Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 205 ; Kalash: 143.

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छे तेनी ओथे जा, तेनो आश्रय कर; भाई! भव टळीने तारो मोक्ष थशे, तने पूर्ण आनंद थशे. अहो! आवुं ज्ञानना अवलंबननुं अचिंत्य माहात्म्य छे!

पद्मनंदी पंचविंशतिमां कह्युं छे के आ चैतन्यस्वरूपनी वार्ता पण जेणे प्रसन्न चित्ते सांभळी छे ते भावि मोक्षनुं भाजन छे. मोक्षनुं भाजन छे एटले के तेनो मोक्ष थशे ज, अल्पकाळमां थशे. प्रसन्न चित्ते एटले अंतरमां महिमा लावी अत्यंत आल्हादथी भगवान चैतन्यस्वरूप, अबंधस्वरूप आत्मानी वार्ता पण जेणे सांभळी छे ते मोक्षनुं पात्र थशे. जेमणे व्यवहारने बंधनुं कारण कह्युं छे ते दिगंबर संत पद्मनंदी मुनिराज आम कहे छे के अबंधस्वरूपनी वात पण प्रसन्न चित्ते सांभळनार अबंध दशाने-मोक्ष दशाने पामशे.

तो शुं अबद्धस्पृष्टनी वार्ता सांभळी छे तेने समकित छे के ते मोक्षनुं भाजन छे? अरे भाई! जेने स्वरूपनो महिमा जाग्यो अने प्रसन्न चित्ते तेना स्वरूपने सांभळ्‌युं तेने ‘हुं अबद्ध छुं’ एवो निर्णय थयो छे. भले ते विकल्परूप हो, पण ‘आ हुं छुं’ एम स्वरूपनो पक्ष करनारने रागनो-व्यवहारनो पक्ष छूटी जाय छे अने तेथी ते स्वरूपनो आश्रय करी अल्पकाळमां मुक्तिने पात्र थई जाय छे. अहाहा...! जेणे चित्चमत्कारस्वरूप भगवान आत्माना अपरिमित सामर्थ्यनी वात उल्लसित वीर्यथी सांभळी छे तेने ‘हुं अबंध छुं, मुक्तस्वरूप छुं, आनंदनुं धाम छुं’-एम अंतरमां पक्ष- प्रेम थयो छे अने तेथी ते रागथी भिन्न पडीने भाविमां स्वरूपनो आश्रय लई अवश्य मुक्तिने पात्र थई जशे. जुओ! आ स्वरूपनी वार्ता सांभळवानो महिमा! स्वरूपना आश्रयनुं तो कहेवुं ज शुं?

अही दश बोलथी कहे छे- १. ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं, केमके २. तेना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति थाय छे, ३. ते वडे भ्रान्तिनो नाश थाय छे, ४. भ्रान्तिनो नाश थतां आत्मानो लाभ थाय छे, प. ते वडे अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे, अने ६. तेनाथी कर्म जोरावर थई शकतुं नथी, तथा ७. राग-द्वेष-मोह उत्पन्न थता नथी, ८. तेनाथी कर्म आस्रवतुं नथी, नवुं कर्म बंधातुं नथी, ९. पूर्वनां बंधायेलां कर्म निर्जरी जाय छे तथा १०. समस्त कर्मनो अभाव थतां साक्षात् मोक्ष थाय छे.


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अहा! आ दस बोल लीधा छे.

* गाथा २०४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्मना क्षयोपशम अनुसार ज्ञानमां जे भेदो थया छे ते कांई ज्ञानसामान्यने अज्ञानरूप नथी करता, उलटा ज्ञानने प्रगट करे छे.’

जुओ, शुं कहे छे? के कर्मना क्षयोपशम अनुसार एटले के कर्मना विघटनने अनुसरीने जे ज्ञानमां मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदि विशेषो-भेदो पडे छे ते ज्ञानसामान्यने अज्ञानरूप नथी करता, उलटुं ज्ञानने ज प्रगट करे छे, सामान्यज्ञाननी ज तेओ पुष्टि करे छे. अहीं निर्मळ ज्ञानना भेदो जे प्रगट थया ते कर्मना क्षयोपशम अनुसार थया छे एम कह्युं ए तो निमित्तथी कथन छे, बाकी ते भेदो पोतानी एवी क्षयोपशम-योग्यताथी ज प्रगट थया छे. कहे छे-ज्ञानना आ भेदो ज्ञानसामान्यने ज प्रगट करे छे.

‘माटे भेदोने गौण करी एक ज्ञानसामान्यनुं आलंबन लई आत्मानुं ध्यान धरवुं; तेनाथी सर्व सिद्धि थाय छे.’

जुओ, भेदोने गौण करी... एम कह्युं ने? मतलब के भेदो छे, ते भेदो छे ज नहि एम नथी. परंतु तेमने गौण करी अर्थात् तेमनुं लक्ष छोडी दई निश्चय वस्तु सामान्य छे तेने लक्षमां लई अर्थात् ज्ञानसामान्यनुं आलंबन लई आत्मानुं ध्यान धरवुं एम कहे छे. ल्यो, आ करवानुं छे, केमके तेनाथी सर्व सिद्धि थाय छे. अहीं व्रतादि करवानी वात ज नथी. अहीं तो भगवान आत्माने ध्याननो विषय बनावी-ध्यानमां आत्माने ध्येय बनावी-तेनुं ध्यान करतां सर्व सिद्धि थाय छे एम कहे छे; अर्थात् तेना ध्यानथी क्रमे संवर, निर्जरा ने मोक्षनी प्राप्ति अने आस्रव-बंधना अभावनी सिद्धि थाय छे. आवो मार्ग छे!

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १४१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘निष्पीत–अखिल–भाव–मण्डल–रस–प्राग्भार–मत्ताः इव’ पी जवामां आवेलो जे समस्त पदार्थोना समूहरूपी रस तेनी अतिशयताथी जाणे के मत्त थई गई होय एवी...

शुं कह्युं आ? के निर्मळ ज्ञाननी पर्याय समस्त पदार्थोना समूहरूपी रसने पी बेठी छे अने तेने अतिशयताथी जाणे के मत्त थई गई छे. अर्थात् श्रुतज्ञाननी पर्याय पण त्रणकाळ-त्रणलोकने जाणे छे अने तेथी जाणे मत्त थई छे. आवुं एनुं ज्ञानसामर्थ्य छे छतां अरे! अज्ञानीए एने दया, दान आदि रागमां वेची दीधो छे!


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प्रश्नः– पण दया तो पाळवी जोईए ने? समाधानः– कई दया बापु? परनी दया उपर लक्ष जाय त्यां तो राग थाय छे अने राग तारुं स्वरूप नथी; धर्मनुंय राग स्वरूप नथी भाई! परनी दया हुं पाळी शकुं छुं एवी मान्यतानो भाव तो मिथ्यात्व छे केमके परनी दया जीव करी शकतो ज नथी. भगवान! सांभळने भाई! तारी दया-स्वदया ते अहिंसा धर्म छे, ज्यारे आ परनी दयानो भाव तो रागमय छे अने एने तो भगवान वास्तवमां हिंसा कहे छे. (जुओ पुरुषार्थसिद्धयुपाय छंड ४४). लोकोने आ आकरुं लागे छे, पण शुं थाय? (ज्यां स्वरूप ज आवुं छे त्यां?)

प्रश्नः– पण सिद्धांतमां दयाने धर्म कह्यो छे? समाधानः– हा, पण भाई! ते कई दया? बापु! ए स्वदयानी-वीतरागी परिणामनी वात छे. जेम बीजा जीवने मारी नाखवानो भाव एटले के टकता तत्त्वनो ईन्कार करवो ते हिंसा छे, तेम भाई! जेवडुं तारुं स्वरूप छे-जे तारुं टकतुं पूर्ण तत्त्व छे- तेनो ईन्कार करवो ते पण हिंसा छे. हुं आवडो (पूर्ण) नहि, पण हुं रागवाळो, पर्यायवाळो ने रागथी-व्यवहारथी प्राप्त थाउ तेवो छुं-एम जेणे पोतानुं जेवडुं स्वरूप छे तेवडुं मान्युं नथी तेणे पोतानी हिंसा करी छे. भाई! स्वस्वरूपनो स्वीकार करी तेमां ज अंतर्निमग्न थवुं ते स्वदया छे अने ते धर्म छे. सिद्धांतमां स्वदयाने धर्म कह्यो छे. (पर दयाने धर्म कहेवो ए तो उपचार छे).

