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तेओ कहे छे-महाव्रतना परिणाम चारित्र नथी पण चारित्रनो दोष छे, अने दोष छे तेथी ते हेय छे. पण रागना-व्यवहारना रागी जीवोने आ वात बेसती नथी अने रागने- व्यवहारने ज धर्म जाणी तेमां ज संतुष्ट रहे छे. तेमने अहीं कहे छे-रागना रागी जीवो अर्थात् परद्रव्य प्रति रागद्वेषमोहवाळा जीवो रागमां ज संतुष्ट रही महाव्रतादि पाळे छे तो पाळो, अने उत्कृष्टपणे-उत्कृष्टपणे हों-समितिनुं आचरण करे छे तो करो, तोपण तेओ पापी ज छे. अहाहा...! एकेन्द्रियने पण दुःख न थाय एम जोईने चाले, निर्दोष आहार-पाणी ले तथा हित-मित वचन कहे इत्यादि उत्कृष्टपणे समिति पाळे तोपण ते रागना रागी जीवो पापी ज छे-बहु आकरी वात भगवान!
प्रश्नः– पापी-अशुभभाव करनारो तो नवमी ग्रैवेयक जई न शके; ज्यारे आ (महाव्रतादिनो पाळनारो) तो नवमी ग्रैवेयक जाय छे, तो पछी तेने पापी केम कह्यो?
उत्तरः– भाई! पापी नवमी ग्रैवेयक न जाय ए साचुं अने आ पुण्य उपजावीने जाय छे. परंतु निश्चयथी तो पुण्येय खरेखर पाप ज छे. योगसारमां दोहा ७१ मां योगीन्द्रस्वामी कहे छे-
अहो! केवळीना केडायतो एवा दिगंबर मुनिवरोए तो, महा गजबनां काम कर्यां छे! तेमणे जैनधर्मने टकावी राख्यो छे. आने मूळ पाप जे मिथ्यात्व ते हयात छे. तेथी ते पापी ज छे. हवे आवो कडवो घूंटडो उतारवो कठण पडे, पण भाई! जेमां रागथी लाभ (धर्म) थाय ए वीतराग मार्ग नथी. कह्युं छे के-
भगवान आत्मा सदा जिनस्वरूप-वीतरागस्वरूप ज छे आ सिवाय रागादि अन्य सर्व कर्म छे. जिनप्रवचननुं आ रहस्य छे के रागभाव धर्म नथी, कर्म छे.
प्रश्नः– तो ज्ञानीने पण राग तो होय छे? उत्तरः– हा, ज्ञानीने यथासंभव राग होय छे पण एने रागनी रुचि नथी, एने रागनुं स्वामित्व नथी. अहीं तो जेने रागनी रुचि छे, रागथी भलुं-कल्याण थशे एवी मान्यता छे ते गमे तेवुं आचरण करनारो होवा छतां अज्ञानी छे, पापी छे एम वात छे, केमके तेने वीतरागस्वभावी आत्मानो आश्रय नथी. अहा! जेणे आस्रव-बंधरूप पुण्य-पापना भावने आदरणीय मान्या छे तेणे संवर, निर्जरा अने मोक्षने जाण्या ज नथी, तेणे पोताना आत्माने अने परने भिन्न भिन्न जाण्या ज नथी. भाई! राग होय ते जुदी चीज छे अने रागनी रुचि होवी जुदी चीज छे. अज्ञानी
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जीव रागनी रुचिनी आडमां रागथी भिन्न अंदर आखो चैतन्यथी भरेलो भगवान आत्मा छे तेने जाणतो नथी. रागने भलो जाणे ते रागथी केम खसे? न ज खसे. ज्यारे ज्ञानीने आत्मानी रुचि अने रागनी अरुचि छे. ते रागने उपाधि जाणे छे अने आत्म-रुचिना बळे तेने दूर करे छे. अहा! ज्ञानी अने अज्ञानीना अभिप्रायमां आसमान-जमीननो फरक छे! अज्ञानी तो उपाधिभावने पोतानो जाणी लाभदायक माने छे अने तेथी ज अहीं कह्युं छे के-अज्ञानी पंचमहाव्रतादिनुं आचरण करे-चोख्खां हों- तोपण पापी ज छे.
भाई! वीतरागनी आज्ञा तो वीतरागता प्रगट करवानी छे; रागने प्रगट करवानी अने तेने आदरणीय मानवानी वीतरागनी आज्ञा नथी. राग करतां करतां सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थशे ए तो लसण खातां खातां कस्तूरीनो ओडकार आवशे एना जेवी (मिथ्या) वात छे. अरे! अज्ञानीओए सदाय नित्य शरणरूप एवा भगवान आत्माने छोडी दईने निराधार ने अशरण एवा रागने पोतानो मानी ग्रहण कर्यो छे! तेथी अहीं संतो अति स्पष्ट कहे छे के-पंचमहाव्रतादिने पाळनारा होवा छतां एने ज कर्तव्य अने धर्म जाणनारा तेओ पापी ज छे, मिथ्याद्रष्टि छे. भारे आकरी वात! पण दिगंबर संतोने कोनी पडी छे? तेमणे तो मार्ग जेवो छे तेवो स्पष्ट जाहेर कर्यो छे. जुओने! त्रण कषायनो जेमने अभाव थयो छे एवा ते मुनिवरो किंचित् राग तो छे पण तेने तेओ आदरणीय मानता नथी.
अज्ञानी अहिंसादि पांच महाव्रत पाळे, ईर्या, भाषा, एषणा आदि पांच समिति पाळे-चोख्खां हों-तोपण ते पापी छे. आकरी वात भगवान! केम पापी छे? तो कहे छे- ‘यतः आत्मा–अनात्मा–अवगम–विरहात्’ कारण के ते आत्मा ने अनात्माना ज्ञानथी रहित छे. ज्ञायकस्वरूपी भगवान आत्मा छे अने राग छे ते आस्रव-अनात्मा छे. हवे जेणे रागने-व्रतना परिणामने-भलो मान्यो छे तेने आत्मा अने अनात्मानी खबर नथी. तत्त्वार्थसूत्रमां व्रत ने अव्रत-बन्ने परिणामने आस्रव कह्या छे. मोक्षमार्ग- प्रकाशकमां पण आवे छे के-जो तमे अशुभभावने पाप मानो छो अने शुभभावने धर्म मानो छो तो पुण्य कयां गयुं? एम के हिंसादिना भाव पाप छे, अने दया आदिना भाव धर्म छे एम मानो तो पुण्य कोने कहेवुं? मतलब के दया-अहिंसा आदि व्रतना परिणाम पुण्य छे, आस्रव छे. आवी वात लोकोने आकरी पडे छे, पण शुं थाय? वस्तुस्थिति ज एवी छे. भाई! रागनो रागी जीव महाव्रतादि आचरे तो पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. गजबनो आकरो कळश छे!
दया पाळे, सत्य बोले, अचौर्य पाळे, जीवनभरनुं ब्रह्मचर्य पाळे, बहारनो एक धागा सरखोय परिग्रह राखे नहि अने छतां पापी कहेवाय? हा, आचार्य अमृतचंद्र कळशमां
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एम कहे छे के ते पापी छे केमके ते रागनो रागी छे अने तेथी मूळ परिग्रह जे मिथ्यात्व ते ऊभो छे. रत्नकरंड श्रावकाचार (श्लोक ३३ मां) मां आवे छे के-
गृहस्थाश्रममां रहेवा छतां जेने रागनो आदर नथी अने आत्मानो आदर थयो छे ते समकिती मोक्षमार्गी छे. ज्यारे अज्ञानी मुनिलिंग (द्रव्यलिंग) धारवा छतां रागनो आदर करे छे तो ते मोही-मिथ्याद्रष्टि छे. जेना अभिप्रायमां राग आदरणीय छे तेने वर्तमानमां भले मंद राग होय तोपण ते मोही-मिथ्याद्रष्टि छे अने चोथे गुणस्थाने भले त्रण कषाययुक्त रागनी प्रवृत्ति होय तोपण तेने राग आदरणीय नहि होवाथी ते मोक्षमार्गमां छे. आवी वात छे. अज्ञानी आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी शुभाचरण करवा छतां सम्यक्त्वथी रहित एवा पापी ज छे. छे ने के- ‘आत्मानात्मावगमविरहात् सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः’
‘परद्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी- एम माने छे तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत-समिति पाळे तोपण स्वपरनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे.’
