Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 280-282 ; Kalash: 177.

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छे अने ते भवसमुद्र पार करवानुं साधन छे. वच्चे, नबळाईने लईने कर्मना उदयमां जोडावाथी जरी विकार-राग आवे एने व्यवहार कहीए, छतां ए बंध छे. समजाणुं कांई...?

अज्ञानी कर्मना-निमित्तना लक्षे परिणमतो थको रागी-द्वेषी थाय छे, अने रागी- द्वेषी थतो ते कयांय भवसमुद्रमां डूबी मरे छे. माटे हे भाई! अंतर्दष्टि कर.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १७पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

यथा अर्ककान्तः’ सूर्यकांतमणिनी माफक ‘आत्मा आत्मनः रागादि–निमित्तभावम् जातु न याति’ आत्मा पोताने रागादिकनुं निमित्त कदी पण थतो नथी.

जुओ, एक सूर्यकान्तमणि थाय छे. एने सूर्यनां किरणो अडे तो एमांथी अग्नि झरे एवो ते होय छे. अहीं कहे छे- जेम सूर्यकान्तमणि एकलो पोताथी ज अग्निरूपे परिणमतो नथी, तेना अग्निरूप परिणमनमां सूर्यनुं बिंब निमित्त छे तेम...; जुओ, सूर्यना बिंबथी एमां अग्नि थाय छे एम नहि, पण सूर्यना बिंबनुं एमां निमित्त छे. निमित्त छे एटले शुं? के सूर्यकांतमणि अग्निरूपे थाय छे ए तो एनी पोतानी तत्कालीन योग्यताथी थाय छे अने सूर्यनुं बिंब तेमां निमित्तमात्र छे; सूर्यनुं बिंब एमां कांई करी दे छे एम नहि.

तेम आत्मा पोते पोताने विकारनुं निमित्त कदी पण थतो नथी. अहाहा...! आत्मा चिद्रूपस्वरूप प्रभु त्रिकाळ एक शुद्ध ज छे. ते पोते एकलो विकाररूप केम थाय? कदीय न थाय. अहाहा...! पर्यायमां जे विकार-पुण्य पापना भाव, दया-दान-भक्ति आदिना भाव ने हिंसा, जूठ, चोरी आदिना भाव थाय छे-एनुं निमित्त भगवान आत्मा नथी. तो कोण निमित्त छे? तो कहे छे-

तस्मिन् निमित्तं परसंग एव’ तेमां निमित्त परसंग ज छे. परवस्तु रागादि करावे छे एम नहि, पण पोते जे परसंग करे, कर्मनो संग करे तो पर्यायमां विकार थाय छे. अहा! विकार थवामां भगवान आत्मा निमित्त नथी पण परसंग एेटले जड कर्मनो उदय निमित्त छे.

जुओ, ‘परसंग एव’ -एनो कोई एम अर्थ काढे के परसंग अर्थात् कर्म विकार करावे छे तो एम अर्थ नथी. घणा पंडित लोको पण बीजो अर्थ काढे छे के-आत्मानो स्वभाव तो शुद्ध ज छे, विकार थाय एवी तो कोई शक्ति-गुण एमां नथी. माटे कर्मने लईने ज एने विकार थाय छे.

पण एवो अर्थ-मान्यता बराबर नथी. ए लोकोने बिचाराओने पर्यायनी एक समयनी अशुद्ध उपादानगत योग्यता ख्यालमां आवती नथी. अहा! एक समयनी


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पर्यायनी ए योग्यता छे के परना संगे-निमित्ते पोते विकारपणे परिणमे छे. भाई! परसंग एने, (बळथी) विकारपणे परिणमावे छे एम कदीय नथी.

अहा! अन्यमतमां ईश्वरनुं जोर ने जैनमां कर्मनुं जोर! पण एम नथी भाई! ईश्वरेय परमां कांई करे नहि ने कर्मेय जीवमां कांई करे नहि.

तो कर्म बळियो ने जीव बळियो-एम आवे छे ने? उत्तरः– ए कई अपेक्षाए? ए तो जीव पोते ऊंधो पुरुषार्थ करे, परसंगे पराधीन थईने परिणमे तो एने कर्म बळियो कहेवाय अने अंतर्दष्टि करीने पोते सवळो पुरुषार्थ करे, स्व-आधीन थईने परिणमे एने जीव बळियो कहेवाय.

भाई! आ जिंदगी जोतजोतामां पूरी थई जशे हों. बायडी-छोकरां साचववामां ने वेपार-धंधामां ज पडयो रहीश तो कयांय चोरासीना अवतारमां खोवाई जईश. बापु! तारे कयां जवुं छे भाई! एकला ज्ञान ने आनंदनो प्रभु? तुं भंडार छो एमां जा ने! एमां द्रष्टि स्थापीने स्थिति कर ने! तने महा आनंद थशे.

अहीं कहे छे- ‘तस्मिन्निमित्तम् परसंग एव’ विकार थाय छे एमां परसंग ज निमित्त-कारण छे. परसंगनी व्याख्या आ के-आत्मा स्वभावे शुद्ध चिद्रूप परम पवित्र पदार्थ होवा छतां परना संगमां एनुं लक्ष जाय छे ते तेने पर्यायमां विकारनुं कारण थाय छे; पर वस्तु एने विकार करावे छे एम नहि.

हवे श्वेतांबरमां तो आ ज वात छे के कर्मथी थाय; ने दिगंबरोमां पण हमणां कोई पंडितो कहेवा लाग्या छे के विकार कर्मथी थाय. पण बापु! आमां जे परसंग शब्द छे एनो अर्थ पर वडे थाय एवो नथी पण पोते परसंग करे तो विकार थाय छे एम अर्थ छे. भाई! आमां तो मोटो आसमान-जमीननो फेर छे.

अहाहा...! आत्मा पोते पोताने विकारनुं कारण कदीय नथी. आ संसारमां रझळवानुं कारण जे मिथ्यात्व, राग-द्वेष, विषय-वासना आदि-एनुं कारण भगवान आत्मा नथी. एमां निमित्त परसंग एटले पोते जे परना लक्षे परिणमे छे ते छे. अहाहा...! सत्यानंदस्वरूप प्रभु आत्माने भूलीने ए जे निमित्तना संगे परिणमे छे ते ज विकारनुं कारण छे. समजाणुं कांई...?

अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत’ आवो वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा सदा शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे. एक चैतन्य- चैतन्य-चैतन्य ज एनो स्वभाव छे. ज्ञानी आवा पोताना शुद्ध स्वभावने जाणे छे. तेनी द्रष्टि सदा स्वभाव पर ज होय छे. तेथी कर्मना-निमित्तना संगे पोतानी पर्यायमां एने जे उपाधिभाव थाय तेनो ते स्वामी थतो नथी. ते (-विकार) मारुं कर्तव्य छे एम एनो ते कर्ता थतो नथी. आवो ज वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे.


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परंतु अज्ञानी पोताना शुद्ध स्वरूपने जाणतो नथी. तेथी कर्मना निमित्ते पोते जे उपाधिभावने करे छे तेनो ते स्वामी थईने कर्ता थाय छे. अहा! अज्ञानी विकारने पोतानुं स्वरूप माने छे. आवो ज अज्ञानीनो स्वभाव छे.

वस्तुनो स्वभाव जेवो छे तेवो हो; पण बीजा लोको जे कहे छे के-कर्मने लईने विकार थाय छे-ते वस्तुस्वभाव नथी! समजाणुं कांई...?

