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पोतानो अपराध छे. विकारनी पर्याय ज विकारने करे छे, ते नथी कर्मथी थयो के नथी द्रव्य-गुणथी थयो. माटे विकार थाय छे एमां कर्मनुं तो कांई कार्य नथी.
पण ए तो अभिन्ननी (अभिन्न कारकोनी) वात छे? हा, पण अभिन्न एटले शुं? पोताथी विकार थयो छे एनुं ज नाम अभिन्न छे; ते कांई भिन्न वस्तुथी (कर्मथी) थयो छे एम छे नहि. ज्यारे अहीं अपेक्षा बीजी छे. अहीं तो पर्यायमां जे विकार थाय छे ते चिदानंदघनस्वरूप भगवान आत्मानो स्वभाव नथी. त्रिकाळी चीज जे सच्चिदानंदमय अनाकुळ आनंदस्वरूप, अकषायस्वरूप प्रभु आत्मा छे तेमां राग नथी. तेनी द्रष्टिमां राग पृथक् रही जाय छे तेथी तेने पुद्गलनुं कार्य गणी तेना उपरनी द्रष्टि छोडावी छे अने स्वभावनी द्रष्टि करावी छे.
अहाहा...! भाषा तो जुओ! ‘तेना उदयना विपाकथी’... कोना विपाकथी? के पुद्गलकर्म जे जड छे तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे. ते (- राग) स्वभाव नथी ते बताववा आम कह्युं छे. एक समयनी विकृत अवस्था स्वभाव केम होय? जोके पर्यायबुद्धिवाळाने राग पोतानो स्वभाव भासे छे. परंतु अहीं तो पर्यायबुद्धिने उडावी दीधी छे ने? (केमके आ तो निर्जरावाळानी वात छे). तेथी पर्यायबुद्धि उडावीने कह्युं छे के-राग द्रव्यमां नथी. अहाहा...! ज्यां द्रष्टि थंभी छे त्यां- वस्तु अने वस्तुनी शक्ति-गुणोमां राग छे ज नहि. तेथी रागने पुद्गलनो कह्यो छे. भाई! आ कोईने न बेसे वा विपरीत बेसे तोपण तेनी साथे कोई विरोध न होय. अमने तो ‘सत्त्वेषु मैत्री’ छे. अहाहा...! बधा ज भगवान आत्मा छे. माटे कोईना प्रति विरोध करवानो न होय.
जे पुण्यभाव-शुभभाव छे ते पण राग छे. पापभाव तो राग छे ज, एमां नवुं शुं छे? पण जे पुण्यभाव छे ते पण राग छे. तेने ज्ञानी पुरुषो हेय जाणीने छोडी दे छे. जुओ, माणस जे विष्टा करे छे तेने भूंड रुचिपूर्वक खाय छे. अरे! जेनी सामुं पण माणस ताके नहि तेने भूंड खाय छे! तेम ज्ञानीओ जे रागने हेय जाणी छोडी दे छे तेने अज्ञानीओ पोताना मानी तेना कर्ता थाय छे. भारे विचित्र वात! आवो ज्ञानी अने अज्ञानीना अंतरमां आसमान जमीननो फेर छे. जुओने! अहीं कहे छे-कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे, (ते) मारो स्वभाव नथी-एम ज्ञानी जाणे छे. अहाहा...! चिदानंद, नित्यानंद प्रभु आत्मानो राग स्वभाव केवो? माटे आ अपेक्षाए ज्ञानी रागने कर्मनुं कार्य जाणे छे.
परंतु कोई स्वयं कर्ता थईने राग करे अने नाखी दे कर्मने माथे तो तेने कहे छे के-ऊभो रहे, विकार ताराथी तुं करो छो तो ऊभो थाय छे. ते तारो ज दोष छे;
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कर्म कांई विकारने करतुं नथी, कर्म तो तेने अडतुंय नथी. त्रीजी गाथामां न आव्युं? के दरेक द्रव्य पोताना गुण-पर्यायने चुंबे छे तोपण परद्रव्यने चुंबतुं नथी. आ शुं कह्युं? के कर्मनो उदय रागने के जीवने चुंबतो नथी, अने राग कर्मना उदयने चुंबतो नथी.
तो रागने परनो (कर्मनो) केम कह्यो? कारण के राग जीवनो स्वभाव नथी. आनंदनो नाथ प्रभु आत्मानो त्रिकाळ ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. तेनी अनंती निर्मळ शक्तिओमां रागने करे एवी कोई शक्ति - स्वभाव नथी. तेथी पर्यायमां जे राग थाय छे ते पर निमित्तना संगे थाय छे तो परनो छे एम जाणी ज्ञानी तेनाथी विमुख थाय छे. भाई! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं ने एमां आवी सत्य तत्त्वनी वात न समजाय तो अरेरे! हवे अवतार कयां थशे? बापु! भवसमुद्र अनंत छे. आ समज्या विना तुं एमां डूबीश, अने तो पछी अनंतकाळे पण अवसर नहि मळे, समजाणुं कांई...?
ज्ञानी कहे छे के हुं तो एक ज्ञायकस्वभावी छुं. मारा स्वभावमां राग नथी. अने रागने करे एवो कोई गुण-स्वभाव मारामां नथी. जो विकारने करे एवो कोई गुण मारामां होय तो सदाय विकार थया ज करे, कर्या ज करे, अने तो विकार कदीय टळे नहि; झीणी वात छे प्रभु! राग जो स्वभाव होय तो राग टळीने वीतराग कदापि न थाय. पण एम छे नहि. जुओने! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे? के पुण्य, पाप, दया, दान, भक्ति इत्यादिनो राग मारो स्वभाव नथी; हुं तो आ-प्रत्यक्ष अनुभवगोचर-टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं एम समकिती जाणे छे, माने छे, अने रागने कर्मकृत जाणी तेनाथी विमुख थई जाय छे, तेने तजी दे छे.
प्रश्नः– विकार कर्मजन्य छे अने वळी जीवनो पण छे-एम बेय वात कुंदकुंदाचार्ये कही छे एम आप कहो छो, तो बन्नेमांथी कई वात बराबर छे?
उत्तरः– भाई! (अपेक्षाथी) बन्ने वात बराबर छे. श्रीमदे कह्युं छे के-
भाई! आ वात पहेलां हती ज नहि अने तुं अपेक्षा समजतो नथी तेथी समजवी कठण लागे छे. आ वात चालती न हती तेथी ते बहार आवतां लोकोने आश्चर्य थवा लाग्युं छे.
भाई! पर्यायमां जे विकार छे ते कर्मथी थयो छे एम बीलकुल नथी. पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी जीव विकार करे छे अने सवळा पुरुषार्थ वडे तेने टाळे छे. जीव जे विकार करे छे ते पोताथी स्वतंत्र करे छे. तेने कोई कर्म के परने कारणे विकार थाय छे एम छे ज नहि.
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आपे आवुं नवुं कयांथी काढयुं? अमे तो कर्मथी ज विकार थाय छे एम सांभळ्युं छे. तो कर्मथी विकार न थाय एवुं नवुं आपे कयांथी काढयुं?
भाई! विकार पोतानो स्वभाव नथी, छतां तेने पर्यायमां जीव स्वतंत्रपणे करे छे, तेमां एकेय दोकडो परनो नथी. (जुओ पंचास्तिकाय गाथा ६२).
विकार थवामां प० दोकडा उपादानना ने प० दोकडा निमित्तना राखो तो केम? भाई! एम नथी. विकार थवामां एकेय दोकडो निमित्तनो-परनो नथी. १००% पोताना पोतानामां छे, ने निमित्तना सो ये सो टका निमित्तमां छे. अरे भगवान! विकार तेना स्वकाळे पोताने कारणे पोतामां (पर्यायमां) थयो छे. जुओ, ते जीवनो स्वभाव नथी-एम कहीने जो कोई विकारने पर्यायमां परथी थयेलो मानतो होय ने स्वच्छंद प्रवर्ततो होय तो तेने विकार जीवनो छे एम संतो कहे छे; अने जो कोई जीवनो ज विकार छे एम विकारने स्वभाव मानी तेने छोडतो ज नथी तेने संतो कहे छे-भाई! विकार तारो स्वभाव नथी, ए तो परना निमित्ते थयेलो परनो छे, कर्मजन्य छे.
