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प्रश्नः– तो आत्माना प्रदेशो हाले-चाले छे तेथी तो ते (हाथ) ऊंचा-नीचा थाय छे ने?
उत्तरः– ना, एम पण नथी. आत्माना प्रदेश जे हाले-चाले छे ते स्वयं तेना कारणे छे अने शरीरना प्रदेश जे हाले-चाले छे ते तेना कारणे छे. कोई कोईनाथी छे एम छे ज नहि. (मात्र परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव छे).
प्रश्नः– तो मोक्षमार्ग प्रकाशकमां कह्युं छे के-कोईवार इच्छा विना पण जडना जोरने कारणे आत्माना प्रदेशोनुं चालवुं थाय छे? (बीजो अधिकार).
समाधानः– आत्माना प्रदेशो चाले छे तो स्वयं पोताथी ज, परंतु ते वेळा परद्रव्य (शरीर) निमित्त होय छे तो तेना जोरथी चाले छे एम निमित्तथी त्यां कथन कर्युं छे. परद्रव्य (शरीरादि) आत्माना प्रदेशोने कर्ता थईने चलावे छे एम त्यां अर्थ नथी. जुओ, कोई वेळा शरीर, जीवनी इच्छा विना पण चाले छे अने कोई वेळा जीवने इच्छा होय तोपण शरीरनी क्रिया बनती नथी.
प्रश्नः– परंतु शरीर खसे त्यारे जीवना प्रदेश पण खसे छे ने? उत्तरः– भाई! शरीर खसे त्यारे पण जीवना प्रदेश जे खसे छे ते पोतानी तत्कालिन लायकात-योग्यताथी ज खसे छे, शरीरना कारणे नहि. जीव अने अजीव बन्ने भिन्न तत्त्व छे. शरीर अजीवतत्त्व छे ज्यारे आत्मा जीवतत्त्व छे. एक तत्त्वनो ज्यां बीजामां अभाव ज छे त्यां तेओ एक बीजाने (वास्तवमां भावपणे) शुं करे? (कांई नहि).
प्रश्नः– त्यारे अहीं गाथामां तो एम कह्युं के-ज्ञानी-अज्ञानी परद्रव्यने भोगवे छे; अने पहेलां गाथा त्रणमां (टीकामां) एम कह्युं के एक द्रव्य बीजा द्रव्यने चुंबतुं-स्पर्शतुं नथी. आमां शुं समजवुं?
समाधानः– भाई! कयां कई अपेक्षाए कथन छे ते बराबर समजवुं जोईए. गाथा त्रणमां तो वस्तुनी स्थिति दर्शावी छे के कोई कोईने स्पर्शे नहि आवुं ज वस्तु स्वरूप छे. ज्यारे अहीं जीवने कांईक भोगनी इच्छा थई अने ते ज काळे तेना निमित्ते शरीरादि परद्रव्योमां एवी ज क्रिया थाय छे तेथी जीव परद्रव्यने भोगवे छे एम आरोप दईने निमित्तनी मुख्यताथी कथन कर्युं छे. खरेखर तो ज्ञानी के अज्ञानी परद्रव्यने भोगवतो ज नथी, ते तो रागना वेदनने भोगवे छे. वळी शुद्ध निश्चयथी तो राग पण परद्रव्य छे. अहा! आवुं सांभळवानी अने समजवानी कोने फुरसद छे? पण भाई! जीवन जाय छे जीवन! जो समजण न करी तो जीवन पूरुं थई जशे अने कयांय चोरासीना अवतारमां-भवसमुद्रमां गोथां खातो चाल्यो जईश के पत्तो ज नहि लागे.
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‘परद्रव्य भोगवतां, कर्मना उदयना निमित्ते जीवने सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमथी उत्पन्न थाय छे.’
सुखरूप के दुःखरूप जे अवस्था थाय छे ते तो पोतानी पर्याय पोताना (अशुद्ध) उपादानथी थाय छे. कर्मना उदयना निमित्ते ते थाय छे एम जे कह्युं ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे एम समजवुं. हवे कहे छे-
‘मिथ्याद्रष्टिने रागादिकने लीधे ते भाव आगामी बंध करीने निर्जरे छे तेथी तेने निर्जर्यो कही शकातो नथी; माटे मिथ्याद्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां बंध ज थाय छे.’
शुं कह्युं? के मिथ्याद्रष्टिने रागनी रुचि छे, प्रेम छे. तेने राग-द्वेष-मोहना परिणाम हयात छे. तेथी कर्मना उदयना निमित्ते जे भोगना भाव थाय छे, सुख-दुःखना परिणाम थाय छे ते आगामी बंध करीने निर्जरे छे. अज्ञानीने जे सुख-दुःखनुं वेदन थाय छे तेमां ते स्वामीपणे प्रवर्ततो होवाथी तेने राग-द्वेष थाय छे अने तेथी तेने नवो बंध थाय छे. ते कारणे निर्जर्यो होवा छतां ते निर्जर्यो कही शकातो नथी एम अहीं कह्युं छे. माटे मिथ्याद्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां बंध ज थाय छे, निर्जरा नहि.
हवे कहे छे-‘सम्यग्द्रष्टिने रागादिक नहि होवाथी आगामी बंध कर्या विना ज ते भाव निर्जरी जाय छे तेथी तेने निर्जर्यो कही शकाय छे; माटे सम्यग्द्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां निर्जरा ज थाय छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने भावनिर्जरा थाय छे.’
शुं कीधुं आ? के धर्मी जीवनी द्रष्टि आनंदना नाथ भगवान आत्मा उपर छे. तेथी कर्मना उदयना निमित्ते जरी सुख-दुःखनुं वेदन एक समय पूरतुं थाय छे, पण तेने रागद्वेषमोहनो अभाव छे तेथी ते वेदननो भाव बंध कर्या विना ज निर्जरी जाय छे तेथी ते खरेखर निर्जर्यो छे एम कहेवामां आवे छे. अज्ञानीने पण ते भाव निर्जर्यो तो छे ज, पण ते नवो बंध करीने निर्जर्यो छे तेथी निर्जर्यो कहेवातो नथी ज्यारे ज्ञानीने ते ज भाव बंध कर्या विना निर्जरी जाय छे तेथी तेने खरेखर ते भावनी निर्जरा थई गई एम कहेवाय छे. आवी वात छे.
प्रश्नः– पोते बोले छे एवुं प्रत्यक्ष देखाय छे अने कहे छे के आत्मा बोले नहि; आत्मा बोलतो नथी तो शुं भींत बोले छे?
उत्तरः– बापु! तने खबर नथी, भगवान! आ जे अवाज नीकळे छे ते अहीं जे शब्दवर्गणाना परमाणुओ पडया छे तेनुं परिणमनरूप कार्य छे. अरे, आ जे होठ हले छे तेना कारणे अवाज नीकळे छे एम पण नथी तो ते जीवनुं कार्य तो केम होय? तुं संयोगने ज मात्र देखे छे तेथी जीव बोले छे एम प्रत्यक्ष देखाय छे एम कहे छे पण एम छे नहि. भाई! अहीं वीतरागशासनमां तो वाते-वाते दुनियाथी फेर
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छे. जीव अने अजीव बे तत्त्वो ज स्वरूपथी भिन्न भिन्न छे तो पछी जीव अजीव-तत्त्वनुं शुं करे? जीव अजीवने कांई करे छे एम छे ज नहि.
प्रश्नः– परंतु जीवतत्त्व आस्रवतत्त्व अने बंधतत्त्वने करे छे एम तो छे ने? उत्तरः– ए जुदी वात छे. ए तो जीवनी पर्यायनी वात छे. आस्रवतत्त्वना परिणाम जीवनी पर्यायमां थाय छे ने! तेथी ते जीव करे छे एम कह्युं. ज्ञानीने पण जे आस्रवभाव छे ते जीवनुं परिणमन छे, परंतु कर्मना निमित्तथी थाय छे माटे तेने पर कह्युं छे. वळी रागमां जीव पोते अटकयो छे तेथी बंधतत्त्व पण जीवनुं छे एम कह्युं छे. बंधथी जुदो पाडी, अबंधतत्त्वमां लई जवा माटे बंधने जीवतत्त्व कह्युं छे. जेम मोक्षतत्त्व छे, संवर-निर्जरा तत्त्व छे तेम आस्रव-बंध पण, भले छे क्षणिक तोपण, तत्त्व छे एम दर्शाव्युं छे. तेमां एक त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा उपादेय छे, बाकी साते तत्त्व क्षणविनाशी आश्रय करवायोग्य नहि होवाथी हेय छे. आवुं सम्यक् श्रद्धान जेने थयुं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे अने रागादिकभावो नहि होवाथी आगामी बंध कर्या विना ज वेदनमां आवता जे ते सुख-दुःखना-भोगना भाव निर्जरी जाय छे अने ते ज यथार्थमां निर्जरा छे. माटे सम्यग्द्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां निर्जरा ज थाय छे. जुओ, आ पंडित श्री जयचंदजीए भावार्थ कह्यो छे. पहेलांनी गाथामां ज्ञानीने द्रव्य निर्जरानुं कथन कह्युं हतुं अने आ गाथामां भावनिर्जरा कही छे, इति.
हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-
‘किल’ खरेखर ‘तत् सामर्थ्यं’ ते सामर्थ्य ‘ज्ञानस्य एव’ ज्ञाननुं ज छे ‘वा’ अथवा ‘विरागस्य एव’ विरागनुं ज छे ‘यत्’ के ‘कः अपि’ कोई (सम्यग्द्रष्टि जीव) ‘कर्म–भुज्जानः अपि’ कर्मने भोगवतो छतो ‘कर्मभिः न बध्यते’ कर्मोथी बंधातो नथी!
शुं कहे छे? के सम्यग्द्रष्टि जीव कर्मने भोगवतो होवा छतां कर्मोथी बंधातो नथी! भारे अचरजनी वात! पण एम ज छे. अहाहा...! ज्ञानीने अंतरमां जे शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्माना आश्रये ज्ञान अने वैराग्य प्रगट थयां छे तेनुं कोई एवुं आश्चर्यकारी अद्भुत सामर्थ्य छे के ज्ञानी कर्मने भोगवतो होवा छतां तेमां मोहभावने पामतो नथी अने तेथी जेने नवां कर्म बंधातां नथी. अहीं ज्ञान एटले क्षयोपशम ज्ञाननी वात नथी, अने वैराग्य एटले स्त्री-कुटुंब परिवारने छोडीने वैरागी थई जाय ए वैराग्यनी वात नथी. ज्ञान एटले त्रिकाळी शुद्ध पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पूरणस्वरूप जे आत्मा तेनुं ज्ञान अने वैराग्य कहेतां जेमां अशुद्धतानो- रागनो अभाव थयो छे ते वैराग्य. समकितीने आवां ज्ञान-वैराग्यनी आश्चर्यकारी शक्ति प्रगट थई होय छे जेना कारणे ते कर्मने भोगववा छतां कर्मथी बंधातो नथी.
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जेम कमळाना रोग उपर कडवी औषधि आपे छे पण ते औषधिनो रोगीने प्रेम नथी तेम ज्ञानीने कमजोरीना कारणे भोगना परिणाम आवे छे अने तेनुं एने वेदन होय छे पण एमां तेने रस-रुचि नथी, तेनो एने स्वामीपणानो भाव नथी अने तेथी ते कर्मने भोगवतो छतो पण नवां कर्मोथी बंधातो नथी. एने प्रगट थयेलां ज्ञान- वैराग्यनुं एवुं ज अद्भुत सामर्थ्य छे. अज्ञानीने ते आश्चर्य उपजावे छे, ज्यारे ज्ञानी तेने यथार्थ जाणे छे.
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अथ ज्ञानसामर्थ्य दर्शयति–
जह विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि। पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि णेव बज्झदे णाणी।। १९५।।
पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुङ्क्ते नैव बध्यते ज्ञानी।। १९५।।
हवे ज्ञाननुं सामर्थ्य बतावे छेः-
त्यम कर्मउदयो भोगवे पण ज्ञानी बंधातो नथी. १९प.
गाथार्थः– [यथा] जेम [वैद्यः पुरुषः] वैद्य पुरुष [विषम् उपभुञ्जानः] विषने भोगवतो अर्थात् खातो छतो [मरणम् न उपयाति] मरण पामतो नथी, [तथा] तेम [ज्ञानी] ज्ञानी [पुद्गलकर्मणः] पुद्गलकर्मना [उदयं] उदयने [भुङ्क्ते] भोगवे छे तोपण [न एव बध्यते] बंधातो नथी.
टीकाः– जेम कोइ विषवैद्य, बीजाओना मरणनुं कारण जे विष तेने भोगवतो छतो पण, अमोघ (रामबाण) विद्याना सामर्थ्य वडे विषनी शक्ति रोकाइ गई होवाथी, मरतो नथी, तेम अज्ञानीओने रागादिभावोना सद्भावथी बंधनुं कारण जे पुद्गलकर्मनो उदय तेने ज्ञानी भोगवतो छतो पण, अमोघ ज्ञानना सामर्थ्य द्वारा रागादिभावोनोे अभाव होतां (-होइने) कर्मोदयनी शक्ति रोकाइ गइ होवाथी, बंधातो नथी.
भावार्थः– जेम वैद्य मंत्र, तंत्र, औषद्य आदि पोतानी विद्याना सामर्थ्यथी विषना मरण करवानी शक्तिनो अभाव करे छे तेथी विष खावा छतां तेनुं मरण थतुं नथी, तेम ज्ञानीने ज्ञाननुं सामर्थ्य एवुं छे के कर्मोदयनी बंध करवानी शक्तिनो अभाव करे छे अने तेथी कर्मना उदयने भोगववा छतां ज्ञानीने आगामी कर्मबंध थतो नथी. आ प्रमाणे सम्यग्ज्ञाननुं सामर्थ्य कह्युं.
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हवे ज्ञाननुं सामर्थ्य बतावे छेः-
‘जेम कोई विषवैद्य, बीजाओना मरणनुं कारण जे विष तेने भोगवतो छतो पण, अमोघ (रामबाण) विद्याना सामर्थ्य वडे विषनी शक्ति रोकाई गई होवाथी, मरतो नथी,...’
जुओ, शुं कह्युं? के विष छे ते सामान्यपणे बीजाओना मरणनुं ज कारण छे अर्थात् जे विषनुं सेवन करे ते अवश्य मरणने शरण थाय. परंतु विषवैद्य छे ते विष खाय छतां मरतो नथी. केम? तो कहे छे के तेनी पासे अमोघ विद्यानुं सामर्थ्य छे जे वडे विषनी शक्ति रोकाई-हणाई जाय छे. झेर खाय छतां विषवैद्य मरे नहि केमके तेनी पासे झेरने मारवानी-हणवानी रामबाण-सफळ विद्यानी शक्ति होय छे. आ दाखलो कह्यो; हवे कहे छे-
‘तेम अज्ञानीओने रागादिभावोना सद्भावथी बंधनुं कारण जे पुद्गलकर्मनो उदय तेने ज्ञानी भोगवतो छतो पण, अमोघ ज्ञानना सामर्थ्य द्वारा रागादिभावोनो अभाव होतां (-होईने) कर्मोनी शक्ति रोकाई गई होवाथी, बंधातो नथी.’
जुओ, पुद्गलकर्मनो उदय अज्ञानीओने बंधनुं ज कारण छे केमके अज्ञानीओने रागद्वेषमोहना भावोनो सद्भाव छे. परंतु ज्ञानी कर्मना उदयने भोगवे छतां ते कर्मथी बंधातो नथी. केम? तो कहे छे के जेम वैद्यजन पासे विषनी शक्तिने रोकनारी अमोघ विद्या होय छे तेम ज्ञानीने कर्मोदयनी शक्तिने रोकनारुं अमोघ ज्ञाननुं सामर्थ्य होय छे. ज्ञानीने अंतर्ज्ञान-भेदज्ञान प्रगट थयुं छे ने? ते भेदज्ञानना कारणे तेने रागद्वेष-मोहना भावोनो सद्भाव नथी. ज्ञानीने कर्मोदयने भोगववामां उपादेयबुद्धि के सुखबुद्धि नथी. तेथी ते कर्मोदयने भोगवतो छतो कर्मथी बंधातो नथी.
जेने भोगनो अभिप्राय छे ए तो अज्ञानी छे अने ते भोग भोगवतां नियमथी बंधाय छे केमके तेने रागद्वेषमोहनो सद्भाव छे. अहीं तो जेने भोगनो अभिप्राय नथी एवो ज्ञानी कर्मोदयने भोगवतां, तेने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी बंधातो नथी -एम कहे छे. भोग भोगवे तोय बंध न थाय एम अहीं सिद्ध नथी करवुं; अहीं तो ज्ञानीना ज्ञाननुं सामर्थ्यविशेष सिद्ध करवुं छे. जो भोग भोगववाथी बंध न थाय एम होय तो तो भोगने छोडीने मुनिपणुं लेवानी शी जरूर? (कांई जरूर न रहे). भाई! भोगववानो भाव तो अशुभभाव छे अने ते बंधनुं ज कारण छे. ज्यां शुभभाव पण बंधनुं कारण छे त्यां अशुभभाव अबंधनुं-निर्जरानुं कारण केम होय?
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तो अहीं कह्युं छे ने? हा, पण ए तो ज्ञानीने भोगनी रुचि नथी पण अंदर भगवान आत्माना आश्रये उत्पन्न निर्मळ आनंदनी रुचि जामी गई छे तेथी एम कह्युं छे. ज्ञानीने रागनी रुचिनो अभाव अने स्वरूपनी रुचिनो सद्भाव थयो छे अने ते कारणे तेने बंधनी शक्ति रोकाई गई छे. तेथी कह्युं के ज्ञानी कर्मोदयने भोगवतो छतो, रागादिनो अभाव होवाथी कर्मोथी बंधातो नथी. समजाणुं कांई...?
‘जेम वैद्य मंत्र, तंत्र, औषध आदि पोतानी विद्याना सामर्थ्यथी विषनी मरण करवानी शक्तिनो अभाव करे छे तेथी विष खावा छतां तेनुं मरण थतुं नथी, तेम ज्ञानीने ज्ञाननुं सामर्थ्य एवुं छे के कर्मोदयनी बंध करवानी शक्तिनो अभाव करे छे अने तेथी कर्मना उदयने भोगववा छतां ज्ञानीने आगामी कर्मबंध थतो नथी.’
अहाहा...! जुओ, आ केवुं द्रष्टांत आप्युं छे! कहे छे-वैद्य पोताना मंत्र, तंत्र आदि सिद्धिओना सामर्थ्य वडे झेरमां रहेली मरण नीपजाववानी शक्तिनो नाश करे छे, अने तेथी झेर खावा छतां तेनुं मरण थतुं नथी. आथी एम न समजवुं के झेर खावाथी हरकोईने मरण न थाय, आ तो वैद्यने जे शक्तिविशेष प्रगट थई छे एनो प्रभाव अहीं दर्शाव्यो छे. तेम ज्ञानीने अंतर्द्रष्टि वडे एवी ज्ञाननी शक्ति-विशेष प्रगट थई छे के कर्मोदयनी नवीन बंध करवानी शक्तिनो ते अभाव करी दे छे. ज्ञानीने भोग प्रति हेयबुद्धि छे जे वडे ते कर्मोदयनी बंध करवानी शक्तिनो नाश करे छे. तेथी कर्मना उदयने भोगववा छतां ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी नवीन कर्मबंध थतो नथी.
त्यारे कोई (अज्ञानीओ) कहे छे-जुओ! ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे! आवी निरंकुश भोगनी वात! गजब छे ने?
भाई! आ तो भगवान कुंदकुंदाचार्य आम कहे छे. आ कई अपेक्षाथी वात छे ते यथार्थ समजवी जोईए. शुं भोग करवो एवो एनो अर्थ (अभिप्राय) छे? ज्ञानीने भोगमां निर्जरा थाय छे ए तो बीजी अपेक्षाथी वात छे. ज्ञानीने भोगनो विकल्प आवे छे पण भोगमां तेने उपादेयबुद्धि नथी, भोगथी मने हित छे, सुख छे-एवी बुद्धि एने चाली गई छे. धर्मीने जे रागनी रुचि नथी, रागमां एकत्व नथी ते एने प्रगट थयेला ज्ञाननुं-भेदज्ञाननुं सामर्थ्य छे. अने ते ज्ञानना महा आश्चर्यकारी सामर्थ्य वडे ते कर्मोदयनी बंध करवानी शक्तिने हणी नाखे छे. मतलब के ज्ञानीने भोगमां उपादेयपणानी बुद्धि नहि होवाथी भोगनो भाव नवो बंध कर्या
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विना ज झरी जाय छे. ज्यारे अज्ञानी भोगना भावने उपादेयबुद्धिथी वेदे छे तेथी ते अवश्य नवीन कर्मथी बंधाय छे.
भाई! आ तो पकड-पकडमां फेर छे. बिलाडी पोताना बच्चाने पकडे अने उंदरने पकडे-ए बन्नेमां फेर छे. बच्चाने पकडे एमां रक्षानो भाव छे तो मोढुं पोचुं राखीने पडी न जाय तेम पकडे छे अने उंदरने पकडे एमां हिंसानो भाव छे तो भींस दईने त्यां ज मरी जाय एम पकडे छे. तेम अज्ञानीने रागमां उपादेयबुद्धि छे रागमां रुचि छे. रागमां ऊभेलो ते बंध करवानी शक्तिसहित छे, अने तेथी ते कर्मोदयने भोगवतां बंधाय ज छे. ज्यारे अतीन्द्रिय आनंदनो जेने स्वाद आव्यो छे एवा धर्मी जीवने रागना स्वादनी रुचि नथी बल्के तेने ते झेर जेवो लागे छे. ज्ञानीने राग होय छे खरो पण तेने ते हेयबुद्धिए होय छे. ज्ञानी रागने आदरणीय के कर्तव्य मानतो नथी पण जे राग छे तेने हेय माने छे. तेथी ते कर्मोदयने भोगवतां बंधातो नथी. भाई! आ बधो द्रष्टिनो फेर छे. द्रष्टि फेरे बंध ने द्रष्टि फेरे अबंध छे.