जोयुं? जेने रागमां रुचि छे, परद्रव्य प्रत्येना आश्रयनो प्रेम छे, तेने अनंतानुबंधीनो राग थतो होय छे. ते भले माने के-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध नथी- तोपण खरेखर ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. आवो जीव भले अहिंसादि पांच महाव्रत पाळे के जोईने चालवुं, विचारीने बोलवुं, निर्दोष आहार लेवो-इत्यादि पाळे तोपण ते पापी ज छे केमके तेने स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी. ज्ञानानंदस्वभावी चैतन्यमात्र वस्तु आत्मा ते हुं स्व अने आ रागादि भाव माराथी भिन्न पर छे एवुं भेदविज्ञान नहि होवाथी बहारथी व्रत-समिति पाळे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि ज छे, पापी ज छे.
आ श्री जयचंदजी पंडित आचार्यदेवनी वातनो विशेष खुलासो करे छे के-अंतरमां रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यनुं भान थयुं नथी अने रागनी रुचिमां रहेला छे ते जीवो भले व्रतादिरूप शुभाचरण करे तोपण तेओ पापी ज छे केमके तेमने स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी. धर्मने नामे लोको तो व्रत, ने तप ने सामायिक ने भक्ति इत्यादि क्रियाओ करवा मंडी पडया छे पण बापु! धर्म कोई जुदी चीज छे; धर्म तो वीतरागतामय छे, रागमय नहि. पण एने कयां आवो विचार छे? ए तो
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बस क्रियाओमां लवलीन छे; पण भाई! ए वडे धर्म नहि थाय, एनाथी संसार नहि टळे.
वळी ‘पोताने बंध नथी थतो एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो? कारण के ज्यांसुधी यथाख्यात चारित्र न थाय त्यांसुधी चारित्रमोहना रागथी बंध तो थाय ज छे अने ज्यांसुधी राग रहे त्यांसुधी सम्यग्द्रष्टि तो पोतानी निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे.’
अहा! मने रागेय नथी ने बंधनेय नथी एम मानी जे स्वच्छंदे प्रवर्ते छे ए तो समकिती छे ज नहि. समकितीने तो ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागतारूप यथाख्यात चारित्र- जेवुं स्वरूप पूर्ण वीतराग छे तेवुं प्रसिद्ध वीतराग चारित्र-न थाय त्यां सुधी राग रहे ज छे अने बंध पण थाय ज छे. वळी तेने ज्यां सुधी राग रहे छे त्यां सुधी एनी निंदा- गर्हा करतो ज रहे छे. राग थाय तो कांई वांधो नहि एम समकितीने न होय. अरे! तेने शुभभाव थाय एनी पण ते निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे. जोके निंदा-गर्हा छे तो शुभभाव, पण ते समकितीने होय ज छे केमके तेने रागमां हेयबुद्धि छे. मोक्ष अधिकारमां निंदा-गर्हा ए शुभभाव छे अने ते विषनो घडो छे एम कह्युं छे. पण समकितीने राग प्रति निंदा-गर्हानो भाव आवे ज छे. हवे कहे छे-
‘ज्ञान थवा मात्रथी बंधथी छूटातुं नथी, ज्ञान थया पछी तेमां ज लीनतारूप- शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध कपाय छे. माटे राग होवा छतां, बंध थतो नथी-एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्तनार जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.’
शुं कह्युं आ? के ज्ञान थया पछी तेमां ज-शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ज लीनतारूप- शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध कपाय छे. जोयुं? ज्ञानानंदस्वरूपमां लीनतारूप शुद्धोपयोग छे अने ते शुद्धोपयोग चारित्र छे. पण महाव्रतना परिणाम कांई चारित्र नथी; चारित्र तो शुद्धोपयोगरूप परिणाम छे. अज्ञानीनी वाते-वाते फेर छे. अज्ञानी तो महाव्रतना- रागना परिणामने चारित्र माने छे. पण अहीं तो त्रण वात कही-
१. ज्ञानानंदस्वभावी निज आत्मस्वरूपमां लीनतारूप शुद्धोपयोग छे. २. ते शुद्धोपयोगरूप चारित्र छे. अने ३. आवा शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध कपाय छे, परंतु महाव्रतना परिणाम के नग्नपणुं चारित्र नथी अने ते वडे बंध कपाय छे एम पण नथी. अहो! जयचंदजीए केवो सरस खुलासो कर्यो छे!
कहे छे-ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानुं स्वसंवेदन प्रगट थया पछी तेमां ज लीनतारूप शुद्धोपयोग प्रगट करे ते चारित्र छे. स्वरूपमां चरे-रमे ते चारित्र छे.
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स्वरूपमां रमणतारूप शुद्धोपयोग छे अने ते चारित्र छे. ज्यारे शुभाशुभभाव अशुद्धोपयोग छे अने ते अचारित्र छे. अहीं कहे छे-शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध छेदाय छे, शुभरागथी नहि. अरे! लोकोने बिचाराओने आनो अभ्यास नथी एटले क्रियाकांडना रागमां ज बधो काळ व्यर्थ गुमावी दे छे! परंतु भाई! सर्वज्ञ परमेश्वर शुं कहे छे अने कई स्थितिए बंध छेदाय छे ते यथार्थ जाणवुं जोईए. ए सिवाय जन्म-मरणना अंत केम आवशे प्रभु?
कहे छे-सम्यग्दर्शन थया पछी पण ज्ञानीने शुभभाव आवे छे परंतु ते बंधनुं ज कारण छे; ज्यारे शुद्धोपयोगरूप जे अंतर्लीनता ते बंधना अभावनुं कारण छे. माटे राग होवा छतां, मने बंध थतो नथी केमके हुं समकिती छुं-एम मानीने जे रागमां स्वच्छंद थई निरर्गल प्रवर्ते छे ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. श्री जयचंदजीए बहु सरस वात करी छे.
‘अहीं कोई पूछे के-व्रत-समिति तो शुभकार्य छे, तो पछी व्रत-समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम कह्यो?’
जोयुं? शुं कह्युं आ? के व्रत-समितिना परिणाम शुभकार्य छे, धर्म नहि हों; तो पछी अहिंसा, सत्य, अदत्त, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह-एम महाव्रत पाळे, जीवोनी विराधना न थाय एम गमनादि साधे, हितमित वचन बोले, निर्दोष आहार ले इत्यादि शुभकार्य करे तेने पापी केम कह्यो?
तेनुं समाधानः– ‘सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ-अशुभ सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे.’
जुओ, सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे-एम एकान्त नाख्युं छे. तो शुं बीजुं (रागादिभाव) पाप नथी? सांभळने भाई! मिथ्यात्व ए ज संसार छे, मिथ्यात्व ए ज आस्रव छे ने मिथ्यात्व ए ज बंधनुं कारण छे. अन्य रागादिभाव (अशुभभाव) पाप तो छे, पण ते अहीं गौण छे. अहीं तो मूळ पाप मिथ्यात्व ज छे एम वात छे. व्रतादि पुण्यना परिणामने धर्म वा धर्मनुं कारण माने ते मिथ्यात्व छे अने ते मिथ्यात्व ज मूळ पाप छे. जुओ, विशेष स्पष्ट करे छे के-ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभाशुभ सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. भाई! कोई महाव्रतादिनुं आचरण करे अने ए वडे धर्म थवो माने तो तेने ए बधां शुभाचरण पाप ज छे. आकरी लागे पण चोकखी वात कही छे के अध्यात्ममां मिथ्यात्व सहित शुभक्रियाने परमार्थे पाप ज कहे छे. पण एने कयां विचारवुं छे? बिचारो एम ने एम हांके राखे छे. अहीं तो भगवानना आगममां आवेली आ वात छे के-
१. मिथ्यात्व ए ज मूळ पाप छे.
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२. ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ के अशुभ सर्व क्रियाओने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहे छे. जुओ, छे अंदर के नहि? (छे).
हवे कहे छे-‘वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां, व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित् पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी.’
जोयुं? परमार्थे शुभक्रियाने पाप कहेवामां आवे छे तोपण व्यवहारनये तेने अशुभ-पापना परिणाम छोडावीने शुभपरिणाममां प्रवर्ताववा माटे पुण्य पण कहे छे. परंतु तेने पुण्य कहे छे, धर्म नहि. अहीं व्यवहारथी पाप अने पुण्य-ए बे वच्चेनो भेद- तफावत दर्शाव्यो छे.
