Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 204 ; Kalash: 141-142.

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छे, जुतांने योग्य छे. जडनी परीक्षामां रोकाईने भाई! शुं तारे नरकमां जवुं छे?

आवी वात छे भाई! पोताना शुद्ध चैतन्यहीरानी जेणे किंमत करी नथी तेओ आ अवसर पूरो थतां कयांय नरक-निगोदमां चाल्या जशे. (अनंतकाळे पण आवो अवसर नहि आवे).

[प्रवचन नं. २७प थी २७७ *दिनांक २८-१२-७६ थी ३०-१२-७६]

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गाथा–२०४

तथाहि–

आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं।
सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि।। २०४।।
आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेक पदम्।
स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृतिं याति।।
२०४।।

हवे, ‘कर्मना क्षयोपशमना निमित्ते ज्ञानमां भेद होवा छतां तेनुं स्वरूप विचारवामां आवे तो ज्ञान एक ज छे अने ते ज्ञान ज मोक्षनो उपाय छे’ एवा अर्थनी गाथा कहे छेः-

मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवल तेह पद एक ज खरे,
आ ज्ञानपद परमार्थ छे जे पामी जीव मुक्ति लहे. २०४.

गाथार्थः– [आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञान- [तत्] ते [एकम् एव] एक ज [पदम् भवति] पद छे (कारण के ज्ञानना सर्व भेदो ज्ञान ज छे); [सः एषः परमार्थः] ते आ परमार्थ छे (-शुद्धनयना विषयभूत ज्ञानसामान्य ज आ परमार्थ छे-) [यं लब्ध्वा] के जेने पामीने [निर्वृतिं याति] आत्मा निर्वाणने प्राप्त थाय छे.

टीकाः– आत्मा खरेखर परमार्थ (परम पदार्थ) छे अने ते (आत्मा) ज्ञान छे; वळी आत्मा एक ज पदार्थ छे; तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे. जे आ ज्ञान नामनुं एक पद छे ते आ परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष-उपाय छे. अहीं, मतिज्ञान आदि (ज्ञानना) भेदो आ एक पदने भेदता नथी परंतु तेओ पण आ ज एक पदने अभिनंदे छे (-टेको आपे छे). ते द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः- जेवी रीते आ जगतमां वादळांना पटलथी ढंकायेलो सूर्य के जे वादळांना *विघटन अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे. तेना (अर्थात् सूर्यना) प्रकाशननी (प्रकाशवानी) हीनाधिकतारूप भेदो तेना (सामान्य) प्रकाशस्वभावने भेदता नथी, तेवी रीते कर्मपटलना उदयथी ढंकायेलो आत्मा के जे कर्मना विघटन (क्षयोपशम) अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे, तेना ज्ञाननी हीनाधिकतारूप भेदो तेना (सामान्य) ज्ञानस्वभावने भेदता नथी परंतु ऊलटा तेने अभिनंदे छे. माटे जेमां समस्त भेद दूर थया छे एवा आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज _________________________________________________________________ * विघटन = छूटुं पडवुं ते; विखराई जवुं ते; नाश.


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(शार्दूलविक्रीडित)
अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव।
यस्माभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।।
१४१।।

एकनुं आलंबन करवुं. तेना आलंबनथी ज (निज) पदनी प्राप्ति थाय छे, भ्रांतिनो नाश थाय छे, आत्मानो लाभ थाय छे, अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे, (एम थवाथी) कर्म जोरावर थई शकतुं नथी, रागद्वेषमोह उत्पन्न थता नथी, (रागद्वेषमोह विना) फरी कर्म आस्रवतुं नथी, (आस्रव विना) फरी कर्म बंधातुं नथी, पूर्वे बंधायेलुं कर्म भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे, समस्त कर्मनो अभाव थवाथी साक्षात् मोक्ष थाय छे. (आवुं ज्ञानना आलंबननुं माहात्म्य छे.)

भावार्थः– कर्मना क्षयोपशम अनुसार ज्ञानमां जे भेदो थया छे ते कांई ज्ञानसामान्यने अज्ञानरूप नथी करता, ऊलटा ज्ञानने प्रगट करे छे; माटे भेदोने गौण करी, एक ज्ञानसामान्यनुं आलंबन लई आत्मानुं ध्यान धरवुं; तेनाथी सर्व सिद्धि थाय छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[निष्पीत–अखिल–भाव–मण्डल–रस–प्राग्भार–मत्ताः इव] पी

जवामां आवेलो जे समस्त पदार्थोना समूहरूपी रस तेनी अतिशयताथी जाणे के मत्त थई गई होय एवी [यस्य इमाः अच्छ–अच्छाः संवेदनव्यक्तयः] जेनी आ निर्मळथी पण निर्मळ संवेदनव्यक्तिओ (-ज्ञानपर्यायो, अनुभवमां आवता ज्ञानना भेदो) [यद् स्वयम् अच्छलन्ति] आपोआप ऊछळे छे, [सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः] ते आ भगवान अद्भुत निधिवाळो चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः] ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो साथे जेनो रस अभिन्न छे एवो, [एकः अपि अनेकीभवन्] एक होवा छतां अनेक थतो, [उत्कलिकाभिः] ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो वडे [वल्गति] दोलायमान थाय छे-ऊछळे छे.

भावार्थः– जेम घणां रत्नोवाळो समुद्र एक जळथी ज भरेलो छे अने तेमां नाना मोटा अनेक तरंगो ऊछळे छे ते एक जळरूप ज छे, तेम घणा गुणोनो भंडार आ ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजळथी ज भरेलो छे अने कर्मना निमित्तथी ज्ञानना अनेक भेदो-व्यक्तिओ आपोआप प्रगट थाय छे ते व्यक्तिओ एक ज्ञानरूप ज जाणवी, खंडखंडरूपे न अनुभववी. १४१.


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किञ्च–

(शार्दूलविक्रीडित)
किॢश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः
किॢश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्।
साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।। १४२।।

हवे वळी विशेष कहे छेः- श्लोकार्थः– [दुष्करतरैः] कोई जीवो तो अति दुष्कर (महा दुःखे करी शकाय एवां) अने [मोक्ष–उन्मुखैः] मोक्षथी पराङ्मुख एवां [कर्मभिः] कर्मो वडे [स्वयमेव] स्वयमेव (अर्थात् जिनाज्ञा विना) [क्लिश्यन्तां] कलेश पामे तो पामो [च] अने [परे] बीजा कोई जीवो [महाव्रत–तपः– भारेण] (मोक्षनी संमुख अर्थात् कथंचित् जिनाज्ञामां कहेलां) महाव्रत अने तपना भारथी [चिरम्] घणा वखत सुधी [भग्नाः] भग्न थया थका (-तूटी मरता थका) [क्लिश्यन्तां] कलेश पामे तो पामो; (परंतु) [साक्षात् मोक्षः] जे साक्षात् मोक्षस्वरूप छे, [निरामयपदं] निरामय (रोगादि समस्त कलेश विनानुं) पद छे अने [स्वयं संवेद्यमानं] स्वयं संवेद्यमान छे (अर्थात् पोतानी मेळे पोते वेदवामां आवे छे) एवुं [इदं ज्ञानं] आ ज्ञान तो [ज्ञानगुणं विना] ज्ञानगुण विना [कथम् अपि] कोई पण रीते [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते] तेओ प्राप्त करी शक्ता ज नथी.

भावार्थः– ज्ञान छे ते साक्षात् मोक्ष छे; ते ज्ञानथी ज मळे छे, अन्य कोई क्रियाकांडथी तेनी प्राप्ति थती नथी. १४२.

