Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 178-179.

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(शार्दूलविक्रीडित)
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात्
तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्।
आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति।। १७८।।

बंधसाधक भावने पचखतो (त्यागतो) नथी, तेम समस्त परद्रव्यने नहि पचखतो (- नहि त्यागतो) आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखतो (त्यागतो) नथी. वळी, “ अधःकर्म आदि जे पुद्गलद्रव्यना दोषो तेमने आत्मा खरेखर करतो नथी कारण के तेओ परद्रव्यना परिणाम होवाथी तेमने आत्माना कार्यपणानो अभाव छे, माटे अधःकर्म अने उद्देशिक एवुं जे पुद्गलद्रव्य ते मारुं कार्य नथी कारण के ते नित्य अचेतन होवाथी तेने मारा कार्यपणानो अभाव छे,” -एम तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यने पचखतो आत्मा (-मुनि) जेम नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखे छे, तेम समस्त परद्रव्यने पचखतो (त्यागतो) आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखे छे. आ प्रमाणे द्रव्य अने भावने निमित्तनैमित्तिकपणुं छे.

भावार्थः– अहीं अधःकर्म अने उद्देशिक आहारनां द्रष्टांतथी द्रव्य अने भावनुं

निमित्त-नैमित्तिकपणुं द्रढ कर्युं छे.

जे पापकर्मथी आहार नीपजे ते पापकर्मने अधःकर्म कहेवामां आवे छे, तेम ज ते आहारने पण अधःकर्म कहेवामां आवे छे. जे आहार, ग्रहण करनारना निमित्ते ज बनाववामां आव्यो होय तेने उद्देशिक कहेवामां आवे छे. आवा (अधःकर्म अने उद्देशिक) आहारने जेणे पचख्यो नथी तेणे तेना निमित्ते थता भावने पचख्यो नथी अने जेणे तत्त्वज्ञानपूर्वक ते आहारने पचख्यो छे तेणे तेना निमित्ते थता भावने पचख्यो छे. आ रीते समस्त द्रव्यने अने भावने निमित्त-नैमित्तिकभाव जाणवो. जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे तेने रागादिभावो पण थाय छे, ते तेमनो कर्ता पण थाय छे अने तेथी कर्मनो बंध पण करे छे; ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय छे त्यारे तेने कांई ग्रहण करवानो राग नथी, तेथी रागादिरूप परिणमन पण नथी अने तेथी आगामी बंध पण नथी. (ए रीते ज्ञानी परद्रव्यनो कर्ता नथी.)

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे, जेमां परद्रव्यने त्यागवानो उपदेश करे छेः-

श्लोकार्थः– [इति] आम (परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं) [आलोच्य] विचारीने, [तद्–मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] परद्रव्य


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(मंदाक्रान्ता)
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां
कार्य बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य।
ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति।। १७९।।

जेनुं मूळ छे एवी आ बहु भावोनी संततिने एकीसाथे उखेडी नाखवाने ईच्छतो, पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] ते समस्त परद्रव्यने बळथी (-उद्यमथी, पराक्रमथी) भिन्न करीने (त्यागीने), [निर्भरवहत्–पूर्ण–एफ–संविद्–युतं आत्मानं] अतिशयपणे वहेतुं (-धारावाही) जे पूर्ण एक संवेदन तेनाथी युक्त एवा पोताना आत्माने [समुपैति] पामे छे, [येन] के जेथी [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जेणे कर्मबंधनने मूळथी उखेडी नाख्युं छे एवो आ भगवान आत्मा [आत्मनि] पोतामां ज (-आत्मामां ज) [स्फूर्जति] स्फुरायमान थाय छे.

भावार्थः– परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं जाणी समस्त परद्रव्यने भिन्न करवामां-त्यागवामां आवे त्यारे समस्त रागादिभावोनी संतति कपाई जाय छे अने त्यारे आत्मा पोतानो ज अनुभव करतो थको कर्मना बंधनने कापी पोतामां ज प्रकाशे छे. माटे जे पोतानुं हित चाहे छे ते एवुं करो. १७८.

हवे बंध अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे ज्ञानना महिमाना अर्थनुं कळशकाव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [कारणानां रागादीनाम् उदयं] बंधनां कारणरूप जे रागादिक (रागादिकभावो) तेमना उदयने [अदयम्] निर्दय रीते (अर्थात् उग्र पुरुषार्थथी) [दारयत्] विदारती थकी, [कार्य विविधम् बन्धं] ते रागादिकना कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारना बंधने [अधुना] हमणां [सद्यः एव] तत्काळ ज [प्रणुद्य] दूर करीने, [एतत् ज्ञानज्योतिः] आ ज्ञानज्योति- [क्षपिततिमिरं] के जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे ते- [साधु] सारी रीते [सन्नद्धम्] सज्ज थई, - [तद्–वत् यद्–वत्] एवी रीते सज्ज थई के [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति] तेना फेलावने बीजुं कोई आवरी शके नहि.

भावार्थः– ज्यारे ज्ञान प्रगट थाय छे, रागादिक रहेता नथी, तेमनुं कार्य जे बंध ते पण रहेतो नथी, त्यारे पछी तेने (-ज्ञानने) आवरण करनारुं कोई रहेतुं नथी, ते सदाय प्रकाशमान ज रहे छे. १७९.


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इति बन्धो निष्क्रान्तः। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ बन्धप्ररूपकः सप्तमोऽङ्कः।।

टीकाः– आ प्रमाणे बंध (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.

भावार्थः– रंगभूमिमां बंधना स्वांगे प्रवेश कर्यो हतो. हवे ज्यां ज्ञानज्योति प्रगट थई त्यां ते बंध स्वांगने दूर करीने बहार नीकळी गयो.

जो नर कोय परै रजमांहि सचिक्कण अंग लगै वह गाढै,
त्यों मतिहीन जु रागविरोध लिये विचरे तब बंधन बाढै;
पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाटै,
नाहिं बंधै तब कर्मसमूह जु आप गहै परभावनि काटै.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां बंधनो प्ररूपक सातमो अंक समाप्त थयो.

*
समयसार गाथा २८६–२८७ः मथाळुं

हवे द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणानुं उदाहरण कहे छेः-

* गाथा २८६–२८७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम अधःकर्मथी नीपजेलुं अने उद्देशथी नीपजेलुं एवुं जे निमित्तभूत (आहार आदि) पुद्गलद्रव्य तेने नहि पचखतो आत्मा (-मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखतो नथी, तेम...’

जुओ, साधुने माटे साधुए कह्युं होय ने आहार बन्यो होय एने अधःकर्म कहे छे. साधुं कहे के -अमारे माटे आ बनावजो, पीणुं गरम करावजो ईत्यादि अने गृहस्थो तेम आहारादि करे एने अधःकर्म दोष कहे छे, ते महापाप छे.

वळी उद्देशथी नीपजेलुं एटले साधुना निमित्ते गृहस्थो आहारादि बनावे, पाणी भरी लावी उनुं करे, साधुने आ जोईशे ने ते जोईशे एम विचारी अनेक प्रकारनी रसोई बनावे, केरी लावे, मोसंबी लावे इत्यादि बधुं उद्देशीने आहार बनावे ते उद्देशिक आहार छे. भले साधुए कह्युं न होय पण एमने उद्देशीने करे ते उद्देशिक आहार छे.

अहा! अहीं कहे छे-अधःकर्मथी अने उद्देशथी नीपजेलो निमित्तभूत जे आहारादि तेने साधु छोडतो नथी ते, तेना संबंधे जे पापभाव नीपजे छे तेने


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पण छोडतो नथी. अत्यारे तो ल्यो, छापांमां आवे के-महाराज पधार्या छे, आटला दि’ रोकाशे एटले गृहस्थो आवीने चोका करे. अरे! बहु बगडी गयुं भाई! बधो फेरफार थई गयो! निश्चय तत्त्व तो क्यांय एककोर रही गयुं पण व्यवहारेय आखो बगडी गयो! बहारमांय कांई ठेकाणुं न रह्युं! एने (-साधुने) माटे पाणी उनां करवां, आहार बनाववो, घरमां बनावता होय एमां दाळ, चोखा, लोट वगेरे उमेरीने एने माटे आहार बनाववो-ए उद्देशिक आहार छे. साधुने खबर होय वा ख्यालमां आवे के आ आहार- पाणी मारे माटे बनाव्यो छे, उद्देशिक छे अने ते ग्रहण करे तो ते पोताने महापाप उपजावे छे. वास्तवमां ए साधुपदने शोभे नहि, उद्देशिक आहार ग्रहण करे त्यां साधुपणुं रहे नहि. ल्यो, आवी वात आकरी पडे एटले राडुं पाडे पण शुं थाय? तत्त्व तो जेम छे तेम छे.

