Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 273.

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धर्मनी पहेली सीडी-एनुं कारण त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकभाव छे. आत्माश्रित एटले त्रिकाळी एक ज्ञायकभावने आश्रित निश्चयनय छे. सम्यग्दर्शन थवामां एक ज्ञायकभाव, ध्रुवभाव, नित्य सहजानंदस्वरूप भाव एक ज कारण छे. बापु! आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदि बाह्य क्रियाओ करे एनाथी सम्यग्दर्शन थाय एम छे नहि, केमके ए तो सर्व पराश्रित भाव छे. एक स्वना आश्रये ज-त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थाय छे. समजाणुं कांई...?

भाई! गुण-गुणीनो भेद पण पराश्रय छे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, आनंदस्वरूप छे एम भेद पाडवो ते पराश्रित व्यवहारनय छे, ते बंधनुं कारण छे. आवी झीणी वात!

आ तो अध्यात्मशास्त्र बापा! भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव संवत ४९मां थया. ते पूर्वविदेहमां सर्वज्ञ परमात्मा देवाधिदेव श्री सीमंधर भगवान पासे गया हता. त्यां आठ दि’ रहीने अहीं आव्या पछी आ शास्त्र बनाव्युं छे. तेओ आ गाथामां कहे छे के आत्मा अर्थात् त्रिकाळी एक ज्ञायकभावने आश्रित निश्चयनय छे. आवो मारग बहु झीणो बापा! लोको तो बहारथी मांडीने बेठा छे के-व्रत पाळो, भक्ति करो, ने उपवास करो इत्यादि; एम करतां करतां कल्याण थई जशे. पण धूळेय कल्याण नहि थाय, सांभळने, बापु! ए तो बधुं पुण्यबंधनुं कारण छे, पापथी बचवा ए पुण्य होय छे, पण ए कांई धर्म नथी. धर्म तो एक ज्ञायकभाव जेने अहीं स्व कीधो तेनो आश्रये ज थाय छे. अहाहा...! पूर्णानंदस्वरूप चिदानंदमय सहजानंदनी मूर्ति प्रभु आत्मा ए पोतानुं स्व छे अने एना आश्रये ज धर्म थाय छे. समजाणुं कांई...?

भाई! आ कांई कोईना घरनी वात नथी. आ तो त्रिलाकीनाथ देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्माए दिव्यध्वनिमां जे कह्युं ते तेमना केडायती संतो कहे छे. कहे छे- आत्माश्रित अर्थात् स्व-आश्रित निश्चयनय छे. त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभाव ते स्व छे अने स्वना आश्रये निश्चयनय छे. निश्चयनय एटले त्रिकाळी ध्रुव सत्यार्थ वस्तु; अथवा निश्चयनय एटले ज्ञाननो शुद्ध अंश जेनो विषय त्रिकाळी ध्रुव स्व छे. ए त्रिकाळी स्वने ज (अभेदथी) शुद्धनय कहे छे. अहाहा...! चिदानंदघन प्रभु आत्मा ज पोतानुं परमस्वरूप छे अने तेने ज अभेदथी शुद्धनय कहे छे. ते एकना ज आश्रये सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय छे. हवे आवी व्याख्या! आकरी पडे माणसने पण शुं थाय? भाई! सम्यग्दर्शन विना व्रत, तप आदि तुं करे पण ए बधो पराश्रित भाव संसारमां रखडवा खाते ज छे.

अरे! अनंतकाळमां एणे स्व-स्वभाव जे पूरण ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो


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ज्ञायक-ज्ञायक-ज्ञायक एवो त्रिकाळी एक सामान्यभाव जेने परम पारिणामिकभाव कहे छे तेने जाण्यो नहि. अहा! अनंतवार एणे दिगंबर मुनि थईने पंचमहाव्रतादि पाळ्‌यां पण स्व-स्वभावना आश्रये आत्मज्ञान कर्युं नहि तेथी एने लेश पण सुख न थयुं, संसारपरिभ्रमण ऊभुं ज रह्युं. छहढालामां आवे छे ने के-

‘मुनिव्रत धार अनंत वार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायौ.’

‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्’ –तत्त्वार्थसूत्रनुं सूत्र छे. तेमां ‘उत्पाद-व्यय’ ए पर्याय छे, अवस्था छे अने ध्रौव्य ए त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभाव छे. ‘उत्पाद’ एटले मिथ्यात्वना व्ययपूर्वक सम्यग्दर्शननी पर्याय लईए तो एनुं आश्रयरूप कारण त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव छे. एक ज्ञायकभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे. पण रे! एणे व्रत, तप, जात्रा आदि करवा आडे पोताना ध्रुवस्वभाव एक ज्ञायकभावनो आश्रय कर्यो नहि!

पराश्रित रागमां धर्म मानीने तुं संतुष्ट थाय पण भाई! धर्मनुं एवुं स्वरूप नथी. धर्म तो एक वीतरागभाव ज छे अने ते स्व-आश्रये ज प्रगट थाय छे. समजाणुं कांई...?

आ तो दिव्यध्वनिनो सार एवी अध्यात्म-वाणी छे. मूळ गाथाओना कर्ता भगवान कुंदकुंदाचार्य बे हजार वर्ष पर सं. ४९मां थई गया; अने त्यार पछी हजार वर्षे आचार्य अमृतचंद्र थया. तेमनी आ टीका छे. तेमां तेओ कहे छे-स्व-आश्रित निश्चयनय छे. त्यां ‘स्व’ ते कोण? तो कहे छे-त्रिकाळी ध्रुव स्वभावभाव सामान्य-सामान्य- सामान्य एवो एक ज्ञायकभाव ते पोतानुं स्व छे अने ए सिवाय पर्यायादि भेद सहित आखुं विश्व पर छे; अने पर-आश्रित व्यवहारनय छे. गुणभेद, पर्यायभेद आदि समस्त परभावो व्यवहारनय छे. ल्यो, आवो झीणो मारग!

हवे कहे छे- ‘त्यां पूर्वोक्त रीते पराश्रित समस्त अध्यवसान (अर्थात् पोताना ने परना एकपणानी मान्यतापूर्वक परिणमन) बंधनुं कारण होवाने लीधे...’

शुं कीधुं? के परने हुं जिवाडुं, पर जीवोनी रक्षा करुं, परने सुखी करी दउं, तेमने आहार-औषधादि सगवडो दउं इत्यादि पर साथे एकपणानी मान्यतापूर्वक जे परिणमन छे ते बंधनुं कारण छे, आवो मारग बहु झीणो बापा! लोको, आ तो निश्चय छे, निश्चय छे एम करीने एनी उपेक्षा करे छे पण आ ज सत्य वात छे भाई! परद्रव्यनी क्रिया हुं करी शकुं ए मान्यता ज पराश्रित मिथ्यादर्शन छे, अने ते बंधनुं कारण छे.

प्रश्नः– तो पर जीवोनी दया पाळवी के नहि? दुःखी दरिद्रीओने आहार- औषधादिनां दान देवां के नहि?


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उत्तरः– अरे भाई! शुं तुं पर जीवनी दया पाळी शके छे? पर जीवनी दया हुं पाळुं एवी मान्यता मिथ्यात्व छे. पर जीवनी दया कोण पाळे? पर जीवनुं जीवन तो एना आयुना उदयने आधीन छे. आयुना उदये ते जीवे छे अने आयु क्षय पामतां देह छूटी जाय छे. भाई! तुं एने जिवाडी शके के मारी शके ए वात जैनदर्शनमां नथी. एवी मान्यताना परिणाम तने थाय ते मिथ्यात्व होवाथी बंधनुं-संसारनुं ज कारण छे.

तेवी रीते बीजाने आहार-औषधादि वडे उपकार करुं एवी स्व-परनी एकतारूप मान्यतानुं परिणमन पण बंधनुं ज कारण छे, केमके ए पर-जडनी क्रिया छे तेने तुं (- आत्मा) केम करी शके? परनी क्रिया पर करे ए जैनसिद्धांत ज नथी. एटले तो कह्युं के पराश्रित समस्त अध्यवसान बंधनुं ज कारण छे. भाई! परनुं कांई पण करवामां आत्मा पंगु एटले अशक्तिमान छे.

