Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 295.

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अनशन, उणोदर आदि बार प्रकारनां तप कर्या, गुण-गुणीना भेदरूप विकल्प कर्या, बार बार महिनाना उपवास आदि आकरां तप करी शुक्ललेश्या पूर्वक ते अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो; पण अरे! ए शुभराग जाणवालायक चेत्य पदार्थथी हुं चेतनारो ज्ञायक भिन्न छुं एम भेदज्ञान न कर्युं! पण बापु! विना भेदज्ञान कल्याण तो शुं कल्याणनी शरूआतेय थती नथी.

भगवाने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आदि नव पदार्थ कह्या छे. तेमां हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, काम, क्रोध आदि पापभावो छे अने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि पुण्यभावो छे. भगवान आत्मा ए बन्नेथी भिन्न ज्ञायकतत्त्व छे. शुं कीधुं? प्रत्येक जीव अंदर शुद्ध एक ज्ञायक तत्त्व छे. अहाहा..! प्रत्येक जीव अंदर ज्ञानानंदनो दरियो प्रभु छे.

आ शक्करियुं होय छे ने? सक्करकंद, तेना उपरनी जे लाल छाल छे एनो कुचा जेवो फीको स्वाद होय छे. तेने काढी नाखो तो अंदरमां एकलो साकर-मीठाशनो पिंड छे. तेम पर्यायमां जे आ शुभाशुभभावोना विकल्प उठे छे ते लाल छाल जेवा छे. एनुं लक्ष छोडी दो तो अंदर भगवान आत्मा एकलो ज्ञान ने आनंदनो रसकंद छे.

भाई! आ शरीर रूपाळुं देखाय छे ने? ए शरीर तो धूळ-माटी छे. बळशे त्यारे एटली (शरीरना जेटली) राखेय नहि थाय, अने एय पवनथी क्यांय उडी जशे. अने जीव, विना भेदज्ञान क्यांय चाल्यो जशे. एटले तो कह्युं छे के-

“रजकण तारां रझळशे, जेम रखडती रेत;
पछी नरतन पामीश कयां, चेत चेत नर चेत.

अहाहा...! चेतनाराने चेत एम सावधान करे छे. अहा! महाभाग्य होय त्यारे आवी वीतरागनी वाणी काने पडे छे. अहीं पूछे छे- भगवान! चेतनारो आत्मा अने चेत्य विकार- ए बन्ने एक जेवां भासे छे तो भगवती प्रज्ञा वडे तेओनो भेद केवी रीते करी शकाय? एने सम्यग्दर्शन अने आत्मानुभाव केम थाय एवो मुदनी रकमनो प्रश्न शिष्ये कर्यो छे.

तेनुं समाधान आचार्यदेव करे छेः - ‘आत्मा अने बंधनां नियत स्वलक्षणोनी सूक्ष्म अंतःसंधिमां प्रज्ञाछीणीने सावधान थइने पटकवाथी तेमने छेदी शकाय छे अर्थात् जुदा करी शकाय छे एम अमे जाणीए छीए.’

आ पत्थरना डुंगर नथी होता? लाखो मण पत्थर होय एवा पत्थरना डुंगरे डुंगर होय छे, एमां पत्थरो बधा एक जेवा देखाय छे पण एक नथी होता.


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एटले जेने ए डुंगरो तोडवा होय छे तेओ एमां जे सफेद के लाल आदि रगो देखाय छे त्यांथी खोदी एमां सुरंग नाखी फोडे छे; एटले हजारो मण पत्थर जुदा-जुदा पडी जाय छे. जुदे जुदा ज हता ते आ रीते जुदा पडी जाय छे.

तेम आनंदरसकंद प्रभु आत्मा अने पुण्यपापना भाव एक नथी, तेओ कदीय एक थया ज नथी. बे वच्चे संधि - सांध छे. कळश १८१मां आवशे के बे वच्चे संधि एटले सांध-तड छे; बे निःसंधि-एक थयेल नथी. अहा! त्रिकाळी अकृत्रिम प्रभु आत्मा ने क्षणिक कृत्रिम विकारना भाव - बे कदी एक थया ज नथी. जेम बे पत्थर वच्चे सांध छे तेम भगवान आत्मा अने राग - विकार वच्चे सांध छे. माटे स्वानुभवमां समर्थ एवी प्रज्ञाछीणीने - वर्तमान ज्ञाननी दशाने - अंतर एकाग्र करतां बन्ने जुदा पडी जाय छे.

अंदरमां (-पर्यायमां) रागनो विकल्प ऊठे छे ते सूक्ष्म छे; (परद्रव्यनी अपेक्षा अहीं विकल्पने सूक्ष्म कह्यो छे); अने भगवान जाणनारो अंदर एथीय अति सूक्ष्म रहेलो छे. बेनां पोतपोतानां नियत - निश्चित लक्षणो छे. बंधनुं लक्षण राग छे अने ज्ञान ने आनंद आत्मानुं लक्षण छे अहा! जाणनार... जाणनार... जाणनार ते आत्मा अने राग... राग... राग ते बंध. बीजी रीते कहीए तो निराकुलता लक्षण आत्मा छे अने आकुळता लक्षण बंध छे. बंधनी - रागनी दशा पर तरफनी दिशावाळी छे. आ प्रमाणे बन्नेनां भिन्नभिन्न लक्षणो छे. आ लक्षणोथी बन्ने वच्चे सांध छे, एकपणुं नथी.

अहा! अनादिथी पर तरफना वलणवाळी रागनी दशा ने अंतरंग ज्ञाननी दशा- बेने ऊंडे ऊंडे एक मानी आत्मा रागी छे एम एणे मान्युं छे, पण अहीं कहे छे-ए बे वच्चे निज निज लक्षणोथी अंतरंग संधि-सांध छे. प्रज्ञाछीणीने अर्थात् ज्ञाननी दशाने अंतर्मुख करी सावधान थइने सांधमां पटकतां बन्ने भिन्न पडी जाय छे. अहा! ज्ञाननी दशाने रागथी भिन्न जाणी तेने अंतर-एकाग्र करतां ते एवी अंतरमां स्थिर थाय छे के बन्ने जुदा पडी जाय छे, आनुं नाम सम्यग्दर्शन ने भेदविज्ञान छे.

भाई! आ तो अंतरनी क्रिया छे. आ विना बहारनी लाख क्रिया करे तोय धर्म थाय एम नथी. राग अने आत्माने भिन्न करवानी कळा-भेदज्ञानकळा ए एक ज धर्म पामवानी कळा छे. बापु! त्रणे काळ परमार्थनो आ एक ज मार्ग छे. भगवान तीर्थंकरदेवोए जगतने परमार्थनो आ मार्ग जाहेर कर्यो छे अने संतो जगतने ते बतावे छे.

अहा! आचार्यदेव कहे छे - राग अने आत्माने आ रीते प्रज्ञा वडे छेदी शकाय छे एम अमे जाणीए छीए. आमां महासिद्धांत रहेलो छे. शुं? के अमे जे


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भेदविज्ञाननी वात कहीए छीए ते स्वानुभवप्रमाण छे. अमे भेदविज्ञान कर्युं छे अने ते अमे तने कहीए छीए. अमारे कोई केवळीने पूछवुं पडे के अमने धर्म थयो छे के नहि एम छे नहि.

घणाने तो आ सांभळवुंय कठण पडे. पण शुं थाय? आवुं पहेलां समजवुं पडशे हों. मार्ग तो जे छे ते आ छे. आनी समजण ज नथी ते अंतरमां केम करीने वळशे? सत्यनुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं जाण्या विना सत्य तरफ केवी रीते वळे? अरे! आम ने आम जीव अनंतकाळथी रझळी रह्यो छे. अनंतकाळमां एणे नरक ने निगोदना अनंत अनंत भव कर्या, एकला दुःखना वासा प्रभु! वळी कदाचित् मोटो अबजोपति शेठ थयो, मोटो राजा थयो एने ग्रैवेयकनो देव थयो. अहा! पण एणे राग ने आत्मानी वच्चे सांध छे त्यां प्रज्ञाछीणी मारीने बेने जुदा कर्या नहि!

भाई! आ देह तो क्षणमां छूटी जशे हों बापु! बहारमां तने कोई शरण नथी. अंदर एक आत्मा ज शरण छे. आ पुण्य-पापना भावो अशरण छे, भगवान आत्मा ज एक शरण छे. माटे पुण्य - पापनुं लक्ष छोडी अंदर सावधान था. स्वरूपना शरणमां जतां तने अतीन्द्रिय आनंद थशे.