अहीं कहे छे-राग मारो स्वभाव नथी. भाषा तो जुओ! कहे छे-‘हुं तो आ- प्रत्यक्ष अनुभवगोचर-टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं.’ अहाहा...! आ स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष जणाय छे एवो हुं तो एक शाश्वत ध्रुव चैतन्यबिंब छुं एम ज्ञानी जाणे छे. बापु! समजवा जेवी तो आ वात छे. भाई! आ वस्तुस्थिति छे. अरे! आवां टाणां मळ्यां ने तने नवराश नहि! आ भव पछी तारे कयां जवुं छे, बापा? अनंत-अनंतकाळ हजु रहेवुं तो छे. अहीं (मनुष्यमां) केटलो काळ रहेवानो? पांच-पचास वर्ष; पण आत्मा तो अनंतकाळ रहेवानो छे. जो द्रष्टि विपरीत रही तो अनंतकाळ विपरीत द्रष्टिमां-चार गतिमां-रहेशे, अनंतकाळ अनंत दुःखमां रहेशे.
अहाहा...! रागादि मारा स्वभावो नथी, हुं तो एक चिन्मात्र ज्ञायकभावमात्र वस्तु छुं एम विशेषपणे सम्यग्द्रष्टि स्वने अने परने जाणे छे.
हवे कहे छे-‘आ प्रमाणे “राग” पद बदलीने तेनी जग्याए “द्वेष” लेवो.’ जेम ‘पोग्गलकम्मं रागो’ मूळ पाठमां छे तेम ‘पोग्गलकम्मं द्वेषो’–एम लेवुं. भाई! आ तो सत्यनां उद्घाटन छे. धर्मीनी द्रष्टि शुद्ध स्वभाव उपर छे तेथी ते एम कहे छे के द्वेष मारो स्वभाव नथी, ते कर्मनुं कार्य छे, अर्थात् पुद्गलकर्मनो द्वेष छे. बहु झीणी वात बापु! द्वेष छे तो निरपेक्ष, केमके कर्मना निमित्तपणानी अपेक्षा विना ते थाय छे; तोपण अहीं तेने सापेक्ष कहीने ते स्वभाव नथी एवी द्रष्टि करावी छे. अहाहा...! द्रष्टिवंत पुरुषो-धर्मी जीवो द्वेष कर्मनुं कार्य छे एम जाणीने तेनी निर्जरा करी नाखे छे.
जीवनो स्वभाव तो त्रिकाळ आनंद अने वीतरागता छे. तेथी तेनो जे पाक
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आवे ते आनंद अने वीतरागतानो आवे छे. जीवनुं त्रिकाळी क्षेत्र ज एवुं छे के तेमांथी आनंद अने वीतरागतानो पाक आवे. द्वेषनुं (वर्तमान) क्षेत्र एनाथी भिन्न छे. द्वेषना क्षेत्रनो जे अंश छे ते कर्मनुं कार्य छे एम जाणी ज्ञानी तेने काढी नाखे छे. बिचारा अज्ञानी सामायिक, प्रतिक्रमणादि क्रियाकांड करे अने माने के थई गयो धर्म, पण राग शुं? द्वेष शुं? स्वभाव शुं? निमित्त शुं? इत्यादि तत्त्व समजे नहि तेने धर्म कयांथी थाय?
प्रश्नः– निमित्तथी थाय छे एम शास्त्रमां कथन आवे छे. छतांय निमित्तथी न थाय एम आप केम कहो छो?
समाधानः– भाई! निमित्तथी थाय छे एम कथन तो आवे छे पण एनो अर्थ शुं? निमित्तथी थयुं छे एटले के निमित्तना लक्षे थयुं छे बस एटलुं ज. बाकी कांई एक द्रव्यथी अन्य द्रव्यमां कार्य थाय छे? (ना.) परद्रव्य तो स्वद्रव्यने अडतुंय नथी तो पछी एनाथी शुं थाय? (कांई ज नहि). अहीं तो एम कहेवुं छे के-आत्मस्वभावने (स्वभावना क्षेत्रने) द्वेष अडतोय नथी माटे द्वेष कर्मनुं कार्य छे एम जाणीने स्वभावनी द्रष्टि वडे ज्ञानी तेनी निर्जरा करी दे छे. वीतरागनो मार्ग बहु झीणो बापा!
हवे ‘राग’ पद बदलीने ‘मोह’ लेवुं एम कहे छे. अहीं समकितीनी वात छे. समकितीने मिथ्यात्वादि नथी पण तेने परमां सावधानीनो किंचित् मोहनो भाव आवे छे. परंतु ते, मोह कर्मनुं कार्य छे, मारो स्वभाव नथी, हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र छुं एम जाणतो थको मोहथी हठे छे.
तेवी रीते ‘क्रोध’ ‘पोग्गलकम्मं कोहो’–एम लेवुं. मतलब के क्रोध पुद्गलकर्मनुं कार्य छे केमके ते आत्मानो स्वभाव नथी. आत्मा तो सदाय वीतरागमूर्ति आनंदकंद प्रभु छे; तेमांथी क्रोध-विकार केम आवे? जुओ, क्रोध थाय छे तो पोताथी पोतानी पर्यायमां, परंतु जेनी पर्यायबुद्धि नष्ट थईने त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि प्रगट थई छे ते समकिती धर्मी जीव एम जाणे छे के क्रोध पुद्गलकर्मना उदयनो विपाक छे. धर्मात्मा जरा क्रोध थाय तेनो स्वामी नथी. तो क्रोधनो स्वामी कोण छे? तो कहे छे पुद्गल क्रोधनो स्वामी छे. ७३ मी गाथामां आवी गयुं छे के विकारनो स्वामी पुद्गल छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वभावना स्वामीपणे ज्यां प्रवर्त्यो त्यां एम भास्युं के क्रोधादि विकारनो स्वामी पुद्गल छे. आम जाणीने कोई विकार थवानो भय न राखे अने स्वच्छंदे प्रवर्ते तेने कहे छे के विकार ताराथी तारामां थतो अपराध छे. आ वात राखीने कह्युं के क्रोध पुद्गलनुं कार्य छे. समजाणुं कांई...?
पण आ बेमांथी कई वात साची मानवी?
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भाई! बन्ने वात साची छे. पर्यायद्रष्टिवाळाने क्रोधादि विकार पर्यायद्रष्टिए पोताथी थाय छे ते साचुं छे अने द्रव्यद्रष्टिवंतने पोताथी शुद्ध द्रव्यथी थतो नथी तेथी परथी थाय छे ए वात पण साची छे. जोर अहीं आ त्रीजा पद पर छे के-‘ण दु एस मज्झ भावो’-ते मारो स्वभाव नथी; ‘जाणगभावो हु अहमेक्को’ हुं तो एक ज्ञायकभाव छुं. शुद्ध ज्ञायकमां विकार नथी माटे विकार कर्मनो छे. अहाहा...! शुं सरस वात करी छे!
हवे ‘मान’ ‘पोग्गलकम्मं मानो’ एम लेवुं एम कहे छे. मतलब के जरीक मान आवे तो ज्ञानी कहे छे तेनो हुं जाणनार छुं, पण ते मारो स्वभाव नथी माटे ए पुद्गलनुं कार्य छे. भाई! आ तो तत्त्वनी गंभीर वात! मान पुद्गलकर्मरूप छे एम ज्ञानी जाणे छे.
हवे ‘माया’-‘पोग्गलकम्मं माया’ एम लेवुं. मतलब के सहेज माया आवे तो ज्ञानी कहे छे तेनो हुं जाणनार छुं, पण ते मारो स्वभाव नथी माटे ते पुद्गलनुं कार्य छे. आ निर्जरा अधिकार छे ने? एटले सुखधाम-आनंदधाम सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मानी द्रष्टिना जोरमां धर्मात्मा पोताने किंचित् माया थाय तेने पुद्गलनुं कार्य जाणीने काढी नाखे छे. गजब वात छे भाई!