जुओ, निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा अति निर्मळ छे. अहीं कहे छे-तेना आश्रये प्रगट थयेली निर्मळ पर्याय जाणे मत्त थई गई छे. केम? तो कहे छे के ते समस्त पदार्थोना समूहरूपी रसने पी बेठी छे. एटले शुं? के अनंता पदार्थोने जाणवानो पोतानी पर्यायमां जे रस छे ते रसनी अतिशयता वडे जाणे ते मत्त थई गई छे. अहाहा...! ज्ञाननी वर्तमान पर्याय वडे त्रिकाळी ज्ञायकने जाणवामां आवतां ते पर्याय बीजा अनंत द्रव्य-गुण-पर्यायने पण जाणे छे अने तेथी जाणे हवे बधुं ज जाणी लीधुं, हवे कांई ज जाणवुं बाकी नथी-एम मत्त थई गई छे. समजाणुं कांई...? अहा! जेणे एकने (शुद्ध ज्ञायकने) जाण्यो तेणे पर्यायमां बधुं जाण्युं. आवी व्याख्या अने आवो धर्म!

प्रश्नः– शुं जात्रा करवी, परनी दया पाळवी, व्रत करवां, उपवास करवा इत्यादि धर्म नथी?

समाधानः– ना, ते धर्म नथी. केम? केमके बापु! ए तो बधा रागना-शुभरागना अनेक प्रकार छे. धर्म तो एक वीतरागभावमात्र छे. शुद्ध चैतन्यस्वभावी प्रभु आत्मामां एकाग्र थवाथी जे निर्मळ निर्विकार वीतरागी परिणति-पर्याय प्रगट


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थाय ते अहिंसा धर्म छे अने ते ज सत्य, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रहरूप धर्मनो परिणाम छे. आवी वात छे.

अहा! कहे छे-ज्ञाननी निर्मळ पर्याय जाणे मत्त थई गई छे. भाई! ज्यां आत्मानी ज्ञानपर्यायमां पोतानुं शुद्ध त्रिकाळी परिपूर्ण स्वरूप जणायुं तो ते पर्यायमां विश्वना जेटला पदार्थो छे ते बधायनुं ज्ञान पण समाई जाय छे. अहाहा...! निर्मळ ज्ञाननी पर्याय ज्ञानरसनी अतिशयता वडे स्वने अने परने पीने-जाणीने जाणे मत्त थई गई छे. एम के हवे शुं जाणवानुं बाकी छे? झीणी वात छे प्रभु! आत्मा सर्वज्ञस्वभावी प्रभु छे; तेनी ज्यां अंतर्द्रष्टि थई त्यां ज्ञाननी पर्यायमां आखो त्रिकाळी भगवान ज्ञाननो सूर्य प्रभु आत्मा जणायो अने ते पर्यायमां जगतना समस्त पदार्थोनुं ज्ञान पण समाई गयुं; जाणे के ते पर्याय स्व अने परने-समस्त पदार्थोने ज्ञानमां पी बेठी न होय! अहाहाहा...! श्रुतज्ञाननी पर्याय पण पोताना स्वपरप्रकाशकपणाना सामर्थ्य वडे स्व-परने-समस्त पदार्थोने पीने-जाणीने जाणे मत्त थई गई छे. आवी वात अज्ञानीने बेसती नथी. न ज बेसे ने? केमके शुद्ध चैतन्यस्वरूपी भगवान आत्मानां द्रष्टि अने अनुभव विना पोते जे कांई आचरण करे छे ते चारित्र छे एम एने मनाववुं छे. परंतु भाई! ए कांई तने लाभनुं कारण नथी.

प्रश्नः– चारित्र छे ते धर्म छे; आप एकान्त केम करो छो? समाधानः– चारित्र छे ते धर्म छे-ए तो यथार्थ छे. परंतु तेनुं मूळ तो सम्यग्दर्शन छे. माटे विना सम्यग्दर्शन चारित्र-आचरण आव्युं कयांथी? भाई! सम्यग्दर्शन विनानां जेटलां व्रत, तप वगेरे आचरण छे तेने तो भगवाने बाळव्रत ने बाळतप कह्यां छे. अने ज्ञानीने पण जे रागनुं आचरण छे ते चारित्र कयां छे? एने स्वरूपमां जे रमणता थाय ए चारित्र छे. आवुं लोकोने आकरुं पडे एटले खळभळी ऊठे छे. पण शुं थाय?

अहीं तो कहे छे के-सम्यग्ज्ञाननी-श्रुतज्ञाननी पर्याय हो तोपण तेमां स्वस्वरूप जे त्रिकाळी पूर्ण छे तेनुं ज्ञान थाय छे अने तेमां जगतना जेटला द्रव्य-गुण-पर्याय छे ते बधानुं पण ज्ञान थाय छे; अर्थात् ते ज्ञान बधाने पी गयुं छे. पी गयुं छे एटले? एटले के ए ज्ञाननुं एवुं सामर्थ्य छे के छे एनाथी अनेकगणुं विश्व होय तोपण तेने ते जाणी ले. अहो! सम्यग्ज्ञाननुं कोई अचिंत्य सामर्थ्य छे! अहा! जेने पोतानी सर्वज्ञशक्तिनुं-परमात्मशक्तिनुं अंतरमां भान थयुं तेनी ज्ञान-पर्यायनुं अद्भुत चमत्कारी सामर्थ्य छे के ते जगतना समस्त स्व-पर पदार्थोने-द्रव्य-गुण-पर्यायने पी ले छे, जाणी ले छे. आवी वात छे.


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प्रश्नः– पण लोको आवी वातथी राड पाडे छे ने? उत्तरः– शुं करीए भाई! तेओ तो पोतानी (वर्तमान) योग्यता प्रमाणे एम करे छे अने तेमने जे भास्युं होय ते कहे छे. पण एथी कांई तेमनो तिरस्कार न होय. ते पण भगवान छे ने अंदर? १७-१८ गाथामां आवे छे ने के ज्ञाननी वर्तमान जे व्यक्त अवस्था छे ते अवस्थानुं स्वरूप ज एवुं छे के तेमां आखुं द्रव्य ज्ञेय तरीके जणाय ज छे. अज्ञानीनी पर्यायमां पण आखो ज्ञायक जणाय छे पण तेनी अंदर ज्ञायक उपर द्रष्टि नथी, द्रष्टि बहार छे तेथी ते बीजो अध्यवसाय करे छे के-हुं राग छुं, अल्पज्ञ छुं, पर्यायमय छुं. हवे त्यां शुं करीए? (द्रष्टि बदलातां बधुं सुलटी जशे)

अहीं कहे छे-अनंत द्रव्य-गुण-पर्यायोना समूहने जे पी गई छे एवी ‘यस्य इमाः अच्छ–अच्छाः संवेदनव्यक्तयः’ जेनी आ निर्मळथी पण निर्मळ संवेदन-व्यक्तिओ ‘यद् स्वयं उच्छलन्ति’ आपोआप उछळे छे,...

शुं कह्युं? के निर्मळथी पण निर्मळ संवेदनव्यक्तिओ आपोआप उछळे छे एटले के शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये स्वयं प्रगट थाय छे. जुओ, परना आश्रये तो मलिनतानी पर्यायो प्रगट थाय छे. चाहे तो देव-गुरु-शास्त्रना आश्रये (लक्षे) पर्याय थाय तोपण ते मलिन ज छे केमके तेओ परद्रव्य छे अने परद्रव्यना आश्रये राग ज थाय छे. परंतु स्वद्रव्यनो आश्रय लेतां निर्मळथी पण निर्मळ एटले अति अति निर्मळ अर्थात् वधती- वधती निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय छे. आवी वात बिचारो सांभळवा नवरो कयारे थाय? धंधो-वेपार ने स्त्री-पुत्र-परिवारने साचववानी पापनी मजुरी आडे एने नवराश कयां मळे? हुं कर्ता-हर्ता छुं, ने आवो छुं ने तेवो छुं-एम मान लेवा आडे नवरो थाय तो आ सांभळे ने?

अरे! अज्ञानी अनंतकाळमां आम ने आम मरी गयो छे. अहा! एणे जीवने मारी नाख्यो छे! पोते चैतन्यरत्नोनो समुद्र होवा छतां परथी पोतानी मोटप बताववामां एणे जीवता जीवने मारी नाख्यो छे, एटले के पर्यायमां तेनो (पोतानो) ईन्कार कर्यो छे. बाकी वस्तु जे छेपणे छे ते कयां जाय? श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे ने के-

“सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे, कां अहो! राची रहो?”
-अमूल्य तत्त्वविचार.

अहा! राग वडे अने पर चीज वडे हुं मोटो-अधिक छुं एम माननार क्षणेक्षणे जीवनुं भावमरण करे छे.


