Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 206 ; Kalash: 144.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 107 of 210

 

PDF/HTML Page 2121 of 4199
single page version

कह्युं. हवे अस्तिथी कहे छे के-‘ज्ञानमां ज ज्ञाननुं प्रकाशवुं होवाथी केवळ (एक) ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे.’

‘ज्ञानमां ज ज्ञाननुं प्रकाशवुं होवाथी’... जोयुं? मतलब के चैतन्यस्वभावमां ज एकाग्रताथी ज्ञाननुं प्रकाशवुं थाय छे; अर्थात् ज्ञानस्वभावमां ज एकाग्रता ते ज्ञाननुं प्रकाशवुं छे. अहा! भाषा तो जुओ! ‘ज’ नाख्यो छे. अहाहा...! कहे छे-ज्ञानमां ज ज्ञाननुं प्रकाशवुं होवाथी केवळ (एक) ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे.’ अर्थात् ज्ञानस्वभावनी एकाग्रताथी ज ज्ञाननी-धर्मनी प्राप्ति थाय छे. ल्यो, आवी वात! अज्ञानीने तो हजु श्रद्धानांय ठेकाणां नथी त्यां धर्मप्राप्ति तो कयांथी थाय?

भाई! रागथी मोक्ष थाय एवी तारी श्रद्धा मिथ्याश्रद्धा छे. राग होय छे खरो, पूर्ण शुद्धोपयोग न थाय त्यांसुधी राग होय छे, परंतु ते बंधनुं ज कारण छे. ते रागथी मुक्तिने के निर्जराने कांई मदद मळे छे एम छे ज नहि. अहाहा...! ज्ञानमां ज-भगवान ज्ञाताद्रष्टा स्वभावमां ज एकाग्र थाय तो ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. केवळ एक ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. निर्जरा अधिकार छे ने? निर्जरा-धर्म केम थाय एनी केटली स्पष्टता छे!

भाई! ज्ञान विना, लाख व्रत, तप ने भक्ति करे अने ते पण क्रोडो वर्ष सुधी करे तोय ते वडे धर्मनी प्राप्ति थती नथी केमके ए तो बंधनुं ज कारण छे. ए ज कहे छे के-‘माटे ज्ञानशून्य घणाय जीवो, पुष्कळ कर्म करवाथी पण आ ज्ञानपदने पामता नथी अने आ पदने नहि पामता थका तेओ कर्मोथी मुक्त थता नथी.’

आ शुं कह्युं? के ज्ञानशून्य घणाय जीवो अर्थात् आत्मज्ञानथी-आत्माना अनुभवथी रहित जीवो पुष्कळ एटले अनेक प्रकारना कर्म करवाथी पण आ ज्ञानपदने पामता नथी. आत्माना जातनी भात जेमां पडी नथी एवा वीतरागी परिणामथी रहित घणाय जीवो दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि अनेक कर्म करवाथी पण जराय धर्मने पामता नथी. अहाहा...! भगवाननी प्रतिमाने हजारो वार पगे लागे ने सवार-सांज अनेक क्रियाकांड कर्या करे तोपण ज्ञानरहित तेमने लगारेय धर्म थतो नथी.

कोईने थाय के तमे आवी वात कहो छो? पण भाई! आ टीका कोनी छे? आ अमृतचंद्राचार्यनी टीका छे के नहि? अहीं तो एनी विशेष स्पष्टता करवामां आवे छे.

पण एना करतां एम ने एम वांची जता होय तो? भाई! एम ने एम वांची जवुं एटले शुं? भाव समज्या विना वांची जवुं? एनो अर्थ शो? एनाथी शुं लाभ? आवे छे ने के-


PDF/HTML Page 2122 of 4199
single page version

‘वांचे पण नहि करे विचार, ते समजे नहि सघळो सार.’ अहाहा...! आत्मा ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी पूर्ण भरेलो भगवान छे. तेमां एकाग्रता थवाथी जे निर्विकार वीतरागी परिणाम उत्पन्न थाय ते ज्ञानमांथी आवेलुं ज्ञान आत्मज्ञान छे. आवा आत्मज्ञानथी शून्य घणाय जीवो घणा प्रकारनां कर्म- शुभाचरण करवाथी पण आ ज्ञानपदने-चैतन्यपदने के जे पूर्णदशामां एकाकार छे तेने पामता नथी. शुं कह्युं? के ज्ञान शून्य जीवो-ज्ञान एटले आगमज्ञान के शास्त्रज्ञान ए ज्ञान नहि, पण प्रत्यक्ष स्वसंवेदनज्ञानथी शून्य जीवो-शुद्ध आत्माना ज्ञानथी रहित जीवो-व्यवहारनी अनेक क्रियाओ-चोख्खी हों-करवाथी पण आ ज्ञानपदने पामता नथी एम कहे छे. अने आ ज्ञानपदने नहि पामता थका तेओ कर्मोथी मुक्त थता नथी. कर्म एटले जडकर्म अने भावकर्मथी तेओ मुक्त थता नथी. ज्ञानशून्य जीवो जडकर्म अने भावकर्मथी मुक्त थता नथी एम कहे छे. हवे आवी वात क्रियाकांडीओने आकरी लागे पण शुं थाय?

भाई! अहीं अशुभ कर्मनी-अशुभ परिणामनी तो वात ज करवी नथी. अहीं तो एम कहेवुं छे के जेमने ‘हुं आत्मा छुं’-एवुं भान थयुं नथी एवा ज्ञानशून्य घणाय जीवो अनेक प्रकारनुं कर्म एटले शुभरागनुं आचरण करवाथी पण आ ज्ञानपदने प्राप्त करता नथी. जुओ आ स्पष्टीकरण! केम पामता नथी? केमके ए शुभरागनी क्रियाथी आत्मज्ञान के सम्यग्दर्शन थाय एम छे नहि. खूब गंभीर वात भाई! शुं? के व्यवहार करतां करतां कोईने निश्चय थाय ए वातनी अहीं ना पाडे छे.

प्रश्नः– पण डगलुं भरतां भरतां थाय ने? समाधानः– धूळेय न थाय सांभळने. डगलुं? भाई! तारे डगलुं शेमां भरवुं छे? रागमां के अंदर ज्ञानमां? रागनुं डगलुं तो परदिशा तरफनुं छे के जे बंधनुं- संसारनुं कारण छे. शुं बंधना कारणनुं डगलुं भरतां अबंधनुं कारण प्रगट थाय? शुं संसार भणी डगलुं भरतां मुक्तिमार्ग प्राप्त थाय? न थाय बापा! तने आकरुं पडे छे भाई! पण शुं थाय? भाई! आ तारा हितनो पंथ अहीं तने बतावे छे. कहे छे- ज्ञानस्वरूप आत्माना ज्ञाननी परिणतिथी ज तेने पूर्ण ज्ञाननी-केवळज्ञाननी पर्यायनी प्राप्ति थाय छे. अहाहा...! भगवान आत्मा आनंदनो सागर प्रभु छे; ते तेनी आनंदनी पर्यायथी ज प्राप्त थाय छे. अहाहा...! ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव आनंदस्वरूप भगवानना सन्मुखनी पर्यायथी ज परमानंदनी पर्याय-मोक्षनी पर्याय प्रगटे छे. भाई! तने न रुचे अने बीजी रीते माने पण बापा! एम केम चाले? वीतराग मारगमां स्वच्छंदता- विपरीतता केम चाले?


PDF/HTML Page 2123 of 4199
single page version

भाई! तुं विपरीत मान्यता राखीने सवार-बपोर-सांज प्रतिक्रमण-सामायिक ने प्रौषध आदि अनेक प्रकारे क्रियाकांड करे तोपण तेनाथी तने लाभ नहि थाय, ए वडे ज्ञानपदनी प्राप्ति नहि थाय. अने ज्ञानपदने प्राप्त थया विना कर्मना बंधनथी मुक्ति नहि थाय, निर्जरा नहि थाय. तेथी ज कहे छे-

‘माटे कर्मथी मुक्त थवा इच्छनारे केवळ (एक) ज्ञानना आलंबनथी, नियत ज एवुं आ एक पद प्राप्त करवायोग्य छे.’ पहेलां टीकामां कह्युं के केवळ एक ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे अने हवे आ कह्युं के कर्मथी एटले के जडकर्म अने भावकर्मथी मुक्त थवा इच्छनारे केवळ एक ज्ञाननुं ज आलंबन लई नियत ज एवुं आ एक पद प्राप्त करवा योग्य छे. अहाहा...! पूर्णज्ञाननी दशामय एवुं आ एक पद ज प्राप्त करवायोग्य छे. केवी रीते? तो कहे छे-एक ज्ञानना ज आलंबनथी, ज्ञाननी ज एकाग्रता वडे. बहु टुंकु!

