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अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः।। १९४।।
अथात्मनोऽकर्तृत्वं द्रष्टान्तपुरस्सरमाख्याति– जीव-अजीव, कर्ताकर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष-ए आठ स्वांग आव्या, तेमनुं नृत्य थयुं अने पोतपोतानुं स्वरूप बतावी तेओ नीकळी गया. हवे सर्व स्वांगो दूर थये एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे.
त्यां प्रथम ज, मंगळरूपे ज्ञानपुंज आत्माना महिमानुं काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [अखिलान् कर्तृ–भोक्तृ–आदि–भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा] समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावोने सम्यक् प्रकारे नाश पमाडीने [प्रतिपदम्] पदे पदे (अर्थात् कर्मना क्षयोपशमना निमित्तथी थता दरेक पर्यायमां) [बन्ध–मोक्ष–प्रक्ऌप्तेः दूरीभूतः] बंध-मोक्षनी रचनाथी दूर वर्ततो, [शुद्धः शुद्धः] शुद्ध-शुद्ध (अर्थात् जे रागादिक मळ तेम ज आवरण-बन्नेथी रहित छे एवो), [स्वरस–विसर–आपूर्ण– पुण्य–अचल–अर्चिः] जेनुं पवित्र अचळ तेज निजरसना (-ज्ञानरसना, ज्ञानचेतनारूपी रसना) फेलावथी भरपूर छे एवो, अने [टङ्कोत्कीर्ण–प्रकट–महिमा] जेनो महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट छे एवो [अयं ज्ञानपुञ्जः स्फूर्जति] आ ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे.
भावार्थः– शुद्धनयनो विषय जे ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते कर्ताभोक्तापणाना भावोथी रहित छे, बंधमोक्षनी रचनाथी रहित छे, परद्रव्यथी अने परद्रव्यना सर्व भावोथी रहित होवाथी शुद्ध छे, पोताना स्वरसना प्रवाहथी पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप छे अने टंकोत्कीर्ण महिमावाळो छे. एवो ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे. १९३.
हवे सर्वविशुद्ध ज्ञानने प्रगट करे छे. तेमां प्रथम, ‘आत्मा कर्ता-भोक्ताभावथी रहित छे’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– [कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न] कर्तापणुं आ चित्स्वरूप आत्मानो स्वभाव नथी, [वेदयितृत्ववत्] जेम भोक्तापणुं स्वभाव नथी. [अज्ञानात् एव अयं कर्ता] अज्ञानथी ज ते कर्ता छे, [तद्–अभावात् अकारकः] अज्ञाननो अभाव थतां अकर्ता छे. १९४.
हवे आत्मानुं अकर्तापणुं द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः-
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जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह।। ३०८।।
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते।
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि।। ३०९।।
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि।। ३१०।।
कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि।
उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा।। ३११।।
जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्रे।
तं जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानीहि।। ३०९।।
गाथार्थः– [यत् द्रव्यं] जे द्रव्य [गुणैः] जे गुणोथी [उत्पद्यते] ऊपजे छे [तैः] ते गुणोथी [तत्] तेने [अनन्यत् जानीहि] अनन्य जाण; [यथा] जेम [इह] जगतमां [कटकादिभिः पर्यायैः तु] कडां आदि पर्यायोथी [कनकम्] सुवर्ण [अनन्यत्] अनन्य छे तेम.
[जीवस्य अजीवस्य तु] जीव अने अजीवना [ये परिणामाः तु] जे परिणामो
ज्यम जगतमां कटकादि पर्यायोथी कनक अनन्य छे. ३०८.
जीव अजीवना परिणाम जे दर्शाविया सूत्रो महीं,
ते जीव अगर अजीव जाण अनन्य ते परिणामथी. ३०९.
ऊपजे न आत्मा कोईथी तेथी न आत्मा कार्य छे,
उपजावतो नथी कोईने तेथी न कारण पण ठरे. ३१०.
रे! कर्म–आश्रित होय कर्ता, कर्म पण कर्ता तणे
आश्रितपणे ऊपजे नियमथी, सिद्धि नव बीजी दीसे. ३११.
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उत्पादयति न किञ्चिदपि कारणमपि तेन न स भवति।। ३१०।।
कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि।
उत्पद्यन्ते च नियमात्सिद्धिस्तु न द्रश्यतेऽन्या।। ३११।।
[सूत्रे दर्शिताः] सूत्रमां दर्शाव्या छे, [तैः] ते परिणामोथी [तं जीवम् अजीवम् वा] ते जीव अथवा अजीवने [अनन्यं विजानीहि] अनन्य जाण.