प्रश्नः– पण श्रावकने तो पुण्य थाय ने? उत्तरः– एने आहारदानना शुभभावथी पुण्य थाय पण ए पापानुबंधी पुण्य छे केमके ते उद्देशिक आहार आपे छे ए मिथ्यात्वनुं महापाप तो साथे ऊभुं ज छे. अत्यारे तो पत्रोमां चोकखुं आवे छे के-अत्रे साधु बिराजे छे, चोका करवा आवो, चोका करो ने आहारदाननो लाभ लो. ल्यो, हवे आवुं! पोताने माटे बनावेलो आहार साधु ले, अने गृहस्थ एने साधु मानीने दे-बन्ने भ्रष्ट छे बापा!

अहीं कहे छे-अधःकर्मथी नीपजेलुं अने उद्देशथी नीपजेलुं एवुं जे निमित्तभूत आहारादि पुद्गलद्रव्य तेने नहि पचखतो आत्मा (-मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखतो नथी. साधुने खबर छे के गृहस्थने घरे बे ज माणस छे ने आटलो बधो आहार (-भोजन) बनाव्यो छे ते बीजा (-साधु) माटे बनावेलो छे, उद्देशिक छे, अने छतां ते आहार ले तो कहे छे-निमित्तभूत आहारादि द्रव्योने नहि पचखतो ते नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखतो नथी. अर्थात् अनिवार्यपणे तेने बंधभाव- पापभाव थाय ज छे जुओ, आ बंध अधिकार छे ने? एमां आ कहे छे के साधु उद्देशिक आहारने ग्रहण करे ते बंधसाधक भाव छे, पापभाव छे, बंधनुं कारण छे.

अहा! अधःकर्मथी नीपजेलो ने उद्देशथी नीपजेलो आहार मुनिने योग्य नथी; छतां एने मुनि ले छे तो एने तेथी पापबंध ज थाय छे; ए तो खरेखर व्यवहारेय मुनि कहेवा योग्य नथी. आ वात बहार आवतां बीजे खळभळाट मची जाय छे, पण शुं थाय? वस्तुतत्त्व तो आ छे भाई!

कोई कहेतुं हतुं के अत्यारे तो उद्देशिक आहार ज लेवाय छे, कारण के अण- उद्देशिक आहार मळे क्यांथी? कोने घेर जईने आहार लेवानो छे ए तो अगाउथी नक्की थई गयुं होय छे. आ तो एक बे चोका होय ने त्यां उनां पाणी, शेरडीनो रस, मोसंबीनो रस, रोटली, उनुं दूध वगेरे साधुना उद्देशथी करे ने त्यां साधु


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जइने उद्देशिक आहार जाणीने ले छे. अहा! ए तो पापबंधन करे छे भाई! लेनारा ने देनारा बन्ने पापबंधन करे छे. मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, आहारशुद्धि, जळशुद्धि वगेरे ए बधुं जुठुं बोले छे; (मुनिनेय ए खबर होय छे) केम के आहार बनाव्यो होय साधु माटे ने बोले एम-आहारशुद्धि वगेरे-ए जुठुं बोले छे. आ बधी नग्न दिगंबर मुनिनी वात छे हों, बीजा लुगडांवाळा तो मूळ जैनधर्मथी ज भ्रष्ट छे. आवुं बहु आकरुं लागे पण शुं थाय? मारग तो आवो छे प्रभु! आचार्य श्री कुंदकुंदे सूत्र पाहुडमां बहु स्पष्ट कह्युं छे के-वस्त्रनो एक धागो पण राखीने कोई मुनि माने, मनावे के माननारनी अनुमोदना करे ते निगोद जाय.

अहीं तो एम वात छे के कोई बहारथी नग्न दिगंबर साधु होय, पंचमहाव्रतादि पाळतो होय पण पोताने माटे बनावेलां उद्देशिक आहार-पाणी ग्रहण करे तो ते एना निमित्तथी थता बंधसाधक भावने पचखतो नथी. वास्तवमां तेने साधुपणुं ज नथी. मारग तो आवो छे बापु! आ कोई व्यक्तिनी वात नथी, मारग शुं छे-एनी वात छे. आवी वातु लोकोने आकरी लागे एटले विरोध करे; पण शुं करे छे प्रभु! तुं? अरे! केवळीना विरह पडया! केवळज्ञान रह्युं नहि, अने अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान थवानीय लायकात रही नहि ने आ बधी गडबड ऊभी थई!

अहा! भगवान कुंदकुंदाचार्य ने एमना पछी हजार वर्षे थयेला अमृतचंद्राचार्य भावलिंगी वीतरागी मुनिवर-संत जेने अंतरमां प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनां झरणां झरे छे ते कहे छे के- मुनिने माटे जे आहार बनाव्यो होय ते उद्देशिक छे, ने मुनिए कह्युं होय ने बनाव्यो होय ते अधःकर्मी छे. ए अधःकर्मीने उद्देशिक आहार साधुने होय नहि अने छतां कोई एवो आहार ले तो ते तेना निमित्ते उपजता बंधसाधक पापने पचखतो नथी, अर्थात् ते पापबंध ज करे छे. ल्यो, आ मुनिराज पोते कहे छे. (आ कांई सोनगढवाळा घरनुं कहे छे एम नथी).

प्रश्नः– तो पछी कोई धरम पाळी शके एवुं न रह्युं? (एम के उद्देशिक आहार लेतां ने देतां पाप थाय तो धर्म केम करीने पाळवो?)

उत्तरः– अरे भाई! धर्म तो अंदर आत्मामां थाय के क्यांय बहारमां आहारादिमां थाय? शुं आहार-पाणी करीने दे एटले धर्म थाय छे? ना, हों; अंदर शुद्ध अंतःतत्त्वमां एकाग्र थाय तो धर्म थाय छे, बीजी कोई रीते नहि.

प्रश्नः– तो शास्त्रमां तो एम आवे छे के साधुने आहार आप्यो ए तो मानो मोक्षमार्ग आप्यो?

उत्तरः– हा, आवे छे; पण ए तो भावलिंगी साधुनी वात छे भाई! जे अंदर वीतराग निर्मळ परिणतिए परिणम्या छे अने जे अत्यंत निर्दोष आहार-पाणी ग्रहे


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छे तेमने निर्दोष आहारदान देनार माटे व्यवहारे एम कह्युं छे. मोक्षमार्गमां एने बाह्य सहकारी जाणी व्यवहारथी शास्त्रमां एम कहेलुं छे. ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए.

अहा! ए तो पहेलां आवी गयुं के-द्रव्य एटले भूत अने भविष्यनुं निमित्तभूत परद्रव्य ने भाव एटले एना निमित्ते थतो नैमित्तिकभूत विकार-एने जे छोडतो नथी एने अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान वर्ते छे. अहीं ए द्रव्य-भावना निमित्त- नैमित्तिकपणानुं द्रष्टांत आप्युं छे-के मुनिराज, निमित्तभूत द्रव्य जे उद्देशिक आहार तेने ग्रहण करे तो ते नैमित्तिकभूत बंध भावने पचखतो नथी, अर्थात् तेने पापबंध अवश्य थाय छे. अने गृहस्थ के जे महाराजने आजे आहार देवो छे एम विचारीने आहार- पाणी महाराज माटे तैयार करे छे ते पण पाप ज उपजावे छे. आवुं छे भाई! हवे कहे छे-

‘तेम समस्त परद्रव्यने नहि पचखतो आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखतो नथी.’

आ, उद्देशिक आहारनो दाखलो दीधो ने हवे कहे छे-तेम जे समस्त परद्रव्यनुं लक्ष छोडतो नथी ते तेना निमित्ते थता विकारना-रागद्वेषमोहना भावने छोडतो नथी अर्थात् तेने बधुं अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान ज छे.

लोकोने हवे ख्याल आवी गयो छे के आ उद्देशिक आहार छे ते पाप छे. पण हवे करवुं शुं? अंदरमां कांई क्रिया (शुद्धोपयोगनी) छे नहि अने बहारमां त्याग लई लीधो. पण भाई! ए मारग नथी.

त्यारे कोई वळी कहे छे-आप (-कानजीस्वामी) थोडुं मोळुं मूको अने अमे कांईक मोळुं मूकीए एटले आपणे एक थई जईए.

परंतु भाई! आ तो वीतरागनो मारग बापु! आमां मोळुं मूकवानो क्यां अवकाश छे? वस्तुना स्वरूपमां बांधछोड शुं? ए तो जेम छे तेम ज छे. हवे तत्त्वद्रष्टिनी खबर न मळे ने बहार क्रियाकांडमांय ठेकाणां न मळे ने कहे के-मोळुं मूको. अरेरे! एणे मारगने वींखी नाख्यो छे!

