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जाणतो नथी अने दया, दान, व्रत आदि रागनी एकाग्रता ने एना फळमां मळता संयोगने ते जाणे छे. अनादिथी एवो महावरो छे ने? पं. श्री बनारसीदासकृत ‘परमार्थवचनिका’ मां आवे छे के-मूढ जीवने आगमपद्धति सुगम छे तेथी ते करे छे, पण अध्यात्मपद्धतिने ते जाणतोय नथी. शुं कीधुं? के आ व्रत, तप, शील इत्यादिमां सावधानपणुं ते आगमपद्धति छे अने ते एने चिरकाळथी सुगम होवाथी करे छे, अने एमां संतोषाई जाय छे पण स्वस्वरूपमां-शाश्वत चैतन्यबिंब प्रभु आत्मामां- एकाग्रतारूप अध्यात्मव्यवहारने ते जाणतो पण नथी. अहाहा...! वस्तु त्रिकाळी भगवान ते निश्चय छे अने एना आश्रये जे परिणति थाय ते अध्यात्म-व्यवहार छे; तेने अहीं ज्ञानचेतना कहे छे. अहा! अभवि जीव ज्ञानचेतनाने जाणतो ज नथी; मात्र कर्मफळचेतनाने ज जाणे छे. आवी वात छे!
हवे कहे छे- ‘तेथी शुद्ध आत्मिक धर्मनुं श्रद्धान तेने नथी.’ शुं कहे छे? के वस्तु जे एक ज्ञायकस्वभावमय आत्मा एनी एकाग्रतारूप ज्ञानचेतना एने ते जाणतो नहि होवाथी ते शुद्ध आत्मिक धर्मने जाणतो नथी. अहाहा...! ज्ञानचेतना ए शुद्ध आत्मिक धर्म छे, सत्यार्थ धर्म छे. धीमे धीमे समजवुं बापा! पूर्वे कोई दि’ कर्युं नथी एटले कठण लागे छे पण सत्य ज आ छे. अहा! ते ज्ञानचेतनाने जाणतो नथी तेथी तेने शुद्ध आत्मिक धर्मनुं श्रद्धान नथी.
हवे कहे छे-ते शुभ कर्मने ज धर्म समजी श्रद्धान करे छे तेथी तेना फळ तरीके ग्रैवेयक सुधीना भोगने पामे छे परंतु कर्मनो क्षय थतो नथी.’
जुओ, ‘शुभकर्म’ शब्दे अहीं जडकर्म नहि पण शुभभाव, पुण्यभावनी वात छे. शुभभाव रूप कर्मचेतनाने अहीं शुभकर्म कह्युं छे. १प४ मां आवे छे के- ‘व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभकर्मो;’ जुओ, छे के नहि अंदर? गाथा १प३ ना भावार्थमां पण छे के- ‘व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभभावरूप शुभकर्मो.’ गाथा १प६ नी टीकामां आवे छे के- ‘परमार्थ मोक्षहेतुथी जुदो, जे व्रत, तप वगेरे शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु केटलाक लोको माने छे, ते आखोय निषेधवामां आव्यो छे.’ मतलब के शुभकर्म शुभभावरूप आचरणने ते धर्म समजी श्रद्धान करे छे.
वास्तवमां व्रत, तप आदि शुभकर्म कांई सदाचरण (सत्नुं आचरण) नथी, पण असदाचरण (जूठुं आचरण) छे. अहाहा...! त्रिकाळी सत् शाश्वत चिदानंद प्रभु अंदर छे एमां एकाग्रता-लीनता ते सदाचरण छे, बाकी शुभभाव कांई सदाचरण नथी, धर्म नथी. अहा! अभवि जीव एने (-शुभकर्मने) ज धर्म जाणी श्रद्धान करे छे.
अहा! जुओ, अज्ञानीने एकली कर्मधारा छे, भगवान केवळीने एकली ज्ञानधारा छे, अने ज्ञानीने ज्ञानधारा ने कर्मधारा बन्ने होय छे. ज्ञानीने ज्ञानमय परिणमन
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छे, पण दशामां ज्ञानीने पूर्णता नहि होवाथी, अथवा द्रव्यनो पूर्ण आश्रय नहि होवाथी कमजोरीमां शुभभाव आव्या विना रहेतो नथी. तेथी ज्ञानीने ज्ञानधारा ने कर्मधारा बन्ने होय छे. तेमां ज्ञानधारा छे ते धर्म छे ने कर्मधारा ते अधर्म छे. ‘आत्मावलोकन’ मां छे के ज्ञानीने धर्म ने अधर्म बेय छे ते आ रीते. हवे आमां लोको राड नाखे छे; पण एमां राड नाखवा जेवुं छे शुं? वस्तुनो स्वभाव ते धर्म छे, ने राग वस्तुस्वभावथी विरुद्ध भाव छे तेथी ते अधर्म छे. न्यायथी तो वात छे. पण आदत छे ने? भेदविज्ञाननी अयोग्यता छे ने? तेथी ते शुभकर्मने ज धर्म समजी श्रद्धान करे छे, अने एना फळमां ग्रैवेयक सुधीना भोगने पामे छे. परंतु तेने कर्मक्षय थतो नथी.
कर्मक्षय कयांथी थाय? शुभकर्म छे ते बंधभाव छे; एनाथी एने बंधन थाय, पण कर्मक्षय कयांथी थाय?
त्यारे ए कहे छे-एथी पाप घटे ने पुण्य वधे छे. पण बापु! ए तो बधुं कर्म (बंधन) ज छे; एमां कर्मक्षय कयांय नथी. ‘आ रीते सत्यार्थ धर्मनुं श्रद्धान नहि होवाथी तेने श्रद्धान ज कही शकातुं नथी.’ अहाहा...! शुभकर्ममात्र जूठा धर्मनुं श्रद्धान एने छे ने कर्मक्षयनुं निमित्त एवा शुद्ध आत्मिकधर्मनुं एने श्रद्धान नथी तेथी एने श्रद्धान ज नथी एम कहे छे. एम के सत्यार्थ धर्मनुं श्रद्धान ज श्रद्धान छे, पण ते एने छे नहि माटे तेने श्रद्धान ज नथी आवी वात छे!
‘आ प्रमाणे व्यवहारनयने आश्रित अभव्य जीवने ज्ञान-श्रद्धान नहि होवाथी निश्चयनय वडे करवामां आवतो व्यवहारनो निषेध योग्य ज छे.’
जोयुं? अभव्यने व्यवहारनयनो आश्रय छे. ते अगियार अंग सुद्धां भणे छे ने भगवाने कहेलां व्रतादि पाळे छे, पण तेने निश्चय ज्ञान-श्रद्धान होतां नथी. व्यवहारनयनो आश्रय होवाथी एने साचां ज्ञान-श्रद्धान थतां नथी. माटे अहीं कहे छे- निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे. स्वस्वरूपना आश्रय वडे व्यवहारनो- रागनो निषेध करवो योग्य ज छे-एम कहे छे. समजाणुं कांई...?
पंडित जयचंदजी हवे कहे छे के- ‘अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के-आ हेतुवादरूप अनुभवप्रधान गं्रथ छे तेथी तेमां भव्य-अभव्यनो अनुभवनी अपेक्षाए निर्णय छे.’
अभव्यने अनुभव-वेदन विकारनो छे अने ज्ञानीने अनुभव शुद्ध चैतन्यनो छे. हेतु एटले न्यायथी-युक्तिथी अनुभवप्रधान अहीं वात करी छे.
‘हवे जो आने अहेतुवाद आगम साथे मेळवीए तो-अभव्यने व्यवहारनयना
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पक्षनो सूक्ष्म, केवळीगम्य आशय रही जाय छे के जे छद्मस्थने अनुभवगोचर नथी पण होतो, मात्र सर्वज्ञदेव जाणे छे.’
जोयुं? अभविने व्यवहारनयना पक्षनो सूक्ष्म आशय रही जाय छे जे छद्मस्थने अनुभवगोचर नथी पण होतो.’ ‘नथी ज’ होतो एम नहि, पण कोई सूक्ष्म लक्षवाळाने होय पण छे एम कहेवुं छे. सूक्ष्म लक्ष न पहोंचे तो अनुभवमां न आवे एटले ए केवळीगम्य सूक्ष्म छे एम कह्युं. समजाणुं कांई...?