अहाहा...! त्रिलोकीनाथ वीतराग सर्वज्ञदेवनी वाणी संतो तेना आडतिया थई ने जगत समक्ष जाहेर करे छे. कहे छे-परमां एकपणानी मान्यतारूप परिणमन बंधनुं कारण होवाने लीधे भगवाने मुमुक्षु अर्थात् आत्माना शुद्ध परिणमननी जेने अभिलाषा छे तेने पोकार करीने कह्युं छे के-परनी एक्ताबुद्धि छोडी दे. हुं बीजाने जिवाडुं, सुखी करुं, आहार-औषधादि दउं इत्यादि मिथ्याभाव रहेवा दे; केमके ए बधी परनी क्रिया तो परमां परना कारणे थाय छे, एने आत्मा करी शक्तो नथी. हवे आवी वातो एणे कोई दि’ सांभळी नथी एटले बूमो पाडे के आ तो बधुं सोनगढनुं छे. पण भाई! आ सोनगढनुं नथी पण अनंता जिन भगवंतोए कहेलुं वस्तुनुं स्वरूप छे.

अहो! दिगंबर संतोए जगतने न्याल करी दीधुं छे. पराश्रित व्यवहारमां बे भेद पाडीने पहेलां स्थूळ पराश्रित एवो स्व-परनी एकतारूप व्यवहारनो निषेध कर्यो. हवे कहे छे- ‘पूवोक्त रीते पराश्रित समस्त अध्यवसान बंधनुं कारण होवाने लीधे मुमुक्षुने तेनो (-अध्यवसाननो) निषेध करता एवा निश्चयनय वडे खरेखर व्यवहारनयनो ज निषेध करायो छे, कारण के व्यवहारनयने पण पराश्रितपणुं समान ज छे.’

जोयुं? शुं कहे छे? के जेम परनी एकताबुद्धि जूठी छे, केमके स्व ने पर बे एक नथी; अने तेथी भगवाने तेनो निषेध कर्यो छे. तेथी आचार्य महाराज कहे छे के अमे मानीए छीए के भगवाने पराश्रित व्यवहार ज सघळोय निषेध्यो छे. पर साथेनी एकताबुद्धि निषेधीने भगवाने परना आश्रये थता बधाय भावोनो निषेध कर्यो छे. आ दया, दान, व्रत, पूजा, भक्ति इत्यादिना भाव बधा पराश्रित छे माटे एनो निषेध कर्यो छे; केमके जेम परद्रव्यनी एकताबुद्धिमां परनो आश्रय छे तेम दया, दान आदि (अस्थिरताना) रागभावोने पण परनो आश्रय छे. बन्नेमां


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पराश्रितपणुं समान ज छे. जेम एकत्वबुद्धिरूप अध्यवसान पराश्रित छे तेम दया, दान, व्रत, तप आदि जे व्यवहारनो विकल्प छे ते पण पराश्रित ज छे, अने तेथी ते पण निषिद्ध ज छे.

ल्यो, हवे आवुं छे छतां कोई वळी कहे छे-शुभभावथी-व्यवहारथी लाभ थाय, धर्म थाय.

अरे भाई! जेनाथी लाभ थाय एनो निषेध शुं काम करे? शुभभाव सघळोय पराश्रित होवाथी बंधनुं ज कारण छे माटे ते निषिद्ध छे.

तो शुं धर्मी पुरुषने शुभभाव होय ज नहि? होय छे ने? होय छे एनो निषेध कर्यो छे ने? न होय एनो शुं निषेध? अहा! आत्मज्ञानी ध्यानी प्रचुर आनंदमां झूलनारा साचा भावलिंगी मुनिराजने पण पांच महाव्रतादिना विकल्प आवे छे, पण तेमां मुनिराजने हेयबुद्धि होय छे; एने ते बंधनुं कारण जाणे छे अने शुद्ध निश्चयना उग्र आश्रय वडे तेनो ते निषेध करी दे छे. समजाणुं कांई...? समकितीने पण जे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग होय छे ते पराश्रित होवाथी तेनो निषेध करवामां आव्यो छे.

छे ने अंदर? छे के नहि? के- ‘पराश्रित समस्त अध्यवसान बंधनुं कारण होवाने लीधे मुमुक्षुने तेनो निषेध करता एवा निश्चयनय वडे खरेखर व्यवहारनयनो ज निषेध करायो छे.’

जुओ, निश्चयनय वडे एटले स्व-स्वभावना आश्रय वडे खरेखर व्यवहारनो निषेध करायो छे. अहाहा....! ज्यां स्वनो आश्रय करे छे त्यां परना आश्रयना भावनो सहज निषेध थई जाय छे. पण पराश्रयना भावने (शुभभावने) जो उपादेय माने तो त्यां स्वना भावनो-स्वस्वभावनो अनादर थाय छे अने तेथी तेने स्वस्वरूपनी प्राप्ति थती नथी. शुं कह्युं? के व्यवहार के जे परना आश्रये थाय छे अने जे बंधनुं-संसारनुं कारण छे तेने निश्चय वडे एटले के स्वना आश्रय वडे निषेधाय छे पण जे पराश्रयना भावने भलो-इष्ट जाणे ते एनो निषेध केवी रीते करे? ते तो संसारमां ज रखडे. भाई! वीतराग परमेश्वरना पंथना (मोक्षमार्गना) पथिकोए आ खास समजवुं पडशे.

आ मोटी तकरार! के-समकित छे के नहि? -एनी आपणने खबर न पडे; माटे आ व्यवहार साधन जे व्रत, नियम आदि छे तेने उथापे छे ते एकांत छे. एम के व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय, माटे व्यवहार करनारा साचा छे.

समाधानः– भाई! समकित छे के नहि-एनी जेने खबर न पडे वा एनी जेने शंका रहे तेने समकित छे ज नहि, अने तो पछी तेने व्यवहार


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साधनेय नथी. एने जे साधन छे ते एकांत राग छे अने ते मिथ्यात्व सहित होवाथी दीर्घ संसारनुं ज कारण छे. अहा! (कर्ता थई ने) एकांते व्यवहारना करनारा बिचारा दुःखमां पडया छे, केमके ते एकांत संसारनुं ज कारण छे. आवी वात छे.

अहीं कहे छे-मुमुक्षुने अध्यवसाननो निषेध करता एवा निश्चयनय वडे खरेखर व्यवहारनयनो ज निषेध करायो छे. जोयुं? मुमुक्षुने, बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेनो निषेध निश्चयनय वडे अर्थात् स्व-स्वभावना आश्रय वडे करायो छे, नहि के व्यवहारना आश्रये. व्यवहारना आश्रये (व्यवहार करतां करतां) व्यवहारनो निषेध थतो नथी पण शुद्ध निश्चयना आश्रये व्यवहारनो निषेध कराय छे. स्वना आश्रये ज पराश्रयना भावनो निषेध थाय छे. आ वस्तुस्वरूप छे. हवे आवुं व्यवहारना पक्षवाळाने आकरुं लागे पण शुं थाय?

अहा! जेम परमां एकत्वबुद्धिरूप अध्यवसान पराश्रित छे तेम व्यवहारनय पण पराश्रित छे. जेम अध्यवसान बंधनुं कारण छे तेम परना आश्रये थयेलो व्यवहारनो शुभभाव पण बंधनुं ज कारण छे. बेयमां पराश्रितपणुं समान ज छे. माटे हवे कहे छे-

‘अने आ व्यवहारनय ए रीते निषेधवायोग्य ज छे.’ परने आश्रये थयेला बधा ज भावो निषेधवायोग्य ज छे एम कहे छे. त्यारे कोई वळी कहे छे-शुभभावने पण छोडवालायक कहेशो तो तेने छोडीने लोको अशुभमां जशे.

समाधानः– अरे प्रभु! तुं सांभळ तो खरो. अहीं अशुभमां जवानी कयां वात छे? शुभने पण छोडवालायक माने तेणे अशुभने छोडवालायक मान्युं छे के नहि? बापु! शुभने पण छोडवालायक माने ए तो स्वना आश्रयमां जशे. भाई! आत्मानो आश्रय कराववा माटे व्यवहार सघळोय निषेध करवायोग्य ज छे. अहा! ज्यां पोते स्वना आश्रयमां जाय छे त्यां व्यवहारनो निषेध सहज थई जाय छे माटे व्यवहार निषेध करवा लायक ज छे.

अहा! शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्माना आश्रये जे निर्मळ रत्नत्रयरूप वीतरागी परिणति प्रगट थाय ते मोक्षनुं कारण छे. आ सिवाय समकितीने जे व्रतादिनो शुभभाव होय छे, होय छे खरो, ते बंधनुं ज कारण छे अने ते निषेधवायोग्य ज छे. समजाणुं कांई...? कह्युं छे ने के-

जिन सोही है आतमा, अन्य सोही है कर्म;
यही वचनसे समज ले, जिन-प्रवचनका मर्म.

