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‘तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि पूर्वसंचित कर्मना उदयथी प्राप्त थयेला विषयोने सेवतो होवा छतां रागादिभावोना अभावने लीधे विषयसेवनना फळनुं स्वामीपणुं नहि होवाथी असेवक ज छे.’
आ वात अज्ञानीने आकरी पडे छे. पण थाय शुं? अहीं कहे छे-जेने अंदरमां निज आनंदरसनो स्वाद आवी गयो छे एवा सम्यग्द्रष्टिने विषयनुं सेवन छे, छतां तेने तेमां रस नथी, रुचि नथी. पोताने थयेला आनंदरसना स्वाद आगळ विषयोनो स्वाद तेने झेर जेवो लागे छे. जेम वेश्या राजा साथे रमे छे, पण ए तो राजा पैसा आपे छे तेटलो ज काळ. शुं राजा तेनो स्वामी-पति छे? (ना). विषयना काळे तो स्वामीनी जेम प्रवर्तती होय छे पण खरेखर स्वामी नथी. तेम शुद्ध चैतन्यना आनंदना रसमां स्वामीपणे प्रवर्तता धर्मी जीवने विषयना रसमां स्वामीपणुं आवतुं नथी. भारे गंभीर वात!
जुओ, पाठमां शुं लीधुं छे? के ‘पूर्वसंचित कर्मना उदयथी’... शुं कह्युं? के पूर्वे बांधेला कर्मना उदयथी ज्ञानीने संयोगो मळ्या छे. अने तेना सेवननो राग होवा छतां तेमां रस-रुचि नथी. आनंदना अनुभवनुं ज्यां अंदरमां जोरदार परिणमन छे त्यां विषयराग जोरदार नथी-एम कहे छे. जेम एकवार जेणे मीठा दूधपाकनो स्वाद चाख्यो होय तेने राती जुवारना रोटला फीका लागे छे तेम आनंदना रस आगळ ज्ञानीने विषयनो रस विरस लागे छे.
कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टि पूर्वसंचित कर्मना उदयथी प्राप्त थयेला विषयोने...’ मतलब के शातानो उदय होय तो अनुकूळ सामग्री मळे छे. भाई! सामग्री तो सामग्रीना उपादानना कारणे आवे छे अने कर्मनो उदय तेमां निमित्त छे. जडकर्मना कारणे सामग्री मळे छे एम नथी. जडकर्मना रजकण जुदी चीज छे अने सामग्रीना रजकण जुदी चीज छे. (तेओ तो एकबीजाने अडताय नथी).
तो शब्दो तो आवा चोकखा छे के-‘कर्मना उदयथी प्राप्त थयेला विषयोने...’? हा, पण तेनो अर्थ शुं छे? शुं जेवुं लख्युं छे तेवो ज एनो अर्थ छे? एम अर्थ नथी हों; भाई! लखनारे जे अभिप्रायथी लख्युं छे ते अनुसार अर्थ करवो जोईए. पुण्यना उदयथी लक्ष्मी मळे छे एम कहेवुं ए तो व्यवहारनी वात छे, केमके पुण्यना अने लक्ष्मीना रजकण तो भिन्न-भिन्न छे. लक्ष्मी आवे छे ते पोताना कारणे आवे छे, पण पुण्यना उदयथी प्राप्त थाय छे एम कहेवानो व्यवहार छे. तेवी रीते पैसा जाय के न होय तो ते पापना उदयथी छे एम कहेवानो व्यवहार छे. पापकर्मनो उदय छे माटे पैसा आव्या नथी एम खरेखर नथी, पण पैसा ते काळे स्वयं आववाना न हता तेथी न आव्या, परमाणुनुं तेवुं परिणमन थवानुं न हतुं तेथी न थयुं ए यथार्थ छे. हवे आवी वात लोको न समजे, पण शुं थाय?
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‘पूर्वसंचित कर्मना उदयथी प्राप्त विषयोने’-एम कह्युं ने? त्यां विषयो अर्थात् सामग्री तो पोताना उपादानना कारणे प्राप्त थई आवी छे, पण तेमां निमित्त कोण छे? तो कहे छे पूर्वसंचित कर्म. बस, आ निमित्तनुं ज्ञान कराववा व्यवहारथी कह्युं के पूर्वसंचित कर्मना उदयथी विषयो प्राप्त थया छे. खरेखर तो सामग्रीना परमाणु ते काळे स्वतंत्र रीते परिणमन-गति करीने संयोगपणे आव्या छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे अज्ञानीने वांधा ऊठे छे के कर्मना निमित्तथी कार्य थाय छे एम न मानो तो भगवानना निमित्तथी शुभभाव थाय छे इत्यादि वात उडी जाय छे.
अरे भाई! भगवानना निमित्तथी शुभभाव थाय छे एम कहेवुं ए तो व्यवहारनयनुं कथन छे. जेने पोताना अशुद्ध उपादानना कारणे शुभभाव थाय छे तेने भगवान निमित्त छे बस एटलुं ज. शुं भगवान शुभभाव करावी दे छे? ना; एम नथी. भगवान कर्ता अने तने शुभभाव थाय ते कार्य एम छे ज नहि. अरे भगवान! शुं थयुं छे तने? मांड समजवानां टाणां आव्यां छे त्यां पीठ फेरवीने केम ऊभो छे?
सम्यग्द्रष्टि पूर्वकर्मना उदयथी प्राप्त विषयोने सेवे छे अने छतां असेवक छे. भाषा जोई? विषयो तो पोतपोताना कारणे आव्या छे पण तेमां पूर्वकर्मनो उदय निमित्त छे तो पूर्वकर्मना उदयथी विषयो प्राप्त थया छे एम व्यवहारथी कह्युं. वळी ते विषयोने सम्यग्द्रष्टि सेवे छे एम कह्युं; तो शुं परने सेवी शकाय छे? कदीय नहि. तो कह्युं छे ने? भाई! ए पर विषयो प्रति थता रागने ते खरेखर सेवे छे तो विषयोने ते सेवे छे एम व्यवहारथी कहेवामां आव्युं छे. खरेखर तो ज्ञानी विषयो तरफनो एने जे रागांश थाय छे तेने सेवे छे, विषयोने नहि. (पर विषयोने तो ए अडतोय नथी).
पण अहीं बीजी वात छे. अहीं तो कहे छे-ज्ञानी विषयोने सेवतो थको असेवक छे. झीणी वात, भाई! ज्ञानीने रागादिभावोनो अभाव छे. जेणे चिदानंदरसस्वरूप सच्चिदानंदमय भगवान आत्माना आनंदना रसनो स्वाद चाख्यो छे एवा धर्मी जीवने रागना रसनी रुचि नथी तेथी तेने विषयोनो स्वाद लुख्खो अने बेस्वाद-कडवो झेर जेवो लागे छे. तेथी कह्युं के ज्ञानी विषयोने सेवे छे छतां असेवक छे. अज्ञानी जीव अभिप्रायने समजे नहि, कया नयनुं कथन छे ते समजे नहि एटले एने वाते वाते वांधा ऊठे छे. परंतु भाई! दरेक वातमां शब्दार्थ, आगमार्थ, नयार्थ इत्यादि प्रकारे अर्थ करी तेनुं रहस्य अने तात्पर्य काढवुं जोईए. भाई! ‘घीनो घडो’-एनी माफक व्यवहारथी संक्षेपमां जे कथन करेलां होय तेनो यथास्थित अर्थ समजवो जोईए.
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भगवान आत्मा त्रणलोकनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप छे. अज्ञानीने ते रागनी रुचिनी आडमां जणातो नथी. अहाहा...! जळनी अपार राशिथी भरेलो मोटो समुद्र जेम एक कपडानी आडमां देखाय नहि तेम अज्ञानी जीवने रागनी रुचिनी आडमां पोतानो सच्चिदानंदस्वरूप भगवान देखातो नथी. जुओ, आ शेठिया बधा बहारना वैभवना रागमां चकचूर छे ने? तेमने भगवान आत्मा भळातो नथी. अहा! कोई मोटो शेठ होय, राजा होय के देव होय, जो तेने पोताना चिदानंदमय स्वरूपने छोडीने, पूर्वना कर्मना उदयना निमित्ते प्राप्त वैभवनी द्रष्टि छे तो ते मरीने तिर्यंचादिमां ज जवानो.
