Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 283-287.

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अहा! ए अज्ञानीने अनादिथी कर्मनो उदय जेमनुं निमित्त छे एवा रागद्वेषमोहादि परिणामो छे. शुं कीधुं? आ परवस्तुनी प्रीति ते राग, परवस्तुनी अप्रीति ते द्वेष, अने ते रागद्वेष मारा-एवो भाव ते मोह-एम अज्ञानीने अनादिथी रागद्वेषमोहादि परिणामो छे. आदि कहेतां विषयवासना, हास्य, रति, अरति, भय, शोक वगेरे बधा परिणामो समजी लेवा.

आ कोई मरी जाय त्यारे बाईओ रोती नथी? एमां कोईने धणी मरी जाय त्यारे ‘कुवामां उंडा उतारीने’ -एवुं बधुं रोवे. आ बधुं नवां कर्म बंधाय एमां निमित्त छे एम कहे छे. एमां (रागद्वेषादिमां) जुनां कर्म निमित्त छे अने नवां कर्म बंधाय एमां आ रागद्वेषमोहना परिणाम निमित्त छे. निमित्त छे, पण कोई-कोईना (एकबीजाना) कर्ता नहि हों; पुण्य-पापना-रागद्वेषमोहना भाव करे एमां जुनां कर्म निमित्त छे, पण कर्मे ए कर्या नथी; अने ए रागद्वेषमोहना परिणाम नवां कर्म बंधाय एमां निमित्त छे, पण ए नवुं कर्मबंधन राग-द्वेष-मोहे कर्युं नथी. आम परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भाव छे पण कर्ताकर्मभाव नथी.

आमां अत्यारे मोटा वांधा ऊठया छे. एम के सोनगढवाळा निमित्तने मानता नथी. हमणां भाई! ए कैलासचंद्रजीए खुलासो कर्यो छे के-सोनगढवाळा निमित्तने मानता नथी एम नथी, निमित्त छे एम तो माने छे, पण निमित्तथी परमां (उपादानमां) कांई थाय छे एम मानता नथी. -वात तो साची छे.

बे वात आवी छे. एक तो क्रमबद्धनी; एम के दरेक द्रव्यमां जे समये जे अवस्था थवानी होय ते समये ते अवस्था थाय थाय ने थाय एम बधुं क्रमबद्ध ज छे; पण एनी यथार्थ प्रतीति एने थाय छे के जेनी द्रष्टि त्रिकाळी द्रव्य (-आत्मा) पर होय छे. बीजी निमित्तनीः एम के सोनगढवाळा निमित्तने नथी मानता एम नहि, पण तेओ निमित्तने परना कर्ता मानता नथी. जेम के-पाणी उनुं थाय त्यारे अग्नि निमित्त छे, पण अग्निए पाणी उनुं कर्युं नथी. पाणी उनुं थयुं छे ए पोताना कारणे थयुं छे, अग्निना कारणे नहि.

तो प्रश्न थाय के जो अग्निने दूर करो तो पाणी उनुं नहि रहे.

समाधान एम छे के-पाणी उनुं नहि रहे ते पण पोताना कारणे. टाढुं थाय ए पण पोताना कारणे ने उनुं थाय ए पण पोताना कारणे, अने त्यारे अग्निनुं न होवुं ने होवुं ए तो निमित्तमात्र छे.

परद्रव्यना कारणे परमां कांई थतुं नथी ए मूळ सिद्धांत छे. अज्ञानी कल्पनाथी माने के में आ कर्युं ने ते कर्युं. दुकाने-धंधे बेठो होय त्यारे आ वेच्युं ने आ


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खरीद्युं ने आटलुं कमाणो एम मोटा मोटा आंकडा गणे पण भाई! धूळेय कमाणो नथी सांभळने. ए बधी परनी क्रिया के दि’ तुं करी शके छे? तें तो खाली राग-द्वेष-मोहना भाव कर्या बस एटलुं ज. अहिं कहे छे-अज्ञानीने आ जे रागद्वेषमोहना परिणामो छे ते ज फरीने रागद्वेषमोहनुं जे निमित्त छे एवा पुद्गलकर्मना बंधनुं निमित्त कारण थाय छे.

ः गाथा २८२ नो भावार्थः

‘अज्ञानीने कर्मना निमित्ते जे रागद्वेषमोह आदि परिणामो थाय छे तेओ ज फरीने आगामी कर्मबंधनां कारण थाय छे.’

जूनुं कर्म रागद्वेषमोहादि विकारनुं निमित्त थाय छे, अने ते वर्तमान रागद्वेषमोहादिना परिणाम नवां कर्म बंधाय छे तेनुं निमित्त थाय छे आ प्रमाणे अज्ञानीने संसार परंपरा छे. आवी वात छे.

(प्रवचन नं. ३४१ (चालु)*दिनांक १४-प-७७)

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गाथा २८३ थी २८प
अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं।
एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा।। २८३।।
अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि।
एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा।। २८४।।
जावं अप्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं।
कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो।। २८५।।
अप्रतिक्रमणं द्विविधमप्रत्याख्यानं तथैव विज्ञेयम्।
एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता।। २८३।।
अप्रतिक्रमणं द्विविधं द्रव्ये भावे तथाऽप्रत्याख्यानम्।
एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता।। २८४।।
यावदप्रतिक्रमणमप्रत्याख्यानं च द्रव्यभावयोः।
करोत्यात्मा तावत्कर्ता स भवति ज्ञातव्यः।।
२८५।।
अणप्रतिक्रमण द्वयविध, अणपचखाण पण द्वयविध छे,
–आ रीतना उपदेशथी वर्ण्यो अकारक जीवने. २८३.
अणप्रतिक्रमण बे–द्रव्यभावे, एम अणपचखाण छे,
–आ रीतना उपदेशथी वर्ण्यो अकारक जीवने. २८४.
अणप्रतिक्रमण वळी एम अणपचखाण द्रव्यनुं, भावनुं,
आत्मा करे छे त्यां लगी कर्ता बने छे जाणवुं. २८प.

गाथार्थः– [अप्रतिक्रमणं] अप्रतिक्रमण [द्विविधम्] बे प्रकारनुं [तथा एव] तेम [अप्रत्याख्यानं] अप्रत्याख्यान बे प्रकारनुं [विज्ञेयम्] जाणवुं;- [एतेन उपदेशेन च] आ उपदेशथी [चेतयिता] आत्मा [अकारकः वर्णितः] अकारक वर्णववामां आव्यो छे.

[अप्रतिक्रमणं] अप्रतिक्रमण [द्विविधं] बे प्रकारनुं छे- [द्रव्ये भावे] द्रव्य संबंधी अने भाव संबंधी; [तथा अप्रत्याख्यानम्] तेवी रीते अप्रत्याख्यान पण बे प्रकारनुं छे- द्रव्य संबंधी अने भाव संबंधी;- [एतेन उपदेशेन च] आ उपदेशथी


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[चेतयिता] आत्मा [अकारकः वर्णितः] अकारक वर्णववामां आव्यो छे.

[यावत्] ज्यां सुधी [आत्मा] आत्मा [द्रव्यभावयोः] द्रव्यनुं अने भावनुं [अप्रतिक्रमणम् च अप्रत्याख्यानं] अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान [करोति] करे छे [तावत्] त्यां सुधी [सः] ते [कर्ता भवति] कर्ता थाय छे [ज्ञातव्यः] एम जाणवुं.