*
समयसार गाथा २०४ः मथाळुं

हवे, ‘कर्मना क्षयोपशमना निमित्ते ज्ञानमां भेद होवा छतां तेनुं स्वरूप विचारवामां आवे तो ज्ञान एक ज छे अने ते ज्ञान ज मोक्षनो उपाय छे’ एवा अर्थनी गाथा कहे छेः-

जुओ, एकलुं एकरूप जे ज्ञान ते आत्मस्वभाव छे अने तेमां एकाग्रता ए एक ज मोक्षनो उपाय छे, बाह्य क्रियाकांड कोई उपाय नथी एम कहे छेः-


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* गाथा २०४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा खरेखर परमार्थ छे अने ते ज्ञान छे.’ शुं कह्युं? आ देहमां जे आत्मा छे ते परमार्थ एटले परम पदार्थ छे, सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे, परमात्मस्वरूप छे. अहीं तेने ज्ञान साथे मेळवीने कहे छे-ते ज्ञान छे. एटले शुं? के आत्मा जाणग-जाणगस्वभावी एवो त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे. अहाहाहा...! आत्मा जे खरेखर परम पदार्थ छे ते नित्य ज्ञानस्वरूप छे. ज्ञान तेनो त्रिकाळी स्वभाव होवाथी ते ज्ञानस्वरूपी छे.

हवे कहे छे-‘वळी आत्मा एक ज पदार्थ छे; तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे.’ जुओ, पहेलां सामान्य वात करी के आत्मा खरेखर परम पदार्थ-महापदार्थ छे अने ते ज्ञान कहेतां ज्ञानस्वरूप छे. हवे विशेष कहे छे के-आत्मा एक ज पदार्थ छे. एटले शुं? के अनंत गुणनो पिंड प्रभु आत्मा एक ज पदार्थ छे, एकस्वरूप ज छे. सूक्ष्म वात छे प्रभु! आत्मा अनेकरूप-भेदरूप थई गयो नथी पण अखंड एकरूप ज छे, एक ज पदार्थ छे. अने तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे. जाणग स्वभाव एवुं ज्ञान पण एक ज पद छे अर्थात् अभेद एकरूप ज छे. अहाहाहा...! आत्मा महाप्रभु-महापदार्थ छे. वळी जेम अग्नि उष्णस्वरूप छे तेम आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. अग्नि जेम एकस्वरूप छे तेम आत्मा एकरूप ज छे. वळी जेम अग्निनुं उष्णपणुं एक ज छे तेम ज्ञानपद पण एक ज छे, तेमां भेद नथी, त्रिकाळ अभेद छे. जन्म-मरणरहित थवानो वीतरागनो मारग बहु सूक्ष्म बापु!

कहे छे-‘तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे.’ अहाहाहा...! आत्मा जेम एक वस्तु छे, एक ज पदार्थ छे तेम ज्ञान पण एक ज पद छे. जेम आत्मा अखंड एकरूप छे तेम तेनो ज्ञानस्वभाव पण अखंड एकरूप छे.

हवे कहे छे-‘जे आ ज्ञान नामनुं एक पद छे ते आ परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष-उपाय छे.’

अनंत धर्मोनो पिंड प्रभु आत्मा वस्तु-धर्मी छे; तथा ते एक छे. तेथी तेनो ज्ञानस्वभाव-धर्म पण एकरूप त्रिकाळ छे. हवे जेने धर्म करवो छे तेणे शुं करवुं? तो कहे छे-जे आ ज्ञानस्वभावमय एक पद छे ते आ परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षनो उपाय छे. एटले शुं? एटले के जे एक ज्ञानस्वभाव वस्तु छे तेमां एकाग्रता करवी ते मोक्षनो उपाय छे. आवो मार्ग छे! लोकोने अभ्यास नहि अने ए तरफनी रुचि नहि एटले आकरो लागे, पण शुं थाय? आकरो लागे एटले आ (व्रत, तप आदि) बीजो मार्ग छे एम माने पण बापु! मार्ग तो आ एक ज छे. अरे! तुं जो तो


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खरो के रागनी, भेदनी ने निमित्तनी द्रष्टिने आधीन थईने भगवान! तुं ८४ ना चक्करमां रखडी रह्यो छे!

अहा! भगवान आत्मा चैतन्यमहाप्रभु सदा ज्ञानस्वभावी वस्तु एक छे. अने तेनुं ज्ञानपद-भगवान ज्ञानस्वभाव-पण त्रिकाळ अखंड एकरूप छे. हवे कहे छे आ जे एक-अभेद ज्ञानस्वभाव छे अर्थात् एकला ज्ञानरसथी भरेलो ज्ञायकभाव छे तेमां एकाग्रता करवी, तेमां तद्रुप थई प्रवर्तवुं-ते साक्षात् मोक्ष नाम पूर्ण सुखनी प्राप्तिनो उपाय छे. समजाणुं कांई...? आ पैसा-बैसा आदिमां सुख नथी एम कहे छे. पैसा आदि तो भाई! धूळ-माटी छे; एमां सुख कयां छे? बहारमां कयांय-धूळमांय-सुख नथी. अहीं तो आ दया, दान आदि पुण्यभाव थाय एमांय सुख नथी अने भेदना विकल्पमांय सुख नथी एम कहे छे; गजब वात छे भाई!

कहे छे-तुं पण भगवान छो; भग नाम ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीथी परिपूर्ण भरेलो एवो तुं भगवान आत्मा छो. छतां तने जाणे बीडी पीवे त्यारे होश-मस्ती- आनंद आवे छे एम तने थई जाय छे! अरे प्रभु! शुं थयुं छे तने आ? भाई! बीडी तो जड छे; एमां कयां आनंद छे? अने तेना तरफनुं लक्ष जे छे ए तो राग छे. ए रागनो स्वाद-झेरनो स्वाद तने आवे अने तुं आनंद माने छे? सर्वज्ञ परमेश्वरे तो आ कह्युं छे के पूर्ण आनंदनो नाथ तो पूर्ण ज्ञानस्वरूप-एकला ज्ञाननो पिंड प्रभु तुं आत्मा छो; अने तेमां एकाग्र थई प्रवर्ते ते मोक्षनो-परम सुखनो उपाय छे.

अहा! अंदर भगवान आत्मा वस्तु छे के नहि? पदार्थ छे के नहि? (छे); पदार्थ छे तो ते एक छे के अनेक? वस्तु तरीके ते एक अभेद पदार्थ ज छे. तेथी तेनो ज्ञानस्वभाव पण एक ज पद छे. ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान एवो त्रिकाळ एकरूप ज्ञानस्वभाव छे. अहीं कहे छे-आ ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने तेमां एकाग्र थवुं ते मोक्षनो उपाय छे अर्थात् तेमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणे आवी जाय छे. ज्ञानस्वभावनी अंतर- एकाग्रता करतां जे निर्विकल्प अनुभव थयो तेमां-आत्मानी प्रतीति थई ते सम्यग्दर्शन छे, ज्ञाननुं ज्ञान थयुं ते सम्यग्ज्ञान छे अने ज्ञाननी ज्ञानमां ज रमणता थई ते सम्यक् चारित्र छे अने आ धर्म छे, अर्थात् मोक्षनो उपाय छे. आखो दि’ पैसा रळवामां अने स्त्री-पुत्र-परिवारने साचववामां गुंचायेलो रहे तेने आवुं कठण पडे. परंतु भाई! आ समज्या विना तारा भवना निवेडा नहि आवे. वीतराग सर्वज्ञ परमात्माए धर्मसभामां (समवशरणमां) आ ज मार्ग कह्यो छे अने ते ज अहीं कुंदकुंदादि मुनिवरो जगतने जाहेर करे छे.

भाई! तुं अनादिथी रागमां एकाग्र छे. पण रागमां एकाग्रता ए दुःखनो अर्थात् चार गतिना परिभ्रमणना कलेशनो रस्तो छे. ए पारावार कलेश-दुःखथी छूटी


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सुख केम थाय, आत्मलाभ वा परम आनंदनी प्राप्ति केम थाय तेनो उपाय अहीं संतो बतावे छे. कहे छे-भगवान! तुं अतीन्द्रिय महापदार्थ छे अने वस्तुपणे एक ज छे, अभेद छे. वळी तुं ज्ञानस्वरूप छे अने तारो ज्ञानस्वभाव अभेद एक ज छे. आवो एक सामान्य जे ज्ञानस्वभाव तेमां एकाग्र थई अंतर्लीन थवुं ते मोक्षनो एटले परम आनंदनी प्राप्तिनो उपाय छे. अहाहाहा...! ज्ञान ज्ञानमां ज एकाग्र थई तेमां ज रमणता करे ते दुःखथी छूटवानो उपाय छे.

हवे कहे छे-‘अहीं, मतिज्ञान आदि (ज्ञानना) भेदो आ एक पदने भेदता नथी परंतु तेओ पण आ ज एक पदने अभिनंदे छे.’