‘मात्र सर्वज्ञदेव जाणे छे’ -एटले भगवान सर्वज्ञ विशेष स्पष्ट जाणे छे. पंचाध्यायीमां एम लीधुं छे के-सम्यग्दर्शनने भगवान केवळी जाणी शके छे. त्यां तो ए अवधि, मनःपर्यय के मतिज्ञाननो विषय नथी एम कहेवुं छे. अहीं वेदननी अपेक्षाए वात छे. अनुभूतिनी साथे अविनाभावी समकित होय छे तो अनुभूतिनी साथे समकितनुं ज्ञान पण थाय, समकितने ए बराबर जाणी शके. अनुभूति ए ज्ञाननुं- वेदननुं स्वरूप छे अने समकित श्रद्धाननुं. बेयने अविनाभावी गणतां अनुभूतिथी समकितनो निर्णय बराबर थई शके. अनुभूति विना सीधुं समकितने जाणी शके एम नहि-पंचाध्यायीकारनुं एम कहेवुं छे. पण अनुभूतिमां समकितने न जाणी शकाय एमेय नहि. आवी वात छे!
हवे कहे छे- ‘ए रीते केवळ व्यवहारनो पक्ष रहेवाथी तेने सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहे छे. अभव्यने आ व्यवहारनयना पक्षनो आशय कदी पण मटतो ज नथी.’
जोयुं? व्यवहार होय ए जुदी वात छे, अने व्यवहारनो पक्ष होय ए जुदी वात छे. व्यवहार तो ज्ञानीने-मुनिराजने पण होय छे, पण एनो पक्ष एने कदीय होतो नथी. व्यवहारनो पक्ष होय ए तो भाई! सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व छे. जोयुं? व्यवहारथी धर्म थाय एम माने ए सर्वथा एकांत मिथ्यात्व छे. एम कहे छे. अभविने आ व्यवहारनयनो पक्ष कदीय मटतो नथी तेथी, संसारनुं परिभ्रमण सदा ऊभुं ज रहे छे. भाई! ज्यां सुधी व्यवहारनो पक्ष छे त्यां सुधी संसार ऊभो ज रहे छे. आवी व्याख्या!
अहा! मारगने जाणीने स्वरूपनुं लक्ष न करे तो चोर्यासीना अवतारमां कषायनी अग्निमां बळी रहेलो ए दुःखी छे. भगवान! आ संयोगनी चमकमां तुं भूली गयो छे पण जेम दांत काढे तोय सनेपातीओ अंदर दुःखी छे तेम अंदरमां तुं मिथ्या श्रद्धान- ज्ञान-आचरण ए त्रणेना त्रिदोषना सन्निपातरूप रोगथी पीडाई रहेलो दुःखी ज छे. अहा! ज्यां सुधी आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद न आवे त्यां सुधी आ बधा शेठिया, राजाओ ने देवो सौ दुःखी ज छे. ल्यो, आवी वात छे.
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आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं। छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो।। २७६।। आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो।। २७७।।
षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः।। २७६।।
आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च।
आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे
हवे पूछे छे के “निश्चयनय वडे निषेध्य (अर्थात् निषेधावायोग्य) जे व्यवहारनय, अने व्यवहारनयनो निषेधक जे निश्चयनय-ते बन्ने नयो केवा छे?” एवुं पूछवामां आवतां व्यवहार अने निश्चयनुं स्वरूप कहे छे;-
षट्जीवनिकाय चरित छे, –ए कथन नय व्यवहारनुं. २७६.
मुज आत्म निश्चय ज्ञान छे, मुज आत्म दर्शन–चरित छे,
मुज आत्म प्रत्याख्यान ने मुज आत्म संवर–योग छे. २७७.
गाथार्थः– [आचारादि] आचारांग आदि शास्त्रो ते [ज्ञानं] ज्ञान छे, [जीवादि] जीव आदि तत्त्वो ते [दर्शनं विज्ञेयम् च] दर्शन जाणवुं [च] अने [षड्जीवनिकायं] छ जीव-निकाय ते [चरित्रं] चारित्र छे- [तथा तु] एम तो [व्यवहारः भणति] व्यवहारनय कहे छे.
[खलु] निश्चयथी [मम आत्मा] मारो आत्मा ज [ज्ञानम्] ज्ञान छे, [मे आत्मा] मारो आत्मा ज [दर्शनं चरित्रं च] दर्शन अने चारित्र छे, [आत्मा] मारो आत्मा ज [प्रत्याख्यानम्] प्रत्याख्यान छे, [मे आत्मा] मारो आत्मा ज [संवरः योगः] संवर अने योग (-समाधि, ध्यान) छे.
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टीकाः– आचारांग आदि शब्दश्रुत ते ज्ञान छे कारण के ते (शब्दश्रुत) ज्ञाननो आश्रय छे, जीव आदि नव पदार्थो दर्शन छे कारण के ते (नव पदार्थो) दर्शननो आश्रय छे, अने छ जीव-निकाय चारित्र छे कारण के ते (छ जीव-निकाय) चारित्रनो आश्रय छे; ए प्रमाणे व्यवहार छे. शुद्ध आत्मा ज्ञान छे कारण के ते (शुद्ध आत्मा) ज्ञाननो आश्रय छे, शुद्ध आत्मा दर्शन छे कारण के ते दर्शननो आश्रय छे, अने शुद्ध आत्मा चारित्र छे कारण के ते चारित्रनो आश्रय छे; ए प्रमाणे निश्चय छे. तेमां, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य छे, कारण के आचारांग आदिने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं अनैकांतिक छे- व्यभिचारयुक्त छे; (शब्दश्रुत आदिने ज्ञान आदिना आश्रयस्वरूप मानवामां व्यभिचार आवे छे केम के शब्दश्रुत आदि होवा छतां ज्ञान आदि नथी पण होतां, माटे व्यवहारनय प्रतिषेध्य छे;) अने निश्चयनय व्यवहारनयनो प्रतिषेधक छे, कारण के शुद्ध आत्माने ज्ञान आदिनुं आश्रयपणुं ऐकांतिक छे. (शुद्ध आत्माने ज्ञानादिनो आश्रय मानवामां व्यभिचार नथी केम के ज्यां शुद्ध आत्मा होय त्यां ज्ञान-दर्शन-चारित्र होय ज छे.) आ वात हेतु सहित समजाववामां आवे छेः-
आचारांग आदि शब्दश्रुत एकांते ज्ञाननो आश्रय नथी, कारण के तेना (अर्थात् शब्दश्रुतना) सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे ज्ञाननो अभाव छे; जीव आदि नव पदार्थो दर्शननो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे दर्शननो अभाव छे; छ जीव निकाय चारित्रनो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे चारित्रनो अभाव छे शुद्ध आत्मा ज ज्ञाननो आश्रय छे, कारण के आचारांग आदि शब्दश्रुतना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज ज्ञाननो सद्भाव छे; शुद्ध आत्मा ज दर्शननो आश्रय छे, कारण के जीव आदि नव पदार्थोनां सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज दर्शननो सद्भाव छे; शुद्ध आत्मा ज चारित्रनो आश्रय छे, कारण के छ जीव-निकायना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज चारित्रनो सद्भाव छे.
भावार्थः– आचारांग आदि शब्दश्रुतनुं जाणवुं, जीवादि नव पदार्थोनुं श्रद्धान करवुं तथा छ कायना जीवोनी रक्षा-ए सर्व होवा छतां अभव्यने ज्ञान, दर्शन, चारित्र नथी होतां, तेथी व्यवहारनय तो निषेध्य छे; अने शुद्धात्मा होय त्यां ज्ञान, दर्शन, चारित्र होय ज छे, तेथी निश्चयनय व्यवहारनो निषेधक छे. माटे शुद्धनय उपादेय कह्यो छे.
हवे आगळना कथननी सूचनानुं काव्य कहे छेः-
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स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः।
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्त–
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः।। १७४।।
श्लोकार्थः– [रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः] “रागादिकने बंधनां कारण कह्या अने वळी [ते शुद्ध–चिन्मात्र–महः–अतिरिक्ताः] तेमने शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिथी (अर्थात् आत्माथी) भिन्न कह्या; [तद्–निमित्तम्] त्यारे ते रागादिकनुं निमित्त [किमु आत्मा वा परः] आत्मा छे के बीजुं कोई?” [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः] एवा (शिष्यना) प्रश्नथी प्रेरित थया थका आचार्यभगवान फरीने आम (नीचे प्रमाणे) कहे छे. १७४.
हवे पूछे छे के-“निश्चयनय वडे निषेध्य (अर्थात् निषेधावायोग्य) जे व्यवहारनय, अने व्यवहारनयनो निषेधक जे निश्चयनय-ते बन्ने नयो केवा छे? ” एवुं पूछवामां आवतां व्यवहार अने निश्चयनुं स्वरूप कहे छेः-
‘आचारांग आदि शब्दश्रुत ते ज्ञान छे कारण के ते (शब्दश्रुत) ज्ञाननो आश्रय छे, जीव आदि नव पदार्थो दर्शन छे कारण के ते (नव पदार्थो) दर्शननो आश्रय छे, अने छ जीव’ निकाय चारित्र छे कारण के ते (छ जीव-निकाय) चारित्रनो आश्रय छे; ए प्रमाणे व्यवहार छे.’
जुओ, अहीं आचारांग आदि वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेलां जैनदर्शननां शास्त्रोने निमित्तपणे लीधां छे; अज्ञानीओए कहेलां नहि. आचारांग आदि शास्त्र श्वेतांबरमां छे नहि; ए तो फक्त नाम पाडयां छे. आ तो वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनी ओम्ध्वनि अनुसार रचायेलां शास्त्रोनी वात छे. अहीं शुं कहेवुं छे? के आचारांग आदि शास्त्रोनुं ज्ञान ते व्यवहार छे अने ते निषेध करवा लायक छे.
शुं कहे छे? के आचारांग आदि शब्दश्रुत ते ज्ञान छे. ए शास्त्रोना शब्दोनुं ज्ञान ते शब्दश्रुतज्ञान कहेवाय छे केमके ते ज्ञाननो आश्रय-हेतु-निमित्त शब्दो छे. झीणी वात बापु! आ आचारांग आदि शब्दो छे ए व्यवहार-ज्ञाननो आश्रय-निमित्त छे, तेथी तेने शब्दश्रुतज्ञान व्यवहारे कहीए छीए.
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आ शब्दश्रुतज्ञान छे ते व्यवहार छे. ते निषेध्य छे एम कहेवुं छे. जे ज्ञाननी पर्यायमां भगवान आत्मा आश्रय-निमित्त न होय अने शब्दश्रुत निमित्त होय एवुं शब्दश्रुतज्ञान निषेध करवा लायक छे एम कहे छे. हवे कहे छे-
जीव आदि नव पदार्थो दर्शन छे. शुं कीधुं? जेम शब्दश्रुत ज्ञान छे तेम जीवादि पदार्थ ते दर्शन छे. केमके जीवादि नव पदार्थो दर्शननो आश्रय-निमित्त-हेतु छे, माटे नव पदार्थो दर्शन छे. ए व्यवहार छे. आ व्यवहार दर्शन निषेधवा लायक छे एम अहीं कहेवुं छे. भाई! आमां हवे पोतानी मति-कल्पना न चाले, पण शास्त्रनो शुं अभिप्राय छे ते यथार्थ समजवुं जोईए. अहा! कुंदकुंद आदि आचार्यवरोए निश्चय अंतरंग वस्तु आत्मा ने बाह्य पदार्थोनी स्पष्ट वहेंचणी (-विभाग) करी नाखी छे.
‘जीवादि नव पदार्थो...’ ल्यो, एमां संवर, निर्जरा, मोक्ष आव्या के नहि! हा, पण भेदवाळा आव्या ने? तेथी ते व्यवहार सम्यग्दर्शन छे, कारण के ते नव पदार्थो दर्शननो आश्रय छे. व्यवहार श्रद्धान-व्यवहार समकितनुं नव पदार्थ निमित्त आश्रय-हेतु- कारण छे, माटे नव पदार्थ व्यवहारे दर्शन छे. आवी वात छे!
तो पछी ‘तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्’ एम तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे ने?
हा, त्यां ए निश्चय समकितनी वात छे. नव भेदरूप पदार्थोथी भिन्न शुद्धनयना बळ वडे प्राप्त अभेद एकरूप ज्ञायकभावमात्र वस्तु आत्मानुं श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन-एम निश्चय सम्यग्दर्शननी त्यां वात छे. समजाणुं कांई...?
‘जीवाजीवास्त्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम’-एम सूत्रमां तत्त्वार्थोनुं कथन करतां एकवचन छे ने? एनो आशय ज आ छे के-नव भेद नहि, पण नव भेदनी पाछळ छुपायेल अभेद एक ज्ञायकज्योतिस्वरूप आत्मानुं दर्शन ते सम्यग्दर्शन छे. अहा! ए निश्चय श्रद्धान प्रगट थतां जे नव भेदरूप पदार्थ छे ते जाणवां लायक रही जाय छे, पण श्रद्धान तो एकनुं-शुद्ध आत्मानुं ज छे. आवी वात छे!
अहीं तो नव भेद जे छे ते नव पदार्थो कहेवा छे ने? एक (आत्मा) नहि, पण जीवादि नव पदार्थो दर्शन छे एम कीधुं ने? अहा! ए व्यवहार सम्यग्दर्शन छे, केमके तेनो (दर्शननो) आश्रय-निमित्त भेदरूप नव पदार्थ छे. व्यवहार समकितनो विषय- आश्रय-हेतु-आधार नव छे.
तो पछी लोको व्यवहार-व्यवहार (एम महिमा) करे छे ने? बापु! अहीं तो ए निषेधवा लायक छे एम कहे छे. आम छे त्यां प्रभु! व्यवहार कारण थाय ने एनाथी निश्चयरूप कार्य थाय ए वात कयां रही? अरे भाई! अहीं तो तने स्व-आश्रयनो-स्व-अवलंबननो उपदेश छे; ए जो तने न गोठे अने पर- आश्रयथी-परावलंबनथी लाभ थाय एम तने गोठे तो ए तने भारे नुकशान छे भाई! (एथी तो चिरकाळ सुधी चारगतिनी जेल ज थशे).
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अहाहा...! अंदर भगवान एकरूप चैतन्यमहाप्रभु बिराजे छे. एनी वर्तमान श्रद्धामां एने नव पदार्थ निमित्त थाय छे ते व्यवहार श्रद्धा छे, ए निश्चय श्रद्धा नाम सत्यार्थ श्रद्धान नहि. एने व्यवहार समकित कहो के उपचार समकित कहो के भेदरूप श्रद्धान कहो-बधी एक वात छे. केमके नव पदार्थो दर्शननो आश्रय छे माटे नव पदार्थो दर्शन छे-एम अहीं व्यवहार दर्शाव्यो छे.
हवे कहे छे- ‘छ जीव-निकाय चारित्र छे.’ अहा! भाषा तो जुओ! छ कायना जीवनो समूह ते चारित्र छे एम कहे छे. आ व्यवहारचारित्र-पंचमहाव्रतादिना विकल्पनी वात छे.
तो पछी छ जीव-निकाय चारित्र छे एम केम कीधुं? कारण के ए व्यवहारचारित्रनो जे विकल्प छे एनो आश्रय छ जीव-निकाय छे. पंच महाव्रतना परिणामने चारित्र न कहेतां ए परिणाममां छ जीव-निकाय निमित्त छे तेथी छ जीव-निकायने चारित्र कीधुं.
ल्यो, हवे ए चारित्र कयां त्यां (छ जीव-निकायमां) आव्युं? चारित्र तो अहीं (महाव्रतादिना) परिणाम-व्यवहार छे? पण ए व्यवहारना परिणामनो आश्रय-लक्ष छ जीव-निकाय छे तेथी छ जीव-निकाय चारित्र छे एम कीधुं छे.
अहा! जे एकेन्द्रिय आदि नथी मानता एनी तो अहीं वात ज नथी. पण आ तो निगोद सहित एकेन्द्रिय आदि अनंता अनंत छ कायना जीव छे एम माने छे एनी वात करी छे. तो कहे छे-छ जीव-निकाय चारित्र छे, कारण के एनुं वलण छ कायना जीवनी अहिंसा-रक्षा पर छे.
छ जीव-निकायनी अहिंसामां तो एक अहिंसा महाव्रत ज आव्युं? हा, पण एक अहिंसा महाव्रतमां बीजां चारेय समाई जाय छे. बीजां चार व्रतो छे ते अहिंसानी वाडो छे, ए अहिंसा महाव्रतमां आवी जाय छे तेथी अहीं छ जीव- निकायनी अहिंसानी एक ज वात लीधी छे. आ प्रमाणे छ जीव-निकाय चारित्र छे एम व्यवहारे व्यवहारचारित्र कीधुं.
ए प्रमाणे व्यवहार छे. एम के आचारांग आदि शब्दश्रुत ज्ञान छे, जीवादि नव पदार्थ दर्शन छे, छ जीव-निकाय चारित्र छे-आ सर्व व्यवहार छे. आ व्यवहारनी व्याख्या करी. ते निषेधवा योग्य छे ते पछी कहेशे.
हवे निश्चयनी वात करे छे. शुं कहे छे? के- ‘शुद्ध आत्मा ज्ञान छे कारण के ते (-शुद्ध आत्मा) ज्ञाननो आश्रय छे, शुद्ध आत्मा दर्शन छे कारण के ते दर्शननो आश्रय छे, अने शुद्ध आत्मा चारित्र छे कारण के ते चारित्रनो आश्रय छे; ए प्रमाणे निश्चय छे.’
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शुं कीधुं? के शुद्ध आत्मा ज्ञान छे केमके शुद्ध आत्मा ज्ञाननो आश्रय छे. आ निश्चयज्ञान, सत्यार्थज्ञान, सम्यग्ज्ञाननी वात छे. शुद्ध आत्मा ज्ञान छे एम केम कह्युं? केमके शुद्ध आत्मा ज्ञाननो आश्रय-निमित्त छे. पहेलामां (-व्यवहारमां) जेम शब्दश्रुतज्ञानमां शब्दो निमित्त हता तेम अहीं ज्ञानमां शुद्ध आत्मा निमित्त-आश्रय छे. अहा! सत्यार्थ ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञाननी पर्यायनो आश्रय-निमित्त-हेतु शुद्ध आत्मा छे. आवी वात छे!
अहा! आ सर्वज्ञ परमात्मानी ओम्ध्वनिमां आवेली वात छे के-जे छ जीव- निकायनी श्रद्धा छे, छ जीव-निकायनुं ज्ञान छे, छ जीव-निकायना वलणवाळुं चारित्र छे- ए बधुंय व्यवहार छे. अहा! वीतराग परमेश्वरना मार्ग सिवाय छ जीव-निकायनी वात बीजे कयांय नथी.
अहा! निगोदनुं एक शरीर एमां अनंता जीव; अंगुलना असंख्यात भागमां असंख्य औदारिक शरीर अने एक एक शरीरमां अनंता जीव; अहा! आवो आखो लोक भर्यो छे. अंदर स्वभावे भगवानस्वरूप एवा अनंत-अनंत जीवोथी आखो लोक भर्यो छे. पण ए बधा (तारे माटे) परद्रव्य छे भाई! तेथी छ कायनी श्रद्धा व्यवहार छे, छ कायनुं ज्ञान व्यवहार छे अने छ कायना लक्षे महाव्रत पाळे ए व्यवहार छे.
हवे निश्चय ज्ञाननी व्याख्या करतां कहे छे-शुद्ध आत्मा ज्ञान छे केमके ए ज्ञाननो-निश्चयज्ञाननो हेतु-आश्रय शुद्ध आत्मा छे. त्रिकाळी एक ज्ञायकमूर्ति सच्चिदानंद प्रभु ए ज्ञाननो आश्रय छे माटे ते सम्यग्ज्ञान छे.
जेम व्यवहार ज्ञानमां शब्दश्रुत निमित्त छे तेम अहीं निश्चयज्ञानमां भगवान आत्मा निमित्त छे. ‘आश्रयत्वात्’ एम पाठमां बेयमां लीधुं छे ने? अहीं शुद्ध आत्माना लक्षे-आश्रये जे ज्ञान थयुं ते थयुं छे तो पोताथी पण एनुं लक्ष शुद्ध आत्मा छे एम वात छे. तेथी कीधुं के शुद्ध आत्मा ज्ञान छे. पाठमां छे ने? के ‘आदा खु मज्झ णाणं’ निश्चयथी मारो आत्मा ज ज्ञान छे.
पहेलां ‘आयारादी णाणं’ -एम पाठमां भेदथी कीधुं. हवे अभेदथी कहे छे- ‘आदा खु मज्झ णाणं’ निश्चयथी मारो आत्मा ज ज्ञान छे, केमके आमां ज्ञाननो आश्रय शुद्ध एक आत्मद्रव्य छे. भाई! आमां भाषा तो सादी छे, पण भाव तो जे छे ते ऊंडो गंभीर छे. समजाय एटलुं समजो बापु! ए तो अपूर्व वातु छे.
अरे! अनंतकाळथी एणे ज्ञाननो आश्रय पोताना आत्मानो बनाव्यो ज नथी. अगियार अंगनुं ज्ञान कीधुं, पण ज्ञाननुं कारण-आश्रय आत्माने कीधुं नहि. अरे भाई! शुद्ध आत्मानो जेने आश्रय छे ते सत्यार्थ ज्ञान छे, वीतरागी ज्ञान छे. बाकी शब्दश्रुतज्ञान छे ए तो सरागी ज्ञान छे, विकल्परूप ज्ञान छे. ए तो कळशटीकामां
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(कळश १३ मां) आव्युं ने के-बार अंगनुं ज्ञान विकल्प छे, ए कांई अपूर्व चीज नथी. बार अंगनुं ज्ञान समकितीने ज थाय छे, पण ए कांई विस्मयकारी नथी केमके ते आश्रय करवा लायक नथी; वास्तवमां एमां कहेली शुद्धात्मानुभूति प्रगट करवा लायक छे अने ते भगवान आत्माना आश्रये ज थाय छे. समजाणुं कांई...? अहो पहेलांना पंडितोए केवी अलौकिक वातो कीधी छे के एनां पेट खोलतां सत्य बहार आवी जाय छे. भाई! आ कांई एकली पंडिताईनुं काम नथी, आ तो अंतरनी वातु बापा!
अहा! जे ज्ञानमां आत्मा हेतु-कारण-आश्रय न थाय ते ज्ञान ज्ञान ज नथी भाई! जुओ ने शुं कहे छे? के- ‘आदा खु मज्झ णाणं’ निश्चयथी मारो आत्मा ज्ञान छे. अहाहा...! आत्मा अने ज्ञान बन्ने अभिन्न छे!
तो पछी सम्यग्ज्ञाननो आत्मा आश्रय-कारण छे एम केम कह्युं?
भाई! एनो आशय एम छे के-आत्मा त्रिकाळी ध्रुव भगवान आखी चीज एमां (ज्ञाननी पर्यायमां) आवी जती नथी पण शुद्ध आत्मवस्तु पोताना ज्ञाननी पर्यायमां कारण-आश्रय थईने ते जेवी-जेवडी छे तेनुं ज्ञान पर्यायमां आवी जाय छे.. अहाहा...! ज्ञाननो आश्रय-हेतु शुद्ध आत्मा छे एटले शुं? एटले के ज्ञाननी पर्यायमां अनंत-अनंत गुणसामर्थ्यथी युक्त परिपूर्ण प्रभु शुद्ध आत्मा जेवडो छे तेवो जणाय छे. तेने अहीं अभेदथी कह्युं के शुद्ध आत्मा ज्ञान छे. समजाणुं कांई...? अहाहा...! शुद्ध आत्मानुं ज्ञान थवामां कारण-आश्रय शुद्ध आत्मा छे माटे कह्युं के शुद्ध आत्मा ज्ञान छे. हवे आवी वात बीजे कयां छे प्रभु?
भाई! आ कांई खाली पंडिताईनी वातो नथी. आ तो आत्माना ज्ञाननी यथार्थता शुं छे एनी वात छे. अहाहा...! आ यथार्थ ज्ञान छे के जे ज्ञाननी पर्यायमां परिपूर्ण भगवान आत्मा जणाय छे; पण भगवान आत्मा परिपूर्ण त्रिकाळी प्रभु ते पर्यायमां आवतो नथी-तेथी शुद्ध आत्मा ज्ञाननो हेतु-आश्रय-निमित्त कह्यो. समजाणुं कांई...? भाई! शास्त्रमां आम कह्युं छे ने तेम कह्युं छे एम बहारमां तुं भटकया करे छे पण शास्त्रनो वास्तविक आशय भगवान आत्माना ज्ञान विना नहि समजाय.
त्यारे कोई कहे छे-आ तो बधी निश्चयनी वात छे. चरणानुयोगमां व्यवहार पण कह्यो तो छे?
बापु! जे निश्चय छे ते यथार्थ छे, ने जे व्यवहार छे ते उपचार छे. तुं व्यवहारने-उपचारने यथार्थमां खतवी नाखे ए तो बापु! मिथ्याज्ञान थयुं.
तो पंचास्तिकाय आदि शास्त्रोमां साध्य-साधन कह्युं छे ने? व्यवहार
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साधन ने निश्चय साध्य एम कह्युं छे ने? अहीं कहो छो-व्यवहार निषेध्य छे; तो आ बे वातनो मेळ शुं छे?
सांभळ भाई! ज्यां भिन्न साध्य-साधन कह्युं छे त्यां अभूतार्थनयथी व्यवहारथी उपचार करीने कह्युं छे. जेमके-अहीं ‘शुद्ध आत्मा ज्ञान छे’ एम कह्युं ए निश्चय छे केमके ज्ञाननो आश्रय शुद्ध आत्मा छे, ने शुद्ध आत्मा ने ज्ञान भिन्न चीज नथी. तेवी रीते पहेलां ‘शब्दश्रुत ज्ञान छे’ -एम कह्युं ते व्यवहार छे, केमके ते ज्ञाननो आश्रय आत्मा नथी पण भिन्न शब्दश्रुत छे. हवे जे ज्ञानमां आत्मा न जणाय ते ज्ञान शुं कामनुं? तेथी निश्चय-आत्मज्ञान वडे व्यवहार-शब्दश्रुतज्ञान निषेध करवा लायक छे.
आचारांग आदि शब्दश्रुत ते ज्ञान छे एम- पहेलां व्यवहारथी कह्युं, अने हवे शुद्ध आत्मा ज्ञान छे एम निश्चय कह्यो. आम केम कह्युं? के व्यवहार ज्ञानमां शब्दश्रुत निमित्त छे. तेमां शब्दश्रुत जणाणुं पण आत्मा जणायो नहि; तेथी तेने व्यवहार कह्युं. अने सत्यार्थ ज्ञानमां-निश्चय ज्ञानमां भगवान आत्मा परिपूर्ण जणाणो; तेथी तेने निश्चय कह्युं. एने भगवान आत्मानो आश्रय छे ने? अने भगवान आत्मा एमां पूरो जणाय छे ने? तेथी ते निश्चय छे, यथार्थ छे. अहो! आचार्यदेवे अमृत रेडयां छे. भाई! आमां तो शास्त्र-भणतरनां अभिमान उतरी जाय एवी वात छे. शास्त्र-भणतर- शब्दश्रुतज्ञान तो विकल्प छे बापु! ए तो खरेखर बंधनुं कारण छे भाई!
शास्त्र-भणतर ते व्यवहार छे. ए व्यवहार ज्ञानना अभिमानमां (अहंपणामां) आवीने प्रभु! तुं हारी जईश हों. ते यथार्थमां ज्ञान नहि हों. जे ज्ञान त्रिकाळी शुद्ध आत्माने जाणे ते यथार्थ ज्ञान छे, अने शुद्धने जाणनारा ज्ञानने शुद्धनो (भगवान आत्मानो) आश्रय होय छे. अहाहा...! सम्यग्ज्ञाननी पर्याय पोते उपादान तेमां शुद्ध आत्मा निमित्त-आश्रय छे. तेथी ‘शुद्ध आत्मा ज्ञान छे’ एम अभेदथी कह्युं छे. समजाणुं कांई...?
एम तो आत्मा ने ज्ञान-बेय द्रव्य ने पर्याय एम भिन्न चीज छे. ‘आत्मा ते ज्ञान’ -एमां आत्मा ते द्रव्य ने ज्ञान ते पर्याय; ए बेय एक नथी. छतां ‘शुद्ध आत्मा ज्ञान छे’ -एम केम कह्युं? कारण के ज्ञाननी पर्याये आत्माने ज जाण्यो, अने आत्माना आश्रये ज एने जाण्यो. तेथी ‘शुद्ध आत्मा ज्ञान छे’ एम अभेदथी कह्युं. आवो मारग हवे सांभळवाय मळे नहि ते शुं करे? ने कयां जाय प्रभु?
बीजो बोलः ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे.’ शुं कीधुं? के शुद्ध आत्मा समकित छे. पहेलां ‘जीवादि नव पदार्थो दर्शन छे’ एम कह्युं केमके नव पदार्थो दर्शननो आश्रय छे. त्यां नव पदार्थोनी श्रद्धाने व्यवहारे दर्शन कह्युं. अहीं कहे छे-शुद्ध आत्मा दर्शन
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छे, केमके दर्शनमां-श्रद्धानमां शुद्ध आत्मा ज श्रद्धाणो छे; श्रद्धानी पर्यायमां भगवान शुद्ध आत्मा हेतु-आश्रय थयो छे. आ निश्चय श्रद्धान वा निश्चय सम्यग्दर्शन छे. अहा! जेमां शुद्ध आत्मानुं श्रद्धान थाय ते निश्चय सम्यग्दर्शन छे, अने तेनो हेतु-आश्रय शुद्ध आत्मा ज होय छे. समजाणुं कांई...? तेथी अहीं कह्युं के ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे.’
प्रश्नः– प्रभु! एक कोर समकितनी पर्याय ने शुद्ध आत्मा-बे जुदी चीज कहो छो अने आत्मा (-द्रव्य) पर्यायनो दाता नथी एम कहो छो (जुओ, योगसार प्राभृत, संवर अधिकार, छंद १९) अने बीजी कोर अहीं ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे’ -एम कहो छो; तो आ बधुं केवी रीते छे?
समाधानः– भाई! ए श्रद्धानी पर्यायमां आत्मा (त्रिकाळी द्रव्य) आवतो नथी, अने पर्याय आत्माथी (द्रव्यथी) थती नथी पण पोताना उपादाननी जागृतिथी स्वतः थाय छे. सम्यग्दर्शन ध्रुव त्रिकाळी भगवान आत्माए प्रगट कर्युं छे एम नथी पण सम्यग्दर्शननी पर्यायनो आश्रय-हेतु-कारण-निमित्त शुद्ध आत्मा (त्रिकाळी द्रव्य) छे तेथी ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे’ एम अभेद करीने कह्युं छे. वस्तुस्थितिए तो द्रव्य ने पर्याय बन्ने स्वतंत्र छे.
‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्’ -एम कह्युं छे ने? ए त्रणेय स्वयं सत् छे एम वात छे. एक सत् बीजा सत्नो परमार्थे हेतु नथी. सम्यग्दर्शननुं आश्रयरूप कारण-हेतु द्रव्य छे ए जुदी वात छे, पण आत्माथी (द्रव्यथी) सम्यग्दर्शननी पर्याय उत्पन्न थई छे एम नथी.
सम्यग्दर्शनमां आत्मा फक्त श्रद्धाणो छे, दर्शननो शुद्ध आत्मा आश्रय-निमित्त छे माटे ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे’ एम अभेदथी कह्युं छे. समजाणुं कांई...?
हवे आमां ओला व्रत, तप, भक्ति करवावाळाने कठण लागे एटले एम थाय के आवो धर्म ने आवी व्याख्या! पण भाई! वीतरागनो मारग अलौकिक छे, लोकोथी जुदो छे बापु! सम्यग्दर्शननुं उपादान तो सम्यग्दर्शननी पर्याय पोते छे अने एमां निमित्त- आश्रय-हेतु त्रिकाळी भगवान शुद्ध आत्मा छे तथा एमां आखो भगवान आत्मा श्रद्धाय छे तेथी कह्युं के ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे.’ आवी वात छे!
गजब वात छे प्रभु! अहीं शुं कहेवुं छे? के-त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य जे शुद्ध आत्मा ते श्रद्धानी पर्यायमां आवतो नथी, पण ए श्रद्धानी पर्यायमां त्रिकाळीनुं जेटलुं (परिपूर्ण) सामर्थ्य छे तेनी श्रद्धा-प्रतीति आवी जाय छे. अने ते पर्यायनो शुद्ध आत्मा (त्रिकाळी) आश्रय-निमित्त छे माटे ‘शुद्ध आत्मा दर्शन छे’ -एम अहीं कह्युं छे.
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११ मी गाथामां आवे छे ने? के भूतार्थने आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. अहा! समकित तो समकित स्वतः छे, पण ते भूतार्थना आश्रये थाय छे अर्थात् भूतार्थना आश्रये थाय ते समकित छे एम वात छे. झीणी वात प्रभु! भूतार्थना आश्रये थवां छतां जेम ए दर्शननी पर्याय द्रव्यमां जती नथी तेम त्रिकाळी द्रव्य प्रभु आत्मा पण दर्शननी पर्यायमां आवतुं नथी. अहाहा...! परस्पर अडया विना स्पर्श्या विना श्रद्धानी पर्यायमां आखा त्रिकाळी द्रव्यनुं श्रद्धान आवी जाय छे. क्षायिक सम्यग्दर्शन पण समये समये पलटतुं होवाथी, जो द्रव्य श्रद्धाननी पर्यायमां आवे तो आखो आत्मा (द्रव्य) पलटी जाय. पण एम कदीय बनतुं नथी. हवे आवी वात कयां मळे बापु? महाभाग्य होय तो काने पडे एवी अलौकिक वात छे. अने जेनुं परिणमन सुलटी जाय एना भाग्यनी तो शी वात!
अहीं कहे छे-सम्यग्दर्शन-श्रद्धानी पर्यायनो आश्रय-निमित्त द्रव्य छे, छतां द्रव्य अने श्रद्धानी पर्याय भिन्न छे; दर्शननी पर्यायमां द्रव्य आवतुं-स्पर्शतुं नथी अने जे त्रिकाळी द्रव्यनी प्रतीति करी छे ते द्रव्यमां दर्शन जतुं-स्पर्शतुं नथी. अहो! आवुं अलौकिक वस्तुस्वरूप छे.
लोकोने एम के नवतत्त्वनी श्रद्धा कारण ने निश्चय सम्यग्दर्शन कार्य-तो एम नथी भाई! पण शुद्ध आत्मा कारण-आश्रय छे ने निश्चय सम्यग्दर्शन कार्य छे. आ यथार्थ वस्तुस्वरूप छे. ए तो आगळ कहेशे के नवतत्त्वनी श्रद्धा-व्यवहार दर्शन निषेध्य छे अने निश्चय सम्यग्दर्शन एनो निषेधक छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?
हवे त्रीजो बोलः- ‘शुद्ध आत्मा चारित्र छे.’ एम केम कह्युं? कारण के शुद्ध आत्मा चारित्रनो आश्रय छे. अहाहा...! परम पवित्र त्रिकाळी एक शुद्धज्ञायकभावमय सच्चिदानंद प्रभु आत्मा चारित्रनो आश्रय छे. आ वीतरागभावरूप निश्चय चारित्र छे.
पहेलां ‘छ जीव-निकाय चारित्र छे’ एम कह्युं ए व्यवहार चारित्रनी वात छे केमके एनो आश्रय भगवान आत्मा नथी पण छ जीव-निकाय छे. खरेखर जे आ व्यवहार चारित्र छे ते विकल्प छे, राग छे, बंधनी पंक्तिमां छे. ज्यारे आ वीतराग परिणतिरूप निश्चय चारित्र छे तेनो आश्रय-निमित्त स्वस्वरूप त्रिकाळी शुद्ध आत्मा छे. ते अबंध छे, मोक्षनुं कारण छे. अहाहा...! स्वस्वरूपना अवलंबने अतीन्द्रिय आनंदरूपी अमृतरसथी छलकातुं-उभरातुं जे अंतरमां प्रगट थाय छे ते निश्चयचारित्र मोक्षनुं कारण छे, पण छ जीवनिकायना विकल्परूप व्यवहारचारित्र छे ते मोक्षनुं कारण नथी, पण बंधनुं कारण छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी व्यवहारना विकल्प आवे छे पण ते निषेध करवायोग्य ज छे. आवी वात छे?
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अहा! आ समयसार तो सर्वज्ञे कहेला श्रुतनो अगाध-समुद्र-दरियो छे. अहा! ए तो भरतक्षेत्रनुं अमूल्य रत्न छे. निश्चयथी तो आ आत्मा (अमूल्य रत्न) हो; ए तो निमित्तथी एने (समयसार शास्त्रने अमूल्य रत्न) कहीए छीए.
अरे! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं ने निश्चय स्वस्वभावनो आश्रय कीधा विना एकला व्यवहारना क्रियाकांडमां पडयो रहे तो जिंदगी एळे जशे हों. ए बधो व्यवहार-क्रियाकांड संसार खाते छे भाई! ज्ञानीने ते आवे छे पण ए तो एने मात्र (परपणे) जाणवा लायक छे. अज्ञानीने तो स्वस्वरूपना भान रहित जे एकली परना आश्रयवाळी दशा छे, रागमय परिणमन छे-ते संसारनुं ज कारण थाय छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! कहे छे- ‘शुद्ध आत्मा चारित्र छे.’ चारित्रनो आश्रय शुद्ध आत्मा छे ने? अहाहा...! एनी रमणतानो आश्रय-निमित्त आनंदमूर्ति पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छे ने? तेथी कह्युं के ‘शुद्ध आत्मा चारित्र छे.’
तो पंचमहाव्रतना परिणाम चारित्र छे के नहि?
पंचमहाव्रतना परिणाम ने छ काय-जीवनी अहिंसाना भाव ए चारित्र नहि, अचारित्र छे. एवो व्यवहार छे खरो, पण ते चारित्र नथी. अहा! जेमां अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर वेदन-अनुभव थाय ते चारित्र आ व्यवहार नहि. ज्ञानीने ए व्यवहार होय छे पण एने ए मात्र जाणवालायक-जाणेलो प्रयोजनवान छे. ज्ञानी तेमां तद्रूप- एकमेक नथी. अज्ञानी ए व्यवहारमां तद्रूप-एकमेक थई गयो होय छे तेथी ते एने दीर्घ संसारनुं ज कारण थाय छे.
अहा! निश्चयचारित्र जे अतीन्द्रिय आनंदनी रमणतारूप छे तेनो आश्रय आनंदमूर्ति प्रभु शुद्ध आत्मा छे. चारित्रनुं उपादान तो चारित्रनी वीतरागी पर्याय पोते छे, पण एनुं निमित्त-आश्रय भगवान त्रिकाळी शुद्ध आत्मा छे. आवो मारग छे भाई! मोक्षना मारगनो आश्रय मोक्षनो मारग नथी, पण एनो आश्रय-ध्येय भगवान आत्मा छे. ३२० मी गाथामां आवे छे के-सम्यग्दर्शननुं ध्येय सम्यग्दर्शन नथी पण त्रिकाळी शुद्ध आत्मा सम्यग्दर्शननुं ध्येय छे. अहा! साचो (निश्चय) मोक्षमार्ग पण ध्येय नथी तो व्यवहारना विकल्प तो कांई छे ज नहि, ए तो बंधनुं ज कारण छे.
आम छे त्यां व्यवहारथी निश्चय थाय ए कयां रह्युं? एम त्रणकाळमांय नथी. पण अत्यारे तो ए खूब हाल्युं छे के व्यवहार करतां करतां थाय. लोको पण एमां हो-हा करीने भळी जाय छे. पण शुं थाय भाई! मारग तो आ छे के- ‘शुद्ध आत्मा चारित्र छे कारण के ते चारित्रनो आश्रय छे.’
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‘ए प्रमाणे निश्चय छे.’ पहेलां कह्युं हतुं ने के- ‘ए प्रमाणे व्यवहार छे’ एम के शब्दश्रुत ज्ञान छे, जीवादि नव पदार्थो दर्शन छे, छ जीव-निकाय चारित्र छे’ -ए प्रमाणे व्यवहार छे. मतलब के ए प्रमाणे जूठुं छे. व्यवहार छे एटले जूठुं छे, असत्यार्थ छे. अहीं कहे छे ‘- शुद्ध आत्मा ज्ञान छे, शुद्ध आत्मा दर्शन छे, शुद्ध आत्मा चारित्र छे’ -ए प्रमाणे निश्चय छे. मतलब के ए प्रमाणे साचुं छे, सत्यार्थ छे. निश्चय छे एटले सत्यार्थ छे केमके ए त्रणेनो आश्रय स्व छे, शुद्ध आत्मा छे.
११ मी गाथामां व्यवहारने अभूतार्थ-असत्यार्थ कह्यो छे. अभूतार्थ कह्यो माटे व्यवहार छे नहि एम नहि. छे खरो पण एने गौण करीने ‘नथी’ एम कह्युं छे. त्यां तो मोक्षमार्गनी पर्यायने पण असत्यार्थ कीधी छे ते अभाव करीने नहि पण एने गौण करीने व्यवहार कहीने असत्यार्थ कीधी छे. आ प्रमाणे व्यवहार निषेध्य छे ने निश्चय आदरणीय छे. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे- ‘तेमां, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य छे, कारण के आचारांग आदिने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं अनैकान्तिक छे-व्यभिचारयुक्त छे;...
जुओ, अज्ञानीने तो एकलुं रागमय परिणमन छे. तेने व्यवहारेय होतो नथी ने निश्चयेय होतो नथी. व्यवहार एने (-ज्ञानीने) होय छे के जेने निश्चयस्वरूप शुद्ध आत्मानां द्रष्टि ने अनुभव छे. अहा! तेने (-ज्ञानीने) जे क्रिया छे तेने व्यवहार कहीए. अहीं कहे छे-ए व्यवहार एने (-ज्ञानीने) निषेध्य छे. ए शब्दश्रुतनुं ज्ञान, नव तत्त्वनुं भेदरूप श्रद्धान अने छ जीव-निकायनी रक्षाना विकल्प अर्थात् पंचमहाव्रतना परिणाम एने (-ज्ञानीने) निषेध्य छे, हेय छे-एम कहे छे. केम? केमके ए मोक्षनुं कारण नथी.
तो केटलाक एने साधन कहे छे ने? समाधानः– साधन? वास्तवमां ए साधन छे नहि. एने व्यवहारथी-उपचारथी साधन कहे छे ए बीजी वात छे. शुद्ध रत्नत्रयधारीने अंदर जे स्वरूपस्थिरता थई छे ते खरुं वास्तविक साधन छे अने ते काळे तेने जे व्रतादिनो राग छे तेने सहचर देखीने उपचारथी व्यवहारे साधन कहेवामां आवेल छे. अहा! महाव्रतादिना विकल्पने जे साधन कह्युं ए तो एने निमित्त ने सहचर गणीने, निश्चयनो एमां आरोप दईने उपचारथी व्यवहार कह्युं छे; बाकी छे तो ए हेय, प्रतिषेध्य ज. जुओने! पं. श्री दोलतरामजीए छहढालामां शुं कह्युं? के-
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अहा! एणे अनंतवार मुनिपणां लईने व्यवहाररत्नत्रय पाळ्यां अने एना फळमां अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो; पण आत्मदर्शन ने आत्मज्ञान विना एने लेश पण सुख न थयुं. एटले शुं? के एने दुःख ज थयुं, एने संसार ज ऊभो रह्यो. हवे आनो अर्थ शुं? ए ज के व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम कल्याणनुं-सुखनुं साधन नथी; बलके बंधनुं-दुःखनुं ज कारण छे. तेथी तो कहे छे-व्यवहार प्रतिषेध्य छे.
हवे आने ठेकाणे पंचमहाव्रतादि व्यवहार पाळो, व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम माने ए तो तद्न उलटी श्रद्धा थई भाई! ए तो मिथ्याश्रद्धान ज छे.
जुओ, अहीं शुं कहे छे? के- ‘तेमां, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य छे, कारण के आचारांग आदिने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं अनैकांतिक छे-व्यभिचारयुक्त छे.’ तेमां एटले व्यवहार ने निश्चय ए बेमां व्यवहार निषेधवायोग्य छे एम कहे छे. केम? केमके आचारांग आदि शास्त्रनुं ज्ञान होय ने आत्मज्ञान न पण होय-ए प्रमाणे शास्त्रज्ञानने ज्ञाननुं आश्रयपणुं अनैकांतिक छे, दोषयुक्त छे.
शुं कीधुं? के शब्दश्रुत आदिने ज्ञान आदिना आश्रयस्वरूप मानवामां व्यभिचार आवे छे. अर्थात् शास्त्रज्ञान होय एने आत्मज्ञान होय ज, नव पदार्थनुं भेदरूप श्रद्धान होय एने निश्चय सम्यग्दर्शन होय ज अने महाव्रतादि पाळे एने निश्चयचारित्र होय ज एवो नियम नथी. कोईने शास्त्रज्ञान अगियार अंग अने नवपूर्व सुधीनुं होय अने छतां आत्मज्ञान नथी होतुं. अहा! जेमां भगवान आत्मानुं ज्ञान न होय ते ज्ञान केवुं? ते ज्ञान ज नथी. अहा! शब्दश्रुतज्ञान ते ज्ञान, नव तत्त्वनी श्रद्धारूप दर्शन ने छ जीव- निकायनी दयानो भाव ते चारित्र-एम त्रणेय होय छतां, अहीं कहे छे, आत्माश्रित निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होवानो नियम नथी. तेथी ए त्रणेय व्यवहार निषेध करवा लायक छे.
श्रीमद् राजचंद्रे लख्युं छे के- ‘अनेकान्त पण सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य कोई हेतुए उपकारी नथी.’ अहाहा...! सम्यक् एकांत एवुं (निज शुद्धात्मानुं) निश्चय दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय त्यारे, पूर्ण वीतरागता न थाय त्यांसुधी, शास्त्रना ज्ञाननो विकल्प, नव तत्त्वनी श्रद्धानो विकल्प अने पंचमहाव्रतनो विकल्प एने होय छे अने एने व्यवहारथी आरोप आपीने साधन कहेवामां आवे छे. जे साधन नथी एने साधन कहेवुं ते व्यवहार छे. आ प्रमाणे द्रव्यपर्यायने यथास्थित जाणवां ते अनेकान्त छे. अरे! निश्चयथी थाय ने व्यवहारथीय थाय एम अनेकान्तना नामे लोकोए खूब गरबड करी नाखी छे. बापु! ए तो फुदडीवाद छे, मिथ्या एकान्त छे भाई! (निश्चयथी ज थाय अने व्यवहारथी न थाय ए अस्ति- नास्तिरूप सम्यक् अनेकान्त छे). मोक्षमार्गप्रकाशकमां सातमा अधिकारमां आनो खूब खुलासो आवे छे.
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अहीं कहे छे- ‘व्यवहारनय प्रतिषेध्य छे.’ केम? कारण के आचारांगादिने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं अनैकांतिक अर्थात् व्यभिचारयुक्त छे. जुओ, अभव्यने ने अनादि मिथ्याद्रष्टिने अगियार अंग सुधीनुं ज्ञान, नवपदार्थनुं भेदरूप श्रद्धान अने महाव्रतादिना विकल्प अनंतवार थवा छतां तेने निश्चय ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्रगटतां नथी कारण के शास्त्रज्ञान निश्चयज्ञाननो-आत्मज्ञाननो आश्रय नथी, नव पदार्थनुं श्रद्धान निश्चय समकितनो आश्रय नथी, अने महाव्रतादिना विकल्प निश्चयचारित्रनो आश्रय नथी. शास्त्रज्ञानना आश्रये आत्मज्ञान थाय, नवतत्त्वना श्रद्धानना आश्रये निश्चय दर्शन थाय ने महाव्रतादिना विकल्पना आश्रये सम्यक्चारित्र थाय एम मानवुं दोषयुक्त छे. पराश्रयना भावथी स्व-आश्रयना भाव नीपजे ए मान्यता दोषयुक्त छे.
जुओ, पहेलां कह्युं के-स्वना आश्रये जे दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय ते निश्चय अने परना आश्रये जे ज्ञान-दर्शन-चारित्र होय ते व्यवहार. त्यां निश्चय ते सत्यार्थ साचां, सम्यक् छे ने व्यवहार ते कांई साची सत्यार्थ वस्तु नथी. हवे कहे छे-निश्चय होय तेने (-ज्ञानीने) व्यवहार होय छे, पण व्यवहार होय तेने निश्चय होय ज एम नथी; केमके अभव्यने अनंतवार भगवाने कहेला व्यवहारनुं पालन होय छे, थाय छे छतां तेने निश्चय दर्शन-ज्ञान-चारित्र होतां नथी. वास्तवमां व्यवहार ज्ञानादिने निश्चयनुं आश्रयपणुं बनतुं नथी. माटे व्यवहार प्रतिषेध्य छे एम कहे छे.
जुओ, जेने स्वने आश्रये ज्ञान होय छे तेने ते काळे शब्दश्रुत आदि व्यवहार होय छे. शुं कीधुं? पूर्ण वीतरागता न थई होय एवी साधकदशामां आत्मानुं ज्ञान, आत्मदर्शन अने आत्मानुं चारित्र होय एनी साथे शब्दश्रुत आदि व्यवहार दर्शन-ज्ञान- चारित्रनो राग होय छे. एवो राग भावलिंगी मुनिराजने पण होय छे. पण अहीं शुं कहे छे के ए रागना आश्रये कांई एने निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होतां नथी. निश्चयधर्म जे प्रगटे छे ते कांई व्यवहारना आश्रये प्रगटतो नथी पण स्व-स्वरूपना आश्रये ज प्रगटे छे. माटे कहे छे-व्यवहार प्रतिषेध्य छे अर्थात् आदरणीय नथी. समजाणुं कांई...?
भाई! जैनदर्शन बहु सूक्ष्म छे बापा! अंदर भगवान आत्मा पूरण शुद्ध नित्यानंद प्रभु एक ज्ञायकभावपणे परम पारिणामिकभावे नित्य विराजे छे ते सम्यग्दर्शननो विषय ने ध्येय छे. एनुं-पूरण परमात्मस्वरूपनुं-दर्शन ते जैनदर्शन छे. अहा! अनंत तीर्थंकरोए, अनंता केवळीओ, गणधरो ने मुनिवरोए ए ज कह्युं छे के-जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय छे एनुं ध्येय त्रिकाळी ध्रुव चिदानंदघन प्रभु आत्मा छे, पण व्यवहार एनुं कारण नथी. माटे व्यवहार प्रतिषेध्य छे. जे कोई
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व्यवहारथी निश्चय थाय ने व्यवहार आदरवालायक छे एम माने ते जैनदर्शनथी बहार छे; एने जैनदर्शननी खबर नथी.
शुद्ध आत्मानुं ज्ञान, शुद्ध आत्मानुं दर्शन, शुद्ध आत्मानुं चारित्र-शुद्ध रत्नत्रय ए मोक्षनो मारग छे, अतीन्द्रिय सुखरूप आनंदनी दशा छे. अने व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प छे ते दुःखनुं वेदन छे. ज्ञानीनेय ए होय छे. कोई एम कहे के ज्ञानीने दुःखनुं वेदन होय ज नहि तो ते एम नथी. भगवान केवळीने पूरण सुखनी दशा छे, दुःख नथी. अज्ञानीने एकलुं दुःख छे, सुख नथी. ज्यारे साधकने जे शुद्धरत्नत्रय छे ते सुखनी दशा छे ने जे व्यवहाररत्नत्रय छे ते दुःखनुं वेदन छे.
द्रष्टि ने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए ज्ञानीने राग नथी, दुःख नथी एम कहेवाय ए बीजी वात छे, पण ज्ञाननी अपेक्षाए ज्ञानीने किंचित् राग छे ने तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे. प्रवचनसार, नयअधिकारमां छे के-आत्मद्रव्य कर्तृनये रागादिनो कर्ता छे ने भोक्तृनये रागादिनो भोक्ता छे. अहा! ज्यांसुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यांसुधी क्षायिक समकिती होय, मुनिवर होय, गणधर होय के छद्मस्थ तीर्थंकर होय, एने किंचित् राग अने रागनुं वेदन होय छे. साधकने चोथे, पांचमे, छठ्ठे आदि गुणस्थाने पूर्ण आनंदनी दशा नथी, अतीन्द्रिय आनंदनी अपूर्णदशा छे ने साथे किंचित् रागनुं-दुःखनुं वेदन पण छे. जुओ, श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे त्रीजा कळशमां शुं कह्युं? के-
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते–
र्भवत् समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।
अहाहा...! छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने झूलता मुनि-आचार्य जेने अंतरमां प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन छे ते आ कहे छे के-मने जे (रागादि) कलेशना परिणाम वर्ते छे तेनाथी मारी परिणति मेली छे. केवी छे परिणति? के परपरिणतिनुं कारण जे मोह नामनुं कर्म (-निमित्त) तेनो अनुभाव (-उदयरूप विपाक)ने लीधे जे अनुभाव्य (रागादि परिणामो)नी व्याप्ति छे तेनाथी निरंतर कल्माषित (-मेली) छे. जुओ, साधकदशा छे ने? एटले कहे छे के-हजी अनादिनी रागनी परिणति मने छे. एम के- स्वानुभव थयो छे, प्रचुर आनंदनो स्वाद छे, त्रण कषायना अभावरूप वीतरागी शांति छे तोपण निमित्तने वश थयेली (निमित्तथी एम नहि) दशाने लीधे जेटलो कल्माषित भाव छे तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे.
पूर्ण आनंदनी दशा नथी ने? एनी तो भावना करे छे के-आ समयसारनी
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टीका करतां मलिन परिणतिनो नाश थई परमविशुद्धि थाओ. ‘समयसारव्याख्ययैव’ समयसारनी व्याख्याथी (टीकाथी) ज-एम पाठ छे. पण व्याख्या तो विकल्प-राग छे? आशय एम छे के समयसारनी टीकाना काळमां द्रव्यस्वभाव उपर मारुं जोर एवुं द्रढ घुंटाशे के एनाथी रागनी कल्माषित-मेली परिणतिनो नाश थईने परमविशुद्धि थशे. ल्यो, आचार्य-णमो लोए सव्व त्रिकाळवर्ती आईरियाणं-पदमां छे ने? ते कहे छे.
आगममां (धवलमां) पाठ छे के-णमो लोए सव्व त्रिकाळवर्ती अरिहंताणं, णमो लोए सव्व त्रिकाळवर्ती सिद्धाणं, इत्यादि. णमोकारमंत्रमां अंतिम पदमां, ‘णमो लोए सव्व साहूणं’ एम छे ने? ए उपरना चारमां पण लागु पडे छे. अहाहा...! पंचपरमेष्टीपदमां बिराजमान एवा आचार्य आ कहे छे के-प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनी दशानी साथे अमने किंचित् रागनी-दुःखनी दशा छे. ते व्यवहार छे, पण ते हेय छे, प्रतिषेध्य छे.
भाई! जे लोको दुकान-धंधो-वेपार साचववामां ने स्त्री-कुटुंब-परिवारनी मावजतमां पडेला छे ए तो एकला पापमां पडेला छे; एनो तो निषेध ज छे. पण अहीं कहे छे-आ जे शब्दश्रुतनुं ज्ञान-व्यवहार ज्ञान, नवतत्त्वनुं भेदरूप श्रद्धान-व्यवहार श्रद्धान ने छ जीव-निकायनी अहिंसा-व्यवहारचारित्र छे ते पुण्यभाव छे ने ते निषेध्य छे. केम? केमके एने मोक्षना कारणरूप निर्मळरत्नत्रयनुं आश्रयपणुं नथी. झीणी वात छे प्रभु! जेने स्वना आश्रये-अहाहा...! एक ज्ञायकभावना आश्रये निश्चयरत्नत्रय प्रगटयां छे तेने व्यवहार होय छे, पण निश्चयरहितने व्यवहार कोई वस्तु ज नथी. अर्थात् एम नथी के (अज्ञानीने) व्यवहारना आश्रये निश्चय प्रगटी जाय. ज्ञानीने व्यवहार होय छे अवश्य, पण ए व्यवहारना आश्रये एने ज्ञानादि नथी. ज्ञानीने ए व्यवहार हेयबुद्धिए होय छे ने स्व-स्वभावना आश्रये तेनो ते प्रतिषेध करे छे. समजाणुं कांई...?
ए ज कहे छे के-व्यवहारनय प्रतिषेध्य छे, ‘अने निश्चयनय व्यवहारनयनो प्रतिषेधक छे, कारण के शुद्ध आत्माने ज्ञान आदिनुं आश्रयपणुं ऐकांतिक छे.’
जोयुं? कहे छे-शुद्ध आत्माने ज्ञान आदिनुं आश्रयपणुं ऐकांतिक छे, अहाहा...! पूरण ज्ञानानंद-परमानंदस्वरूप प्रभु आत्माने ध्येयमां लईने जे ज्ञान थाय, जे श्रद्धान प्रगटे ने जे अंतर-स्थिरता थाय ए ऐकांतिक छे. सम्यक् एकांत छे. एटले शुं? के शुद्ध आत्माना आश्रये तो निश्चयरत्नत्रय थाय ज अने बीजी कोई रीते रागना के निमित्तना आश्रये न ज थाय. ल्यो, आवी वात छे!
शुं कहे छे? के पूर्णानंदनो नाथ शुद्धज्ञानघन त्रिकाळी ध्रुव अंदर परमात्मस्वरूपे त्रिकाळी विराजे छे ते एक ज निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो आश्रय छे; आ
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ऐकांतिक छे, एनो (शुद्धरत्नत्रयनो) बीजो कोई आश्रय नथी तेथी ऐकांतिक छे. एम नथी के कोईने व्यवहारथी थाय अने कोईने निश्चयथी (आत्माथी) थाय तथा कोईने निमित्तथी थाय ने कोईने शुद्ध उपादानथी थाय. ए तो आगळ आवी गयुं के व्यवहारथी ने निमित्तथी थाय ए मान्यता तो अनैकांतिक अर्थात् व्यभिचारयुक्त छे. आ तो एक शुद्ध आत्माना आश्रये ज (निश्चयरत्नत्रय) थाय एम ऐकांतिक छे. वीतरागनो आवो मारग छे भाई! आ तो शूरानो मारग बापु! आवे छे ने के-
अहा! सांभळीनेय जेनां काळजां कंपी जाय ए कायरनां आमां काम नहि बापा! श्रीमदे कह्युं छे ने के-
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.’
त्यां पुण्य-पाप अधिकारमां (गाथा १प४, टीकामां) आवे छे के-जे सामायिक अंगीकार करीने अशुभने तो छोडे छे, पण शुभने छोडतो नथी ने एमां रोकाईने शुद्धोपयोग जे धर्म छे ते प्रगट करतो नथी ते नामर्द छे, नपुंसक छे, कायर छे. त्यां टीकामां क्लीब शब्द वापर्यो छे.
४७ शक्तिओमां आत्माने एक वीर्यशक्ति कही छे. वीर्य एटले शुं? के जे आत्माना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी रचना करे तेने वीर्य कहीए. अहा! शुभने रचे ते आत्मानुं वीर्य नहि. भगवान आत्मा पूर्ण शुद्ध चैतन्यघन प्रभु छे. एनी वीर्यशक्ति पूर्ण शुद्ध त्रिकाळ छे. अहा! पर्यायमां शुद्धतानी रचना करे ते वीर्यशक्तिनुं कार्य छे; पण अशुद्ध एवा शुभनी रचना करे ए आत्मवीर्य नहि; ए तो बापु! वीर्यहीन नामर्द-नपुंसकनुं काम. अहा! जेम नपुंसकने प्रजा न होय तेम शुभभाववाळाने धर्मनी प्रजा न होय, तेथी तेओ नपुंसक छे.
अहीं कहे छे- ‘शुद्ध आत्माने ज्ञान आदिनो आश्रय ऐकांतिक छे.’ एटले के शुद्ध आत्माने ज्ञानादिनो आश्रय मानवामां व्यभिचार नथी, केमके ज्यां शुद्ध आत्मा होय त्यां शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र होय ज छे. अहा! जेमां शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मानो आश्रय होय ते ज्ञान-दर्शन-चारित्र निर्मळ सत्यार्थ ज छे, एमां व्यभिचार नथी; ने जेमां परनो-श्रुतनो नव तत्त्वनो, छ जीव-निकायनो-आश्रय होय ते ज्ञान-दर्शन-चारित्र असत्यार्थ छे, एमां व्यभिचार आवे छे केमके पर-आश्रयथी त्रणकाळमां निर्मळ रत्नत्रय थतां नथी.
अत्यारे तो बधे व्यवहारना गोटा उठया छे के-व्यवहारथी थाय, व्यवहारथी थाय. पण अहीं तो स्पष्ट कहे छे के-व्यवहारथी थाय ए मान्यता अनैकांतिक अर्थात्