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अहीं कहे छे-पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानो आश्रय थतां निर्मळथी निर्मळ ज्ञानपर्यायो आपो आप ऊछळे छे अर्थात् प्रगट थाय छे. निर्मळथी निर्मळ एटले ज्ञान निर्मळ-अतिनिर्मळ-एम निर्मळ निर्मळ वधतुं ज जाय छे. शास्त्रज्ञान के उघाडज्ञान वधतुं जाय छे एम नहि पण आत्मज्ञान (वीतरागविज्ञान) वधतुं जाय छे, द्रढ थतुं जाय छे एम कहे छे.

आत्मज्ञाननो अर्थ शुं छे? आत्मज्ञान एटले पर्यायनुं ज्ञान एम नहि, परंतु त्रिकाळी द्रव्यनुं जेमां ज्ञान थाय ते आत्मज्ञान छे. जोके ज्ञान पोते छे तो पर्याय, पण ज्ञान कोनुं? के त्रिकाळी द्रव्यस्वरूप आत्मानुं.

अहाहाहा...! आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छे, के जेमां अनंत आनंद, अनंत ज्ञान, अनंत बळ, अनंत शांति, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रभुता, अनंत प्रकाश ने एवी एवी अनंत शक्तिओ छे. तथा ते एक एक शक्ति अनंत स्वभावे विराजे छे. त्यां कोई एक गुणने बीजा गुणनी सहाय नथी. छतां एक एक गुणमां बीजा अनंता गुणनुं रूप छे.

ए शुं कह्युं? के ज्ञानगुण छे तेमां अस्तित्वगुणनुं रूप छे. जे अस्तित्वगुण छे ते ज्ञानगुणमां नथी, परंतु ज्ञान ‘छे’-एवुं जे अस्तित्व ज्ञानगुणमां छे ते अस्तित्व गुणनुं रूप छे. तेवी रीते ज्ञानगुणमां प्रभुता के इश्वर नामनो गुण नथी केमके ते तो बीजो गुण छे परंतु ते ज्ञानगुणमां इश्वर गुणनुं ने प्रभुता गुणनुं रूप छे, केमके ज्ञान इश्वरस्वरूप छे, प्रभुस्वरूप छे. अहाहा...! जेनो जे स्वभाव छे तेनी तेमां मर्यादा शी होय?

अरे भाई! तने खबर नथी. भगवान आत्मा पोते परिपूर्ण प्रभु छे. ते एक एक गुणे परिपूर्ण छे. छतां एक एक गुण भिन्न भिन्न छे. एक गुणने बीजा गुणनी सहाय नथी. एक गुण बीजा गुणने निमित्त हो, पण निमित्त शुं करे? ते उपादानमां जतुं नथी. अर्थात् एक गुण बीजा गुणनुं कांई करतो नथी छतां दरेक गुणनुं रूप बीजा बधा गुणमां छे. ज्ञान ‘छे’-एम ज्ञाननुं अस्तित्व पोताथी छे, ज्ञाननुं वस्तुत्व पोताथी छे, ज्ञान पोताथी कर्ता छे. आम अस्तित्व, वस्तुत्व, कर्ता गुण तो भिन्न भिन्न छे पण ज्ञानमां तेमनुं रूप छे. आम अनंत गुणमां प्रत्येकमां अनंत गुणनुं रूप छे. अहो! आवो अनंत गुणसमुद्र प्रभु आत्मा छे. तेनुं जेणे अंतर्मुख थईने ज्ञान कर्युं छे ते बधाने पी गयो छे एम कहे छे.


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अंतर्मुख थतां आत्मानुं ज्ञान थाय छे केमके वस्तु-आत्मा अंतर्मुख छे, बहारमां नथी. बहारमां तो पर्याय ने राग छे. तेथी ज्ञाननी पर्यायने अंतरमां वाळीने अनंतगुणना पिंडस्वरूप सर्वज्ञस्वभावी आत्मामां जे एकाग्र थाय छे तेने आत्मज्ञान थाय छे.

ज्ञानगुणमां सर्वज्ञस्वभावनुं रूप छे. सर्वज्ञशक्ति भिन्न छे, पण ज्ञानगुणमां सर्वज्ञशक्तिनुं रूप छे. तेवी रीते ज्ञानगुणमां आनंदस्वभावनुं रूप छे. आनंद गुण जुदो छे, ज्ञानगुणमां आनंद गुण नथी, पण अनंत आनंदस्वभावनुं रूप ज्ञानगुणमां छे. अहो! आवो अद्भुत निधि भगवान. चैतन्यरत्नाकर आत्मा छे! अहाहा...! जेमां अनंत-अनंत चैतन्यगुणरत्नो भर्यां छे एवा आत्मानुं भान थतां-ज्ञाननी पर्यायमां भगवान आत्मानुं ज्ञान थतां ज्ञाननी पर्याय स्वने ने परने जाणे पी जती-जाणी लेती थकी आपोआप प्रगट थाय छे अर्थात् ते निर्मळथी निर्मळ पर्यायनी स्व-परने जाणवानी शक्ति सहजपणे खीली गई होय छे एम कहे छे.

अहा! भगवान! तुं कोण छो ते (आचार्य) परमेश्वर तने ओळखावे छे. अहा! जेणे हजु पोताना परमेश्वर-भगवान आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शन अने आत्मज्ञान प्रगट कर्युं ज नथी तेने रागनी मंदतानां आचरण-व्रत, तप आदि भले हो, पण ए बधां बाळव्रत ने बाळतप एटले के मूर्खाई भर्यां व्रत ने मूर्खाई भर्यां तप छे. भाई! तने खोटुं लागे एवुं छे पण शुं थाय? वस्तुस्थिति ज एवी छे ने! भगवाने पण एम ज कह्युं छे ने! भाई! भगवान आत्मानुं-पर्यायवान वस्तुनुं-पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां ज्यां सुधी ज्ञान-श्रद्धान न थाय त्यां सुधी गमे तेवुं शास्त्रज्ञान हो के जगतने समजावतां आवडे तेवी बुद्धि हो तोपण ते ज्ञानने ज्ञान (आत्मज्ञान) कहेता ज नथी.

आत्मामां सर्वने जाणवाना सामर्थ्यवाळो सर्वज्ञ गुण छे. आ सर्वज्ञ गुणनुं रूप तेना अनंता गुणमां व्यापेलुं छे. अहा! आवो अनंतगुणना सत्त्वरूप जे भगवान आत्मा छे ते ज्ञायक छे. अहीं कहे छे-जेने अंदर ज्ञाननी पर्यायमां ‘हुं आवो छुं’ एवुं ज्ञान थयुं छे तेनी ज्ञाननी पर्यायमां स्वने ने परने-सर्वने, जाणे ते पी गयो होय तेम, जाणवानुं सामर्थ्य खीली ऊठयुं छे. आनुं नाम आत्मज्ञान अने आ धर्म.

भाई! तें तने कदी जोयो नथी; अंदर चैतन्यनुं निधान पडयुं छे त्यां तारी नजरुं गई नथी. बस एकला बाह्य आचरणमां ज तुं रोकाई रह्यो छो. पण एमां तने कांई लाभ नहि थाय हों. बापु! अनंतकाळथी तें खोट ज करी छे. तने ए क्रियाकांडना प्रेमथी (पर्यायमां) नुकशान ज गयुं छे. पण भाई! तारे खजाने (द्रव्यमां) खोट नथी हों; खजानो तो अनंतगुणना सत्त्वथी भरेलो त्रिकाळ भरचक छे; त्यां कांई खोट नथी. तेमां नजर कर, तुं न्याल थई जईश.


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प्रश्नः– अमे आचरण करीए छीए तेने आप उडाडी दो छो. उत्तरः– भाई! आ तो वस्तुना स्वरूपनी वात छे. आ कोई व्यक्ति माटे कयां छे? वस्तुद्रष्टिथी जोतां भाई! तारां ए आचरण खोटां छे. (माटे तेने उडाडीए छीए एम तने लागे छे).

