Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Moksh Adhikar; Kalash: 180 ; Gatha: 288-290.

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जोयुं? ‘विवेच्य’ एटले भिन्न करीने..... , अहाहा....! सर्वोत्कृष्ट निमित्त अरिहंत

परमात्मा हो तोपण एनाथी पोताने-स्वद्रव्यने भिन्न करीने ते पोताना आत्माने पामे छे.

अहा! सिंह आदि पशुओ, मनुष्यो अने देवताओ समोसरणमां भगवाननी पासे आवे छे अने अत्यंत निर्भय अने नम्र थईने खूब विनयथी भगवाननी वाणी सांभळे छे. पण ज्यां सुधी सांभळवामां ने भगवानना दर्शनमां लक्ष छे त्यां सुधी तो राग छे, विकल्पनी जाळ छे. अहीं कहे छे-ए विकल्प-जाळने-रागनी संततिने उखेडी नाखवा मागतो पुरुष-आत्मा भगवान अने भगवाननी वाणीना लक्षने महा उद्यम वडे छोडी दे छे. अहा! ते सर्व परद्रव्यने पोताथी भिन्न करी दे छे अर्थात् सर्व परद्रव्यनुं लक्ष छोडी दे छे.

‘समस्त परद्रव्यने भिन्न करीने...’ ल्यो, आमांथी केटलाक आवो अर्थ काढे छे के बधुं त्याग करीने जंगलमां चाली जावुं. पण भाई! आ तो अंदर आत्मामां चाली जवानी वात छे भगवान! बीजे क्यां गरी गयो छे ए? अहा! जेने अंदर पोताना चैतन्यमहाप्रभुनो आश्रय थयो छे ते बहार घरमां हो के वनमां, एने ए बधुं परज्ञेय तरीके छे. हा, एने जेटलुं घरमां के वनमां रहेवानुं अंदर लक्ष छे एटलो राग छे अने विवेकी पुरुष जोरथी-महा उद्यम वडे ए परद्रव्यना लक्षने छोडी दे छे अर्थात् पोताने एनाथी भिन्न करी दे छे अने स्वस्वरूपने प्राप्त करी दे छे.

अहा! परद्रव्य अंदर आत्मामां क्यां गरी गयुं छे के एनो त्याग करे? तो अहीं भाषा तो एम छे के- ‘समस्त परद्रव्यने बळथी भिन्न करीने.....’ ल्यो, एक कोर भगवान! एम कहे के-परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग भगवान आत्मामां नथी अने वळी बीजी कोर एम कहे के-परद्रव्यने पचखो-त्यागो. अहा! आ केवुं! !

भाई! एक रजकण पण के दि’ आत्मामां गरी गयो छे के त्यागे? पण उपदेशनी शैलीमां, रागनो त्याग कराववो छे एटले जेना लक्षे राग थाय छे ते परद्रव्यने छोड एम कहेवामां आवे छे. अहा! परद्रव्यनुं लक्ष मटतां तत्संबंधी राग मटी जाय छे अने त्यारे परद्रव्य त्याग्युं एम कहेवामां आवे छे. बापु! शब्दना भावमां जराय फेर पडी जाय तो आखो फेर थई जाय ल्यो, ‘विवेच्य’ - ‘भिन्न करीने..’ एटले परद्रव्यनुं लक्ष संपूर्ण छोडी दईने... एम अर्थ छे. बंध अधिकार छे ने? तो परने लक्षे-आश्रये बंध ज थाय एम सिद्धांत कहे छे.

प्रश्नः– तो पछी तमे आ बंधनां कारणो केम ऊभां करो छो? आ २६ लाखनां मंदिर थयां ने वीस-वीस लाख पुस्तको छपायां ने हजी छपाये जाय छे; आ बधुं शा माटे?

उत्तरः– भाई! मंदिर ने पुस्तको ईत्यादि परद्रव्यनी क्रिया तो जे काळे थवानी


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होय ते एना कारणे थाय; अने ते काळे एने परद्रव्यना आश्रयवाळो शुभभाव होय छे, पण ए छे बंधनुं कारण. भगवाननां दर्शन करवानो ने भगवाननी वाणी सांभळवानो भाव शुभभाव छे, पण ए बंधसाधक भाव छे, एनाथी पुण्यबंध थशे पण धर्म नहि.

ल्यो, आम समस्त परद्रव्यने बळथी भिन्न करीने ‘निर्भरवहत्–पूर्ण–एक– संविद्–युतं आत्मानं’ –अतिशयपणे वहेतुं (-धारावाही) जे पूर्ण एक संवेदन तेनाथी युक्त एवा पोताना आत्माने ‘समुपैति’ पामे छे,.... ... ...

अहाहा....! शुं कहे छे? के सर्व रागसंततिने उखेडी नाखवानो ईच्छुक पुरुष समस्त परद्रव्यने बळथी भिन्न करीने अर्थात् परद्रव्य तरफनुं पूर्ण लक्ष छोडीने अने पूरण स्वभावथी भरेला पूर्णानंदना नाथनो पूरण आश्रय करीने, अतिशयपणे वहेतुं जे पूर्ण एक संवेदन तेनाथी युक्त थयो थको पोताना आत्माने पामे छे. अहाहा...! परनो पूर्ण आश्रय छोडयो एटले अहीं स्वस्वरूपना पूर्ण आश्रयमां आव्यो अने त्यारे एने पूरण आनंदनुं वेदन आव्युं-एम कहे छे. समजाणुं कांई...? पूर्ण परद्रव्य तरफनो आश्रय छोडीने पूरण स्वरूप भगवान आत्मानो पूर्ण आश्रय कर्यो त्यां पर्यायमां पूर्ण स्वसंवेदन प्रगट थयुं, आत्मप्राप्ति थई. ल्यो, आवी वात बहु झीणी.

झीणी वात छे, पण आ सत्य छे. एने जाणवुं पडशे. एने जाण्या विना ए अंतर्मुख थशे शी रीते? अहा! जेना ज्ञानमां खोटप छे ए तो क्यांय पर तरफ भटकशे, संसारमां-चारगतिमां रझळी मरशे. अहीं कहे छे-जेने विकारनी संततिने उखेडी नाखवानी भावना छे ते विकारनुं जे निमित्त छे ते समस्त परद्रव्यथी बळथी खसीने- हठीने पूर्ण ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्माना-स्वद्रव्यना पूर्ण आश्रयमां आवे छे अने त्यारे तेने अतिशयपणे वहेतुं पूर्ण एक संवेदन-आत्माना आनंदनुं पूरण धारावाही वेदन प्रगट थाय छे. अहा! आवा संवेदनथी युक्त ते पोताना आत्माने पामे छे. पहेलां जे परद्रव्यना लक्षे विकारने पामतो हतो ते हवे स्वद्रव्यना पूरण आश्रयमां आवतां पूरण एक स्वसंवेदन सहित आत्माने पामे छे. अहा! आवो मारग! लोकोए अत्यारे एने वींखी नाख्यो छे. रागमां रगदोळी नाख्यो छे.

अहा! ‘पूरण एक संवेदन तेनाथी युक्त आत्माने पामे छे.’ सिद्धांत तो जुओ. भगवान पूर्णानंदना नाथने पूरण अवलंबतां पूरण एक स्वसंवेदननी प्रगटता सहित ते आत्माने पामे छे. हवे कहे छे- ‘येन’ जेथी ‘उन्मूलितबन्धः हषः भगवान् आत्मा’ जेणे कर्मबंधने मूळथी उखेडी नाख्युं छे एवो आ भगवान आत्मा ‘आत्मनि’ पोतामां ज (-आत्मामां ज) ‘स्फूर्जति’ स्फुरायमान थाय छे.


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अहा! जे पूरण एक संवेदन-एनाथी युक्त आत्माने पामे छे त्यारे एणे कर्मने मूळमांथी छोडी दीधुं छे, उखेडी नाख्युं छे. अहो! पूर्ण आनंदना वेदननी दशा! अत्यंत निर्मळ ने निर्विकार. अहा! समस्त विकारनी संततिनो जेमां नाश थयो छे एवी पूरण आनंदनी दशा अद्भूत अलौकिक छे.

