Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 300-305 ; Kalash: 185,187.

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वातना कहेनार मळी आवे. अहा! आवुं आ दुर्लभ तत्त्व वर्तमानमां महादुर्लभ थई पडयुं छे.

भाई! दुनिया मानो के न मानो, हा पाडो के न पाडो; वस्तुस्थिति तो आ ज छे. पंडितो माने के न माने, वा विरोध करे तो करो, पण वस्तुस्वरूपमां फेर पडे एम नथी. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आवे छे के-

पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वितुस केडिया

हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तुं कणने छोडी मात्र फोतरां ज खांडे छे. अरेरे! तें माल न लीधो तो फोतरांथी तने शो लाभ छे?

जुओ, एक ऊंचा गृहस्थनी स्त्री डांगर खांडती हती. खांडणीमां उपर उपर फोतरां देखाय अने दाणा तो नीचे जाय. एक गरीब अणघड बाळए आ जोयुं ने कयाकथी फोतरां लावीने मंडी पडी खांडवा. एने एम के आ उंचा घरनी बाई फोतरां खांडे छे तो तेमां कांईक लाभ होवो जोईए. पण एने शुं लाभ थाय? कांई नहि; खाली महेनत माथे पडे.

तेम कोई अज्ञानी देखे के-आ सम्यग्ज्ञानी भावलिंगी मुनिवरो महाव्रतादि पाळे छे तो लाव हुंय पाळुं. तेनेे कहीए छीए-भाई! तारी महेनत फोगट जशे; आ फेरो फोगट जशे भाई! ए महाव्रतादिना रागना भाव बधा परभाव छे ने ए सर्व प्रकारे हेय छे एम भगवाननी वाणीमां आव्युं छे. समजाणुं कांई...?

[प्रवचन नं. ३प७ थी ३प९ *दिनांक प-६-७७ थी ७-६-७७]

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गाथा–३००
को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे।
मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं।। ३००।।
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्।
ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम्।। ३००।।
(शार्दूलविक्रीडित)
सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां
शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्।
एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा–
एतेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि।। १८५।।
सौ भाव जे परकीय जाणे, शुद्ध जाणे आत्मने,
ते कोण ज्ञानी ‘मारुं आ’ एवुं वचन बोले खरे? ३००.

गाथार्थः– [सर्वान् भावान्] सर्व भावोने [परकीयान्] पारका [ज्ञात्वा] जाणीने [कः नाम बुधः] कोण ज्ञानी, [आत्मानम्] पोताने [शुद्धम्] शुद्ध [जानम्] जाणतो थको, [इदम् मम] ‘आ मारुं छे’ (- ‘आ भावो मारा छे’) [इति च वचनम्] एवुं वचन [भणेत्] बोले?

टीकाः– जे (पुरुष) परना अने आत्माना नियत स्वलक्षणोना विभागमां पडनारी प्रज्ञा वडे ज्ञानी थाय, ते खरेखर एक चिन्मात्र भावने पोतानो जाणे छे अने बाकीना सर्व भावोने पारका जाणे छे. आवुं जाणतो थको (ते पुरुष) परभावोने ‘आ मारा छे’ एम केम कहे? (न ज कहे;) कारण के परने अने पोताने निश्चयथी स्वस्वामिसंबंधनो असंभव छे. माटे, सर्वथा चिद्भाव ज (एक) ग्रहण करवायोग्य छे, बाकीना समस्त भावो छोडवायोग्य छे-एवो सिद्धांत छे.

भावार्थः– लोकमां पण ए न्याय छे के-जे सुबुद्धि होय, न्यायवान होय, ते परनां धनादिकने पोतानां न कहे. तेवी ज रीते जे सम्यग्ज्ञानी छे, ते समस्त परद्रव्योने पोतानां करतो नथी, पोताना निजभावने ज पोतानो जाणी ग्रहण करे छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः] जेमना चित्तनुं चरित्र उदात्त

(-उदार, उच्च, उज्ज्वळ) छे एवा मोक्षार्थीओ [अयम् सिद्धान्तः] आ सिद्धांतने


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(अनुष्टुभ्)
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान्।
बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः।। १८६।।

[सेव्यताम्] सेवन करो के- ‘[अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि] हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; [तु] अने [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि] आ जे भिन्न लक्षणवाळा विविध प्रकारना भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम्] कारण के ते बधाय मने परद्रव्य छे’ . १८प.

हवे आगळना कथननी सूचनानो श्लोक कहे छेः- श्लोकार्थः– [परद्रव्यग्रहं कुर्वन्] जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे [अपराधवान्] ते अपराधी छे [बध्यते एव] तेथी बंधमां पडे छे, अने [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः] जे स्वद्रव्यमां ज संवृत छे (अर्थात् जे पोताना द्रव्यमां ज गुप्त छे-मग्न छे-संतुष्ट छे, परद्रव्यने ग्रहतो नथी) एवो यति [अनपराधः] निरपराधी छे [न बध्येत] तेथी बंधातो नथी. १८६.

*
समयसार गाथा ३००ः मथाळुं

हवे आ उपदेशनी गाथा कहे छेः-

* गाथा ३००ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे (पुरुष) परना अने आत्माना नियत स्वलक्षणोना विभागमां पडनारी प्रज्ञा वडे ज्ञानी थाय, ते खरेखर एक चिन्मात्र भावने पोतानो जाणे छे अने बाकीना सर्व भावोने पारका जाणे छे.’

जे पुरुष परना अने आत्माना नियत स्वलक्षणोना विभागमां पडनारी प्रज्ञा वडे ज्ञानी थाय,..... शुं कह्युं आ? अहाहा...! पुरुषने धर्म केम थाय अर्थात् ते धर्मी केवी रीते थाय- ते अहीं वात करे छे.

भगवान आत्मानुं लक्षण शुद्ध चेतना छे, ने पर एटले बंधनुं लक्षण रागादि छे. देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिनो राग हो, एनी श्रद्धानो राग हो के कोई पण पुण्यभाव हो, ए बंधनुं लक्षण छे. आम बन्नेनां नियत नाम निश्चय स्वलक्षणोने जाणीने बेनी सांधमां प्रज्ञा पटकवाथी आत्मा ज्ञानी अर्थात् धर्मी थाय छे.

आत्मानो स्वभाव चेतना छे, अने राग भिन्न पर छे; एम बे वच्चे सांध छे. त्यां सांधमां प्रज्ञाछीणी पटकतां अर्थात् वर्तमान ज्ञाननी दशाने स्व-सन्मुख वाळतां ‘स्व’ नुं ज्ञान थाय छे अने तेमां (नास्तिपणे) राग मारी चीज नथी एवुं ज्ञान


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भेगुं थई जाय छे. आनुं नाम भेदविज्ञान ने धर्म छे. भाई! धर्म करनारे आवुं भेदविज्ञान प्रथम करवुं पडशे. त्यारे ज ते धर्मी अर्थात् ज्ञानी थाय छे. अहा! परनुं लक्ष मटाडी प्रज्ञा वडे चैतन्यलक्षण आत्माने ग्रहण करवाथी अर्थात् आत्मानुभव करवाथी ते ज्ञानी-धर्मी थाय छे.