(परमात्मप्रकाशमां) आवे छे ने के-‘पुण्येण होइ विहवो...’ इत्यादि-पुण्यना उदये वैभव मळे, वैभवथी मद चडे, अने मदथी मति भ्रष्ट थई जाय. अमे आवा वैभववाळा-एम परमां अहंबुद्धि-मद थतां मति भ्रष्ट थई जाय छे अने तेथी ते मरीने नरक-तिर्यंचादि दुर्गतिने ज प्राप्त थाय छे, अने चारगतिमां रखडी मरे छे.
प्रश्नः– आप कहो छो के एक पदार्थ बीजा पदार्थनुं कांई न करे तो पछी वैभवथी मद केम चडे?
उत्तरः– एक पदार्थ बीजा पदार्थनुं कांई न करे ए तो सत्यार्थ एम ज छे. पोते मद करे, बहारमां अहंभाव करे त्यारे बाह्य वैभवने लक्ष करीने करे छे तो वैभवथी मद चडे छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे. वैभव मद करावे छे एम वात नथी. वैभवथी मद चडे ए तो निमित्ते बतावनारुं कथन छे. जो वैभवथी मद थई जाय तो तो समकिती चक्रवर्तीने पण मद थई जवो जोईए. भरत चक्रवर्ती छ खंडना वैभवनो स्वामी हतो, ९६ हजार तो तेने राणीओ हती, पण एने एमां कयांय आत्मबुद्धि-अहंपणानी बुद्धि न हती. सम्यग्द्रष्टि तो एम जाणे छे के ज्यां हुं छुं त्यां राग, शरीर के बहारना विषयोनो अभाव छे अने ज्यां राग, शरीर के बहारना विषयो छे त्यां मारो अभाव छे. विषयोने सेवतो होय ते काळे पण तेने आवां ज्ञान-श्रद्धान होय छे.
अहीं कह्युं ने के-सम्यग्द्रष्टि विषयोने सेवतो होवा छतां रागादिभावोना अभावने लीधे विषयसेवनना फळनुं स्वामीपणुं नहि होवाथी असेवक ज छे. जुओ, ज्ञानीने किंचित् राग थाय छे पण तेनुं एने स्वामीपणुं नथी, माटे ते सेवतो छतां असेवक ज छे. अहा! ज्ञानानंदस्वभावी पोतानी वस्तुनो अनुभव थतां जे अतीन्द्रिय आनंदनो-शांतिनो वैभव प्रगट थयो तेनी आगळ धर्मीने बाह्य विषयो फिक्का-रसहीन लागे छे. समकिती इन्द्रने इन्द्रासनमां के करोडो अप्सराओमां कयांय रस नथी. आत्माना अनाकुळ आनंदना रसना आस्वाद आगळ तेने बीजुं बधुंय बेस्वाद-झेर जेवुं लागे छे. कदाचित रागनी वृत्ति थई आवे तोपण ते विषयोने काळा नाग समान जाणे छे. शुं काळा नागना मोंमां कोईने आंगळी मूकवानो भाव थाय खरो? न थाय. तेम ज्ञानीने
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रागमां अने विषयोमां मीठाश न होय. माटे विषयोने सेवतो छतां ते असेवक ज छे. हवे कहे छेः-
‘अने मिथ्याद्रष्टि विषयोने नहि सेवतो होवा छतां रागादिभावोना सद्भावने लीधे विषयसेवनना फळनुं स्वामीपणुं होवाथी सेवक ज छे.’
शुं कह्युं? के अज्ञानी भले सामग्रीने सेवे नहि, पण अंतरमां तेने रागनां रस- रुचि पडयां छे. तेने विषयसेवननो अभिप्राय मटयो नथी. तेने सविशेष रागशक्ति अस्तिपणे रहेली छे जे वडे ते रागनो स्वामी थाय छे. आ कारणे अज्ञानी अणसेवतो थको पण सेवक छे. ज्ञानी सेवतो थको असेवक अने अज्ञानी अणसेवतो थको सेवक! पाठ तो आवो छे भाई!
प्रश्नः– तमो पाठना बीजा अर्थ करो छो. भले कर्मने लईने नहि तोपण ज्ञानीने रागनो भाव तो कंईक आवी जाय छे. आगळ (गाथा १९४मां) आवी गयुं छे के ज्ञानी पण कर्मना उदयने-शाता-अशाताने-ओळंगतो नथी अने तेने पर्यायमां सुख-दुःख वेदाय छे. तोपछी तेने असेवक केम कह्यो? सेवे छे छतां असेवक छे एम कहेवुं शुं जूठुं नथी?
उत्तरः– बापु! एम नथी, भाई! धर्मी जीव एने कहीए जेने अंतरमां - आत्मसंवेदनमां अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनुं वेदन थयुं छे. आ व्रत करे ने तप करे ने भक्ति करे माटे ते धर्मी छे एम नथी केमके ए तो बधो राग छे. आ तो सर्व रागना विकल्पथी भिन्न पडीने निर्विकल्प आनंदरसना स्वादने जेणे चाख्यो छे ते धर्मात्मा छे. आवा धर्मी जीवने रागनां रस-रुचि नथी, रागनुं धणीपणुं नथी. आखुंय विश्व तेने पर पदार्थ तरीके भासे छे. तेथी तेमां तेने रस नथी. विश्व छे, किंचित् राग छे पण एमां एने रस नथी, रुचि नथी, स्वामित्व नथी. तेथी कह्युं के -सेवक छतां असेवक; भोक्ता छतां अभोक्ता! गजब वात छे भाई!
अहो! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो धर्म अद्भुत अलौकिक छे! आवी वात बीजे कयांय नथी. अरे! एना संप्रदायवाळाने पण खबर नथी तो बीजानुं तो शुं कहेवुं? पण आ श्री कुंदकुंदाचार्यनी गाथाओ छे अने तेना अर्थ (टीका) महान् समर्थ आचार्य श्री अमृतचंद्रदेवे कर्या छे. तेओ पांचमी गाथामां कहे छे ने के-अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञानना वैभवनो अमने पर्यायमां जन्म थयो छे. आ पांच-पचास लाख रूपिया अने रूपाळुं शरीर इत्यादि तो जडनो-धूळनो वैभव छे, ए कांई निजवैभव नथी. मुनिराज कहे छे- जेम डुंगरमांथी पाणी झरे छे तेम अतीन्द्रिय आनंद-रसथी भरेला त्रणलोकना नाथ भगवान आत्मामांथी अमने पर्यायमां प्रचुर आनंदनो रस झरे छे अने ते अमारो निजवैभव छे. अमारो निजवैभव अतीन्द्रिय आनंदनी महोर-मुद्रावाळो छे. अहाहा...! शुं वैराग्य! शुं उदासीनता!
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अन्यमतमां पण वैराग्यनी वात आवे छे ने? त्यां अंतर्द्रष्टि नथी पण बहारमां वैराग्य लागे एवुं होय छे. भर्तृहरिनी वात आवे छे के-९२ लाख माळवानो अधिपति भर्तृहरि बावो थई जाय छे अने त्यारे कहे छे-
अरे! आ संसार! माळवाधिपतिनी राणी एक अश्वपालथी यारी करे! अरर! आ शुं? शुं आ संसार? आम बहारथी वैराग्यनुं चिंतवन होय, पण ए तो मात्र मंदरागनी अवस्था छे अने ते क्षणिक छे. जेमां चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना ज्ञान- श्रद्धान होय अने जेमां अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय ते दशा साची अंतर- वैराग्यनी दशा छे अने तेना बळथी अहीं ज्ञानीने सेवतो छतां असेवक कह्यो छे. समजाणुं कांई...?
