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ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।। २०१।।
अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो।
कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।। २०२।।
नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि।। २०१।।
आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन्।
कथं भवति सम्यग्द्रष्टिर्जीवाजीवावजानन्।।
ते सर्वआगमधर भले पण जाणतो नहि आत्मने; २०१.
नहि जाणतो ज्यां आत्मने ज, अनात्म पण नहि जाणतो,
ते केम होय सुद्रष्टि जे जीव–अजीवने नहि जाणतो? २०२.
अपि] परमाणुमात्र-लेशमात्र-पण रागादिक [विद्यते] वर्ते छे [सः] ते जीव [सर्वागमधरः अपि] भले सर्व आगम भणेलो होय तोपण [आत्मानं तु] आत्माने [न अपि जानाति] नथी जाणतो; [च] अने [आत्मानम्] आत्माने [अजानन्] नहि जाणतो थको [सः] ते [अनात्मानं अपि] अनात्माने (परने) पण [अजानन्] नथी जाणतो; [जीवाजीवौ] ए रीते जे जीव अने अजीवने [अजानन्] नथी जाणतो ते [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [कथं भवति] केम होई शके?
टीकाः– जेने रागादि अज्ञानमय भावोना लेशमात्रनो पण सद्भाव छे ते भले श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे आत्माने नथी जाणतो; अने जे आत्माने नथी जाणतो ते अनात्माने पण नथी जाणतो कारण के स्वरूपे सत्ता अने पररूपे असत्ता-ए बन्ने वडे एक वस्तुनो निश्चय थाय छे;
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सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः।
एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति।। १३८।।
(जेने अनात्मानो-रागनो-निश्चय थयो होय तेने अनात्मा अने आत्मा-बन्नेनो निश्चय होवो जोईए.) ए रीते जे आत्मा अने अनात्माने नथी जाणतो ते जीव अने अजीवने नथी जाणतो; अने जे जीव-अजीवने नथी जाणतो ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी. माटे रागी (जीव) ज्ञानना अभावने लीधे सम्यग्द्रष्टि होतो नथी.
भावार्थः– अहीं ‘राग’ शब्दथी अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहेवामां आव्या छे. त्यां ‘अज्ञानमय’ कहेवाथी मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीथी थयेला रागादिक समजवा, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहना उदयनो राग न लेवो; कारण के अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदय संबंधी राग छे ते ज्ञानसहित छे; ते रागने सम्यग्द्रष्टि कर्मोदयथी थयेलो रोग जाणे छे अने तेने मटाडवा ज इच्छे छे; ते राग प्रत्ये तेने राग नथी. वळी सम्यग्द्रष्टिने रागनो लेशमात्र सद्भाव नथी एम कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेः- सम्यग्द्रष्टिने अशुभ राग तो अत्यंत गौण छे अने जे शुभ राग थाय छे तेने ते जराय भलो (सारो) समजतो नथी-तेना प्रत्ये लेशमात्र राग करतो नथी. वळी निश्चयथी तो तेने रागनुं स्वामित्व ज नथी. माटे तेने लेशमात्र राग नथी.
जो कोई जीव रागने भलो जाणी तेना प्रत्ये लेशमात्र राग करे तो-भले ते सर्व शास्त्रो भणी चूक्यो होय, मुनि होय, व्यवहारचारित्र पण पाळतो होय तोपण-एम समजवुं के तेणे पोताना आत्मानुं परमार्थस्वरूप नथी जाण्युं, कर्मोदयजनित रागने ज सारो मान्यो छे अने तेनाथी ज पोतानो मोक्ष मान्यो छे. आ रीते पोताना अने परना परमार्थ स्वरूपने नहि जाणतो होवाथी जीव-अजीवना परमार्थ स्वरूपने जाणतो नथी. अने ज्यां जीव अने अजीव-बे पदार्थोने ज जाणतो नथी त्यां सम्यग्द्रष्टि केवो? माटे रागी जीव सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे, जे काव्य द्वारा आचार्यदेव अनादिथी रागादिकने पोतानुं पद जाणी सूतेलां रागी प्राणीओने उपदेश करे छेः-
श्लोकार्थः– (श्री गुरु संसारी भव्य जीवोने संबोधे छे केः) [अन्धाः] हे अंध प्राणीओ! [आसंसारात्] अनादि संसारथी मांडीने [प्रतिपदम्] पर्याये पर्याये [अमी रागिणः] आ रागी जीवो [नित्यमत्ताः] सदाय मत्त वर्तता थका [यस्मिन् सुप्ताः] जे पदमां सूता छे-ऊंधे छे [तत्] ते पद अर्थात् स्थान [अपदम् अपदं] अपद
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छे-अपद छे, (तमारुं स्थान नथी,) [विबुध्यध्वम्] एम तमे समजो. (बे वार कहेवाथी अति करुणाभाव सूचित थाय छे.) [इतः एत एत] आ तरफ आवो-आ तरफ आवो, (अहीं निवास करो,) [पदम् इदम् इदं] तमारुं पद आ छे-आ छे [यत्र] ज्यां [शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [स्व–रस–भरतः] निज रसनी अतिशयताने लीधे [स्थायिभावत्वम् एति] स्थायीभावपणाने प्राप्त छे अर्थात् स्थिर छे-अविनाशी छे. (अहीं ‘शुद्ध’ शब्द बे वार कह्यो छे ते द्रव्य अने भाव बन्नेनी शुद्धता सूचवे छे. सर्व अन्यद्रव्योथी जुदो होवाने लीधे आत्मा द्रव्ये शुद्ध छे अने परना निमित्ते थता पोताना भावोथी रहित होवाने लीधे भावे शुद्ध छे.)
भावार्थः– जेम कोई महान पुरुष मद्य पीने मलिन जग्यामां सूतो होय तेने कोई आवीने जगाडे-संबोधन करे के “तारी सूवानी जग्या आ नथी; तारी जग्या तो शुद्ध सुवर्णमय धातुनी बनेली छे, अन्य कुधातुना भेळथी रहित शुद्ध छे अने अति मजबूत छे; माटे हुं तने बतावुं छुं त्यां आव, त्यां शयन आदि करी आनंदित था”; तेवी रीते आ प्राणीओ अनादि संसारथी मांडीने रागादिकने भला जाणी, तेमने ज पोतानो स्वभाव जाणी, तेमां ज निश्चिंत सूतां छे-स्थित छे, तेमने श्री गुरु करुणापूर्वक संबोधे छे-जगाडे छे-सावधान करे छे के “हे अंध प्राणीओ! तमे जे पदमां सूतां छो ते तमारुं पद नथी; तमारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे, बहारमां अन्य द्रव्योना भेळ विनानुं तेम ज अंतरंगमां विकार विनानुं शुद्ध छे अने स्थायी छे; ते पदने प्राप्त थाओ-शुद्ध चैतन्यरूप पोताना भावनो आश्रय करो”. १३८.
हवे पूछे छे के रागी (जीव) केम सम्यग्द्रष्टि न होय? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘जेने रागादि अज्ञानमय भावोना लेशमात्रनो पण सद्भाव छे ते भले श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे आत्माने नथी जाणतो;...’
भाषा जुओ! ‘जेने रागादि अज्ञानमय भावोना’ एम कही अहीं, रागादि, अज्ञानमय भावो छे एम कह्युं छे. आ व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो जे राग छे ते अज्ञानमय भाव छे. एटले शुं? एटले के ते मिथ्यात्व छे एम नहि, पण एमां चैतन्यनो-ज्ञाननो अभाव छे. अहाहा...! भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु झळहळ ज्योतिस्वरूप चैतन्यबिंब छे. आवा चैतन्यबिंबनुं किरण दया, दान, व्रत, भक्ति आदि रागना विकल्पोमां छे नहि माटे ते अज्ञानमय छे. समजाणुं कांई...?
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अहाहा...! जेम सूर्यनां किरण सफेद उज्ज्वळ प्रकाशमय होय पण कोलसा जेवां काळां न होय तेम चैतन्यसूर्य प्रभु आत्मानुं किरण (पर्याय) निर्मळ चैतन्यमय होय पण आंधळा (अंधारिया) रागमय न होय. भाई! राग छे ते चाहे व्रतनो हो, तपनो हो, भक्तिनो हो के दया-दाननो हो, ते अंधकारमय-अचेतन-अज्ञानमय छे. तेमां जाणपणानो अभाव छे ने? जेम सम्यग्दर्शन-ज्ञानमां चैतन्यज्योतिनुं किरण छे तेम रागमां ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मानुं किरण नथी तेथी राग बधोय अज्ञानमय छे.