एवी रीते ‘पोग्गलकम्मं लोभो’ एम ‘लोभ’ लेवुं. अहाहा...! वस्तु आत्मा अनंतगुणमय छे अने एक एक गुणनी शक्ति अनंती छे. परंतु एमां शुं कोई गुण एवो छे के लोभने करे? ना, कोई ज नथी. आत्मामां एक वैभाविक शक्ति छे, पण ए तो जीवनो त्रिकाळी निर्मळ स्वभाव छे. एम नथी के वैभाविक शक्तिना कारणे जीव विकार करे छे. ए तो चार द्रव्यमां एवी शक्ति नथी अने जीव अने पुद्गलमां ज छे माटे तेने वैभाविक एटले विशेष शक्ति कही छे. परंतु तेथी विकाररूपे थवुं ते वैभाविक शक्ति एम नथी. सिद्धमां पण वैभाविक शक्ति छे. वैभाविक शक्ति तो जीवनो अनादि- अनंत गुण छे. अन्य द्रव्योमां ते नथी तेथी तेने वैभाविक एटले विशेष गुण कह्यो छे, पण विकारपणे परिणमे ते वैभाविक गुण एम छे ज नहि. विकार तो परने आधीन थई परिणमतां थाय छे, निर्मळ गुणने आधीन नहि.
अहीं कहे छे के ज्ञानीने तेनी दशामां किंचित् लोभ थई आवे छे तेने ते कर्मनुं कार्य छे एम जाणी तेनो स्वामी थतो नथी तेथी ते लोभ निर्जरी जाय छे. झीणी वात छे प्रभु! कहे छे-जीव उपयोगस्वभावी छे अने कर्मो आठेय पुद्गलमय छे; ते कर्मोना लक्षे- निमित्ते जे भाव थाय छे ते पण पुद्गलमय छे केमके ते चैतन्यमय नथी. अरे! आवुं दुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्युं ने साचुं तत्त्व न जाण्युं तो मरीने कयां जईश भाई! तारे रहेवुं तो अनंत-अनंत काळ छे. तो कयां रहीश प्रभु! तुं? जो आत्मतत्त्वनी ओळख न करी तो ढोर ने नरक-निगोदादिमां ज रहेवानुं थशे. शुं थाय? तत्त्वना अश्रद्धाननुं -अज्ञाननुं फळ ज एवुं छे.
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हवे ‘कर्म’-जडकर्म पुद्गलरूप छे, ते जीवनुं स्वरूप नथी. पण आठ कर्म तो जीवना छे ने? ते जीवने सुख-दुःख आपे छे ने? भाई! कर्म तारां नथी, बापु! कर्म तो जड कर्मनां पुद्गलनां छे. ए तो तने अडतांय नथी तो पछी तने सुख-दुःख केवी रीते आपे?
तेवी रीते ‘नोकर्म’-शरीरादि. आ शरीर ते कर्मनुं कार्य छे, जीवनुं नहि. पण आ जिनबिंबना दर्शनथी जीवने लाभ थाय छे तो जिनबिंब तो जीवनुं खरुं के नहि?
भाई! जिनबिंबना दर्शनथी शुभभाव के समकित थाय छे एम छे ज नहि. ए तो जीव स्वयं शुभभाव करे वा समकित प्रगट करे तो जिनबिंबने निमित्त कहेवाय परंतु शुभभाव आदि तो पोताने पोताथी ज थाय छे, जिनबिंबथी नहि. बोलाय एम के जिनबिंबना दर्शनथी आ थयुं; पण जो जिनबिंबथी शुभभाव थाय तो तो ईयळ खाईने जिनबिंब पर बेसनारी चकलीने पण शुभभाव थई जवो जोईए. पण एम छे ज नहि. धर्मी ज्ञानी जीव तो समस्त नोकर्मने पोताथी अन्यस्वभाव अर्थात् पुद्गलस्वभाव ज जाणे छे. बापु! सत्यने सत्य नहि समजे अने असत्यने सत्यमां खतवी दईश तो संसारना आरा कोई दि’ नहि आवे.
नोकर्म पछी हवे ‘मन’. अहींयां (छातीमां) मन छे ने! अनंत परमाणुओनो पिंड ते मन छे अने ते कर्ममय छे अर्थात् कर्मनुं कार्य छे, जीवस्वभाव नथी एम ज्ञानी जाणे छे. मननो तो हुं जाणनार-देखनार छुं, पण हुं मन नथी के मन मारुं स्वरूप नथी.
पण मन वडे जीव जाणे छे ने? एम नथी भाई! जाणवुं ए तो जीवनो स्वभाव ज छे. अंदर जे ज्ञानना परिणमनरूप पर्याय थाय छे ते वडे जीव जाणे छे, मन वडे नहि.
हवे ‘वचन’. आ वचन-भाषा जे नीकळे छे ते जीवस्वभाव नथी पण पुद्गलनुं -कर्मनुं कार्य छे. आ वाणी बोलाय छे ते पुद्गलनुं कार्य छे. जीव बोले छे एम नहि.
तो पछी भींत केम बोलती नथी? भाई! भींत बोलती नथी, जीभ पण बोलती नथी, होठ पण नहि अने जीव पण बोलतो नथी. बोलाती भाषा-वचन ए तो भाषावर्गणानुं परिणमन छे. भाषावर्गणा परिणमीने वचनरूप थाय छे पण होठ, जीभ, गळुं के जीव वचनरूप परिणमे छे एम
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नथी. गंभीर सूक्ष्म वात भाई! वळी वचनना काळे जीवने वचनसंबंधी जे विकल्प ऊठे छे ते तेनी पर्याय छे पण ज्ञानी तो ते विकल्पने पण कर्मनुं कार्य जाणे छे, अने तेने काढी नाखे छे. सूक्ष्म वात.
हवे ‘काया’. आ काया नोकर्म छे. नोकर्ममां घणां आवे छे हों. जेटलुं नोकर्म छे ए बधुंय पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं-मारुं नहि एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.
तेवी रीते ‘श्रोत्र’ एटले आ कान. जे आ कान छे ते पुद्गलकर्मनुं कार्य छे, ए मारुं-जीवनुं कार्य नथी. आ तो बापु! स्वाध्याय करवो जोईए. आखो दिवस पापना चोपडा फेरवे एने बदले रोज बे-चार कलाक तत्त्वाभ्यास अने तत्त्वनुं चिंतन करवुं जोईए. मध्यस्थ थईने ‘रागादि पुद्गल भिन्न अने आत्मा भिन्न’ एवो तत्त्वविचार अने तत्त्वनिर्णय करे तो अंदरथी शांति प्रगटे.
अहीं ज्ञानी कहे छे-श्रोत्रेन्द्रिय भिन्न छे, कर्ममय छे. हुं तो अतीन्द्रिय भगवान ज्ञायक छुं, मारामां इन्द्रिय केवी? श्रोत्रेन्द्रिय तो जड पुद्गलमय कर्मनुं कार्य छे.
हा, पण जीव श्रोत्रेन्द्रिय वडे सांभळे अने जाणे छे ने? ते भिन्न केम होय? बापु! एम नथी भाई! श्रोत्रेन्द्रियथी जीव सांभळे छे अने एनाथी ज्ञान थाय छे एम नथी. अंदर ज्ञाननुं परिणमन थाय छे ते वडे ज्ञान थाय छे अने स्वना लक्षे- आश्रये परिणमतुं-परिणमेलुं ज्ञान ज सम्यग्ज्ञान होय छे. श्रोत्र तो स्वयं जड छे, एनाथी ज्ञान केम थाय? ज्ञान जीवनो स्वभाव छे, श्रोत्रनो नहि. माटे श्रोत्र भिन्न ज छे. माटे श्रोत्र वडे सांभळवुं ए आत्मानुं कार्य ज नथी.
हवे ‘चक्षु’. चक्षु एटले आंख जड पुद्गलकर्मनुं कार्य छे अने हुं तो जाणवा- देखवाना स्वभाववाळो ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु ज्ञायकस्वभावी छुं. मारामां आंख केवी? आंख तो भिन्न पुद्गलमय-कर्ममय वस्तु छे.
पण भगवाननां दर्शन तो आंख वडे थाय छे ने? ना, आंख वडे दर्शन करवां ते आत्मानुं कार्य नथी. झीणी वात भाई! पण आवुं झीणुं कहेवाने बदले आप सामायिक, प्रतिक्रमण, भक्ति, पूजा अने मंदिर बंधाववां इत्यादि सहेली वात करो तो?
