Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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तेनो जाणनार मात्र छुं-एम ज्ञानी जाणे अने माने छे. अज्ञानी अनादिथी शुभाशुभभावना चक्रमां हेरान-हेरान थई रह्यो छे. तेने कहे छे-भाई! ते अस्थायी भाव स्थायीपणे रहेनारनुं स्थान नथी, ते अपदभूत छे. रहेठाण नाखवा योग्य स्थान तो एक नित्यानंद प्रभु आत्मा छे.

आ अपदभूतनी व्याख्या चाले छे. कहे छे-पुण्य-पापना भाव अस्थायी होवाने लीधे रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य छे अने तेथी तेओ अपदभूत छे. व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे विकल्प छे, पंचमहाव्रतादिनो जे विकल्प छे अने शास्त्र भणवानो जे विकल्प छे ते बधाय अस्थायी छे, अतत्स्वभावे छे माटे ते स्थातानुं स्थान थवा योग्य नहि होवाथी अपदभूत छे. आवी आकरी वात बापा!

हवे कहे छे-‘अने जे तत्स्वभावे अनुभवातो, नियत अवस्थावाळो, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव छे, ते एक ज पोते स्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे.’

शुं कह्युं? के जे तत्स्वभावे अनुभवातो अर्थात् भगवान ज्ञानानंदस्वभावे अनुभवातो एवो भाव-आत्मा पदभूत छे. वळी निज स्वभावभावे-चैतन्यस्वभावे अनुभवातो आत्मा नियत अवस्थावाळो छे. वळी ते एक छे. पुण्य-पापना विकल्प तो असंख्य प्रकारना अनेक छे, ज्यारे भगवान आत्मा अंदर एकरूपे छे. अहाहा...! चैतन्यमूर्ति आनंदकंद प्रभु अंदर सदा एकरूपे बिराजमान छे. वळी ते नित्य छे. नित्यानंद प्रभु आत्मा नित्य छे; अने ते अव्यभिचारी भाव छे. चैतन्यमात्र-ज्ञानमात्र भाव छे ते संयोगजनित नथी तेथी ते अव्यभिचारी भाव छे, अकृत्रिम स्वभावभाव छे. हवे आवो आत्मा कदी सांभळ्‌योय न होय ते बिचारो श्रद्धानमां लावे कयांथी? शुं थाय? ते बिचारो चारगतिमां रझळी मरे.

अहीं पांच बोलथी ज्ञानभाव-स्वभावभाव कह्यो. के ज्ञानमात्रभाव- १. तत्स्वभावे-आत्मस्वभावरूप छे, २. नियत छे, ३. एकरूप छे, ४. नित्य छे, अने प. अव्यभिचारी भाव छे अने तेथी ते स्थायी भाव छे. तेथी कहे छे ते एक ज स्थायीभाव होवाने लीधे स्थातानुं स्थान थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे. अहाहा...! नित्यानंद चैतन्यमात्र प्रभु आत्मा त्रिकाळ स्थायी-ध्रुव होवाथी रहेनारनुं


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स्थिर रहेठाण छे, माटे ते पदभूत छे, अने बधाय रागादि भाव अस्थायी-अध्रुव होवाने लीधे अपदभूत छे. ल्यो, आवी व्याख्या पद-अपदनी.

हवे कहे छे-‘तेथी समस्त अस्थायी भावोने छोडी, जे स्थायीभावरूप छे एवुं परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं आ ज्ञान एक ज आस्वादवा-योग्य छे.’

अहा... हा... हा...! कहे छे-दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना अस्थायी भावोने छोडी दई... जुओ, छे अंदर? ते समस्त अस्थायी भावोने छोडी दई अर्थात् तेनो द्रष्टिमांथी आश्रय छोडी दई परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं जे स्थायीभावरूप आ ज्ञान ते एक ज आस्वादवायोग्य छे. अहा! रागनो जे स्वाद छे ते तो झेरनो स्वाद छे. रागनो रस ज झेर छे, दुःख छे; ज्यारे परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं ज्ञान चिदानंदमय अमृतरसनो सागर छे. अहीं कहे छे-रागने छोडी ते एक ज्ञान ज आस्वादवायोग्य छे. जन्म-मरणरहित थवानो आवो वीतरागनो मार्ग बापा! बाकी तो बधुं जे करे ते रखडवा माटे छे.

अहा! कहे छे-ते परमार्थरसपणे स्वादमां आवे छे. कोण? के आ ज्ञान; ज्ञान एटले ज्ञानमात्रभावरूप आत्मा. केवो छे ते? चिदानंदरसना अमृतथी भरेलो छे अने तेथी ते एक ज आस्वादवायोग्य छे.

त्यारे कोईकहे छे-रसगुल्लांनो, मैसूबनो जे स्वाद आवे छे ते तो खबर छे, पण आ स्वाद वळी केवो?

भाई! मैसूबनो अने रसगुल्लांनो जे स्वाद तुं कहे छे ए तो जडनो स्वाद छे अने तेने आत्मा कदी भोगवतो नथी-भोगवी शकतो नथी. आ हाड-मांसना बनेला स्त्रीना शरीरने आत्मा भोगवे छे एम त्रणकाळमां नथी. ए तो ए तरफनुं लक्ष जतां ‘आ मैसूबादि ठीक छे, स्त्रीनो स्पर्श ठीक छे’ एवो जे राग तुं उत्पन्न करे छे ते रागने- झेरने-दुःखने तुं भोगवे छे. अज्ञानी रागनो स्वाद ले छे अने माने छे के हुं पर पदार्थोने भोगवुं छुं. केवी विपरीतता! अहीं कहे छे-रागनो जे स्वाद (बेस्वाद) छे तेने छोडी दईने आ ज्ञान एक ज आस्वादवायोग्य छे केमके तेनो स्वाद अतीन्द्रिय आनंदमय अमृतनो स्वाद छे. आवो स्वाद-अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद जेमां आवे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

शुं कहे छे? जरी सूक्ष्म वात छे भाई! आ आत्मा जे छे तेमां पुण्य-पापना- व्रत-अव्रतना ईत्यादि जे परिणाम थाय छे ते बधाय क्षणिक, अनित्य अस्थायी होवाथी रहेनारनुं रहेठाण बनवा योग्य नथी माटे अपदभूत छे; एक वात. परंतु आत्मा त्रिकाळ स्थायी एक चैतन्यमात्रपणे होवाथी रहेवानुं रहेठाण बनवा योग्य छे माटे ते पदभूत छे, माटे समस्त अस्थायी भावोने छोडीने, आ अतीन्द्रिय आनंदना रसपणे अनुभवमां


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आवतो एक आत्मा ज आस्वादवायोग्य छे एम तुं जाण. भाई! जेने धर्म करवो होय अने जन्म-मरणरहित परमानंद दशाने प्राप्त थवुं होय तेणे व्रत-अव्रतना विकल्पो छोडीने एक आत्मामां ज द्रष्टि लगाववी जोईए, केमके एक आत्मा ज त्रिकाळी ध्रुव आनंदनुं धाम छे; व्रतादिना विकल्पो तो अस्थायी छे अने तेथी स्थातानुं स्थान बनवा योग्य नथी.

आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि तो जड पुद्गल छे, माटी छे. अने लक्ष्मी, स्त्री-कुटुंब आदि बधांय पर वस्तु छे. माटे तेनी साथे आत्माने कांई संबंध नथी; अर्थात् तेओ आत्माने रहेवानुं स्थान नथी. अहीं तो विशेष आ वात छे के-आत्मानी पर्यायमां जे व्रत-अव्रतना अनेक विकल्प उठे छे, हिंसा-अहिंसादिना परिणाम थाय छे वा गुणस्थानना भेद पडे छे ते सर्व क्षणिक, अनित्य अने अस्थायी छे अने तेथी ते धर्मीने रहेवानुं स्थान थई शकवा योग्य नथी. अर्थात् तेओ अपदभूत छे, अशरण छे. ज्यारे जे सदा एक स्थायीभावरूप छे ते नित्यानंद प्रभु आत्मा ज पदभूत छे. माटे सर्व अस्थायी भावोने छोडीने एक आत्मानो ज-शांतरसना समुद्र एवा निज स्वरूपनो ज आस्वाद करो एम कहे छे, केमके ते एक ज आस्वादवा योग्य छे.

पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए ‘रहस्यपूर्ण चिट्ठी’ लखी छे. तेमां पहेलां मंगळमां ज लख्युं छे के-‘तं बुद्धा भजत शान्तरसेन्द्रम्’ हे बुद्धिमान पुरुषो! ते शान्तरसेन्द्रना अनुभवने तमे सेवो. केवो छे ते अनुभव? अहाहा...! जे अनुभव हृदयमां प्राप्त थवाथी अनुपम सुखनी प्राप्त थाय छे अने मुक्ति लक्ष्मी शीघ्र वशमां आवे छे ते संपूर्ण मंगळोना समुद्रस्वरूप शान्तरसेन्द्रना अनुभवने तमे सेवो. ल्यो, आवुं तो बीजा गृहस्थो पर चिट्ठीमां लख्युं छे-के संपूर्ण मंगळोना समुद्रस्वरूप शान्तरसेन्द्रना अनुभवने सेवो- आस्वादो. हवे आवी वात जगतने समजवी कठण पडे. तेमां (चिट्ठीमां) कहे छे-भाई! पुण्य-पापनो रस तो कषायलो दुःखनो रस छे तेनो स्वाद छोडी दे अने अकषायस्वभावी शान्तरसेन्द्र प्रभु आत्मानो आस्वाद कर. व्यवहार-रत्नत्रयनो विकल्प पण प्रभु! कषायरस-अशांतरसरूप छे. माटे तेनो पण स्वाद छोडीने शांतरसना समुद्र एवा भगवान आत्मानो आस्वाद कर; ते एक ज आस्वादवायोग्य छे. आवो वीतरागनो मार्ग लौकिकथी साव विरुद्ध भाई! लौकिकमां तो व्रत करो ने तप करो ने भक्ति करो ने जात्रा करो एटले समजे के थई गयो धर्म. पण बापु! जेमां आत्मानो अनुभव नथी, आस्वाद नथी एवी कोई क्रिया धर्म नथी. एटले तो कह्युं छे के-

“अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप;
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोखसरूप.”

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आ तो त्रणलोकना नाथनो पोकार छे भाई! जुओ, महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधर परमात्मा साक्षात् अरिहंतपदे बिराजे छे. त्यां भगवान कुंदकुंदाचार्य २००० वर्ष पहेलां सं. ४९ मां गया हता. कहे छे-तेमनो आ पोकार छे के-तारुं चैतन्य पद तो ध्रुव स्थायी पद छे प्रभु! ते सिवाय पर्यायमां जे कांई रागादि छे ते बधांय अस्थायी अपद छे. अज्ञानी जीव जेने पोताना माने छे ते पैसा आदि तो कयांय दूर रही गया; केमके पैसा आदि के दि’ जीवना छे? ए तो जीवना द्रव्य-गुणमां नहि अने पर्यायमां पण नहि; साव भिन्न छे. ए तो धूळ छे. परंतु अहीं विशेष एम कहे छे के अंदर तारी पर्यायमां जे शुभाशुभ विकल्प ऊठे छे, दया, दान, भक्ति आदि विकल्प ऊठे छे ते बधाय अस्थायी होवाथी अपद छे; तारुं रहेवानुं ते स्थान नथी. हवे पछीना कळशमां ‘अन्यानि पदानि’ एम पाठ आवे छे. परम अध्यात्म तरंगिणीमां तेनो अर्थ एवो कर्यो छे के-व्रतादि अपद छे. अहो! दिगंबर संतो- मुनिवरोए केवळीनां पेट खोलीने मूकयां छे. जेनां भाग्य होय तेने आ वाणी मळे. कहे छे-एक आत्मा ज तारुं रहेवानुं स्थान छे; ते एक ज आस्वादवायोग्य छे. माटे जेमां कोई भेद नथी एवो अखंड एकरूप जे त्रिकाळस्थायी ज्ञायकभाव छे तेनो आश्रय कर, तेनो आस्वाद कर.

अहा... हा... हा...! भगवान! तुं परमार्थरसरूप आनंदरसनो-शान्तरसनो- अकषायरसनो समुद्र छो. तेमां अतंर्मग्न थतां शांतरसनो-आनंदरसनो (परम आह्लादकारी) स्वाद आवे छे. कह्युं छे ने के-

‘‘वस्तु विचारत ध्यावतैं मन पावै विश्राम;
रस स्वादत सुख उपजै अनुभव ताकौ नाम.’’

ल्यो, आ आत्मानुभवनी दशा छे अने ते सम्यक्त्व अने धर्म छे. भाई! जन्म- मरण मटाडवानी आ ज रीत छे. आ सिवाय व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटे एम कोई माने तो ते व्यवहारमूढ छे. अहीं कहे छे-ए सघळो व्यवहारक्रियाकांड अपद छे, एनाथी (व्यवहारथी) त्रणकाळमां जन्म-मरण मटशे नहि.

आ पैसावाळा करोडपति ने अबजपति बधा पैसा वडे एम माने के अमे बधा सुखी छीए पण तेओ धूळमांय सुखी नथी सांभळने. पैसानी तृष्णा वडे तेओ बिचारा दुःखी ज दुःखी छे. पैसानी-धूळनी तो अहीं वातेय नथी.

हा, मुनिवरोने कयां पैसा होय छे? (ते वात करे?) अहा! मुनिने तो पैसा (परिग्रह) न होय, पण वस्तुमां-आत्मामां पण ते नथी. सूक्ष्म वात छे भाई! पैसा तो जड छे, अने आ शरीर पण जड माटी-पुद्गल छे. तेओ आत्मामां कयां छे? (नथी). अहीं तो एम वात छे के आ पैसा ने


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शरीर आदि संबंधी जे पापना भाव अने भगवाननी भक्ति, पूजा इत्यादि संबंधी जे पुण्यना भाव ते पण भगवान! तारामां-आत्मामां नथी, अने आत्मा तेमां नथी; आत्मानुं ते स्थान नथी. आ निर्जरा अधिकार छे ने! तो कर्मनी-अशुद्धतानी निर्जरा कोने थाय? के जेने परमानंदस्वरूप प्रभु आत्माना आनंदनो स्वाद आवे छे तेने अशुद्धता निर्जरी जाय छे.

हा, पण उपवास आदि तप वडे निर्जरा थाय के नहि? धूळेय थाय नहि सांभळने. झीणी वात छे भाई! जेने तुं उपवास कहे छे ए तो विकल्प छे, राग छे; ए वडे कांई निर्जरा न थाय, अशुद्धता न झरी जाय. उपवास नाम निर्मळानंदना नाथ भगवान आत्मानी उप नाम समीपमां वसवुं, तेनो आस्वाद लेवो, तेमां रमवुं ते वास्तविक उपवास छे अने ते वडे निर्जरा थाय छे. कोईने थाय के आ तो निश्चयनी वातो छे, पण भाई! निश्चय एटले ज सत्य. भाई! मारग तो आ छे बापा! अहीं (समयसारमां) तो व्यवहारने अपद कही उथापी नाखे छे. जुओने! आ शुं कहे छे? के व्यवहार होय छे पण ते दुःखरूप छे, अस्थायी छे; ते तारुं पद-स्थान बनवा योग्य नथी, ते तारुं स्वधाम नथी. तारुं धाम एक भगवान आत्मा ज छे अने ते ज अनुभववायोग्य-आस्वादवायोग्य छे.

* गाथा २०३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पूर्वे वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो कह्या हता ते बधाय, आत्मामां अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे.’

शुं कह्युं? के पहेलां वर्णादिक एटले रंग, गंध आदिथी गुणस्थान पर्यंत जे भावो कह्या हता ते आत्मामां अनियत छे अर्थात् कायम रहेवावाळा नथी. भाई! आ छट्ठुं, तेरमुं अने चौदमुं गुणस्थान आत्मामां अनियत छे. वळी तेओ अनेक छे, क्षणिक छे अने व्यभिचारी छे. भगवाननी भक्ति करतां करतां अने व्रतादि करतां करतां मोक्ष थई जशे एम माननारने आकरुं लागे छे, पण शुं थाय? अहीं तो स्पष्ट कह्युं छे के ते बधा अनियत, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे. छे के नहि अंदर? लोकोने सत्य नाम सत्स्वभाव सांभळवा मळ्‌यो ज नथी एटले ‘निश्चय छे निश्चय छे’-एम कहीने तेने टाळे छे; पण भाई! निश्चय एटले ज सत्य अने व्यवहार एटले उपचार.

हवे कहे छे-‘आत्मा स्थायी छे अने ते बधा भावो अस्थायी छे, तेथी तेओ आत्मानुं स्थान-रहेठाण-थई शकता नथी अर्थात् तेओ आत्मानुं पद नथी.’

जोयुं? नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा स्थायी छे अने ते गुणस्थान आदि बधा भावो अस्थायी छे एम कहे छे. भाई! जे भाव वडे तीर्थंकर गोत्र बंधाय


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ते भाव पण व्यभिचारी अने अस्थायी भाव छे, ते भाव धर्म नथी केमके धर्मथी कांई बंध न थाय अने जे भावे बंध पडे ते धर्म न होय. आ प्रमाणे आत्मा सिवायना बीजा बधा भाव अस्थायी छे माटे तेओ आत्मानुं स्थान थई शकता नथी. शुभाशुभ विकल्प, दया, दान आदिना विकल्प ने गुणस्थानना भेद आत्मानुं स्थान थई शकता नथी; अर्थात् तेओ आत्मानुं पद नथी.

‘जे आ स्वसंवेदनरूप ज्ञान छे ते नियत छे, एक छे, नित्य छे, अव्यभिचारी छे. आत्मा स्थायी छे अने आ ज्ञान पण स्थायी भाव छे तेथी ते आत्मानुं पद छे.’

