PDF/HTML Page 2761 of 4199
single page version
व्यभिचारयुक्त छे. जेमां शुद्ध आत्मानो आश्रय छे ते एक ज ऐकांतिक एटले सम्यक् एकांत छे, अव्यभिचार छे.
अहाहा...! जेने ज्ञान-दर्शन-चारित्रमां भगवान शुद्ध आत्मानो आश्रय छे तेने निश्चय वस्तु यथार्थ छे, सत्यार्थ छे; तेने मोक्षना कारणभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप निर्मळ रत्नत्रय अवश्य होय ज छे. अहीं पहेलां ज्ञानथी उपाडयुं छे. तत्त्वार्थसूत्रमां ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः’ कीधुं एमां पहेलुं दर्शन लीधुं छे. अहीं पहेलां ‘ज्ञान’ थी केम उपाडयुं? के ज्ञान जाणनार छे. ज्ञान पोतानेय जाणे ने दर्शन अने चारित्रनी पर्यायने पण जाणे छे; पण दर्शननी पर्याय पोते पोतानेय जाणे नहि अने ज्ञान ने चारित्रनेय जाणे नहि. तेवी रीते चारित्रनी पर्याय पोते पोताने जाणे नहि अने ज्ञान ने दर्शननेय जाणे नहि. आ प्रमाणे ज्ञान जाणनार छे तेथी तेने अहीं पहेलुं लीधुं छे. अहा! शुद्ध चिद्रूप चैतन्यरसकंद प्रभु आत्माना आश्रये जे ज्ञाननी पर्याय थई ते दर्शनने जाणे, चारित्रने जाणे अने निराकुळ आनंदना वेदननेय जाणे छे. अहो! ज्ञाननुं स्व-परने जाणवानुं अद्भुत अलौकिक सामर्थ्य छे.
हवे कहे छे-आ वात हेतु सहित समजाववामां आवे छे-एम के शब्दश्रुत आदिने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं अनैकांतिक छे ने शुद्ध आत्माने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं ऐकांतिक छे- ए वात कारण सहित समजाववामां आवे छेः-
कहे छे- ‘आचारांग आदि शब्दश्रुत एकांते ज्ञाननो आश्रय नथी, कारण के तेना (अर्थात् शब्दश्रुतना) सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे ज्ञाननो अभाव छे.’
शुं कहे छे? के भगवाने कहेलां शास्त्रोनुं ज्ञान पण एकांते ज्ञाननुं निमित्त-कारण नथी केमके एने कारण मानवामां व्यभिचार आवे छे. जुओ, अत्यारे सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेलां आचारांग आदि शास्त्रो मूळ छे नहि पण एना अनुसारे रचाएला समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, धवला आदि शास्त्रो छे. एमां आ कहे छे के- आचारांग आदि भगवान सर्वज्ञे कहेलां शास्त्रोनुं ज्ञान ते यथार्थ ज्ञान नहि, पण ए तो पुण्य छे. भाई! मिथ्यात्वनी मंदता ने अनंतानुबंधीनी कांईक मंदता होय तो ए शास्त्रज्ञान होय छे, पण ए कांई वस्तु नथी कारण के ते यथार्थनुं कारण नथी. जन्म- मरण रहित थवानी बहु झीणी वात बापु!
भाई! चोरासी लाख योनिमां अनंत अनंत वार जन्म-मरण करी करीने तारा सोथा नीकळी गया छे. एक अंतर्मुहूर्तमां (-श्वासोच्छ्वासमां) निगोदना अढार भव एवा अनंत अनंत वार कर्या भाई! आवे छे ने के-
PDF/HTML Page 2762 of 4199
single page version
अहा! एना दुःखनुं शुं कथन करीए? अहा! केवा अकथ्य पारावार दुःखमां रह्यो ते भूली गयो प्रभु! अहीं तने ए दुःखथी मुक्त थवानी वात करे छे.
कहे छे-आ लौकिक ज्ञान-एल.एल.बी, ने एम.डी ने पी.एच.डी इत्यादिनुं जे छे एनी वात तो एककोर रही, केमके ए तो नर्युं पाप छे; पण भगवान सर्वज्ञदेवना श्रीमुखेथी जे ओम्ध्वनि नीकळी अने एमांथी जे बार अंगरूप शब्दश्रुत रचाणुं ते आचारांग आदि शब्दश्रुतनुं ज्ञान पण सम्यग्ज्ञान नथी, पण विकल्प छे, शुभभाव छे- एम कहे छे; एनाथी पुण्यबंध थाय छे, पण सम्यग्ज्ञान नहि, धर्म नहि. ल्यो, आवी आकरी वात छे.
जेम माणसने पांच-पचास लाखनी संपत्ति थाय ने कुटुंब बहोळुं थाय त्यां एमां ते गुंचाई जाय छे, जेम खांडेलां सूकां मरचांनो कीडो-ईयळ मरचानुं घर (बाचकां) करीने मरचामां रहे छे तेम अज्ञानी अनादिथी लौकिक ज्ञानमां, मिथ्याज्ञानमां भरमाई ने पडयो छे. ए तो निरंतर पाप ज बांधे छे. एनी अहीं वात नथी. अहीं तो कोई भगवान केवळीए कहेलां दिगंबर परंपराथी चाल्यां आवतां सत्शास्त्रोनुं भणतर करे अने एथी एने जे शब्दश्रुतज्ञान थाय ते एकांते ज्ञाननो आश्रय नथी अर्थात् एनाथी सम्यग्ज्ञान थाय छे एम नथी एम कहे छे. अहा! शास्त्रोनुं ज्ञान छे ए शब्दज्ञान छे, पण आत्मज्ञान नहि. शास्त्रने जाणनारो शब्दने जाणे छे, पण आत्माने नहि. आवी वात छे! समजाणुं कांई...?
अहाहा...! आचारांग आदि शब्दश्रुत एकांते ज्ञाननो आश्रय नथी एटले शुं कीधुं? के शब्दश्रुतनुं ज्ञान सम्यग्ज्ञाननुं कारण नथी. अहाहा...! मोक्षनुं कारण एवुं जे सम्यग्ज्ञान ते शब्दश्रुतना आश्रये थतुं नथी. हवे सत्शास्त्र कोने कहेवाय एनीय खबर न मळे ने जे ते कल्पित शास्त्रोनो कोई अभ्यास राखे ए तो बधा पापना विकल्प भाई! आ तो भगवान केवळीनी वाणी अनुसार रचायेलां शास्त्रोनुं ज्ञान पण सम्यग्ज्ञाननुं- आत्मज्ञाननुं कारण नथी एम कहे छे. शास्त्रज्ञान विकल्प छे ने? पुण्यभाव छे, एनाथी पुण्यबंध थाय छे पण आत्मज्ञान नहि. जुओ, अभव्यने शास्त्रज्ञाननी-आचारांग आदि अगियार अंग सुधीना ज्ञाननी-हयाती छे पण शुद्ध आत्माना अभावने लीधे ज्ञाननो अभाव छे; अर्थात् एने शुद्ध आत्मानो आश्रय नहि होवाथी कदीय सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.
अहाहा...! आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु एकलो ज्ञाननो पिंड छे. शुं कीधुं? के जेम सक्करकंद उपरनी छाल न जुओ तो अंदर एकली मीठाशनो पिंड छे तेम भगवान आत्मा शास्त्रज्ञानना-व्यवहारज्ञानना विकल्पथी भिन्न अंदर एकलो ज्ञाननो पिंड शुद्ध ज्ञानघन छे. पण अहा! पाणीना पूरनी जेम शास्त्र भणी जाय एवुं
PDF/HTML Page 2763 of 4199
single page version
शास्त्रज्ञान होवा छतां शुद्ध ज्ञानघन प्रभु आत्माना आश्रयना अभावे अभव्य जीवने ज्ञाननो-मोक्षना कारणभूत सम्यग्ज्ञाननो अभाव छे. मारग बहु झीणो भाई! हवे आवी वातु कानेय न पडे ते बिचारा शुं करे? (संसारमां आथडी मरे).