अहाहा...! अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभाव छे. एनी अनंत शक्तिओमां कोई शक्ति एवी नथी जे विकारने करे. फक्त एनी एक समयनी वर्तमान पर्यायमां-एक समयनी योग्यतामां, त्रिकाळमां नहि हों, निमित्तना संगे अज्ञानी विकार अने एनो स्वामी थईने भोगवे; अने ज्ञानीने निमित्तना संगे उपाधिभाव थाय छतां ते एनो स्वामी थईने कर्ता न थाय. आवी वात छे.

एमां हवे मोटा वांधा छे कर्मने के लईने विकार थाय. कर्म मार्ग आपे तो धर्म थाय.

अरे भाई! कर्म तो तने अडतांय नथी. अहीं तो आटली वात छे के शुद्ध स्वभावना आश्रये परिणमे तो विकार न थाय, धर्म थाय ने परसंगे-निमित्तना संगे परिणमे तो अवश्य विकार थाय. कर्म निमित्त हो, पण कर्मने लईने विकार थाय एम त्रणकाळमां छे नहि.

प्रवचनसारमां ४७ नयना अधिकारमां आवे छे के-आत्मा कर्तानये रागादिभावनो करनारो छे, अने भोक्तृनये एनो भोगवनारो छे. एटले शुं? के ज्ञानी-गणधर के छद्मस्थदशामां तीर्थंकर होय ते पण जेटलो परसंगे परिणमे छे तेटलो ते रागनो कर्ता छे. कर्ताबुद्धिथी नहि, राग मारुं कर्तव्य छे एवी बुद्धिथी नहि, पण ज्ञानीने अस्थिरताने लीधे परना निमित्ते दया, दान, व्रत, भक्ति आदि परिणमन होय छे एनो ते कर्ता छे. एवुं परिणमन कर्मने लईने छे एम नथी. एमां कर्म निमित्त अवश्य छे, पण परिणमे छे तो पोते पोताना अशुद्ध उपादानथी ज, कर्मने लईने नहि.

हवे आवुं कदी सांभळवाय मळे नहि ए बिचारा शुं करे? अहा! जिंदगी तो पूरी थई जाय अने अंदर शल्य ऊभुं रहे के-कर्मने लईने थाय. अरे! कर्मने लईने थाय एवा शल्यवाळा तो बधा चोराशीना अवतारमां चिरकाळ रखडी मरशे शुं थाय? एवा परिणामनुं एवुं ज फळ होय छे.

परसंग एव’ परसंग ज एटले परवस्तु जोरावरीथी राग करावे छे एम नहि पण जीव पोते परसंग करे छे माटे विकार थाय छे. स्वभावना आश्रये विकार न थाय पण पर निमित्तना आश्रये-संगे विकार थाय छे-आवो वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे-एम कहे छे.


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‘आवा वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी रागादिकने पोताना करतो नथी’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः

* कळश १७६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति’ एवा पोताना वस्तुस्वभावने ज्ञानी जाणे छे.

अहाहा...! ज्ञानी-धर्मी एने कहिये के जे पोताना वस्तुस्वभावने जाणे छे. अहा! पोते अंदर परिपूर्ण शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो भगवान छुं-एम जे जाणे-अनुभवे छे ते ज्ञानी छे.

आ शरीर ने बायडी-छोकरां तो क्यांय वेगळां रही गयां. अहीं तो कहे छे-एक समयनी पर्यायथी पण भिन्न अंदर एक शुद्ध चिदानंदरसथी भरेलो पोते भगवान आत्मा छे तेने ज्ञानी जाणे छे, अनुभवे छे. अहाहा...! जेने अंदर अतीन्द्रिय आनंदना अमृतनो स्वाद आव्यो छे ते ज्ञानी जेमां विकार नथी एवा शुद्ध निरंजन निर्विकार पोताना वस्तुस्वभावने जाणे छे.

बापु! आ बायडी-छोकरां मारां छे-एम तुं एमां गुंचाई पडयो छुं पण ए तो बधां क्यांय रझळतां-रझळतां अहीं आवी मळ्‌यां छे ने रझळतां-रझळतां क्यांय चाल्यां जशे. एमां तुं नहि अने तारामां ए नहि. तारो तो एक त्रिकाळी शाश्वत ज्ञानानंदस्वभाव छे. ज्ञानी आवा पोताना ज्ञानानंदस्वभावने जाणे छे अर्थात् ‘आ हुं छुं’ -एम पोताना स्वस्वरूपने अनुभवे छे. ल्यो, आनुं नाम ज्ञानी-धर्मी छे, बाकी बहारमां व्रत करे ने दया पाळे पण अंतरमां शुद्ध ज्ञानघन प्रभु पोते छे एने जाणे नहि तो ते अज्ञानी मूढ ज छे.

अहाहा...! ज्ञानी पोतानो वस्तुस्वभाव-एकलो ज्ञाता-द्रष्टास्वभाव, पूरणआनंदामृतथी भरेलुं तत्त्व-तेने जाणे छे. ‘तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात्’ तेथी ते रागादिकने पोताना करतो नथी. बहु झीणी वात.

शुं कीधुं? के स्वस्वभावने, ज्ञाताद्रष्टास्वभावने जाणतो ज्ञानी रागादिकने-पुण्य- पापना भावने पोताना करतो नथी. पोताना करतो नथी एटले शुं? के पर लक्षे एने वर्तमान दशामां पुण्य-पापना भाव एने थाय छे पण तेमां ते आत्मबुद्धि करतो नथी. अहाहा..! धर्मी पुरुषने पर्यायबुद्धि उडी गई छे ने स्वभावद्रष्टि अंतरमां प्रगट थई छे. तेथी पर निमित्ते पर्यायमां जे रागादि थाय छे तेने ते पोताना मानतो नथी.

रागादिने पोताना करतो नथी एटले एने रागादि थता नथी एम नहि. सम्यग्दर्शन-ज्ञान थया पछी पण भगवाननी भक्ति, पूजा, दया, दान, व्रत इत्यादिनो भाव एने आवे छे; पण एने ए पोतानो छे एम स्वीकारतो नथी. ए तो एनाथी भिन्न रहीने मात्र जाणे ज छे. अहा! तटस्थपणे एनो मात्र ते ज्ञाता रहे छे.


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अहाहा...! शुद्ध चैतन्यरस-ज्ञानानंदरसना अमृतना स्वादिया ज्ञानीने जे पुण्य- पापना भाव थाय छे ते उपर ने उपर भिन्न तरता रहे छे पण स्वभावमां प्रवेशता नथी. अहाहा...! जेने पुण्य-पापथी अधिक पोतानो निर्मळ ज्ञानानंदस्वभाव भास्यो तेनी द्रष्टिमां पुण्य-पापना भाव भिन्न ज रही जाय छे. अर्थात् एने ज्ञानी पोताथी भिन्न जाणे छे, स्वरूपमां भेळवतो नथी.

‘अतः कारकः न भवति’ तेथी ते (रागादिकनो) कर्ता नथी.

अहाहा...! जेणे पोतानो वस्तुस्वभाव जाण्यो छे ते धर्मी पुरुष रागादिनो कर्ता नथी, अकर्ता छे, अर्थात् ज्ञाता ज छे. पर्यायमां नबळाईने लीधे जे रागादि थाय छे तेनो ते मात्र ज्ञाता ज छे. अहा! तेने जे राग थाय ए मात्र जाणेलो प्रयोजनवान छे अर्थात् ते रागादिने मात्र जाणे ज छे, तेनो कर्ता थतो नथी. आवी वात छे! हवे एने नवराश विना के दि’ सांभळे ने के दि’ एनो अंतरमां मेळ करे?