अहाहा...! कहे छे-ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानुं स्वसंवेदनरूप ज्ञान अथवा स्वनुं- आत्मानुं प्रत्यक्षवेदनरूप ज्ञान नियत छे, कायमी चीज छे, एक छे, अव्यभिचारी छे अने नित्य छे. अहाहा...! जेम जाणगस्वभावी प्रभु आत्मा शाश्वत स्थायी चीज छे तेम तेनुं ज्ञान पण स्थायीभावरूप छे, स्थिर छे, अक्षय छे. तेथी ते आत्मानुं पद छे. तेथी कहे छे-

‘ते एक ज ज्ञानीओ वडे आस्वाद लेवा योग्य छे.’ जोयुं? धर्मी पुरुषो द्वारा ते एक ज आस्वादवायोग्य छे. अहाहा...! धर्मात्माने ते एक ज अनुभववा लायक छे; एक आत्माने निराकुल आनंद ज आस्वादवा लायक छे. हवे आवी वात शुभभावना पक्षवाळाने आकरी लागे, पण बापु! शुभभाव करी करीने तुं अनंतकाळथी रखडी मर्यो छे पण भवभ्रमण मटयुं नथी. भवरहित थवानी चीज तो आत्मानो अनुभव करवो ते एक ज छे.

आ मार्ग भले हो, पण तेनुं कांई साधन तो हशे ने? अहिंसा पाळवी इत्यादि साधन छे के नहि?

उत्तरः– अरे भगवान! तने खबर नथी बापा! भगवान आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनुं निधान छे. तेनुं स्वसंवेदन एटले पोताथी पोतानामां प्रत्यक्ष आनंदनुं वेदन थवुं ते धर्म छे. ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कह्युं छे ने? पण ते अहिंसा कई? के दया, दान, व्रतना विकल्प जेमां न थाय तेवा वीतरागी परिणामनी उत्पत्तिने भगवाने अहिंसा कही छे अने ते परम धर्म छे, अने ते मोक्षनुं साधन छे, दयाना विकल्प कांई साधन नथी; ए तो अपद छे एम अहीं कहे छे. समजाणुं कांई...?

आकरुं लागे के नहि, त्रिलोकनाथ वीतराग परमेश्वरनो आ हुकम छे के-रागथी भिन्न पडीने सच्चिदानंदमय भगवान आत्मानो स्वाद-अनुभव लेवामां आवे त्यारे धर्म थाय छे. आ ज मार्ग छे, आ ज साधन छे. आ सिवाय बहारना क्रियाकांडमां


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जे धर्म माने छे ते नरक-निगोदादि चारगतिमां रझळशे. खरेखर निश्चय ते ज वस्तु छे. व्यवहार होय छे पण ते अवस्तु छे अर्थात् अपद छे. आत्मानो निराकुल स्वाद आव्या पछी पण व्यवहार होय छे पण ते अपद छे, धर्मीने रहेवानुं स्थान नथी. माटे आस्वादवायोग्य एक आत्माना निराकुल आनंदनो ज अनुभव करो एम श्री जयचंदजीए खुलासो कर्यो छे.

*

हवे आ अर्थनो कळशरूप श्लोक कहे छेः-

* श्लोक १३९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यम्’ ते एक ज पद आस्वादवायोग्य छे.

आचार्य अमृतचंद्रे आखी टीकानो आ टूंको कलश कर्यो छे. शुं कहे छे एमां? के परमानंदमय भगवान आत्मा ज एक आस्वादवायोग्य-अनुभव करवा लायक छे; रागादि बीजुं कांई अनुभववा योग्य नथी. जुओ, स्त्रीना भोग वखते कांई स्त्रीना शरीरनो जीवने स्वाद नथी. स्त्रीनुं शरीर तो हाड-मांस ने चामनुं बनेलुं अजीव छे, जड माटी छे. धूळ छे. अरूपी एवो भगवान आत्मा तो एने कयारेय स्पर्शतो पण नथी. ते शरीरनो- जडनो स्वाद केवी रीते करे? परंतु ते काळे ‘आ ठीक छे, स्त्रीनुं शरीर सुंदर माखण जेवुं छे’-एवो जे राग थाय छे ते रागने अज्ञानी भोगवे छे. अज्ञानी रागने अनुभवे छे. तेने नथी स्त्रीना शरीरनो अनुभव के नथी आत्मानो अनुभव; मात्र रागनो-झेरनो तेने स्वाद छे. अहीं कहे छे-ते ‘एकम् एव’ एक ज पद स्वाद करवा योग्य छे. अहाहा...! ज्ञानानंदनो सागर प्रभु आत्मा छे; ते एक ज आस्वादवायोग्य छे.

केवुं छे ते पद? तो कहे छे-‘विपदाम् अपदम्’ विपत्तिओनुं अपद छे. अहा... हा... हा...! अतीन्द्रिय आनंदनी मूर्ति प्रभु आत्मा विपत्तिओनुं अपद छे अर्थात् आपदाओ तेमां स्थान पामी शकती नथी. तेना स्वादमां रागनी विपदानो अभाव छे. आवी वात छे तो कहे छे-आ तो बधुं सोनगढनुं निश्चय छे. पण सोनगढनुं कयां छे भाई? आ तो कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्यनुं कथन छे. घणा वखतथी लुप्त थई गयुं एटले तने नवुं लागे छे पण आ सत्य छे. जो तें सत्यने जोवानी आंखो मींची दीधी छे अने रागने ज अनुभवे छे तो तुं अंध छे.

जुओ, अमृतचंद्राचार्य दिगंबर संत महा मुनिवर अंदर अतीन्द्रिय आनंदमां रमता हता. तेमां विकल्प आव्यो अने आ टीका थई गई. तेमां तेओ आ कहे छे के ते टीकानो विकल्प मारुं-आत्मानुं पद नथी. मारा पदमां तो विकल्परूप विपदानो अभाव छे, केमके ते विपदानुं अपद छे, अस्थान छे. अहा... हा... हा...! आनंदधाम-


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चैतन्यधाम प्रभु आत्मामां रागनी विपदानो अभाव छे. ‘विपदां अपदम्’ विपदानुं ते अपद छे अर्थात् रागनुं अपद छे केमके राग विपदा ज छे. आवो वीतरागनो मारग शूराओनो मारग छे प्रभु! कायरोनुं त्यां काम नथी.

अहा! भाषा तो बहु टूंकी करी छे के-एक ज पद अर्थात् आनंदकंद प्रभु आत्मा एक ज आस्वाद करवा लायक छे, के जे विपदाओनुं अपद छे. आ विकल्प-रागादि जे छे ते विपदा छे. पंचमहाव्रतना विकल्प के शास्त्र भणवानो विकल्प विपदा छे अने भगवान आत्मा ते विपदानुं अपद छे, अर्थात् आत्मामां ते विपदा नथी. आवुं सांभळीने रागना पक्षवाळा राड नाखे छे, पण शुं थाय! स्वरूप ज एवुं छे. अव्रतना परिणाम छे ते पाप छे ने व्रतना परिणाम छे ते पुण्य छे. ते बन्ने विपदा छे अने भगवान आत्मा ते सर्व विपदानुं अपद छे, अस्थान छे. ल्यो, आवुं स्पष्ट छे तोय लोको पुण्यने धर्म माने छे! पण बापु! सर्वज्ञ परमेश्वरनो शुं हुकम छे अने तुं शुं माने छे ए जरी मेळव तो खरो.

कोई तो आ सोनगढनुं एकलुं निश्चय छे, निश्चय छे-एम कही विरोध करे छे. पण कोनो विरोध? अहींनो विरोध नथी; भाई! तने खबर नथी बापा! के तुं तारो ज विरोध करे छे. अरे प्रभु! तुं शुं करे छे? तुं भगवान छो ने प्रभु! तुं तने भूली गयो! केवळी परमात्माए तो एम जोयुं ने कह्युं छे के एक द्रव्यमां अन्यद्रव्यनो बहिष्कार छे. अरे! तारा ज्ञायकस्वभावमां रागनोय बहिष्कार छे. कळशमां छे ने के-‘विपदाम् अपदम्’–ज्ञायक प्रभु आत्मा विपदाओनुं-रागादिनुं अपद छे. अहा... हा... हा...! शुं कळश मूकयो छे! कहे छे-रागादि रहित तारुं आनंदमय पद छे ते एकनो ज अनुभव करवा योग्य छे, माटे तेनो आस्वाद कर, अनुभव कर.

हवे कहे छे-‘यत् पुरः’ जेनी आगळ ‘अन्यानि पदानि’ अन्य (सर्व) पदो ‘अपदानि एव भासन्ते’ अपद ज भासे छे.