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अहाहा...! आत्मा जिनस्वरूप परमात्मस्वरूप छे. तेमां भेद आदि पडे ते कर्म परवस्तु छे, आत्मा नहि. ल्यो, आ भगवाननी ओम्ध्वनिनो मर्म छे. शुं? के स्वना आश्रये व्यवहारनय निषेधवायोग्य ज छे.

समकितीने व्यवहारनय होय छे. नय बे छे तो तेनो विषय पण होय छे. पण व्यवहारनयनो विषय जे राग ते बंधनुं कारण छे, अने निश्चयनो विषय जे पूर्णानंदनो नाथ एक ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा तेनुं आलंबन मुक्तिनुं कारण छे. हवे आवी वातु सांभळवाय मळे नहि ते बिचारा शुं करे? कदाच सांभळवा मळे तो पकडाय नहि, ने पकडाय तो धारणामां लेवुं कठण पडे अने एनी रुचि थवी तो ओर कठण वात. पण भाई! आ अवसर छे हों (एम के व्यवहारनयने स्वना आश्रये निषेधवानो आ अवसर छे.)

अहाहा... ! देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा धर्मसभामां एम फरमावे छे के प्रभु! तुं मारी सामुं जोई मने माने (श्रद्धे) ए बधो राग छे, केमके अमे तारा माटे परद्रव्य छीए. तारुं स्वद्रव्य छे एनाथी अमे पर छीए. तेथी अमारी सन्मुख थई अमने मानतां तने शुभराग थशे. अमे तेनो निषेध करीने कहीए छीए के ते धर्म नथी. समजाणुं कांई... ? (मतलब के स्वमां जो, स्वमां जा ने स्वमां ठर.)

जुओ, नय बे छे-निश्चय अने व्यवहार. निश्चय एने कहीए के जे त्रिकाळी एक ज्ञायकमात्र प्रभु आत्मानो-स्वनो आश्रय ले; अने व्यवहारनय एने कहीए के जे परनो आश्रय ले. परनी एकत्वबुद्धि ने परनो आश्रय एने व्यवहार कहीए. एमां स्वना आश्रये धर्म थाय अने परना आश्रये अधर्म थाय. हवे आमां (स्वाश्रय) कठण पडे माणसने एटले कहे के-व्रत पाळे ने तप करे ते धर्म. पण अरे भाई! आत्माना आश्रय विना, सम्यग्दर्शन विना व्रत ने तप केवां? एकडा विनानां मींडांनी संख्या केवी? एकडो होय तो संख्या बने, पण एकडा विनानां मींडां तो मींडां ज छे (शून्य छे) तेम सम्यग्दर्शन विना, स्वना आश्रय विना व्रत ने तप बधां निष्फळ छे; धर्म नथी, अधर्म छे. हवे आवुं जगतने आकरुं पडे पण शुं थाय? अनंत तीर्थंकरोए कहेलो मारग तो आ एक ज छे. भाई! श्रीमदे कह्युं छे ने के-

‘एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ’

बापु! परमार्थनो पंथ, मोक्षनो पंथ तो आ एक ज छे. अहा! जेने आ मारगनी वात बेठी एनुं तो कहेवुं ज शुं? एने तो भवबीजनो छेद थई जाय छे. पण अरे! जे एकांते पराश्रित व्यवहारमां रोकायेलो रहे छे तेओ एकाद भव देवनो करीने कयांय कागडे-कूतरे-कंथवे तिर्यंचमां भव-समुद्रमां


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डूबी जाय छे. अरे भाई! मारगने जाण्या विना ८४ लाख योनिमां अवतार करी करीने तारा सोथा नीकळी गया छे. अहा! निगोदमां एक श्वासमां अढार भव करतो थको उपरा उपरी अनंत अनंत भव करी तुं महादुःखी थयो छे; तो हवे तो चेत, अने पराश्रयनी भावना छोडीने स्वाश्रय प्रगट कर.

अरे भाई! आ व्यवहारनय ए रीते निषेधवायोग्य ज छे; ‘कारण के आत्माश्रित निश्चयनयनो आश्रय करनाराओ ज (कर्मथी) मुक्त थाय छे अने पराश्रित व्यवहारनयनो आश्रय तो एकांते मुक्त नहि थतो एवो अभव्य पण करे छे.’

जुओ, आत्माश्रित निश्चयनय अर्थात् स्वस्वभाव जे एक ज्ञायकभाव तेनो आश्रय करनाराओ ज मोक्ष पामे छे, पण पराश्रित व्यवहारनो आश्रय करनाराओनो कदीय मोक्ष थतो नथी.

त्यारे कोई लोको कहे छे-तमे निषेध करो छो ने पाछो व्यवहार तो करो छो. आ जिनमंदिर, समोसरणमंदिर, मानस्थंभ, आगममंदिर इत्यादि बधां कर्यां ए बधो व्यवहार नथी शुं?

पण ए बधांने कोण करे बापु? ए मंदिर आदि तो एना काळे थवायोग्य हतां ते थयां छे अने ते ते काळे जे शुभभाव थयो ते होय छे पण ए कांई आश्रय करवा लायक नथी वा ते कर्तव्य छे एम नथी. भाई! आ उपदेश देवानो विकल्पेय शुभराग छे, ते आवे खरो पण ते करवायोग्य कर्तव्य नथी, धर्म नथी.

अहाहा....! ‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी’ अहाहा...! चिदानंदघन पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे; एनो आश्रय करनारा मुनिवरो मुक्तिने पामे छे, पण व्यवहारनो आश्रय करनाराओ धर्म पामता नथी. आवो मारग प्रभु! मुक्तिनो पंथ महा अलौकिक छे. जेमां एक स्वनो ज आश्रय स्वीकृत छे. सज्झायमाळामां आवे छे के-

सहजानंदी रे आतमा, सूतो कांई निश्चिंत रे;
मोहतणा रणिया भमेजी, जाग जाग मतिमंत रे. -सहजानंदी
लूंटे जगतना जंत रे... कोई विरला उगरंत रे. -सहजानंदी

अहाहा...! सहजानंदस्वरूप आत्मा छो ने प्रभु! तुं. स्वरूपने जाण्या विना बेखबर थई कयां सूतो छे प्रभु! अरे! जो तो खरो! आ स्व-परनी एकताबुद्धिरूपी चोर भमी रह्यो छे. जाग रे जाग नाथ! स्वरूपमां जाग्रत था. आ जगतना लोको-बायडी छोकरां वगेरे तने लूंटी रह्यां छे. भाई! तेमनामां घेराई ने तुं लूंटाई रह्यो छे तो जाग ने स्वने संभाळ. स्वमां जागनारा कोई विरला ज बचे छे. अहीं


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कहे छे-निश्चयनो आश्रय करनारा कोई मुनिवरो ज मुक्तिने पामे छे, पण व्यवहारमां गूंचवायेलाओ-मुग्ध थयेलाओ मुक्तिने पामता नथी.

त्यारे कोई (अज्ञानी) कहे छे-आ तो एकांत थई गयुं. एम के कथंचित् निश्चयथी ने कथंचित् व्यवहारथी मोक्ष थाय एम अनेकांत करवुं जोईए.

बापु! एम अनेकान्त छे ज नहि, ए तो एकांत छे वा मिथ्या अनेकान्त छे. स्व-आश्रये मुक्ति थाय ने पर-आश्रये न थाय ए सम्यक् अनेकांत छे. समजाणुं कांई...? ए ज कहे छे के-

आत्माश्रित निश्चयनो आश्रय करनाराओ ज मुक्त थाय छे अने पराश्रित व्यवहारनयनो आश्रय तो एकांते नहि मुक्त थतो एवो अभव्य पण करे छे. अभव्य पण भगवान जिनेश्वरे कहेलां व्रत, शील, तप, समिति, गुप्ति इत्यादि अनंतवार निरतिचारपणे पाळे छे, पण एनी कदीय मुक्ति थती नथी. जो व्यवहारना आचरणथी धर्मनो लाभ थाय तो अभव्यनो मोक्ष थवो जोईए, पण एम छे नहि. माटे हे भाई! पराश्रयनी बुद्धि छोडी एक स्व-स्वरूपनो आश्रय कर. एक स्वना ज आश्रये मुक्ति थाय छे. मुक्तिना मार्गने परनी-निमित्त के व्यवहारनी कोई अपेक्षा नथी. अहो! मुक्तिनो मार्ग परम निरपेक्ष छे. व्यवहार होय खरो पण एनी मुक्तिना मार्गमां अपेक्षा नथी. ल्यो, आवी वात छे!