[प्रवचन नं. ३३८ अने ३३९*दिनांक ११-प-७७ अने १र-प-७७]

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गाथा–२८०
ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा।
सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं।। २८०।।
न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा।
स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम्।। २८०।।
(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः।
रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः।। १७७।।

हवे, ए प्रमाणे ज गाथामां कहे छेः-

कदी रागद्वेषविमोह अगर कषायभावो निज विषे,
ज्ञानी स्वयं करतो नथी, तेथी न तत्कारक ठरे. २८०.

गाथार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी [रागद्वेषमोहं] रागद्वेषमोहने [वा कषायभावं] के कषायभावने [स्वयम्] पोतानी मेळे [आत्मनः] पोतामां [न च करोति] करतो नथी [तेन] तेथी [सः] ते, [तेषां भावानाम्] ते भावोनो [कारकः न] कारक अर्थात् कर्ता नथी.

टीकाः– यथोक्त (अर्थात् जेवो कह्यो तेवा) वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी (पोताना) शुद्धस्वभावथी ज च्युत थतो नथी तेथी राग-द्वेष-मोह आदि भावोरूपे पोतानी मेळे परिणमतो नथी अने पर वडे पण परिणमावातो नथी, माटे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोनो अकर्ता ज छे-एवो नियम छे.

भावार्थः– आत्मा ज्ञानी थयो त्यारे वस्तुनो एवो स्वभाव जाण्यो के ‘आत्मा पोते तो शुद्ध ज छे-द्रव्यद्रष्टिए अपरिणमनस्वरूप छे, पर्यायद्रष्टिए परद्रव्यना निमित्तथी रागादिरूपे परिणमे छे’; माटे हवे ज्ञानी पोते ते भावोनो कर्ता थतो नथी, उदयो आवे तेमनो ज्ञाता ज छे.

‘आवा वस्तुस्वभावने अज्ञानी जाणतो नथी तेथी ते रागादिक भावोनो कर्ता थाय छे’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति] एवा पोताना वस्तुस्वभावने


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अज्ञानी जाणतो नथी [तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात्] तेथी ते रागादिकने (-रागादिभावोने) पोताना करे छे, [अतः कारकः भवति] तेथी (तेमनो) कर्ता थाय छे. १७७.

*
समयसार गाथा २८०ः मथाळुं

हवे, ए प्रमाणे ज गाथामां कहे छेः-

* गाथा २८०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘यथोक्त (अर्थात् जेवो कह्यो तेवो) वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी (पोताना) शुद्ध स्वभावथी ज च्युत थतो नथी तेथी राग-द्वेष-मोह आदि भावोरूपे पोतानी मेळे परिणमतो नथी...’

अहाहा...! भगवान आत्मा एकली पवित्रतानो पिंड प्रभु अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद छे. हवे आ एने केम बेसे?

पण जेम सक्करकंद-सक्करियुं एकली साकरनो-मीठाशनो पिंड छे तेम भगवान आत्मा एकला ज्ञान अने आनंदनो पिंड छे. आ सक्करियुं लोको बाफीने नथी खाता? एमां एक एक झीणी कटकीमां अनंत अनंत जीवो छे. एनी उपरनी लाल छाल न जुओ तो अंदर धोळो साकरनो पिंड छे. तेम पर्यायमां थता पुण्य-पापरूप विकल्पोनी छालने न जुओ तो भगवान आत्मा अंदर एकलो अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो पिंड छे. सक्करियानी वात बेसे पण आ बेसवुं महा कठण! केमके एणे कदी सांभळ्‌युं नथी ने?

अहीं कहे छे-आवा पोताना स्वभावने ज्ञानी जाणे छे. अहाहा...! हुं चिदानंदरसकंद प्रभु शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा छुं एम ज्ञानी जाणे छे. अहा! आ पुण्य-पापना भाव अने पुण्यना फळमां पांच-पचास करोडनी संपत्ति-धूळ मळे ए मारा आनंदनुं स्थान नथी पण अंदर आनंदस्वरूपे ज सदा रहेलो एवो आनंदधाम प्रभु हुं आत्मा छुं एम ज्ञानी पोताने जाणे-अनुभवे छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपने जाणतो-अनुभवतो ज्ञानी शुद्धस्वभावथी च्युत थतो नथी.

अहा! जेने शुद्ध एक चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा ज्ञान-श्रद्धान ने अनुभवमां आव्यो ते पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावथी च्युत थतो नथी अर्थात् तेनी द्रष्टि निरंतर शुद्ध एक अखंड चिन्मात्रभाव उपर ज रहे छे. अहाहा...! द्रष्टिनो विषय जे शुद्ध एक चिन्मात्रभाव एना उपर ज एनी निरंतर द्रष्टि रहे छे.

तो शुं ए अजीवादि पदार्थोने ने व्यवहारने जाणतो नथी? अरे भाई! ए सर्व जाणवालायक हो पण वस्तुने पामवामां ए कांई नथी.


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वस्तुने पामवा तो पूरण वस्तु जे एक ज्ञान ने आनंदनुं दळ तेनी द्रष्टि ने अनुभव करवां योग्य छे. बीजुं जाणपणुं कांई विशेष महत्त्वनुं नथी. ए तो पहेलां (गाथा २७६- ७७ मां) आवी गयुं के शब्दश्रुत तथा जीव आदि नव पदार्थोना सद्भाव के असद्भावमां शुद्ध आत्माना सद्भावथी ज ज्ञान-दर्शन छे; अर्थात् शुद्ध आत्माना ज आश्रये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान थाय छे, बीजा कोईना आश्रये नहि. खूब झीणी वात भाई!

अहा! अनंतकाळमां चोरासीना अवतारमां रखडी रखडीने एणे परिभ्रमण ज कर्युं छे. कोईवार कदाचित् भगवान जिनवरनी स्तुति-भक्तिमां ए लाग्यो पण एणे भगवान जिनवरने ओळख्या ज नहि. अंदर स्वस्वरूपने जाण्या विना ते भगवान जिनवरने यथार्थ केम जाणे? केमके अंदर स्व पोते ने भगवान जिनवर बन्ने एक ज जाति छे.

जेम दशा श्रीमाळी वाणीयाने बे दीकरा होय तेमां एकने मांड १०० रूपिया पगार मळतो होय अने बीजाने करोडोनी साह्यबी होय तोपण बन्ने दशा श्रीमाळी तरीके एक ज जातिना छे. तेम भगवान आत्मा, एनी पर्यायमां निगोदथी मांडी भले एकेन्द्रिय आदि अनेक दशामां होय, पण अंदर तो पोते शुद्ध चैतन्यघन वस्तु ज छे. अहा! भगवान जिनवरनी जात अने एनी जातमां कांई फेर नथी एवो ज एनो शुद्ध स्वभाव छे. अहा! आवा शुद्ध स्वभावनी अंर्तद्रष्टि करीने एमां ज जेणे एकाग्रता ने रमणता साधी छे ते ज्ञानी पोताना शुद्धस्वभावथी खसतो ज नथी. अहा! तेनी द्रष्टिनो दोर एणे पोताना शुद्ध चैतन्यपदमां ज स्थित कर्यो छे.