[यस्मात्] कारण के [कुतश्चित् अपि] कोईथी [न उत्पन्नः] उत्पन्न थयो नथी [तेन] तेथी [सः आत्मा] ते आत्मा [कार्य न] (कोईनुं) कार्य नथी, [किञ्चित् अपि] अने कोईने [न उत्पादयति] उपजावतो नथी [तेन] तेथी [सः] ते [कारणम् अपि] (कोईनुं) कारण पण [न भवति] नथी.
[नियमात्] नियमथी [कर्म प्रतीत्य] कर्मना आश्रये (-कर्मने अवलंबीने) [कर्ता] कर्ता होय छे; [तथा च] तेम ज [कर्तारं प्रतीत्य] कर्ताना आश्रये [कर्माणि उत्पद्यन्ते] कर्मो उत्पन्न थाय छे; [अन्या तु] बीजी कोई रीते [सिद्धिः] कर्ताकर्मनी सिद्धि [न द्रश्यते] जोवामां आवती नथी.
टीकाः– प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी; कारण के जेम (कंकण आदि परिणामोथी ऊपजता एवा) सुवर्णने कंकण आदि परिणामो साथे तादात्म्य छे तेम सर्व द्रव्योने पोताना परिणामो साथे तादात्म्य छे. आम जीव पोताना परिणामोथी ऊपजतो होवा छतां तेने अजीवनी साथे कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी, कारण के सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य- उत्पादकभावनो अभाव छे; ते (कार्यकारणभाव) नहि सिद्ध थतां, अजीवने जीवनुं कर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी; अने ते (-अजीवने जीवनुं कर्मपणुं) नहि सिद्ध थतां, कर्ता- कर्मनी अन्यनिरपेक्षपणे (-अन्यद्रव्यथी निरपेक्षपणे, स्वद्रव्यमां ज) सिद्धि होवाथी, जीवने अजीवनुं कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी. माटे जीव अकर्ता ठरे छे.
भावार्थः– सर्व द्रव्योना परिणाम जुदा जुदा छे. पोतपोताना परिणामोना, सौ द्रव्यो कर्ता छे; तेओ ते परिणामोना कर्ता छे, ते परिणामो तेमनां कर्म छे. निश्चयथी कोईनो कोईनी साथे कर्ताकर्मसंबंध नथी. माटे जीव पोताना परिणामनो ज कर्ता छे, पोताना परिणाम कर्म छे. एवी ज रीते अजीव पोताना परिणामनुं ज कर्ता छे, पोताना परिणाम कर्म छे. आ रीते जीव बीजाना परिणामोनो अकर्ता छे.
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स्फुरच्चिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः ।
तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः
स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः।। १९५।।
‘आ रीते जीव अकर्ता छे तोपण तेने बंध थाय छे ए कोई अज्ञाननो महिमा छे’ एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः-
श्लोकार्थः– [स्वरसतः विशुद्धः] जे निजरसथी विशुद्ध छे, अने [स्फुरत्–चित्– ज्योतिर्भिः छुरित–भुवन–आभोग–भवनः] स्फुरायमान थती जेनी चैतन्यज्योतिओ वडे लोकनो समस्त विस्तार व्याप्त थई जाय छे एवो जेनो स्वभाव छे, [अयं जीवः] एवो आ जीव [इति] पूर्वोक्त रीते (परद्रव्यनो अने परभावोनो) [अकर्ता स्थितः] अकर्ता ठर्यो, [तथापि] तोपण [अस्य] तेने [इह] आ जगतमां [प्रकृतिभिः] कर्मप्रकृतिओ साथे [यद् असौ बन्धः किल स्यात्] जे आ (प्रगट) बंध थाय छे [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा स्फूरति] ते खरेखर अज्ञाननो कोई गहन महिमा स्फूरायमान छे.
भावार्थः– जेनुं ज्ञान सर्व ज्ञेयोमां व्यापनारुं छे एवो आ जीव शुद्धनयथी परद्रव्यनो कर्ता नथी, तोपण तेने कर्मनो बंध थाय छे ते कोई अज्ञाननो गहन महिमा छे-जेनो पार पमातो नथी. १९प.
परने करे न भोगवे, जाणे जपि तसु नाम.
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहे छे के-हवे सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे. मोक्षतत्त्वनो स्वांग नीकळी गया पछी सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे. रंगभूमिमां जीव-अजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष-ए आठ स्वांग आव्या, तेमनुं नृत्य थयुं अने पोतपोतानुं स्वरूप बतावी तेओ नीकळी गया. हवे सर्व स्वांगो दूर थये एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे.
त्यां प्रथम ज, मंगळरूपे ज्ञानपुंज आत्माना महिमानुं काव्य कहे छेः-
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‘अखिलान् कर्तृ–भोक्तृ–आदि–भावान् सम्यक् प्रलयं नीत्वा’ समस्त कर्ता- भोक्ता आदि भावोने सम्यक् प्रकारे नाश पमाडीने.....
अहाहा...! जोयुं? धर्मी पुरुषने अंतर्द्रष्टि थतां अर्थात् पोते अंदर त्रिकाळी शुद्ध एक चैतन्यमात्र वस्तु आत्मा छे एनी द्रष्टि थतां, एने पर्यायमां जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनो राग छे एनुं एने कर्तापणुं नथी, भोक्तापणुंय नथी. एणे कर्ता-भोक्ता आदि भावोने सम्यक् प्रकारे अर्थात् स्वस्वरूपना आश्रये नाश पमाडी दीधा छे. अहा! आवो अंतर-अवलंबननो वीतरागनो मारग बहु सूक्ष्म छे भाई! आ सिवाय बहारनी क्रियाओ बधी थोथां छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे ने के
अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कांई न बाह्य स्हाशे.
अहाहा...! अहीं कहे छे - समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावोने सम्यक् प्रकारे नाश पमाडीने ‘प्रतिपदम्’ पदे पदे (अर्थात् कर्मना क्षयोपशमथी थता दरेक पर्यायमां) ‘बन्ध– मोक्ष–प्रक्ऌप्तेः दूरीभूतः’ बन्धमोक्षनी रचनाथी दूर वर्ततो ‘शुद्धः शुद्धः’ शुद्ध शुद्ध (अर्थात् जे रागादिक मळ तेमज आवरण-बन्नेथी रहित छे एवो), ‘स्वरस–विसर– आपूर्ण–पुण्य–अचल–अर्चिः’ जेनुं पवित्र अचळ तेज निजरसना (-ज्ञानरसना, ज्ञानचेतनारूपी रसना) फेलावथी भरपूर छे एवो, अने ‘टंकोत्कीर्ण–प्रकट–महिमा’ जेनो महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट छे एवो ‘अयं ज्ञानपुञ्जः स्फूर्जति’ आ ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे.
आ चैतन्यमात्र वस्तु अंदर छे ते केवी छे? तो कहे छे-पदे पदे अर्थात् प्रत्येक पर्याये बंध-मोक्षनी रचनाथी रहित छे. अंदर जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वरूप छे ते बंध- मोक्षनी रचनाथी दूर वर्ते छे. एटले शुं? के रागनुं जे बंधन पर्यायमां छे ते बंधथी अने रागना अभावस्वरूप जे अबंध मोक्षनी दशा ते मोक्षथी-ए बन्ने दशाथी वस्तु शुद्ध चैतन्यमय अंदर भिन्न छे; ए बन्ने दशानी रचनाथी रहित भगवान आत्मा छे. समजाणुं कांई?
मिथ्यात्वनुं पहेलुं गुणस्थान हो के अयोगी केवळीनुं चौदमुं गुणस्थान हो, नरक दशा हो के तिर्यंच, मनुष्यदशा हो के देव-ए प्रत्येक पर्याये पर्यायनी रचनाथी रहित वस्तु अंदर जे एकला चैतन्यनुं दळ छे ते सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु पर्यायथी भिन्न छे. अहाहा...! कर्मना क्षयोपशमना निमित्ते थती नवी नवी पर्याय के गुणस्थाननी पर्याय के एकेन्द्रियादि पर्याय-ते समस्त पर्यायोथी अंदर वस्तु चिदानंदघन छे ते भिन्न छे. आवी वात छे!
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आ देहमां रहेलो भगवान आत्मा देहथी तो भिन्न छे, कर्मथी तो भिन्न छे, पण तेनी एक समयनी दशामां जे विकारना- हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदि पापना ने दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा आदि पुण्यना भाव थाय छे एनाथीय भगवान आत्मा अंदर भिन्न वस्तु छे. अहाहा...! चौद गुणस्थानथी वस्तु अंदर त्रिकाळी भिन्न छे. ल्यो, आ जैन परमेश्वर भगवान केवळीनो ढंढेरो छे के पर्याये-पर्याये बंध-मोक्षनी पर्यायनी रचनाथी रहित त्रिकाळी शुद्ध चैतन्य द्रव्य छे ते भिन्न छे. अहा! आवी पोतानी चीजनो आदर अने स्वीकार करी तेमां लीन थतां पर्यायमांथी मलिनतानो नाश थाय छे अने निर्मळता उत्पन्न थाय छे. आनुं नाम धर्म अने मोक्षनो मारग छे.
‘शुद्धः शुद्धः’ -एम कह्युं छे ने? मतलब के आत्मद्रव्य त्रिकाळी ध्रुव वस्तु अंदर रागादि मेलथी रहित परम पवित्र निरावरण शुद्ध छे, अत्यंत शुद्ध छे. अहाहा....! सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्मनी पहेली सीडी-एनो विषय जे त्रिकाळी द्रव्य छे ते रागादिक मळ तेम ज आवरण-ए बन्नेथी रहित अत्यंत शुद्ध छे. हवे आवी वात एने केम बेसे?
पण बापु! अंदर पोतानी चीज शुद्ध एक ज्ञानानंदरसथी भरेली छे. एना भान विना अनंतकाळथी चोरासीना अवतार करी करीने ए दुःखी थयो छे. अनंत अनंत भवोमां पारावार अकथ्य वेदनाथी एना सोथा नीकळी गया छे. अरे! अनंत-काळमां ए साधु थयो, त्यागी थयो, अनंतवार नग्न दिगंबर मुनि थयो, पण ए दशाओथी भिन्न शुद्ध एक चैतन्यरसथी-आनंदरसथी भरेली पोतानी चीज अंदरमां छे एनी द्रष्टि करी नहि! अरे! भगवान सच्चिदानंदनी मूर्ति प्रभु अंदरमां शाश्वत त्रिकाळ विराजे छे एने जोवानी एणे दरकार करी नहि! अरे भाई! अंतर्द्रष्टि विना तारी बहारनी क्रियाओ बधी ज फोगट छे.
अहीं कहे छे-भगवान आत्मा जेनुं पवित्र अचळ तेज निजरसना-चैतन्यरसना फेलावथी भरपूर छे एवो, अने जेनो महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट छे एवो छे. अहाहा...! भगवान आत्मा कदीय चळे नहि एवा अचळ एक शुद्ध ज्ञानप्रकाशनो पुंज छे. अहो! निजरसथी-शुद्ध एक चैतन्यरसथी-चिदानंदरसथी भरपूर भरेली शुं अद्भूत आत्मवस्तु! शुं एनो महिमा अहीं कहे छे-एनो महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट छे अर्थात् सदा एकरूप प्रगट छे. अहा! आवो जेनो महिमा सदा एकरूप प्रगट छे ते भगवान आत्मा स्वानुभवगम्य छे, स्वसंवेद्य छे.
अहाहा....! कहे छे– ‘अयं ज्ञानपुञ्जः स्फूर्जति’ आ ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे. एटले शुं? एटले के जेनुं अचळ पवित्र तेज निजरसना-चिदानंदरसना
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विस्तारथी भरपूर छे एवो आ ज्ञानपुंज प्रभु आत्मा प्रगट थाय छे अर्थात् स्वसंवेदनमां जणाय छे. बापु! अतीन्द्रिय आनंदनुं जेमां वेदन थाय एवा स्वसंवेदनमां ज जणाय एवो भगवान आत्मा महिमावंत पदार्थ छे; स्वानुभवगम्य ज एनो स्वभाव छे.
पण अरे! लोको तो आ व्रत करो ने तप करो ने दान करो ने भक्ति करो-एम बहारनी धमालमां ज धर्म मानीने अटकी गया छे. परंतु भाई! ए तो बधो शुभराग छे. ए स्थूळ रागमां अतीन्द्रिय सूक्ष्म चैतन्य-महाप्रभु क्यां जणाय एम छे? अहा! ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्मा स्थूळ शुभरागना भावथी जणाय एवी वस्तु नथी. अहा! राग तो शुं चौद गुणस्थानादिना पर्यायभेदथी पण भिन्न एवो भगवान आत्मा एक स्वानुभवमां-स्वसंवेदनमां ज प्रगट थाय एवो एनो स्वभाव छे. समजाणुं कांई....?
हा, पण गुणस्थान आदि पर्याय क्यां गई?