अहा! आवो धरम ने आवी रीत! तारा मारगडा बहु जुदा छे नाथ! अत्यारे तो ए सांभळवा मळवाय दुर्लभ छे प्रभु! अहीं शुं कहे छे? के-जेने आत्मानी पूर्ण आश्रयनी दशा प्रगटी एनी दशा पूर्ण थई गई; एने कर्म पूर्ण उखडी गयां, विकारनी संतति पूर्ण नाश पामी अने पूर्ण आनंदना धारावाही संवेदननी दशा प्रगटी. अहीं ‘धारावाही’ कीधुं ने? एटले के निरंतर एक पछी एक एम पूरण निर्मळ आनंदनी धारा चाली-एम कहे छे. अहा! जे पूरण आनंदनी दशा प्रगटी ते केवी छे? तो कहे छे- जेवो पूरण ज्ञानानंदस्वभाव छे एवी पर्यायमां पूरण ज्ञान ने आनंदनी प्रगटता वाळी छे. जेम टकतुं तत्त्व त्रिकाळ ध्रुव छे तेम तेना आश्रये टकती दशा धारावाही ध्रुव-कायम छे. समजाणुं कांई....? भाषा तो सादी छे; भाव तो जे छे ते छे.

अहाहा...! आत्मा शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन प्रभु अंदर स्वभावे सिद्ध समान ज छे. अने ‘अतति गच्छति इति आत्मा’ – जे ज्ञान ने आनंदना स्वभावे परिणमे ते आत्मा छे, पण राग ने व्यवहारमां परिणमे ते आत्मा नहि. जेवो पूरण स्वभाव छे ते भावरूप पूरण परिणमे ते आत्मा. तेथी पूरणनो पूरण आश्रय करीने, जेमां पूरण कर्मनो नाश थई गयो छे एवा पूरण आनंदने वेदे त्यारे ते पूरणने पामे छे; अने ते आत्मोपलब्धि छे.

अही कहे छे-एवो आ भगवान आत्मा पोतामां ज स्फुरायमान थाय छे.’ ल्यो, ‘भगवान आत्मा’ - एने भगवान कहीए त्यां लोको राड पाडी जाय छे. पण बापु! ए अंदर भगवानस्वरूप ज छे. भग नाम ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीवाळो आत्मा भगवानस्वरूप ज छे. भग नाम लक्ष्मी-ते आ धन-लक्ष्मी नहि. ए लक्ष्मीवाळा धूळवाळा तो बिचारा भिखारा छे. लावो, लावो, लावो-एम निरंतर तेओ तृष्णारूपी अग्निथी बिचारा बळी रह्या छे. अहीं आ भगवान तो ज्ञानानंदरूप लक्ष्मीनो भंडार एकली शांति-शांति-शांतिनो रसकंद छे. अहा! आवो अपार महिमावंत आत्मा-के जेने मूळमांथी कर्म उखडी गयां छे ने पूरण आनंदनुं वेदन प्रगट थयुं छे-ते पोतामां ज स्फुरायमान थाय छे. अहो! शुं अपार अलौकिक एनो महिमा! भगवान सर्वज्ञनी वाणीमां पण एनो पूरण महिमा न आवी शक्यो एवी ए अद्भुत चीज छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-

‘जे स्वरूप सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां, कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे? अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.
-अपूर्व अवसर......’

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अहाहा...! आवो भगवान आत्मा जेणे कर्मने मूळथी उखेडी नाख्यां छे ते पोतामां ज स्फुरायमान-प्रगट थाय छे. शक्तिरूपे हतो ते पर्यायमां प्रगट थाय छे. अहाहा....! एकला अमृतथी कळश भर्यो छे. स्फुरायमान थाय छे एटले शुं? के पूरण स्वभावनो पूरण आश्रय लईने, पूरण कर्मने पूरण उखेडी नाखीने पर्यायमां पूरण आनंद सहित प्रगट थाय छे. शक्तिरूपे हतो ते व्यक्तिरूपे पर्यायमां पूरण प्रगट थाय छे. ल्यो, आ अबंधस्वभावी भगवान आत्माना आश्रयनुं अबंधदशारूप फळ छे.

* कळश १७८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं जाणी....’ शुं कीधुं? के आत्मा त्रिकाळी शुद्ध सच्चिदानंद प्रभु स्ववस्तु छे. अने ए सिवायनी जगतनी सर्व चीज-शरीर, मन, वाणी, कर्म, धंधो-वेपार-नोकरी, मकान- महेल-हजीरा, देव-गुरु-शास्त्र ईत्यादि-परवस्तु छे. ए परद्रव्यने ने पोताना विकारने, कहे छे, निमित्त-नैमित्तिकपणुं छे. एटले शुं? के परद्रव्य ते निमित्त छे अने एना लक्षे पोते परिणमे त्यां विकार थाय छे ते नैमित्तिक छे. भाई! चाहे साक्षात् तीर्थंकर परमात्मानी स्तुतिमां ऊभो होय तोय ते स्तुतिनो भाव परलक्षे थयेलो विकार छे, धर्म नहि.

ल्यो, एम जाणी ‘समस्त परद्रव्यने भिन्न करवामां-त्यागवामां आवे त्यारे समस्त रागादिभावोनी संतति कपाई जाय छे अने.....’

अहा! समस्त परद्रव्य-देव-गुरु-शास्त्र सुद्धां बधांय-माराथी भिन्न छे एम विवेक-भेदज्ञान करीने परद्रव्यथी लक्ष हठावी लेवुं एनुं नाम परद्रव्यने भिन्न करवुं- त्यागवुं छे. शुं कीधुं? शुद्ध आनंदकंद प्रभु पोते स्वतत्त्व छे, एनी पर्यायमां जेटला पुण्य- पापना भाव थाय ते बधा नैमित्तिक भाव निमित्त-परद्रव्यना लक्षे थया छे. हवे ज्यारे परद्रव्य ने तेना लक्षे थतो विकार-ए बेयनुं लक्ष छोडी दे त्यारे एणे परद्रव्यनो त्याग कर्यो एम कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– कहेवामां आवे छे तो खरेखर शुं छे? उत्तरः– खरेखर तो एने परनो सदा त्याग ज छे, अर्थात् आत्मा परथी रहित ज छे. एणे परने कदी पोतानामां ग्रह्या ज नथी तो त्यागनी वात ज क्यां रहे छे? आत्मामां परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग छे ज नहि. वास्तवमां अनादिथी ए पोताना शुद्ध त्रिकाळी स्वरूपने भूलीने, परवस्तु जे निकट उपस्थित छे तेनुं लक्ष करीने तेना आश्रये परिणमे छे अने तेथी तेने पुण्य-पापना भावरूप विकार ज थया करे छे. हवे ज्यारे ते परनुं लक्ष छोडी परनो आश्रय छोडे छे तो ते नैमित्तिक विकारने पण छोडे छे अने त्यारे एणे परद्रव्यनो त्याग कर्यो एम कहेवामां आवे छे. बाकी एक वस्तुमां


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बीजी वस्तु जाय एम त्रणकाळमां बनी शके नहि, केमके एकमां बीजीनो अभाव छे. जो एम न होय तो बधुं एक थई जाय. समजाणुं कांई.....?

ज्यारे ते स्वद्रव्यना आश्रयमां आवे त्यारे जेटले दरज्जे ते परद्रव्यनो आश्रय छोडे छे तेटलो तेने स्वनो आश्रय थाय छे अने तेटले दरज्जे तेने रागादि कर्म कपाई जाय छे. ज्यारे ते पूरण परद्रव्यनो आश्रय छोडे छे त्यारे तेने स्वद्रव्यनो पूरण आश्रय थाय छे अने त्यारे एने समस्त रागादिनी संतति कपाई जाय छे. ल्यो, आवी धर्मनी वातु बहु झीणी बापु! लोको तो कांईक ने कांईक कल्पीने बेठा छे. (एम के शुभ करतां करतां शुद्ध थाय).

पण भाई! ‘पूयादिसु वयसहियं...’ ईत्यादि भावपाहुडनी गाथामां आचार्य कुंदकुंद शुं कहे छे? के तीर्थंकर भगवाननी मूर्ति होय के साक्षात् भगवान बिराजता होय, तेमनी पूजा आदिनो भाव के पांचमहाव्रतादिना पालननो भाव पुण्य छे, धर्म नहि. त्यां ‘पूजा आदि’ शब्द कहीने परद्रव्यनी पूजा, भक्ति, स्तुति, वंदना, नमस्कार, नामस्मरण, वैयावृत्य वगेरेनो शुभभाव छे ए पुण्य छे, धर्म नहि-एम आचार्यदेव कहे छे. लोकोने बिचाराओने क्यां खबर छे कांई? ए तो आंधळे-बहेरा कुटाये जाय छे.