अहो! सर्वज्ञ परमेश्वर भगवान जिनेश्वरदेवे जेवो आत्मा जोयो ने कह्यो छे ते एकला शुद्ध ज्ञान ने आनंदरूपी अमृतरसथी भरेलो छे. अहा! आवो ज एनो त्रिकाळी शुद्धस्वभाव छे. आवा आत्माना आनंदनो रस जेणे पीधो छे ते ज्ञानीने हवे पुण्य- पापना भावमां रस नथी, तेने इन्द्रियना विषयो पण विरस-फिक्का लागे छे. अहा! अतीन्द्रिय रसनो रसियो ते हवे आनंदरसथी च्युत थतो नथी. जेम साकरनो गांगडो चूसती माखी साकरथी खसती नथी तेम अतीन्द्रिय आनंदरसनो रसियो धर्मी जीव आनंदरसकंद प्रभु आत्माथी खसतो नथी. भगवान त्रिलोकनाथ आने धर्म कहे छे. लोको तो बहारमां-पुण्यभावमां धर्म मानी बेठा छे, पण विरस-फिक्का एवा पुण्यभावनो ते धर्मी प्रेम-रुचि केम करे? (न ज करे). समजाणुं कांई...?

आवुं अंतरंग स्वरूप समजवुं कठण पडे एटले ‘पडिक्कमामि भंते... जे जीवा एइंदिया वा बेंदिया वा... तावकायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि’ ईत्यादि पाठ भणी जाय ने माने के थई गयो धर्म; पण बापु! ए बधी शुभरागनी क्रिया छे भाई! ए धर्म नहि; भगवाने कहेलो धर्म ए नहि बापा! अंदर अतीन्द्रिय


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आनंदरसकंद प्रभु आत्मा छे तेमां एकाग्रता थवी ते धर्म छे भाई! अहीं कहे छे-धर्मी पुरुष पोताना शुद्ध एक ज्ञानानंद स्वभावने छोडतो नथी. लौकिकमां पण आवुं बने छे ने? के कोई वाणियानो दीकरो होय ने वाघरणथी प्रेम लाग्यो होय तो एनो प्रेम ते छोडतो नथी. तेम आनंदना नाथनी जेने लगनी लागी ते एनी लय (लगनी) छोडतो नथी. अहा! धर्मीनी द्रष्टि शुद्ध स्वभावथी च्युत थती नथी.

अहा! धर्मी पुरुष शुद्धस्वभावथी ज च्युत थतो नथी तेथी राग-द्वेष-मोहरूप अर्थात् शुभाशुभभाव के भ्रमणा आदि भावरूपे पोतानी मेळे परिणमतो नथी. शुद्ध स्वभावना रसने लईने स्वभावपणे-चैतन्यपणे परिणमे छे पण राग-द्वेष आदि विकारपणे ते पोतानी मेळे परिणमतो नथी.

वळी कहे छे- ‘अने पर वडे पण परिणमावातो नथी.’

जुओ आ भाषा! ए तो पोते परिणमे तो पर वडे परिणमावाय छे एम पर निमित्त देखीने व्यवहारथी कहेवाय; पण परवस्तु एने बळजोरीथी परिणमावे छे एम नथी. अहीं कहे छे- ‘पर वडे पण परिणमावातो नथी’ -एटले पोते ज परिणमतो नथी त्यारे पर निमित्त पण त्यां नथी एम अर्थ छे. समजाणुं कांई...? जैन परमेश्वरनो मारग बहु झीणो छे भाई! लोको बहारमां मानी बेठा छे पण मारग बधो अंदरमां छे भाई!

अहा! जेने स्वस्वरूपमां रस जाग्रत थयो छे तेने परमां के पुण्यमां रस नथी. तेथी ते राग-द्वेष-मोहना भावपणे परिणमतो नथी. अहा! धर्मात्माने बहारमां-पुण्यमां के पुण्यना फळमां, स्वर्गादिना वैभवमां कयांय सुखबुद्धि थती नथी. जुओ ऋषभदेवना पुत्र भरत चक्रवर्तीने घरे ९६ हजार राणीओ हती. हजारो देवताओ एनी सेवामां रहेता. देवोनो इन्द्र एनो मित्र थईने आवे ने हीराना सिंहासनमां जोडे बेसतो. अहा! अपार वैभवनो स्वामी बहारमां हतो पण अंदर एमां कयांय एने रस न हतो; स्वभावथी खसीने एने ए पुण्यनी सामग्रीमां प्रेम ने अधिकता नहोतां थतां.

वीतरागनो मारग आवो छे बापा! एक गाथामां तो केटलुं भर्युं छे? अहा! जेणे दूधपाकना स्वाद माण्या एने उकडियामां स्वाद केम आवे? करवानुं तो आ छे भाई! के ज्ञानानंदरसनो समुद्र भगवान आत्मा छे तेनां रस-रुचि करीने तेनो ज अनुभव करवो. एम करतां वीतराग मार्गमां प्रवेश थाय छे अर्थात् धर्मनी शरूआत थाय छे. जुओने! आचार्य शुं कहे छे? के- ‘वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी...’ ; बहु थोडामां आ कह्युं के वस्तुस्वभावने जे जाणे छे ते धर्मी छे; अने ते पोताना स्वभावथी च्युत थईने पोते शुभाशुभभावपणे के भ्रमणाना भावपणे थतो नथी;


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तथा तेने बीजुं कोई, कर्म वगेरे विकार करावतुं नथी.

आमां बे बोल लीधा छेः

१. धर्मी पुरुष पोतानी मेळे राग-द्वेष-मोह आदि भावे परिणमतो नथी अने

२. पर वडे परिणमावातो नथी.

अहा! जेणे आत्माना शुद्ध वीतराग स्वभावने जाण्यो ने अनुभव्यो छे तेनी द्रष्टि शुद्ध स्वभाव पर निरंतर होवाथी तेने ज्ञानमय परिणमन ज छे; ते राग-द्वेष-मोह आदि भावे केम परिणमे? न परिणमे. अने पोते विकारपणे न परिणमे तेने कर्म आदि बीजो केम परिणमावे? न परिणमावे. बीजो परिणमावे. छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन मात्र छे. (एम छे नहि). समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘माटे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोनो अकर्ता ज छे-एवो नियम छे.’

माटे एटले आ कारणे, टंकोत्कीर्ण एटले जेम पर्वतनी शिलाने टांकणाथी कोतरी काढीने मूर्ति बनावे तेम भगवान आत्मामांथी पुण्य-पापना विकल्पने काढी नाखीने एकलो चैतन्यघन बिंब प्रभु छे तेने जुदो तारवी काढे ते टंकोत्कीर्ण; आवो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप प्रभु आत्मा छे; अहाहा...! एकला चैतन्यप्रकाशना पुंजरूप मूर्ति! जेम सूर्य प्रकाशनुं बिंब छे तेम आत्मा एकला चैतन्यप्रकाशनुं बिंब छे. अहाहा...! आवुं चैतन्यप्रकाशनुं बिंब जेनी द्रष्टिमां आव्युं छे ते टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी छे. सदा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे ते राग-द्वेष-मोह आदि भावोनो कर्ता नथी अकर्ता ज छे.