* गाथा २७२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्माने परना निमित्तथी जे अनेक भावो थाय छे ते बधा व्यवहारनयना विषय होवाथी व्यवहारनय तो पराश्रित छे, अने जे एक पोतानो स्वाभाविक भाव छे ते ज निश्चयनयनो विषय होवाथी निश्चयनय आत्माश्रित छे.’

जुओ, आ व्यवहार-निश्चयनयनी व्याख्या कहे छे. आत्माने परना निमित्ते जे अनेक प्रकारना विभाव भावो थाय छे ए बधा व्यवहारनयना विषय छे, माटे व्यवहारनय पराश्रित छे. भाई! एक स्वना आश्रय विना जेटला परद्रव्यनी एकताबुद्धिना अने परना आश्रये थता भावो छे ते सघळाय व्यवहारनयनो विषय छे.

प्रश्नः– ए ज्ञानीने पण होय छे ने? उत्तरः– होय छे ने; पण ज्ञानीने एनो (-व्यवहारनो) आश्रय नथी; ज्ञानीने एनुं ज्ञान छे. अहीं तो आश्रय छे एनी वात चाले छे. समजाणुं कांई...?

व्यवहारनय परने आश्रये छे ने निश्चयनय स्व नाम त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावना आश्रये छे. स्वना आश्रये जे निर्मळ द्रष्टि-ज्ञान थयां ते मोक्षनुं कारण छे अने परना आश्रये थयेलो व्यवहार बधोय बंधनुं-संसारनुं कारण छे.


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व्यवहारनय पराश्रित छे, ने निश्चयनय स्व-आश्रित छे-आ सिद्धांत कह्यो. कहे छे-

‘जे एक पोतानो स्वाभाविक भाव छे ते ज...’ जोयुं? जे त्रिकाळी ध्रुव एक चिन्मात्र भाव जेने छठ्ठी गाथामां एक ज्ञायकभाव कह्यो ने अगियारमी गाथामां ‘भूतार्थ’ कह्यो ते ज एक पोतानुं स्व छे. अने ते ज एक निश्चयनयनो विषय होवाथी निश्चयनय स्वाश्रित छे, आत्माश्रित छे. झीणी वात बापु! लोकोने सत्यार्थ जे एक आत्मा तेने पहोंचवुं कठण लागे एटले अनेकभावरूप व्यवहारने चोंटी पडे पण भाई! व्यवहार पराश्रित छे ने बंधनुं कारण होवाथी बंधमार्गरूप छे.

‘अध्यवसान पण व्यवहारनयनो ज विषय छे तेथी अध्यवसाननो त्याग ते व्यवहारनयनो ज त्याग छे, अने पहेलांनी गाथाओमां अध्यवसानना त्यागनो उपदेश छे ते व्यवहारनयना ज त्यागनो उपदेश छे.’

जुओ, परद्रव्यनी क्रिया हुं करुं, बीजाने मारुं-जिवाडुं, दुःखी-सुखी करुं, बीजाने बंधावुं-मुक्त करुं इत्यादि जे अभिप्राय छे ते अध्यवसान छे. अध्यवसान एटले पर साथे एकत्वबुद्धिवाळी मान्यता. आवुं अध्यवसान ए व्यवहारनयनो विषय छे, अने अध्यवसाननो त्याग कराव्यो तेमां पराश्रित जे व्यवहार छे तेनो ज त्याग कराव्यो छे. परमां एकत्वबुद्धिरूप मिथ्याभावने छोडावतां पराश्रित सघळा व्यवहारने ज छोडाव्यो छे, अर्थात् परनी एकताबुद्धि छोडाववानी साथे परनी एकताबुद्धि विना परने आश्रये थतो सघळो व्रत, तप, नियम आदि व्यवहार ज छोडाव्यो छे. आवो मारग छे भाई!

‘आ प्रमाणे निश्चयनयने प्रधान करीने व्यवहारनयना त्यागनो उपदेश कर्यो छे तेनुं कारण ए छे के-जेओ निश्चयना आश्रये प्रवर्ते छे तेओ ज कर्मथी छूटे छे अने जेओ एकांते व्यवहारनयना ज आश्रये प्रवर्ते छे तेओ कर्मथी कदी छूटता नथी.’

जोयुं? आ मूळ वात कही. जेओ निश्चय नाम त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव- स्वभावभावना आश्रये वर्ते छे तेओ धर्मने प्राप्त थई मुक्ति पामे छे अने जेओ व्रत, तप, भक्ति आदि रागना आश्रये ज प्रवर्ते छे तेओ कर्मथी कदी छूटता नथी. रागना- व्यवहारना आश्रये प्रवर्तवुं ए तो बंधमार्ग-संसारमार्ग छे. माटे हे भाई! व्यवहारना आश्रयनी भावना छोड ने स्वरूपनो-स्वनो आश्रय कर-एम उपदेश छे.

[प्रवचन नं. ३२७ थी ३२९ *दिनांक २१-२-७७ थी २४-२-७७]


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गाथा–२७३

कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत्–

वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं।
कुव्वंतो वि अभव्वो अप्णाणी मिच्छदिट्ठी दु।। २७३।।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिन रैः प्रज्ञप्तम्।
र्कुन्नप्यभव्याऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिस्तु ।।
२७३।।

हवे पूछे छे के अभव्य जीव पण व्यवहारनयनो कई रीते आश्रय करे छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

जिनवरकहेलां व्रत, समिति, गुप्ति वळी तप–शीलने
करतां छतांय अभव्य जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. २७३.

गाथार्थः– [जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कहेलां [व्रतसमितिगुप्तयः] व्रत, समिति, गुप्ति, [शीलतपः] शील, तप [कुर्वन् अपि] करतां छतां पण [अभव्यः] अभव्य जीव [अज्ञानी] अज्ञानी [मिथ्याद्रष्टिः तु] अने मिथ्याद्रष्टि छे.

टीकाः– शील अने तपथी परिपूर्ण, त्रण गुप्ति अने पांच समिति प्रत्ये सावधानीभरेलुं, अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र अभव्य पण करे छे अर्थात् पाळे छे; तोपण ते (अभव्य) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी अने मिथ्याद्रष्टि ज छे कारण के निश्चयचारित्रना कारणरूप ज्ञान-श्रद्धानथी शून्य छे.

भावार्थः–अभव्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्र पाळे तोपण निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धान विना ते चारित्र ‘सम्यक्चारित्र’ नाम पामतुं नथी; माटे ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि अने निश्चारित्र ज छे.

*
समयसार गाथा २७३ः मथाळुं

हवे पूछे छे के अभव्य जीव पण व्यवहारनयनो कई रीते आश्रय करे छे? अहा! आवो जे व्यवहार भगवाने कीधो छे एनो अभव्य जीव पण कई रीते आश्रय करे छे के ते करवा छतां पण तेने धर्म होतो नथी? आनो उत्तर गाथामां कहे छेः-


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* गाथा २७३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘शील अने तपथी परिपूर्ण, त्रण गुप्ति अने पांच समिति प्रत्ये सावधानीभरेलुं, अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र अभव्य पण करे छे अर्थात् पाळे छे;.....’

जुओ, आ तो द्रष्टांत अभव्यनुं आप्युं छे पण भव्य जीवने माटे पण समजी लेवुं. अहीं शुं कहे छे? के अभव्य जीव पण जिनवरे कहेलां व्रतादिने तो पाळे छे, छतां पण ते धर्म पामतो नथी. भगवान जिनवरे कहेलां व्रतादि हों; अज्ञानीए कहेलांनी वात नथी. भाई! भगवान जिनेश्वरदेव सर्वज्ञदेवनी आज्ञा जे व्यवहारनी छे ते सर्वोत्कृष्ट परिपूर्ण छे. (मतलब के आवो व्यवहार बीजे [अन्यमतमां] कयांय नथी.)

‘जिनवरे कहेलां’ एम पाठमां (गाथामां) छे पण टीकामां ए शब्दो सीधेसीधा लीधा नथी; पण टीकामां ‘शील अने तपथी परिपूर्ण’-एम ‘परिपूर्ण’ शब्द नाखीने ‘जिनवरे कहेलां’ शब्दना अर्थनी पूर्ति करी छे. ‘शील अने तपथी परिपूर्ण’ -एम कह्युं ने? एनो अर्थ ज ए छे के जिनेश्वर भगवाने कहेलां शील अने तप, केमके भगवाने कहेलो मार्ग ज सर्वोत्कृष्ट परिपूर्ण होय छे. अहाहा...! कहे छे शील ने तपथी परिपूर्ण व्यवहारचारित्र अभव्य पण पाळे छे, पण तेथी शुं? एने धर्म थतो ज नथी. आवी वात छे! समजाणुं कांई....?