अहा... हा... हा...! एकला ज्ञान ने आनंदनो पिंड प्रभु आत्मा भगवान छे. भग नाम अनंत ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मी अने वान नाम स्वरूप. आम अनंत ज्ञानानंदनी लक्ष्मीस्वरूपे ज भगवान आत्मा छे. ते एक ज आस्वादवायोग्य निज पद छे. अहीं कहे छे-तेनी आगळ बीजां सर्व शुभाशुभ रागनां पदो अपद ज भासे छे, दुःखनां पद ज भासे छे. भगवान! तारा निराकुल आनंदना स्वाद आगळ व्रत, भक्ति आदिना विकल्प अपद ज भासे छे, दुःखरूप ज भासे छे. भाई! जे वडे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भाव पण अपद एटले दुःख-विपदा ज भासे छे. आवी झीणी वात छे.

हा, पण लक्ष्मी अने स्त्रीमां तो सुख छे ने?


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धूळमांय सुख नथी सांभळने! पांच-पचास लाख के करोड-बे करोड मळे एटले अज्ञानीने एम थई जाय के ‘हुं पहोळो ने शेरी सांकडी;’ पण बापु! ए मानमां ने मानमां तुं अनंतकाळ मरी गयो छे-रखडी मर्यो छे. सांभळने-ए पैसा आदि कयां तारामां छे? जे तारामां नथी एमां तारुं सुख केम होय? अहीं तो आ कह्युं के-शुद्ध चैतन्यना आनंदपद आगळ रागनो-व्रत, तप, भक्ति आदिनो विकल्प पण अपद अर्थात् विपदा भासे छे. अहो! दिगंबर मुनिवरोए एकलुं अमृत रेडयुं छे! आवी वात बीजे कयांय मळे एम नथी.

तो दान करीए तो धर्म थाय के नहि? धूळेय त्यां धर्म न थाय. शानुं दान? शुं पैसा आदि परद्रव्यनुं तुं दान करी शके छे? बीलकुल नहि. तथापि एमां जो रागनी मंदता करी होय तो पुण्य थाय छे, पण ए तो विपदा ज छे. कह्युं ने के-शुद्ध चैतन्यना आनंदपद आगळ रागादि सर्व अपद एटले दुःखनां ज स्थान छे. भाई! आ अरिहंतदेव सर्वज्ञ परमात्मानो हुकम छे. भाई! तें निजपदने छोडीने परपदमां बधुं (सुख) मान्युं छे पण ए मान्यता ज सर्व दुःखनुं मूळ छे.

तो सम्मेदशिखरजीनी जात्रा करो तो पाप धोवाई जाय छे ए तो बराबर छे के नहि?

शुं बराबर छे? अरे! सांभळने बापा! ए जात्रा तो शुभभाव छे अने शुभभाव बधोय विपदा ज छे. हवे आवी वात संप्रदायमां करे तो बहार काढे; पण अहीं तो संप्रदायनी बहार एककोर जंगलमां बेठा छीए. अहाहा...! मारग तो वीतरागनो आ ज छे प्रभु! के आनंदकंद प्रभु आत्मामां जा तो तने पाप धोवाई जाय तेवी अंतरमां जात्रा थशे; बाकी जात्राना विकल्प कोई चीज नथी, अपद छे. त्रणे काळ प्रभु! परमार्थनो आ ज पंथ छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-‘एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ.’ बापु! स्वपद सिवायनां अन्य सर्व पद विपदानां ज पद छे.

* कळश १३९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एक ज्ञान ज आत्मानुं पद छे.’ जुओ, छे अंदर? अहाहा...! जे जाणग-जाणग-जाणगस्वभाव अंदर त्रिकाळ शाश्वत छे ते आत्मानुं पद छे. ‘एक ज्ञान ज’-एम कह्युं ने? मतलब के ज्ञान जे अखंड अभेद एकरूप वस्तु छे ते ज आत्मानुं पद छे. अहा... हा... हा...! अभेद एकरूप जे ज्ञायकभाव छे ते ज स्वपद छे एम कहेवुं छे. अहो! दिगंबर संतोए


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केवळीनां पेट खोलीने जगतने न्याल करी नाख्युं छे. परंतु वारसो संभाळे तेने ने? भाई! आ तो भगवाननो वारसो संतो मूकता गया छे; तेने संभाळ; तुं न्याल थई जईश. अरेरे! अज्ञानीने तेनी दरकार नथी!

कहे छे-‘एक ज्ञान ज आत्मानुं पद छे. तेमां कोई पण आपदा प्रवेशी शकती नथी. अने तेनी आगळ अन्य सर्व पदो अपदस्वरूप भासे छे.’

ल्यो, स्वपदमां-चिदानंदघनस्वरूप प्रभु आत्मामां कोई पण आपदा प्रवेशी शकती नथी. अहाहा...! आत्मा एकलो चिद्घन-चैतन्यनो घन प्रभु छे. तेमां रागादि आपदा केम प्रवेशे? प्रवेशी शके ज नहि. अने तेनी आगळ अन्य सर्व पदो अपदस्वरूप ज भासे छे केमके तेओ आकुळतामय ज छे. आ व्रत, तप, भक्ति, पूजा, जात्रा इत्यादिना विकल्प आकुळतामय ज छे. ल्यो, आवुं! पण एने बेसे केम? भगवाननी भक्ति आकुळतामय छे, दुःखरूप छे, आपत्तिरूप छे एवुं एने बेसे केम? भाई! अशुभथी बचवा भगवाननी भक्ति आदिनो शुभराग ज्ञानीने पण आवे छे, पण छे ए आकुळतामय. क्रियाकांडवाळाने आकरुं लागे ने राड नाखे; एम के-भगवाननी भक्तिथी मुक्ति न थाय? एम बिचारो वलोपात करे, दुःख करे. पण भाई! शुं थाय? (ज्यां मार्ग ज आवो छे त्यां शुं थाय?)

दिगंबर संत पद्मनंदी मुनिवरे ‘पद्मनंदी पंचविंशतिमां ब्रह्मचर्यनी बहु व्याख्या करी छे. ब्रह्मचर्य कहेवुं कोने? ब्रह्म नाम आनंदस्वरूप आत्मा तेमां चरवुं ते ब्रह्मचर्य छे. एनी व्याख्या करतां छेल्ले कह्युं के-हे युवानो! मारी आ व्याख्या तमने न बेसे तो माफ करजो. अहा! प्रचुर आनंदनी मस्तीमां झूलनारा दिगंबर संत आम कहे छे के हे युवानो! तमने आ वात न गोठे तो माफ करजो, केमके अमे मुनि छीए. (मतलब के अमारी पासे बीजी शी वात होय?) तेम अहीं संतो कहे छे के-भाई! अमे आ वात कहीए छीए ते तने न रुचे, न गोठे तो माफ करजे भाई! पण भगवाननो कहेलो मारग तो आ ज छे. बापा! क्रियाकांड कोई मारग नथी.

पद्मनंदीस्वामी नग्न दिगंबर संत आत्माना आनंदमां रमनारा आत्मज्ञानी- ध्यानी मुनिवर हता. तेमणे ब्रह्मचर्यनुं व्याख्यान करतां एवी व्याख्या करी के-आ शरीर केळना गर्भ जेवुं तुं माने छे पण आ तो हाड-मांस अने चामडुं छे. अरे! तेने तुं चुंथवामां आनंद माने छे? मूरख छो, पागल छो? शुं थयुं छे तेने! अहा! जाणे शरीरने भोगवतां एमांथी शुं लई लउं? हाड-मांसमांथी शुं लई लउं? एवी पागलनी चेष्टा करे छे? छेल्ले कहे छे-तने आवी व्याख्या ठीक न पडे-एम के युवान अवस्था होय, फुटडुं शरीर होय, इन्द्रियो पृष्ट होय ने स्त्री पण रूपाळी होय, भोगनी रुचि होय ने पैसा पण करोड-बे करोड होय एटले तने मारी वात


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न रुचे तो माफ करजे भाई! हुं तो मुनि छुं. तेम जेने पुण्यनी रुचि छे, व्यवहाररत्नत्रयने धर्म माने छे तेने आ वात ठीक न पडे तो कहे छे-माफ करजे भाई! (अमे तो निश्चयमां लीन छीए). मार्ग तो आ ज छे.

*

वळी कहे छे के आत्मा ज्ञाननो अनुभव करे छे त्यारे आम करे छेः-

* कळश १४०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एक–ज्ञायकभाव–निर्भर–महास्वादं समासादयन्’ एक ज्ञायकभावथी भरेला महास्वादने लेतो,..’

अ... हा... हा... हा...! शुं कहे छे? के भगवान आत्मा एक ज्ञायकस्वभावथी - ध्रुवस्वभावथी भरेलो छे. तेना ‘महास्वादने लेतो’... छे अंदर? एटले के राग उपरथी, निमित्त उपरथी अने भेद उपरथी पण द्रष्टि उठावीने धर्मात्मा अभेद एक ज्ञायकभाव, ध्रुवस्वभावभाव, ज्ञानानंदभावनो आस्वाद ले छे. ‘एक ज्ञायकभाव’-एम कह्युं ने? एटले के एकली ज्ञान-ज्ञान-ज्ञानमात्र वस्तु-जे देह-मन-वाणीथी भिन्न, कर्मथी भिन्न, पुण्य-पापना विकल्पोथी भिन्न अने (विकारी-निर्विकारी) पर्यायना भेदथी पण भिन्न छे- तेनो सम्यग्द्रष्टि आस्वाद ले छे अने ते महास्वाद छे. गजब वात छे भाई! ज्ञानी महास्वादने ले छे-एटले शुं? एटले के ते निरुपम अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने आस्वादे छे. अहा! ज्ञानी, शुद्ध जाणग-जाणग-जाणगस्वभावी जे आत्मा छे तेमां एकाग्र थईने अतीन्द्रिय आनंदना महास्वादने अनुभवे छे-माणे छे.

