Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 271-272 ; Kalash: 173.

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गाथा–२७१

किमेतदध्यवसानं नामेति चेत्–

बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं।
एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो।।
२७१।।
बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानम्।
एकार्थमेव सर्व चित्तं भावश्च परिणामः।।
२७१।।

“अध्यवसान शब्द वारंवार कहेता आव्या छो, ते अध्यवसान शुं छे? तेनुं स्वरूप बराबर समजवामां नथी आव्युं.” आम पूछवामां आवतां, हवे अध्यवसाननुं स्वरूप गाथामां कहे छेः-

बुद्धि, मति, व्यवसाय, अध्यवसान, वळी विज्ञान ने
परिणाम, चित्त ने भाव–शब्दो सर्व आ एकार्थ छे. २७१.

गाथार्थः– [बुद्धिः] बुद्धि, [व्यवसायः अपि च] व्यवसाय, [अध्यवसानं] अध्यवसान, [मतिः च] मति, [विज्ञानम्] विज्ञान, [चित्तं] चित्त, [भावः] भाव [च] अने [परिणामः] परिणाम- [सर्व] ए बधा [एकार्थम् एव] एकार्थ ज छे (-नाम, जुदां छे, अर्थ जुदा नथी).

टीकाः– स्व-परनो अविवेक होय (अर्थात् स्व-परनुं भेदज्ञान न होय) त्यारे जीवनी अध्यवसितिमात्र ते अध्यवसान छे; अने ते ज (अर्थात् जेने अध्यवसान कह्युं ते ज) बोधनमात्रपणाथी बुद्धि छे, व्यवसानमात्रपणाथी व्यवसाय छे, मननमात्रपणाथी मति छे, विज्ञप्तिमात्रपणाथी विज्ञान छे, चेतनामात्रपणाथी चित्त छे, चेतनना भवनमात्रपणाथी भाव छे, चेतनना परिणमनमात्रपणाथी परिणाम छे. (आ रीते आ बधाय शब्दो एकार्थ छे.)

भावार्थः– आ जे बुद्धि आदि आठ नामोथी कह्या ते बधाय चेतन आत्माना परिणाम छे. ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदज्ञान न होय त्यां सुधी जीवने जे पोताना _________________________________________________________________ १. अध्यवसिति = (एकमां बीजानी मान्यतापूर्वक) परिणति; (मिथ्या) निश्चिति; (खोटो) निश्चय

होवो ते.

र. व्यवसान = काममां लाग्या रहेवुं ते; उद्यमी होवुं ते; निश्चय होवो ते. ३. मनन = मानवुं ते; जाणवुं ते.


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(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै–
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः।
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्।। १७३।।

ने परना एकपणाना निश्चयरूप परिणति वर्ते छे तेने बुद्धि आदि आठ नामोथी कहेवामां आवे छे.

‘अध्यवसान त्यागवायोग्य कह्यां छे तेथी एम समजाय छे के व्यवहारनो त्याग कराव्यो छे अने निश्चयनुं ग्रहण कराव्युं छे’ -एवा अर्थनुं, आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– आचार्यदेव कहे छे केः- [सर्वत्र यद् अध्यवसानम्] सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे [अखिलं] ते बधाय (अध्यवसान) [जिनैः] जिन भगवानोए [एवम्] पूर्वोक्त रीते [त्याज्यं उक्तं] त्यागवायोग्य कह्यां छे [तत्] तेथी [मन्ये] अमे एम मानीए छीए के [अन्य–आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः] ‘पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे.’ [तत्] तो पछी, [अमी सन्तः] आ सत्पुरुषो [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य] एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामां (-आत्मस्वरूपमां) [धृतिम् किं न बध्नन्ति] स्थिरता केम धरता नथी?

भावार्थः– जिनेश्वरदेवे अन्य पदार्थोमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छोडाव्यां छे तेथी आ पराश्रित व्यवहार ज बधोय छोडाव्यो छे एम जाणवुं. माटे ‘शुद्धज्ञानस्वरूप पोताना आत्मामां स्थिरता राखो’ एवो शुद्धनिश्चयना ग्रहणनो उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. वळी, “जो भगवाने अध्यवसान छोडाव्यां छे तो हवे सत्पुरुषो निश्चयने निष्कंपपणे अंगीकार करी स्वरूपमां केम नथी ठरता-ए अमने अचरज छे” एम कहीने आचार्यदेवे आश्चर्य बताव्युं छे. १७३.

*
समयसार गाथा र७१ः मथाळुं

“अध्यवसान शब्द वारंवार कहेता आव्या छो. ते अध्यवसान शुं छे? तेनुं स्वरूप बराबर समजमां नथी आव्युं.” आम पूछवामां आवतां हवे अध्यवसाननुं स्वरूप गाथामां कहे छे.


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जेने अध्यवसान कहेवामां आव्युं छे तेने बराबर ओळखवा तेनां बीजां केटलांक प्रचलित नामो छे ते अहीं गाथामां कहे छे.

* गाथा र७१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘स्व-परनो अविवेक होय (अर्थात् स्व-परनुं भेदज्ञान न होय) त्यारे जीवनी अध्यवसितिमात्र ते अध्यवसान छे;...’

‘जुओ, शुं कह्युं? के अनंतगुणनो पिंड चैतन्यचिंतामणि एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु ते हुं स्व एम अनुभववाने बदले हुं परने मारुं-जिवाडुं दुःखी-सुखी करुं ईत्यादि माने, हुं नारकी, हुं मनुष्य ईत्यादि माने अने धर्मादि परद्रव्यो जणाय त्यां हुं धर्मादि परद्रव्योने जाणुं छुं, जाणनारो ते हुं स्व एम नहि, पण परद्रव्योने हुं जाणुं छुं एम परथी एकत्वबुद्धि करे ते स्व-परनो अविवेक छे. आवो स्व-परनो अविवेक होय त्यारे अर्थात् स्व-परनुं भेदज्ञान न होय त्यारे जीवनी अध्यवसितिमात्र अर्थात् जीवनी परमां पोतापणानी मान्यता-अभिप्राय ते अध्यवसान छे. आवुं अध्यवसान मिथ्यात्वरूप छे अने तेने अहीं आठ नामोथी ओळखावे छेः-

‘अने ते ज (अर्थात् जेने अध्यवसान कह्युं ते ज) बोधनमात्रपणाथी बुद्धि छे, व्यवसानमात्रपणाथी व्यवसाय छे, मननमात्रपणाथी मति छे, विज्ञप्तिमात्रपणाथी विज्ञान छे,...’

‘ल्यो, पर मारां ने परनुं हुं करी शकुं एम जाणवामात्रपणाथी अध्यवसानने बुद्धि पण कहे छे. व्यवसाय एटले आखो दि’ काममां-प्रवृत्तिमां लाग्यो रहे-आ बायडी-छोकरानुं करुं, ने धंधो करुं, ने कारखानुं चलावुं, ने देशनुं करुं-एम परमां उद्यमी थई लाग्यो रहे ते व्यवसाय बधो मिथ्या अध्यवसाय छे. आ बधुं परनुं कोण करे बापु! तने खबर नथी भाई! तुं तो एक ज्ञानानंदस्वरूप छो ने प्रभु! परने माटे तुं पांगळो छे ने! एने बदले परमां उद्यमी थईने आ करुं ने ते करुं एम कर्या करे छे ए ऊंधो व्यवसाय छे.

व्यवसाय एटले व्यापार-प्रवृत्ति, केटलाक लोको नथी कहेता? के हमणां अमने घणो व्यवसाय वधी गयो छे, व्यवसाय आडे नवराश नथी. कोई तो वळी कहे छे- मरवाय नवराश नथी. अरे भाई! मरण तो जोतजोतामां आवी पडशे अने त्यारे जेमां तने व्यवसाय आडे नवराश नथी ए बधुं पडयुं रहेशे. (तारे हाथ एमांनुं कांई नहि होय). आ जोता नथी पचीस-पचीस वरसना फुटडा जुवान-जोध चाल्या जाय छे? बापु! आ तारो व्यवसाय बधो विपरीत छे.

