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चाहे तो दया, दान, व्रतादिना पुण्यभाव हो तोपण ते परद्रव्य छे, परभाव छे. अहीं कहे छे-ए पुण्य-पापना सर्व परभावोने छोडीने एक चिदानंदघन प्रभु आत्मानी द्रष्टि, एनुं ज्ञान अने एमां रमणता थवी ते शुद्ध आत्मानी सिद्धि छे. शुं कीधुं? के अंदर निर्मळ रत्नत्रयरूप साधकभाव प्रगट थयो त्यारे भगवान आत्मानी सिद्धि थई; त्यारे वस्तु त्रिकाळी शुद्ध आ छे एम सिद्ध थयुं अर्थात् त्यारे साधन थयुं. अहीं कहे छे-आवी साधनदशा प्रगट थई ते राध छे. आ, अपराधनी सामे राध शब्द छे. अहीं शुं कहेवुं छे? के निर्मळानंदनो नाथ भगवान आत्मा छे. तेनो आश्रय करवाथी जे अंदर साधक भाव प्रगट थयो, निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थया के जेमां भगवान आत्मानी सिद्धि थई ते साधकभाव राध छे, शुद्ध आत्मानुं सेवन छे.
अहा! अनादिथी जीवने पुण्य-पापना भाव जे विकार छे तेनी सिद्धि हती. आ विकार छे ते हुं छुं एम एने मिथ्यात्वनुं-अपराधनुं सेवन हतुं. हवे ते ज आत्माने ज्यारे गुलांट खाईने हुं तो शुद्ध चिदानंदकंद प्रभु आत्मा छुं-एम एनां ज्ञान-श्रद्धान ने रमणता थयां त्यारे तेने पर्यायमां शुद्ध आत्मानी सिद्धि थई. आवो साधक भाव जे छे ते राध छे, आत्मानुं सेवन छे-एम कहे छे. आनुं नाम धर्म ने मोक्षनो मार्ग छे.
भाई! भगवाननो मार्ग बहुं झीणो छे. वळी, एणे बधुं बहारथी कल्प्युं छे एटले आ झीणुं पडे छे. अरे! धर्मना नामे अत्यारे तो भारे गोटाळो चाली रह्यो छे. चोर कोटवाळने दंडे एवी अत्यारे स्थिति छे. पण बापु! मारग तें कल्प्यो छे तेवो नथी. अहा! वीतराग परमेश्वरनी अकषाय करुणाथी आवेली आ वाणी सांभळ तो खरो प्रभु! व्रत करवां ने तप करवां ने चोविहार करवो-ए बधी क्रिया तो राग छे, ते अपराध छे, गुन्हो छे, चोरी छे. अहा! ते अपवित्र, अशुद्ध, बाधक ने विराधक भाव छे. ते बंधनुं कारण छे. एक भगवान आत्मा ज परम पवित्र अबंध छे.
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शुं कीधुं? भगवान आत्मा चैतन्यघन प्रभु परमपवित्र अने अबंध छे. तेनो द्रष्टिमां स्वीकार करवो अने तेमां ज लीनता करवी ते आत्मानी सिद्धि छे. अहीं कहे छे- जेमां आत्मानी सिद्धि-प्राप्ति थाय ते साधकभाव राध छे. ते साधकपणुं भगवान आत्मानी सेवा छे.
लोको ते जनसेवा ते प्रभु सेवा एम कहे छे ने? पण एमां तो धूळेय प्रभु सेवा नथी सांभळने. परनी सेवा कोण करी शके छे? आ आंगळी ऊंची-नीची थाय छे ने? ते पण आत्मा करी शकतो नथी. ते कांई आत्मानुं कार्य नथी केमके ए तो जड माटी-धूळ छे. एनुं परिणमन जड परमाणुओ पलटीने करे छे; एमां आत्मानुं कांई कार्य नथी. अने रागनी सेवा जे करे छे तेय अज्ञानी छे.
चालती मोटरने हाथ वडे अटकावी दे एवुं एक पहेलवानमां बळ हतुं; अने तेनुं एने अभिमान हतुं. परंतु ते ज पहेलवान ज्यारे मरण-पथारीए पडयो त्यारे शरीर पर बेठेली माखीनेय उडाडवानी एनी शक्ति न हती. भाई! शरीरनी जडनी क्रिया कोण करी शके? मफतनुं अभिमान करे के में आ कर्युं. बाकी देह, वाणी ईत्यादि जडनी क्रिया आत्मा करी शकतो नथी. तथापि ए मिथ्या अभिमान करे एमां तो बंधनी सिद्धि थाय छे. अहा! ए बंधनो साधकभाव छे. समजाणुं कांई...?
भाई! पर तरफना लक्षवाळा भावो-चाहे हिंसादि पापना हो के अहिंसादि पुण्यना हो-ते सर्व भावो अपराध छे. पुण्यना भावो पण अपराध ज छे. ते भावो बंध साधक छे. ते भावोनुं सेवन करे ते बंधनुं ज सेवन करे छे अने तेने संसारनी ज सिद्धि थाय छे. भाई! रागनुं सेवन ते संसारनी ज सिद्धि छे. अहा! आवुं यथार्थ जाणीने जे समस्त परभावोथी विमुख थई आत्मसन्मुख थाय छे, भगवान आत्मानां निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान ने अंतर-रमणतारूप चारित्र प्रगट करे छे तेने आत्मानी सिद्धि-प्राप्ति थाय छे. आवी वात छे.
भाषा तो सादी छे भगवान! पण भाव गंभीर छे. अहा! जेने एकावतारी इन्द्रो पण अति विनम्र थई एकचित्ते सांभळे ते भगवाननी वाणीनी गंभीरतानी शी वात! अहा! ते अपार गंभीर ने अद्भूत अलौकिक छे.
जुओ, उपर सौधर्म देवलोक छे. तेमां बत्रीस लाख विमान छे. प्रत्येक विमानमां असंख्य देव छे. तेनो स्वामी शक्रेन्द्र छे. ते त्रण ज्ञाननो धारक समकिती आत्मज्ञानी छे. ते एकावतारी अर्थात् हवे पछी एक भव करीने मनुष्य थईने मोक्ष जशे. तेनी पत्नी शची पण एकावतारी छे. ज्यारे उत्पन्न थई त्यारे तो मिथ्याद्रष्टि हती. परंतु ते इन्द्र साथे भगवाननी वाणी सांभळवा जती त्यां तेने अंतर-स्वभावनो आश्रय थवाथी आत्मज्ञान थयुं होय छे, ते पण एक भव करीने मोक्ष जशे. अहा! शुक्र अने
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शची बन्ने समोसरणमां भगवाननी जे वाणी सांभळता होय ते वाणी केवी होय? बापु! आ बीजानी दया करो ने दान करो ने उपवास करो ईत्यादि तो कुंभारेय कहे छे. अने एमां नवुं शुं छे? एवुं तो एणे अनंत वार कर्युं छे.
भाई! रात्रिभोजन करवुं ए महापाप छे केमके एमां त्रसजीवो सहित अनेक जीवोनी हिंसा थाय छे. वळी तीव्र लोलुपता विना रात्रिभोजन होतुं नथी. ते प्रमाणे लसण, डुंगळी, बटाटा आदि कंदमूळ के जेमां अनंता निगोदना जीव विद्यमान छे तेनुं भोजन करवुं ए पण महापाप छे. अरे भाई! तने खबर नथी पण ए कंदमूळना अनंता जीवोमां तारा पूर्वना अनेक माता, पिता अने संतानना जीव पण छे. अहा! तेनी अंदर तारी पूर्वनी अनंत माताओ छे. अहा! एवा कंदमूळनुं भक्षण शुं तने शोभे छे? जरा विचार तो कर. अहीं कहे छे-ए सर्व हिंसाना भाव तो अपराध अने पाप छे ज, पण एनी दया पाळवानो शुभराग जे थाय छे एय पाप छे, अपराध छे, गुन्हो छे. बहु आकरी वात भगवान!
अरे! ८४ लाख योनिना अवतारमां एने केटकेटलुं दुःख थयुं छे? कोईए कह्युं के- छापामां आज आव्युं छे के कोईनो एकनो एक दीकरो जीपमांथी उठली पडयो अने जीप तेना पर फरी वळी अने ते छोकरो मरी गयो. अहा! एने केवी पारावार वेदना ने केटलुं दुःख थयुं हशे? भाई! पण ए दुःख एने जीपना कारणे थयुं छे एम नथी; परंतु एने देह अने रागनी जे एकताबुद्धि छे तेनुं ए दुःख छे. संयोगी चीज तो एने अडीय नथी. भगवान आत्मा शुद्ध चेतनामय अरूपी चीज छे. ते रूपी चीज ने कदी अडे नहि ने रूपी चीज एने कदी अडे नहि. एक चीज बीजी चीज ने कदी अडे नही एवुं ज वस्तुस्वरूप छे. पण देहादि ने पुण्य-पाप आदि जे परभावो छे तेनी एकत्वबुद्धि अर्थात् ते हुं छुं एवो भाव ते दुःख छे. अहा! घाणीमां जेम तल पीलाय तेम आत्मा अनादिथी राग-द्वेष मोहरूप घाणीमां पीलाई रह्यो छे. अहीं कहे छे-तारे आवा दुःखथी छुटवुं होय तो आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अंदर एकला आनंदथी भर्यो छे तेनी सिद्धि कर. शुद्ध आत्मानी सिद्धि ए मोक्षनुं साधन छे.
अहा! जेम कोई बळुकी बाई गायना आंचळमांथी दूध दोहीने काढे तेम आचार्य अमृतचंद्रे भगवान कुंदकुंदाचार्यनी गाथाओमां जे भाव भर्या छे ते दोही दोहीने बहार काढया छे. भाई! तुं सांभळ तो खरो. भगवान! तुं त्रणलोकनो नाथ प्रभु अंदर अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदथी पूरण भरेलो परमेश्वर छो. अने आ पर्यायमां जे शुभाशुभ वृतिओ उठे छे ते अपराध छे, दुःख छे. माटे ते परभावोथी हठी उपयोगने अंतर्मुख करी शुद्ध आत्मानुं-पोताना परमेश्वरनुं-ज्ञान कर अने द्रष्टिने तेमां ज स्थिर करी अंतर- रमणता कर. अहा! शुद्ध स्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान ने रमणता-आचरण ए ज
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आत्मानी सिद्धि छे अने ए ज साधकपणुं छे, ए ज राध नाम आत्मानी सेवा छे. समजाणुं कांई...?
समयसार गाथा १७ - १८ मां आवे छे के-आबालगोपाळ सर्वने तेमनी ज्ञाननी पर्यायमां आत्मा जाणवामां आवी रह्यो छे. शुं कीधुं? भाई! तारी ज्ञाननी दशामां स्वज्ञेय एवो भगवान आत्मा जणाई रह्यो छे. ज्ञान स्वपरप्रकाशक छे ने? तेथी अज्ञानीने पण एनी ज्ञाननी पर्यायमां आत्मा तो जणाई रह्यो छे. पण शुं थाय? एनी द्रष्टि एना उपर नथी. एनी द्रष्टि बहार पर-राग ने निमित्तादि-पर छे. अहा! एनी बहिरात्मद्रष्टि छे अने तेथी तेने परनुं-रागादिनुं अस्तित्व भासे छे. पण ज्यारे ए ज गुलांट मारीने अंदरमां पूर्णानंदना अस्तित्वने देखे छे त्यारे हुं आवो शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मा छुं-एम एने आत्मानी सिद्धि-प्राप्ति थाय छे. ए ज साधकभाव छे अने ए ज राध छे.
हवे कहे छे- ‘जे आत्मा “अपगतराध” अर्थात् राध रहित होय ते आत्मा अपराध छे.’
जुओ, शुं कीधुं? के जे आत्मा राध रहित एटले के शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी सेवाथी रहित छे, साधकपणाथी रहित छे, वा आत्मानी सिद्धिथी रहित छे ते अपराध छे. शुद्ध आत्माना ज्ञान-श्रद्धान ने आचरणथी रहित छे ते आत्मा अपराध छे. जुओ, कर्मनुं- निमित्तनुं जोर छे माटे अपराधी छे एम नहि, पण साधकपणाथी रहित छे, शुद्ध आत्माना सेवनथी रहित छे माटे अपराधी छे एम कहे छे. ते अपराध पोतानो पोताना कारणे छे. हवे कहे छे-
‘अथवा (बीजो समासविग्रह आ प्रमाणे छेः) जे भाव राध रहित होय ते भाव अपराध छे.’
जुओ, पहेलां एम कह्युं के जे आत्मा राध रहित छे ते अपराध छे, ने हवे एम कह्युं के जे भाव राध रहित छे ते अपराध छे. अहा! जे भाव वडे शुद्ध आत्मानुं सेवन न थाय ते रागादि भाव सर्व अपराध छे. अने जेनो भाव अपराध छे ते आत्मा अपराध छे-एम वात छे.
हवे कहे छे- ‘ते अपराध सहित जे आत्मा वर्ततो होय ते आत्मा सापराध छे.’ अहा! आत्मा तो शुद्ध चैतन्य प्रभु आत्मा छे, परंतु जे आत्मा पोताना शुद्ध चैतन्यनी सन्मुखतानो अनादर करनार एवा पुण्य-पाप आदि रागभावमां वर्ते छे ते सापराध छे, गुन्हेगार छे. प्रत्येक आत्मा अंदरमां तो अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप भगवान स्वरूपे अंदर सदा विराजी रह्यो छे. पण अज्ञानीने ते केम बेसे? पोताना शुद्ध अस्तित्वनी जेने खबर नथी एवो अज्ञानी तो पुण्य आदि व्यवहारभावोमां
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मशगुल-एकरूप थईने वर्ते छे. अहीं कहे छे-एवो जीव सापराध छे, गुन्हेगार छे.
हवे कहे छे- ‘ते आत्मा, परद्रव्यना ग्रहणना सद्भाव वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावने लीधे बंधनी शंका थती होईने स्वयं अशुद्ध होवाथी, अनाराधक ज छे.’
जोयुं? परद्रव्यना एटले रागादि परभावोना ग्रहण वडे एने शुद्ध आत्मानी असिद्धि-अप्राप्ति छे. शुं कीधुं? रागादि भाव छे ते परद्रव्य छे अने एनुं ग्रहण करवुं ए अपराध छे. मुनिने महाव्रतनो राग आवे तेने ते ग्रहे ते अपराध छे. केटलाक लोको महाव्रतादिने चारित्र अने धर्म माने छे, पण भाई! महाव्रतादिना परिणाम ते शुभभाव छे अने ते परद्रव्य होवाथी तेनुं ग्रहण करवुं ते अपराध छे. बहु आकरी वात छे प्रभु! पण आ सत्य वात छे. अहा! महाव्रतादिना परिणाम भगवान आत्मानी चीजथी अन्य चीज छे ने? तेथी ते परद्रव्य छे अने तेने ग्रहवुं-सेववुं ते अपराध छे. मुनिराज- भावलिंगी संत-पण तेने (क्रमे आवी पडेलो) अपराध ज जाणे छे. कोईपण रागने अनुभववो ने भलो जाणवो, पोतानो जाणवो ते अपराध छे. अहा! रागनी सेवामां अने आराधनामां पडयो छे ते जीव सापराध छे, गुन्हेगार छे अने तेने आत्मानी सिद्धि-प्राप्तिनो अभाव छे.
अहा! आ प्रमाणे परद्रव्यना ग्रहणना सद्भावमां, शुद्ध आत्मानी अप्राप्ति होवाथी, एने हुं बंधन पामुं छुं एम शंका थाय छे. अहा! भगवान आत्मा स्वयं अबंधस्वरूप छे, अबद्धस्पृष्ट छे. आवा आत्मानी द्रष्टिने अनुभव थवा ते जैनशासन छे (गाथा १प). परंतु जे आवा शुद्ध आत्माने छोडी परद्रव्यनो-रागनो अनुभव करे छे, रागने सेवे छे तेने शुद्ध आत्मानी असिद्धि-अप्राप्ति छे अने तेथी तेने बंधनी शंका थाय ज छे. आ कारणे स्वयं अशुद्ध होवाथी अनाराधक ज छे. पोताना परम पवित्र परमात्मद्रव्यनां ज्ञान-श्रद्धान अने सेवना-आराधना अभावमां ने पुण्य-पाप आदि परभावोना ग्रहणना सद्भावमां ते अनाराधक अर्थात् अपराधी ज छे. अहा! ते कोईपण रीते आत्मानो आराधक नथी.
भाई! आ कोईपण रीते खूब शांति ने धीरज केळवीने समजवुं हों. आवो योग मळवो महादुर्लभ छे. अरे! निगोदमांथी नीकळी त्रस अवस्थाने प्राप्त थवुं अति दुर्लभ छे. एमांय पंचेन्द्रिय मनुष्यपणाने प्राप्त थवुं-एनी दुर्लभतानी शी वात! अने जैनदर्शन अने वीतरागनी वाणीनो योग तो महा महा दुर्लभ छे. भाई! तने आवो योग मळ्यो छे; माटे तत्त्वनी समजण करी भवनो अभाव कर. भवरहित अंदर भगवान आत्मा तुं पोते छो तेनां ज्ञान-श्रद्धान अने आराधना प्रगट कर. रागनी आराधनाथी तने शुं प्रयोजन छे?
अहा! जेओ रागनी सेवामां पडया छे ने दया, दान, व्रत आदि व्यवहारना भावोथी, ते व्यवहार करतां करतां कल्याण थई जशे एम माने छे तेओ निच्छल
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नथी अर्थात् मिथ्यात्वने ज सेवी रह्या छे. एवा जीवो, अहीं कहे छे, अपराधी अने अनाराधक ज छे. पाठमां ‘अनाराधक ज’ छे एम कह्युं छे. मतलब के कोईपण प्रकारे तेओ आत्माना आराधक नथी. समजाणुं कांई...? भाई! आत्मानां निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान ने आचरण सिवाय जेटलो पण बहारनो क्रियाकांड छे ते सर्व आत्मानो अनाराधक भाव छे.
हवे कहे छे- ‘अने जे आत्मा निरपराध छे ते, समग्र परद्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिना सद्भावने लीधे बंधनी शंका नहि थती होवाथी “उपयोग ज जेनुं एक लक्षण छे एवो एक शुद्ध आत्मा ज हुं छुं” एम निश्चय करतो थको शुद्ध आत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे एवी आराधनाथी सदाय वर्ततो होवाथी, आराधक ज छे.’
जोयुं? जे निरपराध छे तेने समग्र परद्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिनो-प्राप्तिनो सद्भाव छे. अहाहा...! धर्मी जीवने समस्त परद्रव्य अर्थात् रागादि भावोना परित्यागनी भावना छे अने तेने शुद्ध आत्मानी सिद्धिनो सद्भाव छे. शुं कीधुं? के धर्मी जीवना ज्ञान-श्रद्धान अने आचरणमां समग्र रागना परिहार वडे एक शुद्ध आत्मा ज वर्ते छे. अहाहा...! धर्मी जीव एक शुद्ध आत्मामां ज लीन स्थिर छे अने तेथी तेने बंधनी शंका थती नथी. अहा! स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान ने आचरणना सद्भावमां तेने बंधनी शंका केम थाय? न ज थाय.
अहा! धर्मी जीवने तो अंतरंगमां आ निश्चय थयो छे के ‘उपयोगलक्षण एक शुद्ध आत्मा ज हुं छुं;’ रागादि व्यवहार ते हुं नहि. रागादि तो परद्रव्य-बंधनुं लक्षण छे. भाई! मार्ग तो आ एक ज छे. शुभराग-शुभउपयोग पण परद्रव्य छे अने तेने ग्रहण करवो, सेववो ते अपराध छे, मिथ्यात्वभाव छे. अहा! आठ वर्षनी कुमारिका पण सम्यग्दर्शन प्राप्त करे छे त्यारे चोथे गुणस्थाने ते एम माने छे के-हुं तो जाणनदेखन- स्वभावी सदा उपयोगस्वरूपी आत्मा छुं अने आ पुण्य-पापना भावो माराथी भिन्न छे. आम वात छे.
प्रश्नः– ए तो ठीक, पण आ बधी लपने-स्त्री-पुत्र-परिवारने अने देहादिने-क्यां राखवी?
उत्तरः– बापु! ए बधी लप क्यां तारी चीज छे? तारामां ए क्यां गरी गई छे? अने तुं एनामां क्यां गयो छे? भाई! ए तो बधी प्रत्यक्ष परचीज छे. अहीं तो विशेष एम कहे छे के-दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनो जे राग छे ते परद्रव्य छे, केमके ते नीकळी जवा योग्य छे ने सिद्धदशामां नीकळी ज जाय छे. भगवान! एक जाणवादेखवाना उपयोगरूप ज तारुं स्वरूप छे. ज्ञाताद्रष्टा सिवाय बीजुं कोई तारुं स्वरूप नथी. (पछी बीजी चीजने राखवानो सवाल ज क्यां छे?)
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अहा! आवी वात! तो केटला कहे छे के आ वातो तो बधी चोथा आराना जीवो माटे छे. पण भाई! एम नथी. अहा! समयसार शास्त्र तो पंचम आराना मुनिए पंचम आराना जीवोना कल्याण अर्थे बनाव्युं छे. कोई वळी कहे छे के-आ शास्त्र तो छठ्ठा गुणस्थानवर्ती मुनिने माटे छे; तो ए वात पण यथार्थ नथी. केमके जे अज्ञानी अप्रतिबद्ध छे तेने समजाववा माटे आ शास्त्र कुंदकुंदाचार्यदेवे रच्युं छे. (जुओ गाथा र३, र४, रप).
अहा! चोथे गुणस्थानके वर्ततो सम्यग्द्रष्टि जीव अंतरंगमां एवो द्रढ निश्चय करे छे के-आ उपयोगलक्षण एक शुद्ध आत्मा ज हुं छुं. लौकिकमां जेने धर्म माने छे ते शुभराग मारुं लक्षण नहि. लौकिकमां गमे ते मानो, रागादि भावो कदीय मारा छे ज नहि; हुं तो परम पवित्र शुद्ध एक उपयोगलक्षण जीव छुं. अहा! आवां आत्मानां ज्ञानश्रद्धान सहित धर्मी पुरुष सदाय (आत्मानी) आराधनापूर्वक वर्ते छे. अहा! द्रष्टिना विषयमां जेने पोतानो पूरण परमेश्वर प्रभु आत्मा वर्ते छे ते जीव आराधक छे. तेने ज आत्मानुं सेवन करनार साधक कहेवामां आवे छे. शुद्ध उपयोगमय ज हुं छुं-एम जेने अंतरंगमां द्रढ श्रद्धान थयुं छे ते सदाय आराधक छे. भाई! कोईवार द्रव्यनो आश्रय अने कोईवार रागनो आश्रय होय एवुं धर्मीनुं स्वरूप नथी. धर्मीने तो निरंतर एक शुद्ध आत्मद्रव्यनो ज आश्रय होय छे.
प्रश्नः– तो शुं व्रत, तप, भक्ति, पूजा ईत्यादि धर्मीने होतां ज नथी? उत्तरः– कोण कहे छे के होतां नथी? धर्मीने ए बधा भावो होय छे, पण ए शुभराग छे, अपराध छे; धर्म नहि. धर्मीने जे राग होय छे तेने ते जाणे ज छे; तेने मन ते जाणवालायक छे; पण आदरवालायक छे एम नहि.
भाई! आत्मानी एक समयनी अवस्थामां हिंसा, जूठ, चोरी, विषय-वासना आदि जे अशुभराग थाय छे ते पाप छे; अने दया, दान, व्रतादिनो जे शुभराग थाय छे ते पण निश्चयथी पाप ज छे. बहु आकरी वात भाई! पण वात एम ज छे. (यथार्थ ज छे) योगसारमां आचार्य योगीन्द्रदेव कहे छे-
भाई! एक उपयोगमय शुद्ध आत्मा ज हुं छुं एवुं यथार्थ श्रद्धान थया विना ज्ञान ने आचरण कयांथी आवे? ए सिवायनुं बधुं (क्रियाकांड) तो थोथां छे.
अरे! आ जिंदगी एम ने एम चाली जाय छे हों. अरेरे! रागनी द्रष्टिमां वर्तवावाळो जीव क्यां जशे? भाई! आ जड देह तो बळी ने खाख थई जशे. एनी तो खाख ज थाय ने? पण जीव क्यां जशे? अहा! जेणे राग ने पुण्य भाव ने
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पोताना मान्या छे ते रागना-दुःखना वेदनमां ज जशे. ते चारगतिमां दुःखना वेदनमां जशे. अने जे, हुं एक उपयोगमय शुद्ध आत्मा ज छुं एवी शुद्ध आत्मानी द्रष्टिपूर्वक आराधक थयो छे ते ज्यां जशे त्यां आत्मामां ज रहेशे.
जुओ, श्रेणीक महाराजाने तेमनुं आयुष्य पहेलां (मिथ्यादशामां) बंधाई गयुं हतुं तो तेओ मरीने पहेली नरके गया. पण क्षायिक समकिती छे ने? तो तेओ अंतरमां आत्मवासी छे. नरकमां तेओ त्यां तीर्थंकरगोत्र बांधे छे. तेओ आवती चोवीसीमां पहेला तीर्थंकर थशे. अहा! नरकमां होय तोपण सम्यग्द्रष्टि जीव पोताने शुद्ध चैतन्यस्वरूप सदा उपयोगस्वरूप ज देखे छे, श्रद्धे छे. तेने रागादि परिणाम आवे छे तोपण तेने ते आत्मभूत मानतो नथी. भाई! आ पंचमकाळना मुनिवर पंचमकाळना जीवथी थई शके ए वात कहे छे. रखे कोई आ चोथा आराना जीवो माटे छे एम मानता; केमके आत्माने आराथी शुं संबंध छे? आत्माने कोई आरो-फारो लागू पडतो नथी. समजाणुं कांई...?
‘संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित अने आराधित-ए शब्दनो अर्थ एक ज छे.’ संसिद्धि एटले सम्यक् प्रकारे सिद्ध थवुं. एटले शुं? के आत्मा जेवो शुद्ध एक उपयोगमय छे तेवो द्रष्टि, ज्ञान ने चारित्रमां आववो ते संसिद्धि छे, आत्मानां सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान अने चारित्र प्रगट थतां आत्मानी सिद्धि-प्राप्ति थाय छे अने ते संसिद्धि छे.
श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां ‘संसिद्धि’ नो अर्थ ‘राधन’ कर्यो छे. मूळमां तो ‘राध’ कहेवुं छे. भगवान आत्मा चैतन्यमहाप्रभु जेवो छे तेवुं एनुं ज्ञान-श्रद्धान थवुं अने तेमां ज रमणतारूप चारित्रनुं प्रगट थवुं ते राध नाम राधन छे. एने ज आत्मानी सेवा अने आराधन कहे छे.
अरे! अनादिथी एणे रागनी सेवा करी, पण शुद्ध आत्मतत्त्वनुं सेवन न कर्युं. अहा! ते महा अपराध छे.
अहा! आत्मा शुद्ध चिदानंदघन एक जाणवादेखवाना उपयोगस्वरूप मात्र छे. तेनां ज्ञान-श्रद्धान करी तेमां ज स्थिरता करवी ए शुद्ध आत्मानी सिद्धि अथवा साधननुं नाम ‘राध’ छे. दर्शन-ज्ञानमां शुद्ध आत्मा जणायो ते एनी सिद्धि छे अने ते ज राध छे.
हवे कहे छे- ‘जेने ते राध नथी ते आत्मा सापराध छे अने जेने ते राध छे ते आत्मा निरपराध छे.’
जुओ, भगवाननी पुजा, भक्ति ईत्यादि जे राग छे ते, पूर्ण वीतरागता न थाय
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त्यां सुधी, जो के धर्मीनी द्रष्टि राग पर नथी छतां धर्मीने आव्या विना रहेतो नथी. अशुभथी बचवा ते भावो तेने हेयबुद्धिए आवे छे, छतां ते छे अपराध.
प्रश्नः– जो एम छे तो तेने केम करवो? उत्तरः– भाई! करवानी तो वात ज क्यां छे? ए तो अशुभ वंचनार्थे एवो शुभभाव तेने आवे छे बस. (समकिती एने करे छे एम छे नहि).
आ नाळियेर होय छे ने? एनी उपरनां छालां ते श्रीफळ नथी, जे काचली छे ते पण श्रीफळ नथी अने अंदर गोळा उपरनी जे रातड छे ते पण श्रीफळ नथी. श्रीफळ तो अंदर जे मीठो, सफेद गोळो छे ते छे. तेम आ शरीर छे ते छालां छे, अने द्रव्यकर्म छे ते काचलीना स्थाने छे तथा शुभाशुभभाव ते रातड छे. ए बधायथी भिन्न अंदर अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो पिंड छे ते आत्मा छे. अहा! आवा आत्मानी आराधना- सेवा-साधना ते राध छे जेने ते राध नथी. ते आत्मा सापराध छे अने जेने ते राध छे ते निरपराध छे.
भाई! परम महिमावंत एवी तारी चीजनी तने खबर नथी. भगवान कहे छे- तुं पूरण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत गुणथी भरेलो ज्ञानानंद-लक्ष्मीनो भंडार छो. अहा! तारामां अतीन्द्रिय ज्ञान पूरण भरेलुं छे. तारी एक एक ज्ञाननी पर्यायनो कोई अचिंत्य अपार महिमा छे; ने एवी अनंत पर्यायोनो पिंड तुं भगवान आत्मा छो. अहा! तारा महिमानी शी वात! (भगवान केवळी पण ते पूरण कही शके नहि एवो एनो अपार महिमा छे). अहीं कहे छे-एवा अपार महिमावंत आत्मद्रव्यनुं सेवन करवुं ते राध छे. जेने ते राध नथी ते सापराध छे, अने जेने ते राध छे ते निरपराध छे.
हवे कहे छे- ‘जे सापराध छे तेने बंधनी शंका थाय छे माटे ते स्वयं अशुद्ध होवाथी अनाराधक छे; अने जे निरपराध छे ते निःशंक थयो थको पोताना उपयोगमां लीन होय छे तेथी तेने बंधनी शंका नथी, माटे “शुद्ध आत्मा ते ज हुं छुं”-एवा निश्चयपूर्वक वर्ततो थको सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने तपना एक भावरूप निश्चय आराधनानो आराधक ज छे.’
जोयुं? जे सापराध छे तेने बंधनी शंका थाय छे. माटे ते स्वयं अशुद्ध छे तेथी अनाराधक छे. राग-व्यवहार छे ते अशुद्ध छे. अने ते अशुद्ध मारी चीज छे एम जे माने छे ते अशुद्धनो आराधक थाय छे. माटे ते आत्मानो अनाराधक ज छे.
अने जे निरपराध छे ते निःशंक छे. ते पोताना उपयोगमां लीन थाय छे. धर्मी पोताना ज्ञानदर्शनमय आत्मामां लीन छे. तेने जे राग आवे छे तेने मात्र ते
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जाणे छे. राग छे माटे जाणे छे एम नहि, पोताना सहज सामर्थ्य वडे ज ज्ञान रागने जाणे छे. स्वने ने परने-रागने जाणवुं ए ज्ञाननुं सहज सामर्थ्य छे.
एक वार चर्चा थयेली तेमां सामेवाळा कहे के-लोकालोक छे तो केवळज्ञान तेने जाणे छे. त्यारे कह्युं-भाई! एम नथी. केवळज्ञाननी पर्याय पोताथी ज छे. ते पर्याय सहज पोताना सामर्थ्यथी प्रगट थई छे; लोकालोकनी सत्ता छे माटे जाणवानी (केवळज्ञाननी) पर्याय उत्पन्न थई छे एम नथी. (लोकालोक तो अनादिथी छे, ने केवळज्ञान स्वाश्रये नवुं प्रगटे छे).
अहाहा....! निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. अहीं कहे छे-एमां जा ने प्रभु! त्यां तने गोठशे, त्यां तने रुचशे; केमके ते एकलो आनंदथी भरेलो छे.
पण आ बधाथी (कुंटुंब आदिथी) निवृत्ति थाय त्यारे ने? भाई! ए बधाथी तो निवृत्त ज छो; केमके ए बधां कयां तारामां छे. साची निवृत्ति तो तुं रागनी भावनाथी निवृत्त थाय त्यारे थाय. अरे! दिगंबर द्रव्यलिंगी मुनि थईने बहारथी तो तें अनंतवार निवृत्ति लीधी, पण रागबुद्धि, अंशबुद्धि मटी नहि ने द्रव्यद्रष्टि करी नहि. तेथी तुं अपराधी ज रह्यो. भाई! द्रव्यद्रष्टि करी शुद्ध आत्मस्वरूपमां लीन थई रहेवुं-ए एक ज सुखनो उपाय छे. बाकी तो बधुं थोथां छे. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-धर्मी निःशंक थयो थको पोताना उपयोगमां लीन थाय छे. तेने बंधनी शंका थती नथी. क्यांथी थाय? स्वरूपमां लीन थई रहे तेने बंधनी शंका केवी? अहा! ‘शुद्ध आत्मा ज हुं छुं’ -एवा निश्चयपूर्वक वर्ततो ते दर्शन, ज्ञान, चारित्र ने तपना एकभावरूप निश्चय आराधनानो आराधक ज छे. जुओ, निश्चय आराधना एकभावरूप एटले वीतरागभावरूप-आनंदभावरूप-चैतन्यभावरूप छे. आत्मानां दर्शन, ज्ञान, चारित्र ने तप ए बधा वीतरागभावरूप एकभावरूप छे. अहा! शुद्ध चैतन्यमां लीन थई प्रतपवुं ते तप छे; अने ते ज उपवास. ‘उपवसति ईति उपवासः’ आत्मानी समीप वसवुं ते उपवास छे. ल्यो, आ सिवाय बाकी बधा अपवास एटले माठा वास छे. समजाणुं कांई...?
आ प्रमाणे जेने निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थयां छे ते धर्मी जीव एकभावरूप निश्चय आराधनानो आराधक ज छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘सापराधः’ सापराध आत्मा ‘अनवरतम्’ निरंतर ‘अनन्तैः’ अनंत पुद्गल परमाणुरूप कर्मोथी ‘बध्यते’ बंधाय छे; ‘निरपराधः’ निरपराध आत्मा ‘बन्धनम्’ बंधनने ‘जातु’ कदापि ‘स्पृशति न एव’ स्पर्शतो नथी ज.
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शुं कीधुं? सापराध एटले शुद्ध एक नित्यानंद-चिदानंद प्रभु आत्माने छोडीने जे पुण्य-पापना भावने पोताना माने छे अने एनाथी पोताने लाभ माने छे एवो आत्मा अनंत अनंत पुद्गलपरमाणुमय कर्मोथी बंधाय छे. अहा! जे चीज पोतानी नथी तेने पोतानी माने ते प्राणी चोर छे, अपराधी छे. ते नियमथी कर्मो वडे बंधाय छे.
परंतु निरपराध एटले रागरहित जे ज्ञानानंदमय पोतानी चीज तेनी द्रष्टि करी तेमां ज जे जीव रमे छे तेने कदापि बंधन थतुं नथी. अहाहा! अशुद्ध उपयोगरूप पुण्य- पापना भावथी रहित जे शुद्ध उपयोगी छे ते आत्मा निरपराधी छे. एने बंधननो कदी स्पर्श नथी. धर्मी जीव पोतानी ज्ञानानंदस्वरूप शुद्ध चैतन्यसत्ताने स्पर्शे छे, अनुभवे छे; पण बंधनने एटले के जे रागभाव आवे छे तेने स्पर्शतो नथी.
‘अयम’ जे सापराध आत्मा छे ते तो ‘नियतम’ नियमथी ‘स्वम अशुद्धं भजन्’ पोताने अशुद्ध सेवतो थको ‘सापराधः’ सापराध छे; ‘निरपराधः’ निरपराध आत्मा तो ‘साधु’ भली रीते ‘शुद्धात्मसेवी भवति’ शुद्ध आत्मानो सेवनार होय छे.
जुओ, दया, दान, पुजा, भक्ति ईत्यादि शुभरागनी सेवना छे ते अशुभनी जेम ज अशुद्धनी सेवना छे. अहा! आ रीते पोताने अशुद्ध सेवतो थको आत्मा सापराध छे, गुन्हेगार छे. ज्यारे जे निरपराध छे ते तो भली भांति जेवुं आत्मानुं शुद्ध एक चिन्मात्र स्वरूप छे तेवा स्वरूपनो सेवनार छे. ‘भली भांति’ एटले जेवी चीज शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप छे एवी ज तेने समीचीनपणे धर्मात्मा अनुभवे छे. द्रव्यद्रष्टि वडे जे शुद्धने अनुभवे छे ते निरपराधी छे. पोतानी सत्तामां ज मग्न छे ते निरपराधी छे.
अहो! संतोए अति स्पष्ट घोषणा करी छे के-जे आत्मा पुण्य-पापना अशुद्ध भावनुं सेवन करे छे ते अपराधी-गुन्हेगार छे, अने ते निरंतर कर्मथी बंधाय छे. अने जे आत्मा पुण्य-पापथी रहित शुद्ध एक चैतन्यना उपयोगमय, पूरण ज्ञान, पूरण आनंद ईत्यादि अनंत शक्तिओथी भरेलो, सदा एकरूप, भूतार्थ शुद्ध चिदघन आत्माने ‘साधु’ नाम समीचीनपणे-जेवी चीज छे तेने ते प्रमाणे ज जाणीने-एनी सेवना करे छे ते निरपराधी छे ने तेने बंधन थतुं नथी; ते बंधनने-रागने स्पर्शतो नथी. आवी वात छे! समजाणुं कांई...?
हवे प्रश्न जरा उठयो छे ते खूब शांतिथी सांभळवा जेवो छे. अहीं व्यवहारनयने अवलंबनार तर्क करे छे केः-
‘एवो शुद्ध आत्मानी उपासनानो प्रयास (महेनत) करवानुं शुं काम छे?’ जुओ, खरेखर तो पुण्य-पापरहित निज शुद्ध चैतन्यरूप आत्मानी एकनी ज सेवना ते धर्म छे, साधन छे, मोक्षनो उपाय छे. हवे एनी साथे धर्मी ने जे
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प्रतिक्रमण आदिनो शुभराग आवे छे तेने व्यवहारथी अमृतकुंभ कहेवामां आवेल छे. शुं कीधुं? जेने अंदर शुद्धोपयोगरूप अमृतनो स्वाद आव्यो छे एवा जीवना शुभरागने व्यवहारथी अमृतकुंभ कह्यो छे. आ उपचार छे. अज्ञानीना शुभरागमां ए उपचार पण संभवित नथी.
जुओ, शुभराग कांई खरेखर अमृत छे एम नथी; खरेखर तो ए झेर ज छे. परंतु अमृतस्वरूप-आनंदस्वरूप आत्माना स्वादिया जीवने, पर्यायमां शुद्ध आत्मानी परिपूर्ण प्राप्ति न थाय त्यां सुधी आवा शुभभाव आवे छे अने शास्त्रोमां तेने उपचारथी अमृत कहेवामां आवेल छे. हवे अहीं व्यवहारनयावलंबी व्यवहारने अवलंबीने तर्क करे छे केः-
‘शुद्ध आत्मानी उपासनानो प्रयास करवानुं शुं काम छे?’ एम के प्रथमथी ज शुद्ध आत्मानी सेवा करवी, तेना श्रद्धान-ज्ञान करी तेमां ज ठरवुं-ए क्रियाओथी शुं काम छे? तेनुं कारण कहे छे-
‘कारण के प्रतिक्रमण आदिथी ज आत्मा निरपराध थाय छे; केमके सापराधने जे अप्रतिक्रमण आदि छे ते, अपराधने दूर करनारां नहि होवाथी, विषकुंभ छे, माटे जे प्रतिक्रमण आदि छे ते, अपराधने दूर करनारां होवाथी अमृतकुंभ छे.’
जुओ, व्यवहारनयावलंबी शुं दलील करे छे? के अज्ञानीने जे अप्रतिक्रमणादि अशुभभाव छे ते विषकुंभ-झेरनो घडो ज छे, केमके ते अपराधने दूर करनारा नथी; परंतु जे शुभरागरूप प्रतिक्रमणादि छे ते अमृतकुंभ छे केमके ते अपराधने दूर करनार छे. शुभभावनी क्रियाथी अप्रतिक्रमणादि जे अशुभभाव-पापभाव तेनो निरोध थाय छे एम कहे छे. अहा! शुभराग वडे अप्रतिक्रमणादि अशुभभावथी-पापथी पाछा फरवुं ते अमृत छे एम शास्त्रमां कह्युं छे एम कहे छे. आम जो शुभभावथी आत्मा निरपराध थाय छे तो शुद्धात्मसेवनाथी शुं काम छे? -एम ते दलील करे छे. एनी दलील समजाय छे ने!
वात एम छे के-हुं ज्ञान ने आनंदनो कंद प्रभु आत्मा छुं, अने आ दया, दान आदिना विकल्पो जे उठे छे ते झेर छे एम जेने अंतरंगमां स्वानुभवमंडित श्रद्धा प्रगट थई छे एवा धर्मीना शुभने व्यवहारथी आरोप दईने शास्त्रमां अमृत कह्युं छे. जेने निश्चय निर्विकल्प अमृतनो स्वाद छे तेना रागने व्यवहारथी अमृत कह्युं छे ए वातने आगळ करीने व्यवहारावलंबी (अज्ञानी) कहे छे-जुओ! अहीं शुभरागने अमृत कह्युं छे के नहि? एना समर्थनमां ते व्यवहारने कहेनारा आचारसूत्रमांथी गाथाओ कहे छे के-
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अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुंभो।। १।।
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अभयकुंभो दु।। २।।
अर्थः– अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा ने अशुद्धि-ए (आठ प्रकारनो) विषकुंभ अर्थात् झेरनो घडो छे. १.
प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा अने शुद्धि-ए आठ प्रकारनो अमृतकुंभ छे.
प्रतिक्रमणः– पूर्वे करेला दोषनुं-पापनुं निराकरण करवुं-एवो जे शुभभाव छे ते प्रतिक्रमण छे. निश्चयना अनुभवनारने-धर्मी पुरुषने आवुं प्रतिक्रमण होय छे अने तेने शास्त्रमां उपचारथी अमृत कहेलुं छे. अहा! तेनो पक्ष लई ने अहीं अज्ञानी कहे छे के- तमे तो आत्मा त्रिकाळ शुद्ध छे, ते एकनी-शुद्धनी श्रद्धा करो अने शुद्धनी ज सेवा करो एम अंदर लई जाओ छो पण आ प्रतिक्रमणादि शुभभाव छे ते पापने अशुभने टाळे छे; माटे पहेलां ए तो करवा दो.
तेने कहीए छीए-भाई! शुभरागरूप प्रतिक्रमण जे ज्ञानीने होय छे. ते वास्तवमां तो झेर ज छे. ए तो उपचारथी एने अमृत कह्युं छे. अने अज्ञानीने तो ए उपचारेय क्यां छे? एने तो ए एकलुं झेर ज छे.
प्रतिसरणः– सम्यक्त्वादि गुणोमां प्रेरणा ते शुभरागरूप प्रतिसरण छे. हुं एक शुद्ध चिन्मात्र छुं-एम अनुभव करवो-ईत्यादि विकल्प धर्मीने आवे छे ते प्रतिसरण छे. ज्ञानीना आवा विकल्पने उपचारथी अमृत कहेल छे. निश्चयथी ते छे तो झेर, पण निर्मळ अमृतरूप परिणतिनो सहचर जाणी तेने उपचारथी अमृत कहेवामां आवेल छे. माटे तेने वास्तवमां धर्म-अमृत न जाणवुं. अज्ञानीने तो एनो मिथ्या पक्ष थई गयो छे.
परिहारः– मिथ्यात्व अने राग-द्वेष आदि दोषोनुं निवारण करवुं. एवो जे शुभभाव ते परिहार छे. धर्मीना आवा शुभभावने आरोप आपीने अमृतकुंभ कह्यो छे. तेनो पक्ष लईने आ (व्यवहारावलंबी) कहे छे के-शास्त्रमां अमृतकुंभ कह्यो छे. वास्तवमां तो शुभ-उपयोग झेर ज छे.
धारणाः– णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आईरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं-एम पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण करवुं - ए शुभभाव धारणा छे. पंचनमस्कार आदि मंत्र, ॐ आदि मंत्रो - एम मंत्रो घणा छे ने? एनुं चिंत्वन आदि शुभराग धर्मीने होय छे. तेने शास्त्रमां उपचारथी अमृतकुंभ कह्यो छे.
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आत्म - अनुभवथी अपेक्षाए खरेखर ते झेर छे; पण एनो (आत्मानुभवनो) सहचर जाणी तेने आरोप आपीने व्यवहारथी अमृतकुंभ कह्यो छे. हवे एनो पक्ष करीने आ कहे छे के - शुभथी अशुभ मटे छे माटे प्रथम शुभ करवुं जोईए, तेने श्रीगुरु कहे छे -
भाई! सांभळ! वीतरागनो मारग वीतरागभावथी उत्पन्न थाय छे, रागथी नहि. तथापि बाह्यद्रव्यनुं - चाहे ते बाह्यद्रव्य जिनबिंब हो, साक्षात् जिन भगवान हो के पंचपरमेष्ठी हो - आलंबन लेतां धर्मीने जे शुभराग उत्पन्न थाय छे तेने व्यवहारथी जिनवाणीमां अमृतकुंभ कह्यो छे, पण निश्चयथी ते झेर छे. वीतरागभावनी प्रगटता विना धर्मनी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि ने पूरणता कदीय संभवित नथी. भाई! एम तो भगवानना समोसरणमां जईने मणिरत्नना दीवा, हीराना थाळ अने कल्पवृक्षनां फूल लई ने तें भगवाननी अनंतवार पूजा करी छे. पण तेथी शुं? परावलंबी शुभनुं लक्ष छोडी स्व-आश्रये परिणम्या विना धर्मनी उत्पत्ति थती ज नथी.
निवृत्तिः– विषय-कषायरूप अशुभथी हठी शुभमां आववुं ते निवृत्ति छे. जेने अंतरमां शुद्ध निश्चयनो अनुभव छे ते धर्मीने आवो शुभभाव होय छे अने तेने व्यवहारथी अमृत कहेल छे. स्त्री-कुटुंब परिवार, धनसंपत्ति आबरू ईत्यादिना ममताना पापभावमां वर्तता चित्तने हठावी देवुं ते शुभभाव छे. अज्ञानीनो आवो शुभभाव एकलुं झेर छे अने समकितीना एवा शुभभावने व्यवहारथी अमृत कह्युं छे तोपण निश्चयथी ते झेर छे.
जेम चोखानी बोरीनुं वजन पण चोखानी भेगुं करवामां आवे छे. पण ए बोरीनुं बारदान कांई चोखा नथी. चोखा ने बारदान बे भिन्न ज छे. तेम भगवान आत्मा स्व-आश्रये प्रगट थयेला अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करे छे ते धर्म छे अने जे राग आवे छे ते धर्म नथी, ते बारदाननी जेम भिन्न ज छे. तेने धर्म परिणतिनो सहचर जाणी उपचारथी अमृत कहे छे पण छे तो ए बारदाननी जेम भिन्न ज; ए कांई धर्म नथी. बापु! वीतरागनो मारग महा अलौक्कि छे; अने ते वीतरागताथी ज उत्पन्न थाय छे. वीतरागस्वरूप - जिनस्वरूप भगवान आत्मा छे; तेनो आश्रय करवाथी जेटलो वीतरागभाव थयो ते धर्म छे, अमृत छे अने तेमां कमी रहेतां परावलंबी जेटलो शुभराग रह्यो ते निश्चयथी झेरनो घडो छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?
निंदाः– आत्मसाक्षीपूर्वक दोषोने प्रगट करवा. अशुभभाव आवी गयो होय तो तेनी निंदा करवी के - अरे! आ शुं? आवो पापनो भाव आवी गयो! आ प्रमाणे आत्मसाक्षीए दोषोनी निंदा करवी-ए शुभभाव निंदा छे. ते समकितीने होय छे. वास्तवमां ते अतीन्द्रिय आनंदरूपी अमृतना स्वादथी विपरीत छे तोपण सहचर जाणी तेने व्यवहारथी अमृत कहेवामां आवेल छे. पण ते निश्चये अमृत नथी.
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समयसार गाथा ११मां (भावार्थमां) कह्युं छे के व्यवहारनो जे पक्ष छे तेनुं फळ बंधन- संसार ज छे.
गर्हाः– गुरुनी साक्षीए दोषोने प्रगट करवा, पोताने जे कोई पापकर्म थयुं होय ते अति निच्छलभावे गुरु पासे जईने जाहेर करवुं-एवो शुभभाव गर्हा छे. समकितीने एवो शुभभाव होय छे एने उपचारथी अमृत कहीए तोपण वास्तवमां ते धर्म नथी, अमृत नथी.
शुद्धिः– जे पापकर्म थयुं होय तेनुं प्रायश्वित लेवुं - एवो जे शुभभाव छे ते शुद्धि छे. आवो शुभभाव समकितीने होय छे पण ते धर्म नथी; उपचारथी एने अमृत कहेवामां आवेल छे ए जुदी वात छे, पण निश्चयथी ए धर्म नथी.
जुओ, आ आठ बोलने व्यवहारना शास्त्रोमां अमृत कह्या छे एटले शिष्ये ते वातने मुख्य करीने कह्युं के - तमे प्रथमथी ज आत्मानी द्रष्टि करो, सम्यग्दर्शन करो, आत्मानुभव करो एम कहो छो, पण अमने पहेलां अशुभ जे वडे टळे ते शुभने तो करवा दो. शुभथी अशुभ तो टळे छे ने? एना उत्तरमां निश्चयनयनी प्रधानताथी आचार्यदेव हवे गाथाओ द्वारा समाधान करे छे.
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णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो।। ३०६।।
अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव।
अणियत्ती य अणिंदागरहासोही अमयकुंभो।। ३०७।।
निन्दा गर्हा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुम्भः।। ३०६।।
अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चैव।
अनिवृत्तिश्चानिन्दाऽगर्हाऽशुद्धिरमृतकुम्भः ।।
वळी शुद्धि, निंदा, गर्हणा–ए अष्टविध विषकुंभ छे. ३०६.
अणप्रतिक्रमण, अणप्रतिसरण, अणपरिहरण, अणधारणा,
अनिवृत्ति, अणगर्हा, अनिंद्र, अशुद्धि–अमृतकुंभ छे. ३०७.
गाथार्थः– [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण, [प्रतिसरणम्] प्रतिसरण, [परिहारः] परिहार, [धारणा] धारणा, [निवृत्तिः] निवृत्ति, [निन्दा] निंदा, [गर्हा] गर्हा [च शुद्धिः] अने शुद्धि- [अष्टविधः] ए आठ प्रकारनो [विषकुम्भः] विषकुंभ [भवति] छे (कारण के एमां कर्तापणानी बुद्धि संभवे छे).
[अप्रतिक्रमणम्] अप्रतिक्रमण, [अप्रतिसरणम्] अप्रतिसरण, [अपरिहारः] अपरिहार, [अधारणा] अधारणा, [अनिवृत्तिः च] अनिवृत्ति, [अनिन्दा] अनिंदा, [अगर्हा] अगर्हा [च एव] अने [अशुद्धिः] अशुद्धि- [अमृतकुम्भः] ए अमृतकुंभ छे (कारण के एमां कर्तापणानो निषेध छे-कांई करवानुं ज नथी, माटे बंध थतो नथी).
टीकाः– प्रथम तो जे अज्ञानीजनसाधारण (अर्थात् अज्ञानी लोकोने साधारण एवां) अप्रतिक्रमणादि छे तेओ तो शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावरूप स्वभाववाळां होवाने लीधे स्वयमेव अपराधरूप होवाथी विषकुंभ ज छे; तेमनो विचार करवानुं शुं
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प्रयोजन छे? (तेओ तो प्रथम ज त्यागवायोग्य छे.) अने जे द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि छे तेओ सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने घटाडवामां (-क्रमे क्रमे मटाडवामां) समर्थ होवाथी अमृतकुंभ छे (एम व्यवहार आचारसूत्रमां कह्युं छे) तोपण प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी विलक्षण एवी अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमिने नहि देखनार पुरुषने ते द्रव्यप्रतिक्रमणादि (अपराध कापवारूप) पोतानुं कार्य करवा असमर्थ होवाने लीधे विपक्ष कार्य (अर्थात् बंधनुं कार्य) करतां होवाथी विषकुंभ ज छे. जे अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमि छे ते, स्वयं शुद्धात्मानी सिद्धिरूप होवाने लीधे सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने सर्वथा नष्ट करनारी होवाथी, साक्षात् स्वयं अमृतकुंभ छे अने ए रीते (ते त्रीजी भूमि) व्यवहारथी द्रव्यप्रतिक्रमणादिने पण अमृतकुंभपणुं साधे छे. ते त्रीजी भूमिथी ज आत्मा निरपराध थाय छे. तेना (अर्थात् त्रीजी भूमिना) अभावमां द्रव्यप्रतिक्रमणादि पण अपराध ज छे. माटे, त्रीजी भूमिथी ज निरपराधपणुं छे एम ठरे छे. तेनी प्राप्ति अर्थे ज आ द्रव्यप्रतिक्रमणादि छे. आम होवाथी एम न मानो के (निश्चयनयनुं) शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिने छोडावे छे. त्यारे शुं करे छे? द्रव्यप्रतिक्रमणादिथी छोडी देतुं नथी (- अटकावी देतुं नथी, संतोष मनावी देतुं नथी); ते सिवाय बीजुं पण, प्रतिक्रमण- अप्रतिक्रमणादिथी अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप, शुद्ध आत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे एवुं, अति दुष्कर कांईक करावे छे. आ शास्त्रमां ज आगळ कहेशे के- *कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं। तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।। (अर्थः-अनेक प्रकारना विस्तारवाळां जे पूर्वे करेलां शुभाशुभ कर्म छे तेमनाथी जे पोताना आत्माने निवर्तावे छे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे.) वगेरे.
भावार्थः– व्यवहारनयावलंबीए कह्युं हतुं के-“लागेला दोषोनुं प्रतिक्रमण आदि करवाथी ज आत्मा शुद्ध थाय छे, तो पछी प्रथमथी ज शुद्ध आत्माना आलंबननो खेद करवानुं शुं प्रयोजन छे? शुद्ध थया पछी तेनुं आलंबन थशे; पहेलेथी ज आलंबननो खेद निष्फळ छे.” तेने आचार्य समजावे छे केः-जे द्रव्यप्रतिक्रमणादिक छे ते दोषनां मटाडनारां छे, तोपण शुद्ध आत्मानुं स्वरूप के जे प्रतिक्रमणादिथी रहित छे तेना आलंबन विना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ज छे, दोष मटाडवाने समर्थ नथी; कारण के निश्चयनी अपेक्षा सहित ज व्यवहारनय मोक्षमार्गमां छे, केवळ व्यवहारनो ज पक्ष मोक्षमार्गमां नथी, बंधनो ज मार्ग छे. माटे एम कह्युं छे के-अज्ञानीने ज अप्रतिक्रमणादिक छे ते तो विषकुंभ छे ज; तेमनी तो वात ज शी? परंतु व्यवहारचारित्रमां जे प्रतिक्रमणादिक कह्यां छे ते पण निश्चयनये विषकुंभ ज छे, कारण के आत्मा तो प्रतिक्रमणादिकथी रहित, शुद्ध, अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ज छे. _________________________________________________________________ * जुओ गाथा ३८३-३८प; त्यां निश्चयप्रतिक्रमण वगेरेनुं स्वरूप कह्युं छे.