ज्यां सुधी दया, दान, व्रत आदिना शुभ परिणामथी धर्म थाय छे एवी मिथ्या मान्यता छे त्यां सुधी ते शुभक्रियाना परिणाम निश्चयथी पाप ज कह्या छे; परंतु व्यवहारे, अशुभने छोडीने शुभमां जोडाय छे ते शुभने पुण्य पण कहे छे. पुण्य हों, धर्म नहि. अरे भाई! आ टाणां आव्यां छे ने जो आ टाणे आनो निर्णय नहि करे तो के दि’ करीश? (पछी अनंतकाळे पण अवसर नहि आवे). माटे हमणां ज तत्त्वाभ्यास वडे निर्णय कर.
श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां सातमा अधिकारमां सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्याद्रष्टिनुं कथन करतां कह्युं छे के -जो आ अवसरमां तत्त्वाभ्यासना संस्कार पडया हशे तो कदाचित् कोई पापनी विचित्रताना वशे अहींथी नरकमां के तिर्यंचमां-ढोरमां जाय तोपण त्यां ते संस्कार उगशे अने तेने देवादिना निमित्त विना पण समकित थशे. अहाहा...! ‘रागथी रहित हुं शुद्ध चैतन्यमय वस्तु आत्मा छुं’-एवा अंतरमां संस्कार द्रढ पडया हशे तो ते अन्यत्र ए संस्कारना बळे समकितने प्राप्त थशे. वळी त्यां कह्युं छे के-
“जुओ, तत्त्वविचारनो महिमा! तत्त्वविचार रहित देवादिकनी प्रतीति करे, घणां शास्त्रोनो अभ्यास करे तथा व्रत-तपश्चरणादि करे छतां तेने तो सम्यक्त्व थवानो अधिकार नथी अने तत्त्व विचारवाळो ए विना पण सम्यक्त्वनो अधिकारी थाय छे.”
लोको तो व्रत ने तप कर्यां एटले थई गयो धर्म एम माने छे. पण एमां तो धूळेय धर्म नथी सांभळने! ए तो बधो राग छे अने रागथी भिन्न तारुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे. आवो तत्त्वविचार अने निर्णय थया विना व्रतादि आचरण करे तोय जीव मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे. अने आवा तत्त्वविचार सहित जेने अंतरमां तत्त्व-निर्णयना द्रढ संस्कार पडया छे ते समकितनो अधिकारी थाय छे. कदाचित् नरक-
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तिर्यंचमां जाय तोपण त्यां ते संस्कारना बळे समकित पामशे. लोकोने आ आकरुं पडे छे, पण शुं थाय?
त्यारे केटलाक कहे छे-तमे व्यवहारथी निश्चय थाय एम मानता नथी. पण भाई! आगम ज आम कहे छे; शास्त्र ज आम कहे छे के व्यवहारथी (रागथी) निश्चय (धर्म) थाय एम माननारा मिथ्याद्रष्टि छे. जुओ, लख्युं छे ने के-तत्त्वविचार रहित तपश्चरणादि करे तोय तेने सम्यक्त्व थवानो अधिकार नथी अने तत्त्वविचारवाळो ए विना पण सम्यक्त्वनो अधिकारी थाय छे. वळी त्यां ज आगळ जतां लख्युं छे के-
“वळी कोई जीवने तत्त्वविचार थवा पहेलां कोई कारण पामीने देवादिकनी प्रतीति थाय, वा व्रत-तप अंगीकार थाय अने पछी ते तत्त्वविचार करे, परंतु सम्यक्त्वनो अधिकारी तत्त्वविचार थतां ज थाय छे.” जुओ, व्रत-तप अंगीकार करे माटे समकित थाय एम नहि, पण तत्त्वविचार थतां ते समकितनो अधिकारी थाय छे. आवी चोकखी वात छे, पण अरेरे! जगतने कयां पडी छे? आ जीवन पुरुं थतां हुं कयां जईश? मारुं शुं थशे? आवो एने विचार ज कयां छे? ए तो बिचारो स्त्री-पुत्र-परिवार अने बहारनी पांच-पचास लाखनी धूळमां-संपत्तिमां सलवाई पडयो छे. कदाचित् सांभळवा जाय तोपण एथी शुं? तत्त्वविचार - तत्त्वमंथन कर्या विना अने तत्त्वनिर्णय पाम्या विना बधुं थोथेथोथां छे.
अहीं कहे छे-व्यवहारनयनी मुख्यताथी व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाववा शुभक्रियाने कोई प्रकारे पुण्य पण कहे छे. व्रत, तप, भक्ति, जात्रा, उपवास आदि व्यवहारथी पुण्य कहेवाय छे. तथापि निश्चयथी तो ए सर्व शुभक्रिया, जो शुभक्रियाने पोतानी माने छे तो, पाप ज छे. आवी वात छे.
‘वळी कोई पूछे छे के-परद्रव्यमां राग रहे त्यांसुधी जीवने मिथ्याद्रष्टि कह्यो ते वातमां अमे समज्या नहि. अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदयथी रागादिभाव तो होय छे, तेमने सम्यक्त्व केम छे?’
शुं कह्युं आ? के आप शुभभाव करनारने मिथ्याद्रष्टि कहो छो ए वात अमे समज्या नहि; केमके अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने पण चारित्रमोहना उदयथी शुभभाव थतो होय छे. क्षायिक समकितीने पण रागना परिणाम तो थाय छे. तो पछी तेमने समकित केम छे? तेमने राग छे छतां समकित केम टकी रहे छे?
तेनुं समाधानः– ‘अहीं मिथ्यात्वसहित अनंतानुबंधी राग प्रधानपणे कह्यो छे. जेने एवो राग होय छे अर्थात् जेने परद्रव्यमां तथा परद्रव्यथी थता भावोमां
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आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति थाय छे, तेने स्व-परनुं ज्ञानश्रद्धान नथी-भेदज्ञान नथी - एम समजवुं’.
जुओ, जेनी विपरीत मान्यता छे के-व्रत ने तप वडे मने धर्म थशे अने भगवाननी भक्ति-वंदना-जात्रा वडे समकित थशे-ते मिथ्याद्रष्टि छे; अने आवुं विपरीत माननार मिथ्याद्रष्टिना अनंतानुबंधी रागने अहीं प्रधानपणे कह्यो छे अर्थात् अनंतानुबंधीना रागने ज अहीं राग कह्यो छे; अस्थिरताना रागने नहि. जुओने! अहीं तो पंडित श्री जयचंदजीए आखुं पानुं भर्युं छे! कहे छे-जेने आवो राग होय छे अर्थात् जेने परद्रव्यमां तथा परद्रव्यथी थता भावोमां आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति थाय छे... शुं कह्युं? परद्रव्यमां अने परद्रव्यथी थता भावोमां-भले पछी ते देव, गुरु, शास्त्र के स्त्री-पुत्रादि अन्य हो-ते सर्व परद्रव्यमां अने तेनाथी थता पुण्य-पापना भावोमां जेने आत्मबुद्धि थाय छे तेने स्वपरनुं ज्ञानश्रद्धान नथी. अहा! जेने परद्रव्यमां अने परद्रव्यथी थता पुण्य-पापना भावोमां-ते मारा छे अने मने लाभकारी छे-एम प्रीति-अप्रीति थाय छे तेने स्वपरनुं श्रद्धान नथी. जेने रागनो प्रेम छे तेने-आत्मा पोते स्व अने राग पर-एवुं भेदज्ञान नथी. आ देव-गुरु-शास्त्रने पण जे मारां माने तेने स्वपरनुं भेदज्ञान नथी.
हा, पण आ दीकरा-दीकरी तो अमारां खरां ने? उत्तरः– धूळेय तारां नथी, सांभळने! तेओ तेना छे. तेनो आत्मा तेनो छे अने शरीर शरीरनुं छे. शुं ते शरीर आत्मानुं छे? शुं ते शरीर तारुं (पितानुं) छे? शुं तेनो आत्मा तारो (-पितानो) छे? ना. अहाहा...! पोते तो ज्ञायकस्वरूपी आनंदकंद भगवान स्वस्वरूपे छे अने ते सिवाय जे कांई छे ते बधुंय परद्रव्य छे. ते सर्व परद्रव्य अने तेना निमित्तथी थता पुण्यना भावोमां (अहीं मुख्यपणे पुण्य उपर जोर देवुं छे). जेने पोतापणुं छे तेने स्व-परनुं भेदविज्ञान नथी. एम समजवुं.
हवे विशेष कहे छे-‘जीव मुनिपद लई व्रत-समिति पाळे तोपण ज्यां सुधी पर जीवोनी रक्षा, शरीर संबंधी जतनाथी प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना शुभभावोथी पोतानो मोक्ष माने छे अने पर जीवोनो घात थवो, अयत्नाचाररूपे प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना अशुभ भावोथी ज पोताने बंध थतो माने छे त्यां सुधी तेने स्वपरनुं ज्ञान थयुं नथी एम जाणवुं.