एने मननमात्रपणाथी मति कहे छे. पदार्थोने विपरीत जाणे-माने छे ने! तेथी


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अध्यवसानने मति शब्दथी पण कहेवामां आवे छे. मतिज्ञान ते आ नहि. आ तो जेमां विपरीत जाणवुं-मानवुं छे तेवा अध्यवसानने अहीं मति कह्युं छे.

वळी विज्ञप्तिमात्रपणाथी ते विज्ञान छे. जुओ, वीतरागविज्ञान ते आ नहि. आ तो विज्ञान एटले विरुद्ध ज्ञान एम वात छे. हुं परने मारुं-जिवाडुं, हुं नारकी-मनुष्य छुं, पर चीजो जणाय ते मारी छे-एवुं स्वरूपथी विरुध्ध ज्ञान छे ने? तेने अहीं विज्ञान शब्दथी कह्युं छे.

वळी, (ते ज अध्यवसान) ‘चेतनामात्रपणाथी चित्त छे, चेतनना भवन- मात्रपणाथी भाव छे, चेतनना परिणमनमात्रपणाथी परिणाम छे.’

चेतनना परिणाम छे ने? तेथी तेने चित्त पण कहे छे, भाव पण कहे छे ने परिणाम पण कहे छे. अहीं निर्मळ भाव-परिणामनी वात नथी. आ तो पर मारां ने परनी क्रिया हुं करुं-एवो मिथ्या अभिप्राय जेमां छे ए परिणामनी वात छे.

कोई लोको एम कहे छे के-अध्यवसानने ज बंधनुं कारण कह्युं छे, पण जिवाडवानो भाव ए बंधनुं कारण नथी.

अरे भाई! ज्यां सुधी स्वमां एकता थई नथी त्यां सुधी परमां एकत्वबुद्धि पडेली ज छे. तेथी परमां एकत्वबुद्धिसहित जे परिणाम-भाव छे ते बंधनुं ज कारण छे. अहा! तेने अध्यवसान कहो, भाव कहो, परिणाम कहो, बुद्धि कहो-बधुं एकार्थवाचक ज छे, समजाणुं कांई...?

भावार्थः– ‘आ जे बुद्धि आदि आठ नामोथी कह्या ते बधाय चेतन आत्माना परिणाम छे. ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदज्ञान न होय त्यां सुधी जीवने जे पोताना ने परना एकपणाना निश्चयरूप परिणति वर्ते छे तेने बुद्धि आदि आठ नामोथी कहेवामां आवे छे.’ आ भावार्थ कह्यो.

*

‘अध्यवसान त्यागवायोग्य कह्यां छे तेथी एम समजाय छे के व्यवहारनो त्याग कराव्यो छे अने निश्चयनुं ग्रहण कराव्युं छे’ -एवा अर्थनुं, आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-

* कळश १७३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

आचार्यदेव कहे छे केः- ‘सर्वत्र यद् अध्यवसानम्’ सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे ‘अखिलं’ ते बधांय ‘जिनैः’ जिन भगवानोए ‘एवम्’ पूर्वोक्त रीते ‘त्याज्यं उक्तं’ त्यागवायोग्य कह्यां छे.


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जुओ, आ आगळनी गाथानो उपोद्घात करे छे. कहे छे-सर्व वस्तुओमां एटले पोताना आत्मा सिवाय विश्वनी अनंती परवस्तुओमां जे एकत्वबुद्धि-अध्यवसान थाय छे ते सघळांय जिन भगवानोए-वीतराग सर्वज्ञदेवोए त्यागवायोग्य कह्यां छे. अहाहा...! परवस्तु चाहे शरीरादि परमाणुरूप हो, स्त्री-पुत्र-परिवार आदि हो, देव- गुरु-शास्त्र हो, साक्षात् अरिहंत परमात्मा हो; ते मारां छे अने हुं एनो छुं एवो एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय सघळोय भगवान जिनेश्वरदेवे छोडाव्यो छे. खूब गंभीर कळश छे भाई! आमां तो जैनदर्शननो मर्म भर्यो छे.

एक कोर पोते शुद्ध एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु स्व अने बीजी कोर विश्वनी समस्त वस्तुओ पर लीधी. अहाहा...! जगतनी आ सर्व वस्तु प्रत्येक भिन्न-भिन्न छे. तेमां (अज्ञानीने) एकत्वबुद्धिनो जे अध्यवसाय छे ते बधोय छोडवायोग्य छे एम जिन भगवंतोए कह्युं छे.

आ देह, मन, वाणी ईत्यादि जड माटी-धूळ छे, अने स्त्री-पुत्र-परिवार, देव- गुरु आदि भिन्न पर जीव छे, तथा धर्मास्तिकाय आदि अचेतन परद्रव्यो छे. तेमां पोतापणानो अध्यवसाय छे ते मिथ्यात्व छे; केमके पोतापणुं तो पोतानामां होय के परमां होय? परमां पोतापणुं कदीय होई शके नहि.

अहा! सर्वज्ञ परमात्मा इन्द्रो, मुनिवरो ने गणधरोनी उपस्थितिमां धर्मसभामां एम फरमावता हता के-पोताना आत्मा सिवाय जेटला कोई पदार्थो छे-तेमां हुं (- अरिहंत) पण आवी गयो-तेमां अध्यवसान करे के आ मारा छे अने एनाथी मने लाभ छे, हुं एनुं कांई करी शकुं ने ए मारुं कांई करी शके-ए अध्यवसान चारगतिमां रखडवाना बीजरूप मिथ्यात्व छे अने ते सर्व छोडवायोग्य छे.

हवे कहे छे- ‘तत्’ तेथी ‘मन्ये’ अमे एम मानीए छीए के ‘अन्य–आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः’ पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे.

अहाहा...! संत धर्मात्मा प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदसहित स्वरूपमां केलि करनारा मुनिवर भगवान आचार्य एम कहे छे के- ज्यारे भगवाने पर वस्तुओमां एकत्वबुद्धिना सर्व अध्यवसायो छोडाव्या छे तो अमे संतो एम मानीए छीए के पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे. जोयुं? ‘आश्रय’ शब्द अहीं मूक्यो छे चोख्खो. परनो-व्यवहारनो आश्रय कहो, संबंध कहो के परनुं-व्यवहारनुं आलंबन कहो- बधुं एक ज छे. आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धानो विकल्प-ए सर्व पराश्रित व्यवहार छे. ए परिणाममां परनो आश्रय- संबंध छे ने? एमां स्वनो संबंध नथी. तो अहीं कहे छे-ए सघळोय पराश्रित


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व्यवहार भगवाने छोडाव्यो छे एम अमे समजीए छीए. जुओ. आ धर्मात्मानी प्रतीति!

अहाहा...! मुनिवरो-शुद्ध एक ज्ञायकतत्त्वना आराधको, केवळीना केडायतीओ केवळीना वारसदार पुत्रो छे. केवळ लेशे ने! तेथी तेओ केवळीना वारसदार छे. अहा! ए मुनिपणुं कोने कहे बापा! लोकोने अंतरंग मुनिदशानी खबर नथी. मुनिपणुं ए तो परमेश्वर (परमेष्ठी) पद छे. अंदरमां जेने त्रण कषायना अभाववाळी वीतरागी शांति प्रगटी छे अने जेमने अतीन्द्रिय प्रचुर-अति उग्र आनंदनुं वेदन वर्ते छे एवा धर्मना स्थंभ समान मुनिवरो होय छे. तेओ कहे छे-अमे एम मानीए छीए के ज्यारे भगवाने परनी एकत्वबुद्धि छोडावी छे तो पराश्रित एवो सघळोय व्यवहार छोडाव्यो छे.

