी नाख. मारां मान्यां हतां पण तेओ मारां छे नहि


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एम सुलटी जा. बाकी वस्तु तो वस्तुमां पडी छे, वस्तु वस्तुना कारणे आवी छे, तेना पोताना कारणे रही छे अने पोताना कारणे जाय छे. अहीं तो आ कहे छे के-लक्ष्मी मारी छे अने हुं तेने दानमां आपुं छुं एम जो हुं मानुं तो हुं अजीव थई जाउं, केमके लक्ष्मी अजीव छे अने अजीवनो जे स्वामी थाय ते अजीव ज होय. आवी वात छे!

त्यारे देखवामां तो एम आवे छे के हुं दान आपुं छुं? शुं देखवामां आवे छे? ए तो (संयोगने देखतो अज्ञानी) एम माने छे के हुं दान आपुं छुं. खरेखर तो लक्ष्मी जाय छे ते तेनी (परमाणुओनी) क्रियावती शक्तिना कारणे जाय छे, लक्ष्मीनुं स्थानांतर थवुं ते तेना परमाणुओनी क्रियावती शक्तिनुं कार्य छे. छतां कोई एम कहे के-लक्ष्मी मारी छे अने हुं तेने दानमां आपुं छुं तो ते अज्ञानी छे, दीर्घसंसारी छे.

अहीं तो आ कह्युं छे के-मारो तो एक ज्ञायकभाव ज छे जे स्व छे. अहाहाहा...! भाषा तो जुओ! ‘ज’ नाख्यो छे.

हा, पण आ शुं एकान्त नथी? राग पण मारो छे एम लो तो? मोक्षमार्ग प्रकाशकमां एम लीधुं छे के-दानमां जे राग थाय छे ते तो पोतानो छे, देवा-लेवानी क्रिया पोतानी नथी.

भाई! ए तो पर्याय-अपेक्षाथी कह्युं छे. राग पोतानी पर्यायमां थयो छे ए अपेक्षाए कह्युं छे. राग मारी पर्यायमां छे एम जणाववा अर्थे कह्युं छे. अहा! पैसा, लक्ष्मी, आहार ने पाणी लेवा-देवानी क्रिया मारी नथी पण तेमां जे भाव छे ते मारो छे एम जाणवुं पण श्रद्धान तो एवुं करवुं के ते धर्म-मोक्षमार्ग नथी. त्यां पण आ ज कह्युं छे.

रागभाव मारो छे तेम ममत्व पण करवुं-एम त्यां लख्युं छे ने? हा, तेनो अर्थ ए छे के-मारी पर्याय माराथी थई छे एम जाणवुं, पण स्वभावनी द्रष्टिमां ते (-राग) मारो छे ज नहि एम यथार्थ मानवुं. कह्युं ने अहीं के- मारो एक ज्ञायकभाव ज मारुं स्व छे; आ रागादि सर्व भावो पर छे, अजीव छे, मारा नथी. भाई! आ तो एक कोर राम (आत्मा) ने एक कोर गाम (आखुं जगत) एवी वात छे. राम ते स्व छे अने गाम बधुं पर छे. आवो मारग बापा! अत्यारे कयांय सांभळवा मळे नहि. अहा! सुखनो पंथ परमात्मानो निराळो छे भाई!

अहीं कहे छे-राग मारो छे एवी जो रागमां आत्मबुद्धि थई जाय, सुखबुद्धि थई जाय तो राग मारुं स्व थई जाय अने तेनो हुं स्वामी थई जाउं; अने तो हुं लाचारीथी पण अजीव थई जाउं. पण अहा! मारो तो एक ज्ञायकभाव ज छे. जुओ,


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आ अस्ति-नास्ति करी! एक ज्ञायकभाव ज मारुं स्व ने तेनो हुं स्वामी छुं पण रागादि अजीव मारुं स्व नहि अने तेनो हुं स्वामी पण नहि.

प्रश्नः– कयारेक तो कोई व्यवहार करतां करतां निश्चय पामशे; केमके व्यवहार करवाथी पुण्य थशे ने तेथी स्वर्गमां जशे; ने त्यांथी श्री सीमंधर भगवान बिराजे छे त्यां जशे ने त्यां समकित पामशे.

समाधानः– अरे भाई! समोसरणमां तो तुं अनंतवार गयो छो. महाविदेह क्षेत्रमां पण तुं अनंतवार जन्म्यो छो. अहा! ४प लाख योजनमां एक कण पण एवो खाली नथी ज्यां अनंतवार जन्म-मरण न कर्यां होय. ४प लाख जोजनमां ज मनुष्यक्षेत्र छे. तेनो एक कण पण एवो नथी ज्यां अनंतवार जन्म-मरण न कर्यां होय. समुद्रमां मनुष्य तो नथी, छतां अनंतवार त्यां जन्म-मरण कर्यां छे. कोई गर्भवती स्त्री होय ने समुद्रमां पडी जाय अने त्यां पण प्रसव-जन्म थई जाय. अहा! आवा भव पण मनुष्यपणे अनंत कर्या छे.