टीकाः– आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे; कारण के, जो एम न होय तो (अर्थात् जो आत्मा पोताथी ज रागादिभावोनो कारक होय तो) अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि. अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो जे खरेखर द्रव्य अने भावना भेदे द्विविध (बे प्रकारनो) उपदेश छे ते, द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको, आत्माना अकर्तापणाने ज जणावे छे. माटे एम नक्की थयुं के परद्रव्य निमित्त छे अने आत्माना रागादिभावो नैमित्तिक छे. जो एम न मानवामां आवे तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण अने द्रव्य-अप्रत्याख्याननो कर्तापणानां निमित्त तरीकेनो उपदेश निरर्थक ज थाय, अने ते निरर्थक थतां एक ज आत्माने रागादिकभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडतां नित्यकर्तापणानो प्रसंग आववाथी मोक्षनो अभाव ठरे. माटे परद्रव्य ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्त हो. अने एम होतां, आत्मा रागादिकनो अकारक ज छे एम सिद्ध थयुं. (आ रीते जोके आत्मा रागादिकनो अकारक ज छे) तोपण ज्यां सुधी ते निमित्तभूत द्रव्यने (-परद्रव्यने) प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी (अर्थात् ज्यां सुधी निमित्तभूत द्रव्यनुं प्रतिक्रमण तथा पचखाण करतो नथी) त्यां सुधी नैमित्तिकभूत भावने (-रागादिभावने) प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी, अने ज्यां सुधी भावने प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी त्यां सुधी कर्ता ज छे; ज्यारे निमित्तभूत द्रव्यने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे त्यारे ज नैमित्तिकभूत भावने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे, अने ज्यारे प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे त्यारे साक्षात् अकर्ता ज छे.

भावार्थः– अतीत काळमां जे परद्रव्योनुं ग्रहण कर्युं हतुं तेमने वर्तमानमां सारां जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा, तेमना प्रत्ये ममत्व रहेवुं, ते द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे अने ते परद्रव्योना निमित्ते जे रागादिभावो थया हता तेमने वर्तमानमां भला जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा, तेमना प्रत्ये ममत्व रहेवुं, ते भाव-अप्रतिक्रमण छे. तेवी रीते आगामी काळ संबंधी परद्रव्योनी वांछा राखवी, ममत्व राखवुं, ते द्रव्यअप्रत्याख्यान छे अने ते परद्रव्योना निमित्ते आगामी काळमां थनारा जे रागादिभावो तेमनी वांछा राखवी, ममत्व राखवुं, ते भाव-अप्रत्याख्यान छे. आम द्रव्यअप्रतिक्रमण ने भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान ने भाव-अप्रत्याख्यान


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-एवो जे अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो बे प्रकारनो उपदेश छे ते द्रव्य-भावना निमित्त-नैमित्तिकभावने जणावे छे. माटे एम ठर्युं के परद्रव्य तो निमित्त छे अने रागादिभावो नैमित्तिक छे. आ रीते आत्मा रागादिभावोने स्वयमेव नहि करतो होवाथी ते रागादिभावोनो अकर्ता ज छे एम सिद्ध थयुं. आ प्रमाणे जोके आ आत्मा रागादिभावोनो अकर्ता ज छे तोपण ज्यां सुधी तेने निमित्तभूत परद्रव्यनां अप्रतिक्रमण- अप्रत्याख्यान छे त्यां सुधी तेने रागादिभावोनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे, अने ज्यां सुधी रागादिभावोनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे त्यां सुधी ते रागादिभावोनो कर्ता ज छे; ज्यारे ते निमित्तभूत परद्रव्यनां प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करे त्यारे तेने नैमित्तिक रागादिभावोनां पण प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान थई जाय छे, अने ज्यारे रागादिभावोनां प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान थई जाय छे त्यारे ते साक्षात् अकर्ता ज छे.

*
समयसार गाथा २८३ थी २८पः मथाळुं

हवे पूछे छे के आत्मा रागादिकनो अकारक ज शी रीते छे? तेनुं समाधान (आगमनुं प्रमाण आपीने) करे छेः-

* गाथा २८३ थी २८प टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे; कारण के जो एम न होय तो (अर्थात् जो आत्मा पोताथी ज रागादिभावोनो कारक होय तो) अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि.’

जरी झीणो अधिकार छे, (माटे) ध्यान दईने सांभळवुं. प्रभु! कहे छे-शुद्ध चिदानंदरसकंद प्रभु आत्मा पोते पोताना स्वभावथी रागादि विकारपणे थतो नथी. अहाहा...! एक जाणग-जाणग-जाणग जेनो स्वभाव छे एवो एक ज्ञायक स्वभावमय आत्मा रागादि विकारनो पोताथी कर्ता थाय एम छे नहि. अंतर स्वभावथी-... ‘आत्मना’ एम छे ने? मतलब के अंतरस्वभावथी आत्मा रागादिकनो अकारक ज छे. ल्यो, आवी सूक्ष्म वात!

अरे! अनंतकाळथी ए दुःखी छे, दुःखथी दाझेलो छे. जेम अग्निना अंगाराथी शरीर बळे तेम ए पुण्य-पापरूप कषायने करनारो नथी. आत्मानो स्वभाव तो एकलो ज्ञान ने आनंदरूप छे. ते रागने केम करे? आ दया, दान, व्रतादि व्यवहारना विकल्प होय छे ने? भगवान आत्मा एनोय स्वभावथी कर्ता नथी, अकारक ज छे.

प्रश्नः– आवो स्वभाव छे तो एने राग केम थाय छे? उत्तरः– ए परनुं लक्ष करे छे ने? परनो हुं स्वामी छुं एम मानीने परनुं


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लक्ष करे छे ते एने विकारनुं-रागादिनुं कारण छे. पोतानुं स्वरूप छे एनो स्व-स्वामी संबंध न करतां जे स्वरूपमां नथी एवा परद्रव्यो ने पुण्य-पापना भावोमां स्वामित्वनी प्रतीति करे छे तेथी एने राग थाय छे ने बंधन थाय छे; एमां परद्रव्य निमित्त कारण छे. निमित्त कारण छे एटले एम नहि के परद्रव्य एने निमित्तकारण थईने राग करावे छे, पण पोते परद्रव्यना लक्षे परिणमे छे तेथी राग थाय छे एम अर्थ छे. समजाणुं कांई...?

अहिं कहे छे-आत्मा स्वभावथी रागादिनो अकारक ज छे. हवे तेनुं कारण आपे छे के जो एम न होय अर्थात् जो आत्मा पोताथी ज रागादिभावोनो कारक होय तो अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि. शुं कीधुं? के आत्मा स्वभावथी ज जो शुभाशुभ भावोनो कर्ता होय तो भगवाने, द्रव्य-भावनुं प्रतिक्रमण कर, द्रव्य-भावनुं प्रत्याख्यान कर-एम जे बे प्रकारे (द्रव्यभावनो) उपदेश कर्यो छे ते बनी शके नहि. द्रव्य एटले संयोगी चीज ने भाव एटले शुभाशुभ विकार-एम बेयथी पाछा फरवानो ने बेयना पचखाणनो जे भगवाननो उपदेश छे ते बनी शके नहि केमके आत्मा स्वभावथी ज रागादिनो कारक होय तो ते रागादिथी केवी रीते पाछो फरे? एनुं पचखाण केवी रीते करे?

खरेखर तो बेयथी (द्रव्य ने भावथी) पाछुं हटवुं-एवो भगवाननो उपदेश छे. पण रागादिनो जो आत्मा खरेखर कर्ता होय तो एनाथी पाछुं हठवुं होई शके नहि. आ न्यायनो जरी झीणो विषय छे.

पहेलां कह्युं के आत्मा त्रिकाळी ध्रुव एकलो चैतन्यबिंब प्रभु रागद्वेषादि विकारना भावोनो पोताना स्वभावथी अकारक ज छे. हवे कहे छे-जो एम न होय तो, भगवानना उपदेशमां जे एम आव्युं के-भाव एटले शुभाशुभ विकार अने द्रव्य एटले ए विकारनुं निमित्त बाह्यचीज-ए बेयथी पाछो हठ-ए बनी शके नहि. विकार जो एनुं स्वरूप ज होय तो एनाथी पाछा हठवानुं केम बनी शके?