जुओ, परद्रव्यनी क्रिया जीव करी शकतो नथी. छतां मुनिपद लईने व्रत-समिति पाळतां, हुं पर जीवोनी रक्षा करुं छुं-दया पाळुं छुं तथा पर जीवोनी हिंसा न थाय तेम जतनाथी शरीरादिने प्रवर्तावुं छुं-एम जे परद्रव्यनी क्रियाथी अने परद्रव्यना
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निमित्ते थता व्रत, तप, भक्ति, जात्रा आदिना शुभभावोथी जे पोतानो मोक्ष माने छे तेने भेदविज्ञान ज नथी. भाई! व्रत, तप, उपवास आदि शुभभाव परद्रव्यनो भाव छे. एने पोतानो माने वा एना वडे मोक्ष थवो माने छे तेने स्वपरनुं ज्ञान ज नथी. वळी पर जीवोनी हिंसा थवी अने अयत्नाचारे शरीरनुं प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी वा तेना निमित्ते थता अशुभभावथी ज बंध थाय छे एम जे माने छे तेने पण स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी. गंभीर वात छे भाई! अहाहा...! ज्यांसुधी अशुभभावथी ज बंध अने शुभभावथी मोक्ष थवो जीव माने छे त्यांसुधी व्रत-समिति पाळे तोय ते स्वपरना भेदज्ञानरहित होवाथी अज्ञानी ज छे. परनी क्रिया अने अशुभभाव ज बंधनुं कारण छे अने शुभक्रिया-व्रतादि भाव मोक्षनुं कारण छे, बंधनुं कारण छे-एम माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. लोको तो राड नाखी जाय एवी आ आकरी वात छे.
अरे! परद्रव्यनी क्रिया तुं कयां करी शके छे भगवान? शुं तुं परनी दया पाळी शके छे? शुं तुं पर जीवनी हिंसा करी शके छे? ना; ए तो जीवनुं आयुष्य होय त्यांसुधी ते जीवे छे अने आयुष्य पुरुं थई जतां मरी जाय छे; एमां तारुं शुं कर्तव्य छे? कांई नहि. बंध अधिकारमां आवे छे के-हुं परने जीवाडुं छुं, परने मारुं छुं, परने सुखी-दुःखी करुं छुं इत्यादि जे माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, जैन नथी. अरे, जैननी एने खबरेय नथी.
हवे तेनुं कारण समजावे छे-‘कारण के बंध-मोक्ष तो पोताना अशुद्ध तथा शुद्ध भावोथी ज थता हता, शुभाशुभ भावो तो बंधनां ज कारण हता अने परद्रव्य तो निमित्तमात्र ज हतुं, तेमां तेणे विपर्ययरूप मान्युं.’
शुं कहे छे? के बंध तो अशुद्ध परिणामथी थाय छे. शुभ अने अशुभ-बन्ने भाव अशुद्ध परिणाम छे. व्रत, तप, जात्रा आदिना भाव जे शुभ छे ते अशुद्ध छे अने हिंसादिना अशुभभाव पण अशुद्ध छे. आ प्रमाणे शुभाशुभ भाव बन्ने अशुद्ध होवाथी बन्नेय बंधनां ज कारण छे. अशुभनी जेम शुभभाव पण बंधनुं ज कारण छे. भाई व्रत-अव्रतना बन्ने परिणाम बंधनुं ज कारण छे. ज्यारे व्रत-अव्रतरहित-पुण्य- पापरहित आत्मानो जे शुद्धभाव छे ते मोक्षनुं कारण छे. एक शुद्धोपयोग ज मोक्षनुं कारण छे.
जुओ, पुण्य-पापना बन्ने भाव बंधनुं कारण छे अने परद्रव्य तो तेमां निमित्तमात्र ज छे. परंतु अज्ञानी तेमां विपरीत माने छे. हवे आवुं सांभळवा- समजवानी एने कयां नवराश छे? कदाचित् सांभळवा जाय तो कुगुरु एने लूंटी ले छे. अरेरे! वीतराग मार्गनुं सत्यार्थ स्वरूप सांभळवाय न मळे त्यां एने मार्गनी रुचि अने मार्गरूप परिणमन कयारे थाय?
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प्रश्नः– आप तो व्यवहारनो लोप करो छो; शुं व्यवहार छे ज नहि? उत्तरः– कोण कहे छे के व्यवहार छे ज नहि? व्रत, तप, भक्ति, दान इत्यादि बाह्य व्यवहार ज्ञानीने पण होय छे, पण ते मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्षनुं कारण छे एम ज्ञानी मानता नथी. जो कोई तेने मोक्षमार्ग जाणी आचरण करे छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे एम वात छे. जुओने! अहीं शुं कहे छे आ? के दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि भावो शुभराग छे अने ते वडे पोतानो मोक्ष थवो जे माने छे ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. आ तो शास्त्र-आगम आम पोकारी कहे छे, परंतु अज्ञानी विपरीत ज माने छे.
‘आ रीते ज्यांसुधी जीव परद्रव्यथी ज भलुंबुरुं मानी रागद्वेष करे छे त्यां सुधी ते सम्यग्द्रष्टि नथी.’
जुओ, शुं कीधुं आ? के अज्ञानी परद्रव्यथी ज भलुंबुरुं मानी रागद्वेष करे छे. परनी दया पाळवी ते भलुं छे अने परनी हिंसा करवी ते बुरुं छे-एम परद्रव्यथी भलुंबुरुं मानी रागद्वेष करे छे ते समकिती नथी. (परमार्थे शुभ अने अशुभभाव ते पण पर छे.) भाई! आ तो श्री जयचंदजीए लख्युं छे तेनुं अहीं स्पष्टीकरण चाले छे. शरीरनी उपवासादि क्रियाथी अने शुभभावथी धर्म थाय छे अने अशुभभावथी ज बंध थाय छे एम अज्ञानी विपरीत माने छे. आवुं विपरीत ज्यांसुधी ते माने छे त्यां सुधी ते समकिती नथी. केवो सरस भावार्थ लख्यो छे!
‘सम्यग्द्रष्टि जीव तो ज्यां सुधी पोताने चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहे छे त्यां सुधी ते रागादिक विषे तथा रागादिकनी प्रेरणाथी जे परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रियामां ते प्रवर्ते छे ते प्रवृत्तिओ विषे एम माने छे के-आ कर्मनुं जोर छे; तेनाथी निवृत्त थये ज मारुं भलुं छे.’
जुओ, समकितीने अस्थिरतानो राग होय छे तथा ते रागप्रेरित शुभाशुभ बाह्य क्रियाओमां पण ते प्रवर्ततो होय छे पण ए सर्व ते कर्मनुं जोर अर्थात् पुरुषार्थनी नबळाई-अधुराश छे एम जाणे छे. वळी पुरुषार्थ वधारीने एनाथी निवृत्त थये ज पोतानुं भलुं छे एम सम्यक्पणे ते माने छे, अने क्रमे पुरुषार्थनी द्रढता करीने रागथी निवृत्त थाय छे.
‘ते तेमने रोगवत् जाणे छे.’ ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी समकिती-धर्मीने व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिनो शुभ भाव आवे छे खरो पण तेने ते रोग समान जाणे छे. तेने ते बंधनुं कारण जाणे छे, धर्मनुं नहि. भाई! आ तो २०० वर्ष पहेलां श्री जयचंदजीए लख्युं छे. मूळ पाठ ‘रागिणोऽप्याचरन्तु’ इत्यादि
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श्री अमृतचंद्राचार्यनो छे तेमां पण आ ज कह्युं छे. भलो जाणी रागनुं आचरण करे अने माने के-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, पण ए सम्यग्द्रष्टि नथी. समकिती तो रागथी विरत्त थवानी भावनावाळो रागने रोग समान ज जाणे छे. समकिती रागना आचरणमां धर्म मानतो नथी. हवे कहे छे-
(राग-रोगनी) ‘पीडा सही शकाती नथी तेथी तेमनो ईलाज करवारूपे प्रवर्ते छे तोपण तेने तेमना प्रत्ये राग कही शकातो नथी; कारण के जेने रोग माने तेना प्रत्ये राग केवो? ते तेने मटाडवानो ज उपाय करे छे अने ते मटवुं पण पोताना ज ज्ञानपरिणामरूप परिणमनथी माने छे.’