शुं थाय? रळवुं, कमावुं ने खावुं-एम बिचारा सलवाई गया छे. संसारना काम आडे नवरा पडे तो तत्त्वाभ्यास करे ने? पण भाई! आ जीवन (-अवसर) जाय छे हों.

प्रश्नः– खावा रोटला तो जोईए ने? उत्तरः– अहा! ए आयुष्य लईने आव्यो छे ते एने रोटला नहि मळे? (अने आयु नहि होय तो रोटला शुं करशे?)

प्रश्नः– पण ए धंधोय लईने आव्यो छे ने? उत्तरः– ना, ए धंधो लईने आव्यो नथी. बहारमां एने जे धंधो चाले छे ए तो एना (धंधाना) कारणे चाले छे; ए परवस्तुने करे कोण? शुं आत्मा करे? कदी न करे. अने धंधाना लक्षे ए अनेक अशुभ भाव करे छे ए एनो विपरीत पुरुषार्थ छे अने ते नवीन छे, संसार-परिभ्रमणनुं कारण छे. बापु! आ शरीरनुं तुं कांई न करी शके त्यां धंधानुं शुं करे? जो ने, शरीरमां पक्षघात थाय तो तेने हलावी शके छे? एने पक्षघात थतो रोकी शके छे? बापु! ए तो जड माटी भाई! ए भगवान आत्माथी सदाय भिन्न वस्तु छे; एनुं तुं करे शुं? छतां अरे! एने अनादिनुं आवुं अभिमान!

एने अहीं कहे छे के ज्यारे ते समस्त परनुं लक्ष छोडे छे त्यारे परना संबंधे थता रागादि भावोने पण छोडे छे अर्थात् रागादिनी संतति एने कपाई जाय छे.


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‘अने त्यारे आत्मा पोतानो ज अनुभव करतो थको कर्मना बंधनने कापी पोतामां ज प्रकाशे छे.’

‘पोतानो ज अनुभव करतो थको’ -एम कह्युं ने? मतलब के ज्यारे सर्व परद्रव्यथी हठी शुद्ध एक ज्ञानानंदघन प्रभु आत्मामां एकाग्र थई एना ज ध्यानमां रहे छे त्यारे धर्म थाय छे अने कर्म कपाय छे. ल्यो, आ प्रमाणे कर्म बंधनने कापी पोते पोतामां ज प्रकाशे छे. अहा! जेवो अंदर चैतन्यस्वभाव छे तेवो स्वद्रव्यना ध्यानमां जतां पर्यायमां प्रगट प्रकाशे छे.

ल्यो, आमां हवे कांई मों-माथुं हाथमां आवे नहि (समजाय नहि) एटले कहे के-ईश्वरने याद करो, ईश्वरनी भक्ति-पूजा करो ने ईश्वरनुं ध्यान धरो एटले कर्म कपाई जशे.

पण भाई! तुं पोते ज अंदर ईश्वर छो के नहि? तारुं स्वरूप ज भगवान! ईश्वर छे. तेमां एकाग्र थईने तेने ज भज ने; तेनुं ज ध्यान कर ने प्रभु! जेने तुं ईश्वर कहे छे ए तो परद्रव्य छे; एनुं लक्ष करवा जईश तो तुं तारा स्वरूपमांथी खसी जईश अने स्वरूपथी खसी जईश एटले परना लक्षे तने राग ज थशे. भले पुण्य थाय तोय ए राग ज छे, धर्म नहि. समजाणुं कांई.....?

अहा! धर्मने नामे लोकोए मार्ग वींखी नाख्यो छे. एमने एटली गरजेय क्यां छे? सत्यने खोजवानी एने क्यां पडी छे? ए तो वेपार-धंधानी खोज करे के क्यांथी माल सस्तो मळे? ने केम वधारे नफो थाय? नोकरीमां कोण वधारे पगार आपे? -आ एम बधी रखडवानी खोजुं करे पण पोते अंदर ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार छे एने खोजतो नथी. अहीं कहे छे-एनी खोजमां जाय तो परनां लक्ष छूटी जाय ने परनां लक्ष छूटी जाय तो एने आत्मानुभव थाय, अंदर ज्ञान ने आनंदनी अनुपम दशा प्रगट थाय. अहा! स्वानुभवमां आवतां ते कर्मबंधनने कापीने पोते पोतामां ज प्रकाशवा लागे छे, अर्थात् पोते पर्यायमां-व्यक्त प्रगट दशामां-ज्ञानानंदरूप थई जाय छे.

‘माटे जे पोतानुं हित चाहे छे ते एवुं करो.’

अहाहा....! जुओ आ उपदेश! एम के भगवान! तारी वर्तमान दशामां अहित छे. परद्रव्य ने परद्रव्यना लक्षे थता भावथी तुं संतुष्ट थाय ने तेमां स्वामीपणुं करे ए तारुं अहित छे प्रभु! माटे जो तने हितनी-कल्याणनी-सुखनी भावना छे तो अंदर सुखधाम प्रभु आत्मा छे तेमां जा; समस्त परद्रव्यना वलणथी छूटी स्वद्रव्यना वलणमां जा. अहाहा....! तारुं स्वद्रव्य प्रभु! एकला ज्ञान ने आनंदथी भरेलुं छे. तुं ज्ञानानंदनो दरियो छो ने नाथ! माटे तेमां जई त्यां ज अंतर्निमग्न


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था. एम करतां सर्व अहितनो नाश थई सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ निराकुळ आनंद ने शांतिनी दशा प्रगट थशे; अने ए ज हित छे.

परथी खसीने स्वना आश्रयमां जवुं ने रहेवुं-आ एक ज हितनो-मोक्षनो पंथ छे. बाकी परना लक्षे दया, दान, भक्ति ईत्यादिना परिणाम कोई (कर्ता थईने) करे एनाथी तो भवपरंपरा मळे, चारगतिमां परिभ्रमण थाय. धर्मीने पूरण वीतरागता न थाय त्यां सुधी आवा पुण्यभाव आवे छे. आव्या विना रहेता नथी; पण तेने ते बंधसाधक ज माने छे अने अंतरना उग्र-अति उग्र आश्रय द्वारा एने ते क्रमशः खतम करी दई पूरण आनंदनी दशाने प्राप्त करी ले छे. आवो मारग छे.

हवे बंध अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे ज्ञानना महिमाना अर्थनुं कळश काव्य कहे छेः-

* कळश १७९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कारणानां रागादीनां उदयं’ – बंधना कारणरूप जे रागादिक (रागादिभावो) तेमना उदयने ‘अदयम्’ निर्दय रीते (अर्थात् उग्र पुरुषार्थथी) ‘दारयत्’ विदारती थकी,.... .... .... ..

जुओ, आ लोकोत्तर मार्ग कहे छे. शुं कहे छे? के बंधना कारणरूप जे अनादिथी रागद्वेषमोहना भावो छे तेनो, आत्माना अति उग्र आश्रय वडे नाश करी दे छे. ल्यो, हवे रागादि शुं छे एय लोकोने समजवुं मुश्केल पडे छे. आ बीजानुं आम भलुं करी दउं, जगतनुं कल्याण करी दउं ने जगतना सुखना पंथे दोरी जउं ईत्यादि जे भाव छे ए बधा बंधना कारणरूप रागादिभाव छे. अहा! पुण्य ने पापना बधाय भाव बंधना कारणरूप रागादिभाव छे. तेमना उदयने स्वभावना उग्र पुरुषार्थथी निर्दय रीते नाश करे छे. नाश करे छे एटले शुं? के पोते पोताना शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावमां संलग्न रहे छे तो राग उत्पन्न ज थतो नथी एने रागनो निर्दय रीते नाश करे छे एम कहेवाय छे. अहाहा....! अंदर निर्दोष निर्विकार चिन्मूर्ति प्रभु आत्मा विराजे छे तेनो आश्रय लेतां निर्दोष, निर्विकार दशा थाय ने सदोष दशा जाय एने सदोषनो नाश करे छे एम कहेवामां आवे छे.

