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तस्यैकादशाङ्गज्ञानमस्ति इति चेत्–
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु।। २७४।।
पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु।। २७४।।
हवे शिष्य पूछे छे के-तेने अगियार अंगनुं ज्ञान तो होय छे; छतां तेने अज्ञानी केम कह्यो? तेनो उत्तर कहे छेः-
पण ज्ञाननी श्रद्धारहितने पठन ए नहि गुण करे. २७४.
गाथार्थः– [मोक्षम् अश्रद्दधानः] मोक्षने नहि श्रद्धतो एवो [यः अभव्यसत्त्वः] जे अभव्यजीव छे ते [तु अधीयीत] शास्त्रो तो भणे छे, [तु] परंतु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य] ज्ञानने नहि श्रद्धता एवा तेने [पाठः] शास्त्रपठन [गुणम् न करोति] गुण करतुं नथी.
टीकाः– प्रथम तो मोक्षने ज अभव्य जीव, (पोते) शुद्धज्ञानमय आत्मानाज्ञानथी शून्य होवाने लीधे, नथी श्रद्धतो. तेथी ज्ञानने पण ते नथी श्रद्धतो. अने ज्ञानने नहि श्रद्धतो ते, आचारांग आदि अगियार अंगरूप श्रुतने (शास्त्रने) भणतो होवा छतां, शास्त्र भणवानो जे गुण तेना अभावने लीधे ज्ञानी नथी. जे भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते शास्त्र भणवानो गुण छे; अने ते तो (अर्थात् एवुं शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्नवस्तुभूत ज्ञानने नहि श्रद्धता एवा अभव्यने शास्त्र-भणतर वडे करी शकातुं नथी (अर्थात् शास्त्र-भणतर तेने शुद्धात्मज्ञान करी शक्तुं नथी); माटे तेने शास्त्र भणवाना गुणनो अभाव छे; अने तेथी ज्ञानश्रद्धानना अभावने लीधे ते अज्ञानी ठर्यो-नक्की थयो.
भावार्थः– अभव्य जीव अगियार अंग भणे तोपण तेने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान- श्रद्धान थतुं नथी; तेथी तेने शास्त्रना भणतरे गुण न कर्यो; अने तेथी ते अज्ञानी ज छे.
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हवे शिष्य पूछे छे के-तेने अगियार अंगनुं ज्ञान तो होय छे; छतां तेने अज्ञानी केम कह्यो?
जुओ, अगियार अंगमां पहेला ‘आचारांग’मां १८ हजार पद (-प्रकरण) छे अने एक पदमां प१ करोडथी झाझेरा श्लोक छे. एम बीजा ‘सूयगडांग’मां पहेलाथी बमणां एटले ३६ हजार पद छे, अने दरेक पदमां प१ करोडथी झाझेरा श्लोक छे. आ प्रमाणे क्रमथी ‘ठाणांग’ आदि आगळ आगळना अंगमां ११ अंग सुधी बमणां-बमणां पद करता जवुं. अहाहा...! आवुं जेने अगियार अंगनुं ज्ञान कंठाग्र होय छे तेने महाराज! आप अज्ञानी कहो छो ए कई रीते छे?
अभव्यने अगियार अंग उपरांत बारमा अंगना अंतर्गत चौद पूर्वमांथी नव पूर्व सुधीनुं ज्ञान होय छे, पण तेने बार अंगनुं पूरुं ज्ञान कदीय होतुं नथी तेथी अहीं ११ अंगनुं ज्ञान होय छे एम साधारण वात लीधी छे. अहा! ११ अंगना अबजो श्लोको जेने मोढे होय तेने आप अज्ञानी केम कहो छो? तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः-
गाथामां ‘पाठो ण करेदि गुणं’ एम ‘पाठ’ शब्द लीधो छे ने? एनो अर्थ ए के ११ अंगना पाठनुं-शब्दोनुं एने ज्ञान होय छे. शुं कीधुं? के जेमां जाणनारो ज्ञायक प्रभु आत्मा आव्यो नथी एवुं अगियार अंगनुं ज्ञान एने होय छे.
पंडित श्री टोडरमलजीनी ‘रहस्यपूर्ण चिठ्ठी’ मां आवे छे के- ‘जैनागममां जेवुं आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे तेने तेवुं जाणी तेमां पोताना परिणामोने मग्न करे छे तेथी तेने आगम परोक्षप्रमाण कहीए. त्यां परोक्षप्रमाण सिद्ध करवुं छे. परोक्षप्रमाणना पांच भेद छेः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान ने आगम. त्यां आगमे जेवुं स्वरूप कह्युं तेवुं जाण्युं, ने जाणीने परिणाम स्वरूपमां मग्न कर्या एनुं नाम स्वानुभवदशा, एनुं नाम सम्यग्दर्शन.
अहा! अनुभवमां आत्मा तो परोक्ष ज छे, कांई आत्माना प्रदेशे आदि प्रत्यक्ष भासता नथी. परंतु स्वरूपमां परिणाम मग्न थतां जे स्वानुभव प्रगट थयो ते स्वानुभव प्रत्यक्ष छे. ए स्वानुभवनो स्वाद कांई आगमादि परोक्ष प्रमाणादि वडे जणातो नथी. पोते ज ए अनुभवना रसास्वादने वेदे छे. वेदननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष छे, पण (मतिश्रुत) ज्ञाननी अपेक्षाए आत्मा परोक्ष छे.
समकितीने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि अपेक्षाए आत्मा परोक्ष छे. पूर्वे जाण्युं
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हतुं तेने याद करीने जाण्युं ते परोक्ष छे. पूर्वे जाणेलुं ते आ ज छे एवो निर्णय थयो ते प्रत्यभिज्ञान पण परोक्ष छे. ज्यां ज्ञान त्यां आत्मा ने ज्यां आत्मा त्यां ज्ञान; ज्यां ज्ञान नहि त्यां आत्मा नहि ने ज्यां आत्मा नहि त्यां ज्ञान नहि-एम अनुमान वडे जाणीने ज्ञानमां लीन थाय छे तेथी तेने परोक्ष कहे छे. एने प्रत्यक्ष कहेवुं होय तो केम कहेवुं? के मति-श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष छे केमके स्वानुभवकाळे कोई परनी अपेक्षा त्यां छे नहि, पण मति-श्रुतज्ञान सीधुं आत्माने जाणवामां प्रवर्ते छे.
पं. श्री बनारसीदासकृत जिनवाणीनी स्तुतिमां (शारदाष्टकमां) आवे छे केः-
त्रिधा सप्तधा द्वादशांगी बखानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी.
अकोपा अमाना अदंभा अलोभा, श्रुतज्ञानरूपी मतिज्ञान शोभा;
महा पावनी भावना भव्य मानी, नमो देवी वागेश्वरी जैनवाणी.
ल्यो, वाध पर सवारी करे ते वागेश्वरी एम लौकिकमां माने छे ने? ते आ वागेश्वरी नहि. आ तो बापा! वीतराग शुद्ध चैतन्यस्वरूपने देखाडनारी वीतरागनी वाणी-जिनवाणी ते वागेश्वरी, आमां कह्युं छे ने के- ‘श्रुतज्ञानरूपी मतिज्ञान शोभा;’ एटले के मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञानथी सीधुं आत्माने जाणे एमां ज ज्ञाननी शोभा छे, अर्थात् ए ज सम्यग्ज्ञान छे.
अहीं कहे छे-अगियार अंगनुं ज्ञान होवा छतां अभव्य जीव अज्ञानी छे केमके एनुं ज्ञान स्वरूपने जाणवा प्रति सीधुं कदीय प्रवर्ततुं नथी. समजाणुं कांई...?
‘प्रथम तो मोक्षने ज अभव्य जीव, (पोते) शुद्ध ज्ञानमय आत्माना ज्ञानथी शून्य होवाने लीधे, नथी श्रद्धतो. तेथी ज्ञानने पण ते नथी श्रद्धतो.’
