Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 203 ; Kalash: 139-140.

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पाळे तोय आत्माने जाणतो नथी. केमके रागने जे भलो जाणे ते रागथी खसे केम? अने रागथी खस्या विना, एनाथी भेद कर्या विना रागरहित चैतन्यस्वरूप जणाय केम? भाई! व्रतादि छे ते राग छे. अने एनोय जेने राग छे ते रागथी खसतो नथी अने तेथी तो पोताना आत्माना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी. हवे वेपार-धंधो करवामां ने बायडी-छोकरां साचववामां ने विषय-भोगमां आखो दि’ एकला पापमां चाल्यो जाय एने नवराश मळे के दि’? अने तो ए आ समजे के दि’? कदाचित् नवराश लई सांभळवा जाय तो अंदर ऊंधां लाकडां खोसीने आवे के-व्रत करो, तपस्या करो एटले धर्म थई जशे. श्रीमदे ठीक ज कह्युं छे के बिचाराने कुगुरु लूंटी ले छे.

भाई! वीतरागनो मार्ग-सम्यग्दर्शननो मार्ग कोई अचिंत्य, अलौकिक छे! ए मार्ग बापु! माखण चोपडे मळे एम नथी. दान, तप इत्यादिना रागथी धर्म मनावतां कदाच लोको राजी थशे पण तारो आत्मा राजी नहि थाय भगवान! कोई दानमां पांच- पचीस लाख खर्चे वा कोई महिना-महिनाना उपवास करे तेथी धर्म थई जाय एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी. धर्म तो वीतरागस्वरूप छे, अने ए (दानादि) तो बधो राग छे. एमांय रागनी मंदता होय तो पुण्य थाय, धर्म नहि. वळी जो ते पुण्यने भलुं जाणे तो मिथ्यात्व थाय. आवी आकरी वात बापा! जगतने पचाववी महा कठण! पण भगवान त्रणलोकना नाथनी आ ज आज्ञा छे. रागने भलो मानवो ते भगवाननी आज्ञा नथी. अहा! अंदर अकषायरसनो पिंड एवो पुण्य-पाप रहित सदा वीतरागस्वभावी भगवान विराजी रह्यो छे. तेने भलो नहि जाणतां भाई! जो तुं पुण्यने भलुं जाणे छे तो तुं पोताना आत्माने जाणतो ज नथी.

अज्ञानी जीव कर्मोदयजनित रागने ज सारो माने छे अने ते वडे ज पोतानो मोक्ष थवो माने छे. जुओ आ विपरीतता! बापु! राग छे ए तो कर्मना उदयना निमित्ते उत्पन्न थयेलो औपाधिक भाव छे; ते कांई आत्माथी उत्पन्न थयेलो स्वभावभाव नथी. धर्म तो स्वभावभाव छे. आवी वात! अहीं तो आ (वात) ४२ वर्षथी चाले छे, आ कांई नवी वात नथी. आ समयसार तो १८ मी वार प्रवचनमां चाले छे. एनी लीटीए लीटी अने शब्देशब्दनो अर्थ थई गयो छे. अहा! पण शुं थाय? जगतने तो ते ज्यां-जे संप्रदायमां-पडयुं होय त्यांथी खसवुं मुश्केल-कठण पडे छे. कदाचित् त्यांथी खसे तो रागथी खसवुं विशेष कठण पडे छे. पण भाई! धर्म तो रागरहित वीतरागतामय ज छे अने ते वीतरागनो मार्ग एक दिगंबर जैनधर्म सिवाय बीजे कयांय नथी. रागने भलो जाणी रागने आचरवो ए तो वीतरागनो मार्ग छे ज नहि. समजाणुं कांई...?

भाई! आवो मनुष्यभव मळ्‌यो एमां आ अवसरे आ न समज्यो तो कयारे


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समजीश? अने तो तारी शी गति थशे? आ-भवरूपी पडदो बंध थशे त्यारे तुं कयां जईश प्रभु? आ देह कांई तारी चीज नथी; ए तो जोतजोतामां छूटी जशे. अने तुं तो अविनाशी तत्त्व छो, तारो कांई नाश थाय एम नथी. तो तुं कयां रहीश प्रभु? अहा! जेनी द्रष्टि रागनी रुचिथी खसती नथी ते मिथ्याद्रष्टि जीव नरक-निगोदादिमां रझळतो अनंतकाळ मिथ्यात्वना पदमां रहेशे. शुं थाय? (रागनी रुचिनुं फळ ज एवुं छे.)

प्रश्नः– शुभभावने ज्ञानी हेय माने छे एम आप कहो छो, पण ते शुभभाव करे छे तो खरो?

समाधानः– भाई! पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे ज्ञानीने दया, दान, भक्ति आदिनो शुभभाव आवे छे-होय छे, पण तेने हुं करुं, ते मारुं कर्तव्य छे-एवो अभिप्राय एने कयां छे? शुभभाव होवो ए जुदी वात छे अने शुभभाव भलो छे एम जाणी करवो-आचरवो ए जुदी वात छे. ज्ञानी शुभभाव करतो-आचरतो ज नथी. ए तो कह्युं ने के एने रागनुं निश्चये स्वामित्व ज नथी, माटे एने लेशमात्र राग नथी.

अज्ञानीए रागने ज भलो मान्यो छे अने तेनाथी ज पोतानो मोक्ष मान्यो छे. ‘आ रीते पोताना अने परना परमार्थस्वरूपने नहि जाणतो होवाथी जीव-अजीवना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी.’

जुओ, भगवान आत्मानुं परमार्थस्वरूप ज्ञानानंदमय परम सुखधाम छे; ज्यारे रागनुं स्वरूप विकार अने दुःख छे. हवे जो रागने भलो जाण्यो तो ते रागने-परने जाणतो नथी अने रागरहित पोताना आत्माने पण जाणतो नथी. आ रीते पोताने अने परने नहि जाणतो ते जीव-अजीवना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी. टीकामां पण आ लीधुं छे. अहो! आ तो भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवेली वात छे. भगवाने जे कह्युं ते अहीं कुंदकुंदाचार्ये जाहेर कर्युं छे. श्री कुंदकुंदाचार्य महाविदेहमां भगवान (सीमंधरस्वामी) पासे गया हता अने आठ दिवस त्यां रह्या हता. त्यांथी आवीने आ समयसार आदि शास्त्रो रच्यां छे. तेओ आ पोकारीने कहे छे के-

अज्ञानी पोताना अने परना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी अने तेथी ते जीव- अजीवना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी. ‘अने ज्यां जीव अने अजीव-बे पदार्थोने ज जाणतो नथी त्यां सम्यग्द्रष्टि केवो?’ अहा! हजी ज्यां स्व-परने ओळखतो ज नथी त्यां स्व-परनुं श्रद्धान केवुं? अने श्रद्धानना अभावे ते सम्यग्द्रष्टि केवो? हजी चोथा गुणस्थाननां ज ठेकाणां नथी त्यां सम्यग्द्रष्टि केवो?


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‘माटे रागी जीव सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि.’ अर्थात् रागना रागवाळो, रागनो रागी एवो जीव सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि. जुओ, रागवाळो सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि- एम नहि, परंतु रागनो जे रागी छे ते सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि. न्याय समजाय छे? आ तो न्यायनो-लोजीकनो मार्ग छे. अहीं तो न्यायथी वातने सिद्ध करे छे, कंई कचडी- मचडीने नहि. छतां दुनियाने न रुचे एटले आ शुं पागल जेवी वात करे छे?-एम कहे, पण पागलो धर्मीने पागल कहे एमां शुं आश्चर्य छे? परमात्मप्रकाशमां आवे छे के दुनियाना लोको-पागलो धर्मात्माने पागल माने छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेे, जे काव्य द्वारा आचार्यदेव अनादिथी रागादिकने पोतानुं पद जाणी सूतेलां रागी प्राणीओने उपदेश करे छेः-

* कळश १३८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

श्री गुरु संसारी भव्य जीवोने संबोधे छे केः-

‘अन्धाः’ हे अंध प्राणीओ! अंध केम कह्या? के पोतानी चीज जे त्रिकाळ शुद्ध ज्ञानानंदमय निर्मळानंदनो नाथ प्रभु अंदर पडयो छे तेने देखता नथी तेथी अंध कह्या. शरीर, धन, लक्ष्मी इत्यादि बहारनी चीजमां उन्मत्त थयेला-मूर्च्छाई गयेला प्राणीओ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माने देखता नथी, भाळता नथी तेथी तेओ अंध छे एम कहेवुं छे. तेथी कहे छे-

हे अंध प्राणीओ! ‘आसंसारात्’ अनादि संसारथी मांडीने ‘प्रतिपदम्’ पर्याये पर्याये ‘अमी रागी जीवाः’ आ रागी जीवो ‘नित्यमत्ताः’ सदाय मत्त वर्तता थका ‘यस्मिन् सुप्ताः’ जे पदमां सूता छे-ऊंघे छे ‘तत्’ ते पद अर्थात् स्थान ‘अपदम् अपदम्’ अपद छे, अपद छे.