भगवान कुंदकुंदाचार्य तो बहु मोटेथी पोकारीने कहे छे के साधु माटे उनुं पाणीय बनावेलुं होय एने ए ले ने देनारो दे-ए बेय पापने बांधे छे. भाई! आ कोई व्यक्तिनी वात नहि बापा! आ तो भगवाननो मारग आवो छे एम वात छे. जेनुं यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान करवुं छे ते मारग आवो छे. समजाणुं कांई....? हवे कहे छे-

‘वळी अधःकर्म आदि जे पुद्गलद्रव्यना दोषो तेमने आत्मा खरेखर करतो


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नथी कारण के तेओ परद्रव्यना परिणाम होवाथी तेमने आत्माना कार्यपणानो अभाव छे,....’

शुं कहे छे? के एने माटे करेलो जे आहार छे एने लेवाना ए (-मुनि) दोषयुक्त परिणाम करतो ज नथी. निर्दोष होय तो ले नहितर मुनि चाल्या जाय. एने माटे बनावेलुं छे ए ले तो ए राग छे, (भूमिकाथी विरुद्धनो ए राग छे.) ने रागनुं कार्य तो अज्ञानीनुं छे, एनुं (-ज्ञानीनुं, मुनिनुं) नहि. पोताने माटे बनेलो आहार ले ए धर्मीनुं-मुनिनुं कार्य नथी; अहा! ए आत्मानुं कार्य नथी.

प्रश्नः– ए आत्मानुं कार्य नथी तो पछी ए ले तो शुं वांधो? उत्तरः– ना, ए कदीय ना ले. अहीं तो एना माटे बनावेला आहारने लेवानो एने भाव होतो ज नथी तेथी ते एनुं कार्य नथी एम कह्युं छे. समजाणुं कांई....? मुनिराजने-भावलिंगी संतने पोताने माटे बनावेलां आहार-जळ लेवाना परिणाम थता ज नथी माटे ते एनुं-आत्मानुं कार्य नथी, केमके ए रागना परिणाम परद्रव्यना- पुद्गलना परिणाम छे. आवी वात छे!

‘माटे अधःकर्म अने उद्देशिक एवुं जे पुद्गलद्रव्य ते मारुं कार्य नथी कारणके ते नित्य अचेतन होवाथी तेने मारा कार्यपणानो अभाव छे,’ .....

जोयुं? ‘अधःकर्म अने उद्देशिक एवुं पुद्गलद्रव्य मारुं कार्य नथी’ एनो अर्थ ए छे के ए लेवाना परिणाम मारा (आत्माना) होई शके ज नहि, ए तो परमाणुना- जडना छे. अहा! जेनी द्रष्टि शुद्धनी छे अर्थात् जे शुद्ध द्रष्टिवंत छे एने अशुद्धता पोतानुं कार्य होय ज नहि अर्थात् ते अशुद्धतानो कर्ता छे ज नहि, अशुद्धता तो जड-पुद्गलनुं कार्य छे.

वि. सं. १९६९ मां प्रश्न थयो हतो के-तमारा माटे मकान बनाव्युं, तमे कर्युं नथी, कराव्युं नथी; तो एने वापरो तो एमां शुं? एम के एमां शुं दोष?

त्यारे कह्युं के नवकोटिमां एक ‘अनुमोदना’ नी कोटि एमां तूटे छे. वापरे तो नवकोटिमां एक कोटिए भंग थतां नवे कोटि जूठी थई जाय छे. अहा! मुनिराज कहे छे- अधःकर्म आदि अशुद्धता अमारुं कार्य ज नथी.

अहाहा....! मुनिराज शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्मामां अंतर्निमग्न होय छे. ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान ने प्रचुर आनंदना स्वामी छे. तेथी तेनी भूमिकामां उद्देशिक आहार न लेवो एटले के एने लेवा प्रत्येनो भाव न थवो ए सहज छे; अने एने उद्देशिकनो त्याग ने पचखाण कहे छे. अहाहा...! अधःकर्म ने उद्देशिक आहार ए तो पुद्गलद्रव्यनुं कार्य छे, एने मुनिराज ले ए रागनुं अज्ञानमय कार्य छे, पण एवो राग ए मुनिदशामां होय ज नहि. तेथी कहे छे के-ए मारुं कार्य नथी, ए नित्य


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अचेतन होवाथी एने मारा कार्यपणानो अभाव छे. अहो! आवी अलौकिक मुनिनी अंतरदशा होय छे. समजाणुं कांई.....?

अहाहा....! आत्मा ज्ञान ने आनंदनुं भरेलुं त्रिकाळी तत्त्व छे. एनी सन्मुख थईने परिणमतां व्यवहारना भावनी रुचि एने उडी जाय छे. शुं कीधुं? अंतद्रष्टि करनारने व्यवहारनी द्रष्टि-रुचि रहेती नथी अने ए व्यवहारनो त्याग छे. अहा! राग चाहे तो देव-गुरु-शास्त्रनो हो के पंचमहाव्रतनो हो, एनी रुचि ज्यांसुधी छे त्यांसुधी आत्माना स्वभावनो त्याग छे, ने अंतर-स्वभावनी द्रष्टि-रुचि थाय छे त्यारे व्यवहारनी रुचिनो त्याग छे. व्यवहार भले हो, पण व्यवहारनी रुचिनो धर्मीने त्याग छे. हवे आम छे त्यां मुनिराज उदे्शिक आहारने केम ग्रहण करे? एने लेवानो भाव तो जड अज्ञानमय राग छे अने तेने, मुनिराज कहे छे, मारा कार्यपणानो अभाव छे अर्थात् उद्देशिक आहार-पाणी लेवानो राग मारुं कार्य होई शकतुं नथी.

पहेलुं तो व्यवहारनो जे प्रेम छे ए स्वद्रव्यथी विरुद्ध परद्रव्य छे. बीजे पर्यायने परद्रव्य कीधुं छे ए वात अहीं नथी लेवी. अहीं तो आ व्यवहारनी-रागनी क्रिया जेटली छे ते बधी परमार्थे परद्रव्य छे एम वात छे अने परद्रव्यनुं कार्य मारुं ए मान्यता मिथ्यात्वभाव छे. सम्यग्द्रष्टिने व्यवहारनुं कार्य मारुं-एम व्यवहारनी रुचि होती नथी. एने व्यवहारनो राग आवे छे, पण एने व्यवहार जे परद्रव्य एनी रुचि छूटी गई होय छे. झीणी वात छे.

हवे आमां चरणानुयोगनो दाखलो आपीने उद्देशिक आहारनो मुनिने त्याग होय छे ए वात करी छे. आकरी वात छे; अत्यारे तो बधी गडबड थई गई छे, बधुं तत्त्व - विरुद्ध चाले छे. अहीं तो पोते स्वद्रव्य ने बधां परद्रव्यो-ए बे वच्चेनो व्यवहार (निमित्त-नैमित्तिक) आखोय तोडी नाखवानो सिद्धांत कहे छे. एटले स्वद्रव्य पोते चैतन्यमहाप्रभु-एनी ज्यां अंतद्रष्टि ने रुचि थई त्यां एने व्यवहार जे परद्रव्य एनी रुचि छूटी जाय छे. हवे आगळ जतां मुनिने, ज्यारे विशेष अंतर-स्थिरता थई छे, चारित्रना आनंदमां विशेष रमणता थई छे-एवी अंतर-दशा थतां मुनिराज कहे छे-आ जे उद्देशिक छे ए जडथी बनेलुं जड छे, अने एने लेवानो भाव ए पण जड छे. ए जडने-जडना कार्यने हुं केम करुं? अहा! उद्देशिक लेवाना भावने मारा कार्यपणानो अभाव छे. अर्थात् मुनिराजने उद्देशिक आहारना ग्रहणना भावनो अभाव ज होय छे. आ पचखाण छे.

‘-एम तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यने पचखतो आत्मा (-मुनि) जेम नैमित्तिकभूत बंध साधकभावने पचखे छे, तेम.......’

‘एम तत्त्वज्ञानपूर्वक......... ’ जुओ आ सूक्ष्म वात! एम सम्यग्दर्शन रहित उद्देशिक आहार न ले अने आहार न ले (उपवास करे) एवुं तो एणे अनंतवार


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कर्युं छे. पण एथी शुं? तत्त्वज्ञानपूर्वक-आत्मज्ञानपूर्वक ते संबंधीनुं लक्ष अने ते संबंधीना रागनुं कार्य एने छूटी जाय एने वास्तविक मुनिपणुं कहे छे.