जुओ, पहेलां ‘अखिलं’ आव्युं; एटले के बधांय अध्यवसान त्यागवायोग्य कह्यां. ने हवे पाछुं ‘निखिलः’ (अन्याश्रयः... निखिलः अपि त्याजितः) आव्युं; एटले के पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे. अहाहा...! आ दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादिना परिणाम बधाय पराश्रित छे तेथी छोडाव्या छे. मार्ग खूब सूक्ष्म ने गंभीर छे भाई!

अरे! मारगना भान विना ए ८४ लाख जीव-योनिमां दुःखी थई ने रखडयो छे. जरी शरीरथी कंईक ठीक स्वस्थ होय, पांच-पचास लाखनी संपत्ति होय ने बायडी जरा ठीक रूपाळी होय एटले एम माने के आपणे सुखी छीए. अरे मूढ! मूरख छे के शुं? पागल थयो छे के शुं? शुं आ बधा पैसावाळा सुखी छे?

पण लोको एम कहे छे ने?

लोको बधा कहे तो कहो; पण तेओ सुखी नथी, दुःखी ज छे. बापु! आ शरीर नमणुं ने रूपाळुं देखाय ए क्यां तारुं छे? ए तो जड धूळ-माटी छे. तुं मारुं आवुं रूपाळुं शरीर ने मारी आवी बायडी ने मारी आटली संपत्ति एम माने ए तो तारी मूर्खाईनी-पागलपणानी जाहेरात छे. त्रिलोकनाथ परमात्मा तो एम फरमावे छे के परमां मारापणानी एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय मिथ्यात्व छे अने ते सघळोय छोडवा योग्य छे. बापु! आ देव मारा ने गुरु मारा एवो अध्यवसाय पण भगवाने छोडवायोग्य कह्यो छे. बहु आकरी वात!

अहाहा...! आ तो कळश छे कळश! बार अंगनो सार एक कळशमां भरी दीधो छे. आचार्यदेवनी गजब शैली छे. आमां तो मार्गने खुल्लं-खुल्ला जाहेर करी दीधो छे. कहे छे-पर पदार्थनी एकत्वबुद्धि जेम भगवाने छोडावी छे तेम परना आश्रये थता व्यवहारना भाव सघळाय भगवाने छोडाव्या छे. अहाहा...! जेम परमां एकत्व-


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बुद्धि छोडवायोग्य ज छे तेम व्रत, तप, शील, संयमना बाह्य परिणाम, र८ मूलगुणना विकल्प, अने पंचमहाव्रतादिना परिणाम के जे मुनिने होय छे ते बधाय पराश्रित होवाथी छोडवायोग्य ज छे. गजब वात छे भाई!

अत्यारे हवे आमां लोकोने मोटी तकरार ने वांधा छे, एम के आ बधुं-दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा ईत्यादि श्रावकनां आचरण ने मुनिनां बाह्य आचरण अमे करीए छीए ते शुं बधां खोटां छे. आ श्रावकनां ने मुनिनां आचरणरूप व्यवहारने नहि स्थापो तो जैनधर्म ज नहि रहे.

समाधानः– बापु! जैनधर्म तो एक वीतरागभावस्वरूप छे, शुद्ध चैतन्यना परिणमनस्वरूप छे. व्रतादिनो राग कांई जैनधर्म नथी. जो के धर्मीने तेवो व्रतादिनो राग होय छे पण ए कांई धर्म नथी. वळी धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. विना सम्यग्दर्शन जे कांई बाह्य आचरण छे ते बधांय खोटां छे, एने व्यवहार पण कहेता नथी. मिथ्याद्रष्टिने व्यवहार क्यां छे? अहीं तो सम्यग्द्रष्टिने जे बाह्य व्रतादि व्यवहार छे ते सघळोय त्यागवायोग्य छे एम आचार्यदेव फरमावे छे. अहाहा...! सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो त्याग कराव्यो छे ते कारणथी अमे एम मानीए छीए के पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय समकितीने छोडाव्यो छे एम आचार्यदेव कहे छे. मारग बहु झीणो छे भाई! आ तो कळश ज एवो आव्यो छे.

भगवान! तुं अनंतकाळथी दुःखना पंथे दोराई गयो छे. स्वरूप प्रति आंधळो थईने तें दुःखमां ज भुसका मार्या छे. अहीं तने आचार्य भगवान सुखनो पंथ बतावे छे. कहे छे-निर्मळानंदनो नाथ अतीन्द्रिय आनंदनो सागर एवा स्वस्वरूपने भूलीने, आ शरीरादि मारां छे ने एनाथी मने सुख छे तथा परनां सुख-दुःखने हुं करुं छुं ईत्यादि अनेक प्रकारे जे तने परमां एकत्वबुद्धिनां अध्यवसान छे ते सर्वने छोडी दे; भगवाने ते सर्व अध्यवसानोने छोडवायोग्य कह्यां छे.

हा, पण दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादि व्यवहार तो करवो ने? शास्त्रमां पण व्रतादि बाह्य आचरणनुं विधान छे.

समाधानः– बापु! दया, दान, व्रतादिनो जे व्यवहार छे ते राग छे, ने रागने करवानो अभिप्राय मिथ्या अध्यवसान छे, मिथ्यात्व छे. ए तो आगळ आवी गयुं के उपयोगभूमि रागादिक साथे एकत्व पामे ते मिथ्यात्व छे, बंधनुं कारण छे. आ कळशमां पण कहे छे के- भगवाने पर साथे एकताबुद्धिना सर्व अध्यवसान छोडाव्या छे ते परथी अमे (-मुनिवरो) एम मानीए छीए के व्रतादिनो सघळोय व्यवहार भगवाने छोडाव्यो छे. अहा! समकितीने अस्थिरताना जेटला विकल्प आवे ते सघळाय भगवाने छोडवायोग्य कह्या छे. समजाणुं कांई...?


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शास्त्रमां व्रतादि बाह्य आचरणनुं विधान छे ए तो व्यवहारनय दर्शाव्यो छे. धर्मीने निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्मनी वीतरागी परिणति साथे बहारमां केवो व्यवहार- शुभाचरण होय छे तेनुं ज्ञान कराववानुं त्यां प्रयोजन छे. ए तो बारमी गाथामां आव्युं के धर्मीने पर्यायमां जे किंचित् राग छे ते ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो नहि. अहा! धर्मी पुरुष सर्वरागने-रागमात्रने हेय ज माने छे; करवा योग्य नहि, आवी वात छे.

जुओ, स्वाश्रितो निश्चयः, पराश्रितो व्यवहार; जेटलो स्वनो आश्रय छे ते निश्चय अने जेटलो परनो आश्रय छे ते व्यवहार. आ दया पाळवी, व्रत पाळवां, दान करवुं, भक्ति-पूजा करवां ईत्यादि सर्व भावमां परनो आश्रय छे तेथी ते व्यवहार छे. आचार्य कहे छे-पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय भगवाने छोडाव्यो छे. (मतलब के एक स्वाश्रय ज प्रशंसायोग्य छे). भाई! आ तो जैनदर्शननी सार-सार वात छे. बहु सरस कळश आव्यो छे. आमां निश्चय-व्यवहारना बे फडचा करी नाख्या छे; एम के पराश्रित व्यवहारने हेय जाणी त्यांथी हठी एक स्वना आश्रये ज परिणमन करवुं योग्य छे, ईष्ट छे.

त्यारे कोई वळी कहे छे-अहीं परमां एकत्वबुद्धिना अध्यवसानने बंधनुं कारण कह्युं छे, तेथी कांई दयाना ने व्रतादिना परिणाम बंधनुं कारण नथी.