अहाहाहा...! कहे छे-‘निर्मळथी पण निर्मळ संवेदनव्यक्तिओ (ज्ञानपर्यायो, अनुभवमां आवता ज्ञानना भेदो) आपोआप उछळे छे.’ एटले के समुद्रमां जेम भरती वखते पाणीनां मोजां उछळी आवे छे तेम चैतन्यसमुद्रमां, तेमां अंतर्द्रष्टि थाय छे त्यारे, पर्यायमां निर्मळथी निर्मळ पर्यायनी भरती आवे छे अर्थात् निर्मळ निर्मळ पर्यायो आपोआप उछळे छे. ‘स्वयम् उच्छलन्ति’–एम कह्युं छे ने? ‘स्वयं’ केम कह्युं? केमके ते पर चीजो (ज्ञेयो) छे माटे ज्ञाननी पर्यायो उछळे (थाय) छे एम नथी. सूक्ष्म वात छे भाई! परने अने स्वने जाणवानुं कार्य ते चीजो छे माटे थयुं छे एम नथी; ज्ञानपर्यायो तो पोताना सामर्थ्यथी सहज ज उछळे छे. आवो भगवान आत्मा नजरेय न पडे अने कोई कहे मने धर्म थाय छे पण एम केम बने? सत्य वातनी प्ररूपणा हती नहि एटले लोकोने आ कठण पडे छे पण भाई! आ तारा हितनी वात छे. अनादिनो मारग ज आवो छे. अहा! परमात्मा अत्यारे अहीं नथी पण तेमनी वाणी तो अत्यारे पण मोजूद छे. पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां लख्युं छे के-‘वर्तमान काळमां अध्यात्म तत्त्व तो आत्मा छे.’ अहा! भगवान केवळी अत्यारे अहीं छे नहि, पण आ आत्मा ज अत्यारे अध्यात्म छे.

कहे छे-निर्मळथी निर्मळ ज्ञानपर्यायो ‘स्वयं उच्छलन्ति’ आपोआप उछळे छे. अहाहा...! ज्ञाननी पर्यायो स्वने जाणे अने बधा द्रव्य-गुण-पर्यायोने पण जाणे छे अने ते स्वयं प्रगट थाय छे. एटले के बधुं जगत छे माटे तेनुं ज्ञान प्रगट थाय छे एम नथी. ज्ञाननी पर्याय तो स्वयं पोताना सामर्थ्यथी सहज ज उछळे छे.

त्यारे कोई अज्ञानी कहे छे-महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधर भगवान छे नहि; ए तो कल्पनाओ वडे ऊभुं कर्युं छे. अररर! प्रभु! तुं आ शुं कहे छे? भाई! तने शुं थयुं छे? भाई! महाविदेहक्षेत्र छे अने त्यां साक्षात् भगवान बिराजे छे. त्यां तो वीस तीर्थंकरो विद्यमान छे अने लाखो केवळीओ पण छे. श्री कुंदकुंदाचार्ये सदेहे साक्षात् भगवाननी जात्रा करी हती अने आठ दि’ त्यां रह्या हता. आ वात शास्त्रोमां पण छे. पण भाई! तारे शुं करवुं छे? तारो भगवान जे पूर्ण ज्ञायकपणे छे तेने उडाडवो छे? शुं करवुं छे प्रभु?

अहीं तो आ कह्युं के-जेनी निर्मळथी निर्मळ ज्ञानपर्यायो आपोआप उछळे छे ते ‘सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः’ आ भगवान अद्भुत निधिवाळो


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चैतन्यरत्नाकर छे. अहाहाहा...! जेम माता बाळकने घोडियामां उंघाडवा माटे तेनां वखाण करे छे के-‘भाई तो मारो डाह्यो...’ इत्यादि तेम आचार्य भगवान अहीं आत्माने जगाडवा माटे तेने ‘भगवान अद्भुतनिधि चैतन्यरत्नाकर’ कहीने प्रशंसे छे. प्रभु! ए तो तारां स्वरूपनां गीत संतो तने समजावे छे.

श्री परमात्म प्रकाशमां तथा समयसारना बंधाधिकारमां (गाथा २८३ थी २८प जयसेनाचार्यनी टीकामां) आवे छे के-

‘सहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं, –स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान अने आनंद जेनो स्वभाव छे ते हुं छुं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धान– ज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुखानुभूति मात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं।’ ल्यो, ‘भरितावस्थोऽहं’ एटले के मारो नाथ जे पूर्ण शक्तिथी भरेलो भगवान छे ते हुं छुं. तथा वीतराग सहज आनंद जेनुं लक्षण छे एवा स्वसंवेदनज्ञाननी पर्यायथी जणाउं- वेदाउं-प्राप्त थाउं तेवो हुं छुं. व्यवहारना विकल्पथी जणाउं एवो हुं नथी. अहाहाहा...! जुओ आ चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मानुं स्वरूप! वळी कहे छे-हुं सर्व विभावथी रहित एवो शून्य छुं-राग–द्वेष–मोह–क्रोध–मान–माया–लोभ–पंचेंद्रियविषयव्यापार– मनोवचनकायव्यापार–भावकर्म–द्रव्यकर्म–नोकर्म–ख्याति–पूजा–लाभ–द्रष्टश्रुतानुभूत– भोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादिसर्वविभावपरिणामरहितशून्योऽहं। जगत्त्रयेऽपि कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन तथा सर्वे जीवाः इति निरंतरं भावना कर्तव्या। अहाहा...! त्रणे लोकमां अने त्रणे काळे, मन-वचन-काये बधा जीवो आवा छे एवी निरंतर भावना करवी एम कह्युं छुं.

भाई! तुं कोण छो? तो कहे छे भगवान छो; भग नाम ज्ञान अने आनंदना स्वभावनी लक्ष्मीस्वरूप छो. भाई! ज्ञान अने आनंद ज तारुं स्वरूप छे. वळी तुं अद्भुतनिधि छो. शुं कह्युं? भगवान आत्मा अद्भुतनिधि छे. अहाहा...! जेमां अनंत ज्ञान, अनंत आनंद, अनंत शांति, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रभुता इत्यादि अनंत अनंत स्वभावो भर्यां छे एवो महा आश्चर्यकारी खजानो भगवान आत्मा छे.

भाई! तने अबजोनी निधि होय तोपण ते संख्यात छे, तेनी हद छे; ज्यारे आ अद्भुत चैतन्यरत्नाकरनी निधि बेहद-अपार छे. आकाशना प्रदेशोनी संख्या अनंत छे. तेना करतां पण अनंतगुणा गुणरत्नो चैतन्यरत्नाकरमां भर्यां छे. स्वयंभूरमणसमुद्रमां रेतीनी जग्याए नीचे रत्नो भर्यां छे. तेम आ स्वयंभू भगवान आत्मामां-जे स्वयंथी रहेलो-थयेलो छे अने स्वयंथी प्रगट थाय तेवो छे एवा स्वयंभू भगवान आत्मामां- अनंत चैतन्यनां रत्नो भर्यां छे. अहो! परम आश्चर्यकारी स्वरूप भगवान


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आत्मानुं छे! माटे कहे छे-भाई! आ बधा बहारना जडना-धूळना भपकानां आकर्षण छोडी दे अने आश्चर्योनुं निधान एवो त्रणलोकनो नाथ भगवान आत्मा अंदर विराजी रह्यो छे त्यां जा, तेमां आकर्षण करी तल्लीन था; तेथी अद्भुत आश्चर्यकारी आनंद प्रगटशे.

माणसने करोड-बे करोड के अबज-बे अबजनी संपत्ति थई जाय तो ओहोहोहो...! एम एने (आश्चर्य) थई जाय छे. पण भाई! ए तो बधी धूळनी धूळ छे. अहीं कहे छे-अंदर त्रणलोकनो नाथ चैतन्यरत्नाकर प्रभु अद्भुत-आश्चर्यकारी निधि छे. अहाहा... जेमां आखुं विश्व जणाय एवी निर्मळ निर्मळ ज्ञानपर्यायो जेने आपोआप उछळे छे एवो आ भगवान आत्मा अद्भुतनिधि चैतन्यरत्नाकर छे. छे अंदर? गजब वात छे भाई! भगवान आत्मा ज्ञाननो, आनंदनो, शांतिनो, वीतरागतानो इत्यादि अनंत अनंत गुणरत्नोनो दरियो छे दरियो. जगतमां तो पैसानी गणतरी होय के-करोड बे करोड आदि. पण आ तो अमाप-अमाप-अमाप गुणरत्नोनो प्रभु आत्मा दरियो छे; महा आश्चर्यकारी छे. जगतमां एवुं कोई तत्त्व नथी के अनंतकाळमां पण तेनी हानि करी शके. आवो आ भगवान चैतन्यरत्नाकर छे.