शुं कह्युं? के अनादि संसारथी जीव पर्यायमां घेलो बन्यो छे. जे पर्याय मळी ते पर्याय ज मारुं स्वरूप छे एम उन्मत्त-पागल थईने वर्ते छे. अहा! हुं देव छुं, हुं मनुष्य छुं, हुं नारकी छुं, हुं तिर्यंच छुं, हुं शेठ छुं, हुं दरिद्री छुं, हुं पंडित छुं, हुं मूर्ख छुं, इत्यादिपणे पर्याये पर्याये पोताने माने छे अने पर्यायमां ज अहंबुद्धि धारे छे; परंतु पोताना त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यमात्र आत्मस्वरूपमां द्रष्टि करतो नथी. स्वरूपमां द्रष्टि करे तो न्याल थई जाय पण द्रष्टि करतो नथी तेथी तो अंध कहीने आचार्यदेव संबोधे छे.

वाह! एककोर गाथा ७२ मां ‘भगवान आत्मा’ एम ‘भगवान’ कहीने बोलावे अने अहीं ‘अंध’ कहीने संबोधे! आ वळी केवुं?


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भाई! आत्मा सदा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. स्वभावथी ते सदा परमात्मस्वरूपे-भगवानस्वरूपे ज छे. आवा स्वभावनी अपेक्षाए त्यां गाथा ७२ मां एने ‘भगवान’ कहीने बोलाव्यो छे. त्यारे अहीं पोते पर्यायमां-रागद्वेष, पुण्यपापना भाव अने तेना फळमां-उन्मत्त-पागल थईने वर्ततो थको ते नित्यानंदस्वभावने जोतो नथी तेथी ‘अंध’ कहीने संबोध्यो छे. बन्ने वखते स्वरूपमां ज द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे. समजाणुं कांई...?

कहे छे-अनादि संसारथी रागी प्राणी पर्यायमां ज मत्त वर्ततो थको जे पदमां सूतो छे ते पद अपद छे, अपद छे; मतलब के ते पद तारुं स्वपद नथी. बापु! आ शरीर, इन्द्रिय, धन-संपत्ति, महेल-मकान, स्त्री-परिवार इत्यादिमां मत्त-मोहित थई तुं सूतो छे पण ए बधां अपद छे, अपद छे. आ रूपाळुं शरीर देखाय छे ने? भाई! ते एकवार अग्निमां सळगशे, शरीरमांथी हळहळ अग्नि नीकळशे अने तेनी राख थई फू थई जशे. प्रभु! ए तारी चीज कयां छे? ए तो अपद छे. आ पुण्यना भाव अने तेना फळमां प्राप्त देवपद, राजपद, शेठपद इत्यादिमां तुं मूर्च्छित थई पडयो छे पण ए बधां अपद छे अर्थात् ते तारां चैतन्यनां अविनाशी पद नथी. अंदर भगवान चैतन्यदेव प्रभु आत्मा एक ज तारुं अविनाशी पद छे.

भाई! तुं देहनी, इन्द्रियोनी, वाणीनी अने बाह्य पदार्थोनी रातदिवस संभाळ कर्या करे छे, सजावट कर्या करे छे; पण ए तो अपद छे ने प्रभु! ते अपदमां कयां शरण छे? नाशवंत चीजनुं शरण शुं? भगवान! ए क्षणविनाशी चीजो तारां रहेवानां अने बेसवानां स्थान नथी; ते अपद छे अपद छे एम ‘विबुध्यध्वम्’ समजो. अहीं ‘अपद’ शब्द बे वार कहेवाथी करुणाभाव सूचित थाय छे. अहा! संतोनी शुं करुणा छे! कहे छे- भगवान! पोताना भगवानस्वरूपने भूलीने हुं देव छुं, हुं राजा छुं, हुं पुण्यवंत छुं, हुं धनवंत छुं इत्यादि नाशवंत चीजमां केम अहंबुद्धि धारे छे? तने शुं थयुं छे प्रभु! के आ अपदमां तने प्रीति अने प्रेम छे? भाई! त्यां रहेवानुं अने बेसवानुं तारुं स्थान नथी.

जेम दारू पीने कोई राजा उकरडे जईने सूतो होय तेने बीजो सुज्ञ पुरुष आवीने कहे के-अरे राजन्! शुं करो छो आ? कयां छो तमे? तमारुं स्थान तो सोनानुं सिंहासन छे. तेम मोहरूपी दारू पीने उन्मत्त थयेलो अज्ञानी जीव पोताना शुद्ध सच्चिदानंद भगवानने भूलीने अस्थानमां-स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-संपत्ति, शरीर आदिमां जईने सूतो छे. तेने आचार्यदेव सावधान-जाग्रत करीने कहे छे-अरे भाई! तुं ज्यां सूतो छे ए तो अस्थान छे, अस्थान छे; ‘इत = एत एत’ आ तरफ आवो, आ तरफ आवो. छे? बे वार कह्युं छे के-आ तरफ आवो, आ तरफ आवो. अहो! आचार्यनी असीम (वीतरागी) करुणा छे. अपद छे, अपद छे-एम बे वार


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कह्युं अने अहींयां आवो अहींयां आवो-एम पण बे वार कह्युं! मतलब के अहींयां अंदर आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु रागरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूपे जे विराजी रह्यो छे ते तारुं अविनाशी ध्रुवधाम छे; माटे अन्य सर्वनुं लक्ष छोडीने तेमां आवी जा. अहा... हा... हा...! शुं करुणा छे! (पोते जे निराकुल आनंदनो स्वाद चाख्यो छे ते आखुं जगत चाखो-एम आचार्यदेवने अंतरमां करुणानो भाव थयो छे).

कहे छे-आ तरफ आवो, आ तरफ आवो; अहींयां निवास करो. मात्र वास करो- एम नहि, पण निवास करो-एम कहे छे. वास-वसवुं-ए तो सामान्य छे. पण आ तो ‘निवास’-विशेष कथन छे. मतलब के अहीं स्वरूपमां एवा रहो के त्यांथी फरीथी नीकळवुं न पडे. अंदर चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा छे एमां आवीने स्थिर थई जाओ एम कहे छे. अहो! अद्भुत कळश ने अद्भुत शैली! आचार्य अमृतचंद्र-चालता सिद्ध-सौने सिद्धपद माटे आह्वान आपे छे!

कहे छे-आ तरफ आवो, आ तरफ आवो, अहीं निवास करो. केम? तो कहे छे- ‘पदमिदमिदम्’-तमारुं पद आ छे-आ छे. त्रण वात कही-

१. पुण्य-पाप अने तेनां फळ सघळां अपद छे, अपद छे. २. आ तरफ आवो, आ तरफ आवो; अहीं निवास करो. ३. तमारुं पद आ छे-आ छे. अहा... हा... हा...! शुं कळश मूकयो छे! भगवानने अंदर भाळ्‌यो छे ने बापु! आचार्यदेवे गजब द्रढताथी घोषणा करी छे के-शरीर, मन, वाणी, धन-संपत्ति, शेठपद, राजपद के देवपद इत्यादि बधुंय अपद छे, अपद छे. तारुं पद तो भगवान! चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा छे; तेमां निवास कर. आ छे-आ छे-एम कहीने कहे छे-अमे एमां वसीए छीए ने तुं एमां वस.

