Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 291-294 ; Kalash: 181.

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“मोक्ष कह्यो निज शुद्धता जे पामे ते पंथ,
समजाव्यो संक्षेपमां सकल मार्ग निर्ग्रंथ.”

बीजी रीते कहीए तो भगवान आत्मामां अनादिथी पर्यायमां विकारनो संबंध छे ते बंध अने संसार छे. अहा! ज्यारे ते कर्म-विकारथी मुक्त पूर्ण अबंध थई जाय त्यारे पूर्ण ज्ञान ने आनंदनी दशा प्रगट थाय छे अने एनुं नाम मोक्ष छे.

‘बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण छे एम केटलाक कहे छे, ते असत् छे; कर्मथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण नथी, केमके जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र कर्मबंधथी छूटवानुं कारण नथी.’

जोयुं? आ दाखलो आप्यो के-आ बंध छे, आ प्रकारे बेडीथी बंधायेलो छुं-एटलुं मात्र जाणे एटले कांई बंधथी-बेडीथी छूटे? न छूटे. तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण नथी. बंधना स्वरूपना ज्ञानमात्रथी मोक्ष थाय एम मानवुं असत् छे. हवे कहे छे-

‘आथी जेओ कर्मबंधना प्रपंचनी रचनाना ज्ञानमात्रथी संतुष्ट छे तेमने उत्थापवामां आवे छे.’

आटली प्रकृतिनो बंध छे, आटली कर्मप्रकृति सत्तामां छे, कुल १४८ प्रकृति छे एमांथी समकितीने ४१ कर्मप्रकृतिनो बंध पडतो नथी. कर्मबंध चार प्रकारे छे; एमां अनुभाग अने स्थितिबंध कषायथी पडे छे तथा प्रकृति ने प्रदेशबंधनुं कारण योग छे. आम कर्मबंधना विस्तारना ज्ञानमात्रथी जे संतुष्ट छे तेमनो मोक्ष थतो नथी. आ प्रकृति आम छे ने आ कर्मनी आटली स्थिति छे इत्यादि जाणवाथी शुं धर्म थयो? राग अने आत्माने भिन्न पाडे त्यारे एने धर्म थाय छे, अने ते बंधथी छूटे छे; मात्र बंधना प्रपंचने जाणवामात्रथी कांई नथी.

* गाथा र८८ थी र९०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

बंधनुं स्वरूप जाणवाथी ज मोक्ष छे एम कोई अन्यमती माने छे. तेमनी ए मान्यतानुं आ कथनथी निराकरण जाणवुं.

बंध ए राग छे अने राग छे ते व्यवहार छे. तेने जाणवामात्रथी मोक्ष छे एम कोई अन्यमती माने छे. तेनी ए मान्यता यथार्थ नथी एम आ कथनथी जाणवुं. बंधने जाणवामात्रथी ज मुक्ति न थाय. तो केवी रीते थाय? तो कहे छे-

‘जाणवामात्रथी ज बंध नथी कपातो, बंध तो कापवाथी ज कपाय छे’ ल्यो, बंध तो कापवाथी-छेदवाथी कपाय छे, छेदाय छे. अहाहा...! अंदर शुद्ध द्रष्टि अने रमणता करे तो बंध कपाय. प्रज्ञाथी रागने द्विधा-भिन्न करे ने स्वरूपने


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अनुभवे तो बंध कपाय. शुद्धने अनुभवतां शुद्धता थाय, अबंध थाय; पण अशुद्धता करतां करतां शुद्धता-अबंधता त्रणकाळमांय न थाय. बंधना स्वरूपना विकल्पमात्र करवाथी ज बंध कदीय न कपाय. ल्यो, आवी वात छे.

समयसार गाथा र९१ः मथाळुं

बंधना विचार कर्या करवाथी पण बंध कपातो नथी एम हवे कहे छेः-

* गाथा र९१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘बंधसंबंधी विचारशृंखला मोक्षनुं कारण छे-एम बीजा केटलाक कहे छे, ते पण असत् छे;... ...’

जोयुं? बंध संबंधी विचारशृंखला एटले शुभभावनी धारा ए मोक्षनुं कारण छे- एम केटलाक कहे छे ते असत् छे एम कहे छे. आ हुं बंधनमां छुं’ मिथ्यात्व अने रागादिभाव ते बंध छे-एवा विचार कर्या करे एनाथी बंध कपाय एम कोई माने तो ए साचुं नथी-एम कहे छे. बंधन आम छे, ने एमां आटली प्रकृतिओनो आ गुणस्थाने उदय होय छे, आटली प्रकृतिओनो बंध पडे छे ने आटली सत्तामां होय छे-इत्यादि विचारो करवा ए शुभराग छे ने एनाथी कांई आत्मा बंधथी छूटतो नथी.

‘कर्मथी बंधायेलाने बंध संबंधी विचारनी शृंखला मोक्षनुं कारण नथी, केमके जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने ते बंध संबंधी विचारशृंखला बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंध संबंधी विचारशृंखला कर्मबंधथी छूटवानुं कारण नथी’

अन्य संप्रदायमां तो कर्मना जाणनाराने मोटे ज्ञानी कहे छे. अरे भाई! कर्मनो बंध, सत्ता, उदय इत्यादि जाणवामां धर्म शुं थयो! बापु! ए तो शुभराग छे. एनाथी धर्म केम थाय! त्रणकाळमां न थाय. भाई! सम्यग्दर्शन जे धर्मनुं पहेलुं पगथियुं ते थवामां पोताना त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्यनी अपेक्षा छे. आ सिवाय बीजा कशायनीय अपेक्षा नथी, बीजा बधानी तो वास्तवमां उपेक्षा ज छे.

आगळ समयसारमां ए आवी गयुं के शुद्धने (एक ज्ञायकने) जाणतां शुद्धताने (पर्यायमां शुद्धताने) पामे अने अशुद्धने (-विकारने ने परद्रव्यने) जाणतां अशुद्धताने पामे. भाई! अहीं तो स्वभावनी द्रष्टि करीने शुद्ध-अशुद्धने (स्वभाव-विभावने) जुदा पाडे त्यारे आत्मा बंधनथी छूटे छे एम वात कहेवी छे.

‘आथी कर्मसंबंधी विचारशृंखलात्मक विशुद्ध (-शुभ) धर्मध्यान वडे जेमनी बुद्धि अंध छे तेमने समजाववामां आवे छे.’


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‘विशुद्ध धर्मध्यान’ एटले शुभभाव जे पुण्यबंधनुं कारण छे एने अहीं धर्मध्यान कह्युं छे. अहीं आ शब्द जरी अटपटो (नामथी) व्यवहार धर्मध्यानना अर्थमां वापर्यो छे. नियमसारमां आवे छे के-निश्चय धर्मध्यान ने व्यवहार धर्मध्यान-बन्ने भिन्न छे. शुद्ध आत्माना आश्रये शुद्धता प्रगट थाय ते निश्चय धर्मध्यान छे ने (कर्म आदि) परलक्षे शुभभाव थाय ते व्यवहार धर्मध्यान छे. वर्तमानमां लोकोमां आ मोटो गोटो ऊठयो छे-के शुभभावथी धर्म थाय. पण भाई! शुभभाव ए निश्चयथी तो आर्तध्यान छे, ए धर्मध्यान केवुं? जुओने! अहीं आ स्पष्ट कह्युं छे के- ‘विशुद्ध धर्मध्यान वडे जेमनी बुद्धि अंध छे.......’ अहाहा...! शुभभावथी धर्म माननारा, अहा! शुभभावथी बंधन छूटशे एम माननारा अंध एटले आंधळा छे एम कहे छे.