‘सः एषः भगवान्’ एम कह्युं ने? मतलब के ते ‘आ’ कहेतां आ प्रत्यक्ष वेदनमां आवे तेवो भगवान आत्मा अद्भुतनिधि छे. अहाहा...! जेनुं प्रत्यक्ष वेदन थाय एवो भगवान आत्मा अद्भुत चैतन्यरत्नाकर छे एम कहे छे. अरे! आवा पोताना भगवाननो महिमा छोडीने आ चामडे मढेला रूपाळा देखाता शरीरनो महिमा! पैसानो- धूळनो जडनो महिमा! पुत्रादि परनो महिमा! प्रभु! प्रभु! शुं थयुं तने आ के अंदर ज्ञानानंदनो आश्चर्यकारि दरियो डोली रह्यो छे तेने छोडी तने बहारमां महिमा आवे छे? भाई! विश्वास कर के-हुं प्रत्यक्ष वेदनमां आवे एवो भगवान अद्भुतनिधि चैतन्यरत्नाकर छुं. अहाहा...! भाषा तो जुओ! के ‘अद्भुतनिधि’ एटले के महा विस्मयकारी निधि प्रभु आत्मा छे.

प्रभु! आवो चैतन्यनो दरियो तने नजरे पण पडे नहि? जोवामांय न आवे? तेनी सामुं तुं जुए पण नहि? आम बीजानी सामे जोया करे छे तो शुं छे प्रभु! तने आ? स्त्री रूपाळी होय तो तेनी सामुं जोया करे छे अने बे-पांच लाखना पैसा-धूळ होय तो जोईने राजी राजी थई जाय छे तो शुं थयुं छे प्रभु! तने? आवुं रांकपणुं तने कयांथी प्रगटयुं प्रभु? अने आवी घेलछा!! प्रभु! तुं जो तो खरो तुं अद्भुत निधि छो, भगवान छो, चैतन्यरत्नाकर छो. अहाहाहा...! अंदर जोतां वेंत ज तने अनुपम आनंदनुं प्रत्यक्ष वेदन थशे. अहा! आवो भगवान चैतन्यरत्नाकर आत्मा छे.

हवे कहे छे-आवो भगवान चैतन्यरत्नाकर ‘अभिन्नरसः’ ज्ञानपर्यायोरूपी


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तरंगो साथे जेनो रस अभिन्न छे एवो, ‘एकः अपि अनेकीभवन्’ एक होवा छतां अनेक थतो ‘उत्कलिकाभिः’ ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो वडे ‘वल्गति’ दोलायमान थाय छे- उछळे छे.

‘अभिन्नरसः’ एटले के आत्मा ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो साथे जेनो रस अभिन्न छे एवो छे. अर्थात् आत्माना ज्ञाननी पर्यायो अनेकरूपे परिणमे छे छतां ते (आत्मा) अभिन्न छे; स्वभावमां एकत्व छे तेमां खंड पडतो नथी.

हवे कोईने थाय के आवुं व्याख्यान? भाई! जो तारे कल्याण करवुं होय तो आ समजवुं पडशे अने आ करवुं पडशे. अहाहा...! कहे छे-कल्याणनो सागर प्रभु तुं छो ने? तेमांथी कण काढ तो तारुं कल्याण थई जशे. अंशीमांथी अंश काढ तो ते अंशमां प्रभु! तुं न्याल थई जईश, तने आनंद थशे, संतोष थशे अने तुं तृप्त-तृप्त-तृप्त थई जईश. जाणे सिद्धपद प्राप्त न थयुं होय एवी तृप्ति थशे. तारी अंदर स्वरूपमां द्रष्टि पडतां चैतन्यरत्नाकर भगवान आत्मा निर्मळथी पण निर्मळ पर्याये उछळशे अने छतां ते अभिन्न रहेशे; तेमां खंड खंड नहि पडे एम कहे छे.

वळी आत्मा स्वरूपे-शक्तिए-गुणे एकरूप होवा छतां ‘अनेकीभवन्’ पर्यायमां निर्मळतानी अनेकताए परिणमे छे अने ते एनुं स्वरूप ज छे. ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो साथे जेनो रस अभिन्न एकमेक छे एवो चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मा एक होवा छतां अनेक निर्मळथी निर्मळ पर्यायोरूपे थाय छे, अने उद्भवता ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो वडे ‘वल्गति’ डोलायमान थाय छे. शुं कह्युं? के जेम समुद्र तरंगोथी डोलायमान थाय छे तेम स्वना आश्रये उद्भवती निर्मळथी निर्मळ पर्यायो वडे आत्मा पण डोलायमान थाय छे. (आनंदनी भरतीथी डोली ऊठे छे).

हवे आवी वातो? भाई! तने तारा भगवाननी अहीं ओळखाण करावे छे के भगवान! तुं आवो छो. अहाहाहा...! नाथ! तुं त्रणलोकना नाथ-भगवाननी होडमां बेसी शके एवी तारी नात छे हों. आनंदघनजी कहे छे ने के-

‘बीजो मन मंदिर आणुं नहि, ए अम कुलवट रीत जिनेश्वर...’ ‘प्रभु! तारी कुळनी रीतना अमे छीए हों. अहाहा...! सर्वज्ञ परमेश्वरनी नातना अने जातना अमे छीए.’

अरे! पण आवुं एने केम बेसे? पण भाई! स्वरूपना अनुभव विना तारां सर्व आचरण एकडा विनानां मींडां छे.


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आप तो ज्ञान-श्रद्धाननी वात करो छो पण अमारां जे आचरण छे तेनी तो कांई किंमत करता ज नथी?

ज्यां मारग ज आवो छे त्यां बीजुं शुं थाय भाई? आ तो जेनो संसारनो अंत नजीक आव्यो छे तेने ज वात बेसशे. तने न बेसे तो शुं थाय? वस्तुनो तो कांई वांक नथी; अज्ञाननो ज वांक छे. वस्तु तो जेम छे तेम छे.

अहीं कहे छे-‘उत्कलिकाभिः’ एटले के ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो वडे आत्मा डोलायमान थाय छे. जेम समुद्र भरतीनी छोळो मारतो उछळे छे तेम भगवान आत्मा चैतन्यरत्नाकर प्रभु ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगोनी छोळो मारतो उछळे छे. अहा! अनंतगुणथी भरेलो भगवान आत्मा अंदरमां अंतरएकाग्रतानुं दबाण थतां, जेम फुवारो फाटीने उडे छे तेम, अनंत पर्यायोथी उछळे छे. छे अंदर? के ‘डोलायमान थाय छे-उछळे छे.’ अहाहा...! एक एक कळश तो जुओ! भगवान! आ तारां गाणां गाय छे हों. तुं जेवो छो तेवां तारां गाणां गाय छे भाई! तने तारी मोटप बताववा-मोटप तरफ नजर कराववा-तारी मोटप गाई बतावे छे. आवी वात छे.

* कळश १४१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेम घणां रत्नोवाळो समुद्र एक जळथी ज भरेलो छे अने तेमां नाना मोटा अनेक तरंगो उछळे छे ते एक जळरूप ज छे.’

शुं कह्युं? के जे तरंगो ऊठे छे ते बधा एक जळरूप-पाणीरूप ज छे. ‘तेम घणा गुणोनो भंडार आ ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजळथी ज भरेलो छे.’

जुओ, आकाशना प्रदेशोनो अंत नथी. आकाशनो अंत कयां आवे? (कयांय न आवे.) बस एम ने एम चाल्युं ज जाय छे. आकाश... आकाश... आकाश. ते कयां थई रहे? जो थई रहे तो तेना पछी शुं? ओहोहोहो...! दशे दिशामां आकाश अनंत-अनंत- अनंत चाल्युं जाय छे.

आ लोकना असंख्य जोजनमां तो आकाश छे अने ते पछी पण (अलोकमां) आकाश छे. ते कयां आगळ थई रहे? कयां पुरुं थाय? जो थई रहे तो ते केवी रीते रहे? भाई! ते अनंत छे ने अनंतपणे रहे छे, अंत न आवे एवुं थईने रहे छे. हवे आवुं अमाप-अनंत क्षेत्र बेसवुं कठण पडे एने क्षेत्रनो ‘क्षेत्रज्ञ’ केम बेसे? (न बेसे).

अहाहा...! तारा आत्मद्रव्यनो महिमा शुं कहेवो? जेम आकाशना अनंत प्रदेश छे तेनाथी अनंतगणा गुणरत्नोथी भरेलो आत्मा ज्ञानसमुद्र छे. ते एक ज्ञानजळथी ज भरेलो छे. अहाहा...! तेनी निर्मळथी निर्मळ उद्भवती पर्यायनो पण शुं महिमा कहेवो?


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गंभीर वात छे प्रभु! जेम आकाश अंत विनानुं गंभीर छे तेम आत्मानी ज्ञानपर्याय पण गंभीर छे अने अनंतने जाणनारी भावमां अनंत छे; श्रुतज्ञाननी पर्याय पण हों.