हवे आवो धर्मी पुरुष खरेखर एक चिन्मात्र भावने पोतानो जाणे छे. जाणवा- देखवारूप जे चेतना स्वभाव छे ते मारो छे एम धर्मी जाणे छे; अने चेतनारहित बाकीना सर्व भावोने ते बीजाना-पारका जाणे छे. शुं कीधुं? आ व्यवहाररत्नत्रयनो भाव पण पारको छे एम धर्मी जाणे छे. आ कठण पडे पण आ वस्तुस्थिति छे. एक बाजु पोते आत्मा स्व अने बीजी बाजु सर्व रागादि पर छे. धर्मीने तो ‘हुं चेतनामात्र आत्मा छुं’ -एम एना अनुभव ने प्रतीतिमां आव्युं छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, शुभरागनो जे विकल्प उठे छे ते ज क्षेत्र ने ते ज काळमां ज्ञान उत्पन्न थाय छे. बेनी उत्पत्ति आ रीते थवा छतां प्रज्ञाछीणी वडे धर्मी बन्नेने भिन्न पाडे छेः पोताने जाणवा-देखवाना स्वभाववाळो चिन्मय आत्मा जाणे छे अने रागादि भाव छे ते पर छे, मारी चीज नथी-एम जाणे छे.

अहाहा....! अनंत शक्तिओ-गुण जेमां वसेला छे ते अभेद एक चेतनामात्र वस्तु भगवान आत्मा छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपनो जे, रागथी भिन्न पडी, अनुभव करे छे ते ज्ञानी-धर्मी छे. ते धर्मी जीव शुद्ध एक चिन्मात्र भावने स्वपणे अनुभवे छे अने बाकीना भावोने ते पर जाणे छे. ल्यो, आ धर्मी ने आवो धर्म!

कोई व्रत, भक्ति, उपवास के सम्मेदशिखर आदिनी जात्रा करे एटले ए धर्मी एम नहि, अंदर स्वस्वरूपने अनुभवे ने परने पर जाणे ते धर्मी छे. तो केटलाक वळी कहे छे-

‘एक वार वंदे जो कोई, ताके नरक-पशुगति नहि होई, -एम पूजामां आवे छे ने?

भाई! ए तो विशेष शुभभाव होय तो नरक अने पशुमां न जाय. परंतु एमां शुं वळ्‌युं? एमां भवनो अंत क्यां आव्यो? वळी कोई तो एम कहे छे के-

सम्मेदशिखरमां जे वनस्पति थाय छे ते पण परितसंसारी-हळुकर्मी होय छे. अरे भाई! क्षेत्रनी साथे शुं संबंध छे? ज्यां सिद्ध भगवान बिराजे छे त्यां एना पेटमां (-क्षेत्रमां) अनंतकाळे कदी मोक्ष नहि जवावाळा जीवो पण होय छे. जे मुक्तिशिला पर भगवान सिद्ध बिराजे छे त्यां ज (ए ज क्षेत्रे) बीजा अनंत निगोदना जीव पण छे. बधानुं क्षेत्र एक होवा छतां भावे दरेकने भिन्नता छे. निगोदना


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जीव प्रत्येक अनंता दुःखने अनुभवे छे, ज्यारे सिद्ध भगवंतो अनंत सुखने भोगवे छे. आम परक्षेत्रनी साथे, आत्माना धर्मने कांई संबंध नथी. समजाणुं कांईं...?

हवे कहे छे -“आवुं जाणतो थको (ते पुरुष) परभावोने “आ मारा छे” -एम केम कहे? (न ज कहे)’

जुओ, ‘केम कहे? ’ - ए तो भाषा लीधी छे. एनो अर्थ ए के ते परभावोने ‘आ मारा छे’ -एम केम माने? जेणे रागथी भिन्न शुद्ध चेतनामात्र भगवान आत्माने अनुभव्यो ते ज्ञानी पुरुष व्यवहारना रागने पोतानो केम माने? न ज माने. केम? तो कहे छे -

‘कारण के परने अने पोताने निश्चयथी स्वस्वामिसंबंधनो असंभव छे’ शुं कह्युं ए? शुद्ध चेतना स्वभाव ते पोतानुं स्व अने पोते-आत्मा तेनो स्वामी एम स्वस्वामिसंबंध छे, पण राग पोतानुं स्व ने आत्मा तेनो स्वामी-एम नथी. परभावोनो स्वामी पर छे, आत्मा नथी. हवे जेनी साथे स्वस्वामिसंबंध नथी तेने (रागने) ज्ञानी पोताना केम माने? न ज माने-एम कहे छे.

समयसार परिशिष्टमां ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे. तेमां छेल्ली ‘स्वस्वामिसंबंध’ शक्ति छे. जे शक्तिना कारणे पोतानां द्रव्य-गुण ने निर्मळ पर्याय पोतानुं स्व छे अने पोते-आत्मा तेनो स्वामी छे एवी ‘स्वस्वामिसंबंध’ शक्ति छे. पण विकार पोतानुं स्व अने पोते विकारनो स्वामी एवो स्वस्वामिसंबंध नथी. विकारनो स्वामी थाय एवी आत्मानी कोई शक्ति नथी.

धर्मी पुरुष आ स्त्री-पुत्र आदि मारां छे एम कदीय मानता नथी, केमके पर द्रव्य ने परभाव साथे आत्माने स्वस्वामीसंबंध होवो असंभव छे. अरे! लोको तो आ मारा भगवान ने मारा गुरु ने मारां शास्त्र एम कहे छे; परंतु भाई! परवस्तुने पोतानी मानवी ए तो स्थुळ अज्ञान छे, केमके आत्मामां पर चीजनो त्रणेकाळ अभाव छे. पोताने अने परने स्वस्वामिसंबंध होवानो सदाकाळ असंभव छे.

बापु! आ शरीरनी क्रिया मारी ने बोलाय ते वाणी मारी ए तो क्यांय दूर रह्यु, केमके ए तो प्रगट पर छे; अहीं कहे छे- अंदरमां जे आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भाव उत्पन्न थाय छे ते पण पर छे. व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प पर छे. आ परलक्षी शास्त्रभणतरनुं ज्ञान छे ते पण पर छे, ए निज स्वभाव नथी. बनारसीदासनी ‘परमार्थ वचनिका’ मां आवे छे के - परसतावलंबी ज्ञान छे ते पोतानी चीज नथी केमके परसत्तावलंबी ज्ञान मारुं स्व ने हुं एनो स्वामी एवा संबंधनो असंभव छे. जे पर छे एनो स्वामी आत्मा कदीय नथी. ल्यो, हवे आवुं छे त्यां परथी पोताने


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लाभ थाय ए वात क्यां रही? बापु! जेनी साथे स्वस्वामिसंबंध नथी एनाथी लाभ थाय ए मान्यता ज मिथ्यात्व छे.

लोकोने बिचाराओने बधुं बहारनुं थोथेथोथां मळ्‌युं छे. स्थानकवासीओमां तो तप करो ने व्रत करो एटले थई गयो धर्म एम माने छे. बिचाराओने खबर नथी के कर्ताबुद्धिए रागने करवो ए मिथ्यात्वनुं महापाप छे. वळी श्वेतांबरमां भगवाननी भक्ति करो ने गिरनार ने सम्मेदशिखरनी जात्रा करो एटले थई गयो धर्म एम कहे छे. पण भाई! रागमां धर्म मानवो ए ज मिथ्यात्व छे. अहीं दिगंबरमां (दिगंबर संप्रदायमां) स्त्री-कुटुंब छोडो, वस्त्र छोडो ने नग्न थई जाओ एटले धर्म थई जशे एम कहे छे; पण परनुं आत्माने ग्रहण-त्याग मानवुं ए मिथ्यात्व छे. केमके परनां ग्रहण-त्याग आत्मामां छे नहि. भगवान आत्मा परना ग्रहण-त्यागथी शून्य छे. अहा! धर्मनृं स्वरूप बहु ऊंडुं सूक्ष्म छे भाई!

हवे आ सांभळीने कोईने अंदर विरोध-रोष थाय तो शुं करीए? तेना प्रति समभाव ज धरीए. तेना प्रति द्वेष के वैर-विरोध न होय, केमके बधा आत्मा अंदर तो भगवान स्वरूप ज छे. पर्यायमां क्षणिक एक समयनी भूल छे ए बीजी वात छे, पण वस्तु तो पोते अंदर भगवानस्वरूप ज छे. अहा! पोताना भगवानस्वरूपनुं अंदरमां भान करीने भूल टाळी देशे. संसार तो एक समयनो छे अने वस्तु अंदर भगवान त्रिकाळ छे. त्रिकाळ वस्तुनां ज्यां अंदर रुचि ने आश्रय थयो त्यां एक समयनी भूल नाश पामी जाय छे. आवो मार्ग छे भाई!

अहीं कहे छे-धर्मी पुरुष व्यवहारना रागने पोतानो मानतो नथी केमके व्यवहार (राग) मारुं स्व ने हुं तेनो स्वामी एवो संबंध होवानुं असंभव छे.

हवे कहे छे - ‘माटे, सर्वथा चिद्भाव ज (एक) ग्रहण करवायोग्य छे, बाकीना समस्त भावो छोडवायोग्य छे--एवो सिद्धांत छे.’

शुं कीधु? चेतन आत्मा अने एनो चेतनस्वभाव ए ज अभेद एक अनुभव करवायोग्य छे. अंदर स्वस्वरूपमां मग्न थई एनुं संवेदन अने आनंदनो स्वाद लेवा योग्य छे. बाकीना एटले चैतन्यभावथी रहित समस्त भावो छोडवायोग्य छे. ल्यो, आ सिद्धांत कह्यो. ‘हति सिद्धांतः’ एम छे ने? मतलब के आ सिद्ध थयेली वस्तु छे. व्यवहार ने निश्चयने स्वस्वामी संबंध नथी ए वात सिद्ध थई चूकेली छे.

प्रश्नः– व्यवहार-रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यनी जेने अंतरमां द्रष्टि थई छे एवो धर्मी पुरुष पोतानी दीकरीने अन्यमतमां आपे के नहि?

उत्तरः– धर्मी पुरुष, ज्यां धर्म नथी त्यां अन्यमतमां पोतानी दीकरीने केम दे? तेने एवो भाव-राग केम आवे? अहा! जेने व्यवहारे पण आ धर्मनी किंमत


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अने महिमा आव्यो होय तेने पण एवो भाव न आवे तो धर्मी पुरुषने केम आवे? न ज आवे. धर्मनी वात पण ज्यां चालती न होय अने ज्यां धर्मश्रवणनी कोई तक न होय तेवा स्थानमां धर्मात्मा पुरुषो पोतानी दीकरीओ आपे नहि.

* गाथा ३००ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘लोकमां पण ए न्याय छे के-जे सुबुद्धि होय, न्यायवान होय, ते परनां धनादिकने पोताना न कहे.’

शुं कह्युं? जुओ, कोई खानदान समजु माणस होय, स्थितिए साधारण होय अने घरे दीकरानो लग्न प्रसंग होय तो ते कोई श्रीमंत गृहस्थने त्यांथी रत्ननो हार वगेरे दीकराने पहेरवा लई आवे, तो शुं ते एने पोतानो माने? एने पोतानी मूडी समजे? ना समजे. ए चीज मारी नथी एमज यथार्थ ते माने; अने ए ज लौकिक न्याय छे.

‘तेवी ज रीते जे सम्यज्ञानी छे, ते समस्त परद्रव्योने पोतानां करतो नथी, पोताना निजभावने ज पोतानो जाणी ग्रहण करे छे.’

जुओ, सम्यग्ज्ञानी धर्मी पुरुषने व्यवहारनो-पुण्यनो भाव आवे छे, पण तेने ते छे एम जाणे छे, पण ते पोतानो छे एम जाणतो नथी. ते समस्त परद्रव्योने तथा परभावोने पोताना मानतो नथी, इन्द्रपद के चक्रीनुं पद मळे तेने ते पोतानां जाणतो नथी तथा जे भावे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते भावनेय ते पोतानो मानतो नथी. अहा! पोताना एक चिन्मात्र भावने ज पोतानो जाणी तेनो अनुभव करे छे. व्यवहार ए निजभाव नथी छतां आवे छे, पण तेमां एने हेयबुद्धि होय छे, आदरबुद्धि जराय होती नथी. ल्यो, आवी आ भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवनी दिव्यध्वनिमां आवेली वात छे. जेनां महाभाग्य होय तेने सांभळवाय मळे छे. बाकी जेना अंतरमां परिणमी जाय एना भाग्यनुं तो पूछवुं ज शुं?

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १८पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘उदातचितचरितैः मोक्षर्थिभिः’ जेमना चित्तनुं चरित्र उदात्त छे एवा मोक्षार्थीओ.....

जुओ, मोक्षार्थी लीधुं छे ने? अहा! मोक्ष जे अनंतसुखमय पूरणसुखमय छे. एनो नमूनो जेना अनुभवमां आव्यो छे ते मोक्षार्थी छे. कळशटीकामां मोक्षार्थीनो अर्थ एवो कर्यो छे के-सकळ कर्मनो क्षय थतां थाय छे अतीन्द्रियसुख, तेने उपादेयरूप अनुभवे छे एवा छे जे कोई जीव तेओ. अहा! परम आनंदरूप प्रगट दशा ते मोक्ष छे, अने अतीन्द्रिय आनंदनो अंशे जेने स्वाद आव्यो छे अने जे पूरण आनंदनो


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अर्थी छे ते मोक्षार्थी छे. मोक्षार्थी कहो के धर्मी कहो के ज्ञानी कहो-बधुं एकार्थ छे.

नियमसारमां पूर्ण अतीन्द्रिय आनंदनो आत्मलाभ-एने मोक्ष कह्यो छे. अनंत आनंदनी दशा अथवा पूर्ण आनंदनो लाभ एनुं नाम मोक्ष छे; अने मोक्षनो जे अर्थी छे ते मोक्षार्थी छे. अहा! आवा मोक्षनो अर्थी कोण छे? पूरण आनंदस्वरूप जे मोक्ष तेना कारणरूप जे मार्ग जे अतीन्द्रिय आनंदना स्वादरूप छे ते मार्गमां जे स्थित छे ते मोक्षमार्गी मोक्षार्थी छे. बीजी रीते कहीए तो मोक्ष जेनुं प्रयोजन छे अने जे मोक्ष माटे ज निरंतर मथे छे ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा मोक्षार्थी छे.

अनंत दुःखनी दशा ते संसार छे, एनाथी विपरीत अनंत-पूरण आनंदनी दशा ते मोक्ष छे. अने जेमां किंचित् आनंदनी दशा अने कंईक दु;खनी दशा छे एवी साधकनी दशा ते मोक्षार्थी छे.

केवो छे मोक्षार्थी? तो कहे छे-निज भगवान आत्मा जेमां ज्ञान ने आनंद पूर्ण स्वभाव पडयां छे एनी जेने द्रष्टि थई छे; वस्तु पूरण शुद्ध पूर्णानंदमय छे तेनुं जेने ज्ञान थयुं छे अने अंतरमां रमणतारूप जेने आचरण प्रगट थयुं छे-अहा! आवो ते मोक्षार्थी छे. छे ने अंदर? के जेना चित्तनुं चरित्र अर्थात् आचरण उदात्त छे अर्थात् उदार, उच्च, उज्ज्वळ छे. अहा! क्षणे क्षणे एना आनंदनी रमणता वधती जाय छे.

कहे छे- ‘जेना चित्तनुं चरित्र उदात्त छे एवा मोक्षार्थीओ.....’ जोयुं? मोक्षार्थीना चित्तनुं एटले ज्ञाननुं आचरण अत्यंत उदात्त एटले उदार, उच्च, उज्ज्वळ छे. भगवान आत्मा ज्ञान- स्वरूप छे. एमां आचरण (रमणता) करवुं ए चेतननुं आचरण छे. सम्यग्द्रष्टिने आवुं आत्मानुं आचरण होय छे. अहा! आवुं आचरण करवामां ते उदार छे. अंदरमांथी आनंद काढवामां ते उदार छे. जेम कोई दानेश्वरी दान देवामां उदार होय छे ने? तेम आ पण अंदरमांथी आनंद काढी पोताने देवामां उदार छे. अहा! आवुं उदार ने उज्ज्वळ अर्थात् रागरहित पवित्र आचरण सम्यग्द्रष्टिने होय छे.

वस्तु भगवान आत्मा शुद्ध चेतनास्वरूप छे. तेमां अंतर-एकाग्र थई तेमां रमवुं, चरवुं, ठरवुं ते ज्ञाननुं आचरण छे. सम्यग्द्रष्टिने-मोक्षार्थीने आवुं आचरण अति उदात्त एटले उदार, उच्च ने उज्ज्वळ होय छे. जुओ एने जे बाह्य व्रतादि होय छे ते आचरण -एम वात नथी. ए आचरण क्यां छे? एने तो उपचारथी आचरण कह्युं छे. आ तो ज्ञानमां-आनंदमां रमवा-चरवा-ठरवारूप, अहा! जे आनंदना स्वादरूप छे-एवा आत्माना आचरणनी वात छे. समजाणुं कांई.....?

अहो! शुं दिगंबर संतोनी वाणी! जाणे रामबाण! अज्ञाननो (-रागनो) नाश करी ज्ञाननुं आचरण प्रगट करावे एवी अहो! आ रामबाण वाणी छे.


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ज्ञाननुं चारित्र एटले वीतरागी चारित्र; व्रतादि रागनुं आचरण ते ज्ञाननुं आचरण नहि. कळश टीकाकारे ‘उदार चित्तचरित्रैः’ नो एवो अर्थ कर्यो छे के - संसार- शरीर-भोगथी रहित छे मननो अभिप्राय जेमनो. भाई! भगवाननो मारग तो आ छे बापा!

‘आलापपद्धित’ मां अध्यात्मना निश्चय ने व्यवहार एम बे नय लीधा छे. त्यां पूर्ण शुद्ध अभेद एक-ने निश्चयनयनो विषय लीधो छे. मतलब के जे चेतनद्रव्य छे ते पूर्ण शुद्ध छे, पूर्ण आनंदरूप छे, चारित्रनी पूर्ण रमणतारूप छे. एटले के अंदर स्वभावमां पूरण रमणतारूप चारित्र त्रिकाळ पडयुं छे. वर्तमान पर्यायमां भले रमणता ओछी छे, परंतु स्वरूपमांतो चारित्र पूर्ण रमणतारूप छे. अहा! आवा आत्माने अवलंबीने जेणे आनंदमां केलि-रमणता करवारूप, ज्ञाननुं आचरण प्रगट कर्युं छे. अने जेने पूर्ण आनंदना लाभनुं प्रयोजन छे ते मोक्षार्थीनुं आचरण, अहीं कहे छे, अति उदार छे. आ रागनी क्रियानी वात नथी हों. ज्ञानीने राग होय छे, पण तेनो एने आदर नथी. ए तो एनो जाणनार मात्र रहे छे.

अहाहा.......! पूर्णानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. एना आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन जेनी दशामां आव्युं छे ते मोक्षमार्गी मोक्षार्थी छे. मुनिनी मुख्यताए वात छे ने? समयसार गाथा प मां आचार्यदेव कहे छे के -मारा निजवैभवथी हुं समयसार कहीश. केवो छे निजवैभव? तो कहे छे-प्रचुर आनंदना स्वसंवेदननी दशा जेनी महोर-छाप छे ए मारो निजवैभव छे. ल्यो, आ सिवाय शरीर, वाणी के व्रतादि रागनी क्रिया ए कांई निजवैभव नथी. अंदर प्रगट प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनी दशा ते निजवैभव छे अने ते मोक्षार्थीनुं आचरण छे.

हवे प्रचुर आनंदमां रहेनारा मुनिराज आचार्य अमृतचंद्र कहे छे-जेमना चित्तनुं चरित्र उदात्त छे एवा मोक्षार्थीओ ‘अयम सिद्धांतः’ आ सिद्धांतने ‘सेव्यताम’ सेवन करो के- ‘अहम शुद्धम चिन्मयम् एकं परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि’ हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं;.....

सिद्धांत नाम सिद्ध थयेली वस्तु. आचार्य कहे छेः- आ सिद्ध थयेलुं छे एनुं सेवन करो के-हुं तो शुद्ध चिन्मय एक परम ज्योति ज सदाय छुं. अहा! धर्मी जीव पोताने आवो अनुभवे छे के-हुं शुद्ध चिन्मय सदाय एकरूप परम चैतन्य ज्योतिस्वरूप ज छुं. अहा! तिर्यंच पण ज्यारे समकित पामे छे त्यारे पोताना स्वरूपने आवो ज अनुभवे छे के-हुं एक छुं, शुद्ध छुं, सदाय परम चिन्मात्रज्योतिस्वरूप ज छुं.

जुओ, अहीं ‘सदाय शुद्ध’ - एम लीधुं छे. माटे कोई एम कहे के अशुद्ध पर्याय वखते द्रव्य (त्रिकाळी) अशुद्ध थई जाय छे तो ए वात खोटी छे. वस्तु चेतना-


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स्वभाव तो अंदर एकरूप त्रिकाळ शुद्ध ज छे. अहाहा...! भगवान आत्मा अंदर देह ने रागथी - विकारथी भिन्न अने वर्तमान पर्यायथी ने भेदना भावथीय भिन्न एवो त्रिकाळ शुद्ध ज छे. समकिती पोताना आवा अभ्यंतर स्वरूपने अनुभवे छे अने एनुं नाम धर्म छे. समजाय छे कांई...? शुद्ध ने अनुभव्यो त्यारे ‘शुद्ध’ छे एम जाण्युं ने एनुं नाम धर्म छे. आवी वात छे!

वळी कहे छे- ‘तु’ अने ‘एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि’ आ जे भिन्न लक्षणवाळा विविध प्रकारना भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी; ‘यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम्’ कारण के ते बधाय मने परद्रव्य छे.

शुं कहे छे? के आ जे चैतन्यथी भिन्न लक्षणवाळा दया, दान, व्रत, भक्ति आदि अनेक प्रकारना भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी. झीणी वात छे भाई! साधक दशा छे ने? पूरण सर्वज्ञ वीतरागनी दशा नथी. तो कहे छे-मारी पर्यायमां असंख्य प्रकारना शुभ ने अशुभ भावो प्रगट थाय छे. भाषा जुओ! पहेलां कह्युं के-हुं सदाय एकरूप शुद्ध चिन्मात्र छुं; हवे कहे छे-चेतनाथी भिन्न लक्षणवाळा विविध भावो मारी पर्यायमां ‘समुल्लसन्ति’ एटले प्रगट थाय छे. अहाहा...! अहीं शुं कहेवुं छे? के-मुनि-धर्मी- मोक्षमार्गी एवो हुं मने एकरूप ज अनुभवुं छुं अने आ भिन्न लक्षणवाळा अनेक जे भावो पर्यायमां प्रगट थाय छे ‘ते अहं न अस्मि’ ते हुं नथी अर्थात् आ भावो माराथी भिन्न ज छे, तेओ हुं नथी. अंतरनी सुक्ष्म वात छे.

लोको तो व्रत, तप आदि शुभभावोने साधन माने छे, ज्यारे अहीं कहे छे-ते हुं नहि. पृथक्लक्षणवाळा ते अनेक भावो आवे छे खरा, पण ते हुं नहि, तेओ मारा शुद्ध एक चिन्मय स्वभावथी भिन्न ज छे. विकारलक्षणवाळा छे ने? माटे तेओ भिन्न ज छे. भाई! आ महिना महिनाना उपवास-तप करे ए शुद्ध आत्मा नहि अने ते आत्मानो धर्म नहि. बहु आकरी वात बापा! कमजोरीथी ते भावो प्रगट थाय छे. पण धर्मी कहे छे-ते हुं नहि; हुं तो शुद्ध एक चिन्मात्र आत्मा छुुं. ल्यो, आ प्रमाणे धर्मीने स्वस्वरूपनी अस्तिना भानमां परभावोनी नास्ति आवी जाय छे. ‘आ हुं छुं’ एवा भानमां ‘आ हुं नथी’ - एम आवी जाय छे. समजाणुं कांई...?

एक समयनी केवळज्ञाननी पर्याय परिपूर्ण छे. ए पर्यायमां पोताना द्रव्य-गुण अने त्रणे काळनी पर्यायनुं तथा छये द्रव्योनुं ज्ञान आवे छे. पण पर्यायमां द्रव्य-गुण के छ द्रव्यो आवतां (प्रवेशतां) नथी. तेवी रीते श्रुतज्ञाननी पर्यायमां पण ‘आ हुं छुं’ एवुं ध्रुवना अस्तित्वनुं अने ‘आ हुं नथी’ - एम रागादिनुं ज्ञान आवे छे, पण रागादि पदार्थो कांई एमां आवता (प्रवेशता) नथी, भिन्न ज रहे छे. आ प्रमाणे स्वस्वरूपमां एकाग्र थईने परिणमता ज्ञानीने पोताना ज्ञानमां रागादि परभावो पोतानाथी भिन्न भासे छे.


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ज्ञानी कहे छे-पर्यायमां प्रगट थता आ विविध शुभाशुभ भावो ते हुं नथी कारण के तेओ बधाय मने परद्रव्य छे. एम के ते परभावो बधा परद्रव्य छे एम हुं जाणुं छुं. अंतरमां शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये प्रगट निर्मळ रत्नत्रयनी परिणति ए मारुं स्व छे, पण आ रागादि भावो बधा मने परद्रव्य छे. अहा! जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते षोडशकारण भावनाओ पण मने परद्रव्य छे एम कहे छे. प्रकृति जे बंधाय ते तो अजीव पर छे ज, परंतु जे व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प उत्पन्न थाय ते पण मने अजीव परचीज छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?

हवे आगळना कथननी सूचनानो श्लोक कहे छेः-

* कळश १८६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परद्रव्यग्रहं कुर्वन’ जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे ‘अपराधवान’ ते अपराधी छे, ‘बध्येत एव’ तेथी बंधमां पडे छे,..................

परद्रव्य एटले व्रत, तप, भक्ति, दया, दान आदि परभावोने जे पोताना मानी ग्रहण करे छे ए अपराधी एटले गुन्हेगार छे. शुं कह्युं आ? के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, शास्त्र-भणतरनो राग अने पांचमहाव्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहाररत्नत्रयनो राग के जेने धर्मी पुरुष परद्रव्य जाणे छे तेने पोतानुं मानवुं ते अपराध-गुन्हो छे; अने एवो अपराधी जीव बंधनमां पडे छे. भाई! जेटला व्यवहारना विकल्पो उत्पन्न थाय छे ते बधा परद्रव्य छे. तेने जे भला अने स्वद्रव्य जाणे छे ते गुन्हेगार-चोर-अपराधी छे. ल्यो, आ सोनुं चांदी, ने जरझवाहरात ते परद्रव्य ए तो क्यांय रही गयां. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे- ‘स्व द्रव्ये संवृतः ‘जे स्वद्रव्यमां ज संवृत छे एवो यति अनपराधः’ निरपराधी छे ‘न बध्येत’ तेथी बंधातो नथी.

अहाहा...! जे मुनिराज स्वद्रव्यमां ज संतुष्ट थई रमे छे ते निरपराधी छे. जे परद्रव्य-परभावने वांछतो नथी पण नित्यानंद-सहजानंदस्वरूप स्वद्रव्यमां ज गुप्त थई तृप्त-तृप्त रहे छे ते निरपराधी छे अने तेथी ते बंधातो नथी.

केटलाक कहे छे-अत्यारे शुद्ध उपयोग नथी, माटे पुण्य ए ज धर्म छे. अरे! तुं शुं कहे छे भाई? शुद्ध उपयोग नथी तेथी शुं पुण्य धर्म थई जाय? अहीं तो एने परद्रव्य कहे छे अने एने ग्रहण करवुं ते अपराध छे, बंधन छे. अरे भाई! पुण्य करीने तो तुं अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो, पण भवभ्रमण मटयुं नहि. अहा! परद्रव्यने-पुण्यने पोतानुं माने ए महा अपराध छे अने एनी सजा चार गतिनी जेल छे.


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वळी कोई कहे छे-कानजीस्वामी व्यवहारनो लोप करे छे; एम के व्यवहारथी लाभ थाय एम कहेता नथी.

वात साची छे; व्यवहार आवे छे, ते हो भले; पण तेथी शुं? ए कांई धर्म के धर्मनुं कारण नथी. ज्ञानी तेने परद्रव्य जाणे छे. शुं कीधुं? करोडो लगावीने मंदिर बंधावे, प्रतिमा पधरावे पण ए भाव परद्रव्य छे एम ज्ञानी जाणे छे. अहा! ए भावोने पोताना गणवा ते महा अपराध छे.

प्रश्नः– तो कोई मंदिरो बंधावशे नहि, प्रतिमा पधरावशे नहि. उत्तरः– भाई! तने खबर नथी. मंदिर तो एना काळे एना कारणे थाय छे. एने कोण बंधावे? अने धर्मात्माने एवो राग आव्या विना रहेतो नथी, पण छे ए अपराध. मार्ग बहु सूक्ष्म छे. बापा! लोकोने जैनपणुं शुं छे ए खबर नथी.

अही कहे छे-परद्रव्यने-व्यवहारना विकल्पनेय जे ग्रहता नथी ते यति निरपराधी छे. मुनिराजने व्यवहारनो विकल्प आवे, पण एनो एने आदर नथी. एनाथी लाभ छे वा ए पोतानी चीज छे एम ते मानता नथी. अहा! आवा! मुनि-संत निरपराधी छे अने एमने बंधन नथी. जे अल्प बंध थाय छे तेने स्वभावनी द्रष्टिनी मुख्यतामां गणवामां आवतो नथी. स्वद्रव्य जे आत्मा एमां राग छे नहि, तेथी स्वभावद्रष्टिवंत मुनिराजने बंधन नथी. किंचित् राग ने बंध थाय छे ते स्वभावनी द्रष्टिमां गौण छे, केमके धर्मी एने परद्रव्य जाणे छे. समजाणुं कांई...? आवी वात छे.

[प्रवचन नं ३६०*दिनांक ८-६-७७]

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गाथा ३०१ थी ३०३
थेपादी अवराहे जो कुव्वदि सो उ संकिदो भमदि।
मा बज्झेज्जं केण वि चोरो त्ति जणम्हि वियरंतो।। ३०१।।
जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि।
ण वि तस्स बज्झिदुं जे चिंता उप्पज्जदि कयाइ।। ३०२।।
एवम्हि सावराहो बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा।
जइ पुण णिरावराहो णिस्संकोहं ण बज्झामि।। ३०३।।
स्तेयादीनपराधान् यः करोति स तु शङ्कितो भ्रमति।
मा बध्ये केनापि चौर इति जने विचरन्।। ३०१।।
यो न करोत्यपराधान् स निरशङ्कस्तु जनपदे भ्रमति।
नापि तस्य बद्धुं यच्चिन्तोत्पद्यते कदाचित्।। ३०२।।
एवमस्मि सापराधो बध्येऽहं तु शङ्कितश्चेतयिता।
यदि पुनर्निरपराधो निरशङ्कोऽहं न बध्ये।। ३०३।।

हवे आ कथनने द्रष्टांतपूर्वक गाथामां कहे छेः-

अपराध चौर्यादिक करे जे पुरुष ते शंक्ति फरे,
के लोकमां फरतां रखे को चोर जाणी बांधशे; ३०१.
अपराध जे करतो नथी, निःशंक लोक विषे फरे,
‘बंधाउं हुं’ एवी कदी चिंता न थाये तेहने. ३०२.
त्यम आतमा अपराधी ‘हुं बंधाउं’ एम सशंक छे,
ने निरपराधी जीव ‘नहि बंधाउं’ एम निःशंक छे. ३०३.

गाथार्थः– [यः] जे पुरुष [स्तेयादीन् अपराधान्] चोरी आदि अपराधो [करोति] करे छे [सः तु] ते [जने विचरन्] लोकमां फरतां [मा] रखे [केन अपि] मने कोई [चौरः इति] चोर जाणीने [बध्ये] बांधशे-पकडशे’ एम [शङ्कितः भ्रमति] शंक्ति फरे छे; [यः] जे पुरुष [अपराधान्] अपराध [न करोति] करतो नथी


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[सः तु] ते [जनपदे] लोकमां [निरशङ्कः भ्रमति] निःशंक फरे छे, [यद्] कारण के [तस्य] तेने [बद्धुं चिन्ता] बंधावानी चिंता [कदाचित् अपि] कदापि [न उत्पद्यते] ऊपजती नथी. [एवम्] एवी रीते [चेतयिता] अपराधी आत्मा ‘[सापराधः अस्मि] हुं अपराधी छुं [बध्ये तु अहम्] तेथी हुं बंधाईश’ एम [शङ्कितः] शंक्ति होय छे, [यदि पुनः] अने जो [निरपराधः] निरपराधी (आत्मा) होय तो ‘[अहं न बध्ये] हुं नहि बंधाउं’ एम [निरशङ्कः] निःशंक होय छे.

टीकाः– जेम आ जगतमां जे पुरुष, परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे तेने ज बंधनी शंका थाय छे अने जे अपराध करतो नथी तेने बंधनी शंका थती नथी, तेम आत्मा पण जे अशुद्ध वर्ततो थको, परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे तेने ज बंधनी शंका थाय छे अने जे शुद्ध वर्ततो थको अपराध करतो नथी तेने बंधनी शंका थती नथी-एवो नियम छे. माटे सर्वथा सर्व पारका भावोना परिहार वडे (अर्थात् परद्रव्यना सर्व भावोने छोडीने) शुद्ध आत्माने ग्रहण करवो, कारण के एम थाय त्यारे ज निरपराधपणुं थाय छे.

भावार्थः– जो माणस चोरी आदि अपराध करे तो तेने बंधननी शंका थाय; निरपराधने शंका शा माटे थाय? तेवी ज रीते जो आत्मा परद्रव्यना ग्रहणरूप अपराध करे तो तेने बंधनी शंका थाय ज; जो पोताने शुद्ध अनुभवे, परने न ग्रहे, तो बंधनी शंका शा माटे थाय? माटे परद्रव्यने छोडी शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं. त्यारे ज निरपराध थवाय छे.

*
समयसार गाथा ३०१ थी ३०३ः मथाळुं

हवे आ कथनने द्रष्टांतपूर्वक गाथामां कहे छेः-

* गाथा ३०१ थी ३०३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम आ जगतमां जे पुरुष, परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे तेने ज बंधनी शंका थाय छे अने जे अपराध करतो नथी तेने बंधनी शंका थती नथी, तेम......’

लोकमां जे पैसा, कपडां, दागीना ईत्यादि परवस्तुनी चोरी करे छे ते अपराधी छे अने तेने, मने कोई पकडशे, बांधशे, बंधनमां-जेलमां नाखशे एवी शंका थाय छे. परंतु जे आवो अपराध करतो नथी ते निर्भय रहे छे, तेने बंधननी शंका थती नथी. आ द्रष्टांत छे. हवे कहे छे-


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‘तेम आत्मा पण जे अशुद्ध वर्ततो थको, परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे तेने ज बंधनी शंका थाय छे अने जे शुद्ध वर्ततो थको अपराध करतो नथी तेने बंधनी शंका थती नथी-एवो नियम छे.’

जोयुं? कहे छे-आत्मा पण अशुद्ध वर्ततो थको अपराधी छे. अशुद्धता (विकार- राग) छे ते परद्रव्य छे. तेथी अशुद्धतामां- परद्रव्यमां वर्ततो थको जीव अपराध करे छे. अहाहा.....! दया, दान, भक्ति आदिना जे भाव थाय छे ते परद्रव्य छे अने तेमां एकत्वबुद्धिथी जे वर्ते छे, वा ते भाव मारी चीज छे एम जे माने छे ते अपराधी छे. सम्यग्द्रष्टिने किंचित् अशुद्धता थाय छे पण तेमां ते एकत्वपणे वर्ततो नथी. पण अज्ञानी रागमां एकत्वपणे वर्ते छे अने तेथी ते अपराधी छे.

दुनियामां अत्यारे छ छ मासना उपवास ने व्रत आदि करे छे ने? अने एनी पाछळ वरघोडा काढे छे ने? अहा! ए धर्म छे ए वात तो दूर रहो, अहां कहे छे-एमां जे (एकपणे) वर्ते छे ते अपराध छे. अहा! जे प्राणी अशुद्ध वर्ते छे अर्थात् अशुद्धता मारी चीज छे एम मानी वर्ते छे ते अपराधी-गुन्हेगार छे. गजब वात छे भाई! आ दया, दान, व्रतादिना भाव भला छे ने मारा छे एम मानीने जे वर्ते छे ते अपराधी छे.

अहाहा...! आत्मा चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु छे. तेने छोडी पुण्य-पापना भावने पोताना मानी जे वर्ते छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे, अपराधी पापी छे. ते बंधनने प्राप्त थाय छे. भाई! राग आदि जे परद्रव्य छे तेने पोताना मानवा ए अपराध छे अने तेनी सजा बंधन छे, चारगतिनी जेल छे, समजाय छे कांई....?

अहा! अरिहंत परमात्माने जेमांथी अनंत ज्ञान अने अनंत आनंद प्रगट अंदर थाय छे एवी ज्ञान ने आनंदनी शक्ति दरेक आत्मामां पूर्ण पडेली छे. ते क्यांय बहारथी प्रगट थाय छे एम नथी. अंदर शक्तिए विद्यमान छे ते अरिहंत दशामां प्रगट थाय छे.

पंचास्तिकायमां ज्यां द्रव्य, गुण ने पर्याय त्रणे एक द्रव्यनां छे, अन्यद्रव्यथी भिन्न एक सत्ता छे-एम सिद्ध करवुं होय त्यां ‘द्रवति इति द्रव्यम्’ द्रवे छे ते द्रव्य छे एम कह्युं. त्यां एम बताववुं छे के अशुद्ध पर्याय पण पोते द्रव्य द्रवे छे. त्यां पर्याय द्रव्यनी छे एम एक अस्तित्व (सत्ता) सिद्ध करवुं छे. जेम समुद्रमां तरंग उठे छे ते समुद्रनां छे तेम द्रव्यमां जे पर्याय उठे छे ते द्रव्यनी छे. पंचास्तिकाय गाथा र७मां आवे छे के- रागद्वेषनो कर्ता आत्मा छे. त्यां विकार आत्मानी पर्यायमां थाय छे एम बताववुं छे.


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जयां द्रव्यद्रष्टि, अध्यात्मनी द्रष्टि कराववी होय त्यां (शास्त्रमां) एम आवे के पर्याय द्रव्यमां नथी, अने तेथी पर्याय द्रव्यथी उत्पन्न थती नथी; पर्यायनो कर्ता द्रव्य नथी, पर्याय पर्यायथी उत्पन्न थाय छे. परमात्मप्रकाश गाथा ६८मां आवे छे के-त्रिकाळी आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा ज एक परमार्थ वस्तु छे. ते मोक्षमार्ग आदि पर्यायनो कर्ता नथी. ज्यां शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि कराववी होय त्यां कहे के-सांभळ! तारी अंदर जे नित्यानंद प्रभु (विराजे) छे ए कदीय पर्यायने करतो नथी. आत्मा तो आनंदकंद सच्चिदानंद प्रभु स्वभावे सिद्ध सदश छे. जेम भगवान सिद्धमां रागद्वेष नथी तेम भगवान आत्मामां (त्रिकाळी द्रव्यमां) रागद्वेष नथी, जो एमां रागद्वेष होय तो ते कदी टळी शके नहि. ल्यो, आवी वात छे!

एक कोर कर्ता कहे ने वळी पाछो अकर्ता कहे. अहीं कहे छे-रागमां वर्ततो जीव मिथ्याद्रष्टि छे. ए तो ए रागने पोतानो माने छे ने? तो रागमां वर्ते छे एम कह्युं. भाई! ज्यां जे अपेक्षाए कथन होय ते यथार्थ समजवुं जोईए. अपेक्षाथी यथार्थ समजे तो विरोध न आवे.

अहीं कहे छे-जे कोई जीव पुण्य परिणाम मारा, ते में कर्या छे अने ए मारुं कर्तव्य छे एम मानतो अशुद्धतामां वर्ते छे ते अपराधी छे. ते अशुद्ध वर्ततो थको परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे. जुओ, अहीं राग परद्रव्य छे एम कह्युं छे. भगवान आत्माना स्वरूपमां राग छे नहि अने जो ते आत्माना स्वरूपमां होय तो कदी नाश पामे नहि. पण अरिहंत अने सिद्ध परमात्मा जे थाय छे तेमने पर्यायमां रागद्वेषनो नाश थाय छे; माटे ए सिद्ध थाय छे के राग पोतानी चीज नथी, परद्रव्य छे. माटे जे रागमां पोतापणे वर्ते छे ते अपराधी छे अने तेने अवश्य शंका थाय छे के-हुं बंधाउं छुं, मने बंधन थाय छे.

अहाहा...! आवो भगवाननो मारग! शुं थाय? वस्तुस्थिति ज आवी छे. भगवाने कांई करी छे एम नथी; एमणे तो जेवी वस्तुस्थिति छे तेवी जाणी छे अने एवी दिव्यध्वनिमां प्रगट करी छे. अहाहा...! भगवान कहे छे-जे कोई पण जीव पोताना शुद्ध ज्ञाता-दष्टास्वभावने छोडीने पुण्य परिणाममां (व्यवहारमां) पोतापणे वर्ते छे ए अपराधी छे अने एने शंका थाय छे के-हुं बंधाउं छुं; अने ते बंधाय ज छे. अहा! गाथाए गाथाए आ पोकार छे.

परंतु जे शुद्ध वर्ततो थको अपराध करतो नथी तेने बंधननी शंका थती नथी. अहाहा...! हुं तो ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु एक शुद्ध चिन्मात्र आत्मा छुं एम अनुभव- रूप जे वर्तमान दशामां वर्ते छे ते अपराधी, गुन्हेगार के चोर नथी. पोताना शुद्ध भगवान आत्मानी अंतद्रष्टि, ज्ञान ने रमणतामां जे वर्ते छे ते अपराध करतो


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नथी; अर्थात् जेवो आत्मा वस्तुए शुद्ध छे एवो पर्यायमां शुद्ध वर्ततो थको निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणमे छे ते निरपराध छे ने तेने बंधननी शंका थती नथी एवो नियम छे. जुओ, आ नियम एटले सिद्धांत कह्यो.

हवे कहे छे- ‘माटे सर्वथा सर्व पारका भावोना परिहार वडे शुद्ध आत्माने ग्रहण करवो, कारण के एम थाय त्यारे ज निरपराधपणुं थाय छे.’

आत्मा जे वस्तु छे ते सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु शुद्ध चिदानंदकंद छे. तेमां कर्मना निमित्तथी उत्पन्न थता हिंसा, जूठ, चोरी आदि पापना भावो ने दया, दान आदि पुण्यभावो-ते सर्व परद्रव्य छे, परभावो छे. अहीं कहे छे-ए सर्व परभावोनी द्रष्टि छोडी शुद्ध आत्माने ग्रहण करवो एटले के शुद्ध आत्मामां ज द्रष्टि लगाववी, तेने ज ज्ञाननुं ज्ञेय बनाववुं अने तेमां ज लीनता करवी; केमके त्यारे ज निरपराधता थाय छे. आनुं नाम जैनधर्म छे.

तो जीवोनी दया पाळवी ए जैनधर्म नहि? भाई! जीवोनी दयानो जे विकल्प आवे छे ते, अहीं कहे छे, परद्रव्य छे, परभाव छे; अने तेने ग्रहण करवो ते अपराध छे. परनी दया तो बापु! कोई पाळी शकतो नथी. पर जीव तो एनुं आयु होय तो बचे छे. कोईनो बचाव्यो बचे छे एम छे नहि. छतां हुं बीजाने बचावी शकुं छुं एम माने ए तो मिथ्यात्व छे. बीजाने कोण बचावे? छतां एवो परने बचाववानो विकल्प आवे खरो; ज्ञानीने पण आवे छे. परंतु ज्ञानी तेने ग्रहतो नथी केमके परभावनुं ग्रहण ते अपराध छे, चोरी छे. जे परभावने पोतानो मानी वर्ते छे ते नियमथी अपराधी छे ने ते बंधाय छे. समजाणुं कांई...?

जेटला कोई दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि शुभना विकल्प उठे छे ते सर्व परद्रव्य छे, परभाव छे, ए कांई आत्मानो स्वभाव नथी. ते सर्व परभावोना सर्वथा परिहार वडे...... , जुओ सर्व अने सर्वथा एम बे शब्दो पडया छे. एटले के शुभाशुभ सर्व परभावोनुं सर्वथा लक्ष छोडीने निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपी आत्माने जाणवो- अनुभववो अने एमां ज द्रष्टि लगावी स्थिर थवुं एनुं नाम शुद्ध आत्माने ग्रहण कर्यो कहेवाय छे अने त्यारे ज ते निरपराध थाय छे.

आ सिवाय, कोई मोटो अबजोपति शेठ होय, मोटो राजा होय के मोटो देव होय, जो एने देहादि अने रागादि परभावोथी भिन्न पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं भान नथी तेने देहनी ने रागनी एकताबुद्धिमां देह छूटे छे. अहा! आवा जीवो बिचारा चारगतिमां रझळी मरे छे. माटे सर्व परभावोनुं सर्वथा लक्ष छोडी शुद्ध


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आत्माने ग्रहण करवो के जेथी निरपराधता प्रगट थाय छे अने बंधन थतुं नथी. समजाणुं कांई...?

* गाथा ३०१ थी ३०३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जो माणस चोरी आदि अपराध करे तो तेने बंधननी शंका थाय; निरपराधने शंका शा माटे थाय?’

जुओ, जे चोरी आदि अपराध करे तेने शंका-भय थाय के मने कोई पकडशे, बंधनमां नाखशे. पण निरपराधने शंका-भय शुं काम थाय? जे निरपराध छे ए तो निर्भय ज छे, तेने बंधननो भय नथी.

‘तेवी ज रीते जो आत्मा परद्रव्यना ग्रहणरूप अपराध करे तो तेने बंधनी शंका थाय ज; जो पोताने शुद्ध अनुभवे, परने न ग्रहे तो बंधनी शंका शा माटे थाय?’

शुं कीधुं? के -जो आत्मा परभावने-शुभाशुभ रागने ग्रहण करे तो तेने चोरीनो अपराध थाय छे, माटे तेने बंधनी शंका-भय थाय ज. पण जे परभावने ग्रहे ज नहि, एक शुद्ध आत्माने ज अनुभवे ते निरपराधी छे अने तेथी तेने बंधननी शंका-भय केम थाय? तेने बंधननो भय थतो नथी.

‘माटे परद्रव्यने छोडी शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं. त्यारे ज निरपराध थवाय छे.’ ल्यो, शुभभाव करतां करतां निरपराध थवाय एम नहि, पण सर्व शुभ भावनुं पण सर्वथा लक्ष छोडीने पोताना शुद्ध एक चैतन्यभावने ग्रहण करवाथी निरपराध थवाय छे एम कहे छे. जुओ आ निरपराध थवानी रीत!

[प्रवचन नं. ३६१*दिनांक ९–६–७७]

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गाथा ३०४–३०प

को हि नामायमपराधः? –

संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्ठं। अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो।। ३०४।। जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्संकिओ उ सो होइ। आराहणाइ णिच्चं वट्टेइ अहं ति जाणंतो।। ३०५।।

संसिद्धिराधसिद्धं साधितमाराधितं चैकार्थम्।
अपगतराधो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः।। ३०४।।
यः पुनर्निरपराधश्चेतयिता निरशङ्कितस्तु स भवति।
आराधनया नित्यं वर्तते अहमिति जानन्।। ३०५।।

हवे पूछे छे के आ ‘अपराध’ एटले शुं? तेना उत्तरमां अपराधनुं स्वरूप कहे छेः-

संसिद्धि, सिद्धि, राध, आराधित, साधित–एक छे,
ए राधथी जे रहित छे ते आतमा अपराध छे; ३०४.
वळी आतमा जे निरपराधी ते निःशंक्ति होय छे,
वर्ते सदा आराधनाथी, जाणतो ‘हुं’ आत्मने. ३०प.

गाथार्थः– [संसिद्धिराधसिद्धम्] संसिद्धि, *राध, सिद्ध, [साधितम् आराधितं च] साधित अने आराधित- [एकार्थम्] ए शब्दो एकार्थ छे; [यः खलु चेतयिता] जे आत्मा [अपगतराधः] ‘अपगतराध’ अर्थात् राधथी रहित छे [सः] ते आत्मा [अपराधः] अपराध [भवति] छे.

[पुनः] वळी [यः चेतयिता] जे आत्मा [निरपराधः] निरपराध छे [सः तु] ते [निरशङ्कितः भवति] निःशंक होय छे; [अहम् इति जानन्] ‘शुद्ध आत्मा ते ज हुं छुं’ एम जाणतो थको [आराधनया] आराधनाथी [नित्यं वर्तते] सदा वर्ते छे. _________________________________________________________________ * राध = आराधना; प्रसन्नता; कृपा; सिद्धि; पूर्णता; सिद्ध करवुं ते; पूर्ण करवुं ते.


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(मालिनी)
अनवरतमनन्तबध्यते सापराधः
स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।। १८७।।

टीकाः– परद्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धि अथवा साधन ते राध. जे आत्मा ‘अपगतराध’ अर्थात् राध रहित होय ते आत्मा अपराध छे. अथवा (बीजो समासविग्रह आ प्रमाणे छेः) जे भाव राध रहित होय ते भाव अपराध छे; ते अपराध सहित जे आत्मा वर्ततो होय ते आत्मा सापराध छे. ते आत्मा, परद्रव्यना ग्रहणना सद्भाव वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावने लीधे बंधनी शंका थती होईने स्वयं अशुद्ध होवाथी, अनाराधक ज छे. अने जे आत्मा निरपराध छे ते, समग्र परद्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिना सद्भावने लीधे बंधनी शंका नहि थती होवाथी ‘उपयोग ज जेनुं एक लक्षण छे एवो एक शुद्ध आत्मा ज हुं छुं’ एम निश्चय करतो थको शुद्ध आत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे एवी आराधनाथी सदाय वर्ततो होवाथी, आराधक ज छे.

भावार्थः– संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित अने आराधित-ए शब्दोनो अर्थ एक ज छे. अहीं शुद्ध आत्मानी सिद्धि अथवा साधननुं नाम ‘राध’ छे. जेने ते राध नथी ते आत्मा सापराध छे अने जेने ते राध छे ते आत्मा निरपराध छे. जे सापराध छे तेने बंधनी शंका थाय छे माटे ते स्वयं अशुद्ध होवाथी अनाराधक छे; अने जे निरपराध छे ते निःशंक थयो थको पोताना उपयोगमां लीन होय छे तेथी तेने बंधनी शंका नथी, माटे ‘शुद्ध आत्मा ते ज हुं छुं’ एवा निश्चयपूर्वक वर्ततो थको सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने तपना एक भावरूप निश्चय आराधनानो आराधक ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [सापराधः] सापराध आत्मा [अनवरतम्] निरंतर [अनन्तैः] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप कर्मोथी [बध्यते] बंधाय छे; [निरपराधः] निरपराध आत्मा [बन्धनम्] बंधनने [जातु] कदापि [स्पृशति न एव] स्पर्शतो नथी ज. [अयम्] जे सापराध आत्मा छे ते तो [नियतम्] नियमथी [स्वम् अशुद्धं भजन्] पोताने अशुद्ध सेवतो थको [सापराधः] सापराध छे; [निरपराधः] निरपराध आत्मा तो [साधु] भली रीते [शुद्धात्मसेवी भवति] शुद्ध आत्मानो सेवनार होय छे. १८७.

*