भाई! ए तो मिथ्यात्व सहितना परनी एकत्वबुद्धिना परिणाम जे मिथ्याद्रष्टिने होय छे तेने मुख्य गणीने तेने बंधनुं कारण कह्युं छे. बाकी दया, दान, व्रत आदिना एकत्वबुद्धिरहित जे परिणाम सम्यग्द्रष्टिने होय छे ते पण बंधनुं ज कारण छे. ते अल्प बंधनुं कारण होवाथी (दीर्ध संसारनुं कारण नहि होवाथी) तेने गौण गणीने बंधमां गण्या नथी ए बीजी वात छे, पण तेथी जो तुं एम मानतो होय के एकत्वबुद्धि वगरना रागना परिणाम (व्यवहारना परिणाम) करवा जेवा छे, केमके ते बंधनुं कारण नथी, पण मोक्षनुं कारण छे तो तारी ते मान्यता मिथ्या-खोटी छे; अर्थात् तने परनी एकत्वबुद्धि मटी ज नथी.

बापु! वीतरागनो मारग-मोक्षनो मारग- तो एकला वीतरागभावस्वरूप छे; ते स्व-आश्रित छे; तेमां पराश्रित रागनो एक अंश पण समाई शके नहि. शुं कीधुं? जेम आंखमां रज-कण समाय नहि तेम भगवानना मारगमां रागनो कण पण समाय नहि. अहा! मारग तो शुद्ध चैतन्यस्वभावमय एक वीतरागतामय ज छे. जेम भगवान आत्मा एक चैतन्यस्वभावनो-वीतरागस्वभावनो अतीन्द्रिय आनंद ते शांतिनो पिंड छे, तेम तेना आश्रये प्रगटेलो मार्ग पण तेवो अतीन्द्रिय आनंदमय ने वीतरागी शांतिमय छे. भाई! सरागता ए कांई वीतरागनो मारग नथी.


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ल्यो, आवी वात! चालता प्रवाहथी जुदी छे ने? एटले लोकोने बहु आकरी लागे ने रुचे नहि. एने एम लागे छे के व्यवहारथी विमुख थशे तो भ्रष्ट थई जशे.

अरे भाई! एम भडके छे शुं? जरा धीरो थईने सांभळ. अंदर प्रभु! तुं आत्मा छो के नहि? अहाहा...! अनंत अनंत स्वभावोथी भरेलो ज्ञानानंदनो दरियो प्रभु तुं आत्मा छो. एनी सन्मुख जवुं एनुं ज नाम व्यवहारथी विमुखता छे. तेथी व्यवहारनो आश्रय छोडशे तो ते निश्चयमां जशे; अहा! ए दुःखने छोडी सुखमां जशे. भाई! व्यवहारनो आश्रय तो दुःख छे. तेथी तेनो आश्रय छोडतां अंदर आनंदमां जशे. समजाणुं कांई...?

अहीं कहे छे- ‘अन्याश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः’ पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे. चाहे देव-गुरु-शास्त्र हो, जिनमंदिर, सम्मेदशिखर, शत्रुंजय के गिरनार हो; भाई! ए बधुं पर छे. आ आगममंदिर आवडुं मोटुं छे ते पर छे. अरे, भगवान ऋषभनाथना वखतमां कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्तीए त्रणकाळनी-भूत, वर्तमान ने भविष्यनी चोवीसीना सोनानां मंदिरो बनाव्यां हतां. सोनानां मंदिरो हों. पण एमां शुं छे? ए बधुं पर छे अने एना आश्रये थयेलो भाव पराश्रित शुभभाव छे (धर्म नहि). ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी धर्मीपुरुष स्व-आश्रयना आनंदमां पण होय अने किंचित् पराश्रयना आवा भक्ति आदिना शुभरागमां पण होय. पण धर्मीने ए शुभराग हेयबुद्धिए होय छे, तेने एनां रुचि, आदर के महिमा होतां नथी.

अहाहा...! अंदरमां पोतानुं परम चैतन्यनिधान पडयुं छे. जेमां जीवत्व, चिति, द्रशि, ज्ञान, सुख, वीर्य, प्रभुत्व, विभुत्व, स्वच्छता, प्रकाश ईत्यादि अनंत अनंत शक्तिओ प्रत्येक परम पारिणामिकभावे स्थित छे एवा परम पदार्थ प्रभु आत्मा छे. परम पारिणामिक भावे एटले शुं? के ते सहज छे अने कोई कर्मना सद्भाव के अभावनी अपेक्षाथी रहित छे. शुं कीधुं? के वस्तुनी शक्तिओ सहजभावे छे, एने कोईनी अपेक्षा नथी. जुओ, पर्यायमां विकार थाय तो कर्मना उदयनुं निमित्त छे, ने निर्विकार थाय तो कर्मना अभावनुं निमित्त छे. पण वस्तु आत्मा ने एनी शक्तिओ कोईनी अपेक्षाथी रहित परम पारिणामिक भावे स्थिर छे. आवी महान वस्तु पोते छे, पण एनी खबर विना बिचारो क्रियाकांड करी करीने मरी गयो छे. एने कहे छे-भाई! व्यवहारनी रुचि छोडीने हवे तारा चैतन्यनिधाननो-परम स्वभावभावनो-निश्चयनो आश्रय कर. तारा सुख माटे आ ज कर्तव्य छे.

अहाहा...! कहे छे-पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो


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छे ‘तत्’ तो पछी, ‘अमी सन्तः’ आ सत्पुरुषो ‘एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य’ एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने ‘शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि’ विज्ञानघनस्वरूप निज महिमामां ‘धृतिम् किं न बध्नन्ति’ स्थिरता केम- धरता नथी?

अहाहा...! कहे छे- तत् एटले तो पछी सत्पुरुषो एक निश्चयमां स्थिरता केम करता नथी? अहा! सत्पुरुष कोने कहीए? के जेणे पराश्रयनो भाव द्रष्टिमांथी छोडीने त्रिकाळी सत् प्रभु आत्मानो अंतरमां स्वीकार कर्यो छे एवा संत पुरुष सत्पुरुष छे. सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मा छे; तेना आश्रये जे सुखमां प्रवर्ते छे ते संत महात्मा सत्पुरुष छे. भजनमां आवे छे ने? के-

‘सुखिया जगतमां संत, दुरीजन दुःखिया रे’

जगतमां एक संत सुखिया छे. एटले शुं? के निर्मळानंदनो नाथ अनंत अनंत स्वभावो-शक्तिओनो भंडार भगवान आत्मानो जेणे आश्रय लीधो छे ते संतो-सत्पुरुषो जगतमां सुखी छे, अने परथी एकत्व मानीने परना आश्रये थता विकारी भावमां जे रोकाई पडया छे, पराश्रित भावथी जे लाभ माने छे ते दुरीजन एटले दुर्जन जगतमां दुःखिया छे. अहा! व्यवहारथी लाभ थवानुं माने ते दुर्जन दुःखिया छे आकरी वात बापा!

भाई! आ तो ‘जिनैःउक्तम्’ त्रण लोकना नाथ जिनेन्द्र भगवंतोए कह्युं छे. हवे भगवाननी भक्ति करे अने भगवाने जे कह्युं छे तेने अंतरमां न स्वीकारे तो तेने भगवाननी-अर्हंतदेवनी साची श्रद्धा नथी. तेवी रीते गुरुनी भक्ति करे पण जे पराश्रित छे एवो सघळोय व्यवहार अमे छोडाववा मागीए छीए एम गुरुए कह्युं ते न स्वीकारे तेने गुरुनी श्रद्धा नथी. अने तेवी रीते तेने शास्त्रनी पण श्रद्धा नथी. आ प्रमाणे अज्ञानी अनेक प्रकारना क्रियाकांडमां प्रवर्तवा छतां ते देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाथी रहित दुर्जन दुःखी ज छे.

अहाहा...! अहीं कहे छे- ‘एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने...’ जोयुं? एक कहेतां जेमां बीजी चीज (रागादि) नथी एवा सत्य निश्चयस्वरूप त्रिकाळी ध्रुव परमात्मद्रव्यने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने तेमां ज ठर-एम कहे छे. पहेलां छोडवायोग्य कह्युं त्यां ‘व्यवहारः एव’ व्यवहार ज सघळोय छोड एम कह्युं. ने हवे ठरवामां पण ‘एव’ शब्द वडे एक निश्चयमां ज ठर एम कह्युं; मतलब के व्यवहारना- अस्थिरताना रागना-कंपमां न जा, पण निष्कंप एक निश्चयमां ज ठर एम कहे छे. गजबनो कळश छे भाई!

