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भगवान! तें आ शुं मांडयुं छे? पोताना एक ज्ञायकभावने भूली गयो ने बायडी-छोकरां मारां ने देव-गुरु मारा ने मने हितकारी एम मानवा लाग्यो? भाई! तुं आ ऊंधे रस्ते क्यां दोराई गयो? भाई! तारुं हित ताराथी थाय के परथी? परथी थाय एम तुं माने ते तारो मिथ्या अध्यवसाय छे ने तेना गर्भमां अनंत संसार छे. समजाणुं कांई...?
‘जाणवामां आवता पुद्गलना अध्यवसानथी पोताने पुद्गलरूप करे छे’
अहा! पोते जाणनार स्वरूपे छे तेने जाण्या विना, आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय धन संपत्ति, बाग-बंगला, हीरा-माणेक-मोती ईत्यादि अनेक प्रकारना पुद्गलोने जाणतां तेओ मारा छे, मने लाभदायी छे एम अध्यवसानथी जीव पोताने पुद्गलरूप करे छे. पुद्गलरूप थाय छे एम नहि, पण पोताने ते-रूप माने छे. हुं ज्ञायकस्वरूप छुं एम मानवाने बदले हुं शरीररूप छुं एम पोताने अज्ञानी माने छे.
जुओ, एक झवेरीने त्यां एक ठग आव्यो पंदर-वीस हजार लईने आव्यो ने कहे के माल लेवो छे. माल जोतां जोतां एक पचास हजारनो हीरो हतो ते झवेरीनी नजर चूकवीने दुकाननी पाट हती तेनी पाछळ संताडी दीधो; एम के फरीथी आवीने ते लई जईश. पछी फरीथी आवीने वीस हजारनो माल लईने पैसा गणी आप्या अने धीमेथी- चूपकीथी पेलो पचास हजारनो हीरो पाट पाछळथी काढीने लई गयो. आवी चालाकीओ करे ने मा-बापने खबर पडे तोय पाछा खुश थाय; एम के दीकरो कमाई लाव्यो छे. आम पुद्गलने पोताना मानीने अज्ञानी पोताने पुद्गल रूप करे छे. अहा! आ अध्यवसानना गर्भमां अनंता रागद्वेष भर्या छे भाई!
‘जाणवामां आवता लोकाकाशना अध्यवसानथी पोताने अलोकाकाशरूप करे छे.’
शुं कहे छे? के अज्ञानी, लोकना आकारनो विचार करतो जे विकल्प ऊठे तेमां एकत्वबुद्धि करे छे. आ प्रमाणे लोकाकाशना अध्यवसानथी ते पोताने लोकरूप करे छे ने अलोकाकाशना अध्यवसानथी पोताने अलोकरूप करे छे. आ प्रमाणे आत्मा मिथ्या अध्यवसानथी पोताने सर्वरूप करे छे.
अहा! अनंतकाळथी एणे ऊंधी गुलांट खाधी छे. पोते छे तो स्वरूपथी सकल ज्ञेय-ज्ञायक, तथापि पोताना स्वरूपने जाण्या विना, ते जे जे अन्यने जाणे छे ते सर्वरूप पोताने माने छे, अर्थात् ते सर्व मारां छे एम माने छे. अरे! आवी मिथ्या मान्यता वडे ते अनंतकाळथी संसारमां रखडे छे, केमके ते मिथ्या मान्यता बंधनुं ज कारण छे.
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‘आ अध्यवसान अज्ञानरूप छे तेथी तेने पोतानुं परमार्थस्वरूप न जाणवुं.’ शुं कीधुं? के आ हुं पर जीवने मारुं-जिवाडुं, बंधावुं-मूकावुं ईत्यादि जे परमां एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय छे ते अज्ञानरूप छे. अहा! जगतना अन्य पदार्थनी व्यवस्था हुं करी शकुं एवी मान्यता अज्ञानरूप छे. तेवी रीते पर मने मारे-जिवाडे ईत्यादि जे अध्यवसाय छे ते पण अज्ञानरूप छे. केमके परद्रव्यमां परद्रव्यनो प्रवेश ज नथी, परद्रव्यनुं परद्रव्य कांई करी शकतुं ज नथी आ मूळ वात छे.
तेथी, कहे छे, ते अध्यवसानने पोतानुं परमार्थस्वरूप एटले के वास्तविकस्वरूप न जाणवुं. अहाहा...! हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं, ने पर वस्तु ज्ञेय छे ए तो वास्तविक वस्तुस्वरूप छे. पण हुं परनुं करुं के परथी मारामां थाय ए कांई परमार्थस्वरूप नथी, वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप नथी. तो शुं छे? ए तो मिथ्या अध्यवसान छे. हवे कहे छे. -
‘ते अध्यवसानथी ज आत्मा पोताने अनेक अवस्थारूप करे छे अर्थात् तेमनामां पोतापणुं मानी प्रवर्ते छे.’
परद्रव्यनी क्रिया तो सतत एनाथी-ते द्रव्यथी थई ज रही छे; त्यां आ हुं करुं छुं एवा अध्यवसानथी आत्मा पोताने अनेक अवस्थारूप करे छे अर्थात् पोताने पररूप मानीने प्रवर्ते छे. तेनुं फळ चतुर्गतिरूप संसार छे.
हवे आ अर्थना कळशरूपे तथा आगळना कथननी सूचनिकारूपे काव्य कहे छेः-
‘विश्वात् विभक्तः अपि हि’ विश्वथी (समस्त द्रव्योथी) भिन्न होवा छतां ‘आत्मा’ आत्मा ‘यत्–प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति’ जेना प्रभावथी पोताने विश्वरूप करे छे ‘एषः अध्यवसायः’ एवो आ अध्यवसाय-
शुं कहे छे? के आत्मा, ज्ञप्तिमात्र जेनी एक स्वाभाविक क्रिया छे एवो ज्ञानानंदकंद प्रभु आखा विश्वथी भिन्न छे. अहाहा...! भगवान सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मा आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय, कुटुंब-परिवार ईत्यादि जगतना सर्व अन्यद्रव्यो अने एना गुण-पर्यायोथी भिन्न छे. आ दया, दान आदि भाव छे ए पण विश्वमां जाय छे हों. भगवान आत्मा दया, दान आदि भावथी भिन्न छे. ल्यो, आवी वात छे!
जगतना अनंता आत्मा ने अनंतानंत परमाणुओथी पोते विभक्त एटले जुदो होवा छतां कोई ने बाकी राख्या विना ए मारां छे ने हुं एनी क्रिया करुं एवा अध्यवसानथी जीव पोताने विश्वरूप-अनेकरूप करे छे. छे तो पोते सदा अखंड एक ज्ञायकरूप, पण मिथ्या अध्यवसानथी पोताने विश्वरूप करे छे. अहा! परने हुं
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मारुं-जिवाडुं ईत्यादि अनेक प्रकारे परनुं हुं करुं छुं एम परमां एकत्वबुद्धि करीने पोताने पररूप-विश्वरूप करे छे-ते मिथ्याद्रष्टि छे.
त्यारे कोई पंडितो वळी कहे छे-आत्मा परनुं न करे-न करी शके एम जे माने ते दिगंबर जैन नथी.
अरे भगवान! तुं शुं कहे छे आ? आभना थोभ जेवा महान दिगंबर आचार्य भगवान कुंदकुंदाचार्य आदि तो आ कहे छे के-परनी क्रिया हुं करुं एवो जेने अध्यवसाय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, अने एवा अध्यवसायथी रहित जे छे ते ज जैन छे, समकिती छे. भाई! तारी वातमां बहु फरक छे बापु! (जरा उंडाणमां जई संशोधन कर).
जुओ, आ शुं कहे छे? -के जेना प्रभावथी पोताने विश्वरूप करे छे एवो आ अध्यवसाय-’ मोह–एक–कन्दः’ के जेनुं मोह ज एक मूळ छे ते ‘येषां इह नास्ति’ जेमने नथी’ ते एव यतयः’ ते ज मुनिओ छे.
अहाहा...! पोतानो तो जगतना सर्व पदार्थोने कोईने पण बाकी राख्या विना जाणे एवो एक ज्ञायकभाव छे. परंतु तेने भूलीने कोईने बाकी राख्या विना ए सर्व पदार्थ मारा छे अने एने हुं करुं छुं एवो जे अध्यवसाय करे छे तेनुं मूळ एक मोह ज छे एम कहे छे. अहा! परमां एकत्वबुद्धिनो जे अध्यवसाय छे तेनुं मूळ एक मिथ्यात्व ज छे. आवो अध्यवसाय जेमने नथी तेओ ज मुनिओ छे. अहीं मुनिदशानी प्रधानताथी वात छे, बाकी समकितीने चोथे अने श्रावकने पांचमे गुणस्थाने पण आवो परनी एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय होतो नथी.
कोई लोको वळी कहे छे-ए (-श्री कानजीस्वामी) श्वेतांबर मान्यतावाळा छे. एम के पोते लुगडां पहेरे छे ने साधु नथी छतां साधु-गुरु मनावे छे. पोते वस्त्र पहेरे छे अने वस्त्ररहितने गुरु मानता नथी.
पण अमे साधु अर्थात् निर्ग्रंथगुरु क्यां छीए भाई? अमारी तो गृहस्थदशा छे. निर्ग्रंथगुरुनी, मुनिवरनी तो अद्भुत अलौकिक अंतरदशा होय छे. बहारमां वस्त्रथी नग्न ने अंतरमां रागथी नग्न जेमनी परिणति थई छे एवी अद्भुत दशा मुनिराजनी होय छे. परनुं भलुं-बुरुं करवानी बुद्धि जेमने नाश पामी छे अने जेमनी ज्ञाता- द्रष्टास्वभावनी परिणति प्रचुर आनंदरसथी उभराई छे एवा उपशमरसमां तरबोळ मुनिवरो होय छे. अहा! मोहग्रंथिनो जेमणे नाश कर्यो छे. एवा निर्ग्रंथ गुरु-साधु जन्म्या प्रमाणे रूपना धरनारा (यथाजातरूपधर) होय छे. अहो! धन्य ते मुनिदशा!
अहाहा... जेनो सहज एक ज्ञायकभाव छे एवा आत्मानो स्वने परने जाणवानो
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सहज एक स्वभाव छे. शुं कीधुं? के आत्मा स्व-परने जाणे ए एनो सहज स्वभाव छे. अहा! ते परने कारणे जाणे छे एम नहि तथा जाणवा सिवाय परनुं कांई करे छे एमेय नहि. झीणी वात छे प्रभु! नाटक समयसारमां आवे छे ने के-
अहाहा...! स्वपरने जाणवामात्र ज पोतानो स्वभाव छे तेने ग्रहण न करतां जाणवामां आवता आ देव मारा, आ गुरु मारा, आ मंदिर मारुं-एम परद्रव्यना अध्यवसाय वडे पोताने पररूप करे छे तेनुं मोह ज एक मूळ छे एम कहे छे. जेम धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे तेम आ परद्रव्यना अध्यवसायनुं मूळ एक मोह ज छे; अने ते अध्यवसाय जेमने नथी ते अंतरंगमां चारित्रना धरनारा मुनिवरो छे.
‘चारित्तं खलु धम्मो’ चारित्र छे ते धर्म छे, साक्षात् मोक्षनुं कारण छे. एम भगवाने कह्युं छे अने आ चारित्रनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. दंसणमूलोधम्मो’ एम छे के नहि? अहाहा...! जेमां स्व-परने जाणवाना सहज एक स्वभाववाळा आत्मानी परिपूर्ण प्रतीति वर्ते छे ते सम्यग्दर्शन ज धर्मनुं नाम चारित्रनुं मूळ छे. आवा चारित्रवंत मुनिवरोने एक मोह ज जेनुं मूळ छे एवो परद्रव्यनो-परद्रव्य मारुं अने हुं एने करुं एवो-अध्यवसान नथी एम कहे छे. ’ मोह–एक–कन्दः– एम कह्युं ने? मोह ज एक जेनुं मूळ छे एवुं आ अध्यवसान जेमने नथी तेओ सम्यग्दर्शन जेनुं मूळ छे एवा चारित्रना धरनारा, प्रचुर आनंदमां झूलनारा मुनिवरो छे. अहा! जेम धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे तेम अध्यवसाननुं मूळ मिथ्यादर्शन छे अने तेवुं अध्यवसान मुनिवरोने होतुं नथी. समजाणुं कांई......?
अहा! एवो अध्यवसाय के मोह ज एक जेनुं मूळ छे ते जेमने नथी ते ज मुनिओ छे. मुनिवरोने छ कायना जीवोनी रक्षानो विकल्प आवे छे ने? अहा! ‘हुं छ कायना जीवोनी रक्षा करुं’ एवो परना एकत्वनो अध्यवसाय जेमने नथी अने जे विकल्प आवे छे तेना जे स्वामी-कर्ता थता नथी तेओ मुनिओ छे एम कहे छे. अहा! जेओ शरीरादिनी क्रिया ने रागनी क्रियाने पोतानामां भेळवता नथी पण पोताथी पृथक् राखीने तेने पोतामां रहीने जे ज्ञातापणे जाणे छे एवी जेमनी दशा छे ते मुनिओ छे. अहीं उत्कृष्ट वात लेवी छे ने? तेथी आवो परद्रव्यनो अध्यवसाय जेने नथी तेओ मुनिओ छे के जे कर्मथी लेपाता नथी-एम अहीं कहे छे. समजाणुं कांई....?
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एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि। ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति।। २७०।।
ते अशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यन्ते।। २७०।।
आ अध्यवसाय जेमने नथी ते मुनिओ कर्मथी लेपाता नथी-एम हवे गाथामां कहे छेः-
ते मुनिवरो लेपाय नहि शुभ के अशुभ कर्मो वडे. २७०.
गाथार्थः– [एतानि] आ (पूर्वे कहेलां) [एवमादीनि] तथा आवा बीजा पण [अध्यवसानानि] अध्यवसान [येषाम्] जेमने [न सन्ति] नथी, [ते मुनयः] ते मुनिओ [अशुभेन] अशुभ [वा शुभेन] के शुभ [कर्मणा] कर्मथी [न लिप्यन्ते] लेपाता नथी.
टीकाः– आ जे त्रण प्रकारनां अध्यवसानो छे ते बधांय पोते अज्ञानादिरूप (अर्थात् अज्ञान, मिथ्यादर्शन अने अचारित्ररूप) होवाथी शुभाशुभ कर्मबंधनां निमित्त छे. ते विशेष समजाववामां आवे छेः- ‘हुं (पर जीवोने) हणुं छुं’ , इत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने, ज्ञानमयपणाने लीधे १सत्रूप २अहेतुक ३ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे एवा आत्मानो अने रागद्वेषना उदयमय एवी ४हनन आदि क्रियाओनो पविशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन (अश्रद्धान) होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे. [वळी ‘हुं नारक छुं’ इत्यादि जे अध्यवसान छे ते _________________________________________________________________ १. सत्रूप = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप. (आत्मा ज्ञानमय छे तेथी सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज तेनी
२. अहेतुक = जेनुं कोई कारण नथी एवी; अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज. ३. ज्ञप्ति = जाणवुं ते; जाणनक्रिया. (ज्ञप्तिक्रिया सत्रूप छे, अने सत्रूप होवाथी अहेतुक छे.) ४. हनन = हणवुं ते; हणवारूप क्रिया (हणवुं वगेरे क्रियाओ रागद्वेषना उदयमय छे.) प. विशेष= तफावत; भिन्न लक्षण.
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अध्यवसानवाळा जीवने पण, ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ज जेनो एक भाव छे एवा आत्मानो अने कर्मोदयजनित नारक आदि भावोनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे.) वळी ‘आ धर्मद्रव्य जणाय छे’ इत्यादि जे अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने पण, *ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा आत्मानो अने ज्ञेयमय एवां धर्मादिक रूपोनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे. माटे आ समस्त अध्यवसानो बंधनां ज निमित्त छे.
मात्र जेमने आ अध्यवसानो विद्यमान नथी ते ज कोईक (विरल) मुनिकुंजरो (मुनिवरो), सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे, सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ज जेनो एक भाव छे अने सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा भिन्न आत्माने (- सर्व अन्यद्रव्यभावोथी जुदा आत्माने) जाणता थका, सम्यक् प्रकारे देखता (श्रद्धता) थका अने अनुचरता थका, स्वच्छ अने स्वच्छंदपणे उदयमान (अर्थात् स्वाधीनपणे प्रकाशमान) एवी अमंद अंतर्ज्योतिने अज्ञानादिरूपपणानो अत्यंत अभाव होवाथी (अर्थात् अंतरंगमां प्रकाशती ज्ञानज्योति जरा पण अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप अने अचारित्ररूप नहि थती होवाथी) शुभ के अशुभ कर्मथी खरेखर लेपाता नथी.
भावार्थः– आ जे अध्यवसानो छे ते ‘हुं परने हणुं छुं’ ए प्रकारनां छे, ‘हुं नारक छुं’ ए प्रकारनां छे तथा ‘हुं परद्रव्यने जाणुं छुं’ ए प्रकारनां छे. तेओ, ज्यां सुधी आत्मानो ने रागादिकनो, आत्मानो ने नारकादि कर्मोदयजनित भावोनो तथा आत्मानो ने ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योनो भेद न जाण्यो होय, त्यां सुधी प्रवर्ते छे. तेओ भेदज्ञानना अभावने लीधे मिथ्याज्ञानरूप छे, मिथ्यादर्शनरूप छे अने मिथ्याचारित्ररूप छे; एम त्रण प्रकारे प्रवर्ते छे. ते अध्यवसानो जेमने नथी ते मुनिकुंजरो छे. तेओ आत्माने सम्यक् जाणे छे, सम्यक् श्रद्धे छे अने सम्यक् आचरे छे, तेथी अज्ञानना अभावथी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप थया थका कर्मोथी लेपाता नथी.
_________________________________________________________________ *आत्मा ज्ञानमय छे तेथी सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज तेनुं एक रूप छे.
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आ अध्यवसाय जेमने नथी ते मुनिओ कर्मथी लेपाता नथी-एम हवे गाथामां कहे छेः-
‘आ जे त्रण प्रकारनां अध्यवसानो छे ते बधांय पोते अज्ञानादिरूप (अर्थात् अज्ञान, मिथ्यादर्शन अने अचारित्ररूप) होवाथी शुभाशुभ कर्मबंधनां निमित्त छे.’
शुं कहे छे? के आ जे कांई परने मारुं-जिवाडुं ईत्यादिथी मांडीने हुं देव, हुं नारकी ईत्यादि ने आ बीजा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाशादि मारां-एम परने पोताना मानवारूप अध्यवसानो छे ते बधांय अज्ञानादिरूप होवाथी शुभाशुभ कर्मबंधनां निमित्त छे. परने जिवाडवानो के सुखी करवानो भाव शुभ छे अने मारवानो के दुःखी करवानो भाव अशुभ छे. पण ए बन्नेय एक सरखी रीते बंधनां ज कारण छे. अहा! पोते बधायनो जाणवारूप छे एने बदले बधांय मारां छे एम माने ते मान्यता बंधनुं कारण छे. आवी वात छे. हवे कहे छेः-
ते विशेष समजाववामां आवे छेः- ‘हुं पर जीवोने हणुं छुं-ईत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने, ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप, अहेतुक ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे एवा आत्मानो अने रागद्वेषना उदयमय एवी हनन आदि क्रियाओनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन (अश्रद्धान) होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे.
जुओ, भगवान आत्मा निर्मळानंदनो नाथ प्रभु सदा एक ज्ञानमय; ज्ञानवाळो एमेय नहि, पण एक ज्ञानमय अर्थात् ज्ञानरूप ज छे. एमां परनुं करवापणुं क्यां छे? नथी. अहीं कहे छे-ज्ञानमयपणाने लीधे सत् अहेतुक ज्ञप्ति ज एक एनी क्रिया छे. शुं कीधुं? भगवान आत्माने ज्ञप्ति ज एक क्रिया छे अने ते सत् ने अहेतुक छे. गजब वात छे भाई! आ वर्तमान जाणवारूप जे ज्ञप्तिक्रिया छे ते क्रिया पोते पोताथी सत् छे ने तेनुं कोई बीजुं कारण नथी. अहाहा...! आ निर्मळ निरुपचार रत्नत्रयनी-सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी जे क्रिया प्रगट थई ते स्वयं सत् छे, अने तेनुं बीजुं कोई कारण नथी; आ व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम छे एनाथी ए प्रगट थई छे एम नथी. व्यवहारथी निश्चय थाय एम कोई लोको कहे छे ने? ए अहीं आ ना पाडे छे, कहे छे के-ए निर्मळ रत्नत्रयनी क्रिया अहेतुक छे, अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय एनो वास्तविक हेतु नथी. समजाणुं कांई...?
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अहीं कहे छे-सत् अहेतुक ज्ञप्ति ज एक जेनी क्रिया छे तेवा आत्मानो अने रागद्वेषना उदयमय हनन आदि (मारवुं-जिवाडवुं, सुखी-दुःखी करवुं वगेरे) क्रियाओनो भेद नहि जाणवाने लीधे एने भिन्न आत्मानुं अज्ञान छे. शुं कीधुं? भगवान आत्मा ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे एवो प्रभु ज्ञायक छे; पण तेने नहि जाणतां जे रागद्वेषना उदयमय हननादि क्रियाओ थाय ते मारी पोतानी छे एम मानी परमां एकपणारूप जे अध्यवसान करे छे तेने शुद्ध ज्ञायक प्रभु आत्मानुं अज्ञान छे. तेथी ते अध्यवसान भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, प्रथम तो अज्ञान छे; भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी ते अध्यवसान मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी ते अचारित्र छे. ल्यो, आवी वात छे!
भगवाननी स्तुतिमां आवे छे ने के-
ने हैयुं आ फरी फरी प्रभु! ध्यान तारुं धरे छे;
आत्मा मारो प्रभु! तुज कने आववा उल्लसे छे,
आपो एवुं बळ हृदयमां माहरी आश ए छे.
जुओ, आ समकिती स्तुति करे छे. कहे छे-हे प्रभो! हुं आपनी पासे आववा मागुं छुं, अर्थात् अहीं अल्पज्ञदशामां हुं रहेवा मागतो नथी. अहाहा...! रागमां के परमां तो हुं न रहुं, पण आ अधुरी अल्पज्ञदशामां, जो के ते पोतानी-ज्ञप्ति ज्ञानक्रिया छे तोपण तेमां, केम रहुं? भगवान! हुं तो केवळज्ञाननी परिपूर्ण दशामां ज रहेवा मागुं छुं. जुओ, आ समकितीने कंईक अधूरी दशा छे ने तेमां कांईक राग छे ते तेने पोसातो नथी; ते तो पूरण दशाने ज झंखे छे. आवी वात छे.
अहाहा...! भगवान तुं कोण छो? तो कहे छे ज्ञप्ति ज एक जेनी क्रिया छे तेवो प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु तु आत्मा छो. तेमां वर्तमान रागरहित जे ज्ञाननी क्रिया, धर्मनी- मोक्षमार्गनी क्रिया थाय तेने, कोई बीजो हेतु नथी. आ व्यवहाररत्नत्रय कारण ने निश्चयरत्नत्रय कार्य एम छे नहि.
पण शास्त्रमां व्यवहारने निश्चयनुं साधन कह्युं छे ने? हा; पण बापु! ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे वात छे. भाई! भगवाननी वातु भगवाननी शैलीथी (स्याद्वाद शैलीथी) यथार्थ समजवी जोईए. कोई एकांते एम माने के आ व्रत पाळीये ने तपस्याओ करीए एटले धर्म थई जशे वा धर्मनुं कारण थशे तो एनी ए मान्यता वस्तुस्वरूपथी विरुद्ध होवाथी तद्दन जूठी-मिथ्या छे. भाई! आ पंचम आराना मुनिवरो-दिगंबर संतो के जेओ भगवान पासे जवा झंखी रह्या छे (- केवळज्ञानने बोलावी रह्या छे) तेओ पोकार करी कहे छे के-
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अमारी जे ज्ञप्तिक्रिया-धर्मनी क्रिया छे ते अहेतुक छे अर्थात् तेनुं कोई बीजुं (- व्यवहाररत्नत्रय के देव-गुरु आदि) कारण नथी. (एने कारण कहेवुं ते उपचार-मात्र छे).
अहाहा...! आत्मामां वर्तमान ज्ञप्तिक्रिया-धर्मनी क्रिया जे थई ते स्वतः सत् ने अहेतुक छे. एटले एमां एनुं तत्काल कारण द्रव्यने पण न लीधुं, पण एनो उत्पाद स्वतः उत्पादथी छे अने तत्कालीन पर्यायनी योग्यता ज तेनुं कारण छे. समजाणुं कांई...? (धर्मनी क्रियाने द्रव्यनो-भगवान त्रिकाळीनो-आश्रय छे ए बीजी वात छे, पण त्रिकाळी द्रव्य एनी उत्पत्तिनुं सीधुं कारण नथी.)
अहा! आवी ज्ञप्तिक्रिया धर्मनी क्रिया एक वीतरागस्वभावमय छे, ज्यारे हनन आदि क्रियाओ छे ते तो केवळ राग-द्वेषमय छे. हवे आ बेनी जुदाई-भेद नहि जाणवाने लीधे एने भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, परनी एकत्वबुद्धिरूप जे अध्यवसान छे ते अज्ञान छे. अहाहा...! हुं परनी दया पाळी शकुं ने परने दान दई शकुं एवो जे अध्यवसाय छे ते अज्ञानभाव छे.
हवे माणसने आवी वात धर्मनी अघरी पडे एटले ओली बहारनी क्रिया ‘पडिक्कम्मामि भंते...’ ईत्यादिमां राचे अने माने के थई गयुं सामायिक ने थई गयुं पडिकमण; पण धूळेय थयुं नथी सांभळने ए मारगडा तारा जुदा बापा! अंदर ज्ञप्तिक्रिया-धर्मनी क्रिया विना भगवान! चोरासीना अवतार करी करीने अनंतकाळथी तारा सोथा नीकळी गया छे. तने खबर नथी भाई! पण ए नरक-तिर्यंचादिनां दुःखो अत्यारे सांभरी आवे तो रूदन आवे अने रूवां ऊभां थई जाय एवुं छे. जुओने! आ वादिराज मुनि स्तुतिमां शुं कहे छे?
अहा! मुनिराज कहे छे-भगवान! हुं भूतकाळमां नरक अने पशुना जे अनंत अनंत भव थया तेना दुःखोने याद करुं छुं तो आयुधनी पेठे छातीमां घा वागे तेम थई आवे छे. अहा! अज्ञानी पैसा, आबरू ईत्यादि भूतकाळनी जहोजलालीने याद करीने रुवे छे ए तो आर्त्तध्यान होवाथी एकलुं पाप छे. पण आ तो जन्म-जन्ममां जे दुःख थयां ते याद आवतां भगवान! आयुध जेम छातीमां वागे तेम थई आवे छे एम कहीने मुनिराज वैराग्यनी भावना द्रढ करे छे. अहा! मुनिराज आम वैराग्यने द्रढ करीने स्वरूपमां अंतर्लीन थई जाय छे, ध्यानारूढ थई जाय छे. आ धर्मनी क्रिया छे.
आ वादिराज मुनिराजने शरीरे कोढ नीकळ्या हता. राजाना दरबारमां चर्चा थई के मुनिराजने कोढ छे. तो त्यां कोई श्रद्धाळु श्रावक हतो तेणे कह्युं के-अमारा मुनि नीरोगी छे, कोढ रहित छे. पछी तो ते श्रावक मुनिराज पासे आव्यो ने खूब
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नम्र थई निवेदन करवा लाग्यो के-महाराज! हुं तो राजा पासे कही आव्यो छुं के आपने कोढ नथी; पण हवे शुं? मुनिराज कहे-शांत था भाई! धीरो था.
पछी तो मुनिराजे भगवाननी स्तुति उपाडी के-नाथ! आपनो जन्म जे नगरीमां थाय ते नगरी सोनानी थई जाय, एना कांगरा मणिमयरत्नना थई जाय, अने आप ज्यां गर्भमां रह्या ते मातानुं पेट स्फटिक जेवुं निर्मळ स्वच्छ थई जाय, तो प्रभु! हुं आपने मारा अंतरमां पधरावुं ने आ शरीरमां कोढ रहे? आम स्तुति करीने कोढ दूर थई गयो, शरीर सुवर्णमय थई गयुं. भाई! ए शरीरनी अवस्था तो पुण्यनो योग हतो तो जे थवायोग्य हती ते थई. कोढ मटी गयो ए कांई भक्तिना कारणे मटी गयो एम नथी. भक्तिथी कोढ मटी गयो एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. ए आ वादिराज मुनि वैराग्यने द्रढ करतां कहे छे-प्रभु! चारगतिमां परिभ्रमण करतां अनंतकाळमां जे नरक-निगोदादिनां अपार अकथ्य दुःख वेठयां तेने याद करुं छुं तो छातीमां आयुधना घा वागे तेम थई आवे छे. अहा! आम वैराग्यने द्रढ करता थका मुनिराज उपयोगने स्वस्थ करी दे छे. जुओ, आ ज्ञाननी क्रिया-धर्मनी क्रिया छे. समजाणुं कांई...?
भाई! आ तो वखत जाय छे हों, मनुष्यभव चाल्यो जाय छे हों, एमां आ वीतराग सर्वज्ञदेवे शुद्ध ज्ञप्तिक्रिया ने हनन आदि क्रियानी भिन्नता बतावी छे ते जाणी लेवी जोईशे. अहा! ज्ञप्तिक्रिया तो निर्मळ निर्दोष ज्ञानस्वभावमय वीतरागी क्रिया छे अने हनन आदि क्रियाओ तो रागद्वेषमय मलिन दोषयुक्त छे. बन्ने क्रियाओ भिन्न छे. ज्यां हनन आदि क्रियानो भाव छे त्यां ज्ञप्तिक्रिया नथी अने ज्यां ज्ञप्तिक्रियानो भाव छे त्यां हनन आदि क्रियानो भाव नथी. एकनी बीजामां नास्ति छे. अहीं कहे छे-ज्ञप्ति ज एक जेनी क्रिया छे एवा आत्मानो अने हनन आदि क्रियाओनो जे विशेष-भेद छे ते नहि जाणवाने लीधे एने भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी जे हनन आदि क्रियानुं अध्यवसान छे ते अज्ञान छे.
अहा! ए अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे. जुओ, आ ज्ञाननी सामे अज्ञान नाख्युं. वळी ते अध्यवसान भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी मिथ्यादर्शन छे. परने मारुं- जिवाडुं, बंध-मोक्ष करावुं ईत्यादि एवो परनी एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय होवाथी ते मिथ्यादर्शन छे. अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी ते अध्यवसान अचारित्र छे. अहा! एकली रागनी क्रिया अनात्मक्रिया होवाथी अचारित्र छे, ते कांई भगवान आत्मानुं आचरण नथी.
अरेरे! एणे अनंतकाळमां पोतानी दया न करी! हुं कोण छुं? केवडो छुं? ने कई रीते छुं? -एम पोताने स्वरूपथी जाण्यो नहि. अरे भाई! जेवुं पोताना आत्मानुं
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स्वरूप छे तेवुं जाणवुं, मानवुं ने आचरवुं तेनुं नाम अहिंसा नाम स्वदया छे अने एथी विपरीत जाणवुं, मानवुं ने आचरवुं एनुं नाम हिंसा अर्थात् पोतानी अदया छे. हवे आवो मारग झीणो लागे, कठण लागे, एटले आ तो निश्चय छे. निश्चय छे एम कहीने टाळे अने विरोध करे पण भाई! ए तने खूब नुकशानकर्ता छे. भगवान! आ जाणवा- देखवानी, श्रद्धाननी ने निराकुळ आनंद ने शांतिनी पर्याय थाय ते तारी कर्तव्यरूप क्रिया छे. एने बदले रागनी क्रियाथी लाभ माने, रागनी क्रियाने कर्तव्य माने ए तो बापु! राग साथेना एकपणानुं अज्ञान छे, मिथ्यादर्शन छे अने आत्मानुं अनाचरण छे.
अहा! पर जीवोने (छकायना जीवोने) जिवाडवानी क्रिया वगेरेथी पोताने मोक्षमार्ग मानवो ए तो राग साथे एकत्वनी क्रियारूप अध्यवसान छे अने ते आत्मानुं अनाचरण छे. तेने आत्मानुं आचरण मानवुं ते मोह नाम मिथ्यादर्शन छे. अहो! आचार्य भगवंतोए कांई गजब काम कर्यां छे! रागभावने आत्मानो हणनार जाहेर करीने तेमणे वीतराग मारगने खुल्लो मूकी दीधो छे. अहीं कहे छे-आत्मानुं अनाचरण होवाथी राग साथे एकत्वनुं अध्यवसान अचारित्र छे. समजाणुं कांई...?
अहीं पहेलां ज्ञप्तिक्रिया-ज्ञाननी क्रिया एम पर्यायथी वात लीधी छे. पछी ज्ञायक- द्रव्य ने ज्ञानगुणनी वात लेशे. एम द्रव्य, गुण, पर्यायथी-त्रणेथी वातमां लेशे. संप्रदायमां तो पचीस-पचीस वर्षथी मुंडाव्युं होय तोय द्रव्य-गुण-पर्याय कोने कहेवाय एनी खबर न मळे. मात्र सामायिक, पडिकमण आदि बहारनी क्रिया करीने अमे धर्मी छीए मानता. कोई तो वळी एम कहेतो हतो के उत्पाद-व्यय तो वेदान्तमां होय, जैनमां नहि. आवुं ने आवुं! अरे भाई! जैन सिवाय बीजे क्यांय उत्पाद-व्ययनी वात नथी. वस्तु द्रव्य त्रिकाळी ध्रुव छे, ने एमां पर्यायनुं उत्पाद-व्ययरूप परिणमन थाय छे; त्यां पूर्वनी पर्यायनो व्यय, उत्तर नवी पर्यायनो उत्पाद ए द्रव्यनुं त्रिकाळी टकी रहेवुं-एम उत्पाद- व्यय-ध्रौव्य त्रणे थईने सत् नाम द्रव्य छे. भाई! आ वात जैन परमेश्वरना मार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी.
ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ज जेनो एक भाव छे एवा आत्मानो अने कर्मोदयजनित नारक आदि भावोनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे.’
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मोक्षनुं कारण छे. पण भाई! मनुष्यपणुं तो कर्मोदयजनित परनी अवस्था छे. ए तो ज्ञेय तरीके परचीज छे प्रभु! ए मनुष्यपणुं मने मळ्युं अने ते भलुं, लाभकारी छे एवो अध्यवसाय छे ते, कहे छे के, अज्ञान छे. आ हुं नारकी छुं, ढोर छुं, मनुष्य छुं, देव छुं- एवो जे अध्यवसाय छे ते अज्ञान छे.
छे ते कर्मोदयजनित भावो साथे भगवान ज्ञायकस्वभावी आत्मानुं एकपणुं करती होवाथी अज्ञान छे. भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु सदा एक ज्ञायकभावस्वरूप ज छे. एमां नर, नारकादि भावो क्यां छे? नथी. तथापि हुं मनुष्य छुं, तिर्यंच छुं ईत्यादि एवो जेने अध्यवसाय छे तेने, भगवान ज्ञायकनुं अने कर्मोदयजनित नर-नारकादि भावोनुं भिन्नपणुं नहि जाणवाथी, ते अध्यवसान अज्ञान छे. ल्यो, आवी वात! जन्म-मरणना फेरा टाळवानो मारग बहु जुदो छे बापा!
नामकर्मना उदयना निमित्ते जीवनी जे अवस्थाविशेष-भावविशेष छे ते मनुष्यपणुं छे. अहा! ते उदयजनित परवस्तु छे, अने आत्मा तो त्रिकाळी एक ज्ञायकभावरूप छे. आमा बे वस्तु भिन्न छे. ए बन्नेनी भिन्नता नहि जाणवाने लीधे हुं मनुष्यादि छुं एवुं अध्यवसान करे ते अध्यवसान, भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी अज्ञान छे, वळी ते भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी मिथ्यादर्शन छे, अने ते भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी अचारित्र छे. अहा! जे भगवान ज्ञायकनो ने मनुष्यादि गतिना भावोनो विशेष नथी जाणतो ते अज्ञानी, अश्रद्धावान ने अचारित्री छे. भाई! आ मनुष्यदेहथी कंईक करी लेवुं एवो जे देहना एकत्वनो अध्यवसाय छे ते अज्ञान, अदर्शन अने अचारित्र छे. समजाणुं कांई...?
आत्मानी तो एक ज्ञप्ति-ज्ञानक्रिया ज छे. एमां श्रद्धा आदि अनंतगुणनी क्रिया
भेगी आवी जाय छे. ज्ञाननी प्रधानताथी एने ज्ञप्ति कही छे. हवे एने बदले परने मारुं-जिवाडुं ईत्यादि अध्यवसान छे ते रागद्वेषमय विकार छे. हवे ए बन्नेनी भिन्नताने नथी जाणतो पण बन्नेने जे वडे एकरूप करे छे ते अध्यवसान अज्ञान छे, अदर्शन छे, अचारित्र छे.
नारकादि गतिना उदयभावोने एकपणे करे ते अध्यवसान अज्ञान छे, अदर्शन छे, अचारित्र छे. हुं देव छुं, हुं मनुष्य छुं- एम माने ते अज्ञान छे.
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चाली गया. हवे त्रीजो ज्ञानगुणनो बोलः-
जीवने पण, ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एकरूप छे एवा आत्मानो अने ज्ञेयमय एवां धर्मादिक रूपोनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे.’
अहेतुक स्वभाव छे, एनुं कोई बीजुं कारण छे एम नथी. स्वरूपथी ज आत्मा ज्ञानमय छे. आम ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा आत्मानो अने परज्ञेयरूप एवां जीव-पुद्गल, धर्म-अधर्म आदि द्रव्योनो भेद नहि जाणवाने लीधे, एने आ हुं अन्य जीव, धर्म, अधर्म आदिने जाणुं छुं एवो जे अध्यवसाय छे ते अज्ञान छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा अने ‘धर्मादिने हुं जाणुं छुं’ एवो अध्यवसाय ए बन्ने जुदी चीज छे. पण आ बन्नेने एक करे छे ते अज्ञान छे. बहु सरस अधिकार छे भाई!
अध्यवसानने बंधनुं कारण कह्युं छे पण परिणामने नहि.
कहो, बोधनमात्रपणाथी बुद्धि कहो-ए बधाय शब्दो एकार्थ छे. हवे माणस सरखुं वांचेय नहि ने पोतानी मति-कल्पना दोडावे ते केम चाले? बापु! आ तो भगवान सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरनो मारग छे. ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदज्ञान न होय त्यां सुधी जीवने जे पोताना ने परना एकपणाना निश्चयरूप परिणाम वर्ते छे ते बधाय-के जे आ आठ बोलथी कह्या छे ते-निषिद्ध छे, केमके ते बंधनुं कारण छे. अहा! ते पर साथेनी एकत्वबुद्धिना सघळा परिणाम-अध्यवसाय अज्ञान छे, अदर्शन छे, अचारित्र छे ने बंधना कारणरूप छे.
अध्यवसाय थाय छे के- ‘परने हुं मारुं-जिवाडुं छुं, हुं मनुष्यादि छुं, ने हुं धर्मादिने जाणुं छुं.’ - ए निषिद्ध छे. पण एथीय विशेष आगळ कळशमां (कळश १७३ मां) कहेशे के -हुं एम मानुं छुं के जे पराश्रयभावरूप छे ते बधाय व्यवहारनो भगवाने निषेध कर्यो छे. मतलब के स्वाश्रय ते निश्चय ने पराश्रय ते व्यवहार. त्यां
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स्वाश्रयमां स्वनो अर्थ एकलुं शुद्ध द्रव्य लेवुं, पण द्रव्य-गुण-पर्याय एम त्रण नहि. ‘स्व’ एटले अनंतगुणमय अभेद एक त्रिकाळी आत्मद्रव्य; एनो आश्रय करवो ते ‘स्वाश्रितो निश्चयः’ छे. अहाहा...! एक स्वना आश्रये ज धर्म प्रगट थाय छे. अने राग, निमित्त ने भेदनो आश्रय करवो ते ‘पराश्रितो व्यवहारः’ छे. सद्भूत व्यवहार पण व्यवहार छे. गुण, पर्याय सद्भूत होवा छतां तेने व्यवहार गणीने तेना आलंबननो निषेध कर्यो छे. भाई! जेने धर्म करवो छे तेने एक स्वनो आश्रय लीधा विना बीजो कोई आरो नथी; स्वाश्रय विना त्रणकाळमां क्यांय धर्म थाय एम नथी. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवो आत्मा अने आ ज्ञेयपणे छे जे धर्मादि परद्रव्यो ते अत्यंत भिन्न छे. शुं कीधुं? के आ परज्ञेयपणे जणाता-अनंता परजीव, अनंता निगोदना जीव, अनंता सिद्धो, देव-गुरुनो आत्मा ईत्यादि अने शास्त्र आदि अनंता रजकणो, धर्म, अधर्म आदि द्रव्यो, अने ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवुं निज ज्ञानस्वरूप तद्दन भिन्न छे. अहा! भगवान ज्ञायकनो ज्ञानगुण स्वज्ञेय छे अने विश्वनां अनंतां बीजां द्रव्यो परज्ञेयस्वरूप एनाथी भिन्न छे. अहा! आवी स्वज्ञेय- परज्ञेयनी भिन्नता नहि जाणवाने लीधे अज्ञानी जे अध्यवसाय करे छे के हुं धर्मादिने जाणुं छुं ते अध्यवसाय प्रथम तो भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी मिथ्यादर्शन छे, ने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी अचारित्र छे. आवुं झीणुं बहु पडे एटले राडो पाडे के आ तो एकली निश्चयनी वात छे, पण भाई! निश्चयए ज सत्य छे. समजाणुं कांई...?
कोई लोको राडो पाडे छे के आ तो एकांत छे, एकांत छे पण भाई! अहीं एम कहेवुं छे के सम्यक् एकांत एवा निज ज्ञानस्वरूपमां ज ठर ने. भाई! तारे दुःखथी मुक्त थईने सुखी थवुं होय तो ए व्यवहारना आश्रयनी द्रष्टि छोडीने एक शुद्ध निश्चयमां द्रष्टि जोडी दे. अहा! अंदर निर्मळानंदनो नाथ ज्ञानानंदनो दरियो सदाय भगवान ज्ञानस्वरूपे रहेलो छे तेने भाळ्या विना आ बधा मोटा मोटा राजाओ, राजकुंवरो, शेठियाओ अने देवताओ दुःखी छे भाई! अंदर जे रीते भगवान ज्ञायक (द्रव्य), ज्ञानगुण ने ज्ञप्तिक्रियावाळो भगवान आत्मा छे तेने ते रीते मान्या विना सर्व संसारी जीवो दुःखी छे. माटे भगवान! तारी द्रष्टिने भगवान ज्ञायकमां जोडी दे.
अहाहा...! भगवान ज्ञायकभाव द्रव्य, ज्ञानगुण अने अनंतगुणनी निर्मळ पर्याय ज्ञप्तिक्रिया-ए पोतानुं स्व ने पोते एनो स्वामी छे. आ ज्ञाननी प्रधानताथी स्वज्ञेयनी वात छे. द्रष्टिनी प्रधानतामां तो जे एकनो आश्रय करवा योग्य छे, तथा जे एकमात्र ध्येय छे एवो त्रिकाळी ध्रुव अभेद एक शुद्ध निश्चयस्वरूप भगवान ज्ञायक ज मुख्य छे. अहा! जेमां गुणभेद के पर्यायनो प्रवेश नथी एवो भगवान ज्ञायक ज आनुं
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आश्रयस्थान छे. आवो मारग भगवान वीतरागनो छे तेने अत्यारे लोकोए रागथी रगदोळी दीधो छे. अहा! आवुं परम सत्य बहार आव्युं ते पोताने गोठतुं नहि होवाथी तेओ विरोधनो वंटोळ ऊभो करे छे. पण शुं थाय? (सत्य तो जेम छे तेम ज छे).
भगवान ज्ञायक भिन्न छे. ए परज्ञेयो बधा जणाय छे ए तो ज्ञाननुं पोतानुं सामर्थ्य छे. अहा! ए परज्ञेयोने जाणनारुं ज्ञान कांई परमां जतुं नथी (-पररूप थतुं नथी), अने परज्ञेयो जणाय छे ते कांई ज्ञानमां जता नथी. (ज्ञानरूप थता नथी). आ प्रमाणे ज्ञान, परज्ञेयोथी भिन्न ज छे. छतां ए परपदार्थो जाणवामां आव्या माटे ते मारा छे, के एनाथी मारुं ज्ञान छे एवी जे मान्यता छे ते, भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी अज्ञान छे, ते भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी मिथ्यादर्शन छे अने ते भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी अचारित्र छे.
आवे ते अज्ञान छे. भाई! अहा! पोतानुं तो स्व-परने जाणवाना स्वभाववाळुं सहज एक ज्ञान छे, त्यां परज्ञेय पोताना क्यांथी थई गया? स्व-परने जाणवाना स्वभावने कारणे पर जाणवामां (ज्ञानमां) आव्या एम कहेवाय, पण खरेखर पर कांई जाणवामां (ज्ञानमां) आव्या नथी, पण पोतानो स्व-परने जाणवानो स्वभाव ज अंदर जाणवामां आव्यो-प्रसर्यो छे. आम छे छतां परथी जाणपणुं आव्युं वा पर जाणवामां आवतां पर मारा थई गया एम कोई माने तो ते तेनुं अज्ञान छे, केमके तेने पोताना सहज एक ज्ञानस्वभावनी खबर नथी.
द्रव्य, ज्ञानस्वभाव ते एनो गुण अने तेनी वर्तमान जाणवा-देखवानी परिणति ते ज्ञप्तिक्रियारूप पर्याय. बस एटलामां एनुं अस्तित्व छे. अहाहा...! सत्द्रव्य, सत्गुण ने सत्पर्याय. ए पर्यायमां पर जे शरीर, मन, वाणी, राग ईत्यादि जाणवामां आवे तेने मारां माने ते अज्ञानी छे. अहाहा...! स्व-परने प्रकाशवाना बेहद स्वभाववाळो भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यअरिसो छे. पोताना आवा स्वरूपने भूलीने जे परज्ञेयो जणाय छे तेने पोताना माने छे ते अज्ञानी छे. आम आंधळे-आंधळो ए अनादिथी हाल्यो जाय छे. जैननो साधु थयो, बहारथी नग्न थईने रह्यो, तोय हुं कोण छुं? केवडो छुं? अने मारुं कर्तव्य शुं? -एना भान विना एणे एकली रागनी क्रियाओ कर्या करी; पण एथी शुं? अंदर पोतानी चिदानंदमय स्वरूपलक्ष्मीने भाळ्या विना (प्राप्त थया विना) ए रांक- बिचारो ज छे. शास्त्रमां आवा जीवोने ‘वराकाः’ – रांक-बिचारा ज कह्या छे.
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गुण अने एकमात्र ज्ञप्तिक्रिया पर्याय ते हुं आत्मा छुं. पण एथी विपरीत आ हुं मनुष्य, नारकी आदि छुं, आ धर्मादि द्रव्यो जणाय छे ते मारां छे अने हुं परने जिवाडुं-मारुं छुं ईत्यादि परनी क्रिया करी शकुं छुं-एवां जे अध्यवसान छे ते अज्ञान छे, अदर्शन छे, भगवान आत्मानां अनाचरणरूप अचारित्र छे. हवे कहे छे-
जोयुं? हुं मनुष्य छुं, हुं देव छुं एम जाणे, माने ने वर्ते तथा बीजानी दया करुं
ने बीजाने सुखी करी दउं एम परनी क्रियानो स्वामी थई प्रवर्ते ए बधुंय भगवान आत्मानुं अज्ञान, अदर्शन अने अनाचरण होवाथी बंधनुं निमित्त छे. ज्ञानमां धर्मादि पर चीजो जणाणी त्यां ते चीजो मारामां छे एम माने ते संसारमां रखडवा माटे छे. आ प्रमाणे अज्ञानीनी अवळी मान्यताना बोल कीधा. हवे ज्ञानीना सवळा कहे छे.
(मुनिवरो), सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे, सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ज एक जेनो भाव छे अने सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा भिन्न आत्माने (- सर्व अन्यद्रव्योथी जुदा आत्माने) जाणता थका, सम्यक् प्रकारे देखता (श्रद्धता) थका अने अनुसरता थका, स्वच्छ अने स्वच्छंदपणे उदयमान (अर्थात् स्वाधीनपणे प्रकाशमान) एवी अमंद अंतर्ज्योतिने अज्ञानादिरूपपणानो अत्यंत अभाव होवाथी शुभ के अशुभ कर्मथी खरेखर लेपाता नथी.’
अध्यवसानो विद्यमान नथी ते मुनिकुंजरो अर्थात् उत्तम मुनिवरो छे. अहा! तो ए धर्मात्मा-संतनी क्रिया कई? जुओ, देहनी क्रिया थाय अने व्रत, तप, दया, दान आदि रागनी क्रिया थाय ते एनी-धर्मात्मानी क्रिया नहि. एनी तो सत्रूप अहेतुक एक ज्ञप्ति ज क्रिया छे. आ जाणवा-देखवानी, श्रद्धवानी अने अंतरमां ठरवानी क्रिया ए ज एक एनी स्वाभाविक क्रिया छे.
आत्मा प्रज्ञाब्रह्म प्रभु एकला चैतन्यरस-ज्ञानरसनुं सत्त्व पोते एक ज्ञायकभाव स्वरूप छे- एम संतो अनुभवे छे. आमां बीजाने (-अज्ञानीने) थाय के शुं हशे आ? कोण जाणे क्यां हशे आवुं? आ बधुं-रूपाळो देह, धन-संपत्ति ने कुटुंब-परिवार ईत्यादि बहारमां देखे एटले एने मन ओ हो... हो... हो... थई जाय. पण भाई! ए तो बधी मसाणना फोस्फरसनी चमक छे बापा! क्यांय भस्म थई जशे. अरे! आ बधां मारां छे एम करीने एणे, पोते जीवती-जागती ज्ञानानंदज्योति छे तेने हणी नाखी छे. शुं कीधुं? हुं ज्ञानानंदस्वरूप छुं एम न मानतां हुं देहादिस्वरूप छुं अने ते वडे
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हुं सुखी छुं एम मानीने एणे पोतानुं वास्तविक आनंदमय जीवतर परमां ने रागमां रगदोळी नाख्युं छे, हणी नाख्युं छे.
जेम बहारमां बीजानुं जीवतर जेम छे तेम राखे तो एनुं जीवतर कहेवाय, ए जीवे छे एम कहेवाय, तेम अंदरमां पोते जेवो अखंड एक ज्ञानानंदस्वरूप छे तेवो पोताने माने अने अनुभवे त्यारे पोतानुं जीवतर कहेवाय. अहा! आवी तारा घरनी वात कहीने संतो तने जगाडे छे. अरे भगवान! तुं क्यां सूतो छुं? आ पुण्य-पापनां फळ बधां मारां एम मानीने तुं अज्ञानमां सूतो छुं प्रभु! जाग रे जाग नाथ! तुं तो अखंड एक ज्ञायकभावस्वभावे छुं तो स्वरूपमां जाग्रत थई तारा जीवतरनी रक्षा कर.
ल्यो, कोई ने थाय के आवो उपदेश! हवे कांईक दया पाळवानुं ने दान करवानुं कहे तो समजाय पण खरुं.
अरे भाई! हुं देहादिथी भिन्न अखंड एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छुं एम पोताने अंतरंगमां जाणवो, मानवो ने अनुभववो ए ज साचुं जीवन होवाथी साची दया छे अने एवुं जीवतर पोताने अर्पण करवुं ए ज साचुं दान छे. आ सिवाय बीजानी दया पाळवी अने बीजाने दान देवुं ए तो राग छे (जीवतर नहि), अने ते मारुं कर्तव्य छे एम माने ए तो मिथ्यात्व छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! भगवान! त्रणलोकनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु अखंड एक ज्ञायक- भावमात्र ज तुं आत्मा छो, ने ज्ञप्ति ज एक तारी क्रिया छे. गजब वात छे भाई! आ मुनिराजने पंचमहाव्रतना ने छकायना जीवनी रक्षाना विकल्प थाय ए कांई आत्मानी क्रिया नथी. आ शरीर हाले ने वाणी नीकळे ने शास्त्र लखवानी क्रिया थाय ए कांई एनी क्रिया नथी; ए तो जड माटी-धूळनी क्रिया छे. धर्मीने तो अंतरंगमां जाणवा- देखवारूप अने वीतरागी आनंदरूप जे निर्मळ परिणति थाय ते एनी क्रिया छे. अहा! केवी स्पष्ट चोकखी वात! के ज्ञप्ति ज एक एनी क्रिया छे; मतलब के भेगी बीजी रागनी (व्रतादिनी) क्रिया एनी छे एम नहि. अहो! आचार्य भगवंतोए जगतने न्याल करी दीधुं छे. भाई! आवी वात बीजे क्यांय मळे एम नथी.
अहा! धर्मी संत एने कहीए के जे ज्ञानमय वीतराग परिणतिए परिणम्यो होय. जे रागमय परिणतिए परिणमे अथवा रागनी ने शरीरनी क्रिया मारी छे एम माने ए तो अधर्मी छे. भाई! दया, दानना विकल्पो ए धर्मीनी क्रिया नहि. धर्मीने तो ज्ञायक ज एक भाव छे, ने ज्ञप्ति ज एक क्रिया छे. अहा! जेनां महाभाग्य होय तेने आवी त्रिलोकनाथनी वाणी काने पडे; अने जे अंतरमां हकार लावे तेनी तो शी वात! एनी तो हालत (-मोक्षदशा) ज थई जाय. समजाणुं कांई...?
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अहा! ‘सतरूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा...’ जोयुं? आ गुणनी वात लीधी. पहेली ज्ञप्तिक्रिया-धर्मनी क्रिया कही ए पर्याय लीधी, पछी एक ज्ञायकभावमात्र द्रव्यनी वात लीधी अने आ त्रीजो ज्ञानस्वभाव गुण लीधो. अहाहा...! धर्मीने एक ज्ञायक ज पोतानो भाव छे, एक ज्ञप्ति ज पोतानी क्रिया छे अने एक ज्ञान ज पोतानुं रूप छे. शुं कीधुं? ज्ञानमां अनंता ज्ञेय जणाय, पण ते ज्ञेय पोतानुं स्वरूप नथी, पण सर्व ज्ञेयोने जाणवानो जेनो स्वभाव छे ते ज्ञान ज एनुं रूप छे. ज्ञानमां ज्ञानीने शुभराग जणाय ते शुभराग तेनो नथी पण ते शुभरागने जाणनारुं ज्ञान ज एनुं एक रूप छे. ल्यो, आवी वात छे!
कोईने एम थाय के आवो मारग कयांथी नवो काढयो? अरे भाई! अनादिनो आ ज मारग छे. आ तो बे हजार वर्ष पहेलानुं आचार्य कुंदकुंदनुं बनावेलुं शास्त्र छे अने एना पर हजार वर्ष पहेलांनी आचार्य अमृतचंद्रनी टीका छे. बापु! आ तो अनंता केवळीओना पेटनी वात छे; आमां सोनगढनुं कांई नथी भाई! सोनगढथी तो एनुं स्पष्टीकरण थयुं छे, बस एटलुं.
अहाहा...! कहे छे-ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे, ज्ञायक ज एक जेनो भाव छे अने ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा भिन्न आत्माने (धर्मी पुरुषो, मुनिवरो) जाणता थका, देखता (श्रद्धता) थका अने अनुसरता थका स्वरूपमां स्थिर थाय छे. जुओ, आ मोक्षमार्ग अने आ धर्म! बाकी लुगडां काढी नाख्यां, बायडी छोडी दीधी ने शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळ्युं एटले माने के थई गयो धर्म, तो एमां धूळेय धर्म नथी, सांभळने. आ शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळे ए कांई धर्म नथी. अंदर ब्रह्म नाम निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा सदा सच्चिदानंदस्वरूपे विराजी रह्यो छे तेमां लीन थवुं, तेमां ज चरवुं एनुं नाम ब्रह्मचर्य छे. बापु! ब्रह्मचर्य ए तो आत्मानी रागरहित निर्मळ वीतरागी क्रिया छे अने एने धर्म कह्यो छे. समजाणुं कांई...?
पुण्य-पापना भाव तो भाई! मलिन-अस्वच्छ छे. शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भाव मलिन अस्वच्छ छे; ज्यारे भगवान आत्मा एक चैतन्यमूर्ति प्रभु अत्यंत स्वच्छ छे. तथा तेना आश्रये उदयमान निर्मळ रत्नत्रयना-श्रद्धान-ज्ञानने रमणताना परिणाम पण स्वच्छ छे. वळी ते स्वच्छंद पणे उदयमान छे. एटले शुं? के आत्मानी निर्मळ वीतराग परिणतिनी दशा स्वाधीनपणे प्रगट थई छे, पण एम नथी के व्यवहाररत्नत्रयना कारणे प्रगट थई छे. अहीं स्वच्छंद एटले निरर्गल-एम दोषरूप अर्थ नथी पण स्वच्छंद एटले स्वाधीन-एम गुणना अर्थमां छे. अहाहा...! निर्मळ रत्नत्रयनी वीतरागी परिणति स्वाधीनपणे उदयमान छे. मतलब के निर्मळ निश्चय रत्नत्रयने व्यवहाररत्नत्रयनी-रागनी अपेक्षा नथी. अहा! वस्तु आत्मा स्वच्छंद
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नाम स्वाधीन अने तेना आश्रये उत्पन्न निर्मळ श्रद्धान-ज्ञान-चारित्रनी परिणति पण स्वाधीन. आवी वात छे; समजाणुं कांई...?
अहाहा...! कहे छे-स्वच्छ अने स्वच्छंदपणे उदयमान एवी अमंद अंतर्ज्योतिने अज्ञानादिरूपपणानो अत्यंत अभाव होवाथी शुभ के अशुभ कर्मथी (मुनिवरो) खरेखर लेपाता नथी.
जोयुं? भगवान आत्मा अंतरमां झळहळ झळहळ अमंद नाम अति उग्र चैतन्यज्योति छे. अहाहा...! जाणग-जाणगस्वभावे अंतरमां अत्यंत प्रकाशमान चैतन्यसूर्य प्रभु आत्मा भिन्न विराजी रह्यो छे. तेमां अंतःपुरुषार्थ करतां भिन्न चैतन्यज्योति अंदर प्रकाशित-प्रगट थाय छे. अहीं कहे छे-आवी अंतरंगमां प्रकाशमान चैतन्यज्योति जरापण अज्ञानरूप, मिथ्यात्वरूप ने अचारित्ररूप नहि थती होवाथी मुनिवरो शुभ के अशुभ कर्मथी लेपाता नथी; अर्थात् मुनिवरोने शुभाशुभ बंधन होतुं नथी. आने बापा! मुनि कहेवाय. अहो! मुनिपणुं कोई असाधारण अलौकिक चीज छे! अरे! लोकोने बिचाराओने अंतरंग मुनिदशानी खबर नथी!
‘आ जे अध्यवसानो छे ते-हुं परने हणुं छुं ए प्रकारनां छे, हुं नारक छुं-ए प्रकारनां छे तथा हुं परद्रव्यने जाणुं छुं-ए प्रकारनां छे.’
जोयुं? १. हुं परने हणुं छुं-जिवाडुं छुं, परने दुःखी-सुखी करुं छुं वगेरे, २. हुं नारक-देव-मनुष्य-तिर्यंच छुं, तथा ३. हुं धर्मादि परद्रव्योने जाणुं छुं-एम त्रण प्रकारे अध्यवसानो होय छे. तेओ कयां सुधी होय छे? तो कहे छे- ‘तेओ ज्यां सुधी आत्मानो ने रागादिकनो, आत्मानो ने नारकादि कर्मोदयजनित भावोनो तथा आत्मानो ने ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योनो भेद न जाण्यो होय, त्यां सुधी प्रवर्ते छे.
केवां छे तेओ? ‘भेदज्ञानना अभावने लीधे मिथ्यात्वरूप छे, मिथ्यादर्शनरूप छे अने मिथ्याचारित्ररूप छे; एम त्रण प्रकारे प्रवर्ते छे.
ते अध्यवसानो जेमने नथी ते मुनिकुंजरो छे.’ अहाहा...! हुं परने जिवाडुं, सुखी करुं ईत्यादि अध्यवसान ज मुनिवरोने होता नथी; केमके परने कोण जिवाडी शके? कोण सुखी करी शके? वळी पर चीज
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मारी छे; आ गुरु मारा, आ शिष्य मारा, आ संघ मारो ईत्यादि अभिप्राय मुनिवरोने होतो ज नथी. आखुं जगत जेमां भिन्न ज्ञेयपणे भासे छे ते ज्ञान ज मारुं रूप छे एवुं निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान ने आचरण जेमने प्रगट छे ते मुनिकुंजरो छे.
‘तेओ आत्माने सम्यक् जाणे छे, सम्यक् श्रद्धे छे अने सम्यक् आचरे छे. तेथी अज्ञानना अभावथी सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप थया थका कर्मोथी लेपाता नथी.’
अहाहा...! मुनिवरो के जेमने मिथ्या अध्यवसान विद्यमान नथी तेओ कर्मोथी लेपाता नथी ज्यारे मिथ्या अध्यवसाय जेमने छे ते अवश्य कर्मोथी लेपाय छे. आवी वात छे.