अहीं कहे छे-‘घणा गुणोनो भंडार आ ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजळथी ज भरेलो छे अने कर्मना निमित्तथी ज्ञानना अनेक भेदो-व्यक्तिओ आपोआप प्रगट थाय छे ते व्यक्तिओ एक ज्ञानरूप ज जाणवी, खंडखंडरूपे न अनुभववी.’ निमित्तनो अभाव थतां अने स्वभावनी प्रगटता थतां जे अनेक दशाओ उत्पन्न थाय छे ते एक ज्ञानरूप ज जाणवी, खंडखंडरूपे-भेदरूप न अनुभववी. अहा! निश्चय सम्यग्दर्शन अने ज्ञाननी पर्यायो जे एक पछी एक थाय छे तेने खंडखंडरूपे न अनुभववी, पण अभेद ज्ञानरूप ज अनुभववी. आवी वात छे.

*

हवे वळी विशेष कहे छेः-

* कळश १४२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

अहाहाहा...! कहे छे-कोई जीवो तो ‘दुष्करतरैः’ अति दुष्कर (महा दुःखे करी शकाय एवां) अने ‘मोक्ष–उन्मुखैः’ मोक्षथी परान्मुख एवां ‘कर्मभिः’ कर्मो वडे ‘स्वयमेव’ स्वयमेव (अर्थात् जिन-आज्ञा विना) ‘क्लिश्यन्तां’ कलेश पामे तो पामो,...’

जुओ, आ अन्यमती मिथ्याद्रष्टिनी वात छे. कहे छे-जे व्यवहार भगवान जिनेश्वरदेवनी आज्ञाथी बहार छे एवां तप, उपवास आदि कर्मो वडे कोई अज्ञानी कलेश पामे तो पामो. मतलब के ते जे कांई पण करे छे ते मिथ्याद्रष्टिपणे करे छे अने ते वडे मात्र कलेशने-दुःखने ज पामे छे.

वळी कहे छे-‘च’ अने ‘परे’ बीजा कोई जीवो ‘महाव्रत–तपः– भारेण’ (मोक्षनी संमुख अर्थात् कथंचित् जिन-आज्ञामां कहेलां) महाव्रत अने तपना भारथी ‘चिरम्’ घणा वखत सुधी ‘भग्नाः’ भग्न थया थका (-तूटी मरता थका) ‘क्लिश्यन्तां’ कलेश पामे तो पामो;...

जुओ, आ मिथ्याद्रष्टि जैननी (जैनाभासीनी) वात करी छे. पहेलां मिथ्याद्रष्टि अजैननी-अन्यमतीनी वात करी अने आ भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवनी आज्ञा प्रमाणे महाव्रत आदि पाळे छे एवा जैनाभासीनी वात करे छे. कहे छे-तेओ महाव्रत, समिति, गुप्ति, तप इत्यादि चिरकाळ सुधी पाळीने कलेश पामे तो पामो. शुं कह्युं आ? महाव्रत, तप, समिति, गुप्ति इत्यादि पाळवानो जे राग छे ते कलेश छे. छे अंदर?

जुओ, आ शुं कहे छे अहीं? के जिनाज्ञामां कहेलां महाव्रत अने तप-एना


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भारथी चिरकाळ सुधी कलेश पामे तो पामो. एटले शुं? एटले के-परनी (छकायनी) दया पाळवी, सत्य बोलवुं, शरीरथी ब्रह्मचर्य राखवुं, बाह्य (वस्त्रादिनो) त्याग करवो. उपवासादि तप करवुं-इत्यादि जे पाळे छे ते कलेशने पामे छे एम कहे छे. भारे वात छे भाई! पण जुओने! आ शास्त्र पोकार करीने कहे छे ने! भाई! ए रागनुं आचरण सदाचरण नथी पण असदाचरण छे. सदाचरण तो सत् स्वरूप एवा सच्चिदानंदमय भगवान आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान अने एमां लीनता रमणता करवी ते छे. बस, आम छे छतां अज्ञानी पोते जे शुभाचरण करे छे तेने धर्म माने छे! छे विपरीतता! भाई! अहीं तो एम कहेवुं छे के-जेने स्वरूपाचरण प्रगटयुं छे एवो सम्यग्द्रष्टि मोक्षमार्गमां छे ज्यारे जिनाज्ञा प्रमाणे पंच महाव्रत आदि पाळनारो मिथ्याद्रष्टि बंधमार्गमां-संसारमार्गमां छे, दुःखना-कलेशना पंथे छे.

अहाहाहा...! भाषा तो जुओ! कहे छे-‘महाव्रत अने तपना भारथी...’ मतलब के महाव्रत ने तप भार छे, बोजो छे; केमके ए बधो राग छे ने! राग छे माटे कलेश छे अने कलेश छे ते बोजो छे. तेमां सहजानंदस्वरूप प्रभु आत्माना आनंदनी परिणति कयां छे? माटे ते बोजो छे, भार छे. अहाहाहा...! अहिंसादि व्रतना परिणाम, समिति, गुप्ति, एकवार भोजन करवुं, नग्न रहेवुं इत्यादि बधो व्यवहार छे ते राग छे, भार छे, बोजो छे.

कहे छे-कोई जीवो महाव्रत अने तपना भारथी घणा वखत सुखी भग्न थया थका-तूटी मरता थका कलेश पामे तो पामो. ल्यो, ‘घणा वखत सुधी’-एटले के करोडो वर्षो सुधी, अबजो वर्षो सुधी. जुओ, कोई आठ वर्षे दीक्षा ले अने करोडो पूर्वनुं आयुष्य होय ने त्यां सुधी महाव्रत ने तप करी करीने तूटी मरे तोय तेने कलेश छे, धर्म नथी- एम कहे छे. केम? केमके ते जिनाज्ञा प्रमाणे व्यवहार तो पाळे छे पण तेने अंतर्द्रष्टि नथी, आत्मद्रष्टि नथी.

तो अमे आ (व्रतादि शुभाचरण) करीए छीए ते शुं धर्म नथी? भाई! तमे गमे ते करो; तमारा परिणामनी जवाबदारी तमारे शिर छे. अहीं तो प्रभु! वस्तु जेम छे तेम कहेवामां आवे छे. (वस्तु साथे तमारा परिणाम मेळववानुं काम तमारुं पोतानुं छे). भाई! आ कोई व्यक्तिनी वात नथी; आ तो सिद्धांतनी वात छे.

अहीं तो आ सिद्ध करे छे के-वीतरागनी आज्ञा बहारना अज्ञानीओ भले पंचाग्नि तप तपे, अणीवाळा लोढाना सळिया पर सूवे अने बार बार वर्ष सुधी ऊभा रहे इत्यादि अनेक आज्ञा बहारनी क्रिया करे तोपण तेओ कलेशने ज पामे छे.


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तेओ कलेश करो तो करो, आत्माना ज्ञान विना तेमने धर्म नथी. धर्म तो अंतर्द्रष्टिपूर्वक अंतर-रमणता थाय ते छे, अने ते आनंदरूप छे.

वळी कोई बीजा जिनाज्ञामां कहेला महाव्रत, तप आदि बाह्य क्रियाकांड चिरकाळ सुधी करी करीने तूटी मरे तोपण तेओ कलेशने ज पामे छे. तेओ कलेश करे तो करो, अंतर्द्रष्टि अने स्वसंवेदनज्ञान थया विना तेमने पण धर्मनी प्राप्ति थती नथी. भाई! सम्यग्दर्शन विना अज्ञानी जे कांई करे छे ते कलेश ज छे अने तेनुं फळ चतुर्गतिरूप संसार छे. हवे आवी वात एने आकरी लागे छे. पण भाई! शुं थाय? आ तारा हितनी वात छे बापा!

अन्यमती हो के जैनमती (जैनाभासी) हो; आत्माना सम्यग्दर्शन विना- अहाहाहा...! अंदर निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा विराजे छे तेनी प्रतीति ने भान विना-तेओ जे कांई आचरण (व्रतादि) करे ते कलेश छे, धर्म नथी. आ वात श्री अमृतचंद्राचार्ये मोटेथी पोकारीने खुल्ली-प्रगट करी छे. आ कांई बांधीने (गुप्त) राखी नथी. कहे छे-जेणे आनंदना नाथने जाण्यो नथी, तेने मोहनिद्रामांथी जगाडयो नथी ते गमे तेवा अने गमे तेटला व्रतादि-क्रियाकांडना आडंबर करे तोपण तेनो मोक्ष थतो नथी.