भगवान आत्मा त्रिकाळी एकरूप परमानंदमूर्ति प्रभु एक ज्ञायकभावथी भरेलो छे. आवा निजस्वरूपमां एकाग्र थतां ज्ञानीने जे स्वाद आवे छे ते महास्वाद छे अर्थात् तेमां कोई बीजो स्वाद आवतो नथी. शुं कह्युं ए? के अतीन्द्रिय आनंदना स्वादिया ज्ञानीने ते स्वादना काळे बीजे कोई भेदनो, रागनो के व्यवहारना विकल्पनो स्वाद आवतो नथी. अहा! अज्ञानी तो आ व्रत करो, ने तप करो ने भक्ति करो -एम रागना स्वादमां-झेरना स्वादमां संतुष्ट थई जाय छे. अहीं कहे छे-आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वादमां बीजो स्वाद छे नहि. आनुं नाम धर्म अने आ वीतरागनो मार्ग छे. एकान्त छे, एकान्त छे-एम रागमां ज हरखाई जता अज्ञानीओ राडो पाडे पण भाई! आ सम्यक् एकांत छे अने वस्तुनो स्वभाव ज आवो (सम्यक् एकान्त) छे. भाई! धर्म एने कहीए के जेवो पोतानो एक ज्ञानानंदस्वभाव छे तेवो तेनो पर्यायमां अनुभव करवो-आस्वाद करवो. आ सिवाय बीजो-रागनो अनुभव-धर्म छे नहि. समजाणुं कांई...?

कहे छे-पोताना स्वरूपनो स्वाद लेतां बीजो स्वाद आवतो नथी अर्थात्


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निर्मळानंदनो नाथ शुद्ध चिद्रूपस्वरूप प्रभु आत्मानी सन्मुख थईने स्वाद लेतां अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सिवाय बीजो स्वाद आवतो नथी. माटे ‘द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः’ द्वंद्वमय स्वादने लेवा असमर्थ छे. द्वंद्वमय स्वाद एटले शुं? के जे रंग- गंध आदि छे ते, जे दया-दान आदिनो राग छे ते अने क्षयोपशम आदि जे भेद छे ते-ए बधानो स्वाद छे ते द्वंद्वमय स्वाद छे; ज्ञानी ते द्वंद्वमय स्वादने लेवा असमर्थ छे अर्थात् शुद्ध नित्यानंदस्वरूपना अतीन्द्रिय स्वादने अनुभवतां तेने द्वंद्वमय (इन्द्रियजन्य) स्वाद होतो नथी.

कोईने वळी थाय के-आ ते वळी (अतीन्द्रिय) स्वाद केवो हशे? एम के- मैसूबनो, साकरनो, रसगुल्लांनो, स्त्रीना देहना भोगनो तो स्वाद होय छे पण आ स्वाद केवो हशे?

समाधानः– भाई! सांभळ बापा! ए मैसूब, रसगुल्लां अने स्त्रीना देहादिनो स्वाद तो भगवान आत्माने होतो ज नथी कारण के ए तो बधा जड रूपी पदार्थो छे. अरूपी चैतन्यमय प्रभु आत्माने जड रूपीनो स्वाद केम होय? ए जडनो स्वाद तो जडमां रह्यो; आत्मा तो ए जड पदार्थोने अडतोय नथी. समजाणुं कांई...? हा, ए जड पदार्थो प्रत्ये लक्ष करीने जीव राग करे छे के ‘आ ठीक छे’ अने एवा रागनो स्वाद अज्ञानीने होय छे. पोताना चिदानंदमय भगवानने छोडीने पर पदार्थ प्रत्ये वलण करीने अज्ञानी जीव रागादि करे छे अने ते रागादिनो कषायलो दुःखमय स्वाद तेने आवे छे. अहीं कहे छे-रागथी भिन्न पडीने आनंदकंद प्रभु आत्मामां जईने जेणे अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद लीधो छे तेने बीजो स्वाद-रागनो ने भेदनो स्वाद-आवतो नथी. आवो स्वानुभवनो स्वाद रागना स्वादथी भिन्न अलौकिक छे. अनुपम छे.

जुओ, आमां द्रव्य-गुण-पर्याय एम त्रणे बोल आवी गया. १. पोते एक ज्ञायकभावथी भरेलो छे, कोण? के आत्मा-द्रव्य. २. पोते एक ज्ञायकभावथी भरेलो छे-तेमां जे ज्ञायकस्वभाव छे ते गुण छे अने ३. ज्ञायकभावमां एकाग्र थईने अतीन्द्रिय महास्वाद लेवो ते पर्याय छे. आ प्रमाणे भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु एक ज्ञायकभावथी भरेलो छे तेनो अंतरएकाग्रता करी अनुभव करतां-तेनो आस्वाद लेतां द्रव्य-गुण अने पर्याय त्रणे निर्मळ सिद्ध थई जाय छे अने त्यां बीजा स्वादनो-विपदामय स्वादनो अभाव छे. दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादिना विकल्पनो स्वाद विपदानो स्वाद छे अने तेनो अतीन्द्रिय महास्वादमां अभाव छे. दया, दान आदि विपदानो स्वाद तो मिथ्याद्रष्टिपणामां आवे छे ज्यारे शुद्ध एक ज्ञायकने अनुभवता समकितीने तो अतीन्द्रिय आनंदनो महास्वाद होय छे अने तेमां बीजो कषायलो स्वाद होतो नथी. अहो! गजब व्याख्या छे.


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जेम साकर एक मीठाशना स्वभावथी भरेली छे, जेम मीठुं एकला खारापणाना स्वभावथी भरेलुं छे तेम भगवान आत्मा एक ज्ञायक-ज्ञायक-ज्ञायकस्वभावथी भरेलो छे. तेमां अंतर्द्रष्टि करतां अने तेमां ज स्थिर थतां अतीन्द्रिय आनंदनो महास्वाद आवे छे; ज्ञानी ते महास्वादने अनुभवे छे. आवुं लोकोए कोई दि’ सांभळ्‌युंय न होय, प्रभु! तुं कोण छो तेनी तने खबर नथी बापु! पण तुं अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदथी भरेलो शुद्ध चैतन्यस्वभावमय पदार्थ छो. तेनो पर्यायमां स्वीकार करतां अतीन्द्रिय आनंदनो महास्वाद आवे छे जेनी आगळ इन्द्रनां इन्द्रासन अने हजारो-क्रोडो अप्सराओना भोग सडेलां मींदडां जेम दुर्गंध मारे तेवा दुर्गंधमय लागे छे. अहो! आवो चैतन्यमहाप्रभुनो आस्वाद अद्भुत अलौकिक छे!

कहे छे-अतीन्द्रिय आनंद रसनो रसियो एवो ज्ञानी द्वंद्वमय स्वाद लेवामां असमर्थ छे; एटले के त्रण बोलनो एने स्वाद नथी.

१. रंग, रस, गंध, स्पर्शनो स्वाद लेवामां अर्थात् रूपाळो सुंदर देह होय वा अन्य भोजनादिरूपी पदार्थो होय तेनो स्वाद लेवामां ते असमर्थ छे एटले के अयोग्य छे. जडनो-धूळनो स्वाद तेने होई शकतो नथी.

२. रागनो-पुण्य-पापना शुभाशुभभावोनो जे कषायलो दुःखमय स्वाद छे ते स्वाद लेवा ते असमर्थ छे अर्थात् तेवो स्वाद तेने आवतो नथी.

३. क्षयोपशमादि ज्ञानना जे भेदो ते भेदनो पण स्वाद तेने होतो नथी. पर्यायमां जे ज्ञाननो विकास छे ते भेद छे अने ते भेदनो स्वाद ज्ञानीने आवतो नथी. अहा... हा... हा...! जेने अरस, अरूप, अगंध, अराग, अभेद एवा चैतन्यमहाप्रभुनो स्वाद प्रगट होय तेने रस-रूप, गंध, भेद अने रागनो द्वंद्वमय स्वाद केम होय? न होय. अहा! मारग बापु! आवो छे. अरे! आ अवसरे मारगनुं ज्ञानेय न करे ने श्रद्धानेय न करे तो कयां जईश प्रभु! कयांय संसारसमुद्रमां खोवाई जईश हों. (पछी अनंतकाळे अवसर नहि आवे).