समुद्रना कणे-कण उपरथी अनंता सिद्धो पण थया छे. कोई देव ज्ञानी आत्मध्यानी मुनिराजने उपाडी जाय अने पछी त्यां समुद्रमां फेंकी दे. पण मुनिराज तो त्यां केवळज्ञान उपजावीने मोक्ष चाल्या जाय. अहा! ४प लाख योजनमांथी कोई कण खाली नथी के ज्यां तेनी उपर अनंता सिद्ध न होय. लवण समुद्र के जे बे लाख योजननो छे तेनी उपर पण अनंत सिद्धो छे. ते सिद्धो कयांथी आव्या? अहींथी (जमीन उपरथी) मोक्ष पामीने त्यां (समुद्रनी उपर) जाय एम तो थतुं नथी केमके सिद्ध तो सीधा समश्रेणीए जाय छे. तो लवण समुद्र उपर सिद्ध कयांथी आव्या? भाई! लवण समुद्रमां कोईए मुनिने नाख्या, पण तेओ तो अंदर ध्यानमग्न रह्या अने देह छूटी गयो त्यारे केवळज्ञान उपजावीने समश्रेणीए सीधा मोक्ष पधार्या. आ प्रमाणे लवण समुद्र उपरथी पण अनंत सिद्धो थया छे. भाई! वीतरागनो मारग अपार अने गंभीर छे. अज्ञानी अनादि... अनादि... अनादिनो रझळे-रखडे छे. शुं तेनी कोई शरूआत छे? अहा! अनादि... अनादि... अनादिथी रझळतां-रझळतां दरेक स्थानमां, दरेक समयमां अनंत अनंतवार ते जन्म्यो ने मर्यो छे! शुं कहीए? अनंतवार ते समोसरणमां पण गयो छे. पण एथी शुं? (राग करतां करतां धर्म थाय एवुं शल्य एने छूटयुं नहि तो शुं लाभ?).

अहीं कहे छे-जो हुं रागादि परने मारा मानुं तो हुं जरूर लाचारीथी पण अजीव थई जाउं. पण हुं अजीव नथी, हुं तो एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा छुं, ने ज्ञायकस्वभावी आत्मा ज रहीश. ए ज हवे कहे छे-

‘माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.’


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पहेलां ‘जो हुं अजीवनो स्वामी थाउं तो हुं अजीव थई जाउं, माटे मने अजीवपणुं न हो’-एम नास्तिथी कह्युं; अने हवे ‘हुं तो ज्ञाता ज रहीश’ -एम अस्तिथी कहे छे. अहा! धर्मी तो एम ज माने छे के-हुं तो जाणवा-देखवाना स्वभावे ज छुं अने जाणवा-देखवावाळो ज्ञाता-द्रष्टा ज रहीश; हुं कदीय रागरूपे के पररूपे थईश नहि. जुओ, छे अंदर? छे के नहि? ‘हुं तो ज्ञाता ज रहीश.’ अहो! समयसार तो भरतक्षेत्रनो अजोड सूर्य छे! छेल्ले २४प मा कळशमां लख्युं छे के-‘आ एक (अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु छे.’

अहाहाहा...! कहे छे-‘हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं’ शुं कह्युं? के व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प थशे तोपण ‘ते मारो छे’-एम हुं नहि मानुं; अने ‘तेने में कर्यो छे’-एम पण नहि मानुं. ते मारुं स्व नहि अने हुं तेनो स्वामी नहि; हुं तो ज्ञाता-द्रष्टा ज छुं.

* गाथा २०८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

निश्चयनयथी ए सिद्धांत छे के जीवनो भाव जीव ज छे, तेनी साथे जीवने स्व-स्वामी संबंध छे; अने अजीवनो भाव अजीव ज छे, तेनी साथे अजीवने स्व-स्वामी संबंध छे.

शुं कहुं? के निश्चयनयथी एटले यथार्थ द्रष्टिथी आ सिद्धांत छे के-‘जीवनो भाव जीव ज छे.’ ज्ञान, आनंद, शांति, स्वच्छता, प्रभुता ईत्यादि भगवान आत्मानो भाव छे. ते जीवनो भाव जीव ज छे अने तेनी साथे जीवने स्व-स्वामी संबंध छे. अहा! पोतानो शुद्ध चैतन्यस्वभाव, ज्ञानानंदस्वभाव, स्वच्छतानो स्वभाव ते पोतानुं स्व छे अने तेनो आत्मा स्वामी छे. जे पोतानुं स्व छे तेनो आत्मा स्वामी छे अर्थात् स्व- भावनो आत्मा स्वामी छे. तेवी रीते अजीवनो भाव अजीव ज छे. रागादि भाव अजीवनो छे तेथी ते अजीव ज छे. अने तेनी साथे अजीवने स्व-स्वामी संबंध छे. रागनो स्व-स्वामी संबंध अजीवनी साथे. अहा! राग अजीव छे तो तेनो स्वामी पण अजीव छे. निश्चयथी रागनो स्वामी जीव नथी. आ निर्जरा अधिकार छे ने? ज्ञानी रागनो स्वामी नथी. आवी वात छे.