जुओ, ब्रह्म नाम निर्मळानंदस्वरूप प्रभु आत्मा; तेना आनंदनो जेने रंग लाग्यो छे तेने ब्रह्मचारी कहीए. आवा ब्रह्मचारीने विषयना रागनो स्वाद झेर जेवो दुःखमय लागे छे. काळो नाग देखीने जेम कोई दूर भागे तेम विकल्प ऊठतां ज्ञानीने थाय छे. आत्माना आनंदना स्वादनी आगळ तेने विषयभोगनो स्वाद फीको-फच लागे छे. ज्यारे अज्ञानीनी द्रष्टिमां फेर छे. ते रागने उपादेय माने छे, भलो- हितकारी माने छे. ते कारणे तेने कषाय शक्ति विद्यमान रहेती होवाथी बंध करवानी शक्ति तेवी ने तेवी ऊभी रहे छे. तेथी अज्ञानी भोग भोगवतां बंधाय ज छे. ज्ञानी, पोताने जे अंतरअनुभवना आनंदनो स्वाद आव्यो छे तेनी साथे रागना स्वादने मींढवे-मेळवे छे अने ते विषयना स्वादने विरस जाणी तत्काल फगावी दे छे अर्थात् तेमां हेयबुद्धिए परिणमे छे अने तेथी कषायशक्तिनो अभाव थतां (भोगना परिणाममां) जे बंध करवानी शक्ति हती ते उडी जाय छे. आ कारणे कर्मोदयने भोगवतां ज्ञानी बंधातो नथी. आवो धर्म! अने आवी वात!
भाई! जेने व्यवहारनी-रागनी रुचि छे तेने परम वीतरागस्वरूप भगवान आत्मानी अरुचि छे, तेने भगवान आत्मा प्रति द्वेष छे. कह्युं छे ने के-‘द्वेष अरोचक भाव’. अनाकुळ आनंदनो कंद प्रभु आत्मा छे. ते जेने रुचतो नथी ने राग रुचे छे तेने आत्मा प्रति अरुचि-द्वेष छे. अज्ञानीने मूळ आत्मानी रुचि नथी, दर्शनशुद्धि ज नथी अने बहारमां व्रत, तप आदि लईने बेसी जाय छे. परंतु भाई! सम्यग्दर्शन विना कषायशक्ति विद्यमान होवाथी ते बधां व्रत, तप फोगट-निरर्थक छे अर्थात् संसारमां रखडवा माटे ज सार्थक छे.
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समकितीने आत्मानी रुचि प्रगट थई छे; तेने रागनी रुचि नथी. कोई समकिती तीर्थंकर के चक्रवर्ती होय अने गृहस्थदशामां अनेक राणीओना वृंदमां रहेतो होय तो पण तेने भोगनी-रागनी अरुचि छे; आत्माना आनंदना रस आगळ ते रागना रस तेने विरस झेरमय लागे छे. तेथी भोगना परिणाम होवा छतां ते नवीन बंध कर्या विना ज निर्जरी जाय छे. माटे ज्ञानीना भोगने निर्जरानो हेतु कह्यो छे. भाई! भोगना परिणाम छे तो पापना ज परिणाम; पण ज्ञानीने तेमांथी रस-रुचि उडी गयां छे तेथी ते नवो बंध करवा समर्थ नथी माटे तेने निर्जरानुं कारण कह्युं छे. वेदन वेदनमां फेर छे ने? अज्ञानीने भोगना-रागना वेदनमां तेना एकत्वनी चीकाश छे अने ज्ञानीने तेमां भिन्नपणानी अरुचिरूप फीकाश छे. तेथी अज्ञानी ते भावना कारणे बंधाय छे ज्यारे ज्ञानीने बंध विना ज ते भावनी निर्जरा ज थाय छे.
त्यारे कोई कहे छे-आना करतां तो सामायिक करवी, प्रतिक्रमण करवुं, पोसा करवा, उपवास करवा इत्यादि सहेलो-सट मार्ग छे; तेमां वळी वच्चे आ कयां आव्युं?
उत्तरः– बापु! ए बधी क्रियाओमां तुं धर्म माने छे पण धर्म तो बीजी चीज छे, भाई! धर्म तो वस्तुनो स्वभाव छे. ‘वथ्थुसहावो धम्मो’ वस्तुनो स्वभाव धर्म छे. अनंतगुणस्वरूपे एकस्वरूप प्रभु आत्मा धर्मी छे. तेना उपर ज्यां द्रष्टि पडी त्यां धर्मनुं पहेलुं पगथियुं जे सम्यग्दर्शन ते प्रगट थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां जे अनंता गुण छे ते बधाय एक अंशे समकितीने व्यक्त-प्रगट थई जाय छे. ‘सर्वगुणांश ते सम्यक्त्व’ एम श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे. वळी श्री टोडरमलजीए ‘रहस्यपूर्ण चिट्ठी’मां पण कह्युं छे के समकितीने चोथे गुणस्थाने ज्ञानादि गुणो एकदेश व्यक्त थया छे. भाई! रागनी क्रिया कांई धर्म नथी पण गुणोनी- सम्यग्दर्शनादिनी प्रगटता थवी ते धर्म छे.
जुओ! आकाशना प्रदेश अनंत-जेनो अंत न आवे एटला छे. भाई! तुं विचार करे तो खबर पडे के सर्वत्रव्यापी आकाशनो अंत कयां? जो अंत आवे तो पछी शुं? आकाश तो सर्व दिशाओमां अनंत अनंत अनंत विस्तरेलुं ज छे; तेनो कयांय अंत आवे ज नहि एवी ते चीज छे. हवे आकाशमां जेटला अनंत प्रदेश छे तेथी अनंत गुणा एक जीवमां गुण छे. आवो गुणी भगवान आत्मा जेनी द्रष्टि अने रुचिमां आव्यो तेने रागनो-क्षणिक विकृत दशानो-रस उडी जाय छे. तेथी तेना भोगने निर्जरानो हेतु कह्यो छे. ज्ञानीने जेटलो अल्प राग थयो छे तेटलो अल्प रस अने स्थिति तो बंधाय छे पण तेने अहीं गणतरीमां लीधो नथी. अल्प स्थिति ने रस जे बंधाय छे तेने गौण करीने ज्ञानीने बंध नथी एम कह्युं छे. आ प्रमाणे
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कर्मना उदयने भोगववा छतां ज्ञानीने आगामी-नवो कर्मबंध थतो नथी. जुओ, आ भगवाननी, संतोनी वाणी छे.
-आ प्रमाणे सम्यग्ज्ञाननुं सामर्थ्य कह्युं. सम्यग्ज्ञान कहेतां त्रिकाळी ध्रुव भगवान आत्मानुं ज्ञान. जे पर्यायमां परिपूर्ण आखी चीजनुं ज्ञान आवे छे तेने सम्यग्ज्ञान अर्थात् सत्-ज्ञान कहे छे अने आ ज्ञाननुं एवुं परम अद्भुत सामर्थ्य छे के रागने भोगवतो छतो ज्ञानी, तेनां रस-रुचि नहि होवाथी, बंधातो नथी.
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अथ वैराग्यसामर्थ्य दर्शयति–
स्वं फलं विषयसेवनस्य ना।
ज्ञानवैभवविरागताबलात्
सेवकोऽपि तदसावसेवकः।। १३५।।
हवे वैराग्यनुं सामर्थ्य बतावे छेः-
गाथार्थः– [यथा] जेम [पुरुषः] कोई पुरुष [मद्यं] मदिराने [अरतिभावेन] अरतिभावे (अप्रीतिथी) [पिबन्] पीतो थको [न माद्यति] मत्त थतो नथी, [तथा एव] तेवी ज रीते [ज्ञानी अपि] ज्ञानी पण [द्रव्योपभोगे] द्रव्यना उपभोग प्रत्ये [अरतः] अरत (अर्थात् वैराग्यभावे) वर्ततो थको [न बध्यते] (कर्मोथी) बंधातो नथी.
टीकाः–जेम कोइ पुरुष, मदिरा प्रत्ये जेने तीव्र अरतिभाव प्रवर्त्यो छे एवो वर्ततो थको, मदिराने पीतां छतां पण, तीव्र अरतिभावना सामर्थ्यने लीधे मत्त थतो नथी, तेम ज्ञानी पण, रागादिभावोना अभावथी सर्व द्रव्योना उपभोग प्रत्ये जेने तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्त्यो छे एवो वर्ततो थको, विषयोने भोगवतां छतां पण, तीव्र वैराग्यभावना सामर्थ्यने लीधे (कर्मोथी) बंधातो नथी.
भावार्थः–ए वैराग्यनुं सामर्थ्य छे के ज्ञानी विषयोने सेवतो छतो पण कर्मोथी बंधातो नथी.
हवे आ अर्थनुं अने आगळनी गाथाना अर्थनी सूचनानुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–[यत्] कारण के [ना] आ (ज्ञानी) पुरुष [विषयसेवने अपि]
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विषयोने सेवतो छतो पण [ज्ञानवैभव–विरागता–बलात्] ज्ञानवैभवना अने विरागताना बळथी [विषयसेवनस्य स्वं फलं] विषयसेवनना निजफळने (-रंजित परिणामने) [न अश्नुते] भोगवतो नथी-पामतो नथी, [तत्] तेथी [असौ] आ (पुरुष) [सेवकः अपि असेवकः] सेवक छतां असेवक छे (अर्थात् विषयोने सेवतां छतां नथी सेवतो).
भावार्थः–ज्ञान अने विरागतानुं एवुं कोई अचिंत्य सामर्थ्य छे के ज्ञानी इंद्रियोना विषयोने सेवतो होवा छतां तेने सेवनारो कही शकातो नथी, कारण के विषयसेवननुं फळ जे रंजित परिणाम तेने ज्ञानी भोगवतो नथी-पामतो नथी. १३प.
हवे वैराग्यनुं सामर्थ्य बतावे छेः- जोयुं? शुं कहे छे? के भगवान आत्मानी अंतर्द्रष्टि करतां जे ज्ञान प्रगट थयुं अने साथे अतीन्द्रिय आनंदनुं जे वेदन थयुं तेना सामर्थ्यने लीधे ज्ञानीने कर्मनो उदय बंध कर्या विना ज खरी जाय छे एम पहेलां अस्तिथी कह्युं. हवे वैराग्यनुं सामर्थ्य कहे छे. वैराग्य एटले कोई लुगडां फेरवी नाखे वा नग्न थई जाय ते वैराग्य एम नहि; पण अनादिथी रागमां-पुण्यना परिणाममां रक्त हतो ते एनाथी निवर्ततां विरक्त थयो ते वैराग्य छे. पोतानी पूर्ण अस्तिनी रुचि थतां ज्ञानी रागथी विरक्त थई जाय तेनुं नाम वैराग्य छे. आवा पुण्य-पापना भावथी विरक्तिरूप जे वैराग्य तेनुं सामर्थ्य बतावतां हवे गाथा कहे छेः-
‘जेम कोई पुरुष, मदिरा प्रत्ये जेने तीव्र अरतिभाव प्रवर्त्यो छे एवो वर्ततो थको, मदिराने पीतां छतां पण, तीव्र अरतिभावना सामर्थ्यने लीधे मत्त थतो नथी,...’
शुं कह्युं? के जो कोई पुरुषने मदिरा प्रति तीव्र अरतिभाव थयो छे अर्थात् अंशमात्र पण एमां रतिभाव वर्ततो नथी तो ते पुरुष मदिराने पीतां छतां पण मत्त थतो नथी. आ तो न्याय आपे छे हों के मदिराने पीतां छतां पण मत्त थतो नथी, बाकी मदिरा न पीवे ते मत्त-घेलो न थाय ए जुदी वात छे. अहीं तो मदिरा प्रति अत्यंत अरतिभाव छे ने? ए अरतिभावनुं सामर्थ्य छे के मदिरा पीवा छतां मूर्छाई जतो नथी, मत्त-गांडो-पागल थतो नथी एम कहे छे. मदिरामां जेने रस वा रतिभाव छे ते मदिराने लईने अवश्य गांडो थई जाय छे. परंतु जेने मदिरा प्रत्ये अत्यंत अरतिभाव छे ते मदिरा पीवा छतां तेने मद चडतो नथी, आ द्रष्टांत कह्युं, हवे कहे छे-
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‘तेम ज्ञानी पण, रागादिभावोना अभावथी सर्व द्रव्योना उपभोग प्रत्ये जेने तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्त्यो छे एवो वर्ततो थको, विषयोने भोगवतां छतां पण, तीव्र वैराग्यभावना सामर्थ्यने लीधे (कर्मोथी) बंधातो नथी.’
जुओ, जेनुं वीर्य शुद्ध आत्माना आनंदना अनुभवमां उल्लसित थयुं छे ते स्वरूपनो रसियो जीव ज्ञानी छे. ए ज्ञानीने स्वरूपना रसनी अधिकता आगळ रागनो रस ऊडी गयो छे. तेने रागमां रस नथी, उत्साह नथी, होंश नथी. तेथी जेम अरतिभावे मदिरा पीनारने मद चडतो नथी तेम सर्व द्रव्योना उपभोग प्रति जेने तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्ते छे तेवो ज्ञानी विषयोने भोगवतां छतां पण बंधातो नथी. ‘रागादिभावोना अभावथी’-एम कह्युं छे ने? मतलब के बीजो किंचित् राग भले होय पण तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी संबंधी राग ने रस तूटी गयो छे. अहाहा...! ज्ञानरस, परम अद्भुत वैराग्यरस जे अनंतकाळमां नहोतो ते ज्ञानीने प्रगट थयो छे. आत्माना आनंदरसनो रसियो ज्ञानी आत्मरसी थयो छे. तेथी तेने रागादिभावोनो अभाव छे, अर्थात् रागना रसनो अभाव छे. रसनी व्याख्या आवे छे ने के-ज्ञान कोई एक ज्ञेयमां तदाकार-एकाकार थई एमां लीन थई जाय एनुं नाम रस छे. (गाथा ३८ भावार्थ). ज्ञानी वीतरागरसनुं ढीम एवा आत्मामां एकाकार थई लीन थयो छे तेथी तेने रागनो रस नथी अने तेथी ते विषयोने भोगवतो छतो बंधातो नथी.
अहीं कहे छे-धर्मीने पण...; अहा! पण धर्मी कोने कहीए? अज्ञानी तो तप करे, उपवास करे, मंदिर बंधावे अने लोकोने शास्त्र संभळावे एटले माने के धर्मी थई गयो. ना हों; एम नथी. परनी साथे धर्मने कांई संबंध नथी. धर्मी तो तेने कहीए जेने स्वरूपना आनंदना रस आगळ रागनो रस उडी गयो छे, रागनो अभाव थयो छे, अहीं कहे छे-धर्मीने रागभावना अभावथी ‘सर्व द्रव्योना’ उपभोग प्रत्ये तीव्र वैराग्य होय छे. वजन अहीं आप्युं छे के सर्व द्रव्योना एटले कोई पण द्रव्य प्रत्ये धर्मीने तीव्र वैराग्य होय छे. अहाहा...! आनंदनो नाथ अमृतरसनो-शांतरसनो सागर प्रभु आत्मा ज्यां उछळ्यो त्यां पर्यायमां आनंदरसनो स्वाद आव्यो. ए स्वादनी आगळ इन्द्रना के चक्रवर्तीना भोग पण तुच्छ भासवा लाग्या अर्थात् एवा कोई पण भोग प्रत्ये तेने तीव्र वैराग्य थयो. जुओ, पाठमां ‘सर्व द्रव्यो’ लीधां छे ने! मतलब के स्वद्रव्यमां रस जाग्रत थतां सर्व परद्रव्योना उपभोगनो प्रेम उडी जाय छे. अहाहा...! एक कोर राम अने एक कोर गाम! जेम माता आडो खाटलो राखीने न्हाती होय अने पुत्र त्यां कदाच आवी चढे तो शुं तेनी नजर माता भणी जाय? अरे, ते माताना शरीरनी सामुं पण न जुए. तेम आत्माना आनंदनो स्वाद जेने आव्यो छे ते ज्ञानीने अन्य सर्वद्रव्योमांथी रस उडी गयो छे, एकना रस आगळ अन्य सर्वमांथी रस उडी गयो छे. घणुं आकरुं काम भाई! पण ज्ञानीने ते सहज होय छे. ए ज कहे छे के-
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ज्ञानीने-स्वद्रव्यना रसिक जीवने रागादिभावनो रस-सर्वद्रव्योना उपभोगनो रस उडी गयो होय छे अर्थात् सर्वद्रव्यो प्रति तेने तीव्र वैराग्यभाव प्रगट थयो होय छे. धर्मीने राग मरी गयो होय छे तेथी विषयोने भोगवतो छतो तीव्र वैराग्यभावना सामर्थ्यने लीधे ते कर्मोथी बंधातो नथी.
भावार्थः– ए वैराग्यनुं सामर्थ्य छे के ज्ञानी विषयोने सेवतो छतो पण कर्मोथी बंधातो नथी.
हवे आ अर्थनुं अने आगळनी गाथाना अर्थनी सूचनानुं काव्य कहे छेः-
‘यत्’ कारण के ‘ना’ आ (ज्ञानी) पुरुष ‘विषयसेवने अपि’ विषयोने सेवतो छतो पण ‘ज्ञानवैभव–विरागता–बलात्’ ज्ञानवैभवना अने विरागताना बळथी ‘विषयसेवनस्य स्वं फलं’ विषयसेवनना निजफळने (-रंजित परिणामने) ‘न अश्नुते’ भोगवतो नथी -पामतो नथी.
शुं कहे छे? के आ ज्ञानी पुरुष... , पुरुष एटले आत्मा, भले पछी ते देहथी स्त्री हो के पुरुष. देह कयां आत्मा छे? आ देह कांई आत्मा नथी. आत्मा तो देहथी भिन्न चैतन्यमय चीज छे. आवा आत्मानुं जेने अंतरमां भान थयुं छे ते ज्ञानी पुरुष छे. कोई बहु शास्त्र भण्यो होय माटे ते ज्ञानी छे एम नहि, पण आत्मानुं जेने ज्ञान थयुं छे ते ज्ञानी छे; अंदर ज्ञानानंदस्वभावी पोतानी पूरण चीज छे तेनो अंतःस्पर्श करीने जेणे अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव कर्यो अने पोतानी पूरण चीजनी प्रतीति करी ते ज्ञानी छे, समकिती छे, धर्मी छे. अहीं कहे छे-आवो ज्ञानी पुरुष विषयोने सेवतो छतो ज्ञानवैभवना अने विरागताना बळथी विषयसेवनना निजफळने भोगवतो नथी.
अहाहा...! शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानुं जेने अंदरमां भान थयुं ते ज्ञानीने ज्ञानवैभवनुं बळ होय छे. तेने अंदर शुद्ध चैतन्यनी प्रतीति अने अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थयां छे ने? ते एनो ज्ञानवैभव छे. वळी तेने सर्व परद्रव्यो प्रति उदासीनताना भावरूप विरागतानुं बळ होय छे. आ प्रमाणे ज्ञानवैभवना अने विरागताना बळथी ज्ञानी विषयोने सेवतो छतो विषयसेवनना निजफळने अर्थात् रंजित परिणामने भोगवतो नथी-पामतो नथी. निजफळ एटले विषयसेवननुं फळ शुं? तो कहे छे-रागथी रंजित परिणाम ते विषयसेवननुं फळ छे. ज्ञानी ते रागना परिणामने भोगवतो नथी केमके ते राग-अशुद्धता प्रति उदासीन छे अने पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्मानी अस्तिनुं तेने वेदन छे. आवी व्याख्या! अज्ञानीने कठण लागे एटले बूमो पाडे के-नवो धर्म काढयो छे, पण बापु! मार्ग तो अनादिथी आ ज छे.
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भाई! तुं अनादिथी दुःखना पंथे पडेलो छुं. राग अने निमित्त मारी चीज छे एम मानीने तुं मिथ्यात्वभावना सेवनमां अनादिथी पडेलो छुं; अने तेथी ८४ लाख योनिने स्पर्श करीने अनंत अनंतवार जन्म-मरण करी-करीने भवसिंधुमां डूबी रह्यो छुं. ते भवसिंधुने पार करवा भगवान! तुं निज चैतन्यसिंधुने जगाड. अहाहा...! नाथ! तुं चैतन्यसिंधु भगवान छो. ‘सुद्ध चेतनासिंधु हमारौ रूप है’ एम समयसार नाटकमां आवे छे ने? त्यां कह्युं छे के-
मोहकर्म मम नांहि नांहि, भ्रमकूप है,
सुद्ध चेतनासिंधु हमारो रूप है.”
संसारमां जेने विचिक्षण कहे छे ए तो बधा मूर्ख छे. एनी अहीं वात नथी. अहीं तो जेने आत्मानुभव प्रगट थयो छे ते समकिती धर्मीजीव विचिक्षण पुरुष छे एम वात छे. एवो धर्मी विचिक्षण पुरुष एम जाणे छे के-हुं सदाय एक छुं, ज्ञान अने आनंदना रसथी भरेलो छुं. आ रागादिभाव ते हुं नहि, ए तो भ्रमणानो कूवो छे. ते मारा स्वरूपमां कयां छे? नथी. शुद्ध चैतन्यनो दरियो ते मारुं रूप-स्वरूप छे. आम भवसिंधुने पार करवा ज्ञानी पुरुष पोताना स्वरूपने-शुद्ध-चेतनासिंधुने अवलंबे छे.
अहीं कहे छे-ज्यां द्रष्टिमां अने ज्ञानमां शुद्धचेतना मात्र वस्तु जणाई त्यां तेना अनाकुळ स्वाद आगळ, विषयसेवन करवा छतां विषयसेवननुं फळ जे रागरंजित परिणाम तेने ज्ञानी भोगवतो नथी, वेदतो नथी. केम? कारण के तेने ज्ञानवैभव अने विरागतानुं बळ प्रगट थयुं छे. आ बहारनी धूळनी (धन-संपत्तिनी) चमक देखाय ते वैभव नहि; ए तो बधी स्मशानना हाडकांना फोस्फरसनी चमक जेवी चमक छे. अज्ञानीओ तेमां आकर्षाय छे परंतु ज्ञानी पुरुषो तो एनाथी उदासीन रहे छे. ज्ञानीने तो अंदर स्वसंवेदनमां आनंदनो नाथ त्रिकाळी भगवान जणायो ते ज्ञान-वैभव छे. आवा ज्ञानवैभव अने विरागताना बळथी ज्ञानी विषयने सेवतो छतो तेना फळने- रंजित परिणामने पामतो नथी. सूक्ष्म वात छे, भाई!
अज्ञानीओ कहे छे-निमित्तथी आत्मामां कांईक (कार्य) थाय छे एम मानो तो साचुं. जुओ, शास्त्रमां, पण आवे छे के मोहनीय कर्मना निमित्तथी जीवने रागादि थाय छे.
समाधानः– भाई! निमित्तथी-कर्मथी आत्मामां कांई पण थतुं नथी. जीवमां जे कार्य थाय छे ते पोताथी थाय छे. निमित्तथी थाय छे एम जे शास्त्रमां आवे छे
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ए तो उपचार करीने कहेवामां आव्युं छे. तने एम लागे छे के ज्ञानावरणीयथी ज्ञान रोकाई गयुं छे, परंतु बापु! ज्ञानावरणीय तो जड छे अने तेनो उदय पण जड छे. जड आत्माने अडे नहि अने आत्मा-जडने अडे नहि तो पछी जड आत्माने शुं करे? ज्ञानने केम रोके? भाई! खरी वात तो एम छे के ज्यारे ज्ञाननी हीणी दशा स्वयं पोताना भावकर्मथी थाय छे त्यारे ज्ञानावरणीयने निमित्त कहेवामां आवे छे.
प्रश्नः– जो निमित्तथी कांई पण न थाय तो भगवानना दर्शनथी सारा-उज्ज्वळ परिणाम थाय छे ए वात उडी जाय छे.
उत्तरः– भाई! भगवानना दर्शनथी सारा-उज्ज्वळ परिणाम थाय छे एम छे ज नहि. ए तो जेने शुभ परिणाम थाय छे तेने निमित्तथी-भगवानना दर्शनथी थया एम (उपचारथी) कहेवाय छे. अन्यथा भगवाननी प्रतिमा पर तो ईयळ खाईने चकली पण बेसे छे. जो प्रतिमाजीथी शुभ परिणाम थता होय तो ते चकलीने पण थवा जोईए; पण एम छे नहि.
अहीं वात एम छे के-आत्माना आनंदना रसनो रसिक जे थयो ते ज्ञानीने ज्ञानवैभवनुं अने विरागतानुं पीठबळ छे. तेने हवे अन्यत्र कयांय रस उपजतो नथी. इन्द्रना के चक्रवर्तीना भोगमां पण ते रसविहीन उदासीन थई गयो छे. ‘तत्’ तेथी ‘असौ’ आ (पुरुष) ‘सेवकः अपि असेवकः’ सेवक छतां असेवक छे. शुद्ध चैतन्यना रसथी जे भींजायो ते त्यांथी खसतो नथी. तेथी आवो ज्ञानी पुरुष सेवतो छतां नहि सेवतो असेवक छे, केमके सेवननुं फळ न आव्युं.
त्यारे कोई वळी कहे छे-ज्ञानी परनुं करे तो छे पण ते अनासक्तिभावे करे छे. समाधानः– भाई! परनुं करवुं ए वात तो जैनशासनमां छे ज नहि पछी अनासकितथी करे छे ए वात कयां रही? ज्ञानी अनासकितभावे राग करे छे एम कहेवुं पण मिथ्या छे केमके ज्ञानीने रागनो रस ज नथी, तेने रागनुं स्वामित्व ज नथी. अहीं तो कहे छे के ज्ञानी रागने करतो ज नथी. परिणाममां कंईक नबळाई छे तो राग थई जाय छे पण तेनुं कर्तृत्व ते स्वीकारतो नथी. ए तो परिणमनमां जे राग थाय छे तेने (भिन्न) मात्र जाणे छे. भारे वातु! बापु! मारगडा वीतरागना साव जुदा छे.
भाई! आ जन्म-मरणनो अंत करवानो अवसर आव्यो छे. आ अवसरमां पण जो आ नहि समजे तो कयारे समजीश? जो ने, नाना नाना बाळकोने पण हार्टफेल थई जाय छे! एक आठ वर्षनो छोकरो निशाळनां पगथियां चडतो हतो त्यां तेने हार्टफेल थई गयुं. देह तो आवो छे बापु! ए तो जोतजोतामां छूटी जशे. पछी तारे कयां जावुं? गंभीर प्रश्न छे भाई! जो आनी समजण ना करी तो कयांय भवसमुद्रमां निगोदादिमां खोवाई जईश.
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अनासक्तिथी करवुं ए तो विपरीत वात छे. करवानो अभिप्राय तो मिथ्यात्व छे, अने करवुं अने अनासक्ति बे साथे रही शकतां नथी, होई शकतां नथी. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-ज्ञानी पुरुष सेवक छतां असेवक छे. मतलब के जे विषय-सेवननो भाव आव्यो छे ते आव्यो छे तेथी ज्ञानी सेवे छे पण एमां एने रस नथी माटे ते असेवक छे एम कह्युं छे. जेम कमळाना दर्दीने बहु दुर्गंध मारती दवा लेवी पडे छे पण एमां एने रस नथी तेम धर्मीने रागमां रस नथी. अज्ञानीने रागमां रस छे, रुचि छे, मीठाश छे. ज्यारे ज्ञानीने रागमां रस नथी, रुचि नथी, मीठाश नथी. माटे ज्ञानी सेवक छतां असेवक छे.
प्रश्नः– शुं ज्ञानी विषयोने सेववा छतां नथी सेवतो? आवी वात केम बेसे? आ तो आप ज्ञानीनो बचाव करो छो.
उत्तरः– बापु! एम नथी, भाई! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. जेम कोई माता ४० वर्षनी होय अने दीकरो २० वर्षनो होय तो शुं ते माताना शरीरना अंगोपांगने विकारथी जुए छे! ना. आंख तो शरीर पर पडे छे पण जेम भींतने जुए तेम तेने जुए छे. तेने रस तो मातानो-जनेतानो छे अने ते रसमां, जोवाना रागनो-विकारनो रस उडी गयो छे. आखी द्रष्टिमां ज फेर छे. तेम ज्ञानी धर्मात्मा परने देखतां छतां जाणे कांई देखतो ज नथी, सामान्य-सामान्य देखे छे. माटे धर्मीने विषयने सेवतो छतां असेवक कहेवामां आव्यो छे. तेने आत्माना आनंदना रस आगळ रागनो रस उडी गयो छे तेथी तेने सेवतो छतां असेवक कह्यो छे.
‘ज्ञान अने विरागतानुं एवुं कोई अचिंत्य सामर्थ्य छे के ज्ञानी इन्द्रियोना विषयोने सेवतो होवा छतां तेने सेवनारो कही शकातो नथी, कारण के विषयसेवननुं फळ जे रंजित परिणाम तेने ज्ञानी भोगवतो नथी-पामतो नथी.’
अहीं ज्ञान एटले आत्मज्ञान. व्यवहारनुं ज्ञान के शास्त्रनुं ज्ञान ते ज्ञान एम अहीं अर्थ नथी. चिद् ब्रह्मस्वरूप निज परमात्मद्रव्यने लक्ष करीने जे ज्ञान प्रगट थयुं ते आत्मज्ञाननी अहीं वात छे. अने विरागता एटले अशुद्धता तरफथी पाछा खसी जवुं. पोताना अस्तित्वनुं ज्ञान ते अस्ति अने अशुद्धताथी खसवुं ते नास्ति. अहीं कहे छे-आ ज्ञान अने विरागतानुं कोई अचिंत्य एटले अकल्प्य सामर्थ्य छे के ज्ञानी विषयोने सेवतो छतो सेवनारो कही शकातो नथी.
‘श्री निहालचंद सोगानी’ ए एक वार पोताना पुत्रोने कह्युं हतुं के-भाई! मारुं मन हवे बधेथी ऊठी गयुं छे. हवे मने कशामां-परद्रव्यमां रस रह्यो नथी.
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हुं पंगु (पांगळो) थई गयो छुं. मात्र शरीर नभाववा बे वखत भोजन आपजो. जगतना कोई कार्य प्रति मने उत्साह-रस नथी. जुओ, पोते लाखोपति हता, पण अंदरथी मन ऊठी गयुं हतुं. तेमने अहीं (सोनगढमां) आत्मज्ञान थयुं हतुं.
तेमणे घणां शास्त्रो वांचेलां, घणा बावा-जोगी अने जैनना साधुनो संग करेलो. पण शांति न मळी. पछी अहीं आव्या. तेमने आटलुं कह्युं के-भाई! राग-विकल्प अने आत्मा भिन्न भिन्न चीज छे. रागनी दिशा पर तरफनी छे अने आत्मस्वभाव अंतर्मुख छे. अंतर्मुख वाळतां आत्मस्वभाव प्राप्त थाय छे. बस! सांजथी सवार सुधी आना ज घोलनमां (रटणमां) सवार थता पहेलां समकित-आत्मानो अनुभव (वेदन) करीने ऊठी गया. एक रातमां सम्यग्दर्शन! पण ए तो पोताना अंतर्मुख पुरुषार्थथी थाय ने? ए कोई करी आपे एवुं थोडुं छे? भाई! जेनुं चित्त संसारथी उदास थई अंतर्मुख थाय तेनी दशा कोई अद्भुत अलौकिक थई जाय छे. ए ज कहे छे के-
ज्ञानी सेवतो होवा छतां तेने सेवनारो कही शकातो नथी केमके विषयसेवननुं फळ जे रंजित परिणाम तेने ज्ञानी भोगवतो नथी-पामतो नथी. रागनुं थवुं-रागरूपे परिणमवुं ए विषयसेवननुं फळ छे अने ज्ञानी ते रागना रसपणे परिणमतो नथी. माटे सेवतो छतो ते असेवक छे. आवी वात छे.
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अथैतदेव दर्शयति–
पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि।। १९७।।
हवे आ ज वातने प्रगट द्रष्टांतथी बतावे छेः-
प्रकरण तणी चेष्टा करे पण प्राकरण ज्यम नहि ठरे. १९७.
गाथार्थः– [कश्चित्] कोई तो [सेवमानः अपि] विषयोने सेवतो छतां [न सेवते] नथी सेवतो अने [असेवमानः अपि] कोई नहि सेवतो छतां [सेवकः] सेवनारो छे- [कस्य अपि] जेम कोई पुरुषने [प्रकरणचेष्टा] १प्रकरणनी चेष्टा (कोई कार्य संबंधी क्रिया) वर्ते छे [न च सः प्राकरणः इति भवति] तोपण ते २प्राकरणिक नथी.
टीकाः–जेम कोई पुरुष कोई प्रकरणनी क्रियामां प्रवर्ततो होवा छतां प्रकरणनुं स्वामीपणुं नहि होवाथी प्राकरणिक नथी अने बीजो पुरुष प्रकरणनी क्रियामां नहि प्रवर्ततो होवा छतां प्रकरणनुं स्वामीपणुं होवाथी प्राकरणिक छे, तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि पूर्वसंचित कर्मना उदयथी प्राप्त थयेला विषयोने सेवतो होवा छतां रागादिभावोना अभावने लीधे विषयसेवनना फळनुं स्वामीपणुं नहि होवाथी असेवक ज छे (अर्थात् सेवनारो नथी) अने मिथ्याद्रष्टि विषयोने नहि सेवतो होवा छतां रागादिभावोना सद्भावने लीधे विषयसेवनना फळनुं स्वामीपणुं होवाथी सेवक ज छे.
भावार्थः–कोई शेठे पोतानी दुकान पर कोईने नोकर राख्यो. दुकाननो बधो वेपारवणज-खरीदवुं, वेचवुं वगेरे सर्व कामकाज-नोकर करे छे तोपण ते वेपारी नथी कारण के ते वेपारनो अने वेपारना लाभ-नुकसाननो स्वामी नथी; ते तो मात्र नोकर छे, शेठनो कराव्यो बधुं कामकाज करे छे. जे शेठ छे ते वेपार संबंधी कांई कामकाज करतो नथी, घेर बेसी रहे छे तोपण ते वेपारनो अने वेपारना लाभ- _________________________________________________________________ १. प्रकरण = कार्य, २. प्राकरणिक = कार्य करनारो
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स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्तया।
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।। १३६।।
नुकसाननो धणी होवाथी तेज वेपारी छे. आ द्रष्टांत सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टि पर घटावी लेवुं. जेम नोकर वेपार करनारो नथी तेम सम्यग्द्रष्टि विषय सेवनारो नथी, अने जेम शेठ वेपार करनारो छे तेम मिथ्याद्रष्टि विषय सेवनारो छे.
हवे आगळनी गाथाओनी सूचनानुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [सम्यग्द्रष्टेः नियतं ज्ञान–वैराग्य–शक्तिः भवति] सम्यग्द्रष्टिने नियमथी ज्ञान अने वैराग्यनी शक्ति होय छे; [यस्मात्] कारण के [अयं] ते (सम्यग्द्रष्टि जीव) [स्व–अन्य–रूप–आप्ति–मुक्तया] स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो त्याग करवानी विधि वडे [स्वं वस्तुत्वं कलयितुम्] पोताना वस्तुत्वनो (यथार्थ स्वरूपनो) अभ्यास करवा माटे, [इदं स्वं च परं] ‘आ स्व छे (अर्थात् आत्मस्वरूप छे) अने आ पर छे’ [व्यतिकरम्] एवो भेद [तत्त्वतः] परमार्थे [ज्ञात्वा] जाणीने [स्वस्मिन् आस्ते] स्वमां रहे छे (-टके छे) अने [परात् रागयोगात्] परथी-रागना योगथी- [सर्वतः] सर्व प्रकारे [विरमति] विरमे छे. (आ रीत ज्ञानवैराग्यनी शक्ति विना होई शके नहि.) १३६.
हवे आ ज वातने प्रगट द्रष्टांतथी बतावे छेः-
‘जेम कोई पुरुष कोई प्रकरणनी क्रियामां प्रवर्ततो होवा छतां प्रकरणनुं स्वामीपणुं नहि होवाथी प्राकरणिक नथी अने बीजो पुरुष प्रकरणनी क्रियामां नहि प्रवर्ततो होवा छतां प्रकरणनुं स्वामीपणुं होवाथी प्राकरणिक छे,...’
शुं कह्युं आ? के जेम कोई छोकरानां लग्न होय अने तेना पिताए ते संबंधी कोई अन्य गृहस्थने काम सोंप्युं होय तो ते गृहस्थ ते काममां प्रवर्ते छे, छतां ते काममां ते गृहस्थने स्वामीपणुं नथी तेथी ते कामनो करनारो नथी, केम के ते गृहस्थ काम तो छोकराना पिता वती करे छे. ज्यारे छोकरानो पिता ते काममां प्रवर्ततो नथी छतां ते कामनो पोते स्वामी होवाथी ते काम तेनुं छे, ते कामनो ते करनारो छे.