हवे कहे छे-‘साक्षात् मोक्षः’ जे साक्षात् मोक्षस्वरूप छे, ‘निरामयपदं’ निरामय (रोगादि समस्त कलेश विनानुं) पद छे अने ‘स्वयं संवेद्यमानं’ स्वयं संवेद्यमान छे एवुं ‘इदं ज्ञानं’ आ ज्ञान तो ‘ज्ञानगुणं विना’ ज्ञानगुण विना ‘कथम् अपि’ कोई पण रीते ‘प्राप्तुं न हि क्षमन्ते’ तेओ प्राप्त करी शकता ज नथी.

अहाहा...! आ जे साक्षात् मोक्षस्वरूप छे, समस्त रागना रोगथी रहित एवुं निरामय छे अने जे पोताने पोताथी वेदनमां आवे तेवुं छे एवुं आ ज्ञान, ज्ञानगुण विना, प्रत्यक्ष स्वसंवेदनज्ञान विना बीजी कोईपण रीते प्राप्त थई शकतुं नथी. अहाहा...! परम वीतरागी जे मोक्षदशा छे तेने ज्ञानगुण विना, महाव्रतादि कलेशना करनारा अज्ञानीओ बीजी कोई रीते प्राप्त करी शकता नथी. जुओ, आ लखाण आचार्यदेवना छे के कोई बीजाना (सोनगढना) छे? भाई! तने माठुं लागे तो माफ करजे; क्षमा करजे; पण आ सत्य छे.

ए तो त्यां ‘पद्मनंदी पंचविंशति’ मां ब्रह्मचर्यनी व्याख्या करी छे एमां कह्युं छे- शुं? के ब्रह्म नाम निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा तेमां चरवुं, रमवुं ने ठरवुं ते ब्रह्मचर्य छे. आवी घणी बधी व्याख्या करीने पछी दिगंबर संत अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवनारा श्री पद्मनंदी स्वामी कहे छे-हे युवानो! तमने विषयना रसमां मजा होय अने अमारी वाणी तमने ठीक न लागती होय तो माफ करजो; अमे तो


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मुनि छीए. (मतलब के अमारी पासे आ सिवाय बीजी शी वात करवानी होय?) प्रभु! अमे तो तमने ब्रह्मचर्यनी एटले आत्मरमणतानी वात करीए छीए. पण युवानीना मदमां-शरीर फाटुफाटु थतुं होय एना मदमां-, अने विषयना रसना घेनमां - आ शुं वात करे छे? -एम तने अमारी वात न रुचती होय तो क्षमा करजे भाई क्षमा करजे बापा! अमे तो वनवासी मुनि छीए. अहा! वनवासी दिगंबर संत आम कहे छे! तेम मारग तो आ ज छे बापा! तने न गोठे तो क्षमा करजे भाई! पण ‘एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ.’ अहीं कहे छे-ज्ञान एटले ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मा ज्ञानगुण विना बीजी कोई पण रीते अज्ञानीओ प्राप्त करी शकता नथी. आवी वात छे.

* कळश १४२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञान छे ते साक्षात् मोक्ष छे;’... शुं कह्युं? आत्मा जे सर्वज्ञस्वभावी छे तेनुं जे ज्ञान छे ते (ज्ञान) साक्षात् मोक्ष छे. अहीं एम कहेवुं छे के अशुभ टाळवा माटे जे आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो व्यवहार छे ते होय छे खरो, पण ते मोक्षनुं कारण नथी. ज्ञाननी एकाग्रतानी दशा थवा छतां, पूर्णदशा न होय त्यारे वचमां व्यवहारनो राग आवे छे खरो पण ते कांई मोक्षनुं कारण नथी. मोक्षनुं कारण तो एक ज्ञाननी एकाग्रता ज छे. ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानुं जे ज्ञान छे अर्थात् ज्ञाननुं जे ज्ञान छे ते ज्ञाननी एकाग्रता छे अने ते एकाग्रता मोक्षनुं कारण छे. आवी वात छे. आ निर्जरा अधिकार छे ने!

ज्ञानस्वभावी आत्मानी सन्मुख थतां जे ज्ञान थाय छे-ज्ञाननी पर्याय थाय छे ते वीतरागी पर्याय छे. अहा! ते वीतरागी पर्याय वडे आत्माने केवळज्ञान थाय छे. तेथी कह्युं के-‘ज्ञान छे ते साक्षात् मोक्ष छे.’ एक रीते कहीए तो ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा मोक्षस्वरूप ज छे अने तेमां ज्ञाननी जे पर्याय एकाग्र थाय छे ते पण मोक्षस्वरूप छे.

ए ज कहे छे के-‘ते (मोक्ष) ज्ञानथी ज मळे छे.’ अहाहा...! आत्मा ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीथी भरेलो भगवान छे. अर्थात् ज्ञान ने आनंद आत्मानी स्वरूपसंपदा छे. ते स्वरूपसंपदाना सन्मुखनी एकाग्रताथी - ज्ञानना परिणमनथी-स्वभावना परिणमनथी मोक्ष मळे छे. जुओ, छे? के ‘ते (मोक्ष) ज्ञानथी ज मळे छे?’ भाषा जुओ तो खरा! ‘ज’ नाख्यो छे.

प्रश्नः– आ तो एकान्त थई गयुं; व्यवहार करतां करतां अने व्रत-तप करतां करतां पण मोक्ष थाय एम न आव्युं?


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समाधानः– भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. एनो अर्थ ज ए छे के ज्ञानसन्मुखनी एकाग्रताथी-ज्ञानना परिणमनथी मोक्ष थाय छे पण बीजी कोई रीते थतो नथी. व्यवहार करतां करतां-राग करतां करतां वीतरागतास्वरूप मोक्ष केम थाय? (कदीय न थाय). ज्ञानना परिणमनमां ज्ञाननी प्रतीति, ज्ञाननुं ज्ञान अने ज्ञानमां रमणता-एम त्रणे आवी गयां. रागनी क्रिया तो एनाथी भिन्न रही गई. समजाणुं कांई...?

व्यवहार-राग मोक्षनुं कारण नथी एम निषेध कर्यो त्यां एम नथी के व्यवहार छे ज नहि, होतो ज नथी. व्यवहार कर्ता नथी अर्थात् व्यवहारथी निश्चय प्रगटे छे एम नथी. छतां सम्यग्द्रष्टिने ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी व्यवहार होय छे, आवे छे; पण ते मोक्षनुं कारण नथी. (उपचार करीने कहेवामां आवे ए जुदी वात छे). आ वात व्यवहारना पक्षवाळाने आकरी पडे छे, खटके छे. तेने एम थाय छे के व्रत- तपनुं आचरण बधुं कयां गयुं? एनो ज अहीं खुलासो करे छे-

के ‘अन्य कोई क्रियाकांडथी तेनी (मोक्षनी) प्राप्ति थती नथी.’ जुओ, आ अस्ति-नास्ति कर्युं; आ अनेकान्त कर्युं के-‘ते ज्ञानथी ज मळे छे, अन्य कोई क्रियाकांडथी तेनी प्राप्ति थती नथी.’ अज्ञानी अनेकान्त एम करवा मागे छे के-निश्चयथी पण मुक्ति थाय छे अने व्यवहारथी पण मुक्ति थाय छे. पण भाई! आवुं अनेकान्त नथी; आ तो फुदडीवाद छे.

अनेकान्त तो आ छे के-वस्तु जे चिदानंदघनस्वभाव छे तेनी एकाग्रता ते ज मोक्षनुं कारण छे पण अन्य क्रियाकांड मोक्षनुं कारण नथी. व्रत, तप, भगवाननी भक्ति, जात्रा इत्यादि क्रियाकांडथी कोई दि’ निर्जरा थती नथी अर्थात् मोक्ष थतो नथी. आवी चोख्खी वात छे.

[प्रवचन नं. २७८ थी २८०*दिनांक ३१-१२-७६ थी २-१-७७]


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गाथा–२०प
णाणगुणेण विहीणा एदं तु पदं बहू वि ण लहंते।
तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं।। २०५।।
ज्ञानगुणेन विहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभन्ते।
तद् गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षम्।। २०५।।
(द्रुतविलम्बित)
पदमिदं ननु कर्मदुरासदं
सहजबोधकलासुलभं किल।
तत इदं निजबोधकलाबलात्
कलयितुं यततां सततं जगत्।। १४३।।

हवे आ ज उपदेश गाथामां करे छेः-

बहु लोक ज्ञानगुणे रहित आ पद नहीं पामी शके;
रे! ग्रहण कर तुं नियत आ, जो कर्ममोक्षेच्छा तने. २०प.