जेम नाटकमां पुरुष स्त्रीनो वेश पहेरीने आवे तो जोनारा लोको एम कहे के आ स्त्री छे, पण ते पुरुष तो पोते एम ज माने के-हुं पुरुष छुं अने स्त्रीनो तो मारो भेख छे. तेम धर्मी जीवने शरीरादिनो भेख गमे ते जातनो होय पण हुं-आत्मा छुं अने आ शरीरादि जूठा खेल छे-एम माने छे. अरे! सेवकपणानो खेल (भेख) होय त्यारे पण, ए खोटो खेल छे, हुं एमां रमतो नथी-एम ज ते माने छे अहाहा...! अमे ज्यां रमीए छीए त्यां (-शुद्धात्मामां) आ पर विषयो छे नहि अने एमां अमे छीए ज नहि-आम धर्मात्मा माने छे. आम विषयसेवनना फळना स्वामित्वथी रहित ज्ञानी सेवतो छतां असेवक छे. ल्यो, आवो धर्म! बापु! धर्म कोई असाधारण अलौकिक चीज छे. दया, दान, भक्ति आदि करे अने माने के धर्म थई गयो पण एमां तो धूळेय धर्म नथी, सांभळने. ए तो बधो राग पुण्यबंधनुं कारण छे अने एमां धर्म माने तो मिथ्यात्व छे.
अहीं कहे छे-भगवान आत्माना आनंदनुं ज्यां भान थयुं त्यां आखी दुनिया प्रत्येनी अशुद्धतानो (अभिप्रायमां समस्त शुभ अशुभ भावोनो) त्याग थई जाय छे अने ते साचो वैराग्य छे. आवो वैराग्य जेने प्रगट थयो छे ते सेवक छतां असेवक छे. ज्यारे मिथ्याद्रष्टि बहारनुं बधुं त्यागे छे, स्त्री, कुटुंब आदि छोडी बावो थई जाय छे, पण अंतर-अनुभव विना द्रष्टि मिथ्या छे, रागनी रुचि छे तो ते असेवक-बहारथी सेवतो नथी छतां पण ते सेवक ज छे.
द्रष्टांत आपे छे-‘कोई शेठे पोतानी दुकान पर कोईने नोकर राख्यो. दुकाननो बधो वेपारवणज-खरीदवुं, वेचवुं वगेरे सर्व कामकाज-नोकर करे छे तोपण ते
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वेपारी नथी कारण के ते वेपारनो अने वेपारना लाभ-नुकशाननो स्वामी नथी; ते तो मात्र नोकर छे, शेठनो कराव्यो बधुं कामकाज करे छे.’ जुओ, दुकाननुं बधुं ज कामकाज नोकर करे तोपण ते वेपारी नथी कारण के ते नफा-नुकशाननो स्वामी नथी. तेथी खरेखर ते वेपारना कार्यनो मालिक-करनारो नथी.
ज्यारे, ‘जे शेठ छे ते वेपार संबंधी कांई कामकाज करतो नथी, घेर बेसी रहे छे तोपण ते वेपारनो अने वेपारना लाभ-नुकशाननो धणी होवाथी ते ज वेपारी छे.’ अहाहा...! दाखलो तो जुओ! वेपारनुं कांई पण काम न करे तोपण शेठ वेपारनो करनारो छे. हवे कहे छे-‘आ द्रष्टांत सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टि पर घटावी लेवुं.’
अहाहा...! शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप भगवान आत्मा छे. तेमां अंतर्मुख थई अनुभव करतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आववो अने आवो हुं आनंदस्वरूप पूर्ण परमात्मा छुं एवी प्रतीति थवी ते सम्यग्दर्शन छे. आवा सम्यग्दर्शन विना जैनधर्म शुं चीज छे ए लोकोने खबर नथी. बापु! सम्यग्दर्शन ए ज धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे अने आत्मानुभवनी स्थिरता-द्रढता थवी ते जैनधर्म छे. आ सिवाय व्रत, तप, दया, दान आदि कांई धर्म छे एम नथी.
भावपाहुडनी गाथा ८३ मां आवे छे के-पूजा, वंदन, वैयावृत्य अने व्रत ए जैनधर्म नथी; ए तो पुण्य छे. जुओ गाथा-त्यां शिष्ये प्रश्न कर्यो के-“धर्मका कया स्वरूप है? उसका स्वरूप कहते हैं कि ‘धर्म’ इस प्रकार है”ः-
गाथार्थः– “जिनशासनमें जिनेन्द्रदेवने इस प्रकार कहा है कि पूजा आदिकमें और व्रतसहित होना है वह तो ‘पुण्य’ ही है तथा मोह क्षोभसे रहित जो आत्माका परिणाम वह ‘धर्म’ है.”
गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के-“लौकिकजन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभ क्रियाओमें और व्रतक्रियासहित है वह जिनधर्म है, परंतु ऐसा नहि है. जिनमतमें जिनभगवानने इस प्रकार कहा है कि-पूजादिकमें और व्रतसहित होना है वह तो पुण्य है. इसका फल स्वर्गादिक भोगोंकी प्राप्ति है.” आ वात अज्ञानीने आकरी लागे छे, पण शुं थाय? अनादिनो मार्ग ज आ छे. छेल्ले त्यां भावार्थमां खुलासो कर्यो छे के- “जो केवल शुभपरिणामहीको धर्म मानकर संतुष्ट है उनको धर्मकी प्राप्ति नहीं है, यह जिनमतका उपदेश है.”
ज्ञानीने अशुभथी बचवा शुभभाव होय छे, अशुभवंचनार्थ शुभ हो; पण छे ते पुण्य, धर्म नहीं. आ सांभळी अज्ञानी राड पाडी ऊठे छे के-तमे अमारां व्रत ने तपनो लोप करी दो छो. पण भाई! तारे व्रत ने तप हतां ज के दि’? अज्ञानीने वळी
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व्रत ने तप केवां? कदाचित् रागनी मंदता होय तोपण ते मिथ्यात्वसहित ज छे. एवां व्रत ने तपने भगवाने बाळव्रत ने बाळतप एटले के मूर्खाईभर्यां व्रत ने मूर्खाईभर्यां तप कह्यां छे. अहीं कहे छे-अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप चैतन्यमहाप्रभु भगवान आत्माना अनाकुळ आनंदनो जेने स्वाद आव्यो छे ते समकितीने कोई पण प्रकारना रागमां मीठाश नथी. तेने सर्व रागमांथी रस ऊडी गयो छे.
अहाहा...! जेम नोकर वेपार करनारो नथी तेम सम्यग्द्रष्टि विषय सेवनारो नथी, अने जेम शेठ वेपार करनारो छे तेम मिथ्याद्रष्टि विषय सेवनारो छे.’ झीणी वात छे प्रभु! आत्मानो स्वभाव ज वीतरागस्वरूप छे अने जैनधर्म पण वीतरागस्वरूप छे. जेटलां (आज्ञानां) कर्तव्य कह्यां छे ते बधांय वीतरागतानी ज पुष्टिरूपे कह्यां छे, रागना पोषण माटे नहि. रागनी वात कही छे पण ए तो ज्ञानीने क्रमशः प्रगट थती अने वृद्धि पामती वीतरागतानी साथे सहकारी केवो राग होय छे तेनुं कथन कर्युं छे, रागनी पुष्टि माटे तेनुं कथन कर्युं नथी. व्रतादिनी वात ज्यां करी छे त्यां रागनुं पोषण कराववुं नथी, परंतु क्रमशः थता रागना अभावनुं ज पोषण कराववुं छे. तेथी अहीं कह्युं के-सम्यग्द्रष्टि विषय सेवनारो नथी केमके तेने विषयमां रस नथी, रागमां आत्मबुद्धि नथी.