* गाथा २०पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानथी ज मोक्ष थाय छे, कर्मथी नहि;’... अहीं ज्ञान एटले शास्त्रज्ञान के आगमज्ञान नहि, आत्मानी पर्यायनुं ज्ञान एम पण नहि ने रागनुं ज्ञान एम पण नहि. अहीं ज्ञान एटले आत्मज्ञान, त्रिकाळी शुद्ध परमात्मद्रव्य पोते छे तेनुं स्वसंवेदनमां-स्वानुभवमां प्रगट थयेलुं ज्ञान. आवा आत्मज्ञानथी ज-ज्ञानना परिणमनथी ज मोक्ष थाय छे, रागना परिणमनथी -क्रियाकांडथी नहि. टीकामां कह्युं ने के आ एक ज्ञानपद ज, पूर्णज्ञाननी-केवळज्ञाननी दशामय नियत एक सर्वज्ञपद ज प्राप्त करवायोग्य छे अने शुद्ध आत्मस्वभावना आलंबनथी ज-ज्ञानना परिणमनथी ज-शुद्धोपयोगथी ज प्राप्त थाय छे. शुद्धोपयोगरूप परिणमन विना, बीजा लाख क्रियाकांड करे तो पण मोक्षप्राप्ति न थाय.

‘माटे मोक्षार्थीए ज्ञाननुं ज ध्यान करवुं एम उपदेश छे.’ शुं करवुं, अमारे शुं करवुं?-एम थाय छे ने? ल्यो, आ करवुं एम कहे छे. शुं? के ‘ज्ञाननुं ज ध्यान करवुं.’ अहाहा...! ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्माने लक्षमां लईने तेमां एकाग्र थई तेमां ज रमवुं ने ठरवुं. आ पूर्ण आनंदस्वरूप मोक्षदशानी प्राप्तिनो उपाय छे. आ एक ज उपाय छे. आ सिवाय बीजो पण उपाय छे एम छे नहि.

*

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १४३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इदं पदं’ आ (ज्ञानस्वरूप) पद ‘ननु कर्म–दुरासदं’ कर्मथी खरेखर दुरासद छे.


PDF/HTML Page 2124 of 4199
single page version

अहाहा...! जाणग-जाणगस्वभावी प्रभु आत्मा कर्मथी खरेखर दुरासद छे; दुरासद एटले दुष्प्राप्य-अप्राप्य छे एम कहे छे. भाई! दया, दान, व्रत, तप इत्यादि कर्मकांडथी आत्मा प्राप्त थवा योग्य नथी. आवुं चोख्खुं तो आचार्य कहे छे. (छतां अरे! अज्ञानी विपरीत केम माने छे?) रागनी क्रियाथी आत्मा दुरासद छे, अप्राप्य छे अर्थात् तेनाथी ते (आत्मा) जाणी शकाय एवो नथी.

अने ‘सहज–बोध–कला–सुलभं किल’ सहज ज्ञाननी कळा वडे खरेखर सुलभ छे. शुं कह्युं? के मतिज्ञान के श्रुतज्ञान जे सहज-स्वाभाविक ज्ञानकळा छे तेनाथी ते खरेखर सुलभ छे. व्यवहारनी गमे तेटली क्रियाथी पण वस्तु दुर्लभ छे ज्यारे पोताना ज्ञानथी -अंदर एकाग्र थयेला ज्ञानथी-मतिज्ञान ने श्रुतज्ञाननी सहज कळाथी तेनी प्राप्ति सुलभ छे. आवी वात छे.

हवे कहे छे-‘ततः’ माटे ‘निज–बोध–कला–बलात्’ निजज्ञाननी कळाना बळथी ‘इदं कलयितुम्’ आ पदने अभ्यासवाने ‘जगत् सततं यततां’ जगत सतत प्रयत्न करो.

‘आ पद’-एम कह्युं छे ने! एटले के आ जे प्रत्यक्ष ज्ञानस्वरूप छे तेनो अभ्यास करवालायक-अनुभव करवालायक छे एम कहे छे. अहाहा...! पोतानी ज्ञानकळाना बळथी अर्थात् अंतरमां भेदज्ञान वडे प्रगट थयेलां मति-श्रुतज्ञाननी सहज कळाना बळथी जगत आखुं भगवान ज्ञानस्वरूप प्रभु आत्मानो अनुभव करवानो उद्यम करो एम मार्गनी प्रेरणा आपे छे, हवे कोई तो व्रत करो ने तप करो, भक्ति करो ने पूजा करो ने जात्रा करो एम करो-करो कहे छे पण भाई! ए क्रियाकांड तो बधोय राग छे अने एनाथी बंधन (पुण्यबंध) थाय छे. वळी तेने जे करवानो अभिप्राय छे ए तो मिथ्यात्व छे अने ते अनंत संसारनुं कारण छे; शुभरागथी धर्म थाय एवी मान्यता तो मिथ्यात्वरूप महापाप छे अने एनुं फळ अनंत संसार छे.

अहाहाहा...! आत्मा वस्तु शुद्ध चिदानंदघन प्रभु परमात्मा छे. ते एक ज प्राप्त करवायोग्य-अनुभववायोग्य छे. पण ते इन्द्रियोथी ग्राह्य नथी तथा रागना क्रियाकांडथी पण ते ग्राह्य-प्राप्त नथी. ए तो एना अनुभवनी परिणतिमात्रथी ग्राह्य छे. आचार्य कहे छे-जगतना जीवो... जुओ! सागमटे नोतरुं दीधुं छे, बधायने नोंतरुं छे; अनंत जीवराशि छे एमांथी सांभळनारा तो पंचेन्द्रियो ज छे, छतां कहे छे- जगत-जगतना जीवो निरंतर आत्मानो अनुभव करवानो सतत प्रयत्न करो-उद्यम करो; केमके तेना अनुभवथी ज पूरण स्वरूपनी प्राप्ति थई शकशे, बीजी रीते नहि.

त्यारे कोई कहे छे-महिना-बे महिनाना उपवास करे ते तप छे के नहि? ने तपथी निर्जरा छे के नहि?

भाई! उपवास करे एमां तो धूळेय तप नथी सांभळने, पछी एनाथी निर्जरा


PDF/HTML Page 2125 of 4199
single page version

तो केम होय? भाई! ए शुभरागनी क्रियाथी निर्जरा मानवी ए तो मिथ्यात्व छे. आवी वात छे.

* कळश १४३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सर्व कर्मने छोडावीने ज्ञानकळाना बळ वडे ज ज्ञाननो अभ्यास करवानो आचार्यदेवे उपदेश कर्यो छे.’

अहीं कर्मनो अर्थ विकार-विकारी परिणाम, शुभभाव, कर्मकांड थाय छे. अहा! अशुभभावनी तो शुं वात कहेवी? केमके अशुभभाव तो छोडवालायक छे ज. अहीं तो शुभभाव पण सघळोय छोडवा लायक छे एम वात छे. परंतु तेथी करीने शुभभाव छोडीने अशुभभावमां आववानी अहीं वात नथी. अहीं तो शुभाशुभभावनुं लक्ष छोडीने अंतःएकाग्र थतां जे शुद्धभाव प्रगट थाय छे ते शुद्धभाव प्रगट करवानी वात छे केमके ते शुद्धभाव ज मोक्षनुं कारण छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– पण शुद्धोपयोग तो अत्यारे (आ पंचमकाळे) होय नहि ने? अत्यारे तो आ शुभभाव ज होय ने?

समाधानः– भाई! एम नथी बापा! शुभभाव तो बंधनुं ज कारण छे. एक शुद्धोपयोग ज मुक्तिनुं कारण छे अने ते अत्यारे पण होई शके छे.

प्रश्नः– पण जयधवलमां आवे छे ने के-शुद्ध अने शुभभाव सिवाय कर्मक्षयनो बीजो उपाय नथी?

समाधानः– भाई! ए तो त्यां बीजी अपेक्षाए वात छे. शुद्धभावथी शुभाशुभ बन्ने कर्मनी निर्जरा थाय छे अने शुभभावथी अशुभनी निर्जरा थाय छे. पण कोने? सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने. अज्ञानीने तो अशुभ-मिथ्यात्व ऊभुं ज छे. तेने निर्जरा कयां छे? अज्ञानीने तो शुभभावथी एकलो बंध ज थाय छे. आवी वात छे.