शुं कीधुं? आमां न्याय समजाय छे? जे संयोगी चीज विकारमां निमित्त छे तेने द्रव्य कहीए अने पर्यायमां जे विकार छे तेने भाव कहीए. हवे भगवाने उपदेशमां एम कह्युं के द्रव्य-भाव बेयथी खसी जा, अर्थात् विकारनुं निमित्त जे बाह्यचीज एनाथी खसी जा ने विकारथीय हठी जा. परंतु आत्मा जो स्वभावथी ज विकारनो ने निमित्तनो कर्ता होय तो ‘एनाथी, पाछो हठी जा’ -एम उपदेश होई शके नहि. माटे एम नक्की थयुं के विकार ने विकारना निमित्तनुं करवापणुं स्वभावथी आत्माने छे ज नहि अर्थात् आत्मा अकारक ज छे; अने तेथी ज द्रव्य-भाव-बेयथी पाछो हठी जा एम भगवाननो उपदेश छे. समजाणुं कांई...?


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हवे आ वाणियाने हाथ पडयो जैनधर्म! बिचारा वेपार आडे नवरा पडे तो आनो विचार करे ने? आखो दि’ आ भावे लीधुं ने आ भावे दीधुं ने आटलुं कमाणो- बस एना सिवाय बीजो (-तत्त्वनो) विचार ज न होय त्यां शुं थाय? पण भाई! आ समजवुं पडशे हों. तारा रूपिया तो कयांय तिजोरीमां रहेशे अथवा अन्य अवस्थाए रहेशे, आ देह बळीने खाख थशे ने तुं कयांय चाल्यो जईश हों. बधुंय फरी जशे भाई! क्षेत्र फरी जशे, काळ फरी जशे, भव फरी जशे ने भाव फरी जशे. भगवान! तुं कयां जईश? अहीं तो मोटो करोडपति शेठ होय ने मरीने अररर! वांदरी ने कुतरीने पेटे जाय! शुं थाय? मांस-दारूनुं सेवन होय नहि एटले नरके तो न जाय पण माया-कपट ने आडोडाई घणी होय एटले आडोडाईमां जाय. आडोडाई एटले आ ढोरना शरीर आम आडां होय छे एमां जाय.

धर्म तो कर्यो न होय ने स्वाध्याय आदिय न करे एटले पुण्यनांय ठेकाणां न होय अने धूळ-पैसा कमावामां खूब कूड-कपट-माया करे एटले मरीने ढोरमां-तिर्यंचमां ज जाय. माटे कहे छे-भाई! ए प्रपंचना भाव छोडीने स्व-स्वरूपमां उद्यमी था. तारो भगवान ए प्रपंचना भावोथी भिन्न छे. माटे प्रपंचना भावोथी अने एनां बाह्य निमित्तोथी हठी जा. अहा! ए रागद्वेषादि भावो परलक्षे कृत्रिम ऊभा थया छे; भगवान आत्मा एनो खरेखर कर्ता नथी; जो कर्ता होय तो ‘एनाथी हठी जा’ एवो भगवाननो जे उपदेश छे ते ज न होई शके. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो जे खरेखर द्रव्य अने भावना भेदे द्विविध (बे प्रकारनो) उपदेश छे ते, द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको, आत्माना अकर्तापणाने ज जणावे छे.’

शुं कीधुं? के विकारनो भाव ते नैमित्तिक छे ने बाह्यवस्तु जे स्त्री-पुत्र-परिवार, धन, वेपार-धंधो वगेरे ते निमित्त छे. ए बेने परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. त्यां ए निमित्त छे तो विकार थयो एम नथी, अने विकार थयो माटे निमित्त-त्यां आव्युं एमेय नथी. पोते पोताना स्वभावने भूलीने विकारभाव करे छे त्यारे त्यां बीजी चीज सामे निमित्त होय छे बस. आवो विकारने ने बीजी चीजने निमित्त-नैमित्तिक संबंध होय छे.

अहा! आ पुण्य-पापना जे असंख्य प्रकारे विकारी भाव छे ए नैमित्तिक छे अने बाह्यचीजो एमां निमित्त छे. ए निमित्तने द्रव्य कीधुं ने विकारने भाव कीधो. ए द्रव्य अने भावने निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. ए बेयनो संबंध छोड एम कहे छे; कारण के ए निमित्तना लक्षे थयेला विकारो ए कांई वास्तविक-साचुं आत्म स्वरूप नथी. ‘एनाथी (बेयथी) पाछो हठ’ -ए उपदेशनो अर्थ ज ए छे के


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विकारनो कर्ता आत्मा छे नहि. ए अज्ञानभावे एनो कर्ता पोताने माने छे ए बीजी वात छे. ल्यो, हवे आवुं झीणुं! ए बेयथी हठवुं एनुं नाम प्रतिक्रमण. बाकी सवार-सांज ‘पडिक्कमामि भंते’ ईत्यादि भणी जाय ए तो धूळेय पडिक्कमण नथी. ए तो रागना परिणाम छे अने एनो कर्ता थाय छे ए तो अपडिक्कमण छे.

अहीं द्रव्यथी-बाह्य निमित्तथी हठवानुं कहे छे कारण के एना तरफनुं एने लक्ष छोडाववुं छे. बाह्य निमित्तथी हठी जा एनो अर्थ एम के निमित्तनुं लक्ष छोडी दे तो तारो भाव (-विकार) पण छूटी जशे, अने तुं तारा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावमां आवीश. ल्यो, आनुं नाम धर्म ने आ पडिक्कमण छे. अहा! आवो उपदेश द्रव्य ने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको आत्माना अकर्तापणाने ज जणावे छे.

अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान बन्नेय बब्बे प्रकारनां छे. एक तो द्रव्यनुं एटले परद्रव्यनुं लक्ष अने बीजुं भावनुं एटले परद्रव्यना लक्षे थता विकारनुं आवुं बेपणुं एनी पर्यायमां छे, पर्यायना संबंधमां छे, पण वस्तुना स्वभावमां नथी. तेथी पर्यायमां छे एनो त्याग कराव्यो छे केमके ए त्याग थई शके छे, जो स्वभावमां होय तो त्याग थई शके नहि अने एनो उपदेश पण बनी शके नहि. ए बे प्रकारनो उपदेश द्रव्य ने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको आत्मा अकर्ता छे एम सिद्ध करे छे. केवो सरस न्याय आप्यो छे!

भाई! ए द्रव्य ने भावनुं अप्रतिक्रमण अने द्रव्य ने भावनुं अप्रत्याख्यान तारी पर्यायमां छे. ते वर्तमान कृत्रिम छे, तेने छोड केमके ए तारो स्वभाव नथी. परद्रव्यना लक्षमां जवुं अने एना लक्षे विकार करवो ए (तारुं) वस्तुस्वरूप नथी, वस्तुए तो तुं अकर्ता छो भगवान!

अहाहा...! सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकीनाथ परमात्मा एम कहे छे के-तुं अकारक छो ने प्रभु! जेवो हुं छुं तेवो तुं अंदर आत्मा छो ने नाथ! हुं जेम जगतनो जाणनार- देखनार छुं तेम तुं पण जगतनो जाणनार-देखनार छो ने! अहा! आ पुण्य ने पापनुं लक्ष जाय ए तारो अकृत्रिम स्वभाव नथी. अहा! तुं परलक्षमां जाय ने विकार करे ए कांई तारुं स्वरूप छे? (ना.) भगवान! तुं एनाथी भिन्न निराळी चीज छो. अहा! तने अमारुं लक्ष थाय ए अपडिक्कमण छे, अप्रत्याख्यान छे, केमके अमे परद्रव्य छीए अने परद्रव्यना लक्षे राग ज थाय छे. माटे परद्रव्यना लक्षथी ने रागथी हठी जा. ल्यो, हवे आवो उपदेश अने आवो मारग! बीजे कयांय छे नहि.