अहा! ध्रुवने ध्यानमां लेता अर्थात् ज्ञानने (उपयोगने) एक ध्रुवमां-शुद्ध चैतन्यमां एकाग्र करी राखतां राग अने आत्मा बे भिन्न पडी जाय छे. अहा! पहेलां ज्ञाननी दशा रागमां तन्मय - एकाग्र हती ते हवे ध्रुवधाम प्रभु आत्मामां एकाग्र थई त्यां राग भिन्न पडी गयो अने तत्काल एटले स्वानुभवना ते ज समये अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो. अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे त्यारे जाणवुं के राग ने आत्मा भिन्न पडी गया. आनुं नाम सम्यग्दर्शन ने आनुं नाम धर्म छे.

अहो! चोथे गुणस्थाने सम्यग्दर्शन थतां जाण्युं के - आ आनंदस्वरूप छे ते हुं छुं, राग हुं नहि; रागनी मारामां नास्ति छे. ज्ञानस्वरूपी आत्मानुं ज्ञान थतां पर्यायमां ज्ञान आव्युं. राग आव्यो नहि, राग ज्ञानथी भिन्न पडी गयो. आनुं नाम भेदज्ञान छे. अहो! पुण्य-पापरूप अशुचिथी भिन्न करी परम पवित्र प्रभु आत्माने प्राप्त करावनारुं भेदज्ञान कोई अलौकिक छे. आचार्यदेवे कळशमां कह्युं छे ने के -

भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।। [
कळश-१३१]

आज पर्यंत जे मुक्ति पाम्या छे ते आ भेदज्ञानथी पाम्या छे, तथा संसारमां जे अद्यापि बंधनमां छे अने रझळे छे ते भेदज्ञानना अभावना कारणे ज रझळे छे.

जेम बीज उगे एना तेर दिवस पछी पूनम थाय छे तेम सम्यग्दर्शनरूपी बीज जेने उगे छे तेने अल्पकाळमां मुक्ति थाय ज छे. सम्यग्दर्शन पछी भेदज्ञानना बळे


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आनंदमां लीन रहेवुं, आनंदनुं भोजन करवुं, प्रचुर आनंदने अनुभववो ते चारित्र छे. आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन ए चारित्रनी महोर-मुद्रा छे. आवा चारित्रपूर्वक जीवनी मुक्ति थाय छे. अहीं कहे छे - ए सर्व भेदज्ञाननो महिमा छे. विना भेदज्ञान चारित्र तो शुं सम्यग्दर्शनेय (चोथुं गुणस्थानेय) संभवित नथी. समजाणुं कांई...?

हवे आ मूळ वातमां ज लोकोने वांधा छे; एम के रागथी -व्यवहारथी थाय. अहीं कहे छे - रागथी - व्यवहारथी भिन्न पडे तो थाय, भेदज्ञानथी थाय. ल्यो, हवे आवी वात! बापु! आ तो भगवान केवळीनी वाणी! जेनी इन्द्रो ने गणधरो सेवा करे ने बहु नम्र थइ विनय पूर्वक वाणी सांभळे - अहा! ते वाणी केवी होय? दया पाळो ने धर्म थई जशे एवी वातो तो कुंभारेय करे छे. परमात्मा कहे छे - भाई! तुं तारी दया कर. परनी दया तुं करवा जाय छे पण ए तो राग छे, बंध छे; धर्म नथी. अहा! एनाथी भिन्न पडी अंदर स्वस्वरूपमां एकाग्र थाय ते स्वदया छे अने ते धर्म छे.

हवे कहे छे - ‘आत्मानुं स्वलक्षण चैतन्य छे, कारण के ते समस्त शेष द्रव्योथी असाधारण छे.’

जोयुं? चैतन्य आत्मानुं असाधारण लक्षण छे केमके ते पुद्गलादि सर्व अन्य द्रव्योमां नथी. पोतामां होय ने परमां न होय ते असाधारण छे. आ रीते चैतन्य आत्मानुं असाधारण लक्षण छे. हवे कहे छे -

‘ते (चैतन्य) प्रवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने व्यापीने प्रवर्ते छे अने निवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने ग्रहण करीने निवर्ते छे ते ते समस्त सहवर्ती के क्रमवर्ती पर्यायो आत्मा छे एम लक्षित करवुं-लक्षणथी ओळखवुं कारण के आत्मा ते ज एक लक्षणथी लक्ष्य छे.’

जुओ, शुं कहे छे? के ते चैतन्य प्रवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने व्यापीने प्रवर्ते छे ते ते समस्त सहवर्ती पर्यायो (-गुणो) आत्मा छे -एम लक्षणथी ओळखवुं. जुओ, अहीं गुणने पर्याय कह्युं छे. द्रव्यमां एटलो भेद पडयो ने? माटे गुणने पर्याय कह्युं छे. ज्ञानगुणनी साथे जे जे बीजा अनंत गुण सहवर्ती छे तेमां चैतन्य व्यापीने प्रवर्ते छे माटे ते आत्मा छे एम जाणवुं.

वळी ते चैतन्य निवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने ग्रहण करीने निवर्ते छे ते समस्त क्रमवर्ती पर्यायो आत्मा छे एम लक्षित करवुं - लक्षणथी ओळखवुं. शुं कीधुं? के चैतन्य जे जे नवी नवी पर्यायने ग्रहण करीने पूर्वनी पर्यायथी निवर्ते छे ते समस्त क्रमवर्ती पर्यायो आत्मा छे एम जाणवुं. संक्षेपमां जे जे गुण पर्यायोमां चैतन्य लक्षण व्यापे छे ते ते समस्त गुण-पर्यायो आत्मा छे एम जाणवुं (आमां निर्मळ पर्यायो लेवी.)


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जुओ, आमां उत्पाद, व्यय ने ध्रौव्यनुं स्वरूप बताव्युं. ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम सत्’– एम भगवान उमास्वामीनुं सूत्र छे ने? एनो आमां खुलासो कर्यो. पण आ सिवाय ‘हुं आत्मा छुं ने आ ज्ञान गुण छे’ - एवो भेद पाडतां जे वृत्ति - विकल्प उठे ए राग छे ने ए बंधनी पंक्तिमां छे. एमां चैतन्यनो अंश नथी माटे ते भगवान आत्माथी भिन्न छे.

आत्मानुं लक्षण चैतन्य छे अने ते गुण ने पर्याय - एम बे रूपे छे. समये समये नथी नवी पर्याय जे क्रमबद्ध उत्पन्न थाय छे ते पर्यायना उत्पादने ग्रहण करतो, पूर्वनी पर्यायने छोडतो (निवर्ततो), गुणोपणे कायम रहेतो आत्मपदार्थ छे. सर्वज्ञ परमेश्वरे जे द्रव्य, गुण ने पर्यायरूप आत्मा जोयो एनी आ वात छे. आत्मामां ज्ञान.. ज्ञान... ज्ञान,- आनंद... आनंद.. आनंद- ए बधा गुणो सहवर्ती - एक साथे रहे छे. (वर्ते छे), अहा! सत्ना सत्त्वरूप त्रिकाळी गुण-स्वभावोने अहीं सहवर्ती कह्या छे. भगवान आत्मा ए बधा गुणोमां प्रवर्ते छे, व्यापे छे. अने जे जे नवी नवी अवस्था क्रमे थाय छे तेने क्रमवर्ती कही छे, गुणो नवा नवा थता नथी. आ प्रमाणे सहवर्ती गुणो ने क्रमवर्ती पर्यायो - ए बधुं आत्मा छे एम लक्षित करवुं- लक्षणथी ओळखवुं, कारण के आत्मा ए ज एक लक्षणथी लक्ष्य छे.

शुं कीधुं? चैतन्यना सहवर्ती गुणो ने क्रमवर्ती पर्यायो - ए बधुं आत्मा छे एम लक्षित करवुं - लक्षणथी ओळखवुं कारण के आत्मा ते ज एक लक्षणथी लक्ष्य छे. जाणवानो गुण अने जाणवानी पर्याय - ए लक्षणथी ज आत्मा जाणवामां आवे छे. अहा! आ एक ज एनो उपाय छे. शरीरनी कोई क्रिया के रागनी कोई क्रियाथी आत्मा जाणवामां आवे एवुं एनुं स्वरूप ज नथी.

आत्मानुं चैतन्य लक्षण जे गुणरूप त्रिकाळ छे ए तो चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य एम चैतन्यसामान्यपणे त्रिकाळ ध्रुव छे. एनाथी आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी, अर्थात् आत्मा एनाथी - ध्रुव चैतन्यसामान्य जणातो नथी. परंतु एनी नवी नवी जे पर्याय उत्पन्न थाय छे तेमां प्रवर्ततो अने पूर्व पर्यायथी निवर्ततो आत्मा ते ते (निर्मळ) पर्यायमां जाणवामां आवे छे. (के आ चैतन्यगुणथी लक्षित छे ते आत्मा छे).