अहीं कहे छे-सर्व कर्मने छोडावीने ज्ञानकळाना बळ वडे ज ज्ञाननो (आत्मानो) अभ्यास (अनुभव) करवानो आचार्यदेवे उपदेश कर्यो छे. हवे कहे छे-ज्ञाननी ‘कळा’ कहेवाथी एम सूचन थाय छे के ज्यांसुधी पूर्णकळा (केवलज्ञान) प्रगट न थाय त्यांसुधी ज्ञान हीनकळास्वरूप-मतिज्ञानादिरूप छे. हीनकळा एटले के मतिज्ञानादि अने पूर्णकळा एटले केवळज्ञान. जेम पूर्ण चंद्रनी पूर्ण कळा होय छे पण बीजना चंद्रनी पूर्ण कळा नहि पण हीन कळा होय छे. बीजना दिवसे त्रण कळा होय छे. अहा! अमासना दिवसे पण एक कळा तो चंद्रने खील्या वगर रहे ज नहि. पछी एकमे बे कळा, बीजे त्रण कळा अने प्रतिदिन वधती वधती पूनमे पूर्ण


PDF/HTML Page 2126 of 4199
single page version

सोळ सोळ कळाए चंद्र खीले छे. तेम भगवान आत्माने मति अने श्रतुज्ञान द्वारा जे बे कळा खीली छे ते आगळ वधतां ज्ञाननो अभ्यास-अनुभव करवाथी पूर्ण केवळज्ञान कळाए खीली ऊठे छे. ज्ञाननी ते कळाना आलंबन वडे ज्ञाननो अभ्यास करवाथी केवळज्ञान अर्थात् पूर्ण कळा प्रगटे छे; अर्थात् ज्ञानना अभ्यासथी-अनुभवथी मुक्ति थाय छे.

[प्रवचन नं. २८१*दिनांक ३-१-७७]

PDF/HTML Page 2127 of 4199
single page version

गाथा–२०६

किञ्च–

एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।
एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं।। २०६।।
एतस्मिन् रतो नित्यं सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन्।
एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम्।। २०६।।

हवेनी गाथामां आ ज उपदेश विशेष करे छेः-

आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे. २०६.

गाथार्थः– (हे भव्य प्राणी!) तुं [एतस्मिन्] आमां (-ज्ञानमां) [नित्यं] नित्य [रतः] रत अर्थात् प्रीतिवाळो था, [एतस्मिन्] आमां [नित्यं] नित्य [सन्तुष्टः भव] संतुष्ट था अने [एतेन] आनाथी [तृप्तः भव] तृप्त था; (आम करवाथी) [तव] तने [उत्तमं सौख्यम्] उत्तम सुख [भविष्यति] थशे.

टीकाः– (हे भव्य!) एटलो ज सत्य (-परमार्थस्वरूप) आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे-एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रमां ज सदाय रति (-प्रीति, रुचि) पाम; एटलुं ज सत्य कल्याण छे जेटलुं आ ज्ञान छे-एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय संतोष पाम; एटलुं ज सत्य अनुभवनीय (अनुभव करवायोग्य) छे जेटलुं आ ज्ञान छे-एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय तृप्ति पाम. एम सदाय आत्मामां रत, आत्माथी संतुष्ट अने आत्माथी तृप्त एवा तने वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे; अने ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे, *बीजाओने न पूछ. (ते सुख पोताने ज अनुभवगोचर छे, बीजाने शा माटे पूछवुं पडे?)

भावार्थः– ज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुं-ए परम ध्यान छे. तेनाथी वर्तमान आनंद अनुभवाय छे अने थोडा ज काळमां ज्ञानानंदस्वरूप केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. आवुं करनार पुरुष ज ते सुखने जाणे छे, बीजानो एमां प्रवेश नथी.

हवे ज्ञानानुभवना महिमानुं अने आगळनी गाथानी सूचनानुं काव्य कहे छेः-


PDF/HTML Page 2128 of 4199
single page version

(उपजाति)
अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देव–
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात्।
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण।। १४४।।

श्लोकार्थः– [यस्मात्] कारण के [एषः] आ (ज्ञानी) [स्वयम् एव] पोते ज [अचिन्त्यशक्तिः देवः] अचिंत्य शक्तिवाळो देव छे अने [चिन्मात्र–चिन्तामणिः] चिन्मात्र चिंतामणि छे (अर्थात् चैतन्यरूप चिंतामणि रत्न छे), माटे [सर्व–अर्थ– सिद्ध–आत्मतया] जेना सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध छे एवा स्वरूपे होवाथी [ज्ञानी] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण] अन्यना परिग्रहथी [किम् विधत्ते] शुं करे? (कांई ज करवानुं नथी.)

भावार्थः– आ ज्ञानमूर्ति आत्मा पोते ज अनंत शक्तिनो धारक देव छे अने पोते ज चैतन्यरूपी चिंतामणि होवाथी वांछित कार्यनी सिद्धि करनारो छे; माटे ज्ञानीने सर्व प्रयोजन सिद्ध होवाथी तेने अन्य परिग्रहनुं सेवन करवाथी शुं साध्य छे? अर्थात् कांई ज साध्य नथी. आम निश्चयनयनो उपदेश छे. १४४.

*
समयसार गाथा २०६ः मथाळुं

हवेनी गाथामां आ ज उपदेश विशेष करे छेः-

* गाथा २०६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘(हे भव्य!) एटलो ज सत्य (-परमार्थस्वरूप) आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे- एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रमां ज सदाय रति (-प्रीति, रुचि) पाम;’...

‘हे भव्य!’... अहा! तुं आम कर-एम मूळ गाथामां कह्युं छे ने? आ एमांथी ‘हे भव्य!’ एम संबोधन काढयुं छे. कहे छे-हे भव्य! एटलो ज सत्य आत्मा छे, एटलो ज परमार्थस्वरूप आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे. अर्थात् आत्मा ज्ञानप्रमाण छे, अने ज्ञान आत्माप्रमाण छे. एम तो आत्मा ज्ञानप्रमाण, दर्शनप्रमाण आनंदप्रमाण इत्यादि अनंत- गुणप्रमाण छे. पण ज्ञान प्रधान छे ने? तेथी अहीं कह्युं के एटलो ज परमार्थस्वरूप आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे. मतलब के ज्ञानथी अन्य जे कांई छे ते आत्मा नथी. आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना जे विकल्प उठे छे ते आत्मा नथी.

अहाहाहा...! शुद्ध चैतन्यप्रकाशथी प्रकाशतो चैतन्यसूर्य प्रभु आत्मा एटलो ज


PDF/HTML Page 2129 of 4199
single page version

छे के जेटलुं आ ज्ञान छे. कहे छे-आवो निश्चय करीने एटले के ज्ञानस्वरूपी-ज्ञानमात्र पोतानो आत्मा छे एम निश्चय करीने एमां ज-ज्ञानमात्रमां ज सदाय रति पाम. जुओ आ निश्चय कह्युं के ज्ञानमात्र भगवान आत्मामां ज रति पाम; केमके त्यां तने तारा भगवानना (आत्माना) भेटा थशे. अहाहा...! जेटलुं आ ज्ञान छे एटले के शरीर नहि, मन-वाणी-इन्द्रिय नहि, रागेय नहि पण जेटलुं आ ज्ञान छे तेटलो ज सत्यार्थ आत्मा छे-आम निश्चय करीने, कहे छे, एमां ज रति पाम, एमां ज रुचि कर, एमां ज प्रीति कर. बाकी तो बीजुं बधुं थोथेथोथां-दुःखी थवानो मार्ग छे. शुभरागेय दुःखी थवानो मार्ग छे.

अहीं अस्तिथी कह्युं के-ज्ञानमात्र ज आत्मा छे-एम निश्चय करीने ज्ञानमात्र वस्तुमां ज रति कर, रुचि कर; मतलब के राग-पुण्य ने निमित्तनी रुचि छोडी दे एम नास्ति तेमां आवी गयुं. आ रागादिनी रुचि छोडी दे एम नास्तिथी न कहेतां ज्ञानमात्रमां ज रति कर एम अस्तिथी केम कह्युं? केमके ज्ञानमात्रमां ज प्रीति थतां ते (रागादि) आपोआप छूटी जशे. अहीं ज्ञानमात्र कहीने रागादिथी रहित तारी चीज अंदरमां ज्ञानस्वरूप छे तेमां रति कर, तेमां जा-एम कहे छे. रागमां मत जा, केमके राग छे ते आत्मा नथी, अनात्मा छे, अजीव छे. भगवाननी भक्ति ने पूजानो जे विकल्प ऊठे छे ते अनात्मा छे; अहाहा...! आ महाव्रतादिना विकल्प जीव नहि प्रभु! आ जेटलुं ज्ञान छे, चैतन्य छे बस एटलो ज आत्मा छे. झीणी वात भाई! (उपयोगने झीणो करे तो समजाय).