समकितीने विषयवासना पण थई आवे छे अने तेना ईलाजरूपे ते विषयभोगमां पण जोडाय छे, पण तेने एनी रुचि नथी. ते तो एने रोग जाणे छे तो एनी रुचि केम होय? काळो नाग देखी जेम कोई भागे तेम ते एनाथी-अशुभरागथी भागवा मागे छे. ते तेने मटाडवानो ज उपाय करे छे. ते तो अशुभरागनी जेम शुभरागने पण मटाडवानो ज उपाय करे छे. वळी सर्व रागनुं मटवुं ते पोताना ज ज्ञानपरिणामरूप परिणमनथी माने छे. शुभ परिणाम अशुभने मटाडवानुं साधन छे एम नहि पण पोताना निर्मळ ज्ञानमय वीतरागी परिणमनथी ज सर्व राग मटवायोग्य छे एम ते यथार्थ माने छे. अज्ञानीने जेम विषयभोगमां मजा आवे छे तेम ज्ञानीने विषयभोगमां के शुभरागमां मजा नथी. ते तो सर्व रागने मटाडवानो ज उपाय करे छे अने शुद्ध चैतन्यना आश्रये क्रमशः मटाडतो जाय छे. कहे छे-‘आ रीते सम्यग्द्रष्टिने राग नथी. आ प्रमाणे परमार्थ अध्यात्मद्रष्टिथी अहीं व्याख्यान जाणवुं.’
हवे कहे छे-‘अहीं मिथ्यात्वसहित रागने ज राग कह्यो छे.’ शुं कह्युं? के कोई व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि चरणानुयोग अनुसार शुभाचरण करतो होय पण जो एने ए शुभरागमां रुचि छे, आत्मबुद्धि छे, वा एनाथी मारुं भलुं थशे एवी मान्यता छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे अने एना मिथ्यात्वसहितना रागने ज राग कह्यो छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ वीतरागस्वरूप छे. हवे जेनी रुचिमां वीतरागस्वरूप आत्मानुं पोसाण नथी पण रागनुं अने परद्रव्यनुं ज पोसाण छे अर्थात् राग भलो छे-एम रागनुं ज जेने पोसाण छे ते मिथ्याद्रष्टि छे अने एना रागने ज अहीं राग कह्यो छे.
प्रश्नः– परंतु शुभभावने अशुभभावनी अपेक्षाए तो ठीक कहेवाय ने? उत्तरः– पण ए कयारे? समकित थाय त्यारे. तोपण बंधनी अपेक्षाए तो बन्ने निश्चयथी बंधना ज कारणरूप छे. समकितीने व्यवहारनी अपेक्षाए तीव्र कषायनी सरखामणीए मंदकषायने ठीक-भलो कहेवाय छे, पण छे तो निश्चयथी बंधनुं ज कारण. जेणे मंदकषायने पण निश्चये बंधनुं कारण जाण्युं छे एवा समकितीने मंदकषाय-शुभराग उपचारथी भलो कहेवामां आव्यो छे.
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भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वरूपे सदाय ज्ञायकभावे परमात्मस्वरूपे अंदर विराजी रह्यो छे. तेनो जेमने प्रेम नथी, तेनो जेमने आश्रय नथी, अवलंबन नथी अने जेओ एकांते रागनुं अवलंबन लईने बेठा छे तेओ, भले व्रत पाळे, तपश्चर्या करे, मुनिपणानो आचार पाळे तोपण मिथ्याद्रष्टि ज छे. भाई! आ तो भवना अभावनी वात छे. जेनाथी भव मळे ते भाव आत्मानो नथी केमके भगवान आत्मा भव अने भवना कारणना अभावस्वरूप छे. तेथी अहीं कह्युं के मिथ्यात्वसहित जे अनंतानुबंधीनो राग छे तेने ज अहीं राग कह्यो छे. रागनी रुचि सहित जे राग छे ते मिथ्यात्वसहित छे अने तेने ज अहीं राग कह्यो छे. चरणानुयोगनी वातो घणी सांभळी होय एटले आवुं आकरुं लागे पण शुं थाय? आवी ज वस्तुस्थिति छे.
प्रश्नः– तो शास्त्रमां आवे छे के निश्चयसहित व्यवहारनो उपदेश करवो वा निश्चय न समजे तेने व्यवहारनो उपदेश करवो. आ केवी रीते छे?
उत्तरः– भाई! ए तो उपदेश शैलीमां राग घटाडवानी अपेक्षाए वात छे. परंतु अहीं तो भवना अभावनी वात छे. चरणानुयोगमां तो त्यां सुधी आवे के तीव्र कषाय घटाडवा मंद कषाय करवो. परंतु ए तो व्यवहारनुं वचन छे ज्यारे अहीं परमार्थनी वात छे. वळी चारेय अनुयोगमां कषाय मटाडवानुं ज प्रयोजन छे एम समजवुं. चारे अनुयोगनुं तात्पर्य एक मात्र वीतरागता ज छे, अने ते स्वना आश्रये ज प्रगट थाय छे. तथापि कोई रागनी रुचि सहित रागना-परद्रव्यना आश्रये ज परिणमे छे तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे अने तेना रागने ज अहीं राग कह्यो छे. समजाणुं कांई?
मिथ्यात्वसहित रागने ज अहीं राग कह्यो छे. व्रतादिना रागने ज अने परद्रव्यने ज ज्ञेय बनावीने तेमां ज जेणे चिद्घन परमात्मस्वरूप भगवान ज्ञायकमूर्तिने रोकी राख्यो छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. तेना रागने ज अहीं राग कह्यो छे. आकरी वात प्रभु! दुनिया साथे मेळ मेळववो मुश्केल छे, पण शुं थाय?
हवे कहे छे-‘मिथ्यात्व विना चारित्रमोहसंबंधी उदयना परिणामने राग कह्यो नथी; माटे सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होय ज छे.’
शुं कह्युं? समकितीने चारित्रमोहनो किंचित्-जरी राग छे तेने अहीं राग कह्यो नथी. किंचित्-जरी एटले? ९६ हजार स्त्रीना विषयनी वासनावाळो राग-चारित्रमोहनो अस्थिरतानो राग किंचित् छे, जरी छे; कारण के ते रागना फळमां अल्प स्थिति अने अल्प अनुभाग पडे छे. तेथी ते रागने गणवामां आव्यो नथी. अहाहा...! जे परमपारिणामिकभावस्वरूप सहजानंदमय भगवान ज्ञायकमूर्तिना पडखे चढयो अने तेनो अंतःस्पर्श करी वीतराग समकितने प्राप्त थयो तेने हजी राग तो छे पण ते रागने अहीं गणवामां आव्यो नथी अर्थात् तेने गौण गणी काढी नाख्यो छे. ज्यारे जे
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भगवान ज्ञायकना पडखे चढयो ज नथी अने जे रागना ज पडखे चढेलो छे तेना रागने ज राग कह्यो छे.
अरेरे! अनादिथी ८४ना अवतारमां अशरणदशामां पडेला एणे परम शरणभूत पोतानी त्रिकाळ ज्ञानानंदमय चीज कोई दि’ जोई नहि! जेनुं शरण लेतां शरण मळे, आनंद थाय एनुं शरण लीधुं नहि अने व्रत, तप, भक्ति इत्यादि अशरणरूप भावोना शरणे जतां ते मिथ्याद्रष्टि ज रह्यो. तेनुं वीर्य शुभाशुभ रागमां ज एकत्वपणे उल्लसित थतुं रह्युं केमके तेने रागमां मीठाश हती. अहीं आवा अज्ञानीना रागने ज राग कह्यो छे केमके ते दीर्घ संसारनुं कारण छे. ज्यारे जे स्वरूपना आश्रये-शरणमां रहेलो छे एवा समकितीने भले अस्थिरतानो किंचित् राग होय पण तेने अहीं गण्यो नथी केमके तेनुं वीर्य रागमां उल्लसित-प्रफुल्लित नथी अने ते दीर्घ संसारनुं कारण नथी. आवी व्याख्या छे!
एकलो आनंदकंदस्वरूप प्रभु आत्मा परमात्मा छे. भाई! भगवानने जे परमात्मपर्याय प्रगट थई ते कयांथी थई? अंदर जे अनंती त्रिकाळी परमात्मशक्ति पडेली छे ते प्रगट थई छे. आवी परमात्मशक्तिनी-ज्ञानानंदस्वभावनी जेने रुचि थई छे अने रागनी रुचि छूटी गई छे ते ते समकिती धर्मात्मा छे. अहीं कहे छे-आवा धर्मात्माना चारित्रमोहसंबंधी उदयना परिणामने राग कह्यो नथी; माटे सम्यग्द्रष्टिने ज्ञान-वैराग्यशक्ति अवश्य होय ज छे. अहाहा...! जेने अनाकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो छे, जेने पोताना त्रिकाळी परमात्माना भेटा थया छे तेने स्वरूपनी पूर्णतानी प्रतीतिनुं ज्ञान अने रागना निवर्तनरूप वैराग्य जरूर होय ज छे. धर्मीने निराकुळ आनंदना स्वादनी रुचि खसती नथी अने तेने जे राग आवे तेनी रुचि थती नथी. तेने तो राग झेर जेवो लागे छे. जेने रागमां होंश-मझा आवे छे ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. आवो मार्ग छे बापा! बहु झीणो मार्ग भाई! दुनिया तो कयांय (रागमां) रझळे-रखडे छे अने वस्तु तो कयांय रही गई छे! परंतु आनंदनुं निधान भगवान आत्मानो आश्रय लीधा विना जे कांई व्रत, तप, भक्ति आदि करवामां आवे छे ते बधाय रागादिनुं फळ संसार ज छे. आवी वात छे.
धर्मीने-सम्यग्द्रष्टिने अर्थात् सम्यक् नाम सत्यद्रष्टिवंतने ज्ञान अने वैराग्य होय ज छे. सत्य एटले त्रिकाळी नित्यानंदस्वरूप भगवान आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे तेने निमित्तनी, रागनी के एक समयनी पर्यायनी द्रष्टि रहेती नथी. तेथी तेने स्वस्वरूपनुं ज्ञान अने राग-अशुद्धिना अभावरूप वैराग्य अवश्य होय ज छे. जुओ, छ खंडना राज्यना वैभवमां समकिती चक्रवर्ती पडयो होय तोपण तेने ज्ञान अने वैराग्य निरंतर एकीसाथे होय ज छे. ऋषभदेव भगवानना पुत्र भरत चक्रवर्ती हता. तेओ क्षायिक समकिती हता. तेमने ९६ करोड पायदळ, ९६ करोड गाम अने ९६ हजार राणीओ
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हती. छतां ‘हुं त्रिकाळी आनंदस्वरूप भगवान छुं’-एवी द्रष्टि, एवुं ज्ञान अने रागना अभावरूप वैराग्य तेमने निरंतर हतो.
पण आमां करवुं शुं? शुं करवुं एनी वात तो कांई आवती नथी. अरे भाई! अनादिकाळथी तें बधुं ऊंधुं ज कर्या कर्युं छे. व्रत पाळ्यां, दान कर्यां, भक्ति करी, भगवाननी पूजा करी; अरे! समोसरणमां बिराजमान साक्षात् अर्हंत परमात्मानी मणिरत्नना फूलथी अनंतवार पूजा करी; पण तेथी शुं? ए तो बधो राग छे. ए रागथी लाभ मान्यानुं तने मिथ्यादर्शन थयुं छे. समकितीने तो रागना अभावनी-वैराग्यनी भावना निरंतर होय छे केमके तेने आत्मानी रुचि निरंतर रहे छे. आत्मानी रुचि अने तेना आश्रये रागनो अभाव ए ज निरंतर करवा योग्य कार्य छे.
हवे कहे छे-‘मिथ्यात्व सहित राग सम्यग्द्रष्टिने होतो नथी अने मिथ्यात्व सहित राग होय ते सम्यग्द्रष्टि नथी.’
जुओ, जेने सम्यग्दर्शन थयुं छे अर्थात् जेने ज्ञानानंदस्वभावी आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो छे ते सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व सहित राग होतो नथी. भाई! अंदर एकला ज्ञान अने आनंदनां निधान भर्यां छे. भगवान आत्मा ज्ञान अने आनंदनुं अखूट निधान छे. ते परिपूर्ण परमात्मशक्तिना सामर्थ्यथी भरेलुं छे. आवा आत्मानी जेने अंतरंगमां द्रष्टि थई ते सम्यग्द्रष्टि छे, अने तेने राग गणवामां आव्यो नथी केमके तेने मिथ्यात्व सहित राग होतो नथी. जो मिथ्यात्व सहित राग होय तो ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी. शुं रागमां रुचिय होय अने सम्यग्दर्शन पण होय? असंभव. रागनी रुचि अने सम्यग्दर्शन बे साथे होई शकतां नथी. जेने पोसाणमां राग छे तेने वीतरागस्वभाव पोसातो ज नथी. अने जेने वीतरागस्वभावी आनंदकंद प्रभु आत्मा पोसाणो तेने राग पोसाय ज नहि.
तो शुं समकितीने राग होतो ज नथी? एम कयां वात छे? समकितीने यथासंभव राग तो होय छे पण तेने रागनुं पोसाण नथी. ते रागने झेर समान ज माने छे. समजाणुं कांई...? कोईने वळी थाय के शुं आवी व्याख्या अने आवो मार्ग हशे? हा, भाई! वीतरागमार्ग आवो अलौकिक छे अने आवी ज तेनी व्याख्या छे. आ तो दिव्यध्वनिमां भगवाने पीटेलो ढंढेरो छे के समकितीने मिथ्यात्व सहित राग नहि अने मिथ्यात्व सहित राग छे तेने समकित नहि. गजब वात छे! मिथ्यात्व सहित रागने ज अहीं मुख्यपणे राग गणवामां आव्यो छे. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे-‘आवा (मिथ्याद्रष्टिना अने सम्यग्द्रष्टिना भावोना) तफावतने सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे.’ मतलब के अज्ञानीने आ तफावतनी खबर ज नथी. अज्ञानी तो बस
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खावुं, पीवुं, रळवुं, कमावुं अने विषयोना भोग भोगववा इत्यादि पापकार्योमां ज तद्रूप थई पडयो छे अने कदाचित् निवृत्ति लईने दया, दान, भक्ति, व्रत, पूजा इत्यादि करे तोय ए बधो एकत्वपणा सहित राग ज छे. ज्ञानीने आवो राग (एकत्वबुद्धिनो राग) होतो नथी केमके आवो तफावत सम्यग्द्रष्टि जाणे छे.
अज्ञानी हजारो राणीओ छोडीने नग्न दिगंबर मुद्रा धारे, जंगलमां रहे, कोई चामडी उतारीने खार छांटे तोय क्रोध न करे-एवां व्रत पाळे तोपण तेनी द्रष्टि द्रव्यस्वभाव उपर नथी. तेने द्रव्यस्वभावनी खबर ज नथी. ए तो जे रागनी क्रिया छे ते हुं छुं अने ए वडे मारुं भलुं छे एम मिथ्या माने छे. अज्ञानीने भले गमे तेवो राग मंद होय तोपण ते मिथ्यात्व सहित ज छे अने तेने ज राग गण्यो छे. ज्ञानी आ भेदने यथार्थ जाणे छे. ज्ञानी तो जाणे छे के वीतराग परमेश्वर भगवान जिनेन्द्रदेवनो वीतरागी मार्ग एक मात्र वीतरागस्वभावना आश्रये ज प्रगट थाय छे, रागथी नहि.
मिथ्याद्रष्टि अने सम्यग्द्रष्टिना रागनो भेद एक ज्ञानी ज जाणे छे, अज्ञानी नहि. हवे कहे छे-‘मिथ्याद्रष्टिनो अध्यात्मशास्त्रमां प्रथम तो प्रवेश नथी अने जो प्रवेश करे तो विपरीत समजे छे-व्यवहारने सर्वथा छोडी भ्रष्ट थाय छे अथवा तो निश्चयने सारी रीते जाण्या विना व्यवहारथी ज मोक्ष माने छे, परमार्थ तत्त्वमां मूढ रहे छे.’