जुओ, अभव्यनुं तो अहीं द्रष्टांत आप्युं छे, पण बीजा (भवि) मिथ्याद्रष्टिओनुं पण एम समजी लेवुं. कहे छे-प्रथम तो मोक्षने ज ते नथी श्रद्धतो. अहाहा...! मोक्ष एटले शुं? के आत्मानी पूर्ण शुद्ध दशा, पूरण वीतरागविज्ञानदशानी प्राप्ति थवी ते मोक्ष छे. अहा! आत्मा पूरण ज्ञानानंदस्वरूप छे. पर्यायमां तेनी पूरण प्राप्ति थवी अर्थात् पूरण वीतराग केवळज्ञानदशानी प्राप्ति थवी तेनुं नाम मोक्ष छे. हवे आवा मोक्षने ज अभव्य जीव नथी श्रद्धतो केमके पोते पूरण शुद्धज्ञानमय आत्मा छे एनुं एने ज्ञान नथी.
अहाहा...! आत्मा चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु त्रिकाळ शुद्ध ज्ञानानंदमय वस्तु पोते छे. एमां दया, दान आदि व्यवहारना विकल्प तो शुं एक समयनी पर्यायनो
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पण एमां अभाव छे. अहा! जे पर्याय शुद्धस्वरूपने जाणे छे ते पर्यायनो पण जेमां अभाव छे एवो एक शुद्धज्ञानमय भगवान आत्मा छे. समजाणुं कांई...? अहा! जेनाथी भवनो अंत आवी जाय ए मारग जुदा छे बापा! अनंतकाळमां आ बधां थोथां (व्यवहार) करी करीने मरी गयो भगवान! पण हुं शुद्धज्ञानमय आत्मा छुं एम एणे जाण्युं नहि!
‘पंचाध्यायी’ मां आवे छे के शास्त्र वडे जे श्रद्धा करी छे ते श्रद्धा नहि, अने जेमां आत्मा-शुद्धज्ञानमय वस्तु प्राप्त न थाय ए ज्ञान नहि. शुं कीधुं ए? के जे ज्ञाननी पर्यायमां आत्मा प्राप्त थयो नथी ते भले अगियार अंगनुं ज्ञान होय तोपण ते ज्ञान नथी. जेमां आत्मानुं ज्ञान-अनुभव-प्रतीति नथी ए तो मात्र शब्दनुं ज्ञान छे. अहा! अभव्यने अगियार अंगनुं ज्ञान छे ए शब्दनुं ज्ञान छे, केमके जेमां व्यवहारश्रुतज्ञाननो पण अभाव छे एवा शुद्धज्ञानमय भगवान आत्माना ज्ञानथी ते शून्य छे. माटे भले ते अगियार अंग भणे तोय ते अज्ञानी ज छे. अहो! दिगंबर संतोए एकलां अमृत घोळ्यां छे! श्वेतांबरादि बीजे कयांय आवी वात छे नहि.
भगवान! तुं एक वार सांभळ तो खरो. भाई! तुं एम पूछे छे ने के एने अगियार अंगनुं ज्ञान होय छे छतां एने अज्ञानी केम कह्यो?
तो हुं कहुं छुं के प्रभु! ‘हुं शुद्धज्ञानमय आत्मा छुं’ -एवुं एने स्वस्वरूपनुं ज्ञान नथी, स्वानुभव नथी. शास्त्रना ज्ञानथी ज्ञान छे पण ए तो बधुं परलक्षी ज्ञान बापा! बहारथी लागे के ओहोहोहो...! आवुं ज्ञान! पण ए बधुं अज्ञान छे भाई!
अहा! अगियार अंग भणवा छतां अभव्य जीव, जेमां एकलो शुद्धज्ञानमय प्रभु आत्मा रहेलो छे एवा मोक्षने ज श्रद्धतो नथी अने तेथी ते ज्ञानने-आत्माने पण श्रद्धतो नथी. अहा! बहारमां ते वीतराग देवनो, निर्ग्रंथ गुरुनो अने भगवान जिनेश्वरे कहेलां शास्त्रोनो अनंतवार विनय करे छे, पण भाई! ए बधां परद्रव्यनो विनय तो राग छे. भगवान केवळी एम कहे छे के-अमारा विनयमां लाभ मानी संतुष्ट रहेनारा रागी जीव छे अने एने ए वडे किंचित् धर्म नहि थाय. अहा! पोते अंदर शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी भगवान छे एनो आदर-विनय कर्या विना एने धर्म केम थाय? भले अगियार अंग भण्यो होय तोय अनंतकाळमां एने धर्म न थाय. समजाणुं कांई...?
प्रश्नः– तो शास्त्रथी आत्मज्ञान थाय छे एम आवे छे ने?
उत्तरः– ए तो भाई! निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं निमित्तप्रधान उपचारनुं कथन छे. निश्चयथी तो शुद्धज्ञानमय स्वस्वरूपना आश्रये ज आत्मज्ञान थाय छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
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एटले के पोते पोतानुं लक्ष-आश्रय करे तो शास्त्रने निमित्त कहेवाय. वात तो आम छे प्रभु! आगमथी पोतानुं स्वरूप जाणीने पोते स्वरूपमां परिणाम लीन करे तो आगमथी आत्मज्ञान थयुं एम निमित्तनी मुख्यताथी कहेवाय. समजाणुं कांई...?
आ ‘भक्तिथी मुक्ति’ एम केटलाक माने छे ने? तेने कहीए छीए के भाई! देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति ए तो राग छे, विकल्प छे, पराश्रित भाव छे. अहा! समोसरणमां ज्यां भगवान साक्षात् बिराजमान होय त्यां जईने एणे अनंत भवमां अनंतवार भगवाननी भक्ति-पूजा करी छे. पण एनो भव कयां एकेय घटयो छे? ए तो बधो पराश्रित व्यवहार बापु! निषेध करवा लायक भाई! भगवाने पर जेनो आश्रय छे एवा सघळा व्यवहारनो निषेध कर्यो छे, केमके ते बंधनुं कारण छे.
अभव्यने शास्त्रनुं ज्ञान (११ अंगनुं) छे ने? पण ए शास्त्रनुं ज्ञान छे ए तो विकल्प छे. राजमलजीकृत समयसार कळशटीका, कळश १३ मां छेल्ले कह्युं छे के-“कोई जाणशे के द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व लब्धि छे. तेनुं समाधान आम छे के द्वादशांगज्ञान पण विकल्प छे. तेमां पण एम कह्युं छे के-शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग छे.” जोयुं? भगवानना शास्त्रमां पण आ कह्युं छे के शुद्ध ज्ञानमय आत्माने उपादेयपणे अनुभववाथी उत्पन्न जे शुद्धात्मानुभूति ते मोक्षमार्ग छे, शास्त्रज्ञान नहि. अभव्य जीव शास्त्रज्ञानना विकल्पमां अटकी रहीने अंदर आनंदघन प्रभु पोते विराजी रह्यो छे तेनो अनुभव करतो नथी अने तेथी शुद्धज्ञानमय भाव जे मोक्ष तेनुं एने श्रद्धान थतुं नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा सदा मोक्षस्वरूप छे. अबद्ध कहो के मोक्षस्वरूप कहो- बन्ने एक ज छे. गाथामां (गाथा १४ मां) आवे छे ने के ‘जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुंट्ठं’ तेमां ‘अबद्ध’ कह्यो ते नास्तिथी छे अने ‘मोक्षस्वरूप’ ए अस्ति छे. अहाहा...! शुद्ध ज्ञानमय एवो आत्मा मोक्षस्वरूप छे. पण अभव्य जीव ‘आवो आ हुं आत्मा’ एम पोताने जाणतो-अनुभवतो नथी. तेथी मोक्ष के जे एकलो शुद्ध ज्ञानमय भाव छे तेने ते श्रद्धतो नथी अने तेथी ज्ञानने एटले पोताना आत्माने पण ते श्रद्धतो नथी. अहा! शास्त्रज्ञानना विकल्पमां रोकायेलो-गुंचायेलो ते ‘हुं पोते ज ज्ञानस्वरूपी आत्मा छुं’ -एम जाणतो नथी, श्रद्धतो नथी. भगवान सर्वज्ञे कहेलुं आ सत्य छे भाई! आ कांई पक्ष नथी; पक्षनो आमां निषेध छे. समजाणुं कांई...!
हवे कहे छे- ‘अने ज्ञानने नहि श्रद्धतो ते, आचारांग आदि अगियार अंगरूप श्रुतने (शास्त्रने) भणतो होवा छतां, शास्त्र भणवानो जे गुण तेना अभावने लीधे ज्ञानी नथी.’