अहाहाहा...! आ अरिहंत देव अने एमनां शास्त्र एम कहे छे के-तुं ज्ञानमात्र छो प्रभु! त्यां प्रीति कर, ने अमारा प्रत्येथी पण प्रीति छोडी दे. अहाहा...! तारो भगवान तो अंदर शीतळ-शीतळ चैतन्यचंद्र छे, जिनचंद्र छे; त्यां प्रीति कर. जगतमां चंद्र छे ते शीतळ होय छे पण ए तो जडनी शीतळता जडरूप छे. ज्यारे आ शांत-शांत- शांत चैतन्यचंद्रनी शीतळता तो अतीन्द्रिय शांतिमय छे. अहाहा...! आ चैतन्यचंद्र तो एकली शांतिनुं ढीम छे. एने शांतिनुं ढीम कहो के ज्ञाननुं ढीम कहो-एक ज छे. पण अहीं ज्ञानने प्रधान करीने कह्युं छे ने? तेथी कह्युं के-आ जेटलुं ज्ञान छे तेटलो ज परमार्थ आत्मा छे एम निश्चय करीने तेमां ज रति कर. गजब वात छे भाई! कहे छे- सदाय ज्ञानमात्र वस्तु प्रभु तुं छो तेमां द्रष्टि कर; तारी द्रष्टिनो विषय ज्ञानमात्र आत्माने बनाव अने एमां ज रति कर. आ एक बोल थयो, हवे बीजो बोलः-

‘एटलुं ज सत्य कल्याण छे जेटलुं आ ज्ञान छे-एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय संतोष पाम;’...


PDF/HTML Page 2130 of 4199
single page version

पहेलां, एटलो ज सत्य आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे-एम कह्युं. हवे कहे छे- एटलुं ज सत्य कल्याण छे जेटलुं आ ज्ञान छे. अहाहा...! जेटलुं अंदर ज्ञानस्वरूप छे तेटलुं ज सत्यकल्याण छे. अहाहा...! ज्ञानस्वरूप छे ते ज कल्याणस्वरूप छे अने कल्याणस्वरूप छे ते ज ज्ञानस्वरूप छे अने ए ज आत्मस्वरूप छे. माटे, तारे कल्याण करवुं होय तो कल्याणस्वरूपी प्रभु आत्मामां सदाय संतोष पाम. अहाहा...! आ ज्ञान ए ज कल्याणस्वरूप छे एम निश्चय करीने-निर्णय करीने ज्ञानमात्रथी ज संतोष पाम. जुओ, ‘ज्ञानमात्रथी ज’ संतोष पाम एम कहीने एकान्त कर्युं छे. पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. ‘सदाय संतोष पाम’-एटले कदीय रागथी संतुष्ट न था केमके त्यां संतोष छे नहि. ज्ञानमात्र-भावमां संतोष छे, रागमां क्यां संतोष छे? अहाहा...! जेटलुं आ ज्ञान छे तेटलुं ज सत्य कल्याण छे एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज संतोष पाम. आ (साचो) संतोष हो; बहारमां पैसा घटाडे (मंदराग करे) माटे एने संतोष छे एम नहि, बहारनो संतोष ए संतोष नथी, ज्ञानमात्रमां संतुष्ट रहे ते संतोष छे.

अहाहाहा...! कहे छे-ज्ञानमात्रथी ज संतोष पाम. ल्यो, आ करवानुं छे. संतोष- संतोष-संतोष-आनंदनी दशानी प्राप्तिमां संतोष पाम. अहो! आ तो एकलुं माखण छे बापा! गाथा ते कांई गाथा छे! आ एना वांचन, श्रवण अने मननमां जे विकल्प ऊठे छे ते आत्मा नथी, ज्ञान नथी, कल्याण नथी-एम कहे छे. अहीं तो पर्याय उपरथी पण द्रष्टि हठावी लई त्रिकाळी ज्ञानमात्रमां ज संतोष कर एम कहे छे केमके त्यां कल्याण छे.

हवे त्रीजो बोलः ‘एटलुं ज सत्य अनुभवनीय (अनुभव करवायोग्य) छे जेटलुं आ ज्ञान छे-एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय तृप्ति पाम.’

जोयुं? आ अस्तिथी वात करी छे; नास्तिथी कहीए तो दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, जात्रा इत्यादिना विकल्प पण अनुभव करवा लायक नथी केमके ए तो रागनुं- दुःखनुं वेदन छे. लोकोने आ एकान्त लागे छे केमके अंदर पोतानो चैतन्यमहाप्रभु बिराजे छे तेनो एने महिमा नथी. पण भाई? आ परम सत्य वात छे. भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवेली वात आचार्य कुंदकुंद अहीं लई आव्या छे. कहे छे-भगवान! तुं तारा ज्ञानमात्रभावमां ज रति कर, तेमां ज संतुष्ट था, केमके त्यां ज तारुं कल्याण छे. भाई! एटलुं ज अनुभव करवायोग्य छे जेटलुं आ ज्ञान छे. बाकी व्यवहार-रत्नत्रयनो विकल्प पण असत्य छे, अनुभव करवा लायक नथी. आवुं व्यवहारना पक्षवाळाने आकरुं लागे छे केमके तेने अनंत गुणरत्नोथी भरेला पोताना चैतन्यतत्त्वनी खबर नथी. पण शुं थाय?

अहीं तो भगवान देवाधिदेव अरिहंत-वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा-परमगुरु अने


PDF/HTML Page 2131 of 4199
single page version

तेमना केडायती संतो-मुनिवरो एम कहे छे के-प्रभु! तुं एटलो ज सत्य अनुभव करवालायक छो के जेटलुं ज्ञान छे. भगवान! तुं अमारी सन्मुख पण जोईश मा.

पण भगवान! आप वीतराग सर्वज्ञ छो ने? हा, पण अमारी (-परद्रव्यनी) सन्मुख जोतां तने राग थशे. अने रागनो अनुभव करवालायक नथी. अहाहा...! भगवान कहे छे के अमारी भक्ति, स्तुति, पूजा इत्यादिना रागनो अनुभव करवालायक नथी केमके ए तो दुःखनो-झेरनो अनुभव छे. भाई! तारो आत्मा के जे ज्ञानप्रमाण छे तेटलो ज तुं सत्य अनुभव करवालायक छो अर्थात् तारो जे त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव छे ते ज अनुभव करवालायक छे.

प्रश्नः– जो एम छे तो पछी आ संसारनां काम कयारे करवां? समाधानः– भाई! तुं तो ज्ञानस्वरूप छो ने प्रभु! तुं एक ज्ञायकस्वभावे छो ने नाथ! अहाहा...! ज्ञेयनो व्यवहारे तुं ज्ञाता छो पण ज्ञेयनुं कार्य करे एवो तुं नथी. निश्चयथी तुं स्वद्रव्य-गुण-पर्यायनो ज्ञाता छो अने व्यवहारथी परज्ञेयनो जाणनारो छो पण ज्ञेयनुं करवापणुं कयां छे तारामां? वळी ज्ञेयथी तने लाभ छे एम पण कयां छे? भाई! परज्ञेयनां कार्य हुं करुं ए तो तारी मिथ्या मान्यता छे. माटे संसारनां-रागनां कामनुं लक्ष छोडी एक आत्मानो ज अनुभव कर. ए ज अहीं कहे छे के-तेटलो ज अनुभव करवालायक छे जेटलुं आ ज्ञान छे.

तो शुं आ एकांत नथी? हा, एकांत ज छे; पण सम्यक् एकान्त छे. सम्यक् एकान्त एवा शुद्ध ज्ञानस्वरूपना अनुभवनी प्रगट थयेली दशा ते काळे पर्यायमां जे राग छे तेने पण जाणे छे अने ते अनेकान्त छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के-अनेकान्त पण सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी. भाई! पर्याय पण छे, गुणभेद पण छे, राग पण छे-आवुं अनेकान्त छे पण सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय ए बधुं कांई उपकारी नथी.

अरे! आवुं सांभळवा मळवुं पण महा मुश्केल छे. कोई महाभाग्य होय तो आ सांभळवा मळे छे. छतां अहीं कहे छे के-आ सांभळवा मळ्‌युं ने सांभळवानो जे विकल्प आव्यो ते अनुभव करवालायक नथी. अहीं तो आ कहे छे के सत्य एटलुं ज अनुभवनीय छे जेटलुं आ ज्ञान छे. अहाहा...! ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान जे एक त्रिकाळी स्वभाव छे ते ज अनुभववायोग्य छे-एम निश्चय करीने, कहे छे, एक ज्ञानमात्रमां ज सदाय तृप्ति पाम. ‘सदाय’-कह्युं ने? मतलब के एक क्षण पण रागनो अनुभव करवा लायक नथी. ‘ज्ञान’ ज सदा अनुभववायोग्य छे माटे ज्ञानमात्रमां ज सदा तृप्ति पाम. अहो! तृप्ति थाय एवुं स्थान एक ज्ञान ज छे माटे ज्ञानमात्रमां ज


PDF/HTML Page 2132 of 4199
single page version

तृप्ति पाम एम कहे छे. तृप्ति एटले शुं? के जेम बहु भूख लागी होय ने पछी चूरमाना लाडवा ने पतरवेलियां खाय-धराईने, तो तृप्त-तृप्त थई जाय छे (विशेष आकांक्षा रहेती नथी) तेम अहीं कहे छे-ज्ञानमात्रथी ज सदाय तृप्ति पाम. एटले शुं? के ज्ञानमात्र वस्तु भगवान आत्माना अनुभवमां तुं तृप्त-तृप्त थई जईश. (बीजानी-विषयोनी आकांक्षा नहि रहे). भाई! बहारमां अबजोनी संपत्ति तने थाय तोय त्यां तृप्ति नहि थाय, केमके विषयोने आधीन होय तेने तृप्ति केम थाय? त्यां तो एकलुं पाप थशे.

अहीं त्रण बोल कह्या- १. भगवान आत्मा जे ज्ञानप्रमाण-ज्ञानमात्र छे तेमां ज रति कर. २. भगवान आत्मा जे ज्ञानप्रमाण-ज्ञानमात्र छे तेमां ज संतोष पाम. ३. भगवान आत्मा जे ज्ञानप्रमाण-ज्ञानमात्र छे तेनो अनुभव करी सदाय तेमां ज तृप्ति पाम. भाई! पहेलां निर्णय तो कर के वस्तु आ छे, अंतरमां अनुभव करवालायक चीज होय तो आ एक आत्मा ज छे. आम निर्णय करीने त्यां ज रति कर, त्यां ज संतुष्ट था अने तेमां ज तृप्ति पाम.

हवे त्रणेय बोलनो सरवाळो कहे छे. - कहे छे-‘एम सदाय आत्मामां रत, आत्माथी संतुष्ट अने आत्माथी तृप्त एवा तने वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे?’

अहो! आचार्यदेव-नग्न दिगंबर संत, अकषायी शांतिना स्वामी-जगत-ने तेनी ऋद्धिनी जाहेरात करे छे. कहे छे-प्रभु! तारी ऋद्धि तो ज्ञान अने आनंद छे ने नाथ! तुं ज्ञान अने आनंदनी स्वरूपलक्ष्मी छो ने प्रभु! अहा! राग पण ज्यां तारा स्वरूपमां नथी त्यां आ बहारनी धूळ (धनादि संपत्ति) तारामां कयांथी होय प्रभु! माटे कहे छे- ए बधायनुं लक्ष मटाडी एक ज्ञानानंदस्वरूपमां ज रति कर, त्यां ज संतुष्ट था अने त्यां ज तृप्त था. अहाहा...! एमां ज लीन, संतुष्ट अने तृप्त एवा तने भगवान! वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे, वचनगम्य नहि एवा अतीन्द्रिय आनंद अने शांति प्राप्त थशे. अहा! आ ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे.

प्रश्नः– हा; पण आनुं कांई साधन छे के नहि? शास्त्रमां बीजुं साधन कह्युं छे. समाधानः– भाई! शास्त्रमां बीजुं साधन जे कह्युं छे ए तो निमित्तनुं सहचरनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे. जेमके ज्ञानमात्र आत्मानो अनुभव थतां तेमां जे प्रतीति थई ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे. हवे त्यां जे देव-गुरु-धर्मनी भेदरूप श्रद्धानो राग रह्यो छे तेने आरोप करीने व्यवहार सम्यग्दर्शन कह्युं. भाई! व्यवहार समकित यथार्थमां समकित नथी, पण निश्चय समकितनो सहचर जाणी तेने उपचारथी आरोप


PDF/HTML Page 2133 of 4199
single page version

आपीने समकित कहेवामां आवे छे; बाकी छे तो ए राग-चारित्रनो दोष ज. तेवी रीते ज्ञानमात्र आत्मामां अंतःस्थिरता-रमणता थतां जे चारित्र प्रगट थयुं ते (मोक्षनुं) यथार्थ साधन छे; अने त्यारे जे महाव्रतादि व्यवहाररत्नत्रयनो राग किंचित् विद्यमान छे तेने उपचारथी आरोप आपीने साधन कहेवामां आवेल छे. ते यथार्थमां साधन नथी, छे तो राग-चारित्रनो दोष ज पण उपचारथी तेने साधन कहेवामां आव्युं छे.

प्रश्नः– श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे के-व्यवहार साधक अने निश्चय साध्य छे. एम के-व्यवहारथी निश्चय थाय छे. आ बराबर छे ने?

समाधानः– शुं बराबर छे? भाई! ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे. आत्मा ज्यारे स्वभावनो साधक थई निर्विकल्प शांति-आनंदने प्राप्त करे छे त्यारे राग जे मंद हतो तेने आरोपथी साधक कह्यो छे. जेम निश्चय समकित थयुं त्यारे बाकी रहेला रागमां व्यवहार समकितनो आरोप आप्यो छे तेम स्वभावना साधन वडे स्वभावमां ठर्यो त्यारे जे राग बाकी छे तेने व्यवहारथी साधक कह्यो छे. आवुं ज स्वरूप छे प्रभु!

प्रश्नः– शुद्धोपयोग थवा पहेलां छेल्ले शुभोपयोग होय छे; माटे ते साधन छे. अंतरना अनुभवमां जाय छे त्यारे छेल्लो शुभोपयोग होय छे; माटे तेने साधन केम न मानवामां आवे?

समाधानः– भाई! एम नथी बापा! एनाथी (-शुभोपयोगथी) तो छूटयो छे, पछी एने साधन केम कहेवाय? रागनी रुचि छूटी त्यारे तो ज्ञाननी द्रष्टि-रुचि थई अने ज्ञाननो अनुभव थयो; हवे त्यां रागनुं साधकपणुं-साधनपणुं कयां रह्युं? शुभोपयोगथी जुदो पडीने-भेद करीने आत्मानुभव कर्यो छे; तो पछी ते (शुभोपयोग) साधन छे एम कयां रह्युं? भाई! ‘ज्ञानमात्र आत्मा छे’-एम अनुभवमां संतोष थयो त्यारे जे राग बाकी हतो तेने आरोप करीने व्यवहारे साधक कह्यो छे. आ कथनमात्र छे. भाई! आ सिवाय आमां कांईपण आडुंअवळुं करवा जईश तो आखुं तत्त्व फरी-पलटी जशे. समजाणुं कांई...? श्री जयसेनाचार्ये गाथा ३२०नी टीकामां तो आ कह्युं छे के- ज्ञानी-धर्मी एम भावना भावे छे के-‘सकळ निरावरण, अखंड, एक, प्रत्यक्ष प्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्ध पारिणामिक परमभावलक्षण, निज परमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं.’ पर्याय पण हुं नहि. तोपछी राग तो कयांय रही गयो. ल्यो, आ तो पर्याय एम भावे-ध्यावे छे के-‘सकळ निरावरण............... निज परमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं.’ आवी वात छे. (रागने उपचारथी साधन कहेवुं जुदी वात छे अने तेने साधन मानवुं ए जुदी वात छे).

अहाहाहा...! अहीं कहे छे-‘तने वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे.’ पण


PDF/HTML Page 2134 of 4199
single page version

कयारे? के ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं एवो अंतरमां अनुभव करीश त्यारे. पण एमां रागनी कांई मदद खरी के नहि? तो कहे छे-ना; रागथी तो भेद करीने त्रिकाळीनी रुचि करे त्यारे अतीन्द्रिय सुखने उत्पन्न करनार आत्मानुभव थाय छे. भाई! तुं अनादिथी रागनी ने परनी रुचिमां मरी गयो छो. अहीं कहे छे-फेरवी दे तारी रुचिने अने त्रिकाळी ध्रुव ज्ञानमां लगावी दे; तेथी तने वचनातीत अनुपम सुख थशे, भाई! तारुं स्वरूप तो सदाय जेवुं छे तेवुं ज्ञानस्वरूप कल्याणस्वरूप पूर्ण अनुभव करवालायक छे. तो तारी पर्यायने तेमां जोडी दे, तेमां जडी दे; तने उत्तम सुख थशे.

अहाहा...! ‘तने वचनथी अगोचर सुख थशे.’ प्रभु! तुं सुखना पंथे जईश. अनादिथी जे रागना-दुःखना पंथे छो ते हवे अंतरमां ज्ञानमात्र आत्माना अनुभव वडे सुखना पंथे जईश. भाई! रुचि-द्रष्टि बदलतां आखा मार्ग बदलाई जशे; दुःखनो पंथ छूटीने सुखनो-मोक्षनो पंथ थशे. परंतु भाई! रागनी रुचि छोडया सिवाय दुःखथी छूटवानो बीजो कोई उपाय नथी.

पण कोई करोडोनां दान आपे तो? भाई! करोडोनां दान आपे त्यां मंदराग होय तो पुण्य छे, पण धर्म नहि. रागनी रुचि छोडया सिवाय धर्मनो-सुखनो पंथ छे ज नहि. दानमां रागनी मंदता थतां पुण्यबंध थशे; ते वडे संयोग मळशे. संयोगीभाव छे ने? तो ते वडे पुण्यबंध थतां संयोग मळशे. पण तेथी शुं? तेथी शुं स्वभावभाव प्राप्त थशे? देव-गुरु-शास्त्रनो संयोग मळे तोय शुं? तेना लक्षे पण फरी राग ज थशे पण स्वभावनी प्राप्ति नहि थाय. रागनी रुचि मटाडी स्वभावनी रुचि करे तो ज स्वभावनी प्राप्ति थाय. अहाहा...! आवो ज मार्ग छे भाई! माटे बहारमां (-रागमां) बूडीने मरे छे ते करतां अंतरमां (स्वभावमां) बूडीने जीव ने प्रभु! तारी बहारमां मगनता छे ए तो मोत छे बापा! स्वभावमां-अंतरमां मगनता थाय ए जीवनुं जीवन छे. भाई! अंतरमां ज्ञानानंदना स्वभावनो सागर पडयो छे; तेमां अंतर्मग्न थई डूबकी लगाव; तने अभूतपूर्व सुख थशे, तने जीवनुं जीवन प्राप्त थशे.

भक्तिमां आवे छे ने के-भगवान! तारा गुण शुं कहुं? ए तो अपार छे. अनंता मुख करुं अने एक मुखमां अनंत जीव मूकुं तोय प्रभु! तारा गुणना कथननो पार आवे तेम नथी. आखी धरतीनो कागळ बनावुं, समुद्रना जळनी शाही बनावुं अने आखी- बधीय वनस्पतिनी कलम बनावुं तोय भगवान! तारा गुण लख्या लखाय तेम नथी. अहाहा...! आवा अनंत अनंत सामर्थ्यथी युक्त अनंत गुणरत्नोनो भगवान आत्मा दरियो छे. अहीं कहे छे-प्रभु! तुं त्यां जा ने! नाथ! तुं एनी रुचि कर ने! त्यां ज संतोष करीने तृप्त थई जा ने! अहाहा...! एम करतां तने


PDF/HTML Page 2135 of 4199
single page version

वचनथी अगोचर सुख थशे. आवुं हवे एकला व्यवहारना रसियाने आकरुं लागे! अहा! आ छोडयुं ने ते छोडयुं-एम व्यवहारनी-रागनी मंदतानी क्रियामां जेनी मगनता छे तेने आ आकरुं लागे! पण भगवान! रागनी रुचिरूप जे मिथ्यात्व छे ते मात्र तो ऊभुं छे. मिथ्यात्वनो त्याग कर्या विना बहारना त्यागथी शुं छे? मात्र बहारना त्याग वडे तुं एम माने छे के अमे त्यागी छीए तो अमे कहीए छीए के तुं आत्मानो त्यागी छो, केमके तने आत्मानो त्याग वर्ते छे. बाकी वस्तु पोते ज्ञानमात्र छे एम निश्चय करीने तेनी ज रुचि करीने तेनो ज अनुभव करतां मिथ्यात्वनो त्याग थाय छे अने ते धर्मनो- सुखनो पंथ छे.

कहे छे-ज्ञानमात्र आत्मामां रुचि कर, त्यां ज संतुष्ट था अने तेमां ज सदाय तृप्ति पाम. केम? केमके तेथी तने वचनथी अगोचर सुख थशे. वळी कहे छे-‘अने ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे, बीजाओने न पूछ.’

अहाहाहा...! छे? के ‘ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे.’ ‘स्वयम् एव’– एम छे ने? एटले के पोते ज ते सुखने अनुभवशे. भाई! तने ताराथी ज ते अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थशे. अरे प्रभु! तुं बहारमां भटकी-भटकीने ने पुण्य- पापना भाव करी-करीने हेरान-हेरान थई गयो छो. अहीं आचार्य तने निजघर बतावे छे. तारुं निजघर तो प्रभु! ज्ञानानंदना स्वभावथी पूरण भरेलुं पुण्य-पापना भावथी पार छे. भगवान! तुं बीजे दोराई गयो छो अने बीजे घेराई गयो छो पण नाथ! परघरमांथी नीकळीने स्वघरमां आवी जा. तारुं स्वघर तो एकलुं शीतळ-शीतळ-शीतळ शांतिनुं धाम छे. भाई! विश्वास कर; विश्वासे वहाण तरशे अर्थात् अंदर जवाशे अने ते ज क्षणे तने ताराथी ज सुखनो अनुभव थशे. अहाहाहा...! अंदर तो भगवान! सुखनो सागर उछळे छे!!! जो, अंदर जा ने अनुभव कर. तने ते ज क्षणे स्वयमेव सुख अनुभवाशे. हवे आनाथी विशेष शुं कहे? पण अरे! अज्ञानीने एनो विश्वास-प्रतीति आवतां नथी. एने तो व्यवहारथी धर्म थशे एम प्रतीति छे. अरे भगवान! जे तारामां नथी एनो तने भरोसो? अने जे तारामां छे तेनो भरोसो नहीं?

कहे छे-‘ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे, बीजाओने न पूछ’. एम के ते सुख पोताने ज अनुभवगोचर छे, बीजाने शा माटे पूछवुं पडे?-एक न्याय आ छे. वळी ‘अति प्रश्नो न कर’-आ बीजो अर्थ छे.

-बीजाओने न पूछ, अने -हवे अति प्रश्नो न कर-आम बे अर्थ छे. मतलब के अंदर निज सुखधाम प्रभु आत्मा छे तेमां समाई जा, तने ते ज क्षणे सुखनी-अतीन्द्रिय सुखनी अनुभूति


PDF/HTML Page 2136 of 4199
single page version

थशे. आ त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्माए दिव्यध्वनि द्वारा जे कह्युं ते संतो अनुभव करीने वाणी द्वारा जगतने जाहेर करे छे.

जुओ, विदेहक्षेत्रमां त्रणलोकना नाथ श्री सीमंधर भगवान साक्षात् विराजे छे. आचार्य कुंदकुंद त्यां भगवान पासे गया हता, आठ दि’ त्यां रह्या हता अने तेमनी वाणी सांभळी हती. तेओ कहे छे-भगवाननो आ पोकार छे के प्रभु! तुं पूर्णानंदनो नाथ छो; तुं ज्ञानथी, आनंदथी, शांतिथी, चारित्रथी, सुखथी, स्वच्छताथी, प्रभुता ने इश्वरताथी इत्यादि अनंत गुणोथी भरेलो पूर्ण एक ज्ञानमात्र प्रभु आत्मा छो. तेनी रुचि कर, तेने पोसाणमां ले. भाई! तने जे बीजुं (रागादि) पोसाय छे तेने छोडी दे. रागना पोसाणमां भाई! तने ठीक लागे छे पण ते नुकशानकारक छे. माटे तारा प्रभुने- निर्मळानंदना नाथने-पोसाणमां ले, तेनी ज रुचि कर अने तेमां ज लीन थई जा. हवे कोईने पूछवा रोकाईश मा केमके आ ज कर्तव्य छे, आ ज सुखनी अनुभूतिनो मार्ग छे. ल्यो, आवी ऊंची गाथा छे! एकलो माल छे! अहो! आचार्य भगवंते जगतने न्याल करी दीधुं छे!

* गाथा २०६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुं- ए परम ध्यान छे.’

शुं कह्युं? के ‘ज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं.’ जुओ, अहीं ‘रति कर’नो अर्थ अंदर ‘लीन थवुं’ एम कर्यो छे. अहाहा...! ज्ञान ने आनंद ते आत्मानो स्वभाव छे अने भगवान आत्मा स्वभाववान छे. आवा ज्ञानानंदस्वभावी आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुं-ए परम ध्यान छे. जुओ, मूळ आनुं नाम ध्यान छे. विकल्पथी छूटीने ज्ञानानंदस्वभावमां लीन थवुं ते ध्यान छे अर्थात् निर्विकल्प दशामां-ध्यानमां आवो ज्ञानानंदस्वभाव आवे छे-एम कहेवुं छे.

कहे छे-ज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुं-ए परमध्यान छे. जोयुं? ‘परमध्यान छे’ एम कह्युं छे. मतलब के आत्मामां लीन थाय छे त्यारे ध्याननी निर्विकल्प दशा प्रगट थाय छे अने त्यारे अन्य विकल्प रहेता नथी, विकल्पनी विचारधारा समाप्त थई जाय छे. अहा! केवो सरस खुलासो कर्यो छे! भावार्थकारे सत्यने स्पष्ट मूकयुं छे.

भाई! तारुं ध्यान जे परलक्षमां वळेलुं छे ए तो आर्त्त-रौद्रध्यान छे; ए दुःखकारी छे. माटे हवे धर्मध्यान प्रगट कर. ते धर्मध्यानना बे प्रकार छे-१. निश्चय अने २. व्यवहार. वस्तुनुं-आत्मानुं परम ध्यान ते निश्चयधर्मध्यान छे. धर्मनो धरनार धर्मी ज्यां पडयो छे, द्रव्य-गुण ज्यां परिपूर्ण पडया छे त्यां एकाग्रता करी


PDF/HTML Page 2137 of 4199
single page version

लीन थवुं ते निश्चयधर्मध्यान छे अने जे शुभविकल्प छे ते व्यवहारधर्मध्यान छे. (व्यवहारधर्मध्यान ए आरोपित कथनमात्र धर्मध्यान छे अने ते धर्मीने-ज्ञानीने होय छे.)

‘एकाग्र चिंतानिरोधो ध्यानम्’ एक + अग्र - नाम एक आत्माने द्रष्टिमां लईने तेमां लीन थतां चिंतानो-विकल्पनो निरोध थई जाय छे तेनुं नाम ध्यान छे. अहाहा...! वस्तु-पूर्णानंदनो नाथ परिपूर्णस्वभावे प्रभु आत्मा छे. तेमां एकाग्र थई तेमां ज लीन थवुं ते परमध्यान छे. हवे कहे छे-‘तेनाथी वर्तमान आनंद अनुभवाय छे अने थोडा ज काळमां ज्ञानानंदस्वरूप केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे.’ जुओ, पहेलां पूर्णस्वरूप प्रभु आत्मानी ध्यानमां प्राप्ति ते ध्याननी प्रथम दशा छे, अपूर्ण दशा छे. तेनाथी, कहे छे, वर्तमान आनंद अनुभवाय छे अने पछी थोडा ज काळमां एटले ध्यान जामतां जामतां परिपूर्ण दशा थतां ज्ञानानंदस्वरूप केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे अर्थात् तेमां पूर्णज्ञान अने पूर्णआनंदनी प्राप्ति-अनुभव थाय छे. समजाणुं कांई...?

द्रव्यसंग्रहनी ४७ मी गाथामां आवे छे ने के-

दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा

बे प्रकारनो मोक्षमार्ग-साचो अने आरोपित मोक्षमार्ग-मुनिने ध्यानमां प्राप्त थाय छे. अहाहा...! अंदर ध्येयने (शुद्ध आत्मद्रव्यने) ग्रहतां-पकडतां जे विकल्प विनानी एकाकार-चिदाकार दशा थाय छे ते ध्यान छे अने ए ध्यानमां बे प्रकारनो मोक्षमार्ग प्राप्त थाय छे. त्यां शुद्ध रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते निश्चय (सत्यार्थ) मोक्षमार्ग छे, ज्यारे तेनी साथे जे राग बाकी रहे छे ते व्यवहार (आरोपित) मोक्षमार्ग छे. आ बन्ने मोक्षमार्ग प्रभु! तने ध्यानमां प्राप्त थशे. अरे! परंतु जेने हजु पोते केवो छे, केवडो छे- एनी खबरेय नथी तेने ध्यान केवुं? तेने मोक्षमार्ग केवो?

अहीं कहे छे-प्रभु! तुं शुद्ध आत्मद्रव्यमां लीन था, एमां ज संतुष्ट था, एमां ज तृप्त था अर्थात् एमां ज तारुं ध्यान लगाव. तेथी तने वर्तमानमां आनंदनो अनुभव थशे अने थोडा ज काळमां (ध्यानना द्रढ-द्रढतर-द्रढतम अभ्यासथी) तने ज्ञानानंदस्वरूप केवळज्ञाननी प्राप्ति थशे. अहाहा...! ध्यान वडे प्रभु! तने अल्पकाळमां पूर्णदशानी प्राप्ति थशे. वळी कहे छे-‘आवुं करनार पुरुष ज ते सुखने जाणे छे, बीजानो एमां प्रवेश नथी.’ (ब्रह्मलीन पुरुष ज परमानंदने अनुभवे छे, बीजा मिथ्याद्रष्टिओने अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थतो नथी). आवी वात छे.

*

PDF/HTML Page 2138 of 4199
single page version

हवे ज्ञानानुभवना महिमानुं अने आगळनी गाथानी सूचनानुं काव्य कहे छेः-

* कळश १४४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यस्मात्’ कारण के ‘एषः’ आ (ज्ञानी) ‘स्वयम् एव’ पोते ज ‘अचिंन्त्यशक्तिः देवः’ अचिन्त्यशक्तिवाळो देव छे...

शुं कह्युं? भगवान आत्मा अचिन्त्यशक्तिवाळो एटले के चिंतनमां-विकल्पमां न प्राप्त थाय एवो देव-प्रभु छे. तथा तेनो जेणे अंतरमां अनुभव कर्यो छे ते ज्ञानी पण पोते अचिन्त्यशक्तिवाळो देव छे. अहाहा...! जे चिंतवनाथी जाणी शकाय नहि ते अचिन्त्यशक्तिवाळो आत्मा पोते ज देव अने भगवान छे. अहाहा...! ए तो पोते पोताना स्वभावथी (स्वभावना लक्षे, स्वानुभूतिमां) जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता-द्रष्टा- स्वभावी प्रभु आत्मा छे.

कोईने वळी थाय के व्यवहार होय तो निश्चय थाय ने? निमित्त होय तो उपादानमां कार्य थाय ने?

भाई! ‘निमित्तथी थयुं’ एम कहेवुं ए तो निमित्तनी कथनशैली छे; बाकी निमित्तथी उपादानमां कांई ज थतुं नथी. जुओने! अहीं शुं कहे छे? के भगवान आत्मा अचिन्त्य देव छे; अर्थात् तेनी दिव्यशक्तिने प्रगट करवा कोई रागनी-व्यवहारनी अपेक्षा नथी. अहीं तो धर्मी-ज्ञानी पण अचिन्त्य देव छे एम कह्युं छे केमके ज्ञानीने अचिन्त्य देव एवो जे आत्मा ते स्वानुभवमां प्रत्यक्ष अनुभवायो छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! जेणे स्वानुभवमां आत्मा प्रगट अनुभव्यो छे एवो धर्मी-ज्ञानी अचिन्त्य देव छे. तथा ‘चिन्मात्र–चिन्तामणिः’ ते चिन्मात्र-चिंतामणि छे. जुओ, धर्मी जीव चैतन्यचिंतामणि रत्न छे; केमके चिन्मात्र-चिंतामणि एवो आत्मा तेणे हस्तसिद्ध कर्यो छे. जेम चिंतामणि रत्न जेना हाथमां होय तेने ते जे चिंतवे ते प्राप्त थाय छे; तेम भगवान आत्मा चैतन्यचिंतामणि छे. एटले शुं? के तेमां जे एकाग्र थाय तेने निर्मळ चैतन्यरत्नो (ज्ञान, दर्शन आदि) प्राप्त थाय छे. भाई! राग चैतन्य-चिंतामणि नथी. आ दया, दानना विकल्प के व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प जे छे ते चैतन्यचिंतामणि नथी केमके तेमां एकाग्र थतां चैतन्यरत्नो (सम्यग्दर्शन आदि) प्रगटतां नथी, पण जीव पामर दशाने ज प्राप्त थाय छे. (चतुर्गतिने ज प्राप्त थाय छे).