अहा! अंतरमां चैतन्यलक्षण आत्मा छे एम जाणीने बहिर्मुख द्रष्टि छोडी अंदर शुद्ध चैतन्यमां अंतद्रष्टि करतां जे जणाय छे ते भगवान आत्मा छे. आत्मा शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु छे. चैतन्यगुण ए एनुं शक्तिरूप लक्षण छे अने ज्ञान-दर्शननी पर्याय ते व्यक्तरूप लक्षण छे. अंतर्लक्ष करतां आ ज्ञानगुणस्वरूप छे ते आत्मा छे एम ज्ञान (प्रगट) थवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. भेदज्ञान छे. आ शास्त्र-भणतर ते ज्ञान-एम नहि, पण भगवान ज्ञानस्वरूपमां अंतर ढळेली ज्ञाननी दशा जे पोताना


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ज्ञानानंदस्वरूपने जाणे छे - अनुभवे छे ते ज्ञान छे. अहा! अनंतकाळमां जे एक क्षणवार पण नथी कर्युं एवुं आ ज्ञान - भेदज्ञान एनुं पहेलामां पहेलुं कर्तव्य छे. समजाणुं कांई...?

अहा! आ समयसार तो अशरीरी - सिद्ध बनवा माटेनुं अमोघ परमागम शास्त्र छे, केमके ते एनाथी (शास्त्रथा) लक्ष छोडावी अंतर्लक्ष - स्वरूपनुं लक्ष करावे छे. अहा! आना (अंतर्लक्षना) अभ्यास विना बहारनो (व्रत, तप, भक्तिनो) अभ्यास प्रभु! तुं करे पण ए तो जिंदगी बरबाद करवा जेवुं छे; अर्थात् ए चारगतिनी रखडपट्टी माटे ज छे. अहा! बहु आकरी वात, पण आ सत्य वात छे.

नरकना एक भव सामे स्वर्गना असंख्य भव - एम एणे नरकना अनंत अने एनाथी असंख्यातगुणा अनंत स्वर्गना भव कर्या छे. ते स्वर्गमां शुं पाप करीने गयो हशे? ना... अहा! ते व्रत, तप, भक्ति दया, दान इत्यादिना पुण्यभाव करीने स्वर्गमां गयो छे. अहा! आवा, आवा पुण्यना भाव एणे अनंत - अनंत वार कर्यो छे पण एनाथी - रागथी भिन्न हुं चैतन्य लक्षणथी लक्षित भगवान आत्मा छुं एम भान कर्युं नहि. अहा! आवा पोताना स्वरूपने जाण्या-अनुभव्या विना बापु! ए बधा व्रतादिना पुण्यभाव थोथेथोथां छे, नकामां छे; बंधन खाते ज छे. समजाणुं कांई...?

दसमा भवे भगवान महावीरनो जीव सिंहनी अवस्थामां हतो. त्यारे एकवार हरण फाडी खातो हतो. त्यारे बे चारणऋद्धिधारी मुनिवरो एनी पासे आव्या. अहा! सिंह तो स्तब्ध थई गयो. त्यारे मुनिवरोए सिंहने कह्युं अरे! आ शुं? अमोए भगवान पासेथी सांभळ्‌युं छे के - ‘तुं तीर्थंकरनो जीव छो अने दसमा भवे महावीर तीर्थंकर थईश.’ अहा! आ सांभळी सिंह विचारमां पडी गयो के -अरे! आ हुं शुं करुं छुं? अने आ पवित्र मुनिवरो शुं कहे छे? अहा! हुं कोण छुं? आम विचार साथे आंखमां प्रश्चात्तापनां आंसुथी धारा वहेवा लागी अने पलकवारमां तो शुभाशुभ विकल्पोने तोडी चैतन्यपरिणतिने चैतन्यलक्षित स्वस्वरूपमां जोडी दीधी. अहाहा...! चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य - एम चैतन्यस्वरूपमां ए उतरी गयो अने तत्काल भवबीजने छेदनारुं सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं. अहा! मानो भवनो अंत कर्यो.

अहा! आवो प्रभु! तुं चिन्मात्र आत्मा छो. तुं स्त्री नहि, पुरुष नहि ने नपुंसकेय नहि, पुण्य ने पापेय तुं नहि अने पुण्य - पापनो करनारोय तुं नहि. अहा! चैतन्यनी निर्मळ परिणतिमां जणाय छे एवो चिन्मात्र प्रभु आत्मा छो. ए ज कहे छे के-

‘वळी समस्त सहवर्ती अने क्रमवर्ती अनंत पर्यायो साथे चैतन्यनुं अविनाभावीपणुं होवाथी चिन्मात्र ज आत्मा छे एम निश्चय करवो. आटलुं आत्माना स्वलक्षण विषे.’


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शुं कह्युं? के ज्यां एक चेतनगुण छे त्यां बीजी अनंत शक्तिओ-चारित्र, सुख, वीर्य, जीवत्व, कर्ता, कर्म, करण आदि एकरूप अविनाभावे छे; अने ज्यां चेतननी एक समयनी पर्याय छे त्यां साथे ए अनंतगुणनी दशाओ एक अविनाभावी छे. अहा! आवो आत्मा जाणनमात्रस्वरूप चैतन्यप्रकाशथी भरपूर चैतन्यसूर्य छे. आ आंखे देखाय छे ने? ए तो जड सूर्य छे; एने तो खबरेय नथी के हुं प्रकाशनुं बिंब छुं. आ तो एक समयनी चैतन्यपरिणतिमां जे पूरण चैतन्यस्वभावी चैतन्य प्रकाशनो गोळो जणाय छे ते चैतन्यसूर्य प्रभु आत्मा छे एम वात छे. अहा! आवो चिन्मात्र प्रभु आत्मा छे एम निश्चय करवो एम कहे छे? पण अंदर नजरु करे तो निश्चय थाय ने? पण ए अंदर जुए ज नहि तो शुं निश्चय करे?

भाई! अमारी पासे तो आ (- आत्मानी) वात छे. अहा! जैन परमेश्वर सर्वज्ञदेवे जेवुं आत्मानुं स्वरूप कह्युं तेवुं आचार्य कुंदकुंददेवे गाथामां कह्युं छे; अने गाथाना भावोने, जेम कोई बळुकी बाई गायना आंचळमांथी दोईने दूध काढे तेम, आचार्य अमृतचंद्रदेवे दोही दोहीने बहार काढया छे. अहो! कोई अद्भुत अलौकिक टीका छे!

प्रश्नः - पण आटलुं बधुं याद शी रीते रहे? उत्तरः - रस-रुचि होय तो बधुं याद रहे. एमां शुं छे? ज्यां रुचि होय त्यां वीर्य - पुरुषार्थ काम कर्यो विना रहेतो नथी.

हवे बंधना स्वलक्षण विषे कहेवामां आवे छेः- ‘बंधनुं स्वलक्षण तो आत्मद्रव्यथी असाधारण एवा रागादिक छे. ए रागादिक आत्मद्रव्य साथे साधारणपणुं धरता प्रतिभासता नथी, कारण के तेओ सदाय चैतन्य चमत्कारथी भिन्नपणे प्रतिभासे छे.’

शुं कीधुं? के रागादिक एटले आ शुभाशुभ भाव, पुण्य - पापना भाव ए बंधनुं स्वलक्षण छे. पुण्य - पापना भाव कांई आत्मानुं लक्षण नथी अहा! पापभाव तो नहि पण पुण्यना भाव पण कांई आत्मानुं लक्षण नथी. अहा! पुण्यभावथी अर्थात् दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादि करतां करतां आत्मा जणाय एम कोई कहे तो ए खोटुं छे. अहा! ए बंधभावथी अबंध आत्मा केम प्राप्त थाय? न थाय.

ए रागादिक पुण्य-पापना भाव आत्मद्रव्य साथे साधारणपणुं धरता नथी. एटले शुं? के तेओ आत्मद्रव्य साथे सदाय रहेता होय एम देखातुं नथी. जुओ, शरीरादिनी तो अहीं वात ज नथी लीधी केमके तेओ तो प्रगट जुदेजुदा छे. अहीं कहे छे - ज्यां ज्यां आत्मा त्यां त्यां रागादि एवुं देखातुं नथी. तेओ सदायचैतन्य चमत्कारथी भिन्नपणे प्रतिभासे छे. अहा! बंधलक्षणवाळा पुण्य - पापना भावो चैतन्य


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चमत्कार प्रभु आत्मामां जाणवामां आवे छे, पण पोतानाथी पृथक् छे. एम जाणवामां आवे छे, तेओ आत्मा छे एम प्रतिभासता नथी, पण भिन्न प्रतिभासे छे.

‘वळी, जेटलुं चैतन्य आत्माना समस्त पर्यायोमां व्यापतुं प्रतिभासे छे, तेटला ज, रागादिक प्रतिभासता नथी, कारण के रागादिक विना पण चैतन्यनो आत्मलाभ संभवे छे.’