ए बधी रागनी अने जडनी क्रियाओमां कयां आत्मा छे? अने मंदिर कोण बनावे? शुं आत्मा बनावे? जडनुं कार्य शुं आत्मा करे? कदीय नहि, तथा ए मंदिर बनाववानो भाव छे ते राग छे, अने ते तरफनुं जे ज्ञान छे ते इन्द्रियज्ञान छे. अहीं कहे छे-ते राग अने इन्द्रियज्ञान पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं नहि. अहाहा...! धर्मी एम जाणे छे के-मंदिरनुं कार्य तो मारुं नहि पण एना लक्षे
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थयेलां जे शुभराग अने इन्द्रियज्ञान ते पण मारां कार्य नहि; केमके हुं तो शुद्ध ज्ञायकमात्र छुं. भाई! आवुं समजवा माटे पण पात्रता जोईए, केमके एने आखो संसार उथलावी नाखवो छे!
प्रश्नः– अहीं एम कहेवुं छे के उदयभाव आत्मानो नथी, कर्मपुद्गलनो छे; ज्यारे तत्त्वार्थसूत्रमां उदयभाव ‘जीवस्य स्वतत्त्वम्’–जीवनो छे एम कह्युं छे. तो आ केवी रीते छे?
उत्तरः– उदयभाव जीवनी पर्यायमां छे ते अपेक्षाए ते जीवनो छे, पण ते जीवस्वभावमां नथी ए अपेक्षाए ते कर्मनो छे एम कह्युं छे. बीजे एम पण आवे छे के उदयभाव पारिणामिकभावे छे. त्रिकाळी वस्तु परम पारिणामिकभावे छे ज्यारे जे विकार छे ते पारिणामिकभावे छे. त्यां स्वनी (पर्यायनी) अपेक्षा तेने पारिणामिकभाव कह्यो छे, परंतु परनी अपेक्षा लेतां तेने उदयभाव कहेवाय छे. ज्ञानी कहे छे-विकारने चाहे पारिणामिक भाव कहो, चाहे उदयभाव कहो-ते मारो स्वभाव नथी, ते मारी चीज नथी, ते पुद्गलनुं कार्य छे.
तो आ परम पारिणामिकभाव शुं छे? भाई! सहज अकृत्रिम सदाय एकरूप अनादि-अनंत पोतानी एक चैतन्यमय चीज छे ते परम पारिणामिकभाव छे. अने बदलता विकारना परिणामने निमित्तनी अपेक्षाए उदयभाव कहे छे अने स्वनी अपेक्षा पारिणामिकभावनी पर्याय कहे छे. ज्ञानी तेने, ते पोतानो स्वभाव नथी तेथी पुद्गलकर्मनो जाणी काढी नाखे छे. आ प्रमाणे जे ते अपेक्षा जाणवी जोईए.
हवे चक्षु पछी ‘घ्राण-’ घ्राण एटले नाक. आ नाक छे ते जड कर्मनुं कार्य छे. आत्मानुं नहि. नाक मारुं नथी केमके ए तो माटी जड धूळ छे माटे ते जडनुं कार्य छे.
पण सूंघवानुं ज्ञान तो नाकथी थाय छे? भाई! ज्ञान तो पोताथी थाय छे. मूढ अज्ञानी जीव माने छे के ज्ञान इन्द्रियो वडे थाय छे, पण एम छे नहि. ज्ञान तो अंदर ज्ञाननी पर्याय छे एनाथी थाय छे. नाकथी ज्ञान थाय छे एम छे ज नहि. भाई! धर्म चीज बहु सूक्ष्म छे. लोकोने तेनी वात काने पडी नथी, पछी तेनी प्राप्ति तो कयांथी थाय?
हवे ‘रसन’. रसन कहेतां जीभ. आ जीभ छे ते जड पुद्गल छे. धर्मी जीव तेने जड कर्मनुं कार्य जाणे छे केमके ते जीवस्वभाव नथी. अहाहा...! हुं शुद्ध ज्ञायकमात्र छुं एम अनुभवनार ज्ञानी जीभने भिन्न पुद्गलमय जाणे छे.
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तेवी रीते ‘स्पर्शन’. जे आ स्पर्श-इन्द्रिय छे ते जडनी पर्याय छे, आत्मानी नहि. ते मारो स्वभाव नथी एम धर्मी जीव जाणे छे. अज्ञानी पांचे इन्द्रियो मारी छे अने ते वडे हुं जाणुं छुं-एम माने छे. पण ए तो विपरीतता छे. ज्ञान-जाणवुं ए आत्मानो स्वभाव छे अने इन्द्रियो जड स्वभाव छे. माटे इन्द्रियो मारी छे अने ते वडे हुं जाणुं छुं ए मान्यता मिथ्या छे.
आ रीते जुदाजुदा शब्दो मूकीने सोळ सूत्रो व्याख्यान रूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां. अहाहा...! विकारना, रागना, द्वेषना, विकल्पना, हास्यना अने तेना निमित्तरूप वस्तुना जेटला असंख्य प्रकार पडे छे ते बधाय पर पुद्गलना कार्यरूप छे, मारो स्वभाव नथी. हुं तो शुद्ध ज्ञायकमात्र भगवान आत्मा छुं, चिदानंदमय परमात्मा छुं-एवी द्रष्टि थवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे अने एना विना बधां थोथेथोथां छे. आवी वात छे.
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उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो।। २००।।
उदयं कर्मविपाकं च मुञ्चति तत्त्वं विजानन्।।
आ रीते सम्यग्द्रष्टि पोताने जाणतो अने रागने छोडतो थको नियमथी ज्ञानवैराग्यसंपन्न होय छे-एम हवेनी गाथामां कहे छेः-
ने उदय कर्मविपाकरूप ते तत्त्वज्ञायक छोडतो. २००.
गाथार्थः– [एवं] आ रीते [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [आत्मानं] आत्माने (पोताने) [ज्ञायकस्वभावम्] ज्ञायकस्वभाव [जानाति] जाणे छे [च] अने [तत्त्वं] तत्त्वने अर्थात् यथार्थ स्वरूपने [विजानन्] जाणतो थको [कर्मविपाकं] कर्मना विपाकरूप [उदयं] उदयने [मुञ्चति] छोडे छे.
टीकाः–आ रीते सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे अने विशेषपणे परभावस्वरूप सर्व भावोथी विवेक (भेदज्ञान, भिन्नता) करीने, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवुं जे आत्मानुं तत्त्व तेने (सारी रीते) जाणे छे; अने ए रीते तत्त्वने जाणतो, स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्यागथी नीपजवायोग्य पोताना वस्तुत्वने विस्तारतो (-प्रसिद्ध करतो), कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने छोडे छे. तेथी ते (सम्यग्द्रष्टि) नियमथी ज्ञानवैराग्यसंपन्न होय छे (एम सिद्ध थयुं).
भावार्थः–ज्यारे पोताने तो ज्ञायकभावरूप सुखमय जाणे अने कर्मना उदयथी थयेला भावोने आकुळतारूप दुःखमय जाणे त्यारे ज्ञानरूप रहेवुं अने परभावोथी विरागता-ए बन्ने अवश्य होय ज छे. आ वात प्रगट अनुभवगोचर छे. ए (ज्ञानवैराग्य) ज सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे.
“जे जीव परद्रव्यमां आसक्त-रागी छे अने सम्यग्द्रष्टिपणानुं अभिमान करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे ज नहि, वृथा अभिमान करे छे” एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः-
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दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु।
आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्तवरिक्ताः।। १३७।।
श्लोकार्थः–“[अयम् अहं स्वयम् सम्यग्द्रष्टिः, मे जातु बन्धः न स्यात्] आ हुं पोते सम्यग्द्रष्टि छुं, मने कदी बंध थतो नथी (कारण के शास्त्रमां सम्यग्द्रष्टिने बंध कह्यो नथी) ” [इति] एम मानीने [उत्तान–उत्पुलक–वदनाः] जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित (रोमांचित) थयुं छे एवा [रागिणः] रागी जीवो (-परद्रव्य प्रत्ये रागद्वेषमोहभाववाळा जीवो-) [अपि] भले [आचरन्तु] महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा [समितिपरतां आलम्बन्तां] *समितिनी उत्कृष्टतानुं आलंबन करो [अद्य अपि] तोपण [ते पापाः] तेओ पापी (मिथ्याद्रष्टि) ज छे, [यतः] कारण के [आत्म–अनात्म– अवगम–विरहात्] आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी [सम्यक्तव–रिक्ताः सन्ति] तेओ सम्यक्त्वथी रहित छे.