जेम जेने पुण्य होय छे तेने देव-अधिष्ठित चिंतामणिरत्न प्राप्त थाय छे. तेम जेने अंतरमां अचिन्त्यदेव चिन्मात्रचिंतामणि प्रभु आत्मा छे एवो अनुभव थयो छे तेने ते (-आत्मा) प्राप्त थाय छे.

अहा! आ निर्जरा अधिकार भाई! सूक्ष्म छे. अरे! अज्ञानी तो एम कहे


PDF/HTML Page 2139 of 4199
single page version

छे के उपवास कर्यो एटले निर्जरा थई गई केमके उपवास करवो ते तप छे अने तपथी निर्जरा छे, तथा निर्जरा ते मोक्षनुं कारण छे.

भाई! उपवास करवो एमां तो धूळेय तप नथी सांभळने. एने तप कह्युं छे ए तो निमित्तथी व्याख्या छे. बाकी वास्तविक तप तो एने कहीए के जेमां अचिंत्यदेव चिन्मात्रचिंतामणि प्रभु आत्मानो आश्रय अने अनुभव होय. जेने आवो अनुभव छे ते (सत्यार्थ) तपनो करनारो छे अने तेने आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो पुरुषार्थ थाय छे. अहा! आनुं नाम तप, आनुं नाम धर्म ने आनुं नाम मोक्षनो मारग छे.

बहारमां जे देव-अधिष्ठित चिंतामणिरत्न छे ए तो जड पथ्थर छे. (ते निराकुळ आनंद देवा समर्थ नथी). ज्यारे आ भगवान आत्मा चैतन्यचिंतामणि रत्न छे. आ चैतन्यचिंतामणिरत्ननी अंतरएकाग्रता वडे अनुभवदशा प्रगट करी तेनो जेटलो अनुभव करे तेटलो निराकुळ अनुपम आनंद आवे एवुं ए महा रत्न छे. अहाहा...! जेम भगवान परमात्मा (अरिहंतादि) चैतन्यचिंतामणिने प्राप्त करी पूरण आनंदने प्राप्त थया छे तेम धर्मीने पण सम्यग्दर्शनमां चैतन्यचिंतामणि रतननी प्राप्ति छे अने जेटलो जेटलो ते अंतरएकाग्रता वडे अंतररमणता करे छे तेटला तेटला निराकुळ आनंदनी तेने प्राप्ति थाय छे एम कहे छे. (पूरण एकाग्रता सिद्ध थतां पूर्ण आनंदनी प्राप्ति थई जाय छे). आवी वात छे; समजाणुं कांई?

हवे कहे छे-ज्ञानी पोते ज अचिन्त्य देव अने चिन्मात्र-चिंतामणि छे माटे, ‘सर्व–अर्थ–सिद्ध–आत्मतया’ जेना सर्व अर्थ सिद्ध छे एवा स्वरूपे होवाथी...

जोयुं? व्यवहारना विकल्पथी भेद करीने चैतन्यचिंतामणि रतन अने पोते ज देव छे एवा आत्मामां जेनी द्रष्टि पडी छे तेनुं स्वरूप कहे छे के -तेने भगवान आत्मानी स्वानुभवमां प्राप्ति थई होवाथी जेना सर्व अर्थ सिद्ध थया छे एवा स्वरूपे ते थयो छे. जुओ, छे अंदर? के ‘जेना सर्व अर्थ सिद्ध थया छे एवा स्वरूपे होवाथी’... अहाहा...! भगवान आत्मानो द्रष्टिमां लाभ थयो तो तेनां सर्व प्रयोजन सिद्ध थई गयां एम कहे छे.

प्रश्नः– शुं तेने परिपूर्ण सुख प्राप्त थई गयुं? समाधानः– भाई! तेने परिपूर्ण सुख प्राप्त थशे ज; तेथी तेनां सर्व प्रयोजन सिद्ध थई गयां एम कह्युं छे. जेने आत्मलाभ थयो अने सम्यग्दर्शन थयुं तेने वर्तमानमां निराकुल आनंदनी प्राप्ति छे अने अल्पकाळमां पूरण आनंदनी प्राप्ति थशे. माटे तेनां सर्व प्रयोजन सिद्ध थई गयां छे-एम कहे छे.

अहा! आवो पोते देवाधिदेव परमात्मस्वरूपे अंदर सदा बिराजमान छे छतां


PDF/HTML Page 2140 of 4199
single page version

अज्ञानी तेने (-पोताने) भूलीने पद्मावती अने क्षेत्रपाल आदिने आराधे छे! अरे! आ तने शुं थयुं छे प्रभु? आ तुं कयां रखडवा जा’ छो? भगवान! तुं चैतन्य-चिंतामणि छो ने! तेने ओळखी तेमां जा ने! त्यां तने अद्भुत आनंद आवशे, मानो सर्व अर्थ सिद्ध थई गयां होय तेवो निराकुळ आनंद प्राप्त थशे. आवी वात छे. भाई! आ परम सत्य वस्तु छे. आ कोई कल्पनानी के कोईना पक्षनी चीज नथी.

अहाहा...! कहे छे-भगवान आत्मा चैतन्यचिंतामणि अने अचिंत्य शक्तिवाळो देव छे. तेनुं ज्यां अंतरमां भान थयुं त्यां सर्व अर्थ सिद्ध थई गया. हवे कहे छे-

‘ज्ञानी’ ज्ञानी ‘अन्यस्य परिग्रहेण’ अन्यना परिग्रहथी ‘किम् विधत्ते’ शुं करे?

गजब वात छे भाई! कहे छे-ज्ञानीने अन्य परिग्रहणथी एटले के शुभाशुभ क्रियाथी-पुण्य-पापना परिणामथी अने द्रव्य-गुण आदिना भेदना विचारोथी हवे शुं काम छे? शुं कह्युं ए? के चिंतामणि देव भगवान आत्मा ज्यां अंतरमां प्राप्त थयो-ग्रहणमां आव्यो त्यां हवे तेने अन्य परिग्रहणथी-जडना परिग्रहणथी शुं काम छे? अंदरमां शुभाशुभ विकल्पो जे ऊठे छे एनाथी एने शुं प्रयोजन छे? हवे आवी वात छे त्यां अज्ञानी कहे छे के व्यवहारथी-शुभरागथी निश्चय थाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानीने एनाथी (व्यवहारना विकल्पथी) शुं प्रयोजन छे? बेमां आवडो मोटो फेर छे! समजाणुं कांई...?

अहाहा...! कहे छे-ज्ञानी अन्य परिग्रहण शा माटे करे? ते दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना विकल्पोनुं परिग्रहण शुं काम करे? केमके एने हवे कांई करवानुं नथी. जेने अनंत गुणनुं गोदाम-संग्रहालय एवो चिंतामणिस्वरूप भगवान आत्मा ज्यां मळ्‌यो त्यां एने आवा (-जड) विकल्पोनो संग्रह करीने शुं काम छे? जेम कोईने चिंतामणि रत्न हाथ आव्युं छे ते पैसा आदि सामग्रीने संघरतो नथी केमके तेने ज्यारे जे जोईए त्यारे ते सर्व चिंतवेलुं मळी जाय छे. तेम भगवान आत्मा जे चैतन्यचिंतामणि दिव्यशक्तिनो धारक पोते देव छे ते जेने प्राप्त थयो ते विकल्पोना परिग्रहणमां पडतो नथी केमके स्वस्वरूपमां ज एकाग्र थतां निराकुल आनंदनी प्राप्ति थई जाय तेवो आत्मा पोते ज देव छे. आवुं पोतानुं स्वरूप छे तोपण अरे! पैसाना ढगला अने शरीरनी सुंदरता- नमणाई अने वचननी मधुरता इत्यादिनी रुचि आडे अज्ञानीने तेनो महिमा आवतो नथी! परना माहात्म्यमां रोकाईने ते स्वने भूली गयो छे! पण भाई! एनुं फळ बहु आकरुं आवशे बापा!

अही कहे छे-धर्मीने विकल्पथी शुं प्रयोजन छे? व्यवहारथी शुं प्रयोजन छे? तो शुं धर्मीने व्यवहार होतो ज नथी? समाधानः– व्यवहार हो; धर्मीने (यथासंभव) व्यवहार होय छे पण एनुं