Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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इति मोक्षो निष्क्रान्तः। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः।।


अने धीर (आकुळता विनानुं) -एवुं पूर्ण ज्ञान प्रगट देदीप्यमान थयुं, पोताना महिमामां लीन थयुं. १९२.

टीकाः– आ रीते मोक्ष (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो. भावार्थः– रंगभूमिमां मोक्षतत्त्वनो स्वांग आव्यो हतो. ज्यां ज्ञान प्रगट थयुं त्यां ते मोक्षनो स्वांग रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गयो.

ज्यों नर कोय पर्यो द्रढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी,
चिंत करै निति कैम कटै यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी;
छेदनकूं गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां मोक्षनो प्ररूपक आठमो अंक समाप्त थयो.

*
समयसार गाथा ३०६ – ३०७ः मथाळुं

उपरना तर्कनुं समाधान आचार्यभगवान (निश्चयनयनी प्रधानताथी) गाथामां करे छेः-

भाई! आ बहु शान्ति ने धीरथथी सांभळवा जेवी वात छे. अहा! अनंतकाळथी ए सम्गग्दर्शन शुं चीज छे ए समज्या विना एकला क्रियाकांडमां गरी गयो छे. पण भाई! ए तो बधी फोगट मजुरी छे. एमां जो रागनी मंदता होय तो तेने शुभभाव थाय छे ने एमां कर्ताबुद्धि होय तो मिथ्या छे. आ वर्षीतप वगेरे करे छे ने? अंदर ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि थया विना ए तो बधी लांघणो छे भाई! ए बधा क्रियाकांडना भाव तो भवभ्रमण करवाना भाव छे. एनाथी संसार फळशे, मुक्ति नहि थाय. पण शुं थाय? अत्यारे तो चोतरफ एक ज प्ररूपणा चाले छे के-आ करो ने ते करो; उपवास करो ने उपधान करो ईत्यादि. पण बापु! ए बधा शुभभाव झेर छे. अज्ञानीने तो ए झेर छे ज, समकिती पण, ते अतीन्द्रिय आनंदना स्वादथी विपरीत होवाथी झेर ज जाणे छे. अत्यारे तो प्ररूपणामां ज उगमणो-आथमणो फेरफार थई गयो छे.


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अहाहा...! केवळीना केडायती वीतरागी भावलिंगी संत के जेनी दशामां प्रचुर आनंद उभराय छे ते एम फरमावे छे के-अंदर पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मा छे; तेनो आश्रय लीधा विना जेटली क्रिया परद्रव्यना अवलंबने थाय छे ते बधी झेर छे. लोकोने बिचाराओने आ वात सांभळवा मळी नथी. पण जेम दूध गरम करतां उभरो आवे तेम स्वनो आश्रय थतां सम्यग्दर्शन सहित अंदर वर्तमान दशामां आनंद- अमृतनो उभरो आवे छे. दूधनो उभरो तो पोलो छे पण आ अतीन्द्रिय आनंदनो उभरो तो नक्कर होय छे. धर्मनुं पहेलुं पगथियुं सम्यग्दर्शन जेने थयुं ते सर्व समकितीने- चाहे ते आठ वर्षनी बालिका होय के चाहे अढीद्वीप बहार रहेलां तिर्यंच-वाघ, नाग के सिंह होय-आत्मानो अनुभव थतां अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे; ते धर्म छे, अमृत छे. साथे ते जीवोने जे शुभराग आवे छे ते, कहे छे, झेर छे. जेटली आत्मस्थिरता छे ते अमृत छे ने जेटलो राग वर्ते छे ते खरेखर झेरनो घडो छे-एम कहे छे.

* गाथा ३०६ – ३०७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘प्रथम तो जे अज्ञानीजनसाधारण (अर्थात् अज्ञानी लोकोने साधारण एवां) अप्रतिक्रमणादि छे तेओ तो शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावरूप स्वभाववाळा होवाने लीधे स्वयमेव अपराधरूप होवाथी विषकुंभ ज छे; तेमनो विचार करवानुं शुं प्रयोजन छे?

शुं कहे छे? अज्ञानी जीवोने जे मिथ्यात्व अने रागद्वेष आदि अप्रतिक्रमणना भावो छे ते शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावस्वभावरूप छे. वळी तेओ स्वयमेव अपराधस्वरूप छे, दोषस्वरूप छे. माटे ते भावो विषकुंभ एटले झेरनो घडो ज छे. आचार्य कहे छे-ते भावोनो विचार करवानुं शुं प्रयोजन छे? अर्थात् ते भावो तो प्रथमथी ज त्यागवायोग्य छे. अहा! जेम झेर त्यागवायोग्य छे तेम आ मिथ्यात्वादि भावो त्यागवायोग्य छे.

अहा! जे प्रतिक्रमणादि पुण्यभावोने धर्म माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, अपराधी छे. अनादिथी ते मिथ्यादर्शन आदि भावोने सेवतो थको चार गतिमां रूले छे. अहा! ए तो एकला पापमां डूबेलो महादुःखी छे.

हवे कहे छे- ‘अने जे द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि छे तेओ सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने घटाडवामां समर्थ होवाथी अमृतकुंभ छे (एम व्यवहार आचारसूत्रमां कह्युं छे) तोपण प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी विलक्षण एवी अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमिने नहि देखनार पुरुषने ते द्रव्यप्रतिक्रमणादि (अपराध कापवारूप) पोतानुं कार्य करवाने असमर्थ होवाने लीधे विपक्ष कार्य करतां होवाथी विषकुंभ ज छे.’

जुओ, अहीं जेने आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे एवो जेने अंतर-


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अनुभव थयो छे एवा धर्मी पुरुषने सवार-सांज द्रव्यप्रतिक्रमणादिरूप शुभभाव आवे छे एनी वात छे. शुं कहे छे? के धर्मी जीवने जे द्रव्य प्रतिक्रमणादि शुभभाव होय छे ते अपराधरूपी विषना दोषोने घटाडवामां समर्थ छे. अहा! धर्मी पुरुषने शुभभावमां अशुभ घटे छे ने? तेथी कह्युं के एना प्रतिक्रमणादि शुभभावो व्यवहारे अमृतकुंभ छे.

जुओ, धर्मीने आ द्रव्यप्रतिक्रमणादि शुभभावो, रागादि दोषो घटाडवामां समर्थ छे, अभाव करवामां नहि. रागादिनो अभाव तो एक शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपनो आश्रय लेवाथी थाय छे, पण अंतरमां शुद्ध एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी अमृतस्वरूप प्रभु आत्मानुं भान थयुं छे तेने जे निंदा, गर्हा आदिनो व्यवहार-शुभराग आवे छे एनाथी अशुभ घटे छे ए अपेक्षाए शुभरागने व्यवहारथी (व्यवहारना शास्त्रोमां) अमृतकुंभ कह्यो छे. समजाणुं कांई...? भाई! जेने आत्मज्ञान अंदरमां थयुं नथी एने तो ए बधा शुभभाव एकलुं झेर छे.

अहा! सम्यग्द्रष्टि साचा संत-मुनि जेने स्वानुभव सहित अंदरमां आत्मामां रमणता थई छे एनी आ वात छे. कोई बहारथी लुगडां उतारी नाखे ने महाव्रतादि लई ले एनी आ वात नथी. बापु! ए (महाव्रतादि) तो निश्चयथी चारित्र छे ज नहि. स्वरूपमां अंदर ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मामां चरवुं एनुं नाम चारित्र छे. अहाहा! ‘शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति सुखधाम’ -अहाहा...! आवा पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपमां चरवुं, रमवुं ने ठरवुं-एने वीतरागमार्गमां चारित्र कह्युं छे. अहा! आवा चारित्रवंतने निंदा, गर्हा आदि परद्रव्यना आलंबनरूप शुभभाव आवे छे. तेने पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण, स्तुति आदि शुभराग पण आवे छे. ते शुभरागमां, कहे छे, पापने घटाडवानी-अभाव करवानी नहि, घटाडवानी-ताकात छे. तेथी तेने व्यवहारे अमृतकुंभ कहेल छे.

आ समकिती धर्मी पुरुषनी वात छे. जेने पोते आत्मा कोण अने केवो छे एनी खबरेय नथी अने जे बाह्य क्रियामां धर्म मानी राचे छे एनी अहीं वात नथी. एवा जीवो तो स्वयं अपराधरूप प्रवर्तता थका चारगतिमां रखडवाना मार्गे ज पडेला छे. अहीं तो जेणे भवबीज छेदी नाख्युं छे ने भव ने भवना भावरहित भगवान आत्माना आनंदनो स्वाद माण्यो छे तेने जे प्रतिक्रमणादि आठ प्रकारे शुभभाव आवे छे तेमां अशुभ घटतुं होवाथी, कहे छे, ते शुभभावो अपराधरूपी विषना दोषोने घटाडवामां समर्थ छे; तेथी ते शुभभावो व्यवहारथी अमृतकुंभ छे. साक्षात् अमृत तो दोषनो परिहार करवामां समर्थ एवो स्वानुभव ज छे. समजाणुं कांई...?

भाई! आ शास्त्रनी मूळ गाथा बे हजार वर्ष पहेलांनी छे, तथा टीका हजार वर्ष पहेलांनी छे अने आ अलिप्राय तो अनंतकाळथी छे. जुओ, भगवान सीमंधरनाथ


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महाविदेहमां हमणां बिराजे छे. त्यां भगवान कुंदकुंदाचार्य संवत ४९मां गया हता; आठ दिवस त्यां रह्या हता. ते वखते सभामां प्रश्न थयो के आ नानकडुं पतंगिया जेवुं मनुष्य कोण छे? त्यां भगवाननी वाणीमां आव्युं के आ भरतक्षेत्रना आचार्य छे. अहा! ए आचार्यदेव अहीं आडतिया थईने आ जाहेर करे छे के-आत्मा पूरण ज्ञानानंदरूपी अमृतनो कुंभ छे. अहाहा...! आवो अमृतनो कुंभ जेने (पर्यायमां) प्रगट थयो छे एवा धर्मीने प्रतिक्रमण आदि आठ प्रकारे कह्या छे ते शुभभाव आवे छे. ते (शुभभावो) पापना दोषोने क्रमेक्रमे घटाडवामां समर्थ होवाथी अमृतकुंभ छे एम व्यवहारथी व्यवहार आचारसूत्रमां कह्युं छे.

हवे कहे छे-तोपण प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी विलक्षण एवी त्रीजी अप्रतिक्रमणादिरूप भूमिने नहि देखनारने द्रव्य प्रतिक्रमणादि अपराध कम करवारूप पोतानुं कार्य करवा असमर्थ छे. जोयुं? आत्माना निश्चय अनुभव विना शुभरागमां दोष घटाडवानी शक्ति नथी. आत्मानो निश्चय अनुभव जेने प्रगट थयो छे एवा धर्मी पुरुषना शुभभावमां दोष घटाडवानी शक्ति छे पण आत्मानुभवरहित अज्ञानीजनना शुभभावमां दोष घटाडवानी शक्ति नथी.

मिथ्याद्रष्टि के जेने शुभाशुभरहित त्रीजी भूमि शुं-एनी खबर नथी, अहाहा...! जेने अंतरमां शुद्धोपयोग थयो नथी एवा जीवने आ प्रतिक्रमणादि छे ते अपराधरूप छे, ते दोष घटाडवा असमर्थ छे. अहा! हुं एक शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञाता-द्रष्टा ज छुं एवुं जेने अंतरमां भान थयुं नथी ते अज्ञानी जीव द्रव्य प्रतिक्रमणादि करो तो करो, तेने ते क्रिया दोष घटाडवा शक्तिमान नथी, उलटुं विपक्ष एटले बंधननुं कार्य करे छे. करेला दोषोनुं निराकरण करवुं, समकित आदि गुणोनी प्रेरणा करवी, मिथ्यात्वादि दोषोनुं निवारण करवुं, पंचनमस्कार आदिनो भाव अर्थात् प्रतिमा आदिनुं आलंबन, बाह्य विषयकषायथी चित्तने हठाववुं, आत्मसाक्षीए दोषोनुं प्रगट करवुं, गुरु साक्षीए दोषोने प्रगट करवा, दोष थतां प्रायश्चित लई विशुद्धि करवी-ए आठे बोल शुभभाव छे. ते शुभभाव जेने त्रीजी भूमिका नथी अर्थात् सम्यग्दर्शन नथी, शुद्धोपयोगरूप परिणाम नथी तेने झेररूप छे, केमके एनामां दोष घटाडवानुं किंचित् सामर्थ्य नथी.

त्रीजी भूमिका सहित जे जीव छे तेने जे शुभभाव आवे छे ते दोष घटाडवामां समर्थ छे. पण अज्ञानीना जे शुभभाव छे ते विपक्ष छे, अर्थात् दोष घटाडवानुं कार्य करता नथी पण उलटुं बंध करवानुं कार्य करे छे. नवां कर्म बंधाय ए कार्य करवा ते समर्थ छे, माटे ते विषकुंभ ज छे. मिथ्यात्वसहित शुभभाव बंधनुं ज कारण थाय छे. एकलो शुभ-उपयोग ए तो एकला बंधनुं ज कारण छे, माटे ए झेरनो घडो छे.


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हवे कहे छे- ‘जे अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमि छे ते, स्वयं शुद्धात्मानी सिद्धिरूप होवाने लीधे सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने सर्वथा नष्ट करनारी होवाथी, साक्षात् स्वयं अमृतकुंभ छे अने ए रीते (ते त्रीजी भूमि) व्यवहारथी द्रव्य प्रतिक्रमणादिने पण अमृतकुंभपणुं साधे छे.’

अहा! बधी एक समयनी पर्यायमां रमत छे. ज्यारे एने एक समयनी पर्यायनी पाछळ विराजेला परमानंदमय भगवान आत्मानी द्रष्टि थाय छे त्यारे तेने शुद्धात्मानी सिद्धि थतां त्रीजी भूमिका प्रगट थाय छे. अहा! आ त्रीजी भूमि सर्व दोषोने नाश करवामां समर्थ होवाथी साक्षात् अमृतकुंभ छे अने ते होतां-तेना सद्भावमां द्रव्यप्रतिक्रमणादिने व्यवहारे अमृतकुंभपणुं छे, तेना अभावमां नहि.

भाई! तारी चीज अंदर केटली महिमावंत छे तेनी तने खबर नथी. अहाहा...! भगवान! तुं अंदर पूरण आनंद-अमृतनो सागर छो. प्रत्येक आत्मा आवो छे हों. भाई! आ तो जिनेश्वरदेवे कहेली वात छे. तें जिज्ञासाथी तारी वात कदी सांभळी नथी! शुं थाय? आखी जिंदगी बैरां-छोकरांनी आळपंपाळमां ने धंधा-वेपारमां-एकला पापना भावमां चाली जाय छे. एमां वळी मांड समय मळे तो आवुं सांभळी आवे के-व्रत करो, उपवास करो जात्रा करो, -अने तमारुं कल्याण थई जशे. पण अहीं कहे छे-जेटलुं परद्रव्य उपर लक्ष जाय छे ए बधो राग छे, झेर छे. समोसरणमां साक्षात् भगवान बिराजता होय एमना लक्षे तुं स्तुति, भक्ति, पूजा ईत्यादि शुभभाव करे ए शुभभाव झेर छे. हवे आवी सत्य वात सांभळवा मळे नहि ते बिचारा शुं करे?

मोटा अबजोपति होय तोय बिचारा? हा, जेने अंदर पोतानी स्वरूपलक्ष्मी-अनंत अनंत ज्ञानानंदलक्ष्मीनी खबर नथी तेओ मोटा अबजोपति होय तोय बिचारा छे. शास्त्रमां तेमने ‘वराकाः’ एटले रांका- भिखारी कह्या छे. जेम साकर एकली मीठाशनो पिंड छे तेम भगवान आत्मा पूरण एक ज्ञानानंदनो पिंड छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपनी द्रष्टि कर्या विना त्रणकाळमां कोई ने धर्म थतो नथी, सुख थतुं नथी.

अरे! ८४ लाखना अवतार करी करीने तुं मरी गयो छो. आ रस्तामां खटारा नीचे चगदाईने उंदर, नोळ आदि मरी गयेला जोवामां आवे छे ने? भाई! आवा अवता तें अनंत अनंत वार कर्या छे. शुं थाय? बापु! आ शरीर छे ए जड माटी-धूळ छे; आ मळ्‌युं छे ए छूटी जशे, वळी बीजुं मळशे. आत्माना भान विना एम अनंत शरीर मळ्‌यां छे. एमेय नथी के तें क्रियाकांड नथी कर्यां. हजारो राणीओ छोडी, जैननो साधु थई महाव्रतादिनी क्रियाओ पण तें अनंतवार करी छे अने एना फळमां अनंतवार गै्रवेयकमां उपज्यो छे. पण बापु! ए बधो शुभराग


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भाई! एने तें धर्म मान्यो, अमृत मान्युं पण अहीं कहे छे-ए तो झेर छे, विषकुंभ छे.

भगवान कहे छे-प्रभु! तुं एकवार सांभळ. अंदर तारी चीज पुण्य-पापना भावथी रहित-निर्लेप शुद्ध चैतन्यमय पडी छे, एनी द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन, एनुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान अने एमां रमणता ते सम्यक्चारित्र; आ धर्म, आ अमृत ने आ सुख. भगवान! तें अनंतकाळमां आ कर्युं नथी अने बहारमां परद्रव्यमां खेंचाईने मान्युं के अमे सुखी छीए, पण त्यां धूळेय सुखी नथी सांभळने. बापु! ए परद्रव्यने अवलंबीने थनारा भाव तो बधा रागना-दुःखना भाव छे. ए वडे तुं दुःखी ज छो. एमां सुखनी कल्पना छे, सुख क्यां छे? एमां दुःख ज छे.

जुओ, आदमीने वात, पित्त ने कफ ज्यारे घणां वधी जाय त्यारे सन्निपति थाय छे. त्यारे ते दांत काढी खडखड हसे छे. शुं ते सुखी छे? ना; वास्तवमां एने भान नथी के ते दुःखी छे. तेम आ जीवने अनादिनो सन्निपात छे. मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र-ए वडे एने सन्निपात छे. विषय-कषायमां ए ठीक माने छे ए सन्निपात छे. ए सुख माने छे पण शुं ते सुखी छे? ना; एने भान नथी के ए दुःखी छे. बापु! जगत् (शुभरागमां) ठगाय छे अने माने छे के अमने धर्म थाय छे. वास्तवमां ए झेरनो घडो छे.

भाई! अंदर तुं आनंदनो नाथ सच्चिदानंदमय भगवानस्वरूप छो. एनी अंर्तद्रष्टि कर्या विना जेटली व्यवहारनी क्रियाओ करे-चाहे चोवीसे कलाक भगवान... भगवान... भगवान-एम जाप करे, मने शिवपद आपजो रे-एम प्रार्थना करे-पण ए बधो शुभराग बापा! झेरनो घडो छे भाई! भगवान कहे छे-तारुं शिवपद अमारी पासे क्यां छे ते आपीए? ते तारामां ज छे, अने अंर्तद्रष्टि वडे ज प्राप्त थाय एम छे. बाकी आत्मज्ञानरहित आ बधी तारी क्रियाओ एकलो विषकुंभ छे. व्यवहारना पक्षवाळाने आ आकरुं पडे छे; पण शुं थाय?

जे आत्मज्ञान सहित छे एवा धर्मी पुरुषने आवो व्यवहार-शुभराग आवे छे अने तेने व्यवहारथी अमृतकुंभ कह्यो छे. तथापि खरेखर तो शुद्ध उपयोग ए एक ज अमृतकुंभ छे.

‘परमार्थवचनिका’ मां आवे छे के-अज्ञानी आगमनो व्यवहार अनादिथी करतो आव्यो छे तेथी तेने ते सरळ लागे छे अने तेथी व्यवहारश्रद्धा आदि ते करे छे; पण तेने अध्यात्मना व्यवहारनी खबर सुद्धां नथी. शुद्ध वीतरागी दशानिर्मळरत्नत्रय ते अध्यात्मनो व्यवहार छे, अने त्रिकाळी द्रव्य ते अध्यात्मनो निश्चय छे. आने ते जाणतो नथी अने आगमना व्यवहारमां संतुष्ट रहे छे. पण एथी शुं? अहीं कहे छे-ए तो एकलुं झेर छे. श्री जयसेनाचार्यदेवे आ गाथानी


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टीकामां निर्मळ रत्नत्रयनी अपेक्षा ज्ञानीनो बाह्य व्यवहार पण झेर छे एम कह्युं छे.

अहा! आत्मा तो अंदर परमात्मस्वरूप छे. आवे छे ने के-“सिद्ध समान सदा पद मेरो.” अहा! एने आ केम बेसे? अरिसामां जुए ने टोपी आम फेरवे ने तेम फेरवे-एने आ केम बेसे? तेने कहीए छीए के-भाई! आ शुं थयुं छे तने? भाई! शुं आ मडदाने शणगारवुं छे? आ शरीर तो मृतक कलेवर छे. समयसार गाथा ९६मां आवे छे-के मृतक कलेवरमां अमृतसागर आत्मा मूर्छाई गयो छे. भाई! आ शरीर, जड माटी-धूळ छे. अने भगवान आत्मा अमृतनो पिंड एनाथी भिन्न छे. तो एमां जाने! अहा! त्यां तने अखंड प्रताप वडे शोभायमान तारो अमृतनो नाथ प्राप्त थशे.

वळी केटलाक अज्ञानीओ माने छे के अमे समाजनी, देशनी ने जगतनी सेवा करीए छीए. पण परनी सेवा कोण करी शके? तारा शरीरमां रोग आवे तेने तुं मटाडी शकतो नथी, तारी स्त्री जेने तुं अर्धांगना कहे छे ते मरवा पडी होय तो तुं बचावी शकतो नथी तो तुं बीजाओने केम बचावीश? भाई! ए तो जेनुं जेटलुं आयुष्य हशे तेटलुं ते रहेशे. कोण बचावे? ने कोण मारे? प्रभु! तने परनी दयानो भाव आवे छे. पण एक तो तुं परनी दया पाळी शकतो नथी अने बीजुं के परनी दयानो शुभभाव, अहीं करे छे, झेरनो, घडो छे. गजब वात छे भाई! जो तारे सत्नुं शरणुं लेवुं हशे तो आ स्वीकारवुं पडशे; आ सिवाय बीजो कोई उपाय नथी.

अहाहा...! आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु अंदर अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदथी भरचक (पूर्ण) भरेलो छे. एना अनुभवनी वात बहार वाणीमां केटली आवी शके? मात्र ईशारा करी शकाय. जेम गुंगो गोळ खाय पण स्वाद केवो छे ते कही शके नहि, तेम एना आनंदनो स्वाद कही शकाय एम नथी. माटे हे भाई! सर्व विकल्पनुं लक्ष छोडीने स्वरूपमां अंर्तद्रष्टि कर. बस आ ज करवा योग्य छे; बाकी बधां थोथेथोथां छे.

अहीं कहे छे-अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमि छे ते स्वयं शुद्धात्मानी सिद्धिप्राप्तिरूप छे. वळी ते सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने सर्वथा नष्ट करवावाळी छे. तेथी ते त्रीजी भूमिका स्वयं साक्षात् अमृतकुंभ छे. अहाहा...! शुद्धोपयोगरूप भूमिका जेमां निर्मळ रत्नत्रय पाके छे ते साक्षात् अमृतकुंभ छे. अहा! आवी त्रीजी भूमिकावाळा धर्मी पुरुषने जे द्रव्यप्रतिक्रमणादि होय छे तेने व्यवहारथी अमृतकुंभपणुं प्राप्त थाय छे. खरेखर ते अमृतकुंभ छे एम नहि, पण साक्षात् अमृतकुंभनो सहकारी छे तेथी तेने अमृतकुंभ उपचारथी कहेवामां आवे छे. हवे कहे छे.


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‘ते त्रीजी भूमिथी ज आत्मा निरपराध थाय छे. तेना (अर्थात् त्रीजी भूमिना) अभावमां द्रव्यप्रतिक्रमणादि पण अपराध ज छे. माटे, त्रीजी भूमिथी ज निरपराधपणुं छे एम ठरे छे.’

ल्यो, शुद्धोपयोगरूप त्रीजी भूमिथी ज आत्मा निरपराध थाय छे, बीजी रीते नहि, व्यवहाररत्नत्रयथी नहि. ज्यां शुद्धोपयोग नथी, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र नथी त्यां सर्व क्रियाकांड अपराध ज छे. व्यवहार प्रतिक्रमण, सामायिक, प्रौषध, दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा ईत्यादि सर्व, शुद्धोपयोगना अभावमां, अपराध ज छे, झेर ज छे. माटे शुभाभाव भावोथी रहित त्रीजी भूमिथी ज निरपराधपणुं सिद्ध थाय छे. आ न्यायथी-लोजीकथी सिद्ध थयुं के शुद्धोपयोगथी ज निरपराधपणुं छे ए सिवाय पुण्यनी क्रियाओथी जेमां दोषोनो नाश थाय एवुं निरपराधपणुं छे नहि. पुण्यनी क्रियाथी दोषनो नाश सिद्ध थतो नथी.

व्यवहारप्रतिक्रमणादिना विकल्प धर्मीने आवे छे पण एनुं लक्ष तो अंदर भगवान आत्माना अनुभवमां रहेवानुं होय छे. दया, दान आदि शुभना काळेय एनी द्रष्टि शुद्ध आत्मा पर होय छे, अने रागने छोडी अंदर भगवान चिदानंदमय आत्मा छे तेनी पूरण प्राप्तिनुं ज एने लक्ष होय छे. तेनी प्राप्ति अर्थे ज आ द्रव्यप्रतिक्रमणादि छे; शुभरागमां रोकाई रहेवा अर्थे नहि. समजाणुं कांई.....?

हवे कहे छे- ‘आम होवाथी एम न मानो के (निश्चयनयनुं) शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिने छोडावे छे. त्यारे शुं करे छे? द्रव्यप्रतिक्रमणादिथी छोडी देतुं नथी.’

अहा! आ समयसार निश्चयनयनुं एटले शुद्ध चैतन्यमात्र आत्माने बताववावाळुं शास्त्र छे. संवत १९७८मां आ शास्त्र पहेलवहेलुं अमारा हाथमां आव्युं अने ज्यां वांच्युं त्यां एम थई गयुं के-अहो! आ तो अशरीरी थवानी चीज छे. आमां तो शरीर ने संसार रहित सिद्ध थवानी सामग्री पडी छे. अहीं कहे छे-एम न मानवुं के आ निश्चयनुं शास्त्र व्यवहारप्रतिक्रमणादि छोडावी अशुभमां प्ररे छे. एमां शुभभावने छोडी अशुभमां जवानी वात नथी. शास्त्रनो द्रव्यप्रतिक्रमणादि छोडाववानो हेतु नथी पण तेमां अटकी रहेवानुं ते छोडावे छे. प्रतिक्रमण, सामायिक, भक्ति, व्रत, तप, पूजा ईत्यादिना शुभरागमां रोकाई अटकी रहेवानुं ते छोडावे छे. वास्तवमां ते सुखधाम, चैतन्यधाम एवा स्वरूपमां लई जाय छे अने ए ज आनुं करवायोग्य कर्तव्य छे, धर्म छे.

अहा! पुण्यभावने छोडी पापमां नाखवानो शास्त्रनो हेतु नथी. हेतु तो पुण्यने पण छोडी अंदर परम पवित्र प्रभु आत्मा छे तेनो अनुभव कराववानो छे, केमके आत्मानुभवथी ज निरपराधपणुं छे, कल्याण छे. बापु! आ (-स्वानुभव) विना जेम


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घाणीमां तल पीलाय छे तेम चारगतिना दुःखमां तुं पीलाई जईश. चारे गति दुःखरूप छे. चैतन्यलक्ष्मीना भान विना ज्यां जाय त्यां दुःख ज छे. अहा! निज स्वरूपलक्ष्मीनी जेने खबर नथी अने धूळनो (पुण्यकर्मनो) जेने प्रेम छे एवा मोटा अबजोपतिओ, राजाओ अने देवताओ पण दुःखी ज दुःखी छे.

अहीं द्रव्यप्रतिक्रमणादि छोडवता नथी, पण शुभरागमां संतुष्ट थई ते रोकाई जाय छे त्यांथी तेने छोडावी अंदर ध्रुवधाममां-चैतन्यधाममां लई जाय छे. एम के प्रतिक्रमणादि शुभभावमां संतुष्ट रहेवा जेवुं नथी केमके भगवान आत्मा जे अमृतस्वरूप छे एनाथी ते भावो विपरीत छे, झेर छे. निर्मळ रत्नत्रय साक्षात् अमृत छे, ज्यारे आ शुभभावो एनी अपेक्षा झेर छे, माटे, शुभभावोमां संतुष्ट रहेवुं योग्य नथी एम आशय छे. वळी-

‘ते सिवाय बीजुं पण, प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप, शुद्ध आत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे एवुं, अति दुष्कर कांईक करावे छे.’

भाई! अंदर वस्तु तुं आत्मा छो के नहि? भगवान! तुं तत्त्व छो के नहि? तत्त्व छो तो एनुं कांई सत्त्व छे के नहि? एनामां कोई शक्ति, स्वभाव के गुण छे के नहि? अहाहा...! भगवान! तुं पूरण ज्ञान, आनंद आदि अनंत गुण-अनंत शक्तिओनो पिंड छो ने? अनंतस्वभावोथी भरेलुं तारुं सत्त्व छे ने प्रभु! अहाहा...! तेने पामवुं केम? तो कहे छे-तेने पामवा माटे शुभ-अशुभ भाव कार्यकारी नथी. भगवान! तारुं चैतन्यतत्त्व अप्रतिक्रमणादि अशुभभावथी अगोचर-अगम्य छे ने प्रतिक्रमणादि शुभभावथीय अगोचर-अगम्य छे. समजाय छे कांई...? भाई! आ दया, दान, भक्ति आदि शुभभावथी भगवान आत्मा अगोचर छे. गजब वात! कहे छे- व्यवहारना क्रियाकलापथी तने आत्मानो अनुभव नहि थाय केमके एनाथी ते अगम्य छे.

आ नाळियेर होय छे ने नाळियेर! एना उपर जे छालां छे ते नाळियेर नथी, कठण काचली छे ते पण नाळियेर नथी, अने नाळियेरना गोळा उपरनी जे रातड छे ते पण नाळियेर नथी. पण अंदर सफेद मावो भरेलो मीठो गोळो छे ए नाळियेर छे. तेम आ शरीर छे ते छालां छे, कर्म छे ते काचली छे. ए बन्ने आत्मा नथी अने रातड समा जे पुण्य-पापना भाव छे तेय आत्मा नथी. ए त्रणेयथी भिन्न शुद्ध चैतन्य अने आनंदनो अंदर गोळो छे ते आत्मा छे.

अहीं कहे छे- प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी अगोचर, शुद्ध आत्मानी सिद्धि नाम प्राप्ति जेनुं लक्षण छे एवी अति दुष्कर त्रीजी अप्रतिक्रमणादिरूप जे भूमि जे शुद्धोपयोगरूप छे तेने (आ शास्त्र) करावे छे. भाई! शुद्धोपयोग अति दुष्कर छे. सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय अति दुष्कर छे. अहा! अनंतकाळमां एणे शुभक्रियाओ तो अनंतवार करी छे पण शुभाशुभथी भिन्न शुद्ध चैतन्यतत्त्वनां ज्ञान-श्रद्धान ने अनुभव एक क्षण


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पण कर्यां नथी तेथी ते दुष्कर छे. अहीं कहे छे-आ शास्त्र एने द्रव्यप्रतिक्रमणादिथी संतोष करावतुं नथी एटलुं ज नहि, शुद्ध आत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे एवां अति दुष्कर निर्मळ रत्नत्रयनी प्राप्ति पण करावे छे. अहो! आ शास्त्र परम अद्भुत महिमावंत छे.

जुओ, नीचे नरकगति छे. राजा, महाराजा ने मोटा पैसावाळा जेओ मांस, इंडा, दारू ईत्यादिनुं सेवन करे छे ए बधा नीचे नरकमां भराय छे. शुं थाय? एवा क्रुर परिणामनुं फळ एवुं छे. भाई! आ जीव पण त्यां अनंतवार गयो छे. वळी जेओ माया, कुटिलता, वक्रता-आडोडाई बहु करे छे ए जीवो तिर्यंचमां जाय छे. एवा भव पण एणे अनंता कर्या छे. अरे! अनादिथी ए अनंतकाळमां क्यारेय भव विनानो रह्यो नथी. चार गतिमां, ८४ लाख योनिमां अवतार धरी धरीने ते तीव्र दुःखोने ज प्राप्त थयो छे.

अहा! जो एकवार भवरहित थाय तो फरीने तेने जन्म-मरण रहे नहि. जेम चणो काचो होय तो उगे पण शेकेलो चणो उगे नहि. तेम स्वस्वरूपना भान विना पुण्य-पापना भाव कर्या ज करे तेने काचा चणानी जेम चारगतिमां जन्ममरण थया ज करे, तेनुं भवभ्रमण मटे नहि. परंतु पुण्यपापरहित पोताना स्वस्वरूपने ओळखीने तेमां ज लीन थई रहे तेने शेकेला चणानी जेम नवा नवा भव थता नथी. अहा! ते भवरहित अत्यंत निराकुल आनंदनी दशाने प्राप्त थई जाय छे. समजाणुं काई...?

भाई! अंदर तुं केटलो महान छो तेनी तने खबर नथी; अने बेखबरो रहीने तुं चारगतिमां रझळे छे, रूले छे. स्व ने परनी खबर विना बेखबरो रहीने रागथी एकपणुं करीने भगवान! तुं चारगतिमां रखडी मरे छे. अहीं कहे छे-प्रभु! तुं क्रियाकांडथी भिन्न पडी अंदर आनंदथी भरेलुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे तेमां आवी जा, अने तेमां ज निवास कर. तने भवरहित अनंतसुखमय पदनी प्राप्ति थशे. आ सिवाय मोटो जैननो साधु थाय तोय शुं कामनुं?

आत्माने साधे ते साधु छे. जेणे अंदरमां आनंदने साध्यो नथी ते साधु नथी; अर्थात् जे एकला क्रियाकांडमां ज मग्न छे ते साधु नथी. अंदर अमृतकुंभ प्रभु आत्मा पडयो छे तेने साधीने जे प्रगट करे ते साधु छे. अंदर वस्तु आनंदस्वभाव छे एनुं मनन करवुं, एमां लीन थवुं एनुं नाम मुनि छे. वस्त्र सहित साधु ए तो कुलिंग छे. अने बाह्यलिंगमां ज मग्न छे एय वास्तवमां साधु नथी. जे स्वस्वरूपमां ज निरंतर मग्न छे ते ज परमार्थे साधुं छे. अहो! साधुदशा कोई अलौक्कि चीज छे.

अहा! आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं ने आ वातने समजीने सम्यग्दर्शन प्रगट न कर्युं तो जेम दोरा वगरनी सोय खोवाई जाय अने हाथ आवे नहि तेम ते भव-


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समुद्रमां क्यांय खोवाई जशे; तेने आत्मा हाथ नहि आवे. अने जेम सोयने दोरो परोवेलो होय तो ते खोवाई हशे तोपण जडशे तेम जेणे आत्माने रागथी भिन्न जाणी समकित प्रगट कर्युं हशे ते नबळाईना रागने कारणे कदाचित् अल्प भव करशे तोपण ते अंते मोक्षने पामशे ज.

आ शास्त्रमां ज आगळ कहेशे के- (गाथा ३८३)

कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं।
तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमण।।

अर्थः– अनेक प्रकारनां विस्तारवाळा जे पूर्वे करेलां शुभाशुभ कर्म छे तेमनाथी जे पोताना आत्माने निवर्तावे छे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे. ईत्यादि.

* गाथा ३०६ – ३०७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘व्यवहारनयावलंबीए कह्युं हतुं के-“लागेला दोषोनुं प्रतिक्रमण आदि करवाथी ज आत्मा शुद्ध थाय छे, तो पछी प्रथमथी ज शुद्ध आत्माना आलंबननो खेद करवानुं शुं प्रयोजन छे? शुद्ध थया पछी तेनुं आलंबन थशे; पहेलेथी ज आलंबननो खेद निष्फळ छे.”

जुओ आ व्यवहारना-रागना पक्षवाळानी दलील! शुं कहे छे? लागेला दोषोनो प्रतिक्रमणादि शुभभावथी नाश थई जाय छे ने आत्मा शुद्ध थाय छे. तो पहेलेथी ज शुद्धनी द्रष्टि करो, शुद्धनो अनुभव करो-एम शुद्धना आलंबननो खेद शुं काम करावो छो? शुभथी आत्मा पवित्र थई जशे अने पछी (निरांते) शुद्धनुं आलंबन थशे. पहेलेथी ज शुद्धना आलंबननो खेद करवो नकामो छे. ल्यो, आ प्रमाणे शुभभाव करवाथी (आत्मा) शुद्ध थशे एम आ व्यवहारना पक्षवाळानी दलील छे.

तेने आचार्य समजावे छे के- ‘जे द्रव्यप्रतिक्रमणादिक छे ते दोषनां मटाडनारां छे, तोपण शुद्ध आत्मानुं स्वरूप के जे प्रतिक्रमणादिथी रहित छे तेना आलंबन विना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ज छे, दोष मटाडवाने समर्थ नथी;...’

जुओ, शुं कहे छे? आनंदनो नाथ एवो जे पोतानो आत्मा एनी द्रष्टि विना व्यवहार क्रियाकांड बधो दोषरूप ज छे. अहा! दया, दान, व्रत, भक्ति, प्रतिक्रमण आदि जेने लोको धर्म मानी बेठा छे ते बधाय शुभभावो अंतर-अनुभव विना परमार्थे पाप ज छे. बहु आकरी वात भाई! पुण्यपापथी रहित हुं चिदानंदकंद प्रभु आत्मा छुं-एम स्वानुभव विना बधो शुभराग एकलो झेर ने दुःख छे. अरे! भगवान! आत्माना भान विना एवी क्रियाओ तो तें अनंतवार करी छे; पण जे


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स्वयं दोषस्वरूप ज छे ते दोषने केम मटाडे? आत्मज्ञानना अभावमां व्रत, तप आदि कोई बाह्य क्रियाओ दोष मटाडवा समर्थ नथी. हवे एनुं कारण कहे छे-

‘कारण के निश्चयनी अपेक्षा सहित ज व्यवहारनय मोक्षमार्गमां छे, केवळ व्यवहारनो ज पक्ष मोक्षमार्गमां नथी, बंधनो ज मार्ग छे.’

मोक्षमार्गमां निश्चय सहित व्यवहार (होय) छे. जेने रागरहित शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मानी द्रष्टि, ज्ञान ने अनुभव थयां छे एवा निश्चयवाळाना शुभरागने व्यवहार कहेवामां आवे छे. पण जेने निश्चय-स्वरूपनी द्रष्टि अने अनुभव नथी एना व्यवहार- क्रियाकांड कोई चीज नथी. ए तो केवळ अपराध अने दोष ज छे. भाई! दुनियाथी आ वात जुदी छे. लोको साथे एनो मेळ न खाय एवी आ अलौक्कि वात छे. निश्चययुक्त जे व्यवहार एने व्यवहार मोक्षमार्ग कहे छे. पण आत्मज्ञान रहित अज्ञानी, भले ते व्रतादिना शुभरागमां वर्ततो होय तोय तेने व्यवहार मोक्षमार्ग कहेता नथी.

भाई! निश्चयनी अपेक्षा सहित ज व्यवहारनय मोक्षमार्गमां छे. जेने आत्मानो अनुभव अंदरमां थयो छे एने जे शुभराग आवे छे तेने मोक्षमार्गमां व्यवहार कहेवामां आवे छे. केवळ व्यवहारनो ज पक्ष मोक्षमार्गमां नथी; अर्थात् निश्चय रहित व्यवहार कांई नथी, ते व्यवहार नाम पामतो नथी; ए तो बंधनो ज मार्ग छे; अज्ञानीने दया, दान, व्रतादिना विकल्पो बंधनुं-संसारनुं ज कारण थाय छे. हवे कहे छे.

‘माटे एम कह्युं छे के-अज्ञानीने जे अप्रतिक्रमणादिक छे ते तो विषकुंभ छे ज; तेमनी तो वात ज शी? परंतु व्यवहारचारित्रमां जे प्रतिक्रमणादिक कह्यां छे ते पण निश्चयनये विषकुंभ ज छे, कारण के आत्मा तो प्रतिक्रमणादिकथी रहित, शुद्ध अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ज छे.’

जुओ, शुं कह्युं? अज्ञानीने जे मिथ्यात्वादिरूप अप्रतिक्रमणादिक छे ए तो विषकुंभ छे ज. एनी तो शी वात करवी? परंतु भगवाने व्यवहारचारित्रमां जे प्रतिक्रमणादिक शुभभावो कह्या छे ते पण निश्चयथी विषकुंभ ज छे. अहाहा...! निश्चय सहितनी जे क्रिया (शुभ) छे ते पण परमार्थे झेरनो घडो ज छे. जेने पोताना निश्चयस्वरूपनुं अंदर भान छे तेना व्यवहारने (शुभरागने) व्यवहार कहेवामां आवे छे ते व्यवहार पण निश्चयथी विषकुंभ ज छे; कारण के आत्मा तो प्रतिक्रमणादिकथी रहित, शुद्ध, अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ज छे. ल्यो, आवी वात छे.

हवे आ कथनना कळशरूपे काव्य कहे छेः-

* कळश १८८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अतः’ आ कथनथी, ‘सुख–आसीनतां गताः’ सुखे बेठेला (अर्थात् एश-


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आराम करता) ‘प्रमादिनः’ प्रमादी जीवोने ‘इताः’ हत कह्या छे.

शुं कीधुं? के-आत्मा शुं चीज छे एनी खबर विना दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा ईत्यादि शुभक्रियाओ वडे धर्म थाय छे एम मानी जे शुभरागमां संतुष्ट थाय छे तेओ प्रमादी छे अने ते जीवो ‘हताः’ एटले हणाई रह्या छे अर्थात् तेओ मोक्षना अनधिकारी छे. अहा! जेने हुं पोते ज्ञानानंदस्वरूप छुं एम अंतर-अनुभव थयो नथी ते जीवो मोक्षना-धर्मना अनधिकारी छे अर्थात् तेमनो मोक्षमार्गमां प्रवेश ज थतो नथी.

‘चापलम् प्रलीनम्’ चापल्यनो (विचार विनाना कार्यनो) प्रलय कर्यो छे. एटले शुं? के आत्मभान विनानी क्रियाओनो-द्रव्यप्रतिक्रमण, व्रत, तप, भक्ति, पूजा, भणवुं, भणाववुं, पठन-पाठन, चिंतवन ईत्यादि क्रियाओनो-प्रलय कर्यो छे, अर्थात् ते क्रियाओ बधी मोक्षना कारणमां गणवामां आवी नथी.

आ लाखो-करोडोनुं दान करे, भक्ति, पूजा, पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण ईत्यादि करे ए बधी शुभरागनी क्रियाओ चापल्य छे. आत्माना भान विना आवी बधी क्रियाओना करनारा मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! जेओ अहिंसादि पापनी क्रियाओमां पडेला छे-तेमनी तो शी वात करवी? ते पापी जीवो तो चारगतिमां रखडी ज मरे छे. पण अहीं कहे छे- पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो अनुभव कर्या विना जेओ एकली पुण्यनी-दया, दान, व्रतादिनी क्रियाओ करवामां पडेला छे तेओने पण चापल्य छे, अर्थात् तेमनी ते क्रियाओ मोक्षमार्गमां गणी नथी. तेओ पण बंधमार्गमां एटले संसारमां ज रझळी मरे छे.

हवे कहे छे- ‘आलम्बनम् उन्मूलितम्’ आलंबनने उखेडी नाख्युं छे. अर्थात् स्वद्रव्यना आलंबन सिवाय जेटलुं परद्रव्यनुं आलंबन छे तेने मूळथी उखेडी नाख्युं छे. सम्यग्द्रष्टिने जे द्रव्यप्रतिक्रमणादि होय छे तेने पण निश्चये बंधनुं कारण जाणी हेय गण्युं छे. परद्रव्य चाहे पंचपरमेष्ठी हो के शास्त्र हो, एनुं आलंबन प्रमाद छे अने ते हेय छे. एक वीतरागभाव सिवाय, पापनी निंदा, चित्तने पापथी पाछुं वाळवुं ते, ईत्यादि सर्व शुभरागनी क्रियाओ प्रमाद छे अने एमां परद्रव्यनुं आलंबन छे. अहा! अहीं कहे छे- जेटलुं परद्रव्यनुं आलंबन छे ते मूळथी उखेडी नाख्युं छे एटले के हेय कर्युं छे.

प्रश्नः– तो भावपाहुडमां पंचमहाव्रत अंगीकार करो, षोडशभावना भावो ईत्यादि अनेक प्रकारनी शुभक्रियाओ करवानी वात आवे छे ने?

उत्तरः– हा, आवे छे; पण ए तो भाई! ज्ञानीने ते ते भूमिकाओमां केवा केवा प्रकारनो शुभराग आवे छे एनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. ए सर्व व्यवहारनुं कथन


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समजवुं. बाकी परमात्मा जैन परमेश्वर एम कहे छे के-मारा आलंबनथी पण तने राग थशे. पंचास्तिकायमां आवे छे के अरिहंत प्रत्येनो राग ए मोक्षनुं कारण नथी.

पंचास्तिकाय, गाथा १६८ मां कह्युं छे के-जरा पण राग दोषनी परंपरानुं कारण छे. अरिहंत आदिनी भक्ति रागपरिणाम विना होती नथी, अने रागपरिणाम थतां आत्मा, पोताने बुद्धिप्रसार विनानो राखी शकतो नथी. बुद्धिप्रसार अर्थात् चित्तनुं भ्रमण होतां शुभाशुभ कर्मोनो निरोध थतो नथी. आ प्रमाणे परद्रव्यनुं आलंबन जेनुं मूळ छे एवो अल्प राग पण दोषनी संततिनुं मूळ छे. भाई! आ तो वीतरागनो मार्ग! ए तो वीतरागताथी ज प्रगटे छे.

अहाहा...! चैतन्यस्वरूपी आत्मा ज्ञायकप्रभु एक वीतरागस्वभावथी भरेलुं तत्त्व छे. एना आलंबन विना जेटलुं परद्रव्यनुं आलंबन थशे एटलो राग ज उत्पन्न थशे. अने ए अल्पराग पण दोषनी परंपरानुं मूळ छे एम कहे छे. ज्ञानीने ए भाव आवे खरा, पण एने ए बंधनुं कारण जाणी हेय गणे छे.

तो बीजे शास्त्रमां अर्हंतादिनी भक्ति वगेरेने परंपरा मोक्षनुं कारण कह्युं छे ने? भाई! ए तो आरोपथी कथन छे. मोक्षमार्गमां रत-उद्यमी जीवोने एवो भाव आवे छे एम जाणी आरोप दईने उपचारथी तेने परंपरा मोक्षनुं कारण कह्युं छे. भाई! ज्यां जे विवक्षाथी कथन होय ते यथार्थ समजवुं जोईए. वास्तवमां तो वीतरागस्वभावी भगवान आत्मानी सन्मुखताए प्रगटेलो एक वीतरागभाव ज परंपराए मोक्षनुं कारण छे.

कळशटीकामां कह्युं छे के-बुद्धिपूर्वक ज्ञान करतां थकां जेटलुं भणवुं, विचारवुं, चिंतववुं, स्मरण करवुं ईत्यादि छे ते ‘उन्मूलितम्’ मोक्षनुं कारण नथी एम जाणीने हेय ठराव्युं छे.

प्रश्नः– आत्मज्ञान विना होय एनी वात छे ने? उत्तरः– आत्मज्ञान होय त्यां पण ते राग वर्तमानमां दुःखरूप छे अने भविष्यमां दुःखनुं कारण छे. भाई रागनो-आस्रवनो स्वभाव ज आ छे. (जुओ समयसार गाथा ७र ने ७४). धर्मीने पण शुभरागथी पुण्य बंधाशे, एना फळमां संयोग मळशे, अने संयोगना लक्षे फरी राग-दुःख ज थशे. आवी वात! परमार्थ सत्य बहु अलौक्कि अने सूक्ष्म छे भाई!

भाई! तने साचा देव, साचां शास्त्र अने साचा गुरु मळ्‌या छे ते परद्रव्य छे. तेना आलंबनथी पण तने राग ज थशे. स्व-अवलंबने ज स्वरूपसिद्धि छे, ए सिवाय परद्रव्यनुं अवलंबन रागनुं-विकारनुं ज मूळ छे. एटले कहे छे के - परनुं


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आलंबन मूळमांथी ज उखेडी नाख्युं छे; अर्थात् एने हेय ज गण्युं छे. पंचास्तिकायमां लीधुं छे के पंचपरमेष्ठीनी भक्तिथी पण मोक्ष दूर छे.

जुओ, धर्मीने एक समयमां बे धारा छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी साधकने कांईक शुद्धता छे ने कांईक अशुद्धता-रागधारा पण छे. भाई! चाहे व्यवहार रत्नत्रय हो, तोपण ए राग ज छे, बंधनुं ज कारण छे अने तेथी हेय छे. ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ मां कह्युं छे के-जेटले अंशे राग, एटले अंशे बंधन, अने जेटले अंशे समकित एटले अंशे अबंध.

आचार्य अमृतचंद्रस्वामी त्रीजा कळशमां कहे छे के-द्रव्यद्रष्टिए तो हुं शुद्ध चिन्मात्रमूर्ति छुं परंतु निमित्तना वशे अमारी परिणति रागादिथी व्याप्त कल्माषित एटले मेली छे. आ समयसार-शुद्धात्माना ग्रंथनी व्याख्या करवाथी ज अमारी परिणतिनी परम विशुद्धि थशे. जुओ, अंदर द्रव्यद्रष्टिनुं जोर छे ने? तो तेना बळे परम विशुद्धि थशे ज एम कहे छे. जुओ, छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता मुनिराज पण कहे छे-अमारी परिणति किंचित् मेली-कलुषित छे. अमने ते पोसाती नथी, अमारे तो परम विशुद्धि जोईए. भाई! रागनो अंश-कण होय तोय ते मेल छे अने ते हेय ज छे.

भाई! तारुं सुख स्वाधीन स्व-अवलंबनथी ज प्रगटे तेम छे. अरे! तुं स्वने छोडीने परद्रव्यना अवलंबनमां क्यां गयो? तारे शुं करवुं छे प्रभु? रागने पोतानो मानीने तो भगवान! तुं चोरासी लाख योनिमां रझळी मुओ छो. अहीं तो भाई! तुं पांच पचास के सो वर्ष रहीश. पछी कयां जईश? तारे क्यां रहेवुं छे प्रभु! अहा! द्रव्यलिंग धारीने पण कोई क्षेत्रमां जन्मवानुं बाकी नथी राख्युं. द्रव्यमुनिपणुं धारण करीने पण स्वना अवलंबन विना भगवान! तुं अनंत अनंत वार जन्म्यो ने मर्यो. नरक ने निगोदना पण अनंत अनंत भव कर्या. तें मान्युं के आ पंचमहाव्रत पाळ्‌यां एटले हुं वधी गयो, पण भाई! तुं कांई वध्यो नथी. संसार तो तारो एवो ने एवो ज ऊभो छे. माटे हे भाई! परावलंबननी द्रष्टि छोडी स्वअवलंबन प्रगट कर.

सम्यग्द्रष्टिने पण व्यवहार प्रतिक्रमणादि जे आठ बोल कह्या छे ते होय छे. पण ए बधो राग छे. शुं कीधुं? करेला दोषोनुं निराकरण करवुं समकित केम थाय ते संबंधी सम्यक्त्वादि गुणोनी प्रेरणा, मिथ्यात्वादि दोषोनुं निवारण, पंच नमस्कारादि भणवानो भाव, प्रतिमादि बाह्य आलंबन वडे चित्तने स्थिर करवुं, बाह्य विषयकषायथी पाछा हठवुं, आत्मसाक्षीए दोषोने प्रगट करवा, गुरु साक्षीए दोषोने प्रगट करवा, प्रायश्वित्त लईने विशुद्धि करवी-एम आ सर्व भावो राग छे. आवा भावो धर्मीने


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आवे छे पण तेने ते हेय जाणे छे. अरे! क्रियाकांडमां रोकाईने जीवो जिंदगी पूरी करी नाखे छे पण वीतराग परमेश्वर जेने धर्म कहे छे तेने सांभळवाय रोकाता नथी!

भाई! आ देह तो जड माटी-धूळ छे. ते विनाशिक छे; एनी तो बळीने राख थशे. पण भगवान! तुं तो त्रिकाळ रहेनारी अविनाशी चीज छो ने! अहाहा...! शाश्वत चिद्घन वस्तु सदा अस्तिपणे छो ने प्रभु! आवो नित्य रहेनारो तुं क्यां जाय? जो तुं रागथी एकपणुं मानी रागमां रहीश तो रागना स्थानोमां चारगतिमां रखडी मरीश. माटे रागथी छूटो पडी तारो शाश्वत चिदानंदघन प्रभु आत्मा छे तेमां जा. एथी तने मोक्षनुं बीज जे सम्यग्दर्शन ते प्रगट थशे. भाई! सम्यग्दर्शन विना महाव्रतादि रागनी सर्व क्रिया थोथां छे, (मोक्ष माटे) कांई काम आवे एम नथी. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे- ‘आसम्पपूर्ण–विज्ञान–घन–उपलब्धेः’ ज्यां सुधी संपूर्ण विज्ञानघन आत्मानी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी ‘आत्मनि एव चित्तं आलानितं च’ (शुद्ध) आत्मारूपी थांभले ज चित्तने बांध्युं छे.

शुं कीधुं? के ज्यां सुधी पूरण दशा अर्थात् केवळज्ञाननी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी चित्तने एटले ज्ञाननी दशाने त्रिकाळी ध्रुव साथे जोडी दीधी छे एम कहे छे. ज्ञानने महाव्रतादिना रागमां जोडयुं-बांध्युं छे एम नहि, पण ज्ञानने भगवान ज्ञातास्वरूप आत्मामां बांध्युं छे एम कहे छे. व्यवहारनी अनेक क्रियाओमां चित्त भमतुं हतुं तेने शुद्ध एक चैतन्यमात्र आत्मामां जोडी दीधुं छे, कारण के ते ज मोक्षनुं यथार्थ कारण छे.

हवे आ सांभळवाय रोकाय नहि ए तत्त्वने केम पामे? बहारमां पांच-पचास लाखनी मूडी होय ने घरे बे चार दीकरा होय, वरसे-दहाडे बे-पांच लाख कमातो होय एटले जाणे के ओहोहोहो...! हुं पहोळो ने शेरी सांकडी एम फुलाई जाय. पण सांभळने बापा! अनंतकाळथी एमां ज तुं मरी गयो छो, ए वडे ज तारा चैतन्यप्राण हणाई रह्या छे. भगवान! तारामां एक जीवत्वशक्ति छे. सत्ना सत्त्वरूप शुद्ध ज्ञानदर्शन प्राणोथी जे वडे जीवे छे एवी जीवत्वशक्ति छे. अहा! परद्रव्यमां अहंपणाना भाव वडे ए हणाई रही छे अर्थात् एनी निर्मळ प्रगटता थती नथी. अहा! आ बायडी-छोकरां मारां ने आ संपत्ति मारी-एम जेनो काळ जाय छे एनी तो वात ज शी करवी? ए तो एकला पापबंध वडे संसारमां रखडे छे. पण अहीं कहे छे-समकितीने परद्रव्यना आलंबनवाळो द्रव्यप्रतिक्रमणादि जे शुभराग आवे छे एय बंधनुं कारण होवाथी हेय छे. माटे, कहे छे, पूर्ण विज्ञानघननी प्राप्ति ज्यांसुधी न थाय त्यां सुधी चित्तने शुद्ध आत्मामां जोडी दीधुं छे. अहो! कळशमां केटकेटलुं भर्युं छे! एम के चित्तने द्रव्यक्रियाओमां जोडयुं नथी पण शुद्ध आत्मद्रव्यमां जोडयुं छे.


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अहीं कहे छे-मिथ्यात्वनी भूमिकामां थता पुण्य ने पापना भावनी एम वात ज करता नथी. जेओ मिथ्यात्वसहित छे तेओ तो एकला पापथी हणायेला चारगतिमां रझळनारा ज छे. परंतु सम्यग्द्रष्टि के साचा संत-मुनि होय के जेमने आ द्रव्यप्रतिक्रमणादिना शुभभाव आव्या विना रहेता नथी ते भाव पण तेमने बंधनुं कारण होवाथी हेय छे. माटे ज्यां सुधी पूर्ण केवळज्ञाननी दशानी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी, कहे छे, ज्ञाननी दशाने भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्मामां जोडी दे. ए बहारनुं आलंबन जवा दे, केमके एनाथी तो राग अने बंध ज थशे. आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वरूप छे तेमां ज्ञानने जोडी दे, ज्ञान ज्ञानमां (आत्मामां) सुप्रतिस्थित रहे ए एक ज मोक्षनुं कारण छे. (द्रव्यप्रतिक्रमणादिनो बाह्य व्यवहार कांई मोक्षनुं कारण नथी).

*

अहीं निश्चयनयथी प्रतिक्रमणादिकने विषकुंभ कह्यां अने अप्रतिक्रमणादिकने अमृतकुंभ कह्यां तेथी कोई उलटुं समजी प्रतिक्रमणादिकने छोडी प्रमादी थाय तो तेने समजाववाने कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १८९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यत्र प्रतिक्रमणं एव विषं प्रणीतं’ (अरे! भाई,) ज्यां प्रतिक्रमणने ज विष कह्युं छे, ‘तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुत्ः स्यात्’ त्यां अप्रतिक्रमण अमृत क्यांथी होय? (अर्थात् न ज होय).

जुओ, प्रतिक्रमणने ज एटले शुभभावने ज अमे विष कह्युं त्यां अप्रतिक्रमण अर्थात् अशुभभाव अमृत क्यांथी होय? ज्यां व्यवहार प्रतिक्रमण, व्यवहार प्रत्याख्यान ईत्यादि व्यवहारनी शुभक्रियाओने झेर कही छे त्यां तीव्र रागमां जवुं ने अशुभमां जवुं, अज्ञानमां जवुं-ए अमृत केम होय? भाई! ए (-अशुभ) तो झेर ज झेर छे. शुभने छोडी अशुभमां जवानी तो अहीं वात ज नथी. अहीं तो शुभने छोडी ऊंचे ऊंचे चढवानी-शुद्धमां जवानी वात छे.

भाई! अमे तने शुभभाव छोडावीने, जे वडे जन्म-मरणनो अंत आवे अने जेमां आत्मप्राप्ति थाय एवा वास्तविक धर्ममां लई जवा मागीए छीए. अहा! अंदर भगवान आत्मा चिद्घन प्रभु त्रिकाळ परमात्मस्वरूपे विराजे छे तेमां लई जवा शुभभावने अमे झेर कह्युं छे. परंतु शुभने झेर जाणी अशुभमां जाय ए तो तारी ऊंधी- विपरीत द्रष्टि छे. अमे एवा अर्थमां शुभने हेय क्यां कह्युं छे? अरे! ज्यां प्रतिक्रमणने विष कह्युं त्यां अप्रतिक्रमण (-अशुभ) अमृत कयांथी थयुं? ज्यां शुभने ज हेय बताव्युं त्यां अशुभ उपादेय क्यांथी थई गयुं? (अज्ञानीना शुभाशुभभाव बधा अज्ञानमय होवाथी अप्रतिक्रमण छे.)


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हवे कहे छे- ‘तत्’ तो पछी ‘जनः अधः अधः प्रपतन् किं प्रमाद्यति’ माणसो नीचे नीचे पडता थका प्रमादी कां थाय छे? ‘निष्प्रमादः’ निष्प्रमादी थया थका ‘उर्ध्वम् उर्ध्वम् किं न अधिरोहति’ ऊंचे ऊंचे कां चढता नथी?

आचार्य कहे छे-अमे शुभने-मंद कषायने झेर कह्युं; तेथी अशुभ-तीव्र कषाय तो एनी मेळे ज महा झेर सिद्ध थयुं. आम छे तो पछी माणसो नीचे नीचे पडता थका प्रमादी केम थाय छे? भाई! अहीं तो शुभमां संतुष्ट होय तेवा जीवने शुद्ध आत्मानी साथे संबंध करावे छे. कहे छे-अशुभभाव तो प्रमाद छे ज, पण शुभभाव पण प्रमाद ज छे. व्रत, तप, भक्ति, पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण इत्यादि शुभभाव जे छठ्ठे गुणस्थाने साचा संत-मुनिवरने आवे छे ते प्रमाद छे. रागमात्र प्रमाद छे; ते छूटतां सातमुं (गुणस्थान) थाय छे.

अहा! शुभने अमे हेय कह्युं तेथी तेने छोडीने अशुभमां जाय एवुं तो बुद्धिमान न करे. तो भगवान! तुं नीचे नीचे उतरतो प्रमादी केम थाय? निष्प्रमादी थयो थको ऊंचे ऊंचे कां न चढे? शुभभावने छोडीने अंदर ज्यां सच्चिदानंद प्रभु आत्मा विराजे छे तेमां जा ने; भगवान ज्ञानानंदस्वरूपे अंदर छे तेना भेटा कर ने अने तेमां ज बंधाई जा ने!

अहा! शुभने छोडी प्रमादी थई अशुभमां तुं जा ए तो तारी स्वच्छंदता छे. माटे शुभने छोडी निष्प्रमादी थई स्वस्वरूपना आश्रयमां जा अने त्यां ज लीन थई जा. शुभरागने हेय बताववानुं आ ज प्रयोजन छे प्रवचनसार गाथा ११ मां शुद्धोपयोग उपादेय ने शुभोपयोग हेय कह्यो छे. भाई, छठ्ठे गुणस्थाने मुनिने जे शुभोपयोग वर्ते छे ते हेय छे. वळी त्यां ज गाथा १र मां अशुभोपयोगनुं अत्यंत हेयपणुं प्रसिद्ध कर्युं छे. एथी ए स्पष्ट थयुं के शुभोपयोगने छोडीने शुद्धापयोगमां ज रहेवुं. अहा! रागरहित अंदर आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु एकलो ज्ञाननो पिंड छे. तेना आश्रये शुद्धोपयोगमां रहेवुं ए ज धर्म छे. आ सिवाय बीजो (शुभमां रहेवुं ते) धर्म छे नहि. समजाणुं कांई.....?

* कळश १८९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञान अवस्थामां जे अप्रतिक्रमणादिक होय छे तेमनी तो वात ज शी? अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिने जे प्रतिक्रमणादि शुभभाव होय छे तेनी तो अहीं वात नथी; केमके ए तो अज्ञानमय भाव ज छे. जे मिथ्यादर्शन सहित छे अने जेने प्रतिक्रमणादि शुभभाव होय छे एनी अहीं वात नथी, केमके एने तो अशुभ ऊभुं ज छे.

‘अहीं तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिनो पक्ष छोडाववा माटे तेमने (द्रव्य- प्रतिक्रमणादिने) तो निश्चयनयनी प्रधानताथी विषकुंभ कह्यां छे कारण के तेओ कर्मबंधनां ज कारण छे,......’


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जोयुं? समकितीना व्यवहारने के जे प्रतिक्रमण, पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण, पंचपरमेष्ठीनी भक्ति इत्यादिरूप छे तेने अहीं निश्चयथी झेरनो घडो कह्यो छे कारण के ते कर्मबंधनुं ज कारण छे. शुभभावोने झेर कहेवानो आशय तेनो पक्ष छोडावी शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ज लीन-स्थिर कराववानो छे. अहा! शुभाशुभने छोडीने शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रयमां एकाग्र थई हे रते निश्चय-परमार्थ प्रतिक्रमण छे अने ए ज धर्म छे अने शुभथी छोडाववानुं आ ज प्रयोजन छे. शुभने छोडीने अशुभमां जा एम आशय नथी अने एम होय पण नहि. (एम समजे ए तो एनी स्वच्छंता छे).

व्यवहार प्रतिक्रमण, व्यवहार सामायिक, स्तवन, वंदन ईत्यादि जे समकितीने व्यवहार होय छे ते बधो परना आश्रये प्रगट थाय छे; अने परना आश्रये जे भाव थाय ते बंधनुं ज कारण छे. तेथी व्यवहारनो पक्ष छोडावी निश्चयस्वरूपमां लीन कराववाना प्रयोजनथी व्यवहार-प्रतिक्रमणादिने विषकुंभ कह्यो छे. एम के ए व्यवहारना झेरने छोडा अंदर अमृतस्वरूप भगवान आत्मा छे एमां लीन-स्थिर थई जा. ल्यो, आवी वात छे. हवे कहे छे-

‘अने प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी रहित एवी त्रीजी भूमि, के जे शुद्ध आत्मस्वरूप छे तेम ज प्रतिक्रमणादिथी रहित होवाथी अप्रतिक्रमणादिरूप छे, तेने अमृतकुंभ कही छे अर्थात् त्यांनां अप्रतिक्रमणादिने अमृतकुंभ कह्यां छे. त्रीजी भूमिमां चडाववा माटे आ उपदेश आचार्यदेवे कर्यों छे.’

शुं कीधुं? एक तो ज्ञानीनुं द्रव्यप्रतिक्रमण अने अज्ञानीनुं अप्रतिक्रमण एटले मिथ्यात्व सहितनो बधो शुभराग-ए बेयथी रहित शुद्ध आत्मस्वरूप अप्रतिक्रमण जे त्रीजी भूमि छे ते, कहे छे, अमृतकुंभ छे; केमके ते अबंधस्वरूप छे, अमृतस्वरूप छे. तेथी कहे छे-भाई! शुभथी खसीने शुद्धमां जा तो कल्याण थशे, शुभमां पडी रहेवामां कल्याण नहि थाय. अप्रतिक्रमणादि आ त्रीजी भूमि छे त्यां एक शुद्ध आत्मानुं आलंबन छे तेथी तेने अमृतकुंभ कह्यो छे. आ त्रीजी भूमिमां आवी रहेवानी वात छे.

एने बिचाराने एक तो व्यवहारे पण (पापकर्मथी) निवृत्ति मळे नहि अने कदाचित् मळे तो अंतःप्रवृत्ति (आत्मप्रवृत्ति) करे नहि तो ते पण झेर छे एम कहे छे. एक त्रीजी भूमिए पहोंचे ए ज अमृतकुंभ छे. अहा! त्रीजी भूमिए चडवा-पहोंचवा अज्ञानीनुं अप्रतिक्रमण छे ए तो छोडाव्युं छे, ज्ञानीनुं द्रव्यप्रतिक्रमण पण छोडाव्युं छे. समजाय छे. कांई.....?

भाई! आ त्रीजी भूमिकामां जे अप्रतिक्रमणादि कह्युं छे ते आत्मस्वरूप छे. ज्ञानीने जे द्रव्य-प्रतिक्रमणादि व्यवहार छे ते आत्मस्वरूप नथी, धर्मरूप नथी; तेथी तेने विषकुंभ कही छोडाव्यो. जुओ, ज्ञानीने-धर्मीने वच्चे द्रव्यप्रतिक्रमणादि शुभभाव


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आवे छे, अशुभथी बचवा एने एवो शुभभाव अवश्य आवे छे, पण ए कांई धर्म नथी, अमृत नथी. अहा! ज्ञानीने शुभभाव न आवे एम नहि अने एने ए धर्म माने एमेय नहि. तेथी तेने त्रीजी भूमिमां पहोंचवा-रहेवा उद्यम कराववामां आवे छे, केमके त्रीजी भूमि आत्मस्वरूप छे, अमृतस्वरूप छे, अबंधस्वरूप छे.

शास्त्रमां शुभनो अधिकार होय त्यां, जिनमंदिर बंधावो, प्रतिमा पधरावो, स्वाध्याय करो, तप करो, दान करो ईत्यादि बधुं आवे. पण ए तो धर्मी पुरुषने एनी भूमिकामां जेवो जेवो राग आवे छे तेनुं त्यां कथन कर्युं छे. एटले कांई ए शुभराग धर्म छे एम नहि. धर्म तो व्यवहार प्रतिक्रमणादिथी रहित जे त्रीजी अप्रतिक्रमणादिरूप भूमि छे ते ज छे; ते ज साक्षात् अमृतकुंभ छे, ते ज निश्चय-परमार्थ प्रतिक्रमण छे.

जुओ, अप्रतिक्रमणादि बे प्रकारनां कह्यांः-

१. मिथ्यात्वसहित अज्ञानीने जे शुभाशुभभाव होय छे ते अप्रतिक्रमणादि छे. अज्ञानीने जे शुभभाव होय छे ते पण अप्रतिक्रमणादि छे. तेनी तो अहीं वात नथी.

र. शुभभावने छोडीने शुद्धमां जाय ते ज्ञानीनां अप्रतिक्रमणादि छे. ते आत्मस्वरूप छे, अबंध छे, अमृतकुंभ छे. वळी ज्ञानीने निश्चय सहित जे शुभभाव आवे छे तेने व्यवहार प्रतिक्रमणादि कहे छे. निश्चयथी तेने अहीं विषकुंभ कह्यो छे केमके ते बंधनां ज कारण छे.

अज्ञानीने निश्चय के व्यवहार एकेय प्रतिक्रमण नथी.

त्रीजी भूमि जे शुद्ध आत्मस्वरूप छे ते ज प्रतिक्रमणथी (द्रव्यप्रतिक्रमणथी) रहित होवाथी अप्रतिक्रमणस्वरूप छे ते अमृतकुंभ छे. अहाहा...! अंदर भगवान आत्मा नित्यानंद-सहजानंद-परमानंद प्रभु एकलो अमृतनो कुंभ भर्यो छे. एनी जे पर्यायमां प्रगटता थाय ते अमृतकुंभ छे. अहाहा...! शुभरागथी खसीने ‘शुद्ध’ मां आवतां जेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो ते शुद्ध निर्मळ परिणति अमृतकुंभ छे.

प्रश्नः– व्यवहार प्रतिक्रमणादिने शास्त्रमां अमृतकुंभ कह्यो छे.

उत्तरः– हा, कह्यो छे, व्यवहारनां शास्त्रोमां कह्यो छे; पण ए तो धर्मीने के जेने निश्चय अमृत अंदर प्रगट थयुं छे तेना द्रव्य-प्रतिक्रमणादिने आरोप दईने व्यवहारे अमृतकुंभ कह्यो छे, पण निश्चये तो ते विषकुंभ छे.

प्रश्नः– एक कोर कहे के ज्ञानीनो शुभभाव झेर छे ने वळी बीजी कोर कहे के एनाथी दोष घटे छे. तो आ केवी रीते छे?