भावार्थः–परद्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव ‘हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी’ एम माने छे तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत-समिति पाळे तोपण स्वपरनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे. पोताने बंध नथी थतो एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो? कारण के ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र न थाय त्यां सुधी चारित्रमोहना रागथी बंध तो थाय ज छे अने ज्यां सुधी राग रहे त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि पोतानी निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे. ज्ञान थवामात्रथी बंधथी छुटातुं नथी, ज्ञान थया पछी तेमां ज लीनतारूप-शुद्धोपयोगरूप-चारित्रथी बंध कपाय छे. माटे राग होवा छतां, ‘बंध थतो नथी’ एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्तनार जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.
अहीं कोई पूछे के “व्रत-समिति तो शुभ कार्य छे, तो पछी व्रत-समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम कह्यो?” तेनुं समाधानः–सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ-अशुभ सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां, व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित् पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी. _________________________________________________________________ * समिति = विहार, वचन, आहार वगेरेनी क्रियामां जतनाथी प्रवर्तवुं ते
वळी कोई पूछे छे के-“परद्रव्यमां राग रहे त्यां सुधी जीवने मिथ्याद्रष्टि कह्यो ते वातमां अमे समज्या नहि. अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदयथी रागादिभाव तो होय छे, तेमने सम्यक्त्व केम छे?” तेनुं समाधानः–अहीं मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधी राग प्रधानपणे कह्यो छे. जेने एवो राग होय छे अर्थात् जेने परद्रव्यमां तथा परद्रव्यथी थता भावोमां आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति थाय छे, तेने स्वपरनुं ज्ञानश्रद्धान नथी-भेदज्ञान नथी एम समजवुं. जीव मुनिपद लई व्रत-समिति पाळे तोपण ज्यां सुधी (व्रत-समिति पाळतां) पर जीवोनी रक्षा, शरीर संबंधी जतनाथी प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना शुभ भावोथी पोतानो मोक्ष माने छे अने पर जीवोनो घात थवो, अयत्नाचाररूपे प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना अशुभ भावोथी ज पोताने बंध थतो माने छे त्यां सुधी तेने स्वपरनुं ज्ञान थयुं नथी एम जाणवुं; कारण के बंध-मोक्ष तो पोताना अशुद्ध तथा शुद्ध भावोथी ज थता हता, शुभाशुभ भावो तो बंधनां ज कारण हता अने परद्रव्य तो निमित्तमात्र ज हतुं, तेमां तेणे विपर्ययरूप मान्युं. आ रीते ज्यां सुधी जीव परद्रव्यथी ज भलुंबूरुं मानी रागद्वेष करे छे त्यां सुधी ते सम्यग्द्रष्टि नथी. सम्यग्द्रष्टि जीव तो ज्यां सुधी पोताने चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहे छे त्यां सुधी ते रागादिक विषे तथा रागादिकनी प्रेरणाथी जे परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रियामां ते प्रवर्ते छे ते प्रवृत्तिओ विषे एम माने छे के-आ कर्मनुं जोर छे; तेनाथी निवृत्त थये ज मारुं भलुं छे. ते तेमने रोगवत् जाणे छे. पीडा सही शकाती नथी तेथी तेमनो इलाज करवारूपे प्रवर्ते छे तोपण तेने तेमना प्रत्ये राग कही शकातो नथी; कारण के जेने रोग माने तेना प्रत्ये राग केवो? ते तेने मटाडवानो ज उपाय करे छे अने ते मटवुं पण पोताना ज ज्ञानपरिणामरूप परिणमनथी माने छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने राग नथी. आ प्रमाणे परमार्थ अध्यात्मद्रष्टिथी अहीं व्याख्यान जाणवुं. अहीं मिथ्यात्व सहित रागने ज राग कह्यो छे, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहसंबंधी उदयना परिणामने राग कह्यो नथी; माटे सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होय ज छे. मिथ्यात्व सहित राग सम्यग्द्रष्टिने होतो नथी अने मिथ्यात्व सहित राग होय ते सम्यग्द्रष्टि नथी. आवा (मिथ्याद्रष्टिना अने सम्यग्द्रष्टिना भावोना) तफावतने सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे. मिथ्याद्रष्टिनो अध्यात्मशास्त्रमां प्रथम तो प्रवेश नथी अने जो प्रवेश करे तो विपरीत समजे छे-व्यवहारने सर्वथा छोडी भ्रष्ट थाय छे अथवा तो निश्चयने सारी रीते जाण्या विना व्यवहारथी ज मोक्ष माने छे, परमार्थ तत्त्वमां मूढ रहे छे. जो कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायथी सत्यार्थ समजी जाय तो तेने अवश्य सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय ज छे-ते अवश्य सम्यग्द्रष्टि बनी जाय छे. १३७.
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आ रीते सम्यग्द्रष्टि पोताने जाणतो अने रागने छोडतो थको नियमथी ज्ञान- वैराग्यसंपन्न होय छे-एम हवेनी गाथामां कहे छेः-
जोयुं? ‘स्वने जाणतो अने रागने छोडतो’-एम कह्युं छे. विकार थाय छे तो पोतानी पर्यायमां पोताथी ज, पण ते पोतानो स्वभाव नथी एम जाणी ज्ञानी तेने छोडे छे. आ राग ते हुं नहि, हुं तो शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा छुं-आवी अंतर्द्रष्टिना बळे रागने छोडतो ते ज्ञानी नियमथी ज्ञान-वैराग्यसंपन्न होय छे एम हवे कहे छेः-
‘आ रीते सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे अने विशेषपणे परभावस्वरूप सर्व भावोथी विवेक करीने, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवुं जे आत्मानुं तत्त्व तेने (सारी रीते) जाणे छे.’
जुओ, अहीं सम्यग्द्रष्टिनी वात छे. सम्यग्द्रष्टि कोने कहीए? के जेणे पुण्य- पापना भावथी भेद करीने पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावनुं भान कर्युं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. ते सामान्यपणे एटले समग्र विकारने अने विशेषपणे एटले विकारना-रागद्वेषादिना एक-एक भेदने के जे परभावस्वरूप छे तेने छोडे छे. चाहे पुण्यभाव हो के पापभाव हो-बेय विकार-विभाव परभाव छे. ते परभावस्वरूप सर्वभावोने भेद करीने छोडतो थको धर्मी ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्माने उपादेयपणे ग्रहण करे छे. ल्यो, आ धर्म, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि धर्म नहि. ए तो बधो राग छे. एनाथी तो भेद करवानी वात छे.
शुं कह्युं? वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर एम फरमावे छे के-पुण्यना विकल्पथी पण भिन्न पडीने टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवुं आत्मतत्त्व हुं छुं एम ज्ञानी अनुभवे छे. आत्मानुं तत्त्व, निजसत्त्व जाणकस्वभाव एक ज्ञायकभाव छे. दया, दान आदि रागना-पुण्यना परिणाम कांई आत्मानुं सत्त्व नथी, ए तो परभाव छे. ज्ञानी सर्व परभावथी भिन्न पडीने एक ज्ञायकस्वभावी निज चैतन्यतत्त्वने अनुभवे छे, सारी रीते जाणे छे.
पण आमां करवानुं शुं आव्युं? उत्तरः– आव्युं ने के-पुण्य-पापना सर्व भावथी भेद करवो अने शुद्ध चैतन्यस्वरूप जाणगस्वभावी आनंदस्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव करवो, तेमां ज
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लीन थवुं. भाई! आने ज जैन परमेश्वर अरिहंत परमात्माए धर्म कह्यो छे अने श्री कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतोए भगवानना आडतिया तरीके ते जगत सामे जाहेर कर्यो छे. जन्म-मरणथी छूटवानो आवो आ अलौकिक मार्ग छे.
जे कोई दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, जात्रा इत्यादिना भाव छे ते बधो शुभराग छे. शुभराग गमे ते हो, एनाथी पुण्य छे, धर्म नहि; धर्म तो एक मात्र वीतरागभाव छे अने ते ज्ञायकस्वभावना आश्रये प्रगट थाय छे. ए ज कहे छे के-
‘अने ए रीते तत्त्वने जाणतो, स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्यागथी नीपजवायोग्य पोताना वस्तुत्वने विस्तारतो कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने छोडे छे.’
बापु! वीतराग मार्ग-जन्म-मरणना दुःखथी रहित थवानो मार्ग-कोई अद्भुत अलौकिक छे. लोको तो बहारथी-आ जात्रा करीए, भक्ति करीए, पूजा करीए, उपवास करीए एटले थई गयो धर्म एम माने छे. पण एमां तो धूळेय धर्म नथी, सांभळने! ए तो बधो राग आस्रवभाव-दुःखदायक भाव छे. पुण्य ने पाप आस्रवतत्त्व छे, ज्यारे भगवान आत्मा ज्ञायक तत्त्व छे. बन्ने भिन्न छे एम तत्त्वने ज्ञानी अंतर्द्रष्टि वडे जाणे छे. आ प्रमाणे तत्त्वने जाणतो ज्ञानी ज्ञायकस्वभावी निज आत्माने ग्रहतो-आश्रय करतो थको रागने छोडी दे छे. आ प्रमाणे ज्ञानी स्वभावनुं ग्रहण अने परभावनो त्याग करे छे. हवे आवो मार्ग लोकोने आकरो लागे छे, पण शुं थाय? आ सिवाय बीजो कोई मार्ग नथी.
‘स्वभावनुं ग्रहण अने परभावनो त्याग’-आ बेमां आखो सिद्धांत छे. ज्ञानी स्वने-ज्ञानानंदस्वभावी शुद्ध ज्ञायकभावने-स्व जाणे छे, उपादेय जाणे छे अने अजीवने भिन्न अजीव (उपेक्षायोग्य) जाणे छे. पुण्य, पाप, आस्रव अने बंधने बुरां-अहितकारी जाणे छे, हेय जाणे छे अने संवर, निर्जरा अने मोक्षने भलां- सुखदायक प्रगट करवा योग्य जाणे छे. अहा! अज्ञानी बिचारो बहारमां ने बहारमां पैसा रळवा-कमावामां गुंचाई गयो छे, आवुं तत्त्व जाणवानी एने नवराश पण कयां छे?
पण पैसा होय तो मजा आवे ने? धूळेय मजा नथी एमां, सांभळने. पैसा ने पैसानो प्रेम ए मोटो परिग्रह छे. पैसाथी मजा छे एम मानवुं ए मिथ्यात्वनुं महापाप छे.
अहीं एम कहेवुं छे के-पुण्य, पाप, आस्रव अने बंधना भाव खरेखर अजीव तत्त्व छे, ज्यारे अंदर एक चिदानंदमय ज्ञायकस्वरूपी भगवान आत्मा जीवतत्त्व छे.
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आ प्रमाणे आत्माने राग तथा आस्रवथी भिन्न पाडीने ज्ञायकस्वभावने ग्रहवो- अनुभववो ते धर्म छे, अने आनुं नाम स्वभावनुं ग्रहण ने परभावनो त्याग छे.
ज्ञानी स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्याग वडे पोतानुं वस्तुत्व विस्तारे छे. वस्तुत्व एटले शुं? वस्तु प्रभु आत्मा छे अने तेनो चिदानंदस्वभाव, ज्ञायकस्वभाव ते एनुं वस्तुत्व छे. ज्ञानी पोतानुं वस्तुत्व विस्तारे छे एटले पर्यायमां विज्ञानघनस्वभावने प्रसारे छे, द्रढ करे छे, स्थिर करे छे; अर्थात् वीतरागताने विस्तारे छे, वृद्धिगत करे छे. ल्यो, आ धर्म!
त्यारे कोई कहे-अमे मांड दुकान-वेपार छोडीने पूजा, भक्ति, उपवास करता होईए त्यां आवी वात आप करो के ते धर्म नहि तो अमारे कयां जवुं? शुं करवुं?
भाई! स्वभावनुं ग्रहण अने परभावनो त्याग ते धर्म छे. त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावनुं ग्रहण-उपादेयपणुं अने रागादि परभावनो त्याग-बस आ ज करवानुं छे. बाकी बाह्य चीजनो त्याग तो अनादिथी छे ज. बहारनी चीज तो आत्मामां कयारेय छे ज नहि. माटे एना ग्रहण-त्यागनी अहीं कोई वात नथी. परंतु अंदर जे विकल्प उठे छे, वृत्ति जे शुभ-अशुभ उठे छे-के जे स्वभावथी विशुद्ध होवाथी परभावरूप छे-तेनो त्याग अने स्वभावनुं ग्रहण करवानी आ वात छे.
कहे छे-ज्ञानी स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्याग वडे पोताना वस्तुत्वने विस्तारे छे. एटले शुं? के ज्ञानी पोताना ज्ञानानंदस्वभावी आत्माना आश्रये ज्ञान अने आनंदनी परिणतिने विशेष-विशेष पुष्ट करे छे. कोईने एम थाय के आना करतां तो भक्ति, उपवास अने जात्रा-ए बधुं खूब सहेलुं सट पडे. शुं धूळ सहेलुं पडे? ए तो बधो राग छे; ए धर्म कयां छे? भाई! सम्मेदशिखरनी के भगवाननी लाख जात्रा करे तोपण ए बधो राग छे, पुण्य छे, धर्म नहि. अने एने धर्म माने तो मिथ्यात्व छे. अहीं तो आ कहे छे के धर्मात्मा पोताना चैतन्यबिंबस्वरूप आत्माने ग्रहे छे, उपादेय करे छे अने रागनो त्याग करे छे अने ए विधि वडे पोताना वस्तुत्वनो-ज्ञानानंदस्वभावनो विस्तार करे छे. अज्ञानी तो पुण्यथी धर्म थशे एम मानी विकारने-बंधने ज विस्तारे छे. आवडो मोटो ज्ञानी ने अज्ञानीमां फेर छे.
शुं कह्युं? के समकिती पुण्य-पापना भावथी भगवान आत्मा जुदो छे एम विवेक करीने पोताना स्वभावने ग्रहे छे अने रागनो त्याग करे छे. आनाथी वस्तुत्वनी वीतरागी परिणति नीपजे छे, अर्थात् वस्तुत्वनो विस्तार थाय छे. पुण्यभावोनो विस्तार तो विकारनो-दोषनो विस्तार छे अने वीतरागी परिणति प्रगट करवी ते वस्तुत्वनो- ज्ञायकभावनो विस्तार छे. त्यारे कोईने थाय के आ तो एकान्त जेवुं छे. तेने कहीए छीए-सांभळ, भाई! परनो त्याग अने स्वनुं ग्रहण ते शुं एकान्त छे? ए तो सम्यक्
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अनेकान्त छे. (एकलो बाह्य त्याग ए मिथ्या एकांत छे). रागना त्यागथी अने वस्तुत्वना ग्रहणथी वस्तुत्वना निर्मळ परिणाम अर्थात् वीतरागी परिणति नीपजे छे अने तेने विस्तारतां निर्जरा थाय छे अर्थात् अशुद्धता टळे छे ने कर्म खरे छे. बाकी अज्ञानीनां व्रत ने तप तो बधां थोथेथोथां छे केमके तेने संसार परिभ्रमणनुं कारण मिथ्यात्व ऊभुं ज छे.