अरे भाई! जेओ शुभभावमां गळा सुधी गरी-डूबी गया छे एवा जीवोने अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो गोळो चैतन्यमहाप्रभु पोते छे एनी खबर सुद्धां नथी. अंध बुद्धि छे ने? अहा! शुभभावथी भिन्न चैतन्यमय हुं परमात्मद्रव्य छुं-ए भासतुं नथी. शुभभावनी आडमां एने आखो परमात्मा भासतो नथी. आवे छे ने के-

‘तरणा ओथे डुंगर रे डुंगर कोई देखे नहि.’

एम शुभभावनी आडमां पोताना भगवानने ए भाळतो नथी वळी कोई कहे छे-आ समयसार तो मुनिओ माटे छे. एम के एनो स्वाध्याय गृहस्थो माटे नथी.

पण भाई! अहीं तो आ स्पष्ट लख्युं के शुभभावथी अंध छे बुद्धि जेमनी तेमने समजाववामां आवे छे. अहा! जेओ दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, कर्मनो विचार कर्या करवो इत्यादि शुभरागमां-व्यवहारमां ज मूढ छे (निश्चयने जाणता नथी) एवा जीवोने आ समयसार समजाववामां आवे छे. भाई! तारी वातमां बहु फेर छे बापा!

निश्चयने जाणतां व्यवहारने जाणे ए तो ज्ञानी छे. व्यवहारनो राग छे एनाथी भिन्न पडीने शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मानो अनुभव करे छे ते व्यवहारनो यथार्थ जाणनारो छे. पण अहीं तो शुभमां-व्यवहारमां अंध छे बुद्धि जेनी एवा मूढ अज्ञानीने समजाववामां आवे छे. (ज्ञानीने-मुनिने क्यां समजाववो छे? एने तो एवो स्वाध्यायनो राग आवे छे बस एटलुं ज).

अहा! कर्मना आठ भेद, एनी १४८ प्रकृति, एनां बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम इत्यादि बधुं सर्वज्ञनी वाणी सिवाय बीजे क्यांय छे नहि. अहा! आवा सर्वज्ञना मार्गमां पण कर्मप्रकृति संबंधी विचारशृंखलामां ज रोकाई जाय तेओ, अहीं कहे छे, शुभभावमां आंधळा छे.


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ईश्वरने कर्ता माननारा, वळी बीजा प्रकृति ईश्वरनी शक्तिओ छे एम माननारा अने एना विना ईश्वरने पण चाले नहि एम माननारा-ए बधानी अहीं वात नथी केमके ते जीवो तो स्थूळ विपरीत द्रष्टि छे ज.

घणां वर्ष पहेलांनी आ वात छे. मोरबी पासे एक गाम छे. त्यां एक शक्तिनुं मंदिर छे. तेमां एक बावो रहे. अमे त्यां गयेला त्यारे ए बावो कहे-भगवानने पण आ (अमारी आ शक्तिदेवी) शक्ति विना चाले नहि. त्यारे एने कहेलुं-आ भगवान आत्मा चैतन्यमहाप्रभु ईश्वर छे, अने तेने ज्ञान ने आनंद इत्यादि अनंत शक्ति छे. एने ए शक्ति विना चाले नहि. मतलब के ए शक्तिमां अंतर्लीन थया विना चाले नहि. अज्ञानीओ माने छे ए शक्तिय नहि अने ए ईश्वरेय नहि. (ए तो असत् कल्पनामात्र छे.)

अहीं कहे छे-शक्तिवान एवा पोताना भगवान आत्मानो आश्रय छोडी दईने कर्मबंधनना विचारो-शुभभाव के जेनाथी पुण्य बंधाय छे ते-कर्या करे छे ते अंध छे, केमके ए शुभभावने ज देखे छे, पण एनाथी भिन्न अंदर भगवान आत्मा छे एने देखतो नथी. अहा! एवा अंध मिथ्याद्रष्टिओने, अहीं कहे छे, समजाववामां आवे छे. समजाणुं कांई...?

* गाथा र९१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्मबंधनी चिंतामां मन लाग्युं रहे तोपण मोक्ष थतो नथी. ए तो धर्मध्यानरूप शुभ परिणाम छे.’

जोयुं? शुभ परिणामने अहीं धर्मध्यान कह्युं-ए व्यवहार छे. ‘जेओ केवळ शुभ परिणामथी ज मोक्ष माने छे तेमने अहीं उपदेश छे के-शुभ परिणामथी मोक्ष थतो नथी.’

ल्यो, आ स्पष्ट वात कही के-व्यवहार के जे शुभरागरूप छे एनाथी मोक्ष थतो नथी. भगवान सर्वज्ञदेवे कहेली कर्मव्यवस्थानी विचारधारामां रह्या करवुं ए शुभराग छे, पुण्यबंधनुं कारण छे, पण एनाथी समक्ति आदि धर्म थतो नथी. शुभथी मिथ्यात्वनो छेद तो थतो नथी पण शुभने धर्म के धर्मनुं कारण माने तो मिथ्यात्वनुं बंधन थाय छे.

अहा! शुभथीय भिन्न पडी अंदर वस्तु जेवी त्रिकाळ शुद्ध छे एनो आश्रय करे एने मिथ्यात्वनुं बंधन छेदाई जाय छे; तेने मिथ्यात्व ने अनंतानुबंधीनो बंध थतो नथी.

*

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गाथा–२९१
जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं।
तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं।। २९१।।
यथा बन्धांश्चिन्तयन् बन्धनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षम्।
तथा बन्धांश्चिन्तयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्षम्।। २९१।।

बंधना विचार कर्या करवाथी पण बंध कपातो नथी एम हवे कहे छेः-

बंधन महीं जे बद्ध ते नहि बंधचिंताथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणी चिंता कर्याथी नव छूटे. २९१.

गाथार्थः– [यथा] जेम [बन्धनबद्धः] बंधनथी बंधायेलो पुरुष [बन्धान् चिन्तयन्] बंधोना विचार करवाथी [विमोक्षम् न प्राप्नोति] मोक्ष पामतो नथी (अर्थात् बंधथी छूटतो नथी), [तथा] तेम [जीवः अपि] जीव पण [बन्धान् चिन्तयन्] बंधोना विचार करवाथी [विमोक्षम् न प्राप्नोति] मोक्ष पामतो नथी.

टीकाः– ‘बंध संबंधी विचारशृंखला मोक्षनुं कारण छे’ एम बीजा केटलाक कहे छे, ते पण असत् छे; कर्मथी बंधायेलाने बंध संबंधी विचारनी शृंखला मोक्षनुं कारण नथी, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने ते बंध संबंधी विचारशृंखला (-विचारनी परंपरा) बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंध संबंधी विचारशृंखला कमृबंधथी छूटवानुं कारण नथी. आथी (-आ कथनथी), कर्मबंध संबंधी विचारशृंखलात्मक विशुद्ध (-शुभ) धर्मध्यान वडे जेमनी बुद्धि अंध छे तेमने समजाववामां आवे छे.

भावार्थः– कर्मबंधनी चिंतामां मन लाग्युं रहे तोपण मोक्ष थतो नथी. ए तो धर्मध्यानरूप शुभ परिणाम छे. जेओ केवळ शुभ परिणामथी ज मोक्ष माने छे तेमने अहीं उपदेश छे के-शुभ परिणामथी मोक्ष थतो नथी.


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गाथा–२९२

कस्तर्हि मोक्षहेतुरिति चेत्–

जह बंधे छेत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं।
तह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विमोक्खं।। २९२।।
यथा बन्धांरिछत्वा च बन्धनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षम्।
तथा बन्धांरिछत्वा च जीवः सम्प्राप्नोति विमोक्षम्।। २९२।।

“(जो बंधना स्वरूपना ज्ञानमात्रथी पण मोक्ष नथी अने बंधना विचार करवाथी पण मोक्ष नथी) तो मोक्षनुं कारण कयुं छे?” एम पूछवामां आवतां हवे मोक्षनो उपाय कहे छेः-

बंधन महीं जे बद्ध ते नर बंधछेदनथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणुं छेदन करी मुक्ति लहे. २९२.