शुं कह्युं आ? के आत्मानो ज्ञानस्वभाव सामान्य-सामान्य त्रिकाळ एकरूप छे. तेमां एकाग्रता थतां शुद्धताना-मतिश्रुतज्ञान आदिना अनेक पर्यायो प्रगटे छे; परंतु जे अनेक पर्यायो प्रगटे छे तेओ, आ एक ज्ञानपदने भेदता नथी, पण एक ज्ञानसामान्यने ज अभिनंदे छे अर्थात् तेओ ज्ञानस्वभावना एकपणानी ज पुष्टि करे छे. जे मति- श्रुतज्ञान आदि भेदो प्रगटया ते बधा सामान्यमां अभेद थाय छे; तेथी अनेकपणुं त्यां रहेतुं नथी.

अहा! भगवान आत्मा सदा आनंदस्वरूप छे. परंतु अहीं तो ज्ञानथी लेवुं छे ने? केमके ज्ञाननो अंश प्रगट छे. आनंद प्रगट नथी, तो ते वडे ज्ञानमां-ज्ञान के जे एक पद छे तेमां-एकाग्र थाय तो आनंद प्रगटे. अहीं कहे छे-ज्ञानमां एकाग्र थतां जे मतिज्ञान आदि शुद्धताना भेदो प्रगटे छे ते बधा ज्ञानपदने भेदता नथी, खरेखर तो तेओ सामान्य एक ज्ञानस्वभावमां ज अभेदपणाने पामे छे. भाई! आ अखंड एकरूप जे ज्ञायकभाव तेनी परिणतिना जे भेदो छे ते ज्ञायकने भेदता नथी परंतु तेओ आ ज एक पदने अभिनंदे छे, टेको आपे छे. -शुं कह्युं? वस्तु-भगवान आत्मा-त्रिकाळ एकस्वरूपे छे; अने तेनुं ज्ञान-त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव-पण अभेद एकस्वरूपे छे. हवे एमां एकाग्रताथी शुद्धताना जे अनेक भेदो उत्पन्न थाय छे तेओ ज्ञानसामान्यने भेदता नथी पण सामान्यनी ज पुष्टि करे छे; पुष्टि करे छे एटले शुं? के अभेदमां ज ते भेदो एकाग्र छे. भले विशेष (पर्यायनी शुद्धता) वधे, तो पण ए छे अभेदनी एकाग्रतामां. ए भेदो अभेदने भेदरूप करता नथी पण अभेदमां एकाग्र तेओ एक अभेदने ज अभिनंदे छे, प्रसिद्ध करे छे. आवी वात! अहो! अनंतकाळथी दुःखना पंथे दोराई गयेला जीवोने आ सुखनो पंथ आचार्य भगवान बतावे छे.

अहीं शुं कहे छे? के सामान्य अभेद एक ज्ञायकभावमात्र सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छे. त्यां एक ज्ञायकभावमां एकाग्रता थतां मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान-एम ज्ञाननी निर्मळ-निर्मळ पर्यायो अनेकपणे थाय छे.


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छतां ते बधी एक ज्ञानसामान्यमां ज एकाग्र छे, लीन छे. अर्थात् त्यां बधुं अभेदपणे ज भासे छे, भेद भासतो नथी. अहा! अनेकपणे थयेली ते पर्यायो एक ज्ञानसामान्यने ज अभिनंदे छे, पुष्ट करे छे, समर्थन आपे छे. आवो मारग! दुनियाथी साव जुदो; अभ्यास नहि एटले सूक्ष्म लागे अने एटले बिचारा लोकोने एम थाय के अमे आ व्रत, तप, भक्ति करीए छीए ने? एम के एनाथी धर्म थशे. पण व्रत, तप आदि भाव तो राग छे, ते कांई आत्मानो धर्म नथी. आत्मानो धर्म तो त्रिकाळी ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थवाथी प्रगट थाय छे. गाथा ९६ मां न आव्युं के-अमृतनो सागर प्रभु आत्मा मृतक कलेवरमां मूर्च्छायो छे. भाई! आ देह तो मृतक कलेवर अर्थात् मडदुं छे अने अंदरमां जे शुभाशुभ राग थाय छे ते पण जड, अचेतन मडदुं ज छे, केमके तेमां चैतन्यनो अंश नथी.

अ... हा... हा... हा...! कहे छे-ज्ञानना भेदो आ एक पदने भेदता नथी पण तेओ आ ज एक पदने अभिनंदे छे, पुष्टि आपे छे. आ वात हवे द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः-

‘जेवी रीते आ जगतमां वादळांना पटलथी ढंकायेलो सूर्य के जे वादळांना विघटन अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे, तेना प्रकाशननी हीनाधिकतारूप भेदो तेना प्रकाशस्वभावने भेदता नथी,...

जुओ, वादळांना पटलथी एटले गाढ वादळोथी ढंकायेलो सूर्य वादळांना विघटन अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे. विघटन एटले विखराई जवुं. जेटलां जेटलां वादळो विखराई जाय छे तेटलो तेटलो सूर्य प्रगट थाय छे अर्थात् तेटलो सूर्य प्रकाशपणाने पामे छे. त्यां सूर्यना प्रकाशनना हीनाधिकतारूप भेदो जे प्रगट थया ते भेदो तेना प्रकाशस्वभावने भेदता नथी, खंडित करता नथी पण तेना प्रकाशस्वभावनुं एकपणुं प्रगट करे छे. थोडुं प्रकाशपणुं, विशेष प्रकाशपणुं-एवा प्रकाशना भेदो सूर्यना सामान्य प्रकाशस्वभावने भेदता नथी पण तेनुं एकपणुं प्रसिद्ध करे छे. आ द्रष्टांत थयुं. हवे कहे छे-

‘तेवी रीते कर्मपटलना उदयथी ढंकायेलो आत्मा के जे कर्मना विघटन (क्षयोपशम) अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे, तेना ज्ञाननी हीनाधिकतारूप भेदो तेना (सामान्य) ज्ञानस्वभावने भेदता नथी परंतु उलटा तेने अभिनंदे छे.’

जुओ, आत्मा ढंकायेलो छे तो पोते पोतानी योग्यताथी, कांई कर्मना उदयथी ढंकाई गयो छे एम नथी. तो ‘कर्मपटलना उदयथी ढंकायेलो आत्मा’-एम तो चोख्खुं लख्युं छे? हा, पण ए तो निमित्तनी मुख्यताथी व्यवहारनुं कथन छे.

प्रश्नः– आवी भाषा सीधी छे छतां तमे अर्थने फेरवी नाखो छो?


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समाधानः– भगवान! कर्म तो जड अचेतन छे. ते चैतन्यमय आत्माने शी रीते ढांके? परंतु ज्यारे जीवनी पर्यायमां हीणी अवस्था थवारूप योग्यता होय त्यारे जडकर्मनो उदय तेमां निमित्त होय छे. बस आटलुं. जड कर्म हीन अवस्थापणे जीवने करी दे छे एम छे नहि. भाई! आ तो समजाय एवी रीते सीधो दाखलो आप्यो छे के कर्मना विघटन (क्षयोपशम) अनुसारे ज्ञान प्रगटपणुं पामे छे. त्यां अज्ञानी कहे छे-

जुओ! कर्म जेम घटतुं जाय छे, खसतुं जाय छे तेम ज्ञान प्रगट थतुं जाय छे. छे के नहि?

भाई! एनो एवो अर्थ नथी बापा! भाई! तेनो अर्थ तो ए छे के तेनुं भाव आवरण जे हीणीदशारूप छे ते जेम टळतुं जाय छे ते अनुसारे ज्ञान प्रगटपणुं पामे छे अने तेमां जडकर्मनो क्षयोपशम निमित्त छे. समजाणुं कांई...?

चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पुर प्रभु आत्मा छे. तेने आवरणना क्षयोपशमथी ने पोतानी दशाना क्षयोपशमनी लायकातथी ज्ञान प्रगट थाय छे. अहीं कहे छे-ते ज्ञाननी हीनाधिकताना भेदो, तेना सामान्य ज्ञानस्वभावने भेदता नथी; परंतु उलटा तेने अभिनंदे छे, अर्थात् एकरूप ज्ञानस्वभावने पुष्ट करे छे. अहाहाहा...! ज्ञानना ते भेदो सामान्य-सामान्य ज्ञानमां एकपणाने पामे छे, सामान्यपणाने पामे छे. ते भेदो छे तो पर्याय, (सामान्य नथी) पण त्रिकाळी एक ज्ञानमां एकाग्र थयेला तेओ ज्ञानमां एकपणाने पामे छे, विशेष-विशेष निर्मळताना भेदो स्वभावनी एकताने पामे छे. आवी वात छे!