अहा! सर्वज्ञ परमात्माए व्रत, तप, शील ईत्यादि बाह्य व्यवहार जे रीते कह्यो छे ते रीते अभव्य जीव रागनी मंदतासहित परिपूर्ण रीते पाळे छे. छतां ए मिथ्याद्रष्टि छे एम कहे छे. बहु सूक्ष्म गंभीर वात छे भाई! अनंत अनंत वार ते शुभनुं आचरण करे छे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि छे केमके ते शील जे स्वभाव एक ज्ञायकभाव तेनो आश्रय कदापि करतो नथी.

एकथी छ महिना सुधीना नकोयडा उपवास-अनशन परिपूर्ण रीते करे छे, उणोदरी एटले के ३२ कवळमांथी ३१ कवळ छोडी दे एवुं उणोदरी तप पण ते (- अभव्य) अनंतवार करे छे. पण सम्यग्दर्शन विना अर्थात् आत्माना आश्रय विना अनशन, उणोदर, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायकलेश, संलीनता वगेरेनी जे क्रिया (- राग) करे छे ते एने बंधनुं-संसारनुं ज कारण बने छे.

वृत्तिसंक्षेपमां आहार लेवा नीकळे त्यारे दातार संबंधी, पात्र संबंधी, घर संबंधी, भोजन अने रस संबंधी अनेक प्रकारे मर्यादा करी कडक अभिग्रह धारण करे अने तदनुसार यथाविधि जोगवाई थाय तो ज भोजन ग्रहण करे; तथा रस-


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परित्यागमां दूध, दहीं, घी, खांड, मीठुं इत्यादिनो परित्याग करे; पण भाई! एमां आत्मानो आनंदरस कयां छे? ए तो बधो एकलो राग छे. अंदर आत्माना अतीन्द्रिय आनंदरसनो-अमृतनो स्वाद आव्या विना आ बहारनो रस-परित्याग शुं करे? कांई नहि; ए तो बंधनुं-कलेशनुं ज कारण बने छे. कोई बहारना रस-परित्यागमां मशगुल रहे ने माने के अमने धर्म थाय छे तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे.

वळी अनेक प्रकारे कायकलेश करे, गरमी-ठंडी वगेरे सहन करे; उनाळानी प्रचंड गरमीमां पहाडनी शिला पर जई आतापन योग धरे, शियाळानी तीव्र ठंडीमां नदी किनारे जई खुल्लामां ऊभा रहे तथा वर्षाऋतुमां वर्षा वरसती होय, प्रचंड पवन वातो होय ने डांस-मच्छर चटका भरता होय एवा समयमां वृक्ष नीचे जई योग धारण करे. वळी शरीरना अंगोने-इन्द्रियोने गोपवे-आंखथी कांई जुए नहि, कानथी कांई सांभळे नहि, जीभथी मौन राखे, सुगंध के दुर्गंधयुक्त पदार्थोमां प्रीति-अप्रीति न करे तथा कठोर के सुंवाळा स्पर्शादिमां खेद के हरख करे नहि. आ प्रमाणे पांच इन्द्रियोनो निग्रह करे, तथा अंग-उपांगने स्थिर राखी अमुक प्रकारनां आसनो धरे-इत्यादि संलीनता करे तोपण, अहीं कहे छे, अने धर्म थतो नथी. गजब वात भाई! शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी परमानंदमय तत्त्व पोते आत्मा छे. एक तेनो आश्रय कर्या विना आ बधी बाह्य तपनी पराश्रित रागादिनी क्रियाओ करे ते सर्व तेने संसारमां चारगतिमां रखडवा माटे ज छे. समजाणुं कांई...?

वळी ते अभ्यंतर छ प्रकारनां व्यवहार तप प्रायश्चित आदि करे छे. बहारमां कोई दोष लागे तो ते एनुं प्रायश्चित लई गुरु-आज्ञा प्रमाणे एकथी मांडीने छ मास सुधीना उपवास करे. पण ए बधो भाव शुभराग छे भाई! चित्तनी अंतःशुद्धि विना एने धर्म कयांथी थाय? न थाय.

वळी साचा देव-गुरु-शास्त्रनो-सर्वज्ञ वीतराग श्री अरिहंत देव, निर्ग्रंथ नग्न दिगंबर मुनिराज अने भगवान श्री जिनेश्वरदेवे कहेलां शास्त्रोनो विनय-बहुमान घणो करे छतां ए परद्रव्यनो जे विनय छे ते शुभभाव छे, धर्म नहि.

पण श्रीमद्मां आवे छे ने के-विनय मोक्षनो दरवाजो छे? हा; पण ए आ विनय नहि भाई! ए तो निर्मळानंदनो नाथ पोते एक ज्ञायकस्वभावी स्वस्वरूपे अंदर सदा विराजी रह्यो छे तेनो आदर, तेनो सत्कार करे ते सत्यार्थ विनय छे अने ते मोक्षनो दरवाजो छे. पण स्वस्वरूपना आदररहित कोई देव- गुरु-शास्त्रनी गमे तेटली अनंती भक्ति करे तोय तेनाथी मोक्षमार्ग थाय नहि. समजाणुं कांई...?

जुओ, आ वीतराग परमेश्वर भगवान जिनेश्वरदेवे कहेलां शील-तपने अभव्य


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जीव परिपूर्ण पाळे छे एनी वात चाले छे. सर्वज्ञे कहेलां देव-गुरु-शास्त्रनां भक्तिविनय अभव्य जीव बहारथी बराबर रीते पाळे छे पण ए बधुं एकांते पराश्रित रागनुं परिणमन होवाथी तेने एनाथी धर्म थतो नथी. वळी कोई ग्लान श्रमित निर्ग्रंथ मुनिवर होय तेनी वैयावृत्ति-सेवा करे तोय ते पराश्रित राग तेने कांई गुण कर्ता नथी, मात्र बंधन-कर्ता ज छे. आवी वात छे!

ते शास्त्रनो स्वाध्याय करे-११ अंग अने नव पूर्व सुधीनुं श्रुत कंठस्थ होय ते पाणीना पूरनी पेठे बोली जाय एम स्वाध्याय करे पण ए बधा विकल्प राग छे, व्यवहार छे, बंधनुं कारण छे. अहा! स्वस्वरूपना आश्रय विना, अंतर्दष्टि कर्या विना शास्त्र पण शुं करे? अहो! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एनी लोकोने खबर नथी. आ बहारथी त्याग कर्यो ने लुगडां छोडयां ने नग्नपणुं थयुं ने पंचमहाव्रत आदि पाळ्‌यां एटले माने के धर्म थई गयो, पण धूळेय धर्म नथी सांभळने. भाई! ज्यांसुधी आनंदनो नाथ एक ज्ञायकस्वभावमय प्रभु आत्मानो आश्रय करे नहि त्यांसुधी जेटलो कोई पराश्रित व्यवहार-क्रियाकांड करे ते सर्व बंधनुं-संसारनुं ज कारण थाय छे.

वळी भगवाने कहेलुं व्यवहार ध्यान पण ते अनंत वार करे छे. आत्मानुं विकल्परहित निर्विकल्प ध्यान नहि हों, पण शुभविकल्पवाळुं ध्यान अभव्य जीवे अने भव्य जीवे पण अहा! अनंतवार कर्युं छे. अंदरमां विचार-विकल्प जे आवे तेमां ऊभा रहीने ‘आ हुं आत्मा छुं’ -एवा विकल्पवाळुं ध्यान एणे अनंतवार कर्युं छे पण एथी शुं? एनाथी कांई लाभ नथी. भाई! आ तो अंदर छे एनी व्याख्या छे. केटलाक कहे छे-आ घरनुं नाखे (-उमेरे) छे, पण बापु! आ तो शब्दे शब्द अंदरमां छे; छे के नहि? छे ने अंदर? के ‘शील ने तपथी परिपूर्ण’ एवुं व्यवहारचारित्र अभव्य जीव पण पाळे छे.