अहा! आ जाणन... जाणन... जाणन... गुण अने एनी अवस्था आत्मानी साथे जेम सदाय रहेती देखाय छे तेम पुण्य - पापना भावो आत्मानी साथे सदा रहेता देखाता नथी. कारण के रागादिक विना पण चैतन्यनो आत्मलाभ संभवे छे. जेम शरीरादि विना आत्मलाभ संभवे छे. तेम रागादि विना पण आत्मलाभ संभवे छे. भगवान आत्मामां रागादि नथी. तेथी रागथी भिन्न पडी ज्यां अंतरमां आत्मानुभव करे छे तो अंदर रागरहित आत्मानो लाभ थाय छे. वळी ज्यां रागादिक होता नथी त्यांपण चैतन्य तो होय छे. जेमके सिद्ध भगवानमां राग नथी छतां चैतन्य होय छे. जो रागादि अर्थात् पुण्य - पापना भाव आत्मा होय तो ज्यां ज्यां चैतन्य होय त्यां रागादि होवा जोईए. परंतु एम छे नहि. सिद्ध दशामां ज्ञान-दर्शन होय छे पण रागादि सर्वथा होता नथी. माटे रागादि अर्थात् बंध आत्माथी भिन्न छे, आत्मानी चीज नथी.

‘वळी जे, रागादिकनुं चैतन्यनी साथे ज उपजवुं थाय छे ते चेत्यचेतकभावनी अति निकटताने लीधे ज छे, ए द्रव्यपणाने लीधे नहि;.....’

अहा! जे समये ज्ञाननी दशा उत्पन्न थाय छे ते ज समये पुण्य - पापना भाव उत्पन्न थाय छे ते ज्ञेयज्ञायकभावनी अति निकटताने लीधे छे; पण एम नथी के ज्ञान ने राग एकद्रव्यमय छे, अर्थात् एक छे माटे एक ज समये उत्पन्न थाय छे. बन्नेनुं एकसमयमां उत्पन्न थवुं पोतपोताथी छे, कोई कोईथी उत्पन्न थाय छे एम छे ज नहि. राग छे माटे ज्ञान उत्पन्न थाय छे एम छे नहि. जेम अग्निने जोनारी आंख अग्निथी एक नथी तेम ज्ञानस्वरूपी आत्मा ने राग एक नथी. अग्निने देखवाना काळे आंख अग्निने देखे छे, पण आंख अग्निरूप थई जती नथी, वा अग्नि आंखमां पेसी जती नथी. तेम चैतन्य - आंख रागने देखे छे, पण चैतन्य रागरूपे थई जतुं नथी, वा राग चैतन्यरूप थई जतो नथी. आ प्रमाणे राग ने ज्ञान एकद्रव्यमय नथी, पण भिन्न पदार्थो ज छे. अनादिथी बे एकरूपे भासे छे ए अज्ञानजनित भ्रम छे. अहा! अहीं एनो (भ्रमनो) नाश केम थाय एनी वात करे छे.

अहो! केवी टीका! आचार्यदेवे एकलां अमृत घोळ्‌यां छे. अहो! लोकोनां भाग्य छे के जंगलमां अतीन्द्रिय आनंदमां रहेनारा मुनिवरने वच्चे विकल्प आव्यो ने आवुं शास्त्र शास्त्रना कारणे बनी गयुं. अहो! संतोए मोक्षमार्ग सरळ करी दीधो छे.


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दीपचंदजीए लख्युं छे के संतोए मार्ग सरळ करी दीधो छे पण लोको तेने समजवानी दरकार करता नथी. अहा! एमना दुर्भाग्यनुं शुं कहेवुं?

जुओ, अरीसामां जे मोढुं देखाय छे ते अने सामे ऊभेला पुरुषनुं मोढुं छे ते- बन्ने भिन्न छे. बहार ऊभेला पुरुषनुं मोढुं कांइ अरीसामां गयुं नथी. अरीसामां जे देखाय छे ते तो अरीसानी स्वच्छ अवस्था छे. तेवी रीते भगवान ज्ञानस्वरूपी आत्मामां पुण्य - पापना भाव जणाय छे ए तो ज्ञाननी स्वच्छता छे. ज्ञानमां कांइ पुण्य-पापना भाव घुसी गया नथी. जाणवालायक राग ने जाणनार ज्ञान बन्ने भिन्न ज छे.

अरीसामां सामे अग्नि होय तो अग्नि देखाय छे. तो शुं अग्नि अरीसामां घुसी गई छे? ना; अरीसामां तो अरीसानी अवस्था छे. अरीसा भणी हाथ लंबावो तो कांइ अरीसो उष्ण थयेलो मालुम पडतो नथी. तेवी रीते भगवान आत्मा चेतक छे, जाणनार अरीसो छे. एमां पुण्य-पापना भाव देखाय छे ए जाणनार अरीसानी चेतकनी स्वच्छता छे. पुण्य - पापना भाव छे पण ते भाव कांइ ज्ञानमां - आत्मामां पेठा नथी, तेओ एनाथी भिन्न ज छे. बन्ने एक काळमां साथे छे ए ज्ञेयज्ञायकभावनी निकटता छे. पण तेथी ज्ञान अने रागादिभाव कांइ एक नथी. ज्ञेय जे राग ते कांई ज्ञायकरूप वा ज्ञानरूप थयो नथी अने ज्ञायक जे आत्मा ते कांई रागरूप थयो नथी. राग छे माटे ज्ञायकनुं ज्ञान छे एम नथी, अने रागने जाणतां ज्ञान रागरूप थई गयुं छे एम नथी. बन्ने भिन्न ज छे. झीणी वात प्रभु!

हवे द्रष्टांत आपीने आ वातने वधारे स्पष्ट करे छेः- ‘जेम (दीपक वडे) प्रकाशवामां आवता घटादिक (पदार्थो) दीपकना प्रकाशकपणाने ज जाहेर करे छे - घटादिपणाने नहि, तेम (आत्मा वडे) चेतवामां आवता रागादिक आत्माना चेतकपणाने ज जाहेर करे छे - रागादिपणाने नहि.’

शुं कहे छे? के आ घडो, कपडां, कोलसा, वींछी, सर्प ईत्यादि जे जे पदार्थो दीपक वडे प्रकाशवामां आवे छे ते ते पदार्थो दीपकना प्रकाशकपणाना भावने ज प्रसिद्ध प्रगट करे छे, घटादिपणाने नहि.

दीवो छे ने दीवो? ते घटपटादिने प्रकाशवाना काळे खरेखर तो पोतानी पर्यायने ज प्रकाशे छे के जेमां ए घटपटादि प्रकाशित थाय छे. घटपटादिने जो खरेखर दीवो प्रकाशे तो दीवो घटपटादिरूप थई जाय. पण दीवो घटपटादिरूप थतो नथी, के घटपटादि दीवामां जता नथी. घटपटने प्रकाशतो दीवो शुं घटपटरूपे थई जाय छे? ना; तो शुं प्रकाशित घटपट दीवामां जाय छे? ना. वास्तवमां तो दीवो घटपटादिने प्रकाशतो ज नथी पण ते काळे पोताना द्वैतरूप स्वपरप्रकाशकपणाने ज ते प्रगट करे छे, घटादिपणाने नहि. दीवो घटपटने प्रकाशे छे ए तो व्यवहार छे, बाकी वास्तविकपणे


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तो दीवो पोतानो स्वपरने प्रकाशवाना एक प्रकाशस्वभावने ज प्रकाशे छे, केमके दीपक घटपटरूपे ने घटपट दीपकरूपे कदीय थता नथी.

तेम, कहे छे, आत्मा वडे चेतवामां आवता रागादिक आत्माना चेतकपणाने ज जाहेर करे छे - रागादिपणाने नहि. भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकभावस्वरूप छे, चेतकस्वभावी छे. ते रागादि-पुण्य-पापना भावोने जाणवाना काळे खरेखर तो पोतानी ज्ञानपर्यायने ज जाणे छे के जेमां ए पुण्य - पापना भाव जणाई रह्या छे. पुण्य -पाप आदि भावोने जो खरेखर आत्मा जाणे (- स्पर्शे) तो आत्मा पुण्य - पाप आदिरूप थई जाय. पण आत्मा कदीय पुण्य - पाप आदि भावरूप थतो नथी अहा! पुण्य-पाप आदि भावोने जाणतां शुं ज्ञान पुण्य-पाप आदि भावरूप थाय छे? ना वास्तवमां तो ज्ञान पुण्य - पाप आदि भावोने जाणतुं (स्पर्शतुं नथी) पण ते काळे पोताना द्वैतरूप जाणवाना स्वपरप्रकाशकपणाने ज ते प्रगट करे छे, रागादिपणाने नहि. ज्ञान पुण्य - पाप आदि भावोने जाणे छे ए तो व्यवहार छे, बाकी वास्तविकपणे तो ज्ञान पोताना द्वैतरूप स्वपरने प्रकाशवाना एक ज्ञानस्वभावने - चेतकस्वभावने ज प्रकाशे छे, केमके ज्ञान पुण्य-पाप आदि भावोरूपे ने पुण्य-पाप आदि भावो ज्ञानरूपे कदीय थता नथी. अहा! जाणवाना काळे ज्ञानमां पुण्य - पाप आदि - बंध आवतो नथी अर्थात् रागादिबंध ज्ञानरूप थई जतो नथी, वळी रागादि - बंध छे तो ज्ञाननो प्रकाश थयो छे एम पण नथी. ज्ञाननो तो सहज ज स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. जे निरंतर प्रकाशे छे. अहा! आवुं वस्तुनुं स्वरूप जाणी तेने अंतर- अनुभवमां लेवुं ते समकितनुं कारण थाय छे.