अरेरे! लोको बिचारा बहारमां फसाई गया छे! भाई! आ अवतार (मनुष्य भव) व्यर्थ चाल्यो जाय छे हों. बापु! आ देहनी स्थिति तो निश्चित ज छे; अर्थात् कया समये देह छूटी जशे ते निश्चित ज छे. तुं जाणे के हुं मोटो थतो जाउं छुं, वधतो जाउं छुं, पण भाई! तुं तो वास्तवमां मृत्युनी समीप ज जाय छे. (माटे जन्म-मरणनो अंत लावनारुं आ तत्त्वज्ञान समजी ले).
प्रश्नः– हा; पण आ पैसा वधे, कुटुंब-परिवार वधे तो एटलुं तो वध्यो के नहि? उत्तरः– धूळमांय वध्यो नथी सांभळने. ए पैसा-लक्ष्मी अने कुटुंब-परिवार ए बधां कयां तारामां छे? ए तो प्रगट भिन्न चीज छे. भगवान! तुं अनंत अनंत गुणोनी समृद्धिथी भरेलो ज्ञानानंदस्वभावी स्वरूपलक्ष्मीनो स्वामी छो. आवी निज चैतन्यलक्ष्मीनो विश्वास-प्रतीति अने एना अनुभव विना जेने मात्र रागनी भावना छे ते चाहे मोटो राजा हो, मोटो अबजोपति शेठ हो के मोटो देव हो, ते रांक भिखारी ज छे. अहा! जेने मात्र रागनी भावना छे ते पोतानी चैतन्यलक्ष्मीथी रहित एवा चार गतिमां रखडनारा बिचारा भिखारा छे. समजाणुं कांई...? अहा! भाषा तो जुओ! गाथा ज एवी छे ने!
कहे छे-जेने रागादि अज्ञानमय भावोनो लेशमात्र पण सद्भाव छे अर्थात् अंशमात्र रागनी पण जेने अंतरमां रुचि छे ते चाहे श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण अज्ञानी छे. गजब वात छे भाई! जुओ, अहीं मिथ्यात्वसहित अनंतानुबंधी रागने राग गणवामां आव्यो छे. भाई! आ तो लोजीकथी-न्यायथी वात छे. पण माणसने ज्यां समजवानी दरकार ज न होय तो शुं थाय? भाई! त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्मानी दिव्यध्वनिमां न्यायथी मार्ग सिद्ध करेलो छे. कहे छे-जेने रागादि भावोना एटले पुण्य-पापना भावोना लेशमात्रनो पण सद्भाव छे ते, भले तेने अगियार अंगनी लब्धि प्रगट थई होय तोपण अज्ञानी छे.
जुओ, भगवाने कहेला आचारांगमां अढार हजार पद छे, अने एक एक पदमां एकावन करोड जाजेरा श्लोक छे. आवां आवां ११ अंग भण्यो होय तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे ते अज्ञानी छे. अहा! जाणपणुं तो एवुं अजब-गजब होय
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के लाखो माणसोने खुशी-खुशी करी दे. पण ते शुं कामनुं? केमके बधुं अज्ञान छे ने? तेणे आत्माने कयां जाण्यो छे? रागने पोतानुं स्वरूप माननारो ते आत्माने- पोताने जाणतो नथी.
‘सव्वागमधरोवि’-सर्व आगमधर पण-एवो पाठ छे ने? मतलब के ते भगवाने कहेलां आगमोने भणेलो छे, अज्ञानीनां कहेलां नहि. अज्ञानीनां आगम तो कोई वस्तु ज नथी, केमके तेमां तत्त्वनुं यथार्थ स्वरूप ज नथी. अहीं कहे छे-वीतराग परमेश्वर सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेलां एवां जे आगम तेनुं क्षयोपशम ज्ञान कर्युं छे तोपण जेने रागनी हयाती छे अर्थात् ‘राग ते हुं छुं अने एनाथी मने लाभ छे’-एम जे माने छे ते सम्यग्द्रष्टि नथी, अज्ञानी छे. आवी भारे आकरी वात प्रभु! भगवान जिनेश्वरदेवनो मार्ग बहु झीणो छे भाई!
कहे छे-जे भगवाननी भक्तिथी मुक्ति थवानुं माने छे ते रागनी हयातीने माने छे पण आत्माने मानतो नथी. समजाणुं कांई...? शुं कह्युं? अहा! देवाधिदेव त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मा एम फरमावे छे के-‘मारी (-भगवाननी) भक्ति वडे पोतानुं कल्याण थाय छे एम जे जीव माने छे ते अज्ञानी छे, केमके हुं (-भगवान) तो परद्रव्य छुं अने परद्रव्यना लक्षे तो राग ज थाय छे.’ भक्तिना रागथी मुक्ति माने एणे रागथी भिन्न आत्माने मान्यो ज नथी अने तेथी ते अज्ञानी छे. आवी वात छे. अरे भाई! रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यमय स्वद्रव्यनो आश्रय ले त्यारे रागरहित दशा थाय छे अने त्यारे मुक्तिमार्गनी पहेली सीडी एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आवो मार्ग बहु आकरो, पण आ ज मार्ग छे भाई! अहीं तो अति स्पष्ट कहे छे के-श्रुतकेवळी जेवो हो अर्थात् सर्व आगम जाणतो होय छतां पण रागनो जे अंश छे-दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिनो जे विकल्प छे-ते मारो छे एम जे माने छे तेने रागनी ज हयाती छे, तेने शुद्ध चैतन्यनी हयातीनी खबर ज नथी.
परंतु रागने कोई पोतानो न माने तो? अहा! रागने पोतानो न माने तो ते राग करे ज केम? ए तो एनो जाणनार ज रहे. ए तो वात अहीं चाले छे के ज्ञानीने भक्ति आदिनो राग आवे छे, होय छे पण तेनो ते जाणनार ज रहे छे. राग मारुं कर्तव्य छे वा एनाथी मने लाभ छे एम ज्ञानी मानतो नथी; ज्यारे अज्ञानी रागथी लाभ (धर्म) थवानुं माने छे अने तेथी ते रागनो कर्ता थाय छे.
अहाहा...! आत्मा शुद्ध चैतन्यज्योतिस्वरूप भगवान छे. श्रीमद् राजचंद्रकृत आत्मसिद्धिमां आवे छे ने के-
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शुद्ध कहेतां परम पवित्र, बुद्ध एटले एकलो ज्ञाननो पिंड अने चैतन्यघन कहीने असंख्य प्रदेश दर्शाव्या छे. अहा! भगवान सर्वज्ञदेव सिवाय असंख्य प्रदेशी जीव कोईए जोयो नथी अने कह्यो नथी. भाई! आ वस्तु जे आत्मा छे ते चैतन्यमय असंख्य प्रदेशनो अनंत गुणनो पिंड छे. अहो! क्षेत्रथी असंख्यप्रदेशी छे अने भावथी अनंत गुणनो पिंड एवो चैतन्यघन प्रभु आत्मा छे. स्वयंज्योति एटले कोईथी नहि करायेलो एवो आत्मा स्वयंसिद्ध छे; ईश्वर के बीजो कोई तेनो कर्ता छे एम नथी. वळी ते अतीन्द्रिय आनंदनुं स्थान एवो सुखधाम छे. अहो! आवो आत्मा केम पमाय! तो कहे छे-भक्ति आदि रागनी क्रियाथी ते न पमाय, केमके रागमां ज्ञान कयां छे? ए तो ज्ञानानंदस्वरूपमां एकाग्रता करी तेनुं स्वसंवेदनज्ञान करीने पमाय छे. कह्युं ने के-‘कर विचार तो पाम.’ विचार कहेतां तेनुं ज्ञान (-स्वसंवेदनज्ञान) करवाथी ते पमाय छे.
त्यारे कोई कहे छे-शुं आवो मार्ग? आमां तो व्यवहारनो बधो लोप थई जाय छे. बापु! व्यवहार व्यवहारना स्थानमां हो भले, पण व्यवहारनां प्रेम अने रुचि करवाथी तो मिथ्यात्व थाय छे. ए ज अहीं कहे छे के श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण जो एने व्यवहारनां प्रेम अने रुचि छे तो ते सम्यग्द्रष्टि नथी, अज्ञानी छे, केमके व्यवहारनी रुचिनी आडमां तेने आखो भगवान आत्मा भळातो नथी. व्यवहार होय छे एनी कोण ना पाडे छे? भावलिंगी साचा संतो-मुनिवरो जेमने स्वात्मजनित प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन होय छे तेमने पंचमहाव्रतादि व्यवहार रत्नत्रयनो राग होय छे, पण तेने तेओ भलो के कर्तव्य मानता नथी. वास्तवमां तेमने व्यवहारना विकल्पमां हेयबुद्धि होय छे.