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जोयुं? अभव्य जीव भगवान जिनेश्वरनां कहेलां आचारांग आदि शास्त्र भणे छे हो; आ वेदांतादि शास्त्रोनी वात नथी, ए तो कुशास्त्र छे; आ तो वीतरागे कहेलां सत्शास्त्र भणवा छतां शास्त्र भणवानो जे गुण तेनो तेने अभाव छे. शास्त्र भणवानो गुण तो आत्मज्ञान ने आत्मोपलब्धि छे, पण तेनो तेने अभाव छे तेथी ते ज्ञानी नथी.
अहा! अगियार अंगरूप श्रुतने ते भणे तो तेमां आत्मा आवो छे, आवो छे-ए शुं नथी आवतुं? आवे छे; एणे धारणामां पण लीधुं छे. परंतु स्वाध्याय, विनय, भक्ति इत्यादि बाह्य आचरणनी उपर जईने (तेनी पार जईने) स्वना आश्रय भणी ते उछळतो नथी. अहा! शास्त्र भणवानुं फळ तो शुद्धात्मानुभूति आववुं जोईए, अने शुद्धात्मानुभूति स्वना आश्रये ज थाय छे; पण ते पर-आश्रयथी हठी स्वना आश्रयमां जतो ज नथी, अने स्वना आश्रयमां गया विना शास्त्र-भणतर शुं करे? कांई नहि; भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्माना आश्रयमां गया सिवाय शास्त्रभणतर कांई कामनुं नथी. आवी वात छे!
अहाहा...! शास्त्र भणवानो गुण शुं? ए अगियार अंगरूप श्रुतमां-शास्त्रमां शुं कह्युं छे? के- ‘जे भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते शास्त्र भणवानो गुण छे.’
अहाहा...! भिन्नवस्तुभूत एटले शरीरादि परद्रव्यथी भिन्न, देव-गुरु-शास्त्रथी भिन्न, द्रव्यकर्म-भावकर्मथी भिन्न, अने नोकर्मथी भिन्न एवो एकला ज्ञानप्रकाशनो पुंज शुद्धज्ञानमय प्रभु आत्मा छे. आवा स्वस्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान थवां ते शास्त्र-भणतरनो गुण छे. आ वखतना आत्मधर्म (अंक ४०२) मां आव्युं ने? के-“ध्रुव चिद्धामस्वरूप ध्येयना ध्याननी धूणी धैर्ययुक्त धगशथी धखाववारूप धर्मना धारक धर्मात्मा धन्य छे.” अहा! ल्यो, आवो धर्म अने आवा धर्मना धरनार! अहा! आवो धर्म अंतरमां ध्रुवधामने ध्येय बनावीने प्रगट करवो ते शास्त्र-भणतरनो गुण छे.
भाई! ए तो दाखलो अभव्यनो आप्यो छे, पण अहीं सामान्यपणे सिद्ध आ करवुं छे के भगवान जिनवरे कहेलां बाह्य आचाररूप व्रत, तप आदि कांई धर्म नथी, तेम धर्मनुं कारण पण नथी. ए तो पहेलां (गाथा २७३ मां) आवी गयुं के अभव्य जीवे शील, तप परिपूर्ण रीते पाळ्यां, समिति-गुप्तिनी क्रियाओ सावधानपणे करी अने महाव्रतादि अनंतवार पाळ्यां. आवा भगवाने कहेला व्यवहारचारित्रना जे भाव छे ते अनंतवार प्रगट कर्या, छतां ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि अने निश्चारित्र ज छे. त्यारे प्रश्न थयो के-
अहा! तेने अज्ञानी केम कहो छो? एने जिनवरे कहेलां ११ अंगनुं ज्ञान तो होय छे; अभव्य अने भव्ये पण अनंतवार ए शास्त्रोनुं ज्ञान कर्युं छे, छतां एने अज्ञानी केम कहो छो?
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तो कहे छे-ते भले अगियार अंग भण्यो होय, पण ते मोक्षने श्रद्धतो नथी. शास्त्रज्ञानना विकल्पथीय रहित भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु अंदर मोक्षस्वरूप छे एनुं एने ज्ञान-श्रद्धान नथी. शास्त्र भण्यो तेथी शुं? शास्त्र भणवानो गुण जे स्वानुभूति तेने ते कदी स्व-आश्रय करीने प्रगट करतो नथी.
प्रश्नः– तो पछी शास्त्र भणवां के न भणवां? उत्तरः– शास्त्र-ज्ञानना लक्षे शास्त्र भणवां एम नहि, पण शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्माना लक्षे शास्त्रनो अभ्यास करवो जोईए. प्रवचनसारमां (गाथा २३३ आदिमां) आनी स्पष्टता आवे छे.
भाई! अहीं एम वात छे के आचारांग आदि अगियार अंग सुधीनुं द्रव्यश्रुत भणतो होवा छतां भणवानो गुण जे भगवान आत्मानां द्रष्टि ने अनुभव ते अभव्यने होतां नथी तेथी ते अज्ञानी छे.
पंचास्तिकाय गाथा १७२ मां शास्त्र-तात्पर्य वीतरागता कह्युं छे. शुं कीधुं? के ११ अंग के बार अंगरूप द्रव्यश्रुतनुं तात्पर्य वीतरागता छे. अहाहा...! द्रव्यश्रुतमां जेमां चारे अनुयोग-प्रथमानुयोग, चरणानुयोग,करणानुयोग अने द्रव्यानुयोग-आवी जाय छे तेनुं तात्पर्य वीतरागता छे. प्रथमानुयोगमां तीर्थंकरादि महापुरुषनां जीवनचरित्र, चरणानुयोगमां बाह्य व्यवहारनां आचरण, करणानुयोगमां कर्मना परिणाम आदिनी व्याख्या अने द्रव्यानुयोगमां शुद्धज्ञानमय आत्मानी कथनी आवे, पण ए बधायने भणवानुं तात्पर्य एकमात्र वीतरागता छे.
अहा! ए वीतरागता केम थाय? तो कहे छे-भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप चैतन्यमूर्ति प्रभु सदा वीतरागस्वरूप ज छे. स्व-आश्रये तेनां ज्ञान, द्रष्टि अने अनुभव करवाथी पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे. सर्व शास्त्र भणवानुं आ इष्ट फळ-गुण छे.
अहा! त्यां पंचास्तिकायमां शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता कह्युं. अहीं कहे छे- भिन्नवस्तुभूत शुद्धज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते शास्त्र भणवानो गुण छे. तथा श्री राजमलजीए कळश १३ मां कह्युं के-बार अंगनुं ज्ञान पण विकल्प छे, तेमां (श्रुतमां) पण एम कह्युं छे के शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग छे अर्थात् बार अंगमां शुद्धात्मानुभूति करवानुं कह्युं छे. अहा! चारेकोरथी बधे आ एक ज वात छे. शुं! के-आत्मा पोते चिदानंदघन प्रभु छे. एनां ज्ञान-श्रद्धान करीने एमां ज ठरी जा, एना ज स्वादमां तृप्त थई जा. अहा! पण शुभक्रियाना पक्षवाळाने आ केम बेसे? न बेसे एटले शास्त्र भणे, व्रत करे ने तप करे ने भक्ति आदि अनेक क्रिया करे अने माने के धर्म थई गयो. अरे! पण धर्म तो शुं? एनाथी ऊंचां पुण्येय नहि थाय. समजाणुं कांई...?
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एक आत्माना ज्ञान विना आवुं करी करीने अभव्य मरी गयो तोय एक भव ओछो न थयो. मारग बहु गंभीर ने सूक्ष्म छे भाई!
अहा! शास्त्रनुं भणवुं ए विकल्प छे, व्यवहार छे. ए व्यवहार द्वारा शुद्ध निश्चय एक परमार्थ वस्तु समजावी छे. शुं थाय? बीजो उपाय नथी तेथी भेद पाडीने अभेद समजाववामां आवे छे. गाथा ८ मां पण कह्युं छे ने के-
जेम अनार्यने अनार्य भाषा विना समजावी शकाय नहि, तेम, शुं थाय? व्यवहार विना परमार्थ समजावी शकातो नथी. परंतु जेम अनार्य भाषा अनुसरवायोग्य नथी तेम व्यवहार अनुसरवा-आदरवा योग्य नथी. अज्ञानीने अभेद न समजाय तो भेद पाडीने समजाववामां आवे, पण त्यां भेद अनुसरवा-आदरवा योग्य नथी.