अहा! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं, कांईक पहोळो-पहोंचतो क्षयोपशम थयो, ने एमां जो शुद्ध तत्त्वनी अंतरमां समजण न करी तो शुं कर्युं भाई? अहा! शुद्ध आत्मानुं ज्ञान न कर्युं तो एणे कांई न कर्युं; आखी जिंदगी एळे गई. अरे! जीवन (आयु) तो पूरुं थशे अने देह छूटी जशे; त्यारे तुं कयां रहीश प्रभु? मिथ्याज्ञानमां रहेवानुं फळ तो अनंत संसार छे भाई! एकलो दुःखनो समुद्र! !
अहा! आचार्य कहे छे-अंदर शुद्ध विज्ञानघन प्रभु आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे शास्त्रज्ञाननो सद्भाव होवा छतां अभव्यने ज्ञान नथी. एथी एम नक्की थयुं के शास्त्रज्ञान कांई (लाभदायी) नथी; आत्मज्ञान ज ज्ञान छे. हवे लौकिक ज्ञान ने अज्ञानीओए कहेलां कल्पित शास्त्रोनुं ज्ञान ए तो कयांय रही गयां. ए तो बधां अज्ञान अने कुज्ञान ज छे. अहीं तो आ चोकखी वात छे के जेमां भगवान आत्मानो आश्रय नथी ते कांई नथी, ए बधुं अज्ञान ज छे. हवे आवुं तत्त्व समजवाय रोकाय नही अने आखो दि’ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं... , ने पडिक्कम्मामि भंते इरियावहियाए... एम पाठ रच्या करे पण एथी शुं? बापु! मारगडा जुदा छे नाथ! एवुं लाख रटे तोय कांई नथी केमके आत्मज्ञानथी ओछुं कांईपण (शब्दश्रुतज्ञान पण) ज्ञान नथी. समजाणुं कांई...?
हवे बीजी वातः- ‘जीव आदि नव पदार्थो दर्शननो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे दर्शननो अभाव छे.’
जुओ, सम्यग्दर्शन जेने भगवान सत्यदर्शन-आत्मदर्शन कहे छे एनो आश्रय- आधार नव पदार्थो नथी. एटले शुं? के भगवाने जे जीव, अजीव आदि नव पदार्थ कह्या छे एना भेदरूप श्रद्धा नथी एटले के एनाथी भगवान आत्मानुं श्रद्धान अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन थतुं नथी. नव तत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा तो राग छे. ए कांई समकितनुं कारण नथी.
ल्यो, ए ज हेतु-द्रष्टांतथी सिद्ध करे छे. जीव आदि पदार्थो दर्शननो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे दर्शननो अभाव छे. जोयुं? अभव्य जीवने, कहे छे, नवतत्त्वनी श्रद्धा तो होय छे पण तेने समकित होतुं नथी. केम? तो कहे छे-एने शुद्ध आत्माना श्रद्धाननो अभाव छे. आ तो अभव्यनो दाखलो आप्यो छे. बाकी भव्य जीवने पण नवतत्त्वनी श्रद्धानो सद्भाव होवा छतां शुद्ध आत्मानी श्रद्धाना अभावने लीधे सम्यग्दर्शननो
PDF/HTML Page 2764 of 4199
single page version
अभाव छे. आमां शुं सिद्ध थयुं? के नवतत्त्वनी श्रद्धाथी समकित नथी पण शुद्ध आत्मश्रद्धान ते समकित छे. अहा! जेमां शुद्ध आत्मानी प्रतीति न होय ते समकित नहि. समकितनो आधार-आश्रय शुद्ध आत्मा छे, नव पदार्थो नहि.
तो तत्त्वार्थसूत्रमां आचार्य उमास्वामीए ‘तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्’ कह्युं छे ने?
हा, पण त्यां ए निश्चय समकितनी व्याख्या छे. त्यां ‘तत्त्वार्थ’ नी व्याख्या करतां एकवचन लीधुं छे ने? मतलब के नवतत्त्वोथी भिन्न जे एक शुद्ध ज्ञायकज्योतिस्वरूप प्रभु आत्मा अंदर प्रकाशमान छे तेनुं श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे-एम त्यां आशय छे. श्री मोक्षमार्गप्रकाशकमां पण नव तत्त्वनुं श्रद्धान समकित कह्युं ए अभेदथी कह्युं छे. पण अहीं तो ‘नव पदार्थो’ एम बहुवचन छे तेथी ए भेदरूप श्रद्धानी वात छे. अहीं कहे छे-ए नव पदार्थोना भेदरूप श्रद्धानथी निश्चय समकित थतुं नथी.
अहा! त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावरूप आत्मानो ज्यां अनुभव ने द्रष्टि थयां तेमां बधाय नवतत्त्वनी श्रद्धा आवी जाय छे, केमके अस्तिपणे आ शुद्ध आत्मा निश्चय जीवतत्त्व छे एवी प्रतीतिमां ए पर्यायो नास्तिरूप छे एम एकरूप द्रव्यनुं ज्ञान-श्रद्धान आवी जाय छे. आ प्रमाणे ‘तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्’ कह्युं छे ए निश्चय समकितनी व्याख्या छे; अने भेदरूप श्रद्धान तो बीजी चीज छे, समकित नहि. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! प्रभु तुं कोण छो? सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरे जेने आत्मा जाण्यो छे तेवो चैतन्यरसकंद प्रभु आत्मा छो. अहा! आवा आत्मस्वरूपनी श्रद्धा विना नव तत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा निरर्थक छे, कांई वस्तु नथी. आकरी वात प्रभु! वाडामां-संप्रदायमां तो आ वात छे नहि. लोको तो व्यवहारने ज मार्ग मानी बेठा छे. शुं थाय? पण सर्वज्ञ परमात्मा एम फरमावे छे के-अमारी श्रद्धा, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा, संवर-निर्जरा-मोक्ष आदिनी भेदरूप श्रद्धा तो अभव्य पण करे छे, पण एने कदीय सम्यग्दर्शन नथी. भाई! आ तो अंदर छे एना अर्थ थाय छे. जेम दशेराथी दिवाळी सुधी चोपडा मेळवे छे तेम बापु! आ भगवानना चोपडा साथे तारी श्रद्धाने मेळव तो खरो.
हवे त्रीजी वातः ‘छ जीव-निकाय चारित्रनो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे चारित्रनो अभाव छे.’
शुं कहे छे? के आ छ कायना जीवोनी दया पाळवी ए चारित्र नथी; अहिंसादि पंचमहाव्रतना भाव चारित्रनो आधार नाम आश्रय-निमित्त-कारण नथी.
त्यारे कोई कहे छे-छ कायनी दया पाळो ए धर्म छे.
PDF/HTML Page 2765 of 4199
single page version
अरे! सांभळने बापु! ए तो व्यवहार नाम उपचार छे; वास्तविक नहि. जुओ, सर्वज्ञ वीतराग जैन परमेश्वर कहे छे के-सक्करकंद, डुंगळी, लसण वगेरेनी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे, अने एक एक शरीरमां अनंता निगोदना जीवो छे. अहा! आ जीव अनंतकाळ त्यां (-निगोदमां) रह्यो छे. भगवान! तुं भूली गयो पण अनंतकाळ तुं निगोदमां रह्यो छे. मांड बहार नीकळ्यो त्यां परमां (छ कायनी दयामां) गुंचाई गयो. अहा! भगवान सर्वज्ञना शासन सिवाय छ जीव- निकायनी कयांय वात नथी. पण भगवान! तुं छ जीव-निकायमां गुंचाई-भराई पडयो! अनंता निगोदना जीव, पृथ्वीकाय, अपकाय आदि एकेन्द्रिय जीवो, बे इन्द्रिय, त्रण ईन्द्रिय, चौरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय वगेरे बधा छ जीव-निकाय छे. अहीं कहे छे-ए छ जीव- निकायनी दया ए शुभराग छे, चारित्र नाम धर्म नहि. आकरी वात प्रभु! भाई! एवी छ कायनी दया तो अभव्य जीव पण पाळे छे, अने भव्य जीवे पण अनंतवार पाळी छे. पण एथी शुं? तो-
-एम आवे छे ने? हा, पण ए कई दया भाई? ए आ छ कायनी दया नहि, पण स्वदयानी वात छे. अहा! अंदर शुद्ध एक चिद्रूप चैतन्यरसकंद आनंदकंद प्रभु पोते छे तेनो स्वीकार करी तेमां ठरवुं ते स्वदया छे ने ते सुखनी खाण ने मुक्तिनो मार्ग छे. बाकी आ छ जीव-निकाय कांई चारित्रनो-धर्मनो आश्रय नथी. छ कायनी दयानो भाव तो पर तरफना वलणवाळो भाव छे; ते शुभराग छे, चारित्र नहि.