अहीं कह्युं ने के रागादि भावो अज्ञानमय छे; एटले के पंचमहाव्रतादिना जे विकल्प छे तेमां शुद्ध चैतन्यनो कण नथी, तेमां चैतन्यनी गंध पण नथी, केमके ए तो जडना परिणाम छे. आवी चोकखी वात छे; जेने मानवुं होय ते माने. आवी वात संप्रदायमां करी होय तो ‘दूर करी दो एने’-एम कहे. बापु! संप्रदायथी तो दूर ज छीए ने! अहीं तो जंगल छे बापा! प्रभु! एकवार तारी मोटपनां गीत तो सांभळ. नाथ! तुं एकला चिदानंदरसथी भरेलो भगवान छो. अहा! तुं रागना कणमां जाय (अर्पाई जाय) ते तने कलंक छे प्रभु! रागनो कण-अंशमात्र पण राग जेने (पोतापणे) हयात छे ते श्रुतकेवळी जेवो होय तोपण मिथ्याद्रष्टि छे एम अहीं कहे छे. अहा! शास्त्रनां पानानां पानां पाणीना पूरनी जेम मोढे बोली जतो होय तोपण एथी शुं? ए कांई साचुं ज्ञान नथी.
अहो! देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्माए जे फरमाव्युं ते अहीं संतो तेमना आडतिया थईने जगत समक्ष जाहेर करे छे के-भगवानना घरनो आ माल छे; तने
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गोठे तो ले. जुओ, मेरु पर्वत उपर सौधर्म देवलोक छे. तेमां ३२ लाख विमान छे. एक एक विमानमां असंख्य देव छे. तेनो स्वामी पहेलो इन्द्र-शक्रेन्द्र छे जे एकावतारी छे, अर्थात् त्यांथी नीकळीने ते मोक्ष जनार छे. ते सौधर्म-इन्द्र गलुडियानी जेम अति विनम्र थई जे भगवाननी वाणी सांभळे छे. ते आ वात छे. अहो! गणधरो, मुनिवरो अने इन्द्रो धर्मसभामां जे वाणी सांभळे छे ते अहीं भगवान कुंदकुंदाचार्य लई आव्या छे. भाई! जेनां परम भाग्य होय तेना काने आ वाणी पडे छे. कहे छे-
भगवान! तुं कोण छो? तुं केवो अने केवडो छो तेनो तने विचार-विवेक नथी. ‘अमूल्य तत्त्वविचार’मां श्रीमदे कह्युं छे ने के-
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या;
तो सर्व आत्मिक ज्ञाननां सिद्धांततत्त्व अनुभव्यां.”
जोयुं? पोते कोण छे एनो शांतभावे विवेकपूर्वक विचार करे तेने आत्मज्ञान अने आत्मानुभव थाय एम कहे छे. १६ वर्षनी उंमरे आ श्रीमदे लख्युं छे. पण ए तो देहनी उंमर छे ने? उंमर साथे आत्माने शुं संबंध छे? आत्मा तो अंदर अनादिअनंत भगवान छे. ए कयां जन्मे-मरे छे? जन्म-मरण तो लोको देहना संयोग-वियोगने कहे छे; ए तो देहनी-माटीनी स्थिति छे, ज्यारे आत्मा तो एकली चैतन्यसत्तास्वरूप त्रिकाळी भगवान छे. आवी पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्ताथी विपरीत जे विकल्प छे ते-चाहे तो व्रतनो हो, तपनो हो, के भक्तिनो हो-तोपण ते हुं छुं एम माननारने रागनो सद्भाव छे अने तेथी ते श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे ते आत्माने जाणतो नथी. ‘ज्ञानमय भावना अभावने लीधे’-एम कह्युं ने? मतलब के जेने रागनी रुचि छे तेने अज्ञाननी रुचि छे पण ज्ञानानंदमय प्रभु आत्मानी रुचि नथी-तेथी तेने ज्ञानमय भावनो अभाव छे, अने ज्ञानमय भावना अभावने लीधे ते ज्ञानना नूरनुं पूर एवा पोताना आत्माने जाणतो नथी. ल्यो, आवी वात छे. रागमां अर्पाई जाय तो अज्ञानी थाय छे अने ज्ञानमां अर्पाई जाय तो ज्ञानी थाय छे. आवो आकरो भगवाननो मार्ग बापा! आवी वात सर्वज्ञ परमेश्वरना शासन सिवाय बीजे कयांय नथी.
आ लापसी नथी रांधता? लापसी रांधे त्यारे जो लाकडां काचां होय तो चूला माथे तपेलुं होय ते अने अंदर लापसी होय ते देखाय नहीं, एकलो धूमाडो देखाय, धूमाडाना गोटामां तपेलुं अने अंदर लापसी न देखाय. तेम अज्ञानी जीव पुण्य अने पापना-रागना अंधाराने देखे छे पण अंदर भिन्न भगवान चिदानंदमय आनंदकंद प्रभु परमात्मा विराजी रह्यो छे तेने देखतो नथी. रागनी रुचिवाळाने
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रागना अंधकार आडे चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा देखातो नथी. अहा! जेने लेशमात्र पण रागनी हयाती छे ते आत्माने जाणतो नथी. हवे कहे छे-
‘अने जे आत्माने नथी जाणतो ते अनात्माने पण नथी जाणतो कारण के स्वरूपे सत्ता अने पररूपे असत्ता-ए बन्ने वडे एक वस्तुनो निश्चय थाय छे.’
शुं कहे छे? के जे आत्माने नथी जाणतो ते अनात्माने एटले रागादिने पण नथी जाणतो; अर्थात् राग पण अनात्मा छे तेवुं ज्ञान तेने थतुं नथी. केम? कारण के स्वरूपे सत् ते पररूपे असत् छे. शुं कह्युं आ? सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा स्वरूपथी सत् छे ने पररूपथी-रागथी असत् छे. जे! वस्तु पोताथी अस्तिपणे छे ते परद्रव्यथी नास्तिपणे छे. अहो! स्वद्रव्यथी सत् ने परद्रव्यथी असत् एवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे; अर्थात् ए बन्ने वडे ज वस्तुनो निश्चय थाय छे. आवो झीणो भगवाननो मार्ग छे. लोकोने बिचाराओने रळवुं-कमावुं, बैरां-छोकरां साचववां अने विषयभोग भोगववा इत्यादि पापनी मजुरी आडे नवराश मळे नहि तो आनो निर्णय तो कयारे करे? खरे! आवा मनुष्यदेहमां पण वीतरागना-परमात्माना मार्गनो निर्णय करता नथी ते कयां जशे? (एकेन्द्रियादिमां-चारगतिमां कयांय खोवाई जशे).
कहे छे-जेने रागादिथी भिन्न निज चैतन्यस्वरूपनुं ज्ञान नथी तेने रागादि अनात्मानुं पण ज्ञान होतुं नथी; कारण के आत्मा स्वरूपथी-चैतन्यस्वरूपथी सत्ता छे अने पररूपथी-रागथी असत्ता छे. वस्तु स्वरूपे सत्ता अने पररूपे असत्ता छे; छे अंदर? भाई! पोताना स्वरूपथी आत्मा छे अने पररूपथी ते असत्ता छे. आ पंचपरमेष्ठी जगतमां छे तेनाथी पण आ आत्मा असत् छे. तेवी रीते जे पंच परमेष्ठी छे ते पोताथी सत् छे अने परथी असत् छे, आ आत्माथी असत् छे. माटे जेने पोताना सत्नुं यथार्थ ज्ञान नथी तेने सत्थी विरुद्ध रागनुं पण यथार्थ ज्ञान नथी. निश्चय निज परमात्मद्रव्यनुं ज्ञान नथी तेने व्यवहारनुं पण यथार्थ ज्ञान नथी.
प्रश्नः– पण व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय ने? उत्तरः– भाई! एम नथी; अहीं तो कहे छे-जेने स्वरूपनुं ज्ञान नथी तेने व्यवहारनुं पण साचुं ज्ञान नथी केमके स्वसत्तानुं ज्ञान नथी तेने परनी पोतामां असत्ता छे एनुं पण ज्ञान नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु! लोको तो बहारथी बधुं मानी बेसे छे. अंदर आनंदस्वरूप भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना अनुभव अने ज्ञान विना जो कोई ‘राग मारो छे’ एवुं माने छे तो ते स्वसत्ताने जाणतो नथी अने तेथी परसत्ताने-रागने पण यथार्थ जाणतो नथी. निर्विकल्प निजसत्ताने ओळख्या विना दया, दान, व्रत इत्यादि विकल्पने ते यथार्थ केवी रीते जाणे? भाई! आ तो
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लोजीकथी-न्यायथी वात छे. भगवाननो मार्ग न्यायनो छे, हठनो नहि. जेवी वस्तुनी स्थिति छे ते तरफ ज्ञानने दोरी जवुं तेनुं नाम न्याय छे. समजाणुं कांई...?
भाई! जे स्वरूपे सत्ता छे ते पररूपे असत्ता छे. आत्मा पोताना स्वरूपे सत्ता छे ते पंचपरमेष्ठी तथा ते तरफना रागथी असत्ता छे. ‘स्वरूपे सत्ता’-एम छे ने? मतलब के पोताना ज्ञानानंदस्वरूपथी सत्ता छे अने पररूपथी-पंचपरमेष्ठी, देह के रागथी असत्ता छे. जेम स्वरूपथी सत्ता छे तेम पररूपथी सत्ता होय तो स्व अने पर बन्ने एक थई जाय, एकमेकमां भळी जाय. आत्मा जेम ज्ञानथी सत् छे तेम परथी-रागथी पण सत् होय तो ज्ञान अने राग एक थई जाय, ज्ञान अने पर एक थई जाय. पण एम छे नहि, बापु! आ कोई पंडिताईनी चीज नथी, आ तो अंतरअनुभवनी वात छे. मूळ गाथामां दोहीने अमृतचंद्राचार्ये आ अर्थ काढयो छे.
कहे छे-‘ए बन्ने वडे...’ -कया बे? के ज्ञानानंदमय भगवान आत्मा पोताथी छे ने रागादि परद्रव्यथी नथी-एम ते बन्ने वडे एक वस्तुनो निश्चय थाय छे. अहाहा...! हुं मारामां छुं अने पर रागादि मारामां नथी एम बे (अस्ति-नास्ति) वडे आत्मानो- पोतानो यथार्थ निश्चय थाय छे. आ रीते जेने पोताना स्वरूपनो यथार्थ निश्चय थयो तेने दया, दान, व्रतादिना विकल्प पर अनात्मा छे, आत्मभूत नथी एवो अनात्मानो भेगो निश्चय थई ज जाय छे. आम बे वडे एकनो (आत्मानो) निश्चय थाय छे अने एकनो (आत्मानो) निश्चय थतां बेनो (आत्मा-अनात्मानो) निश्चय साथे थई ज जाय छे. आवुं झीणुं अटपटुं छे. भाई! आ तो वीतराग परमेश्वरनी ॐध्वनिमां आवेली वात छे. आवे छे ने के-
हाल परमात्मा (सीमंधरस्वामी) महाविदेहमां विराजे छे. तेमने होठ के कंठ कंप्या विना आखा शरीरमांथी ॐध्वनि-दिव्य वाणी छूटे छे. ते ॐकारध्वनि सांभळी ‘अर्थ गणधर विचारै’ अर्थात् गणधरदेव तेनो विचार अर्थात् ज्ञान करे छे. अने आगम- उपदेशनी रचना करी ते द्वारा भव्य जीवोना संशयने मटाडी दे छे, मिथ्यात्वनो नाश करे छे. अहा! भव्य जीवो आगम-उपदेशने जाणी मोहनो नाश करी आत्मानो अनुभव करे छे. भाई! ए ॐध्वनिमां आवेली आ वात छे.
कहे छे-जे आत्माने जाणे छे ते अनात्माने-रागने पण जाणे छे. वळी जेने अनात्मा-रागनो यथार्थ निश्चय थयो छे तेने आत्मा-अनात्मा बन्नेनो निश्चय थवो जोईए केमके रागने जे जाणे ते रागरहित हुं आत्मा छुं एम जाणे छे. अहाहा...! रागने जाणे तो ‘मारामां राग नथी’-तेम पोताना आत्माने पण जाणे छे. भाई!
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स्वस्वरूपनो-आत्मानो निश्चय थया विना एकला रागपणुं कांई नथी अर्थात् मिथ्या छे. कह्युं ने के जे आत्माने नथी जाणतो ते अनात्माने पण नथी जाणतो. जे आत्माने जाणे छे ते अनात्माने पण जाणे छे अर्थात् तेने व्यवहारनुं साचुं ज्ञान होय छे. आमां व्यवहारथी मने लाभ थाय वा निश्चय प्रगटे ए वात कयां रही? (न रही); केमके व्यवहारनुं साचुं ज्ञान पण जे आत्माने जाणे तेने ज थाय छे. समजाणुं कांई...?
प्रश्नः– श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे (समयसारनी) १२ मी गाथामां तो एम कह्युं छे के जे व्यवहारमां पडया छे तेमने व्यवहारनो उपदेश छे; एम के तेमने व्यवहार ज करवानुं कह्युं छे. नीचेनी भूमिकाए तो व्यवहार ज होय छे ने ते धर्म छे. चोथे, पांचमे अने छट्ठे गुणस्थाने तो व्यवहार ज करवो जोईए.
समाधानः– भाई! तुं शुं कहे छे आ? जेने निज स्वरूपनां द्रष्टि अने अनुभव सहित पोताना भूतार्थ स्वभावना आश्रये सम्यक्त्व थयुं छे तेनी पर्यायमां कंईक अशुद्धता पण छे. प्रगट शुद्धता अने बाकी जे अल्प अशुद्धता ते बन्नेने जाणवुं ते व्यवहार छे. व्यवहार करवो के व्यवहार करवाथी लाभ थाय ए प्रश्न ज कयां छे त्यां? अरे! लोको शास्त्रना अर्थ करवामां भूल करे छे! शुं थाय? अपरमे ट्ठिदा भावे–एटले के जे अपरम भावमां स्थित छे तेने व्यवहारनो उपदेश छे-हवे आमां व्यवहार करवो एवो अर्थ कयां छे? एवो अर्थ छे ज नहि. टीकामां तेनो अर्थ स्पष्ट कर्यो छे के-‘व्यवहारनयो... परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्’ व्यवहार नय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. एटले के ते काळे व्यवहार छे एम जाणेलो प्रयोजनवान छे. वास्तवमां तो ते पोतानी पर्यायने जाणे छे तेमां ते जणाई जाय छे. आवी वात छे.
भगवान केवळी लोकालोकने जाणे छे एम आवे छे ने? हा, पण ए तो असद्भूत व्यवहारनय छे. खरेखर तो भगवान जेमां लोकालोक प्रकाशे छे एवी पोतानी पर्यायने ज जाणे छे. तेम ज्ञानी रागने जाणे छे एम उपचारथी-व्यवहारथी कथन छे. राग करवो जोईए के एनाथी लाभ थाय छे एवी त्यां (गाथा १२ मां) वात ज कयां छे? (नथी). तदात्वे–एटले ते काळे जेटली शुद्धता अने रागनी अशुद्धता प्रगट छे तेने जाणवुं प्रयोजनवान छे; बस आ वात छे. बीजे बीजे समये जे शुद्धिनी वृद्धि थई अने क्रमशः अशुद्धिनी हानि थई तेने ते ते समये जाणेलां प्रयोजनवान छे आम अर्थ छे, पोतानी द्रष्टिथी कोई ऊंधा अर्थ करे तो शुं थाय? अरे भगवान! तुं पण भगवान छे हों; पर्यायमां भूल छे तेथी अर्थ न बेसे त्यां शुं करीए? कह्युं छे ने के-
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वस्तु आत्मा बापु! बहु सूक्ष्म अगम्य छे. ते राग करवाथी केम जणाय? एम तो अनंतकाळमां भगवान! तें हजारो राणीओ छोडीने, मुनिव्रत धारी नग्न दिगंबर थई जंगलमां रह्यो, पण एक समयमात्र आत्मामां न गयो, शुद्ध चैतन्यतत्त्वनो अनुभव न कर्यो, तेथी अंदर मिथ्यात्वनो त्याग न थयो. भाई! मिथ्यात्वनो त्याग त्याग छे, बाकी बाह्य ग्रहण-त्याग तो आत्मामां कयां छे? छे ज नहि.
शुं कह्युं? आत्मामां एक त्याग-उपादानशून्यत्व शक्ति छे. ते वडे ते बाह्यचीजना त्याग-ग्रहणथी रहित छे. भाई! बाह्य चीज ज्यां ग्रहण ज नथी करी तो तेनो त्याग शुं? तेणे पोतानी पर्यायमां कमजोरीथी रागने ग्रह्यो छे, अने स्वरूपनुं ग्रहण करतां तेनो त्याग सहज थई जाय छे. एणे रागनो त्याग कर्यो एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. गाथा ३४ (टीका)मां आव्युं ने के-आत्मा रागना त्यागनो कर्ता छे ते पण नाममात्र कथन छे; केमके भगवान आत्मा जे ज्ञानमय छे ते रागमय थयो ज नथी ने. पोते ज्ञानमय स्वरूपमां ठरी गयो त्यारे राग उत्पन्न ज थयो नहि, तो रागनो त्याग कर्यो एम नाममात्र कहेवामां आवे छे परमार्थे रागना त्यागनो कर्ता आत्मा छे ज नहि. संयोगथी जुए तेने भासे के में स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-संपत्ति अने वस्त्र आदि छोडयां, पण एवी मान्यता तो अज्ञान छे भाई! केमके ए बधां तें के दि’ ग्रह्यां हतां ते छोडयां एम माने छे?
अहीं कहे छे-जे आत्माने जाणतो नथी ते अनात्माने-रागादिने पण जाणतो नथी. वळी कहे छे-‘ए रीते जे आत्मा अने अनात्माने नथी जाणतो ते जीव अने अजीवने नथी जाणतो.’
जे पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्ताने जाणतो नथी ते एनाथी भिन्न रागादि अनात्माने जाणतो नथी, भाई! आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग अनात्मा छे, अजीव छे. जीव-अजीव अधिकारमां तेने अजीव कह्यो छे, जीव नहि. माटे व्यवहाररत्नत्रय वडे मने लाभ छे वा तेनाथी निश्चय प्रगटे छे एम जे माने छे ते अनात्माने-अजीवने पोतानो माने छे. तेथी तेने आत्मा-अनात्मा बन्नेनुं ज्ञान नथी; ते जीव-अजीव बन्नेने जाणतो नथी. आवी सूक्ष्म पडे तेवी वात छे, पण भाई! आ भगवाननी दिव्यध्वनिमां कहेली वात छे.
कहे छे-भगवान सच्चिदानंदमय प्रभु आत्मा अनंत गुणरत्नोथी भरेलो भंडार छे. तेनी सन्मुख जेनी द्रष्टि नथी, तेनो जेने आश्रय नथी अने तेमां नथी एवा रागनो (व्यवहारनो) जेने आश्रय छे तेने आत्मा ने अनात्मानुं ज्ञान नथी अने ते बन्नेनुं ज्ञान नथी तो जीव-अजीवनुं पण ज्ञान नथी.
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हा, पण आप व्यवहाररत्नत्रयने अजीव केम कहो छो? समाधानः– भाई! व्यवहाररत्नत्रयनो मुनिराजने जे विकल्प छे ते राग छे अने राग छे ते अजीव छे. जो ते जीव होय तो जीवमांथी ते नीकळे ज केम? परंतु ते तो स्वरूपमां स्थिर थतां नीकळी जाय छे. माटे ते जीवना स्वरूपभूत नहि होवाथी जीव नथी, अजीव छे. अजीव अधिकारमां पण तेने अजीव कह्यो छे. माटे ते व्यवहारनुं-अजीवनुं जेने यथार्थ ज्ञान नथी तेने तेनाथी पृथक् जीवनुं पण यथार्थ ज्ञान नथी, अने जीव- अजीवने नहि जाणतो ते समकिती केम होय? ए ज कहे छे के-
‘अने जे जीव-अजीवने नथी जाणतो ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी. माटे रागी (जीव) ज्ञानना अभावने लीधे सम्यग्द्रष्टि होतो नथी.’
जे व्यवहाररत्नत्रयना रागने पोतानो जाणे छे ते जीव-अजीवने जाणतो नथी अने तेथी ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी, पछी श्रावक अने मुनिपणानी तो वात ज कयां रही? बापु! पांचमुं गुणस्थान श्रावकनुं अने छठ्ठुं मुनिराजनुं तो कोई अलौकिक चीज छे भाई!
रागी जीवने रागनो राग छे, रागनी रुचि छे अने तेथी तेने ज्ञाननो-ज्ञानमय भावनो अभाव छे; अर्थात् तेने आत्मा-अनात्माना ज्ञाननो, सम्यग्ज्ञाननो अभाव छे. आ कारणे आत्मा-अनात्माना ज्ञानथी रहित ते मिथ्याद्रष्टि छे, पण ते सम्यग्द्रष्टि नथी. अहाहा...! जेने व्यवहारनी रुचि छे ते रागी जीव सम्यग्द्रष्टि नथी. आवी आकरी वात छे, पण भाई! आ सत्य वात छे.
‘अहीं “राग” शब्दथी अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहेवामां आव्या छे. त्यां “ अज्ञानमय” कहेवाथी मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीथी थयेला रागादिक समजवा, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहना उदयनो राग न लेवो;’...
जुओ, भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप छे. तेमां (पर्यायमां) जे विकल्प ऊठे छे ते-चाहे तो दया, दान, व्रत, भक्ति के तपनो विकल्प हो, - तोपण ते राग छे, विकार छे, विभाव छे. तेने जे पोतानो मानी तेनाथी लाभ माने छे ते अज्ञानी छे, मिथ्याद्रष्टि छे. एवा मिथ्याद्रष्टिना रागद्वेषमोहने अहीं (गाथामां) ‘राग’ गणवामां आव्यो छे. भगवान! आवा अज्ञानमय रागने करी करीने ८४ ना अवतारमां तुं अनंतकाळ रखडी-रझळी मर्यो छे. छहढालामां आवे छे ने के-
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भगवान! नवमी ग्रैवेयकना भव तें अनंतवार कर्या एम भगवानना शास्त्रमां कहे छे. ते नवमी ग्रैवेयक कोण जाय? एक तो आत्मज्ञानी जाय अने बीजा मिथ्याद्रष्टि पण जाय छे. जेने पांच महाव्रतनो, पांच समिति, त्रण गुप्तिनो व्यवहार चोख्खो होय एवा द्रव्यलिंगी मुनि पण नवमी ग्रैवेयक जता होय छे. पण ते रागनी क्रियाथी पोतानी शुद्ध चैतन्यचमत्कार वस्तु भिन्न छे एवी द्रष्टि करी नहि अने तेथी भवभ्रमण अर्थात् चारगतिनी रझळपट्टी मटी नहि. ल्यो, हवे राग कोने कहेवो एनी खबर न मळे अने मंडी पडे व्रत ने तप करवा पण एथी शुं वळे? एथी संसार फळे, बस. झीणी वात छे भगवान!
अहाहा...! कहे छे-भगवान! तुं कोण छो? के सर्वज्ञस्वभावी आत्मा छो. सर्वज्ञस्वभाव तारुं स्वपद छे. हवे अल्पज्ञता पण ज्यां तारामां नथी त्यां वळी राग कय ांथी आव्यो? पर्यायमां जे शुभाशुभ रागनी वृत्ति ऊठे ते विकार छे, विभाव छे. अरे! विभावने जे पोतानो माने छे ते अपदने स्वपद माने छे. भाई! आ व्रतादिना पुण्यपरिणाम अपद छे ते जीवनुं स्वपद नथी.
अहा! आनंदनो कंद प्रभु आत्मा छे, जेम सक्करकंद छे तेमां जे उपरनी लाल छाल छे ते सक्करकंद नथी, पण अंदर साकरनो कंद-मीठाशनो पिंड जे छे ते सक्करकंद छे. छाल विनानो मीठाशनो पिंड छे ते सक्करकंद छे. तेम शुभाशुभ रागनी जे वृत्तिओ उठे एनाथी रहित अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो जे कंद छे ते आत्मा छे. आवा आनंदकंदस्वरूप प्रभु आत्मामां (पर्यायमां) जे रागनो विकल्प उठे ते मारो छे अने एनाथी मने लाभ छे एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे. आवा मिथ्यात्व सहितना रागने अहीं राग गण्यो छे.
आवी वात छे. पण कोने पडी छे? मरीने कयां जशुं अने शुं थशे ए विचार ज कयां छे? एम ने एम बधुं कर्ये राखो; ज्यां जवाना होईशुं त्यां जशुं. आवुं अज्ञान! अरे बापु! तुं अनंत अनंत ज्ञान, आनंद अने शांतिनो पिंड छो. तेनी द्रष्टि छोडीने क्रियाकांडनो राग मारी चीज छे अने एनाथी मने लाभ छे एम माने छे पण ए तो मिथ्यात्व छे. ए मिथ्यात्वना फळमां तारे अनंतकाळ नरक-निगोदमां काढवो पडशे. बापु! ए आकरां दुःख तने सह्यां नहि जाय.
अरेरे! एणे कदी पोतानी दया पाळी नहि! पोतानी दया पाळी नहि एटले? एटले के पोते अनंत ज्ञान ने अनंतदर्शननो पिंड प्रभु छे एवा पोताना जीवनना जीवतरनी हयाती छे ते एणे कदी मानी नहि, जाणी नहि अने रागनी क्रियावाळो हुं छुं एम ज सदा मान्युं छे. आवी मिथ्या मान्यता वडे एणे पोताने संसारमां-दुःखना समुद्रमां डूबाडी राख्यो छे. आम एणे पोतानी दया तो करी नहि अने परनी दया
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करवाना भाव कर्ये कर्या छे. पण भाई! परनी दया तो कोई पाळी शकतुं नथी. परनुं आत्मा शुं करी शके? स्वद्रव्य, परद्रव्यनुं शुं करे? कांई ज नहि. भाई! परनी दया पाळवानो भाव ते राग छे, हिंसा छे अने हुं परनी दया पाळी शकुं छुं एवी मान्यता मिथ्यात्व छे, महाहिंसा छे. अहीं आवा मिथ्यात्वसहितना रागने राग गण्यो छे. समजाणुं कांई...?
७२ मी गाथामां आव्युं ने के-पुण्य ने पापना भाव छे ते अशुचि छे, जड छे अने दुःखरूप छे. आ त्रण बोल त्यां लीधा छे. अने भगवान आत्मा अत्यंत शुचि, विज्ञानघनस्वभावी होवाथी शुद्ध चैतन्यमय अने दुःखनुं अकारण एवुं आनंदधाम प्रभु छे. त्यां ७२ मी गाथामां आत्माने ‘भगवान’ कहीने बोलाव्यो छे. ‘भगवान’ एटले आ आत्मा हों, जे भगवान (अरिहंत, सिद्ध) थई गया एनी वात नथी. आ तो आत्मा पोते ‘भग’ नाम अनंत ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मी अने ‘वान’ नाम वाळो-अर्थात् आत्मा अनंत-बेहद ज्ञान अने आनंदनी स्वरूपलक्ष्मीथी भरेलो भगवान छे. तेने पामर मानवो वा पुण्य-पापना राग जेवडो मानवो ते मिथ्यात्वभाव छे. भाई! पंचमहाव्रत, पांचसमिति, त्रणगुप्ति इत्यादिना जे विकल्प छे ते अशुचि, अचेतन अने दुःखरूप छे; ज्यारे पोतानो आत्मा परम पवित्र आनंदनुं धाम चैतन्यमूर्ति भगवान छे. आवुं जेने अंतरमां भेदज्ञान नथी ते रागना भावने पोतानो माने छे. अहा! जेने पोतानी ज्ञानानंदमय चैतन्यसत्तानो अंतरमां स्वीकार नथी ते, जे पोतामां नथी एवा शुभाशुभ विकल्पने पोतापणे स्वीकारे छे. भाई! आ बधा शेठिया-करोडपति ने अबजपति-अमे लक्ष्मीपति (धूळपति) छीए एम माननारा बधा मूढ मिथ्याद्रष्टि छे, केमके तेओ अजीवने जीव माने छे. अहीं तो एथीय विशेष रागना अंशने पण जे पोतानो माने ते रागी मिथ्याद्रष्टि छे अने तेना रागने अहीं राग गणवामां आव्यो छे. मिथ्यात्व विना चारित्रमोहना उदयना रागने अहीं गणवामां आव्यो नथी.
अहा! शुद्ध चैतन्यमूर्ति आनंदकंद प्रभु आत्मानो जेने स्वानुभवमां स्वाद आव्यो छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. पण अज्ञानीने सम्यग्दर्शन विना रागनो स्वाद आवे छे अने ते रागना स्वादने लीधे विषयना स्वादथी नवांकर्म बांधे छे. परंतु जेणे रागना स्वादनी रुचि छोडीने चिदानंदघनस्वरूप निज परमात्मद्रव्यमां अंतर्द्रष्टि करी छे तेने आत्माना अनाकुळ अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. तेने चारित्रमोहना उदयवश किंचित् राग थाय छे पण ते रागनी गणतरी गणवामां आवी नथी. अनंतानुबंधी सिवायनो तेने राग होय छे पण ते गणवामां आव्यो नथी. केम? केमके मुख्य पाप तो मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी ज छे.
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कहे छे-‘मिथ्यात्व विना चारित्रमोहना उदयनो राग न लेवो; कारण के अविरत- सम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदयसंबंधी राग छे ते ज्ञानसहित छे; ते रागने सम्यग्द्रष्टि कर्मोदयथी थयेलो रोग जाणे छे अने तेने मटाडवा ज इच्छे छे; ते राग प्रत्ये तेने राग नथी.’
शुं कहे छे? के चोथे आदि गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने जे चारित्रमोहना उदयसंबंधी राग छे ते ज्ञान सहित छे. एटले शुं? के ज्ञानीने ते राग पोताना ज्ञानमां भिन्न मेलपणे भासे छे. अहाहा...! हुं तो पूर्णानंदनो नाथ भगवान छुं अने आ राग छे ते मेल छे, पर छे-एम समकितीने राग पोतानाथी भिन्नपणे भासे छे. हुं आत्मा आनंदमय छुं अने आ राग पर छे एम रागनुं तेने यथार्थ ज्ञान होय छे. आवुं बधुं छे, पण लोकोने बिचाराओने कुटुंब-बायडी-छोकरां ने समाजनी संभाळ-सेवा करवा आडे नवराश ज कयां छे?
हा, पण कुटुंबनी अने समाजनी तो सेवा करवी जोईए ने? अरे भाई! धूळेय सेवा करतो नथी, सांभळने. हुं परनी सेवा करुं छुं एम माननारा तो बधा मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. एक द्रव्य बीजा द्रव्यनी सेवा त्रणकाळमां करी शके नहि. सर्व द्रव्यो ज्यां स्वतंत्र परिणमे त्यां कोण कोनुं काम करे? शुं आत्मा परनुं कार्य करे? परनो कर्ता आत्मा कदीय छे नहि.
अहीं तो एम कहे छे के सम्यग्द्रष्टिने जे राग छे ते ज्ञान सहित छे. तीर्थंकर चक्रवर्तीने भले हजी ९६ हजार स्त्री होय, ९६ करोड पायदळ होय, ने ९६ करोड गाम होय, छतां ते संबंधीनो जे राग छे ते ज्ञान सहित छे अर्थात् ते एने पोतानाथी भिन्न चीज छे एम जाणे छे. रागमां कयांय तेने स्वामित्व नथी. बहु झीणी वात बापु! जन्म- मरण रहित थवानी वात बहु झीणी छे प्रभु!
अरे! एणे आ (-समकित) सिवाय बाकी तो बधुं अनंतवार कर्युं छे. पाप पण एवां कर्यां छे के अनंतवार नरकादिमां गयो अने पुण्य पण एवां कर्यां छे के अनंतवार ते स्वर्गमां गयो. अहा! नरक करतां स्वर्गना असंख्यगुणा अनंता भव एणे कर्या छे. शुं कह्युं ए? के जेटली (अनंत) वार नरकमां गयो एनाथी असंख्यगुणा अनंता भव स्वर्गना कर्या छे. एक नरकना भव सामे असंख्य स्वर्गना भव-एम नरकना भव करतां असंख्यगुणा अनंता भव एणे स्वर्गना कर्या छे एम भगवाननी वाणीमां आव्युं छे. मतलब के स्वर्गमां अनंतवार जाय एवा क्रियाकांड तो घणाय कर्या छे. अरे! शुक्ल लेश्याना परिणाम, जे हमणां तो छेय नहि ते करी करीने अनंत वार ग्रीवक गयो पण पाछो त्यांथी नीचे पटकायो. आवे छे ने के-
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अरे! ए भगवान केवळीना समोसरणमां अनंतवार गयो छे. भगवान अरिहंत परमात्मा त्रणलोकना नाथ महाविदेहमां सदाय विद्यमान होय छे. त्यां महाविदेहमां ए अनंतवार जन्म्यो छे अने भगवानना समोसरणमां अनंतवार गयो छे. पण ‘केवळी आगळ रही गयो कोरो’ एवो घाट एनो थयो छे, केमके भगवाननी वाणीनो भाव तेणे अंदर अडकवा दीधो नथी. रागथी पार शुद्ध चैतन्यमय पोतानी चीज अंदर भगवानस्वरूपे छे एवुं भगवाने कह्युं पण एणे ते रुचिमां लीधुं ज नथी. तेथी ग्रीवक जई जईने पण ते अनंत वार नीचे नरक-तिर्यंचमां रखडी मर्यो छे.
भाई! तुं भगवानस्वरूपे छो हों. पर्यायद्रष्टि छोडीने अंदर स्वभावथी जुए तो बधाय आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपमां जेणे अंतर्द्रष्टि करी ते सम्यग्द्रष्टि छे; अने ते सम्यग्द्रष्टि रागने कर्मोदयथी थयेलो रोग जाणे छे. सम्यग्द्रष्टिने व्रत, नियम आदि संबंधी अने किंचित् विषय संबंधी पण राग आवे छे, पण तेने ते रोग समान जाणे छे, झेर समान ज जाणे छे अने तेने मटाडवा ज इच्छे छे.
अहाहा...! जेने आत्माना अनाकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते समकितीने रागनो स्वाद विरस दुःखमय लागे छे अने तेथी ते सर्व रागने मटाडवा ज इच्छे छे. जेम काळो नाग घरमां आवे तो तेने कोई बहार मूकी आवे के घरमां राखे? तेम समकिती जे राग आवे छे तेने काळा नाग जेवो जाणी दूर करवा ज इच्छे छे, राखवा मागतो नथी. अहा! व्रतादिना रागमां तेने होंश नथी, हरख नथी.
कोईने वळी थाय के आ ते केवो धर्म? शुं आवो धर्म हशे? तेने कहीए छीए-भगवान! तें धर्म कदी सांभळ्यो नथी. अंदर (स्वरूप) शुं छे तेनी तने खबर नथी. अहाहा...! एक समयमां प्रभु! तारी शक्तिनो कोई पार नथी एवुं महिमावंत तारुं स्वरूप छे. अहाहा...! त्रणकाळ-त्रणलोकना द्रव्य-गुण-पर्यायने एक समयमां देखे-जाणे एवी अचिंत्य चैतन्यशक्ति अंदर तारामां पडी छे. आवी पोतानी शक्तिनो महिमा लावी जे अंतर-एकाग्र थयो तेने स्वरूपनो स्वाद आव्यो. ते स्वरूपना स्वादिया समकितीने जे व्रतादिनो राग आवे तेनो स्वाद झेर जेवो लागे छे एम अहीं कहे छे. गजब वात छे प्रभु! अज्ञानीने शुभराग आवे तेमां ते हरखाई जाय, ज्यारे ज्ञानी तेने रोग-समान जाणे छे. ज्ञानीने शुद्ध चैतन्यनो आश्रय छे ने? तेथी ते रागथी विरक्त छे अने जे राग थाय तेने रोग समान जाणी मटाडवा इच्छे छे. बहु झीणी वात छे भाई! चैतन्यनुं शरण पाम्या विना दुनिया कयांय रझळती-रखडती दुःखमां डूबी जशे; पत्तोय नहि लागे.
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खूब गंभीर वात छे भाई! आ गाथा पछी कळश आवशे. तेनी व्याख्या करतां ‘अध्यात्मतरंगिणीमां’ ‘पद’ शब्दनी व्याख्या करी छे. त्यां कह्युं छे के-जे चैतन्य पद छे ते जीवनुं पद कहेतां जीवनुं रक्षण छे, जीवनुं लक्षण छे, ने जीवनुं स्थान छे. आ सिवाय रागादि अपद छे, अरक्षण छे, अलक्षण छे, अस्थान छे. भाई! आ मोटा मोटा महेल- मकान तो अपद छे ज; अहीं तो दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदिनो जे विकल्प ऊठे छे ते अपद छे, अरक्षण छे, अलक्षण छे, अस्थान छे एम कहे छे. ल्यो, आवुं कयांय सांभळ्युं’तुं? (सांभळ्युं होय तो आ दशा केम रहे?)
कोई वळी गौरव करे के-अमारे आवा मकान ने आवा महेल! त्यारे कोई वळी कहे-अमे आवां दान कर्यां ने तप कर्यां इत्यादि.
एमां धूळेय तारुं नथी बापु! सांभळने; मकानेय तारुं नथी अने दानादि रागेय तारो नथी. ए तो बधां अपद छे, अशरण छे, अस्थान छे. भगवान! तुं एमां रोकाईने अपदमां रोकाई गयो छो. तारुं पद तो अंदर चैतन्यपद छे तेमां तुं कदी आव्यो ज नथी. भगवान! तुं निजघरमां आव्यो ज नथी. भजनमां आवे छे ने के-
हुं पुण्यवाळो, ने हुं दयावाळो, ने हुं व्रतवाळो, धनवाळो, स्त्रीवाळो, छोकरावाळो, मकानवाळो, आबरुवाळो-अहाहाहा...! केटला ‘वाळा’ प्रभु! तारे? एक ‘वाळो’ जो नीकळे तो राड नाखे छे त्यां भगवान! तने आ केटला ‘वाळा’ चोंटया?
हा, पण ए ‘वाळो’ तो दुःखदायक छे, शरीरने पीडा आपे छे पण आ ‘वाळा’ कयां दुःखदायक छे?
उत्तरः– भाई! ए ‘वाळो’ एक जन्ममां ज पीडाकारी छे पण आ ‘वाळा’ तो तने जन्म-जन्म मारी नाखे छे; आ ‘वाळा’ तो अनेक जन्म-मरणनां दुःखो आपनारा छे. पण शुं थाय? अज्ञानीने एनुं भान के दि’ छे?
ज्यारे ज्ञानी समकितीने जे राग आवे छे तेने ते रोग जाणे छे. अरे! व्रतनो जे विकल्प आवे तेने समकिती रोग जाणे छे. गजब वात छे भाई! वीतरागनो मार्ग कोई अलौकिक छे प्रभु! बिचारा लोकोने ते सांभळवा मळ्यो नथी! अहा! ज्ञानीने राग प्रत्ये राग नथी. छे अंदर? ज्यांसुधी पूर्ण वीतरागता नथी-परमात्मदशा नथी त्यां सुधी ज्ञानीने विकल्प उठे छे, व्यवहारनो राग आवे छे परंतु-
१. तेने ते रोग जाणे छे एक वात,
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२. तेने ते मटाडवा इच्छे छे-बीजी वात, अने ३. तेने रागनो राग नथी. ल्यो, आ वात छे. हवे कहे छे- ‘वळी सम्यग्द्रष्टिने रागनो लेशमात्र सद्भाव नथी एम कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेः- सम्यग्द्रष्टिने अशुभ राग तो अत्यंत गौण छे अने जे शुभ राग थाय छे तेने ते जराय भलो समजतो नथी-तेना प्रत्ये लेशमात्र राग करतो नथी. वळी निश्चयथी तो तेने रागनुं स्वामित्व ज नथी. माटे तेने लेशमात्र राग नथी.’
शुं कहे छे? के जेने आत्मज्ञान अने आत्मदर्शन थयुं छे तेवा सम्यग्द्रष्टिने पूर्ण वीतरागदशा न थाय त्यां सुधी राग तो आवे छे, पण तेने ते जराय भलो एटले हितकारी समजतो नथी. जुओ, आ वीतरागनो मार्ग अने आ वीतरागनी आज्ञा! राग भलो छे ए वीतरागनी आज्ञा ज नथी. बापु! वीतरागनो मार्ग तो वीतरागभावथी ज ऊभो थाय छे, रागथी नहि. रागथी ऊभो थाय ए वीतरागनो मार्ग छे ज नहि. ए ज कहे छे-
अशुभ राग तो समकितीने गौण छे. अर्थात् ज्ञानीने विषयवासनानो राग क्वचित् किंचित् आवे छे पण ते गौण छे. अने तेने जे शुभ राग आवे छे तेने ते जराय भलो समजतो नथी. अहा! जेणे पोताना भगवानने-चिदानंदघन प्रभु आत्माने भलो जाण्यो अने तेनो आश्रय कर्यो ते शुभरागने हवे भलो केम जाणे? ‘जराय भलो समजतो नथी’-छे अंदर? तेना प्रत्ये लेशमात्र राग करतो नथी. अंदर वस्तु चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो ज्यां आदर थयो त्यां शुभाशुभ रागनो आदर रहेतो नथी. व्रत ने तप ने भक्ति इत्यादि जेम थाय छे तेम थाय छे पण समकितीने तेनो आदर नथी, तेना प्रत्ये राग नथी. निश्चयथी तो तेने रागनुं स्वामित्व ज नथी. जुओ आ धर्मात्मा! धर्मी एने कहीए जे रागनो स्वामी नथी, रागनो धणी नथी. ल्यो, पछी आ धूळनो (- पैसानो) हुं धणी ने बायडीनो हुं धणी-ए तो कयांय (दूर) रही गयुं. समजाणुं कांई...?