अगियार अंगमां पण आ कह्युं छे के-भगवान! तुं ज्ञायकमूर्ति प्रभु शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी त्रिकाळ परमात्मस्वरूप छो; तेनुं लक्ष करीने स्वानुभूति कर, आनंदनो अनुभव कर; पण व्यवहार कर एवुं एमां कयां छे? ए तो व्यवहार जे होय छे एनुं कथन छे बापु! बाकी व्यवहार कर ने व्यवहारथी लाभ थशे ए वात जिनशासनमां छे ज नहि. भाई! आ तारा हितनी वात छे. एथी उलटुं व्यवहारथी थाय एम मानीश तो तने स्वानुभूति नहि थाय, अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद नहि आवे ने तारा भवना फेरा नहि मटे. व्यवहारथी (निश्चय) थाय एम भगवाननी आज्ञा नथी अने एवो वस्तुनो स्वभाव पण नथी. समजाणुं कांई...?
प्रवचनसार गाथा १७२मां अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोलमां आवे छे के-“लिंग द्वारा नहि पण स्वभाव वडे जेनुं ग्रहण थाय छे ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” शुं कीधुं? के आत्मा स्वभाव वडे जेनुं ग्रहण थाय छे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे; विकल्प ने व्यवहारथी ते जणाय एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. अहा! आ दया, दान, व्रत, तप ने विनय-भक्तिना विकल्पथी के देव-गुरु-शास्त्र आदि निमित्तथी के शास्त्र-भणतरना विकल्पथी आत्मा जणाय एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. झीणी वात छे बापु! ए तो निर्मळ वीतरागी ज्ञानपरिणाम द्वारा जणाय एवुं ज एनुं स्वरूप छे.
‘परमात्मप्रकाश’ मां पण आवे छे के दिव्यध्वनिथी पण आत्मा जणाय एवो नथी. भगवान केवळीनी वाणी श्रुतज्ञान छे. भगवान केवळी पण श्रुतज्ञानथी कहे छे, केवळज्ञानथी नहि. सांभळनारने श्रुतज्ञान छे ने! एने कयां केवळज्ञान छे? तेथी केवळी दिव्यध्वनिमां श्रुतज्ञानथी कहे छे. अहा! ए श्रुतमां एम आव्युं के-अमने
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सांभळवाथी तुं तने जाणे एवो तुं नथी. हवे आवी वात लोकोने बेसे नहि एटले विरोध करे, पण शुं थाय? मारग तो जेम छे तेम ज छे.
कोईने न बेसे एटले भाई! एनो तिरस्कार न कराय. ए पण स्वभावे तो भगवान छे ने? पर्यायमां भूल छे ए तो स्व-आश्रये नीकळी जवा योग्य छे. अंदर सच्चिदानंदस्वरूप पोते भगवान छे तेना भान द्वारा भूल नीकळी जवा योग्य छे.
अहा! बार अंगरूप श्रुत छे ए भगवाननी वाणी छे. इन्द्रो, गणधरो ने महा मुनिवरो भगवाननी वाणी बहु नम्र थई सांभळता होय छे. अहा! ए वाणीमां एम आव्युं के-भगवान! तुं तारा स्वभावथी जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छो; पण आ अमारी वाणीथी तने जे ज्ञान थाय तेनाथी तने तारुं (-आत्मानुं) ज्ञान थाय एवुं तारुं स्वरूप नथी. अहा! शास्त्रज्ञानना विकल्पथी के निमित्तथी भगवान आत्मा जणाय एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. तने व्यवहारनो ने निमित्तनो पक्ष होय एटले एम माने के व्यवहार करतां करतां (निश्चय) थाय, निमित्तथी (कार्य) थाय, पण बापु! तारी ए मान्यता महा कलंक छे, महा शल्य छे. भाई! जेनो भगवाने निषेध कर्यो छे ए पराश्रित व्यवहारथी निश्चय थाय एम तुं माने छे ते महा शल्य छे. भगवाने तो बापु! स्व-आश्रित निश्चय कह्यो छे. समजाणुं कांई...?
अरे! आवा शुद्ध तत्त्वनी वात लोकोने बिचाराओने सांभळवा मळे नहि अने जिंदगी पूरी थई जाय. अरे! तेओ कयां जाय? जेम वंटोळिये चढेलुं तणखलुं कयांय जईने पडे तेम मिथ्यात्वने पडखे चढेलो जीव संसारमां रखडतो कयांय कागडे-कूतरे-कंथवे इत्यादि तिर्यंचादिमां चाल्यो जाय. भगवान! तारे कयां जवुं छे बापु? रखडवा जा छ (जाय छे) एने बदले स्वरूपमां जा ने भाई!
अहा! भगवान! तुं कोण छो? अंदर चिदानंदघन चैतन्यमूर्ति शुद्धज्ञानमय भगवान छो ने प्रभु! आ भूल छे ए तो एक समयनी पर्याय छे. एक समयनी भूल ने त्रिकाळी ज्ञायकतत्त्व बेय छे ने प्रभु! ए भूलने गौण कर तो अंदर भूल विनानी त्रिकाळी एक ज्ञायकभावमय चीज छो ने प्रभु! भाई! तने ज्ञानमां हुं एक ज्ञायकभावमय छुं एम महिमा आववो जोईए. अहा! जे ज्ञानमां शुद्ध स्वरूपनो महिमा भासे ते ज्ञानने ज भगवाने ज्ञान कह्युं छे; अने ए ज शास्त्र-भणतरनो गुण छे पण ए तो थयो नहि, तो शास्त्र भणवाथी शुं सिद्धि छे? ल्यो, आ ‘गुण’ नो आ अर्थ. आ तो सम्यग्दर्शननी वात बापु! चारित्र ए तो कोई अलौकिक दशा छे भाई! आ बहारनां व्रत, तप ए कांई चारित्र नथी.
जुओ, २७२ मां कह्युं के स्व-आश्रय ते निश्चय अने पर-आश्रय ते व्यवहार.
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पछी गाथा २७३ मां पराश्रित व्यवहार केवो अने केटलो एनी वात करी. त्यां कह्युं के भगवान जिनेश्वरदेवे कहेलो एवो ने एटलो सघळो व्यवहार अभव्य पाळे तोय तेने ए गुण करतो नथी. हवे अहीं ज्ञाननी वात करे छे. कहे छे-अहा! भगवान जिनवरदेवनी दिव्यध्वनिथी जे बार अंगरूप श्रुत रचायुं तेमां अगियार अंगनुं ज्ञान तेने होय तोय शास्त्र भणवानो गुण जे शुद्धज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते तेने नहि होवाथी ते अज्ञानी छे. अहा! भगवाननी वाणीमां एम आशय आव्यो के-शास्त्रज्ञाननी ने सघळाय व्यवहारनी अपेक्षा छोडी दईने तुं तने सीधो जाण. अहा! पंचम आरामां पण आवी अलौकिक वात! अहो! आचार्यदेवे शुं परमामृत रेडयां छे!
ओहोहो...! गाथाए गाथाए केवी वात करी छे! एक जण कहेतो हतो के आप समयसारनां आटआटलां वखाण करो छो पण में तो ए पंदर दि’ मां वांची काढयुं. शुं वांच्युं? कीधुं. भाई! एना अक्षर अने शब्द वांची जवाथी कांई पार पडे एम नथी. अहाहा...! शास्त्र भणवानो गुण तो भिन्नवस्तुभूत शुद्धज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान थाय ते छे. हवे ए तो थयुं नहि तो शुं वांच्युं? शास्त्र भणवामात्रथी आत्मज्ञान न थाय भाई! पण भिन्नवस्तुभूत आत्मामां अंतर्मुख थई एकाग्र थवाथी आत्मज्ञान थाय छे एम शास्त्रमां कह्युं छे.
अहा! आ वीतरागनी वाणीनो पोकार छे के अगियार अंगनुं ज्ञान एणे अनंतवार कर्युं, अने शास्त्रमां कहेलो व्यवहार एणे अनंतवार पाळ्यो अने नवमी ग्रैवेयकमां ते अनंतवार गयो पण अभव्यनो एकेय भव घटयो नहि.
त्यारे कोई वळी कहे छे-ए तो अभव्यनी वात छे. भव्य जो आवो व्यवहार पाळे तो एने शुद्धात्मानुं ज्ञान थई जाय.
भाई! एम नथी. बापा! आ तो अभव्यना द्रष्टांतथी एम सिद्ध कर्युं के भव्य पण एनी जेम आवां व्रत, तप आदि क्रियाकांड करी करीने मरी जाय सूकाई जाय तोपण ए वडे एनो एक पण भव घटे एम नथी. अहा! आवी बहु आकरी वात लागे पण शुं थाय?
अहा! कहे छे- ‘भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते शास्त्र भणवानो गुण छे; अने ते तो भिन्नवस्तुभूत ज्ञानने नहि श्रद्धता एवा अभव्यने शास्त्रभणतर वडे करी शकातुं नथी.’
अहा! ‘भिन्नवस्तुभूत ज्ञान’ एटले शुं? एटले के निमित्त अने राग- व्यवहारथी भिन्न एकलुं ज्ञान. बस. शुं कीधुं? अहाहा...! आत्मा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु एकलो ज्ञानमय-ज्ञानस्वरूप ज छे. बस जाणवुं, जाणवुं एवो ज जेनो स्वभाव छे अर्थात् एवा स्वरूप ज आत्मा छे. अहा! एने नहि श्रद्धता एवा अभव्यने, कहे
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छे, शास्त्र-भणतर वडे भिन्न वस्तुभूत शुद्धात्मज्ञान करी शकातुं नथी; अर्थात् शास्त्रभणतर तेने शुद्धात्मज्ञान करी शकतुं नथी.
भाई! तने तारा पूरण स्वरूपनी मोटप केम बेसती नथी? तुं जाणे के (शुद्धात्मज्ञान) निमित्तथी थाय ने व्यवहारथी थाय पण एवुं तारुं जाणवुं ने मानवुं मिथ्या छे. बापु! ए तो महा शल्य छे केमके निमित्त-परवस्तु ने राग तारुं कार्य करवामां पंगु-पांगळा अने अंध-आंधळा छे, अने तुं एमनाथी जणाय एवुं तारुं स्वरूप नथी. अहा भाई! आ व्रत, तप, शास्त्र-भणतर इत्यादि सघळो व्यवहार, जड, आंधळो ने तारुं कार्य (-आत्मज्ञान) करवामां पांगळो छे, शक्तिहीन छे.
हवे कहे छे- ‘माटे तेने शास्त्र भणवाना गुणनो अभाव छे; अने तेथी ज्ञानश्रद्धानना अभावने लीधे ते अज्ञानी ठर्यो-नक्की थयो.’
अहा! अभव्य जीवे अने भव्य जीवे पण अनंतवार ११ अंगनुं शास्त्रज्ञान कर्युं, पण अंदर शुद्धज्ञानमय पोतानो भगवान ज्ञायक छे एनो आश्रय लीधो नहि तेथी शास्त्र भणवानो गुण-जे शुद्ध ज्ञानमय आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान-ते थयो नहि. तेथी ते अज्ञानी ज रह्यो. अहा! शास्त्र-ज्ञान (विकल्प) जे पोतानी चीज नथी एनुं रटण कर्युं अने पोतानी चीज (-शुद्धज्ञानमय आत्मा) ने एणे जाणी नहि तेथी ते अज्ञानी ज ठर्यो. आवी वात छे.
‘अभव्य जीव अगियार अंग भणे तोपण तेने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान थतुं नथी; तेथी तेने शास्त्रना भणतरे गुण न कर्यो; अने तेथी अज्ञानी ज छे.’
जुओ, समयसार कळशटीका, कळश १३मां कह्युं छे के-बार अंगनुं ज्ञान कांई अपूर्व नथी. जो के बार अंगनुं ज्ञान समकितीने ज होय छे, बीजाने (मिथ्याद्रष्टिने) नहि, तोपण अपूर्व नथी एम केम कह्युं? केमके बार अंगनुं ज्ञान वजन (-महत्त्व) देवा जेवुं नथी कारण के शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे, शास्त्रज्ञान नहि.
अहा! शास्त्र भणवानो गुण तो अंदर भिन्न वस्तु चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा तेनो अनुभव करवो ते छे. पण अभव्य जीव शुद्ध आत्मानुभव करतो नथी. तेथी अगियार अंग भणे तोय तेने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान थतुं नथी. अहा! एणे परलक्षे जाण्युं छे के आत्मा आवो अभेद एक परम पवित्र शुद्ध ज्ञानस्वरूप छे, पण ते अंतर्मुख थईने आत्मानुभव करतो नथी; तेथी तेने शास्त्र भणतरे गुण न कर्यो; अने तेथी ते अज्ञानी ज छे.
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तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्–
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं।। २७५।।
धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम्।। २७५।।
फरी शिष्य पूछे छे के-अभव्यने धर्मनुं श्रद्धान तो होय छे; छतां ‘तेने श्रद्धान नथी’ एम केम कह्युं? तेनो उत्तर हवे कहे छेः-
ते भोगहेतु धर्मने, नहि कर्मक्षयना हेतुने. २७प.
गाथार्थः– [सः] ते (अभव्य जीव) [भोगनिमित्तं धर्म] भोगना निमित्तरूप धर्मने ज [श्रद्दधाति च] श्रद्धे छे, [प्रत्येति च] तेनी ज प्रतीत करे छे, [रोचयति च] तेनी ज रुचि करे छे [तथा पुनः स्पृशति च] अने तेने ज स्पर्शे छे, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम्] परंतु कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नहि. (कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नथी श्रद्धतो, नथी तेनी प्रतीति करतो, नथी तेनी रुचि करतो अने नथी तेने स्पर्शतो.)
टीकाः– अभव्य जीव नित्यकर्मफळचेतनारूप वस्तुने श्रद्धे छे परंतु नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुने नथी श्रद्धतो कारण के ते (अभव्य) सदाय (स्वपरना) भेदविज्ञानने अयोग्य छे. माटे ते (अभव्य जीव) कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मने नथी श्रद्धतो, भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे; तेथी ज ते अभूतार्थ धर्मनां श्रद्धान, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी. तेथी तेने भूतार्थ धर्मना श्रद्धानना अभावने लीधे (साचुं) श्रद्धान पण नथी.
आम होवाथी निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे.
भावार्थः– अभव्य जीवने भेदज्ञान थवानी योग्यता नहि होवाथी ते कर्मफळचेतनाने जाणे छे परंतु ज्ञानचेतनाने जाणतो नथी; तेथी शुद्ध आत्मिक धर्मनुं
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श्रद्धान तेने नथी. ते शुभ कर्मने ज धर्म समजी श्रद्धान करे छे तेथी तेना फळ तरीके ग्रैवेयक सुधीना भोगने पामे छे परंतु कर्मनो क्षय थतो नथी. आ रीते सत्यार्थ धर्मनुं श्रद्धान नहि होवाथी तेने श्रद्धान ज कही शकातुं नथी.
आ प्रमाणे व्यवहारनयने आश्रित अभव्य जीवने ज्ञान-श्रद्धान नहि होवाथी निश्चयनय वडे करवामां आवतो व्यवहारनो निषेध योग्य ज छे.
अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के-आ हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ छे तेथी तेमां भव्य-अभव्यनो अनुभवनी अपेक्षाए निर्णय छे. हवे जो आने अहेतुवाद आगम साथे मेळवीए तो-अभव्यने व्यवहारनयना पक्षनो सूक्ष्म, केवळीगम्य आशय रही जाय छे के जे छद्मस्थने अनुभवगोचर नथी पण होतो, मात्र सर्वज्ञदेव जाणे छे; ए रीते केवळ व्यवहारनो पक्ष रहेवाथी तेने सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहे छे. अभव्यने आ व्यवहारनयना पक्षनो आशय सर्वथा कदी पण मटतो ज नथी.
हवे शिष्य पूछे छे के-अभव्यने धर्मनुं श्रद्धान तो होय छे; छतां ‘तेने श्रद्धान नथी’ एम केम कह्युं? तेनो उत्तर हवे कहे छेः-
‘अभव्य जीव नित्यकर्मफळचेतनारूप वस्तुने श्रद्धे छे परंतु नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुने नथी श्रद्धतो कारण के ते सदाय भेदविज्ञानने अयोग्य छे.’
आ तो द्रष्टांत अभव्यनुं छे हों, बाकी अभव्यनी जेम भव्य जीवे पण आवुं बधुं अनंतवार कर्युं छे. जुओ, पं. श्री दोलतरामजीकृत छहढालामां आवे छे ने के-
अहा! दिगंबर जैन साधु थई ने ते अनंतवार नवमी ग्रैवेयक उपज्यो, पण आत्मज्ञान न थयुं , सुख न थयुं केमके ते नित्यकर्मफळचेतनाने श्रद्धे छे. अहा! रागनुं फळ जे भोग मळे तेने चेतवामां संतुष्ट ते कर्मफळचेतनाने श्रद्धे छे पण नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुने नथी श्रद्धतो. अहा! ते भोगना हेतुथी शुभकर्ममात्र धर्मने करे छे, पण स्वानुभवना हेतुए धर्म करतो नथी. समजाणुं कांई...?
अहा! ए जे शुभराग करे छे ते कर्मचेतना छे, ए कांई आत्मचेतना-शुद्ध- ज्ञानचेतना नहि. हवे आवी वात एने आकरी पडे पण शुं थाय? मारग तो आवो छे बापु!
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अहा! आवा मनुष्यपणामां भगवान त्रिलोकीनाथ जे कहे छे ते ख्यालमां लईने प्रभु आत्मानो अंदरमां आश्रय न कर्यो तो ए कयां जशे. अहा! एनुं शुं थशे? अनंतकाळ तो एने रहेवुं छे; केमके ए अविनाशी छे, एनो कांई थोडो नाश थवानो छे? अहा! ए अनंत-अनंत भविष्यमां कयां रहेशे? अरे! जेने रागनी-पुण्यनी रुचि छे ते मिथ्यात्वमां रहेशे ने चारगतिमां निगोदादिमां रझळशे! शुं थाय? पुण्यनी रुचिनुं फळ आवुं ज छे. ज्यारे अंदर सत्-स्वरूपनी रुचि जाग्रत करशे ते अनंत भविष्यमां आत्मामां ज रहेशे, स्व-आधीन सुखमां ज रहेशे. आवी वात छे!
अहीं कहे छे-अभव्य जीव नित्य-कायमी राग ने रागना फळने चेते छे. त्यां एने जे पंचमहाव्रतनो भाव छे, शास्त्रभणतरनो भाव छे-ए बधो कर्मचेतना-रागमां एकाकारपणानो भाव छे. तेने ते कर्तव्य माने छे परंतु नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुने ते श्रद्धतो नथी. आ अस्ति’ नास्ति छे. कर्मचेतना छे त्यां शुद्ध ज्ञानचेतना नथी.
अहा! अभव्य जीव कर्म एटले राग अने एनुं फळ जे भोग एने ज सदा इच्छे छे. तेने नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुनुं वलण ज नथी. पर सन्मुखना क्रियाकांडमां पडेला तेने स्वसन्मुखता थया विना नित्यज्ञानचेतनामात्र स्वरूप वस्तुनुं श्रद्धान कयांथी थाय? न थाय. तेथी एने परिभ्रमण मटतुं ज नथी.
त्यारे केटलाक कहे छे- ‘एक वार वंदे जो कोई तहि नरक-पशु गति नहि होई’ - एम कह्युं छे ने? बापु! ए तो सीधो नरक-पशुमां न जाय, पण पछी शुं? जात्राना परिणाम ए कांई धर्म नथी भाई! सम्मेदशिखरनी लाख जात्रा करे तोय धर्म न थाय. परद्रव्याश्रित रागना परिणाम संसारनुं-बंधनुं ज कारण छे; अबंध तो एक स्वआश्रित परिणाम छे अने ते धर्म छे. समजाणुं कांई...?
अभव्य जीव नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुने नथी श्रद्धतो कारण के ते सदाय स्वपरना भेदविज्ञानने अयोग्य छे. अहाहा...! पोते ज्ञानस्वरूपी नित्य ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु शुद्धज्ञानचेतनामात्र वस्तु भगवान आत्मा छे. पण एने ते जाणतो नथी, श्रद्धतो नथी. अहा! रागनी-व्यवहारनी क्रियाथी मने लाभ थशे, धर्म थशे एम ते माने छे अने सदाय कर्मचेतनाथी लिप्त-रंगायेलो रहे छे; केमके ए सदाय स्वपरनो विवेक-भिन्नता करवाने अयोग्य छे. अहा! ज्ञान अने रागनी भिन्नता करवाने ते सदाय अयोग्य छे. अहा! आटआटलुं (व्रत, तप वगेरे) करे तोय ते भगवान आत्मानुं ज्ञान करवा अयोग्य छे.
त्यारे कोई कहे छे-अभव्य माटे तो ते बराबर ज छे, पण भव्यनुं शुं? (एम के व्रत, तप आदि करे तो ते वडे भव्यने तो आत्मानुं ज्ञान थाय.)
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बापु! अभव्यनो तो दाखलो छे; बाकी अनंतकाळमां भवि जीवे पण आवुं (व्रत, तप आदि) अनंतवार कर्युं छे, छतां तेने कदापि ज्ञानस्वभावनी प्राप्ति थई नथी. (पुण्यनी रुचि मटाडी स्वरूपनी रुचि न करे त्यां सुधी भेदविज्ञान प्रगटतुं नथी).
‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ मां लीधुं छे के-ते तपश्चरणादि क्रिया तो करे छे, धर्मनी- व्यवहारनी क्रिया तो करे छे, छतां एने धर्म केम थतो नथी?
त्यां कह्युं छे के तपश्चरणादि व्यवहारधर्ममां अनुरागी थई प्रवर्तवानुं फळ तो बंध छे, अने आ तेनाथी मोक्ष इच्छे छे तो ते केम थाय? अहा! व्रत, तप, आदिना परिणाम तो रागना छे भाई! ए राग करे ने धर्म इच्छे ते केम थाय? बहु आकरी वात बापा! अहा! कर्मचेतनाथी ज्ञानचेतना केम थाय?
अहाहा...! तुं सर्वज्ञस्वभावी छो ने प्रभु! अहाहा...! तारुं स्वरूप ज ज्ञ-स्वभाव सर्वज्ञस्वभाव छे. अहा! एनां ज्ञान-श्रद्धान करे नहि अने रागने भलो जाणी एमां रोकाई रहे ए तो स्व-परना भेदविज्ञान माटे अयोग्यता छे. अहा! आ रीते अभवि जीव भेदविज्ञान माटे सदाय अयोग्य छे.
हवे कहे छे- ‘माटे ते (अभव्य जीव) कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ धर्मने नथी श्रद्धतो, भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे;...’
जुओ, रागथी ने विकारथी छूटवारूप निमित्त जडकर्म छे, अने जडकर्मना छूटवाना निमित्तरूप ज्ञाननी परिणति छे. कर्म छूटे छे ए तो एना कारणे, ए कर्मने छूटवामां ज्ञाननी परिणति निमित्त छे. अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूपी प्रभु छे. एना शुद्ध ज्ञानमात्र परिणाम ते भूतार्थ-सत्यार्थ धर्म छे. अहीं ‘भूतार्थ’ एटले त्रिकाळीनी वात नथी, पण त्रिकाळी भूतार्थ भगवान आत्माना आश्रये जे आत्मानां श्रद्धान-ज्ञान प्रगट थाय तेने भूतार्थ धर्म कह्यो. अहा! अभव्य जीव आ भूतार्थ धर्मने श्रद्धतो नथी. तो कोने श्रद्धे छे? तो कहे छे-
ते भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे. जोयुं? शिष्यनो प्रश्न हतो ने के-अभव्य जीव आवुं आवुं (व्रत, तप आदि) बधुं करे छे तो शुं तेने धर्मनुं श्रद्धान नथी? आ एनो खुलासो करे छे के एने अभूतार्थ नाम जूठा धर्मनुं श्रद्धान छे. खूब गंभीर वात प्रभु! शुं कहे छे? के भोगना निमित्तरूप जे दया, दान, व्रत, तप आदि पुण्यना भाव तेने धर्म मानीने तेनी ते श्रद्धा करे छे. एने अहीं अभूतार्थ एटले जूठो धर्म कह्यो छे केमके एना फळमां भोग मळे छे, पण आत्मा नहि. अहा! ए अभूतार्थ धर्मना निमित्ते पुण्य बंधाय ने पुण्यकर्मना उदयमां भोग मळे पण आत्मा नहि-एम कहे छे. समजाणुं कांई...?
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जुओ, शुद्ध चैतन्यघन प्रभु आत्माना आश्रये जे ज्ञानमात्र परिणाम उपजे ते कर्मथी-संसारथी छूटवामां निमित्त छे, तेथी तेने भूतार्थ एटले सत्यार्थ धर्म कह्यो, अने जे परना आश्रये शुभकर्ममात्र परिणाम थाय ते बंधमां ने भोगमां निमित्त छे तेथी ते अभूतार्थ-जूठो धर्म छे एम कह्युं. हवे एमां अभवि जीव शुभकर्ममात्र अभूतार्थधर्मने ज श्रद्धे छे, पण सत्यार्थ धर्मने श्रद्धतो नथी.
एक जणे आ सांभळीने कवितानी कडी रची हती केः-
पुण्य कर्मथी भोग ने, धरमथी मुक्तिधाम.”
अहाहा...! शुभभाव छे ते निश्चयथी अशुद्धभाव छे अने ते भोगनुं निमित्त जे पुण्यकर्म तेनुं निमित्त छे. अभव्य जीव भोगनुं निमित्त जे पुण्यकर्म तेनुं कारण जे शुभभाव तेने धर्म मानी तेनुं श्रद्धान करे छे पण सत्यार्थ धर्मने श्रद्धतो नथी. अहाहा...! पुण्य-पापथी भिन्न चिदानंदघन प्रभु आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणता ते ज्ञानमात्र शुद्ध परिणाम सत्यार्थ धर्म छे. अभव्य जीव तेने श्रद्धतो नथी.
केवा छे ते ज्ञानमात्र शुद्ध परिणाम? तो कहे छे-कर्म खरवामां निमित्त छे. अहाहा...! केटली वात करे छे? ए शुद्ध परिणाम एणे कर्या माटे शुं कर्म खरी पडयां छे? ना; एम नथी हों; ए तो कर्मनो खरवानो स्वकाळ छे. कर्म तो एना कारणे स्वकाळे खर्यां छे, त्यारे आना शुद्ध परिणाम-ज्ञानमात्र परिणाम एमां निमित्त छे, बस. निमित्त उपादानमां कांई करे छे एम नहि. आमां लोकोने वांधा छे. पण भाई! जो निमित्त उपादानमां कांई करे तो निमित्त रहे ज नहि. (बन्ने एक थई जतां निमित्तनो लोप थई जाय).
ए तो पं. श्री कैलाशचंद्रजी (काशीवाळा) ए पत्रमां (जैन संदेशमां) लख्युं छे के-सोनगढवाळा निमित्तनो निषेध करता नथी, पण निमित्तने कर्ता मानता नथी. ए एम ज छे भाई! आ तो वस्तुस्थितिनी मर्यादा छे; एमां कोईनो पक्ष चाले नहि. आ तो वीतरागनो मारग बापा! आ कोई पक्षनो मारग नथी.
अहीं कहे छे-ए (-अभव्य) भूतार्थ धर्मने नथी श्रद्धतो. भूतार्थ एटले ज्ञानमात्र भाव कीधो ने? ज्ञानमात्र भाव ए भूतार्थ-साचो धर्म छे. अहाहा...! ‘ज्ञानमात्र’ एटले वस्तु जे एक ज्ञायकभाव एकला चैतन्यनुं बिंब अंदर सच्चिदानंद स्वरूपे त्रिकाळ विराजमान छे तेनां ज्ञान-श्रद्धान अने तेमां ज लीनता-रमणता थवारूप भावने अहीं ज्ञानमात्र कह्यो छे. एमां राग नथी माटे ज्ञानमय कह्यो छे.
कोईने थाय के ‘ज्ञानमात्र’ कह्यो तो श्रद्धान अने चारित्र क्यां गयां? एम नहि भाई! अंदर आत्मा जे शुद्ध चिद्रूप त्रिकाळ ध्रुव एक ज्ञायकभावरूप
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छे तेना सन्मुखनी श्रद्धा, तेना सन्मुखनुं ज्ञान अने तेमां ज रमणता-ए त्रणेनी एकरूपताने अहीं ‘ज्ञानमात्र’ कह्यो छे. रागना अभावरूप एटले ज्ञानमात्र एम अर्थ छे. आवी व्याख्या! समजाणुं कांई...?
ते भोगना निमित्तरूप ‘शुभकर्ममात्र’ अभूतार्थ धर्मने श्रद्धे छे. हवे आमां कर्म एटले जड कर्म एम केटलाक अर्थ करे छे, पण एम नथी भाई! पुण्य-पाप अधिकारमां आवी गयुं छे के व्रत, तप, शील, नियम-ए बधां शुभकर्म छे. शुभकर्म एटले शुभरागरूप विकल्प एम अहीं अर्थ छे. ए बंधनुं कारण छे तेथी तेने अभूतार्थ-जूठो धर्म कह्यो छे. अहा! व्रत, तप, शील आदिनो शुभभाव जूठो धर्म छे अर्थात् धर्म नथी. आवी वात छे!
प्रश्नः– हा, पण ए तो सोनगढवाळा कहे छे ने? उत्तरः– भाई! आ तो आचार्य-मुनिवर कहे छे ने? अने मुनिवर कहे छे ए सर्वज्ञे कहेलुं कहे छे. अहीं तो एनो अनुवाद-अनु एटले अनुसरीने वाद नाम कथन- थाय छे. कोईने ए न बेसे एटले विरोध करे पण शुं थाय? सौ स्वतंत्र छे; एना परिणाममां जेवुं बेठुं होय तेवुं कहे ने? कह्युं छे ने के-
वांको बुरो न मानिये, ओर कहांसे लाय.”
कोईने न बेसे ने विरोध करे तो एना परिणाम एनामां छे; ए प्रत्ये विरोध- वेरनी भावना न होय. ‘सत्त्वेषु मैत्री’. अमने तो सर्व प्रति मैत्रीभाव छे. विरोध करे तोय ए सत्त्व-जीव छे ने? अंदर आनंदघन प्रभु भगवान छे ने? अहाहा...! बधा अंदर स्वरूपथी भगवान छे, साधर्मी छे. अमने तो मैत्रीभाव छे. अमने कोईनाय प्रति अनादरनी भावना छे नहि. पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे ए सांभळीने कोईने ओछुं आवे (दुःख लागे) तो ए तो एना परिणाम स्वतंत्र छे.
ते (-अभव्य) जूठा धर्मने श्रद्धे छे. जूठो धर्म एटले? एटले के आ व्रत, तप, भक्ति आदि शुभ परिणामने धर्म माने ते जूठो धर्म छे. व्यवहारना पक्षवाळाने आ खटके छे एटले पोकारी उठे छे के-आ सोनगढवाळा कहे छे.
पण जो ने बापा! आ (-शास्त्र) शुं कहे छे? भाई! आ कोईना अनादरनी वात नथी, आ तो वस्तुनुं स्वरूप छे. अहीं तो एनो अनुवाद-अनुसरीने कथन-करवामां आवे छे.
हा! पण शुं थाय? एणे ओलुं मान्युं छे ने? के आ व्रत, तप आदि करीए छीए ते धर्म छे अने एनाथी मोक्ष थशे; तेथी आ आकरुं लागे छे. पण बापु! ए धर्म
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नहि ने! धर्मनुं कारणेय नहि. अहा! एवुं तो अभव्य पण अनंतवार करे छे तोय तेने एकेय भव घटतो नथी. समजाणुं कांई...!
अहा! अभव्य जीव शुभकर्ममात्र अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे. हवे कहे छे- ‘तेथी ज ते अभूतार्थ धर्मनां श्रद्धान, प्रतीति, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी.’
जोयुं! सत्यार्थ धर्मनां रुचि ने स्पर्शनने बदले ते शुभरागने धर्म मानवारूप जूठा धर्मनां श्रद्धान, रुचि ने स्पर्शन अर्थात् वेदनथी, अनुभवनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे. अहीं सीधुं शुभरागना परिणामथी भोगने पामे छे एम लीधुं छे. वास्तवमां परिणाम छे ते नवा कर्मबंधमां निमित्त छे. अने कर्मनो उदय भोग मळवामां निमित्त छे. उपादान तो सौ-सौनुं स्वतंत्र छे. अहा! शुभरागना स्पर्शन-अनुभवनथी ते नवमी ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे, पण कदापि कर्मथी छूटतो नथी. जोयुं? शुभभाव छे ते चैतन्य भगवानथी विरुद्ध भाव छे; एने धर्म मानी आचरनार कोई काळे पण कर्मथी छूटतो नथी.
त्यारे कोई पंडित वळी कहे छे-कोईने शुभभावथी शुद्धभाव थाय एम कहो, एटलो सुधारो करो. एम के व्रत, तप, भक्ति आदि शुभभावथी कोईने धर्म थाय एम कहो.
अरे भाई! अहीं शुं कहे छे आ? अहीं तो कहे छे-व्रतादिने धर्म माने पण ते जूठो धर्म छे अने एना स्पर्शनथी ते कदापि कर्मथी छूटतो नथी. आ नियम छे के शुभभावना आचरणथी भोग मळे पण एनाथी धर्म न थाय.
कहे छे- ‘ते उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे .’ जोयुं? ‘भोगमात्र’ शब्दथी शुं कहेवुं छे? के एने भोग-सामग्री तो नवमा ग्रैवेयक सुधीनी अहमिंद्रनी मळशे पण जेनाथी आत्मप्राप्ति थाय ते धर्म नहि मळे. अहा! टीकाना एक एक शब्दमां केटकेटलुं भर्युं छे? शुभकर्ममात्र जूठा धर्मना श्रद्धान-स्पर्शनथी ते-
-भोगमात्रने पामे छे, धर्म नहि एक वात, अने -कदापि कर्मथी छूटतो नथी-ए बीजी वात. अहा! शुभभावने ते धर्म माने छे ते मिथ्यादर्शन छे अने ए शुभना आचरणथी एने भोग मळे छे पण कदीय धर्म थतो नथी, संवर-निर्जरा थतां नथी. आवी वात छे.
बापु! सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे. ए शुभभावथी मळती नथी. शुभभाव कारण ने सम्यग्दर्शन कार्य एम त्रणकाळमां छे नहि. अंदर त्रिकाळी भगवान चिन्मात्र वस्तु कारण परमात्मा प्रभु पोते छे-ए एकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय
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छे. अहो! समयसारमां अमृत-परमामृत घोळ्यां छे. आचार्यदेवे जे (पोतानो) भाव- स्वरूप छे तेनुं एमां घोलन कर्युं छे.
हवे कहे छे- ‘तेथी तेने भूतार्थ धर्मना श्रद्धानना अभावने लीधे (साचुं) श्रद्धान पण नथी.’
ए भूतार्थ धर्म कोण? अहा! जेमां आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान ने रमणता प्रगट छे एवो ज्ञानमात्र भाव ते भूतार्थ धर्म छे. जेमां शुभरागनी गंधेय नथी एवो ज्ञानमात्र भाव ते भूतार्थ धर्म छे. अभव्यने भूतार्थ धर्मना श्रद्धाननो अभाव छे तेथी कहे छे के तेने सम्यक् श्रद्धान पण नथी.
पहेलां कीधुं के-तेने अगियार अंगनुं ज्ञान होय तोय आत्मज्ञाननो अभाव होवाथी सम्यक् ज्ञान नथी. हवे अहीं कहे छे-तेने भूतार्थ धर्मना श्रद्धाननो अभाव होवाथी साचुं श्रद्धानेय नथी. तेने जेम ज्ञान नथी तेम श्रद्धान पण नथी.
हवे कहे छे- ‘आम होवाथी निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे.’ जुओ, आ सिद्धांत नक्की कर्यो. ‘आम होवाथी’ -एटले शुं? अगियार अंगनुं ज्ञान होय तोय आत्मज्ञान विना ज्ञान नहि अने शुभाचरणथी धर्म छे एम माननारने (साचुं) श्रद्धान नहि, धर्म नहि-आम होवाथी निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे.
ल्यो, आ सिद्धांत कहे छे के-निश्चय वडे व्यवहारनो निषेध योग्य ज छे. त्यारे ए कहे छे-तमे निषेध केम करो छो? भाई! तने व्यवहारथी धर्म थाय एम पक्ष थई गयो छे पण आ तारा हितनी वातु कहीए छीए. भाई! तुं माने छे एम वस्तुस्वरूप नथी. शुं थाय? वस्तुनी स्थिति आ छे के आत्मसन्मुखताना-स्व-आश्रयना भाव विना जेटलां व्रत, तप आदि छे ते बधायनुं फळ संसार ज छे. एनाथी संसार फळे पण मुक्ति न थाय. हवे आमां तने ओछुं आवे (खोटुं लागे) पण शुं थाय भाई!
मोक्षमार्गप्रकाशकमां छे के-दारू पीनारने दारूनो निषेध करीए तो खोटुं लागे तेम पुण्यनी-व्यवहारनी रुचिवाळाने व्यवहारनो निषेध करीए एटले खोटुं लागे. पण आ हितनी वात छे भाई! आ सिवाय बीजी कई एवी साची प्ररूपणा छे के सौने सारी लागे? मारग तो आवो छे प्रभु! के निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे.
त्यारे ए कहे छे-आवुं कहेशो तो कोई शुभभाव करशे नहि. समाधानः– भाई! तने खबर नथी; पण एने शुभभाव आव्या विना रहेशे
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नहि. एना क्रममां ते जरूर आवशे; ज्ञानीनेय आवशे ने अज्ञानीनेय आवशे. पण बेनी मान्यतामां फेर छे. एक (-ज्ञानी) एने हेय माने छे त्यारे बीजो (-अज्ञानी) एने उपादेय स्थापे छे. बेनी मान्यतामां महान अंतर!
शुभभाव नहि आवे? अहा! मुनिराजने पण पंचमहाव्रतादिना भाव आवे छे. पण एने करवा कयां छे? एने ए कर्तव्य कयां माने छे? एने तो ए बंधरूप जाणी हेय माने छे. बापु! जे शुभभाव आवे छे तेने हेयपणे मात्र जाणवा ए जुदी वात छे अने एने धर्म वा धर्मनुं कारण जाणी करवा ए जुदी वात छे. तुं शुभाचरणने चारित्र-धर्म माने छे पण ए चारित्र-धर्म छे ज नहि. एने तो अहीं जूठो धर्म कह्यो छे. समजाणुं कांई...? माटे निश्चय वडे-स्वस्वरूपना आश्रय वडे-व्यवहारनो निषेध योग्य ज छे.
‘अभव्य जीवने भेदज्ञान थवानी योग्यता नहि होवाथी ते कर्मफळचेतनाने जाणे छे परंतु ज्ञानचेतनाने जाणतो नथी;...’
जोयुं? राग ने ज्ञान (-आत्मा) बन्ने भिन्न छे. तेने भिन्न जाणी, बेनो भेद करवानी योग्यता अभव्यने नथी. अहो! भेदविज्ञान अलौकिक चीज छे. कळशमां आवे छे ने के-
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।। १३१।।
अहा! जे कोई सिद्ध थया छे ते भेदविज्ञानथी सिद्ध थया छे; अने जे कोई बंधाया छे ते भेदविज्ञानना अभावथी ज बंधाया छे. अहो भेदज्ञान! एनी प्रगटता थतां जीव मुक्ति पामे ने एना अभावे संसारमां बंधायेलो रहे. अहा! भेदज्ञाननो अभाव छे ते ज बंधन छे. राग ने ज्ञानने एक मानी प्रवर्ते ते बंधन छे, संसार छे.
अहीं कहे छे-अभव्य जीव कर्मफळचेतनाने जाणे छे परंतु ज्ञानचेतनाने जाणतो नथी. अहा! ते शुभकर्म अने एनुं फळ बहारमां जे भोग मळे तेने जाणे छे, श्रद्धे छे पण कर्मचेतनाथी भिन्न अंदर निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु छे तेनी एकाग्रतारूप जे ज्ञानचेतना तेने जाणतो नथी. अहा! ते राग ने रागना फळने जाणे छे पण सदा अरागी भगवान आत्मा अने एनी एकाग्रता अरागी शांतिने ते जाणतो नथी.
शुं कीधुं? के भगवान आत्मा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु एक चिद्रूप ज्ञानरूप छे. अहाहा...! जाणवुं-जाणवुं-जाणवुं एवो एक जेनो स्वभाव छे एवो ते ज्ञानस्वरूप छे. एनी एकाग्रता ते ज्ञानचेतना अर्थात् सत्यार्थ धर्म छे. तेने ए (-अभव्य, मिथ्याद्रष्टि)