कहे छे-तमारुं पद आ छे-आ छे ‘यत्र’ ज्यां ‘शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः’ शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु ‘स्वरस–भरतः’ निज रसनी अतिशयताने लीधे ‘स्थायिभावत्वम् एति’ स्थायीभावपणाने प्राप्त छे अर्थात् स्थिर छे-अविनाशी छे.

जुओ, ज्यां शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु छे ते तारुं स्वपद छे. अहीं शुद्ध-शुद्ध एम बे वार कह्युं छे; मतलब के द्रव्य शुद्ध अने पर्याय पण शुद्ध छे अथवा द्रव्ये ने गुणे शुद्ध छे. जो पर्याय लईए तो त्रिकाळी कारण शुद्ध-पर्याये शुद्ध छे एम अर्थ छे. बाकी तो द्रव्य शुद्ध छे अने गुणेय शुद्ध छे-आवी चैतन्यधातु छे. अहाहा...! जेणे मात्र चैतन्यपणुं धारी राख्युं छे अने जेणे राग ने पुण्य-पापने धारी राख्या नथी ते चैतन्यधातु छे. अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ भगवान आत्मा अंदर चैतन्यधातु छे


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केमके तेणे चैतन्यमात्रपणुं धारी राख्युं छे. आचार्य कहे छे निजरसनी अतिशयता वडे जे स्थिर छे एवुं शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु ज्यां छे ते आत्मा तारुं स्वपद छे; तेमां तुं निवास कर.

अहाहा...! आत्मा निजरसनी अतिशयताथी भरेलो छे. एना चैतन्यरसमां आनंदरस, ज्ञानरस, शांतरस, वीतरागतारस, स्वच्छतारस, प्रभुतारस इत्यादि आवा अनंतगुणना रस एकपणे भर्या छे. अहो! आत्मामां निजरसनो अतिशय एटले विशेषता छे. एटले शुं? एटले के आत्माने छोडीने आवो निजरस-चैतन्यरस बीजे कय ांय (पुण्य-पाप आदिमां) छे नहि. गजब वात छे प्रभु! आचार्यदेवे शब्दे शब्दे भेदज्ञाननुं अमृत वहाव्युं छे.

कोईने वळी थाय के वेपार-धंधामांथी नीकळीने आवुं जाणवुं एना करतां व्रत, तप, भक्ति, दान इत्यादि करीए तो?

अरे भाई! एमां (व्रतादिमां) शुं छे? ए तो शुभभाव-पुण्यभाव छे अने ते अपद छे, अस्थान छे. वळी एना फळमां प्राप्त शरीर, धन-संपत्ति, राजपद, देवपद आदि सर्व अपद छे, दुःखनां स्थान छे. समजाणुं कांई...? दुःखनां निमित्त छे तेथी दुःखनां स्थान छे एम उपचारथी कहेवाय छे.

बापु! आ पांचमहाव्रतना विकल्प पण अपद छे, अस्थान छे. तेमां रहेवा योग्य ते स्थान नथी. तारुं रहेवानुं स्थान तो प्रभु! ज्यां शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु छे ते आत्मा छे. भाई! दया, दान, व्रत आदि परिणाम तो राग छे; एनाथी तारी चीज तो भिन्न छे. चैतन्यरसथी भरेली तारी चीजने तो ए (व्रतादिना विकल्प) अडताय नथी. एवी तारी चीज अंदर निर्लेप पडी छे. अहाहा...! एमां एकला आनंदनो सागर उछळी रह्यो छे; एमां आव ने प्रभु! अहो! संतोनी-मुनिवरोनी करुणा तो जुओ!

आत्मा ‘स्वरस–भरतः’ नाम निज शक्तिना रसथी भरेलो छे. अहाहा...! अनंत-गुणरसना पिंड प्रभु आत्मामां चैतन्यरस, आनंदरस, भर्यो पडयो छे. अनंत अस्तित्वनो आनंद, वस्तुत्वनो आनंद, जीवत्वनो आनंद, ज्ञाननो आनंद, दर्शननो आनंद, शांतिनो आनंद-एम अनंतगुणना आनंदना रसथी प्रभु आत्मा भर्यो पडयो छे; अने ते स्थायीभावपणाने प्राप्त छे. शुं कह्युं? के आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, स्त्री- पुत्र-परिवार अने पुण्य-पापना भाव ए सर्व तो नाशवान छे, पण भगवान आत्मा निजरसनी अतिशयता वडे स्थिर-अविनाशी छे, अंदर त्रिकाळ स्थायी रहेवावाळो छे, कायम रहेवावाळो छे. अहो! बहु सरस श्लोक आवी गयो छे!


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कहे छे-भगवान आत्मा अंदर स्थायीभाव-स्थिर नित्य छे. आवुं त्रिकाळी ध्रुवधाम प्रभु आत्मा तारुं निजपद छे. कहे छे-सर्व अपदथी छूटी अहीं निजपदमां आवी जा; तेथी तुं जन्म-मरणथी रहित थई जईश. जेम पूरणपोळी घीना रसमां तरबोळ होय छे तेम भगवान आत्मा चिदानंदरसथी तरबोळ भर्यो पडयो छे. तेमां द्रष्टि करी अंदर निवास कर; तेथी तारी पर्यायमां पण आनंदरस टपकशे. भाई! आ चैतन्यपद छे ते तारुं ध्रुवपद छे. तेने भूलीने तुं अपदमां कयां सूतो छे प्रभु? जाग नाथ! जाग; अने आवी जा आ ध्रुवपदमां; तने मोक्षपद थशे.

विशेष खुलासो करे छे के-‘शुद्ध-शुद्ध’-एम शुद्ध शब्द बे वार कह्यो छे ते द्रव्य अने भाव-बन्नेनी शुद्धताने सूचवे छे; अर्थात् द्रव्य शुद्ध छे अने भाव पण शुद्ध छे. जुओ, भाववान द्रव्य तो शुद्ध छे, भाववाननो भाव पण शुद्ध छे. आ भाव एटले पुण्य-पापना भाव एम नहि, ए तो अशुद्ध, मलिन ने दुःखरूप छे. भाववान भगवान आत्मानो भाव तो शुद्ध ज्ञान, आनंद आदि छे अने ते तारी चीज छे, स्थायीभावने प्राप्त छे अर्थात् अनादि-अनंत स्थिररूप छे; एमां हल-चल छे नहि. अहा! प्रभु! आवुं तारुं ध्रुवधाम छे ने! माटे परधामने छोडी स्वधाममां-ध्रुवधाममां आवी जा.

हवे द्रव्य-भावनो खुलासो करे छे. समस्त अन्यद्रव्योथी भिन्न होवाने कारणे आत्मा द्रव्ये शुद्ध छे अने परना निमित्तथी थवावाळा पोताना भावोथी रहित होवाने लीधे भावे शुद्ध छे. जुओ, पुण्य-पापना भाव पर्यायमां थाय छे माटे ‘पोताना भावो’ कह्या छे, पण ते ज्ञानादिनी जेम पोताना भावो छे नहि. आवुं! हवे कोई दि वांचन- श्रवण-मनन मळे नहि ने एम ने एम धंधा-वेपारमां अने स्त्री-पुत्र-परिवारमां मश्गुल-मत्त रहे छे पण भाई! ए तो तुं पागल छो एम अहीं कहे छे. प्रभु! तुं कयां छो? ने कयां जा’ छो? तारी तने खबर नथी! पण भाई! जेम वेश्याने घरे जाय ते व्यभिचारी छे तेम रागमां अने परमां जाय ते व्यभिचारी छे. भाई! जे पोतानी चीज नथी तेने पोतानी मानवी ते व्यभिचार छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, देवे द्वारिका नगरी श्रीकृष्ण माटे रची हती. अहा! जेने सोनाना गढ अने रतनना कांगरा-एवी ते मनोहर नगरी ज्यारे भडके बळवा लागी त्यारे लाखो-करोडो प्रजा तेमां भस्म थई गई पण कोई तेने बचाववा न आव्युं. ते समये श्रीकृष्ण ने बळदेव पोताना माता-पिताने रथमां बेसाडीने बहार काढवा लाग्या त्यारे उपरथी गेबी अवाज आव्यो के-माबापने छोडी दो, तमारा बे सिवाय कोई नहि बचे, मा-बाप नहि बचे. अहा! जेनी हजारो देवता सेवा करता होय ते श्रीकृष्ण अने बळदेव मा-बापने भस्मीभूत थता जोई रह्या पण तेमने बचावी शकया नहि; मात्र विलाप करता ज रही गया. अरे भाई! नाशवान चीजने तेना नाशना काळे


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कोण राखी शके? देहने जे समये छूटवानो काळ होय ते समये तेने कोण राखी शके? बापु! जगतमां कोई शरण नथी हों. जुओने! अंदर राणीओ चित्कार करी पोकारे के-हे श्रीकृष्ण! अमने काढो, अमने काढो! पण कोण काढे? बापु! त्रण खंडना स्वामी श्रीकृष्ण ए बधुं जोता रही गया.