अहा! मोक्षना कारणभूत जे चारित्र छे तेनो छ जीव-निकाय आश्रय नथी. केम? कारण के तेना एटले के छ जीव-निकायनी दयाना सद्भावमां पण शुद्ध आत्माना अभावने लीधे अभव्योने चारित्रनो अभाव छे. अहा! अभव्यने छ जीव-निकायनी दयाना परिणाम बराबर होय छे पण एने चारित्र कदीय होतुं नथी. केम? केमके शुद्ध आत्मानो तेने अभाव छे, अर्थात् तेने कदीय शुद्ध आत्मानो-ज्ञानानंदस्वरूप पोताना भगवाननो-आश्रय थतो नथी. अहा! ए छ कायनी दया पाळे, एकेन्द्रिय लीलोतरीनो दाणो पण हणाय तो आहार न ले, पाणीनुं एक बिंदु जेमां असंख्य जीव छे एने हणीने कोई गरम पाणी एना माटे बनावे तो ए प्राण जाय तोय न ले. अहा! आवो एने दयानो भाव होय छे, पण एने चारित्र नथी केमके शुद्ध आत्माना आश्रयनो एने अभाव छे.
प्रश्नः– तो धर्मात्मा पुरुष छ जीव-निकायनी दया पाळे छे ने?
PDF/HTML Page 2766 of 4199
single page version
समाधानः– शुद्ध निश्चय एक आत्मानुं ज्ञान ने दर्शन थया पछी पण धर्मात्माने छ कायनी दयानो विकल्प-व्यवहार होय छे, पण तेने ए हेयपणे छे. आत्मानां शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जेने प्रगट छे एवा मुनिवरने पांच महाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति इत्यादि व्यवहार-राग होय छे पण तेने ए हेयबुद्धिए होय छे. एमां एने स्वामित्व नथी. साधकने एक समयमां बेय होय छे. साधक छे ने? अधूरो छे ने? साधक होय एटले त्यां बाधकपणुं होय पण तेने ए हेय छे.
मिथ्याद्रष्टिने एकलुं बाधकपणुं छे, भगवान केवळीने एकला साधकपणानुं फळ पूर्ण दशा छे अने साधकने साधक-बाधक बेय छे. एने स्वना आश्रये ज्ञान, दर्शन ने चारित्र ते निश्चय ने परना आश्रये जरी राग थाय ते व्यवहार-एम बेय होय छे. पण ए व्यवहार कांई स्व-वस्तु नथी, दर्शन-ज्ञान-चारित्र नथी. ए तो सहचर निमित्त जाणीने एने व्यवहार कहेवामां आवे छे, बाकी छे ए हेय ज. समजाणुं कांई...?
अहा! आवो व्यवहार अभव्यो अने भव्यो पण करे छे, पण अंतरंगमां शुद्ध आत्मानो आश्रय कर्या विना एने चारित्रनो अभाव छे. अहा! अनंत काळमां एणे अनंत पद्गलपरावर्तन कर्यां. एक एक पुद्गलपरावर्तनना अनंतमा भागमां अनंता द्रव्यलिंग, यथार्थ द्रव्यलिंग हों, अनंतवार धार्यां, पण भगवान आत्माना आश्रये निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट कर्यां नहि. ए बधी बहारनी क्रिया तो शुभराग छे. एने धर्म मानी ए करे ने बहारमां लोको पण एने सारुं आचरण कहे पण सर्वज्ञ परमात्मा एने सदाचरण (सत्य आचरण) नहि पण असदाचरण अर्थात् असत्य आचरण कहे छे. समजाणुं कांई...? बापु! जे आचरणमां सच्चिदानंदनो नाथ प्रभु आत्मा होय नहि ते असदाचरण छे.
भाई! आ त्रिलोकनाथ सीमंधर भगवानना श्रीमुखेथी नीकळेली वाणी अहीं आवी छे. श्री सीमंधर परमात्मा वर्तमानमां महाविदेहक्षेत्रमां मोजुद छे. वीसमा मुनिसुव्रतनाथना समयथी तेओ महाविदेहमां बिराजे छे. तेमनो पांचसो धनुष्यनो देह छे, अने क्रोड पूर्वनुं आयुष्य छे. ते, आवती चोवीसीमां अहीं तेरमा तीर्थंकर थशे त्यारे मोक्षे जशे. भगवान कुंदकुंदाचार्य संवत ४९ मां त्यां सीमंधर भगवान पासे गया हता. आठ दि’ त्यां रह्या हता. त्यांथी आवीने आ शास्त्र रच्यां छे. तेमां आ कहे छे के-चिद्ब्रह्म- चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा अंदर छे तेनो ज्यां आश्रय नथी त्यां चारित्र नथी. कोई भले छ कायना जीवनी दया ने पंचमहाव्रतादिनो व्यवहार पाळे, पण ए कांई चारित्रनो आश्रय नथी अर्थात् एनाथी चारित्र प्रगटतुं नथी. हवे आवुं लोकोने आकरुं पडे पण शुं थाय? मारग तो आवो छे.
आम बफममां ने बफममां (भ्रममां) अंदर सच्चिदानंद भगवान छे एनो
PDF/HTML Page 2767 of 4199
single page version
आश्रय नहि ले तो आ मनुष्यभव निरर्थक जशे. जिंदगी चाली जशे प्रभु! ने संसार ऊभो रहेशे. अहा! आ गधेडाने ने कूतराने हमणां मनुष्यपणुं नथी अने तने छे पण समजण करीने अंतद्रष्टि नहि करे तो फेरो (-दाव) फोगट जशे ने चार गतिना फेरा (चक्कर) ऊभा रहेशे. समजाणुं कांई...?
आ प्रमाणे व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते सत्यार्थ दर्शन-ज्ञान-चारित्र नथी एम कह्युं. हवे सत्यार्थ कहे छेः-
‘शुद्ध आत्मा ज ज्ञाननो आश्रय छे, कारण के आचारांग आदि शब्दश्रुतना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज ज्ञाननो सद्भाव छे;...’
जोयुं? शुं कहे छे? के सम्यग्ज्ञाननो शुद्ध आत्मा ज एक आश्रय छे. ‘शुद्ध आत्मा ज’ -एम कहीने बीजुं बधुं काढी नाख्युं. आ सम्यक् एकांत कर्युं छे. अहा! सम्यग्ज्ञानने एक आत्मा ज आश्रय छे, बीजुं कांई नहि-शास्त्रज्ञानेय नहि ने देव-गुरुय नहि. समजाणुं कांई...?
जुओ, चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे. ते वीतरागता केम थाय? तो कहे छे-ज्ञाननी पर्याय शुद्ध आत्माना आश्रये भगवान आत्मानुं ज्ञान करे तो वीतरागता थाय. कोई गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि अनेक चारे अनुयोगनां शास्त्र भणे तो तेने समकित थाय के नहि? तो कहे छे-चारे अनुयोग भणे माटे थाय ज एम नहि, कदाचित् थाय तो एनाथी (शास्त्र भणतरथी) थाय एमेय नहि; थाय तो शुद्ध ज्ञानानंद प्रभु आत्माना ज आश्रये थाय बीजी कोई रीते नहि. भाई! वीतरागी ज्ञानामृतनो पिंड प्रभु आत्मा अंदर छे एने स्वानुभवमां न जाणे त्यांसुधी एनां भणतर-बणतर कांई लेखे लागे नहि.
अहाहा...! आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु एकला ज्ञानामृतरसनो दरियो छे. एणे जाणनारुं ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे. हवे एमां बीजुं (-शास्त्र) आवडे न आवडे एनी साथे कांई संबंध नथी. जुओ, शिवभूति मुनिने द्रव्यश्रुतनुं कांई विशेष ज्ञान न हतुं (‘मा रुष, मा तुष’ एटलुं पण याद रहेतुं न हतुं) पण अंतरमां भावश्रुत हतुं के-हुं ज्ञानानंदनो सागर प्रभु आत्मा छुं, केमके अंदर शुद्ध आत्मानो आश्रय हतो. आवी वात छे! झीणी पडे पण वस्तु ज आवी छे.