तो पछी आ बायडी-छोकरां मारां छे एम मानवुं शुं जूठुं छे? उत्तरः– भाई! आ बायडी मारी ने छोकरां मारां ने पैसा मारा एम मानवुं ए तो नरी मूर्खाई छे; ए तो मूढ मिथ्याद्रष्टिनी मान्यता छे. ज्यां भगवान आत्मा पोते शरीरथी पण भिन्न छे तो पछी ते बधां तारां छे एम कयांथी आव्युं? ए बधांनो तारामां अभाव छे अने तारो ए बधामां अभाव छे तो पछी कयांथी ए बधां तारां थई गयां? बापु! ए तो बधी संयोगने जाणवानी-ओळखवानी रीत छे के-आ पिता, आ पुत्र; बाकी कोण पिता? ने कोण पुत्र? बधा
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चैतन्यस्वरूप भगवान छे त्यां कोण कोनो पिता? ने कोण कोनो पुत्र? अज्ञानीने आ कठण पडे छे, पण शुं थाय? अहीं तो कहे छे-ज्ञानी धर्मात्मा, पोताने जे शुभराग थाय छे तेने पण स्वामीपणे मारो छे तेम मानता नथी. आवो भगवाननो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! (उपयोगने सूक्ष्म करे तो ज हाथ लागे तेम छे).
प्रश्नः– ज्ञानी व्रतादिने जराय भलां जाणतो नथी तो तेमां जे अतिचार लागे छे तेनुं ते प्रायश्चित केम ले छे?
समाधानः– भाई! ज्ञानी व्रतादिना रागने जराय भलो समजतो नथी; ए तो एम ज छे. तोपण तेने राग तो आवी ज जाय छे. कदीक व्रतमां अतिचार- अशुभ पण थई जाय छे. ते दोष छे एम जाणी तेने ते टाळे छे. आनुं नाम प्रायश्चित छे. त्यां प्रायश्चितनो जे विकल्प छे ते शुभभाव छे, ते विषकुंभ छे. समयसार, मोक्ष अधिकार (गाथा ३०६) मां दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि भावने विषकुंभ कह्यो छे. अहा! एकला अतीन्द्रिय अमृतनो सागर प्रभु आत्मा छे. एनाथी विरुद्धना भाव बधा झेर छे. प्रायश्चितनो जे विकल्प छे ते पण झेरनो घडो छे. भाई! विषयवासनाना परिणाम तो झेर छे ज; जे शुभभाव छे ते पण झेर ज छे. हवे आनो मर्म अज्ञानी जाणे नहि एटले शुभरागथी धर्म थवो मानी क्रियाकांड करे पण तेथी शुं वळे? भगवान! ए राग तने शरण नथी हों; शरण तो एक रागरहित नित्य ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा ज छे. ज्ञानी पण शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये ज दोषने टाळे छे अने ते ज साचुं प्रायश्चित छे. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-ज्ञानी राग प्रत्ये लेशमात्र राग करतो नथी. वळी निश्चयथी तो तेने रागनुं स्वामित्व ज नथी. ज्ञानीने जे राग थाय छे तेनो ते धणी ज नथी. आ खाधेला मैसूबनी विष्टा नीकळे तेनुं कोई धणीपणुं राखे के आ विष्टा मारी छे? (न राखे). तेम ज्ञानीने राग झेर समान छे, विष्टा समान छे. बापा! आकरुं लागे अने लोको राडो पाडे पण शुं थाय? राड पाडो तो पाडो; भाई! वस्तु तो जेम छे तेम छे; तेमां कांई बीजुं थाय एम नथी. अहो! आ तो त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्मानी वाणीनो मर्म प्रचुर आनंदनी मस्तीमां रहेनारा संतो जाहेर करे छे. कहे छे-सम्यग्द्रष्टि रागनो जरीय स्वामी नथी; आवो वीतरागनो मार्ग छे. अरे! लोकोए कल्पना करीने रागने वीतरागनो मार्ग-जैनमार्ग मान्यो छे! (ए खेदनी वात छे). अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के निश्चयथी ज्ञानीने रागनुं स्वामित्व ज नथी; माटे तेने लेशमात्र पण राग नथी. हवे बीजी वात कहे छे-
‘जो कोई जीव रागने भलो जाणी तेना प्रत्ये लेशमात्र राग करे तो-भले ते सर्व शास्त्रो भणी चूकयो होय, मुनि होय, व्यवहारचारित्र पण पाळतो होय तोपण-
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एम समजवुं के तेणे पोताना आत्मानुं परमार्थस्वरूप नथी जाण्युं, कर्मोदयजनित रागने ज सारो जाण्यो छे अने तेनाथी ज पोतानो मोक्ष मान्यो छे.’
भाग्य होय तो सांभळवाय मळे एवो सरस अधिकार छे आ. कहे छे-कोई जीव भले सर्व शास्त्रो भणी चूकयो होय, भले ने तेने अगियार अंगनुं ज्ञान प्रगट थयुं होय ने करोडो श्लोको कंठस्थ होय, पण जो ते रागने भलो जाणे छे तो ते अज्ञानी छे, तेणे पोताना आत्मानुं परमार्थस्वरूप जाण्युं नथी. जुओ, एक आचारांगनां १८ हजार पद छे. एक एक पदमां प१ करोड जाजेरा श्लोक छे. आवां आवां अगियार अंग ते अनंतवार भण्यो छे. पण तेथी शुं? ए तो बधुं परलक्षी ज्ञान छे, ते कांई आत्मानुं ज्ञान नथी. भाई! रागथी भिन्न पडी अंतर-एकाग्रता वडे आत्मज्ञान प्रगट कर्या विना अगियार अंगनुं बहिर्लक्षी ज्ञान पण कांई कार्यकारी नथी. समजाणुं कांई...?
कोईने थाय के आ तो बधुं सोनगढथी काढयुं छे. पण आमां सोनगढनुं शुं छे भाई! आ गाथा २००० वर्ष उपर लखाई छे, तेनी टीका १००० वर्ष उपर थयेली छे अने आ भावार्थ १प० वर्ष पहेलानो छे. ए बधामां आ वात छे के-कोई सर्व शास्त्रो भण्यो होय, मोटो नग्न दिगंबर मुनि थयो होय अने व्यवहारचारित्र पण चुस्त अने चोख्खां पाळतो होय, पण जो ते व्यवहारचारित्रना रागने भलो जाणे छे वा तेने ए राग प्रत्ये राग छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने निज चैतन्यस्वरूप आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान नथी.
शुं कह्युं? के कोई द्रव्यलिंगी पंचमहाव्रतमां कोई दोष न लागे ते रीते चुस्तपणे व्यवहारचारित्र पाळतो होय, प्राण जाय तोपण पोताना माटे बनावेला आहारनो कण पण ग्रहण न करे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि छे. केम? केमके ते रागने भलो जाणी रागने ग्रहण करे छे.
आ बधा लोको तो भक्ति-पूजा करे अने जात्राए जाय एटले मानी ले के धर्म थई गयो. पण एमां तो धूळेय धर्म थतो नथी सांभळने. ए तो बधो शुभराग छे, पुण्यबंधननुं कारण छे; तेने भलो जाणे छे ए मिथ्यादर्शन छे. भाई! एक तत्त्वद्रष्टि - आत्मद्रष्टि विना ए बधा क्रियाकांड संसारमां-चारगतिमां रझळवाना रस्ता छे. बापु! राग छे ए तो झेर छे, ए कांई चैतन्यनुं स्वरूप नथी. छतां तेने भलो जाणे ते रागरहित चिदानंदमय निज परमात्मद्रव्यने जाणतो नथी. कह्युं ने के ते महाव्रतादि पाळे तोय आत्माने जाणतो नथी.
महाव्रतादि पाळे तोय आत्माने जाणतो नथी? हा, रागने भलो जाणे, व्यवहार करतां करतां धर्म थशे एम माने ते महाव्रतादि