श्रीकृष्ण बळदेवने-मोटाभाईने पोकार करे छे के-‘भाई! हवे आपणे कयां जईशुं? आ द्वारिका तो खाख थई गई छे, ने पांडवोने तो आपणे देशनिकाल कर्या छे. हवे आपणे कयां जईशुं? त्यारे बळदेव कहे छे-आपणे पांडवो पासे जईशुं; भले आपणे तेमने देशनिकाल कर्या, पण तेओ सज्जन छे. अहा! समय तो जुओ! जेनी देवताओ सेवा करे ते वासुदेव पोकार करे छे के-आपणे कयां जईशुं? गजब वात छे ने!

हवे ते बन्ने कौसंबी वनमां पहोंच्या. त्यारे थाकेला श्रीकृष्णे कह्युं-‘भाई हवे एक डगलुंय आगळ नहि चाली शकुं.’ जुओ आ श्रीकृष्ण पोकारे छे! त्यारे बळभद्रे कह्युं- ‘तमे अहीं रहो, हुं पाणी भरी लावुं.’ पण पाणी लावे शामां? बळभद्रे पांदडांमां सळी नाखीने लोटा जेवुं बनाव्युं-अने पाणी लेवा गया. हवे शुं बन्युं? ए ज के जे भगवाननी दिव्यध्वनिमां आव्युं हतुं. भगवाननी वाणीमां आव्युं हतुं के जरत्कुमारना हाथे श्रीकृष्णनुं मोत थशे. एटले तो ते बिचारो बार वरसथी जंगलमां रहेतो हतो. श्रीकृष्ण त्यां पग पर पग चढावीने सूता हता. जरत्कुमारे दूरथी जोयुं के-आ कोई हरण छे. एटले हरण धारीने तीर मार्युं. तीर श्रीकृष्णने वाग्युं. नजीक आवीने जुए छे तो ते खेदखिन्न थयो अने कहेवा लाग्यो-‘अहा! भाई! तमे अहीं अत्यारे? बार वरसथी हुं जंगलमां रह्युं छुं छतां मारे हाथे आ गजब! अरे! काळो केर थई गयो! मारे हवे कयां जवुं?’ श्रीकृष्णे कह्युं-‘भाई! ले आ कौस्तुभमणि, ने पांडवो पासे जजे. तेओ तने राखशे कारण के आ मारुं चिन्ह छे. (कौस्तुभमणि बहु किंमती होय छे अने ते वासुदेवनी आंगळीए ज होय छे.)

जरत्कुमार तो त्यांथी विदाय थई गयो अने अहा! श्रीकृष्णनो देह छूटी गयो! रे! कौसुंबी वनमां श्रीकृष्ण एकला मरणाधीन! कोई त्यां शरण नहि. बापु! ए अपदमां शरण कयां छे? प्रभु! वासुदेवनुं पद पण अपद छे, अशरण छे. तेथी तो आचार्यदेवे ऊंचेथी पोकारीने कह्युं के-अहीं आव, अहीं आव ज्यां शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु निजरसनी अतिशयता वडे स्थिरभावने प्राप्त छे.

* कळश १३८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

पहेलां द्रष्टांत कहे छे-‘जेम कोई महान पुरुष मद्य पीने मलिन जग्यामां सूतो होय तेने कोई आवीने जगाडे-संबोधन करे के “तारी सूवानी जग्या आ


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नथी; तारी जग्या तो शुद्ध सुवर्णमय धातुनी बनेली छे, अन्य कुधातुना भेळथी रहित शुद्ध छे अने अति मजबूत छे; माटे हुं तने बतावुं छुं त्यां आव, त्यां शयन आदि करी आनंदित था.”

जुओ, जेणे दारू पीधो होय तेने भान नथी होतुं के हुं कयां सूतो छुं, ए तो विष्टाना ढगला पर पण जईने सूई जाय छे. तेने बीजो जगाडीने कहे के-

१. भाई! तारुं सिंहासन तो सुवर्णमय धातुनुं बनेलुं छे; वळी २. ते अन्य कुधातुना भेळथी रहित शुद्ध छे; अने ३. ते अति मजबूत छे. माटे हुं बतावुं त्यां आव अने तारा स्थानमां शयनादि करी आनंदित था. जुओ, आ द्रष्टांत छे. हवे कहे छे-

‘तेवी रीते आ प्राणीओ अनादि संसारथी मांडीने रागादिकने भला जाणी, तेमने ज पोतानो स्वभाव जाणी, तेमां ज निश्चिंत सूतां छे-स्थित छे,...’

जुओ, संसारी प्राणीओ अनादि निगोदथी मांडीने रागादिकने एटले शुभाशुभभावने भला जाणी अने तेने ज पोतानुं स्वरूप जाणीने तेमां निश्चिंतपणे सूतां छे. हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील आदि अशुभभाव छे अने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि शुभभाव. ए बन्ने भाव विकार छे, विभाव छे. छतां अज्ञानीओ तेने स्वभाव जाणी, भला मानी तेमां ज सूता छे. अहाहा...! पोतानो स्वभाव तो शुद्ध ज्ञानानंदमय छे, पण तेनी खबर नथी एटले शुभाशुभभावने ज स्वभाव जाणे छे.

भाई! आ शरीर, धन, लक्ष्मी, स्त्री-पुत्र-परिवार, महेल-मकान इत्यादिनी अहीं वात नथी केमके ए तो प्रत्यक्ष परचीज छे; तेमां आत्मा नथी अने आत्मामां तेओ नथी. छतां अज्ञानीओ ते बधांने पोतानां माने छे ते तेमनी विपरीत मान्यता छे. भाई! आ शरीर मारुं, ने पैसा मारा ने बायडी-छोकरां मारां-ए विपरीत मान्यता छे अने ए ज दुःख छे. अज्ञानी एमां सुख माने छे पण धूळमांय त्यां सुख नथी. ए तो जेम कोई सन्निपातियो सन्निपातमां खडखड दांत काढे छे तेम आने मिथ्यात्वनो सन्निपात छे जेमां दुःखने सुख माने छे.

हा, पण दुनिया तो आ बधा धनवंतोने सुखी कहे छे? बापु! दुनिया तो बधी गांडा-पागलोथी भरेली छे; तेओ एमने सुखी कहे तेथी शुं? वास्तवमां तेओ मिथ्यात्वभाव वडे दुःखी ज छे.

अहीं कहे छे-शुभाशुभभाव-पुण्य-पापना भाव विभाव छे, मलिन छे, दुःखरूप


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छे तोपण अज्ञानी जीवो तेमने ज भला जाणी, पोतानो स्वभाव मानी अनादिथी तेमां निश्चिंतपणे सूता छे. बिचाराओने खबर नथी ने, तेथी निश्चिंत-बेफीकर-बेखबर थईने तेमां सूता छे. हवे कहे छे-

‘तेमने श्रीगुरु करुणापूर्वक संबोधे छे-जगाडे छे-सावधान करे छे के-हे अंध प्राणीओ! तमे जे पदमां सूता छो ते तमारुं पद नथी; तमारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे, बहारमां अन्यद्रव्योना भेळ विनानुं तेम ज अंतरंगमां विकार विनानुं शुद्ध छे अने स्थायी छे; ते पदने प्राप्त थाओ-शुद्ध चैतन्यरूप पोताना भावनो आश्रय करो.’

जुओ, प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनी मस्तीमां रहेनारा श्रीगुरु छे. तेओ अंतरमां करुणा लावीने अज्ञानी जीवोने सावधान करे छे के-अरे! शुं तमे जोता नथी के कयां सूता छो? ‘हे अंध प्राणीओ!’-एम कह्युं ने? ए तो सावधान करवाना करुणाना उद्गार छे; ए करुणा छे हों. एम के-भाई! आ शुं करे छे तुं? अंदर चिदानंदरसथी भरेलो तुं भगवान छो अने जोतो नथी ने पुण्य-पापना भावमां पोतापणुं मानी सूतो छे? आवुं अंधपणुं! आम करुणा लावी सावधान करे छे.

प्रश्नः– द्रष्टांतमां ‘महान पुरुष’-एम केम लीधुं? समाधानः– ‘महान पुरुष’ एटले मोटो धनाढय, राजा, दिवान आदि. महान पुरुष एटले संसारमां मोटो; मोटो धर्मात्मा पुरुष एम अहीं लेवुं नथी. राजा आदि मोटा पुरुष होय ने, ते दारू पीने लथडियां खाय अने विष्टा ने पेशाबथी भरेला स्थानमां जईने सूई जाय एम अहीं कहेवुं छे. तेम स्वभावे महान होवा छतां अज्ञानी जीव अनादिथी मिथ्यात्वरूप दारू पीने शुभाशुभभावने पोताना मानी, भला जाणी, तेमां सूतो छे. तेने श्रीगुरु सावधान करी जगाडे छे के-जाग रे जाग नाथ! भगवान- स्वरूपी तुं छो छतां आ (विष्टा समान) शुभाशुभभावमां कयां सूतो छो? शरीरादिमां अरे शुभरागमां प्रेम करीने तेमां रसबोळ थई जा’ छो तो मूढ छो के शुं? अहो! श्रीगुरु महा उपकारी छे!

भाई! दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना शुभभाव पण बधा दुःख छे. हवे आवुं सांभळवाय मळ्‌युं न होय ते बिचारा शुं करे? शुभरागने ज पोतानो स्वभाव जाणी तेमां पडया रहे. पण बापु! एम तो तुं अनंतवार मुनि थयो-दिगंबर हों, अने पांच महाव्रत, पांच समिति ने गुप्ति बहारमां बराबर चोख्खां पाळ्‌यां. पण एथी शुं? संसार तो ऊभो रह्यो, दुःख तो ऊभुं रह्युं. भाई! राग अशुभ हो के शुभ- ए तो बधुं दुःख ज छे. तेने तुं भलो जाणी तेमां निश्चिंत थई सूतो


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छे पण ए तो नर्युं अंधपणुं छे, मूढता छे. आनंदना नाथ प्रभु आत्माने भूलीने शुभभावना प्रेममां पडवुं ए तो व्यभिचार छे बापु! अने एनुं फळ चारगतिनी जेल छे. समजाणुं कांई...?

कहे छे-नाथ! तुं जे पदमां सूतो छो अर्थात् जे शुभभावमां अंध बनीने स्वभावना भान विना सूतो छो ते तारुं पद नथी. आपणे कंईक ठीक छीए एम मानी भगवान! तुं जेमां सूतो छे ते तारुं सुवानुं स्थान नथी.

कोईने वळी थाय के आ ते केवी वात? आमां धनप्राप्तिनी वात तो आवी नहि? भाई! धनप्राप्तिना भाव तो एकलुं पाप छे. तेनी तो वात एककोर राख, केमके ए तो अपद, अपद, अपद ज छे. अहीं तो दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिनी वृत्ति जे ऊठी छे ते वृत्तिमां तुं निश्चिंत थईने सूतो छे पण तेय अपद ज छे एम कहे छे. अहा... हा... हा...! ए वृत्तिथी रहित अंदर आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा विराजी रह्यो छे तेनो निराकुल स्वाद लेतो नथी अने शुभवृत्तिना मोहमां अंध बन्यो छे? शुं आंधळो छे तुं? भाई! आ तो पैसावाळा तो शुं मोटा व्रत ने तपस्यावाळाना पण गर्व उतरी जाय एवुं छे. वळी तुं नवमी ग्रैवेयक गयो त्यारे जे व्रत ने तप पाळ्‌यां हतां ते अत्यारे छेय कयां? शुक्ल लेश्याना परिणाम बापु! चामडां उतारीने खार छांटे तोपण क्रोध न करे एवां तो महाव्रतना परिणाम ते वखते हता. पण ए बधा रागना-दुःखना परिणाम हता भाई! अहीं कहे छे-भाई! तुं एमां (शुभवृत्तिमां) नचिंत थईने सूतो छे पण ते तारुं पद नथी, ए अपद छे प्रभु!

आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु परमात्मा छे. भगवाननी भक्ति आदि शुभभाव एनाथी विरुद्ध भाव छे, विभाव छे माटे ते अपद छे. भाई! आवी वात तो वीतरागना शासनमां ज मळे. वीतराग जैन परमेश्वर ज एम कहे के-अमारी सामुं तुं जोया करे अने स्तुति, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभरागमां ज तुं सूतो रहे तो तुं मूढ छो. केम? केमके अमे (तारा माटे) परद्रव्य छीए अने परद्रव्य तरफनी वृत्ति जे थाय ते वडे जीवनी दुर्गति थाय छे. मोक्षपाहुडमां पाठ छे-गाथा १६ मां-के ‘परदव्वादो दुग्गइ’–परद्रव्य तरफना वलणथी दुर्गति छे. ते चैतन्यनी गति नथी अने ‘सद्दव्वादो सग्गइ होइ’– स्वद्रव्यना वलणथी सुगति-मुक्ति थाय छे. बापु! स्वद्रव्य सिवाय जेटलाय देव-गुरु- शास्त्र, शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय अने स्त्री-परिवार आदि परद्रव्य छे तेना तरफनुं जे तारुं वलण अने लक्ष छे ते बधो शुभाशुभराग छे अने ते तारी दुर्गति छे प्रभु! अहा! जगतने सत्य मळ्‌युं नथी अने एम ने एम आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. भाई! पुण्य वडे स्वर्गादि मळे पण ए बधी दुर्गति छे, एमां कयां सुख छे? स्वर्गादिमां पण रागना क्लेशनुं ज भोगववापणुं छे. भाई! राग स्वयं पुण्य हो के पाप हो-दुःख ज छे.


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तो अमारे करवुं शुं? समाधानः– ए तो कह्युं ने के-‘सद्दव्वादो हु सग्गइ हाइ’–स्वद्रव्य प्रत्येना वलण अने आश्रयथी सुगति कहेतां मुक्ति थाय छे. भाई! आ ज मार्ग छे, बीजो कोई मार्ग छे नहि. अंदर निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति रागथी रहित निर्विकारी प्रभु बिराजे छे तेमां रहेवुं अने तेमां ठरी जवुं; बस आ एक ज करवा योग्य छे. समजाणुं कांई...?

प्रभु! तुं अंदर आत्मा छो के नहि? अहा... हा... हा! तुं अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप अमृतथी भरेलो एकलो अमृतनो सागर छो; ज्यारे परद्रव्यना वलणथी उत्पन्न आ इन्द्रियोनां सुख तो दुःखना-झेरना प्याला छे. भगवान आत्माथी विरुद्ध जे शुभ विकल्प ऊठे छे ते झेर छे भाई! अने एमां आ ठीक छे एवो हरखनो भाव पण झेर छे प्रभु! अरे! तुं एमां नचिंत थईने सूतो छे? भगवान! ए तारुं रहेवानुं स्थान नथी; ए तो अपद छे. माटे जाग नाथ! जाग. तारुं पद तो अंदर शुद्ध चैतन्यधातुमय छे; त्यां जा, तेमां निवास कर. अहो! संतो निस्पृह करुणा करीने जगाडे छे.

कहे छे-रागमां एकाकार थईने सूतो छो पण ते तारुं पद नथी प्रभु! तारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे. अहा... हा... हा...! एक ज्ञायकस्वभावथी भरेलो ध्रुव नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा शुद्ध चैतन्यधातुमय छे अने ते तारुं पद छे. आम शुभाशुभरागमां-अपदमां रखडवा जा’ छो एना करतां एमां जा ने! त्यां वस ने! त्यां ज ठरी जा ने. ल्यो, आ करवानुं छे.

हा, पण जिनमंदिर बंधाववां, स्वाध्याय मंदिर बनाववां, प्रभावना करवी इत्यादि तो करवुं के नहि?

समाधानः– भाई! शुं तुं मंदिरादि बंधावी शके छे? धूळेय बंधावतो नथी सांभळने. पर द्रव्यनुं कार्य आत्मा करी शकतो ज नथी. मात्र त्यां राग करे छे अने ते पुण्यभाव छे. आवो पुण्यभाव ज्ञानीने पण आवे छे-होय छे, पण छे ते अपद. ज्ञानी पण तेने अपद एटले अस्थानरूप दुःखदायक ज जाणे छे. समजाणुं कांई...? देव-गुरु- शास्त्रनी श्रद्धानो राग, प्रभावना आदिनो राग समकितीने साधकदशामां अवश्य होय छे पण ते अपद छे; एकमात्र प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप शुद्ध चैतन्यमय परमात्मा पोते ज स्वपद छे. आवी वात छे.

अहा! कहे छे-भगवान! तारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे. ‘चैतन्यधातुवाळुं’ -एमेय नहि, शुद्ध चैतन्यधातुमय छे. एटले शुं? एटले के कर्म शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि बहारमां अन्यद्रव्यनी भेळसेळ विनानी तारी चीज शुद्ध छे;


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केमके ए सर्व परद्रव्य तारामां छे ज नहि. तेम ज अंदरमां रागादि विकार रहित तारी चीज निर्विकार शुद्ध छे. भाई! जे तारुं स्वपद छे ते चिदानंदघन प्रभु आत्मा बहारमां अन्यद्रव्यनी भेळ विनानो ने अंदरमां पुण्य-पापभावना विकारथी रहित सदाय शुद्ध छे. आवुं एकलुं चैतन्य-चैतन्य-चैतन्यमात्र जे छे ते तारुं अविनाशी पद छे. माटे द्रष्टि फेरवी नाख अने स्वपदमां रुचि कर, स्वपदमां निवास कर.

अहा! अनाकुळ शांतरसनो पिंड प्रभु आत्मा शुद्ध ज्ञायक तत्त्व छे; ज्यारे अंतरंगमां (पर्यायमां) उत्पन्न थता पुण्य-पापना भाव-शुभाशुभभाव आस्रव तत्त्व छे. ते आस्रवो एक ज्ञायकभावथी विरुद्ध अने दुःखरूप होवाथी नाश करवायोग्य छे; अने एक ज्ञायकभाव ज आश्रय करवा योग्य छे. केम? केमके ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करवाथी आस्रवना अभावरूप संवर, निर्जरा ने मोक्ष प्रगट थाय छे. माटे कह्युं के पोताना शुद्ध ज्ञायकस्वभावनो आश्रय कर, एमां ज ठर, एने ज प्राप्त कर.

वळी ते शुद्ध चैतन्यधातु स्थायी छे. शुं कह्युं? आ शुभाशुभभाव तो अस्थायी, नाशवंत, कृत्रिम अने दुःखरूप छे ज्यारे ज्ञायकमूर्ति प्रभु आत्मा सदा स्थायी, अविनाशी, अकृत्रिम अने सुखधाम छे. हवे आवो हुं आत्मा छुं एवुं सांभळवाय मळे नहि ते बिचारो अज्ञानी शुं करे? धर्म मानीने दया, दान आदि करे पण एमां कयां धर्म छे? बिचारो क्रियाकांड करी करीने मरे अने चार गतिमां रखडया करे! केम? केमके पुण्य- पापना भाव अस्थायी छे, दुःखरूप छे. एक मात्र चैतन्यपद ज त्रिकाळ स्थिर अने सुखरूप छे. माटे कहे छे-

‘ते पदने प्राप्त थाओ-शुद्ध चैतन्यरूप पोताना भावनो आश्रय करो.’ छे? अहा! भाषा तो जुओ! कहे छे-अनंतकाळमां तें एक रागनो ज आश्रय कर्यो छे अने तेथी तुं दुःखमां पडयो छे. पण हवे शुद्ध चैतन्यमूर्ति-ज्ञायकमूर्ति प्रभु आत्मानो आश्रय कर केमके ते तारुं निजपद छे, सुखपद छे. भाई! भाषा तो सादी छे, पण भाव तो जे छे ते गंभीर छे. भाई! त्रिलोकनाथ तीर्थंकर परमात्मानो अनादि-अनंत आ पोकार छे. अनंत तीर्थंकरो भूतकाळमां थई गया, वर्तमानमां महाविदेहक्षेत्रमां तीर्थंकर बिराजमान छे अने भविष्यमां अनंत थशे; ते सर्वनो आ एक ज पोकार छे. शुं? के भाई! तने सुख जो’ तुं होय तो अंतरमां जा, अंदर सुखनुं निधान ज्ञायकमूर्ति चैतन्यमहाप्रभु परमात्मस्वरूपे बिराजे छे तेमां जा, तेनो आश्रय कर अने तने तारा निजानंदपदनी प्राप्ति थई जशे; बाकी तुं रागमां जा’ छो ए तो दुःख छे. आवी वात छे प्रभु!

हा, पण आप शुभरागमांथी-पुण्यभावमांथी खेंची काढीने कयां लई जवा इच्छो छो?


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देवाधिदेव सिद्ध परमात्मानुं जे पद छे ते ज पद निश्चये तारुं छे भाई! शुभरागमांथी-पुण्यभावमांथी खेंची काढीने तने प्रभुमां लई जवो छे प्रभु! तेथी तो कह्युं के-अंदर त्रणलोकनो नाथ प्रभुस्वरूपे विराजी रह्यो छे तेनो आश्रय कर अने जोके अनंतसुख-पद-सिद्धपद तारुं छे.

लौकिकमां आवे छे ने के-

‘मारा नयननी आळसे रे में दीठा न श्री हरि.’

ए हरि एटले कोण? आ शुद्ध चैतन्यधातुमय भगवान आत्मा हों; बीजा कोई कर्ता-धर्ता-हर्ता हरि नहि. पंचाध्यायीमां छे के-जे अज्ञान अने राग-द्वेषने हणे-हरी ले ते हरि. तो एवो आ प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप आत्मा हरि छे. अहीं कहे छे एवा हरिस्वरूप भगवान आत्मामां द्रष्टि लगाव, तारां नयनने (श्रुतज्ञानने) एमां जोडी दे, अने तेनो ज आश्रय कर, तेमां ज रमणता कर. [प्रवचन नं. २७२ थी २८० (१९ मी वार) *दिनांक २प-१२-७६ अने २६-१२-७६

अने २७प१०-८-७९ थी २८-१२-७९]

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गाथा–२०३

किं नाम तत्पदमित्याह–

आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं।
थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण।। २०३।।
आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतम्।
स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन।। २०३।।

हवे पूछे छे के (हे गुरुदेव!) ते पद कयुं छे? (ते तमे बतावो). ते प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-

जीवमां अपदभूत द्रव्यभावो छोडीने ग्रह तुं यथा,
स्थिर, नियत, एक ज भाव जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ. २०३.

गाथार्थः– [आत्मनि] आत्मामां [अपदानि] अपदभूत [द्रव्यभावान्] द्रव्य- भावोने [मुक्त्वा] छोडीने [नियतम्] निश्चित, [स्थिरम्] स्थिर, [एकम्] एक [इमं] आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) [भावम्] भावने- [स्वभावेन उपलभ्यमानं] के जे (आत्माना) स्वभावरूपे अनुभवाय छे तेने- [तथा] (हे भव्य!) जेवो छे तेवो [गृहाण] ग्रहण कर. (ते तारुं पद छे.)

टीकाः– खरेखर आ भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये (-द्रव्यभावरूप घणा भावो मध्ये), जे अतत्स्वभावे अनुभवाता (अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे नहि परंतु परस्वभावरूपे अनुभवाता), अनियत अवस्थावाळा, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे, ते बधाय पोते अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे; अने जे तत्स्वभावे (अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे) अनुभवातो, नियत अवस्थावाळो, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) छे, ते एक ज पोते स्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे. तेथी समस्त अस्थायी भावोने छोडी, जे स्थायीभावरूप छे एवुं परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं आ ज्ञान एक ज आस्वादवायोग्य छे.

भावार्थः– पूर्वे वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो कह्या हता ते बधाय, आत्मामां


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(अनुष्टुभ्)
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्।
अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः।।
१३९।।
(शार्दूलविक्रीडित)
एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन्
स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्।
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।। १४०।।

अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे. आत्मा स्थायी छे (-सदा विद्यमान छे) अने ते बधा भावो अस्थायी छे (-नित्य टकता नथी), तेथी तेओ आत्मानुं स्थान- रहेठाण-थई शकता नथी अर्थात् तेओ आत्मानुं पद नथी. जे आ स्वसंवेदनरूप ज्ञान छे ते नियत छे, एक छे, नित्य छे, अव्यभिचारी छे. आत्मा स्थायी छे अने आ ज्ञान पण स्थायी भाव छे तेथी ते आत्मानुं पद छे. ते एक ज ज्ञानीओ वडे आस्वाद लेवा योग्य छे.

हवे आ अर्थनो कळशरूप श्लोक कहे छेः- श्लोकार्थः– [तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं] ते एक ज पद आस्वादवायोग्य छे [विपदाम् अपदं] के जे विपत्तिओनुं अपद छे (अर्थात् जेमां आपदाओ स्थान पामी शक्ती नथी) अने [यत्पुरः] जेनी आगळ [अन्यानि पदानि] अन्य (सर्व) पदो [अपदानि एव भासन्ते] अपद ज भासे छे.

भावार्थः– एक ज्ञान ज आत्मानुं पद छे. तेमां कोई पण आपदा प्रवेशी शकती नथी अने तेनी आगळ अन्य सर्व पदो अपदस्वरूप भासे छे (कारण के तेओ आकुळतामय छे-आपत्तिरूप छे). १३९.

वळी कहे छे के आत्मा ज्ञाननो अनुभव करे छे त्यारे आम करे छेः- श्लोकार्थः– [एक–ज्ञायकभाव–निर्भर–महास्वादं समासादयन्] एक ज्ञायकभावथी भरेला महास्वादने लेतो, [ए रीते ज्ञानमां ज एकाग्र थतां बीजो स्वाद आवतो नथी माटे) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः] द्वंद्वमय स्वादने लेवा असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानना भेदोनो स्वाद लेवाने असमर्थ). [आत्म– अनुभव–अनुभाव–विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्] आत्माना अनुभवना-स्वादना प्रभावने आधीन थयो होवाथी निज वस्तुवृत्तिने (आत्मानी शुद्धपरिणतिने)


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जाणतो-आस्वादतो (अर्थात् आत्माना अद्वितीय स्वादना अनुभवनमांथी बहार नहि आवतो) [एषः आत्मा] आ आत्मा [विशेष–उदयं भ्रश्यत्] ज्ञानना विशेषोना उदयने गौण करतो, [सामान्यं कलयन् किल] सामान्यमात्र ज्ञानने अभ्यासतो, [सकलं ज्ञानं] सकळ ज्ञानने [एकताम् नयति] एकपणामां लावे छे-एकरूपे प्राप्त करे छे.

भावार्थः– आ एक स्वरूपज्ञानना रसीला स्वाद आगळ अन्य रस फिक्का छे. वळी स्वरूपज्ञानने अनुभवतां सर्व भेदभावो मटी जाय छे. ज्ञानना विशेषो ज्ञेयना निमित्ते थाय छे. ज्यारे ज्ञानसामान्यनो स्वाद लेवामां आवे त्यारे ज्ञानना सर्व भेदो पण गौण थई जाय छे, एक ज्ञान ज ज्ञेयरूप थाय छे.

अहीं प्रश्न थाय छे के छद्मस्थने पूर्णरूप केवळज्ञाननो स्वाद कई रीते आवे? आ प्रश्ननो उत्तर पहेलां शुद्धनयनुं कथन करतां देवाई गयो छे के शुद्धनय आत्मानुं शुद्ध पूर्ण स्वरूप जणावतो होवाथी शुद्धनय द्वारा पूर्णरूप केवळज्ञाननो परोक्ष स्वाद आवे छे. १४०.

*
समयसार गाथा २०३ः मथाळुं

हवे पूछे छे के-हे गुरुदेव! ते पद कयुं छे? एम के अहीं आवो, अहीं आवो- एम आप कहो छो तो ते पद कयुं छे? अहा! ते अमने बतावो. आम शिष्यना प्रश्न प्रति उत्तर कहे छेः-

* गाथा २०३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरेखर आ भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये जे अतत्स्वभावे अनुभवाता अनियत अवस्थावाळा, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे, ते बधाय पोते अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे;-’

शुं कहे छे? ‘खरेखर आ भगवान आत्मामां’-छे टीकामां? संस्कृतमां पाठ छे- ‘इह खलु भगवत्यात्मनि’–त्यां खलु एटले ‘खरेखर’ अर्थात् निश्चयथी अने ‘इह’ एटले ‘आ’ ‘आ’ एटले आ प्रत्यक्ष चैतन्यमूर्ति आत्मा-तेमां. जुओ, अहीं आत्माने भगवान आत्मा कह्यो छे; छे? त्यारे कोई वळी कहे छे-

हा, पण अत्यारे कयां आत्मा भगवान छे? समाधानः– अरे भाई! सांभळने बापा! तने खबर नथी भाई! पण निश्चयथी अत्यारे ज तुं भगवान छो. जो तुं-आत्मा निश्चये भगवान न होय तो पर्यायमां भगवान थईश कयांथी? शुं कीधुं? वस्तुस्वरूपे आत्मा सदा भगवानस्वरूप


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ज छे, हमणां पण ते भगवानस्वरूप ज छे. हवे रागना कणमां राजी रहेनार अज्ञानीने ‘हुं भगवान छुं’ एम केम बेसे?

जुओ, आ मूळ गाथा भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यनी छे; अने आ टीका अमृतचंद्राचार्यनी छे. अहा... हा... हा...! आचार्य अमृतचंद्र ज्ञानी, आत्मध्यानी परम अतीन्द्रिय आनंद जेनी छाप छे एवा प्रचुर स्वसंवेदनने अनुभवता स्वरूपमां रमता हता. त्यां जरी विकल्प आव्यो अने आ टीका थवा काळे थई गई. अहा... हा... हा...! छेल्ले तेओ कहे छे के-आ टीका अमृतचंद्रे करी छे एवा मोहमां हे जनो! मा नाचो. गजब वात छे ने!

पण प्रभु! आपे टीका लखी छे ने? प्रभु! ना केम कहो छो? तो कहे छे-टीका तो अक्षरोथी रचाई छे; तेमां विकल्प निमित्तमात्र छे. अहा... हा... हा...! अनंत परमाणुओना पिंड एवा अक्षरोमां हुं कयां आव्यो छुं? अने ए विकल्पमां-विभावमां पण हुं कयां छुं ? हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मामां छुं. तेथी टीकानो रचनारो हुं-आत्मा छुं ज नहि. टीका लखवानी अक्षरोनी-परद्रव्यनी क्रिया आत्मा करी शके ज नहि. आवी वात छे. त्यारे अज्ञानी बे-चार पुस्तको बनावे त्यां तो-‘अमे रच्युं छे, अमे कर्युं छे, अमारुं आगळ नाम लखो, अमारो फोटो मूको’-इत्यादि फूलाई ने मानमां मरी जाय छे. अरे भाई! कोना फोटा? शुं आ धूळना? त्यां (कागळ उपर) तो आ शरीरनो-जडनो फोटो छे. शुं ते फोटामां-जडमां तुं आवी गयो? बापु! ए जडनो फोटो तो जड ज छे, एमां कयांय तुं (आत्मा) आव्यो नथी. ए तो रजकणो त्यां ए रीते परिणम्या छे. आ शरीरना रजकणोय त्यां गया नथी. अहा! छतांय पोतानो फोटो छे एम मानी अज्ञानी फूलाय छे-हरखाय छे. पण बापु! ज्यां राग पण तारो नथी त्यां फोटो तारो कयांथी आव्यो? अहा! प्रभु! तुं कोण छे तेनी तने खबर नथी.