लोको तो बायडी, धंधा वगेरेना रागने ज राग समजे छे. पण भाई! आ दया, दान, भक्ति, पूजा ने अहिंसादि व्रतना परिणाम-एय बधो राग ज छे, ए कांई शुद्ध चैतन्यना परिणाम नथी. अहाहा...! चैतन्यप्रकाशनुं पूर, चैतन्यज्योतिस्वरूप प्रभु आत्मा अंदर झळहळ झळहळ प्रकाशे छे. एमां आ शुभाशुभ पुण्य-पापना भाव क्यां छे! अहा! पण आवी वात एने-रांकने बेसे नहि, हवे एक बे बीडी सरखी पीवे त्यारे तो भाई सा’बने दस्त उतरे ने कप बे कप चा पीवे त्यारे मगज ठेकाणे आवे


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-आवां तो जेनां अपलख्खण छे एने कहीए के-भगवान! तुं चिन्मात्रज्योतिस्वरूप पूरण आनंदनो नाथ छो, ने आ विकार उत्पन्न थाय ते तारुं स्वरूप नथी; पण एने ए केम बेसे? बेसे के न बेसे, भगवान! तुं सच्चिदानंदस्वरूप शाश्वत चैतन्य ने आनंदनुं धाम छो.

अहा! आवा पोताना स्वरूपनो आश्रय लईने पर तरफथी खसी जाय छे त्यारे तेने रागद्वेषमोह उदय पामता नथी तो एणे रागादिनो नाश कर्यो एम कहेवामां आवे छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपमां ध्यानारूढ थईने आठ आठ वर्षना बाळको पण केवळज्ञान पामीने मोक्ष पधार्या छे. अहा! आवी ज पोतानी शक्ति छे, पण शुं थाय? एणे कदी परवा ज करी नथी. परना महिमा आडे एने पोतानो महिमा भास्यो नथी. बहारमां देव-गुरुनो महिमा करे, पण एमां शुं छे? ए तो राग छे भाई! बंधनुं कारण छे. अहीं कहे छे-बंधनुं कारण एवा रागादिना उदयने आश्रयना उग्र पुरुषार्थथी विदारती थकी ज्ञानज्योत प्रगट थाय छे. जुओ आ धर्म!

अहाहा.....! एक ज्ञान-ज्ञान-ज्ञाननो भंडार प्रभु आत्मा छे. ज्ञान एटले आ वकीलात ने दाकतरीनां ज्ञान ए नहि; ए तो बधां लौकिक कुज्ञान छे. अने पांच-पचीस हजारना पगार मळे ए पैसा बधा जड-धूळ छे. जेने ज्ञान नथी ए अचेतन-जड छे. जुओ, आ शरीर छे एने खबर छे के हुं शरीर छुं? ना. बापु! ए तो जड माटी-धूळ छे. जाणनारो तो अंदर चैतन्यप्रकाशनो पुंज भिन्न छे, अने आ शरीर तो जड परमाणुनो ढगलो छे. जुओ, धूळमांथी घउं थया, ने घउंमांथी रोटली थई ने रोटलीमांथी आ मांस, लोही आदि थया. बापु! आ तो बधा परमाणुओनी दशाओ परमाणु पोते कायम रहीने स्वतंत्र बदल्या करे. आत्मा एनुं शुं करे? कांई नहि. पण एनुं लक्ष करे तो एने पर्यायमां रागादि विकार थाय छे.

अरे! एणे अनंतकाळना प्रवाहमां पूर्वे कोईदि’ परथी-शरीरादिथी भिन्न पडी एक ज्ञान ज जेनुं स्वरूप छे एवा आत्मानुं भान कर्युं नथी. परंतु जे कोई परना पडखेथी हठी स्वद्रव्यना पडखे आवे छे, स्वद्रव्यना आश्रयमां आवे छे तेने परद्रव्य तरफना आश्रयनो अभाव थवाथी परना निमित्ते थता विकारनो अभाव थाय छे, अने स्वद्रव्यना वलणवाळी-आश्रयवाळी निर्मळ वीतरागी निर्विकार परिणति प्रगट थाय छे अने ए धर्म छे. बाकी बधुं थोथेथोथां छे. कोई बीजी रीते धर्म माने ने लाखोनां दान करे ने जीवदया पाळे पण ए बधो संसार छे, अधर्मभाव छे. अहीं तो जेटले दरज्जे परद्रव्यथी खसे तेटले दरज्जे स्वद्रव्यमां आवे ने तेटली एने धर्म परिणति प्रगटे छे एम वात छे. शुं करती धर्म परिणति प्रगटे छे? तो कहे छे-

‘कार्य विविधं बन्धं’ ते रागादिना कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारना बंधने ‘अधुना’ हमणां ‘सद्यः एव’ तत्काळ ज ‘पणुद्य’ दूर करीने,.....


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शुं कहे छे? के परना लक्षे थता ए पुण्य-पापना कार्यने-नैमित्तिक बंधने भगवान आत्मा स्वस्वरूपना आश्रये तत्काळ ज दूर करी नाखे छे. ‘तत्काळ ज’ एटले शुं? के जेम जे समये प्रकाश थाय ते ज समये अंधारूं जाय अने जे समये अंधारूं जाय ते ज समये प्रकाश थाय; बन्नेने काळभेद नथी, अंधारूं जवानो ने प्रकाश थवानो एक ज काळ छे; तेम भगवान आत्मा जे समये परनुं लक्ष छोडीने पर तरफना झुकावना पुण्य-पापना भाव छोडे छे ते ज समये स्वभावना लक्षमां आवे छे ने स्वना आश्रयवाळी निर्मळ परिणति प्रगट थाय छे अने ते ज समये विभाव-विकारनुं कार्य जे बंध ते दूर थई जाय छे. आत्मामां स्थिर थवुं ने विकार ने विकारना कार्यनो अभाव थवो ए बन्नेनो काळ एक ज छे.

प्रश्नः– हवे आमां शुं करवुं? पैसानो सदुपयोग करवो के शरीरनो सदुपयोग करवो-एवुं कांई तो आमां आवतुं नथी.

उत्तरः– अरे, सांभळने भाई! तुं परनुं शुं करी शके छे? कांई ज नहि. आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे, ने पैसाय धूळ छे. एनो सदुपयोग तुं शुं करे? जे ताराथी भिन्न छे एनुं तुं शुं करे? दान देवानो भाव होय तो पुण्य थाय, अने एमांय माननी-मोटपनी अधिकता होय तो पाप बांधे. एक भगवान आत्मा पोते स्व तेना आश्रये ज धर्म थाय अने स्व-आश्रय करवो ने पर-आश्रय छोडवो ए ज कर्तव्य छे. समजाणुं कांई...?

अहीं कहे छे-रागादिकना कार्यरूप अनेक प्रकारना बंधने दूर करीने ‘एतत् ज्ञानज्योतः आ ज्ञानज्योति- ‘क्षपिततिमिरं’ के जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे ते- ‘साधु’ सारी रीते ‘सन्नद्धम्’ सज्ज थई,... ...

अहाहा...! एकला ज्ञान-ज्ञान-ज्ञानना प्रकाशनुं पूर ज्ञानज्योतिस्वरूप प्रभु अंदर पोते छे तेमां एकाग्र थतां ते तत्काळ पर्यायमां प्रगट थाय छे. हवे आने धर्म कहेवो माणसने (क्रियाकांडीने) भारे पडे छे. पण भाई! आत्मा छे एनो स्वभाव ज ज्ञान छे. जेम गळपण गोळनो स्वभाव छे तेम भगवान आत्मानो ज्ञान स्वभाव छे. अहाहा...! जाणवुं ए एनो स्वभाव छे, पण राग करवो ए एनो स्वभाव नथी. तेम जाणवुं ए रागनो स्वभाव नथी. राग तो जड अज्ञानभाव छे भाई! आ बधा क्रियाकांड जड अज्ञानभाव छे, आंधळा छे. अहाहा...! ए अज्ञानरूपी तिमिरनो नाश करी ज्ञानज्योति अंदरमां प्रगट थाय छे. एटले शुं? के ज्ञानज्योति प्रगटतां आ क्रियाकांड मारा ने भला एवो अज्ञानभाव नाश पामी जाय छे.

अहा! अज्ञानीए अनादिथी राग ने ज्ञान एक मान्यां छे ते एनी भ्रमणा ने


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अज्ञान छे. अहीं कहे छे ए अज्ञाननो नाश करती सम्यक् प्रकारे ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे. अहाहा...! पोते राग वगरनी चीज ज्ञानस्वरूप प्रभु आत्मा छे. ते परथी हठी अंदर स्वस्वरूपमां जाय छे त्यारे स्वने स्व-ज्ञानस्वरूप जाणे छे ने रागने आंधळो अज्ञानमय पर जाणे छे. आ प्रमाणे स्वपरनी वहेंचणी करतुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान जे शक्तिरूपे अंदर छे ते पर्यायमां प्रगट थाय छे. आ मोक्षनो मारग अने आ धर्म छे. अहो! रागथी भिन्न पडीने ज्ञान ज्ञानमां आव्युं ने स्थिर थयुं ते धर्म छे. आवी वात छे!

अहा! ते ज्ञानज्योति सारी रीते केवी सज्ज थई? तो कहे छे- ‘तद्–वत् यद– वत’ एवी रीते सज्ज थई के ‘अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति’ तेना फेलावने बीजुं कोई आवरी शके नहि.

अहाहा...! ज्ञाननो प्रकाश ज्ञानसूर्य प्रभु आत्मा छे. शुं कीधुं? के आत्मा ज्ञानसूर्य छे. आ सूर्यनो प्रकाश तो जड आंधळो छे. एने खबरेय नथी के हुं प्रकाश छुं. पण आ स्व अने परने प्रकाशनारो ज्ञानप्रकाश भगवान ज्ञानसूर्यमां एकाग्र थई ज्यां झगमग- झगमग प्रगट थयो त्यां ए ज्ञानप्रकाशना फेलावने हवे कहे छे, कोई रोकी शके नहि. पहेलां ज्ञानने राग ने पुण्यमां रोकीने एम मानतो हतो के आ (राग ने पुण्य) हुं छुं. एनाथी मने लाभ छे. पण हवे ए अज्ञान ज ज्यां छूटी गयुं, रागथी ज्यां भिन्न पडी गयो त्यां ज्ञान ज्ञानमां एकाग्र थयुं अने त्यारे जे ज्ञानज्योति पोताथी प्रगट थई तेना फेलावने हवे कोई आवरण करनारूं नथी एम कहे छे; अर्थात् ते आखा लोकालोकने जाणवाना सामर्थ्य सहित प्रगट थई छे. आवी वात छे!

अनादिथी एने रागादि-पुण्य-पापना भावोमां मारापणुं हतुं ते अज्ञानरूपी अंधकार हतो. पण हवे ज्यारे रागरहित भगवान चैतन्यबिंबमां स्वामित्व करीने एकाग्र थयो त्यां अज्ञान-अंधकार नाश पामी गयो अने अति उज्जवळ ज्ञानना प्रकाश सहित ज्ञानज्योति प्रगट थई. अहा! पोते ज्ञानस्वरूपी भगवान अंदर छे तेनो आश्रय करतां रागद्वेषमोहनुं अज्ञान नाश पामी गयुं ने ज्ञाननी अति निर्मळ निर्विकार पवित्र दशा प्रगट थई. अहा! आनुं नाम धरम; ने आनाथी जन्म-मरण मटे एम छे; बाकी करोडोनुं दान करे, मंदिरो बंधावे, उत्सवो करे ने गजरथ काढे, पण ए बधो शुभराग छे, बधा बहारना भपका छे, एनाथी जन्म-मरण ना मटे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! कहे छे- अनादिथी परवस्तुमां स्वामित्वपणे लीन हतो; अने तेथी एने रागद्वेषमोह ने बंधन थतां हतां. पण परथी खसीने हवे ज्यां अंदर स्वस्वरूपमां


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-चिदानंद चिद्रूपमां आव्यो अने लीन थयो त्यां रागादिक अज्ञान हठी गयुं अने अति उज्जवळ ज्ञानधारा प्रगट थई. केवी प्रगट थई? तो कहे छे-एवी प्रगट थई के हवे तेना फेलावने कोई आवरी शके नहि. जेम सूर्यना प्रकाशना फेलावने कोई (-अंधकार) रोकी शके नहि तेम स्व-आश्रये प्रगट थयेली निर्मळ ज्ञानज्योतिना फेलावने कोई रोकी शके नहि.

* कळश १७९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्यारे ज्ञान प्रगट थाय छे, रागादिक रहेता नथी, तेमनुं कार्य जे बंध ते पण रहेतो नथी, त्यारे पछी तेने (-ज्ञानने) आवरण करनारुं कोई रहेतुं नथी, ते सदाय प्रकाशमान ज रहे छे.’

अहाहा...! एक चैतन्य जेनो भाव छे एवो प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु आत्मा छे. एनी पर्यायमां पुण्य-पापना भाव, रागद्वेषमोहना भाव थाय ए चैतन्यभावथी विरूद्ध छे. पण पर-आश्रयने तजी ज्यारे ते शुद्ध चैतन्यभावना आश्रयमां आवे छे त्यारे तेने ज्ञानदशा प्रगट थाय छे अने त्यारे तेने रागादिक रहेता नथी, तेमनुं कार्य जे बंध ते पण रहेतो नथी. विकार नाश पामतां तेने नवा कर्मनुं बंधन थतुं नथी. त्यारे पछी ज्ञानने आवरण करनारुं-रोकनारुं कोई रहेतुं नथी. ते सदाय प्रकाशमान ज रहे छे. अहा! ज्ञानज्योति सदाय एकली केवळज्ञान दशारूपे रहे छे, एने हवे कोई रोकनार नथी. एनी पूर्णदशा थई तेमां हवे अपूर्णता थती नथी. आनुं नाम उत्कृष्ट धर्मदशा ने मोक्ष कहेवामां आवे छे.

* हवेनी टीका * ‘आ प्रमाणे बंध (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो’ भावार्थः– ‘रंगभूमिमां बंधना स्वांगे प्रवेश कर्यो हतो. हवे ज्यां ज्ञानज्योति प्रगट थई त्यां ते बंध स्वांगने दूर करीने बहार नीकळी गयो.’ शुं कह्युं ए? के ज्ञानज्योति प्रगट थई त्यां बंध रह्यो नहि, अबंधता प्रगट थई.

हवे पंडित श्री जयचंदजी छंद कहे छेः-

“जो नर कोय परै रजमांहि सचिक्कण अंग लगै वह गाढै,
त्यों मतिहीन जु राग विरोध लिये विचरे तब बंधन बांढै;”

शुं कहे छे? के जो कोई पुरुष चिकाशवाळा शरीरे-आ तेल वगेरे शरीरे चोपडे छे ने? तो तेल आदि चोपडवाथी चिकाशवाळा शरीरे रजमां-धूळमां पडे तो तेने रज-धूळ अवश्य चोंटे. आ तो दाखलो आपी सिद्धांत समजावे छे.


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तेम कोई मतिहीन एटले के हुं त्रिकाळ अबद्ध ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छुं एम खबर नथी एवो अज्ञानी पुरुष रागद्वेषरूपी चिकाश सहित विचरे छे-प्रवर्ते छे तो तेने कर्मरूपी रज अवश्य चोंटे छे; तेने अवश्य कर्मबंधन थाय छे.

हवे कहे छे-

“पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाटै,
नाहिं बंधै तब कर्मसमूह जु आप गहै परभावनि काटै.”

शुं कीधुं? के पोते भगवान आत्मा वास्तविक चीज शुं छे? ने आ पर्यायमां बंधन केम छे? ईत्यादिनो यथार्थ उपदेश मळे त्यारे ते रागद्वेषने छोडीने पोताना शुद्ध स्वरूपने अनुभवे छे. पहेलां रागद्वेषने चाटतो हतो ते हवे अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने अनुभवे छे, चाटे छे.

जुओ, आ शरीर, वाणी, मोसंबी, शेरडी के स्त्रीनुं शरीर-ईत्यादिनो स्वाद तो आत्माने होय नहि, केमके ए बधा जड पर पदार्थो छे. तो शुं छे? के ए बाह्य पदार्थोना लक्षे जे आ राग-द्वेष करे छे तेनो एने स्वाद आवे छे. अज्ञानी अनादिथी परलक्षे थतां रागद्वेषने चाटे छे. पण यथार्थ उपदेश मळे छे त्यारे ते रागद्वेषना स्वादने छोडी दई भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने वेदे छे-चाटे छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?

‘निज चाटै’ -एम कीधुं ने? एटले शुं? के अनादि संसारथी मांडीने ज्ञान ने आनंद पोतानुं स्वरूप छे एनी एने खबर नथी. तो पोताना स्वरूपना भान विना परद्रव्योना लक्षे तेने पर्यायमां निरंतर रागद्वेषरूप विकार ऊभो थाय छे तेने ते वेदे- अनुभवे छे, चाटे छे. पण ए महा भयानक दुःखनो-झेरनो स्वाद छे. पण कोई निकटभवि जीव यथार्थ उपदेशने प्राप्त थई पर तरफना वलणने छोडी विकारना-झेरना स्वादने छोडी दे छे त्यारे तेने भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना अमृतनो स्वाद- अनुभव थाय छे. आनुं नाम धर्म छे. ‘निज चाटै’ -ए धर्म छे.

आ छोकरां नानां आंगळां नथी चाटतां? ए तो एम कहेवाय बाकी आंगळां कोण चाटे? ए तो जड पदार्थ छे; एने आत्मा केम चाटे? पण जड तरफनुं वलण करीने ‘आ ठीक छे’ -एम रागने ए चाटे छे. अहा! अज्ञानी बाळ जीव शुभ ने अशुभ भाव करीने एने वेदे छे-अनुभवे छे-चाटे छे.

अहा! अंदर स्वरूपमां जाय तो एकलुं त्यां अमृत भर्युं छे. पण अज्ञानीने स्वरूपनी खबर नथी अने तेथी ते रागादिने-झेरने ज वेदे छे-अनुभवे छे अने हुं सुखी छुं एम माने छे. तो वास्तविक शुं छे? अहाहा...! यथार्थ उपदेशने प्राप्त थई कोई परद्रव्यना निमित्ते थता नैमित्तिक भावने-विकारने छोडीने शुद्ध चैतन्यतत्त्वमां


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अंतर्लीन थाय छे त्यारे तेने शुद्ध आत्मानुभूति प्रगट थाय छे अने तेमां ते निराकुल आनंदने वेदे-अनुभवे छे. अहा! आवी निजानंदरसलीन दशा ते ‘निज चाटै’ ने ते धर्म; बाकी आ करुं ने ते करुं-ए बधा विकल्प अधर्म छे.

हवे कहे छे- ‘नाहिं बंधै तब कर्मसमूह’ -अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनुं दळ चिद्घन चित्पिंड प्रभु आत्माना अनुभवनी निजानंदरसलीन-एवी दशा थाय छे त्यारे, कहे छे, कर्मबंधन थतुं नथी; नवां कर्म बंधातां नथी, अने जूनां झरी जाय छे. आ जुओ तो खरा अनुभवनी दशा! बनारसीदासे कह्युं छे ने के-

अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप;
अनुभव मारग मोखकौ अनुभव मोखसरूप.

ल्यो, आवुं! अनुभव मोक्षस्वरूप! हवे व्यवहार करतां करतां कर्मबंधन छूटे ए क्यां रह्युं? एम छे ज नहि.

तो बीजे (पंचास्तिकायमां) भिन्न साध्य-साधन कह्युं छे ने? ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे बापु! एक कोर समयसारनी ११मी गाथामां कहे के भूतार्थ त्रिकाळीना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय, आनंदनी अनुभूति थाय ने बीजे (पंचास्तिकायमां) एम कहे के रागने आश्रये थाय-तो ए तो विरोध थयो. तो खरेखर शुं विरोध छे? ना; आत्माना आश्रये धर्म थाय ए तो निश्चय यथार्थ अने रागना आश्रये थाय एम कहे ते व्यवहार-उपचार. आम यथार्थ समजतां विरोध मटी जाय छे. आ रीते अविरोध छे.

अहाहा...! आत्मा पूर्णानंदनो नाथ एक ज्ञायकभावस्वरूप चैतन्यमहाप्रभु अंदर भगवानस्वरूपे विराजे छे. एनाथी खसी जई अज्ञानी अनादिथी पुण्य-पापना भावनी मीठाशमां रह्यो छे. तेथी तेने मिथ्यात्व ने कषायनुं वेदन थाय छे. अहा! ए दुःखनुं वेदन छे अने ए संसार छे. संसार बीजी शुं चीज छे? कषाय अने एनुं फळ जे चार गति- तेमां संसरवुं-भमवुं ए ज संसार छे. अहीं कहे छे-पुण्य-पापना भावने छोडी अंदरमां पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने अनुभवे छे तेने नवां कर्म बंधातां नथी.

हवे कहे छे- ‘आप गहै परभावनि काटै’ - पोताना शुद्ध स्वरूपने ग्रहे छे, पकडे छे ने परभावने-कर्मने छेदी नाखे छे. ल्यो, आम बंध अधिकारनी प१ गाथाओनो संक्षेपमां पद्यद्वारा जयचंदजीए सार कह्यो.

वात एम छे के अज्ञानी जीवने पोताना आत्मानुं आवडुं मोटुं स्वरूप बेसतुं नथी. कोईक बीजो मोटो ईश्वर छे, हजार हाथवाळो भगवान छे एवा ख्यालमां ‘हुं महान ईश्वरस्वरूप ज छुं’ - एम एने बेसतुं नथी. पण भाई! तने तारी मोटपनी खबर नथी. तारी वर्तमान वर्तती जे दशाओ छे ए तो बधी उपर


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उपरनी रमतु छे. परंतु ए पर्यायोनी पाछळ अंदर त्रिकाळी ध्रुवतत्त्व महाकसवाळुं विद्यमान छे. अहाहा...! जेमां ज्ञानकस, आनंदकस, वीर्यकस इत्यादि अनंत गुणनो कस पूरण भर्यो छे एवुं तारुं तत्त्व नित्य विद्यमान छे. अहा! ते अनंतचतुष्टयनी उत्पत्तिनो गर्भ छे. अहा! आवी भगवान आत्मानी अपरिमित मोटप छे. अरे! पण एने ए बेसतुं नथी. एने एम छे के कोई भगवान महान शिवपदनो देनारो छे. भक्तिमां- स्तुतिमां आवे छे ने के-भगवान! अमने शिवपद देजो. तो शुं त्यांथी शिवपद आवतुं हशे? अहीं कहे छे- ‘आप गहै परभावनि काटै’ . ए बंध अधिकार पूरो थयो, ल्यो.

आ प्रमाणे श्री कुंदकुंदाचार्यदेव रचित समयसार शास्त्र उपर परम कृपाळु सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना प्रवचनोनो सातमो बंध अधिकार समाप्त थयो.

[प्रवचन नं. ३४३ थी ३४७]

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– ८ –
मोक्ष अधिकार

अथ प्रविशति मोक्षः।

(शिखरिणी)
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम्।
इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्ण ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते।। १८०।।
कर्मबंध सौ कापीने, पहोंच्या मोक्ष सुथान;
नमुं सिद्ध परमातमा, करुं ध्यान अमलान.

प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहे छे के ‘हवे मोक्ष प्रवेश करे छे’ . जेम नृत्यना अखाडामां स्वांग प्रवेश करे छे तेम अहीं मोक्षतत्त्वनो स्वांग प्रवेश करे छे. त्यां ज्ञान सर्व स्वांगने जाणनारुं छे, तेथी अधिकारना आदिमां आचार्यदेव सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः-

श्लोकार्थः– [इदानीम्] हवे (बंध पदार्थ पछी), [प्रज्ञा–क्रकच–दलनात् बन्ध– पुरुषौ द्विधाकृत्य] प्रज्ञारूपी करवत वडे विदारण द्वारा बंध अने पुरुषने द्विधा (जुदा जुदा-बे) करीने, [पुरुषम् उपलम्भ–एक–नियतम्] पुरुषने-के जे पुरुष मात्र *अनुभूति वडे ज निश्चित छे तेने- [साक्षात् मोक्षं नयत्] साक्षात् मोक्ष पमाडतुं थकुं, [पूर्ण ज्ञानं विजयते] पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्ते छे. केवुं छे ते ज्ञान? [उन्मज्जत्– सहज–परम–आनन्द–सरसं] प्रगट थता सहज परम आनंद वडे सरस अर्थात् रसयुक्त छे, [परं] उत्कृष्ट छे, अने [कृत–सकल–कृत्यं] करवायोग्य समस्त कार्यो जेणे करी लीधां छे (-जेने कांई करवानुं बाकी रह्युं नथी) एवुं छे.

भावार्थः– ज्ञान बंध-पुरुषने जुदा करीने, पुरुषने मोक्ष पमाडतुं थकुं, पोतानुं संपूर्ण स्वरूप प्रगट करीने जयवंत प्रवर्ते छे. आम ज्ञाननुं सर्वोत्कृष्टपणुं कहेवुं ते ज मंगळवचन छे. १८०. _________________________________________________________________ * जेटलुं स्वरूप-अनुभवन छे तेटलो ज आत्मा छे.


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गाथा २८८ थी २९०
जह णाम को वि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपडिबद्धो।
तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स।।
२८८।।
जइ ण वि कुणदि च्छेदं ण मुच्चदे तेण बंधणवसो सं।
कालेण उ बहुगेण वि ण सो णरो पावदि विमोक्खं।। २८९।।
इय कम्मबंधणाणं एदेसठिइपयडिमेवमणुभागं।
जाणंतो वि ण मुच्चदि मुच्चदि सो चेव जदि सुद्धो।। २९०।।
यथा नाम कश्चित्पुरुषो बन्धनके चिरकालप्रतिबद्धः।
तीव्रमन्दस्वभावं कालं च विजानाति तस्य।।
२८८।।
यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेन बन्धनवशः सन्।
कालेन तु बहुकेनापि न स नरः प्राप्नोति विमोक्षम्।। २८९।।
इति कर्मबन्धनानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागम्।
जानन्नपि न मुच्यते मुच्यते स चैव यदि शुद्धः।। २९०।।

हवे, मोक्षनी प्राप्ति कई रीते थाय छे ते कहे छे. तेमां प्रथम तो, जे जीव बंधनो छेद करतो नथी परंतु मात्र बंधना स्वरूपने जाणवाथी ज संतुष्ट छे ते मोक्ष पामतो नथी-एम कहे छेः-

ज्यम पुरुष को बंधन महीं प्रतिबद्ध जे चिरकाळनो,
ते तीव्र–मंद स्वभाव तेम ज काळ जाणे बंधनो, २८८.
पण जो करे नहि छेद तो न मुकाय, बंधनवश रहे,
ने काळ बहुये जाय तोपण मुक्त ते नर नहि बने; २८९.
त्यम कर्मबंधननां प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागने
जाणे छतां न मुकाय जीव, जो शुद्ध तो ज मुकाय छे. २९०.

गाथार्थः– [यथा नाम] जेवी रीते [बन्धनके] बंधनमां [चिरकालप्रतिबद्धः] घणा काळथी बंधायेलो [कश्चित् पुरुषः] कोई पुरुष [तस्य] ते बंधनना [तीव्रमन्दस्वभावं]


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तीव्र-मंद (आकरा-ढीला) स्वभावने [कालं च] अने काळने (अर्थात् आ बंधन आटला काळथी छे एम) [विजानाति] जाणे छे, [यदि] परंतु जो [न अपि छेदं करोति] ते बंधनने पोते कापतो नथी [तेन न मुच्यते] तो तेनाथी छूटतो नथी [तु] अने [बन्धनवशः सन्] बंधनवश रहेतो थको [बहुकेन अपि कालेन] घणा काळे पण [सः नरः] ते पुरुष [विमोक्षम् न प्राप्नोति] बंधनथी छूटवारूप मोक्षने पामतो नथी; [इति] तेवी रीते जीव [कर्मबन्धनानां] कर्म-बंधनोनां [प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम्] प्रदेश, स्थिति, प्रकृति तेम ज अनुभागने [जानन् अपि] जाणतां छतां पण [न मुच्यते] (कर्मबंधथी) छूटतो नथी, [च यदि सः एव शुद्धः] परंतु जो पोते (रागादिने दूर करी) शुद्ध थाय [मुच्यते] तो ज छूटे छे.

टीकाः– आत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा) ते मोक्ष छे. ‘बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण छे (अर्थात् बंधना स्वरूपने जाणवामात्रथी ज मोक्ष थाय छे)’ एम केटलाक कहे छे, ते असत् छे; कर्मथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण नथी, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र कर्मबंधथी छूटवानुं कारण नथी. आथी (-आ कथनथी), जेओ कर्मबंधना प्रपंचनी (-विस्तारनी) रचनाना ज्ञानमात्रथी संतुष्ट छे तेमने उत्थापवामां आवे छे.

भावार्थः– बंधनुं स्वरूप जाणवाथी ज मोक्ष छे एम कोई अन्यमती माने छे. तेमनी ए मान्यतानुं आ कथनथी निराकरण जाणवुं. जाणवामात्रथी ज बंध नथी कपातो, बंध तो कापवाथी ज कपाय छे.

*
मोक्ष अधिकार

वचनिकाकार श्री जयचंदजी मंगलाचरण करे छेः-

कर्मबंध सौ कापीने, पहोंच्या मोक्ष सुथान;
नमुं सिद्ध परमातमा, करुं ध्यान अमलान.

अहाहा...! शुं कहे छे? के जेटला सिद्ध परमात्मा थया ते बधाय समस्त कर्मनो नाश करीने थया छे. अहा! तेओ समस्त दुःखनो संपूर्ण नाश करीने परिपूर्ण आनंदनी दशाने प्राप्त थया छे. ते सिद्ध भगवंतोने हुं नमस्कार करीने अम्लान एटले निर्मळ निर्विकार निज आत्मानुं ध्यान करुं छुं. अहा! अंदरमां सिद्ध समान शुद्ध निश्चय आत्मद्रव्यनुं ध्यान करुं छुं ने बहारमां भगवान सिद्धनुं ध्यान करुं छुं. ल्यो, आवी वात छे!


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हवे, प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहे छे केः- ‘हवे मोक्ष प्रवेश करे छे.’ मोक्ष ए पर्याय छे; ए त्रिकाळी वस्तु नथी. जेम संसार विकारी भेख छे, ने मोक्षमार्ग अंशे निर्मळ भेख छे तेम मोक्ष छे ए पूरण आनंदनी दशानो भेख छे. जेटली कोई नवी नवी अवस्थाओ थाय छे ते बधा भेख-स्वांग छे. मोक्ष एक स्वांग छे. अने कायम रहेनारुं तत्त्व तो त्रिकाळी एक ध्रुव चिन्मात्रस्वरूप प्रभु आत्मा छे.

जेम नृत्यना अखाडामां-नाटकमां स्वांग एटले नाटक करनारो प्रवेश करे छे तेम अहीं मोक्ष तत्त्वनो स्वांग प्रवेश करे छे. त्यां ज्ञान सर्व स्वांगने जाणनारुं छे. शुं कीधुं? के शुद्ध चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मानुं ज्ञान आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा मोक्ष आदि बधा भेखोने-स्वांगोने जाणे छे. आगळ गाथा ३र०मां लेशे के ज्ञान आ बधा स्वांगने जाणे छे. तेथी अधिकारना आदिमां आचार्यदेव सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः-

* कळश १८०–श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इदानीम्’ हवे ‘प्रज्ञा–क्रकच–दलनात् बन्ध–पुरुषौ द्विधाकृत्य’ प्रज्ञारूपी करवत वडे विदारण द्वारा बंध अने पुरुषने द्विधा करीने,...

शुं कहे छे? हवे एटले बंध पदार्थ पछी प्रज्ञारूपी करवत वडे एटले अंतःसन्मुख वळेली वर्तमान ज्ञानदशारूपी करवत वडे विदारण द्वारा पुरुष कहेतां आत्मा अने रागने- बंधने छेदी जुदा पाडवामां आवे छे. अहाहा...! शुं कीधुं? के जेम लाकडाने करवत वडे छेदतां बे टुकडा थई जाय तेम प्रज्ञारूपी करवत वडे छेदतां आत्मा अने राग जुदा पडी जाय छे. बंध एटले राग अर्थात् व्यवहारभाव अने आत्मा-निश्चय शुद्ध वस्तु बन्ने प्रज्ञाकरवतथी छेदतां भिन्न पडी जाय छे. अहा! बंध अने आत्मा-बे भिन्न चीज छे; एने पोताना ज्ञानमां भिन्न जाणवां एनुं नाम धर्म छे. समजाणुं कांई...?

पुरुषार्थसिद्धयुपायमां पोतानी जे ज्ञानानंद चेतना तेने जे सेवे तेने पुरुष कह्यो छे. आ पुरुषनुं शरीर ते पुरुष एम नहि; ए तो जड माटी-धूळ छे. अने जे अनादिथी पुण्य-पापनी सेवा करे छे तेय पुरुष नहि; एने नपुंसक कह्यो छे. अहा! जे पोतानी शुद्ध ज्ञान-चेतनाने सेवे छे ते पुरुष कहेतां आत्मा छे.

अहीं कहे छे-अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो पिंड प्रभु आत्मा अने पर्यायमां थतां पुण्य-पापनो-रागनो समूह, रागग्राम-ए बन्नेने जुदा करीने, ‘पुरुषम् उपलम्भएक– नियतम्’ पुरुषने-के जे पुरुष मात्र अनुभूति वडे ज निश्चित छे तेने- ‘साक्षात् मोक्षं नयत्’ साक्षात् मोक्ष पमाडतुं थकुं, ‘पूर्णं ज्ञानं विजयते’ पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्ते छे.

शुं कहे छे? के जेटला कोई रागादिना विकल्प छे एनाथी भगवान आत्माने


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भिन्न जाणीने, रागनुं लक्ष छोडी, रागथी अधिक जे वस्तु अंदर ज्ञानस्वरूप छे तेमां ढळतां जे अनुभूति थई ते अनुभूति वडे भगवान आत्मा निश्चित थाय छे, प्राप्त थाय छे. राग वडे के व्यवहार वडे आत्मा प्राप्त थाय छे एम छे नहि. जेनाथी आत्मा भिन्न पाडवो छे एनाथी केम प्राप्त थाय? रागथी-व्यवहारथी तो आत्मा भिन्न करवो छे, तो एनाथी आत्मा केम प्राप्त थाय? न थाय.

लोको राडुं नाखे छे के-व्यवहारथी थाय, व्यवहारथी थाय. एने कहे छे-भाई! व्यवहार ने निश्चय बन्ने छे खरा! पण बन्नेने जुदा करवा एनुं नाम धर्म छे. शुं थाय? आ प्ररूपणा ज नहोती ने! एटले आ करवुं ने ते करवुं एम व्यवहारनी पद्धति-प्रथा थई गई. पण भाई! पुण्य-पापना विकल्प ए राग छे, ने राग छे ए बंध छे. एनाथी भिन्न पडी अबंधस्वरूप भगवान आत्मानी अनुभूतिथी आत्मा प्राप्त थाय छे एम अहीं कहे छे.

अहाहा...! पुरुष ने बंधने प्रज्ञा वडे छेदीने, पुरुषने मोक्ष पमाडतुं थकुं, पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्ते छे. भगवान आत्मा द्रव्यरूपथी-शक्तिरूपथी स्वभावे तो सदा मोक्षस्वरूप ज छे. तेने पर्यायमां मोक्ष पमाडतुं अर्थात् अबंधदशाने पमाडतुं पूर्ण ज्ञान एटले केवलज्ञान जयवंत प्रवर्ते छे. अहा! मोक्षदशामां ज्ञाननी पूर्णता जयवंत वर्ते छे; अर्थात् एवुं ने एवुं पूर्णज्ञान सादि-अनंत काळ सुधी प्रगट थया ज करे छे. मोक्ष थया पछी हवे एमां अपूर्णता थशे नहि एम कहे छे.

हवे कहे छे- केवुं छे ते ज्ञान? ‘उन्मज्जत्–सहज–परम–आनन्द–सरसं’ प्रगट थता सहज परम आनंद वडे सरस अर्थात् रसयुक्त छे,... ...

‘उन्मज्जत्’ –कीधुं ने! एटले के अंदर शक्तिरूपे जे केवलज्ञान हतुं ते पर्यायमां प्रगट थयुं छे. शुं कीधुं ए? के केवळज्ञान पर्यायमां नहोतुं, शक्तिरूपे अंदर हतुं ते शक्तिना पिंडमां अंतर-एकाग्र थतां पर्यायमां प्रगट थयुं. समजाणुं कांई... ...!ं

अहा! ते केवलज्ञान सहज परम आनंद वडे सरस छे, रसयुक्त छे. आपणे नथी कहेता के आ वस्तु सरस छे? ‘सरस’ एटले के आनंद पमाडे तेवुं रसयुक्त, अहा! मोक्षमां केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट सहज आनंदना रसथी भरेलुं छे. अर्थात् केवळज्ञान अतीन्द्रिय आनंदना रसथी सहित छे.

वळी ते (-केवलज्ञान) ‘परं’ उत्कृष्ट छे, अने ‘कृत–सकल–कृत्यं’ करवायोग्य समस्त कार्यो जेणे करी लीधां छे एवुं छे.

शुं कीधुं? के सकल कर्मनो नाश थई जवाथी पर्यायमां पण कार्यनी पूर्णता थई गई तेथी करवानुं कांई बाकी रह्युं नहि एवुं पूरण ज्ञान छे. अहीं तो लोकोने मरवानुं टाणुं आवे त्यां सुधी ‘आ छोडी कुंवारी रही गई’ , ‘आटलुं करवानुं हजु


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बाकी रही गयुं’ -एम थया ज करे छे. अहा! संसारमां केटलो काळ गाळवो छे प्रभु? त्यां तारां छोतां नीकळी जशे भाई! अहीं जो, आ तारो आत्मा भगवान नाम ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार छे. बाकी तो बधां थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...?

* कळश १८०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञान, बंध-पुरुषने जुदा करीने पुरुषने मोक्ष पमाडतुं थकुं, पोतानुं संपूर्ण स्वरूप प्रगट करीने जयवंत प्रवर्ते छे.’

ज्ञान कहेतां अंदर वळेलुं ज्ञान बंध ने पुरुषने जुदा करी दे छे. शुं कीधुं? रागथी भिन्न पडीने जे प्रज्ञा स्वस्वरूपने अनुभवे छे ते बंधने ने आत्माने जुदा करी नाखे छे. अहा! ते ज्ञान आत्माने मोक्ष पमाडतुं थकुं पोतानुं संपूर्ण स्वरूप जे केवलज्ञान तेने प्रगट करीने सदा जयवंत प्रवर्ते छे. शक्तिरूपे अंदर जे अनंतज्ञान ने आनंद हतां ते शक्तिवानमां एकाग्रताना ध्यानथी पर्यायमां प्रगट थयां अने ते हवे जयवंत प्रवर्ते छे अर्थात् सदा एवाने एवां रहे छे. हवे अपूर्णता थाय ने एने नवो अवतार धरवो पडे एम छे नहि.

‘आम ज्ञाननुं सर्वोत्कृष्टपणुं कहेवुं ते ज मंगल वचन छे.’ ल्यो, आत्मानुं ज्ञान सर्वोकृष्ट छे ए ज मंगळवचन छे. आवी वात छे!

समयसार गाथा र८८–र८९–र९० मथाळुं.

हवे, मोक्षनी प्राप्ति कई रीते थाय छे ते कहे छे. तेमां प्रथम तो, जे जीव बंधनो छेद करतो नथी परंतु मात्र बंधना स्वरूपने जाणवाथी ज संतुष्ट छे ते मोक्ष पामतो नथी-एम कहे छेः-

गाथा र८८–र८९–र९०ः टीका उपरनुं प्रवचन

‘आत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण ते मोक्ष छे.’ आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा एनुं नाम मोक्ष छे. ‘मोक्ष’ शब्द छे ने? एमां ‘मूकावुं’ -एम अपेक्षा छे. अहा! बंधथी मूकावुं एनुं नाम मोक्ष छे. बंधथी मूकावुं ने स्वरूपमां रहेवुं एनुं नाम ते मोक्ष. परभावथी मूकावुं एम अर्थ लईने अहीं द्वीधाकरण कह्युं छे. भाई! आ माथे सिद्धशिला उपर लटकवुं ए कांई मोक्ष नथी. मोक्ष एटले ज्ञानानंद स्वरूपी भगवान आत्मा, बंधनी-दुःखनी दशा जे परवस्तु छे एनाथी भिन्न पडीने एक आनंदरसकंद प्रभु आत्मामां रहेवुं ते मोक्ष छे. पर्यायमां परम आनंदनो लाभ थाय एनुं नाम मोक्ष छे-एम नियमसारमां कह्युं छे. अ हा हा...! पूर्ण चैतन्यघन प्रभु आत्मानी सम्यग्दर्शनमां प्रतीति करी, केवलज्ञानमां पूरण उपलब्धि करवी एनुं नाम मोक्ष छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-