अहीं कहे छे-ज्ञानी स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्याग वडे नीपजवा योग्य पोताना वस्तुत्वने विस्तारतो कर्मना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने छोडे छे. ल्यो, आ आव्युं के कर्मना विपाकथी विकार थाय छे! भाई! कर्मनुं तो निमित्तपणुं छे, बाकी पोताना (अशुद्ध) उपादानथी विकार-अशुद्धता पोतानामां पोताथी थाय छे, अने ज्ञानी तेने हेय जाणे छे. जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते भावने पण ज्ञानी हेय- छोडवालायक जाणे छे. आकरी वात, बापा! पण जुओने! अंदर छे के नहि? के ‘कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने (ज्ञानी) छोडे छे.’ अर्थात् धर्मी बधाय शुभाशुभ विकल्पने छोडे छे. अरे! लोकोने नवराश कयां छे? आखो दि’ बिचारा संसारनी होळीमां सळगता होय, वेपार-धंधो अने बायडी-छोकरां साचववामांथी ज ऊंचा न आवता होय त्यां आ कयां जुए? कोईवार भक्ति ने उपवास करे ने जात्राए जाय, पण एनाथी तो मंदराग होय तो पुण्य थाय पण धर्म नहि; अने ए वडे धर्म थाय एम माने एटले मिथ्यात्व ज पुष्ट थाय. समजाणुं कांई...?
आवो मार्ग कयांथी काढयो एम कोईने थाय, पण भाई! आ तो त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली वात कुंदकुंदाचार्ये कही छे. महाविदेहमां देवाधिदेव सर्वज्ञ परमेश्वर सीमंधर भगवान वर्तमानमां अरिहंतपदे विराजे छे. त्यां आचार्य कुंदकुंद संवत् ४९ मां सदेहे गया हता अने आठ दिवस त्यां रह्या हता. त्यांथी पाछा भरतमां आवीने आ समयसार आदि शास्त्रोनी रचना करी छे. भाई! आ शास्त्रो तो भगवाननी वाणीनो सार छे. आचार्य कुंदकुंद महा पवित्र दिगंबर संत हता. जेमना अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनो सागर हिलोळे चढयो हतो. अहाहा...! जेम दरियामां भरती आवे तेम आचार्यनी परिणतिमां आनंदनी भरती आवेली छे. अहीं टीकामां ‘वस्तुत्वने विस्तारतो’ एम शब्द छे ने? ते आवी अलौकिक मुनिदशानी स्थिति सूचवे छे.
जुओ, जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते भाव पण कर्मना उदयनो विपाक छे एम ज्ञानी जाणे छे अने एम जाणतो ते समस्त परभावोने छोडे छे. ‘तेथी ते (सम्यग्द्रष्टि) नियमथी ज्ञानवैराग्यसंपन्न होय छे.’ पहेलां ज्ञान-वैराग्यनी बे गाथाओ (१९प, १९६) आवी गई छे एनो आ सरवाळो लीधो छे. शुद्ध चैतन्यबिंब
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पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्माने जाणवो-अनुभववो ते ज्ञान अने रागनो त्याग करवो ते वैराग्य छे. त्रिकाळ अस्तिनुं ज्ञान अने राग प्रति वैराग्य-उदासीनता-त्याग-आ रीते ज्ञान ने वैराग्य बेय शक्ति धर्मीने होय छे-एम सिद्ध थयुं. शुं कह्युं? के पोतानो जे ध्रुव ज्ञायकस्वभावी, वीतरागस्वभावी आत्मा तेने धर्मी ग्रहे छे अने पोताना वस्तुत्वने-ज्ञानानंदस्वभावने विस्तारे छे अने रागनो अभाव करे छे. आ रीते ज्ञानी ज्ञानवैराग्यशक्तिथी संपन्न होय छे. १०० मी गाथामां रागनो कर्ता नथी, निमित्तेय नथी एम आव्युं हतुं अने आ २०० मी गाथामां ज्ञानी ज्ञानवैराग्यशक्ति संपन्न होय छे एम आव्युं.
‘ज्यारे पोताने तो ज्ञायकभावस्वरूप सुखमय जाणे अने कर्मना उदयथी थयेला भावोने आकुळतारूप दुःखमय जाणे त्यारे ज्ञानरूप रहेवुं अने परभावोथी विरागता -ए बन्ने अवश्य होय ज छे.’
जोयुं? बे गुण लीधा छे. भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभावरूप अने अतीन्द्रिय आनंदमय-सुखमय छे. ज्ञानी पोताने आवो जाणे छे, अनुभवे छे, अने कर्मना उदयथी थयेला भावोने आकुळतारूप दुःखमय जाणे छे. पंडित श्री जयचंदजीए आ टूंकुं करीने कह्युं. आ पंचमहाव्रत आदि जे विकल्पो थाय तेने ज्ञानी दुःखमय-धगधगती भट्ठी जेवा आतापकारी जाणे छे, गजब वात छे प्रभु! छहढालामां कह्युं छे ने के-
आ जीवे मुनिव्रत अनंतवार धार्यां अने पाळ्यां. पण ए तो राग-आस्रव हतो, दुःखमय भाव हतो. एमां सुख कयां हतुं ते प्राप्त थाय? कह्युं ने के-‘सुख लेस न पायो’-अर्थात् दुःख ज पायो. भाई! कर्मना उदयजनित भावो दुःखमय ज होय छे अने ज्ञानी तेने दुःखमय ज जाणे छे.
तेथी कहे छे के-ज्ञानीने, ज्ञानरूप रहेवुं ने परभावोथी विरागता-ए बन्ने साथे अवश्य होय ज छे. बापु! आ तो धीरानां काम, अजब-गजबनां भाई! निजतत्त्व - आत्मतत्त्व सदा ज्ञानमय अने सुखमय स्वभावरूप छे. तेने जाणतो-अनुभवतो ज्ञानी रागना अभाव वडे वीतरागताने विस्तारे छे. ल्यो, आ धर्म अने आवो धर्मी! परंतु रागने (व्यवहारने) करे अने रागने विस्तारे ते धर्मी नथी. गजब वात छे भाई! लोकोने तो बहारमां-पुण्यभावरूप क्रियाकांडमां धर्म मनाववो छे. पण बापु! आम ने आम जिंदगी एळे जशे, कांईक दया, दानना-पुण्यना भाव कर्या हशे तो
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पांच-पचास लाख-करोडनी धूळ (संपत्ति) मळशे; पण बापु! ए तो धूळनी धूळ धूळमां छे. एमां कयां आत्मा छे? वा आत्मामां ए कयां छे? आ रूपाळो देह छे तेनी पण राख थशे, अने धूळ (संपत्ति) धूळमां रहेशे. अहीं कहे छे-ज्ञानी कर्मना उदयथी उत्पन्न थयेला भावोने दुःखमय-झेर जेवा हेय जाणे छे अने तेने निज सुखमय स्वभावना आश्रये छोडी दे छे.
अहाहा...! ज्ञानमय रहेवुं एटले ज्ञानस्वभावी नित्यानंदस्वरूप भगवान आत्मामां रहेवुं-टकवुं अने विरागता एटले रागथी खसवुं-एम बन्नेय ज्ञानीने एकसाथे होय ज छे. ‘आ वात प्रगट अनुभवगोचर छे. ए (ज्ञान-वैराग्य) ज सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे.’ व्यवहारना रागने करवुं ए सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न वा लक्षण नथी पण अंतर्द्रष्टि वडे स्वरूपमां सावधान रहेवुं अने रागथी खसवुं ते सम्यग्द्रष्टिनुं लक्षण छे. आवो मार्ग छे भाई!
त्यारे कोई कहे छे-जरा सहेलुं करो, वंदना, जात्रा इत्यादि पण करवुं. एम कहो. जुओ, पूजामां पण आवे छे के-
अरे भाई! अज्ञानी एकाद भव नरक-पशुमां न जाय तोय तेथी एने शुं लाभ छे? अज्ञान अने मिथ्यात्व रहे तो पछीय पण ते तिर्यंचादिमां जशे ज. सम्मेदशिखरनी वंदनानो भाव पण शुभराग ज छे जेने ज्ञानी दुःखमय जाणे छे. सम्मेदशिखरनी लाख वंदना करे तोय ते शुभराग ज छे, धर्म नथी, अने तेने उपादेयग्रहण करवायोग्य माने त्यांसुधी ते मिथ्याद्रष्टि ज छे, जैन नहि.