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प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्।
आत्मन्येवालानितं च चित्त–
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः ।। १८८।।
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्।
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोडधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।। १८९।।
हवे आ कथनना कळशरूपे काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–
एशआराम करता) [प्रमादिनः] प्रमादी जीवोने [हताः] हत कह्या छे (अर्थात् मोक्षना तद्न अनधिकारी कह्या छे), [चापलम् प्रलीनम्] चापल्यनो (-विचार विनाना कार्यनो) प्रलय कर्यो छे (अर्थात् आत्मभान विनानी क्रियाओने मोक्षना कारणमां गणी नथी), [आलम्बनम् उन्मूलितम्] आलबंनने उखेडी नाख्युं छे (अर्थात् सम्यग्द्रष्टिना द्रव्यप्रतिक्रमण वगेरेने पण निश्चयथी बंधनुं कारण गणीने हेय कह्यां छे), [आसम्पूर्ण– विज्ञान–घन–उपलब्धेः] ज्यां सुधी संपूर्ण विज्ञानघन आत्मानी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी [आत्मनि एव चितम् आलानितं च] (शुद्ध) आत्मारूपी थांभले ज चित्तने बांध्युं छे (- व्यवहारना आलंबनथी अनेक प्रवृत्तिओमां चित्त भमतुं हतुं तेने शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामां ज लगाडवानुं कह्युं छे कारण के ते ज मोक्षनुं कारण छे). १८८.
अहीं निश्चयनयथी प्रतिक्रमणांदिकने विषकुंभ कह्यां अने अप्रतिक्रमणादिकने अमृतकुंभ कह्यां तेथी कोई ऊलटुं समजी प्रतिक्रमणादिकने छोडी प्रमादी थाय तो तेने समजाववाने कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं] (अरे! भाई,) ज्यां प्रतिक्रमणने ज विष कह्युं छे, [तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुतः स्यात्] त्यां अप्रतिक्रमण अमृत क्यांथी होय? (अर्थात् न ज होय.) [तत्] तो पछी [जनः अधः अधः प्रपतन् किं प्रमाद्यति] माणसो नीचे नीचे पडता थका प्रमादी कां थाय छे? [निष्प्रमादः] निष्प्रमादी थया थका [ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति] ऊंचे ऊंचे कां चडता नथी?
भावार्थः– अज्ञानावस्थामां जे अप्रतिक्रमणादिक होय छे तेमनी तो वात ज शी? अहीं तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिनो पक्ष छोडाववा माटे तेमने
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कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः।
अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात्।। १९०।।
स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः।
बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल–
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते।। १९१।।
(द्रव्यप्रतिक्रमणादिने) तो निश्चयनयनी प्रधानताथी विषकुंभ कह्यां छे कारण के तेओ कर्मबंधनां ज कारण छे, अने प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी रहित एवी त्रीजी भूमि, के जे शुद्ध आत्मस्वरूप छे तेम ज प्रतिक्रमणादिथी रहित होवाथी अप्रतिक्रमणादिरूप छे, तेने अमृतकुंभ कही छे अर्थात् त्यांनां अप्रतिक्रमणादिने अमृतकुंभ कह्यां छे. त्रीजी भूमिमां चडाववा माटे आ उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. प्रतिक्रमणादिने विषकुंभ कह्यां सांभळीने जेओ ऊलटा प्रमादी थाय छे तेमना विषे आचार्यदेव कहे छे के-‘आ माणसो नीचा नीचा केम पडे छे? त्रीजी भूमिमां ऊंचा ऊंचा केम चडता नथी?’ ज्यां प्रतिक्रमणने विषकुंभ कह्युं त्यां तेना निषेधरूप अप्रतिक्रमण ज अमृतकुंभ होई शके, अज्ञानीनुं नहि. माटे जे अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ कह्यां छे ते अज्ञानीनां अप्रतिक्रमणादि न जाणवां, त्रीजी भूमिनां शुद्ध आत्मामय जाणवां. १८९.
हवे आ अर्थने द्रढ करतुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [कषाय–भर–गौरवात् अलसता प्रमादः] कषायना भार वडे भारे होवाथी आळसुपणुं ते प्रमाद छे; [यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति] तेथी ए प्रमादयुक्त आळसभाव शुद्धभाव केम होई शके? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन् मुनिः] माटे निज रसथी भरेला स्वभावमां निश्चळ थतो मुनि [परमशुद्धतां व्रजति] परम शुद्धताने पामे छे [वा] अथवा [अचिरात् मुच्यते] शीघ्र- अल्प काळमां (कर्मबंधथी) छूटे छे.
भावार्थः–प्रमाद तो कषायना गौरवथी थाय छे माटे प्रमादीने शुद्ध भाव होय नहि. जे मुनि उद्यमथी स्वभावमां प्रवर्ते छे ते शुद्ध थईने मोक्षने पामे छे. १९०.
हवे, मुक्त थवानो अनुक्रम दर्शावतुं काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्तवा] जे पुरुष
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न्नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् ।
एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं
पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि।। १९२।।
खरेखर अशुद्धता करनारुं जे परद्रव्य ते सर्वने छोडीने [स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति] पोते पोताना स्वद्रव्यमां लीन थाय छे, [सः] ते पुरुष [नियतम्] नियमथी [सर्व–अपराध– च्युतः] सर्व अपराधोथी रहित थयो थको, [बन्ध–ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः] बंधना नाशने पामीने नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) थयो थको, [स्व–ज्योतिः–अच्छ– उच्छलत्–चैतन्य–अमृत–पूर–पूर्ण–महिमा] स्वज्योतिथी (पोताना स्वरूपना प्रकाशथी) निर्मळपणे ऊछळतो जे चैतन्यरूप अमृतनो प्रवाह तेना वडे पूर्ण जेनो महिमा छे एवो [शुद्धः भवन्] शुद्ध थतो थको, [मुच्यते] कर्मोथी छूटे छे-मुक्त थाय छे.
भावार्थः– जे पुरुष, पहेलां समस्त परद्रव्यनो त्याग करी निज द्रव्यमां (आत्मस्वरूपमां) लीन थाय छे, ते पुरुष सर्व रागादिक अपराधोथी रहित थई आगामी बंधनो नाश करे छे अने नित्य उदयरूप केवळज्ञानने पामी, शुद्ध थई, सर्व कर्मनो नाश करी, मोक्षने पामे छे. आ, मोक्ष थवानो अनुक्रम छे. १९१.
हवे मोक्ष अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे पूर्ण ज्ञानना महिमानुं (सर्वथा शुद्ध थयेला आत्मद्रव्यना महिमानुं) कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत्] कर्मबंधना छेदथी अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षने अनुभवतुं, [नित्य–उद्योत–स्फुटित–सहज– अवस्थम्] नित्य उद्योतवाळी (जेनो प्रकाश नित्य छे एवी) सहज अवस्था जेनी खीली नीकळी छे एवुं, [एकान्त–शुद्धम्] एकांतशुद्ध (-कर्मनो मेल नहि रहेवाथी जे अत्यंत शुद्ध थयुं छे एवुं), अने [एकाकार–स्व–रस–भरतः अत्यन्त–गम्भीर–धीरम्] एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकारे परिणमेला) निजरसनी अतिशयताथी जे अत्यंत गंभीर अने धीर छे एवुं [एतत् पूर्ण ज्ञानम्] आ पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम्] जळहळी ऊठयुं (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट थयुं); [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम्] पोताना अचळ महिमामां लीन थयुं.
भावार्थः– कर्मनो नाश करी मोक्षने अनुभवतुं, पोतानी स्वाभाविक अवस्थारूप, अत्यंत शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोने गौण करतुं, अत्यंत गंभीर (जेनो पार नथी एवुं)