ते (-अभव्य) कायोत्सर्गमां महिना बब्बे महिना सुधी आम स्थिरबिंब थईने ऊभो रहे, पण ए बधी पराश्रित रागनी क्रिया हाें. ए बधो भगवाने कहेलो बाह्य चारित्ररूप व्यवहार एने हो, पण निश्चयचारित्र तो ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानां श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक अंदरमां रमणता-लीनता करतां थाय छे. अहा! आ बहारनी काया तो शुं? अंदरमां विकल्परूपी कायानी द्रष्टिनो त्याग करी चिदानंदघन प्रभु आत्मामां लीन थईने रहेवुं एनुं नाम कायोत्सर्ग छे. हवे आवा निश्चय कायोत्सर्ग विना एकला व्यवहार कायोत्सर्ग अभव्य जीवे अनंतवार कर्या छे पण ए बधा संसार माटे ज सफळ छे.

प्रश्नः– पण आवो कायोत्सर्ग करतां करतां कोईक दि’ साचो थई जशे.


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उत्तरः– अरे भाई! खोटो कायोत्सर्ग करतां करतां शुं साचो कायोत्सर्ग थाय? शुं राग करतां करतां वीतरागता थाय? शुं अंधारुं भरतां भरतां प्रकाश थाय? कदीय न थाय. बापु! ए तो तने भ्रान्ति छे के खोटो कायोत्सर्ग करतां करतां साचो थई जाय. जुओ ने! अहीं स्पष्ट तो कहे छे के भगवान केवळीए कहेलो व्यवहार तो करे छे, छतां एने सम्यग्दर्शन थतुं नथी, धर्म प्रगटतो नथी.

आ तो अहीं अभव्यनुं द्रष्टांत दीधुं छे, बाकी भवि जीवोए पण आवुं बधुं अनंतवार कर्युं छे. शास्त्रमां लेख छे के पुद्गलपरावर्तनकाळमां अनंतवार ए नवमी ग्रैवेयक गयो. अहा! एक पुद्गलपरावर्तनना अनंतमा भागमां अनंता भव थाय. आवा अनंता पुद्गलपरावर्तनमां भव्य जीवे पण अनंतवार दिगंबर नग्न मुनि थई ने पंचमहाव्रतादि पाळ्‌यां. पण रे! एणे अंदर चैतन्यमूर्ति आनंदनो नाथ सदा भगवानस्वरूपे विराजी रह्यो छे तेनी द्रष्टि करी नहि! एनो आश्रय लीधो नहि! अहा! शील ने तपथी परिपूर्ण बधोय व्यवहार पाळ्‌यो, पण पोताना भगवानने अंदर भाळवानी दरकार करी नहि! पं. श्री दोलतरामजीए छहढालामां कह्युं छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंत वार ग्रीवक उपजायौ
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेस न पायौ.”

अहा! आत्मज्ञान-सम्यग्ज्ञान विना एणे अनंतवार मुनिव्रत धारण कर्यां; पांच महाव्रत, समिति ने गुप्ति इत्यादि बाह्य व्यवहार अनंतवार पाळ्‌यो, पण एनो सरवाळो शुं? शून्य; लेश पण सुख न थयुं, अर्थात् दुःख ज थयुं. अहा! महाव्रतादिना फळमां अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो, पण आत्मदर्शन विना एने जराय आनंद न मळ्‌यो, एणे मन-वचन-कायाने अशुभमांथी खेंची शुभमां रोकी राखी, पण बापु! ए तो बधुं दुःख ज छे भाई! शुभथी अशुभ ने अशुभथी शुभ एम शुभ-अशुभमां भमवुं ए तो नर्युं दुःख ज छे. शुभ-अशुभ बेयथी भिन्न पडीने आनंदमूर्ति सच्चिदानंद प्रभु निज आत्माना आश्रये निराकुळ निर्विकार पवित्र शान्तिरूप निर्मळ रत्नत्रय प्रगट करवां ए एक ज धर्म छे अने एक ज सुख छे. समजाय एटलुं समजो, पण मारग तो आ ज छे बापु! अहीं कहे छे-तेने (-मारगने) छोडीने तुं अहितना पंथे अनंतवार गयो छे! (तो हवे हितना-सुखना पंथे लाग).

प्रश्नः– तो धर्मी पुरुष पण व्रत, तप, शील, आदि व्यवहार तो पाळे छे? उत्तरः– भाई! धर्मी पुरुषे अंदर स्वनो-शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मानो आश्रय लीधो छे, तेथी एने अंदर निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्म प्रगट थयो छे. पण एनी पूर्णता न थई होय त्यां सुधी अने व्रत, तप, शील आदिनो भाव आवे छे खरो, पण एनो एने आश्रय नथी, एनुं एने स्वामित्व नथी; वळी एने ते बंधनुं ज कारण जाणी तेने हेय माने छे; ते एने पोतानामां भेळवतो नथी.


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ल्यो, आवी वात! धर्म तो एक कोर रह्यो, पण आवी सत्य वात सांभळवाय मळे नहि ए सत्यस्वरूपनो आश्रय के दि’ करे? अरे! जेओ सत्यने सांभळवानी दरकार करता नथी ते कयां जशे? अहा! जेम वंटोळिये चढेलुं तणखलुं कयांय जईने पडे छे तेम आ परना संगे चढेला जीवो संसारमां कयांय कागडे-कूतरे-कंथवे... आदि चतुर्गतिमां जईने पडशे. शुं थाय? परसंगनुं-रागना संगनुं एवुं ज फळ छे.

वळी ते (-अभव्य) त्रण गुप्ति अने पांच समिति प्रत्ये सावधान होय छे. जुओ, आमां (-टीकामां) ‘सावधान’ शब्द द्वारा ‘जिनवरे कहेलां गुप्ति अने समिति’ एम अर्थ प्रगट कर्यो छे, शुं कह्युं? के अभव्य जीव मन-वचन-कायाने गोपवी त्रण गुप्ति सावधानपणे अर्थात् कंई पण प्रमाद न थाय ए रीते पाळे छे. (विकल्परूप हों). अहा! ते मन-वचन-कायाने अशुभथी गोपवी शुभमां राखे छे. आवुं अभव्य अने भव्य पण अनंतकाळमां अनंतवार करे छे. पण ए बधुं धर्म माटे निष्फळ छे, ए वडे कांई धर्म थतो नथी. हवे आवी वात लोकोने आकरी लागे, पण शुं थाय? पराश्रयनी भावना कदीय धर्म नीपजाववा समर्थ नथी.

अहा! पांच समिति प्रत्ये ते सावधान होय छे; अर्थात् भगवाने कहेली व्यवहार समितिमां ते बराबर पाळे छे. ‘सावधान’ एटले शुं? के तेने प्रमाद नथी. इर्यासमितिमां गमन वेळा ते जोया वगर निरंकुश गमे तेम चाले नहि, पण एक धोंसराप्रमाण (चार हाथ छ फूट) भूमि बराबर जोईने चाले जेथी कोई एकेन्द्रियादि जीवने हानि न थाय, पीडा न थाय वा कोई जीव कचडाई न जाय. आ प्रमाणे अभव्यने छकायनी दयाना भाव होय छे. परंतु भाई! ए बधो पराश्रित राग एकला बंधनुं ज कारण थाय छे.

तो भावलिंगी मुनिराजने पण गुप्ति-समितिना विकल्प तो होय छे?

हा, साचा भावलिंगी मुनिराजने पण समिति-गुप्तिना भाव होय छे. ए छे तो प्रमाद ज, पण तेमां अशुभरूप तीव्र कषायरूप प्रमाद नथी एटले त्यां सावधानपणुं (- प्रमादरहितपणुं) कह्युं. ज्यारे अभव्यने तो तत्त्वद्रष्टि ज नथी, तेथी तेने सर्व व्यवहार बंधनुं ज कारण थाय छे.

इर्यासमितिनी जेम अभव्य भाषासमितिमां पण तत्पर छे. ते जे कांई बोले ते बराबर विचारीने सावधानीथी बोले छे. भगवाने जे व्यवहार कह्यो छे एनी भाषामां सावधानी छे. पण ए बधो शुभराग-थोथां छे, एमां कांई मूळ माल (-धर्म) नथी.