हवे कहे छे-‘माटे जेमां समस्त भेद दूर थया छे एवा आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं.’

जुओ, शुं कहे छे? के ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं. देव-गुरु-शास्त्रनुं आलंबन करवुं एम नहि, केमके एथी तो राग ज थाय छे. वळी पर्यायना आलंबनथी पण राग-विकल्प ज ऊठे छे. माटे कहे छे-आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन लेवुं. भाई! तुं आ बधां हाडकां ने चामडांना प्रेममां अने पुण्य-पापरूप रागना प्रेममां भ्रष्ट थईने चार गतिमां रखडी मर्यो छो. तारा दुःखनी शुं कथा कहीए? अहीं आ तारा हितनो मारग छे नाथ! भाई! तारो ज्ञानस्वभाव अचिंत्य अलौकिक छे. तो एकवार तारो जे ज्ञानस्वभाव छे तेनुं पोसाण कर ने! तेनो प्रेम कर ने! तारी रुचिने त्यां लई जा ने! भाई! तने अभूतपूर्व अलौकिक आनंद थशे.

कहे छे-आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं. गजब भाषा छे! आत्मा स्वभाववान छे अने ज्ञान तेनो स्वभाव छे. आ आत्मस्वभावभूत ज्ञान त्रिकाळ


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एकरूप छे. कहे छे-ते एकनुं ज आलंबन लेवुं, ते एकनो ज आश्रय करवो; मतलब के रागनो नहि, निमित्तनो नहि ने भेदनो पण आश्रय करवो नहि. अहा! आ मारग अने आ सम्यग्दर्शन पामवानी रीत छे. अरे! पण एने (सांभळवानी पण) कयां नवराश छे? अने ए प्रभु आनंदनो नाथ (बीजे) कयां गोत्यो मळे एम छे? शुं ते बहारमां कयांय मळे एम छे? (ना). भाई! ज्यां छे त्यां अंदरमां जाय नहि तो ते मळे शी रीते? आ एक ज रीत छे.

‘ते ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं’-आम कहीने व्यवहाररत्नत्रयना जे विकल्पो छे ते आलंबन लेवा योग्य नथी एम कहे छे, केमके ए विकल्पना आश्रये आत्म-एकाग्रता प्रगट थाय छे एम नथी. अरे, आमां तो पर्यायना भेदनुं पण आलंबन करवानो निषेध छे केमके भेदना आश्रये पण राग थाय छे पण आत्म- एकाग्रता थती नथी. भाई! तुं ज्ञानस्वभावथी भरेलो भगवान छो. पण अरे! तुं कोण छे? कयां छो? केवडो छो? तेनी बापु! तने खबर नथी. अहा! जेनो आदर करवो छे, जेनुं आलंबन लेवुं छे ते तुं कोण छो? तेनी तने खबर नथी! अहीं कहे छे-भगवान! तुं ज्ञाननुं ने सुखनुं निधान छो. तुं त्यां अंदरमां जा; तने निधान मळशे.

अरे भगवान! तुं सांभळने भाई! आ तारी जुवानी झोलां खाती चाली जशे अने वृद्धावस्था आवीने ऊभी रही जशे. प्रभु! तुं त्यारे कोनुं शरण लईश? तेथी कहे छे-अंदर त्रण लोकनो नाथ आत्मा ज्ञानस्वरूपे बिराजे छे त्यां जा ने! भाई! तने युवानी प्रगटशे. जो रागनुं शरण लेवा जईश तो त्यां अज्ञान प्रगटशे; अने ए तो बाळदशा छे. एक ज्ञानस्वभावनुं शरण लईश तो तने युवानी प्रगटशे-अंतरात्मारूप युवानी प्रगटशे अने क्रमे करीने पूर्ण केवळज्ञान थतां वृद्धावस्था थई जशे. आ अवस्थाओ प्रभु! तारा (-ज्ञानना) आश्रये प्रगट थयेली तारी छे. बाकी आ शरीरनी बाळ अवस्था, युवावस्था अने वृद्धावस्था तो जडनी जडरूप छे.

अहो! आ तो बहु सरस गाथा छे. कहे छे-एक ज्ञाननुं ज-त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावनुं एकनुं ज आलंबन लेवुं.

प्रश्नः– शुं आ एकान्त नथी थतुं? समाधानः– भाई! आ एकान्त एटले सम्यक् एकान्त छे. भाई! तुं एने एकान्त कहीने ज्ञानना आश्रयथी पण लाभ थाय अने रागना आश्रयथी पण लाभ थाय-एम अनेकान्त कहे छे पण एम अनेकान्त छे ज नहि; ए तो फुदडीवाद छे.

प्रश्नः– तो जयधवलमां एम कह्युं छे के कर्मनो क्षय शुभभाव अने शुद्धभाव-ते बन्नेथी ज थाय छे. आ केवी रीते छे?


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समाधानः– भाई! ते कई अपेक्षाए छे? अरे, (ज्ञानीनो) शुभभाव अशुभभावने निर्जरे छे ज्यारे शुद्धभाव तो बधाने-शुभ तेम ज अशुभने-निर्जरे छे. आवी अपेक्षा त्यां छे. पण शुं थाय? (ज्यां अपेक्षा ज न समजे त्यां?)

अहीं तो भगवान कुंदकुंदाचार्यनी आ गाथानो भाव आचार्य अमृतचंद्रदेव टीकामां दोही-दोहीने बहार काढे छे. जेम कोई बळुकी बाई गायना-भेंसना आळुमां जे दूध छे-जे अंदर छे-तेने दोहीने-खेंचीने बहार काढे छे तेम आचार्यदेव तर्कनी भींस दईने गाथामां जे अंदरमां भाव भर्या छे ते बहार काढे छे. कहे छे-एक ज्ञाननुं एकनुं ज आलंबन लेवुं केमके ते वडे ज मुक्ति छे. गाथा ज छे ने! जुओने!

आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं।
सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि।।

आत्मा ते एक परमार्थरूप ज्ञानपदने पामीने मुक्ति पामे छे; व्यवहारने पामीने मुक्ति पामे छे एम छे ज नहि. भाई! आ तो जे छे तेनुं स्पष्टीकरण छे.

अहाहाहा...! कहे छे-त्रिकाळी एकरूप ज्ञायकभाव अर्थात् जाणगशक्तिनुं सत्त्व एवुं जे ज्ञान ते ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन लेवुं. अहीं बे वात करी ने!

१. ज्ञाननुं ज, अने ते पण २. एकनुं आलंबन लेवुं. अहाहाहा...! वस्तु-आत्मा अंदर एकला ज्ञाननुं निधान स्वच्छताना-निर्मळताना भावथी परिपूर्ण भरेलुं पडयुं छे; ते महाप्रभु छे, माटे तेनुं आलंबन ले, शरण ले; मोटानुं शरण ले. ते मोटो प्रभु! तुं ज अंदरमां छो. अहाहाहा...! जाणवुं-जाणवुं-जाणवुं एवो सहज जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञाननो एकरूप दरियो प्रभु तुं ज छो. तुं त्यां जा, तेमां आश्रय पाम, तेनुं आलंबन ले. ल्यो, आ तो एकलुं निश्चयनुं ज आलंबन लेवुं एम कहे छे. भाई! मारग ज आ रीते छे तेमां बीजुं शुं थाय? श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के-‘‘अनेकान्त पण सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी.’’ माटे जे सम्यक् एकान्त छे एवा निज ज्ञानस्वभावनुं ज एकनुं आलंबन लेवुं.