एने दया, दान, पुण्य-पापना भाव आवे खरा, पण एनो ते कर्ता नथी. ए तो एक ज्ञानमय भावनो ज कर्ता छे, अने रागादि विकारनो अकर्ता ज छे. एने राग करवानो अभिप्राय नथी ने? राग करवा लायक छे एम एने नथी ने? तेथी ते अकर्ता ज छे. निर्मळ ज्ञानभावने करनारो ते मलिन रागादिकने केम करे? जेने मैसुबना स्वाद चाख्या ए हवे नाकना गुंगाना स्वाद केम ले?

जुओ, आ ७प वर्ष पहेलांनी वात छे. (अमारी) बार वर्षनी उंमर हती ने दि’ अमारा उमराळा गाममां एक भावसार हतो तेनुं नाम सुंदरजी हतुं. एने एवी टेव पडी गयेली के नाकमांथी गुंगो काढीने चाटी ले, वळी एटलेथी न रहे पण बे दांत वच्चे दबावीने एने जीभनुं टेरवुं अडाडे. अरे! सुंदरजी आ शुं करे छे तुं? एम जोडेना मित्रो टोके एटले ए गुंगो काढी नाखे. पण पाछी तक मळी जाय


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एटले बीजो गुंगो काढे अने दांत हेठे दबावीने जीभ अडाडे. ए कहे के-मने गुंगाना स्वादनी टेव पडी गई छे.

अहीं आचार्य कहे छे-भाई! अंदर अतीन्द्रिय आनंदना रसनो समुद्र भगवान आत्मा छे एने मूकीने तुं आ पुण्य-पापरूप गुंगाना स्वाद ले छे? ए शुभ-अशुभ भाव बेय नाकना मेलथीय बदतर मलिन छे. आ कहे छे-मने एनी टेव पडी गई छे. त्यारे ज्ञानी कहे छे-के जेने अंतद्रष्टि थई छे एवा धर्मी पुरुषने अतीन्द्रिय आनंदना रसना स्वाद आगळ पुण्य-पापना स्वाद सुहावता नथी; माटे तुं पण अंतद्रष्टि कर.

अहाहा...! भगवान जैन परमेश्वर शुं कहे छे? के भगवान! तुं शुद्ध चिदानंदरसनो समुद्र छो ने नाथ! एमां अंतर्निमग्न थई अतीन्द्रिय आनंदरसनो स्वाद जेणे लीधो ते धर्मीने हवे पुण्य-पापना भावना स्वाद गुंगाना स्वाद जेवा विरस- बेस्वाद भासे छे. हवे ते पुण्य-पापना भावपणे थतो नथी; अने कर्म तेने पुण्य- पापरूप भावे परिणमावतुं नथी. ए तो पोते परिणमे तो कर्म परिणमावे छे एम उपचारथी कहेवाय छे.

कोईने थाय के वीतरागनो आवो धर्म! एने कहे छे कोई दि’ बापु! तें धर्म सांभळ्‌यो नथी एटले एम लागे छे पण भाई! मारग आ ज छे. जैन परमेश्वर त्रिलोकीनाथ सीमंधर परमात्मा वर्तमानमां विदेहमां बिराजे छे त्यांथी आवेली आ वात छे. के-ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोनो अकर्ता ज छे-एवो नियम छे.

* गाथा २८०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा ज्ञानी थयो त्यारे वस्तुनो एवो स्वभाव जाण्यो के-आत्मा पोते तो शुद्ध ज छे-द्रव्यद्रष्टिए अपरिणमनस्वरूप छे, पर्यायद्रष्टिए परद्रव्यना निमित्तथी रागादिरूपे परिणमे छे;...’

आत्मा ज्ञानी अर्थात् धर्मी थयो त्यारे एने स्वस्वरूपने केवुं जाण्युं? के पोते अंदर स्वरूपथी शुद्ध ज छे, एकाकार पवित्र ज छे. आ जे विकार छे ए तो बहार एनी पर्यायमां छे, पण अंदर वस्तु तो निर्विकार शुद्ध ज छे. द्रव्यद्रष्टिए वस्तु (-आत्मा) अपरिणमनस्वरूप छे.

द्रव्यद्रष्टिए आत्मा अपरिणमनस्वरूप छे एटले शुं? के वस्तु जे त्रिकाळ छे ते, एक समयनी परिणमनरूप-पलटावा रूप जे दशा एनाथी भिन्न छे, जे परिणमनरूप नथी ते अक्रिय अपरिणमनरूप छे. त्रिकाळ ध्रुव वस्तुमां पलटना-पलटती दशा नथी. परमात्म प्रकाशमां (गाथा ६८ मां) आवे छे ने के-


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ण वि उत्पजइ ण वि मरइ बन्धु ण मोक्खु करेइ

अहाहा...! जेने त्रिकाळी कहीए ते भगवान आत्मा जन्म-मरणेय करतो नथी के बंध-मोक्षनेय करतो नथी. अहा! द्रव्य त्रिकाळी पर्यायने करतुं नथी एवुं अपरिणमनरूप छे. पर्याय जे पलटती दशा छे तेमां विकार छे, संसार छे ने मोक्षनो मारग ने मोक्ष पण ए पलटती दशामां-पर्यायमां छे, द्रव्यद्रष्टिए द्रव्यमां बंध-मोक्ष आदि छे नहि एवुं ए अपरिणमनरूप छे.

द्रव्य एटले वस्तु (चैतन्यमात्र) द्रव्य; आ तमारा पैसा-बैसा ते द्रव्य एम नहि; पण वस्तु जे अंदर देहथी भिन्न, पुण्य-पापना विकारथी भिन्न अने एक समयनी बंध-मोक्षरूप पर्यायथी भिन्न अखंड एकरूप रहेली छे. ते द्रव्य छे, ए द्रष्टिए एने जुओ तो ते अपरिणमनरूप छे. जेमां अज्ञान-ज्ञानरूप के मिथ्यात्व-सम्यक्त्वरूप पलटना नथी एवो त्रिकाळ अनादि-अनंत शाश्वत एवो ने एवो एकसदश चिन्मात्र भाव रहेलो छे ते द्रव्य (-आत्मा) अपरिणमनस्वरूप छे.

आत्मामां बे प्रकारः एक त्रिकाळ ध्रुवता ने एक वर्तमान पलटती दशा. आ विचार पलटे छे ने? ए एनी पलटती दशामां छे; वस्तु जे ध्रुव त्रिकाळ छे एमां पलटना-बदलवुं नथी.

अहा! आ द्रव्य (त्रिकाळी) जे छे ए परने करतुं नथी, शरीर-मन-वाणी ईत्यादिनेय करतुं नथी अने पोतानी पर्यायनेय ए करतुं नथी एवुं ए अपरिणमनस्वभावी छे.

एने पर्यायद्रष्टिए अर्थात् कर्मना निमित्तथी थती वर्तमान अवस्थानी दशाथी जोईए तो पर्यायमां ए रागादि विकाररूपे थाय छे अने मोक्षमार्गरूप धर्मदशारूपे पण ते थाय छे. मोक्षमार्ग ने मोक्षनी दशा पण एनी पर्यायमां थाय छे. पण द्रव्यद्रष्टिए ए बदलतुं नथी एवुं अपरिणमन स्वरूप छे.

कोईने एम थाय के हवे आमां शुं शीखवुं? आ बे घडी सामायिकने पडिक्कमण भणी लीधुं एटले थई गयो धर्म. पण बापु! ए तो राग छे ने धर्म तो एनाथी भिन्न वीतराग छे. भाई! धर्म तो महा अलौकिक चीज छे ने ते शुद्ध त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये प्रगट थाय छे.

उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्’ एम सूत्र छे ने? मतलब के एक त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ने बीजी उत्पाद-व्ययरूप पर्याय-एम आ वीतरागनुं कहेलुं सत्त्व छे, एमां नवी नवी अवस्था थाय ते उत्पाद-व्ययरूप छे. एने कर्मना निमित्तथी विकार थाय, ने वळी अवस्थामां कर्मनो अभाव करीने निर्विकारी धर्म थाय, एनी अवस्थामां निर्दोष पूर्ण केवळज्ञान ने मोक्ष थाय. आ बधुं उत्पाद-व्ययरूप पलटती दशामां थाय


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छे, पण त्रिकाळी ध्रुवमां ए कांई नहि; ध्रुव तो ध्रुव त्रिकाळी एकसदश चिन्मानपणे छे. आवी वात छे!

हवे आ वाणियाने बिचाराने एक तो तत्त्वनी जिज्ञासा नहि ने संसारनी उपाधि आडे नवराश मळे नहि एटले एम ने एम (पापमां) जिंदगी चाली जाय. पछी जाय मरीने ढोरमां; ढोरमां हों! केम के वाणियाने मांस-दारूनुं सेवन तो होय नहि एटले नरकमां न जाय, पुण्यनांय ठेकाणां न होय एटले स्वर्गे पण न जाय. अने धर्म तो एने छे ज नहि. एटले मरीने ढोरमां ज जाय, तिर्यंचमां ज जाय. शुं थाय? भाई! तत्त्वद्रष्टि विना जन्म-मरणथी छूटवुं महा दुर्लभ छे.

‘आत्मा द्रव्यद्रष्टिए अपरिणमनस्वरूप छे’ एम न्यालभाईना ‘द्रव्यद्रष्टि-प्रकाश’ मां पण आवे छे. एमां एवुं खूब आवे छे के-आत्मा बिलकुल अक्रिय छे, निष्क्रिय छे. द्रव्यद्रष्टिए एने अक्रिय कहो के अपरिणमनस्वरूप कहो-ए एक ज छे. वस्तु जे त्रिकाळी ध्रुव आत्मा तेने शुं कोईए करेलो छे? (ना) एनो कोई ईश्वर कर्ता छे? (ना). तो कहे छे-ए अनादिअनंत ध्रुव शाश्वत अकृत्रिम द्रव्य छे तेमां बदलवुं नथी, क्रिया नथी. बदलवुं छे ए पर्यायमां छे, ध्रुवमां नहि. कोईने थाय के आ ध्रुव शुं हशे? ओलो ध्रुवनो तारो हशे? अहा! जेम ध्रुवना ताराना लक्षे समुद्रमां वहाण हांके ते समुद्र पार करी जाय छे तेम त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यमात्र आत्माना लक्षे परिणमे तेने समकित थाय छे, धर्म थाय छे ने ते संसारसमुद्रने तरी जाय छे. अहो! आवो वस्तुनो ध्रुवस्वभाव महा महिमावंत पदार्थ छे. अहो ध्रुव स्वभाव! !

अहीं स्वाध्याय मंदिरमां ‘द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि’ एम लखेलुं छे ने? ते वांचीने एक भाई कहेता हता-महाराज! द्रव्य एटले पैसा; अहीं पैसावाळा अर्थात् पैसा उपर जेमनी द्रष्टि छे ते आवे छे ते बधा सम्यग्द्रष्टि ने?

त्यारे कह्युं-अरे भाई! अहीं पैसानुं अमारे शुं काम छे? द्रव्य एटले त्रिकाळ ध्रुव चैतन्यस्वभावमय जे वस्तु छे ते; अने तेनी द्रष्टि करवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. जेने ध्रुवनी द्रष्टि छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. हवे आवुं कदी सांभळ्‌युंय न होय अने दया, दान, आदिमां प्रवर्ते, थोडा पैसा दानमां खर्च करे एटले माने के-अमे सम्यग्द्रष्टि. हवे धूळेय सम्यग्द्रष्टि नथी सांभळने. ए तो बधो राग छे ने एमां धर्म माने ए तो मिथ्यादर्शननुं महापाप छे. समजाणुं कांई...?

पुद्गल परमाणु पण द्रव्यद्रष्टिए अपरिणमनस्वरूप छे. जुओ, आ दाळ-भात घउं-लोट वगेरे परमाणु पहेलां हता ते बदलीने अत्यारे लोहीने मांस रूपे शरीरमां छे, हवे पछी एनी बळीने राख थशे; ए बधा परमाणुपणे तो कायम रहेशे, अने


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एनी अवस्था बदलती रहेशे. परमाणु जे ध्रुव ते नहि बदले. तेम भगवान आत्मा शाश्वत ध्रुव चैतन्यस्वरूपे छे ते नहि बदले, तेनी अवस्था-दशा बदलशे, कर्मना निमित्ते थता विकारथी बदलीने शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपना आश्रये निर्विकार थशे. अहा! आवा वस्तुना स्वभावने ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.

‘माटे हवे ज्ञानी पोते ते भावोनो कर्ता थतो नथी, उदयो आवे तेमनो ज्ञाता ज छे.’

अहाहा...! ज्ञानीनी द्रष्टि चिन्मात्र वस्तु त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य उपर ज होय छे. अंतरमां एणे शुद्धत्वनो स्वीकार कर्यो छे तेथी शुद्धपणे ज परिणमे छे, पण राग- द्वेषादिपणे परिणमतो नथी. माटे ते रागद्वेषादि भावोनो कर्ता थतो नथी.

ज्ञानीने अस्थिरतानो राग आवे छे खरो, पण तेनो ते कर्ता थतो नथी, तेनो ज्ञाता ज रहे छे. राग भिन्न चीज जाणवा लायक छे ने? ते एनाथी भिन्न रहीने मात्र जाणे ज छे, करतो नथी. राग करवा योग्य छे एम कयां छे एने? नथी. तेथी चारित्रमोहना उदये जे राग तेने आवे छे तेनो ते कर्ता थतो नथी पण ज्ञाता ज रहे छे. आवो वीतरागनो मारग बहु सूक्ष्म छे भाई! ज्ञानीने किंचित् राग छे, पण रागनी रुचि-भावना नथी; एने राग छे, पण रागनुं स्वामित्व नथी; एने रागनुं परिणमन छे पण ते एनुं करवालायक कर्तव्य नथी तेथी ते कर्ता थतो नथी मात्र ज्ञाता ज रहे छे. अहो! आवी अद्भुत अलौकिक ज्ञानीनी अंतर-दशा होय छे.

‘आवा वस्तुस्वभावने अज्ञानी जाणतो नथी तेथी ते रागादिक भावोनो कर्ता थाय छे-एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक हवे कहे छेः-

* कळश १७७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति’ एवा पोताना वस्तुस्वभावने अज्ञानी जाणतो नथी ‘तेन सः रागादीन् आत्मन्ः कुर्यात्’ तेथी ते रागादिकने पोताना करे छे, अतः कारकः भवति’ तेथी (तेमनो) कर्ता थाय छे.

जोयुं? पोते अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो रसकंद शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छे-एम अज्ञानी जाणतो नथी. त्यां वस्तुना स्वभाव उपर एनी द्रष्टि-सन्मुखता नथी. ते बहार निमित्तनी ने पुण्य-पापना भावोनी सन्मुखतामां पडयो छे. तेथी ते रागादिकपणे निरंतर परिणमतो थको रागादिक भावोनो कर्ता थाय छे.