अरे भाई! तुं व्यवहार-व्यवहार करे छे पण भगवाने कहेलो व्यवहार-व्रत,


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समिति, गुप्ति आदि पराश्रित भाव-तो अभवि पण करे छे पण तेने कदीय आत्मलाभ थतो नथी. आ वात आगळ गाथा र७३ मां आवे छे. केटलाक लोकोने आ खटके छे. व्यवहारनो पक्ष छे ने? पण भाई! व्यवहार कोने कहेवाय तेनी तने खबर ज नथी. वास्तवमां तो जेने एक सम्यक् निश्चय शुद्ध आत्मद्रव्यनो अंतरमां अनुभव थयो छे ते समकितीने व्रतादिना विकल्प जे हेयबुद्धिए होय छे तेने व्यवहार कहे छे, अने ते भगवाने छोडाव्यो छे-एम वात छे. जेने अंतरंगमां निश्चयनो अनुभव ज नथी थयो तेने व्यवहार छे ज क्यां? तेने हेय-उपादेयबुद्धि छे ज क्यां? (तेने तो रागनी एकत्वबुद्धि ज छे.)

अहा! वीतराग सर्वज्ञदेवनी धर्मसभामां अति विनयवान थई इन्द्रो ने गणधरदेवो भगवानना श्रीमुखेथी नीकळेली जे परम अमृत तत्त्वनी वात सांभळता हता ते आ वात छे. कहे छे-सत्पुरुषो एक एटले जेमां पेलो व्यवहार नहि एवा भिन्न शुद्ध निश्चयने ज अंगीकार करी एमां ठरो. आवुं हवे ओला व्यवहारना पक्षवाळाने आकरुं लागे पण भाई! आ तो तारा हितनी, तारा उद्धारनी वात छे.

अहाहा...! वस्तु आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु शुद्ध एक निश्चय निरुपाधि निष्कंपस्वरूप छे अने आ व्यवहारनो विकल्प-राग तो कंप छे, उपाधि छे. अहा! ते रागना कंपथी अने उपाधिथी छूटीने निष्कंप निरुपाधि शुद्ध चैतन्यतत्त्वमां स्थिति करो एम कहे छे. ल्यो, अहीं रागने छोडवायोग्य तथा उपाधि कहे छे, बंधनुं कारण कहे छे, त्यारे कोई लोको एने लाभदायक माने छे! बहु फेर भाई! शुं थाय! भगवानना विरह पडया! केवळी-श्रुतकेवळी रह्या नहि ने केवळीना केडायतो पण जोवा मळे नहि अने आ बधा विवाद ऊभा कर्या! भाई! आ सर्व विवाद मटी जाय एवी तारा हितनी वात छे के सर्व पराश्रयना भावनी रुचि छोडीने एक शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी रुचि करी तेमां ज ठरी जा.

श्री समयसार नाटकमां श्री बनारसीदासे आ कळशनो भाव आ प्रमाणे प्रगट कर्यो छेः-

“असंख्यात लोक परवांन जे मिथ्यातभाव,
तेई विवहार भाव केवली-उक्त है;
जिन्हकौ मिथ्यात गयौ सम्यक दरस भयौ,
ते नियत-लीन विवहारसौ मुक्त है.
निरविकलप निरुपाधि आतम समाधि,
साधि जे सुगुन मोख पंथकौं ढुक्त है;
तेई जीव परम दसामैं थिररूप ह्यैकै
धरममैं धुके न करमसौं रुकत है.”

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असंख्यात लोकप्रमाण जेटला व्यवहारभाव छे तेटला मिथ्यात्वभाव छे, केमके व्यवहार छे ते मारो छे, एथी मने लाभ छे, ए भलो छे एम रागथी एमां एकत्व छे ने? अहाहा...! आ व्यवहार भलो छे एवी मान्यतामां दया, दान आदि जेटला विकल्प ऊठे तेटला मिथ्यात्वभाव छे. गजब वात छे भाई! आ तो केवळी-सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेली वात छे.

जेने मिथ्यात्व गयुं अने सम्यग्दर्शन थयुं ते जीव निश्चयस्वरूपमां लीन होवाथी व्यवहारथी मुक्त छे अर्थात् तेने व्यवहारनी रुचि नथी.

ते जीव व्यवहारने छोडीने निर्विकल्प अर्थात् एक निश्चयने ज निरुपाधि अर्थात् निष्कंपपणे अंगीकार करीने आत्मस्वरूपमां समाधि साधी अर्थात् स्थिरता करीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गमां लागी जाय छे. आवो जीव परम एवी शुद्धोपयोगदशामां परम ध्याननी दशामां स्थिर थईने निर्वाणपदने पामे छे, रागमां- व्यवहारमां रोकातो नथी. आवी वातु बापा!

जुओ, आमां मिथ्यात्वभाव ने व्यवहारभाव एक छे एम कह्युं छे, केमके एने व्यवहारनी रुचि छे ने? व्यवहार भलो छे एवी मान्यतामां व्यवहारना जेटला भाव छे ते मिथ्यात्वरूप छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आत्मा शुद्धज्ञानघनस्वरूप प्रभु अंदर एकला आनंदनुं दळ छे. जेम सक्करकंद, उपरनी लाल छालने छोडीने, अंदर एकली मीठाशनो-साकरनो पिंड छे तेम भगवान आत्मा, बहारनी व्यवहारना विकल्परूप छालने छोडीने, अंदर एकलो चिदानंदनो कंद छे. अहीं कहे छे-आवा चिदानंदघनस्वरूप निज महिमामां सत्पुरुषोधर्मी पुरुषो स्थिरता केम धरता नथी? आम आश्चर्य प्रगट करीने आचार्यदेव प्रेरणा करे छे के धर्मी जीवोए निष्कंपपणे निश्चयस्वरूपने अंगीकार करीने तत्काल तेमां ज ठरीठाम स्थिर थई जवुं जोईए. अहाहा...! आचार्य कहे छे- अंदर निष्कंप निरुपाधि आनंदनो नाथ पडयो छे ने प्रभु! तेमां ज लीन थई जा ने; आ व्यवहारमां कंप-वामां शुं छे? आम सत्पुरुषोने निष्प्रमादी रहेवानी प्रेरणा करी छे.

*
* कळश १७३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जिनेश्वरदेवे अन्य पदार्थोमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छोडाव्यां छे तेथी आ पराश्रित व्यवहार ज बधोय छोडाव्यो छे एम जाणवुं.’

शुं कहे छे? के देवाधिदेव सर्वज्ञ परमेश्वरे पुद्गल परमाणु ने अन्य जीवथी मांडीने विश्वमां जेटला कोई अनंता पर पदार्थ छे ते हुं छुं, ते मारा छे अने तेनाथी मने लाभ छे एवां परमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छोडाव्यां छे. केम?


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केमके ते परवस्तु कांई पोते आत्मा नथी. आ शरीर कांई आत्मा नथी अने स्त्री-पुत्रादि कांई आ आत्मा (-पोते) नथी. भाई! परमां आत्मबुद्धि करवी ए मिथ्यात्व-भाव संसारनी-दुःखनी परंपरानुं कारण छे.

अहीं विशेष एम कहे छे के भगवाने परमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छोडाव्यां छे तेथी पराश्रित व्यवहार ज सघळो छोडाव्यो छे एम जाणवुं. ल्यो, आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति ईत्यादि व्यवहारना सर्व विकल्प भगवाने छोडाव्या छे एम कहे छे; केमके एमां आत्मा नथी. लोकोने आ खटके छे पण भाई! व्यवहाररत्नत्रयना ए सघळा परिणाम पराश्रित भाव छे, दुःखरूप छे. अहीं तो आ चोकखी वात छे के पराश्रित भाव सघळाय छोडीने स्व-आश्रय कर; शुद्धज्ञानघनस्वरूप पोते आत्मा छे तेनो आश्रय करी तेमां स्थिर था; आ एक ज सुखनो उपाय छे. अहा! राग-पराश्रितभाव चाहे एकत्वबुद्धिनो हो के अस्थिरतानो हो-ए सघळोय परभाव छोडवायोग्य ज छे, तेमां आत्मबुद्धि करवी ते मिथ्यात्वभाव छे. हवे कहे छेः-

‘माटे शुद्धज्ञानस्वरूप पोताना आत्मामां स्थिरता राखो-एवो शुद्धनिश्चयना ग्रहणनो उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. !

अहा! पोते शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप प्रभु आत्मा छे. ते एकना ज आश्रये तेमां ज स्थिरता करीने शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ग्रहण कर-एम शुद्धनिश्चयना ग्रहणनो उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे.

ल्यो, आ रीते उपदेश छे, छतां कोई लोको व्रत, तप, भक्ति, पूजा ईत्यादि व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम प्ररूपणा करे छे. पण बापु! ए व्यवहार तो सघळोय अहीं छोडवायोग्य कह्यो छे केमके एनाथी निश्चय थाय ज नहि; उलटुं एनी रुचि बंधनुं-संसारनुं ज कारण बने छे. भाई! परना लक्षे थता भावमांथी कदीय स्वनुं लक्ष- आश्रय न थाय. एटले तो पराश्रित व्यवहार सघळो छोडाव्यो छे. हवे आ मोटी अत्यारे लोकोने तकरार छे, पण भाई! मांड मनुष्यपणुं मळ्‌युं, अने धर्म पामवानो अवसर आव्यो त्यारे विवादमां रहीश तो धर्म क्यारे पामीश? स्वनो आश्रय करवो बस ए एक ज सुखी थवानो धर्मनो पंथ छे. समजाणुं कांई...?

ए तो आगळ गाथाओमां आवे छे के- जो व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय तो अभव्य पण जिनवरे कहेलो पराश्रित व्यवहार-व्रत, समिति, गुप्ति, तप, शील ईत्यादि-परिपूर्ण अखंडपणे पाळे छे अने तेथी तेनो मोक्ष थवो जोईए; पण एनो मोक्ष कदीय थतो नथी. बहु आकरी वात भाई!

त्यारे ए लोको एम कहे छे के-ए तो अभव्यनी वात छे. अरे भाई! ए तो द्रष्टांत अभव्यनुं छे; बाकी आमां क्यां अभविनी वात छे?


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अहीं तो सिद्धांत आ छे के जेम अभवि जीव व्रतादिने पाळवा छतां ज्ञानघन प्रभु आत्मानो आश्रय कदी करतो नथी तो ते सदा चारगतिरूप संसारमां ज रखडे छे तेम भवि जीव पण जो परना आश्रये कल्याण मानी बाह्य व्रतादिमां प्रवर्ते अने ज्ञानघनस्वरूप पोताना आत्मानो आश्रय न करे तो ते पण संसारमां रखडे ज छे. हवे आवुं यथार्थ समजे नहि ने एकांत ताणे ए वीतरागना शासनमां केम हाले? (न ज हाले).

भाई! अहीं आचार्यदेवनुं एम कहेवुं छे के-जो भगवाने परना आश्रये थतुं अध्यवसान अने परनो आश्रय (-अस्थिरता) -एम बेय छोडाव्या छे तो हवे एक स्वनो ज आश्रय लेवानो रह्यो. तो पछी सत्पुरुषो एक निश्चयने ज -ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्माने ज -अस्थिर थया विना, प्रमाद छोडीने निष्कंपपणे अंगीकार करीने तेमां ज केम ठरता नथी? आम आचार्यदेवे आश्चर्य प्रगट कर्युं छे.

ए तो आचार्यदेव पहेलां अज्ञानदशामां हता त्यारे नहोता ठरता, पण हवे शुं छे? (एम के हवे शानुं आश्चर्य छे?)

उत्तरः– ए पहेलां केम अंदर नहोता ठरता एनुं अत्यारे आश्चर्य थाय छे; अने हवे अंतःस्थिरता पोते करी छे तेथी सत्पुरुषो अंदर केम स्थिरता करता नथी? -एम आश्चर्य करीने अंतःस्थिरता करवानी तेमने प्रेरणा करी छे.

अहाहा...! आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ प्रभु श्रद्धा, ज्ञान ने वीतरागताना स्वभावथी भरेलो ज्ञानानंदनो दरियो छे. अहाहा...! ते एक एक गुणनी ईश्वरताना- परिपूर्ण प्रभुताना स्वभावथी पूरण भरेलो छे. पण एमां शरीरादि परवस्तु नथी, व्यवहाररत्नत्रयनो राग एमां नथी; अने परवस्तुमां ने व्यवहारना रागमां ते (- आत्मा) नथी. भाई! आ न्यायथी तो समजवुं पडशे ने! आ कांई वाणियाना वेपार जेवुं नथी के आ लीधुं ने आ दीधुं; आ तो अंतरनो वेपार! आखी दिशा ने दशा बदली नाखे. आचार्यदेव अहीं कहे छे के भाई! तारी पर तरफना आश्रयनी दिशावाळी जे दशा छे ते दुःखमय छे अने ते भगवाने छोडावी छे तो पछी हवे स्वना आश्रयनी दिशावाळी, शुद्ध एक निश्चयस्वरूप भगवान ज्ञानानंदना आश्रयनी दिशावाळी दशा के जे अत्यंत सुखमय छे तेने निष्कंपपणे केम प्रगट करता नथी? ल्यो, आवी वात छे!

प्रश्नः– पण आ प्रमाणे तो एक निश्चयनो पक्ष खडो थाय छे! उत्तरः– भाई! निश्चयना विकल्पनो पक्ष जुदी चीज छे ने एक निश्चयनुं-भगवान ज्ञानानंदस्वरूपनुं-लक्ष जुदी चीज छे. आवे छे ने के- (गाथा-र७र)

‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी.’

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त्यां निश्चयना विकल्पनी वात नथी, पण निश्चयस्वरूपना-स्वना लक्ष- आश्रयनी वात छे. ज्यां स्वनो आश्रय कीधो त्यां विकल्प क्यां रह्यो प्रभु? त्यां तो एकलो स्वानुभव मंडित निराकुळ आनंदनो अनुभव छे. ओला’ हुं बद्ध छुं ने हुं अबद्ध छुं’ - एवा जे विकल्प छे ए नयपक्ष छे. ए नयपक्षने तो भगवाने छोडाव्यो छे. हुं शुद्ध छुं, अबद्ध छुं एवो विकल्प छे ते (निश्चयनो) नयपक्ष छे, ते परना आश्रये उत्पन्न थाय छे; तेने भगवाने छोडाव्यो छे. बहु सूक्ष्म वात प्रभु! भगवाननो मारग बहु सूक्ष्म छे. अहीं तो एक शुद्ध निश्चय जे पोते स्व तेनो आश्रय करी तेमां ज सत्पुरुषो केम ठरता नथी? -एम आचार्यदेव अचरज करे छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आ उपदेश तो जुओ! एककोर चिदानंदघन प्रभु आत्मा ने एककोर अनंता विकारना परिणाम. आ देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा आदि परिणाम ए बधा विकारना परिणाम छे. आगळ गाथा र७६-र७७ मां आवशे के आचारांग आदि शास्त्रनुं ज्ञान छे ते शब्दश्रुत छे, केमके ते ज्ञाननो आश्रय शब्दश्रुत छे, पण आत्मा नथी; तेथी शब्दश्रुतनुं ज्ञान छे ते आत्मानुं ज्ञान नथी. ल्यो, आ प्रमाणे त्यां व्यवहारनो निषेध कर्यो छे. वळी नवतत्त्वनी जे श्रद्धा छे एनो विषय (-आश्रय) जीवादि नव पदार्थो छे, पण आत्मा नथी; तेथी ते आत्मानुं श्रद्धान नथी. आ प्रमाणे त्यां व्यवहारनो निषेध कर्यो छे. तेवी रीते छकायना जीवोनी दया-रक्षाना परिणाम छे तेनो आश्रय छकायना जीव छे, पण आत्मा नथी. तेथी ते व्यवहारचारित्र कांई आत्मानुं चारित्र नथी. आ प्रमाणे व्यवहारचारित्रनो निषेध कर्या छे. अहीं (आ कळशमां) ए त्रणेय प्रकारे जे व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम छे तेने छोडाव्या छे. बहु गंभीर वात छे भाई!

अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? ने तारी हयातीमां शुं भर्युं छे? अहाहा...! तुं सच्चिदानंदस्वरूप आनंदनो नाथ आत्मा छो ने प्रभु? ने तारी हयातिमां एकलां ज्ञान ने आनंद (वगेरे अनंतगुण) भर्या छे ने. तो तेमां एकत्व करीने, आ परवस्तु मारी छे एवी परमां एकत्वबुद्धि छोडी दे; अने साथे जे आ परना आश्रये दया, दान, व्रत आदिना भाव थाय छे ते पण छोडी दे, केमके ए सघळा पराश्रये थयेला विकारना भाव दुःखरूप छे. अहा! आनंदकंद प्रभु आत्माने छोडीने आ पर तरफनी होंशुना जेटला परिणाम थाय छे ए बधा दुःखरूप छे. तारे सुखी थवुं होय तो बधाय व्यवहारना भावोने छोडी दे, अने शुद्ध एक निश्चयने ज अंगीकार करी तेमां ज लीन थई जा.

अरे! आवी वात एना कानेय न पडे तो ए क्यां जाय? बिचारे शुं करे? भाई! जीवन (अवसर) चाल्युं जाय छे हों. आ तत्त्वनी समजण न करी तो देह


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छूटीने क्यांय संसारसमुद्रमां डूबी जईश. बापु! आ देह कांई तारो नथी के ते तारी पासे रहे, अने (व्यवहारनो) रागेय तारो नथी के ते तारी पासे रहे. तारी पासे रहेली चीज तो अनंत ज्ञान, आनंद ने वीतरागी शांतिथी भरेलो भगवान आत्मा छे. माटे तेमां तल्लीन थईने रहेने प्रभु!

अहाहा...! आचार्य कहे छे-तुं स्वघरमां रहेने प्रभु! तुं परघरमां केम भटके छे? निर्मळानंदनो नाथ चिदानंदघन प्रभु तारुं स्वघर छे. ए स्वघरने छोडीने परघर- परवस्तुमां केम भमे छे? अहा! परघरमां भमे ए तो एकलुं दुःख छे, पराश्रितभावमां रहे ए दुःख छे; माटे ज्यां एकलुं सुख छे ते स्वघरमां आवीने वस; त्यां तने निराकुल आनंद थशे. अहा! परभाव (व्यवहारना भाव) दुःखरूप छे छतां तेने छोडीने सत्पुरुषो अंदर सुखथी भरेला स्वघरमां आवीने केम वसता नथी? ए महान अचंबो छे.

अहा! त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणीमां एम आव्युं के-

परवस्तुनी एकत्वबुद्धि मिथ्या छे, असत्य छे अने तेथी दुःखरूप छे. स्वना आश्रयरूप एकता ते सद्बुद्धि छे, अने स्व-परनी एकत्वबुद्धि असद्बुद्धि छे, मिथ्याबुद्धि छे.

चिदानंदघन प्रभु पोते सत् छे, ए अपेक्षाए परवस्तु बधी असत् छे. ए असत्

साथे पोताना सत्ने भेळवनारी-एकमेक करनारी बुद्धि असद्बुद्धि छे, मिथ्याबुद्धि छे. ते मिथ्या होवाथी दुःखदायक अने दुःखरूप छे, अने तेथी ते छोडाववामां आवी छे. आचार्य कहे छे-भगवाने पर साथेनी एकत्वबुद्धि छोडावी छे तेथी अमे तने परने आश्रये थता बधाय भावोने, तेओ दुःखरूप छे एम जाणीने छोडावीए छीए तो तुं त्यांथी (पराश्रयथी) हठीने स्वना आश्रयमां अंदर केम आवतो नथी? अहा! परवस्तु मारी छे एम मानवुं ए जुठुं छे, परमां सुखबुद्धि करवी ए जूठी छे. तेथी अमे तने सर्व पराश्रयनो दुःखरूप भाव छोडावीए छीए तो पछी अहीं स्वमां-सुखरूप स्वरूपमां आवी केम ठरतो नथी? ल्यो, आवुं आश्चर्य आचार्यदेव प्रगट करे छे.

अहा! आ संतोनी-वीतरागी मुनिवरोनी करुणा तो जुओ! कहे छे-भगवान! तुं

तारी दया तो पाळ, तारी करुणा करने प्रभु! आ परना आश्रये थयेला (दया, आदिना) भावथी तो तारा स्वभावनो घात थाय छे, तारा स्वरूपनी तेमां हिंसा थाय छे, केमके तेमां स्वरूपनो अनादर थाय छे.

राजकोटमां संवत १९९पमां एक मोटा डोकटर त्रण-चार दि’ व्याख्यानमां आव्या

ने पछी कहेवा लाग्या- आ महाराजनुं आवुं सांभळीए तो कोईने कामना न रहीए अर्थात् कोईनुं काम न करी शकीए.


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त्यारे कह्युं-अरे भाई! क्या काममां तारे रहेवुं छे? बापु! तने परनां काम करवानी होंशु छे पण शुं तुं परनां काम करी शके छे? कदापि नहि; केमके पर पदार्थो- परमाणु वगेरे सौ पोताना कार्यने स्वतंत्र करीने ऊभा (-अवस्थित) छे. ते पोतपोतानुं कार्य प्रतिसमय पोते ज करी रह्या छे त्यां तुं शुं करे? तुं कहे के हुं आनुं कार्य करी दऊं ए तो केवळ मिथ्याबुद्धि छे. पछी डोकटरने थयुं के आ सांभळवाथी तो कदाच (परनां काम) करवानी होंशु नाश पामी जशे. तेनी सांभळवा आववुं बंध कर्युं.

भाई! वात तो आम ज छे, साची छे. लौकिक कार्योमां होंशु होय ए तो शुं,

लोकोत्तर व्यवहार जे जिनवरदेवे पंचमहाव्रतादिनो कहेलो छे ते पण दुःखरूप छे एवुं भगवान जिनवरदेवनुं वचन छे. एने छोडीने अहीं तो स्वरूपमां ज समाई जवानी वात छे. समजाणुं कांई...?

[प्रवचन नं. ३र४ (शेष) अने ३रप * दिनांक र०-र-७७ थी रर-र-७७]
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गाथा–२७२
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण।
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं।। २७२।।
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन।
निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम्।। २७२।।

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-

व्यवहारनय ए रीत जाण निषिद्ध निश्चयनय थकी;
निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी. २७२.

गाथार्थः– [एवं] ए रीते (पूर्वोक्त रीते) [व्यवहारनयः] (पराश्रित एवो) व्यवहारनय [निश्चयनयेन] निश्चयनय वडे [प्रतिषिद्धः जानीहि] निषिद्ध जाण; [पुनः निश्चयनयाश्रिताः] निश्चयनयने आश्रित [मुनयः] मुनिओ [निर्वाणम्] निर्वाणने [प्राप्नुवन्ति] पामे छे.

टीकाः– आत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय छे, पराश्रित (अर्थात् परने आश्रित) व्यवहारनय छे. त्यां, पूर्वोक्त रीते पराश्रित समस्त अध्यवसान (अर्थात् पोताना ने परना एकपणानी मान्यतापूर्वक परिणमन) बंधनुं कारण होवाने लीधे मुमुक्षुने तेनो (-अध्यवसाननो) निषेध करता एवा निश्चयनय वडे खरेखर व्यवहारनयनो ज निषेध करायो छे, कारण के व्यवहारनयने पण पराश्रितपणुं समान ज छे (-जेम अध्यवसान पराश्रित छे तेम व्यवहारनय पण पराश्रित छे, तेमां तफावत नथी). अने आ व्यवहारनय ए रीते निषेधवायोग्य ज छे; कारण के आत्माश्रित निश्चयनयनो आश्रय करनाराओ ज (कर्मथी) मुक्त थाय छे अने पराश्रित व्यवहारनयनो आश्रय तो एकांते नहि मुक्त थतो एवो अभव्य पण करे छे.

भावार्थः– आत्माने परना निमित्तथी जे अनेक भावो थाय छे ते बधा व्यवहारनयना विषय होवाथी व्यवहारनय तो पराश्रित छे, अने जे एक पोतानो स्वाभाविक भाव छे ते ज निश्चयनयनो विषय होवाथी निश्चयनय आत्माश्रित छे. अध्यवसान पण व्यवहारनयनो ज विषय छे तेथी अध्यवसाननो त्याग ते व्यवहारनयनो ज त्याग छे, अने पहेलांनी गाथाओमां अध्यवसानना त्यागनो उपदेश छे ते


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व्यवहारनयना ज त्यागनो उपदेश छे. आ प्रमाणे निश्चयनयने प्रधान करीने व्यवहारनयना त्यागनो उपदेश कर्यो छे तेनुं कारण ए छे के-जेओ निश्चयना आश्रये प्रवर्ते छे तेओ ज कर्मथी छूटे छे अने जेओ एकांते व्यवहारनयना ज आश्रये प्रवर्ते छे तेओ कर्मथी कदी छूटता नथी.

*
समयसार गाथा २७२ः मथाळुं

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-

* गाथा २७२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

अहीं मूळ मुद्दानी रकमनी वात छे. शुं कहे छे? के- ‘आत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय छे, पराश्रित (अर्थात् परने आश्रित) व्यवहारनय छे.’

अहीं ‘स्व-आश्रित’ मां स्वनो अर्थ त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव लेवा, पण द्रव्य-गुण- पर्याय एम त्रण न लेवां. ‘स्व-आश्रित’ एटले त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकभावने आश्रित. अहाहा...! एक ज्ञायकभाव ए ज निश्चय एम अहीं लेवुं छे. समजाणुं कांई...?

एम तो द्रव्य एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु, एनी अनंत शक्तिओ (-गुणो) अने पर्याय-ए त्रणेनुं अस्तित्व ते स्वनुं-पोतानुं अस्तित्व छे. पण अहीं ‘स्व’ मां ए वात लेवी नथी. अहीं तो मुख्य (मुख्य ते निश्चय, गौण ते व्यवहार) सिद्ध करवा त्रिकाळी अभेद एकरूप वस्तुने मुख्य करीने एक समयनी अवस्थाने गौण करी नाखवी छे. अहीं अभेद एक शुद्धनिश्चय वस्तुनुं लक्ष कराववा त्रिकाळी एक ज्ञायकस्वभावभाव छे ते स्व छे, निश्चय छे एम लेवुं छे. अहाहा...! जेमां कर्म नथी, पुण्य-पापना भाव नथी, एक समयनी पर्याय ने पर्यायभेद नथी के गुणभेद नथी एवो अखंड एकरूप स्वभाव त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव ते निश्चयनयनो विषय छे. ‘स्वाश्रितो निश्चयः’ स्वना आश्रये ज निश्चय छे. स्वनो आश्रय करनारने समकित थाय छे.

सम्यग्दर्शन-धर्मनुं पहेलुं पगथियुं-अने धर्म केम थाय एनी आ वात चाले छे. जैनदर्शनना प्राण समी गाथा ११ मां न आव्युं के-

‘भूदत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो’

अहाहा...! निर्मळानंदनो नाथ त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकभावमय वस्तु प्रभु आत्मा ज भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे अने एना आश्रये जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे. अहा! अंदर त्रण लोकनो नाथ एक ज्ञायकस्वभावी सत्यार्थ प्रभु छे तेने मुख्य करीने, निश्चय


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कहीने तेनी आगळ पर्यायने गौण करीने, तेने व्यवहार कहीने नथी एम कही दीधी छे. झीणी वात प्रभु!

प्रश्नः– हवे आमां केटकेटलुं याद राखवुं? उत्तरः– भाई! आ एक ज याद राखवुं छे के त्रिकाळी अभेद एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु आत्मा ते ज खरेखर हुं छुं अने जे भेद ने पर्याय छे ते बधोय व्यवहार छे. भाई! ए सर्व व्यवहारने अभूतार्थ कहीने भूतार्थ एक स्व-स्वरूपनो आश्रय कराव्यो छे. अहाहा...! एक स्व-स्वरूप ज सत्य छे, बाकी आखुं जगत (पर्यायभेद ने गुणभेद सुद्धां) असत्य छे. जगतनी सघळी चीजो एनी पोतपोतानी अपेक्षाए सत्य छे, पण पोतानुं स्व जे एक ज्ञायकभाव तेनी अपेक्षाए ए बधी असत्य छे. अहाहा...! त्रिकाळी सत्नी अपेक्षा एना गुणभेद ने पर्याय पण असत् छे.

अहीं ‘आत्माश्रित’ -पहेला शब्दनो अर्थ चाले छे. आत्माश्रित एटले स्व- आश्रित एटले के त्रिकाळी एक ज्ञायकभावने आश्रित निश्चयनय छे. ए ध्रुव नित्यानंद प्रभुनो आश्रय करनारी तो पर्याय छे, पण ए पर्यायने पर्यायनो आश्रय नथी पण नित्यानंद प्रभु ध्रुवनो आश्रय छे. झीणी वात छे प्रभु! आ तो जन्म-मरणना बीजनी सत्तानो नाश करवानी वात छे. अहाहा...! पोतानी शुद्ध सत्ताने प्रगट करीने पुण्य-पाप आदि भावनो नाश करवानी आ वात छे. प्रभु! तारी सत्ताने द्रष्टिमां उत्पाद करवानी प्रगट करवानी आ वात छे. (एम के सावधान थईने धीरजथी सांभळ).

११ मी गाथामां आव्युं ने के-ज्ञायकस्वभाव वस्तु तिरोभूत अर्थात् द्रष्टिमांथी दूर छे ते जाणवामां आवतां, द्रष्टिमां आवतां आविर्भूत थाय छे. प्रगट थाय छे. ज्ञायकभाव तो छे ते छे, पण एने ज्यारे द्रष्टिमां लीधो त्यारे ज्ञायकभाव प्रगटयो, आविर्भूत थयो एम कहेवाय छे. जेना पूर्ण अस्तित्वनी खबर नहोती, जेनी प्रतीति नहोती एना पूर्ण अस्तित्वनी ज्यां प्रतीति आवी तो पूर्ण अस्तित्व प्रगटयुं एम कहेवामां आवे छे.

अहीं टीकामां आत्मा एटले स्वने आश्रित केम लीधुं? केमके व्यवहार छे ते पराश्रित छे, तेथी आत्मा एटले स्व-एम लीधुं. स्व एटले कोण? तो कहे छे-एक पोतानो सहज स्वाभाविक भाव, एक ज्ञायकभाव, नित्यानंदस्वभाव, ध्रुवभाव, एकरूप सामान्यभाव ते स्व छे अने ते निश्चयनयनो विषय छे, अर्थात् सम्यग्दर्शननो विषय छे, तेथी जेने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं होय तेणे त्रिकाळी एक ज्ञायकभावनो आश्रय लेवो जोईए.

आत्माश्रित एटले आत्माना द्रव्य-गुण-पर्याय एम त्रण थईने आत्मा अने एनो आश्रय लेवो एम कोई कहे तो ए अहीं वात नथी. अहीं तो आत्माश्रित एटले स्व-आश्रित ने स्व एटले त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभाव. भाई! सम्यग्दर्शन-