Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Moksh Adhikar Samapt; Part 9; Introduction; Content; Samaysaar Stuti; Gurudev Stuti; Pravachan Ratnakar Part-9 ; Sarvavishuddhgnaan Adhikar 1; Kalash: 193.

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उत्तरः– ज्ञानीने शुभना काळे अशुभ (-मिथ्यात्वादि) नथी ए अपेक्षाए दोष घटे एम कह्युं छे, पण छे ए (-शुभभाव) झेर. तीव्ररागमां (अशुभमां) जे दोष थतो हतो ते मंदरागमां ओछो थाय छे बस एटलुं. सर्वथा दोषना अभावनुं कारण कांई शुभराग नथी. शुभाशुभथी रहित जे त्रीजी भूमि छे ते ज सर्वथा दोषना अभावनुं कारण छे अने ते ज वास्तविक अमृतकुंभ छे, ते ज अप्रतिक्रमणरूप निश्चय प्रतिक्रमण छे. समजाणुं काई...?

अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग अने शुद्ध उपयोग-एम त्रण प्रकारना वेपार (परिणाम) छे. तेमां अशुभोपयोग पापबंधनुं कारण छे, शुभ उपयोग पुण्यबंधनुं कारण छे अने शुद्ध उपयोग धर्मनुं कारण छे, अबंधनुं कारण छे. त्रीजी भूमिमां चडाववा माटे आचार्यदेवे आ उपदेश कर्यो छे; नीचे उतरवा कर्यो नथी. शुभने छोडीने अशुभमां तुं जा एम कह्युं नथी, पण ए शुभने छोडीने अंतर द्रव्यस्वभावनुं अवलंबन ले एम कह्युं छे. अहाहा...! अंदर पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुखना बेहद स्वभावथी भरेलो भगवान बिराजे छे तेना आश्रयमां जा, तेमां लीन- स्थिर था-एम कहे छे; केमके त्यारे ज शुद्धता प्रगट थशे, त्यारे ज तुं अबंध परिणमशे.

हवे कहे छे-‘प्रतिक्रमणादिने विषकुंभ कह्यां सांभळीने जेओ उलटा प्रमादी थाय छे तेमना विषे आचार्यदेव कहे छे के-आ माणसो नीचा नीचा केम पडे छे? त्रीजी भूमिमां ऊंचा ऊंचा केम चडता नथी?’

प्रतिक्रमणादि विषकुंभ छे एम सांभळीने कोई स्वच्छंदे परिणमे तो ते अविवेकी छे. बाकी शुभने छोडीने अशुभमां रखडवानुं कोणे कह्युं छे? शुभने छोडीने अशुभमां जईश तो तारा भवना आरा नहि आवे. अहीं तो शुभने छोडीने अंदर भगवान शुद्ध चिदानंदघन प्रभु बिराजे छे एमां जा, एना आश्रयमां ज रहे एम उपदेश छे; केमके त्यारे ज शुद्धता प्रगट थशे, धर्म थशे. ल्यो, अहीं तो शुभने छोडी त्रीजी भूमिमां ऊंचा ऊंचा चडवानी वात छे, शुद्धोपयोगमां रहेवानी वात छे.

‘ज्यां प्रतिक्रमणने विषकुंभ कह्युं त्यां तेना निषेधरूप अप्रतिक्रमण ज अमृतकुंभ होई शके, अज्ञानीनुं नहि. माटे जे अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ कह्यां छे ते अज्ञानीनां न जाणवां, त्रीजी भूमिनां शुद्ध आत्मामय जाणवां.’

शुं कहे छे? के ज्यां व्यवहार प्रतिक्रमणने झेर कह्युं त्यां एना निषेधरूप अप्रतिक्रमण ज अमृतकुंभ छे. एम समजवुं. एक व्यवहारने छोडीने बीजा व्यवहारमां जवुं ए कांई अमृतकुंभ नथी. शुं कह्युं ए? के द्रव्यप्रतिक्रमणादि छोडी अज्ञानीना अशुभमां जवुं ए अमृतकुंभ नथी; ए तो अविवेक छे.


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‘अज्ञानीनुं नहि’ -एम कह्युं ने? एनो अर्थ ए के अप्रतिक्रमणादि जे अमृतकुंभ कह्यां ते अज्ञानीना अप्रतिक्रमणादि न जाणवां, पण ए तो शुद्ध आत्मस्वरूप ज्ञानीनां अप्रतिक्रमणादिनी वात छे. जेने सम्यग्दर्शन नथी एवा अज्ञानीना अशुभभाव (तीव्रराग) रहित जे तेने शुभभाव छे ते अप्रतिक्रमण छे; आ ते नहि एम कहे छे. आ तो ज्ञानीने जे शुभभाव होय छे तेने छोडीने अंदर अंतर-अवलंबननी स्थिरतामां जामी जाय छे ते अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ छे एम वात छे. अहा! आ तो ज्ञानीने शुद्ध आत्मामय त्रीजी भूमि छे तेने अहीं अमृतकुंभ कही छे. समजाणुं कांई.....?

निश्चयद्रष्टिमां शुभ-अशुभ बेय बंधनां कारण छे. बेय हेय छे. एवा भानपूर्वक जे शुभ आवे तेने छोडी शुद्ध निश्चयस्वरूपमां लीन-स्थिर थवुं तेने अहीं अप्रतिक्रमणादि कह्यां छे अने ते शुद्ध आत्मामय होवाथी अमृतकुंभ छे एम वात छे. आवी गंभीर वात छे.

*

हवे आ अर्थने द्रढ करतुं काव्य कहे छेः-

* कळश १९०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कषाय–भर–गौरवात् अलसता प्रमादः’ कषायना भार वडे भारे होवाथी आळसुपणुं ते प्रमाद छे;... ...

शुं कीधुं आ? के पंचमहाव्रतना परिणाम अने बार व्रतना विकल्प ए प्रमाद छे. अंतःस्थिरता नथी ए अपेक्षाए ते प्रमाद छे.

जोयुं? ‘कषायना भार वडे भारे’ - एम कह्युं ने! मतलब के पंचमहाव्रतादिना परिणाम ए कषायनो भार छे. जेम गाडुं घासथी भर्युं होय ते भार छे तेम पंचमहाव्रतादिना परिणाम कषायनो भार छे. बहु आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे. अहीं कहे छे-कषायनो भार पोते आळस छे, प्रमाद छे. स्वरूपमां सावधानी स्थिरता नथी ए बधो प्रमाद छे. अहा! बहारमां कोई जिनमंदिर बंधावे ने प्रतिमा पधरावे ने मोटुं दान करे ने प्रभावना करे-अहीं कहे छे-ए बधुं कषायना भारथी भारेपणुं होवाथी प्रमाद छे. गजब वात छे भाई! आ धंधा-पाणीमां बहुं होशथी रोकावुं ए तो प्रमाद छे ज, पण दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादिमां होंश करे ए पण प्रमाद छे. ए राग छे ने? स्वरूपमां लीनता नथी तेथी प्रमाद छे. आवी वात छे!