अहीं निमित्त ने नैमित्तिक भाव बेयने छोड एम कहेतां अंदर आत्मा स्वभावथी अकर्ता छे एम सिद्ध थाय छे. भगवाननो उपदेश एम आव्यो के-पडिक्कमण


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कर, पचकखाण कर; एटले के परवस्तु जे बाह्य निमित्त छे तेनो त्याग कर अर्थात् एनुं लक्ष छोडी दे जेथी तत्संबंधी भावनो पण त्याग थई जशे. अहीं एम कहेवुं छे के ज्यारे निमित्त-नैमित्तिक संबंधमां तुं छो तो ए भाव थाय छे, पण वस्तुस्वभावमां ए कांई छे नहि, तेथी वस्तुना-स्वना लक्षमां जतां निमित्त-नैमित्तिकभाव छूटी जाय छे. हवे कहे छे-

‘माटे एम नक्की थयुं के परद्रव्य निमित्त छे अने आत्माना रागादिभावो नैमित्तिक छे.

स्त्री-कुटुंब, धन-संपत्ति देव-गुरु-शास्त्र इत्यादि बाह्यवस्तु निमित्त छे अने तेना लक्षे-संबंधे थता आत्माना रागादि-पुण्य-पापना भावो नैमित्तिक छे. त्यां निमित्त- बाह्यवस्तु कांई नैमित्तिक भाव जे रागादि तेने करतुं-करावतुं नथी, तथा नैमित्तिकभाव जे रागादि ते निमित्तने लावतुं-छोडावतुं नथी. मात्र निमित्त उपर द्रष्टि राखी परिणमे छे तो नैमित्तिक रागादिभाव थाय छे, अने निमित्त उपरथी द्रष्टि खसे छे त्यारे नैमित्तिक भाव परथी पण द्रष्टि खसे छे ने त्यारे बन्ने द्रष्टिमांथी छूटी जाय छे. आत्मा परनो- विकारनो स्वभावथी कर्ता छे नहि माटे विकार छूटी जाय छे, जो कर्ता होय तो कदीय छूटे नहि.

हवे कहे छे-परद्रव्य निमित्त छे अने आत्माना रागादिभावो नैमित्तिक छे; ‘जो एम न मानवामां आवे तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण अने द्रव्य-अप्रत्याख्याननो कर्तापणाना निमित्त तरीकेनो उपदेश निरर्थक ज थाय.’

ए परनुं लक्ष छोड ने परना लक्षे थता विकारने छोड-एवो भगवाननो उपदेश छे. अहाहा...! भगवान एम कहे छे के-अमारा प्रत्येनुं लक्ष पण तुं छोडी दे. जुओ, ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी धर्मीने पण देव-गुरु आदि परद्रव्यना लक्षनो शुभभाव आवे छे, पण वास्तवमां ए अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान छे, ए कांई स्वरूपनुं वास्तविक साधन नथी.

परद्रव्य जे स्त्री-कुटुंब-परिवार आदि ए तो पापनां निमित्त छे, अने देव- गुरु-शास्त्र आदि पुण्यनां निमित्त छे, ए बेयनुं प्रतिक्रमण कराव्युं छे. ए बेय द्रव्य ने भावना भेदे अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो परस्पर संबंध (निमित्त- नैमित्तिक संबंध) कई रीते छे ते बतावीने एम कहे छे के-भगवान! तुं अकारक छो, माटे ए बेयने द्रष्टिमांथी छोडी दे. अहा! आ नैमित्तिक जे पुण्य-पापना भाव एनो संबंध परवस्तु-निमित्त साथे छे, तेथी एनुं पडिक्कमण कर, पचखाण कर, अर्थात् पर तरफनुं लक्षने लक्षवाळो भाव-बेयने छोडी दे. अहा! ए बाह्यवस्तु अने एना लक्षे थतो विकारनो भाव ए तारा घरनी-स्वभावनी चीज नथी. अहा! ए


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तारा त्रिकाळी शुद्ध अस्तित्वमां छे ज नहि, माटे ए बेयथी पाछो फर ने बेयने छोडी दे.

जुओ, आ बंध अधिकार छे. एमां अहीं एम वात लीधी छे के आत्मा खरेखर स्वभावथी अकारक ज छे. परंतु स्व-द्रव्यने छोडीने ते ज्यां सुधी परद्रव्यना लक्षे परिणमे त्यां सुधी तेने रागादि विकार थाय छे अने तेथी तेने बंध पण थाय छे. त्यां परद्रव्य छे ते निमित्त छे; अने एना लक्षे थयेलो विकारी भाव छे ते नैमित्तिक छे. ए बेने निमित्त-नैमित्तिक संबंध एक समयनी पर्यायमां छे, पण बेय वस्तु-आत्माना स्वभावमां नथी. आत्मानो स्वभाव जो विकाररूप थवानो होय तो विकार ने विकारना निमित्तोथी खसवानुं एने कदीय बने नहि; अने तो द्रव्यभावरूप अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान छोड एवो भगवाननो उपदेश निरर्थक ज थाय. पण एम छे नहि, केमके विकार-रागद्वेषादि भावो नैमित्तिक छे, स्वभाव-भाव नथी; स्वभावना लक्षे ते अवश्य छोडी शकाय छे.

जेमके कुदेव-कुगुरु आदि परद्रव्यना लक्षे जीव परिणमे त्यां सुधी तेने मिथ्यात्वादि भावो थाय ज अने तेनी बंध पण थाय ज. पण कुदेव-कुगुरु आदि परद्रव्यनुं लक्ष छोडे, एना लक्षे थता विभावनुं लक्ष छोडे अने स्वलक्षमां जाय त्यां द्रव्य-भाव-बेयनुं प्रतिक्रमण थाय छे अने ए धर्म छे, झीणी वात छे भाई!

जेणे धर्म करवो छे एणे पोतानुं लक्ष फेरववुं जोईए. अहा! अनादिथी परद्रव्यना अने विकारना लक्षे परिणमी रह्यो छे पण एथी तो रागद्वेषादि विकार-अधर्म ज थाय छे. तेथी त्यांथी लक्ष फेरवी स्वमां लक्ष करवुं जोईए, केमके स्वस्वरूपमां परद्रव्य निमित्तेय नथी अने नैमित्तिक विभावेय नथी. अहाहा...! परद्रव्यनिमित्त अने एना लक्षे थता विकारी परिणाम-ए बेयना अभावस्वभावरूप भगवान आत्मानो स्वभाव छे; अने तेथी द्रव्य-भावरूप बेयनुं प्रतिक्रमण अने प्रत्याख्याननो भगवाननो उपदेश छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! भगवान कहे छे-कुदेव, कुगुरु ने कुशास्त्रनुं लक्ष छोड, स्त्री-कुटुंब, परिवार आदिनुं लक्ष छोड अने साचा देव-गुरु-शास्त्रनुंय लक्ष छोड (एम सर्व परद्रव्यनुं लक्ष छोड); अने परना लक्षे थता विकारने पण छोड. आम द्रव्य ने भाव- बेयने भगवान छोडावे छे. एनो अर्थ शुं थयो? के नहि छोडवारूप भाव जे तारी पर्यायमां पडयो छे ते तारो स्वभाव नथी. अहाहा...! परद्रव्येय तारो स्वभाव नथी ने परभावेय तारो स्वभाव नथी. तारो तो प्रभु? एक ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. परना लक्षमां रहेवुं ने रागनुं-विकारनुं करवुं ए एमां (-स्वभावमां) छे ज नहि. माटे ए बेयथी (परद्रव्य ने परभावथी) खसी जा अर्थात् अंदर स्वभावमां जा, स्वभावमां वस ने त्यां ज स्थित था.


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व्यवहार-दया, दान, भक्तिना विकल्पो पण भगवान! तारुं कर्तव्य नथी, केमके पर उपर लक्ष जाय त्यारे ए विकल्पो थाय छे. आ जीवनी दया पाळुं, आने हुं आम पैसा, आहार आदि दईने सुखी करुं-एम पर तरफ लक्ष जाय छे त्यारे ए विकल्पो थाय छे. त्यां पर उपरनुं लक्ष अने तेथी थता विकल्प ए बेयनुं करवुं ते एनी दशामां अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान छे. तेथी आ भगवाननो उपदेश छे के ए बेयने छोडी दे, द्रव्य ने द्रव्यना लक्षे थता विकारी भाव ए बेयने छोडी दे; केमके ए बेयने छोडी दे एवो तारो अंदर शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. भाई! आ हितनी वात छे. ‘श्रीमद् राजचंद्र’ मां एक पद आवे छे के-

जिन सो ही है आत्मा, अन्य सो ही है कर्म;
यही वचनसे समज ले, जिनप्रवचनका मर्म;

भगवान आत्मा सदा जिनस्वरूप-वीतरागस्वरूप ज छे; अने कर्म नाम पुण्य- पापना भाव बधुं अन्य एटले पर-अजीव छे. पुण्य-पापमां आत्मा नहि, अने आत्माना स्वभावमां पुण्य-पाप नहि. अहा! पुण्य-पापना भाव तो परना लक्षे थता नैमित्तिक भाव छे अने ते स्वभावना लक्षे छोडवा योग्य छे. ल्यो, आवो उपदेश छे.

अहीं एम कहे छे के-जो परद्रव्योने ने आत्माना रागादिभावोने परस्पर निमित्त- नैमित्तिकपणुं न मानवामां आवे तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण एटले परनुं लक्ष न छोडवुं ने द्रव्य-अप्रत्याख्यान एटले परनो त्याग न करवो एवा अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यानना भावने छोडी देवानो जे भगवाननो उपदेश छे ते निरर्थक ज थाय; भगवानना उपदेशनी सार्थकता ज न रहे. द्रव्य-अप्रतिक्रमण भाव-अप्रतिक्रमणनो निमित्तकर्ता छे, ने द्रव्य अप्रत्याख्यान भाव-अप्रत्याख्याननो निमित्तकर्ता छे-एम जो न मानवामां आवे तो द्रव्य ने भाव एम बे प्रकारना अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यानने छोडवानो भगवाननो जे उपदेश छे ते निरर्थक ज थाय अर्थात् एवो उपदेश होई शके ज नहि. हवे कहे छे-

‘अने ते निरर्थक थतां एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडतां नित्यकर्तापणानो प्रसंग आववाथी मोक्षनो अभाव ठरे.’

जोयुं? विकारना भावो छे ते आत्मानी दशामां नैमित्तिक छे अने तेमां परद्रव्य निमित्त छे. ए बेयनो निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे ते छोडाववो ईष्ट छे. तेथी भगवाने उपदेशमां बेयनुं-द्रव्य ने भावनुं-जे अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान पर्यायमां छे ते छोडाव्युं छे, एटले के बेयनुं-द्रव्य ने भावनुं प्रतिक्रमण ने प्रत्याख्यान कराव्युं छे; भगवान एम ज कहे छे के- राग ने रागना लक्षवाळुं तत्त्व ते आत्मा


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नहि, एनाथी धर्म नहि, सुख नहि. आ तो आत्मा अंदर अनंतगुणमंडित चैतन्यमहाप्रभु छे एने परना लक्षथी अने परना लक्षे थता विकारथी छोडावीने स्वभावमां लई जवा माटे उपदेश छे; केमके स्वभावमां जाय त्यारे एने धर्म ने सुख थाय छे. आवी वात छे.

हवे आ रीते जे उपदेश छे ते निरर्थक जाय तो शुं थाय? शुं दोष आवी पडे? तो कहे छे-एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडतां नित्यकर्तापणानो प्रसंग आवी पडे अने तेथी मोक्षनो अभाव ठरे.

अहाहा...! आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु शुद्ध एक त्रिकाळी द्रव्य छे; अने राग ने रागनुं लक्ष जे परद्रव्य-एनाथी ए भिन्न छे. तथापि राग अने रागना लक्षवाळुं तत्त्व जो एनुं स्वरूप होय वा एनो ए कर्ता होय तो ए सदाय विकार कर्या ज करे अर्थात् कदीय ए विकाररहित थई शके नहि, विकारथी कोई दि’ पाछो हठे नहि. रागादिभावोनुं निमित्त भिन्न परद्रव्य ज छे एम जो न मानवामां आवे तो एक आत्माने ज रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडे, अने एम होतां तेने रागनुं नित्यकर्तृत्व आवी पडतां ते कदीय रागरहित थई शके नहि. अहा! आत्मा परथी पाछो हठे एवो जो एनो स्वभाव न होय अने रागनो कर्ता ने परना लक्षमां ज रहेवानो जो एनो स्वभाव होय तो ते सदाय विकार कर्या ज करे अने संसारमां रखडया ज करे; कोई दि’ एने रागरहित थवानो प्रसंग आवे ज नहि.

भगवान आत्मा त्रिकाळ मोक्षस्वरूप-वीतरागस्वरूप ज छे. स्वभावथी ते रागादिनो अकारक ज छे. तेथी रागादि विकार ने विकारना लक्षथी-बेयथी रहित थवानो भगवाननो उपदेश छे. पण ए उपदेश निरर्थक थतां एक आत्माने ज पुण्य-पापभावोनुं कर्तापणुं आवी पडे. अने ए प्रमाणे जो रागना कर्तापणानुं एने कारकत्व होय तो कोईदि’ एने मोक्षस्वरूप पोते जे शक्तिए छे एनी व्यक्तता न थाय. अने विकारी थईने, दुःखी थईने चारेय गतिमां रखडया ज करे. चारेय गति दुःखरूप छे भाई! एक मोक्षदशा-वीतराग दशा ज परम सुखरूप छे. पण आत्माने ज जो रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडे तो एने विकारहित सम्यग्दर्शनेय थाय नहि तो मोक्ष तो केम थाय? आ प्रमाणे एने मोक्षनो अभाव ठरे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– पण आमां करवानुं शुं? ए तो कांई आवतुं नथी. (एम के दया, दान, व्रत, भक्ति करवानुं तो आवतुं नथी.)

समाधानः– भाई! अंदर समजवानुं ए करवानुं छे. राग ने पुण्य-पापना भाव ने एनुं लक्ष-ए बेयने छोडीने आ बाजु अहिं आत्मामां ढळवुं ए करवानुं छे. विभाव ने विभावना निमित्तोनुं लक्ष छोडी स्वभावसन्मुख थवुं ए करवानुं छे.


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रागथी विमुख थई स्वभावसन्मुख थवुं-ए सार छे. बाकी दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादिना राग ए कांई करवायोग्य कर्तव्य नथी. जेने छोडवुं छे ते करवा योग्य केम होय?

अहाहा...! परद्रव्य निमित्त अने एना लक्षे थता रागादिभावो नैमित्तिक एम परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध बतावीने बेयनो भगवानना उपदेशमां निषेध कर्यो ने भगवान आत्माने अविकारी अकारक स्वभावमां स्थाप्यो. हवे कहे छे-जो एम न होय तो आत्मा पोते स्वभावथी ज कारक ठरी जाय एवो दोष आवे; ने जो ते कारक ठरे तो नित्य रागादि विकार ज कर्या करे, दुःखी ज थया करे, कदीय दुःखथी मुक्त थई शके नहि.

‘माटे परद्रव्य ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्त हो. अने एम होतां, आत्मा रागादिनो अकारक ज छे- एम सिद्ध थयुं.’

आ शुं कीधुं? के परद्रव्य ज आत्माने विकारनुं निमित्त-कारण छे, स्वद्रव्य नहि. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यमूर्ति चिदानंदरसकंद प्रभु आत्मा विकार थवामां निमित्तकारण नथी पण परद्रव्य ज एने विकारनुं निमित्त छे. एने परद्रव्य तरफ लक्ष जाय छे माटे विकार थाय छे, माटे परद्रव्य ज विकारनुं निमित्त छे. अष्टपाहुडमां आवे छे के- ‘परदव्वादो दुग्गइ’ पोताना स्वद्रव्य सिवाय परद्रव्यमां लक्ष जाय छे ए ज शुभाशुभ भावनुं कारण छे, ए ज जीवने दुर्गतिनुं कारण छे.

‘परद्रव्य ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्त हो’ -जुओ, आमांथी केटलाक एम काढे छे के आत्माने परद्रव्य रागद्वेष करावे छे; पण एम मानवुं बराबर नथी. ज्यारे पोते रागादि भाव करे त्यारे एनुं लक्ष परद्रव्य-निमित्त तरफ होय छे बस एटलुं परद्रव्यना लक्षे परिणमतां रागादि थाय छे माटे रागादिनुं निमित्त परद्रव्य छे एम कह्युं छे. मूळ तो रागनुं स्वामीपणुं एने छे ए परद्रव्य छे, अने एनुं (रागनुं) स्वामीपणुं ज खरेखर एने विकारनुं कारण छे. आ प्रमाणे परद्रव्य ज आत्माने पुण्य-पाप आदि विकारी भावोनुं कारण-निमित्त छे. आम होतां आत्मा पोते पोताथी रागादिनो अकारक ज छे एम सिद्ध थयुं. जुओ, आ टीकानी शरूआतमां कह्युं हतुं ए सिद्ध कर्युं.

आ रीते भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु रागादिनो अकारक ज छे. रागादिनुं मूळ कारण तो परवस्तुनुं निमित्तपणुं ने स्वामीपणुं छे. राग ने रागना लक्षवाळा द्रव्यो-ए बे तरफनुं स्वामीपणुं छूटयुं त्यारे आत्मा स्वभावनो स्वामी थयो अने त्यारे ते रागादिनो अकारक भगवान ज्ञाता-द्रष्टा जणायो. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे.


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प्रश्नः– आनाथी बीजो कोई सहेलो मारग छे के नहि? उत्तरः– आ ज सहेलो छे; जे रीते होय ते रीते सहेलो होय के जे रीते न होय ते रीते सहेलो होय? भाई! मारग आ ज छे, ने आ ज सहेलो छे.

हवे कहे छे- ‘तोपण ज्यां सुधी ते निमित्तभूत द्रव्यने (-परद्रव्यने) प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी त्यां सुधी नैमित्तिकभूत भावने (-रागादि भावने) प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी, अने ज्यां सुधी भावने प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी त्यां सुधी कर्ता ज छे.;...’

जुओ, शुं कीधुं? ‘तोपण...’ एटले के आत्मा स्वभावथी तो अकारक ज छे तोपण ज्यां सुधी ते निमित्तभूत परद्रव्यने प्रतिक्रमतो नथी, पचखतो नथी अर्थात् परद्रव्यना लक्षथी हठतो नथी अने एनुं लक्ष छोडतो नथी त्यां सुधी ते नैमित्तिकभूत रागादि भावने प्रतिक्रमतो नथी, पचखतो नथी. अहा! ते अनादिथी परद्रव्यना लक्षमां दोराई गयो. ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु पोते छे तेमां न आवतां परद्रव्य-निमित्तमां ए घेराई गयो छे. आ करुं ने ते करुं, दया पाळुं ने व्रत करुं ने पूजा करुं ने भक्ति करुं- एम परद्रव्यना लक्षे ए गुंचाई पडयो छे. अने ए प्रमाणे निमित्तभूत परद्रव्यना लक्षथी ज्यां सुधी ते हठतो नथी त्यां सुधी नैमित्तिक रागादिथी पण ते हठतो नथी. अहा निमित्तनुं लक्ष ए छोडतो नथी तो एना संबंधे थता विकारने पण ए छोडतो नथी. आवी वात छे!

अहा! ते स्व-लक्ष करतो नथी ने परना लक्षमां जाय छे तो अवश्य तेने विकार थाय ज छे. ज्यां सुधी पर-लक्षथी पाछो फरतो नथी त्यां सुधी नैमित्तिक विकारथी पण ते पाछो फरतो नथी.

आमां आव्युं ने? के- ‘ज्यां सुधी निमित्तभूत परद्रव्यने छोडतो नथी...’ हवे एमांथी लोको एम अर्थ काढे छे के परद्रव्यने छोडो तो परद्रव्यना संबंधनो विकार छूटी जशे; माटे परद्रव्य छोडो, छोडो एम कहे छे. परंतु अहीं तो परद्रव्यनुं लक्ष छोडे त्यारे एना लक्षे जे विकार थतो हतो एने पण छोडे छे-एम कहेवुं छे. ल्यो, आवो फेर छे. समजाणुं कांई...! शरीरादि परद्रव्यने छोडवुं नथी पण एनुं लक्ष छोडवुं छे एम वात छे. (परद्रव्य तो छूटुं ज छे).

अहाहा...! कहे छे-ज्यां सुधी निमित्तभूत परद्रव्यने (एनुं लक्ष) प्रतिक्रमतो नथी, पचखतो नथी त्यां सुधी ते नैमित्तिक पुण्य-पापना भावने प्रतिक्रमतो नथी, पचखतो नथी; अहा! परद्रव्यनुं लक्ष रहे त्यां सुधी तो शुभाशुभ विकार ज थाय. अने ज्यांसुधी ते विकारना भावने प्रतिक्रमतो नथी, पचखतो नथी त्यां सुधी ते कर्ता ज छे. अहा! अज्ञानी रागद्वेष-भावोनो कर्ता ज छे. वस्तुनो स्वभाव अकर्ता


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छे, पण निमित्त अने निमित्तना लक्षे थता विकारने ज्यां सुधी पचखतो नथी त्यां सुधी ते कर्ता ज छे.

पहेलां (कर्तानी) ना पाडी हती के आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे. ए तो द्रव्यस्वभाव कह्यो. हवे (पर्याय) कहे छे के ज्यां सुधी ते स्वद्रव्यना लक्षमां आवतो नथी अने परद्रव्यना ज लक्षमां रहे छे त्यां सुधी ते परद्रव्यना लक्षे थता रागद्वेषमोहादि भावोने छोडतो नथी अने तेथी त्यांसुधी ते कर्ता ज छे. ज्यां सुधी स्वभावमां आवतो नथी त्यांसुधी कर्ता ज छे. आवो वीतरागनो मारग बहु झीणो बापु! पण एनुं फळ अनंत आनंद ने अनंत सुख छे. अहाहा...! पोते अंदर आनंदधाम प्रभु छे; एमां- निजानंदरसमां लीन थईने रहे एना आनंदनुं पूछवुं ज शुं?

‘ज्यारे निमित्तभूत द्रव्यने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे त्यारे ज नैमित्तिकभूत भावने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे, अने ज्यारे भावने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे त्यारे साक्षात् अकर्ता ज छे.’

जोयुं? ज्यारे ते विकारना निमित्तभूत परद्रव्यनुं लक्ष छोडे छे त्यारे ज ते नैमित्तिकभूत विकारने छोडे छे अने ज्यारे विकारना भावने छोडे छे त्यारे साक्षात् अकर्ता ज छे. स्वभावथी अकर्ता छे; ने निमित्त-नैमित्तिक संबंध छूटतां साक्षात् अकर्ता थाय छे.

अहीं निमित्तभूत परद्रव्यने पचखे छे एम कह्युं त्यां परद्रव्यने छोडवुं छे एम वात नथी. परद्रव्यने छोडे कोण? ए तो छूटुं ज पडयुं छे. परद्रव्यने कयां ग्रह्युं छे के छोडे? वास्तवमां आत्मा परद्रव्यना ग्रहण-त्याग रहित ज छे. अहीं तो निमित्तने छोडे छे एटले एनुं लक्ष छोडे छे-एम अर्थ छे. समजाणुं कांई...?

* गाथा २८३–२८४–२८पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अतीत काळमां जे परद्रव्योनुं ग्रहण कर्युं हतुं तेमने वर्तमानमां सारां जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा, तेमना प्रत्ये ममत्व रहेवुं, ते द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे अने ते परद्रव्योना निमित्ते जे रागादिभावो थया हता तेमने वर्तमानमां भला जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा तेमना प्रत्ये ममत्व रहेवुं, ते भाव-अप्रतिक्रमण छे.’

पूर्वे परद्रव्योनुं ग्रहण कर्युं हतुं एटले शुं? के आ शरीर, वाणी, ईन्द्रिय अने स्त्री-पुत्र परिवार, धनादि पर पदार्थोने पोताना मानी तेमना लक्षमां रह्यो हतो. ते सर्व परद्रव्योने वर्तमानमां सारा जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा अने तेमना प्रति ममत्व रहेवुं ते द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे. द्रव्य कहेतां परवस्तु ने अप्रतिक्रमण एटले एनाथी नहि खसवुं ते. अहा! परपदार्थोना लक्षथी हठवुं नहि, पाछा फरवुं


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नहि ते द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे. पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्ताने छोडीने पूर्वे ग्रह्या हता ते परमां-शरीरादि पदार्थोमां रोकाई जवुं ते द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे.

अने शरीरादि पर पदार्थोना निमित्ते पूर्वे जे रागद्वेषना भाव थया हता तेमने वर्तमानमां भला जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा, वा ते मारा हता एम तेमां ममत्व रहेवुं ते भाव-अप्रतिक्रमण छे. अहा! पूर्वे जे परद्रव्योना लक्षे रागद्वेषादि भावो थया हता एनाथी वर्तमानमां पाछा न फरवुं, एनाथी खसवुं नहि एनुं नाम भाव-अप्रतिक्रमण छे. अहा! ते एने मोटुं मिथ्यात्वनुं पाप छे.

आम आ बधा लोकोनी सेवा करी ने आवा दान दीधां ने आम जीवोनी दया पाळी-एम जे परद्रव्योना लक्षे राग विकार थयो हतो तेने वर्तमानमां भलो जाणवो, तेना संस्कार रहेवा अने तेनुं ममत्व रहेवुं ए भाव-अप्रतिक्रमण छे. ल्यो, आवी आकरी वात! सवार सांज पाठ करता होय ने पडिक्कमणनो? ए संप्रदायना-वाडाना लोकोने आ आकरुं लागे; एम के अमे पाठ करीए ने ए पडिक्कमण नहि?

ए पडिक्कमण नहि बापा! ए तो एकलो राग छे भाई! पोते स्ववस्तु शुं? ने ए परवस्तु शुं? -एनुं हवे भानेय न होय एने पडिक्कमण केवुं? पूर्वे देव-गुरु-शास्त्र मळ्‌या हता; ए परद्रव्य हता. एना लक्षथी पाछो हटयो नथी ए द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे; अने एमने भला जाणीने एमना प्रति राग थयो हतो तेने वर्तमानमां भलो जाणीने एनाथी पाछो हटयो नथी ते भाव-अप्रतिक्रमण छे. आवी वात छे! समजाणुं कांई...? आ अतीत काळनी वात करी. हवे कहे छे-

‘तेवी रीते आगामी काळसंबंधी परद्रव्योनी वांछा राखवी, ममत्व राखवुं, ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे अने ते परद्रव्योना निमित्ते आगामी काळमां थनारा जे रागादिभावो तेमनी वांछा राखवी, ममत्व राखवुं ते भाव-अप्रत्याख्यान छे.’

हवे भविष्यमां शरीर सारुं रूपाळुं मळे तो ठीक, सामग्री अनुकूळ मळे तो ठीक- एवी भविष्यना परद्रव्यनी वांछा राखवी ने तेमां ममत्व करवुं ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे. भविष्यसंबंधी परद्रव्यनुं पचखाण नथी कर्युं ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे. अने पर-द्रव्यना निमित्ते आगामी काळमां थनारा पुण्य-पाप आदि भावोनी वांछा राखवी, भविष्यमां आवा शुभाशुभ भावो थाय तो ठीक एम विभावनी वांछा राखवी, एनुं ममत्व राखवुं ते भाव-अप्रत्याख्यान छे.

अहाहा...! आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु एकली पवित्रतानो पिंड छे. जेम पुद्गलनो स्कंध घणा रजकणोनो खंध-स्कंध छे तेम भगवान आत्मा अनंत अनंत गुणनो खंध नाम पिंड छे-अहा! एवी पोतानी निर्विकार निर्मळ पवित्र चीजने भूलीने


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आ शरीरादि परद्रव्य-जेनी साथे एने कांई संबंध नथी ते-मने भविष्यमां हो एवी ईच्छा करवी ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे. आ देव-गुरु-शास्त्रनुं लक्ष करीने भविष्यमां तेमनो मने संयोग हो-एम वांछा राखवी अने तेमनुं ममत्व करवुं ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे; अने तेना लक्षे जे शुभभावो थशे ते ठीक छे एम एनी वांछा करवी ते भाव- अप्रत्याख्यान छे.

‘आम द्रव्य-अप्रतिक्रमण ने भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान ने भाव-अप्रत्याख्यान-एवो जे अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्याननो बे प्रकारनो उपदेश छे ते द्रव्य-भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जणावे छे.’

अहा! अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो भगवाननो बे प्रकारनो उपदेश छे ते द्रव्य-भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जणावे छे. मतलब के जे रागद्वेषादि विकार पर्यायमां थाय छे तेनुं कारण आत्मा नथी, वा ते आत्मानो स्वभाव नथी. पण जे विकारना परिणाम छे ते नैमित्तिक छे अने जेना लक्षे ते विकार थाय छे ते परद्रव्यो निमित्त छे. आम द्रव्य जे परवस्तु-परद्रव्य अने तेना लक्षे पर्यायमां थतो जे विकार भाव ते बन्नेने निमित्त-नैमित्तिकपणुं छे. त्यां नैमित्तिक विकारने निमित्त उत्पन्न करे छे एम नहि, पण निमित्तना लक्षे नैमित्तिक भाव-विकारनो भाव उत्पन्न थाय छे. ए ज कहे छे के-

‘माटे एम ठर्युं के परद्रव्य तो निमित्त छे अने रागादिभावो नैमित्तिक छे.’ अहाहा...! आ रागादिभावो छे ते नैमित्तिक छे, परद्रव्यना-निमित्तना लक्षे उत्पन्न थयेला छे. तेने भगवान आत्मा साथे शुं संबंध छे? ते निमित्त जे परवस्तु छे एनी साथे संबंध राखवावाळा छे.

आ शरीर छे ते जगतनी धूळ छे, एनी साथे भगवान आत्माने कांई संबंध नथी; आ वाणी छे ते जगतनी धूळ छे. एनी साथे भगवान आत्माने कांई संबंध नथी; आ आठ कर्म जे अंदरमां छे ते जगतनी धूळ छे, तेनी साथे भगवान आत्माने कांई संबंध नथी. अहा! जगतनी प्रत्येक वस्तु भगवान आत्माथी संबंधरहित भिन्न छे. अने ते परवस्तुना-निमित्तना लक्षे उत्पन्न थयेला रागादि भावो नैमित्तिक होवाथी भगवान आत्माथी भिन्न छे. आवी वात छे!

अहा! परद्रव्य निमित्त छे, ने रागादिभावो नैमित्तिक छे. ‘आ रीते आत्मा रागादिभावोने स्वयमेव नहि करतो होवाथी ते रागादि भावोनो अकर्ता ज छे एम सिद्ध थयुं.’

जुओ, सहज एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवो शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी प्रभु आत्मा, कहे छे, स्वयमेव एटले पोते पोताना स्वभावथी ज रागादिभावो नहि


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करतो होवाथी रागादिभावोनो अकर्ता ज छे. अहाहा.....! आत्मा परद्रव्यने, परद्रव्यना लक्षने अने रागादिने करे एवो एनो स्वभाव ज नथी. तेथी ते रागादिभावोनो अकर्ता ज छे-एम सिद्ध थयुं. हवे कहे छे-

‘आ प्रमाणे जोके आ आत्मा रागादिभावोनो अकर्ता ज छे तोपण ज्यांसुधी तेने निमित्तभूत परद्रव्यनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे त्यांसुधी तेने रागादिभावोनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे, अने ज्यांसुधी रागादिभावोनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे त्यां सुधी ते रागादिभावोनो कर्ता ज छे.’

जुओ, आत्मा स्वभावे अकर्ता ज होवा छतां ज्यांसुधी एने भूतकाळ ने भविष्यकाळना परद्रव्यना लक्षनो त्याग नथी त्यां सुधी तेने नैमित्तिक रागादिभावोनुं पण अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे. अने ज्यांसुधी ते भूत-भविष्यना परद्रव्योसंबंधी थता रागद्वेषादि विकारना भावोने छोडे नहि त्यांसुधी ते रागद्वेषादि भावोनो कर्ता ज छे. अहा! ज्यांसुधी भूत ने भविष्य काळना विकारी भावोनो-पुण्य-पापना भावोनो एने प्रेम, संस्कार ने ममत्वनो भाव छे त्यांसुधी ते रागादिनो कर्ता ज छे. स्वभावे अकर्ता छे छतां विकारने ने परद्रव्यने भलां मानीने परिणमे छे त्यांसुधी अज्ञानभावे ते रागादिनो कर्ता ज छे.

‘ज्यारे ते निमित्तभूत परद्रव्यनां प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करे त्यारे तेने नैमित्तिक रागादिभावोनां पण प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान थई जाय छे, अने ज्यारे रागादिभावोनां प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान थई जाय छे त्यारे ते साक्षात् अकर्ता ज छे.’

अहाहा...! आत्मा गया काळना परद्रव्यना लक्षथी पाछो वळे अने भविष्यना परद्रव्यनो पण वर्तमानमां त्याग करे त्यारे तेने नैमित्तिक रागादिभावोनो द्रष्टिमांथी त्याग थई जाय छे अने आनंदकंद प्रभु आत्मानुं लक्ष ने ग्रहण थाय छे. ल्यो, भूत भविष्य संबंधी परद्रव्य ने परद्रव्यना निमित्ते थता विकार-एनो ज्यारे त्याग करे अर्थात् अप्रतिक्रमण छे एनुं प्रतिक्रमण करे त्यारे ते स्वभावमां आवे छे अने एने साचुं प्रतिक्रमण ने प्रत्याख्यान कहे छे. अहा! ज्यारे ते निमित्तभूत द्रव्य ने नैमित्तिक विकारने द्रष्टिमांथी छोडी स्वद्रव्यनुं लक्ष करे ने एनो आश्रय करे त्यारे तेने रागादिनां प्रतिक्रमण ने प्रत्याख्यान थाय छे अने त्यारे ते साक्षात् अकर्ता थाय छे.

अहाहा...! आ तो धर्म केम थाय एनी अलौकिक वातु छे बापा! शुं कहे छे? के परवस्तु ने परवस्तुना निमित्ते थतो विकार-भूतकाळ ने भविष्यकाळनो - ए बेय तरफथी पाछा हठी जवुं अने निर्विकार निज शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपमां सावधान थई लीन थवुं एनुं नाम समकित ने धर्म छे.

अहाहा...! आत्मा शुद्ध चैतन्यमय वस्तु छे ते एक समयमां पूरण ज्ञान ने


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आनंदनो सागर प्रभु छे. एमांथी खसी जईने, एनो आश्रय अने लक्ष कर्या विना अनादिथी एने भूतकाळना शरीरादि परद्रव्योना प्रेममां ठीक लाग्युं छे ते द्रव्य अप्रतिक्रमण छे; वळी ते परद्रव्योना निमित्ते तेने थता रागादिभावोमां तेने जे ठीक लागे छे ते भाव-अप्रतिक्रमण छे.

वळी तेवी रीते आ वज्रवृषभनाराच संहनन होय तो ठीक, केमके एनाथी केवळज्ञान थाय, अने भविष्ये मनुष्यभव होय तो भलो केमके एनाथी मुक्ति थाय-एम परद्रव्य प्रत्ये भविष्य माटेना संस्कार, ममता ते ठीकपणुं रहे ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे, अने ए परद्रव्योना निमित्ते जे रागादि भाव थशे तेमां ठीकपणुं ने ममता माने ए भाव-अप्रत्याख्यान छे. भविष्यना परद्रव्यो अने तेना निमित्ते थनारा रागादिथी पाछो हठयो नथी ते द्रव्य-भावरूप अप्रत्याख्यान छे.

भाई! आ बराबर समजवुं बापु! आ वारंवार घूंटी-घूंटीने तो कहेवाय छे. पण शुं थाय? जेने संसारनो अधिक रस होय तेने आनो (-आत्मानो) रस लागे नहि. बिचाराने बधुं लुखुं-लुखुं लस लागे. पण भाई! आ जीवन (-अवसर) जाय छे हों. हमणां जो ना समज्यो तो क्यारे समजीश? (पछी अनंतकाळेय अवसर नहि मळे).

अरे! एणे अनंतकाळमां स्व ने पर शुं छे? -एनी भिन्नता जाणी नथी. एणे परमां सदाय एकता मानी छे. परद्रव्य ने परद्रव्यना निमित्ते थता रागादि विकार साथे एणे एकता करी राखी छे. पण बापु! ए मिथ्याभाव छे, जूठो भाव छे, संसारमां रखडवा माटेनो भाव छे. अहीं कहे छे-ए भूत-भविष्य-संबंधी परद्रव्य ने परद्रव्यने निमित्ते थता भावोनी एकता तोडीने ज्यारे स्व-स्वभावमां एकता करे त्यारे साचुं प्रतिक्रमण ने प्रत्याख्यान थाय छे अने ते धर्म छे. ल्यो, आ प्रमाणे ते साक्षात् अकर्ता थाय छे. विकार ने विकारना निमित्तोथी पाछो हठी शुद्ध स्वभावमां आवे त्यारे साक्षात् अकर्ता थाय छे. ल्यो, आ गाथा पूरी थई.

[प्रवचन नं. ३४१ (शेष) ३४२-३४३ * दिनांक १४-प-७७ थी १६-प-७७]

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गाथा २८६–२८७

द्रव्यभावयोर्निमित्तनैमित्तिकभावोदाहरणं चैतत्–

आधाकम्मादीया पोग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुव्वदि णाणी परदव्वगुणा दु जे णिच्चं।। २८६।। आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं। कह तं मम होदि कयं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं।। २८७।।

अधःकर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः।
कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यम्।। २८६।।
अधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं।
कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तम्।। २८७।।

हवे द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणानुं उदाहरण कहे छेः-

आधाकरम इत्यादि पुद्गलद्रव्यना आ दोष जे,
ते केम ‘ज्ञानी’ करे सदा परद्रव्यना जे गुण छे? २८६.
उद्देशी तेम ज अधःकर्मी पौद्गलिक आ द्रव्य जे,
ते केम मुजकृत होय नित्य अजीव भाख्युं जेहने? र८७.

गाथार्थः– [अधःकर्माद्याः ये इमे] अधःकर्म आदि जे आ [पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः] पुद्गलद्रव्यना दोषो छे (तेमने ज्ञानी अर्थात् आत्मा करतो नथी;) [तान्] तेमने [ज्ञानी] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [कथं करोति] केम करे [ये तु] के जे [नित्यम्] सदा [परद्रव्यगुणाः] परद्रव्यना गुणो छे?

माटे [अधःकर्म उद्देशिक च] अधःकर्म अने उद्देशिक [इदं] एवुं आ [पुद्गलमयम् द्रव्यं] पुद्गलमय द्रव्य छे (ते मारुं कर्युं थतुं नथी;) [तत्] ते [मम कृतं] मारुं कर्युं [कथं भवति] केम थाय [यत्] के जे [नित्यम्] सदा [अचेतनम् उक्तम्] अचेतन कहेवामां आव्युं छे?

टीकाः– जेम अधःकर्मथी नीपजेलुं अने उद्देशथी नीपजेलुं एवुं जे निमित्तभूत (आहार आदि) पुद्गलद्रव्य तेने नहि पचखतो आत्मा (-मुनि) नैमित्तिकभूत