तो रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां सविकल्पद्वार वडे निर्विकल्प अनुभव थवानुं विधान छे ते केवी रीते छे?

समाधानः– स्वानुभवनी निर्विकल्प दशा थवा पहेलां स्व-परना भेदज्ञान-संबंधी विकल्प उठता होय छे तथा एना विचार पण छूटी ‘हुं शुद्ध छुं, एकरूप चिद्रूपस्वरूप छुं’ एवा स्वरूप संबंधी सूक्ष्म विकल्प थता होय छे अने पछी ते विकल्प पण छूटी परिणाम स्वरूपमां मग्न थईने स्वरूप केवळ चिन्मात्र भासवा लागे छे. आवी स्वानुभवनी अतीन्द्रिय आनंदनी दशा जे प्रगटे तेमां कांई विकल्पनो स्वाद


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होतो नथी, तेनो तो त्यां अभाव होय छे. सविकल्पद्वार वडे निर्विकल्प अनुभव थवानुं कहेवुं ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं उपचार कथन छे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-द्वंद्वमय स्वाद लेवाने असमर्थ ते ‘आत्म–अनुभव–अनुभाव–विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्’ आत्माना अनुभवना-स्वादना प्रभावने आधीन थयो होवाथी निज वस्तुवृत्तिने जाणतो-आस्वादतो...

अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद अनुभवतां ते तेना प्रभावने आधीन थई जाय छे. एटले शुं? के आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वादना अनुभवनमांथी ते बहार आवतो नथी. अहाहा...! आत्माना अनुभवना अनुभाव एटले प्रभावथी विवश-आधीन थयो होवाथी ते निज वस्तुवृत्तिने-चैतन्यनी शुद्ध परिणतिने जाणे छे-आस्वादे छे. प्रभु! आ तारो मारग तो जो! आ मारग विना तारा भवना निवेडा नहि आवे भाई!

आ शरीर तो हाड-मांस ने चामडां छे. तेनुं जेने आकर्षण थयुं छे तेने आत्माना निराकुल आनंदनो अभाव छे. अने ज्यां आत्माना अनुभवनो प्रभाव आव्यो त्यां परनुं आकर्षण छूटी जाय छे अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. अज्ञानी तो दान-शील- तप-भक्तिमां धर्म माने छे. पण भाई दान देवुं, शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळवुं, उपवास आदि करवा अने भगवाननी भक्ति करवी-ए तो बधो राग छे. अरे भाई! सांभळ तो खरो! मारग तो नाथ! तारो कोई बीजो अलौकिक मार्ग छे. रागमां धर्म माननारा तो बापु! लुंटाई जशे, अरे! लुंटाई ज रह्या छे.

अहाहा...! प्रभु! तुं कोण छो? के आत्मानो-निराकुळ आनंदनो स्वाद-आस्वाद लेतो थको आत्माना निरुपम स्वादना अनुभवनमांथी बहार न नीकळे तेवो आ आत्मा छो. ‘एषः आत्मा’ एम कह्युं छे ने? ‘आ आत्मा छो;’ मतलब के स्वानुभवना स्वादमां जे प्रत्यक्ष थयो छे ते आ आत्मा छो-एम कहे छे. वळी ज्यारे आत्मा प्रत्यक्ष थयो त्यारे ते ‘विशेष–उदयं भ्रश्यत्’ ज्ञानना विशेषोना उदयने गौण करतो, ‘सामान्यं कलयत् किल’ सामान्यमात्र ज्ञानने अभ्यासतो, ‘सकलं ज्ञानं’ सकळ ज्ञानने ‘एकतां नयति’ एकपणामां लावे छे-एकरूपे प्राप्त करे छे.

जुओ, आत्मा स्वानुभवना काळे ज्ञाननी जे पर्याय-अवस्था छे ते अवस्थाना भेदने गौण करे छे; अभाव करे छे एम नहि पण गौण करे छे, अने त्रिकाळी ज्ञायकभावने मुख्य करे छे. -निर्मळ ज्ञानना भेदोने पण लक्षमां-द्रष्टिमां लेतो नथी तो पछी देव-गुरुनी भक्ति करो तो कल्याण थई जशे ए वात तो कयांय रही गई. भाई! देवेय तुं ने. गुरुय तुं अने धर्म पण तुं ज छो. देवनो देव प्रभु! तुं आत्मा पूर्णानंदनो नाथ छो, गुरु पण भगवान! तारो तुं ज छो अने वीतरागतामय धर्म


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पण तुं ज छो. अहा! रागनी उत्पत्ति न थवी अने आत्माना आनंदनी उत्पत्ति थवी ते अहिंसामय-वीतरागतामय धर्म छे, अने ते ताराथी भिन्न नथी, अभिन्न छे. आवी व्याख्या अभ्यास नहि एटले लोकोने आकरी लागे. वळी बहार बीजे आवी प्ररूपणा पण बंध थई गई छे. बहार बीजे तो दान करो, उपवास करो इत्यादि करो-करोनी प्ररूपणा चाले छे. पण भाई! आवुं स्वरूपनुं भान कर्या विना बीजी रीते धर्म नहि थाय.

प्रभु! एक वार सांभळ तो खरो! तारी चीज छे के नहि अंदर? छे; छे तो परिपूर्ण स्वभावथी छे के अपूर्ण स्वभावथी? परिपूर्ण स्वभावथी छे तो अभेद छे के भेदरूप? अहाहाहा...! भगवान! तुं अभेद एकरूप परिपूर्ण ज्ञायकभावथी भरेलो आत्मा छो. अहाहाहा...! तेनी समीप जतां जे महास्वाद आवे छे-निराकुल आनंदनो आस्वाद आवे छे ते वस्तुवृत्ति अर्थात् वस्तुनी परिणति छे. छे अंदर? आत्मानी ते शुद्ध परिणति छे. ‘निज वस्तुवृत्तिने आस्वादतो’-अहाहाहा...! शुं भाषा छे! अने भाव! भाव महा गंभीर छे. पोतानी शुद्ध परिणति अर्थात् अंतरमां आनंदना स्वादनी दशा ते पोतानी वस्तुनी वृत्ति छे; व्यवहाररत्नत्रयनो राग ते वस्तुनी वृत्ति नथी, पोतानी वृत्ति नथी. लोकोने आ आकरुं लागे छे पण शुं थाय? प्रभु! मारग तो आ ज छे. तने एकांत लागे, निश्चयाभास लागे ने व्यवहारनो लोप थाय छे एम लागे तोय मारग तो आ ज (सत्य) छे. दया, दान, व्रत, आदि विकल्पना रागमां तो बापु! तारी त्रिकाळ आनंदनी शक्तिनो स्वभाव हणाई जाय छे. पुण्यना प्रेममां जेम घाणीमां तल पीलाई जाय तेम तुं चोरासीना चक्करमां पीलाई गयो छे ए जो तो खरो प्रभु!

अहा! स्वरूपनो स्वाद लेवामां जे वीतरागी आनंदनी परिणति उत्पन्न थाय छे ते, वस्तुनी वृत्ति छे, आत्मानी परिणति छे. अहाहाहा...! निज आनंदरसना रसिया ए पचीस-पचीस वर्षना जुवानजोध राजकुमारो-चक्रवर्ती ने तीर्थंकरना पुत्रो मात-पिता ने पत्नीनो त्याग करीने एक मोरपींछी अने एक कमंडळ लईने जंगलमां चाली नीकळे ए केवी अद्भुत अंतरदशा! केवो वैराग्य! तेओ माताने कहे छे-हे माता! अमे रागनो त्याग करीने हवे अंदर चैतन्यमां जवा मागीए छीए. अहा! आनंदनो नाथ तो अनुभवमां आव्यो छे पण अमारे हवे अंदरमां विशेष-विशेष रमणता करवी छे; अंदरमां ठरी जवुं छे; माता रजा दे. आ अंदरमां-आनंदना स्वादमां उग्रपणे रमवुं अने ठरवुं एनुं नाम चारित्र छे. व्रतादिनो राग कांई चारित्र नथी.

माता! एक वार रोवुं होय तो रोई ले, पण बा! अमे हवे फरीने मा नहीं करीए, जनेता नहि करीए; अमे तो अमारा आनंदमां घूसी जईशुं, एवा घूसी जईशुं के फरीने अवतार नहि होय. आवा चिदानंदरसना रसियाओने निजानंदरसमां


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घूसी जाय त्यारे जगत आखुं बेस्वाद-झेर जेवुं लागे छे. व्रतादि रागना स्वाद तेमने झेर जेवा लागे छे. आवो वीतरागनो मार्ग प्रभु! वीतरागता वडे ज प्रगट थाय छे.

अहाहाहा...! शुं कहे छे? के स्वरूपना स्वादना अनुभवमांथी बहार न आवतो आ आत्मा आत्माना विशेषोना उदयने गौण करे छे. आ दया पाळो ने व्रत करो ने तप करो इत्यादि रागनी वात तो कयांय रही, अहीं तो आनंदकंद प्रभु आत्मानी पर्यायमां जे भेदरूप विशेषो छे ते विशेषोने गौण करे छे अर्थात् विशेषनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळी एकरूप सामान्यमां घूसे छे. ओहोहोहो...! आ तो गजबनो कळश छे! आचार्य अमृतचंद्रदेवे एकलो अमृतनो रस रेडयो छे! कहे छे-प्रभु! तुं अमृतनो सागर छो ने! तेमां निमग्न थतां एकला अमृतनो स्वाद आवे छे, राग अने भेदनो स्वाद त्यां भिन्न पडी जाय छे, गौण थई जाय छे. एकरूप त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यसामान्य अभेद आनंदस्वरूपनो-अमृतनो स्वाद लेतां भेदनो स्वाद गौण थई जाय छे. हवे आमां रागनी वात कयां रही? व्यवहाररत्नत्रयना रागथी पोताने लाभ छे एम माननारे तो भाई! मारग घणो विपरीत करी नाख्यो छे.

चित्सामान्य प्रभु आत्मामां झुकतां स्वाद अभेदनो आवे छे; ज्ञान ज्यां अभेदनुं थयुं तो स्वाद पण अभेदनो आवे छे. झीणी वात छे भाई! आ दिगंबर धर्म -सनातन वीतरागनो मारग छे बापा! ए तो सांभळवाय महाभाग्य होय तो मळे छे. कहे छे- ज्ञानी ज्ञाननो अभ्यास करे छे अर्थात् अभ्यासमां लेवा माटे ते सामान्यमात्र ज्ञाननो अनुभव करे छे. अहाहाहा...! सामान्य एकरूप जे ज्ञायकभाव तेनो अभ्यास नाम वेदन ज्ञानी करतो होय छे. आबाल-गोपाल सौने माटे मारग तो आ छे. १७-१८ मी गाथामां आवे छे ने के-भगवान! तारी वर्तमान ज्ञाननी पर्याय जे छे तेमां ज्ञायकभाव जाणवामां आवे छे केमके ज्ञाननी जे पर्याय छे तेनो स्वभाव तो स्वपरप्रकाशक छे. बापु! ज्ञायक ज तारा ज्ञानमां आवे छे पण द्रष्टि तारी ज्ञायक पर नथी, पर्याय पर छे. अज्ञानीनी द्रष्टि ज्ञायक पर नथी पण पर्याय पर छे. तेथी ते निज स्वरूपने भूली जई पर्याय ज पोतानुं सर्वस्वरूप छे एम माने छे. परंतु ज्ञानीनी द्रष्टि शुद्ध ज्ञायक पर छे, पर्याय पर नथी; तेथी ते सामान्यमात्र ज्ञायकभावनो अभ्यास नाम अनुभव करतो होय छे. अहा! आवो मारग कोई विरल पुरुषो ज धारण करे छे. योगसारमां आवे छे ने के-

‘‘विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई;
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई.’’

कोई विरल शूर पुरुषो ज आ मार्गने सांभळे छे अने एमांय कोईक विरल ज मार्गने पामे छे. बापु! आ तो सर्वज्ञदेवनो-वीतराग परमेश्वरनो मार्ग छे, एमां कायरनुं कांई काम नथी. श्रीमदे कह्युं छे ने के-


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‘‘वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूळ,
औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.’’

अहा! भगवाननी वाणी हिजडा जेवा कायरोने प्रतिकूळ लागे छे. भाई! जेने पुण्यनी-शुभरागनी रुचि छे ते कायर ने नपुंसक छे; शास्त्रमां रागनी रुचिवाळाने नपुंसक कह्यो छे केमके तेने आत्माना अंतर-पुरुषार्थनी खबर नथी. तेणे रागनी रुचिमां आखुं वीर्य रोकी दीधुं छे. जेम नपुंसकने प्रजा न थाय तेम रागनी रुचिवाळाने धर्मनी प्रजा थती नथी.

आत्मा अतीन्द्रिय अनाकुळ आनंदरसथी भरेलो चिदानंदमय भगवान छे. ज्ञानी तेनो आस्वाद लेतो, सामान्यमात्र ज्ञाननो अभ्यास-अनुभव करतो सकल ज्ञानने एकपणामां लावे छे अर्थात् पर्यायना भेदने छोडीने एकरूप ज्ञानमां एकाग्र थाय छे, एक ज्ञानमात्र भावने प्राप्त करे छे; जेवो एकरूप सामान्य ज्ञायकस्वभाव छे तेवो पर्यायमां एकरूपे प्राप्त करे छे, अनुभवे छे. व्यवहारनी रुचिवाळाने आवुं आकरुं लागे तेवुं छे. परमार्थवचनिकामां आवे छे ने के-आगमपद्धति जगतने सुलभ छे, अर्थात् दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि क्रियाकांडनो व्यवहार आगमपद्धति छे ते जगतने सुलभ छे. पण अध्यात्मनो व्यवहारेय तेओ जाणता नथी. शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रये उत्पन्न वीतरागी परिणति ते अध्यात्मनो व्यवहार छे; आनंदनो स्वाद आवे ते अध्यात्मनो व्यवहार छे अने आनंदस्वरूपी आत्मद्रव्य ते निश्चय छे. निश्चय स्वरूपना अनुभव विना अज्ञानी अध्यात्मना व्यवहारने जाणतो नथी. तेथी बाह्य क्रिया करतो थको मूढ जीव मोक्षमार्ग साधी शकतो नथी.

कोईने वळी थाय के करवुं-धरवुं कांई नहि ने आत्मा-आत्मा-आत्मा, बस आत्मानो अनुभव-आ ते शुं मांडयुं छे? आम दुनियाना लोकोने आत्मानुभवनी वात कहेनारा धर्मी जीवो पागल जेवा लागे छे. पण शुं थाय? परमात्म प्रकाशमां आवे छे के- दुनियाना पागल लोको धर्मात्माने पागल कहे छे. हा, पागलोनी सर्वत्र आवी ज चेष्टा होय छे. बापु! पागलपणाथी छूटवानो आ एक ज मार्ग छे. समजाणुं कांई...?

कहे छे-सकळ ज्ञानने ज्ञानी एकत्वमां लावे छे. एटले के भेदनुं लक्ष छोडीने निज एकत्वने ज्ञानी ध्यावे छे अर्थात् एकरूप शुद्ध चिद्रूप स्वरूपनी ज्ञानी प्राप्ति करे छे. आनुं नाम ते आत्मानो स्वाद, सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे.

* कळश १४०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ एक स्वरूपज्ञानना रसीला स्वाद आगळ अन्य रस फिक्का छे.’ जोयुं? स्वरूपज्ञाननो स्वाद रसीलो छे, रसमय-आनंदमय छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ


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ज्ञानानंदस्वरूप छे. आवा पोताना स्वरूपमां लीन थई प्रवर्ततां आनंदनो-निराकुळ आनंदनो रसमय स्वाद आवे छे. अहा! आवा निजरसना रसीला स्वाद आगळ अन्य रस फिक्का छे एम कहे छे. आ स्त्री आदिना शरीर तो धाननां ढींगलां छे. जो बे दिन धान न मळे तो फिक्कां फच पडी जाय छे; कोई सामुंय न जुए हें! परंतु इन्द्राणीओ जेने हजारो वर्षे आहारमां कंठमांथी अमृत झरे छे तेमना भोग पण ज्ञानीने दुःखरूप लागे छे, विरस लागे छे-एम कहे छे. कह्युं छे ने के-

‘‘चक्रवर्तीकी संपदा, इन्द्र सरिखा भोग;
काग विट् सम गिनत हैं सम्यग्द्रष्टि लोग.’’

अहाहाहा...! कहे छे अन्य रस फिक्का लागे छे. एक स्वरूपज्ञानना रसीला स्वाद आगळ-अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद आगळ-वीतरागी स्वादनी आगळ जगतना भोगना, विषयना ने आबरूना स्वाद फिक्का लागे छे. ‘तमे तो महान छे, बहु उदार छो’ इत्यादि बहु प्रकारे प्रशंसा करवामां आवतां अज्ञानी राजी-राजी थई जाय छे; तेमा तेने रागनो (होंशनो) रस आवे छे. परंतु ज्ञानीने ते रस फिक्को लागे छे. अज्ञानी रागना रसमां रसबोळ थई जाय छे. ज्यारे ज्ञानीने स्वरूपना स्वाद आगळ बीजा बधा स्वाद फिक्का- बेस्वाद लागे छे. भाई! ज्ञानी ने अज्ञानीनी रुचिमां बहु फेर छे. (एकने स्वरूपनी रुचि छे, बीजाने रागनी).