अहीं कहे छे-‘खरेखर आ भगवान आत्मामां’-भग नाम ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मी अने वान एटले वाळो-एवा ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीवाळा आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये जे अतत्स्वभावे अनुभवाता भावो छे ते अपदभूत छे. बहु द्रव्य एटले रजकण आदि परद्रव्य ने भावो एटले रागादि भावो. अहा! अंदरमां जे पुण्य- पापना भावो छे ते अतत्स्वभावे अनुभवाय छे. ते भावो आत्माना स्वभावरूप नथी, स्वस्वभावरूप नथी तेथी कहे छे अतत्स्वभावे-परस्वभावरूपे अनुभवाय छे. भाई! आ पंचमहाव्रतना परिणाम, दया, दान, भक्ति आदिना परिणाम अतत्स्वभावे अनुभवाय छे अर्थात् तेओ आत्मस्वभावे अनुभवाता नथी. आवी वात! लोको जेने धर्म मानीने बेठा छे ते भाव अहीं कहे छे, अतत्स्वभावे छे. अने अत्यारे ए


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(चोख्खां) महाव्रत पण कयां छे? जे महाव्रतना परिणामे नवमी ग्रैवेयक गयो हतो ए महाव्रत अत्यारे छे कयां? (नथी)

प्रश्नः– पंचमकाळना छेडा सुधी साधु रहेवाना छे एम शास्त्रमां आवे छे ने? उत्तरः– श्री मोक्षमार्गप्रकाशकमां खुलासो आवे छे के-आ काळमां हंसनो सद्भाव कह्यो छे, पण हंस न देखाय तेथी कांई अन्यपक्षीने (कागडाने) हंस न मनाय. तेम आ काळमां मुनिनो सद्भाव कह्यो छे अने ते (भरतक्षेत्रमां) बीजे कयांक हशे, पण तमे रहो छो त्यां मुनि देखाता नथी तेथी अन्यने कांई मुनि न मनाय. भाई! एक दिगंबर मत सिवाय अन्य बधाय गृहीत मिथ्याद्रष्टि छे. तेमने समकित तो नथी पण अगृहीत उपरांत गृहीत मिथ्यात्व छे. झीणी वात छे भाई! स्थानकवासी अने श्वेतांबरनी जेने मान्यता छे तेने समकित न होई शके. आकरी वात छे प्रभु! पण आ सत्य वात छे. अने दिगंबरमां पण नग्नपणुं अने पांच महाव्रतना परिणाम ए कांई मुनिपणानुं लक्षण नथी. अने जो पोताना माटे बनावेलो आहार ले छे तो तेने महाव्रत पण सरखां नथी, पछी समकित ने मुनिपणानी तो वात ज कयां रही? श्री दीपचंदजीए भावदीपिकामां लख्युं छे के-हुं जोउं छुं तो कोई साधु आगमनी श्रद्धावाळा देखाता नथी अने कोई वक्ता पण आगम प्रमाणे वात करे तेवो देख्यो नथी; अने जो मोढेथी सत्य वात कहेवा जाउं छुं तो कोई मानता नथी. माटे हुं तो लखी जाउं छुं के मार्ग आ छे, बाकी बीजो मार्ग जे कहे छे ते जूठा छे. अहा! २प० वर्ष पहेलां आ स्थिति छे तो अत्यारनी वात तो शुं करवी? अरे भाई! हजु समकितनां ठेकाणां न मळे त्यां मुनिपणुं केम होय? ज्यां व्यवहार श्रद्धा पण साची नथी त्यां समकितनी तो वात ज शी करवी? वळी जे कुदेवने देव माने छे, कुगुरुने गुरु माने छे तथा कुशास्त्रने शास्त्र माने छे ए तो गृहीत मिथ्याद्रष्टि छे.

प्रश्नः– आप आम कहेशो तो धर्म केवी रीते चालशे? समाधानः– धर्म तो अंदर आत्माना आश्रये उत्पन्न थाय छे अने आत्माना आश्रये चालशे. ते कांई बहारथी नहि चाले.

प्रश्नः– हा, पण बहारनी प्रभावना विना तो न चाले ने? समाधानः– प्रभावना? शेनी प्रभावना? बहारमां कयां प्रभावना छे? आत्माना आनंदनुं भान थवुं ने तेनी विशेष दशा थवी तेनुं नाम प्रभावना छे. बाकी तो बधी जूठी धमाधम छे. भाई! अहीं वीतरागना मार्गमां तो बधा अर्थमां फेर छे, दुनिया साथे कयांय मेळ खाय तेम नथी.

अहीं कहे छे-भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये जे अतत्स्वभावे अनुभवाता अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे नहि पण परस्वभावरूपे अनुभवाता एवा जे


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पुण्य-पापना भाव छे ते अपदभूत छे. भाई! ते पुण्य-पापना भाव अतत्स्वभावे छे कारण के एमां आनंदना नाथ प्रभु आत्मानो भाव कयां छे? एमां चैतन्य अने आनंद कयां छे? आ समयसार तो १८ मी वखत चाले छे. अहीं तो ४२ वर्षथी आ वात कहेता आव्या छीए.

वळी कहे छे-ते भावो अनियत अवस्थावाळा छे. शुं कीधुं? के पुण्य-पापना भाव अनियत अवस्था छे, नियत अवस्था नथी. तेनी अनियत एटले पलटती अवस्था छे. वळी तेओ अनेक छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभाव अनेक छे; ने ते क्षणिक तथा व्यभिचारी भावो छे. आनंदना नाथ प्रभु आत्मानी-अनाकुळ आनंदमय भगवाननी-सेवा छोडीने जे पुण्य-पापनुं सेवन छे ते व्यभिचार छे. अहा! शुभाशुभ भाव छे ते व्यभिचारी भाव छे. जेम व्यभिचारमां स्त्री ने पुरुष बे होय छे तेम आत्माने कर्मना निमित्ते थयेला आ भाव छे माटे व्यभिचारी भाव छे. ‘अने ते बधाय अस्थायी होवाने लीधे...’ छे अंदर? अहा! ते पुण्य-पापना भाव बधाय अस्थायी छे. पांच बोल कह्या. शुं? के पुण्य-पापना भाव-शुभाशुभ भाव

१. अतत्स्वभावे छे, आत्मस्वभावरूप नथी; २. अनियत छे, नियत रहेता नथी; ३. अनेक छे, असंख्य प्रकारना छे; ४. क्षणिक छे, प. व्यभिचारी छे अने तेथी ते बधाय अस्थायी छे आ तो मार्ग बापा! वीतरागनो मळवो बहु कठण. आ सिवायना बधा मार्ग गृहीत मिथ्यात्वना पोषक छे. हजु तो ज्यां व्यवहार श्रद्धाननाय ठेकाणां नथी त्यां धर्म केवो?

कहे छे-ते बधाय ‘पोते’-जोयुं? ते बधाय विकारी भाव ‘स्वयं’ अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे. ते भाव जेने स्थिर थवुं छे तेने स्थिर थवा लायक नथी. जुओ, छे अंदर? आ कयां टीका अत्यारनी छे? आ तो हजार वर्ष पहेलांनी छे, ने मूळ पाठ-गाथा तो बे हजार वर्षनो छे अने तेनो भाव तो जैनशासनमां अनादिनो चाल्यो आवे छे.

भाई! पुण्य-पापना भाव आस्रव छे. पण आस्रवने आस्रव कयारे मान्यो कहेवाय? ज्यारे स्वभावनी द्रष्टि थई होय त्यारे. अहो! स्वभावनी द्रष्टि थाय त्यारे आस्रवने भिन्न अने दुःखरूप माने. ज्ञानीने पण आस्रव तो होय छे पण तेने ते पोताना स्वरूपथी भिन्न माने छे. आस्रवो दुःखरूप छे, ते मारी चीज नथी अने हुं