भाई! जेम त्रिकाळी द्रव्य छे तेम वर्तमान वर्तमान वर्तती तेनी पर्याय पण छे; आवुं अनेकान्त छे. छतां सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए अनेकान्त उपयोगी नथी. एथी ए नक्की थयुं के देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति आदिना रागथी जीवने लाभ थाय एम छे नहि. एक शुद्ध त्रिकाळी द्रव्यनुं आलंबन लई


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तेमां ज एकाग्रता करवी ए कर्तव्य छे केमके तेना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति थाय छे. अहीं ए ज कहे छे के-

‘आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं; तेना आलंबनथी ज (निज) पदनी प्राप्ति थाय छे.’ आत्मा सदा एकरूप ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. ते एकना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति थाय छे.

प्रश्नः– आमां तो ‘ज’... ‘ज’... एम आवे छे; त्यारे ‘श्रीमद् राजचंद्र’मां एक पत्रमां मारो भगवान ‘ज’ न कहे, मारो महावीर ‘ज’ न कहे-एम आवे छे ने?

समाधानः– भाई! त्यां तो वस्तु द्रव्ये नित्य छे, पर्याये अनित्य पण छे एम अपेक्षाथी वात छे. आत्मा नित्य ज छे, वा अनित्य ज छे एम नहि; आत्मा एक ज छे, वा अनेक ज छे एम नहि. परंतु द्रव्ये एक छे तो पर्याय अपेक्षाए अनेक पण छे; द्रव्य त्रिकाळ रहे छे ए अपेक्षाए नित्य छे तो पर्याय अपेक्षाए अनित्य पण छे-एम वस्तुना द्रव्य-पर्यायस्वरूपनुं कथन छे. ज्यारे अहीं तो आलंबन कोनुं लेवुं एनी वात छे. तो कहे छे-त्रिकाळी द्रव्यनो जे एकरूप ज्ञानस्वभाव ते एकनुं ज आलंबन लेवुं केमके ते एकना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति थाय छे.

प्रश्नः– तमे तो निश्चयनी ज वात करो छो पण तेनुं कांई साधन छे के नहि? समाधानः– भाई! आ (आत्मा) ज साधन छे, केमके आत्मामां करण नामनो गुण छे. आत्मामां जेम ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ छे तेम करण नामनो गुण पण त्रिकाळ छे. तेनुं (गुणथी अभेद आत्मानुं) आलंबन लेतां साधनदशा प्रगट थाय छे. कोईने एम थाय के-शुं साधननी आवी व्याख्या? पण भाई! आ ज तारा हितनो पंथ छे. भगवान! तुं रागना पंथे तो अनादिथी पडेलो छे, पण बापु! ए तो अहितनो दुःखनो पंथ छे. अहीं कहे छे-शुद्ध चैतन्यस्वभावमय त्रिकाळी भगवान आत्मानुं ज एकनुं वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां आलंबन लेवुं केमके तेना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति छे.

प्रश्नः– एक आत्माना आलंबनथी ज मुक्ति थाय-एम आप एकान्त करो छो. एने बदले कांईक निश्चयथी थाय अने कांईक व्यवहारथी-व्रतादिथी पण थाय एम कहो तो?

उत्तरः– भाई! कदीय त्रणकाळमां कोईनेय व्यवहारथी (धर्म, मुक्ति) न थाय. अहीं तो आ एक ज वात छे. जुओने! पाठमां आ ज छे के नहि? भाई! आ तो आचार्य अमृतचंद्रस्वामी आम पोकारे छे. अहा! तेओ तो भावलिंगी संत


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निर्ग्रंथ दिगंबर मुनिवर हता. त्रण कषायना अभावसहित तेमने वीतरागी शान्ति प्रगट हती. अहो! तेओ अतीन्द्रिय आनंदना प्रचुर स्वसंवेदनमां ऊभा हता. कांईक विकल्प आवतां तेओ आ कहे छे के-भाई! तारे धर्म करवो छे ने? तो चैतन्यनुं निधान प्रभु आत्मा एकनुं ज आलंबन ले; तेना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति थाय छे. देव-गुरु- शास्त्र, पंच परमेष्ठी इत्यादिनुं (परनुं) आलंबन तो, वच्चे शुभराग आवे छे एटला पुरतुं निमित्तथी कह्युं छे. (वास्तवमां तेओ आलंबन छे नहि).

अहाहाहा...! ज्ञानानंदस्वभावना एकना आलंबनथी ज ज्ञानस्वभावमय जे निजपद तेनी प्राप्ति थाय छे. आ अस्तिथी वात करी. हवे कहे छे-तेना आलंबनथी ज ‘भ्रांतिनो नाश थाय छे,’ -आ नास्तिथी कह्युं. निजपदना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति थाय छे अने भ्रान्तिनो नाश थाय छे. भाई! बीजी कोई रीते मिथ्यात्वनो नाश थतो नथी एम कहे छे. भाई! तुं राग ने विकल्पने आत्मामां मिलावट करीने माने छे पण ए तो मिथ्याबुद्धि छे. अहीं तो आ कहे छे के-आत्मा चंद्रमानी जेम शीतळ-शीतळ- शीतळ वीतरागी शीतळताना स्वभावथी भरेलो एकरूप जिनचंद्र प्रभु छे. ते तेना आलंबनथी ज प्राप्त थाय छे.

त्यारे केटलाक कहे छे-अमने आ मोंघुं (कठण) पडे छे, कोई सोंघो (सहेलो) मारग छे के नहि?

अरे भाई! जेम शीरो करे छे त्यारे पहेलां लोटने घीमां शेके छे अने पछी अंदर साकरनुं पाणी नाखे छे. पण आ रीत मोंघी पडे छे एम जाणी कोई लोटने साकरना पाणीमां पहेलां शेके अने पछी घी नाखे तो? तो शीरो तो शुं लोपरीय ना थाय. समजाणुं कांई...? तेम भगवाननो आ मारग मोंघो (कठण) पडे छे एम जाणी अज्ञानी पहेलां व्रत, तप, आदि करवा मंडी पडे छे. पण अरे भगवान! जेने तुं सोंघो (सहेलो) मारग माने छे ते सोंघो मारग नथी बापा! ते मारग ज नथी. एनाथी निजपदनी प्राप्ति नहि थाय, मिथ्यात्वनो नाश नहि थाय. रागना आलंबनथी तो रागनी-दुःखनी- चारगतिना कलेशनी ज प्राप्ति थशे. आवी वात छे.

भाई! तुं त्रिकाळी एकरूप जे ज्ञायकभाव छे तेनुं आलंबन लईश तो तने ज्ञायकभावनी प्राप्ति थशे. निजसत्त्वरूप जे ज्ञायकभाव तेनी प्राप्ति थतां ‘हुं रागवाळो छुं ने हुं पर्याय जेटलो छुं’-इत्यादि जे परमां भ्रान्ति छे तेनो अर्थात् मिथ्यात्वनो नाश थशे. मिथ्यात्वना नाश थवानो आ एक ज उपाय छे.

कहे छे-‘तेना (ज्ञायकभावना) आलंबनथी ज भ्रान्तिनो नाश थाय छे, आत्मानो लाभ थाय छे, अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे,...’


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शुं कह्युं? के एक ज्ञायकभावना आश्रये ज आत्मानो लाभ थाय छे अर्थात् आत्मा जे परम पवित्र पदार्थ छे तेनो पर्यायमां लाभ थाय छे. पहेलां निजपदनी प्राप्ति कही हती ने? आ एनो ज विशेष खुलासो कर्यो के-आत्मलाभ थाय छे. आ वाणीया नवुं वरस बेसे त्यारे लखे छे ने के-‘‘लाभ सवाया.’’ हवे त्यां तो धूळमांय लाभ सवाया नथी सांभळने! ए तो बधी कषायनी होळी छे. लाभ तो आ (आत्मलाभ थाय ते) छे, जेमां भ्रान्तिनो नाश थई अतीन्द्रिय आनंदनी प्राप्ति थाय छे.

कोईए हमणां कह्युं छे के सोनगढ हवे हजारोनी आव-जानुं केन्द्रस्थान छे. अरे भाई! तारुं केन्द्रस्थान तो अंदर भगवान आत्मा छे के जेमां नजर जतां तने तारा चैतन्यनिधाननी प्राप्ति थाय छे, आत्मानो लाभ थाय छे. भाई! आ पैसानो लाभ थाय वा रागनो लाभ थाय तो तेथी शुं? ए तो बधां खरेखर दुःखनां ज कारण छे.