गाथार्थः– [यथा च] जेम [बन्धनबद्धः तु] बंधनथी बंधायेलो पुरुष [बन्धान् छित्वा] बंधोने छेदीने [विमोक्षम् प्राप्नोति] मोक्ष पामे छे, [तथा च] तेम [जीवः] जीव [बन्धान् छित्वा] बंधोने छेदीने [विमोक्षम् सम्प्राप्नोति] मोक्ष पामे छे.

टीकाः– कर्मथी बंधायेलाने बंधनो छेद मोक्षनुं कारण छे, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधनो छेद बंधथी छूटवानुं कारण छे तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधनो छेद कर्मबंधथी छूटवानुं कारण छे. आथी (-आ कथनथी), पूर्वे कहेला बन्नेने (-जेओ बंधना स्वरूपना ज्ञानमात्रथी संतुष्ट छे तेमने अने जेओ बंधना विचार कर्या करे छे तेमने-) आत्मा अने बंधना द्विधाकरणमां व्यापार कराववामां आवे छे (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा प्रत्ये लगाडवामां-जोडवामां-उद्यम कराववामां आवे छे).

*
समयसार गाथा २९२ः मथाळुं

जो बंधना स्वरूपना ज्ञानमात्रथी पण मोक्ष नथी अने बंधना विचार करवाथी पण मोक्ष नथी तो मोक्षनुं कारण कयुं छे? एम पूछवामां आवतां हवे मोक्षनो उपाय कहे छेः-


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* गाथा २९२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कर्मथी बंधायेलाने बंधनो छेद मोक्षनुं कारण छे, केमके जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधनो छेद बंधथी छूटवानुं कारण छे तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधनो छेद कर्मबंधथी छूटवानुं कारण छे.’

जुओ, शुं कीधुं? के कर्मथी बंधायेलाने तेनो छेद एटले के (अस्तिथी कहीए तो) शुद्धात्मा तरफनो झुकाव ए मोक्षनुं कारण छे, रागनो बंधनो नाश ए नास्तिथी वात छे, तो अस्ति शुं छे? तो कहे छे - जेमां राग नथी एवा वीतरागस्वभावी एक चैतन्यमय आत्मानो आश्रय करे ते मोक्षनुं कारण छे. समयसार गाथा १४, १प मां आवे छे के - अबद्धस्पृष्ट एवा निज आत्माने देखे अने अनुभवे तेने बंधनो छेद थाय छे.

कर्मथी छूटवुं ए निमित्तनी अपेक्षाए कथन छे, विकारथी छूटवुं ए अशुद्ध उपादाननी अपेक्षाए वात छे अने शुद्ध उपादानथी कहीए तो भगवान अबद्धस्पृष्ट आत्माने अनुभव करे तेने मोक्ष थाय छे. अहा! शुद्ध उपादाननो आश्रय करतां विकार उत्पन्न थतो नथी तो एणे विकारनो छेद कर्यो एम कहेवामां आवे छे. जेवी चीज अंदर अबद्धस्पृष्ट मोक्षस्वरूप छे तेवा ए चीजना आश्रये अबंध परिणाम प्रगट थाय छे त्यारे विकारनो नाश कर्यो एम कहेवाय छे.

समयसार गाथा १पमां एम पण आवे छे के जे अबद्धस्पृष्ट एवा पोताना आत्माने जाणे छे ते जैनशासनने जाणे छे. अहा! पर्यायमां पोताना आत्मानुं ज्ञान थयुं ए ज जैनशासन छे; केमके जैनशासनना चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे एने वीतरागता त्रिकाळ वीतरागस्वभावी अबद्धस्पृष्ट निज आत्माना आश्रये प्रगटे छे.

समयसार गाथा ७४नी टीकामां लीधुं छे के - जेटलो आत्मा विज्ञानघन थतो जाय छे तेटलो आस्रवोथी छूटतो जाय छे अने जेटलो आस्रवोथी छूटतो जाय छे तेटलो विज्ञानघन थतो जाय छे. तेम अहीं कहे छे - आत्मा निज ज्ञानानंदस्वरूपमां जेटलो एकाग्र थतो जाय छे तेटलो ते कर्मथी (द्रव्यकर्म ने भावकर्मथी) छूटतो जाय छे ने जेटलो कर्मथी छूटतो जाय छे तेटलो स्वरूपमां एकाग्र थतो विज्ञानघन थतो जाय छे.

ल्यो, आ द्रष्टांत आपी समजावे छे के - जेम बेडी आदिथी बंधायेलो पुरुष बंधनो छेद करवाथी बंधनथी छूटे छे तेम कर्मथी बंधायेलो पुरुष कर्मबंधनो छेद करवाथी बंधथी छूटे छे. पण कर्मबंधनो विचार कर्या करे, के कर्मबंधनुं मात्र जाणपणुं कर्या करे एथी कर्मथी ना छूटे. बहारमां आटलां व्रत करे ने आटला उपवास ने आटली तपस्या करे तो कर्मथी छूटे एम त्रणकाळमां नथी; केमके ए तो बधो राग छे ने एनाथी तो बंधन थाय छे.


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आ वर्षीतप बाइयुं. (-स्त्रीओ) करे छे ने? तेओ माने छे के अमे धर्म करीए छीए. पण एमां तो धूळेय धर्म नथी सांभळने. पोताना शुद्ध चैतन्यभावने जाण्या विना एवी बहारनी क्रियाओथी पुण्य पण ऊंचा बंधातां नथी तो धर्म शुं थाय? अहा! स्वस्वरूपना भान विना उपवास करीने कोई सूकाइ जाय तोय तप ना थाय. ते उपवास नहि पण अपवास एटले अप नाम माठो वास छे. बापु! ए बधी लांघणुं छे. ए वडे ए संसारनी वृद्धि करे छे केमके एमां मिथ्यात्वनो बंध थाय छे. बहु आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे. हवे कहे छे के -

‘आथी (- आ कथनथी) पूर्वे कहेला बन्नेने (-जेओ बंधना स्वरूपना ज्ञान- मात्रथी संतुष्ट छे तेमने अने जेओ बंधना विचार कर्या करे छे तेमने -) आत्मा अने बंधना द्विधाकरणमां व्यापार कराववामां आवे छे’

अहा! वीतराग परमेश्वर एम फरमावे छे के - जे कोई क्रियाकांडनो राग छे ते सर्व बंधन छे, अने भगवान आत्मा एनाथी भिन्न छे माटे ए बन्नेने द्विधा-भिन्न करवा प्रति व्यापार - उद्यम कराववामां आवे छे. एम के रागने रागमां रहेवा दे ने ज्ञानने अंदर ज्ञानमां - आत्मामां जोडी दे. ल्यो, आ प्रमाणे एनी भिन्नता थाय छे अने त्यारे एने धर्म थाय छे.

अहाहा...! आत्मा एने कहीए जेमां पुण्य-पापना विकल्प नथी अने बंध एने कहीए जेमां आत्मानो स्वभाव नथी. एम बे वस्तु भिन्न छे. आत्मा अंदर चैतन्यप्रकाशनुं पूर चैतन्यबिंब प्रभु ज्ञायक तत्त्व छे अने आ दया, दान, व्रत आदिना विकल्प बंधना तत्त्व छे, भावबंध छे. बन्ने भिन्न तत्त्व छे. अहा! नित्य अविनाशी प्रभु आत्मा अने क्षणविनाशी आ पुण्य-पापना भाव बन्ने भिन्न चीज छे. आम होवा छतां अज्ञानी जीवो बन्नेमां एकपणुं मानी बेठा छे तेओने बन्नेना द्विधाकरणनो व्यापार कराववामां आवे छे. अहा! रागथी एकपणुं मानी क्रियाकांडमां मग्न छे तेओने रागथी भिन्न करी शुद्ध एक आत्मस्वरूपमां मग्न थवानो व्यापार-उद्यम कराववामां आवे छे एम कहे छे. समजाणुं कांई... ? आ तो जीवोने भेदज्ञानमां लगाववानी वात छे.

कोईने थाय के आ भेदज्ञान वळी शुं चीज छे? अहा! आ भिन्न करवुं ते शुं? एने कहे छे - अनादिथी रझळी मरे छे एवा हे जीव! सांभळ. अंदरमां जे अनेक प्रकारे दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना शुभपरिणाम थाय छे ते तथा अहीं वीतराग सर्वज्ञे कहेलां आठ कर्म, एनी १४८ प्रकृति अने एना वळी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति अने अनुभाग बंध - ए बधानी व्याख्या अंदरमां विचारवी - ए तो बधो बंधतत्त्वनो विचार थयो. एनाथी जीवने अहीं भिन्न कराववाना अर्थात् स्वस्वरूपमां जोडवाना उद्यममां एने लगाववो ते भेदज्ञान छे.


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जुओ, आ व्यापार! आखो दि’ दुकानना, धंधाना, बायडी छोकरां साचववाना ने भोगना - ए तो बधा पापना व्यापार छे; अने दया, दान आदि तथा बंधना विचार आदिमां लाग्यो रहे ते बधा पुण्यना व्यापार छे. अने पुण्य-पापथी भिन्न अंदर शुद्ध चैतन्यमां लाग्यो रहे ते द्विधाकरणनो - भेदज्ञाननो व्यापार छे. आत्माने रागथी भिन्न करवानो आ व्यापार - उद्यम धर्म छे, अने एवो उद्यम करवानो भगवान जिनेश्वरनो हुकम छे.

अहा! अबंधस्वरूपी आत्मा अने रागनो बंधभाव - ए बेने जुदे जुदा करवानो भेदज्ञान करवानो भगवाननो हुकम छे. ल्यो, आ भगवाननो हुकम! के जोड अने तोड! एटले शुं? के अनादिथी रागमां ज्ञानने जोडयुं हतुं त्यांथी तोड अने ज्ञानने आत्मामां जोड. जुओ, आ धर्मनुं पहेलुं पगथियुं एवा सम्यग्दर्शननी रीत. चारित्र तो ते पछी होय बापु! लोकोने चारित्र कोने कहेवाय एनी खबर नथी. लुगडां फेरव्यां ने महाव्रत लीधां एटले थइ गयुं चारित्र एम माने पण ए तो नर्युं अज्ञान छे.

वीतराग परमेश्वरनो मार्ग बहु झीणो छे भाई! लोकोने बिचाराओने ते सांभळवां मळ्‌यो नथी. क्यांक जाय तो सांभळवा मळे के - जीवदया पाळो, व्रत करो, उपवास-तपस्या करो - एटले धर्म थइ जशे. पण एम तो धूळेय धर्म नहि थाय. रागनुं एकपणुं तोडी ज्ञानने निज चैतन्यस्वरूपमां जोडया विना अने एनी विशेष-विशेष स्थिरता कर्या विना बीजी रीते कदीय धर्म नहि थाय. समजाणुं कांई...?

त्यारे कोई वळी कहे छे - तमे तो बधुं क्रमबद्ध मानो छो. तो आ तोड-जोडनो उधम वळी शुं? एक बाजु कहो छो के बधुं क्रमबद्ध थाय छे अने वळी पाछा कहो छो के उद्यम करो - तो आमां तो विरोध आवे छे. एमां अविरोध केवी रीते छे?

बापु! ए ज्यां क्रमबद्धनो निर्णय करे छे त्यां ज आत्मामां जोडाणनो उद्यम आवी जाय छे. क्रमबद्धनो निर्णय ए ज स्वस्वरूपमां जोडाणनो उद्यम छे. आ रीते एमां अविरोध छे. समजाणुं कांई...? आ तो अगमनिगमनी वातु बापु!

आचार्य कहे छे - आत्मा अने राग स्वरूपथी भिन्न ज छे, परंतु जीव अज्ञानथी बेने एक माने छे ते एनुं अहित छे, अकल्याण छे. तेने वळी कहे छे - हे भाई! जो तारे तारुं कल्याण करवुं होय तो विकारना - रागना परिणामथी आत्माने भिन्न कर ने तारा ज्ञानने आत्मामां जोडी दे.

[प्रवचन नं. ३४८ (शेष)]

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गाथा–२९३

किमयमेव मोक्षहेतुरिति चेत्–

बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च।
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि।। २९३।।
बन्धानां च स्वभावं विज्ञायात्मनः स्वभावं च।
बन्धेषु यो विरज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति।। २९३।।

‘मात्र आ ज (अर्थात् बंधनो छेद ज) मोक्षनुं कारण केम छे?’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः-

बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो,
जे बंध मांही विरक्त थाये, कर्ममोक्ष करे अहो! २९३.

गाथार्थः– [बन्धानां स्वभावं च] बंधोना स्वभावने [आत्मनः स्वभावं च] अने आत्माना स्वभावने [विज्ञाय] जाणीने [बन्धेषु] बंधो प्रत्ये [यः] जे [विरज्यते] विरक्त थाय छे, [सः] ते [कर्मविमोक्षणं करोति] कर्मोथी मुकाय छे.

टीकाः– जे, निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावने (आत्माना स्वभावने) अने तेने (अर्थात् आत्माने) विकार करनारा एवा बंधोना स्वभावने जाणीने, बंधोथी विरमे छे, ते ज सर्व कर्मोथी मुकाय छे. आथी (-आ कथनथी), आत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण ज मोक्षनुं कारण छे एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा ते ज मोक्षनुं कारण छे एम नक्की करवामां आवे छे).

* * *
समयसार गाथाः २९३ मथाळुं

मात्र आ ज (अर्थात् बंधनो छेद ज) मोक्षनुं कारण केम छे? जुओ आ शिष्यनो प्रश्न! एम के राग अने आत्माने जुदा पाडवा ए एक ज मोक्षनुं कारण केम छे? एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः-

* गाथा २९३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे, निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावने अने तेने (अर्थात् आत्माने)


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विकार करनारा एवा बंधोना स्वभावने जाणीने, बंधोथी विरमे छे, ते ज सर्व कर्मोथी मूकाय छे.’

‘जे, निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावने....’ जोयुं? भगवान आत्मा निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्रस्वभाव छे. अहाहा...! देहथी अने अंदर थता पुण्य-पापना भावोथी भिन्न आत्मा निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र छे. अहा! ते कोईनी दया पाळे, कोईनी हिंसा करे, कोई ने कांई दे ने कोईथी कांई ले-एवो एनो स्वभाव ज नथी एवो ए चैतन्यचमत्कारमात्र प्रभु छे. गजब वात छे प्रभु! करे कोईनुं कांई नहि अने जाणे सौने - त्रणकाळ त्रणलोकने - एवो ए चैतन्यचमत्कारमात्र छे.