‘परमात्मप्रकाश’मां कह्युं छे के-जे रागने पोतानो मानीने सेवे छे तेने आत्मा हेय तरीके वर्ते छे अने जेने आत्मा उपादेय तरीके वर्ते छे तेने राग हेयपणे होय छे. ‘प्रवचनसार’नी गाथा २३६ मां आवे छे के-काया तेम ज कषायने जे पोताना माने छे ते, बाह्यथी छकायनी हिंसा न करतो होय तोपण छकायनी हिंसानो करनारो ज छे. तेवी रीते अज्ञानी बहारथी विषय न सेवतो होय तोपण कायाने अने कषायने पोताना मानतो होवाथी कषायनुं फळ जे विषयवासनाथी युक्त विषयनो सेवनारो ज छे एम अहीं कहे छे. अहाहा...! मार्ग बहु जुदी जातनो छे, बापा!
हवे आगळनी गाथाओनी सूचनानुं काव्य कहे छेः-
‘सम्यग्द्रष्टेः नियतं ज्ञान–वैराग्य–शक्तिः भवति’ सम्यग्द्रष्टिने नियमथी ज्ञानवैराग्यनी शक्ति होय छे.
शुं कह्युं? सम्यक् नाम सत् एनी द्रष्टि जेने थई छे ते सम्यग्द्रष्टि छे; अर्थात् जे अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदथी भरेलो त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा तेनां द्रष्टि अने अनुभव जेने थयां छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. अहाहा...! पोताना त्रिकाळी सत् भगवान आत्मानो जेने सत्कार अने स्वीकार थयो छे, जेने निज स्वरूपनो
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अंतरमां महिमा थवाथी स्वरूप प्रति ढलण-वलण थयुं छे एवा सम्यग्द्रष्टिने ज्ञान अने वैराग्य बन्ने शक्ति होय छे. हवे तेनुं कारण कहे छे के-
‘यस्मात्’ कारण के ‘अयं’ ते (सम्यग्द्रष्टि जीव) ‘स्व–अन्य–रूप–आप्ति– मुक्तया’ स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो त्याग करवानी विधि वडे ‘स्वं वस्तुत्वं कलयितुम्’ पोताना वस्तुत्वनो अभ्यास करवा माटे, ‘इदं स्वं च परं’ ‘आ स्व छे अने आ पर छे’ ‘व्यतिकरम्’ एवो भेद ‘तत्त्वतः’ परमार्थे ‘ज्ञात्वा’ जाणीने ‘स्वस्मिन् आस्ते’ स्वमां रहे छे अने ‘परात् रागयोगात्’ परथी-रागना योगथी ‘सर्वतः’ सर्व प्रकारे ‘विरमति’ विरमे छे.
प्रथम करवानुं होय तो आ छे के स्वरूपनुं ग्रहण अने रागनो त्याग; अने ते बन्ने साथे ज होय छे. श्रीमद् राजचंद्रे टूंकामां कह्युं छे के-‘तारे दोषे तने बंधन छे, ए संतनी पहेली शिक्षा छे. तारो दोष एटलो ज के अन्यने पोतानुं मानवुं, पोते पोताने भूली जवुं.’ पोताना स्वरूपने भूलीने परने पोतानुं मानवुं ए महा अपराध छे अने ते पोतानो अपराध छे, कोई कर्मने लईने छे एम नथी. संवर अधिकारमां आवे छे के-
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।
जेओ मुक्तिपदने पाम्या छे ते रागथी भिन्न पडीने भेदविज्ञानथी (मुक्ति) पाम्या छे अने जेओ बंधायेला छे तेओ भेदविज्ञानना अभावने लीधे ज बंधायेला छे. (कर्मने कारणे बंधायेला छे एम नहि).
भेदविज्ञानथी मुक्ति पाम्या छे एनो अर्थ ए आव्यो के व्यवहारना रागथी भिन्न पडीने मुक्ति पाम्या छे, पण व्यवहारना रागथी मुक्ति पाम्या छे एम नहि. भाई! राग छे; अने तेने जाणनार व्यवहारनय पण छे. व्यवहारनयनो विषय ज नथी एम कोई कहे तो ते यथार्थ नथी; परंतु ते आश्रय करवा लायक नथी एम वात छे, तेने हेय तरीके जाणवालायक छे. पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा ज एक आश्रय करवा लायक उपादेय छे.
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदथी ठसोठस भरेलो सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे; ते सदाय वीतरागस्वभावी अकिंचनस्वरूप छे. दश धर्ममां आकिंचन्य धर्म आवे छे ने? ए तो प्रगट अवस्थानी वात छे. ज्यारे आ तो आत्मानुं स्वरूप ज अकिंचन छे एम वात छे. आवा निजस्वरूपनुं ग्रहण अने परना त्याग करवानी विधि वडे सम्यग्द्रष्टि स्वमां टके छे अने परथी-रागथी विरमे छे. जुओ! आ विधि! पूर्णानंदस्वरूपनुं ग्रहण अने दुःखरूप रागनो-अशुद्धतानो त्याग ए विधि छे. एकली बहारनी चीज त्यागी
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एटले थई गयो त्यागी-एवुं स्वरूप (त्यागनुं) नथी. परंतु रागथी खसीने शुद्धनो आदर करतां पर्यायमां शुद्धता प्रगटे छे अने अशुद्धतानो अभाव थई जाय छे. आ विधि, आ मार्ग अने आ धर्म छे. हितनो मार्ग तो आवो छे बापु!
कोई अज्ञानीओ एम कहे छे के कर्मथी विकार थाय छे. एनो अर्थ ए थयो के जे शुभभाव थाय छे ते पण कर्मने लईने थाय छे. वळी ते कहे छे शुभभावथी शुद्धता थाय छे. एटले (एना मत प्रमाणे) छेवटे एम आव्युं के कर्मने लईने शुद्धता-धर्म थाय छे. अरे! एणे सत्यने कदी सांभळ्युं ज नथी.
पण जैनधर्ममां तो बधुं कर्मने लईने ज थाय ने? बीलकुल नहि. बधुं कर्मने लईने थाय ए मान्यता जैनधर्म नथी. हा, कर्म एटले कार्य-शुद्धोपयोगरूप कार्य-ते वडे बधुं (-धर्म) थाय छे ए वात तो छे, परंतु जडकर्मथी एटले के परथी आत्मामां कांई (शुभभाव के धर्म) थाय छे ए वात यथार्थ नथी, केमके आत्मामां अनादिथी अकारण-कार्यत्व नामनो गुण पडयो छे अने तेथी आत्मा रागनुं कार्य पण नथी अने रागनुं कारण पण नथी. स्वाश्रये शुद्धोपयोगरूप परिणमन थाय ते आत्मानुं कार्य छे अने ते जैनधर्म छे. आ चोथा गुणस्थाननी वात छे. सातमे गुणस्थाने तो शुद्धोपयोगनी स्थिरतानी-चारित्रना शुद्धोपयोगनी वात छे.
जेम शीरो करवानी विधि ए छे के-पहेलां लोटने घीमां शेके अने पछी तेमां साकरनुं पाणी नाखे तो शीरो थाय. तेम स्वरूपना ग्रहण अने परना त्यागनी विधि वडे धर्म थाय छे. मार्ग आ छे भाई!
त्यारे कोई (अज्ञानी) एम कहे छे के ज्यां ज्यां योग्य निमित्त आवे छे त्यां त्यां निमित्तथी थाय छे एम मानवुं जोईए. निमित्तथी थाय ज नहि एम मानवुं बराबर नथी.
अरे भगवान! तुं शुं कहे छे आ? भाई! निमित्त (कर्म) तो पर जड तत्त्व छे अने जे पुण्यना परिणाम छे ते चैतन्यना विकाररूप परिणाम छे. खरेखर तो ते विकारना परिणाम पोताना षट्काररूप परिणमनथी थया छे, ते ते काळे पोतानो जन्मकाळ छे तेथी थया छे. भाई! षट्कारकरूप थईने परिणमवुं ते, ते विकारनी पर्यायनो ते काळे धर्म एटले स्वभाव छे. ते कांई निमित्तने-कर्मने लईने थाय छे एम नथी. कर्म छे ए तो अजीवद्रव्य छे. आखी वस्तु ज बीजी छे, तो पछी बीजी चीजने लईने शुं बीजी चीज थाय? (न थाय).
अहीं कहे छे-‘स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो त्याग करवानी विधि वडे पोताना वस्तुत्वनो अभ्यास करवा माटे...’ जोयुं? वस्तु भगवान आत्मा छे अने तेनुं वस्तुत्व कहेतां स्वरूप अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञान छे. तेनो अभ्यास एटले वारंवार
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अनुभव करवा माटे ज्ञानी आ स्व छे अने आ पर छे एवो भेद परमार्थे जाणीने स्वमां रहे छे अने परथी विरमे छे, अर्थात् ज्ञानी रागथी खसे छे अने स्वभावमां वसे छे.
एक तो आवुं सांभळवा मळे नहि अने कदाचित् सांभळवा मळे तो अज्ञानी विरोध करे छे. पण भाई! कोनो विरोध करे छे भगवान! तुं? तने खबर नथी भाई! पण वीतराग मार्ग ज आवो छे; वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे के ज्यां स्वनुं ग्रहण होय छे त्यां ज रागनो-परनो त्याग होय छे. तुं व्रतादिने व्यवहार कहे छे पण अज्ञानीने कयां व्यवहार होय छे? ए तो स्वरूपना अनुभवनारा ज्ञानीने जे किंचित् सहकारी व्रतादिनो राग होय छे तेने व्यवहार कहीए छीए. वस्तु तो आ रीते छे, पण अज्ञानीने तेनी पकडमां मोटो द्रष्टि फेर थई गयो होय छे. (ते व्रतादिने ज धर्म माने छे).
अहाहा...! ‘स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो त्याग करवानी विधि वडे...’ केवुं टूंकुं अने ऊंचुं परमार्थ सत्य! जेम सक्करकंद एकली साकरनो कंद छे तेम भगवान आत्मा पूर्णानंदस्वरूप प्रभु एकला अतीन्द्रिय आनंदनो कंद छे. तेनुं ग्रहण करतां तेमांथी आनंदनी अने शांतिनी परिणति उत्पन्न थाय छे; ते कांई व्यवहाररत्नत्रयना रागने लईने थाय छे एम नथी; रागनो तो एमां (यथासंभव) त्याग थई जाय छे. आवुं स्वरूप छे. भाग्य होय एना काने पडे एवी वात छे अने अंतरमां जाग्रत थई पुरुषार्थ करे ए तो न्याल थई जाय एवी आ चीज छे. ज्यां रागथी खसीने अंदर वळे के तरत ज धर्म थाय छे. अहो! स्वरूप ग्रहणनो आ अद्भुत अलौकिक मार्ग छे! पण शुं थाय? वर्तमानमां अज्ञानीओए मार्गने पींखी नाख्यो छे! अरे! जे मार्ग नथी तेने तेओ मार्ग कहे छे!
प्रश्नः– तो मोक्षमार्ग प्रकाशकमां एम आवे छे के-उदय तीव्र होय त्यारे जीव धर्म न करी शके ने उदय मंद होय त्यारे तेने अवकाश छे?
उत्तरः– हा, पण एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ए थयो के ज्यारे जीवने तीव्र कषायना परिणाम थाय छे त्यारे तो तेने धर्मोपदेश सांभळवानी पण लायकात होती नथी, पछी धर्म पामवानी तो वात ज कयां रही? अने ज्यारे मंदकषाय होय त्यारे पुरुषार्थ करे तो अवकाश छे. पण तेथी शुं ते कर्मने (उदयने) लईने छे? ना; एम नथी. (एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे).
गाथा १३ मां बे बोल आवे छे ने? के आस्रव थवा योग्य अने आस्रव करनार- ए बन्ने आस्रव छे. त्यां पुण्य-पापना भावपणे थवा योग्य ए पोतानी पर्याय छे अने तेमां आस्रव करनार एटले द्रव्यास्रवनुं-कर्मनुं निमित्त छे. आस्रव थवा योग्य
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पोतानी पर्याय तो पोताना (अशुद्ध) उपादानथी थई छे, अने एमां द्रव्यास्रव-कर्म निमित्त मात्र छे; त्यां एम नथी के कर्मनो उदय थयो माटे पर्यायमां आस्रवभाव थयो छे, समजाणुं कांई...? (द्रव्यास्रव जीवना भावास्रवमां निमित्त छे, पण ते जीवने भावास्रव करावी दे छे एम नथी).
प्रश्नः– परंतु कर्मना उदयना कारणे शुभभाव आदि आस्रवभाव थाय छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?
उत्तरः– हा, पण ए तो निमित्तनी विवक्षाथी कथन छे. ए शुभभाव तो जीवनी पोतानी भावमंद थवानी लायकात हती तेथी थयो छे. ते ते काळे एवी ज पर्यायनी पोतानी लायकात छे; ते ते काळे शुभभावना षट्कारकपणे थवुं ते पर्यायनो स्वकाळ छे. अहीं कहे छे-ज्ञानीने ते हेयपणे वर्ते छे.
अहीं कह्युं ने के-स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो त्याग करवानी विधि वडे ज्ञानी स्व- परने भिन्न जाणीने स्वमां रमे छे अने परथी विरमे छे. अहा! अस्तिमां स्वने पकडवो अने रागनी नास्ति-अभाव करवो, रागनी उपेक्षा करी तेना अभावपणे वर्तवुं -ए विधि छे. अज्ञानीनी विधि करतां आ तद्न जुदी जातनी विधि छे. भगवान! हजु तने मार्गनी खबर नथी! दीपचंदजी ‘भावदीपिका’मां लखी गया छे के-अत्यारे आगम प्रमाणे श्रद्धावान कोईने हुं जोतो नथी अने सत्यने कहेनारो कोई वक्ता पण देखातो नथी. वळी मोढे कहीए छीए ते कोई मानतुं नथी तेथी आ लखी जाउं छुं. जुओ वर्तमान मूढता! मोक्षमार्ग प्रकाशकमां श्री टोडरमलजी साहेबे लख्युं छे के-जेम वर्तमानमां हंस देखाता नथी तेथी शुं कागडा आदि अन्य पक्षीओने हंस मनाय? न मनाय. तेम वर्तमान क्षेत्रमां कोई साधु देखाता नथी तेथी शुं वेशधारीओमां मुनिपणुं मानी लेवाय? न मानी लेवाय. जेम हंसने सर्वकाळे लक्षण वडे ज मानीए तेम साधुने पण सर्वत्र लक्षण वडे ज मानवा योग्य छे. साधुना जे लक्षण छे तेना वडे जोशो तो साधुपणुं यथार्थ जणाशे.
प्रश्नः– रागनो त्याग ज्ञानीने छे, परंतु कर्ममां उदय मंद थयो छे माटे रागनो त्याग तेने थाय छे ने?
उत्तरः– एम नथी, भाई! कर्ममां तो उदय गमे तेवो हो, पण स्वरूपनुं ग्रहण थतां रागनो त्याग थाय छे. भाई! आ तो अध्यात्मना शब्दो छे. त्रणलोकना नाथने हलावी नाख्यो छे! कहे छे-जाग रे जाग नाथ! अनंतकाळ घणा घेनमां गाळ्यो छे, हवे निंदर पालवे नहि, हवे भगवानने-निजस्वरूपने ग्रहण कर. स्वरूपने ग्रहण कर एटले के पोते शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप परमात्मस्वरूप छे तेनो आश्रय कर अने रागनो आश्रय छोडी दे, रागनो अभाव कर. आ प्रमाणे रागनो त्याग ते त्याग
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छे, बाकी बहारना त्याग तो प्रभु! द्रव्यलिंग धारी-धारीने अनंतवार कर्या छे. पण तेथी शुं? भावलिंग विना बधुं फोगट छे.
भावपाहुडमां आवे छे के-‘भावहि जिनभावना जीव’ हे जीव! जिनभावना भाव. जिनभावना कहो के सम्यग्द्रष्टिनी भावना कहो के वीतरागपणानी भावना कहो-ए बधुं एक ज छे. एना विना द्रव्यलिंग अनंतवार धारण कर्यां छे. ते एटली वार धारण कर्यां छे के द्रव्यलिंग धारीने पछी मरीने अनंतां जन्म-मरण एक एक क्षेत्रे कर्यां छे. द्रव्यलिंग धारीने जे लोंच कर्या तेना एक एक वाळने एकठो करीए तो अनंता मेरु पर्वत ऊभा थई जाय एटली वार द्रव्यलिंग धारण कर्यां छे. पण भाई! भावलिंग विना द्रव्यलिंग साचुं होई शकतुं नथी-एम त्यां कहेवुं छे. जेने भावलिंग अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र प्रगटयुं छे तेने द्रव्यलिंग-पंचमहाव्रतनो विकल्प अने नग्नता आदि ज होय छे. परंतु भावलिंग विना बहारथी द्रव्यलिंग धारण कर्युं होय तेने वास्तविक द्रव्यलिंग व्यवहारे पण कही शकातुं नथी.
भगवान आत्मा सदाय शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप छे. ते स्वरूपनी उपादेयबुद्धि अने रागमां त्यागबुद्धि वडे, कहे छे, पोताना वस्तुत्वनो अभ्यास करवो. शुं कह्युं ए? के आनंदस्वरूप, ज्ञानस्वरूप पोते अखंड एकरूप वस्तु छे अने तेनुं ‘पणुं’ एटले ज्ञान, आनंद, शांति, वीतरागता तेनो भाव छे. तेनो अभ्यास करवो एटले वारंवार तेनो अनुभव करवो. आवो अनुभव करवा माटे आ एक ज्ञानानंदस्वरूप ते हुं स्व छुं अने रागादिभाव सर्व पर छे एवो भेद परमार्थे जाणीने ज्ञानी स्वमां रहे छे अने परथी - रागथी विरमे छे. ‘परमार्थे जाणीने’ एम कह्युं छे ने? मतलब के रागादि परथी भिन्न पडीने अंतरमां ज्ञानानंदस्वरूप भगवान ज्ञायकनो, जेमां आनंदनुं वेदन प्रगट थयुं छे तेवो अनुभव करीने ज्ञानी स्वमां रमे छे अने परथी सर्व प्रकारे विरमे छे; व्यवहारना रागथी पण ते सर्व प्रकारे विरमे छे.
ज्ञानी परथी भेद पाडीने स्वमां स्थिर थाय छे ते रागने कारणे थाय छे एम नथी, पण रागनो भेद करवाथी स्वमां स्थिर थाय छे, तेथी तो कह्युं के परथी-रागना योगथी सर्व प्रकारे विरमे छे. अहाहा...! श्लोक तो जुओ! शुं एनी गंभीरता छे! ज्ञानी स्वमां रहे छे अने परथी-रागना योगथी सर्व प्रकारे विरमे छे-आ ज्ञान-वैराग्यनी शक्ति विना होई शके नहि. ज्ञान-वैराग्यनी कोई अचिंत्य शक्ति छे जे वडे ज्ञानी स्वमां रहे छे अने रागथी निवर्ते छे-खसे छे. स्वमां वसवुं अने परथी-रागथी खसवुं-ए ज्ञान-वैराग्यनी शक्ति विना होई शके नहि. अहाहा...! बहु टूंकी पण आ मूळ मुदनी रकमनी वात छे.
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सम्यग्द्रष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति–
ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को।। १९८।।
न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः।। १९८।।
हवे प्रथम, सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम गाथामां कहे छेः-
ते मुज स्वभावो छे नहि, हुं एक ज्ञायकभाव छुं. १९८.
गाथार्थः– [कर्मणां] कर्मोना [उदयविपाकः] उदयनो विपाक (फळ) [जिनवरैः] जिनवरोए [विविधः] अनेक प्रकारनो [वर्णितः] वर्णव्यो छे [ते] ते [मम स्वभावाः] मारा स्वभावो [न तु] नथी; [अहम् तु] हुं तो [एकः] एक [ज्ञायकभावः] ज्ञायकभाव छुं.
टीकाः–जे कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला अनेक प्रकारना भावो छे ते मारा स्वभावो नथी; हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं.
भावार्थः–आ प्रमाणे सामान्यपणे समस्त कर्मजन्य भावोने सम्यग्द्रष्टि पर जाणे छे अने पोताने एक ज्ञायकस्वभाव ज जाणे छे.
हवे प्रथम, सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम गाथामां कहे छेः-
‘जे कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला अनेक प्रकारना भावो छे ते मारा स्वभावो नथी;...’
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जुओ! स्वभावथी उत्पन्न थयेला नथी एटले ते भावो द्रव्यकर्मना विपाकथी थया छे एम कह्युं छे, बाकी तो ते भावो पोतामां पोताना कारणे उत्पन्न थयेला छे.
गाथामां तो कर्मना उदयना विपाकथी थया लख्युं छे; तो शुं एनो अर्थ आवो छे? हा, भाई! तेनो अर्थ आवो छे. कर्मनो उदय थयो कयारे कहेवाय? के ज्यारे जीव विकारपणे थाय त्यारे तेने कर्मनो उदय थयो एम कहेवामां आवे छे. ए तो पहेलां आवी गयुं छे के-कर्मनो उदय आव्यो होय छतां विकारपणे न परिणमे तो ते उदय खरी जाय छे. ज्ञानीने जेवी रीते उदय खरी जाय छे तेवी रीते अज्ञानीने पण जे उदय होय छे ते खरी जाय छे, पण अज्ञानी उदयकाळे रागनो स्वामी थईने रागने करे छे माटे तेने नवो बंध करीने उदय खरी जाय छे. आवी वात खास निवृत्ति लईने समजवी जोईए.
कहे छे-कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला अनेक प्रकारना भावो छे ते मारा स्वभावो नथी. जुओ, कर्मनो उदय तो निमित्त मात्र छे, पण निमित्त वखते जीव पोते ते भावोरूपे परिणम्यो छे माटे उदयना विपाकथी भावो उत्पन्न थया छे एम कह्युं छे. अर्थात् राग आत्माना आनंदनो विपाक-आनंदनुं फळ नथी तेथी जे राग छे ते कर्मना विपाकनुं फळ छे एम कह्युं छे.
प्रश्नः– तमे तो आमां जे लख्युं छे एनाथी बीजो अर्थ करो छो. समाधानः– भाई! तेनो अर्थ ज आ छे. अहा! धर्मी एम जाणे छे के कर्मना निमित्तथी थयेला भावो मारा स्वभावो नथी. ‘निमित्तथी थयेला’-एनो अर्थ ए छे के तेना उपर लक्ष करवाथी, तेने आधीन थईने परिणमवाथी जे पर्यायनी परिणति थाय छे तेने निमित्तथी थई-एम कहेवाय छे. बाकी तो ते पर्याय पोतानामां पोताथी थई छे. छतां ते निज स्वभाव नथी.
अहाहा...! पोतानी चीज एक आनंदना स्वभावनुं निधान प्रभु छे. तेने जाणनार-अनुभवनार धर्मी जीवने जरा कर्मना निमित्तमां जोडातां-तेने वश थतां-जे विकार थाय छे ते कर्मनो पाक छे, परंतु आत्मानो पाक नथी. अनेक प्रकारना भावो एटले के दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि जे भावो छे ते मारा स्वभावो नथी केमके ‘हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं’-आम ज्ञानी जाणे छे. हुं तो प्रत्यक्ष अनुभवगम्य छुं, अर्थात् मारी वर्तमान ज्ञानपर्याय परनी अपेक्षा विना पोताने प्रत्यक्ष अनुभवे ते हुं छुं. अहाहा...! मारा प्रत्यक्ष अनुभवमां जे आवे ते हुं छुं. (प्रवचनसारमां) अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोलमां आवे छे के-पोताना स्वभाव वडे जाणवामां आवे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता हुं छुं.
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अहाहा...! आत्मा पोताना स्वभावथी जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. अहीं ‘आ’ शब्द पडयो छे ने? हुं तो ‘आ’... आटलामांथी ‘प्रत्यक्ष अनुभवगोचर’ छुं-एम काढयुं छे. हुं तो आ-आनंदस्वरूप भगवान आत्मा-प्रत्यक्ष अनुभवगम्य अर्थात् स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष जणाय एवो छुं.
अहाहा...! धर्मात्मा एम जाणे छे के-हुं तो आ-प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं. अनादिथी अकृत्रिम अणघडेलो घाट एवो शाश्वत ध्रुव एक चैतन्यबिंबमात्र भगवान छुं एम धर्मी जाणे छे. पोते कोण छे एनी-पोताना घरनी- खबर न मळे अने मांडे आखी दुनियानी! भाई! ए तो जीवन हारी जवानुं छे. अहीं तो कहे छे-हुं टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं-एम ज्ञानी जाणे-अनुभवे छे. छठ्ठी गाथामां आव्युं ने के-
अहाहा...! जाणनारने जाण्यो त्यां जणायुं के-हुं एक शुद्ध ज्ञायकभावमात्र वस्तु छुं.
‘आ प्रमाणे सामान्यपणे समस्त कर्मजन्य भावोने सम्यग्द्रष्टि पर जाणे छे अने पोताने एक ज्ञायकस्वभाव ज जाणे छे.’
भाषा जोई! ‘समस्त कर्मजन्य भावोने’-एम लीधुं छे. कर्मजन्य भाव एटले पुण्य ने पापना भाव; ते भावो स्वभाव नथी तेथी ते भावोने कर्मजन्य कह्या छे; परंतु तेथी ते कर्मथी थया छे एम नथी. विकार थयो छे तो पोताना षट्कारकना परिणमनथी. परंतु ते विकार आत्मजन्य नथी तेथी तेने कर्मजन्य कहेवामां आव्यो छे.
त्यां पंचास्तिकायमां (गाथा ६२मां) अस्तिकाय सिद्ध करवुं छे. तेथी त्यां कह्युं के- विकार-मिथ्यात्व, राग-द्वेष, विषयवासनानो भाव इत्यादि-जे छे ते पर्यायना षट्कारकनुं स्वतंत्र परिणमन छे, तेने परकारकोनी अपेक्षा नथी, तेम ज तेने स्वद्रव्यगुणनी पण अपेक्षा नथी. पर्यायमां एटलुं विकारनुं अस्तित्व छे एम त्यां अस्तिकाय सिद्ध कर्युं छे. पण ज्यारे स्वभाव सिद्ध करवो होय अने स्वभावनुं आलंबन कराववुं होय त्यारे तेनो निषेध करीने कह्युं के-ते भावो मारा स्वभावो नथी, तेओ परना निमित्ते उत्पन्न थयेला छे तेथी परना छे, कर्मजन्य छे. समजाणुं कांई...!
पण आवुं बधुं (अनेक अपेक्षा) याद शी रीते रहे?
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याद केम न रहे? भगवान! तुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छो के नहि? आ तो बहु टूंकु छे के-सम्यग्द्रष्टि धर्मी जीव सामान्यपणे समस्त कर्मजन्य भावोने पर जाणे छे ने पोताने एक ज्ञायकभाव ज जाणे छे. अहाहा...! ज्ञानीने जे व्रत, तप, दया, दान, भक्ति इत्यादिनो राग आवे छे तेने ते पोताना स्वरूपथी बहार पर जाणे छे; पोते तो एक ज्ञायकस्वरूप ज छे-बस एम ज अनुभवे छे. व्रतादिना भाव ते धर्मनुं के धर्मीनुं स्वरूप ज नथी.
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सम्यग्द्रष्टिर्विशेषेण तु स्वपरावेवं जानाति–
ण दु एस मज्झ भावो जाणगभावो हु अहमेक्को।। १९९।।
न त्वेष मम भावो ज्ञायकभावः खल्वहमेकः।। १९९।।
हवे सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम कहे छेः-
आ छे नहि मुज भाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव छुं. १९९.
गाथार्थः– [रागः] राग [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म छे, [तस्य] तेनो [विपाकोदयः] विपाकरूप उदय [एषः भवति] आ छे, [एषः] आ [मम भावः] मारो भाव [न तु] नथी; [अहम्] हुं तो [खलु] निश्चयथी [एकः] एक [ज्ञायकभावः] ज्ञायकभाव छुं.
टीकाः–खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे, मारो स्वभाव नथी; हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं. (आ रीते सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने जाणे छे).
वळी आ ज प्रमाणे ‘राग’ पद बदलीने तेनी जग्याए द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काया, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन अने स्पर्शन-ए शब्दो मूकी सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां (-कहेवां) अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
हवे सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम कहे छेः-
‘खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे, मारो स्वभाव नथी...’
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हवे आटलां आटलां लखाण आवे छतां ‘कर्मथी राग न थाय’ एम कहीए एटले लोकोने आकरुं ज लागे ने? पण भाई! कई अपेक्षाए आ कह्युं छे? विकार थयो छे तो पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी; पण ते स्वभावना आश्रये थतो नथी अने स्वभाव बंधस्वरूप नथी तेथी निमित्तने आश्रये थयेलो विकार निमित्तनो छे एम कह्युं छे. ‘खरेखर’ शब्द छे ने? पाठ छे, जुओ-‘पोग्गलकम्मं रागो’-खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे अने ते कर्मनो विपाक ते राग छे, पण आत्मानो विपाक ते राग छे एम नथी.
अहाहा...! राग थयो छे तो पोतानी नबळाईने लीधे पोतानी पर्यायमां पोताना षट्कारकना परिणमनथी. परंतु आ निर्जरा अधिकार छे ने? द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयमां राग नथी अने रागथी आत्मा जणातो नथी. ते कारणे रागने पर तरीके कर्मजन्य कहीने काढी नाखवा मागे छे. तेथी कह्युं के राग मारो स्वभाव नथी, शुद्ध चैतन्यनो भाव नथी.
‘हुं तो आ टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं’-एम ज्ञानी जाणे छे. ‘आ’-एटले प्रत्यक्ष अनुभवगोचर स्वसंवेदनमां जणाय एवो हुं त्रिकाळ शाश्वत चैतन्यमात्र आत्मा छुं, आ रागादिभाव ते हुं नथी एम सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने तथा परने (भिन्न) जाणे छे.
जुओ, कोई स्वच्छंदीने एम थाय के-राग कर्मजन्य-पुद्गलजन्य छे; माटे राग हो तो हो, तेथी मने शुं नुकशान छे? तो एना माटे पहेलेथी ए वात सिद्ध करी छे के- भाई! राग-द्वेष विषयवासना आदि तारी पर्यायमां ताराथी थाय छे अने ते तारो ज अपराध छे. (एमां कर्मनो कांई दोष नथी). तथा कोई रागादिने पोतानो स्वभाव मानी रागमां ज संतुष्ट रहे छे, स्वरूपमां जतो नथी तेने कह्युं के-भाई! राग तारो स्वभाव नथी, पण ते परनिमित्ते थतो परभाव होवाथी पुद्गलजन्य भाव छे; स्वरूपमां उद्यमी थयो छे एवो ज्ञानी तेने कर्मजन्य-पुद्गलजन्य भाव जाणे छे केमके ते स्वभाव नथी. गाथा ७प-७६मां ए ज कह्युं छे के-पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो एटले के रागादिभावनो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणाम अर्थात् रागादिभाव ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातु होवाथी व्याप्यरूप कर्म छे. आ प्रमाणे रागने कर्मजन्य कहीने तेनो स्वभाव अने स्वभावनी द्रष्टिमां निषेध कर्यो छे अने स्वरूपनुं आलंबन कराव्युं छे. समजाणुं कांई...? ‘श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक’मां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए बहु सुंदर स्पष्टीकरण कर्युं छे के-
“श्रीगुरु रागादिक छोडाववा इच्छे छे. हवे जे रागादिकने परना मानी स्वच्छंदी बनी निरुद्यमी थाय, तेने तो उपादानकारणनी मुख्यताथी ‘रागादिक आत्माना छे’ एवुं श्रद्धान कराव्युं; तथा जे रागादिकने पोतानो स्वभाव मानी तेना नाशनो उद्यम करतो नथी, तेने निमित्तकारणनी मुख्यताथी ‘रागादिक परभाव छे’ एवुं श्रद्धान कराव्युं.
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अहीं कह्युं के-खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे. गाथा ७प मां पण ए ज कह्युं छे के-राग-द्वेष, पुण्य- पापना अंतरंगमां जे भाव थाय छे ते पुद्गलपरिणाम-पुद्गलनुं कार्य छे. आ कई अपेक्षाए वात छे? के रागादि जीवनो स्वभाव नथी, स्वभावथी ते चीज भिन्न छे एम बताववा तेने पुद्गलनुं कर्मजन्य परिणाम छे एम कह्युं छे. ज्यारे वास्तविक पर्यायनी स्थितिनुं स्वरूप कहे त्यारे रागद्वेष आदि जेटलो विकार थाय छे ते, षट्कारकरूप परिणमन जीवथी जीवनुं जीवमां छे. आम बेय रीते शास्त्रमां कथन आवे छे तेने जे ते अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोईए.
आ निर्जरा अधिकार छे. धर्मी जीवनी द्रष्टि त्रिकाळी चैतन्यस्वभावमात्र निजवस्तु उपर होय छे. तेथी ते स्वभावद्रष्टिवंतने, जे रागादि भाव थाय छे तेनुं तेने स्वामीपणुं नहि होवाथी, ते भाव खरी जाय छे, निर्जरी जाय छे. ज्ञानीने तो निर्जरा ज छे ने? कारण के ते रागादि भावनो स्वामी नहि होतो थको तेने पुद्गलना कार्यपणे जाणे छे, अने स्वभावना आश्रये रागादिथी निवर्ते छे.
प्रश्नः– आमां केटकेटली अपेक्षाओ बधी याद राखवी? आप सवारे प्रवचनमां कहो के राग-विकार ताराथी थाय छे, तारो छे; वळी बपोरना प्रवचनमां कहो के रागादि पुद्गलनुं कार्य छे, तारुं नहि. तो आमां अमारे समजवुं शुं?
समाधानः– भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए. जुओ, राग खरेखर तो एक समयनी जीवनी पर्यायमां पोताथी स्वतंत्र थाय छे. पोतानो ते दोष छे. पण ते दोष छे, स्वभाव नथी-एम बताववा स्वभावनी द्रष्टि कराववा ते पुद्गलनो छे एम कह्युं छे. जेने स्वभावनी द्रष्टि थई छे ते धर्मात्मा रागने पोतानाथी भिन्न पुद्गलनुं कार्य मानीने स्वभावना अवलंबने छोडी दे छे.
प्रश्नः– निमित्तथी (विकार) थाय एटले शुं? समाधानः– निमित्तथी थाय एटले निमित्तना लक्षे पोताथी पोतानामां थाय. पंचास्तिकायनी ६२ मी गाथामां तो चोख्खुं कह्युं छे के जे राग-द्वेष-मोहना विकारी भाव थाय छे ते एक समयनी पर्यायमां षट्कारकनुं स्वतंत्र परिणमन छे. ते ते पर्याय ते रागने करे छे, ते ते पर्यायनुं राग कर्म छे, ते पर्याय रागनुं साधन छे, ते पर्याय रागरूप थईने रागने ले छे अर्थात् राखे छे, ते पर्यायथी राग थाय छे अने ते पर्यायना आधारे राग थाय छे. त्यां पंचास्तिकायमां राग-विकारनी अवस्था जीवनी (पर्यायनी) सत्तामां जीवने लईने थाय छे तेम सिद्ध करवुं छे. राग पोतानी पर्यायमां थयेलो पोतानो छे एम त्यां कहेवुं छे. वळी जेम रागनी पर्याय निरपेक्ष छे तेम वीतरागी
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पर्याय पण निरपेक्ष छे. निर्मळ सम्यग्दर्शननी पर्याय पण पोताना षट्कारकथी पोताथी परिणमी छे. ते कर्मना अभावने लईने थई छे एम नथी तथा द्रव्य-गुणना कारणे थई छे एम पण नथी. पर्याय रागनी हो के वीतरागी हो-बन्ने निरपेक्ष छे. परंतु राग स्वभावमां नथी अने स्वभावनुं कार्य पण नथी; तेथी पुद्गलना लक्षे थतो राग पुद्गलनुं कार्य छे एम कही तेनो त्याग करावे छे. समजाणुं कांई...?
आप आवो अर्थ केम करो छो? भाई! तेनो अर्थ ज आवो छे त्यां बीजुं शुं करीए? जुओ, अहीं अने ७प मी गाथामां रागने पुद्गलपरिणाम कह्या छे. तेथी करीने राग कर्मने लईने थाय छे एम जो कोई माने तो ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! पुद्गलकर्म तो जड परद्रव्य छे. तेनाथी जीवमां विकार केम थाय? न ज थाय. पण जडना निमित्ते थतो राग स्वभावमां नथी माटे स्वभावद्रष्टिवंत पुरुष तेने पुद्गलनुं कार्य जाणी काढी नाखे छे, छोडी दे छे. धर्मीनी द्रष्टि निरंतर स्वभाव उपर छे. स्वभावमां अने स्वभावनी द्रष्टिमां राग-विकार नथी. तेथी द्रष्टिवंत पुरुष रागने पोताथी पृथक् जाणी तेने पुद्गलनुं कार्य गणी छोडी दे छे. बिचाराने बायडी-छोकरां पंपाळवानी अने रळवा- कमावानी पापनी प्रवृत्ति आडे विचारवानी कयां फुरसद छे? अने कदाचित् फुरसद मळे तोय आवी अनेक अपेक्षाओमां मुंझाई जाय पण यथार्थ समजण करे नहि. शुं थाय? मार्ग तो जेम छे तेम समजवो ज पडशे.
अहीं कहे छे-कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे. जोयुं? कर्मना उदयथी रागरूप भाव थयो छे एम कहे छे. एम केम कह्युं? तो आ निर्जरा अधिकारमां समकितीनी वात छे ने? समकितीनी द्रष्टि शुद्ध ज्ञायकस्वभाव पर छे; अने स्वभावमां कयां राग छे? राग तो कृत्रिम पर्याय छे, ज्यारे स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध आनंदस्वरूप छे. माटे द्रष्टिमां रागने कर्मनुं स्वरूप ठरावीने जीवने तेनाथी छोडाव्यो छे. गाथा ७६मां प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य- एम लीधुं छे. त्यां प्राप्य जे विकारी भाव प्राप्त थवा योग्य छे तेने पुद्गल पहोंची वळे छे एम लीधुं छे. त्यां पण आ ज अपेक्षा समजवी.
प्रश्नः– तो राग कोनो छे? जीवनो के पुद्गलनो? अहींया अने ७पमी गाथामां राग पुद्गलकर्मनो कह्यो अने पंचास्तिकायमां राग पोतानी पर्यायमां पोताथी थयेलो पोतानो जीवनो कह्यो छे, निमित्तथी थयेलो नहि.
समाधानः–पंचास्तिकायमां रागने पोतानो कह्यो छे केमके राग जीवनी पर्यायमां थाय छे अने ते पर्यायना अस्तिपणे एक समयनुं सत् छे. तेने पर निमित्त केवी रीते करी शके? न करी शके? भाई! पर्यायमां जे विकार थाय छे ए तो