वळी एषणासमितिमां भिक्षा माटे जाय त्यारे निर्दोष आहार-पाणी एक वखत करपात्रमां ऊभा ऊभा ले. अहा! आधाकर्मी के उद्देशिक आहार ते कदी न


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ले अत्यारे जेम कोई चोका करीने आहार ले छे तेम ते कदीय आहार न ले. पोताना माटे बनावेलो आहारनो एक कणियो के पाणीनुं बिंदु ते कदापि ग्रहण न करे. अहा! आवी एषणा समितिनी क्रियाओ एणे अनंतवार करी छे. पण एमां भगवान आत्मा क्यां छे? अहा! आनंदना नाथ प्रभु आत्माना आश्रय विना ए बधी व्यवहारनी क्रिया व्यर्थ-फोगट ज छे; ए क्रिया कांई धर्म पामवामां कारण बनती नथी. अहा! मोक्षमार्ग तो आ परद्रव्याश्रित व्यवहारनी क्रियाथी तद्दन निरपेक्ष छे. अहा! दुनिया समजे न समजे, पण मारग तो आवो दुनियाथी साव जुदो छे भाई! बापु! मारगडा तारा जुदा छे प्रभु!

आदाननिक्षेप समितिमां ते वस्तुने-मोरपींछी, कमंडळ अने शास्त्रने- सावधानीपूर्वक कोई जीवजंतुने हानि न थाय के दुःख न थाय तेम ध्यान राखीने ले अने मूके छे. जुओ, मुनिराजने मोरपींछी अने कमंडळ-बे ज वस्तु होय छे, एने वस्त्र-पात्र कदीय न होय. कोई वस्त्र-पात्र राखे अने पोताने मुनि मनावे तो ए तो स्थूल मिथ्याद्रष्टि छे अने एने मुनि माननार पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. अहीं कहे छे-अभव्य जीवे भगवाने कहेली आदाननिक्षेप समिति अनंतवार पाळी छे, पण एने धर्म नथी केमके एने पराश्रय मटीने कदी स्व-आश्रय थतो नथी. अहा! आवो स्व-आश्रयनो भगवाननो मार्ग शुरानो मार्ग छे भाई! कह्युं छे ने के-

‘हरिनो मारग छे शूरानो नहि कायरनुं काम जो ने.’ ‘हरिनो मारग’ एटले शुं? त्यां पंचाध्यायीमां ‘हरि’ शब्दनो अर्थ कर्यो छे के- अज्ञान, मिथ्यात्व अने रागद्वेषने जे हरे-नाश करे ते हरि छे. अहा! आवा हरिनो मारग महा शूरवीरनो मारग छे; एने सांभळीनेय जेनां काळजां कंपे ते कायरोनुं एमां काम नथी. अहा! व्यवहारथी-शुभक्रियाथी धर्म थाय एवी मान्यतावाळा कायरोनुं- नपुंसकोनुं एमां काम नथी; केमके ए कायरोने-पावैयाओने मोक्षमार्गरूप धर्मनी प्रजा पाकती नथी. अहा! जेम नपुंसकोने प्रजानी उत्पत्ति थती नथी तेम शुभभावमां धर्म माननाराओने निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्मनी उत्पत्ति थती नथी; तेथी तेमने समयसारमां ‘क्लीब’ एटले नपुंसक कह्या छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! भगवान आत्मा वीर्यशक्तिनो पिंड छे. तेनुं कार्य शुं? तो कहे छे-जेवो पोतानो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभाव छे तेवुं स्वभाव-परिणमन करे अर्थात् पर्यायमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी प्रगटता करे ते तेनुं कार्य छे. भगवाने तेने आत्मबळ कह्युं छे के जे स्वरूपनी रचना क्रे, पण रागनी रचना करे ते आत्मानुं वीर्य नहि, आत्मबळ नहि; ए तो नपुंसकता छे.

भाई! आ तो मार्ग छे एनुं स्पष्टीकरण थाय छे. मुनिने एक कमंडळ


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(बाह्य शुद्धि माटे), मोरपींछी (जीव-जंतुनी जतना माटे), अने शास्त्र (स्वाध्याय माटे) ए त्रण संयमनां उपकरण होय छे; आ सिवाय मुनिने कांई न होय. वळी ते आत्मज्ञानसहित वर्ते, अने एनो बाह्य व्यवहार पण भगवाने कह्यो छे तेवो ज होय. अहीं कहे छे-आत्मज्ञान विना अभव्य जीवे अनंतवार भगवाने कहेलो व्यवहार पाळ्‌यो, पण एथी शुं लाभ? मात्र संसार ज फळ्‌यो; परिभ्रमण ऊभुं ज रह्युं.

उत्सर्गसमितिमां पण ते जीव-जंतुरहित जग्याए मळ (विष्टा), मूत्र वगेरेने नाखे, अने ते पण प्रमादरहित सावधानीपूर्वक. अहा! एकेन्द्रियादि कोईपण जीवने बाधा-पीडा न पहोंचे ए रीते एणे मळ आदिनो त्याग अनंतवार कर्यो, उत्सर्गसमितिनुं अनंतवार यथावत् पालन कर्युं, पण ए बधी शुभनी क्रियाओ एने शुं लाभ करे? मात्र संसारनो ज लाभ करे.

आ प्रमाणे त्रण गुप्ति अने पांच समितिनुं सावधानी भर्युं आचरण अभव्यने पण होय छे, पण एने धर्म थतो नथी.

अहा! आचार्यदेव पोकार करी कहे छे के-अभव्य पण अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र पाळे छे पण एने कोई दि’ अनंत भवमांथी एक पण भव घटतो नथी. तुं कहे छे-एनाथी मने धर्म थई जाय; पण ए केम बने भाई? महाव्रतादि सघळी व्यवहारनी क्रियाओ अनात्मरूप छे, एनाथी आत्मरूप धर्मनी प्राप्ति केम थाय? कदी न थाय. जुओ, शुं कहे छे? के-

‘अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र अभव्य पण करे छे अर्थात् पाळे छे; तोपण ते (अभव्य) निश्चारित्र (-चारित्ररहित); अज्ञानी ने मिथ्याद्रष्टि ज छे कारण के ते निश्चयचारित्रना कारणरूप ज्ञान-श्रद्धानथी शून्य छे.’

अभव्य जीव भगवाने कहेलुं व्यवहारचारित्र अनेक वार पाळे छे तोय ते चारित्ररहित, अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि ज छे एम कहे छे.

पण लोको कहे छे-महाव्रत तो चारित्र छे ने?

बापु! तने खबर नथी भाई! के चारित्र शुं चीज छे? ए महाव्रतादिना परिणाम तो विकल्प छे, शुभराग छे. कोई जीवने मारवो नहि; जूठुं न बोलवुं, सत्य बोलवुं, दीधा वगर कोईनुं कांई लेवुं नहि, बह्मचर्य पाळवुं-स्त्रीनो संग न करवो अने वस्त्र-पात्र आदि न राखवां-एवो तने जे विकल्प छे ए तो शुभराग छे भाई! ए कांई चारित्र नथी. चारित्र तो स्वरूपमां रमणतारूप परम आनंदरूप वीतरागी आत्म-परिणाम छे, अने ते आत्मानां सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान सहित होय छे.


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भाई! भगवान जिनवरनो मार्ग पचाववो महा कठण छे. जेने ते पचे एने तो भव रहे ज नहि. जेम भगवान जिनवरने भव नथी तेम तेना मार्गमां पण भव नथी केमके तेमां भवना भावनो अभाव छे. अहाहा...! भगवानना मार्गमां राग ने रागनी भावनानो अभाव छे. हवे ए लोको कहे के चर्चा करो, पण शानी चर्चा प्रभु? भगवान आत्मा सिवाय परना-बीजाना आश्रये जे भाव थाय एने तमे धर्म मनाववा इच्छो छो त्यां शानी चर्चा प्रभु? आ चोकखुं तो कहे छे के अभव्य जीव अनंतवार महाव्रतादिरूप व्यवहारचारित्र पाळे छे, छतां ते निश्चारित्री, अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि ज छे, तेने कदीय भवनो अंत थतो नथी, संसार मटतो नथी.

लोकोने एम लागे के आ घरनुं काढयुं छे, पण भाई! आ तो शास्त्रमां छे एना अर्थ कर्यां छे. तें जे मानेली वात होय एनाथी धर्मनी जुदी वात होय एटले तने गोठे नहि ने राड पाडे के आ घरनी वात छे, पण शुं थाय? आ तो भगवानना पेटनी वात आचार्य खोलीने तारा हितने अर्थे कहे छे.

कहे छे-आवुं भगवान जिनवरे कहेलुं व्यवहारचारित्र अभव्य पण पाळे छे छतां ते चारित्ररहित, अज्ञानी ने मिथ्याद्रष्टि ज छे, कारण के ते निश्चयचारित्रना कारणरूप जे आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान तेनाथी रहित छे. अहा! सम्यग्दर्शन विना व्यवहारचारित्र कोई चारित्र नथी, मात्र थोथां छे. माटे व्यवहार सघळोय निषेध करवा योग्य छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?

* गाथा २७३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अभव्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहारचारित्र पाळे तोपण निश्चय सम्यग्ज्ञान-श्रद्धान विना ते चारित्र ‘सम्यक्चारित्र’ नाम पामतुं नथी...’

शुं कीधुं? के अभव्य भगवाने कहेलुं जे महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहारचारित्र ते बराबर निरतिचार पाळे छे, परंतु भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनो तेने अभाव होवाथी ए बधुं एने अचारित्र नाम अशांति-दुःख ज छे. अहा! जेमां अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनो अनुभव नथी ते व्यवहारचारित्र दुःख ज छे.

हवे आम छे त्यां व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय ए कयां रह्युं? बापु! ए तो दुःख भोगवतां भोगवतां निराकुळ सुख आवे-एना जेवी (मिथ्या) वात छे. भाई! व्यवहारचारित्रनी दशानी दिशा पर तरफ छे, ने समकित आदि धर्मनी दशानी दिशा स्व तरफ छे. बन्नेनी दिशा ज विरुद्ध छे; तो पछी जेनी दिशा पर तरफ छे एवी दशामांथी स्व-आश्रयनी दिशावाळी दशा कयांथी थाय? न ज थाय.

अहा! ज्ञाननी वर्तमान पर्यायमां भगवान ज्ञायक जणाय छे (जुओ गाथा


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१७-१८ टीका) तोपण भगवान ज्ञायकनी द्रष्टि विना जेने तेनां सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान थयां नथी ते एकलो बाह्य व्यवहार पाळो तो पाळो, पण तेने ते बंधनुं ज कारण थाय छे; ए जिनवरे कहेलो व्यवहार हों. जिनवरे कहेलो केम कह्युं? केमके जिनवरे कहेलो व्यवहार ज यथार्थ ने सर्वोत्कृष्ट छे. अज्ञानीओए कहेलो व्यवहार सत्यार्थ होई शके ज नहि. अहा? निगोदना एकेन्द्रिय जीवो सुद्धां छकायना जीवोनी दयानो विकल्प जैनशासन सिवाय बीजे कयांय (अन्यमतमां) छे नहि.

आत्मा त्रणलोकनो नाथ प्रभु अंदर सदा एक ज्ञायकभावपणे भगवानस्वरूपे बिराजमान छे. तेने द्रष्टिमां लईने तेनां ज्ञान-श्रद्धान कर्या विना जिनवरकथित व्यवहारनी जेटली क्रियाओ करवामां आवे ते बधीय बंधनुं कारण थाय छे. अहा! जेमां अबंधस्वरूपी भगवान न आवतां बंधस्वरूप एवा रागादि आवे ते बधीय क्रियाओ संसारनुं- बंधनुं कारण थाय छे. थाय शुं? ए क्रियाओनो एवो ज स्वभाव छे. समजाणुं कांई...?

वस्तुस्वरूप तो आवुं छे. पण लोकोने एम के व्यवहारथी पण थाय अने निश्चयथी पण थाय, एने अनेकान्त कहेवाय.

बापु! ए कांई अनेकान्त नथी, ए तो फुदडीवाद छे, मिथ्या एकान्त छे, अहीं तो एम सिद्ध कर्युं के आवो (-भगवाननो कहेलो, सर्वोत्कृष्ट, यथार्थ) व्यवहार पण समकितनुं कारण नथी. जे पोते ज सम्यक्स्वरूप (आत्मस्वरूप) नथी ते समकितनुं कारण केम थाय? समकित तो त्रणलोकनो नाथ त्रिकाळी एक ज्ञायकभावस्वरूप आत्माना आश्रये थाय छे अने ए सिवाय बीजी कोई रीते-निमित्तना के व्यवहारना आश्रये थतुं नथी. आ अस्ति-नास्तिरूप अनेकान्त छे.

अहा! स्व-स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान विना बधोय व्यवहार संसार छे. जेनाथी स्वर्गनां पद मळे ए भाव पण संसार छे, दुःख छे. गाथा ४प कह्युं छे ने के-

“रे कर्म अष्ट प्रकारनुं जिन सर्व पुद्गलमय कहे,
परिपाक समये जेहनुं फळ दुःख नाम प्रसिद्ध छे.”

ज्ञानावरण आदि आठेय कर्मनुं फळ दुःख छे भाई! आ व्यवहारना शुभरागथी शातावेदनीय बंधाय अने एना उदयमां आ सामग्री-पांच-पचीस करोडनी धूळ (संपत्ति), आबरू, कीर्ति आदि मळे पण ए बधुं दुःखना ज कारणरूप छे, (एक भगवान आत्मा ज सुखना कारणरूप छे). अहाहा...! आ व्यवहारचारित्र तुं पाळे ए वर्तमान दुःखरूप छे अने एना निमित्ते जे कर्मप्रकृति (पुण्यप्रकृति) बंधाय ते झेरनां झाड छे भाई! एनां फळ जे आ बधो (देवपद, राजपद, वगेरेनो) ठाठमाठ ते दुःखरूप ज छे. भाई! आ वीतरागदेवनी वाणीमां आवेली वात छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? केवडो छो? तने खबर नथी पण


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प्रभु! तुं चिदानंदघन परिपूर्ण ज्ञानथी भरेलो त्रिकाळ परमात्मस्वरूप छो. अहा! एना ज्ञान-श्रद्धान विना पोताने वर्तमान पर्याय पूरतो, शुभरागस्वरूप मानीने भगवान! तें अनंतकाळ संसारमां-दुःखमां गाळ्‌यो छे.

अहीं कहे छे-निश्चय सम्यग्ज्ञान श्रद्धान विना ते चारित्र ‘सम्यक्चारित्र’ नाम पामतुं नथी. अहा! ते पंचमहाव्रत पाळे, हजारो राणीओ छोडीने ब्रह्मचर्य पाळे, वस्त्रनो धागोय न राखे, पोताना माटे चोको करी आहार बनाव्यो होय तेवो उद्देशिक आहार प्राण जाय तोपण न ले इत्यादि व्यवहारमां सावधान रहे तोय, कहे छे, ते अचारित्र छे, बंधनुं कारण छे. अहा! जेटलो परना आश्रयवाळो भाव छे ते सर्व बंधनुं कारण छे.

जुओ, आ बंध अधिकार छे ने? तेथी बंधना परिणामनुं स्वरूप बतावे छे. एनी सामे त्रिकाळ अबंधस्वरूप भगवान आत्माना आश्रये जे परिणाम थाय ते अबंध परिणाम निर्मळ रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गना परिणाम छे. ए अबंध परिणाम विना एकांत बंध परिणामवाळो जीव आवुं क्रियारूप व्यवहारचारित्र पाळे तो ते चारित्र ‘सम्यक्चारित्र’ नाम पामतुं नथी एम कहे छे. बहु गंभीर शब्दो भाई! आ २७२, २७३, २७४ गाथाओ बहु सरस-एकलुं माखण छे.

आ पंचमहाव्रतना पाळनारा भावलिंगी संत-मुनिवरो कहे छे के-सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना एनुं (अभविनुं) सघळुं व्यवहाररूप आचरण अचारित्र छे, मिथ्याचारित्र छे.

‘माटे ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि अने निश्चारित्र ज छे.’ ल्यो, टीकामां छे ते त्रणेय बोल लई लीधा. ११मी गाथाना भावार्थमां आवे छे के-“प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे.” जुओ, आमां ‘हस्तावलंब’ (निमित्त) शब्द साथे गाथामां कहेला ‘जिनवरे कहेलो व्यवहार’ -ए शब्दो साथे मळे छे. ‘तेनुं फळ संसार छे’ -एम मेळ छे.

हवे पर्यायमां पोतानो भगवान आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा प्राप्त न थयो होय अने बाह्य व्यवहारनी-शुभनी क्रिया कर्या करे पण ए बधुं अचारित्र छे. (व्यवहारचारित्रेय नहि). अरे! आवी खबर न मळे अने मानी बेसे के अमे धर्म करीए छीए तेने कहीए छीए के-भाई! जीवन जाय छे जीवन; आवो अवसर मळवो महा मुश्केल छे. भाई! आ मनुष्यपणुं ने आवी जिनवाणी महा भाग्य होय तो मळे छे. (माटे अंदरमां जाग्रत थई सावधान था).

[प्रवचन नं. ३२९ (शेष) अने ३३० * दिनांक २१-३-७७- अने २२-३-७७]