हवे ‘जे जीव परद्रव्यमां आसक्त-रागी छे अने सम्यग्द्रष्टिपणानुं अभिमान करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे ज नहि; वृथा अभिमान करे छे’-एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः-
अहाहा...! मुनिवरने कयां कोईनीय पडी छे? तेओ तो कहे छे-भाई! सत्य तो आ छे; एम के तुं माने गमे तेम पण सत्य तो आ छे. शुं? तो कहे छे-
‘अयं अहं स्वयम् सम्यग्द्रष्टिः, मे जातु बन्धः न स्यात्’ आ हुं पोते सम्यग्द्रष्टि छुं, मने कदी बंध थतो नथी ‘इति’ एम मानीने ‘उत्तान–उत्पुलक–वदनाः’ जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित थयुं छे एवा ‘रागिणः’ रागी जीवो....
शुं कहे छे? अज्ञानी जीव बहारनी क्रियाथी गर्विष्ठ थई मानवा लागे छे के-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, धर्मी छुं; मने कदी बंध थतो नथी केमके सम्यग्द्रष्टिने भोगनी
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निर्जरा थई जाय छे. माटे हुं निर्जरावंत छुं. आ राग आवे छे ए तो चारित्रनो दोष छे, अमने तो अराग परिणाम होवाथी जे राग आवे छे ते झरी जाय छे. अहा! पोताने रागनी अंदर रुचि पडेली छे छतां शास्त्रोमां आम कह्युं छे एम मानी जे गर्व करे छे तेने कहे छे-भाई! तुं रागने पोतानो माने छे ते मिथ्यात्वनो दोष छे. भगवान केवळी सर्वज्ञ परमेश्वरने शुं कहेवुं छे ते समजवानी दरकार करता नथी तेनो मनुष्यभव ढोर समान छे. आकरी वात छे प्रभु! पण सत्य वात छे.
पोताने राग छे, रागनो प्रेम छे, छतां हुं धर्मी छुं एम अज्ञानी माने छे, तेने कहे छे-भाई! जेने शुभभावनी रुचि-प्रेम छे, जे शुभभावने भलो ने कर्तव्य माने छे ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. तेने सम्यग्दर्शन केवुं? आ, ‘ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे’-एम गाथाओ आवीने? तेना उपरनो आ कळश छे. अरे भाई! भोग निर्जरानो हेतु केम होय? ए तो ज्ञानीए ज्ञानस्वभावने आदर्यो छे, तेने निज आनंदस्वरूपनो आश्रय वर्ते छे तेथी तेने जे भोगनो राग आवे छे तेनो ते स्वामी नहि थतो होवाथी नवो बंध कर्या विना ते झरी जाय छे-एम त्यां वात छे. शुं भोग कांई निर्जरानो हेतु होय? न होय. पण शास्त्रमां कह्युं छे एम जाणी कोई भोगनो अभिप्राय राखे छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. आवी वात बापा! बहु झीणी.
भाई! आ मनुष्यभव मळ्यो छे पण भगवान केवळी शुं कहे छे ते जो समजवामां न आव्युं तो ते निष्फळ छे. मोटो साधु थयो तोय शुं? ए ज कहे छे-जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित थयुं छे एवा रागी जीवो-परद्रव्य प्रत्ये रागद्वेषमोहभाववाळा जीवो-‘अपि’ भले ‘आचरन्तु’ महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा ‘समितिपरतां आलंबन्तां’ समितिनी उत्कृष्टतानुं आलंबन करो ‘अद्य अपि’ तोपण ‘ते पापाः’ तेओ पापी ज छे.
शुं कह्युं? पाठमां छे, जुओ-के ‘रागिणोऽप्याचरन्तु’–रागी जीवो अहिंसा-परनी दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह-एम पांच महाव्रतनुं आचरण करो तो करो अने जोईने चालवुं, निर्दोष आहार लेवो, हित-मित बोलवुं इत्यादि उत्कृष्टपणे समितिनुं भले आलंबन करो, तोपण तेओ पापी ज छे, मिथ्याद्रष्टि ज छे. केम? केमके तेमने रागमां सुखबुद्धि-उपादेयबुद्धि छे अने तेमणे चैतन्यमूर्ति-वीतरागमूर्ति प्रभु आत्मानो आश्रय लीधो नथी. तेमने रागमां हेयबुद्धि अने निज चैतन्यस्वभावमां उपादेयबुद्धि थई नथी तेथी तेओ पापी ज छे. आकरी वात बापा! पण त्रणेकाळ वीतरागनो मार्ग आ ज छे.
भगवान आत्मा सदाय रागरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप वीतरागस्वरूप ज छे. आवो चिदानंदघन प्रभु आत्मा जेणे उपादेय-आदरणीय कर्यो छे तेनी परिणतिमां निराकुळ
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आनंदमय वीतरागता आवे ज छे. परंतु आत्मानो आश्रय छोडीने रागने आदरणीय मानीने कोई महाव्रतादि पाळे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. रागमां सुखबुद्धि छे तेवा जीवो, भले अमे समकिती छीए एम नाम धरावे अने बहारमां साधुपणानुं आचरण करे, आहार-विहार आदि क्रियाओमां जतनाथी प्रवर्ते, प्राण जाय तोपण उद्देशिक आहार ग्रहण न करे तोपण तेओ पापी ज छे, मिथ्याद्रष्टि ज छे-एम अहीं कहे छे. जुओ, छे के नहि कलशमां? ‘आलंबन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापाः’ छे स्पष्ट? अहा! जेने शुभरागनो आदर छे, शुभराग कर्तव्य छे एम जेणे मान्युं छे ते महाव्रतादि गमे ते आचरण करे तोपण ते पापी ज छे. कलशमां ‘पापाः’ एम शब्द छे. छे के नहि? भाई! मिथ्यात्वनुं पाप महापाप छे. लोकोने खबर नथी, पण व्यवहारनो राग कर्तव्य छे, धर्म छे एम जेणे मान्युं छे ते मिथ्याद्रष्टि-पापी ज छे.
प्रश्नः– परंतु ते पाप (-अशुभभाव) तो कांई करतो नथी? उत्तरः– भले ते पाप-अशुभभावनो-हिंसादिनो करनारो नथी तोपण तेने आचार्य श्री अमृतचंद्रदेवे पापी कह्यो छे. बहु गंभीर वात छे भाई! प्रचुर निराकुळ आनंद अने अकषायी शांतिनी परिणतिमां रहेनारा धर्मना स्थंभ एवा आचार्यदेवनुं आ कथन छे. मूळ गाथा आचार्य कुंदकुंदनी छे अने १००० वर्ष पछी तेनी आ टीका आचार्य अमृतचंद्रनी छे. अहो! वीतरागी मुनिवरो-जंगलमां वसनारा मुनिवरोनो आ पोकार छे; के रागने कर्तव्य ने धर्म जाणी कोई अहिंसादि महाव्रतनुं आचरण करे तो करो, पण ते पापी ज छे, केमके तेने मिथ्यादर्शनना अभावरूप सम्यग्दर्शन नथी वा आत्मानुभव नथी. मिथ्यादर्शन ए ज मूळ पाप छे.
प्रश्नः– पण चरणानुयोगमां महाव्रतादिनुं विधान तो छे? उत्तरः– हा छे; पण चारे अनुयोगनो सार वीतरागता ज छे, राग नहि. पंचास्तिकायनी गाथा १७२ मां छे के चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे. वीतरागना मार्गमां सर्वत्र वीतरागतानुं ज पोषण छे. चरणानुयोगमां पण रागनुं पोषण कर्युं नथी. तेमां रागने जणाव्यो छे, पण पोषण तो वीतरागतानुं ज कर्युं छे. चरणानुयोगमां साधकने वीतरागपरिणति साथे यथासंभव केवो राग होय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे, तेनुं पोषण नहि; पुष्टि तो एक वीतरागतानी ज करेली छे अने ए ज वीतरागनो मार्ग छे. समजाणुं कांई? शुभभावना प्रेमवाळाने कळश बहु आकरो पडे पण शुं थाय? वस्तुस्थिति ज आवी छे.
‘णमो लोह सव्व आइरियाणं’-एम पाठ आवे छे ने? पाठमां जेमने नमस्कार कर्या छे एवा अमृतचंद्रस्वामी एक आचार्य भगवंत छे के जेमने रागनी रुचि छूटी गई छे अने आनंदना नाथनी रुचिमां अंतररमणता अति पुष्टपणे जामी गई छे.