अहा! सर्वज्ञ परमेश्वरथी प्ररूपित वीतराग मार्ग सिवाय आवी वात बीजे क्यांय छे नहि. अहा! एनो एक एक शब्द अने एनी एक एक पंक्ति अद्भुत न्यायथी भरेली अलौकिक छे. आमां तो एकलुं अमृत छे भाई!

हवे कहे छे - ‘आम होवा छतां ते बन्नेनी (-आत्मानी अने बंधनी) अत्यंत निकटताने लीधे भेदसंभावनानो अभाव होवाथी अर्थात् भेद नहि देखातो होवाथी (अज्ञानीने) अनादिकाळथी एकपणानो व्यामोह (-भ्रम) छे; ते व्यामोह प्रज्ञा वडे ज अवश्य छेदाय छे.’

आत्मा अने रागनो लक्षण - भेद होवा छतां अज्ञानीने अनादि काळथी आत्मा अने रागना एकपणानो व्यामोह एटले भ्रम छे, भ्रान्ति छे. शिष्य पूछे छे के ते भ्रम- व्यामोह कोई रीते छेदी शकाय के नहि? तो कहे छे -

ते व्यामोह प्रज्ञा वडे ज अवश्य छेदाय छे. शुं कीधुं? के प्रज्ञा - सम्यग्ज्ञाननी दशा वडे अवश्य छेदाय ने बीजी कोई रीते न छेदाय. अहा! जेम अंधकार दूर करवानो उपाय प्रकाश छे तेम भ्रम - व्यामोह छेदवानो उपाय एक सम्यग्ज्ञान छे.


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अहा! आत्मा अने रागने जुदा पाडनारुं भेदज्ञान-सम्यग्ज्ञान ज भ्रम मटाडवानुं साधन छे. आ ज धर्म ने आ ज मोक्षमार्ग छे.

* गाथा २९४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा अने बंध बन्नेने लक्षणभेदथी ओळखी बुद्धिरूपी छीणीथी छेदी जुदा जुदा करवा.’

आत्मानुं लक्षण चैतन्य छे ने बंधनुं लक्षण राग छे. बन्नेने लक्षणभेद छे तेथी बन्ने भिन्न भिन्न छे. बन्नेनी भिन्नता लक्षमां लई ज्ञाननी दशाने स्व तरफ वाळी स्वानुभव करवो ते बन्नेने भिन्न करवानो उपाय छे; अने एने ज प्रज्ञाछीणी कहे छे.

‘आत्मा तो अमूर्तिक छे अने बंध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओनो स्कंध छे तेथी बन्ने जुदा छद्मस्थना ज्ञानमां आवता नथी. मात्र एक स्कंध देखाय छे; तेथी अनादि अज्ञान छे.’

आत्मा तो स्पर्शादि रहित अमूर्तिक छे अने बंध सूक्ष्म परमाणुओनो स्कंध छे. छद्मस्थने एटले अल्पज्ञानीने बन्ने भिन्न छे एम ज्ञानमां भासतुं नथी; मात्र एक स्कंध देखाय छे. अहा! अज्ञानीने रागादिरूप भावबंध जणाय छे. अहा! एनी अनादिथी पर्यायमां उत्पन्न थता रागादिमां - पुण्य - पापना भावमां -ज रमतु छे अंदर आनंद रसकंद प्रभु पोते विराजे छे एनी एने खबरेय नथी. अहा! पोतानी शुद्ध चैतन्य सत्तानुं एने भान नथी, तेथी मात्र विकार जे जणाय छे ते हुं छुं - एम तेने अनादि अज्ञान छे.

‘श्री गुरुओनो उपदेश पामी तेमना लक्षण जुदां जुंदा अनुभवीने जाणवुं के चैतन्यमात्र तो आत्मानुं लक्षण छे अने रागादिक बंधनुं लक्षण छे तोपण मात्र ज्ञेय ज्ञायकभावनी अति निकटताथी तेओ एक जेवा थई रह्या देखाय छे.’

जोयुं? श्री गुरुओनो उपदेश ए निमित्त छे, ने अंदर निर्णय करवो ते उपादान छे. शुं निर्णय करवो? के आ जाणवुं.... जाणवुं...जाणवुं छे ए तो चैतन्यमात्र आत्मानुं लक्षण छे अने रागादि पुण्य - पापना भाव जे थाय छे ते बंधनुं लक्षण छे. ते रागादि भाव स्व-लक्षने छोडी परनुं लक्ष करे त्यारे उत्पन्न थाय छे. तेथी परलक्षी जे भाव छे ते बंधनुं लक्षण छे.

अरे! एने भवनो भय नथी; अहा! अहींथी मरीने हुं क्यां जईश एनो विचार ज नथी. बापु! आ देह तो क्षणमां छूटी जशे; एनी तो भस्म थई जशे, पण तुं क्यां जईश? तुं तो अविनाशी शाश्वत तत्त्व छे ने प्रभु! तो मरीने क्यां रहीश? मिथ्यात्वमां रहीश तो चारगतिमां चोरासीलाख योनिमां ज रखडवुं पडशे, अहा! अहीं चारगतिना छेदनो आचार्यदेव उपाय बतावे छे कहे छे-


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पर तरफना लक्षवाळा जे रागादिभावो छे ते बंध छे अने भगवान आत्मा चैतन्यलक्षण छे. अहा! बन्नेने लक्षणभेदथी जुदा जाणी आत्माने अनुसारे आत्मानुभव करवो ते धर्म छे. अनादिथी रागने अनुसरीने जे अनुभव छे ते अधर्म छे अने ते अनुभव दुःखरूप छे. पण रागथी जुदा पडी स्व-आश्रयमां रही स्वानुभव करवो ते धर्म छे अने ते आनंदरूप छे. चैतन्यनी जाणन पर्यायने रागथी भिन्न करी स्वाभिमुख करतां जे स्वानुभव थयो ते धर्म छे अने तेने अहीं प्रज्ञाछीणी कही छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– चैतन्यभावने परम पारिणामिक भाव कहेवाय ने?

उत्तरः– परम पारिणामिक भाव छये द्रव्योमां छे, माटे अहीं चैतन्यलक्षणथी लक्षित ज्ञायकभाव ज लेवो. अहा! अनंतगुणमंडित एक ज्ञायकभाव - चिन्मात्रभाव ज आत्मा छे. आवा पोताना स्वस्वरूपमां वर्तमान परिणतिने वाळवी - ढाळवी ते धर्म छे.

प्रश्नः– तो जीवोनी दया पाळवी ते धर्म नहि?

उत्तरः– ना; ते धर्म नहि, केमके ए तो परजीवोना लक्षे थतो शुभराग छे, ए तो बंधनुं लक्षण छे एम अहीं कहे छे; अने एनाथी पुण्यबंध ज थाय छे, एनाथी धर्म थाय एम माने ए मिथ्यात्व छे. आवी वात छे.

अरे! भाई, ते परनी दया पाळवानी अनंतकाळथी चिंता करी छे, पण अंदर निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु विराजे छे तेनी तो एक वार दया कर. परनी दया करवाना भावमां तारी अदया - हिंसा थई रही छे ते तो जो प्रभु! अहा! अनंत अनंत शक्तिओनो पिंड चिन्मूर्ति प्रभु आत्मा छे, तेने जाणन पर्यायमां ज्ञेय बनावी एनी प्रतीति करवी ते स्वदया नाम अहिंसा धर्म छे.