अहा! ज्ञान-सम्यग्ज्ञान केम थाय एनी आ वात छे. शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियथी तो थाय नहि केमके ते बधां रूपी जड पुद्गल छे ने भगवान आत्मानुं ज्ञान अरूपी चैतन्यमय छे. वळी पुण्य-पापना विकल्पथीय ज्ञान न थाय केमके ते विकल्प जडस्वभाव छे, अज्ञानस्वभावी छे. चारे अनुयोग भणे एथीय कांई आत्मानुं
PDF/HTML Page 2768 of 4199
single page version
ज्ञान न थाय केमके ए बधुं परलक्षी-पर तरफना लक्षवाळुं ज्ञान छे. अहा! दिशा पलटे अने अंदर स्वमां लक्ष करी स्वस्वरूपने जाणवामां प्रवर्ते त्यारे आत्मानुं ज्ञान थाय छे अने ते सम्यग्ज्ञान छे. आवी वात छे.
अहा! अहीं मोक्षमार्ग बताववो छे एमां पहेलां सम्यग्ज्ञानथी उपाडयुं छे, केमके जाण्या विना कोनी प्रतीति करे? जे वस्तु जाणवामां न आवे तेनी प्रतीति केम थाय? तेथी पहेलां ज्ञानथी उपाडयुं छे. तो कहे छे-ज्ञाननो एक शुद्धात्मा ज आश्रय छे. बीजुं गमे तेटलुं जाणे तोय आत्मप्राप्ति न थाय पण ज्ञाननी पर्यायने अंतरमां वाळी स्वसन्मुखता करे त्यां आत्मज्ञाननी प्राप्ति थाय छे.
‘शुद्ध आत्मा ज ज्ञाननो आश्रय छे’ -आमां ‘ज’ कारथी एकान्त कीधुं ने? मतलब के शुद्धात्मानुं ज्ञान एय ज्ञान ने शास्त्रनुं ज्ञान एय ज्ञान एम नथी; पण एक शुद्ध आत्मा ज जेनुं निमित्त-आश्रय छे ते ज्ञान-सम्यग्ज्ञान छे. अहा! सम्यग्ज्ञाननी पर्यायमां शुद्ध आत्मा ज निमित्त-कारण छे. निमित्त एटले ते पर्यायमां कांई करे छे एम नहि; पण एना आश्रये एना पूर्ण सामर्थ्यनुं ज्ञान अहीं पर्यायमां आवे छे ने ते ज्ञान मोक्षनो मारग छे.
शुद्ध आत्मा ज ज्ञाननो आश्रय छे कारण के आचारांग आदि शब्दश्रुत हो के न हो, शुद्ध आत्माना सद्भावथी ज ज्ञाननो सद्भाव छे. ल्यो, शुं कहे छे आ? के शास्त्रनुं ज्ञान भले होय के न होय, शुद्ध आत्माना सद्भावथी ज ज्ञाननो सद्भाव छे. हवे आवी निश्चयनी वात घणा लोकोने-व्यवहारवाळाओने खटके छे. शब्दश्रुत हो के न हो एम कीधुं ने? मतलब के शब्दश्रुत कांई नथी. मात्र (द्रव्यश्रुतथी) दिशा फरे तो दशा फेर थाय छे. परथी खसी ज्ञाननी दिशा स्व भणी वळे ते सम्यग्ज्ञान थाय छे. अहा! दशा दशावान तरफ ढळे तो ज्ञान साचुं छे; बाकी बधां थोथां छे. समजाणुं कांई...?
हवे कहे छे- ‘शुद्ध आत्मा ज दर्शननो आश्रय छे, कारण के जीव आदि नव पदार्थोना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज दर्शननो सद्भाव छे;...’
शुं कीधुं? के सम्यग्दर्शननो आश्रय एक शुद्ध आत्मा ज छे, नव पदार्थो नहि. नव पदार्थोनी श्रद्धा तो राग छे. अहा! जेनो आश्रय नव तत्त्वो छे ए तो राग छे, सम्यग्दर्शन नहि. भगवान जेने सम्यग्दर्शन कहे छे एनो आश्रय-लक्ष एक शुद्ध ज्ञानघन प्रभु आत्मा ज छे.
अहाहा...! नवतत्त्वथी भिन्न पूरण शुद्ध एक ज्ञानघन प्रभु आत्मा छे. एना सन्मुखनुं श्रद्धान-दर्शन ते सम्यग्दर्शन छे. अभेदथी कहीए तो शुद्ध आत्मा ज
PDF/HTML Page 2769 of 4199
single page version
सम्यग्दर्शन छे. हवे आत्मा शुं ने नवतत्त्व शुं एनी खबरेय न होय ने आ अमने भगवाननी श्रद्धा छे ए समकित अने आ व्रत लईए ते चारित्र एम कोई माने छे पण बापु! ए तो बधां एकडा विनानां मींडां छे भाई! सम्यग्दर्शन के जेने चोथुं गुणस्थान कहीए, जे श्रावक थवा पहेलां आवे छे, तेनो आश्रय, अहीं कहे छे, एक शुद्ध आत्मा ज छे; भगवानेय नहि ने नवतत्त्वेय नहि. आमां श्रावक कह्या ते आ वाडाना श्रावक नहि, ए तो बधा सावज छे; आ तो वीतरागी शांति अने स्थिरता कांईक थयां छे एवा पंचमगुणस्थानवाळा श्रावकनी वात छे.
अहाहा...! शुं कहे छे? के जीवादि नव पदार्थोनी भेदरूप श्रद्धानो विकल्प हो के न हो, शुद्ध आत्माना सद्भावथी ज दर्शननो सद्भाव छे. आनो अर्थ शुं थयो? के नव पदार्थोनुं भेदरूप श्रद्धान कांई वस्तु नथी, अर्थात् एनाथी सम्यग्दर्शन नथी, पण शुद्ध चैतन्यघन प्रभु आत्माना ज आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-आ अध्यात्मवाळा एक शुद्ध आत्माने ज आश्रय-ध्येय बनावे छे ते एकांत छे, बीजे नवपदार्थोनो आश्रय पण कह्यो छे.
अरे भाई! बीजे नवतत्त्वना आश्रये श्रद्धान कह्युं छे ए तो व्यवहार छे अने ए तो अहीं पहेलां कह्युं ने तेनो निषेध कर्यो, केमके आत्मदर्शन विना व्यवहार कांई नथी अर्थात् रागद्वेषमोह ज छे. भाई! शुद्ध चिदानंदघन एकला ज्ञान ने आनंद दळ प्रभु आत्मा छे ते एकमां अंतर्मुखाकार थई एनुं दर्शन-श्रद्धान करे ते वास्तविक निश्चय सम्यग्दर्शन छे. नारकीने पण आवुं सम्यग्दर्शन थाय छे पण ते आ रीते ज, अने त्यारे तेने जे, नवतत्त्वनुं भेदरूप श्रद्धान होय छे ते व्यवहार छे. आ प्रमाणे अनेकान्त छे.
प्रश्नः– पण काळलब्धि होय त्यारे सम्यग्दर्शन थाय ने? उत्तरः– काळलब्धि ए समये ज होय छे. अहाहा...! अंदर त्रिकाळी ध्रुव स्वस्वभाव एक ज्ञायकभावने ज्यां ध्येय बनाव्यो त्यां ते ज समये
-स्वभावनो आश्रय थयो, -काळलब्धि थई गई, -वर्तमान पर्यायनो पुरुषार्थ थई गयो, -कर्मनां उपशम आदि पण थई गयां अने -थवा योग्य सम्यग्दर्शननी पर्याय ज थई ते भवितव्य थयुं. एक साथे पांचे समवाय मळ्यां. आ प्रमाणे शुद्ध आत्माना ज आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे अने एमां पांचे समवाय समाई जाय छे.
PDF/HTML Page 2770 of 4199
single page version
हवे त्रीजी चारित्रनी वात ले छेः- ‘शुद्ध आत्मा ज चारित्रनो आश्रय छे, कारण के छ जीव-निकायना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज चारित्रनो सद्भाव छे.’
जुओ, जेने मोक्षना कारणभूत चारित्र कहीए तेनो आश्रय एक शुद्धात्मा ज छे, छ जीव-निकाय नहि. अहाहा...! अंदर शुद्ध चैतन्यरसकंद प्रभु आत्मा छे ते एकमां ज चरवुं-रमवुं-ठरवुं एनुं नाम चारित्र छे.
अत्यारे तो कोई लोको कहे छे के-अट्ठावीस मूलगुण पाळे-ए शुभथी शुद्ध उपयोग थाय.
अरे भाई! ए (मूळगुणना) शुभभावनी रागनी दिशा तो पर तरफ छे, ने आ चारित्रनी दिशा स्व तरफ छे. हवे पर तरफनी दिशाए जतां स्व तरफनी दिशावाळी दशा केवी रीते थाय? अहा! रागमांथी वीतरागता केम थाय? रागमां-दुःखमां रहेतां अतीन्द्रिय सुख केम प्रगटे? बापु! अतीन्द्रिय सुख तो अतीन्द्रिय सुखनो सागर चिदानंदघन प्रभु आत्माना एकना आश्रये ज प्रगट थाय छे एम अहीं कहे छे.
कोईक दि’ काने पडे एटले माणसने एम लागे के आवो धर्म! आवो मारग! पण भाई! वीतराग जैन परमेश्वरे चारित्रनो-धर्मनो आश्रय एक शुद्ध आत्मा ज कह्यो छे. अर्थात् छ जीव-निकाय चारित्रनो आश्रय नथी. शुं कीधुं? पहेलां पंचमहाव्रतादि पाळे माटे पछी चारित्र थशे एम छे नहि. ज्यारे एने चारित्र थशे त्यारे एक शुद्ध आत्माना ज आश्रये थशे; अर्थात् शुद्ध आत्मानो आश्रय करशे त्यारे ज चारित्र थशे.
अत्यारे तो लुगडां फेरवे के नग्न थई जाय एटले माने के थई गई दीक्षा; ने कांईक उपवास करे एटले माने के तपस्या ने निर्जरा थई गयां. पण एम तो धूळेय दीक्षा ने तपस्या नथी सांभळने. दीक्षा काळे लुगडां तो सहज छूटी जाय छे, छोडवां पडतां नथी लुगडां छूटवानी-अजीवनी क्रिया तो अजीवमां थाय छे. एने छोडे कोण? वळी लुगडांवाळा छे ए तो द्रव्ये के भावे साधु ज नथी. आकरी वात भाई! दुनियाथी मेळ खाय, न खाय पण वस्तु तो आ ज छे.
अहीं कहे छे-छ जीव-निकायनी दयानो विकल्प होय के न होय, शुद्ध आत्माना सद्भावथी ज चारित्रनो सद्भाव छे. एटले शुं? के छ जीव-निकायनी दयानो विकल्प ने पंचमहाव्रतादिनो विकल्प ए कांई वस्तु (चारित्र) नथी. छ जीव-निकायनी दयानो विकल्प होय तोपण चारित्र तो स्वना आश्रये जे (निर्मळ परिणति) छे ते ज छे. शुद्ध आत्माना सद्भावथी ज अर्थात् जेने शुद्ध आत्मानो आश्रय छे तेने ज चारित्र छे.
PDF/HTML Page 2771 of 4199
single page version
अहा! जेनो एक ज्ञानस्वभाव छे एवा छ कायना अनंता जीव आखा लोकमां ठसाठस भर्या छे. अहीं पण अनंता सूक्ष्म जीवो छे. अहा! आवो आखा लोकनो जीव समूह जेमां निमित्त छे एवी दयानो विकल्प, अहीं कहे छे, चारित्र नथी. दुनियाथी घणो फेर भाई! दुनिया तो माने के पर जीवने न हणो एटले अहिंसा. अहीं कहे छे- भगवान! तुं पोते पोताने न हणे अर्थात् जेवो तुं त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञानघन प्रभु छे तेवो एने पोतानी दशामां जाणवो, मानवो ने एमां ज स्थिर थई डरवुं एनुं नाम अहिंसा-दया छे. अहा! आनंदना नाथमां रमणता करवी एनुं नाम चारित्र छे; आ सिवाय बधां थोथेथोथां छे. आवी वात छे.
आचारांग आदि शब्दश्रुतनुं जाणवुं, जीवादि नव पदार्थोनुं श्रद्धान करवुं, तथा छ कायना जीवोनी रक्षा-ए सर्व होवा छतां अभव्यने ज्ञान, दर्शन, चारित्र नथी होतां, तेथी व्यवहार नय तो निषेध्य छे;...’
जुओ, आचारांग आदि वीतराग सर्वज्ञदेवे कहेला शब्दश्रुतनुं जाणवुं ए व्यवहार ज्ञान छे, सत्यार्थ नहि. भगवानने नामे आचारांग आदि नाम पाडी पाछळथी जे कल्पित शास्त्र रचवामां आव्यां छे एनुं ज्ञान तो व्यवहारेय ज्ञान नथी, ए तो बधुं कुज्ञान छे. अहीं तो एम कहे छे के-सत्शास्त्रोनुं ज्ञान, जीवादि नव पदार्थोनुं श्रद्धान अने छ कायना जीवोनी दयानो भाव-ए सर्व होवा छतां अभव्यने ज्ञान-दर्शन-चारित्र नथी होतां. अभव्य जीव जे छे ते तो मोक्षने लायक ज नथी; पण भव्य जीव व्यवहार चारित्र पाळे एमांथी एने निश्चय चारित्र थाय ने?
तो कहे छे-एम छे नहि. पराश्रये कोई दि’ त्रणकाळमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय नहि. पराश्रये परिणमे एने काळलब्धि आदि होय नहि. स्व-आश्रये ज दर्शन- ज्ञान-चारित्र थाय छे अने स्व-आश्रये परिणमे एने ज काळलब्धि आदि होय छे.
जो एम छे तो करवुं शुं? आमां करवानुं तो कांई आवतुं नथी.
अरे भाई! जे करवुं छे ते बधुं अंदरमां छे; अर्थात् शुद्ध चैतन्यमय पोतानी आत्मवस्तुमां ढळवुं ने तेमां ज ठरवुं बस आ करवुं छे. आ सिवाय बीजुं करवुं बधुं मिथ्या छे, संसार वधारवा माटे ज छे.
जुओ, अहीं शुं कहे छे? के व्यवहारनय निषेध्य छे. बापु! आ व्यवहार जेटलो छे ए बधो निषेध करवा लायक छे, केमके बंधनुं कारण छे. तेथी तो तेने अहीं बंध अधिकारमां नाख्यो छे. हवे कहे छे-
PDF/HTML Page 2772 of 4199
single page version
‘अने शुद्धात्मा होय त्यां ज्ञान, दर्शन, चारित्र होय ज छे, तेथी निश्चयनय व्यवहारनो निषेधक छे. माटे शुद्धनय उपादेय कह्यो छे.’
अहा! जेना ज्ञानमां शुद्धात्मा आव्यो, दर्शनमां शुद्धात्मा आव्यो ने रमणतामां शुद्धात्मा छे तेने शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र होय ज छे. तेथी निश्चयनय व्यवहारनो निषेधक छे. स्वना आश्रये निश्चय जे छे ए पर-आश्रयनो-व्यवहारनो निषेधक छे. हवे निश्चय ज्यां व्यवहारनो निषेधक छे अने व्यवहार निषेध्य छे त्यां व्यवहारथी निश्चय थाय ए कयां रह्युं?
माटे शुद्धनय उपादेय कह्यो छे; अर्थात् शुद्ध एक ज्ञायकभावस्वरूप भगवान आत्मा ज एक आश्रय करवा योग्य छे एम समजवुं.
हवे आगळना कथननी सूचनानुं काव्य कहे छेः-
‘रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः’ रागादिकने बंधनां कारण कह्यां अने वळी ‘ते शुद्धचिन्मात्र–महः– अतिरिक्ताः’ तेमने शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिथी (अर्थात् आत्माथी) भिन्न कह्या; ‘तद–निमित्तम्’ त्यारे ते रागादिकनुं निमित्त ‘किमु आत्मा वा परः’ आत्मा छे के बीजुं कोई...?
जुओ, शुं प्रश्न छे ए समजाय छे कांई...? के आ जे राग छे व्यवहारनो एने भगवान! आपे बंधनुं कारण कह्यो; अहा! आ आचारांग आदिनुं ज्ञान, देव-गुरु-शास्त्रनी तथा नव पदार्थोनी श्रद्धा ने छ जीव- निकायनी दयानो विकल्प इत्यादि बधां बंधनुं कारण छे एम आपे कह्युं अने वळी आप कहो छो राग आत्माथी भिन्न छे, राग आत्मानो छे नहि; तो पछी एने (आत्माने) बंध शी रीते थाय? रागादिकने शुद्ध- चैतन्यमात्र ज्योतिथी (-शुद्ध आत्माथी) भिन्न कहो छो त्यारे रागादिकनुं निमित्त अर्थात् कारण कोण छे? आत्मानां रागादिक छे नहि, अने रागथी बंधन थाय; त्यारे ए रागनुं कारण कोण? शुं एनुं अर्थात् शुभाशुभरागनुं कारण आत्मा छे के बीजुं कोई? ल्यो, शिष्यनो आवो प्रश्न छे.
‘इति पणुन्नाःं पुनः एवम् आहुः’ एवा शिष्यना प्रश्नथी प्रेरित थया थका आचार्य भगवान फरीने आम कहे छे. ल्यो, आ प्रश्नना उत्तररूपे हवे गाथा कहे छे एम कहे छे.
PDF/HTML Page 2773 of 4199
single page version
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं।। २७८।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं।। २७९।।
रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिर्द्रव्यैः।। २७८।।
एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः।
रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः।।
उपरना प्रश्नना उत्तररूपे आचार्यभगवान गाथा कहे छेः-
पण अन्य जे रक्तादि द्रव्यो ते वडे रातो बने; २७८.
पण अन्य जे रागादि दोषो ते वडे रागी बने. २७९.
गाथार्थः– [यथा] जेम [स्फटिकमणिः] स्फटिकमणि [शुद्धः] शुद्ध होवाथी [रागाद्यैः] रागादिरूपे (रताश-आदिरूपे) [स्वयं] पोतानी मेळे [न परिणमते] परिणमतो नथी [तु] परंतु [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यैः] अन्य रक्त आदि द्रव्यो वडे [सः] ते [रज्यते] रक्त (-रातो) आदि कराय छे, [एवं] तेम [ज्ञानी] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [शुद्धः] शुद्ध होवाथी [रागाधैः] रागादिरूपे [स्वयं] पोतानी मेळे [न परिणमते] परिणमतो नथी [तु] परंतु [अन्यैः रागादिभिः दोषैः] अन्य रागादि दोषो वडे [सः] ते [रज्यते] रागी आदि कराय छे.
टीकाः– जेवी रीते खरेखर केवळ (-एकलो) स्फटिकमणि, पोते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां, पोताने शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी (अर्थात् पोते पोताने लालाश-आदिरूप परिणमननुं निमित्त नहि होवाथी) पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी, परंतु जे पोतानी मेळे रागादिभावने पामतुं
PDF/HTML Page 2774 of 4199
single page version
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः।
तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।। १७५।।
होवाथी स्फटिकमणिने रागादिनुं निमित्त थाय छे एवा परद्रव्य वडे ज, शुद्धस्वभावथी च्युत थतो थको ज, रागादिरूपे परिणमावाय छे; तेवी रीते खरेखर केवळ (-एकलो) आत्मा, पोते परिणमन-स्वभाववाळो होवा छतां, पोताने शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी (अर्थात् पोते पोताने रागादिरूप परिणमननुं निमित्त नहि होवाथी) पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी, परंतु जे पोतानी मेळे रागादिभावने पामतुं होवाथी आत्माने रागादिनुं निमित्त थाय छे एवा परद्रव्य वडे ज, शुद्धस्वभावथी च्युत थतो थको ज, रागादिरूपे परिणमावाय छे. -आवो वस्तुनो स्वभाव छे.
भावार्थः– स्फटिकमणि पोते तो केवळ एकाकार शुद्ध ज छे; ते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां एकलो पोतानी मेळे लालाश-आदिरूपे परिणमतो नथी परंतु लाल आदि परद्रव्यना निमित्ते (अर्थात् स्वयं लालाश-आदिरूपे परिणमता एवा परद्रव्यना निमित्ते) लालाश-आदिरूपे परिणमे छे. तेवी रीते आत्मा पोते तो शुद्ध ज छे; ते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां एकलो पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी परंतु रागादिरूप परद्रव्यना निमित्ते (अर्थात् स्वयं रागादिरूपे परिणमता एवा परद्रव्यना निमित्ते) रागादिरूपे परिणमे छे. आवो वस्तुनो ज स्वभाव छे. तेमां अन्य कोई तर्कने अवकाश नथी.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [यथा अर्ककान्तः] सूर्यकांतमणिनी माफक (अर्थात् जेम सूर्यकांतमणि पोताथी ज अग्निरूपे परिणमतो नथी, तेना अग्निरूप परिणमनमां सूर्यनुं बिंब निमित्त छे, तेम) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति] आत्मा पोताने रागादिकनुं निमित्त कदी पण थतो नथी, [तस्मिन् निमित्तं परसङ्गः एव] तेमां निमित्त परसंग ज (-परद्रव्यनो संग ज) छे. - [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत्] आवो वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे. (सदाय वस्तुनो आवो ज स्वभाव छे, कोईए करेलो नथी.) १७प.
PDF/HTML Page 2775 of 4199
single page version
रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः।। १७६।।
‘आवा वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी रागादिकने पोताना करतो नथी’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति] एवा पोताना वस्तुस्वभावने ज्ञानी जाणे छे [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात्] तेथी ते रागादिकने पोताना करतो नथी, [अतः कारकः न भवति] तेथी ते (रागादिकनो) कर्ता नथी. १७६.
उपरना प्रश्नना उत्तररूपे आचार्य भगवान गाथा कहे छेः-
‘जेवी रीते खरेखर केवळ (-एकलो) स्फटिकमणि, पोते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां, पोताने शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी, परंतु...’
जुओ, स्फटिकमणि शुद्ध उज्ज्वळ धोळो होय छे. वि. सं. १९९१ मां मोटो स्फटिकमणि जोयो हतो. आपणे अहीं स्फटिकमणिनी उज्ज्वळ धोळी-सफेद प्रतिमा छे ने? अहा! एवो स्फटिकमणि स्वभावथी शुद्ध सफेद उज्ज्वल होय छे.
ए स्फटिकमणि खरेखर एकलो होय, बीजाना संगमां न होय अर्थात् बीजाना संबंधमां न होय तो पोते पोतानी मेळे रागादिरूपे अर्थात् लालाश आदिरूपे परिणमतो नथी, पण जेवो स्वभाव छे तेवो सफेद उज्ज्वल ज परिणमे छे. अहा! पलटवुं ए एनो स्वभाव छे; परिणमनस्वभाववाळो होवाथी प्रतिसमय पर्यायपणे ते बदले छे, पलटे छे; पण एने त्रिकाळ शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी एकलो पोतानी मेळे ते रागादिरूपे-लालाश आदिरूपे परिणमतो नथी. शुं कीधुं? के स्फटिकमणि पोते पोताने लालाश आदिरूप परिणमननुं निमित्त-कारण नथी अर्थात् एकलो स्फटिकमणि पोतानी मेळे लालाश आदिरूप थाय एवो एनो स्वभाव नथी; अने तेथी एकलो पोतानी मेळे लालाश आदिरूपे परिणमतो नथी. हवे कहे छे-
‘परंतु जे पोतानी मेळे रागादिभावने पामतुं होवाथी स्फटिकमणिने रागादिनुं निमित्त थाय छे एवा परद्रव्य वडे ज, शुद्धस्वभावथी च्युत थयो थको ज, रागादिरूपे परिणमावाय छे,...’
PDF/HTML Page 2776 of 4199
single page version
जुओ, एक निर्मळ जेनो स्वभाव छे तेवो स्फटिकमणि एकलो पोतानी मेळे रातादिरूपे थतो नथी, परंतु परद्रव्यना-लाल-पीळा-फूलना संगे एमां लाल-पीळी झांय थाय छे. जुओ, एमां लाल-पीळी झांय जे थाय छे ते एनी वर्तमान दशानी योग्यता छे, पण लाल-पीळा फूलने कारणे ए थई छे एम नथी. लाल-पीळा फूलथी ज जो ए झांय थती होय तो लाकडामां पण थवी जोईए. पण एम बनतुं नथी केमके एनी एवी योग्यता नथी; स्फटिकमणिमां थाय छे ए एनी पर्याय योग्यता छे.
तो ‘परद्रव्य वडे ज रागादिरूपे परिणमावाय छे’ एम लख्युं छे ने?
भाई! ए तो निमित्तनी भाषा छे. पोते पोतानी वर्तमान योग्यताथी परद्रव्यना निमित्ते-संगे लालाश आदिरूप परिणमे छे तो परद्रव्य वडे परिणमावाय छे एम निमित्तथी कहेवाय छे. बाकी निमित्ते-परद्रव्ये एमां कांई विलक्षणता उत्पन्न करी छे एम नथी. आवी वात छे! समजाणुं कांई...?
जुओ, आ द्रष्टांत कह्युं, हवे तेने आत्मामां उतारे छेः-
‘तेवी रीते खरेखर केवळ (-एकलो) आत्मा, पोते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां, पोताने शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी, परंतु...’
जुओ, शुं कहे छे? के एकलो आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी. केम? केमके पोताने त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं-कारणपणुं नथी. अहाहा...! आत्मा पोते पर्यायरूपथी बदलवाना स्वभाववाळो होवा छतां, शुद्ध-पवित्र स्वभावपणाने लीधे तेने रागादि विकारनुं कारणपणुं नहि होवाथी एकलो पोतानी मेळे रागादि विकारपणे परिणमतो नथी.
ल्यो, आथी केटलाक पंडितो कहे के-निमित्तथी थाय छे.
भाई! निमित्त बीजी चीज छे खरी, पण निमित्त परमां कांई करे छे एम नथी. जेम पाणी टाढानुं उनुं थाय छे एमां अग्नि निमित्त छे, पण अग्निए पाणी उनुं कर्युं छे एम नथी. ए (पाणी) उनुं थवानी पोतानी लायकातथी उनुं थयुं छे अने त्यारे अग्नि निमित्त छे बस. तेम शुद्ध आत्माना आश्रये थतां द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता-एमां व्यवहारनो राग निमित्त होय छे, पण ए निमित्ते (-रागे) अहीं निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र कर्यां छे एम नथी. जेम अग्निए पाणी उनुं कर्युं नथी तेम व्यवहारे निश्चय कर्यो नथी. आवी वात छे. अत्यारे तो पंडितोनी द्रष्टिमां घणो फेर छे. पण द्रष्टि-फेरे तो आखा शास्त्रना अर्थ फरी जाय भाई!
PDF/HTML Page 2777 of 4199
single page version
अहीं कहे छे-भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु पोते राग-द्वेष आदि विकारी भावोनुं निमित्त-कारण नहि होवाथी एकलो पोतानी मेळे रागादि विकाररूपे परिणमतो नथी. हवे कहे छे-
‘परंतु जे पोतानी मेळे रागादिभावने पामतुं होवाथी आत्माने रागादिनुं निमित्त थाय छे एवा परद्रव्य वडे ज, शुद्धस्वभावथी च्युत थतो थको ज, रागादिरूपे परिणमावाय छे-आवो वस्तुनो स्वभाव छे.’
जुओ, जे एटले परद्रव्य-जडकर्म पोतानी वर्तमान पर्यायनी योग्यताथी पोतानी मेळे रागादिना उदयरूपे परिणमे छे ते, आत्माने-के जे पोताना शुद्धस्वभावथी च्युत थाय छे तेने-रागादिनुं निमित्त थाय छे. अहा! आत्मा ज्यां पोताना अशुद्ध उपादानथी पोते रागरूपे परिणमे छे त्यारे कर्मनो रागरूप उदय नियमथी निमित्त होय छे तेथी ‘परद्रव्य वडे ज रागादिरूपे परिणमावाय छे’ एम कह्युं छे. पंडित श्री फूलचंदजी सिद्धांतशास्त्रीए ‘जैन तत्त्वमीमांसा’ मां आवो ज अर्थ कर्यो छे के- परिणमावाय छे एटले परिणमे छे. त्यां एवा शब्दो मूकयां छे के-बे गुण अधिक परमाणु एटले चार गुणवाळो परमाणु अने बे गुणगाळा परमाणुनो स्कंध थाय छे त्यारे ते चार गुणवाळा परमाणु वडे बीजा बे गुणवाळा परमाणुने चारगुणवाळो परिणमावाय छे. एना अर्थ ज ए छे के बे गुणवाळो परमाणु चारगुणवाळा परमाणुना निमित्ते पोते चारगुणपणे परिणमे छे; अने त्यारे निमित्तथी परिणमावाय छे अथवा निमित्त परिणमावे छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. आवी वातु छे. लोकोने तत्त्वनो अभ्यास नहि एटले व्यवहारने ने निमित्तने वळगी पडे; पण शुं थाय? ज्यां जे नयथी कथन होय ते यथार्थ समजवुं जोईए.
अहाहा...! आत्मा अनंतगुणनो पिंड परम पवित्र प्रभु त्रिकाळ शुद्ध पूरण वीतरागस्वभाव छे. कोई गुण-स्वभाव एनामां एवो नथी के पोते पोताथी विकारपणे थाय; पण पर्यायमां कर्मना निमित्तना संगे ते रागादिरूपे थाय छे अने त्यारे ते परद्रव्य वडे थाय (-परिणमावाय) छे एम कहेवामां आवे छे. पर्यायमां विकार स्वद्रव्यना निमित्ते नथी थतो पण परद्रव्यना निमित्ते थाय छे एटले परद्रव्य वडे ज रागादिरूप परिणमावाय छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे. हवे सत्य शुं छे ए समजवानी माणसने फुरसद न होय तो शुं थाय?
त्यारे कोई पंडित कहेता हता के-जुओने! आ तमारा सोनगढवाळा हिंमतभाईए शुं लख्युं छे? के-
PDF/HTML Page 2778 of 4199
single page version
पण अन्य जे रक्तादि द्रव्यो ते वडे रातो बने.
एम ज्ञानी पण छे शुद्ध रागरूपे स्वयं नहि परिणमे,
पण अन्य जे रागादि दोषो ते वडे रागी बने.
आवुं चोक्खुं तो लख्युं छे-एम ए बोल्या हता.
अरे भाई! ए स्फटिकमणिमां लाल आदि फूलना संगना काळे एनामां लाल आदि अवस्था थवानी जन्मक्षण-उत्पत्ति क्षण छे तेथी ते लाल आदि थाय छे, पण पर वडे थाय छे एम अर्थ छे ज नहि. (लाल आदिरूपे) परिणमे छे पोते त्यारे परद्रव्य वडे परिणमावाय छे एम निमित्तनी मुख्यताथी कहेवाय छे. ल्यो, आवी वात छे.
कोईने वळी थाय के-आमां धर्म कयां आव्यो? ने आमां अमारे करवुं शुं?
तो कहे छे के-भाई! भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वरूप पोते त्रिकाळ छे. त्यां पोतामां पोते द्रष्टि करे तो ते पोतानी मेळे विकारपणे थतो नथी पण निर्मळ निर्विकारपणे परिणमे छे अने ते धर्म छे. अंतर्दष्टिए परिणमवुं ते धर्म ने कर्तव्य छे. परंतु वर्तमान दशामां परनुं लक्ष करी परिणमे तो ते अवश्य रागादिरूप थाय छे, त्यारे तेनी योग्यता पण एवी ज होय छे. परद्रव्य-कर्म एने पराणे रागादिरूप करावे छे एम नहि, पोते पोतानी वर्तमान योग्यताथी ज रागादिरूप थाय छे अने तेमां परद्रव्य तो निमित्तमात्र छे. परद्रव्य एने रागादिरूप करे छे एम कहेवुं ए तो उपचार कथन छे.
ए तो त्रीजी गाथामां आव्युं ने के-एक द्रव्य बीजा द्रव्यने अडतुं नथी. पदार्थ पोताना द्रव्यमां रहेला पोताना अनंत धर्मोना चक्रने चुंबे छे-स्पर्शे छे पण परद्रव्यने कदीय चुंबतो-स्पर्शतो नथी. आ लाकडी हाथमां छे ने? ए लाकडी हाथने स्पर्शती नथी. आ बे आंगळी भेगी थाय त्यारे एक आंगळी बीजीने अडती नथी, केमके एकमां बीजीनो अभाव छे. झीणी वात छे भाई!
त्यारे लोको कहे छे-आ अडी-एम प्रत्यक्ष देखाय छे ते शुं खोटुं छे?
भाई! तुं संयोग देखे छे ने? एटले एम जणाय छे; बाकी खरेखर जो अडे तो बन्ने एक थई जाय. ए तो पहेलां प्रश्न थयो हतो के-ए चटाईनां तरणां अग्निथी बळे छे, अग्नि विना बळे नहि; अर्थात् तरणां पोताथी बळे नहि. पण अहीं कहे छे-अग्निना परमाणु चटाई ने अडया ज नथी. ए तो चटाई अग्निपणे थवानी पोतानी लायकातथी बळे छे, एमां बहारनी अग्नि तो निमित्तमात्र छे. तेम आत्मामां विकार थाय छे ते तेनी तत्कालीन योग्यताथी थाय छे, परद्रव्य-कर्म तो एमां
PDF/HTML Page 2779 of 4199
single page version
निमित्तमात्र छे. निमित्त छे, पण निमित्त एमां कांई करे छे एम नथी. जो निमित्त परने करे तो निमित्त ने बीजी चीज बन्ने एक थई जाय. समजाणुं कांई...?
आ प्रमाणे आत्मा (पोतानी तत्कालीन योग्यताथी) पर्यायमां रागादिरूपे परना संगे-निमित्ते परिणमे छे-एवो वस्तुनो स्वभाव छे. केटलाक कहे छे एम परने लईने विकार थाय छे एवो वस्तुनो स्वभाव नथी.
जुओ, पहेलां दाखलो आपीने आत्माने विकार केम थाय ए वात सिद्ध करे छेः शुं कहे छे? के- ‘स्फटिकमणि पोते तो केवळ एकाकारशुद्ध ज छे; ते परिणमन- स्वभाववाळो होवा छतां एकलो पोतानी मेळे लालाश-आदिरूपे परिणमतो नथी परंतु लाल आदि परद्रव्यना निमित्ते लालाश-आदिरूपे परिणमे छे.’
जुओ, स्फटिकमणि पोते स्वभावथी शुद्ध ज छे. तेथी ते एकलो पोतानी मेळे लालाश-आदिरूपे कदी परिणमतो नथी. परंतु जोडे लाल के पीळां फूल होय तो तेमना निमित्ते लाल के पीळी झांयपणे परिणमे छे. त्यां स्फटिकमणि पोतानी वर्तमान एवी योग्यताने लईने लाल के पीळी झांयपणे परिणमे छे, लाल के पीळां फूल तो एमां निमित्तमात्र छे. ज्यारे, स्फटिकमणि पोते पोतानी वर्तमान पर्यायनी योग्यताथी लाल आदि झांयपणे परिणमे त्यारे परद्रव्य-लाल आदि फूल तेमां नियमथी निमित्त होय छे, आ द्रष्टांत छे. हवे कहे छे-
‘तेवी रीते आत्मा पोते तो शुद्ध ज छे; ते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां एकलो पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी परंतु रागादिरूप परद्रव्यना निमित्ते रागादिरूपे परिणमे छे. आवो वस्तुनो ज स्वभाव छे. तेमां अन्य कोई तर्कने अवकाश नथी.’
अहाहा...! आत्मा स्वभावे परम पवित्र सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु शुद्ध शाश्वत छे. ते एकलो पोतानी मेळे रागादि विकारपणे परिणमे एम कदीय बनी शके नहि. आत्मामां एवो कोई स्वभाव-गुण-शक्ति नथी के जेने लईने विकार थाय. परंतु परद्रव्य-जड कर्मनो उदय-जे स्वयं रागादिपणे परिणमे छे तेना निमित्ते जीव रागादिरूपे परिणमे छे. हवे आमां बधाने वांधा छे-एम के विकार आत्मामां थाय छे ए कर्मने लईने थाय छे, अन्यथा आत्मा तो शुद्ध ज छे. एने अशुद्धता छे ए परद्रव्य-कर्मने लईने छे.
ए तो कह्युं ने? के लाकडा जोडे लाल फूल मूको तो लाकडामां लाल थशे? ना; केमके लाकडामां एवी योग्यता नथी. पण स्फटिकमणि जोडे लाल फूल मूको तो एमां लाल थशे. जो लाल फूलना कारणे लाल थतुं होय तो लाकडामां पण लाल थवुं जोईए,
PDF/HTML Page 2780 of 4199
single page version
पण त्यां लाल थतुं नथी स्फटिकमणिमां लाल थाय छे ए एनी तत्कालीन योग्यताथी थाय छे अने लाल फूल तो एमां निमित्तमात्र छे.
तेवी रीते आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु पोते तो शाश्वत शुद्ध छे. एनी वर्तमान दशामां राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकार थाय छे ए एनी वर्तमान पर्यायनी जन्मक्षण-उत्पत्तिक्षण छे माटे थाय छे, ने तेमां कर्म निमित्त छे. तेमां कर्मनो उदय निमित्त अवश्य छे, पण ए कांई जीवमां करे छे एम नथी. जुओ, निमित्त होतुं नथी एम नहि अने ए कांई जीवमां करे छे एमेय नहि.
प्रश्नः– निमित्त कांई करतुं नथी, पण करावे तो छे ने? उत्तरः– ना; जराय नहि. ए तो भाषामां एम बोलाय. पोते विकारपणे परिणमे तो परद्रव्य-निमित्त परिणमावे छे एम आरोपथी कहेवाय छे. बाकी जडकर्मने तो खबरेय नथी के-आम परिणमुं ने तेम परिणमुं. परंतु आ (जीव) परना-निमित्तना लक्षे परिणमे तो एने विकार थाय छे, ने परलक्षे न परिणमे अर्थात् स्वलक्षे परिणमे तो निर्विकार शुद्ध परिणमे छे.
कोई पंडितो वळी एवो सिद्धांत रजु करे छे के-कर्म निमित्त थईने आवे एटले एने (-जीवने) विकार करवो ज पडे.
पण एम नथी बापा! निमित्त तो बाह्य चीज छे. ए तो पोते एना लक्षे विकार करे तो एने निमित्त कहेवाय छे. अहीं तो एम कहेवुं छे के-स्वभाव शुद्ध ज होवाथी स्वभावना आश्रये रागरूपे न परिणमे, पण रागरूपे परिणमे तो पर निमित्तना आश्रये रागरूपे परिणमे छे. निमित्त एने राग करावी दे छे ने संसारमां रखडावे छे एम नथी, पण पोते पराधीन थई रागादिपणे परिणमे छे ने संसारमां रखडी मरे छे. आवो ज वस्तुनो स्वभाव छे. एमां अन्य कोई तर्कने अवकाश नथी. अहा! आत्मा पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावने भूलीने परने-निमित्तने आधीन थईने परिणमे तो अवश्य विकार थाय एवो वस्तुनो स्वभाव छे; एमां कोई अन्य तर्कने अवकाश नथी.
हवे आने बदले कर्मने लईने विकार थाय, कर्मनो कराव्यो विकार थाय एम कोई माने ए तो द्रष्टिनो मोटो फेर छे भाई! ए मिथ्याद्रष्टि छे केमके एक न्यायना फेरे आखुं स्वरूप फरी जाय.
अहा! यथार्थ द्रष्टि विना भगवान! तुं भवसमुद्रमां ८४ लाख योनिना अवतार धरी धरीने रखडयो; हवे कयां जवुं छे भाई? ए भवसमुद्रने पार करवानुं साधन तो महा अलौकिक छे-प्रभु! अहाहा...! अंदर चैतन्यमूर्ति प्रभु तुं एकला आनंदनो सागर छो; एनी अंतद्रष्टि करीने परिणमतां निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय