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अनित्य छुं; वस्तुपणे हुं एक छुं, भेद अपेक्षाए अनेक छुं-एवा अपेक्षित धर्मो कथंचित्- व्यवहारथी होय तो भले होय पण शुद्ध चैतन्यमात्र एवा मारामां निश्चये कोई भेद नथी. अहीं धर्म एटले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्मनी वात नथी, तेम ज गुणनी पण वात नथी, पण अपेक्षित स्वभावोने अहीं धर्म कह्या छे. सत् नाम पोताथी छे, असत् नाम परथी नथी-आवा वस्तुना अपेक्षित स्वभावने अहीं धर्म कीधो छे. एने पर्याय होती नथी, गुणो वस्तुमां त्रिकाळ होय छे अने एने पर्याय होय छे. आ प्रमाणे गुण अने धर्ममां फेर छे. एक अने अनेक गुण पण छे. समयसारमां ४७ शक्तिना वर्णनमां आ बन्नेने गुणोमां लीधा छे. पण अहीं एक, अनेक अपेक्षित धर्मनी वात लेवी छे.
हवे त्रीजी वातः- ज्ञान, दर्शन आदि गुणो आत्मामां त्रिकाळ छे. ज्ञानगुण, दर्शनगुण, आनंदगुण, अस्तित्वगुण, प्रभुत्वगुण, कर्ता, कर्म, करण आदि छ गुण इत्यादि अनंतगुण आत्मामां त्रिकाळ छे. एनी वर्तमान पर्याय पण होय छे. ज्ञानगुणने ज्ञानगुणना लक्षथी जोवामां आवे तो ते छे, पण शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुमां एवा गुणभेद नथी-एम कहे छे.
शुं कहे छे? छ कारकना भेदो, सत्-असत् आदि धर्मभेदो तथा ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेदो जाणवा माटे हो तो भले हो, परंतु आदरवा माटे ए कोई भेदो नथी. अहा! धर्मनुं पहेलुं पगथियुं जे सम्यग्दर्शन एना विषयरूप शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां आ कोई भेदो नथी. अहीं शुद्ध चैतन्यमात्र कहीने बधा भेदो काढी नाख्या छे. अहो! आवो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव एक सम्यग्दर्शननो विषय छे, ध्येय छे.
तेथी कहे छे- ‘आम शुद्धनयथी अभेदरूप आत्माने ग्रहण करवो.’ आ अभेद छे एटलो भेद-विकल्प पण नहि, पण द्रष्टि अभेद-एकमां अंदरमां जाय छे एने अभेद कहे छे. आ द्रष्टि अने आ द्रष्टिनो विषय एम भेद नहि पण द्रष्टि शुद्ध चैतन्य उपर रहे ते अभेदनी द्रष्टि छे अने ए रीते अभेद एक आत्मानुं ग्रहण थाय छे. आ सामान्य अभेद छे एम विकल्प नहि, परंतु पर्याय पर तरफ झुकती हती ते अंदर अभेद एक सामान्य तरफ गई तेने अभेदनो अनुभव कहेवामां आवे छे. ल्यो, आनुं नाम समकित अने आ धर्म छे. बाकी तो बधां थोथां छे.
कारक भेदो, धर्मभेदो अने गुणभेदोने जाणवा ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे अने व्यवहाररत्नत्रयने जाणवो ते उपचरित असद्भूत व्यवहारनय छे. शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुने अनुभववी ते शुद्धनय छे.
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अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।। २९८।।
पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।। २९९।।
अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः।। २९८।।
प्रज्ञया गृहीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः।
अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः।। २९९।।
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर–जाणवुं. २९८.
प्रज्ञाथी ग्रहवो–निश्चये जे जाणनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर–जाणवुं. २९९.
गाथार्थः– [प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [गृहीतव्यः] एम ग्रहण करवो के- [यः द्रष्टा] जे देखनारो छे [सः तु] ते [निश्चयतः] निश्चयथी [अहम्] हुं छुं, [अवशेषाः] बाकीना [ये भावाः] जे भावो छे [ते] ते [मम पराः] माराथी पर छे [इति ज्ञातव्याः] एम जाणवुं.
[प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [गृहीतव्यः] एम ग्रहण करवो के- [यः ज्ञाता] जे जाणनारो छे [सः तु] ते [निश्चयतः] निश्चयथी [अहम्] हुं छुं, [अवशेषाः] बाकीना [ये भावाः] जे भावो छे [ते] ते [मम पराः] माराथी पर छे [इति ज्ञातव्याः] एम जाणवुं.
टीकाः– चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोने उल्लंघती नहि होवाथी, चेतकपणानी माफक दर्शकपणुं अने ज्ञातापणुं आत्मानुं स्वलक्षण ज छे. माटे हुं देखनारा आत्माने ग्रहण करुं छुं. ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘देखुं ज छुं’; देखतो ज (अर्थात् देखतो थको ज) देखुं छुं, देखता वडे ज देखुं छुं, देखता माटे ज देखुं छुं, देखतामांथी ज देखुं छुं, देखतामां ज देखुं छुं, देखताने ज देखुं छुं, अथवा-नथी देखतो; नथी देखतो थको देखतो, नथी देखता वडे देखतो, नथी देखता माटे देखतो, नथी
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देखतामांथी देखतो, नथी देखतामां देखतो, नथी देखताने देखतो; परंतु सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव छुं. वळी एवी ज रीते-हुं जाणनारा आत्माने ग्रहण करुं छुं, ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘जाणुं ज छुं’; जाणतो ज (अर्थात् जाणतो थको ज) जाणुं छुं, जाणता वडे ज जाणुं छुं, जाणता माटे ज जाणुं छुं, जाणतामांथी ज जाणुं छुं, जाणतामां ज जाणुं छुं, जाणताने ज जाणुं छुं. अथवा-नथी जाणतो; नथी जाणतो थको जाणतो, नथी जाणता वडे जाणतो, नथी जाणता माटे जाणतो, नथी जाणतामांथी जाणतो, नथी जाणतामां जाणतो, नथी जाणताने जाणतो; परंतु सर्वविशुद्ध ज्ञप्तिमात्र (जाणनक्रियामात्र) भाव छुं. (आम देखनारा आत्माने तेम ज जाणनारा आत्माने कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणरूप कारकोना भेदपूर्वक ग्रहण करीने, पछी कारकभेदोनो निषेध करी आत्माने अर्थात् पोताने दर्शनमात्र भावरूपे तेम ज ज्ञानमात्र भावरूपे अनुभववो अर्थात् अभेदरूपे अनुभववो.)
(भावार्थः– आ त्रण गाथाओमां, प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण करवानुं कह्युं छे. ‘ग्रहण करवुं’ एटले कोई अन्य वस्तुने ग्रहवानी-लेवानी नथी; चेतनानो अनुभव करवो, ते ज, आत्मानुं ‘ग्रहण करवुं’ छे.
प्रथमनी गाथामां सामान्य चेतनानो अनुभव कराव्यो हतो. त्यां, अनुभव करनार, जेनो अनुभव करवामां आवे ते, जेना वडे अनुभव करवामां आवे ते-इत्यादि कारकभेदरूपे आत्माने कहीने, अभेदविवक्षामां कारकभेदनो निषेध करी, आत्माने एक शुद्ध चैतन्यमात्र कह्यो हतो.
हवे आ बे गाथाओमां द्रष्टा अने ज्ञातानो अनुभव कराव्यो छे, कारण के चेतनासामान्य दर्शनज्ञानविशेषोने उल्लंघती नथी. अहीं पण, छ कारकरूप भेद-अनुभवन करावी, पछी अभेद-अनुभवननी अपेक्षाए कारकभेद दूर करावी, द्रष्टाज्ञातामात्रनो अनुभव कराव्यो छे.)
टीकाः– अहीं प्रश्न थाय छे के-चेतना दर्शनज्ञानभेदोने केम उल्लंघती नथी के जेथी चेतनारो द्रष्टा तथा ज्ञाता होय छे? तेनो उत्तर कहेवामां आवे छेः- प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप छे. ते चेतना द्विरूपताने अर्थात् बे-रूपपणाने उल्लंघती नथी, कारण के समस्त वस्तुओ सामान्यविशेषात्मक छे. (बधीये वस्तुओ सामान्य-विशेषस्वरूप छे, तेथी तेमने प्रतिभासनारी चेतना पण बे-रूपपणाने उल्लंघती नथी.) तेनां जे बे रूपो छे ते दर्शन अने ज्ञान छे. माटे ते तेमने (-दर्शनज्ञानने) उल्लंघती नथी. जो चेतना दर्शन ज्ञानने उल्लंघे तो सामान्यविशेषने उल्लंघवाथी चेतना ज न होय (अर्थात् चेतनानो अभाव थाय). तेना अभावमां बे दोष आवे- (१) पोताना गुणनो नाश थवाथी चेतनने अचेतनपणुं आवी पडे, अथवा
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तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत्।
तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापका–
दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित्।। १८३।।
(र) व्यापकना (-चेतनाना-) अभावमां व्याप्य एवा चेतननो (आत्मानो) अभाव थाय. माटे ते दोषोना भयथी चेतनाने दर्शनज्ञानस्वरूप ज अंगीकार करवी.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [जगति हि चेतना अद्वैता] जगतमां खरेखर चेतना अद्वैत छे [अपि चेत् सा द्रग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्] तोपण जो ते दर्शनज्ञानरूपने छोडे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्] तो सामान्यविशेषरूपना अभावथी [अस्तित्वम् एव त्यजेत्] (ते चेतना) पोताना अस्तित्वने ज छोडे; [तत्–त्यागे] एम चेतना पोताना अस्तित्वने छोडतां, (१) [चितः अपि जडता भवति] चेतनने जडपणुं आवे अर्थात् आत्मा जड थई जाय. [च] अने (र) [व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति] व्यापक विना (-चेतना विना-) व्याप्य जे आत्मा ते नाश पामे (-आम बे दोष आवे छे). [तेन चित् नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु] माटे चेतना नियमथी दर्शनज्ञानरूप ज हो.
भावार्थः– समस्त वस्तुओ सामान्यविशेषात्मक छे. तेथी तेमने प्रतिभासनारी चेतना पण सामान्यप्रतिभासरूप (-दर्शनरूप) अने विशेषप्रतिभासरूप (-ज्ञानरूप) होवी जोईए. जो चेतना पोतानी दर्शनज्ञानरूपताने छोडे तो चेतनानो ज अभाव थतां, कां तो चेतन आत्माने (पोताना चेतनागुणनो अभाव थवाथी) जडपणुं आवे, अथवा तो व्यापकना अभावथी व्याप्य एवा आत्मानो अभाव थाय. (चेतना आत्मानी सर्व अवस्थाओमां व्यापती होवाथी व्यापक छे अने आत्मा चेतन होवाथी चेतनानुं व्याप्य छे. तेथी चेतनानो अभाव थतां आत्मानो पण अभाव थाय.) माटे चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ज मानवी.
अहीं तात्पर्य एवुं छे के-सांख्यमती आदि केटलाक लोको सामान्य चेतनाने ज मानी एकांत कहे छे, तेमनो निषेध करवा माटे ‘वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषरूप छे तेथी चेतनाने सामान्यविशेषरूप अंगीकार करवी’ एम अहीं जणाव्युं छे. १८३.
हवे आगळना कथननी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-
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भावाः परे ये किल ते परेषाम्।
ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो
भावाः परे सर्वत एव हेयाः।। १८४।।
श्लोकार्थः– [चितः] चैतन्यनो (आत्मानो) तो [एकः चिन्मयः एव भावः] एक चिन्मय ज भाव छे, [ये परे भावाः] जे बीजा भावो छे [ते किल परेषाम्] ते खरेखर परना भावो छे; [ततः] माटे [चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः] (एक) चिन्मय भाव ज ग्रहण करवायोग्य छे, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः] बीजा भावो सर्वथा छोडवायोग्य छे. १८४.
‘आत्माने शुद्ध चैतन्यमात्र तो ग्रहण कराव्यो; हवे सामान्य चेतना दर्शन- ज्ञानसामान्यमय होवाथी अनुभवमां दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माने आ प्रमाणे अनुभववो- एम कहे छेः-’ चेतन द्रव्यनुं लक्षण जे चेतना छे ते ज्ञानदर्शनरूपे बे स्वरूपे छे. माटे दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माने आ प्रमाणे अनुभववो-एम गाथामां कहे छेः-
‘चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोने उल्लंघती नहि होवाथी, चेतकपणानी माफक दर्शकपणुं अने ज्ञातापणुं आत्मानुं स्वलक्षण ज छे.’
अभेदथी सामान्यपणे जेने चेतना कहेवामां आवे छे ते ज चेतना ज्ञान अने दर्शन एवा भेदथी बे प्रकारे-स्वरूपे छे. चेतना आत्मानुं लक्षण छे एम कहेतां राग के जे बंधनुं लक्षण छे तेनुं ते उल्लंघन करे छे, अर्थात् राग आत्माथी भिन्न छे एम सिद्ध करे छे परंतु ते चेतना, दर्शन अने ज्ञानरूप भेदो के जे आत्माना गुणो-स्वभावो छे तेनुं उल्लंघन करती नथी. ज्ञान अने दर्शन गुणो अर्थात् सामान्यपणे चेतना ए तो आत्मानो स्वभाव छे. चैतन्यस्वरूपी आत्मानो एक ज्ञान ज स्वभाव छे एम नथी. दर्शन अने ज्ञान बन्ने एना स्वभावो छे. माटे चेतकपणानी जेम दर्शन अने ज्ञान बन्ने आत्मानुं स्वलक्षण ज छे. अनुभवमां ज्ञान अने दर्शन बन्ने आवे छे.
सनातन दिगंबर मार्ग सिवाय अन्यमतमां एम कहे छे के ज्ञान अने दर्शन
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उपयोग बन्ने एक ज छे. परंतु एम छे नहि; बन्ने उपयोग भिन्न भिन्न छे-एम अहीं कहे छे.
वळी श्वेतांबरमतवाळा एम कहे छे के-केवळीने एक समये एक ज उपयोग होय; ज्यारे दर्शन-उपयोग होय त्यारे ज्ञान-उपयोग न होय अने ज्ञान-उपयोग होय त्यारे दर्शन-उपयोग न होय. परंतु आ वात सत्यार्थ-यथार्थ नथी. केवळी परमात्माने एक ज समयमां केवळदर्शन अने केवळज्ञान एम बन्ने उपयोग साथे ज होय छे.
अल्पज्ञ होवाथी छद्मस्थने उपयोग क्रमे होय छे. तेने दर्शनपूर्वक ज्ञान-उपयोग होय छे. छद्मस्थने एक समयमां बन्ने उपयोग साथे होता नथी; परंतु केवळी परमात्मा तो एक समयमां परिपूर्ण दशाने पाम्या छे, माटे तेमने तो एक ज समयमां ज्ञान अने दर्शन उपयोग एक साथे ज होय छे.
चेतकपणानी जेम दर्शकपणुं अने ज्ञातापणुं आत्माने स्वलक्षण ज छे. ‘माटे हुं देखनारा आत्माने ग्रहण करुं छुं,’ “ग्रहण करुं छुं” एटले “देखुं ज छुं”;...’ जुओ, आ सामान्य वात करी, हवे षट्कारकना भेद पाडी तेने ज विशेष समजावे छे-
‘देखतो ज (अर्थात् देखतो थको ज) देखुं छुं, देखता वडे ज देखुं छुं, देखता माटे ज देखुं छुं, देखतामांथी ज देखुं छुं, देखतामां ज देखुं छुं, देखताने ज देखुं छुं.’
जुओ, आवा कर्ता, कर्म, करण आदि छ भेद विचार करतां प्रथम पडे छे, परंतु भेदथी विचार करतां तो आत्मामां विकल्प-राग ज उत्पन्न थाय छे. माटे सम्यग्द्रष्टि ए छ भेदनुं लक्ष (के जे सद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे) पण छोडी एक अभेद आत्माने ज ग्रहण करे छे. अहा! दया, दान आदि राग तो हुं नहि पण कारकना आ छ भेद पण मारामां नथी एम जाणतो धर्मी छ भेदनुं लक्ष छोडी दे छे. केवी रीते-ते हवे समजावे छेः-
‘अथवा-नथी देखतो; नथी देखतो थको देखतो, नथी देखता वडे देखतो, नथी देखता माटे देखतो, नथी देखतामांथी देखतो, नथी देखतामां देखतो, नथी देखताने देखतो; परंतु सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव छुं’ .
नथी देखतो ए सामान्य कह्युं. नथी देखतो थको देखतो ए कर्तानो भेद, नथी देखता वडे देखतो ए करणनो भेद, नथी देखता माटे देखतो ए संप्रदाननो भेद, नथी देखतामांथी देखतो ए अपादाननो भेद, नथी देखतामां देखतो ए आधारनो भेद, नथी देखताने देखतो ए कर्मनो भेद-आम छ भेदना निषेधपूर्वक हुं
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सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव छुं-एम धर्मी सम्यग्दर्शन विषयनी भावना करे छे-एटले के निर्विकल्प अनुभव करे छे. अहा! सम्यग्दर्शननो विषय अभेद एक सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव छे अने एमां षट्कारकना भेद नथी. अभेद एक दर्शनमात्र वस्तुनी द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे. सूक्ष्म वात छे भाई!
जुओ, हवे पछी सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार आववानो छे ने? एना उपोद्घातनी अहींथी शरूआत करे छे. हुं देखतो ज देखुं छुं, हुं देखताने ज देखुं छुं, हुं देखता वडे ज देखुं छुं इत्यादि कर्ता, कर्म, करण आदि भेद रागनुं-विकल्पनुं कारण छे. ए अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे. अहीं कहे छे-ए भेदो हुं नहि, हुं तो सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव छुं. अहाहा...! एक अभेद दष्टास्वभावभाव ए ज हुं छुं. ल्यो, अंतरमां आवा अभेद आत्मानी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. अहा! आवा सम्यग्दर्शनथी एने धर्मनी शरूआत थाय छे. आ ज वीतरागनो मारग छे भाई! आ समज्या विना लाख क्रियाकांड करे तोय एनाथी धर्म थतो नथी.
आवी ज रीते हवे ज्ञानथी समजावे छेः-
‘वळी एवी ज रीते-हुं जाणनार आत्माने ग्रहण करुं छुं. “ग्रहण करुं छुं” एटले “जाणुं ज छुं.” आ सामान्य वात करी. हवे षट्कारकना भेद पाडी विशेष समजावे छे-
‘जाणतो ज जाणुं छुं’ -ए कर्ता. आ हजु भेद-विकल्प छे; ‘जाणता वडे ज जाणुं छुं’ -आ करण. निमित्त के भेद वडे जाणुं छुं एम नहि. ‘जाणता माटे ज जाणुं छुं’ -ए संप्रदान, ‘जाणतामांथी ज जाणुं छुं’ ए अपादान, ‘जाणतामां ज जाणुं छुं’ -ए आधार, ‘जाणताने ज जाणुं छुं-ए कर्म-आ प्रमाणे छ कारकोना भेदना विचार प्रथम आवे छे खरा पण भेदनुं लक्ष करतां तो विकल्प-राग ज उत्पन्न थाय छे. तेथी भेदनुं लक्ष छोडी समकिती पुरुष अभेद एक ज्ञानमात्र वस्तु आत्माने ज ग्रहण करे छे. ते केवी रीते? तो कहे छे-
‘अथवा-नथी जाणतो; नथी जाणतो थको जाणतो, नथी जाणता वडे जाणतो, नथी जाणता माटे जाणतो, नथी जाणतामांथी जाणतो, नथी जाणतामां जाणतो, नथी जाणताने जाणतो; परंतु सर्वविशुद्ध ज्ञप्तिमात्र (जाणनक्रियामात्र) भाव छुं’
जोयुं? छ कारकोना भेदोने आ प्रमाणे रद कर्या अर्थात् द्रष्टिमांथी छोडी दीधा अने हुं तो अभेद एक सर्वविशुद्ध ज्ञप्तिमात्र भाव छुं-एम ज्ञाननी क्रियाने ज्ञानस्वभावमां जोडी दीधी. अहा! जाणनस्वभावमात्र हुं छुं-एम अभेद एक आत्मानी द्रष्टि थतां पर्यायमां पण जाणनस्वभाव एकलो आव्यो, राग ने भेद न आव्यो. (राग ने भेद
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ते हुं आत्मा एम न आव्युं) आनुं नाम धर्म छे. आत्मा त्रिकाळ जाणनस्वभावमात्र छे एम जाणतां (-ज्ञाननी पर्यायमां भगवान त्रिकाळीने उपादेय करतां) पर्यायमां पण जाणनस्वभावनी परिणति प्रगट थाय छे. आ सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.
अहा! आत्मानुं अस्तित्व केटलुं अने कया प्रकारे छे ए जाणीने अंदर त्रिकाळी एक अभेदनी द्रष्टि करे त्यारे एने सत्यद्रष्टि-सम्यग्द्रष्टि कहे छे. अहीं कहे छे-आ सद्भूत व्यवहारनयनो विषय जे कारकना भेदो ए हुं नहि, हुं तो सर्वविशुद्ध ज्ञप्तिमात्र भाव छुं. ज्ञप्तिमात्र छुं-एम कहीने राग अने सर्व भेद-विकल्पनो निषेध कर्यो छे. अहाहा...! एकला जाणन-जाणनस्वभावी अभेद एकरूप आत्मानी द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन छे.
अरे! लोको तो माने छे के व्यवहारथी निश्चय थाय, रागथी वीतरागता थाय. परंतु भाई! राग ए तो असद्भूत व्यवहार छे. जो तो खरो, अहीं तो सद्भूत व्यवहारनोय निषेध कर्यो छे. अहीं कहे छे-निर्मळ कारकोना भेदनो विचार प्रथम आवे छे खरो, आव्या विना रहेतो नथी, पण ज्यां सुधी भेदनुं लक्ष रहे छे त्यां सुधी निश्चय धर्म प्रगट थतो नथी. बापु! वस्तुनुं निश्चय स्वरूप ज एवुं छे के तेने कोई व्यवहारनी के भेदनी अपेक्षा नथी. श्री नियमसार गाथा ३ मां कह्युं छे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग परम निरपेक्ष छे अर्थात् परनी अपेक्षा विना निरपेक्ष प्रगट थाय छे.
अहा! लोकोने अभ्यास नहि ने सत्ने समजवानी दरकार नहि एटले आवुं भगवाने कहेलुं अने संतोए प्रसिद्ध करेलुं सत्नुं स्वरूप समजवुं कठण लागे छे. एटले अज्ञानवश जीवो एम मानी बेठा छे के-बीजानी दया पाळवी, व्रत करवां, सामायिक करवी, पोसह करवो, प्रतिक्रमण करवुं इत्यादि रागनी क्रियाओ करवी ते धर्म छे. तेने संतो कहे छे-बापु! तने खबर नथी पण जेने तुं माने छे ते साचुं सामायिक नथी, अने पोसह पण नथी. अहा! अंदर राग विनानो जे अभेद एक चैतन्यमात्र चिदानंद प्रभु आत्मा विराजे छे तेना आश्रये अनुभव थतां प्रथम सम्यग्दर्शनमां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय छे अने त्यार बाद ए ज स्वस्वरूपमां विशेष लीनता-रमणता थाय तेने सामायिक कहे छे. जेमां समतानो लाभ थाय तेने सामायिक कहे छे. हवे आवुं धर्मनुं वास्तविक स्वरूप बिचाराए कदी सांभळ्युंय न होय. देह तो छूटी जाय ने जिंदगी (- अवसर) एम ने एम (-व्यर्थ) चाली जाय.
अहीं कहे छे-आ प्रमाणे देखनार-जाणनार आत्माने कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरणरूप कारकोना भेदपूर्वक ग्रहण करीने एटले के प्रथम ज्ञानमां भेदपूर्वक जाणीने, पछी कारकभेदोने दूर करीने एटले के भेदोनुं लक्ष छोडीने आत्माने
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अर्थात् पोताने शुद्ध एक दर्शनमात्रभावरूपे तेम ज ज्ञानमात्रभावरूपे अनुभववो आ रीते अभेदना अनुभवने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कहे छे.