हा, पण पैसानो लाभ होय तो अहीं सांभळवा रही शकाय ने? धूळेय रहेवाय नहि, सांभळने! पैसानो लाभ तो घणायने छे, पण रहे छे कयां? अरे! पैसावाळाने तो घणां लाकडां (शल्य) होय छे. आ छापरुं होय छे तेमां एक एक वळीने एक-एक खीलो होय छे पण मोभने? मोभने अनेक खीला होय छे. तेम मोटो शेठ थाय तेने घणा खीला वागे छे; एक स्त्रीनो खीलो, एक पुत्रनो खीलो, एक वेपार- उद्योगनो खीलो-एवा बीजा पारावार खीला एने वागे छे. बिचारो शुं करे? एने सांभळवा रहेवानी कयां नवराश छे? पण बापु! अवसर तो चाल्यो जशे अने संसार (दुःख) ऊभो रहेशे हों.

माटे कहे छे-निर्मळानंदनो नाथ प्रभु तुं अंदर छे तेनुं आलंबन ले. तेम करतां ज तने आत्मलाभ थशे. भाई! पैसामां धूळेय लाभ नथी अने दया, दान, व्रत आदि शुभरागना परिणाममांय लाभ नथी. ए सर्वमां (बहारमां) लाभ मानीने तो अनंतकाळ दुःखमां मरी गयो छे. हवे द्रष्टि फेरवी दे अने ज्यां अतीन्द्रिय महापदार्थ प्रभु तुं अंदर पडयो छे त्यां द्रष्टि कर अने तेनो ज आश्रय कर, तेमां ज एकाग्र था. तेथी तने आत्मलाभ थशे अने अनात्मानो परिहार थई जशे.

शुं कह्युं? के अंतरस्वरूपमां एकाग्र थतां अर्थात् तेनुं आलंबन लेतां आत्मलाभ थाय छे, आत्मानी निराकुळ शान्तिनो लाभ थाय छे अने अनात्मानी अर्थात् रागादिनो परिहार सिद्ध थई जाय छे. अहा! आ स्वभावनुं ग्रहण थतां अनात्मानो-रागादिनो त्याग सिद्ध थई जाय छे एम कहे छे. केवी सरस वात! जाणे एकलुं अमृत!

हा; एनो (अमृतनो) प्रचार थवो जोईए. अरे भाई! आत्मा अंदरमां प्रचार करे के बहार? अहीं तो अंदरना प्रचारनी वात छे. बहारमां तो ए करे ज शुं? (कांई नहि). भाषा तो जुओ! के अंतरना


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आलंबनथी ज आत्मानो लाभ थाय छे अने अनात्मानो अभाव थाय छे. जुओ, आनुं नाम त्याग छे. बहारनो त्याग केवो? बहारनी चीज कयां अंदर पेसी गई छे के तेनो त्याग करे? आ तो तारी पर्यायमां जे (अशुद्धता) छे तेना त्यागनी वात छे. अहाहाहा...! ‘अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे.’ एटले शुं? एटले के जेटला अंशे अंदरना आलंबनमां गयो तेटला अंशे अनात्मानो-रागनो परिहार-त्याग सिद्ध थाय छे. आ आत्मानुं ग्रहण थाय छे त्यारे अनात्मानो त्याग सिद्ध थाय छे. ल्यो, आ ग्रहण ने त्याग छे.

पहेलां आव्युं ने के-‘जेमां समस्त भेद दूर थया छे एवा आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं.’ तेनो अर्थ एम छे के पर्यायने द्रव्य भणी वाळवी, अने पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्यनां ज्ञान ने श्रद्धान करवां. पर्याय छे तो एक समयनी पण ते आखा त्रिकाळीने जाणे छे, श्रद्धे छे. अहो! एक समयनी पर्यायनुं एवुं अद्भुत सामर्थ्य छे के ते अंतर एकाग्र थतां आखा द्रव्यने जाणे छे. समजाणुं कांई...? अज्ञानीने आ वात बेसती नथी तेथी ‘एकान्त छे एकान्त छे’-एम राडो नाखे छे; पण शुं थाय? (अंतर- एकाग्र थया विना कांई ज बेसे एम नथी)

अहाहाहा...! एकरूप-एकरसरूप ज्ञान छे, एकरसरूप आनंद छे, एकरसरूप श्रद्धा छे. एम बधुं (अनंत गुणथी भरेलुं) एकरसरूप-एकरूप त्रिकाळ छे. तेथी आ एकनुं ज आलंबन लेवुं जेथी भेद दूर थई जाय. तेना आलंबनथी ज आत्मलाभ थाय छे अने अनात्मानो त्याग थई जाय छे. आ वस्तुस्थिति छे. छतां अज्ञानी व्यवहार... व्यवहार... व्यवहार-एम पक्ष कर्या करे छे. अरे भाई! व्यवहार छे खरो; पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी ज्ञानीने व्यवहार होय छे परंतु ते हेय छे. अहाहा...! जेने अंदर आत्मानुं भान वर्ते छे ए अंतरात्माने व्यवहार होय छे, आवे छे पण ते हेयस्वरूपे छे. गजब वात भाई!

परमार्थ वचनिकामां कह्युं छे के-‘‘हेय-त्यागरूप तो पोताना द्रव्यनी अशुद्धता, ज्ञेय-विचाररूप अन्य षट्द्रव्यस्वरूप, उपादेय-आचरणरूप पोताना द्रव्यनी शुद्धता.’’ आचरणरूप शुद्धताने उपादेय कही छे; केमके भासभान तो शुद्धतामां थाय छे, माटे शुद्धताने अहीं उपादेय गणी छे. अशुद्धताने हेय-त्यागरूप कही छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग-सर्वज्ञ न थाय त्यां सुधी साधकने पर्यायमां अशुद्धता तो छे, पण छे ते हेय. अज्ञानीने आ आकरुं पडे छे, पण शुं थाय? भाई! व्यवहार व्यवहारना स्थानमां छे. पूर्ण वीतराग न होय त्यारे, स्वभावनो जेटलो आश्रय वर्ते छे तेटली तो निर्मळता छे, परंतु पूर्ण आश्रय नथी एटले तेटलो व्यवहारनो आश्रय तेने आव्या विना रहे नहि, पण छे ते बंधनुं कारण, छे ते हेयरूप ज.


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अहीं कहे छे-अंतरस्वरूपनी एकाग्रता थतां आत्मलाभ थाय छे अने अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे. पर्यायमां जे अशुद्धता छे ते अनात्मा छे अने तेनो त्याग स्वरूपना ग्रहण वडे सिद्ध थाय छे. भाई! वस्तु तो आम ज छे. दुनिया माने के न माने; एकांत कहे के गमे ते कहे; जन्म-मरणथी रहित थवानो मारग तो आ ज छे. बापा! चार गतिमां तो बधेय दुःख छे. मोटुं शेठपद के राजपद हो तोपण एमां आकुळता ने दुःख ज छे. स्वर्गमांय आकुळता ज छे. संसारी प्राणीओ ज्यां हो त्यां बधे ज आकुळतानी भट्ठीमां शेकाई रह्या छे. निराकुळ आनंद अने शान्तिनुं धाम तो एक प्रभु आत्मा छे. तेने छोडीने कोई मंद कषाय करो तो करो, पण तेनाथी आत्मानी शांति अने आनंद तो दाझे ज छे. समजाणुं कांई...?

पद्मनंदी पंचविंशतिमां दानोपदेशना अधिकारमां आवे छे के-हे जीव! तने जे आ बे-पांच करोडनी संपत्ति मळी छे ते, जेना वडे आत्मानी शांति दाझेली ते पुण्यनुं फळ- उकडिया छे. जेम माणस माल-माल खाई ले अने पछी उकडियाने बहार फेंकी दे छे. अने त्यारे कागडो का, का, का,... एम अवाज करीने बीजा कागडाओने बोलावीने ते खाय छे, एकलो खातो नथी. तेम आचार्य कहे छे-हे आत्मा! तने जे आ संपत्ति-धूळ मळी छे ते तारी दाझेली शान्तिनुं फळ उकडिया छे. जो तुं ते एकलो खाईश तो कागडामांथी पण जईश. कागडो उकडिया मळे तो एकलो न खाय, तेम जो तुं आ संपत्ति एकलो भोगवीश अने दया, दान, भक्ति इत्यादिमां वापरीश नहि तो तुं कागडामांथी पण जईश. अहा! ज्यारे शुभभावनो अधिकार होय त्यारे धर्मीने केवा शुभभाव आवे छे ते तो बतावे ने? जोके ते शुभभाव छे हेय, छतां ते धर्मात्माने होय छे, आवे छे एनी वात छे. द्रव्यद्रष्टिए तो परमात्मा चोथे गुणस्थाने प्राप्त थयो छे. पण चारित्रनी पर्यायमां ज्यां सुधी पूर्ण प्राप्त न थाय त्यां सुधी स्वना आश्रयमां अधुराश छे तेथी, पूर्ण थयो नथी, स्वना आश्रयनी अधुराशमां परनो व्यवहार आव्या विना रहे नहि अने त्यारे दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि शुभभाव तेने आवे छे. पण ते छे स्वद्रव्यनी अशुद्धता- हेय, हेय, हेय.

प्रश्नः– जो ते (-शुभभाव) हेय छे तो शा माटे करवा? समाधानः– ते करवानी तो वात ज कयां छे? ज्ञानीने ते करवानो अभिप्राय कयां छे? ए तो कह्युं ने के ज्यां सुधी स्वनो पूर्ण आश्रय थयो नथी त्यांसुधी स्वना आश्रयनी अधुराशमां तेने परनो व्यवहार-दया, दान, भक्ति आदिनो शुभभाव आवे छे, आव्या विना रहेतो नथी. पण ए छे हेय एम जाणवुं. आवी वात छे.


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अहीं कहे छे-‘अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे.’ एटले शुं? एटले के पोतानुं स्व जे एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप तेनो अंदर आश्रय करतां तेनी पर्यायमां प्राप्ति थाय छे अने अशुद्धतानो परिहार-त्याग थाय छे. जुओ, परद्रव्यनो त्याग थाय छे एम वात नथी, केमके परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग आत्मामां छे ज नहि. परंतु आत्मानी पर्यायमां अशुद्धता छे, दुःखरूप मलिन परिणति छे तेनो, स्वरूपनुं ग्रहण थतां त्याग थाय छे. अहा! एक शुद्धनो आश्रय लेतां शुद्धतानी प्राप्ति थाय छे अने अशुद्धतानो परिहार थाय छे. आवो मारग छे!

अरे!! भगवानना विरह पडया ने अज्ञानीओए कांईकनुं कांईक मानी रह्या छे. अहा! साक्षात् भगवान बिराजे छे तेमने पण उडाडे छे! आ वाणी, महाविदेहक्षेत्रमां साक्षात् परमात्मा बिराजे छे त्यांथी आवी छे पण अरे! अज्ञानी तेने मानतो नथी अने रागने-थोथांने माने छे. अने पोतानी मान्यतामां न आवे एटले आने (सत्यने) उडाडे छे. अरे भाई! आ तने शुं थयुं? भगवान! तुं सांभळ, धीरजथी सांभळ. भगवान सर्वज्ञदेव सीमंधर परमात्मा साक्षात् महाविदेहक्षेत्रमां बिराजे छे. त्यांथी आ वाणी आचार्य कुंदकुंद लई आव्या छे. तेओ तो आत्मानुभवी ज्ञानी-ध्यानी संत हता. खास विशेषताथी भगवान पासे गया हता. त्यां तेमनुं ज्ञान सातिशय निर्मळ थयुं हतुं. आठ दिवस त्यां सांभळ्‌युं अने श्रुतकेवळीओथी पण चर्चा करी अने पछी अहीं आव्या हता. अहीं आवीने आ समयसारनी गाथाओ रची छे.

तेओ कहे छे-भाई! सुखनुं निधान भगवान आत्मा छे, जो तारे सुखी थवुं होय तो तेनुं ज एकनुं आलंबन ले. अहाहाहा...! स्वभावथी ज जे सुख छे, ज्ञान छे तेमां दुःख केम होय? ते विकृत केम होय? ते अपूर्ण केम होय? भाई! तने आ बेसतुं केम नथी? वस्तु जे आ आत्मा छे ते परिपूर्ण छे, शुद्ध छे, ज्ञान अने सुखनुं निधान छे. आवा स्वस्वरूपमां अंतर एकाग्र थवाथी निजपदनी प्राप्ति थाय छे. पहेलां ‘पद’ केम लीधुं? केमके अगाउ ज्ञानपदने आत्मपद कह्युं हतुं ने? तेथी ‘निजपदनी प्राप्ति थाय छे’ एम पहेलां लीधुं अने ‘आत्मलाभ थाय छे’ एम पछी कह्युं. आत्मा एक पदार्थ छे तेथी ज्ञान पण एक पद छे एम पहेलां कह्युं हतुं ने? जुओ, छे ने अंदर? के “ आत्मा खरेखर परम पदार्थ छे अने ते ज्ञान छे; वळी आत्मा एक ज पदार्थ छे; तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे.” माटे आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं, केमके तेना आलंबनथी ज निजपदनी अर्थात् जे एक ज्ञानपद छे तेनी प्राप्ति थाय छे अने भ्रान्तिनो नाश थाय छे, आत्मानो लाभ थाय छे अने अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे. अहा! गजब वात छे! आचार्यदेवे टीकामां एकलुं अमृत रेडयुं छे! अहो! दिगंबर संतो आवो महान्


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अद्भुत वारसो मूकी गया छे. भाई! तेनो महिमा लावी स्वहित माटे स्वाध्याय करवो जोईए.

कहे छे-‘आत्मानो लाभ थाय छे, अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे.’ अहाहाहा...! एक शुद्धना अवलंबने शुद्धतानी प्राप्ति थाय छे अने अशुद्धतानो परिहार थाय छे. अर्थात् अशुद्धतानो परिहार ते व्यय अने शुद्धतानी प्राप्ति ते उत्पाद छे अने आलंबनयोग्य जे एक शुद्ध त्रिकाळ वस्तु ते ध्रुव छे. अहा! आवां उत्पाद-व्यय-ध्रुव! भाई! आ तो धीरानुं काम बापा! आ कांई पुण्यनी क्रिया करतां करतां मळी जाय एम नथी. अज्ञानीने एम थाय छे के आमां व्यवहार तो न आव्यो? भाई! निश्चय प्रगटे तेने व्यवहार होय छे. निश्चय विनानो व्यवहार व्यवहार ज नथी, ए तो व्यवहाराभास छे.

भगवान! तुं चैतन्यनिधान छो. तारामां अनंती स्वरूपसंपदा भरेली छे. ‘भगवान्’-एम कळश १४१ मां आवे छे ने? भग नाम लक्ष्मी अने वान् एटले वाळो. अहाहा...! अनंत अनंत ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीथी भरेलो तुं भगवान छो. परम अध्यात्मतरंगिणीमां भगं–लक्ष्मी विद्यते यस्य सः भगवान्–एम भगवाननो अर्थ कर्या छे. ‘भग’ नाम श्री, ज्ञान, वीर्य, प्रयत्न, कीर्ति, माहात्म्य -एवा अर्थ पण थाय छे. पण अहीं ‘भग’नो अर्थ लक्ष्मी-ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मी कर्यो छे केमके आत्मा ज्ञान अने आनंद जेनुं स्वरूप छे एवी स्वरूपलक्ष्मीनो अखूट भंडार छे. केवळज्ञानादि पर्यायो अनंती प्रगटे तोय अनंतकाळे न खूटे एवुं अखूट निधान छे. अहाहा...! जेनो स्वभाव ज ज्ञान छे तेनी वात शुं? आवा भगवान आत्मानुं आलंबन लेतां भ्रान्तिनो नाश थई आत्मलाभ थाय छे. जो खेतरमां दटायेलो चरु नीकळे तो तेमां क्रोडो मणि-रत्न भाळीने ‘ओहोहोहो...’ एम थई जाय छे. पण अहीं आत्मामां क्रोडो तो शुं अनंत-अनंत-अनंत क्रोडो रतन भर्यां छे. भाई! तुं एमां अंतर्द्रष्टि कर, तने भगवानना भेटा थशे, अतीन्द्रिय आनंद प्रगटशे अने अशुद्धतानो परिहार थशे.