‘यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति’ तेथी ए प्रमादयुक्त आळसभाव शुद्धभाव केम होई शके?

अहा! शुद्ध चैतन्यरसथी भरेलो पोते भगवान छे एना आश्रयमां न जतां अशुभनी प्रवृत्तिमां होशथी बहु होंशथी हरख करीने काळ गाळे ए तो पापी छे. ते प्रमादथी


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भरपूर छे, तेने शुद्धभाव केम होय? न ज होय. पण अहीं तो विशेष आ वात छे के शुभभावमां पण जे होंशथी रोकायेलो छे ते पण प्रमादयुक्त आळसु छे. पंचमहाव्रतना रागने अने र८ मूलगुणना रागने प्रमाद कह्यो छे. छठ्ठे गुणस्थाने ते प्रमादी कहेवाय छे. अंदर स्वरूपमां लीन-स्थिर थाय ते अप्रमाद छे, शुद्धभाव छे. प्रमादयुक्त आळसना भाव ते शुद्धभाव नथी. आवी आकरी वात छे.

‘अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन मुनिः’ माटे निजरसथी भरेला स्वभावमां निश्वळ थतो मुनि ‘परमशुद्धताम् व्रजति’ परम शुद्धताने पामे छे ‘वा’ अथवा ‘अचिरात् मुच्यते’ शीघ्र-अल्पकाळमां (कर्मबंधथी) छूटे छे.

‘माटे निजरसथी भरेला स्वभावमां...’ , जोयुं? आत्मानो स्वभाव निजरसथी एटले शुद्ध चैतन्यरसथी-शांतरसथी-आनंदरसथी भरेलो छे. अहाहा.....! शुभाशुभभावना रागरसथी रहित भगवान आत्मा एक चैतन्यरसथी-वीतरागरसथी भरेलो छे. अहा! आवा स्वरसथी भरेला स्वभावमां निश्वल थतो मुनि परम शुद्धताने पामे छे; अथवा ते शीघ्र-अल्पकाळमां कर्मथी मुक्त थाय छे.

प्रश्नः– जो शीघ्र मुक्त थाय छे तो क्रमबद्ध क्यां गयुं? समाधानः– शीघ्र मुक्त थाय छे त्यां बधुं ए क्रमबद्ध ज छे. कांई वच्चे काळ तोडी आडुं-अवळुं थई जाय छे एम अर्थ नथी. भाई! अप्रमादमां रहेनार मुनिवरनी अंदर- दशा ज एवी होय छे के ते क्रमबद्धपणे शीघ्र ज मुक्ति पामे. शीघ्रनो एवो अर्थ नथी क्रम तूटीने पर्याय आगळ-पाछळ आडी-अवळी थई जाय. समजाणुं कांई...? अप्रमादीने शीघ्र-अल्पकाळे मुक्ति थवानो क्रम ज छे.

त्यारे कोई वळी कहे छे-क्रमबद्ध मानवाथी आळसु निरुद्यमी थई जवाशे. समाधानः– भाई एम नथी; जे क्रमबद्ध यथार्थ माने ते स्वतंत्र पुरुषार्थी थाय छे. केवी रीते? जेने अंतरमां यथार्थ निर्णय थाय के-जे समये जे पर्याय जे रीते थवानी होय ते समये ते पर्याय ते रीते थाय ज, तेमां इन्द्र, नरेन्द्र के जिनेन्द्र पण फेरफार करी शके नहि ते परद्रव्यना कर्तापणाना भावथी छूटी स्वद्रव्यना आश्रयमां जाय छे; अने स्वद्रव्यना आश्रयमां जवुं एनुं नाम ज पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थ बीजी शुं चीज छे? अहा! शुद्ध चैतन्यस्वभावी स्वद्रव्यना आश्रये परिणमवुं ए ज उद्यम अने ए ज पुरुषार्थ छे. भाई! क्रमबद्धना निर्णयमां ज पुरुषार्थ रहेलो छे; केमके एमां निज ज्ञाता-द्रष्टास्वभावनुं अवलंबन छे.

“जे जे देखी वीतरागने, ते ते होंसी वीरा रे;
अनहोनी कबहुं नहि होसी, काहे होत अधीरा रे.”

क्रमबद्धनो निर्णय करनार केवो धीर ने वीर होय छे एनी वात आ छंदमां


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भैया भगवतीदासे प्रगट करी छे. बापु! क्रमबद्धनो निर्णय करनार जाणनार-देखनारपणे रहेतो थको भारे अंतःपुरुषार्थी होय छे. शुं थाय? लोकोने पुरुषार्थना स्वरूपनी खबर नथी. लोकोने तो एम छे के ‘आ करुं ने ते करुं’ एम झाझा विकल्पना धांधल करे ते पुरुषार्थ, पण भाई! विकल्पमां गुंचायेला रहेवुं ए तो पुरुषार्थ नहि, कायरपणुं छे. समजाणुं कांई...?

अहा! शुभनेय छोडी अंदर शुद्धताने पामे ते आळस विनानो अप्रमादी छे. आ सिवाय स्वभावमांथी जे परिणामनुं खसी जवुं छे ते आळस, प्रमाद ने निरुद्यमीपणुं छे. अहीं कहे छे-चैतन्यरसथी भरेला पोताना स्वभावमां ज जे मुनि निश्वलपणे स्थित थया छे ते शीघ्र-अल्पकाळे मुक्ति पामे छे.

* कळश १९०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘प्रमाद तो कषायना गौरवथी थाय छे माटे प्रमादीने शुद्धभाव होय नहि. जे मुनि उद्यमथी स्वभावमां प्रवर्ते छे शुद्ध थईने मोक्षने पामे छे.’

जुओ, अहीं उद्यमनी वात करी. आगळ कळशमां कह्युं के- ‘निजरसथी भरेला स्वभावमां निश्चल थतो थको’ -आ पण त्यां पुरुषार्थनी ज वात छे. भले पर्यायो बधी क्रमबद्ध छे, पण क्रमबद्धमां पुरुषार्थ भेगो ज छे. जे मुनि उद्यमथी स्वभावमां प्रवर्ते छे ते शुद्ध थईने शीघ्र मोक्षने पामे छे.

त्यारे कोई कहे छे-उद्यम-पुरुषार्थ क्यारे थशे तेनी केवळी परमात्माने खबर छे, तो ते उद्यम करवानुं केम कहे?

अरे भाई! वीतराग केवळी परमात्मा पुरुषार्थपूर्वक स्वस्वभावमां गया छे ने वीतराग थया छे. तेमनी जे सातिशय वाणी नीकळी तेमां पण ए ज एटले के पुरुषार्थनी ज वात आवे, बीजी (-प्रमादनी) वात केम आवे? भगवाननी तो आज्ञा ज आ छे के-समयमात्र पण प्रमाद न करीश; एम के निरंतर स्वभावमां ज रत रहे.

जगतमां ज्यारे जे बनवानुं हशे त्यारे ते बनशे एम क्रमबद्ध माननारनी द्रष्टि क्यां जाय? एनी द्रष्टि स्वद्रव्य उपर जशे; अने त्यारे ते थवा काळे जे थाय तेनो ज्ञातामात्र रहेशे. ज्यां पर्यायबुद्धि होय त्यां तेने फेरववानी ने टाळवानी बुद्धि होय छे, पण द्रव्यद्रष्टिवंत तो सर्वना जाणनारस्वरूपे ज रहे छे.

अहा! अहीं कहे छे-निजरसथी-चैतन्यरसथी भरेला स्वस्वभावमां ज जे मुनि उद्यमथी प्रवर्ते छे ते शीघ्र शुद्ध थईने निर्वाण पामे छे. आमां पुरुषार्थनी साथे क्रमबद्ध पण आवी गयुं. स्वसन्मुखतानो पुरुषार्थ जेने छे तेना क्रममां पण शुद्धतापूर्वक पूर्ण शुद्धतारूप मोक्ष होय छे. समजाणुं कांई...?


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हवे, मुक्त थवानो अनुक्रम दर्शावतुं काव्य कहे छेः-

* कळश १९१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यः किल अशुद्धविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्तवा’ जे पुरुष खरेखर अशुद्धता करनारुं जे परद्रव्य ते सर्वने छोडीने ‘स्वयं स्वद्रव्ये रतिं एति’ पोते पोताना स्वद्रव्यमां लीन थाय छे,... ... ...

शुं कहे छे? के आ पुण्य-पापना जे भावो-विकल्पो थाय छे ते अशुद्धता छे. ते अशुद्धताने करनारुं एटले अशुद्धतानुं निमित्त परद्रव्य छे. ते सर्वने छोडीने एटले के ते सर्वनुं लक्ष छोडीने... , अहाहा...! कहे छे-अशुद्धतानुं निमित्त एवा सर्व परद्रव्योनुं लक्ष छोडीने जे स्वद्रव्यमां लीन थाय छे तेने धर्म-शुद्धता प्रगट थाय छे.

पुण्य-पापना परिणाम छे ते मेल छे, अशुद्धता छे, झेर छे, अपराध छे. पुण्यपरिणाम पण अपराध छे. जेने धर्म करवो हशे तेणे आ विकल्पो छोडवा पडशे अने शुद्धता प्राप्त करवी पडशे. त्यां परद्रव्यनुं लक्ष छोडी स्वद्रव्यमां लीन थाय छे त्यारे शुद्धता प्रगटे छे. तेमां खरेखर कोई रागनी-पुण्यना विकल्पनी अपेक्षा नथी. आवो शुभराग होय तो अंतरमां लीन थवाय एम नथी. आत्मा स्वयं शुद्ध ज्ञानानंदनी मूर्ति छे; ते पोताना द्रव्यमां स्वयं रति पामे त्यारे तेने धर्म-शुद्धता प्राप्त थाय छे.

अहा! ज्ञानानंदस्वरूप स्वद्रव्य सिवाय जेटलां कोई परद्रव्यो छे, चाहे ते तीर्थंकर हो, तेनी वाणी हो, समोसरण हो, जिनमंदिर हो के जिनप्रतिमा हो, -ए बधां परद्रव्यो अशुद्धतानां-शुभरागनां निमित्तो-कारणो छे. भाई! आ छवीस लाखनुं परमागममंदिर ने आ जिनप्रतिमा अशुद्धतानुं निमित्त छे. बहु आकरी वात!

प्रश्नः– तो पछी बनाव्युं शुं करवा? उत्तरः– कोण बनावे? ए तो जड परमाणुओनी निज जन्मक्षण हती तो ते-रूपे बन्यां छे, तेने बीजो कोई बनावे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. हा, ते काळमां एने एवो शुभभाव होय, पण ए अशुद्धभाव छे. ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी अशुभने टाळवा तेना क्रममां शुभभाव आवे छे, पण ते परद्रव्यना वलणवाळो अशुद्ध भाव छे, मलिन भाव छे, दोष छे, अपराध छे.

अहाहा...! आत्मा आनंदरूपी अमृतनुं सरोवर परमात्मा छे. जेम सरोवरमां चांच बोळीने पंखीओ पाणी पीए छे तेम चैतन्यरूपी अमृत-सरोवरमां आत्मा निजपरिणतिने अंदर बोळी-बोळीने धर्मामृतने पीए छे. आ सिवाय बीजी बधी वात तो थोथां छे.


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‘खरेखर एटले निश्चयथी अशुद्धता करनारुं जे परद्रव्य...’ , अहा! शैली तो जुओ! स्त्री-पुत्र-परिवार हो के देव-गुरु-शास्त्र हो-ए बधां परद्रव्य अशुद्धतानां निमित्त-कारणो छे. अहा! ए परद्रव्य तरफना वलणने छोडीने, स्वद्रव्यमां स्वयं रति पामे, अशुद्धतानी-व्यवहारनी अपेक्षा छोडी स्वयं स्वद्रव्यमां लीनता पामे त्यारे तेने धर्म ने मुक्ति थाय छे.

बीजे तो दया पाळो, ने दान करो ने तप करो-एम प्ररूपणा चाले छे; पण बापु! ए तो बधो परभाव छे भाई! ए कांई अमृत नथी. आवे छे ने के-

“गगनमंडळमां गौआ विहाणी, वसुधा दूध जमाया;
माखण था सो विरला रे पाया, छाशे जगत भरमाया.”

अहा! गगनमंडळमां भगवाननी ॐ ध्वनि थई, भगवान गणधरदेवे तेने बार अंगमां संघरी. तेमां माखण जे सार सार वस्तु शुद्ध आनंदकंद प्रभु आत्मा तेनो अनुभव ने प्रतीति कोईक विरल जीवो पाम्या, ने जगत तो आखुं छाशमां एटले दया, दान, आदि पुण्यमां भरमाई पडयुं. भाई! ए दया, दान, आदि पुण्यना भाव अमृत नथी. अहाहाहा...!

“गगनमंडलमें अधबीच कुआ, वहां है अमीका वासा;
सुगुरा होय सो भरभर पीए, नगुरा जावै प्यासा.”

अहा! आकाशनी मध्यमां लोकमां अमृतनुं स्थान भगवान आत्मा छे. अहाहा...! आत्मा चिदानंदरसना अमृतथी पूरण भरेलुं भिन्न तत्त्व छे. जेओ सद्गुरुना उपदेशने पामी, अंर्तद्रष्टि करी, अंतर्लीन थया तेओ अमृतने धराई ने पीए छे, पण जेओ नगुरा छे तेओ बिचारा अतीन्द्रिय अमृतने पामता नथी, तरस्या ज रहे छे.

जुओ, अशुद्धतानुं निमित्त परद्रव्य छे. तेथी सर्व परद्रव्यनुं लक्ष छोडीने जे पुरुष स्वद्रव्यमां लीन थाय छे ‘सः’ ते पुरुष ‘नियतम्’ नियमथी ‘सर्व–अपराध–च्युतः’ सर्व अपराधथी रहित थयो थको, ‘बन्ध–ध्वसं उपेत्य नित्यम् उदितः’ बंधना नाशने पामीने नित्य-उदित थयो थको, ‘स्वज्योतिः–अच्छ–उच्छलत्–चैतन्य–अमृत–पूर–पूर्ण–महिमा’ स्वज्योतिथी निर्मळपणे उछळतो जे चैतन्यरूप अमृतनो प्रवाह तेना वडे पूर्ण जेनो महिमा छे एवो ‘शुद्धः भवन्’ शुद्ध थतो थको, ‘मुच्यते’ कर्मोथी छूटे छे, मुक्त थाय छे.

भाई! परद्रव्यना वलणवाळी वृत्ति अशुद्ध छे, अपराध छे, बंधरूपछे. तेने छोडीने जे स्वस्वरूपमां लीन थाय छे ते सर्व अपराधथी रहित थाय छे अने ते बंधने पामतो नथी. ल्यो, आवुं! पण एने हवे आ बेसे केवी रीते? पोताना स्वतत्त्वनी खबर नथी ने एम ने एम भ्रमणाना कुवामां भमी रह्यो छे. एने एम के गिरनार


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जाउं तो मोक्ष मले के सम्मेदशिखर जाउं तो मोक्ष मले. पण भाई! एम तो तुं अनंतवार भगवाननी धर्मसभामां जई आव्यो. पण एथी शुं? अंर्तद्रष्टि ने अंतर्लीनता कर्या विना परद्रव्यना लक्षे तो अशुद्धता ज थाय, बंधन ज थाय.

तो ज्ञानीने पण एवा भाव होय छे ने?

हा, होय छे, अस्थिरताने लीधे होय छे पण एनो एने आदर नथी, एने ते हेय ज जाणे छे, आदरवालायक नहि. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– त्यारे कोई वळी कहे छे-भगवाननो मारग अनेकान्त छे. माटे निश्चयथी पण धर्म थाय ने व्यवहारथी पण धर्म थाय एम कहो तो?

उत्तरः– भाई! निश्चयथी पण धर्म थाय ने व्यवहारथी पण धर्म थाय-ए अनेकान्त नथी, ए तो फुदडीवाद छे. निश्चयथी धर्म थाय ने बीजी रीते एटले व्यवहारथी न थाय ए अनेकान्त छे. अहीं तो आ स्पष्ट कह्युं के परद्रव्यना वलणवाळो भाव अशुद्धता छे, अपराध छे. भाई! व्यवहार क्रियाकांड ए धर्म नथी, ए तो रखडवानो मार्ग छे. जे परद्रव्यना वलणने छोडीने स्वद्रव्यमां रमे छे ते अपराधरहित अबंधदशाने प्राप्त थाय छे अने ते सदा शुद्ध चैतन्यना प्रकाशथी शोभायमान थाय छे. आवी वात छे.

अहाहा...! आत्मा स्वयंज्योति सुखधाम प्रभु स्वस्वरूपना प्रकाशथी शोभायमान चैतन्यप्रकाशनुं पूर छे. ‘चैतन्य-अमृत-पूर-पूर्ण-महिमा’ एम कह्युं छे ने? अहा! आवो महिमावंत पदार्थ प्रभु आत्मा छे. अहा! आवो पोते छे एम अज्ञानीने केम बेसे? परंतु भाई! परमात्माने परम अमृतदशा-केवळज्ञाननी दशा जे प्रगट थई ए क्यांथी आवी? शुं बहारथी आवी? ना; अंदर पोतानी चीज ज एवी छे तेमां एकाग्र थतां दशावाननी दशा आवी छे. अहा! संतो कहे छे-भगवान! तुं एवो छो; सदा अंदर भगवानस्वरूप ज छो. अहा! आवा पोताना स्वरूपमां लीन थतां, दरियामां भरती आवे तेम, एनी पर्यायमां निर्मळ चैतन्य उछळे छे, आनंदनी भरती आवे छे. ल्यो, आने भगवान धर्म कहे छे. समजाणुं कांई...?

अहा! लोको बिचारा रळवा-कमावामांथी ने विषयभोगमांथी ज नवरा थता नथी. नोकरीमां होय ए तो पंचावन, साईठ वर्षे निवृत थाय; पण आ तो वेपारमां रसिया पंचोतेर-पंचोतेर वर्षे पण एमां ज गळाडूब रहे छे. भाई! ए एकलो पापनो वेपार छे हों. पैसा तो पैसामां रहेशे ने तारे पल्ले तो पाप ज आवशे ने फळशे. अरे! आवी सत्य वात समजवा नवराश न ले ए सत्यनी रुचि करे क्यारे? ने क्यारे ए पापथी ने संसारना दुःखोथी छूटे?


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अहीं कहे छे-परद्रव्य तरफनो झुकाव छोडी स्वद्रव्यमां झुकतां अंदर निर्मळपणे आनंद उछळे छे. पाठमां ‘चैतन्यामृतपूर’ एम शब्दो छे ने? एनो अर्थ कर्यो के चैतन्यरूपी अमृतनो प्रवाह प्रभु आत्मा छे. अहाहा...! केवो छे भगवान आत्मा? तो कहे छे-चैतन्यरूपी अमृतनो प्रवाह छे. एमां व्यवहारना विकल्पो नथी. हुं आत्मा आवो छुं एवा विचारनो विकल्प पण एमां समातो नथी. अहा! द्रव्य, गुण ने पर्यायना विचार ए पण परवशपणुं छे. नियमसारमां (परम आवश्यक अधिकारमां) आवे छे के- भगवान आत्मा आनंदनो सागर प्रभु नित्य एकरूप वस्तु छे. एने त्रण प्रकारथी विचारवो के-आ त्रिकाळी द्रव्य, आ त्रिकाळी गुण ने आ वर्तमान पर्याय-ए परवशपणुं छे; ए स्ववशपणुं नथी. अहीं कहे छे-परवशपणुं त्यागीने स्ववशपणे जे स्व-स्वरूपमां रमे छे तेने अंदर निर्मळपणे आनंद उछळे छे.

‘परख्यां माणेक मोतीडां, परख्यां हेम कपूर;
एक न परख्यो आतमा, त्यां रह्यो दिग्मूढ.’

हवे आ बाजरो आवो ने जुवार आवी एम परनी परख करी, पण पोते अहाहा...! चैतन्यरूपी अमृतनो प्रवाह-एने परख्यो नहि! परनी परखमां देवना दीकरा जेवुं डहापण बतावे, अमेरिकामां आम ने लंडनमां आम-एम मोटी वातो करे; पण अहीं कहे छे-सांभळ, भाई! ए बधी विकल्पनी जाळ अपराध छे. गुन्हो छे. अरे! एकने त्रणपणे (द्रव्य, गुण ने पर्यायपणे) विचारवो ए पण अशुद्धता छे, अपराध छे, परवशपणुं छे एमां मननो संग आव्यो ने? मननो संग थाय त्यारे त्रणनो भेद पडे छे, माटे ए परवशपणुं छे.

भाई! सम्यग्दर्शननो विषय अभेद एक चिन्मात्र वस्तु छे. अहाहा...! जेना अनुभवमां भेद पडतो नथी ए वस्तु एक असंग छे. अहा! आवा असंगना संगमां जतां अंदर निर्मळपणे चैतन्य उछळे छे एम कहे छे. भाई! आ तो परमेश्वर जिनेश्वरदेव महाविदेहमां इन्द्रो ने गणधरोनी समक्ष जे कहेता हता ने कही रह्या छे ते आ वाणी छे. अहो! आ समयसार ने प्रवचनसार तो भगवाननी ओमध्वनिनो सार छे.

अहा! परमात्मा कहे छे-जेटलुं स्वद्रव्य छोडीने परद्रव्यनुं आलंबन लईश तेटलो राग थशे अने ते राग अपराध-गुन्हो छे. अहा! जैन परमेश्वर वीतरागदेव एम न कहे के तुं मारी भक्ति कर ने तारुं कल्याण थई जशे. भगवान तो अति जोरथी घोषणा करे छे के-अमारी भक्ति, स्तुति, वंदना ईत्यादिनो तने जे भाव थाय छे ते बधो अपराध छे, अशुद्धता छे. ए कांई महिमावाळी चीज नथी.

परम महिमाने धरनारो तो चैतन्यरूपी अमृतनुं पूर प्रभु आत्मा छे. अहा! पाणीना पूरनो जेम प्रवाह चाले तेम आत्मा चैतन्यरूपी अमृतनो प्रवाह छे. अहाहा!


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चैतन्य...चैतन्य...चैतन्य, अमृत...अमृत...अमृत, आनंद...आनंद...आनंद-एम आत्मा चैतन्यरूपी अमुतनो ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एवो अनादि अनंत छे. अहा! आवा पोताना स्वद्रव्यमां लीन थतां निरपराधपणुं प्रगटे छे, बंध थतो नथी अने अंदर अति निर्मळपणे आनंद उछळे छे. आचार्य कहे छे-भाई! अंदर जा ने के ज्यां आ चैतन्यरूपी अमृतनो त्रिकाळ धोध वहे छे. आ पुण्य-पापना भाव तो भगवान! झेरनो धोध-प्रवाह छे. त्यांथी नीकळी जा, ने अहिं चैतन्यना त्रिकाळी अमृतमय प्रवाहमां मग्न थई जा. तारुं अविनाशी कल्याण थशे.

अरे भाई! तारी चीज शुं छे तेनी तने खबर नथी. परनी दया पाळे, कांईक दान करे ने व्रत पाळे पाळे एटले माने के स्वरूपनी प्राप्ति थई जशे, धर्म थई जशे. पण बापु ए तो बधा रागना परिणाम कर्या विना ए बधां कोई काम नहि आवे. एनाथी लेश पण धर्म ने सुख नहि थाय. छहढालामां आवे छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायौ;
पै जिन आतमज्ञान बिना सुख लेस न पायौ.”

माटे हे भाई! तुं चिदानंदघन प्रभे चैतन्यरूपी अमृतनुं पूर छो, तेने स्वसंवेदनमां जाणी तेमां मग्न-स्थिर थई जा; केमके शुद्ध चैतन्यना धुैव प्रवाहमां मग्न थतां आत्मा शेद्ध थतो थको कर्मोथी मूकाय छे. पहेलां परद्रव्यमां लीन थतां अशुद्धता ने बंधनने पामे छे एम कह्युें हवे कहे छे-शुद्ध चैतन्यस्वरूप एवा स्वद्रव्यमां लीन-स्थिर थतां आत्मा शुद्ध थतो थको बंधनथी मूकाय छे अर्थात् शाश्वत अविचन सुखने पामे छे.

कळश १९१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन

‘जे पुरुष पहेलां समस्त परद्रव्यनो त्याग करी निज द्रव्यमां (आत्मस्वरूपमा्र) लीन थाय छे, ते पुरुष सर्व रागदिक अपराधोथी रहित थई आगामी बंधनो नाश करे छे अने नित्य उदयरूप केवळज्ञानने पामी, शुद्ध थई, सर्व कर्मनो नाश करी, मोक्षने पामे छे. आ, मोक्ष थवानो अनुक्रम छे.’

शुं कीधुं? के समस्त परद्रव्य प्रत्येनुं लक्ष छोडी दईने जे पुरुष त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वरूप स्वद्रव्यमां लीन-स्थिर थाय छे ते सर्व रागादिक अपराधथी रहित थाय छे. अर्थात् तेने रागादिक अपराध थतो नथी अने तेथी नवीन कर्मबंध पण थतो नथी. ते नित्य उदयरूप केवळज्ञानने पामे छे. एटले शुं? केवळज्ञान प्रगटया पछी ते नित्य अक्षयपणे कायम रहे छे. जेम वस्तु आत्मा अनादि-अनंत


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नित्य प्रवाहरूप छे, तेम केवळज्ञान प्रगट थया पछी प्रवाहपणे कायम रहे छे (तेनाप्रवाहमां भंग पडतो नथी). अहाहा...! स्वमां लीन थयेलो ते पुरुष नित्य उदयरूप केवळज्ञान पामी, पूर्ण शुद्ध थई, सर्व कर्मनो क्षय करी मोक्षदशाने पामे छे.

प्रथम मिथ्यात्वथी, पछी अव्रतथी अने त्यारबाद अस्थिरताथी मूकाय छे ने ए प्रमाणे पूरण मोक्षदशाने पामे छे. आ भगवान केवळीनो मार्ग छे. लोको रागथी धर्म थवानुं माने छे पण ए (मान्यता) अन्यमत छे, जैनमत नहि, वीतरागदर्शन नहि.

भाई! तारुं जेवुं र्स्वस्वरूप छे तेवुं (स्वआश्रये) तेनुं ज्ञान ने श्रद्धामन कर. तेनुं ज्ञान-श्रद्धम-श्रद्धान थतां तेमां अंतःस्तिरता थशे, अने अंतःस्थिरता पूर्ण थतां मोक्ष थशे. अहा! आ अंतःस्थिरता ए चारित्र छे, पंचमहाव्रतना भाव ए चारित्र नथी. स्वरूपस्थिरता थतां अशुद्धतानो नाश थई शुद्ध उपयोगनी नमावट थाय छे अने ते मुनिदशा छे. तेनुं अंतिम फळ पूर्णदशारूप मोक्ष छे. आ, मोक्ष थवानो अनुक्रम छे.

हवे मोक्ष अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे पूर्ण ज्ञानना महिनामुं (सर्वथा शुद्ध थयेला आत्मद्रव्यना महिमानुं) कळशरूप काव्य कहे छेः-

*
कळश १९२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन

आ मोक्ष अधिकारनो छेल्लो कळश छे. शुं कहे छे? ‘बन्धछेदात् अतुलम अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत्’ कर्मबंधना छेदथी अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षने अनुभवतुं,...

जुओ, ‘कर्मबंधना छेदथी...’ एटले शुद्ध चिदानंदघन आत्मा छे तेनां ज्ञानश्रद्धान ने अंतर-रमणता-लीनता करवाथी रागादिनो रर्वथा नाक थई जाय छे अने सर्व कर्मनो छेद थई जाय छे; अने त्यारे अतुल, अक्षय, केवळज्ञानमय मोक्षदशा प्रगट थाय छे. भाई! सिोधन.े जे वडे मोक्षदशा प्रगट थई छे एवुं सामर्थ्य प्रत्येक आत्मामां रहेलुं छे.

केवी छे मोक्षदशा? तो कहे छे-अतुल अर्थात् अनेपम छे. अहा! जेनी तुलना- उपमा कोईनी साथे न करी शकाय एवी मोक्षदशा अतुल-अनुपम छे.

वळी ते अक्षय अर्थात् अविनाशी छे. अहाहा...! आत्मामां अज्ञान अने रागद्वेषनो सर्वथा नाश थईने जे पूर्ण केवळज्ञान अने वीतरागतानी दशा प्रगट थई ते अक्षय-अविनाशी छे. केटलाक माने छे ने? के भगवान, भक्तोने भीड पडे त्यारे, अवतार धारण करे छे. पण ए मान्यता बराबर नथी. अनंत आनंदनी अक्षय दशा जेने प्राप्त थई ते पछी भव धारण करता नथी. एने भवनुं बीज ज समूळगुं नाश


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पामी गयुं छे ने? अहाहा...! ‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां’-अर्थात् मोक्षदशा प्रगटी ते अनंत सुखनी दशा एवा ज अनंतकाळ रहेवानी छे.अहा! आवी अक्षय मोक्षदशा छे.

अहा! आवी मोक्षदशाने अनुभवतुं’ ‘नित्य–उद्योत–स्फुटित–समज–अवस्थम्’ नित्य उद्योतवाळी सहज अवस्था जेनी खीली नीकळी छे एवुं,...

जोयुं? मोक्षने एटले के अनंत आनंदने अनुभवतुं, जेम फूलनी कळी सर्व पांखडीए खीली नीकळे तेम, आत्मानुं ज्ञान ने दर्शन पूर्ण खीली नीकळ्‌युं. अहा! ते पूरण ज्ञान-दर्शननी दशा सहज एटले स्वाभाविक अने नित्य उद्योतरूप छे; अर्थात् जेनो प्रकाश नित्य छे एवी छे. अहाहा...! केवळदर्शन ने केवळज्ञान जे अंतरमां स्वभावमां त्रिकाळ शक्तिपणे हतां ते वर्तमान व्यक्त थयां-खीली नीकळ्‌यां; हवे ते, कहे छे, नित्य उद्योतरूप समजाय छे कांई...?

अज्ञानीओ आत्मा, आत्मा-एम कहे छे, परंतु आत्माना सामा स्वरूपनी तेमने खबर नथी. वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरे जेवो आत्मा जोयो ने कह्यो छे ते पूरण ज्ञान ने आनंदथी भरेलो पदार्थ छे. तेनो अनुभव करी तेमां एकाग्र थतां पर्यायमां पूरण ज्ञान ने आनंद खीली नीकळे छे. अहा! जेने केवलज्ञान, केवळदर्शन प्रगट थयुं तेने ते नित्य उद्योतरूप छे.

वळी ते ‘एकान्त–शुद्धिम्’ एकान्त शुद्ध छे. शुद्ध, शुद्ध, शुद्ध एवुं कर्मना मेलथी रहित अत्यंत शुद्ध छे.

अने’ एकाकार–स्व–भरतः अत्यन्त–गम्भीर–धीरम्’ एकाकार निजरसनी अतिशयताथी जे अत्यंत गंभीर अने धीर छे एवुं...

जुओ, संसारदशामां-अल्पज्ञदशामां ज्ञाननी दशा एकाकार-एकरूप न हती, अनेकरूप थती हती ते परमात्मदशामां सर्वज्ञता प्रगटतां एकाकार प्रगट थई; एकाकार एटले एक ज्ञानमात्र आकारे-स्वरूपे परिणमी गई. रागादिनो सर्वथा नाश थतां ज्ञाननी दशा एकाकार-एकरूपे प्रगट थई.

अहाहा...! कहे छे-एकाकार निजरस अतिशयतथी जे अत्यंत गंभीर अने धीर छे एवुं, ‘एतत् पूर्ण ज्ञान’ आ पूर्ण ज्ञान ज्वलितम्’ जळहळी उठयुं.

शुं कहे छे? के आत्मानो जे निजरस चैतन्यरस-आनंदरस -वीतरागरस छे तेनी अतिशयता-विशेषता केवलज्ञान ने मोक्षदशा थतां प्रगट थई गई. अहाहा...! सिद्ध दशा आवी निजरसनी-चैतन्यरसनी अतिशयताथी अत्यंत गंभीर छे. छद्मस्थने तेनी गंभीरतानो पार पामवो मुश्केल छे. अहा! सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी परमात्मानी ज्ञानना दशाना


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उंडप पार न पमाय तेवी अमाप छे. जेम समुद्र अति उंडो गंभीर छे तेम भगवाननुं पवित्र ज्ञान अति ऊंडुं अमाप गंभीर छे.

वळी ते धीर एटले के शाश्वत छे. केवळज्ञान प्रगट थयुं ते हवे शाश्वत रहेवानुं छे, अचळ रहेवानुं छे, पडवानुं नथी. चार गतिमां, संसारमां जेम पलटना थाय, हीनाधिकता थाय तेम हवे थशे नहि एवुं ते धीरुं-अचळ-शाश्वत छे. अहाहा...! आवुं निजरसनी अतिशयताथी अत्यंत गंभीर अने धीर-एवुं ज्ञान ‘ ज्वलितम्’ जळहळी उठयुं, प्रगट प्रकाशमान थयुं.

जेम दिवासळीमां शक्तिरूपे अग्नि छे ते घसतां भडकारूपे प्रगट थाय छे. तेम आत्मामां अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद त्रिकाळ शक्तिरूपे विद्यमान छे. एने अंतर-एकाग्रता वडे घसतां अर्थात् अंतर-अनुभव करतां जळहळ ज्योतिरूपे पर्यायमां प्रगट थयां. शुं कीधुं? स्वरूपमां एकाग्र थई लीन रहेतां आत्मद्रव्य केवळज्ञान आदि वडे जळहळी उठयुं. जेवुं अंदर चैतन्यनुं सामर्थ्य हतुं तेवुं पर्यायमां प्रगट थयुं.

भाई! आ केवळज्ञान ने केवळदर्शन कांई बहारथी आवे छे एम नथी. पण अंदर भगवान आत्मामां शक्तिपणे विद्यमान छे ते अंतर एकाग्रताना अभ्यासथी स्वरूप लीनता करतां पर्यायमां जळहळी उठे छे, जाज्वल्यमान प्रगट थाय छे.

हवे कहे छे-आ जे ज्ञान (केवळज्ञान) जाज्वल्यमान प्रगट थयुं ते ‘स्वस्य अचले महिम्नि लीनं’ पोताना अचळ महिमामां लीन थयुं.

जोयुं? अनादिथी ज्ञान पुण्य ने पापमां, शुभ ने अशुभमां, ज्ञेयमां लीन हतुं. परंतु अंतर-एकाग्रताना अभ्यास वडे ने केवळज्ञान जाज्वल्यमान प्रगट थयुं ते स्वरूपमां ज लीन-डूबेलुं छे; निजानंदरसलीन छे, ज्ञान अविचळ ज्ञानमां लीन छे, ज्ञेय प्रति लीन नथी. अहाहा...! आवी केवळज्ञान दशा! एनी प्राप्तिनो उपाय निज आत्मद्रव्यमां एकाग्रता ने लीनता करवी ते ज छे. समजाणुं कांई...?

अत्यारे केटलाक कहे छे के-सर्वज्ञे जे प्रमाणे ज्ञानमां जोयुं छे ते प्रमाणे थशे, माटे आपणे कांई करवानुं रहेतुं नथी. तेने कहीए छीए-भाई! सांभळ. केवळज्ञाननी सत्तानो-होवापणानो जेणे स्वीकार कर्यो छे एनी द्रष्टि केवळज्ञानस्वभावी जे स्वद्रव्य तेना उपर गई छे. अने ते ज करवायोग्य (पुरुषार्थ) एणे कर्युं छे. प्रवचनसारमां (गाथा ८०मां) आवे छे के-अरिहंतना द्रव्य, गुण, पर्यायने जे जाणे छे ते पोताना आत्माने जाणे छे अने तेनोे मोह नाश पामी जाय छे.

* कळश १९२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्मनो नाश करी मोक्षने अनुभवतुं, पोतानी स्वभाविक अवस्थारूप, अत्यंत


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शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोने गौण करतुं, अत्यंत गंभीर अने धीर-एवुं पूर्ण ज्ञान प्रगट देदीप्यमान थयुं, पोताना महिमामां लीन थयुं.’

जोयुं? कर्मनो नाश करी एटले अज्ञान अने रागद्वेषमोहरूपी भावकर्मनो नाश करी मोक्षने अनुभवतुं ज्ञान पोतानी सहज स्वभाविक अवस्थारूप छे अने ते अत्यंत निर्विकार शुद्ध छे. अहाहा...! परमात्माने अशुद्धतानो अंश पण रह्यो नथी.

ज्ञेयाकारोने गौण करतुं एटले शुं? के लोकालोकने जाणे छे पण लोकालोकमां ते तन्मय नथी. निश्चयथी केवलज्ञान पोतानी पर्यायने जाणे छे के जेमां लोकालोक जणाय छे. लोकालोकने जाणे छे एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहारनय छे.

वळी लोकालोक छे माटे लोकालोकने जाणे छे एमेय नथी. ए तो ज्ञाननी पर्यायनी ए सहज शक्ति छे के पोते पोताथी ज षट्कारकरूप थईने लोकालोकने जाणती थकी प्रगट थाय छे. अहा! केवलज्ञाननी पर्यायनां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान ने अधिकरण-एम षट्कारक पर्याय पोते ज छे; परज्ञेय तो नहि, पण द्रव्य-गुणेय नहि. अंदर शक्ति छे; पण प्रगट थवानुं सामर्थ्य पर्यायनुं स्वतंत्र छे. केवलज्ञान खरेखर लोकालोकने अडया विना, पोतानी सत्तामां ज रहीने पोतेे पोताथी ज पोताने (-पर्यायने) जाणे छे के जेमां लोकालोक प्रकाशित थाय छे. अहा! पोतानी पर्यायने जाणतां लोकालोक जणाई जाय छे.

वळी ते अत्यंत गंभीर छे. अहा! जेनो पार न पमाय एवुं केवलज्ञान अपार गंभीर छे अनंत लोकालोक होय तोय जणाई जाय एवुं अपार सामर्थ्य सहित ते गंभीर छे; अने आकुळता रहित धीर छे.

भाई! तारा स्वभावनुं सामर्थ्य अंदर ज्ञान-दर्शनथी पूरण भर्युं छे जेमांथी केवळज्ञान ने केवळदर्शन पाके, पण पुण्यनी अने बहारना महिमा आडे तेनी प्रतीति आवती नथी.

अहीं कहे छे-आ पूर्ण ज्ञान-केवळज्ञान प्रगट थयुं ते अति गंभीर अने आकुळता रहित धीर छे अने ते पोताना महिमामां अचळ लीन छे, निजानंदरसमां ज लीन छे. हवे कहे छे-

टीकाः- आरीते मोक्ष (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो. भावार्थः- रंगभूमिमां मोक्षतत्त्वनो स्वांग आव्यो हतो ज्यां ज्ञान प्रगट थयुं त्यां ते मोक्षनो स्वांग रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गयो.

जेम संसारदशा एक स्वांग-भेख छे तेम मोक्षदशा पण एक स्वांग-भेख छे. सिद्धपद-मोक्षदशा सादि-अनंत समये समये नवी नवी प्रगट थाय छे. द्रव्य-गुण नित्य


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छे, पण मोक्षदशा एक समयनो स्वांग छे. अहीं कहे छे-ज्यां केवलज्ञान प्रगट थई गयुं त्यां मोक्षनो स्वांग रंगभूमिमांथी नीकळी गयो. हवे कहे छे-

“ज्यों नर कोई पर्यो द्रढबंधन बंधस्वरूप लखै दुःखकारी,
चिंत करै निति केम कटै यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी;
छेदनकूं गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी.”

कोई पुरुष लोखंडनी सांकळना द्रढ बंधनमां पडयो होय अने विचारे के बंधन महा दुःखकारी छे. तो एटला विचारमात्रथी बंधन छूटे नहि. वळी बंधननी चिंता ज कर्या करवाथी बंधन छूटे नहि. पण आयुध वडे ते बंधनने - बेडीने तोडे तो तूटे.

तेम आत्मामां राग-द्वेष-मोहनुं बंधन छे, अने ते दुःखदायक छे. पण एटला विचारमात्रथी कांई बंधन छूटे नहि. वळी बंधननी चिंता कर्या करवाथी पण बंधन छूटे नहि. परंतु भेदविज्ञानरूपी सुबुद्धि प्रगट करी राग अने ज्ञानने जुदा करे तो बंधन छूटे. सम्यग्ज्ञानरूपी तीक्ष्ण प्रज्ञाछीणी वडे पुण्य-पापना भाव अने भगवान आत्मा भिन्न पडे छे. तो आवुं भेद-विज्ञान प्रगट करे तो ते बंधनथी छूटे छे.

केटलाक लोको जीवोनी दया पाळो, व्रत पाळो, तप करो, भक्ति करो;-ते वडे धर्म थई जशे एम कहे छे पण एमनी ते वात खोटी छे. तेओ बंधनना कारणने धर्मनुं कारण माने छे.

जेम लोखंडनी बेडी तीक्ष्ण आयुध वडे छेदतां बंधन तूटे छे तेम प्रज्ञाछीणीने राग ने ज्ञाननी सांधमां पटकतां बन्ने छूटा पडी जाय छे अने बंधन तूटे छे. पुण्य-पापथी मारी चैतन्यस्वरूप चीज भिन्न छे एम जाणी पोतानी चीजमां ज्ञानने एकाग्र करवुं ए प्रज्ञाछीणी छे अने ए ज मोक्षनो उपाय छे. अहा! प्रज्ञाछीणी-भेदविज्ञान एक ज मोक्षनो उपाय छे. समजाणुं कांई...? ल्यो, मोक्ष अधिकार पुरो थयो.

आ प्रमाणे आ समयसार शास्त्र उपर परम कृपाळु सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीनां प्रवचननो आठमो मोक्ष अधिकार समाप्त थयो.

[प्रवचन नं. ३६४ थी ३७० * दिनांक १२-६-७७ थी १८-६-७७]

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प्रवचन रत्नाकर
[भाग–९]
परम पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां प्रवचनो
ः प्रकाशकः
श्री कुंदकुंद–कहान परमागम प्रवचन ट्रस्ट
१७३-१७प मुंबादेवी रोड, मुंबई ४०० ००२
ः प्ररकः

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क्रमगाथा/कळशप्रवचन नंबरपृष्ठांक
कळश-१९३३७१ थी ३७७
कळश-१९३
गाथा ३०८ थी ३११
कळश-१९प
गाथा ३१२-३१३३७८४४
गाथा ३१४-३१प३७८ थी ३८०प१
कळश-१९६प२
गाथा-३१६३८०-३८१६२
कळश-१९७६३
१०गाथा-३१७३८१७२
११गाथा-३१८३८२-३८३७७
१२कळश-१९८७८
१३गाथा-३१९८४
१४गाथा-३२० - ८६
(श्री जयसेनाचार्यकृत)
१पगाथा-३२०३८प१७७
(श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यकृत)
१६कळश-१९९१९२
१७गाथा ३२१-३२३३८६१९३
१८कळश-२००१९४
१९गाथा ३२४ थी ३२७३८७-३८८१९९
२०कळश २०१-२०२२०१
२१गाथा ३२८ थी ३३१३८९ थी ३९१२११
२२कळश-२०३२१३
२३कळश-२०४२१४
२४गाथा ३३२ थी ३४४३९१ थी ३९३२३३

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क्रमगाथा/कळशप्रवचन नंबरपृष्ठांक
२पकळश-२०प३९१ थी ३९३र३९
२६कळश-२०६२४०
२७कळश-२०७२४२
२८गाथा ३४प थी ३४८३८९ थी ४०१२८३
२९कळश-२०८२८प
३०कळश-२०९२८६
३१कळश-२१०२८७
३२गाथा ३४९ थी ३पप४०२ थी ४०७३०८
३३कळश-२११३११
३४कळश २१२-२१३३१२
३पकळश-२१४३१३
३६गाथा ३प६ थी ३६प४०८ थी ४प९
३७कळश-२१प३प१
३८कळश २१६-२१७३प२
३९गाथा ३६६ थी ३७१४प९ थी ४६१४०६
४०कळश-२१८४०९
४१कळश-२१९४१०
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(हरिगीत)
संसारी जीवनां भावमरणो टाळवा करुणा करी,
सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
(अनुष्टुप)
कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या,
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
(शिखरिणी)
अहो! वाणी तारी प्रशमरस-भावे नीतरती,
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
(शार्दूलविक्रिडित)
तुं छे निश्चयग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा,
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
(वसंततिलका)
सुण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय,
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
(अनुष्टुप)
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोना अक्षरो लखी;
तथापि कुंदसूत्रोनां
अंकाये मूल्य ना कदी.

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(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्‌या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्‌यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्‌यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
-रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!

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परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः

सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार

अथ प्रविशतिः सर्वविशुद्धज्ञानम्।

(मंदाक्रान्ता)
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान्
दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्ऌप्तेः।
शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चि–
ष्टङ्कोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः।। १९३।।
सर्वविशुद्ध सुज्ञानमय, सदा आतमाराम;
परने करे न भोगवे, जाणे जपि तसु नाम.

प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहे छे के ‘हवे सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे’. मोक्षतत्त्वनो स्वांग नीकळी गया पछी सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे. रंगभूमिमां