कहे छे-ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव ते मारी चीज छे. रागादि कयां मारी चीज छे? राग तो मारा ज्ञाननुं व्यवहारे ज्ञेय छे; तो पछी ‘ते मारी चीज छे’-एम केम होय? आवी अंतर-द्रष्टि-अनुभवद्रष्टि जेने थई छे ते ज्ञानीने कर्मनी ने अशुद्धतानी निर्जरा थाय छे. पण राग मारो छे एवी ज्यां मान्यता छे त्यां तो मिथ्यादर्शननो नवो बंध पडे छे. मारग तो आवो छे भाई! अजीवने-रागादिने पोताना माने तो पोते ज अजीव थवानो प्रसंग आवे छे.

पण पांच-पचास लाख रूपिया कमाय तो खुशी न थाय?


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एमां शुं धूळ खुशी थावुं भाई? अरे! तने शुं थयुं छे प्रभु! के आवी मूर्खाई (मूढता) सेवे छे? अहा! पैसा मने मळ्‌या, ने हुं धनपति-लक्ष्मीपति थयो -एम तें मान्युं ए तो तुं जड थई गयो, केमके जडनो पति जड ज होय. भगवान! तारी चीज तो तारी पासे ज छे ने? तारी चीज तुं पोते ज छो ने प्रभु! आ रागादि त्रणकाळमां तुं नथी, तारी चीज नथी.

ए ज अहीं विशेष कहे छे के-‘जो जीवने अजीवनो परिग्रह मानवामां आवे तो जीव अजीवपणाने पामे; माटे जीवने अजीवनो परिग्रह परमार्थे मानवो ते मिथ्याबुद्धि छे.’

शुं कीधुं? आ जड रागादि पर पदार्थ छे ते भगवान आत्माना छे एम जो मानवामां आवे तो पोते अजीवपणाने पामे अर्थात् पोते जीव छे ते अजीवपणे थई जाय. माटे जीवने अजीवनो परिग्रह परमार्थे मानवो ते मिथ्याबुद्धि छे, मिथ्याश्रद्धान छे. केवो सरस खुलासो छे हें! भाई! जीवने अजीव माने वा अजीवने जीव माने तो ते मिथ्यात्व छे. रागने पोतानो माने ते मिथ्यात्व छे भाई!

बापु! आ तो मारगडा जुदा छे नाथ! श्रीमदे कह्युं छे ने के-‘स्वद्रव्यनी रक्षकता उपर लक्ष राखो.’ भाई! तारो जे शुद्ध एक ज्ञायकभाव छे तेनी रक्षा करवामां लक्ष दे. केमके परनी रक्षा करवा जईश तो तने राग ज थशे अने ते राग मारो छे वा मारुं कर्तव्य छे एम जो मानीश तो तुं मिथ्याद्रष्टि थई जईश अर्थात् तने जैननी श्रद्धा रहेशे नहि. आवो भगवाननो मारग छे!

वळी कहे छे-‘ज्ञानीने एवी मिथ्याबुद्धि होय नहि.’ ज्ञानी शब्दे धर्मी. कोई वळी कहे छे ज्ञानी जुदो ने धर्मी जुदो तो एम छे नहि. धर्मी कहो के ज्ञानी कहो -बन्ने एक ज छे. जेने शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि प्रगटी छे ते ज्ञानी ने धर्मी छे. अहा! जेने निज ज्ञानानंदस्वभावनी अंतरमां प्रतीति थई छे तेने साथे अनंत गुणनुं अंशे शुद्ध परिणमन पण थयुं छे, ने एवा ज्ञानीने मिथ्याबुद्धि होती नथी. शुं कह्युं? व्यवहाररत्नत्रयनो राग मारो छे अने एनाथी मने लाभ थशे एवी मिथ्याबुद्धि ज्ञानीने होती नथी. भाई! शुभरागथी मने लाभ थशे-एम जे माने छे ते अशुभ राग पण मारो छे एम माने छे. समजाणुं कांई...? हवे आवुं अज्ञानीने कठण पडे छे. पण शुं थाय? (स्वरूप ज एवुं छे).

अहा! कहे छे-‘ज्ञानी तो एम माने छे के परद्रव्य मारो परिग्रह नथी, हुं तो ज्ञाता छुं.’

जुओ, समकिती नरकनो नारकी हो के तिर्यंच हो-ते एम माने छे के रागादि परद्रव्य मारुं नथी, हुं तो ज्ञायकमात्र छुं. स्वयंभूरमण समुद्रमां असंख्य तिर्यंच