आम थवाथी कहे छे के-‘कर्म जोरावर थई शकतुं नथी.’ कर्म तरफनुं वशपणुं हतुं तेने कर्मनुं जोरावरपणुं कहेवाय छे. कर्मने वश पोते थई परिणमे त्यारे कर्म जोरावर छे एम कहेवामां आवे छे. हवे ज्यां वस्तुस्वभावने वश थई परिणम्यो त्यां निमित्तने वशे जे जोर हतुं ते जोर नीकळी जाय छे. हवे ते परने वश न थतां स्वने वश थाय छे. ‘कर्म जोरावर थई शकतुं नथी’-ए कहेवानुं तात्पर्य ए छे के स्ववशे अशुद्धता ज्यारे नीकळी जाय छे त्यारे अशुद्धतानुं जोर जे निमित्तने वशे हतुं ते रहेतुं नथी.


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कहे छे-एक ज्ञानस्वरूप आत्माना आलंबनथी कर्म जोरावर थई शकतुं नथी. एटले शुं? एटले के अज्ञानी परने वश थतो हतो ते कर्मनुं जोर हतुं, परंतु हवे स्वने वश थयो तो कर्मना वशे जे जोर हतुं ते छूटी जाय छे. आवी वात छे! भाई! कर्म तो परद्रव्य छे अने तेनो स्वद्रव्यमां तो अभाव छे. हवे जेमां कर्मनो अभाव छे तेने कर्म शुं करे? तेने नुकशान शी रीते करे? कर्मनो तो आत्मामां त्रिकाळ अभाव छे माटे ते आत्माने नुकशान करी शके नहि. पण जे अशुद्धतानो सद्भाव छे ते तेने नुकशान करे छे. प्रवचनसार गाथा १६ मां भावघाती कर्मनी वात करी छे. त्यां कह्युं छे-घातीकर्म बे प्रकारना छेः-

१. निमित्तरूप द्रव्यकर्म अने २. उपादानरूप भावकर्म (जे पोतानो घात पोते करे छे). आ प्रमाणे द्रव्यकर्म अने भावकर्म एम बे प्रकारे घाती कर्म छे. अहो! आचार्य भगवंतोए गजबनां काम कर्यां छे! अहो! गाथा-गाथाए अने पदे-पदे जाणे दरिया भर्या छे!

हवे कहे छे-निमित्तने वश नहि थतां ‘रागद्वेषमोह उत्पन्न थता नथी, (अने रागद्वेषमोह विना) फरी कर्म आस्रवतुं नथी, (आस्रव विना) फरी कर्म बंधातुं नथी; पूर्वे बंधायेलुं कर्म भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे.’

जुओ, क्रमसर मोक्ष सुधी लई जशे. कहे छे-रागद्वेषमोह विना फरी कर्म आस्रवतुं नथी अने आस्रव विना फरी कर्म बंधातुं नथी तथा पूर्वे बंधायेलुं कर्म भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे. जुओ, स्वभावना आश्रये-अवलंबे जे पडयो छे तेने पराश्रयनो भाव छूटतो जाय छे, कर्म छूटी जाय छे. कर्म छूटी जाय छे एटले के अस्थिरता छूटी जाय छे. ‘कर्म छूटी जाय छे’ एम कहेवुं ते (आगमनो) असद्भूत व्यवहार छे अने ‘अस्थिरता छूटी जाय छे’ ते अध्यात्मना असद्भूत व्यवहारनुं कथन छे.

कहे छे-‘पूर्वे बंधायेलुं कर्म भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे.’ अहा! जुओ तो खरा क्रम! उदय आवतां सुख-दुःख थाय छे पण पछी ते निर्जरी जाय छे. पहेलां आ (१९४) गाथामां आवी गयुं छे. १९३ मी गाथामां द्रव्यकर्मनी निर्जरानी वात हती अने १९४ मी गाथामां अशुद्धताना निर्जरवानी-भावनिर्जरानी वात हती. अहाहाहा...! शुद्ध स्वभावना अवलंबने ज्यां अंतःस्थिरता-अंतर-रमणता थई, आनंदमां जमावट थई त्यां पूर्वनुं कर्म जराक (उदयमां) आव्युं होय ते निर्जरी जाय छे, खरी जाय छे; अस्थिरता-अशुद्धता झरी जाय छे अने ‘समस्त कर्मनो अभाव थवाथी साक्षात् मोक्ष थाय छे.’ अहा! जुओ आ क्रम! बापु! आ ज मार्ग छे.


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‘साक्षात्’ केम कह्युं? वस्तु तो पोते मोक्षस्वरूप ज छे. तेनुं सामर्थ्य-तेनी शक्ति- तेनुं सत्त्व सदा मुक्तस्वरूप ज छे. पण आ तो पर्यायमां मुक्ति थाय छे-अनुभवाय छे तेनी वात छे. भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे एम गाथा १४-१प मां आवे छे ने? अहा! जेणे आत्माने अबद्धस्पृष्ट जाण्यो तेणे जैनशासन जाण्युं छे. भगवान आत्माने राग ने कर्मना बंधथी रहित जाणनारी जे शुद्धोपयोगनी परिणति छे ते जैनशासन छे. अशुद्धोपयोगनी-रागनी परिणति कांई जैनशासन नथी. जेणे, हुं मुक्तस्वरूप ज छुं-एम अनुभव्युं तेणे चारे अनुयोगना साररूप जैनशासन जाणी लीधुं. चारे अनुयोगनो सार वीतरागता छे अने ते वीतरागस्वरूपी-मुक्तस्वरूपी एवा भगवान आत्मानो आश्रय ले तो प्रगट थाय छे. आवो मार्ग छे!

प्रश्नः– श्री समयसारजीमां निश्चयनी वात छे, ज्यारे मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र)मां व्यवहारनी वात छे. परंतु ए बन्ने साथे जोईए ने?

समाधानः– भाई! बन्ने साथे जोईए एटले शुं? एटले के बन्नेनुं ज्ञान साथे जोईए-होय छे. परंतु निश्चयथी पण (धर्म) थाय अने व्यवहारथी पण थाय एम अर्थ नथी. बन्नेनुं ज्ञान साथे होय छे अने ते ज्ञान पण स्वनो आश्रय थतां यथार्थ थइ जाय छे. अहाहा....! अबद्धस्पृष्ट प्रभु आत्माने ज्यां जाण्यो त्यां, राग जे बाकी रहे छे तेनुं ज्ञान पण थई जाय छे. तेना माटे बीजुं ज्ञान करवुं पडे छे एम नथी. आवी वात छे भाई!

अहीं कहे छे-समस्त कर्मनो अभाव थवाथी साक्षात् मोक्ष थाय छे. एटले शुं? के आत्मा शक्तिस्वरूपे-स्वभावरूपे-सामर्थ्यरूपे तो मुक्त ज छे; पण आ तो पर्यायमां मुक्त थाय छे-अनुभवाय छे त्यारे साक्षात् मोक्ष थाय छे एम कह्युं छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के-‘दिगंबरना आचार्ये एम स्वीकार्युं छे के-जीवनो मोक्ष थतो नथी, परंतु मोक्ष समजाय छे.’ राग ते हुं-एम जे मान्युं हतुं ते मान्यता छूटी गई तेने मोक्ष कहे छे. अहा! रागमां आत्मा नथी अने आत्माने रागनो बंध के संबंध पण नथी एवा स्वस्वरूपनी पर्यायमां प्राप्ति थवी ते साक्षात् मोक्ष छे.

भाई! जन्म-मरणना फेरा, ८४ नुं भवचक्र जेने टाळवुं होय तेने माटे मारग आ छे. शास्त्रमां लखाण छे के माताना उदरमां मनुष्यपणे १२ वर्ष वधारेमां वधारे रहे. सवानव महिना तो साधारण-सामान्य कायस्थिति छे, पण कोई तो १२ वर्ष सुधी रहे छे. अरे! उंधा माथे कफमां, लोहीमां ने एंठामां बार बार वर्ष भाई! तुं रह्यो छो! ए दुःखनी शी वात! अने अहीं जरीक कांईक थाय त्यां...? बापु! आवां जन्म-मरणनां दुःख टाळवां होय तो आ उपाय छे. जेमां जन्म-मरण नथी, जन्म-मरणना भाव नथी एवी परिपूर्ण ज्ञान अने आनंदथी भरेली पोतानी चीज