हवे कहे छे-‘वळी स्वरूपज्ञानने अनुभवतां सर्व भेदभावो मटी जाय छे.’ अहाहाहा...! ज्ञान ने आनंद जेनुं रूप नाम स्वरूप छे एवा भगवान आत्मानो अनुभव करतां सर्व भेदभावो मटी जाय छे. एटले शुं? एटले के आ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान इत्यादि ज्ञाननी पर्यायना भेद द्रष्टिमां आवता नथी; एक मात्र चिन्मात्र स्वरूपनो अनुभव रहे छे. वळी कहे छे-

‘ज्ञानना विशेषो ज्ञेयना निमित्ते थाय छे. ज्यारे ज्ञान सामान्यनो स्वाद लेवामां आवे त्यारे ज्ञानना सर्व भेदो पण गौण थई जाय छे, एक ज्ञान ज ज्ञेयरूप थाय छे.’

शुं कहे छे? के पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां जे विशेषो-भेद पडे छे ते भिन्न-भिन्न ज्ञेयना निमित्ते पडे छे. परंतु ज्यारे ज्ञानसामान्यनो अर्थात् अखंड एकरूप त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकभावनो स्वाद लेवामां आवे छे त्यारे बधा भेदभाव गौण थई जाय छे; एक ज्ञान ज ज्ञेयरूप थाय छे; पोतानुं त्रिकाळी स्वरूप ज पर्यायमां ज्ञेयरूप थाय छे. अहाहाहा...! स्वरूपनो स्वाद लेवामां आवतां परनुं जाणवुं जे अनेक प्रकारे छे ते बधु गौण थई जाय छे अने एक शुद्ध चिन्मात्र स्वरूप ज ज्ञेयरूप थाय छे. अहो! गजबनो कळश छे!


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प्रश्नः– सामान्यनो स्वाद शुं? भोगवटो तो पर्यायमां थाय छे? समाधानः– भाई! सामान्यनो स्वाद न आवे केमके स्वाद छे ए तो पर्याय छे. परंतु त्रिकाळी अभेदना लक्षे पर्यायमां स्वाद आव्यो तो सामान्यनो स्वाद छे एम अभेद करीने कहेवाय छे.

तो शुं त्रिकाळीनुं ज्ञान ने स्वाद पर्यायनो? हा, त्रिकाळीनो स्वाद न होय; पण सामान्यनुं लक्ष करीने जे पर्यायनो स्वाद आव्यो तेने सामान्यनो स्वाद छे एम कहेवाय छे, बाकी सामान्यना स्वादमां सामान्यनो अनुभव नथी. वळी विशेषनो (पर्यायनो) एटले विशेषना लक्षे जे स्वाद छे ते रागनो आकुळतामय स्वाद छे अने सामान्यनो स्वाद अरागी निराकुल आनंदनो स्वाद छे. स्वाद छे तो पर्याय अने सामान्य कांई पर्यायमां आवतुं नथी, सामान्य जे त्रिकाळी एकरूप ध्रुव छे ते पर्यायमां न आवे पण सामान्यनुं जेटलुं ने जेवुं स्वरूप छे तेटलुं ने तेवुं पर्यायमां ज्ञानमां आवे छे अने तेने सामान्यनो स्वाद आव्यो एम कहेवाय छे. आवी वात छे.

अहाहाहा...! कहे छे-एक ज्ञान ज ज्ञेयरूप थाय छे, अर्थात् ज्ञान नाम आत्मा जे त्रिकाळी, एकरूप छे ते एक ज ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञेयरूप थाय छे; मतलब के बीजा ज्ञेय ते काळे ज्ञानमां आवता नथी. शुं कह्युं आ? के वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां आखो ज्ञानस्वरूपी आत्मा ज्ञेयरूप थई जाय छे अने ज्ञानमां जे परज्ञेय-रागादि हता ते छूटी जाय छे. प्रवचनसारमां (गाथा १७२ मां) अलिंगग्रहणना २० मा बोलमां न आव्युं के- प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे सामान्य द्रव्य तेने आलिंगन कर्या विना शुद्ध पर्याय ते आत्मा छे. एटले के आनंदनी पर्याय ते आत्मा छे, केमके स्वादमां पर्यायनो स्वाद आवे छे. छतां सामान्यना लक्षे जे स्वाद आव्यो तेने सामान्यनो स्वाद कहेवामां आवे छे. अने भेदना लक्षे जे स्वाद आवे तेने भेदनो-विकारनो स्वाद कहेवामां आवे छे.

कोईने थाय के आवी वात ने आवो उपदेश? पण बापु! आ तो तारा माटे भगवान केवळीनां रामबाण वचन छे. माटे परनो महिमा मटाडी अंदर जा ज्यां त्रणलोकनो नाथ भगवान आत्मा विराजे छे.

हवे कहे छे-‘अहीं प्रश्न थाय छे के छद्मस्थने पूर्णरूप केवळज्ञाननो स्वाद कई रीते आवे?’ एम के तमे तो आत्मानो स्वाद-आत्मानो स्वाद-पूर्णज्ञाननो स्वाद आत्माने आवे छे एम खूब कहो छो. परंतु जे हजी छद्मस्थ छे, जेने हजी आवरण छे, जे हजी अल्पज्ञ छे तेने पूर्णरूप एवा केवळज्ञाननो स्वाद केवी रीते आवे छे?

उत्तरः– ‘आ प्रश्ननो उत्तर पहेलां शुद्धनयनुं कथन करतां देवाई गयो छे’ ते


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शुं उत्तर हतो? ‘के शुद्धनय आत्मानुं शुद्ध पूर्ण स्वरूप जणावतो होवाथी शुद्धनय द्वारा पूर्णरूप केवळज्ञाननो परोक्ष स्वाद आवे छे.’

शुं कह्युं? के सम्यग्ज्ञाननो अंश जे शुद्धनय ते आत्मानुं शुद्ध पूर्णस्वरूप बतावे छे. एटला माटे शुद्धनय द्वारा पूर्णरूप केवळज्ञाननो परोक्ष स्वाद आवे छे; परोक्ष स्वाद आवे छे केमके हजी केवळज्ञाननी पर्याय प्रगट थई नथी. परंतु केवळज्ञाननी पर्याय केवी छे ते प्रतीतिमां आवी गयुं छे, माटे केवळज्ञाननो परोक्ष स्वाद आवे छे. शास्त्रमां (धवलमां) एवो पाठ आवे छे के मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. जेम रस्ते चालनारने कोई बीजो बोलावे के-अहीं आवो, अहीं आवो-एम मति-श्रुतज्ञान के जेनी साथे निराकुल आनंदनो स्वाद भेगो छे ते केवळज्ञानने बोलावे छे. दिगंबरनुं जूनुं-पुराणुं शास्त्र षट्खंडागम छे तेमां आ वात लीधी छे. एनो अर्थ शुं? के मतिज्ञानमां ज्यां आत्मानो स्वाद आव्यो तो ते मतिज्ञाननो पूर्ण स्वाद केवळज्ञानना पूर्ण स्वादने बोलावे छे अर्थात् केवळज्ञानना पूर्ण स्वादनुं एमां भान थई गयुं छे. केवळज्ञाननो एमां प्रत्यक्ष स्वाद नथी पण एना स्वादनी प्रतीति थई गई छे; अने ते मति-श्रुतनो स्वाद वधतो वधतो स्वरूपस्थिरतानी पूर्णता द्वारा केवळज्ञानना स्वादने प्राप्त थई जशे. कोईने आमां एकान्त लागे पण आ सम्यक् एकान्त छे भाई! बापु! तुं परने-जडने परखवामां रोकाई गयो छो पण आ चैतन्यहीरलाने परख्या विना भवना निवेडा नहि आवे हों.

जुओ, एक मोटो झवेरी हतो. हीरा-माणेकनो महा पारखु. एक दिवस राजा पासे थोडा हीरा आव्या तो नगरना हीरा-पारखु झवेरीओने बोलाव्या. आ मोटो झवेरी पण गयो. तेणे हीरानी बराबर परीक्षा करीने कह्युं के-हीराना पासामां जरी डाघ छे, नहितर तो आ हीरा अबजो रूपियानी किंमतना थाय. राजा तेना पर खुश थयो अने कह्युं, जाओ, तमने बक्षीश आपीए छीए. त्यां विलक्षण दिवाने वच्चे पडीने कह्युं-आजे नहि, काले वात.

पछी मोडे दिवान पेला झवेरीना घेर गया अने झवेरीने पूछयुं-वाह! तमे महान हीरा-पारखु छो पण अंदर घटमां चैतन्य हीरो शोभी रह्यो छे तेनी परख करी के नहि? झवेरी कहे-चैतन्यहीरो वळी केवो? एनी तो मने खबर ज नथी.

बीजे दिवसे ओलो झवेरी बक्षीस लेवा राजदरबारमां गयो. राजा कहे-बक्षीस आपो. त्यारे दिवान कहे-तेने सात जुतां मारो. मूरख! तें पोतानी किंमत करी नहि अने जडनी किंमत करवा नीकळ्‌यो छो? राजा कहे-शुं वात छे? दिवान कहे-राजाजी! हुं झवेरीने घेर गयो हतो अने पूछयुं के अंदर चैतन्यहीरो छे तेनी किंमत शुं? तो कहे छे- चैतन्यहीरो वळी केवो? एनी तो मने खबर नथी. माटे ते मूर्ख