‘दया धर्मनुं मूळ छे’ - एम कहे छे ने? ते दया ते आ स्वदया हों. बाकी स्वदयाने छोडी, परदयामां राचवुं ए तो वास्तवमां स्वरूपनी हिंसा ने घात छे. बापु! दया, अदयाने परनी साथे निश्चयथी संबंध ज नथी, केमके पर जीवो बचे छे ए तो पोताना आयुने लईने बचे छे, टके छे. एनी दया पाळवी एम कहेवुं ए व्यवहार छे. अशुभथी बचवा धर्मात्माने पण एवा शुभभाव आवे छे, परंतु ए धर्म नथी. (धर्मात्मा एने धर्म मानता पण नथी)

आत्मानुं चैतन्य लक्षण छे ने बंधनुं लक्षण रागादि छे, तोपण मात्र ज्ञेय- ज्ञायकभावनी अति निकटताथी तेओ एक जेवा थई रह्या देखाय छे, एटले शुं? के जे समये ज्यां पोतानी ज्ञानपर्याय प्रगट थाय छे ते ज समये त्यां रागादि भावो उत्पन्न थाय छे. बन्नेना भाव तो भिन्न भिन्न छे, पण बन्नेनां काळ अने क्षेत्र एक


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छे तेथी तेओ एक जेवा थई रह्या देखाय छे. एक छे, वा एक थाय छे एम नहि, पण अज्ञानी एक माने छे तेथी एक जेवा थई रह्या छे एम कह्युं छे. वास्तवमां तो तेओ भिन्न ज छे, एक नथी, एक थया नथी.

राग ज्यां आत्माथी भिन्न छे त्यां आ शरीर ने स्त्री-पुत्र-परिवार, दीकरा- दीकरीयुं ने पैसा-ए बधां एनां क्यां रह्यां? ए तो क्यांय दूर रही गयां. एने पोतानां मानवां ए तो नर्युं स्थूळ गांडपण छे. अरे! पोताना शाश्वत शुद्ध चैतन्यनो नकार करीने, परने पोतानां मानी ए चारगतिमां अनंतकाळथी दुःखभारने वहेतो परिभ्रमण करे छे! तेने अहीं दुःखथी छूटवानो आचार्यदेव उपाय बतावे छे. कहे छे-

‘तेथी तीक्ष्ण बुद्धिरूपी छीणीने-के जे तेमने भेदी जुदा जुदा करवानुं शस्त्र छे तेने-तेमनी सूक्ष्म संधि शोधीने ते संधिमां सावधान थईने पटकवी. ते पडतां ज बन्ने जुदा जुदा देखावा लागे छे.’

जेम लाकडाना बे टुकडा करनारुं शस्त्र तीक्ष्ण करवत होय छे तेम प्रज्ञाछीणी अर्थात् अंतर्मुख वाळेली ज्ञाननी दशा-ते आत्मा अने रागने जुदा पाडवा माटेनुं तीक्ष्ण करवत छे. अहीं कहे छे-ज्ञान (-आत्मा) अने रागनी सूक्ष्म संधि-सांधने शोधीने ते सांधमां सावधान थईने अर्थात् अंतःपुरुषार्थ वडे तीक्ष्ण प्रज्ञा-करवतने पटकवी. एम करतां ज्ञान रागथी छूटुं पडी जशे एने शुद्ध चैतन्यस्वभावमां एकमेक थशे. झीणी वात छे प्रभु! ज्यां अंतर्मुख वळेलुं ज्ञानस्वभावमां एकमेक थयुं त्यां स्व स्वपणे अने राग परपणे-एम बन्ने जुदेजुदा देखावा लागशे. अहा! ज्ञान स्वस्वरूपमां एकाग्र थतां तेमां राग परपणे जणाय छे. आ प्रमाणे ज्ञान ने राग बन्ने भिन्न पडी जाय छे.

ल्यो, आ उपदेश ने आवो मारग! कोईने थाय के-पांच दस लाखनुं दान करवानुं कहे के पांच दस उपवास करवानुं कहे तो सहेलुं पडे. पण बापु! एवुं तो अनंतवार कर्युं छे; एनी क्यां नवाई छे? अनादिथी ज तुं करी रह्यो छो. परंतु ए कांई धर्म के मोक्षमार्ग नथी. खरेखर तो अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी-शुद्धिनी प्रगटता थई तेनी वृद्धि थवी ते तप छे, अने ते चारित्र छे. बाकी व्रत आदिना शुभभाव ए तो बंधनुं लक्षण छे. एने तुं धर्म माने छे ए तो द्रष्टिनो महान फेर छे. (ए द्रष्टि सम्यक् नथी).

हवे कहे छे- ‘एम बन्ने जुदा जुदा देखातां, आत्माने ज्ञानभावमां ज राखवो अने बंधने अज्ञानभावमां राखवो. ए रीते बन्नेने भिन्न करवा.’

कहे छे-आ प्रमाणे भेदज्ञान सिद्ध थतां अखंड एक जाणग... जाणग जेनो स्वभाव छे एवा शुद्ध आत्मानुं वलण करी तेमां एकाग्र थवुं ने दया, दान, व्रत आदि बंधने अज्ञानमय भाव जाणी हेय करवा. आ रीते बन्नेने भिन्न करवा.


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अहाहा...! भगवान आत्मा अंदरमां चिन्मूर्ति प्रभु आनंद-अमृतनो सागर छे. एमां जे रागनी वृत्ति उठे ते झेर छे. अहा! ए झेर ने अमृतनी वच्चे तीक्ष्ण प्रज्ञाछीणी नाखतां बंने जुदा पडी जाय छे अने त्यारे ते (-प्रज्ञा) ज्ञान-अमृतनुं पान करे छे एनुं नाम भेदज्ञान, सम्यग्ज्ञान अने धर्म छे. अहो! मोक्षनुं मूळ आ भेदविज्ञान ज छे. रागने राग-पर जाणीने रागथी जुदुं रहेनारुं अने आनंद-अमृतनुं पान करनारुं ज्ञान मोक्ष पामे छे. भाई! जन्म-मरणनो अंत लाववानो आ भेदज्ञान ज एक उपाय छे. बाकी बधां (व्रत, तप आदि विकल्पो) थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...?

भेदज्ञानने एक न्याये विकल्प पण कहे छे. ए बे वच्चे होय छे ने? बेनुं लक्ष रहे छे त्यां सुधी विकल्प रहे छे. राग अने आत्मा बेने भिन्न जाणवा एम आव्युं ने? तेथी ज्यां सुधी बेनुं लक्ष छे त्यां सुधी सूक्ष्म विकल्प छे. पण अंदरमां ज्ञायकमां-एकमां जाय छे तो भेदविज्ञाननुं निर्विकल्प परिणमन थई जाय छे. अहीं आ गाथामां प्रज्ञाछीणी शब्दे स्वानुभव-ज्ञान समजवुं, मात्र विकल्प नहि.

अरे! एने आ समजवानी क्यां गरज छे? अरेरे! प्रभु! तुं कोण छो? आ समज्या विना अंदर त्रणलोकनो नाथ तुं क्यां जईश एनो विचार छे तने? अहीं सहेज पण प्रतिकूळता गोठती नथी तो मिथ्यात्वना फळमां भविष्ये अनंती प्रतिकूळता आवशे तेने केम सहन करीश? अहा! धर्म- स्थानकमां पण तने पंखा जोईए! थोडी प्रतिकूळताने अवगणीने तुं धर्मश्रवणना काळमां चित्तने एकाग्र न करे तो तुं क्यां जईश प्रभु? अहा! जगतने खबर नथी; जगत आंधळे-आंधळुं छे, पण बापु! परचीज अनुकूळ-प्रतिकूळ छे एवा भावमां तुं अनंतकाळ संसारमां रखडीश. अहा! एवा भावनुं फळ एवुं ज छे त्यां शुं थाय?

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १८१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

अहो! भेदज्ञाननो आ अलौकिक कळश छे. अरे! अनंतकाळमां एणे एक क्षणवार पण भेदज्ञान कर्युं नथी!

अहा! आ आत्मा चैतन्यप्रकाशनुं पूर छे. जेम नदीमां घोडापूर होय छे ने? तेम आ देहमां बिराजमान भगवान आत्मा चैतन्यप्रकाशनुं पूर छे. अहाहा...! तुं एकलो चैतन्यरसनो-आनंदरसनो-दरियो प्रभु छे. पण एनी वर्तमान दशामां पुण्य-पापना भाव उत्पन्न थाय ते झेर छे. अहा! आ झेरने छूटुं पाडवानी अहीं वात छे. तो कहे छे-रागनुं लक्ष मटाडी वर्तमान ज्ञाननी दशा चिदानंदघन प्रभु आत्मा प्रति ढळी जाय त्यां रागादि पुण्य-पापना भाव भिन्न पडी जाय छे. आ रीते स्वाभिमुख ढळेली ज्ञाननी दशा ते प्रज्ञाछीणी छे.


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अहीं कहे छे- ‘इयं शिता प्रज्ञाछेत्री’ आ प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छीणी ‘निपुणैः’ प्रवीण पुरुषो वडे ‘कथम् कपि’ कोईपण प्रकारे (-यत्नपूर्वक) ‘सावधानैः’ सावधानपणे (निष्प्रमादपणे) ‘पातिता’ पटकवामां आवी थकी,’ आत्म–कर्म–उभयस्य सूक्ष्मे अन्तः– सन्धिबन्धे’ आत्मा अने कर्म-बन्नेना सूक्ष्म अंतरंग संधिना बंधमां ‘रभसात्’ ‘शीध्र ‘निपतति’ पडे छे.

जुओ, आ स्वभावनो पुरुषार्थ अने भेदज्ञाननो उपाय!

जेम लग्नमां ‘समय वर्ते सावधान’ कहे छे ने? आठ वागे लग्ननो टाईम होय तो समय थई जतां कहे के-टाईम थई गयो छे, अंदरथी कन्याने लावो. एम अहीं कहे छे-रागथी छूटा पडवानो तारो टाईम थई गयो छे, माटे अंदरमां-स्वभावमां जा अने रागने भिन्न पाड. भाई! करवानुं होय तो एक आ करवानुं छे. बाकी तो बधुं थोथेथोथां छे.

जोयुं? आ प्रज्ञारूपी छीणी कोना वडे पटकवामां आवे छे? ‘प्रवीण पुरुषो वडे.’ ल्यो, आनुं नाम ते प्रवीण पुरुष जे भेदज्ञान करे छे. दुनियामां प्रवीण-चतुर कहेवाय ते आ नहीं. दुनियाना कहेवाता प्रवीण पुरुषो तो बधा पागल छे. मूर्ख छे; केमके तेओ स्वभावनो पुरुषार्थ क्यां करे छे? तेओ तो पुरुषार्थहीन नपुंसक छे. आ तो जे स्वभावना पुरुषार्थ वडे भेदविज्ञान प्रगट करे ते प्रवीण-निपुण पुरुष छे एम वात छे.

अहाहा...! कहे छे-प्रवीण पुरुषो वडे प्रज्ञाछीणीने निष्प्रमादपणे महा यत्न वडे पटकवामां आवतां... , क्यां? आत्मा अने कर्म-बन्ने वच्चेना सूक्ष्म अंतरंग संधिना बंधमां अर्थात् अंदरनी सांधना जोडाणमां. जेम जंगलमां लाखो मण पत्थरोनो पहाड होय छे एमां वच्चे वच्चे लाल, धोळी एवी रग होय छे. ए रग ए बे पत्थरो वच्चे सांध छे अर्थात् बे पत्थरो एक थया नथी एनुं चिन्ह छे. तेथी सांधमां सुरंग फोडतां पत्थरो जुदा पडी जाय छे. तेम ज्ञान अने आनंद जेनुं सत्त्व छे एवो भगवान आत्मा ज्ञानानंदरसकंद प्रभु छे, एमां जे दया, दान आदि शुभ परिणाम ने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदि अशुभ परिणाम थाय छे ते मूळ वस्तुभूत नथी. अर्थात् आत्मा अने शुभाशुभ परिणाम बन्ने एक नथी. बन्नेमां लक्षणभेदे भेद छे, सांध छे. भगवान आत्मा अने रागादि विकार वच्चे सूक्ष्म अंतरंग सांध छे. अहीं कहे छे-ए बन्नेनी अंतरंग संधिना बंधमां बहु यत्न वडे प्रज्ञाछीणी पटकवामां आवतां तत्काल बन्ने भिन्न पडी जाय छे. ‘

रभसात्’ छे ने? एटले के शीध्र-तत्काल-ते ज समये. अहा! ज्ञाननी

प्रगट दशा जे अनादिथी राग तरफ वळेली छे ते ध्रुव चिदानंदघन प्रभु आत्मा तरफ वळे ने ढळे ते प्रज्ञाछीणी छे अने ते सांधमां पडतां तत्काल आत्मा अने कर्म जुदा पडी जाय छे.


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जेमां रागनुं ज्ञान छे एवी वर्तमान ज्ञाननी दशा आत्माथी जुदी नथी, पण राग छे ते आत्माथी जुदो छे. मीणमां सिंहनो आकार छे ते मीण स्वरूप छे, सिंह स्वरूप नथी. तेम चैतन्यमय प्रभु आत्मामां रागनुं ज्ञान थाय ते ज्ञान आत्मस्वरूप छे, रागस्वरूप नथी. तेथी रागने जाणनारी ते ज्ञाननी दशा अंतरमां स्वाभिमुख वळतां राग भिन्न पडी जाय छे अने ज्ञान ज्ञानने (-आत्माने) अनुभवे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग अहींथी शरू थाय छे.

पाछळथी भागला पाडवा होय तो पाडी शकाय एटला माटे पहेलांना मकानमां ओसरीमां बब्बे थांभलीओ भेगी राखता. ज्यारे भाईओ जुदा पडे एटले थांभलीओ वच्चे चणतर करी लो. ‘भाईओ एक बीजाथी जुदा छे एटले गमे त्यारे जुदा पडे ज. तेम अहीं आत्मा अने कर्म बे जुदी वस्तुओ छे. आत्मा एकलो ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे, अने कर्म-पुण्य-पापनी वृत्ति उठे ते आकुळतास्वरूप-दुःखस्वरूप छे. बन्ने वच्चे भावभेदे भेद-सांध छे, तिराड छे. एटले विवेकी पुरुषो द्वारा अंदर सूक्ष्म सांधमां भगवती प्रज्ञा नाखवामां आवतां, ते सांधने भेदीने सररराट अंदर शुद्ध स्वरूपमां उतरी जाय छे, प्रवेशी जाय छे ने रागने भिन्न करी दे छे. आवी वात छे! समजाणुं कांई...?

भेदविज्ञानमां प्रवीण एवा पुरुषो ‘कथम् अपि’ एटले ‘कोई पण रीते’ अति निष्प्रमादी थईने प्रज्ञाछीणी पटके छे. ‘कथम् अपि’ –कोई पण रीते एटले शुं? एटले के महायत्न वडे, अंतर-एकाग्रतानो अति उग्र पुरुषार्थ करीने. जेम वीजळीना झबकारामां सोय परोववी होय तो केटली एकाग्रता जोईए? वीजळी थाय के तरत ज सोय परोवी ले, जराय प्रमाद न करे. तेम चैतन्यमां सम्यग्ज्ञानरूपी दोरो परोववा चैतन्यनी एकाग्रतानो उग्र पुरुषार्थ विवेकी पुरुषो करता होय छे.

हवे बे वच्चे प्रज्ञाछीणी केवी रीते पडे छे? तो कहे छे-

‘आत्मानम् अन्तः– स्थिर–विशद–लसद्–धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम्’ आत्माने तो जेनुं तेज अंतरंगमां स्थिर अने निर्मळपणे देदीप्यमान छे एवा चैतन्यपूरमां मग्न करती ‘च’ अने ‘बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम्’ बंधने अज्ञानभावमां निश्चळ (नियत) करती- ‘अभिमतः भिन्नभिन्नौ कुर्वती’ ए रीते आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी भिन्न भिन्न करती पडे छे.

अहा! आत्मा छे ते अनादि-अनंत नित्य शाश्वत परिपूर्ण स्वतः सिद्ध वस्तु छे; एनुं चैतन्यरूपी तेज अंतरमां नित्य, ध्रुव अने स्थिर छे तथा निर्मळपणे देदीप्यमान छे. अहा! प्रज्ञाछीणी आत्माने आवा चैतन्यपूरमां-चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य-एवा त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यप्रवाहमां मग्न करती पडे छे; अने ते बंधने अज्ञानभावमां


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निश्चल-स्थित करे छे. आ रीते आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी भिन्न भिन्न करी दे छे.

अहा! आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियो, स्त्री-पुत्र-परिवार आदि बहारना संयोगो नाशवान छे. ए बधी चीजो पोतपोताना कारणे आवीने रही छे; अने तेओ पोतपोताना कारणे पलटी जशे. अहा! आने नित्य ध्रुवधाम-चैतन्यधाम प्रभु आत्मानी नजरु नथी तेथी अनित्य ने अस्थिर पदार्थोने नित्य ने स्थिर करवा मथे छे. आ बधी क्षणिक चीजो पोतानी साथे सदा रहे एम ते इच्छे छे, पण ए एनो मोहजनित अज्ञानभाव छे, भ्रान्ति छे.

वळी परलक्षे जे शुभाशुभ वृत्तिओ उठे छे ते बंध छे ने ते अज्ञानभाव छे. ‘बंधने अज्ञानभावमां निश्चल करती’ एम कह्युं ने! रागमां चैतन्यना अंशनो अभाव छे तेथी ते अज्ञानमय भाव छे, अंधकार छे. अंदरमां सावधान थई ने अर्थात् उपयोगनी जागृति राखीने प्रज्ञाछीणी पटकवामां आवतां ते सूक्ष्म संधिने भेदीने एककोर ज्ञानस्वरूप आत्मा ने बीजीकोर अंधकारस्वरूप राग-बन्नेने भिन्न पाडी दे छे. अहा! भगवती प्रज्ञा-ज्ञानमय चेतना आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी एटले द्रव्य, क्षेत्र, काळ ने भाव-एम चोतरफथी भिन्न भिन्न करी दे छे. बंधना-रागना कोई अंशने ज्ञानमां भेळवती नथी, ने ज्ञानना कोई अंशने बंधमां-रागमां भेळवती नथी. अहा! आवी भगवती प्रज्ञा-ज्ञानचेतना ए एक ज मोक्षनो उपाय छे.

भाई! तारा मोक्षनुं साधन तारा पोतानामां ज छे. अहा! तेने जाण्या विना अज्ञानभावे शुभरागने मोक्षनुं साधन मानीने अनादिकाळथी तें बंधनुं-रागनुं ज सेवन कर्युं छे. परंतु रागथी पार अंतर्मुख थयेली ज्ञानचेतनारूप निर्मळ निर्विकल्प अनुभूति ए एक ज मोक्षनुं साधन छे. अहो! ए निर्मळ स्वानुभूतिनी शी वात? वचनातीत अने विकल्पातीत एनो महिमा छे. माटे रागथी सावधान थई उपयोगने अंदर स्वरूपमां लई जा. अहा! आठ वर्षनी बालिका पण सम्यग्दर्शन पामे छे त्यारे आ रीते ज पामे छे. समजाणुं कांई...?

* कळश १८१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं आत्मा अने बंधने भिन्न भिन्न करवारूप कार्य छे. तेनो कर्ता आत्मा छे.’ भगवान आत्मा अनादि-अनंत शुद्ध चैतन्यसत्तास्वरूप त्रिकाळी भिन्न चीज छे; अने. तेवी रीते रागादि विकारना भावो भिन्न चीज छे. अनादिथी अज्ञान वडे बेने एक मान्या छे. तेथी बन्नेने जुदा करवा ते (धर्मरूप) कार्य छे. अहीं कहे छे-ते बेने भिन्न करवारूप कार्यनो कर्ता आत्मा छे. कोई बीजो ईश्वर आ कार्यने करे छे एम छे नहि. अहा! स्वतःसिद्ध वस्तुओनो कर्ता कोई बीजो ईश्वर छे ए मान्यता तद्न जूठी-असत्य छे. हवे कहे छे-


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‘त्यां करण विना कर्ता कोना वडे कार्य करे? तेथी करण पण जोईए. निश्चयनये कर्ताथी भिन्न करण होतुं नथी; माटे आत्माथी अभिन्न एवी आ बुद्धि ज आ कार्यमां करण छे.

ल्यो, लोको साधननी राडो पाडे छे ने? आ एनो अहीं खुलासो करे छे के निश्चयनये कर्ताथी भिन्न करण होतुं नथी. सत्यार्थद्रष्टिए जोईए तो आत्माथी रागादि बंधने भिन्न पाडवामां कर्ताय आत्मा छे ने करणेय आत्मा छे; केमके करण कर्ताथी भिन्न होतुं नथी. आ बंने (कर्ता ने करण) आत्मानी पर्यायनी वात छे. आम तो एक पर्यायमां छये कारको होय छे, पण अहीं बेने मुख्य लीधा छे. माटे आत्माथी अभिन्न एवी बुद्धि ज-भगवती प्रज्ञा ज आ कार्यमां करण छे. शुं कीधुं? के परसन्मुखनी दिशावाळा रागादि विकारना भावोने, स्वसन्मुखनी दशावाळी प्रज्ञा ज- स्वसंवेदनज्ञाननी दशा ज भिन्न करवानुं साधन छे. जेम लाकडाना बे कटका करनारुं तीक्ष्ण करवत होय छे तेम अंदरमां स्वाभिमुख तीक्ष्ण प्रज्ञा-ए ज राग ने आत्माने जुदा करवानुं करवत छे.

हवे कहे छे- ‘आत्माने अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म छे, तेमनुं कार्य भावबंध तो रागादिक छे अने नोकर्म शरीरादिक छे. माटे बुद्धि वडे आत्माने शरीरथी, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मथी तथा रागादिक भावकर्मथी भिन्न एक चैतन्यस्वभावमात्र अनुभवी ज्ञानमां ज लीन राखवो ते ज (आत्मा ने बंधनुं) भिन्न करवुं छे.’

अहा! हुं एक शुद्ध चिन्मात्र ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु आत्मा छुं. अहा! आवी त्रिकाळी चीज ते मारुं स्व छे-एम स्वने ओळखी, तेनो अनुभव करी तेमां ज लीन रहेवुं ए ज आत्माने रागथी भिन्न करवुं छे. आत्मानो अनुभव करी एमां ज लीन रहेवुं एनुं नाम भगवती प्रज्ञा छे. तेनाथी ज सर्व कर्मनो नाश थाय छे, सिद्धपदने पमाय छे, -एम जाणवुं. ल्यो, ‘णमो सिद्धाणं’ -एवुं सिद्धपद आ रीते पमाय छे.

प्रभु-आ राग अने आत्माने आ रीते जुदा कर तो तारो अवतार सफळ थशे. तेथी तने आत्मलाभ थशे, अंदर अतीन्द्रिय आनंद प्रगटशे अने तने पोताथी ज खात्री थशे के हवे मने जन्म-मरण नथी; कोईने पूछवुं नहि पडे.

अहा! आ जे समजशे नहि ते चारगतिमां रखडशे. वर्तमानमां आ बधा घणा शेठीआओ छे ने? शुं थाय? तेओ बिचारा ढोरमां जशे. केम? केमके नरकमां जाय एवा तीव्र पापना क्रूर हिंसादिना परिणाम तेमने नथी, पण धनना लोभमां तेमने माया- कपट-कुटिलताना आडाईना परिणाम छे तेथी तेओ मरीने ढोरमां ज जाय, ढोरने कूंखे ज जन्म ले.

मोटा करोड पति-लक्ष्मीपति छे तोय?


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हा, तोय; अंदर ज्ञानानंदस्वरूप लक्ष्मीने ओळख्या विना आ बहारनी लक्ष्मी- धूळना पति बधा कूड-कपटना परिणामने लीधे ढोरमां ज जशे. अहा! अने जेओ ईंडा आदि मांसाहार करे छे तेओनुं स्थान नरकादि ज छे. अररर! जेने अडाय नहि तेने भोजनमां लेवुं ए तो महापाप छे. ल्यो, कळश पूरो थयो.

[प्रवचन नं. ३४९ थी ३प३ (चालु)]
ॐ ॐ ॐ

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गाथा–२९प

आत्मबन्धौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यमिति चेत्–

जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं।
बंधो छेदेदव्वो सुद्धो अप्पा य घेत्तव्वो।। २९५।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्।
बन्धरछेत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः।। २९५।।

‘आत्मा अने बंधने द्विधा करीने शुं करवुं’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः-

जीव–बंध ज्यां छेदाय ए रीत नियत निज निज लक्षणे,
त्यां छोडवो ए बंधने, जीव ग्रहण करवो शुद्धने. २९प.

गाथार्थः– [तथा] ए रीते [जीवः बन्धः च] जीव अने बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां] तेमनां निश्चित स्वलक्षणोथी [छिद्येते] छेदाय छे. [बन्धः] त्यां, बंधने [छेत्तव्यः] छेदवो अर्थात् छोडवो [च] अने [शुद्धः आत्मा] शुद्ध आत्माने [गृहीतव्यः] ग्रहण करवो.

टीकाः– आत्मा अने बंधने प्रथम तो तेमनां नियत स्वलक्षणोना विज्ञानथी सर्वथा ज छेदवा अर्थात् भिन्न करवा; पछी, रागादिक जेनुं लक्षण छे एवा समस्त बंधने तो छोडवो अने उपयोग जेनुं लक्षण छे एवा शुद्ध आत्माने ज ग्रहण करवो. आ ज खरेखर आत्मा अने बन्ने द्विधा करवानुं प्रयोजन छे के बंधना त्यागथी (अर्थात् बंधनो त्याग करी) शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं.

भावार्थः– शिष्ये पूछयुं हतुं के आत्मा अने बंधने द्विधा करीने शुं करवुं? तेनो आ उत्तर आप्यो के बंधनो तो त्याग करवो अने शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं.

*
समयसार गाथा २९पः मथाळुं

शिष्यनो प्रश्न छे के-बंध-राग अने आत्माने भगवती प्रज्ञा वडे जुदा पाडवा ए तो जाण्युं पण ‘आत्मा अने बंधने द्विधा करीने शुं करवुं?’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः-