Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 296-297 ; Kalash: 182.

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* गाथा २९पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा अने बंधने प्रथम तो तेमनां नियत स्वलक्षणोना विज्ञानथी सर्वथा ज छेदवा अर्थात् भिन्न करवा.’

‘प्रथम तो’ -संस्कृतमां ‘तावत्’ शब्द छे ने? एटले के समकित पामवा पहेलां अने पामवा काळे सौ पहेलां शुं करवुं? पहेलामां पहेलुं आ करवुं एम कहे छे. शुं? के तुं आत्मा कोण छो? ने आ विकार कोण छे? अहा! ए बन्नेना नियत स्वलक्षणोने जाणीने-निश्चित करीने ज्ञान वडे बन्नेने सर्वथा ज छेदवा-भिन्न करवा. अहा! पोते त्रिकाळ शाश्वत शुद्ध एक चेतनालक्षण जीव छे ने आ रागादि विकारना उत्पन्नध्वंसी क्षणिक भावो बंधनुं लक्षण छे एम बन्नेने नियत स्वलक्षणोना भेदथी भिन्न जाणी ज्ञान वडे बन्नेने सर्वथा ज भिन्न करवा. राग वडे छेदवा एम नहि; राग तो अज्ञानमय जड आंधळो छे, एनाथी केम छेदाय? न छेदाय. वळी ‘सर्वथा ज’ छेदवा एम कह्युं छे; मतलब के समस्तपणे छेदवा एम कहेवुं छे. भाई! वीतराग परमेश्वर जिनेश्वरदेवनी आ आज्ञा छे.

लोको कहे छे ने? के दया पाळो, व्रत करो, दान करो, भक्ति करो, पूजा करो-ए करतां करतां (निश्चय धर्म) थशे; पण एनी अहीं ना पाडे छे. अहीं तो कहे छे-ए सर्व व्यवहार छे ते राग छे, बंधनुं लक्षण छे अने एने सर्वथा ज भिन्न पाडतां लाभ थाय, समकित थाय, एनाथी न थाय; एनाथी तो बंध थाय. व्यवहार पहेलो ने निश्चय पछी एम अहीं कह्युं नथी. कोई ठेकाणे शास्त्रमां एम आवे तो ए भूतनैगमनये निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे कह्युं छे एम यथार्थ समजवुं. (अने ए तो जेने समकित थयुं छे एनी वात छे).

कोईने थाय के बहारमां गीलोडां वगेरे शाकना छरी वडे कटका करवानुं कहे तो ए तो समजाय पण आने (-आत्मा अने बंधने) सर्वथा ज जुदा करवानुं शें समजाय? एम के आ समजातुं नथी.

अरे भाई! शाकना कटका तो तुं कयां करी शके छे? शाकना कटका करवानुं तो तारुं सामर्थ्य ज नथी. (परद्रव्य परद्रव्यनुं कांई करे एवुं कोई द्रव्यमां सामर्थ्य ज होतुं नथी). पण रागथी-बंधथी भिन्न पोताना आत्माने अनुभववो ए तो तारुं सामर्थ्य छे. अंतर्मुख वळेली ज्ञाननी दशा वडे भिन्न आत्माने अनुभवी शकाय छे. भाई! आ तो तने समजाय एवुं छे ने नाथ!

अहा! पण एने कयां समजवानी दरकार छे? अरेरे! चिदानंदघन प्रभु आत्मानी समजण विना जगत आखुं चोरासीना अवतारमां रखडी-रवडी मरे छे! अनंतकाळमां एने नारकी ने पशुना अनंतभव कर्या. कदाचित् मनुष्य थयो अने


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एमां कंईक पुण्ययोगथी सगवडता मळी तो बधुं भूली गयो, ने चढी गयो मदमां. वळी कोई रागनी मंदतामां सलवाई गयो; एम के व्यवहार करतां करतां थाय. अरे! एणे आ वात सांभळवानी ने समजवानी दरकार करी नहि!

हवे कहे छे- ‘पछी, रागादिक जेनुं लक्षण छे एवा समस्त बंधने तो छोडवो अने उपयोग जेनुं लक्षण छे एवा शुद्ध आत्माने ज ग्रहण करवो.’

जुओ, आ भेदज्ञान कह्युं. आने छोडवो ने आने ग्रहण करवो ए भेद करवाना सूक्ष्म विकल्प तो विकल्परूप भेदज्ञान छे. पण आत्मानी भूमिकामां जे जाणवा-देखवानो उपयोग थाय तेने एकदम जाणनार... जाणनार... जाणनार प्रभु ज्ञायक प्रति वाळीने शुद्धात्मानुभूति करे त्यारे रागादि जे पुण्य-पापना बंधभावो छे तेनुं लक्ष छूटी जाय छे अने ते वास्तविक भेदज्ञान छे, सम्यग्ज्ञान छे, धर्म छे. समजाणुं कांई...?

वळी कहे छे- ‘आ ज खरेखर आत्मा अने बंधने द्विधा करवानुं प्रयोजन छे के बंधना त्यागथी शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं.’

जोयुं? बन्नेने जुदा पाडवानुं प्रयोजन ज आ छे के रागनुं लक्ष छोडी चिदानंदघन प्रभु आत्माने ज ग्रहण करवो-अनुभववो. आ रीते ज एने सम्यग्दर्शनज्ञान ने अंतर- रमणतारूप धर्म प्रगट थाय छे. आ सिवाय बहारमां देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा के नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धाथी समकित थवानुं कोई कहे तो ते असत्य छे, सत्यार्थ नथी.

* गाथा २९पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शिष्ये पूछयुं हतुं के आत्मा अने बंधने द्विधा करीने शुं करवुं? तेनो आ उत्तर आप्यो के बंधनो तो त्याग करवो अने शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं.’

आत्मा चैतन्यलक्षणे जाणवालायक छे, अने बंधने रागलक्षणे जाणवालायक- ओळखवालायक छे. आम बेने लक्षणभेदे भिन्न जाणीने अंतर्मुख उपयोग वडे शुद्ध चैतन्यमय आत्माने ग्रहण करवो-अनुभववो अने रागलक्षण जे बंध एने छोडी देवो- एम कहे छे. आमां एम न आव्युं के पहेलां दया, दान, व्रत, भक्ति आदि व्यवहार करो ने पछी निश्चय थशे. भाई! व्यवहारथी निश्चय थाय एम वस्तु ज नथी. राग जे बंधनुं लक्षण छे एनाथी अबंधस्वभावी आत्मा केम प्राप्त थाय? न थाय. आवी वात छे.

[प्रवचन नं. ३प३ (शेष) अने ३प४]

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गाथा–२९६
कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा।
जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो।। २९६।।
कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा।
यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः।। २९६।।

(‘आत्मा अने बंधने भिन्न तो प्रज्ञा वडे कर्या परंतु आत्माने ग्रहण शा वडे कराय?’ -एवा प्रश्ननी तथा तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

ए जीव केम ग्रहाय? जीव ग्रहाय छे प्रज्ञा वडे;
प्रज्ञाथी ज्यम जुदो कर्यो, त्यम ग्रहण पण प्रज्ञा वडे. २९६.

गाथार्थः– (शिष्य पूछे छे के-) [सः आत्मा] ते (शुद्ध) आत्मा [कथं] कई रीते [गृह्यते] ग्रहण कराय? (आचार्यभगवान उत्तर आपे छे के-) [प्रज्ञया तु] प्रज्ञा वडे [सः आत्मा] ते (शुद्ध) आत्मा [गृह्यते] ग्रहण कराय छे. [यथा] जेम [प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [विभक्तः] भिन्न कर्यो, [तथा] तेम [प्रज्ञया एव] प्रज्ञा वडे ज [गृहीतव्यः] ग्रहण करवो.

टीकाः– शुद्ध एवो आ आत्मा शा वडे ग्रहण करवो? प्रज्ञा वडे ज शुद्ध एवो आ आत्मा ग्रहण करवो; कारण के शुद्ध आत्माने, पोते पोताने ग्रहतां, प्रज्ञा ज एक करण छे-जेम भिन्न करतां प्रज्ञा ज एक करण हतुं तेम. माटे जेम प्रज्ञा वडे भिन्न कर्यो तेम प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो.

भावार्थः– भिन्न करवामां अने ग्रहण करवामां करणो जुदां नथी; माटे प्रज्ञा वडे ज आत्माने भिन्न कर्यो अने प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो.

*
समयसार गाथा २९६ः मथाळुं

‘आत्मा अने बंधने भिन्न तो प्रज्ञा वडे कर्या परंतु आत्माने ग्रहण शा वडे कराय?’ अर्थात् शुद्धात्माने अनुभववो केवी रीते? -एवा प्रश्ननी तथा तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः-

* गाथा २९६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

ल्यो, आ एकदम सार-सार गाथा छे. झगडा बधा मटी जाय एवी आ गाथा छे. गाथामां प्रश्न अने उत्तर बन्ने छे. शुं कहे छे? के-


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‘शुद्ध एवो आ आत्मा शा वडे ग्रहण करवो? प्रज्ञा वडे ज शुद्ध एवो आ आत्मा ग्रहण करवो;...’

जुओ आ प्रश्न ने उत्तर! जेम अंतरमां वळेली ज्ञाननी दशा भगवती प्रज्ञा वडे रागने आत्माथी सर्वथा जुदो कर्यो हतो तेम ते ज ज्ञाननी दशा भगवती प्रज्ञा वडे शुद्ध आत्माने अनुभववो.

शिष्यनो प्रश्न छे के एक वार रागने जुदो पाडया पछी वारंवार शुद्धात्मानो अनुभव शा वडे करवो? एम के एकवार अनुभव थया पछी व्यवहार तो आवे छे, तो शुं ते व्यवहार वडे वा व्यवहार करतां करतां कांई अंदरमां विश्राम-स्थिरता थतां हशे एम छे? एनो आ उत्तर आपवामां आवे छे के-

पछी पण प्रज्ञा वडे ज शुद्धात्माने ग्रहण करवो केमके प्रज्ञा वडे ज अर्थात् आत्माना अनुभव वडे ज आत्मा ग्रहाय छे-पकडाय छे. भाषा जोई? ‘प्रज्ञयैव’ - ‘प्रज्ञा वडे ज’ एम कह्युं छे. मतलब के बीजी कोई रीते नहि. आगळनी गाथामां बेने ‘सर्वथा ज’ भिन्न करवा एम कह्युं हतुं.

प्रश्नः– हा, पण भगवाननो मार्ग तो अनेकान्त छे. उत्तरः– प्रज्ञा वडे ज शुद्धात्मानुं ग्रहण थाय, बीजी रीते न थाय ए अनेकांत छे. हवे तेनुं कारण आपे छेः- ‘कारण के शुद्ध आत्माने, पोते पोताने ग्रहतां, प्रज्ञा ज एक करण छे-जेम भिन्न करतां प्रज्ञा ज एक करण हतुं तेम.’

शुं कहे छे? के ज्ञानस्वरूप भगवान आत्माने ज्ञानलक्षणे लक्षित करीने तथा दया, दान, व्रतादि व्यवहारना रागने बंधना लक्षणपणे जाणीने जेम बंधने सर्वथा ज लक्षमांथी छोडी दीधो ने भगवान आत्माने अंतर-एकाकार ज्ञान-प्रज्ञा वडे ग्रहण कर्यो -अनुभव्यो तेम भगवान आत्माने द्रष्टिमां लई, मोक्षने माटे, पोते पोताने विशेषपणे प्रज्ञा वडे ज अनुभववो. अहा! प्रज्ञा ज एक मोक्षनुं करण-साधन छे. अहा! आत्मानो अनुभव ज एक रागथी भिन्न पडवानुं ने आत्माने ग्रहवानुं साधन छे. पण एम नथी के बीजुं कोई (दया, दान, व्रत आदि व्यवहाररत्नत्रय) पण साधन छे.

कहे छे-रागथी भिन्न पडवामां अने आत्माने ग्रहवामां प्रज्ञा ज एक करण छे. आत्मा आत्माना अनुभवमां रहे ए एक ज मोक्ष प्राप्त करवानुं साधन छे. व्यवहार साधन छे एम बीलकुल नथी. साधन एक ज छे; पण तेनुं निरूपण बे प्रकारे करवामां आवे छे. शास्त्रमां ज्यां व्यवहारने साधन कह्युं होय तो ते निमित्त वा सहचरनुं ज्ञान कराववा उपचारथी कह्युं छे एम यथार्थ जाणवुं.

ल्यो, निमित्तथी ने व्यवहारथी थाय ए वातनो अहीं स्पष्ट निषेध कर्यो छे. ‘प्रज्ञा ज एक करण छे’ एम उत्तर करीने निमित्त ने व्यवहारना सर्व विवादनुं समाधान करवामां आव्युं छे.


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पण ए तो लोको माने तो ने? भाई! शुं थाय? भगवाने कहेली हितनी वात न माने एने शुं करीए? ए तो एनुं भवितव्य ज एवुं छे एम जाणी समभावमां रहेवुं योग्य छे.

हवे कहे छे- ‘माटे जेम प्रज्ञा वडे भिन्न कर्यो तेम प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो.’ आत्मा अने बंधने भिन्न करवामां प्रज्ञा ज एक करण कह्युं हतुं. तेम आत्माने ग्रहवामां पण प्रज्ञा ज एक करण छे. माटे जेम प्रज्ञा वडे भिन्न कर्यो तेम आत्माने प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो. अहीं ‘ज’ कार मूकीने एकान्त कर्युं छे. आ सम्यक् एकान्त छे.

कथंचित् प्रज्ञा वडे ने कथंचित् राग वडे-एम अहीं कह्युं नथी. अहा! आवी स्पष्ट चोकखी वात छे छतां ‘व्यवहारथी न थाय’ -ए मान्यता एकान्त छे एम कोई लोको राडु पाडे छे. पण शुं थाय? अहीं आ केवळीना केडायतीओ दिगंबर आचार्यो बहु ऊंचेथी पोकार करी कहे छे के- ‘प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो, प्रज्ञा ज एक करण छे.’

भाई! आ तो धीरानां काम छे बापा! बहु भणतर कर्यां होय ने शास्त्रमां होशियार होय, बहु गर्जना करतां आवडतुं होय, बीजाने समजावतां आवडतुं होय एटले एने वहेलुं समकित ने मोक्ष थई जाय एम छे नहि. भिन्न चीजने भिन्न करी आत्मानुभव करनारी भगवती प्रज्ञा ज समकित अने मोक्षनुं साधन छे.

बापु! आ देह तो आत्माथी छूटो पडशे ज; पण ते छूटो पडे ते पहेलां ज्ञानमां अंदर छूटो पाडी नाख. ए सिवाय एने परिभ्रमण नहि मटे हों. अंदर आत्माने भिन्न अनुभव्या विना प्रभु! तारा जन्म-मरणनो अंत नहि आवे. भाई! आ भवसमुद्र तो एकला दुःखनो समुद्र छे. एना दुःखनुं शुं करीए?

घणा वरस पहेलां धंधुकामां बनेली आ घटना छे. कोई एक कोमना लोकोए एक गायने पहेलां खूब खवडाव्युं. पछी शणगारीने आखा नगरमां फेरवी जेथी बीजा लोकोने खबर थाय के आ गायने हवे मारी नाखशे. त्यार पछी एकांत स्थानमां लई ते जीवती गायना जीणा जीणा टुकडा करी नाख्या अने लोकोने वहेंच्या. रे अज्ञान! रे दुःख!

बीजी एक बनेली घटना छे. एक भाई एक वखत पोताना एक अन्यमती मित्रने त्यां गएल. ते वखते ते मित्रने घरे एक मोटी अग्निनी भट्ठी सळगावी हती, अने तेमां एक जीवता भुंडने आखे आखुं सळियामां बांधी नाख्युं हतुं. ए तो आभो ज थई गयो. अररर! जेम शक्करियुं शेके तेम जीवता भुंडने भट्ठीमां शेके! अहा! कह्युं न जाय एवुं पारावार दुःख!!

आ तो द्रष्टांत कह्यां. बाकी आनाथीय अनंत गुणां दुःख पहेली नरकथी सातमी नरकमां एणे वेठयां छे. अहीं न्याय शुं कहेवो छे के-भाई! आवां पारावार दुःखोथी छूटवुं होय तो आ एक उपाय कर. शुं? के रागनो प्रेम छोड ने ज्ञानने


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भगवान आत्मामां जोड. बापु! राग चाहे शुभ हो के अशुभ-ए स्वयं दुःखरूप ने दुःखना कारणरूप ज छे. अहा! राग बंध एटले दुःखनुं-संसारनुं ज लक्षण छे. एम जाणी एनुं लक्ष सर्वथा छोडी, उपयोगने अंतरमां वाळी सुखधाम प्रभु आत्मामां जोडी दे. अहा! उपयोगनी-ज्ञाननी अंतर-एकाकार दशा-प्रज्ञा ज शुद्धात्माने ग्रहवानो उपाय छे. भाई! जन्म-मरणनां दुःखोथी मुक्त थवानी आ एक ज रीत छे. समजाय छे कांई...?

माणसने अभ्यास नहि एटले आ समजवुं कठण पडे, पण आ समज्या विना तारा दुःखनो अंत आवे एम नथी. बाकी तो कह्युं छे ने के-

‘बालपण खेलमां खोया, जुवानी स्त्रीमां मोह्या, अने बुढापा देखकर रोया.’ बधां दुःख ज दुःख छे. दोलतरामजीए कह्युं छे ने के-

“बालपनेमें ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणीरत रह्यो;
अर्धमृतकसम बूढापनो कैसे रूप लखै आपनो...?”

पोताना स्वरूपने जाण्या विना बधे दुःख ज छे भाई! माटे टूंकामां कहीए के-रागथी खस, आत्मामां वस; आ टुंकुं ने टच, एटलुं बस. पण आमां तो अनंतो पुरुषार्थ जोईए हों. कांई वाते वडां थाय एम नथी.

* गाथा २९६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

भिन्न करवामां अने ग्रहण करवामां करणो जुदां नथी. अहा! साध्य जे मोक्ष तेनुं साधन आत्माथी अभिन्न एक प्रज्ञा ज छे. आत्मानुं साधन आत्मामां ज छे. एनुं साधन कोई बीजी चीज-निमित्त के व्यवहार-नथी. माटे प्रज्ञा वडे ज आत्माने भिन्न कर्यो अने प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो. बन्नेमां ‘ज’ लीधुं छे. सम्यक् एकांत कर्युं छे.

[प्रवचन नं. ३प४]

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गाथा–२९७

कथमयमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्य इति चेत्–

पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।। २९७।।
प्रज्ञया गृहीतव्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः।
अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः।। २९७।।

हवे पुछे छे के-आ आत्माने प्रज्ञा वडे कई रीते ग्रहण करवो? तेनो उत्तर कहे छेः-

प्रज्ञाथी ग्रहवो–निश्चये जे चेतनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर–जाणवुं. २९७.

गाथार्थः– [प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [गृहीतव्यः] (आत्माने) एम ग्रहण करवो के- [यः चेतयिता] जे चेतनारो छे [सः तु] ते [निश्चयतः] निश्चयथी [अहं] हुं छुं, [अवशेषाः] बाकीना [ये भावाः] जे भावो छे [ते] ते [मम पराः] माराथी पर छे [इति ज्ञातव्यः] एम जाणवुं.

टीकाः– नियत स्वलक्षणने अवलंबनारी प्रज्ञा वडे जुदो करवामां आवेलो जे चेतक (-चेतनारो), ते आ हुं छुं; अने अन्य स्वलक्षणोथी लक्ष्य (अर्थात् चैतन्यलक्षण सिवाय बीजां लक्षणोथी ओळखावायोग्य) जे आ बाकीना व्यवहाररूप भावो छे, ते बधाय, चेतकपणारूपी व्यापकना व्याप्य नहि थता होवाथी, माराथी अत्यंत भिन्न छे. माटे हुं ज, मारा वडे ज, मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं. आत्मानी, चेतना ज एक क्रिया होवाथी, ‘हुं ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘हुं चेतुं ज छुं’; चेततो ज (अर्थात् चेततो थको ज) चेतुं छुं, चेतता वडे ज चेतुं छुं, चेतता माटे ज चेतुं छुं, चेततामांथी ज चेतुं छुं, चेततामां ज चेतुं छुं, चेतताने ज चेतुं छुं. अथवा-नथी चेततो; नथी चेततो थको चेततो, नथी चेतता वडे चेततो, नथी चेतता माटे चेततो, नथी चेततामांथी चेततो, नथी चेततामां चेततो, नथी चेतताने चेततो; परंतु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र (-चैतन्यमात्र) भाव छुं.


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(शार्दूलविक्रीडित)
भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबताद्भेत्तुं हि यच्छक्यते
चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम्।
भिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि
भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति।। १८२।।

भावार्थः– प्रज्ञा वडे भिन्न करवामां आवेलो जे चेतक ते आ हुं छुं अने बाकीना भावो माराथी पर छे; माटे (अभिन्न छ कारकोथी) हुं ज, मारा वडे ज, मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं. ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘चेतुं छुं’ , कारण के चेतवुं ते ज आत्मानी एक क्रिया छे. माटे हुं चेतुं ज छुं; चेतनारो ज, चेतनार वडे ज, चेतनार माटे ज, चेतनारमांथी ज, चेतनारमां ज, चेतनारने ज चेतुं छुं. अथवा द्रव्यद्रष्टिए तो-छ कारकोना भेद पण मारामां नथी, हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव छुं. - आ प्रमाणे प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण करवो अर्थात् पोताने चेतनार तरीके अनुभववो.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा] जे कांई भेदी शकाय छे ते सर्वने स्वलक्षणना बळथी भेदीने, [चिन्मुद्रा–अङ्कित–निर्विभाग– महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्ति] जेनो चिन्मुद्राथी अंक्ति निर्विभाग महिमा छे (अर्थात् चैतन्यनी छापथी चिह्नित विभागरहित जेनो महिमा छे) एवो शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं. [यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम्] जो कारकोना, अथवा धर्मोना, अथवा गुणोना भेदो पडे, तो भले पडो; [विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति] परंतु *विभु एवा शुद्ध (-समस्त विभावोथी रहित-) चैतन्यभावमां तो कोई भेद नथी. (आम प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण कराय छे.)

भावार्थः– जेमनुं स्वलक्षण चैतन्य नथी एवा परभावो तो माराथी भिन्न छे, मात्र शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं. कर्ता, कर्म, कारण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणरूप कारकभेदो, सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेदो अने ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेदो जो कथंचित् होय तो भले हो; परंतु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां तो कोई भेद नथी. -आम शुद्धनयथी अभेदरूपे आत्माने ग्रहण करवो. १८२.

*

_________________________________________________________________ * विभु = द्रढ; अचळ; नित्य; समर्थ; सर्व गुणपर्यायोमां व्यापक.


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समयसार गाथा २९७ः मथाळुं

हवे पूछे छे के-आ आत्माने प्रज्ञा वडे कई रीते ग्रहण करवो? तेनो उत्तर कहे छेः-

आत्माने रागथी भिन्न पाडवानी के शुद्धात्माने अंदर ग्रहण करवानी- अनुभववानी रीत शुं? एम शिष्यनो प्रश्न छे. बीजी रीते कहीए तो अनंतकाळमां जे कर्युं नथी ते सम्यग्दर्शन केम प्रगट थाय? सम्यग्दर्शननुं ध्येय शुं होय? अहा! एनी वर्तमान क्रिया शुं होय? आ प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-

अहा! भगवान सर्वज्ञदेवे जे प्रत्येक आत्मा जोयो ते द्रव्ये अने गुणे शुद्ध छे. एनी पर्यायमां जे मिथ्यात्व ने रागद्वेषादि विकार छे एनां षट्कारक-कर्ता, कर्म आदि पर्यायनां पर्यायमां छे, शुद्ध आत्मद्रव्य एमां कांई करतुं नथी. तेवी रीते जे निर्मळ निर्विकार धर्मनी परिणति थाय एनां षट्कारक एनामां छे; अहा! ते निर्मळ परिणति राग-व्यवहारने लईने थई छे एम नथी, वा शुद्ध द्रव्य-गुणने लईने थई छे एम पण नथी. अहा! आवी ओम्ध्वनिमां आवेली बहु सूक्ष्म वात अहीं कहे छे.

* गाथा २९७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘नियत स्वलक्षणने अवलंबनारी प्रज्ञा वडे जुदो करवामां आवेलो जे चेतक (- चेतनारो), ते आ हुं छुं...’

नियत स्वलक्षणने अवलंबनारी प्रज्ञा...’ शुं कह्युं ए? के अंदरमां ज्ञाननी दशा अंतःस्वभावने (-स्वने) जाणतां रागने जाणे (परने जाणे) एवुं स्वपरप्रकाशक प्रज्ञानुं नियत नाम निश्चय स्वलक्षण छे. अहा! जाणवुं ए एनो स्वभाव छे. ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान-ए आत्मानो स्वभाव छे अने ते एनुं स्वलक्षण छे. राग बंधनुं लक्षण छे अने ज्ञान आत्मानुं स्वलक्षण छे. अहा! आवा स्वलक्षणने ज्ञानस्वभावने अवलंबनारी प्रज्ञा नाम ज्ञाननी दशा आत्माने रागथी भिन्न अनुभवे छे, जाणे छे. अहाहा! जे ज्ञाननी दशा रागथी भिन्न पडी अंदर भगवान ज्ञानस्वभावमां एकाकार थई ते ज्ञाननी दशामां भगवान आत्मा भिन्न जणाय छे, अनुभवाय छे. आनुं नाम प्रज्ञा वडे भिन्न करवामां आवेलो चेतक; समजाणुं कांई...? ज्ञानस्वभावने आलंबीने अंतर्मुख थयेली ज्ञाननी दशा-प्रज्ञा जे प्रगट थई तेमां भगवान आत्मा-चेतक चेतनारो जणायो अने एमां आ चेतक-चेतनारो ते आ हुं छुं एम प्रत्यक्ष थाय छे. चेतनारो ते आ हुं-एम विकल्प नहि, पण अंतरमां वळेली ज्ञाननी दशामां जे जुदो जणायो चेतक-चेतनारो, ते आ हुं छुं एम प्रत्यक्ष अनुभव थाय छे. एम वात छे समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे- ‘अने अन्य स्वलक्षणोथी लक्ष्य (अर्थात् चैतन्यलक्षण सिवाय बीजां लक्षणोथी ओळखवा योग्य) जे आ बाकीना व्यवहाररूप भावो छे, ते बधाय


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चेतकपणारूपी व्यापकना व्याप्य नहि थता होवाथी, माराथी अत्यंत भिन्न छे.’

शुं कीधुं? के आ दया, दान, व्रत, तप, भक्तिना भाव अने काम, क्रोधादि भाव- ए बधा व्यवहाररूप भावो छे, ने ते बधाय चैतन्यलक्षणथी भिन्न बंधलक्षणथी ओळखावायोग्य छे. अहा! निश्चय आत्मानुं लक्षण भिन्न छे ने व्यवहार भावोनुं लक्षण भिन्न छे. ज्ञानलक्षणथी (-स्वभावथी) जणाय एवो चेतनारो ते हुं छुं अने अन्यलक्षणोथी ओळखाय एवा बाकीना बधाय भाव व्यवहाररूप भावो छे. आत्मा गुणी, अने ज्ञान, दर्शन एना गुण एवो गुण-गुणीना भेदनो विकल्पए व्यवहारभाव छे. अहीं कहे छे-ए बधाय व्यवहारभावो चेतनारो जे चेतक-ज्ञायक एनी अवस्था थवाने लायक नथी. आवी सूक्ष्म वात छे!

सूक्ष्म पडे पण वात तो आ छे. मार्ग तो आ छे भाई! अनंतकाळना जन्म- मरणना दुःखथी छूटवानो आ ज मार्ग छे.

भगवान आत्मा चेतनारो-चेतक, व्यापक थईने-प्रसरीने-विस्तरीने रागरूप- विकाररूप थाय एवी वस्तु ज नथी-एम कहे छे. अहाहा...! मारो नाथ सच्चिदानंद प्रभु विस्तरीने-विशाळरूप थईने विकारपणे थाय एम छे ज नहि. विकाररूप थाय ए हुं- आत्मा नहि एम अहीं कहे छे. आत्मा अंदर वस्तु एकलुं चैतन्यनुं दळ निर्मळ निर्विकार आनंदस्वरूप छे; अने आ विकारना भाव एनाथी विपरीत विभावभाव छे. अहीं कहे छे-शुद्ध आत्मवस्तु पोते व्यापक थईने विभावभावनी अवस्थाओने धारण करे एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. अंदर ज्ञानमां प्रत्यक्ष थाय के आ चेतनारो ते हुं छुं, अन्य जे व्यवहाररूप भावो ते मारा चेतकपणारूपी व्यापकनुं व्याप्य नथी माटे माराथी अत्यंत भिन्न छे त्यारे एने समकित थाय छे. आवो जैन धर्म छे बापा!

आ वाणीयाओ माने के अमे जैन छीए पण एने खबरेय नथी के जैन शुं छे? बापु! भेदज्ञान-सम्यग्ज्ञान विना कयांय जैनपणुं होतुं नथी. भेदज्ञान वडे समकित प्रगट करे ते जैन छे. भाई! कोथळीमां काळीजीरी भरे ने उपर नाम (लेबल) साकर लखे एटले कांई अंदर साकर थई जाय? एम नाम जैननुं राखे पण अंदर समकित विना जैनपणुं कोईनेय होतुं नथी. समजाणुं कांई...?

भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणी! एने समजवा माटे उपयोग सूक्ष्म स्वाभिमुख करवो जोईए. सर्वज्ञना पेटनी वात त्यारे समजाय छे.

‘जे आ बाकीना व्यवहाररूप भावो छे, ते बधाय...’ एम कह्युं छे ने! एटले के ते भावो छे तो खरा, पण ते बधाय-बधाय हों-चेतकपणारूप व्यापकनुं व्याप्य नथी. जे कोई शुभाशुभ विकल्पो उठे छे ते मारा चेतन-चिद्रूप स्वरूपनुं व्याप्य थाय अर्थात् मारा थनारनुं थवुं थाय एवुं वस्तुस्वरूप ज नथी. अहा! चेतनारो हुं विस्तरुं तो शुद्ध चैतन्यमय पर्यायपणे विस्तरुं, मारो विस्तार थाय तो चैतन्यनी निर्मळ


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वीतरागी पर्यायपणे थाय. पण आ शुभाशुभ रागनो विस्तार ते कांई मारो विस्तार नथी, ते मारी अवस्था नथी; माटे ए व्यवहाररूप भावो बधाय माराथी अत्यंत भिन्न छे.

अहा! भगवाननुं नाम-स्मरण करवुं, भगवाननां दर्शन-स्तुति-भक्ति-पूजा करवां ए बधा व्यवहारना भाव छे. ए विकल्पो कांई चेतक-चेतनार आत्मानी दशा नथी. व्यवहार-राग होय छे खरो, धर्मीने पण होय छे. चेतनारो चेतक एने पोताना स्वभाव-सामर्थ्यथी जाणे छे. त्यां ए व्यवहार छे माटे एने जाणे छे एमे नहि; पण आ हुं चेतनारो छुं एम जाणतां, धर्मी ते काळे पोताथी पोतामां पोतानां कारणे स्वपरने प्रकाशनारी ज्ञाननी दशाए परिणमे छे. आनुं नाम ते ते काळे व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. गाथा १२ मां आव्युं ने? के व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे-ते आ. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे- ‘माटे हुं ज, मारा वडे ज, मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं. आत्मानी चेतना ज एक क्रिया होवाथी, “हुं ग्रहण करुं छुं” एटले ‘हुं चेतुं ज छुं;’

जोयुं? हुं ज-ए कर्ता, मारा वडे ज-ए साधन, मारा माटे ज-ए संप्रदान, मारामांथी ज-ए अपादान अने मारामां ज-ए आधार;-आ प्रमाणे कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अने अधिकरण ए छ कारकोथी हुं मने ज ग्रहण करुं छुं एम कहे छे. आत्मानी चेतना ज एटले धर्मनी निर्मळ वीतरागी दशा थई ते ज एक क्रिया होवाथी हुं ग्रहण करुं छुं एटले हुं चेतुं ज छुं एम अर्थ छे.

शुं कहे छे? के हुं ज कर्ता छुं; मारी चेतवारूप वीतरागी दशानो कर्ता कोई बाह्य निमित्त के व्यवहार नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प उठे छे ते मारी निर्मळ पर्यायनो कर्ता नथी. प्रज्ञाब्रह्म एवो हुं ज एनो कर्ता छुं. रागादि तो माराथी अत्यंत भिन्न छे. आ प्रमाणे धर्मी पुरुष, वीतरागी निर्मळ पर्याय ते मारुं व्याप्य अने हुं एनो व्यापक कर्ता छुं एम जाणे छे. पण निर्मळ रत्नत्रय व्याप्य अने व्यवहार रत्नत्रय व्यापक एम छे नहि. अहा! व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम छे नहि.

वळी ते धर्मनी निर्मळ वीतरागी पर्यायनुं साधन पण वीतरागस्वभावी आत्मा पोते ज छे. ‘मारा वडे ज’ एम लीधुं छे ने? एटले के चिद्रूप एवो हुं ज साधन-करण छुं, पण व्रतादि व्यवहार कांई निर्मळ पर्यायनुं साधन नथी. अहा! चेतनार एवा मारा वीतराग भाव (-गुण) वडे ज वीतराग भाव (-पर्याय) थयो छे, राग के निमित्त वडे वीतराग भाव थयो नथी. कर्तानुं करण कर्ताथी अभिन्न ज होय. तेथी चेतनारो एवो हुं ज एनी चेतवारूप निर्मळ दशानो कर्ता अने करण छुं जुओ बधे ‘ज’ मूकीने (सम्यक्) एकान्त कर्युं छे.


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तेवी ज रीते मने जे वीतरागभाव प्रगट थयो छे तेनुं संप्रदान हुं ज छुं. ‘मारा माटे ज’ एम लीधुं छे ने? मतलब के कोई बीजाने देवुं छे के कोई बीजाने लेवुं छे एम नथी; वीतरागी पर्यायनो देनारेय हुं छुं ने लेनारेय हुं छुं, -हुं ज संप्रदान छुं.

हवे अपादाननी वातः ए वीतरागी पर्याय मारामांथी ज आवी छे. देव-गुरु- शास्त्रमांथी के तेना प्रत्येना रागमांथी निर्मळ पर्याय आवी छे एम नथी. खरेखर तो ते पर्यायमांथी (ते) पर्याय आवी छे. वीतराग सर्वज्ञदेव एम कहे छे के-अमे तारे माटे परद्रव्य छीए. अमारी सामुं जोईश तो तने राग ज थशे अने तेथी तने पुण्यबंध थशे, धर्म नहि थाय. अमारी जेम तुं अंदर स्वसन्मुख था; एम करवाथी तारामांथी ज तने निर्मळ वीतरागी दशा प्रगट थशे. ल्यो, आवी वात छे! समजाय छे कांई...?

आधारः मारी वीतरागी पर्यायनो हुं ज आधार छुं. राग के व्यवहार एनो आधार छे एम छे नहि.

वळी ए निर्मळ वीतरागी पर्यायने ज में ग्रहण करी छे तेथी ए मारुं ज कार्य छे. अहा! मने ज ग्रहण करुं छुं एम कीधुं ने? एटले हुं वीतरागी पर्याय सिवाय रागने-व्यवहारने ग्रहण करुं छुं एम छे नहि.

अहा! चेतक-चेतनारो एवो चैतन्यस्वरूपी भगवान आत्मा हुं मारी चेतवानी- जाणवा-देखवानी वर्तमान दिशाने में, मारा वडे, मारा माटे, मारामांथी, मारा आधारे प्रगट करी छे. आ ज मारुं कार्य छे एम धर्मी जाणे छे. आठ वर्षनी कुमारिका होय अने सम्यग्दर्शन पामे तो आ रीते ते जाणे छे. सम्यग्दर्शन पाम्या पछी एने राग होय अने कदाच विवाह आदि पण करे तोय ए रागनी क्रियानो कर्ता पोताने न माने. ए तो एक निर्मळ परिणतिनो हुं कर्ता छुं एम ज माने छे.

अहीं कहे छे-आत्मानी, चेतना ज एक क्रिया होवाथी हुं ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘हुं चेतुं ज छुं.’ जुओ, चेतना एटले जाणवुं-देखवुं ए एक ज आत्मानी क्रिया छे. कथंचित् चेतना ने कथंचित् रागनी क्रिया आत्मानी छे एम कह्युं नथी. आत्मानी चेतना ज एक क्रिया छे, राग नहि. आ अनेकान्त छे. भाई! दया, दान, व्रत आदिनो राग ए आत्मानी क्रिया ज नथी.

जुओ, आ रूपाळी चामडीथी मढेलुं हाड-मांसनुं पोटलुं एवो आ देह तो जड माटी-धूळ छे. एनी क्रिया तो आत्माने कदी छे नहि. पण अंदर दया, दान-व्रत आदिनी वृति जे उठे एनो करनारोय आत्मा नथी. शुं कीधुं? आ देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प, शास्त्र-श्रवणनो विकल्प के पंचमहाव्रतादिनो विकल्प ए भगवान


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आत्मानुं कार्य नहि. ए बधा व्यवहारना भावो तो भगवान आत्माथी भिन्न छे, ते एनी क्रिया केम होय?

अरे! सत्य सांभळवाय मळे नहि ते सत्यने शरणे कयारे जाय? कपडां सहित मुनिपणुं तो वीतरागमार्गमां छे नहि; परंतु जैननो दिगंबर साधु थईने पंचमहाव्रत पाळतो होय ने एम माने के ए मारुं कर्तव्य छे अने हुं एनो कर्ता छुं तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. बहु आकरी वात. पण बापु! आवां द्रव्यलिंग तो एणे अनंतकाळमां अनंतवार धारण कर्यां छे. पण अंतरनी भेदज्ञाननी क्रिया विना भाई! ए बधां थोथेथोथां छे, संसारमां रखडवा सिवाय कांई कामनां नथी.

हवे आचार्य महाराज पोते प्रथम जे सामान्य षट्कारकोनी वात करी हती ते विस्तारथी समजावे छे. आचार्य अमृतचंद्रदेव भगवान कुंदकुंदाचार्यनी गाथानुं विशेष स्पष्टीकरण करे छे के भगवान कुंदकुंददेव आ कहेवा मागे छे-

‘चेततो ज (अर्थात् चेततो थको ज) चेतुं छुं, चेतता वडे ज चेतुं छुं, चेतता माटे ज चेतुं छुं. चेततामांथी ज चेतुं छुं, चेततामां ज चेतुं छुं, चेतताने ज चेतुं छुं.’

शुं कहे छे? के चेततो ज चेतुं छुं. एटले रागने चेततो थको चेतुं छुं एम नहि, पण पोताने चेततो थको चेतुं छुं. चेतता वडे चेतुं छुं एटले चेतवारूप कार्यनुं साधन पोते ज छे, कोई अन्य साधन छे एम नहि. चेतता माटे ज चेतुं छुं, एटले बीजा-परज्ञेय माटे चेतुं छुं एम नहि. चेततामांथी ज चेतुं छुं, एटले रागमांथी के व्यवहारमांथी चेतुं छुं एम नहि. चेततामां ज चेतुं छुं ए आधार कह्यो. चेतताने ज चेतुं छुं-ए कर्म लीधुं. हुं मारा चेतवारूप कार्यने चेतुं छुं, रागने के व्यवहारने चेतुं छुं एम नहि.

आ प्रमाणे व्यवहार ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे ए वातने पण अहीं काढी नाखी. व्यवहारने करवुं के व्यवहारने जाणवुं ए तो काढी नाख्युं पण अहीं तो सद्भूत व्यवहारना छ भेद जे समजाववा माटे पाडया हता तेनुं लक्ष पण छोडावे छे. रागादि तो असद्भूत व्यवहार छे. जुओ, शुं कहे छे?

‘अथवा-नथी चेततो; नथी चेततो थको चेततो, नथी चेतता वडे चेततो, नथी चेतता माटे चेततो, नथी चेततामांथी चेततो, नथी चेततामां चेततो, नथी चेतताने चेततो; परंतु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र (-चैतन्यमात्र) भाव छुं.’

कहे छे-मारामां कोई भेद ज नथी, हुं तो जे छुं ते सर्वविशुद्ध चिन्मात्र भाव छुं. ‘सर्वविशुद्ध’ एटलोय भेद पडयो ए अशुद्धता छे. पण समजाववुं केवी


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रीते? समजाववामां भेद पडया विना रहेतो नथी अर्थात् भेद पाडया विना अभेद समजावी शकातो नथी. पण अनुभव काळे भेद नथी. सम्यग्दर्शननो विषय आवो अभेद एक चिन्मात्र भाव छे. सम्यग्दर्शननुं ध्येय एक अभेद आत्मा छे. भेद ए समकितनुं ध्येय नथी. अहाहा...! हुं तो चिन्मात्र-जाणनार-देखनार मात्र भाव छुं एवी निर्विकल्प द्रष्टि अने अनुभव एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, अने त्यांथी धर्मनी शरूआत थाय छे.

अभेदनी द्रष्टि-द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्दर्शन छे. अहा! आमां व्यवहारने चेतवुं तो दूर रहो, भेदने पण चेतवुं नथी एम वात छे. आ स्वानुभवदशानी वात छे. हवे पछी सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार आववानो छे ने? एनो अहीं आ उपोद्घात करे छे.

अहा! आवुं दुर्लभ मनुष्यपणुं एने क्यारे मळे अने क्यारे एने आवी सत्य वात सांभळवा मळे? अरे! छतां हजी तेने कयां नवराश छे? रळवुं, कमावुं ने बायडी- छोकरां साचववां इत्यादि जंजाळमां गुंचायेलो रहीने अरे! एणे पोताना आत्माने मारी नाख्यो छे. वळी कोई दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि बाह्य क्रियामां रच्यापच्या रहीने पोताने धर्म थवानुं माने छे. पण भाई! धर्मनुं एवुं स्वरूप नथी. ए रागनी क्रियाथी पुण्य बंधाय पण धर्म न थाय. रागथी भेद करी स्वभावनुं ग्रहण कर्या विना भाई! तारी ए क्रिया बधी रणमां पोक मूकवा जेवी छे. अरे! एम ने एम आ जिंदगी (-अवसर) वेडफाई जाय छे!

* गाथा २९७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘प्रज्ञा वडे भिन्न करवामां आवेलो जे चेतक ते आ हुं छुं अने बाकीना भावो माराथी पर छे;...’

शुं कहे छे? प्रज्ञा-प्र एटले विशेष-प्रकुष्ट ज्ञान. अहा! जे वर्तमान ज्ञाननी दशामां द्रव्यनो-नित्यानंद चैतन्यमहाप्रभु आत्मानो-अनुभव थाय ते दशाने प्रज्ञा कहे छे. स्वानुभवनी-स्वसंवेदनज्ञाननी दशा ते प्रज्ञा छे, ते रागने छेदनारी छे माटे तेने प्रज्ञाछीणी कहे छे. अहा! प्रज्ञा वडे आत्माने चेततां-अनुभवतां आत्मा रागथी भिन्न पडी जाय छे अर्थात् आ अनुभवाय छे ते चेतनालक्षण आत्मा हुं छुं अने एनाथी भिन्न आ राग छे ते बंधनुं लक्षण छे एम बन्ने भिन्न भिन्न जणाय छे. अहा! जेनी सत्तामां आ चेतवुं-जाणवुं-देखवुं छे ते चेतक-चेतनारो हुं छुं अने बाकीना सर्व भावो पर छे एम स्वाभिमुख ज्ञाननी दशामां आत्मा भिन्न अनुभवाय छे.

रागनी दशानी दिशा पर तरफ छे अने प्रज्ञा एटले ज्ञाननी दिशा स्व तरफ छे. दशा-अवस्था बेय छे, पण बेयनी दिशा भिन्न छे, एकनी पर भणी अने बीजानी स्व भणी. राग परलक्षी छे, ने ज्ञान-प्रज्ञा स्वलक्षी.


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वर्तमान ज्ञाननी दशा-भगवती प्रज्ञा स्व जे चेतक ते तरफ जाय छे त्यारे आ चेतक-चेतनारो छे ते हुं छुं एम द्रष्टि थाय छे, अने बाकीना भावो परथी द्रष्टि छूटी जाय छे अर्थात् बाकीना भावो मारा छे एम एने भासतुं नथी, तेओ पर छे एम भासे छे.

प्रज्ञारूपी ज्ञाननी दशा वडे बन्नेने भिन्न करवामां आवतां आ चेतक ते हुं छुं एम अनुभवमां आवे छे. त्यां खरेखर आखुं चेतक-द्रव्य कांई ज्ञाननी पर्यायमां आवी जतुं नथी. द्रव्य तो द्रव्यरूपे रहे छे; पण त्रिकाळी द्रव्यनी जे अनंती शक्ति ते वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां जणाई जाय छे. अहा! आवुं अद्भुत सामर्थ्य एक समयनी ज्ञाननी दशानुं-प्रज्ञानुं होय छे के जे सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्माना सामर्थ्यने पूरण जाणी ले छे. अहो प्रज्ञा!

पहेलां जे ज्ञाननी दशा पर तरफना वलणवाळी हती तेमां रागादि स्वपणे भासता हता. अहा! हवे ते पर्याय व्यय थईने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना आश्रये नथी पर्याय उत्पन्न थई तेमां आ चेतक छे ते हुं छुं एम जणायुं, व्यवहार तो हुं नहीं पण चेतकनो जेमां अनुभव थयो ते ज्ञाननी दशा-प्रज्ञा पण हुं नहि, ते बधा भावो पर छे एम यथार्थ भास्युं. आनुं नाम भेदज्ञान ने धर्म छे. आ हुं ने आ हुं नहि-ए तो समजाववा माटे भेदथी वात करी, बाकी स्वानुभवमां तो एक अभेद द्रव्यनो ज आश्रय होय छे, भेदनुं लक्ष होतुं नथी. अहो! आवी परम सत्य वात दिगंबर धर्म सिवाय बीजे कयांय नथी; सूक्ष्म पडे पण आ ज वस्तुस्थिति छे. हवे कहे छे-

माटे (अभिन्न छ कारकोथी) हुं ज, मारा वडे ज, मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं.’

जोयुं? हुं ज ग्रहण करुं छुं ते कर्ता कह्यो अने हुं मने ज ग्रहण करुं छुं ते कर्म कह्युं. अहा! प्रज्ञा एटले स्वानुभवनी निर्मळ दशाने में ज ग्रहण करी छे, ए मारुं ज कार्य छे. भगवाननी वाणी सांभळी माटे ए कांई वाणीनुं कार्य नथी. व्यवहार के निमित्तनुं ए कार्य नथी. आ प्रमाणे कर्ता-कर्म अभिन्न ज छे. वळी मारा वडे ज हुं मने ग्रहण करुं छुं-ए साधन कह्युं. व्यवहाररत्नत्रय साधन छे एम नहि, पण मारी अंतरमां वळेली ज्ञाननी दशा-प्रज्ञा ज साधन छे. मारा माटे ज ग्रहण करुं छुं-आ संप्रदान कीधुं. जे स्वानुभव थयो ते में मने ज दीधो ने में मारा माटे ज राख्यो, बीजाने माटे नहि. मारामांथी ज ग्रहण करुं छुं आ अपादान कीधुं; स्वानुभवनी दशा निमित्त के व्यवहारमांथी प्रगट थई छे एम नहि, पण पोते पोतामांथी ज प्रगट थई छे. मारामां ज ग्रहण करुं छुं-आ आधार कीधो. अहा! स्वानुभवनी दशाने कोई बहारनो-निमित्त


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के व्यवहारनो-आधार नथी. पोताने पोतामां ज आधार छे. आ अभिन्न षट्कारकनुं परिणमन पर्यायनुं पर्यायमां छे; ध्रुवमां नथी केमके ध्रुव तो कूटस्थ अपरिणामी छे.

शुं कीधुं? के ध्रुव तो कूटस्थ अपरिणामी छे. द्रव्य अने गुण-बन्ने त्रिकाळ ध्रुव छे. माटे कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान ने अधिकरण-एम षट्कारकरूप परिणमन ध्रुवमां नथी. पर्यायनुं षट्कारकरूप परिणमन पर्यायमां छे. पर्यायनो पर्याय कर्ता, पर्यायनुं पर्याय कर्म, पर्यायनुं पर्याय साधन एम पर्यायनुं षट्कारकरूप परिणमन अभिन्न पर्यायमां ज छे. समजाणुं कांई...?

त्यारे कोई वळी कहे छे-पोताथीय थाय ने निमित्तथीय थाय एम अनेकान्त कहेवुं जोईए.

बापु! मारा वडे थाय ने पर-निमित्तादि वडे न थाय एनुं नाम अनेकान्त छे. मारा वडेय थाय ने पर-निमित्तादि वडेय थाय एवी मान्यता तो फुदडीवाद छे, अनेकांत नथी.

अहा! वीतराग सर्वज्ञदेव एम कहे छे के जे रीते वस्तु छे ते रीते न मानतां एने जे विपरीत माने छे ते वस्तुने आळ आपे छे. जेमके आत्मा रागथी जणाय, भेदथी अभेद जणाय, निमित्तथी (उपादानमां) कार्य थाय-इत्यादि माने ते वस्तुने आळ आपे छे. अहा! सतनुं सत्त्व जे रीते छे ते रीते न माने ते सत्ने आळ आपे छे. अहाहा...! आत्मा अनंत शक्तिओनो पिंड सच्चिदानंद प्रभु चैतन्यस्वभावनो सागर अंदर पूरण पदार्थ छे. छतां एने अपूर्ण अने रागवाळो कोई माने तो ते स्वरूपने जेम छे तेम न मानतां ते पोताने आळ आपे छे. अहा! आम वस्तुने-पोताने आळ आपतां आपतां एनी एवी भूंडी दशा थई जशे के ते निगोदमां चाल्यो जशे ज्यां बीजा, आ जीव छे एम मानवा पण संमत नहि थाय. बापु! वस्तुने आळ देवाना अपराधनी सजा बहु आकरी छे.

भाई! आ समयसार तो सर्वज्ञ भगवाननी ओम्ध्वनिनो सार छे. बनारसी विलासमां बनारसीदासे कह्युं छे के-

“मुख ॐकार धुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै;
रचि आगम उपदिशै भविक जीव संशय निवारै.”

भगवान मुखेथी बोले छे एम कह्युं ए तो लोकशैलीनी भाषा छे. आनो खुलासो पंचास्तिकायमां छे. खरेखर तो भगवाने होठ हाल्या विना अंदरमां सर्व प्रदेशोथी ओम्ध्वनि नीकळे छे. अहा! वस्तुनी स्थिति कांई भगवाने करी नथी. ए तो जेवी छे तेवी एमणे जाणी छे अने एवी ज एमनी वाणीमां आवी छे. जेम आत्मानो स्वभाव स्वपरने जाणवानो छे तेम वाणीनो स्वभाव स्वपरने कहेवानो छे. तो स्वपरनी


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वार्ता-वस्तुनी स्थिति जेम छे तेम भगवाननी वाणीमां आवी छे; अने ते आ समयसारमां आचार्यदेवे कही छे.

एमां अहीं शुं कहे छे? के- ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘चेतुं छुं,’ कारण के चेतवुं ते ज आत्मानी एक क्रिया छे. माटे हुं चेतुं ज छुं;...

अहा! जाणवुं... जाणवुं... जाणवुं-बस जाणवुं ए ज एक आत्मानी क्रिया छे; राग-व्यवहार पण बीजी (आत्मानी) क्रिया छे एम नथी. माटे कहे छे-हुं चेतुं ज छुं, हुं स्वरूपने जाणुं ज छुं! आ तो सामान्य कह्युं; हवे कारकोना छ भेद पाडीने समजावे छे-

‘चेतनारो ज, चेतनार वडे ज, चेतनार माटे ज, चेतनारमांथी ज, चेतनारमां ज, चेतनारने ज चेतुं छुं.’

चेतनारो ते कर्ता ने ‘चेतुं छुं’ ते कर्म. हुं चेतनारो मने ज चेतुं छुं. अहाहा...! हुं जाणनारने ज जाणुं छुं; रागने जाणुं छुं एम नहि. राग संबंधी जे ज्ञान छे ते स्वतंत्र मारुं छे अने हुं मने ज जाणुं छुं, रागने नहि. सूक्ष्म वात भाई! व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एम आवे छे ने? (गाथा १२ मां) एम व्यवहार छे. अहीं तो कहे छे- हुं मारा ज्ञानने ज जाणुं छुं. भाई! हुं कर्ता, हुं कर्म, हुं करण इत्यादि आ छ कारकोना भेद तो समजवा माटे सद्भूतव्यवहारथी कह्या छे. निश्चयथी तो ए भेद कांई नथी. ए ज कहे छे के-

‘अथवा द्रव्यद्रष्टिए तो-छ कारकोना भेद पण मारामां नथी, हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव छुं. -आ प्रमाणे प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण करवो अर्थात् पोताने चेतनार तरीके अनुभववो.’

जोयुं? वस्तु जे सामान्य... सामान्य... सामान्य चिन्मात्र एकरूप ध्रुव द्रव्य-एनी द्रष्टिए जोईए तो छ कारकोना भेद वस्तुमां नथी. हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव छुं. टीकामां सर्वविशुद्ध चिन्मात्र भाव छुं एम लीधुं हतुं. ए तो एक ज वात छे. अहा! अंतर्मुख ज्ञाननी दशा एम जाणे अनुभवे छे के-हुं शुद्ध चैतन्यमात्र भाव छुं; खंडखंड भेद ते हुं नहि. जुओ, आ विकल्पनी वात नथी; आ तो स्वानुभव प्रत्यक्षनी वात छे. अहीं कहे छे-आ प्रमाणे प्रज्ञा वडे आत्माने अनुभववो अर्थात् पोताने चेतनार तरीके अनुभववो. भाई! आ कांई वादविवादथी पते एम नथी, आने माटे अंदरमां खूब होंश ने धीरज जोईए.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-


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* कळश १८२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा’ जे कांई भेदी शकाय छे ते सर्वने स्वलक्षणना बळथी भेदीने,...

शुं कहे छे? जुओ, अहीं विकारनी वात नथी, केमके ए तो आत्मानो भेद ज नथी. परंतु चैतन्यस्वरूपी एक ज्ञायकभाव प्रभु आत्मामां गुणभेद आदि जेटला भेद पडे छे ते सर्वने स्वलक्षणना बळथी भेदीने...

‘चिन्मुद्रा–अङ्कत–निर्विभागमहिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्मि’ जेनो चिन्मुद्राथी अंकित निर्विभाग महिमा छे एवो शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं.

चिन्मुद्रा-ज्ञान ने दर्शन ए आत्मानी मुद्रा नाम महोर-छाप छे. वळी ते (- आत्मा) एक अभेद जेनो चैतन्यरस छे एवो निर्विभाग (अभेद) महिमा-युक्त छे. अहाहा...! धर्मी जीव पोताने एम अनुभवे छे के-अभेद एक चैतन्य ज हुं छुं; खंडखंड भेदो ते हुं नहि. ए ज कहे छे-

‘यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम’ जो कारकोना अथवा धर्मोना अथवा गुणोना भेदो पडे, तो भले पडो; ‘विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति’ परंतु विभु एवा शुद्ध (समस्त विभावोथी रहित) चैतन्यभावमां कोई भेद नथी.

अहाहा...! सम्यग्दर्शननुं ध्येय एवा चिन्मात्र शुद्ध आत्मामां कर्ता-कर्म आदि कोई भेद नथी. ए प्रमाणे नित्य, अनित्य; एक, अनेक आदि अपेक्षित धर्मोना भेद पण शुद्ध वस्तुमां नथी. तेवी रीते ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत गुणोना भेद विभु एवा शुद्ध अचल चैतन्यभावमां नथी. अहाहा...! एक, नित्य, त्रिकाळी शाश्वत अखंड एकरूप ध्रुव सामान्य-सामान्य एवा ज्ञायकभावमात्र आत्मामां आ कोई भेदो नथी. सद्भूतव्यवहारनयथी षट्कारकना, नित्य-अनित्य आदि अपेक्षित धर्मोना ने ज्ञान आदि अनंत गुणोना भेदो छे, पण निश्चयथी विभु एवा शुद्ध चिन्मात्रभावमां कोई भेदो नथी. ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान ज्ञानना नूरनुं पूर एवा ज्ञानमात्र भूतार्थस्वभावमां कोई भेदो नथी.

लोको तो दया, दान आदि शुभराग करवाथी धर्म थई जशे एम मानीने व्यवहारमां अटकया छे. हवे ए वात तो कयांय रही गई; अहीं तो कहे छे-पर्यायमां षट्कारकना भेदो ऊभा थाय ए पण वस्तुमां नथी. आ कर्ता, आ कर्म-एवा भेद पर्यायमां उठे छे ते अभेद एकरूप वस्तुमां नथी.

कारको, धर्मो अने गुणोना भेदो जाणवा माटे छे, परंतु अंदर द्रष्टिना विषयमां जतां एमां कोई भेदो नथी. द्रव्यमां वस्तुमां भेद छे खरा, परंतु अभेद उपर द्रष्टि जतां


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अर्थात् निर्विकल्प अनुभव थतां भेद देखाता नथी, अभेद आत्मामां अनंत गुणो छे खरा, परंतु द्रष्टि अभेद उपर पडतां ते देखाता नथी. अने जो अभेदने छोडी भेदने जोवा जाय तो विकल्प-राग थया विना रहेतो नथी. अर्थात् भेदद्रष्टिमां राग ज थाय छे धर्म नहि.

ज्ञाननी एक समयनी पर्यायमां छ द्रव्यनुं ज्ञान थाय एटलुं सामर्थ्य छे, अने एवी एवी अनंत पर्यायोनो पिंड एक ज्ञानगुण छे; जेवो ज्ञानगुण छे एवा एवा अनंतगुणो अनंत पर्यायोना सामर्थ्यवाळा छे; अने एवा अनंत गुणनो अभेद एक पिंड आत्मद्रव्य छे. बापु! तें तारी मोटपनी (महिमानी) वातु सांभळी नथी तारी मोटप अंदरमां एवडी छे के भेद के कारकोना कारणोनी अपेक्षा एने छे नहि. अहा! आवी पोतानी अभेद वस्तुमां गुण-गुणी भेद पण लक्षमां लेवा जेवो नथी. आ गुण ने आ गुणी एवा भेदनुं पण लक्ष करवा जेवुं नथी, केमके एनाथी राग ज थाय छे.

समयसार गाथा ११मां पर्यायोने गौण करीने ‘व्यवहारो अभूदत्थो’ -एम कह्युं छे. जोके भूतार्थनो आश्रय पर्याय ले छे, छतां पर्यायने असत्यार्थ-अभूतार्थ कही छे. वळी त्यां भूदत्थो देसिदो दु सुद्धनओ ‘-शुद्धनय भूतार्थ छे एम कह्युं छे. जेमां नय अने नयनो विषय-एटलो भेद पण नथी तथा जेमां पर्याय अने पर्यायभेद नथी एवो शुद्ध आत्मा ए ज भूतार्थ छे. ए ज वात अहीं करी छे के-एक शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं.

आम प्रज्ञा वडे एटले के वर्तमान ज्ञाननी दशारूप अनुभव द्वारा आत्मा ग्रहण कराय छे-जणाय छे. तेमां शुद्ध आत्मा ते द्रव्य छे अने अनुभव ते पर्याय छे. आत्मा ज्ञाननी दशाना अनुभव द्वारा जणाय, छतां ते ज्ञाननी दशामां आवतो नथी, अने पर्याय पण द्रव्यमां एकमेक (तद्रूप) थती नथी. तथापि जाणे छे पर्याय केमके कार्य पर्यायमां थाय छे, ध्रुवमां नहि; ध्रुव तो अक्रिय छे.

हवे आवी वात कोईने न बेसे तो एनी साथे विरोध न होय; केमके वस्तुए तो बधा भगवान छे. द्रव्य अपेक्षाए तो ते साधर्मी छे. एक समयनी पर्यायमां भूल छे पण शुं थाय? शुद्ध द्रव्यना आश्रये ते नीकळी जवा योग्य छे. धर्मी पुरुषो तो सौने द्रव्यद्रष्टिथी ज जुए छे.

* कळश १८२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेमनुं स्वलक्षण चैतन्य नथी एवा परभावो तो माराथी भिन्न छे, मात्र शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं,

जुओ, आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावोमां चैतन्यलक्षणनो अभाव छे. अहा! ए परभावो बधा चैतन्यलक्षणथी खाली छे. आगळ गाथा ७२मां तेमने जड कह्या छे. एटले जेम आ शरीरना परमाणुओ जड छे तेम तेओ जड छे एम नहि, परंतु तेमां चैतन्यलक्षणनो अभाव छे माटे तेओ जड छे-एम कह्युं छे. अहा! पोते


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पोताने जाणे नहि, परने जाणे नहि; पण आत्मा वडे जणाय छे तेवा छे माटे तेओ जड छे. आटली तो स्पष्टता करी छे. पोते पोता वडे जणाता नथी माटे तेओ जड छे.

अहा! पाप भावो तो अचेतन जड छे ज; परंतु पुण्य भावो-देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, पंचमहाव्रतनो राग ने शास्त्र भणवानो भाव इत्यादि व्यवहाररत्नत्रयना भावो-पण अचेतन जड छे एम वात छे केमके एनामां चैतन्यलक्षण नथी. भाई! कोईपण राग जाणवालायक छे, पण आदरवा लायक नथी. आ न्याय छे. जेवुं जडचेतननुं स्वरूप छे एने ए रीते जाणवुं ए न्याय छे.

अरे! एने संसार-परिभ्रमणमां अनंतकाळ गयो. एमां अनंतवार एणे नग्न दिगंबर अवस्था धारी मुनिव्रत अंगीकार कर्यां. पण अरे! एणे सत्यने न्यायथी समजीने कदी लक्षमां लीधुं नहि! छहढालामां आवे छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायौ;
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेस न पायौ.”

आनो अर्थ ज ए थयो के बहारनुं द्रव्यलिंग ए कांई जैनना साधुनुं वास्तविक (निश्चय) लक्षण नथी. अट्ठवीस मूलगुण आदिनो शुभराग ते आत्माना चैतन्यलक्षणथी रहित छे. माटे एनाथी स्वभावनी प्राप्ति थवी संभवित नथी. भाई! चैतन्यलक्षणथी शून्य एवा शुभरागथी-व्यवहारथी निश्चयनी प्राप्ति न थाय. विकारथी निर्विकारी दशा न थाय. शोध भाई! तारी भूल शोध बापु! अनंतवार मुनिपणां लीधां तोय समकित न थयुं तो आ वीतरागनी वातने न्यायथी समजी भूल मटाडी दे. आ तो दिवा जेवी स्पष्ट वात छे के-

‘हुं तो मात्र शुद्ध चैतन्य ज छुं.’ चैतन्यमां ज्ञान ने दर्शन बेय लेवा. मात्र शुद्ध चैतन्य ज छुं-एम ‘ज’ कहीने सम्यक् एकान्त कर्युं छे. कथंचित् राग छुं ने कथंचित् चैतन्य छुं एम नहि, शुद्ध चैतन्य ज छुं. जुओ, आ धर्मी पुरुषनी द्रष्टि!

हवे कहे छेः- ‘कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणरूप कारकभेदो सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेदो अने ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेदो जो कथंचित् होय तो भले हो; परंतु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां तो कोई भेद नथी.’

शुं कीधुं? परभावो तो माराथी भिन्न छे ज; परंतु चैतन्यनी परिणति-अवस्था, एना जे षट्कारको छे ए पण हुं नथी. चेतन परिणतिनो कर्ता चेतन परिणति, चेतन परिणति पोते कर्म, चेतन परिणतिनुं साधन चेतन परिणति इत्यादि आवा पर्यायना अभिन्न छ कारकना भेदो छे खरा, पण ते मारामां नथी.

बीजी वातः- हुं पोताथी छुं, परथी नथी; हुं द्रव्ये नित्य छुं, अवस्थाए