अहो! आत्मानो स्वभाव महा आश्चर्य पमाडे तेवो छे. एक रजकणने फेरवे नहि पण सूक्ष्ममां सूक्ष्म पदार्थ सहित आखा लोकालोकने जाणे एवो एनो स्वभाव छे. अहीं ‘चैतन्यचमत्कारमात्र’ केम कह्यो? केमके आत्मानो जाणवामात्र स्वभाव छे, पण परनुं ने रागनुं करवुं ए एनो स्वभाव नथी. पुण्य - पापना भाव आत्मानी चीज छे एम नथी. अहा! पुण्य - पापना भाव आत्माथी अन्य छे. जेम शरीर आत्माथी जुदी चीज छे तेम पुण्य - पापना विकारी भाव आत्माथी जुदी चीज छे.

अहीं कहे छे - एवा आत्मस्वभावने अने तेने विकार करनारा बंधोना स्वभावने जाणीने - जाणवानुं तो बेयने कह्युं. आत्मा चित्चमत्कारमात्र वस्तु छे ने पुण्य - पापना शुभाशुभ भावो तेने विकार करनारा बंधस्वभावो छे - एम बेयने जाणीने, जे बंधोथी विरमे छे अर्थात् रागथी विरक्त थाय छे ते ज सर्व कर्मोथी मूकाय छे. ल्यो, आ धर्म केवी रीते थाय छे ते कह्युं. शुं कह्युं? के आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग के जे बंधस्वभाव छे तेनाथी जे विरमे छे, विरक्त थाय छे ते ज सर्व कर्मथी मूकाय छे, अर्थात् मुक्ति पामे छे. आवी वात व्यवहारना रसियाने आकरी पडे पण आ सत्य छे. समजाणुं कांई..?

लौकिकमां तो पोते धंधा आदि पापनी प्रवृत्तिथी निवृत्त न थतो होय एटले ए बधुं छोडी जे बहारमां महाव्रतादि पाळतो होय ए धर्मात्मा छे एम लोको माने छे, पण अहीं कहे छे - ए पंचमहाव्रतादिना परिणाम शुभराग छे, आत्माने विकार करनारो भाव छे. व्यवहारमात्र विकार करनारा बंधस्वभाववाळा भावो छे. अहा! एनाथी जे विरमे छे ते ज कर्मोथी मूकाय छे.

‘आथी (- आ कथनथी) आत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण ज मोक्षनुं कारण छे - एवो नियम करवामां आवे छे.’

अहा! रागथी - विकारथी आत्माने भिन्न करवो ए ज मोक्षनुं कारण छे एवो नियम आथी सिद्ध थाय छे. रागथी भिन्न आत्मानी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन,


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रागथी भिन्न आत्मानुं ज्ञान करवुं ते सम्यग्ज्ञान, ने रागथी भिन्न आत्मानुं आचरण करवुं ते सम्यक्चारित्र. आ प्रमाणे रागथी - विकारथी आत्माने भिन्न करवो - अनुभववो ते मोक्षनुं कारण छे एम सिद्धांत - नियम करवामां आवे छे. आवी वात छे.

ल्यो, हवे व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चय थाय ए क्यां रह्युं! अहीं तो एम कहे छे के - व्यवहाररत्नत्रयथी आत्माने भिन्न अनुभववो ते मोक्षनुं कारण छे एम नियम करवामां आवे छे. जुओ आ वीतरागमार्गनो सिद्धांत.

[प्रवचन नं. ३४८]

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गाथा–२९४

केनात्मबन्धौ द्विधा क्रियेते इति चेत्–

जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं।
पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा।।
२९४।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्।
प्रज्ञाछेदनकेन तु छिन्नौ नानात्वमापन्नौ।।
२९४।।

‘आत्मा अने बंध शा वडे द्विधा कराय छे (अर्थात् कया साधन वडे जुदा करी शकाय छे) ?’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः-

जीव बंध बन्ने, नियत निज निज लक्षणे छेदाय छे,
प्रज्ञाछीणी थकी छेदतां बन्ने जुदा पडी जाय छे. २९४.

गाथार्थः– [जीवः च तथा बन्धः] जीव तथा बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्या] नियत स्वलक्षणोथी (पोतपोतानां निश्चित लक्षणोथी) [छिद्येते] छेदाय छे; [प्रज्ञाछेदनकेन] प्रज्ञारूपी छीणी वडे [छिन्नौ तु] छेदवामां आवतां [नानात्वम् आपन्नौ] तेओ नानापणाने पामे छे अर्थात् जुदा पडी जाय छे.

टीकाः– आत्मा अने बंधने द्विधा करवारूप कार्यमां कर्ता जे आत्मा तेना करण संबंधी मीमांसा करवामां आवतां, निश्चये (निश्चयनये) पोताथी भिन्न करणनो अभाव होवाथी भगवती प्रज्ञा ज (-ज्ञानस्वरूप बुद्धि ज) छेदनात्मक (-छेदनना स्वभाववाळुं) करण छे. ते प्रज्ञा वडे तेमने छेदवामां आवतां तेओ नानापणाने अवश्य पामे छे; माटे प्रज्ञा वडे ज आत्मा अने बंधनुं द्विधा करवुं छे (अर्थात् प्रज्ञारूपी करण वडे ज आत्मा ने बंध जुदा कराय छे).

(अहीं प्रश्न थाय छे के-) आत्मा अने बंध के जेओ *चेत्यचेतकभाव वडे अत्यंत निकटताने लीधे एक (-एक जेवा-) थई रह्या छे, अने भेदविज्ञानना अभावने लीधे, जाणे तेओ एक चेतक ज होय एम जेमनो व्यवहार करवामां आवे छे (अर्थात् जेमने एक आत्मा तरीके ज व्यवहारमां गणवामां आवे छे) तेओ प्रज्ञा वडे खरेखर कई रीते छेदी शकाय? _________________________________________________________________ १. करण = साधन; करण नामनुं कारक. २. मीमांसा = ऊंडी विचारणा; तपास; समालोचना. * आत्मा चेतक छे अने बंध चेत्य छे; अज्ञानदशामां तेओ एकरूप अनुभवाय छे.


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(तेनुं समाधान आचार्यदेव करे छेः-) आत्मा अने बंधनां नियत स्वलक्षणोनी सूक्ष्म अंतःसंधिमां (अंतरंगनी संधिमां) प्रज्ञाछीणीने सावधान थईने पटकवाथी (- नाखवाथी, मारवाथी) तेमने छेदी शकाय छे अर्थात् जुदा करी शकाय छे एम अमे जाणीए छीए.

आत्मानुं स्वलक्षण चैतन्य छे, कारण के ते समस्त शेष द्रव्योथी असाधारण छे (अर्थात् अन्य द्रव्योमां ते नथी). ते (चैतन्य) प्रवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने व्यापीने प्रवर्ते छे अने निवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने ग्रहण करीने निवर्ते छे ते ते समस्त सहवर्ती के क्रमवर्ती पर्यायो आत्मा छे एम लक्षित करवुं-लक्षणथी ओळखवुं (अर्थात् जे जे गुणपर्यायोमां चैतन्यलक्षण व्यापे छे ते ते समस्त गुणपर्यायो आत्मा छे एम जाणवुं) कारण के आत्मा ते ज एक लक्षणथी लक्ष्य छे (अर्थात् चैतन्यलक्षणथी ज ओळखाय छे). वळी समस्त सहवर्ती अने क्रमवर्ती अनंत पर्यायो साथे चैतन्यनुं अविनाभावीपणुं होवाथी चिन्मात्र ज आत्मा छे एम निश्चय करवो. आटलुं आत्माना स्वलक्षण विषे.