गाथार्थः– [ज्ञानगुणेन विहीनाः] ज्ञानगुणथी रहित [बहवः अपि] घणाय लोको (घणा प्रकारनां कर्म करवा छतां) [एतत् पदं तु] आ ज्ञानस्वरूप पदने [न लभन्ते] पामता नथी; [तद्] माटे हे भव्य! [यदि] जो तुं [कर्मपरिमोक्षम्] कर्मथी सर्वथा मुक्त थवा [इच्छसि] इच्छतो हो तो [नियतम् एतत्] नियत एवा आने (ज्ञानने) [गृहाण] ग्रहण कर.

टीकाः– कर्ममां (कर्मकांडमां) ज्ञाननुं प्रकाशवुं नहि होवाथी सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी; ज्ञानमां ज ज्ञाननुं प्रकाशवुं होवाथी केवळ (एक) ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. माटे ज्ञानशून्य घणाय जीवो, पुष्कळ (घणा प्रकारनां) कर्म करवाथी पण आ ज्ञानपदने पामता नथी अने आ पदने नहि पामता थका तेओ कर्मोथी मुक्त थता नथी; माटे कर्मथी मुक्त थवा इच्छनारे केवळ (एक) ज्ञानना आलंबनथी, नियत ज एवुं आ एक पद प्राप्त करवायोग्य छे.

भावार्थः– ज्ञानथी ज मोक्ष थाय छे, कर्मथी नहि; माटे मोक्षार्थीए ज्ञाननुं ज ध्यान करवुं एम उपदेश छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [इदं पदम्] आ (ज्ञानस्वरूप) पद [ननु कर्मदुरासदं] कर्मथी


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खरेखर दुरासद छे अने [सहज–बोध–कला–सुलभं किल] सहज ज्ञाननी कळा वडे खरेखर सुलभ छे; [ततः] माटे [निज–बोध–कला–बलात्] निजज्ञाननी कळाना बळथी [इदं कलयितुं] आ पदने अभ्यासवाने [जगत् सततं यततां] जगत सतत प्रयत्न करो.

भावार्थः– सर्व कर्मने छोडावीने ज्ञानकळाना बळ वडे ज ज्ञाननो अभ्यास करवानो आचार्यदेवे उपदेश कर्यो छे. ज्ञाननी ‘कळा’ कहेवाथी एम सूचन थाय छे केः- ज्यां सुधी पूर्ण कळा (केवळज्ञान) प्रगट न थाय त्यां सुधी ज्ञान हीनकळास्वरूप - मतिज्ञानादिरूप छे; ज्ञाननी ते कळाना आलंबन वडे ज्ञाननो अभ्यास करवाथी केवळज्ञान अर्थात् पूर्ण कळा प्रगटे छे. १४३.

*
समयसार गाथा २०पः मथाळुं

हवे आ ज उपदेश गाथामां करे छेः-

* गाथा २०पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कर्ममां (कर्मकांडमां) ज्ञाननुं प्रकाशवुं नहि होवाथी सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी;’...

जुओ, कर्म शब्द पडयो छे ने? कर्म एटले जड पुद्गलकर्मनी अहीं वात नथी पण दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि जे क्रियाकांड छे ते कर्म छे एम अहीं लेवुं छे. कहे छे-कर्ममां ज्ञाननुं प्रकाशवुं नथी. सघळाय शुभभावरूप कर्ममां आत्मा प्रकाशतो नथी. आवी चोख्खी वात छे छतां कोई अज्ञानीओ कहे छे के व्रतादि शुभाचरणथी पण मोक्ष थाय छे अने आम माने तो अनेकान्त कहेवाय छे. अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के- शुभकर्ममां-शुभाचरणमां ज्ञान-आत्मा प्रकाशतो नथी माटे सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी. भाई! व्यवहारथी-रागथी कदीय मोक्ष थतो नथी एम कहे छे. अहाहा...! निश्चयथी ज मोक्ष थाय अने व्यवहारथी (बीजी रीते) न थाय एनुं नाम अनेकान्त छे.

प्रश्नः– प्रवचनसारमां तो (छेल्ले) कर्मकांडथी ज्ञानकांड थवानुं कह्युं छे? समाधानः– ए तो पूर्वे कर्मकांड हतुं एटलुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. बाकी तो तेनुं- कर्मकांडनुं लक्ष छोडीने ज्ञानकांड थयुं छे. प्रवचनसारमां पाठ एवो छे के-“प्रचंड कर्मकांड वडे अखंड ज्ञानकांडने प्रचंड करवाथी...” भाई! आ तो निमित्तनी मुख्यताथी व्यवहारनुं कथन छे. _________________________________________________________________ १. दुरासद = दुष्प्राप्य; अप्राप्य; न जीती शकाय एवुं. २. अहीं ‘अभ्यासवाने’ एवा अर्थने बदले ‘अनुभववाने’, ‘प्राप्त करवाने’ एम अर्थ पण थाय छे.


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अहीं तो आ स्पष्ट कह्युं छे के-कर्ममां-रागनी क्रियामां ज्ञानस्वभावनुं प्रकाशवुं थतुं नथी. अहिंसादि महाव्रतना परिणाम छे ते बधो कर्मकांड छे. तथा शास्त्रनुं जे ज्ञान छे ते पण कर्मकांड छे, ते कांई ज्ञान नथी. भाई! कर्म एटले कर्मकांड-शुभरागनो समूह. अहा! गमे तेटलो शुभराग हो तोपण ते शुभरागथी आत्मानुं प्रकाशवुं थतुं नथी. भगवान आत्मानो ज्ञानप्रकाश रागमां छे नहि तो रागथी ज्ञान केम प्रगटे? न प्रगटे. तेथी तो कह्युं के-‘सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी.’ ‘सघळांय कर्मथी’-एम कह्युं ने! एटले के सूक्ष्ममां सूक्ष्म रागथी पण-हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं-एवा सूक्ष्म विकल्पथी पण ज्ञाननी-आत्मानी प्राप्ति थती नथी. राग गमे ते हो, -भक्तिनो हो के तीर्थंकरगोत्र बांधवानो हो-तेनाथी मुक्ति थती नथी.

प्रश्नः– तीर्थंकर प्रकृति बांधी तेने मोक्ष तो थशे ज ने? उत्तरः– भाई! तेनो मोक्ष तो थशे ज. परंतु कोनाथी थशे? शुं प्रकृति बांधी एनाथी थशे? प्रकृतिनुं कारण जे शुभराग एनाथी थशे? प्रकृति तो पोते ज बंधन छे त्यां एनाथी मुक्ति केवी? तथा शुभकर्मथी पण ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी एम अहीं कहे छे.

प्रश्नः– पण शुभरागथी परंपरा मोक्ष तो कह्यो छे? समाधानः– भाई! एनो अर्थ ज ए छे के रागनो व्यय थईने मोक्ष थशे; रागथी नहि, समकितीने निर्मळ रत्नत्रयना परिणाम वधता-वधता मुक्तिनुं परंपरा कारण बने छे. तेनो आरोप करीने तेना शुभाचरणने उपचारथी परंपराकारण कह्युं छे. परंतु एनो अर्थ अज्ञानी आवो करे छे के शुभाचरणथी-व्यवहारथी मोक्ष थशे. भाई! ए तो विपरीत मान्यता छे. ज्ञानी स्वयं शुद्धोपयोगरूप थईने रागभावनी क्रियाने पोतामां नहि भेळवतो रागने छोडी दे छे अने ए रीते मुक्तिने प्राप्त थई जाय छे. आवो मारग छे.

अनेकान्त एनुं नाम के स्वथी अस्ति ने परथी नास्ति. छेल्ले (परिशिष्टमां) अनेकान्तना चौद बोल छे. त्यां कह्युं छे के-(वस्तु) स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी अस्ति छे ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नास्ति छे. तेम मोक्षदशा स्वभावथी अस्तिपणे छे अने व्यवहारथी-रागथी नास्तिपणे छे. भाई! समकितीने व्यवहार आवे छे, होय छे; ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता थई नथी, स्वरूपनो पूर्ण आश्रय नथी त्यां सुधी परना आश्रये दया, दान, भक्ति आदि भाव आवे छे, परंतु ते मोक्षनुं जराय कारण नथी, बंधनुं ज कारण छे. अहाहा...! छे अंदर? के-‘सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी.’

जुओ! अहीं पण अनेकान्त कर्युं छे के क्रियाकांडमां ज्ञाननुं प्रकाशवुं एटले के धर्मनी दशा नहि होवाथी सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी-आ नास्तिथी