एम तो द्रव्यलिंगी साधु होय ते पण पोताने माटे बनावेला उद्देशिक आहार- पाणी लेता नथी. जो पोताने माटे बनावेलां आहार-पाणी ले एवो एनो भाव होय तो ते नवमी ग्रैवेयक जई शके नहि. अहा! द्रव्यलिंगी पोताने माटे बनावेला जळनुं टीपुय, खूब आकरी तृषा होय तोय, प्राणांते पण न ले एवो एने अंदर शुभभाव होय छे. पण ए कांई नथी, केमके एने अंदर तत्त्वज्ञान होतुं नथी, अर्थात् रागना अभावस्वरूप शुद्ध चैतन्यनुं परिणमन तेने होतुं नथी. ते शुभभावमां संतोषाई गयो छे अने एनाथी भिन्न एक ज्ञायकस्वभावी आत्मानी द्रष्टि ए करतो नथी. तेथी आत्मज्ञान विना पोताने माटे करेलो आहार न ले तोय ए कांई (-त्याग) नथी.

अहीं कहे छे-तत्त्वज्ञानपूर्वक एटले आत्मज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यने एटले उद्देशिक आहारादिने पचखतो-लक्षमांथी छोडतो ते (-मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखे छे. जोयुं? उद्देशिक आहारादि लेवानो भाव बंधसाधक भाव छे. अहा! उद्देशिक आहार ले ए बंधनो भाव छे ने ते मुनिने होय नहि, थाय नहि. तेथी कह्युं के उद्देशिक आदि आहारना लक्षने छोडे छे ते तेना निमित्ते थता विकारना-बंधना परिणामने छोडे छे, अर्थात् तेने बंधभाव थतो नथी, अबंध रहे छे. छे? ‘बंधसाधक भावने पचखे छे.’ सामे पुस्तक छे के नहि? भाई! आ तो तत्त्वज्ञाननी वार्ता! आ कांई कथा नथी.

अहा! ख्यालमां आवे के आ उद्देशिक आहार मारे माटे कर्यो छे अने ए ले तो एने बंधसाधक भाव ऊभो छे, एने अंतरंगमां मुनिपणुं नथी; अने जो एना लक्षने छोडयुं छे तो तेना निमित्ते थता बंधसाधक भावने ते छोडे छे अर्थात् तेने अबंध परिणाम छे. मुनि अंदर एटला अबंध परिणामने प्रगट करे छे. न्यायथी धीमे धीमे समजवुं बापु! वस्तुनुं स्वरूप जे यथार्थ छे तेमां ‘नी’ (नय्) एटले ज्ञानने दोरी जवुं- लई जवुं ते न्याय छे. समजाणुं कांई...?

गृहस्थाश्रममां समकिती तत्त्वज्ञानी होय तेने आहारादिनो भाव होय छे ते बंधभाव छे. ते अस्थिरतानो दोष छे, द्रष्टिमां एने दोष नथी. अहीं मुनिदशानी वात छे. मुनिदशानी अंतर-स्थिरता एवी होय छे जेथी ते निमित्तभूत उदे्शिक आदि आहारना लक्षने छोडतो लक्षभूत बंधसाधक भावने छोडे छे, अर्थात् तेने उद्देशिक आदि आहार लेवानो भाव उत्पन्न थतो नथी. आवी मुनिदशा छे. तथापि कोई उदे्शिक आदि आहारने ग्रहण करे तो ते बंध साधकभावमां ऊभो छे, तेने अंतरमां साचुं मुनिपणुं नथी. आ कोई व्यक्तिनी वात नथी; आ तो सिद्धांत अने सत्य शुं छे - एनी वात छे. अहा! तत्त्वद्रष्टि-सम्यग्द्रष्टिने रागनुं परिणमन होय छे, पण एनो


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ए कर्ता थतो नथी. अहीं तो मुनिने एय काढी नाख्युं के-मुनिराजने उदे्शिक आदि आहार नथी होतो अने तत्संबंधी (-नैमित्तिक) रागनुं परिणमन पण नथी होतु.ं आ तो सिद्धांत कह्यो एमां आ चरणानुयोगनो न्याय आप्यो.

हवे सर्व सिद्धांत सिद्ध करे छेः- ‘तेम समस्त परद्रव्यने पचखतो (त्यागतो) आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखे छे. आ प्रमाणे द्रव्य अने भावने निमित्त नैमित्तिकपणुं छे.’

अहाहा...! भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावी प्रभु त्रिकाळ परमात्मद्रव्य छे. एमां एकाग्र थतो समस्त परद्रव्यनुं लक्ष छोडतो आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखे छे. ओलामां तो उदे्शिक ने अधःकर्मनुं द्रष्टांत लीधुं. पण आमां तो समस्त परद्रव्यो-एमां देव-गुरु-शास्त्र पण आवी गया-उपर लीधुं छे. मतलब के देव-गुरु- शास्त्रना लक्षने छोडतो आत्मा तेना निमित्ते थता रागने पण छोडे छे. अहीं तो सिद्धांत आ छे के- ‘परदव्वादो दुग्गह’ (अष्टपाहुड) -परद्रव्यना लक्षमां जाय त्यां विकार थाय छे. अहा! देव-गुरु-शास्त्र पण परद्रव्य छे. तेना निमित्ते-आश्रये एने नैमित्तिक विकार थाय छे. अहीं कहे छे-आत्मा सर्व परद्रव्य तरफनुं वलण छोडीने परद्रव्योना निमित्ते थता विकारने छोडी दे छे. अहा! एनुं ज्ञान अत्यंत स्थिर थई गयुं होय छे, अस्थिरता एने होती नथी आनुं नाम पचखाण छे. गाथा ३४मां आव्युं ने केः-

“सौ भावने पर जाणीने पचखाण भावोनुं करे,
तेथी नियमथी जाणवुं के ज्ञान प्रत्याख्यान छे.”

‘समस्त परद्रव्यने पचखतो’ एम कीधुं ने? एमां तो पोताना सिवाय जेटलां परद्रव्य छे ते दरेकने छोडे छे एम वात छे. अधःकर्मी ने उदे्शिक आहार अने सदोष आहारने छोडे छे एटलुं ज नहि, निर्दोष आहारने पण छोडे छे. भले मुनिपणाने योग्य आहार निर्दोष हो, पण आहारनो विकल्प बंधसाधक भाव छे ने? सर्व परद्रव्यनुं लक्ष छोडे छे एमां तो आहार निर्दोष लेवो ए पण रह्युं नहि; केमके ए परद्रव्य छे ने परद्रव्यना लक्षे नैमित्तिक विकार विना रहे नहि.

हवे आवी वात चोकखी छे एमांय लोकोने तकरार-वांधा. एम के एक अधःकर्म ने उदे्शिक आहार थई गयो एमां शुं थई गयुं? बाकी तो बधुं मुनिपणुं छे ने? नग्न छे, एक टंक ऊभा ऊभा खाय छे, उघाडा पगे जोईने चाले छे ईत्यादि बधुं तो छे.

पण बापु! एम मारग नथी भाई! अहीं आ तारा हितनी वात छे प्रभु! अहीं तो सर्व निमित्त-नैमित्तिक संबंधने तोडवानी वात छे. निश्चयथी मुनिमार्ग तो एक शुद्धोपयोग ज छे. परद्रव्य संबंधी विकल्प छे ए कांई मुनिपणुं नथी.


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‘जयधवल’ मां तो त्यां सुधी लीधुं छे के- में एक शुद्धोपयोगनी प्रतिज्ञा करी हती, पण एमां हुं न रही शक्यो ने आ छ कायनी दयानो विकल्प थयो, निर्दोष आहारनो विकल्प थयो एमां मारी प्रतिज्ञा तूटी गई, एमां पचखाणनो भंग थयो; केमके परतरफना वलणनो भाव विकार छे. एक स्वद्रव्यना वलणनो भाव निर्विकार छे. एम के मारे स्वद्रव्यमां ज रहेवुं एवी प्रतिज्ञा लीधी हती त्यां अरे! आ छ काय आदिना विकल्प!

जुओ, मुनिने निर्दोष आहार लेवानो विकल्प आवे एमां मुनिदशाने बाध नथी, एथी मुनिपणुं जाय नहि पण एने अधःकर्मी, उदे्शिक आदि दोषयुक्त आहार लेवानो विकल्प आवे तो त्यां मुनिपणुं रहेतुं नथी. आवी वात छे. हित करवुं होय तेणे हितनी सत्य वात समजवी ज पडशे.

अहीं तो सघळाय परद्रव्य तरफनुं वलण एटले आहारनुं, विहारनुं, देव-गुरु- शास्त्र प्रत्ये विनय-भक्तिनुं वलण छोडीने एक स्वद्रव्यमां आववुं ने रहेवुं ए मुनिने होय छे अने ए वास्तविक मुनिदशा छे-एम सत्य सिद्धांत सिद्ध करे छे.

प्रश्नः– तो पछी प्रतिक्रमण करे के नहि?

उत्तरः– स्वद्रव्यमां आववुं ने रहेवुं ते अस्ति ने परद्रव्यथी-छ काय आदिथी हठवुं ते नास्ति-ए प्रतिक्रमण छे. अहाहा...! निर्मळानंदना नाथ प्रभु आत्मामां आवीने वसवुं ते परथी खसवुं छे ने ते प्रतिक्रमण छे. आ सिवाय परद्रव्य तरफ लक्ष जाय-ए तो कह्युं ने के- ‘परदव्वादो दुग्गइ’ - ए दुर्गति छे, ए चैतन्यनी गति नथी. विकार थाय ए कांई चैतन्यनी गति नहि. अहो! आवी वात दिगंबर सिवाय बीजे क्यांय छे नहि.

अहा! भाषा तो जुओ! के जेम उदे्शिक आहारने छोडतो मुनि ते संबंधीना बंधसाधक भावने छोडे छे तेम आत्मा सिवाय जेटला परद्रव्यो छे ते बधाय तरफना लक्षने छोडे छे ते तेना संबंधे थता विकारी भावने पण छोडे छे. पण आ बधुं तत्त्वज्ञानपूर्वक हों; बाकी सम्यग्दर्शन विना पोताने माटे करेलुं उदे्शिक न ले-एवुं तो एणे अनंतवार कर्युं छे ने अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो छे. पण एथी शुं? भवनो एक फेरोय घटयो नहि.

वीतरागनो मारग भारे आकरो बापा! प्रथम तो परद्रव्यथी लाभ थाय ए द्रष्टि मिथ्यात्व छे, समकितीने परद्रव्यमां लाभनी द्रष्टि नथी छतां परद्रव्य तरफनुं जेटलुं लक्ष रहे छे एटलो चारित्रनो दोष छे. ए चारित्रना दोषने मटाडवानी आ वात छे के - समस्त परद्रव्यने पचखतो ते तत्संबंधी नैमित्तिक विकारने छोडे छे अर्थात् चारित्र दोषने मटाडे छे. परद्रव्यमां लक्ष जतुं हतुं ते चारित्रदोष हतो, हवे परद्रव्यथी लक्ष छोडतां चारित्रनो दोष छूटी जाय छे.


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‘समस्त परद्रव्यने पचखतो’ एटले शुं? के एक स्वद्रव्यनो ज आश्रय करवो ने एमां ज रहेवुं. पंचमहाव्रतने पाळवां एमेय नहि. केमके पंचमहाव्रतना परिणामनो आश्रय परद्रव्य छे. ए तो आवी गयुं ने? (गाथा २७६-७७मां) के आचारांग आदि शब्दश्रुतनुं ज्ञान ते ज्ञान छे, जीवादि नव पदार्थो दर्शन छे ने छ जीवनिकाय चारित्र छे- ए बधो व्यवहार छे. ए व्यवहार हेय छे, निषेध्य छे.

लोकोने आ मोटा वांधा छे; एम के निश्चय-व्यवहार-बेय जोईए

पण भाई! व्यवहार होय छे, (एनी कोने ना छे?) पण छे ए बंधनुं कारण ने हेय. भावलिंगी संत दिगंबर मुनिराजने पण व्यवहार होय छे, पण एने ए बंधनुं कारण जाणी हेय ज माने छे. व्यवहारथी निश्चय थाय एम त्रणकाळमां छे नहि. पर तरफनुं लक्ष करे ने स्व-लक्षवाळी दशा थाय एम कदीय बने नहि. ए तो अंधाराथी अजवाळुं थाय एना जेवी असंभव वात छे. व्यवहारनुं लक्ष पर उपर छे, ने निश्चयनुं स्व उपर छे. बेयनी दशानी दिशामां फेर छे त्यां व्यवहारथी निश्चय केम थाय? न थाय.

अहीं तो समस्त परद्रव्य पचखवानी वात लीधी छे. निर्दोष आहार ले एय विकल्प छे, एय छोड एम कहे छे. निर्दोष आहार ले त्यां मुनिपणाने आंच आवे छे एम नहि, पण अहीं परद्रव्यनो सर्वथा आश्रय छोडाववा एक स्वद्रव्यनो पूरण आश्रय करवो एम वात छे केमके एने त्यारे शुद्धनय पूरो थाय छे अर्थात् त्यारे केवळज्ञान थाय छे. समजाणुं कांई....?

ल्यो, हवे मारग आवो, अने वात आवी आवे एमां करवुं शुं? एक पत्रमां मोटो लेख आव्यो छे विरोधनो; एम के निश्चय-व्यवहार बेय जोईए; बेय छे, व्यवहार साधन छे ने निश्चय साध्य छे. ‘पंचास्तिकाय’ मां व्यवहार साधन साध्यनी वात आवे छे.

बापु! ए तो त्यां निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे भाई! नहितर आखा सत्यनो विरोध थई जशे. अहीं एम कहे छे के-परद्रव्यना लक्षमां जेटलो जाय तेटलो तेने विकार थशे अने विकारथी एने बंध ज थशे. शुं एनाथी धर्म थशे? ना; एनाथी अवश्य बंध थशे. एने साधन कहेवुं ए तो निमित्तनुं-सहचरनुं ज्ञान करावतुं उपचारनुं कथन छे. समजाणुं कांई....?

ल्यो, हवे आ सरवाळो कहे छे के- ‘आ प्रमाणे द्रव्य अने भावनुं निमित्त- नैमित्तिकपणुं छे.’

शुं कीधुं ए? के आ प्रमाणे परद्रव्य बधा निमित्त छे अने निमित्तने लक्षे थतो विकारी भाव नैमित्तिक छे. धर्मी पुरुषो-मुनिवरो ए समस्त परद्रव्यना लक्षने


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अने तेना संबंधे थता विकारी भावने पचखे छे त्यारे स्वद्रव्यनो आश्रय संपूर्ण-पूरो थाय छे अने एने केवळज्ञान थाय छे. आवी वात छे.

-उदे्शिक आदि दोषयुक्त आहार लेवानो बंधसाधक भाव होय त्यां मुनिपणुं होतुं नथी; अने

-साचा भावलिंगी मुनिवरने निर्दोष आहार-पाणी लेवानो, छ जीव-निकायनी रक्षानो ईत्यादि विकल्प रहे त्यां सुधी केवळज्ञान थतुं नथी.

भाई! सिद्धांत तो आम छे. भगवाने कहेलां तत्त्वोनुं सत् तो आ रीते छे. कोई उंधुं माने एथी कांई सत् असत् न थई जाय अने असत् सत् न थई जाय.

प्रथम तो व्यवहारथी लाभ थाय एवी जे द्रष्टि छे ते जूठी छे. समकितीने ते नथी. समकितीने शुद्ध निश्चयनी द्रष्टि थतां तेने व्यवहारमां हेयपणुं थई जाय छे. परंतु स्वद्रव्यनो शुद्ध एक ज्ञायकबिंब प्रभु आत्मानो आश्रय तेने जेटलो ओछो छे तेटलो तेने परद्रव्यनो आश्रय थाय छे अने तेटलो तेने बंधसाधक भाव-व्यवहारनो भाव उत्पन्न थाय छे. आ रीते तेने यथाक्रम व्यवहार होय छे. पण तेने एमां हेयबुद्धि छे ने? तेथी ते स्वद्रव्यनो आश्रय उग्र करीने, समस्त परद्रव्यनुं लक्ष छोडतो थको सर्व व्यवहारने उडावी दे छे, अने स्वद्रव्यनो पूर्ण आश्रय करीने केवळज्ञान उपजावे छे. ल्यो, अहीं तो सर्व व्यवहारना भावोने उडावी देवानी वात छे. समजाणुं कांई...?

* गाथा २८६–२८७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं अधःकर्म ने उद्देशिक आहारना द्रष्टांतथी द्रव्य ने भावनुं निमित्त- नैमित्तिकपणुं द्रढ कर्यु छे.’

अधःकर्म ने उद्देशिक आहार ए परद्रव्य निमित्त ने एना आश्रये थतो विकारनो भाव ते नैमित्तिक. आ प्रमाणे द्रव्य-भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं छे. निमित्तनुं-परद्रव्यनुं लक्ष करे एने नैमित्तिक विकारी भाव थाय एवो निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार ऊभो थाय छे. मतलब के एटलो स्वद्रव्यनो एने आश्रय छे नहि. जेटलो निमित्त-नैमित्तिक संबंधमां जाय एटलो स्वद्रव्यनो आश्रय नथी.

अज्ञानीने स्वद्रव्यनो आश्रय सर्वथा होतो नथी.

आत्मा-स्वद्रव्य पोते जे स्वरूपे छे तेनो प्रथम आश्रय लेतां सम्यग्दर्शन-अबंध परिणाम उत्पन्न थाय छे अने त्यारे एने व्यवहारनी रुचि छूटी जाय छे. पछी ते जेटलुं परद्रव्य-निमित्तनुं लक्ष छोडे छे तेटला तत्संबंधी रागने ते छोडे छे अने


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त्यारे स्वद्रव्यना आश्रये तेने स्थिरता वधे छे. आ तो न्यायना सिद्धांत बापु! अहीं तो द्रष्टांतथी समजाव्युं छे. लोको (निश्चय, निश्चय-एम) राडु पाडे छे पण बापु! एमां (- समयसारमां) बधुं छे भाई! चरणानुयोगनुं छे, करणानुयोगनुंय छे. प्रथमानुयोगनुं आमां कथा तरीके न होय पण आचार्य जयसेननी टीकामां पांडवो वगेरे घणा मुनिवरोनी कथाय आवे छे.

अधःकर्म एटले साधु कहे के मारा माटे आहार-पाणी बनावो अने गृहस्थ एना माटे ए प्रमाणे बनावे ते आहारने अधःकर्म अर्थात् महापापथी नीपजेलो आहार कहेवाय. अने उद्देशिक एटले साधुए कीधुं न होय पण गृहस्थे एने माटे करेलो होय ते उदे्शिक आहार छे. अहीं आहारना द्रष्टांत वडे द्रव्य ने भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं द्रढ कर्युं छे. आहार ते निमित्त छे अने एना आश्रये थतो विकारी भाव ते नैमित्तिक छे एम निमित्त-नैमित्तिकपणुं समजाव्युं छे.

‘जे पापकर्मथी आहार नीपजे ते पापकर्मने अधःकर्म कहेवामां आवे छे, तेम ज ते आहारने पण अधःकर्म कहेवामां आवे छे. जे आहार ग्रहण करनारना निमित्ते ज बनाववामां आव्यो होय तेने उदे्शिक कहेवामां आवे छे.’

जुओ, आहार नीपजे एमां पापकर्म थाय छे. त्यां ए पापकर्मने अधःकर्म कहे छे. तेम ज ते आहारने पण अधःकर्म कहे छे, जे पापकर्म छे एने तो अधःकर्म कीधुं पण आहारने पण अधःकर्म कीधुं. एनो अर्थ शुं? के अधःकर्मथी नीपजेलो जे आहार छे तेने ग्रहण करवानो भाव छे ए अधःकर्म-पापकर्म छे ने तेथी आहारने पण अधःकर्म कहेवामां आवे छे.

वळी साधुना निमित्ते गृहस्थ जे आहार-पाणी बनावे ते उदे्शिक आहार छे. आजे महाराज आहार माटे पधारवाना छे, माटे एमना माटे आहार-जल बनावो -एम बनावेलो आहार उदे्शिक आहार छे.

‘आवा (अधःकर्मने उदे्शिक) आहारने जेणे पचख्यो नथी तेणे तेना निमित्ते थता भावने पचख्यो नथी...........’

शुं कीधुं? के आवो अधःकर्म ने उदे्शिक आहार जेणे पचख्यो-छोडयो नथी तेणे एना निमित्ते थता विकारी भावने पचख्यो-छोडयो नथी. अहा! वीतरागना मारगडा न्यारा छे प्रभु! अत्यारे तो बधो फेरफार करी नाख्यो. आवुं सत्य बहार आव्युं एटले एनो विरोध करवा लाग्या के-आ लोको (-सोनगढवाळा) साधुने मानता नथी, अने एने मिथ्याद्रष्टि कहे छे.

अरे भाई! अमने तो ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ छे; पण शुं थाय? साचा साधु तो होवा जोईएने! पण जेनी प्ररूपणा ज ‘आस्रवथी संवर थाय’ -एम विपरीत


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छे तेनुं शुं कहेवुं? तथा पोताने माटे करेला आहारने ग्रहण करे तेनुं पण शुं कहेवुं? ए तो पापमां ऊभो छे. अहा! पहेलाने श्रद्धाननो दोष छे ने बीजाने खोटी श्रद्धा सहित चारित्रदोष छे. भाई! आ कोई व्यक्तिनी वात नथी. आ तो सनातन दिगंबर जैनदर्शन-अनंता तीर्थंकरोए प्ररूपेलो मारग-ते आ छे एम वात छे. अहा! आवो मारग ने आवी वात दिगंबर सिवाय बीजे क्यांय नथी.

हवे कहे छे- ‘अने जेणे तत्त्वज्ञानपूर्वक ते आहारने पचख्यो छे तेणे तेना निमित्ते थता भावने पचख्यो छे.’

अहा! तत्त्वज्ञानपूर्वक एटले शुद्ध अंतःतत्त्व प्रभु आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान सहित जेणे उदे्शिक आदि आहारने पचख्यो-छोडयो छे तेणे तेना निमित्ते थता विकारना भावने पचख्यो छे अर्थात् तेने तेवो विकार उत्पन्न ज थतो नथी.

त्यारे कोई वळी कहे छे-अत्यारे तो उदे्शिक आहार ज छे; बशेर पाणीनोय निर्दोष आहार मळी शके नहि एवी स्थिति छे. तो शुं करवुं?

शुं करवुं? ए तो कह्युं ने के-दिगंबर भावलिंगी संत-मुनिवरने उदे्शिक आदि दोषवाळा आहारनो भाव होतो नथी; एने ए भावोनुं पचखाण छे. तथापि कोई विवश थई उदे्शिक आदि आहारने ग्रहण करे छे तो तेने अंतरंगमां मुनिपणुं होतुं नथी. कोईने रुचे, न रुचे पण मारग तो आवो छे. जेने मारगनुं श्रद्धान नथी तेने मोक्षमार्ग केम होय? ए तो मिथ्यामार्गमां ज छे. समजाणुं कांई..?

‘आ रीते समस्त द्रव्यने अने भावने निमित्त-नैमित्तिक भाव जाणवो.’ ‘आ रीते’ एटले आ द्रष्टांते समस्त अन्यद्रव्य ते निमित्त अने एना लक्षे उत्पन्न थतो भाव-विकार ते नैमित्तिक-एम द्रव्यने अने भावने निमित्त-नैमित्तिकभाव छे. अहाहा....! भगवान कहे छे-अमे (तारा माटे) परद्रव्य छीए तेथी अमारा तरफ तारुं जेटलुं लक्ष जशे तेथी तने विकार ज थशे. अहा! पोताना आत्मा सिवाय सम्मेदशिखर ने शत्रुंजय आदि बधां निमित्त छे अने एमां लक्ष जाय तेथी नैमित्तिक राग थाय छे-एम कहे छे.

पण जात्रा करीए तो धर्म थाय के नहि? भाई! जात्रा अंदरमां स्वद्रव्य जिनस्वरूप भगवान ज्ञायकबिंब छे एनी करे तो धर्म थाय. बाकी अशुभथी बचवा बहारमां जिनबिंब आदिना लक्षे शुभभाव हो, पण ते धर्म नथी, धर्मनुं कारणेय नथी. वास्तवमां ए बंधसाधक भाव छे.

त्यारे कांई (भक्ति, पूजा, जात्रा वगेरे) करवुं ज शुं काम? कोण करे भाई? पूर्ण वीतराग न होय त्यां लगी एने हेयबुद्धिए ए भाव आव्या विना रहे नहि. पण ए (-ज्ञानी) कर्तव्यबुद्धिए एने करतो नथी.


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‘जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे तेने रागादिभावो पण थाय छे, ते तेमनो कर्ता पण थाय छे अने तेथी कर्मनो बंध पण करे छे;.....’

जोयुं? जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे एटले परद्रव्यना लक्षे परिणमे छे तेने रागद्वेषादिभावो थया विना रहे नहि अने तेनो ते कर्ता थई परिणमे छे तेथी कर्मनो बंध पण करे छे. अज्ञानी आ रीते कर्मनो बंध करे छे.

‘ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय छे त्यारे तेने कांई ग्रहण करवानो राग नथी, तेथी रागादिरूप परिणमन पण नथी अने तेथी आगामी बंध पण नथी. (ए रीते ज्ञानी परद्रव्यनो कर्ता नथी).’

जुओ, आत्मा ज्ञानी थाय छे त्यारे तेने परद्रव्य ग्रहण करवानो राग नथी. अहीं अत्यारे उत्कृष्ट मुनिपणानी वात छे. तेथी, कहे छे, तेने रागादि परिणमन पण नथी, परद्रव्य उपरनुं लक्ष नथी तो तत्संबंधी रागादि परिणमन पण नथी. तेथी तेने आगामी बंध पण नथी. एने नवो बंध थतो नथी.

आ रीते ज्ञानी परद्रव्यनो कर्ता नथी. अहा! समस्त परद्रव्यना लक्षने छोडतो ज्ञानी तेना निमित्ते थता रागने छोडी दे छे अने तेथी ते कर्ता नथी. ज्यांसुधी अस्थिरता छे त्यांसुधी किंचित् परद्रव्यना लक्षे रागनुं परिणमन होय छे, पण अहीं तो सर्व परद्रव्यना लक्षने छोडतो पूरण स्वना आश्रये परिणमतो ते सर्व अस्थिरताने छोडी दे छे ने पूर्ण वीतराग थई जाय छे एम वात छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे, जेमां परद्रव्यने त्यागवानो उपदेश करे छेः-

* कळश १७८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति’ आम (परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं) ‘आलोच्य’ विचारीने.......

शुं कह्युं ए? के आत्मा छे ए स्वद्रव्य छे. अहाहा....! आठ कर्मथी रहित अंदर अनुपम चिद्घन-ज्ञानघन, एक ज्ञान जेनुं शरीर छे एवो भगवान आत्मा स्वद्रव्य छे. अने एना सिवाय आ शरीर-वाणी-कर्म, स्त्री-पुत्र-परिवार के देव-गुरु-शास्त्र ईत्यादि बधुं परद्रव्य छे. भाई! जेने आत्मानुं कल्याण करवुं होय एणे परद्रव्य त्यागवुं जोईए एटले के परद्रव्य जे निमित्त-आश्रय छे तेनुं लक्ष छोडवुं जोईए; केमके परद्रव्यनो आश्रय-लक्ष करवाथी रागादि विकार थाय छे. स्वद्रव्यनो आश्रय छोडीने परद्रव्यनो आश्रय-लक्ष करे छे तेने एना निमित्ते नैमित्तिक रागद्वेषमोहना भाव थाय छे.

अहाहा....! परद्रव्य निमित्त छे अने पोतानो रागद्वेषमोहनो भाव नैमित्तिक छे एम विचारीने ‘तद्–मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः’ परद्रव्य जेनुं


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मूळ छे एवी आ बहु भावोनी संततिने एकी साथे उखेडी नाखवाने ईच्छतो पुरुष.......

शुं कीधुं? के विकारना-दुःखना भावो-चाहे पुण्य हो के पाप हो-ए बहुभावोनी संततिनो प्रवाह जे चाली रह्यो छे तेनुं मूळ कारण परद्रव्य एटले परद्रव्यनुं स्वामीपणुं छे. परद्रव्यना निमित्ते पोतामां जे विकार थाय तेनो ए स्वामी थाय ए एनी संततिनुं मूळ छे.

पाठ तो एम छे के- ‘परद्रव्य जेनुं मूळ छे’ -कोनुं? के बहुभाव-संततिनुं. जेम दीकरानो दीकरो, एनो दीकरो-एम वंशपरंपरा चाले तेम रागद्वेषमोहना बहुभावोनो संतति-प्रवाहरूप परंपरा जे चाले तेनुं मूळ परद्रव्य छे एम कहे छे. एटले शुं? के विकारनी संततिनो प्रवाह परद्रव्यना आश्रये-निमित्ते ऊभो थाय छे. परद्रव्यनो आश्रय- लक्ष करवाथी विकारनी परंपरा थाय छे.

‘परद्रव्य जेनुं मूळ छे’ - आमांथी केटलाक लोको उंधो अर्थ काढे छे के-जुओ, विकारनुं मूळ परद्रव्य छे अर्थात् परद्रव्य विकार करावे छे.

अरे भाई! एनो अर्थ एम नथी. पण परद्रव्यना लक्षे विकार ज थाय छे तेथी विकारनी संततिनुं मूळ परद्रव्य कह्युं छे. विकारना भावोनी प्रवाहरूप संतति जे उठे छे एनुं कारण तो आने जे परद्रव्यनो आश्रय, परद्रव्यनुं स्वामीपणुं, अने परद्रव्यना आश्रये थता विकारनुं स्वामीपणुं छे ते छे.

अहाहा....! आत्मा शुद्ध एक चैतन्यमूर्ति प्रभु ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार छे; ते स्वद्रव्य छे. बाकी बधुं लोकालोक परद्रव्य छे. अहीं कहे छे-पोताना स्वद्रव्यने छोडीने लोकालोकनी चीजो जे निमित्त छे एनो आश्रय-लक्ष करे त्यां विकार ज थाय छे. अहा! देव-गुरु-शास्त्र अने साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा होय तोय तेना आश्रये-लक्षे विकार ज थाय. अहाहा....! चैतन्यमूर्ति आनंदस्वरूप प्रभु स्वद्रव्यना आश्रये निर्मळ निर्विकार कल्याणस्वरूप धर्मना परिणाम थाय छे अने एने छोडीने परद्रव्यनो आश्रय करी परिणमे त्यां अकल्याणरूप विकारनी-दोषनी संततिनो प्रवाह ऊभो थाय छे.

पाठमां ‘तन्मूलां’ शब्दनो शब्दार्थ एम छे के-दोषनुं मूळ कारण परद्रव्य छे, पण भाव एम नथी. श्री राजमलजीए कळशटीकामां ‘तन्मूलां’ नो अर्थ कर्यो छे के- “ परद्रव्यनुं स्वामित्वपणुं छे मूळ कारण जेनुं एवी छे.” मतलब के विकार संततिनुं मूळ कारण परद्रव्यनुं स्वामीपणुं छे. अहा! पूरण ज्ञान ने आनंदनी सहजानंदस्वरूप मूर्ति प्रभु आत्मानुं स्वामीपणुं छोडी दई जे ए परद्रव्यना झुकावमां जाय छे ए विकारनी संतति- परंपरानुं मूळ छे.

प्रश्नः– बीजाने समजावे तो धर्मनो प्रचार थाय ने?


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उत्तरः– कोण समजावे? भाषा तो परद्रव्य छे. एनो आश्रय लेवा जाय तो विकार थाय छे एम कहे छे. बीजाने आश्रये पण विकार ज थाय छे. परनो आश्रय बहु भावसंततिनुं-विकारनुं ज मूळ छे. हवे आवुं आकरुं लागे एटले कहे के आ सोनगढवाळाओए नवुं काढयुं छे. पण बापु! आ नवुं नथी भाई! आ तो अनंत तीर्थंकरो ने केवळीओए कहेली प्रवाहथी चाली आवेली वात छे.

समकितीने स्वद्रव्यनो आश्रय थयो छे, पण हजी अपूर्ण छे. तेथी तेने कंईक परनो आश्रय छे ने तेथी तेने हजी अल्प रागादि थाय छे; धर्म प्रचारनो भाव पण एने होय छे, पण एने मिथ्यात्व होतुं नथी. अज्ञानीने तो बीजो मने समजावी दे -एम परद्रव्यना आश्रयमां स्वामीपणुं ने लाभबुद्धि वर्ते छे ने तेथी तेने मिथ्यात्व अने रागद्वेषनी परंपरानो ज लाभ थाय छे. समजाणुं कांई....?

मोक्षपाहुडमां गाथा १६ मां आवे छे के-

परदव्वादो दुग्गइ सद्व्वादो हु सग्गई होई

स्वद्रव्यना आश्रये सुगति नाम निर्मळ मोक्षनी परिणति थाय छे ने परद्रव्यना आश्रये दुगर्ति नाम मलिन संसारनी परिणति थाय छे. त्यां १३मी गाथामां पण कह्युं छे के- स्वद्रव्यमां रति ते मोक्षनुं कारण ने परद्रव्यमां रति ते संसारनुं कारण छे. ल्यो, आवुं टुंकुं पण केवुं स्पष्ट!

हवे स्वद्रव्य-परद्रव्य कोने कहीए? अहा! परद्रव्य त्रण प्रकारे छेः सचेत, अचेत अने मिश्र. त्यां अरिहंतनो आत्मा, स्त्रीनो आत्मा, निगोदनो आत्मा ए बधा सचेत; एक परमाणुथी मांडीने महास्कंध ए अचेत छे अने शिष्य, नगर, स्त्री-परिवार आदि सहित बधा मिश्र छे. आ कोई पण-सचेत, अचेत के मिश्र-परद्रव्यनो आश्रय लेतां विकार ज थाय छे.

तथा आठ कर्मथी रहित निर्मळ निर्विकार शुद्ध चैतन्यघन प्रभु आत्मा छे ते स्वद्रव्य छे, अने स्वद्रव्यनो आश्रय लेतां कल्याणरूप परम वीतराग भाव थाय छे. अहा! वीतरागनो आ मार्ग तो जुओ! केटलुं वहेंची नाख्युं छे.! भगवान वीतरागदेव एम कहे छे के-अमारी सामे लक्ष करशो ने वाणी सांभळशो तो तमने राग ज थशे, केमके अमे तमारे माटे परद्रव्य छीए. अहो! आवी अलौकिक वात वीतरागना शासन सिवाय बीजे क्यांय छे नहि.

अहा! जेना निमित्ते नवां नवां कर्म बंधाय छे ते विकारनी संततिनुं मूळ परद्रव्यनुं स्वामीपणुं छे; अने स्वद्रव्यनुं स्वामीपणुं ए मुक्तिनुं कारण छे. अहा! पर- आश्रये बंध ने स्व-आश्रये मुक्ति-आ सर्वनो संक्षेपमां सार छे.

अहीं बंध अधिकारमां परद्रव्यनो आश्रय बंधनुं कारण लीधुं, समयसार


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नाटकमां बनारसीदासे मोह अने रागद्वेषना परिणाम बंधनुं कारण लीधुं अने कळश टीकाकार श्री राजमलजीए परभावना स्वामीपणाने मूळ कारण कीधुं, मोक्षपाहुडमां ‘परदव्वादो दुग्गई’ एम लीधुं-आ बधानो अर्थ एक ज छे.

अहा! व्यवहार-दया, दान, पूजा आदिनो राग-बंधनुं कारण छे ए वात केटलाकने आकरी पडे छे. पण भाई! पूर्ण आश्रय नथी, केवळज्ञाननी दशा नथी अने साधकदशा छे त्यां सुधी धर्मीने परद्रव्यना आश्रयना दया, दान, भक्ति, व्रत, तप आदिना पुण्यभाव आवे खरा, आव्या विना रहे नहि, पण छे ए बंधनुं कारण. आ बंध अधिकार छे ने? एमां परद्रव्यना लक्षे थयेला सघळा परिणाम बंध साधक भाव छे एम कहे छे.

हा, पण लोको ‘एकांत छे, एकांत छे’ -एम राडो पाडे छे के नहि? एम के देव-गुरु-शास्त्रथी पण लाभ थाय छे, व्यवहारथी पण लाभ थाय छे-एम अनेकान्त छे. भगवाने निश्चय ने व्यवहार-बे नय कीधा छे, तो बेयथी लाभ थाय एम कहो ते अनेकान्त छे.

समाधानः– भगवान! बे नय छे, बे नयना विषय छे-एम भगवाने कीधुं छे ए तो यथार्थ छे; पण बन्ने नय आदरणीय छे एम क्यां भगवाने कीधुं छे? बापु! बे नयने आदरणीय माने तो बेय एक थई जाय, बे रहे नहि. पण बेय छे, बन्नेना विषय पण छे, निश्चय छे ने व्यवहारेय छे; पण आदरणीय-उपादेय तो एक निश्चय ज छे. व्यवहार छे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो नहि (जुओ, गाथा १२ टीका) कोई व्यवहार नथी एम माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, ने व्यवहारथी लाभ थाय एम माने तोय मिथ्याद्रष्टि छे.

प्रश्नः– व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम तो खरुं ने? उत्तरः– शुं खरुं? शुं झेर पीतां पीतां अमृतनो ओडकार आवे? न आवे. तेम परद्रव्यनो आश्रय करतां करतां स्वद्रव्यनो आश्रय कदीय न आवे. राग करतां करतां वीतरागता कदीय ना थाय. आ तो न्यायथी वात छे; आमां कोईनी मति-कल्पना न चाले.

एक कोर भगवान आत्मा अंदर पोते शुद्ध जीव-तत्त्व छे, ने बीजी कोर पुण्य- पापना भाव ए भिन्न आस्रव तत्त्व छे अने शरीर अने कर्म ए अजीव तत्त्व छे. हवे एक समयनी जे पर्याय छे ते व्यवहारे आत्मा छे. अहा! ए पर्यायनी बुद्धिमां तो अनादि काळथी रहेलो छे; पर-आश्रयमां ते अनादि काळथी रहेलो छे. हवे एने निश्चय शुद्ध जीवतत्त्व अखंड एक ज्ञायकभावरूप स्वद्रव्यमां स्थापीने स्वद्रव्यना आश्रये जेटली जे दशा थाय ते धर्म छे, मोक्षनुं कारण छे. अने स्वनो आश्रय छोडीने जेटलो परद्रव्यना आश्रयमां जाय, परद्रव्य चाहे तो सम्मेदशिखर हो के साक्षात् तीर्थंकर देव हो, तेटलो एने विकार थाय, बंध थाय; शुभभाव थाय एथी पण (पुण्य) बंध ज थाय.


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अहा! जेणे स्वद्रव्यने जाण्युं एणे बधुंय जाण्युं. अहीं कहे छे-परद्रव्य एटले स्वद्रव्य सिवाय जे देव-गुरु-शास्त्र, स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-संपत्ति आदि आखुं जगत छे ते परद्रव्य छे. त्यां स्वनो आश्रय छोडीने आत्मा जेटलो पर निमित्तना आश्रयमां जाय छे तेटलो तेने दोष-विकार थाय छे; चाहे पुण्य हो के पाप-बेय विकारनी संतति छे, आत्मानी संतति नहि.

कोई वळी कहे छे-विकारनी संततिनुं परद्रव्य कारण छे. हा, कारण छे एटले निमित्त छे. ए तो पहेलां ज कीधुं ने के- ‘परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं विचारीने’ .... , एटले के परद्रव्य तो निमित्त छे. निमित्त छे एटले के ए परमां (-जीवमां) कांई करतुं नथी; करे तो निमित्त रहे नहि.

शुं कीधुं? सिद्धांत समजाय छे? चाहे तो त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्मा अने एमनुं वाणीनुं निमित्त हो, पण ए निमित्त कांई आत्माने ज्ञान-श्रद्धान करावी दे एम छे नहि. ज्ञान-श्रद्धान पोताने थाय छे ए तो स्वद्रव्यना आश्रये ज थाय छे. हुं परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु छुं एवुं परिपूर्णनुं ज्ञान-श्रद्धान तो स्वने आश्रये ज थाय छे. पर निमित्त हो, पण ए जीवमां कांई करतुं नथी.

‘परमात्मप्रकाश’ मां आवे छे के-भगवाननी दिव्यध्वनिथी पण आत्मा जणाय एवो नथी.

त्यारे लोको राडुं पाडे छे के-शुं एनाथी न जणाय? प्रवचनसारमां तो पाठ छे के- ‘सत्यं समधिदव्यं’ -शास्त्र समध्ययनीय छे. (गाथा ८६)

भाई! एनो अर्थ ए छे के-तारुं लक्ष आत्मा उपर राखी शास्त्र शुं कहे छे ए बराबर सांभळ अने समज. भले विकल्प छे, पण आत्मानुं लक्ष छे तेथी एने अंदर निर्जरा थाय छे. जेटलो विकल्प रहे छे एटलो बंध छे, पण एने गौण गणीने शास्त्र बराबर जाणवां, समजवां एम कह्युं छे.

अहीं कहे छे-शास्त्र परद्रव्य छे, निमित्तमात्र छे, अने एना लक्षे नैमित्तिक विकार थशे, पुण्यभाव थशे, बंधभाव थशे. भाई! परद्रव्यनो आश्रय अने स्वामीपणुं ए विकारनी-पुण्य-पापभावनी संततिनुं मूळ छे. ज्यां सुधी एने परद्रव्यना निमित्तपणानुं लक्ष छे. त्यां सुधी विकारनी -दुःखनी संतति ऊभी ज रहे छे.

अहा! ‘ए बहुभावसंततिने एकी साथे उखेडी नाखवाने ईच्छतो पुरुष’ -पुरुष कहेतां आत्मा; जे असंख्य प्रकारे शुभाशुभ भावो छे तेनी संततिने एकी साथे उखेडी नाखवा मागे छे ते पुरुष-आत्मा ‘तत् किल समगं्र परद्रव्यं बलात् विवेच्य’ -ते समस्त परद्रव्यने बळथी (-उद्यमथी, पराक्रमथी) भिन्न करीने.....