बहारमां साधु थयो होय, व्रतादि पाळतो होय, पण अंतद्रष्टि विना, स्वस्वरूपना भान विना ते रागादिकनो कर्ता थाय छे अर्थात् राग करवा लायक छे एम मानीने ते रागादिकने पोताना करे छे. पुण्यभाव-दया, दान, व्रत आदिना भाव भला-ईष्ट


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छे ने ते मने करवा योग्य छे एम मानीने ते रागनो कर्ता थाय छे.

अहा! जे कोई सिद्ध थया छे तेमने सिद्धपदनी निर्मळ पर्याय कयांथी आवी? शुं ते अद्धरथी आवी छे? ना; अंदर शक्ति पडी छे तेमां पूरण एकाग्र थई परिणमवाथी आवी छे. पण अज्ञानी पोताना वस्तुस्वभावने जाणतो नथी, तेमां ते अंतर-एकाग्र थतो नथी तेथी ते पर-आश्रये परिणमतो थको रागादिकनो कर्ता थाय छे. ल्यो, आवी वात छे. समजाणुं कांई...?

(प्रवचन नं. ३३९ (शेष) अने ३४० * दिनांक १२-प-७७ अने १३-प-७७)

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गाथा–२८१
रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा।
तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदि पुणो वि।। २८१।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः।
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि।। २८१।।

हवे आ अर्थनी गाथा कहे छेः-

पण राग–द्वेष–कषायकर्मनिमित्त थाये भाव जे,
ते–रूप जे प्रणमे, फरी ते बांधतो रागादिने. २८१.

गाथार्थः– [रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव] राग, द्वेष अने कषायकर्मो होतां (अर्थात् तेमनो उदय थतां) [ये भावाः] जे भावो थाय छे [तैः तु] ते-रूपे [परिणममानः] परिणमतो अज्ञानी [रागादीन्] रागादिकने [पुनः अपि] फरीने पण [बध्नाति] बांधे छे.

टीकाः– यथोक्त वस्तुस्वभावने नहि जाणतो अज्ञानी (पोताना) शुद्धस्वभावथी अनादि संसारथी मांडीने च्युत ज छे तेथी कर्मना उदयथी उत्पन्न थता रागद्वेषमोहादि भावोरूपे परिणमतो अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोनो कर्ता थतो थको (कर्मोथी) बंधाय ज छे-एवो नियम छे.

भावार्थः– अज्ञानी वस्तुना स्वभावने तो यथार्थ जाणतो नथी अने कर्मना उदयथी जे भावो थाय छे तेमने पोताना समजीने परिणमे छे, माटे तेमनो कर्ता थयो थको फरी फरी आगामी कर्म बांधे छे-एवो नियम छे.

*
समयसार गाथा २८१ः मथाळुं

हवे आ अर्थनी गाथा कहे छेः-

* गाथा २८१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘यथोक्त वस्तुस्वभावने नहि जाणतो अज्ञानी (पोताना) शुद्धस्वभावथी अनादि संसारथी मांडीने च्युत ज छे...’

झीणी वात छे प्रभु! शुं कहे छे? के अज्ञानी पोताना शुद्ध एक पवित्र ज्ञान-


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स्वभावथी अनादि संसारथी मांडीने च्युत ज छे. अहाहा...! पोते नित्यानंद सहजानंद प्रभु त्रिकाळ चिदानंदरसनो कंद छे. अहा! ज्ञान अने आनंद एक एनो स्वभाव छे. पण एवा स्वभाव उपर एनी अनादिकाळथी द्रष्टि नथी; एनो स्वभाव प्रति झुकाव नथी. तेथी पोताना शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्माने नहि जाणतो अज्ञानी स्वस्वरूपथी च्युत ज छे. कयारथी? तो कहे छे-अनादि संसारथी.

अनादिथी पोते छे. वस्तु शुद्ध चैतन्यरसकंद प्रभु अनादिनी छे; ने भूलेय पर्यायमां अनादिनी छे. एम नथी के पहेलां पर्यायमां शुद्ध हतो ने पछीथी अशुद्ध-मलिन थयो. अनादिथी पोते अंदर ज्ञानानंदस्वभावी छे एनाथी अजाण छे. अहा! पोते कोण छे? -एनी एने बिचाराने अनादिथी खबर नथी. तेथी अनादिथी ज ते पोताना शुद्ध चिद्रूप स्वरूपथी च्युत अर्थात् भ्रष्ट ज छे.

अहा! एने खबरेय कयां छे के-हुं स्वस्वरूपथी च्युत-भ्रष्ट छुं? ए तो जे पर्याय आवी तेमां तल्लीन-तद्रूप थई वर्ते छे; शरीरादिमां तल्लीनपणे वर्ते छे. कदीक बायडी- छोकरांनो योग थयो तो एमां बिचारो रोकाईने गुंचाई जाय छे. अरे! अनादिथी आम ते पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपथी च्युत ज छे.

अहा! अज्ञानी अनादिथी शुद्धस्वभावथी च्युत ज छे. केम? कारण के ते यथोक्त भगवाने कहेला वस्तुस्वभावने जाणतो नथी. जुओ, आमां एम भाषा नथी लीधी के कर्मने लईने च्युत छे; जो के कर्म जोडे अनादिनुं छे छतां कर्मने लईने ए च्युत छे एम नथी पण पोते पोताना शुद्धस्वभावने जाणतो नथी माटे च्युत छे. (एवी ज अनादिकालीन पर्याय-योग्यता छे).

हवे कहे छे- ‘तेथी कर्मना उदयथी उत्पन्न थता रागद्वेषमोहादि भावोरूपे परिणमतो अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोनो कर्ता थतो थको (कर्मोथी) बंधाय ज छे-एवो नियम छे.’

जुओ, पोते अंदर शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. तेथी एणे खरेखर शुद्धस्वभावभावपणे परिणमवुं-थवुं जोईए. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदरसकंद प्रभु पोते छे तो अतीन्द्रिय आनंदपणे थवुं जोईए; पण एम न थतां-परिणमतां ते राग-द्वेष- मोहना भावरूपे परिणमे छे अने ए भावोनो कर्ता थाय छे.

‘कर्मना उदयथी उत्पन्न थता रागद्वेषमोहादि’ एम छे ने? एनो अर्थ ए के पोते स्वभावथी च्युत-भ्रष्ट होवाथी रागद्वेषमोहादिरूपे थाय छे-परिणमे छे अने त्यारे तेमां कर्मनो उदय निमित्त छे. कर्मना उदये रागद्वेषादि उत्पन्न कर्या छे एम नहि, कर्म तो निमित्त एक पर वस्तु छे एटलुं, पण पोते अनादिथी स्वरूपथी च्युत छे


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ने परना लक्षे दोराई गयो छे तेथी रागद्वेषमोह आदिरूपे परिणमे छे. अहा! परमां ईष्ट-अनिष्टपणुं मानी अज्ञानी परना लक्षे रागद्वेषादि-भावे परिणमे छे.

७० वर्ष पहेलां दुकाने सज्झायमाळा वांची हती. एमां एक सज्झायमां आवे छे के- ‘होंशीला मत होंश कीजीए’ -मतलब के शुद्ध आत्मा सिवाय परवस्तुमां-शरीर, मन, वाणी, बायडी, छोकरां, पैसा, आबरू ईत्यादिमां-होंश न कर भाई! बापु! ए बधां दुःख ने पापनां निमित्त छे. माणसने बायडी रूपाळी होय ने पैसा दस-वीस लाख मळी जाय एटले ओहोहोहो... जाणे हुं पहोळो ने शेरी सांकडी एम थई जाय, पण बापु! ए बधा मोह-राग-द्वेषना परिणाम तने नीचे लई जशे भाई!

अहीं परमात्मा जगतने फरमावे छे के-प्रभु! तने तारी चीजनी खबर नथी. अनंत अनंत ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीथी भरेली तारी चीज छे. पण हा! तुं एनाथी भ्रष्ट थई गयो छो. कोई कर्मे तने भ्रष्ट कर्यो छे एम नहि, पोताना स्वरूपने ओळख्या विना तुं भ्रष्ट थई गयो छो. अहा! ‘अपनेको आप भूल के हेरान हो गया.’ पोतानी चीजने भूलीने, परवस्तुने भली-बुरी जाणी रागादिभावे परिणमतो, एनो कर्ता थतो थको अनादि संसारथी हेरान थई रह्यो छो.

अहा! पोताना परमेश्वर (सर्व सामर्थ्य धरनार) आत्माने भूलीने कर्मनी उपस्थितिमां (निमित्ते) स्वयं राग-द्वेष-मोहादि भावोरूपे परिणमतो अज्ञानी ते रागद्वेषमोहादि भावोनो कर्ता थाय छे अने तेथी ते कर्मोथी बंधाय ज छे-एवो नियम छे. ल्यो, आ संसारमां रझळवानुं बीजडुं.

पहेलां गाथा २८०मां एम आव्युं के-पोताना स्वभावने जाणतो ज्ञानी राग- द्वेषमोहादि भावोनो अकर्ता ज छे-एवो नियम छे. अहीं कहे छे-पोताना परमेश्वर स्वभावने नहि जाणतो अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोनो कर्ता थाय छे अने ते बंधाय ज छे-एवो नियम छे. अहा! अज्ञानीए अनंतकाळमां बहारमां शास्त्रो वगेरे खूब जाण्यां, पण पोताने जाण्या विना ए शुं काम आवे? ए जाणपणुं तो बधुं थोथां छे भाई! अज्ञानी बहारमां व्रत करे ने उपवास आदि तप करे ने रोज सवार-सांज पडिक्कमण करे, पण ए बधी रागनी क्रियाओ छे बापा! एने तुं धर्म माने ए तो मिथ्यादर्शन छे भाई! ए रागनी क्रियाओनो कर्ता थाय ए मिथ्याद्रष्टि छे ने ते अवश्य बंधाय ज छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?

* गाथा २८१–भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानी वस्तुना स्वभावने तो यथार्थ जाणतो नथी अने कर्मना उदयथी जे भावो थाय छे तेमने पोताना समजी परिणमे छे,...’

शुं कीधुं? के अज्ञानीने स्वभावनी द्रष्टि नथी. तेने अनादिथी पर्यायबुद्धि छे


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अर्थात् वर्तमान पर्यायमां जे पुण्य-पाप थाय अने एना फळ जे आवे ते हुं एम एनी पर्याय उपर द्रष्टि छे. अहा! पोते अंदर ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार छे एनी एने खबर नथी तेथी वर्तमानमां सहेज अनुकूळता भाळीने ‘आ भव मीठो, परभव कोणे दीठो? -एम एने पर्यायबुद्धि थई जाय छे. तेमांय वळी शरीर कांईक रूपाळुं होय, बायडी-छोकरां सानुकूळ होय ने पांच-पचीस करोडनी संपत्ति मळी जाय तो बस थई रह्युं. एमांथी एने नीकळवुं भारे आकरुं पडे. पण भाई! मरी जईश हों एमां. एम ने एम मरी जईश बापु!

एक रे दिवस एवो आवशे, सोड ताणीने सूतो;
काढो रे काढो एने सहु कहे, जाणे जन्म्यो ज न होतो.
सगी नारी रे तारी कामनी, ए ऊभी टग-टग जुए;
कायामां हवे कांई नथी, ऊभी ध्रुसके रे रूए. एक रे दिवस.

अहा! आ जगत आखुं विषय-कषायनी भींसमां पडेलुं दुःखी-दुःखी छे भाई! अहीं कहे छे-अज्ञानी पोतानी चिदानंदमय स्वरूपलक्ष्मीने जाणतो नथी अने कर्मना उदय निमित्ते जे भावो थाय छे तेने ते पोताना मानी परिणमे छे. शुं कीधुं? के एना स्वरूपमां तो पुण्य-पाप आदि छे नहि, पण कर्म निमित्त होतां पोताना पुरुषार्थनी उंधाईथी पर्यायमां पुण्य-पाप आदि भावो थाय छे; अज्ञानी तेने पोताना माने छे. अहा! निमित्तने आश्रये एने राग-द्वेष-मोहादि भावो थाय छे तेने ते पोताना माने छे. अंदर चीज पोतानी भाळी नथी ने? तेथी परचीजमां-रागद्वेषमोहादि भावोमां-आ हुं- एम पोतापणुं माने छे, अने तेमां तद्रूप थई परिणमे छे.

‘माटे तेमनो कर्ता थयो थको फरी फरी आगामी कर्म बांधे छे-एवो नियम छे.’ आ प्रमाणे अज्ञानी संसारमां रझळी मरे छे.

[प्रवचन नं. ३४१*दिनांक १४-प-७७]

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गाथा–२८२

ततः स्थितमेतत्–

रागम्हि य दासम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा।
तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा।। २८२।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः।
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता।। २८२।।
एम राग–द्वेष–कषायकर्मनिमित्त थाये भाव जे,
ते–रूप आत्मा परिणमे, ते बांधतो रागादिने. २८२.

गाथार्थः– [रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव] राग, द्वेष अने कषायकर्मो होतां (अर्थात् तेमनो उदय थतां) [ये भावाः] जे भावो थाय छे [तैः तु] ते-रूपे [परिणममानः] परिणमतो थको [चेतयिता] आत्मा [रागादीन्] रागादिकने [बध्नाति] बांधे छे.

टीकाः– खरेखर अज्ञानीने, पुद्गलकर्म जेमनुं निमित्त छे एवा जे आ रागद्वेषमोहादि परिणामो छे, तेओ ज फरीने रागद्वेषमोहादि परिणामोनुं निमित्त जे पुद्गलकर्म तेना बंधनुं कारण छे.

भावार्थः– अज्ञानीने कर्मना निमित्ते जे रागद्वेषमोह आदि परिणामो थाय छे तेओ ज फरीने आगामी कर्मबंधनां कारण थाय छे.

समयसार गाथा २८२ः मथाळुं

तेथी आम ठर्युं-एम हवे कहे छेः-

* गाथा २८२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरेखर अज्ञानीने, पुद्गलकर्म जेमनुं निमित्त छे एवा जे आ रागद्वेषमोहादि परिणामो छे, तेओ ज फरीने रागद्वेषमोहादि परिणामोनुं निमित्त जे पुद्गलकर्म तेना बंधनुं कारण छे.’

अहाहा...! आत्मा अनंत अनंत गुणरत्नथी भरेलो चैतन्यरत्नाकर छे. चैतन्यमय रत्ननो आकर नाम भंडार-समुद्र भगवान आत्मा छे. एनी जेने खबर न मळे ते अज्ञानी छे.