शुं कह्युं आ? के त्रणलोकना नाथ जिनेन्द्रदेवे परमानंदस्वरूप भगवान आत्माना स्वरूपना कथनवाळां अध्यात्मशास्त्र कह्यां छे. ते अध्यात्मशास्त्रमां रागनी रुचिवाळा जीवनो प्रवेश ज नथी. अहा! जे रागना फंदमां फसाया छे ते अज्ञानी जीवो भगवाननां कहेलां शुद्धात्मानी कथनीवाळां अध्यात्मशास्त्रोमां प्रवेश ज करी शकता नथी. वळी कदाचित् प्रवेश करे तो विपरीत समजे छे. ते व्यवहारने सर्वथा छोडी भ्रष्ट थई जाय छे. मतलब के ते शुभरागनी क्रियाओ उथापीने अशुभ रागमां चाल्यो जाय छे. अथवा तो ते निश्चयने सारी रीते एटले यथार्थ जाण्या विना अर्थात् पूर्णानंदस्वरूप ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मानो आश्रय कर्या विना मात्र व्यवहारथी-शुभरागथी ज मोक्ष माने छे. ‘निश्चयने सारी रीते जाण्या विना’-एम शब्द छे ने? मतलब के निश्चयस्वरूप भगवान आत्माना आश्रयने प्राप्त थया विना अज्ञानी व्रत, तप, दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादिना शुभरागथी मोक्ष थवो माने छे. पण भाई! एवो शुभराग तो तुं अनंत वार करीने नवमी ग्रैवेयक गयो छे. एथी शुं? छहढालामां आवे छे ने के-
अहीं एम कहे छे के निश्चय नाम सत्य सिद्धस्वरूप ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’-एवी जे पोतानी चीज छे तेने जाण्या विना अज्ञानी एकला रागमां ऊभो
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रहीने पोताने आत्मज्ञान थयुं छे एम माने छे. दया, दान, व्रत आदिना रागथी ज अज्ञानी धर्म थवो माने छे पण ते एनी विपरीतता छे. बहु आकरी वात छे भाई! जेनाथी पुण्यबंध थाय एनाथी मुक्ति वा मोक्ष केम थाय? न ज थाय. तथापि अज्ञानी शुभभावथी मोक्ष थवो माने छे माटे ते परमार्थ तत्त्वमां मूढ रहे छे. परम पदार्थ जे भगवान आत्मा ते परमार्थ तत्त्व छे. आ कोईनी सेवा करवी के दया पाळवी ते परमार्थ छे एम नहि. ए तो बधो राग छे, अपरमार्थ छे. भगवान सर्वज्ञदेवे अंदर जे सच्चिदानंदस्वरूप त्रिकाळी भगवान आत्मा जोयो छे ते परमार्थ छे. भगवान सर्वज्ञदेवनी स्तुतिमां आवे छे ने के-
जुओ, सीमंधर भगवान अत्यारे महाविदेहमां बिराजे छे; साक्षात् भगवान त्रणलोकना नाथ अरिहंतपदे बिराजे छे. महावीर आदि भगवंतो तो ‘णमो सिद्धाणं’ सिद्धपदमां छे. तेओ शरीररहित थई गया छे. ज्यारे सीमंधर भगवान तो समोसरणमां बिराजे छे; तेमने शरीर छे, वाणी छे, प०० धनुष्यनो देह छे, क्रोडपूर्वनुं आयुष्य छे. महाविदेहक्षेत्रमां अत्यारे लाखो-क्रोडो देवताओ तेमनी सभामां धर्म सांभळे छे. आवा भगवाननी स्तुति करतां स्तुतिकार कहे छे-‘प्रभु जाणग रीति... लाल’ मतलब के-हे नाथ! आप सौने देखो छो तो आपनी जाणवानी रीति शुं छे? आप अमारा आत्माने केवो देखो छो? तो कहे छे-‘निज सत्ताए शुद्ध’-पोताना होवापणे शुद्ध पवित्र एक ज्ञानानंदस्वरूपे ज जुओ छो. भगवान! आप आखाय जगतने होवापणे शुद्ध देखो छो. आ जे ‘निज सत्ताए शुद्ध’ वस्तुने भगवान जुए छे ते परमार्थ तत्त्व छे, आत्मतत्त्व छे. पुण्य-पापना रागादि विकारना परिणाम कांई आत्मतत्त्व नथी. भगवान तेने आत्मतत्त्वरूपे जोता नथी, भगवान तो एने आत्मतत्त्वथी भिन्न ज जुए छे. समजाणुं कांई...?
नव तत्त्वमां दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना परिणाम पुण्य छे अने हिंसा, जूठ आदिना परिणाम पाप छे. आ बन्नेथी भिन्न भगवान आत्मा ज्ञायकतत्त्व छे अने ते परमार्थ छे. जेम भगवाने प्रत्येक आत्माने ‘निजसत्ताए शुद्ध’ जोयो छे तेम जेनी द्रष्टिमां शुद्ध ज्ञायक जणायो ते सम्यग्द्रष्टि छे. अरे! हजु सम्यग्दर्शननां ठेकाणां न मळे अने लोको मुनिपणुं लई ले अने व्रतादि पाळे पण ए तो बधां थोथेथोथां छे. सम्यग्दर्शन धर्मनी मूळ चीज छे. अरे भाई! सम्यग्दर्शन विना तें अनंतकाळमां अनंत वार मुनिव्रत पाळ्यां, पण एथी शुं? एमां कयां धर्म छे ते सुख थाय?
अहीं कहे छे-शुभराग वडे मोक्ष थाय एवी विपरीत मान्यता वडे अज्ञानी परमार्थतत्त्वमां मूढ रहे छे. परंतु जो कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायथी
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सत्यार्थ समजी जाय तो तेने अवश्य सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय ज छे-ते अवश्य सम्यग्द्रष्टि बनी जाय छे.’
जोयुं? शुं कह्युं आ? स्याद्वादन्यायथी सत्यार्थ समजवावाळा जीव कोईक विरल ज होय छे. माटे बीजा केम समजता नथी एवी अधीराई छोडीने स्वरूपमां ज सावधान रहेवुं, बीजानी चिंता न करवी. ‘स्याद्वाद-न्यायथी सत्यार्थ समजी जाय’ -एम कह्युं मतलब के वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप छे त्यां द्रव्य पण छे, पर्याय पण छे परंतु द्रव्य पर्यायमां नथी, पर्याय द्रव्यमां नथी एम यथार्थ समजवुं जोईए. शुद्ध आत्मद्रव्यमां राग नथी अने रागमां शुद्ध आत्मा नथी-आवी वात छे.
भाई! भगवाने नव तत्त्व कह्यां छे ने? ए नव तत्त्व कयारे सिद्ध थाय? एकमां बीजाने भेळव्या विना प्रत्येकने भिन्न भिन्न माने त्यारे सिद्ध थाय. शरीरादि अजीवमां जीव नहि अने जीवमां शरीरादि अजीव नहि एम यथार्थ समजवुं जोईए. वळी जेम अजीवथी जीव भिन्न छे तेम दया, दान आदि पुण्यतत्त्वथी अने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना अने क्रोधादि पापतत्त्वथी शुद्ध ज्ञायकतत्त्व भगवान आत्मा भिन्न छे. अहो! भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवी अलौकिक वात आवी छे. आवी वात सर्वज्ञदेवनी वाणी सिवाय बीजे कयांय होई शके नहि.
अहा! कहे छे-जो कोई विरल जीव स्याद्वादन्यायथी सत्यार्थ समजी जाय तो ते अवश्य सम्यग्द्रष्टि थई जाय छे. स्याद्वादन्यायथी एटले शुं? के राग छे पण ते शुद्ध द्रव्यमां नथी, पर्याय पर्यायपणे छे पण ते त्रिकाळी द्रव्यमां नथी. एक समयनी पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्य भगवान आत्मा आवी जतो नथी. कोईने वळी थाय के आवी व्याख्या? एना करतां तो व्रत करो, दया पाळो, ब्रह्मचर्य पाळो, तप करो, भक्ति करो इत्यादि कहो तो सहेलुं समजाय तो खरुं! अरे भाई! ए तो बधी रागनी क्रियाओ छे. एमां कयां भगवान आत्मा छे? एमां कयां धर्म छे? धर्म तो वीतरागता छे अने ते शुद्ध आत्मद्रव्यना-स्वना आश्रये ज प्रगट थाय छे.
जो कोई स्याद्वादन्यायथी सत्यार्थ समजी जाय तो तेने सम्यक्त्व थाय ज छे. जुओ, ‘थाय ज छे’-एम कह्युं छे. अहाहा...! राग हो पण रागमां आत्मा नहि अने आत्मामां राग नहि आवुं अनेकान्तस्वरूप जाणीने जे अंतरसन्मुख थाय छे तेने समकित अवश्य थाय ज छे. भगवान पूर्णानंदना नाथमां कयां राग छे? अने रागमां ते पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा कयां रह्यो छे? आवुं सत्यार्थ जाणी जे स्वरूपमां-शुद्ध त्रिकाळी द्रव्यमां एकाग्र थाय छे तेने सम्यक्त्व थाय ज छे अर्थात् ते अवश्य सम्यग्द्रष्टि बनी जाय छे. आ समकित ते धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे, चारित्र तो ते पछीनी वात छे. भाई! मोक्षमार्गनो आवो ज क्रम छे, सर्वज्ञ भगवाने एवो ज क्रम जाण्यो अने कह्यो छे.
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प्रश्नः– सर्वज्ञ छे ए तो मात्र जाणे छे. तेने वळी क्रमबद्ध के अक्रम (क्रमरहित) साथे शुं संबंध छे? तेओ तो क्रमे थाय तेने तेम जाणे अने अक्रमे थाय तेने अक्रमे जाणे.
समाधानः– भाई! तारी समजमां आखी भूल छे. खरेखर तो एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने युगपत् जाणे एवा सर्वज्ञनो ज्यां निर्णय करवा जाय त्यां बधुं ज व्यवस्थित क्रमबद्ध छे एम सिद्ध थई जाय छे. छये द्रव्यमां एक पछी एक एम धारावाही पर्याय थाय छे जेने आयतसमुदाय कहे छे. त्यां प्रतिसमय, द्रव्यमां जे पर्याय थवानी होय छे ते ज अंदरथी आवे छे-थाय छे. आवो जे यथार्थ निर्णय करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा ३२१ थी ३२३) मां आवे छे के भगवान सर्वज्ञदेवे जे काळे जे द्रव्यमां ज्यां जेम परिणमन थवानुं जाण्युं छे ते काळे ते द्रव्यमां त्यां तेम ज परिणमन थाय छे. आवुं जे यथार्थ श्रद्धान करे छे ते समकिती छे अने एमां जे शंका करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! आ तो परम शांतिनो-आनंदनो मार्ग छे बापु! पण ते परम शांति कयारे थाय? के बधुं ज क्रमबद्ध छे एम यथार्थ निर्णय करी स्वभाव-सन्मुख थाय त्यारे. सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मानो निश्चय थया विना सर्वज्ञ पर्यायनो निर्णय थई शके नहि. अर्थात् ज्यां सर्वज्ञनो यथार्थ निर्णय करवा जाय त्यां ज्ञानस्वभावी निज आत्मद्रव्यनो निर्णय थई जाय छे. आवो मार्ग छे.
अहा! जे काळे जे पर्याय क्रमबद्ध थवानी छे ते थाय छे, ज्ञान तो तेने जाणे ज छे. भाई! आ ज सर्वज्ञना निर्णयनुं तात्पर्य छे. परंतु एम न मानता अमे आम करीए तो आम थाय ने कर्मनो उदय आवे तेनी उदीरणा करीए इत्यादि प्रकारे जे माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. अरे भाई! उदीरणा आदि बधी ज वात क्रमबद्ध ज थाय छे. कशुंय आघु- पाछुं थाय, क्रमरहित थाय एवुं वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. हुं आम करी दउं अने तेम करी दउं ए तो तारी खोटी भ्रमणा ज छे. समजाणुं कांई...?
अहा! जेने सर्वज्ञनो निर्णय थाय छे तेने भेगो क्रमबद्धनो निर्णय थई ज जाय छे अने तेने आवो निर्णय स्वभावसन्मुख पुरुषार्थ वडे ज थतो होय छे. आवो निर्णय थतां व्यवहार पहेलो अने निश्चय पछी एम रहेतुं ज नथी. वळी निमित्तथी उपादानमां कांई थाय छे ए वात पण रहेती नथी. अरे भाई! आ अवसरे जो तुं आ नहि समजे तो कयारे समजीश? (आवो अवसर वीती गया पछी अनंतकाळे ते मळवो दुर्लभ छे).
भगवान! तुं सर्वज्ञस्वभावी वस्तु पोते ज छो. भाई! तुं अंतर्द्रष्टि करी पोताना सर्वज्ञस्वभावमां एकाग्र था. एम करतां तने पोताना ज्ञस्वभावनो-सर्वज्ञस्वभावनो-
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अकर्तास्वभावनो निर्णय थशे अने त्यारे-अहो! हुं तो ज्ञाताद्रष्टा छुं, कोई पण रागनी क्रियानो (अने जडनी क्रियानो) हुं कर्ता नथी एम यथार्थ प्रतिभासशे. शुं कह्युं? समकितीने व्यवहार-राग होय छे खरो पण तेनो हुं कर्ता नथी एवी तेनी द्रष्टि थई जाय छे. अहो! कोई अचिंत्य महिमा छे ए सम्यक् द्रष्टिनो!
प्रश्नः– त्यारे कोई वळी कहे छे भगवाने (सर्वज्ञदेवे) दीठुं हशे ते दि’ थाशे; आपणे शुं पुरुषार्थ करी शकीए? भगवाने दीठुं हशे ए ज थशे, एमां आपणो पुरुषार्थ शुं काम लागे?
समाधानः– भाई! तारी आ वात तत्त्वद्रष्टिथी विपरीत छे. हा, भगवान सर्वज्ञे जेम दीठुं एम ज थशे-ए तो एम ज छे. पण सर्वज्ञे दीठुं-ए वात सर्वज्ञनी सत्तानो स्वीकार कर्या पछी आवे ने! अरे भाई! सर्वज्ञ छे अने सर्वज्ञे जेम दीठुं तेम थाय छे एम एम निर्णय कर्यो छे अर्थात् जेना श्रुतज्ञानमां सर्वज्ञनो निर्णय थयो छे ए तो एकलो ज्ञाता-द्रष्टा थई जाय छे. तेने वळी समकितनी अने भवनी शंका केवी? तेने भव होई शके ज नहि. एकाद बे भव होय तेनी अहीं गणतरी नथी-तुं पुरुषार्थहीनतानी वातो करे छे पण सर्वज्ञनी सत्तानो पोतानी पर्यायमां स्वीकार करवो, निश्चय करवो ए ज अचिंत्य अपूर्व पुरुषार्थ छे अने ते अंतर्मुख थतां प्रगट थाय छे. समजाणुं कांई...?
सर्वज्ञनो अने क्रमबद्धनो निर्णय करवामां तो पांचे समवाय एकसाथे होय छे. जे समये समकितनी पर्याय थई ते थवानी हती ते स्वकाळे थई ते नियत छे. जे समकितनी पर्याय प्रगट थई ते स्वभावसन्मुखताना पुरुषार्थ वडे ज थई छे ते पुरुषार्थ छे.
वळी समकितनी पर्याय निजस्वभावमां एकाग्रता वडे थई एमां स्वभाव पण आवी जाय छे.
समकितनी पर्याय क्रमबद्ध पोताना काळे जे थवानी हती ते ज थई ए भवितव्यता छे.
समकितनी पर्यायना काळे स्वयं कर्मना उपशमादि थयां ते निमित्त पण आवी गयुं. आम पांचे समवाय एकसाथे रहेलां छे. एम नथी के स्वभावना पुरुषार्थ विना कोईने समकित थई जाय छे वा भगवाने समकित थतुं जोयुं छे. भाई! तुं जे कहे छे ए तो एकांत नियतिवाद छे अने ए तो मिथ्यादर्शन छे. अहीं तो क्रमबद्धना निर्णयमां पांचे समवाय एकसाथे होय छे एम वात छे. समजाणुं कांई...?
अहा! भगवान! तुं कोण छो? सिद्ध समान-सर्वज्ञ जेवो आत्मा छुं. सर्वज्ञ केवा के? सिद्ध केवा छे? तेओ तो जे थाय तेने मात्र जाणे ज छे अने तेओ जेम
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जाणे छे तेम जगतनी अवस्था प्रतिसमय क्रमबद्ध थया करे छे. अहो! अद्भुत वस्तुनुं स्वरूप अने अद्भुत सर्वज्ञदेव!! वस्तु क्रमबद्ध परिणमे अने भगवान तेने मात्र जाणे. गजब वात छे भाई! अहो! आवो यथार्थ निर्णय ज्यां करवा जाय छे त्यां हुं पोते ज्ञायक ज छुं, सर्वज्ञस्वभावी जाणनार-देखनार मात्र छुं, जे थाय तेने मात्र जाणुं-एवो निर्णय थई जाय छे. अहाहा...! आवो निर्णय थतां ‘पर्यायने पण करुं एवुंय मारामां नथी’-एवी निश्चय द्रष्टि थई जाय छे. (शुद्ध) पर्याय स्वभावना पुरुषार्थपूर्वक थाय छे ए अपेक्षाए करवापणुं छे, परंतु पर्यायने आम करुं के तेम करुं वा तेमां आम फेरफार करी दउं एम त्यां रहेतुं नथी. भाई! आवो सूक्ष्म भगवाननो मार्ग छे. बापु! जन्म- मरणरहित थवानी द्रष्टि कोई अलौकिक छे! अरे! अज्ञानीने एनी खबरे नथी!