‘आ त्रण गाथाओमां प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण करवानुं कह्युं छे. “ग्रहण करवुं”-एटले कोई अन्य वस्तुने ग्रहवानी-लेवानी नथी; चेतनानो अनुभव करवो, ते ज आत्मानुं “ग्रहण करवुं” छे.’
सत् चित् जे आत्मा ते वस्तु, एनो त्रिकाळी जे चैतन्यभाव ते स्वभाव; एनी सन्मुख थई वर्तमानमां आ चैतन्यमात्र भाव ते हुं-एम अनुभववो एनुं नाम आत्मानुं ‘ग्रहण करवुं’ छे. चित् ए द्रव्य-स्वभाव, चेतना ए गुणस्वभाव अने अनुभव करवो ते पर्यायस्वभाव-एम द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणे आवी गयां. अहा! जेने धर्म करवो छे अर्थात् सुखी थवुं छे तेणे निमित्त, राग ने भेदनी द्रष्टि दूर करीने, ए सर्वथी विमुख थई अभेद एक चैतन्यमात्र आत्मामां ज द्रष्टि एकाग्र करवी जोईए. भाई! आ ज एक मार्ग छे; बाकी बधां थोथां छे.
आ पहेलां गाथा २९७ना भावार्थमां आवी गयुं के-जेनुं स्वलक्षण चैतन्य नथी एवा परभावो लक्ष्य एवा आत्माथी भिन्न छे. अहा! आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभाव अथवा हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदिना अशुभभाव-ए सर्व भाव चैतन्यथी रहित होवाथी भगवान आत्माथी भिन्न छे. भिन्न छे एटले शुं? के एनाथी अंतर-अनुभव, शुद्ध आत्मानो अनुभव न थाय, अर्थात् तेओ आदरणीय नथी. व्यवहारना शुभभाव आदरणीय नथी. व्यवहार होय खरो, पण ते आदरणीय नथी. जे चैतन्यस्वभाव नथी ते विभाव छे, अने विभाव स्वभावनुं साधन केम होय? न होय. माटे शुभभाव धर्मनुं साधन नथी. जेम अग्निनो त्रिकाळ उष्णस्वभाव छे, साकरनो मीठाश कायमी स्वभाव छे तेम भगवान आत्मानो त्रिकाळ चैतन्यस्वभाव छे. अहा! आवा त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभावनो अनुभव करवो ते धर्म छे. व्यवहार रत्नत्रयनो राग हो भले, पण ए धर्म नथी. आवी सूक्ष्म वात!
अहीं तो निर्मळ कारकोना भेदने पण दूर करे छे. अहा! चैतन्यनी निर्मळ पर्याय कर्ता, निर्मळ पर्याय कर्म, निर्मळ पर्याय करण इत्यादि षट्कारकना परिणमनमां लक्ष जाय ते व्यवहार छे. भेद पडे छे ने? माटे ए व्यवहार छे. ए भेदनुं लक्ष छोडी चैतन्यप्रकाशनो पुंज एवा अभेद एक शुद्ध अंतःतत्त्वनी द्रष्टि करवी ए सम्यग्दर्शन छे अने एनो ए सौ पहेलामां पहेलो धर्म छे. पहेलुं शुं करवुं एम पूछे छे ने? पहेलुं आ करवुं एम वात छे.
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हवे कहे छे- ‘प्रथमनी गाथामां सामान्य चेतनानो अनुभव कराव्यो हतो. त्यां, अनुभव करनार, जेनो अनुभव करवामां आवे ते, जेना वडे अनुभव करवामां आवे ते-इत्यादि कारकभेदरूपे आत्माने कहीने, अभेदविवक्षामां कारकभेदनो निषेध करी, आत्माने एक शुद्ध चैतन्यमात्र कह्यो हतो.’
प्रथम छ कारकना भेद पाडी समजाव्युं हतुं, पछी भेदनो निषेध करी अभेदनो अनुभव कराव्यो. केमके भेदनी द्रष्टिमां अभेदनो अनुभव थतो नथी, तेथी भेदने गौण करी अभेदनी-शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुनी द्रष्टि करावी.
‘हवे आ बे गाथाओमां द्रष्टा अने ज्ञातानो अनुभव कराव्यो छे, कारण के चेतनासामान्य दर्शनज्ञानविशेषोने उल्लंघती नथी. अहीं पण, छ कारकरूप भेद-अनुभवन करावी. पछी अभेद-अनुभवननी अपेक्षाए कारकभेद दूर करावी, द्रष्टा-ज्ञातामात्रनो अनुभव कराव्यो छे.’
अहा! वीतराग जैनदर्शनमां एक वीतरागभाव ज धर्म छे. ए वीतरागभाव केम प्रगट थाय? तो कहे छे के-आत्मा त्रिकाळी सत् शाश्वत् शुद्ध सदा चैतन्यस्वरूप छे. एने भेदथी कहीए तो ते दर्शनज्ञानस्वभावी छे, ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप छे. माटे दर्शन- ज्ञानस्वभावी आत्माने जाणी अंतरमां अभेद एक आत्मस्वरूपनो अनुभव करवो ते धर्म छे. आ वात हवे टीकामां विशेष समजावे छेः-
‘अहीं प्रश्न थाय छे के-चेतना दर्शनज्ञानभेदोने केम उल्लंघती नथी के जेथी चेतनारो द्रष्टा तथा ज्ञाता होय छे?’
जुओ, आ प्रश्न! एम के आत्मा चेतनद्रव्य वस्तु, अने एनो स्वभाव चेतनागुण-ते दर्शनज्ञान भेदोनुं उल्लंघन केम करतो नथी? अर्थात् चेतना एकरूप केम नहि? चेतना बेरूप केम? जेथी चेतनारो द्रष्टा तथा ज्ञाता थाय छे ते चेतनामां बे स्वभावपणुं केम? तेनो उत्तर कहेवामां आवे छेः-
‘प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप छे.’ शुं कीधुं? के चेतनामां जगतनी चीजो सामान्यविशेषपणे प्रतिभासे छे. एटले शुं? के चेतनामां जगतनी चीजो सामान्य (अभेदपणे) देखाय छे अने विशेष (भेदपणे) जणाय छे. समजाणुं कांई...? अहीं एम कहे छे के-आत्मा एक वस्तु छे, चेतना एनो स्वभाव-गुण छे. एनी पर्यायमां स्व अने परनो प्रतिभास एटले के सामान्य देखवापणुं ने विशेष जाणवापणुं थाय छे. अहाहा...! जेटली चीजो सामे होय तेनुं चेतनामां सामान्य अने विशेषपणे देखवा-जाणवापणुं थाय छे.
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आथी, ‘ते चेतना द्विरूपताने अर्थात् बे-रूपपणाने उल्लंघती नथी, कारण के समस्त वस्तुओ सामान्यविशेषात्मक छे. तेनां जे बे रूपो छे ते दर्शन अने ज्ञान छे. माटे ते तेमने उल्लंघती नथी.’
जोयुं? सर्व वस्तुओ एटले बधा आत्मा ने जड द्रव्यो, द्रव्य तरीके वस्तुपणे सामान्य छे अने गुणपर्यायपणे विशेष छे. आ रीते प्रत्येक वस्तुनो सामान्य-विशेष स्वभाव छे. ते समस्त वस्तुओनो ज्ञानदर्शननी पर्यायमां प्रतिभास थाय छे. आ प्रमाणे आत्मामां चेतना स्वभाव सामान्यपणे दर्शन अने विशेषपणे ज्ञान एम बे-रूपे छे. अहा! समस्त वस्तुओने प्रतिभासनारां दर्शन अने ज्ञान ए चैतन्यमय आत्मानो स्वभाव छे, माटे चेतना तेमने उल्लंघती नथी. हवे कहे छेः-
‘जो चेतना दर्शन-ज्ञानने उल्लंघे तो सामान्यविशेषने उल्लंघवाथी चेतना ज न होय (अर्थात् चेतनानो अभाव थाय.) .’
शुं कीधुं? के जो चेतनामां सामान्य ने विशेषरूप प्रतिभासवानी शक्ति ज न होय अर्थात् देखवा-जाणवारूप शक्ति ज न होय तो चेतनानो अभाव थई जाय. तेना अभावमां बे दोष आवे-
१. ‘पोताना गुणनो नाश थवाथी चेतनने अचेतनपणुं आवी पडे, अथवा
२. व्यापकना (-चेतनाना) अभावमां व्याप्य एवा चेतननो (आत्मानो) अभाव थाय.’
जुओ, आ न्याय आप्यो. न्यायमां ‘नी’ (नय्) धातु छे; एटले के जेवी वस्तु छे ए तरफ (तेवी जाणवारूप) ज्ञानने दोरी जवुं तेने न्याय कहे छे. शुं कहे छे? के चेतना ज्ञान अने दर्शन बेपणे न होय तो चेतना गुणनो अभाव थई जाय अने गुणनो अभाव थतां, जेम साकरमां मीठाशनो नाश थतां साकरनो नाश थई जाय तेम आत्मानो नाश थई जाय; अर्थात् चेतनने अचेतनपणुं आवी पडे.
जो चेतना गुणनो अभाव थई जाय तो व्यापक चेतनाना अभावमां व्याप्य एवा चेतननो अभाव थाय. जुओ, चेतना गुण ते व्यापक एने आत्मा व्याप्य छे. अहीं आत्मा व्यापक अने पर्याय तेनुं व्याप्य ए वात नथी लेवी. गुण व्यापक ने त्रिकाळी द्रव्य-आत्मा ते व्याप्य एम अहीं कहेवुं छे; केमके गुण आत्मामां व्यापीने कायम रहे छे ने? माटे चेतना गुण व्यापक अने आत्मा व्याप्य एम कह्युं छे. अहा! त्रिकाळ ज्ञाता- द्रष्टा स्वभाव ते व्यापक थयो ने आत्मा एनुं व्याप्य थयुं. हवे व्यापक एवा चेतनानो- ज्ञाताद्रष्टा स्वभावनो अभाव थाय तो व्याप्य एवो आत्मा ज न रहे-आम दोष-आपत्ति आवी पडे.
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‘माटे ते दोषोना भयथी चेतनाने दर्शनज्ञानस्वरूप ज अंगीकार करवी.’ कहे छे-चेतनाने दर्शनज्ञानस्वरूप एम बे-रूप यथार्थ जाणीने अभेद एक ज्ञाताद्रष्टा स्वभावनो अनुभव करवो, अने राग ने पर्यायनुं लक्ष छोडवुं. आनुं नाम निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे एम भगवान कहे छे.
अरे! लोको तो बिचारा संसारमां धंधा-वेपार आदिथी नवरा ज पडता नथी. आखो दि’ एकला पापमां रच्यापच्या रहे छे. एवा जीवोने कदाचित् बे-पांच करोड एकठा थई जाय तोय शुं? तेओ बिचारा ज छे, रांका-भिखारा ज छे. शास्त्रमां आवा जीवोने ‘वराकाः’ वराका कह्या छे.
आटला बधा पैसा होय तोय? हा, तोय; केमके अंदर पोते चैतन्यलक्ष्मी ज्ञानानंदनी लक्ष्मीनो पूरण भंडार छे एनुं एने क्यां भान छे? अहा! पोतानी स्वरूपलक्ष्मीना भान विना बहारमां धनादि वैभवनो गमे तेटलो संयोग होय ते शुं कामनो? अंदर संतोष ने तृप्ति तो छे नहि. लाव-लाव-लाव एम वृत्तिमां तो तृष्णा ज रह्या करे छे. माटे तेओ रांका-वराका ज छे. समजाणुं कांई...?
अरे! आ पैसा मारा ने हुं ते कमायो एवी ममता करी करीने जीवो बिचारा मरी जाय छे (दुःखी थाय छे).
एक प्रतिष्ठित गृहस्थ जैनमां जन्मेला छतां अंबाजीने खूब मानता; एम के आ धनसंपत्ति अंबाजीथी मळी छे. अरे भाई! लक्ष्मी आदि संयोग तो पूर्वे जे शुभभाव कर्या हता अने ते काळे जे शुभबंध पडयो हतो ते उदयमां आवतां संयोगरूपे मळे छे. ए कांई कोईनी (माता वगेरेनी) मानता करवाथी मळे छे एम नथी. भाई! कोईनीय मानता करवाथी लक्ष्मी मळे छे ए मान्यता जूठी छे अने ते वडे एने मिथ्यात्वादिनो ज बंध पडे छे.
वळी लक्ष्मी आदिना संयोगथी आने कांई लाभ थाय छे एमेय नथी, उलटुं ए संयोग वडे आने नुकशान ज थाय छे केमके ए संयोगना लक्षे आने राग-द्वेषादि ज थाय छे अने ते दुःखरूप अने दुःखना कारणरूप ज छे.
वळी खरेखर, पैसा मळतां पैसा कांई एने मळे छे एम नथी. पैसा तो जड छे; ए जीवने केवी रीते मळे? जीवने तो एनी ममता मळे छे अने एनी ममतानो भाव एने दुःखरूप ज छे. हवे आमां शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे.
अरे! अनंतकाळमां एणे पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो एक क्षण पण अनुभव कर्यो नहि. एणे निरंतर रागद्वेषादिनुं ज वेदन कीधा कर्युं. अहा! एने क्षुद्रभवो
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थया एनी वात तो छोडो, अनंतकाळमां अनंतवार ते मोटो देव, मोटो राजा अने मोटो शेठ पण थयो. पण हा! एणे शुद्ध अंतःचेतनानो अनुभव ना कर्यो!
जुओ, अज्ञानी जीवोने अनादिथी रागद्वेषरूप कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानुं ज वेदन छे. एने जडनो स्वाद तो कदी होतो ज नथी अने स्वस्वरूपनो स्वाद एणे कदी लीधो नहि. शुं कीधुं? आ लाडुं, बरफी, पेंडा, मोसंबी, धन, लक्ष्मी ने स्त्रीनुं सुंवाळुं शरीर ईत्यादि जड पदार्थोनो स्वाद एने होतो नथी, परंतु एना लक्षे एणे रागादिनो स्वाद-आ ठीक छे, आ ठीक नथी एवो स्वाद-एणे लीधा कर्यो छे. अहा! पण ए तो दुःखनो स्वाद छे बापा अहो! एक क्षण पण ज्ञानचेतनानो स्वाद करे तो एनां जन्म- मरण बधां टळी जाय; टळ्या विना रहे नहि.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘जगति हि चेतना अद्वैता’ जगतमां खरेखर चेतना अद्वैत छे....
निश्चयथी जगतमां चेतना अद्वैत छे. चिद् अर्थात् चेतन ए द्रव्य अने चेतना एनो गुण-स्वभाव ते एक (अभेद) छे. चेतना तरीके एक होवा छतां...
‘अपि चेत् सा दग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्’ तोपण जो ते दर्शन-ज्ञानरूपने छोडे ‘तत्सामान्यविशेषरूपविरहात् तो सामान्यविशेषरूपना अभावथी ‘अस्तित्वम् एव त्यजेत्’ (ते चेतना) पोताना अस्तित्वने ज छोडे; ‘तत्–त्याजे’ एम चेतना पोताना अस्तित्वने छोडता ‘चितः अपि जडता भवति’ चेतनने जडपणुं आवे.
शुं कहे छे? के चेतन ए द्रव्य अने चेतना ए गुण वस्तुपणे-द्रव्यपणे एक होवा छतां चेतना स्वरूपथी ज सामान्य अने विशेष-एम दर्शन-ज्ञानस्वरूपे बेपणे रहेली छे. हवे जो चेतना पोताना सामान्य-विशेषस्वरूपने अर्थात् दर्शनज्ञानरूपने छोडी दे तो जीव चेतनाना अभावमां जड थई जाय; चेतनने जडपणुं आवी जाय.
शुं कीधुं? फरीने-के आत्मा चेतन छे अने चेतना एनो गुण अर्थात् स्वभाव छे, स्वभावे चेतना एक होवा छतां ज्ञाता-द्रष्टापणुं पण एनुं रूप छे. हवे जो ते ज्ञाता- द्रष्टापणुं छोडी दे तो चेतनानो अभाव थाय अने चेतना विना चेतनद्रव्यजीव जड थई जाय.
कोईने वळी थाय के आमां धर्म क्यां आव्यो? अरे भाई! आवुं पोतानुं स्वरूप जाणी द्रष्टि स्वस्वरूपमां अखंड एक चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मामां स्थापित करवी एनुं नाम धर्म छे. भगवाने एने धर्म कह्या छे.
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तो शुं धर्म माटे आवुं बधुं समजवुं पडे? हा भाई! अनंता जीवो आ रीते समजीने सिद्धदशाने पाम्या छे.
‘च’ अने (२) ‘व्यापकात विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति’ व्यापक विना (-चेतना विना) व्याप्य जे आत्मा ते नाश पामे.
पहेलां बोलमां आत्मा जड थई जाय एम कह्युं ने हवे बीजा बोलमां नाश थई जाय एम कहे छे. जो व्यापक एवी चेतना ज न रहे तो व्याप्य एवो आत्मा नाश पामी जाय.
त्यारे कोई कहे छे-आवुं बधुं समजवुं एना करतां दया पाळवी, व्रत करवां ए बधो सहेलो धर्म छे.
पण भाई! ए धर्म क्यां छे? ए तो राग छे. आत्मानो स्वभाव तो चेतना एटले ज्ञाता-द्रष्टा छे. हवे आवा स्वभावने छोडीने जो ए रागनो कर्ता थाय तो ते मिथ्याद्रष्टि थई जाय. जो देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, शास्त्र-भणतरनो राग अने पंचमहाव्रतादिनो राग-एनो कर्ता जो चेतन थाय तो चेतन ज्ञाताद्रष्टापणे रहे नहि; रागनो कर्ता थतां ते अवश्य मिथ्याद्रष्टि थई जाय. आवी हवे बहु कठण वात!
तो मुनिराजने एवो व्यवहार तो होय छे? हा, होय छे; पण एना तो कर्ता नथी. ज्ञानी तो एना जाणनारमात्र रहे छे. उपर प्रमाणे, चेतनाने द्विरूप नहि मानवाथी बे दोष-आपत्ति आवे छे. तेथी कहे छे- ‘तेन चित् नियतं दग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु’ माटे चेतना नियमथी दर्शनज्ञानरूप ज हो. अर्थात् चेतना नियमथी दर्शनज्ञानमय ज छे.
‘समस्त वस्तुओ सामान्यविशेषात्मक छे. तेथी तेमने प्रतिभासनारी चेतना पण सामान्य प्रतिभासरूप (-दर्शनरूप) अने विशेष प्रतिभासरूप (-ज्ञानरूप) होवी जोईए.’
जुओ, भगवाने जोयां छे ए बधां द्रव्यो जगतमां जाति अपेक्षाए छ छे, अने संख्या अपेक्षाए जीव-आत्मा अनंत, परमाणु अनंतानंत, धर्मास्तिकाय एक, अधर्मास्तिकाय एक, एक आकाश अने असंख्यात कालाणु छे. ए बधा पदार्थ प्रत्येक सामान्यविशेषरूप छे. ते बधाय पदार्थ द्रव्यपणे एकरूप सामान्य छे ने गुण-पर्यायथी विशेषरूप छे. सामान्यविशेषरूपे होवुं वस्तुनो सहज स्वभाव ज छे. तेथी तेने प्रतिभासनारी चेतना पण सामान्यविशेषरूप छे; सामान्यप्रतिभासरूप दर्शन अने विशेष प्रतिभासरूप ज्ञान छे. जुओ, आ न्यायथी-लोजीकथी वात छे.
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‘जो चेतना पोतानी दर्शनज्ञानरूपताने छोडे तो चेतनानो ज अभाव थतां, कां तो चेतन आत्माने जडपणुं आवे, अथवा तो व्यापकना अभावथी व्याप्य एवा आत्मानो अभाव थाय.’
अहीं कहे छे के चेतनाना ज्ञाता-द्रष्टापणे बे रूप न मानो तो चेतनानो अभाव थई जाय अने चेतनानो अभाव थतां चेतन आत्मा जड थई जाय. अथवा चेतना व्यापक छे, अने आत्मा व्याप्य छे. तेथी व्यापकनो अभाव थतां व्याप्य आत्मानो नाश थई जाय.
‘माटे चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ज मानवी.’ चेतन (द्रव्य) ने चेतना (गुण) अभेद छे. माटे जेने धर्म करवो होय तेणे चेतना-ज्ञाताद्रष्टास्वभावथी अभेद भगवान आत्मानी द्रष्टि करीने तेमां ज एकाग्र थवुं जोईए. हवे आवी वात कठण पडे एटले लोको ‘एकान्त छे’ -एम राडु पाडे पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे.
वळी कोई कहे छे के-पर्याय अने द्रव्य तो अभिन्न ज छे, माटे पर्यायमां अशुद्धता होय तो द्रव्य पण अशुद्ध थई जाय.
भाई! एम नथी बापा! द्रव्य तो त्रिकाळ छे अने पर्याय तो एक समयवर्ती ज छे. सिद्धनी निर्विकारी पर्याय पण एक समयनी ज छे, ए कांई त्रिकाळी वस्तु नथी. सिद्धनी पर्याय पण द्रव्यनो एक भेख छे. तेवी रीते मोक्षमार्गनी पर्याय पण त्रिकाळी द्रव्यनो एक समयनो भेख छे अने संसारनी पर्याय पण चेतन द्रव्यनो एक समयनो विकारी भेख छे.
आ शास्त्रनी गाथा ३२०मां कह्युं छे के मोक्षमार्गनी पर्याय पण द्रव्यथी कथंचित् (-निश्चयथी) भिन्न छे. चेतन जे द्रव्य छे एनो चेतना स्वभाव छे. त्यां चेतन द्रव्यमां- अभेदमां एकाग्र थतां चेतनास्वभावमय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना-मोक्षमार्गना परिणाम प्रगट थाय छे. हवे ए पर्याय जो द्रव्यमां एकरूप (अभेद) थई जाय तो मोक्षमार्गनी पर्यायनो नाश थतां त्रिकाळी पारिणामिकभावनो पण नाश थई जाय.
शुं कीधुं? के आत्मा अनंतगुणनो पिंड प्रभु एक शुद्ध चैतन्यरसकंद छे. एने ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञेय बनावतां जे स्वसंवेदनज्ञान थयुं एनी साथे ‘आ अखंड एक परिपूर्ण चिन्मात्र वस्तु हुं छुं’ -एवी प्रतीति प्रगट थई अने साथे स्वरूपमां चरवा- रमवारूप आचरण प्रगट थयुं. आम प्रगट थयेल शुद्ध रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गनी पर्याय जो त्रिकाळी आत्मद्रव्य साथे एक थई जाय तो ते मोक्षमार्गनी पर्यायनो नाश थतां द्रव्यनो पण नाश थई जाय. माटे निश्चयथी पर्याय द्रव्यथी भिन्न ज छे.
संवर अधिकारनी आरंभनी गाथाओमां लीधुं छे के-भगवान आत्मा एक
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वस्तु छे ने दया, दान आदिना जे शुभाशुभ परिणाम थाय छे ए एनाथी भिन्न बीजी वस्तु छे, केमके रागना प्रदेशो ने आत्माना प्रदेशो भिन्न छे. जेटला क्षेत्रमां राग उत्पन्न थाय छे ते क्षेत्र, ध्रुवना क्षेत्रनी भिन्न गणवामां आव्युं छे. अने तेथी विकारनो आधार आत्मा नहि, के आत्मानो आधार विकार नहि-एम बन्नेने परस्पर आधार-आधेय संबंध नथी एम त्यां सिद्ध कर्युं छे. (मतलब के पर्याय द्रव्यथी वास्तवमां भिन्न ज छे.)
मोक्षमार्गनी पर्याय छे तेना पण प्रदेशो त्रिकाळीना क्षेत्रथी भिन्न गणवामां आव्या छे. आ वात चिद्दविलासमां आवे छे. प्रवचनसारमां पण कह्युं छे के-उत्पाद उत्पादथी छे, ध्रुव के व्ययथी नहि; व्यय व्ययथी छे, उत्पाद के ध्रुवथी नहि; ने ध्रुव ध्रुवथी छे, उत्पाद के व्ययथी नहि. बहु झीणी वात छे भाई! तत्त्व बहु सूक्ष्म छे प्रभु!
पर्यायनी स्थिति एक समयनी छे, ज्यारे द्रव्य त्रिकाळ छे. पर्यायनो भाव जे प्रदेशमां उत्पन्न थाय छे ते प्रदेशनो अंश भिन्न छे ने त्रिकाळी द्रव्यना प्रदेश भिन्न छे. अहा! पर्यायनुं वीर्य पर्यायथी छे, पर्यायनी उत्पत्ति पर्यायथी छे. पर्यायनुं टकवुं पर्यायथी छे. पर्यायनां षट्कारक पर्यायमां पर्यायथी छे. आम निश्चयथी पर्याय द्रव्यथी भिन्न छे.
माटे अशुद्ध पर्याय होतां त्रिकाळी द्रव्य आखुं अशुद्ध थई जाय छे एम नथी. पर्यायनी अशुद्धताना काळमां पण द्रव्य तो एकरूप शुद्ध ज छे. (तेने पर्याय अपेक्षा अशुद्ध कहेवुं ए बीजी वात छे.)
अरे! अनंतकाळमां पोते कोण छे ए समजवानी एणे दरकार करी नथी. भाई! पर्याय छे खरी; पर्याय छे ज नहि एम कोई कहे तो ए खोटुं छे. पर्याय छे अने कार्य पर्यायमां ज थाय छे, त्रिकाळी द्रव्यमां नहि. त्रिकाळी द्रव्य जे शुद्ध एकरूप छे तेनो आश्रय करवाथी (पर्याय एना वलणमां जवाथी) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय छे. परंतु ते एक समयनी अवस्था छे. अहा! एक समयनी अवस्थानो भाव भिन्न, काळ भिन्न, क्षेत्र भिन्न अने वीर्य भिन्न छे. अहो! वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे; भगवाने आवुं देख्युं छे अने कह्युं छे. (भगवाननी वाणीमां ए प्रमाणे आव्युं छे).
अहीं कहे छे-चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ज मानवी. अहा! जेम वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषरूप छे तेम वस्तुने चेतनारी चेतना पण सामान्य दर्शनस्वरूप अने विशेष ज्ञानस्वरूप छे. अहा! आवा पोताना ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावने जाणी, तेमां ज एकाग्रपणे लीन थईने रहेवुं एनुं नाम धर्म छे. समजाणुं कांई...?
अहीं तात्पर्य एवुं छे के-“सांख्यमती आदि केटलाक लोको सामान्य चेतनाने ज मानी एकांत कहे छे, तेमनो निषेध करवा माटे ‘वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषरूप
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छे तेथी चेतनाने सामान्य विशेषरूप अंगीकार करवी’ -एम अहीं जणाव्युं छे.”
जुओ, सांख्यमत आदि अन्यमत छे ते सामान्यने माने छे, परंतु विशेषने मानतो नथी. चेतना ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप छे एम चेतनाना यथार्थ स्वरूपने मानता नथी. तेथी एवा एकान्तनो परिहार करवा माटे जेम वस्तु सामान्य-विशेष-स्वरूप छे तेम तेने प्रतिभासनारी चेतना पण द्रष्टापणे सामान्य अने ज्ञातापणे विशेषरूप छे एम अहीं दर्शाव्युं छे. चेतना गुण-शक्ति-स्वभाव छे अने तेनां दर्शन अने ज्ञान बेरूप छे एम यथार्थ मानवुं.
अहा! दिगंबर धर्म सिवाय आवुं वस्तुनुं सत्यार्थ स्वरूप बीजे क्यांय कह्युं नथी. अहा! सत्यार्थ स्वरूपनी समजण विना सम्यग्दर्शन थाय नहि अने सम्यग्दर्शन विना ज्ञान अने चारित्र कदीय साचां होतां नथी. छहढालामां आवे छे ने के-
सम्यक्ता न लहै सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा.’
माटे पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने यथार्थ ओळखी तेना आश्रये प्रथम समकिती थवुं जोईए.
हवे आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-
‘चितः’ चैतन्यनो (आत्मानो) तो ‘एकः चिन्मयः एव भावः’ एक चिन्मय ज भाव छे, ‘ये परे भावाः’ जे बीजा भावो छे ‘ते किंल परेषाम्’ ते खरेखर परना भावो छे;....
चित् एटले चेतनद्रव्य, जीवद्रव्य, अहीं कहे छे-चेतनद्रव्यनो एटले के भगवान आत्मानो तो चिन्मय ज भाव छे. अहा! जाणवुं-देखवुं बस ए एक ज आत्मानो स्वभाव छे. आ रागादि जे बीजा भावो छे ते खरेखर परना भावो छे. शुं कीधुं? हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना इत्यादिना जे विकल्प उठे छे ते पापभाव छे, ने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना जे विकल्प उठे छे ते पुण्यभाव छे; ए पुण्य-पापना भाव शुद्ध चैतन्यना भाव नथी, पण खरेखर ते परना भावो छे.
अहाहा....! भगवान आत्मा शुद्ध चिन्मय एटले चेतनामय छे; चेतनावाळो छे एमे नहि, चेतनावाळो कहीए त्यां तो भेद थई जाय. आ तो अभेद एकरूप शुद्ध चिन्मय प्रभु आत्मा छे एम कहे छे. अहा! आवा अभेद एक चिन्मय आत्मानी द्रष्टि करी एनो अनुभव करवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आवा अनुभवमां स्थिरता धरवी ते धर्म नाम मोक्षमार्ग-मोक्षनो उपाय छे.
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केटलाक लोकोने सत् सामे (वस्तुना स्वरूप सामे) बे वांधा छे. तेओ कहे छे-
१. द्रव्य अने पर्याय एक छे माटे पर्याय अशुद्ध थई जतां द्रव्य पण अशुद्ध थई जाय छे.
२. व्यवहारथी निश्चय थाय अर्थात् शुभराग करतां करतां सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय छे.
खरेखर तो चेतनानी एक समयनी जाणनक्रियारूप- जाणवादेखवाना अनुभवरूप पर्याय (-निर्मळ पर्याय) द्रव्यथी कथंचित् (-निश्चयथी) भिन्न छे; अने आ जे रागादि विकल्प उठे छे ए अशुद्ध पर्याय द्रव्यथी सर्वथा भिन्न छे. हवे जे सर्वथा भिन्न छे एनाथी अंदर निश्चयस्वरूपमां (ज्ञायकमां) केम जवाय? भिन्न छे एने तो भिन्न राखीने ज अर्थात् एने छोडीने ज अंतरमां जवाय. ल्यो, आवो मारग छे.
अहाहा...! चित् एटले कारणजीव, कारणपरमात्मा. ते केवो छे? तो कहे छे-एक शुद्ध चिन्मय छे, त्रणेकाळ शुद्ध छे. वर्तमान पर्यायनी अशुद्धताना काळे पण ए अंदर तो शुद्ध ज छे. गुणी जे वस्तु छे ते गुणमय छे. जेम साकर छे ते मीठाशथी तन्मय छे तेम चित् चेतनाथी तन्मय छे, अभेद एक चिन्मय छे. अहा! आवा अभेद एक आत्मामां आ गुण ने आ गुणी एम भेद पाडवो ते अन्यभाव छे केमके भेदने लक्षमां लेतां विकल्पराग ज उठे छे. माटे भेदने गौण करी एक अभेदनुं ज लक्ष करवा योग्य छे. अहा! द्रष्टिमां लेवा योग्य तो एक चिन्मय आत्मा ज छे. समजाणुं कांई...? भाई! भाषा तो सादी छे, बाकी भाव तो जे छे ते छे. (सूक्ष्म द्रष्टिए पकडवा योग्य छे).
आ शरीर जड माटी-धूळ तो आत्मामां छे नहि अने जड कर्म पण आत्मानी चीज नथी. वळी पापना भाव छे एय आत्मामां नथी ने पुण्यना भाव पण आत्मानी चीज नथी. आ व्यवहाररत्नत्रयना शुभभाव आत्मानी वस्तु नथी. अहा! एक चिन्मय भाव सिवायना सर्वभाव परभाव छे. जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भाव पण परभाव छे, ते जीवभाव नथी. हवे आवुं छे त्यां शुभभावथी-परभावथी अंदर स्वमां धर्म केम थाय? न थाय.
भाई! पोताना स्वस्वरूपने जाण्या विना जन्म-मरणनां असह्य दुःखोने वेठतां वेठतां तारो अनंतकाळ गयो, अहा! परमात्मा कहे छे -तें केटलां जन्म-मरण कर्यां के मरण टाणे तारी माताने जे दुःख भर्युं रूदन आव्युं तेनां आंसु एकठां करीए तो अनंता समुद्र भराई जाय. अहा! आटलां एणे अनंता मरण कर्यां छे. भाई! तें जे पारावार दुःख सहन कर्यां छे तेने शुं कहीए? एने देखनारनी आंखमां पण
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आंसु आवी जाय एवां ए असह्य छे. मनुष्यपणामां तो ते दुःख
सहन कर्यां, ए सिवाय पशुयोनिमां ने नरकमां अति तीव्र दुःखो सहन कर्यां छे. जुओ, कोई माखण जेवा सुंवाळा देहवाळो रूपाळो राजकुमार होय एने जमशेदपुरनी धगधगती भठ्ठीमां नाखे अने जे दुःख थाय एनाथी अनंतगणुं दुःख पहेली नरकमां दश हजार वर्षनी स्थितिमां होय छे. बापु! ए दश हजार वर्षनी स्थितिए त्यां तुं अनंतवार जन्म्यो छे. ए प्रमाणे दश हजार वर्षने एक समय, दश हजार वर्ष ने बे समय, दश हजार वर्ष ने त्रण समय-एम करीने सागरोपमनी स्थितिए प्रत्येक नरकमां अनंतवार जन्म्यो-मर्यो छे. अहा! आ बधुं दुःख भाई! तने स्वरूपनी समजण विना ऊभुं थयुं छे. माटे हवे (आ अवसरे) तो स्वरूपनी समजण कर. हमणां नहि करे तो कयारे करीश भाई? (एम के अनंतकाळेय तने आवो अवसर फरीथी नहि मळे).
भगवान आत्मामां पुण्य-पापना भाव नथी ए तो ठीक, तेमां वर्तमान पर्यायनो पण अभाव छे. झीणी वात प्रभु! त्रिकाळी ध्रुवमां वर्तमान पर्यायनो अभाव छे. आथी कोई कहे के पर्याय पर्यायमां पण नथी तो एम नथी. समयसार गाथा ११मां पर्यायने अभूतार्थ कही ते गौण करीने अभूतार्थ कही छे. त्यां एनुं प्रयोजन जे सम्यग्दर्शन तेनी प्राप्ति माटे त्रिकाळी सत्ने सत्यार्थ कह्युं ने वर्तमान पर्यायने गौण करीने असत्यार्थ कही छे, केमके त्रिकाळी ध्रुवना ज आश्रये निज प्रयोजननी-सम्यग्दर्शननी सिद्धि थाय छे, पर्यायना आश्रये नहि. आ प्रमाणे अभेद एक चिन्मय आत्मामां एकाग्रता करवी ए ज दुःखनी मुक्तिनो उपाय छे. वच्चे व्यवहार आवे छे खरो, पण ए कांई उपाय नथी, उलटुं ए तो बंधनुं-दुःखनुं ज कारण छे.
त्यारे केटलाक राडु पाडे छे के-तमे व्यवहारनो लोप करो छो. अरे, सांभळने भाई! तारी चीजमां ए डाघ-कलंक छे. तने व्यवहारनो आग्रह छे अने एनाथी लाभ थवानुं तुं माने छे ए तारी द्रष्टि ज विपरीत छे. जेनाथी भिन्न पडवुं छे एनाथी वळी लाभ केम थाय? अहा! निमित्तने आधीन थईने जे भावो थाय ते शुभ हो के अशुभ; ए बधा परना भावो छे.
‘ततः’ माटे ‘चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः’ (एक) चिन्मय भाव ज ग्रहण करवा योग्य छे, ‘परे भावाः सर्वतः एव हेयाः’ बीजा भावो सर्वथा छोडवायोग्य छे.
आवुं चोक्खुं छे तोय केटलाक कहे छे-आ एकान्त छे; एम के तमे व्यवहारथी निश्चय थाय एम मानता नथी.
अरे भाई! आ कह्युं तो खरुं के एक चिन्मय भाव ज ग्रहण करवायोग्य छे अने बीजा भावो सर्वथा छोडवा योग्य छे. आ अनेकान्त छे. व्यवहारथी पण थाय अने
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चिन्मयभावथी पण थाय एम तुं अनेकान्त कहे पण ए अनेकान्त नथी, ए तो फूदडीवाद छे.
चिन्मय भाव ज ग्रहण करवायोग्य छे. आ सम्यक् एकान्त छे. एनुं (चिन्मयनुं) ग्रहण थतां परभावो उत्पन्न थता नथी एने परभावनो त्याग कर्यो एम कहीए छीए. आत्मामां परवस्तुनुं तो ग्रहण-त्याग छे नहि. फक्त मिथ्या पर भाव वडे पर मारां एम माने छे. पण स्वनुं ग्रहण थतां ए परभाव उत्पन्न थता नथी एने परभावनो त्याग कर्यो एम कहेवामां आवे छे.
अरे! अनादिथी एणे स्व-स्थान निजघर छोडी दीधुं छे. भजनमां आवे छे ने के-
पर घर भ्रमत दिन बीते, नाम अनेक धराये-’ हम तो
अहा! में दया पाळी, ने व्रत पाळ्यां, ने तपस्या करी, ने भक्ति करी-एम अनेक प्रकारना पुण्यभावमां-परभावमां रह्यो ए परघर छे. जेम पापना भावमां रहे ए परघर छे तेम पुण्यना भाव पण परघर छे. अहा! भजनमां कहे छे-आवा अनेक परघरमां एने रखडवुं थयुं ए महा कलंक छे. अरे! हुं कदीय निजघरमां-स्वधाम प्रभु चैतन्यधाममां न आव्यो! एम के अनंतकाळमां में स्वनो आश्रय करीने आत्मकल्याण कर्युं नहि! आम खेद प्रगट करे छे. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-परभावो सर्व प्रकारे हेय छे. ‘सर्वत्ः’ एम शब्द छे ने? छे के नहि? छे ने पुस्तकमां. मतलब के कथंचित् व्यवहार हेय ने कथंचित् उपादेय एम नथी. व्यवहार सर्व प्रकारे हेय छे.
व्यवहारनयथी व्यवहार पूज्य छे एम शास्त्रमां आवे छे; एनो अर्थ ए छे के व्यवहारथी व्यवहार जाणवालायक छे, निश्चयथी तो ए हेय ज छे. व्यवहारनयथी कह्युं एनो अर्थ ए के ए उपचारथी कह्युं छे. कळशटीकामां व्यवहारनो अर्थ कथनमात्र कर्यो छे.
भाई! तारी चीज मालंमाल छे ने प्रभु! अंदर अनंत ज्ञान, अनंत आनंद, अनंत वीर्य, अनंत-अनंत इश्वरता पडयां छे ने प्रभु! अहाहा...! भगवान! तुं ईश्वर छो. तारी ईश्वरशक्तिने ग्रहण कर ने परभावथी छूटी जा. परभावो तो सर्व प्रकारे त्याग करवालायक ज छे. समकितीने अने मुनिवरोने परभाव आवे छे पण तेमने ते हेय छे. अहो! एक चिन्मय वस्तु आत्मा ज ग्राह्य छे उपादेय छे.
अहा! आवुं तत्त्वनुं स्वरूप सांभळवा मळवुं महा दुर्लभ छे. मनुष्यपणा विना तो ए क्यां सांभळवा मळे? एमांय जैनदर्शन सिवाय बीजे क्यां आ वात सांभळवा मळे? अने जैनदर्शनमांय आना संभळावनारा कोण? को’ क समकिती जवल्ले ज आवी