(हवे बंधना स्वलक्षण विषे कहेवामां आवे छेः-) बंधनुं स्वलक्षण तो आत्मद्रव्यथी असाधारण एवा रागादिक छे. ए रागादिक आत्मद्रव्य साथे साधारणपणुं धरता (-धारण करता-) प्रतिभासता नथी, कारण के तेओ सदाय चैतन्यचमत्कारथी भिन्नपणे प्रतिभासे छे. वळी जेटलुं, चैतन्य आत्माना समस्त पर्यायोमां व्यापतुं प्रतिभासे छे, तेटला ज, रागादिक प्रतिभासता नथी, कारण के रागादिक विना पण चैतन्यनो आत्मलाभ संभवे छे (अर्थात् रागादिक न होय त्यां पण चैतन्य होय छे). वळी जे, रागादिकनुं चैतन्य साथे ज ऊपजवुं थाय छे ते चेत्यचेतकभावनी (- ज्ञेयज्ञायकभावनी) अति निकटताने लीधे ज छे, एकद्रव्यपणाने लीधे नहि; जेम (दीपक वडे) प्रकाशवामां आवता घटादिक (पदार्थो) दीपकना प्रकाशकपणाने ज जाहेर करे छे-घटादिपणाने नहि, तेम (आत्मा वडे) चेतवामां आवता रागादिक (अर्थात् ज्ञानमां ज्ञेयरूपे जणाता रागादिक भावो) आत्माना चेतकपणाने ज जाहेर करे छे- रागादिपणाने नहि.

आम होवा छतां ते बन्नेनी (-आत्मानी अने बंधनी) अत्यंत निकटताने लीधे भेदसंभावनानो अभाव होवाथी अर्थात् भेद नहि देखातो होवाथी (अज्ञानीने) अनादि काळथी एकपणानो व्यामोह (भ्रम) छे; ते व्यामोह प्रज्ञा वडे ज अवश्य छेदाय छे.

भावार्थः– आत्मा अने बंध बन्नेने लक्षणभेदथी ओळखी बुद्धिरूपी छीणीथी छेदी जुदा जुदा करवा.


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(स्रग्धरा)
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः
सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य।
आत्मानं मग्नमन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ।। १८१।।

आत्मा तो अमूर्तिक छे अने बंध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओनो स्कंध छे तेथी बन्ने जुदा छद्मस्थना ज्ञानमां आवता नथी, मात्र एक स्कंध देखाय छे (अर्थात् बन्ने एकपिंडरूप देखाय छे); तेथी अनादि अज्ञान छे. श्री गुरुओनो उपदेश पामी तेमनां लक्षण जुदां जुदां अनुभवीने जाणवुं के चैतन्यमात्र तो आत्मानुं लक्षण छे अने रागादिक बंधनुं लक्षण छे तोपण मात्र ज्ञेयज्ञायकभावनी अति निकटताथी तेओ एक जेवा थई रह्या देखाय छे. तेथी तीक्ष्ण बुद्धिरूपी छीणीने-के जे तेमने भेदी जुदा जुदा करवानुं शस्त्र छे तेने-तेमनी सूक्ष्म संधि शोधीने ते संधिमां सावधान (निष्प्रमाद) थईने पटकवी. ते पडतां ज बन्ने जुदा जुदा देखावा लागे छे. एम बन्ने जुदा जुदा देखातां, आत्माने ज्ञानभावमां ज राखवो अने बंधने अज्ञानभावमां राखवो. ए रीते बन्नेने भिन्न करवा.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री] आ प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छीणी [निपुणैः] प्रवीण पुरुषो वडे [कथम् अपि] कोई पण प्रकारे (-यत्नपूर्वक) [सावधानैः] सावधानपणे (निष्प्रमादपणे) [पातिता] पटकवामां आवी थकी, [आत्म–कर्म–उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे] आत्मा अने कर्म-बन्नेना सूक्ष्म अंतरंग संधिना बंधमां (-अंदरनी सांधना जोडाणमां) [रभसात्] शीघ्र [निपतति] पडे छे. केवी रीते पडे छे? [आत्मानम् अन्तः– स्थिर–विशद–लसद्–धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम्] आत्माने तो जेनुं तेज अंतरंगमां स्थिर अने निर्मळपणे देदीप्यमान छे एवा चैतन्यपूरमां (चैतन्यना प्रवाहमां) मग्न करती [च] अने [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम्] बंधने अज्ञानभावमां निश्चळ (नियत) करती- [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती] ए रीते आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी भिन्न भिन्न करती पडे छे.

भावार्थः– अहीं आत्मा अने बंधने भिन्न भिन्न करवारूप कार्य छे. तेनो कर्ता आत्मा छे. त्यां करण विना कर्ता कोना वडे कार्य करे? तेथी करण पण जोईए. निश्चयनये कर्ताथी भिन्न करण होतुं नथी; माटे आत्माथी अभिन्न एवी आ बुद्धि ज आ कार्यमां करण छे. आत्माने अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म छे, तेमनुं कार्य भावबंध तो रागादिक छे अने नोकर्म शरीरादिक छे. माटे बुद्धि वडे आत्माने शरीरथी, ज्ञानावरणादिक


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द्रव्यकर्मथी तथा रागादिक भावकर्मथी भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवी ज्ञानमां ज लीन राखवो ते ज (आत्मा ने बंधनुं) भिन्न करवुं छे. तेनाथी ज सर्व कर्मनो नाश थाय छे, सिद्धपदने पमाय छे, एम जाणवुं. १८१.

* * *
समयसार गाथा २९४ः मथाळुं

आत्मा अने बंध शा वडे द्विधा कराय छे? एटले के आत्मा अने अंदरमां पुण्य- पापना भावरूप जे भावबंध - ते कया साधन वडे जुदा करी शकाय छे? अहा! बन्नेने जुदा पाडवानुं साधन शुं? आवा शिष्यना प्रश्न प्रति उत्तर कहे छेः-

* गाथा २९४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा अने बंधने द्विधा करवारूप कार्यमां कर्ता जे आत्मा तेना करण संबंधी मीमांसा करवामां आवतां, निश्चये (निश्चयनये) पोताथी भिन्न करणनो अभाव होवाथी भगवती प्रज्ञा ज छेदनात्मक करण छे.’

‘आत्मा अने बंधने द्विधा करवारूप कार्यमां कर्ता जे आत्मा....’ अहाहा...! शुं कीधुं ए? के शांत निर्मळ निर्विकार स्वभावथी भरेलो ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्मा तथा पुण्य - पापना - राग -द्वेषना भावरूप जे भावबंध - ए बेने द्विधा एटले जुदा पाडवारूप कार्यनो कर्ता आत्मा छे. अहा! आत्माने बंधने-रागादिने जुदा पडवा ए एक कार्य छे. जुओ, अंदर कार्य कह्युं छे के नहि? अहा! एनो (-द्विधाकरणनो) कर्ता आत्मा छे; एनो कर्ता राग नथी. व्यवहार नथी. केम? केमके जेनाथी जुदुं पडवुं छे ए एनो कर्ता केम होय? व्यवहार - शुभराग छे ए तो बंध छे, एनाथी तो जुदुं पडवुं छे; तो पछी ए (-राग) जुदा पाडवानुं साधन केम होइ शके? न होइ शके. न्याय समजाय छे के नहि? एम के रागने तो आत्माथी जुदो पाडवो छे, तो ते राग वडे केम जुदो पाडी शकाय? द्विधाकरणनुं साधन - करण राग केम होइ शके? अहा! ए बेने जुदा पाडवारूप जे कार्य एनो कर्ता खरेखर आत्मा ज छे

प्रश्नः– छहढालामां तो एम कह्युं छे के - ‘हेतु नियतको होइ’ - अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गनो हेतु छे.

समाधानः– भाई! ए तो निमित्तनुं कथन छे. सत्यार्थ मोक्षमार्ग ज्यारे प्रगट थयो त्यारे जे मोक्षमार्ग तो नथी पण जे मोक्षमार्गनुं निमित्त वा सहचारी छे तेने उपचारथी व्यवहार मोक्षमार्ग कहीए छीए अने तेने बाह्य निमित्त वा सहचर जाणी निश्चय मोक्षमार्गनो हेतु छे एम उपचारथी कहेवामां आवे छे. बापु! त्यां तो उपचार कथन द्वारा निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे एम यथार्थ समजवुं. समजाणुं कांई...?


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हवे आगळ कहे छे - अतीन्द्रिय आनंदना रसथी पूरण भरेलो आत्मा ने पुण्य - पापरूप बंधनी - दुःखनी दशा - ए बेने जुदा पाडवाना कार्यनो कर्ता जे आत्मा तेना करण संबंधी मीमांसा एटले ऊंडी विचारणा - मूळ तपास - मूळनी समालोचना करवामां आवतां.... , जोयुं? आचार्य महाराजने तो मीमांसा करवानी कांई रही नथी, पण अहीं श्रोताओने भेगा लइ ने तेनुं साधन शुं छे ते आपणे विचारीए ए शैलीथी वात करी छे.

करणनी वात आवी ने? तो आत्मामां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान ने अधिकरण - एम छ गुणो - शक्तिओ छे; पण ए बधा अंदर ध्रुवपणे अक्रिय रहेला छे. अहीं जुदा पाडवाना कार्यमां पर्यायरूप कारकनी वात छे. बेने जुदा करवा छे तो जुदा करवाना कार्यना कारणमां वर्तमान पर्याय साधन थइने बेने जुदा करे छे. त्रिकाळी शक्तिओ छे ए तो ध्रुव छे अने विकार छे ए दोष छे, एने तो परमां नाखी दीधो; माटे ए (-बेय) साधन छे नहि. एटले अहीं कहे छे के - कर्ता भगवान आत्मा तेना करण संबंधी ऊंडी विचारणा करतां निश्चयनये - खरेखर जोइए तो पोताथी भिन्न करणनो अभाव होवाथी भगवती प्रज्ञा ज - ज्ञानस्वरूप बुद्धि ज छेदनात्मक करण छे. आ आत्मानी अनुभूतिनी दशा जे पर्याय एनी वात छे, अने ते पर्याय कर्ताथी (पर्यायवानथी) भिन्न होती नथी एम वात छे.

अहा! वीतराग जैन परमेश्वर एम कहे छे के -दुःखनी दशाना भाव अने आनंद स्वरूप भगवान आत्मा - ए बेने जुदा करवा होय तो कर्ताय आत्मा छे ने साधनेय आत्मा छे. रागथी दुःखथी भिन्न पडवामां; स्वरूपमां ढळेली ज्ञाननी वर्तमान दशा ते साधन छे. ज्ञाननी वर्तमान दशाने रागनी साथे एकता हती, वस्तुने नहि; वस्तु तो ध्रुव छे. ते ज्ञाननी पर्याय (भगवती प्रज्ञा) ज्यां अंतरमां वळी - ढळी त्यां रागथी भिन्न थइ गइ अने त्यारे रागथी भिन्न पोतानो आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा भाळ्‌यो. आ प्रमाणे राग छे तेने भिन्न पाडवानुं साधन भगवती प्रज्ञा - अंतरएकाग्र थयेली ज्ञाननी दशा छे.

व्यवहार साधन छे एम लोको राडु पाडे छे ने? पण भाई! अहीं तो आ अति स्पष्ट कहे छे के - भगवती प्रज्ञा ज-अंतर-एकाग्र थयेली स्वानुभवनी दशा ज-विकारथी भिन्न पाडवानुं साधन छे, ‘भगवती प्रज्ञा ज’ -एम कीधुं छे ने? मतलब के ते एक ज साधन छे. बीजुं पण साधन छे एम छे नहि. एक कार्यमां बे साधन होय ए तो कथनशैली छे अर्थात् ए व्यवहारनयनुं कथन छे. (प्रमाणनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे.) वास्तवमां साधन बे नथी, एक ज छे. एम न होय तो पूर्वापर विरोध थाय. समजाणुं कांई....?

अहा! अनंतकाळमां परिभ्रमण करतां मांड (महान पुण्योदये) मनुष्यभव मळे छे. एमांय वळी जैन परमेश्वरना मार्गमां जन्म थवो महा महा कठण छे. जुओने,


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आजे पण जेमने हजी त्रस अवस्था आवी ज नथी एवा अनंता जीव निगोदमां सबडे छे. शुं कीधुं? आ लसण होय छे ने! एनी एक कटकीमां असंख्य औदारिक शरीरो छे, अने ए प्रत्येक शरीरमां अनंता निगोदना जीव छे. अहा! ते सर्व जीव ‘भरित- अवस्थ’ एटले स्वभावना सामर्थ्यथी पूरण भरेला द्रव्यरूपथी परमात्मस्वरूप छे. पण शुं थाय? वर्तमान दशा हीन छे, स्वरूपने समजवानी योग्यताथी रहित छे. भाई! तने आवो अवसर (मनुष्यभव अवसर छे) मळ्‌यो छे तो स्वरूपने समजी ले. रागथी एकता छे ते तोडीने स्वरूपमां-चैतन्यरूपमां एकता कर. अहा! आवा अवसरमां भगवान शुं कहे छे ए न समजे तो निगोदना जीवतरमां ने तारा जीवतरमां फरक नहि रहे. अवसर तो चाल्यो जशे अने स्वरूपना भान विना भगवान! तुं क्यांय संसार-समुद्रमां खोवाइ जईश.

अहा! अनंतकाळथी रझळतो चोरासी लाख योनिमां अवतार धरतो ते महादुःखी छे. वर्तमानमां शरीर भले रूपाळुं होय, पांच - पचास लाखनो संयोग होय, घरे बंगला होय अने बायडी - छोकरां बधां अनुकूळ होय, पण ए बधामां तारुं शुं छे भाई! तारो तो एक आनंदनो नाथ चैतन्यलक्ष्मीस्वरूप प्रभु आत्मा छे. अहा! एने जाण्या विना तुं दुःखी ज छे प्रभु! एना भान विना आ बहारनी जड लक्ष्मी-धूळ वडे तुं पोताने सुखी माने छे पण ए तो जूठी कल्पना ज छे. जोत जोतामां बधुं अद्रश्य थइ जशे अने तुं क्यांय कागडे - कूतरे चाल्यो जइश. समजाणुं कांई...?

अहीं कहे छे - भगवती प्रज्ञा ज - एकली ज्ञानस्वरूप बुद्धि ज - छेदनात्मक एटले आत्मा अने विकारने भिन्न पाडवाना स्वभाववाळुं साधन छे. जेम लाकडामां करवत मूकतां कटका थइ जाय छे तेम भेदज्ञाननी बुद्धि अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूपमां अंतर-एकाग्र थयेली ज्ञाननी दशा आत्मा अने विकारने - बन्नेने भिन्न करी नाखे छे. अहा! देव-गुरु-शास्त्र प्रत्ये भक्ति-विनयनो राग ने पंचमहाव्रतादिनो राग ए बधो जे व्यवहार छे एनाथी भगवान आत्माने भिन्न पाडवाना स्वभाववाळुं साधन भगवती प्रज्ञा ज छे अने ते आत्माथी अभिन्न छे. आ प्रमाणे आत्मा ज एटले अंतर्मुख वळेली ज्ञाननी पर्याय ज कर्ता ने ए ज साधन छे. भाई! आ तो महाविदेहमां बिराजमान साक्षात् तीर्थंकर सीमंधर भगवाननी वाणीमां आवेली वात छे.

प्रश्नः– पण राग ने आत्मा जुदा - भिन्न ज छे एम आप कहो छो तो जुदा छे एमने जुदा शुं पाडवा?

उत्तरः– हा, तेओ जुदा ज छे, पण एने जुदा मान्या छे क्यां? बीजी चीज मारी छे एम मान्युं छे. भाई! बगडे बे-एम बीजी चीज मारी छे एम मान्युं छे ए मोटो बगाड छे. शुभाशुभनुं परिणमन ए आत्मामां बगाड छे एने भिन्न करवा प्रज्ञा - ज्ञाननी अनुभव दशा ए एक ज साधन छे.


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ए ज विशेष कहे छे - ‘ते प्रज्ञा वडे तेमने छेदवामां आवतां तेओ नानापणाने अवश्य पामे छे; माटे प्रज्ञा वडे ज आत्मा अने बंधनुं द्विधा करवुं छे.’

अहा! जोयुं? प्रज्ञा वडे तेमने एटले विकार अने भगवान आत्माने छेदवामां आवतां तेओ अवश्य नानापणाने एटले अनेकपणाने पामे छे. पहेलां बे एक थइ ने रह्यां हतां ते हवे प्रज्ञा वडे छेदवामां आवतां बे छे ते बे भिन्न थइ जाय छे; आत्मा आत्मापणे रहे छे ने राग रागपणे रहे छे. बे एक थतां नथी. आत्मा रागनो मात्र जाणनार थइ जाय छे. भाई! आवुं अंदर भेदज्ञान करवुं एनुं नाम धर्म छे, अने आ ज कर्तव्य छे.

अहा! लोको तो एकाद कलाक व्याख्यान सांभळी आवे अथवा सामायिक लइने बेसी जाय अथवा णमोकार मंत्रने जप्या करे एटले माने के थइ गयो धर्म. अरे! लोकोए धर्मनुं स्वरूप मचडी-मरडी मार्युं छे. संतो करुणा करीने कहे छे - एकवार सांभळ भाई! आ बधी क्रियाओमां जो शुभराग हशे तो पुण्यबंध थशे पण एनाथी भिन्न पडवाना उपायनी - साधननी खबर विना अनंतकाळेय संसारनी रझळपट्टी नहि मटे, संसारनो पारावार कलेश नहि मटे. निर्जरा अधिकारमां कह्युं छे के ए राग बधो कलेश छे. त्यां कह्युं छे - ‘ि्र्रक्लइयन्तां’ कलेश करो तो करो, पण एनाथी धर्म नहि थाय.

अहा! शुं कहीए? राग ने ज्ञानानंद प्रभु आत्माने एकपणुं माननार जैन ज नथी. जैन परमेश्वर जैन कोने कहे छे एनी एने खबर नथी. आ महिना महिनाना उपवास, वर्षीतप इत्यादि करे छे ने? पण बापु! ए तो बधो राग छे, एमां धर्म क्यां छे? एने तो हुं आत्मा छुं एनी खबरेय नथी तो धर्म केम थाय?

प्रश्नः - उपवास, वर्षीतपने तप कह्युं छे ने? उत्तरः– तप कोने कहेवुं भाई! जेम सोनाने गेरु लगाडतां ओपे एम भगवान आत्मा स्वरूपमां प्रतपे, तेमां लीन थइ ओपे-शोभे तेने भगवान तप कहे छे. उपवासादिने तपनी संज्ञा तो उपचारमात्र छे. ‘स्वरूपे प्रतपनं इति तपः’ स्वरूपमां प्रतपवुं - प्रतापवंत रहेवुं ते तप छे.

प्रश्नः - भरत चक्रवर्ती मखमलनां भारे किंमती गादलामां सूवे तोय तेने तमे धर्मी कहो छो अने अमे उखला सूइ रहीए छतां अमने धर्म नहि; आ तो केवो न्याय?

उत्तरः– बापु! गोदडे सूवे न सूवे एनी साथे धर्मने शो संबंध छे? अंदर राग साथे एकपणुं जेने छूटी गयुं छे ते धर्मी छे, अने रागथी जेने एकपणुं छे ते अधर्मी छे. अहा! भरत चक्रीने घरे ९६ हजार राणीओ हती, छतां राणीओ अने ते संबंधी राग- एमां एकपणुं न हतुं. ए बधां मारां छे एम परमां आत्मबुद्धि


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न हती, ए विषयोमां सुखबुद्धि न हती. अने कोई शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळे ने एना शुभरागमां एकपणुं करे, शुभरागने भलो जाणे तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. आवुं झीणुं भाई! भगवान सर्वज्ञनो मार्ग आवो बहु झीणो छे.

भगवाननो मार्ग बहु झीणो बापा! अहा! एक पळ पण जेने अंदर आत्मज्ञान थाय ते भवरहित थइ जाय छे; अने आत्मज्ञान विना कोई बाह्य क्रियाओ करी करीने मरी जाय छतां एने एक भव पण न घटे; अहा! ए क्रियाओने भली माने ए मिथ्यात्वनो मोटो बगाड छे, अने एने ए जन्मपरंपरानुं ज कारण थाय छे. अहा! आ तो भगवाननी ओमध्वनिमां आवेली वात छे.

हवे अहीं शिष्य पूछे छे के - ‘आत्मा अने बंध के जेओ चेत्य-चेतकभाव वडे अत्यंत निकटताने लीधे एक (-एक जेवा-) थइ रह्या छे, ने भेद-विज्ञानना अभावने लीधे, जाणे तेओ एक चेतक ज होय एम जेमनो व्यवहार करवामां आवे छे तेओ प्रज्ञा वडे खरेखर केवी रीते छेदाय? ’

अहा! चिदानंदधन प्रभु आत्मा अने पुण्य-पापना भाव जे बंध - तेओ चेत्य - चेतकभाव वडे अत्यंत निकटताने लीधे एक जेवा थइ रह्या छे. शुं कीधुं ए? भगवान आत्मा जाणनार - देखनार प्रभु चैतन्यप्रकाशनुं पूर चेतक छे अने दया, दान, व्रत, भक्ति अने हिंसा, जूठ, चोरीना विकारना भाव जाणवा लायक चेत्य छे. अहा! तेओ आत्मा नथी. भले तेओ पोतानी पर्यायमां थाय छे छतां तेओ विभाव - विकृतभाव छे. ते बन्नेने घणी निकटता छे. एटले शुं? के जे समये ज्यां विकार उत्पन्न थाय छे ते ज समये त्यां ज्ञान उत्पन्न थाय छे. जाणनारो भगवान ज्यारे जाणवानी दशापणे उत्पन्न थाय छे ते ज काळे रागनी उत्पत्ति थाय छे. (आ निकटता छे) हवे निश्चयथी विकार चेत्य नाम जाणवालायक छे अने आत्मा चेतक नाम जाणनारो छे. बंधभावमां चेतकपणुं नथी अने चेतकमां बंधभाव नथी. एम होवा छतां बेनी अति निकटताने लीधे चेत्य जे विकार ते हुं छुं एम अनादिथी अज्ञानी माने छे.

जुओ, आत्मा अने विकार - बे एक थइ रह्या छे एम कीधुं ने? मतलब के तेओ एक छे एम नहि, पण अज्ञानीने तेओ एक जेवा थइ रह्या होय एम भासे छे. तेने भेदज्ञान नथी ने! अहा! भेदज्ञानना अभावने लीधे जाणे तेओ एक चेतक ज होय अर्थात् जाणे तेओ एक थइ गया होय तेवो व्यवहार करवामां आवे छे. शिष्य पूछे छे - प्रभु! अंदर आटलुं बधुं ज्यां बन्नेने निकटपणुं थइ गयुं छे, ज्यां आत्मा जाणनार चेतक ने विकार जाणवा लायक चेत्य - एवो भेद देखातो नथी तो हवे बन्नेने प्रज्ञा वडे केवी रीते छेदी शकाय?

अरे! अनंतकाळमां एणे आत्मा अने बंध वच्चे भेदज्ञान कर्युं नहि! एणे