समाधानः– पर्याय क्यांय गई नथी, पर्याय पर्यायमां रही छे. अहीं तो शुद्ध चैतन्यमात्रवस्तु त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य प्रभु पोते छे ते बताववुं छे. तेथी कहीए छीए के- अरे भाई! आ स्त्रीनुं, पुरुषनुं, ढोरनुं, नारकीनुं शरीर (संयोगी अवस्था) न जो; शरीर तो जड छे, अने भगवान त्रणलोकनो नाथ तो अंदर एनाथी भिन्नपणे विराजी रह्यो छे. शरीर शरीरमां भले हो, पण ज्ञानानंदनो समुद्र प्रभु आत्मा तो अंदर भिन्न ज छे. तेम पर्याये पर्याये पर्यायथी भिन्न चैतन्यरसनो पुंज प्रभु आत्मा अंदर गुणस्थान आदिना भेदोथी भिन्न ज छे अने ते स्वानुभव वडे ज प्रगट थाय छे. ओहोहो....! आवी वात छे!
‘शुद्धनयनो विषय जे ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते कर्ता-भोक्तापणाना भावोथी रहित छे, बंधमोक्षनी रचनाथी रहित छे.’
शुं कीधुं? शुद्धनयनो विषय ज्ञानस्वरूपी त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्य छे. अहाहा...! जाणवुं... जाणवुं... जाणवुं-एम जाणवापणुं जेनो स्वभाव छे एवो ज्ञाननो पुंज प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु आत्मा शुद्धनयनो विषय छे अने ते कहे छे, कर्ता-भोक्तापणाना भावोथी रहित छे. एटले शुं? के शरीर, मन, वाणी इत्यादि परद्रव्यनुं करवुं ने भोगववुं तो एने (शुद्ध आत्मद्रव्यने) नथी, पण एथीय विशेष एनी एक समयनी पर्यायमां जे दया, दान आदि वा हिंसादि शुभाशुभ विकल्प ऊठे छे ते विकल्पनुंय करवुं ने भोगववुं एने नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु! अहीं एम कहेवुं छे के शुद्ध
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आत्मद्रव्यमां एवो गुण-स्वभाव नथी के जेथी ते रागने करे ने रागने भोगवे. स्वभावथी ज शुद्ध आत्मवस्तु कर्ताभोक्तापणाना भावोथी रहित छे.
वळी शुद्ध आत्मद्रव्य चिदानंदघन प्रभु बंध-मोक्षनी रचनाथी पण रहित छे. आ रागादिभाव जे बंध अने रागादिनो अभाव जे अबंध-मोक्ष-ए बन्ने बंध-मोक्षनी दशाओनी रचनाथी रहित अंदर ध्रुव एकरूप भगवान आत्मा छे. अहो! शुद्ध आत्मवस्तु ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव त्रिकाळ आनंदकंद प्रभु बंध-मोक्षनी रचनाथी रहित छे.
हवे बहारना क्रियाकांडमां, एमां धर्म मानीने, गळाडूब पडया होय ए बिचाराओने कहीए के- ‘बंधमोक्षनी रचनाथी रहित तुं भगवान आत्मा छो’ -ते एने केम बेसे? बेसे के न बेसे, आ वस्तुस्वरूप छे. रागनी-बंधनी रचना करे एवो वस्तुनो-चैतन्यपुंज प्रभु आत्मानो स्वभाव ज नथी. हवे आवा पोताना स्वरूपने जाण्या विना प्रभु! तुं व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना रागमां एकांते राचे पण भाई! ए तो बधुं रणमां पोक मूकवा जेवुं छे. हवे कहे छे-
आत्मानो स्व-भाव ‘परद्रव्यथी अने परद्रव्यना सर्व भावोथी रहित होवाथी शुद्ध छे, पोताना स्वरसना प्रवाहथी पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप छे अने टंकोत्कीर्ण महिमावाळो छे.’
जोयुं? शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय अने देव-गुरु-शास्त्र इत्यादि परवस्तुथी तो भिन्न छे पण परवस्तुना निमित्तथी थता पुण्य-पापरूप जे शुभाशुभभाव एनाथीय अंदर आनंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति प्रभु भिन्न छे अने तेथी शुद्ध छे. अहा! आवो भगवान आत्मा अत्यंत शुद्ध पवित्र छे. वळी ते पोताना स्व-रसना-शुद्ध एक चैतन्यरसना ध्रुव एकरूप प्रवाहथी पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप छे. अहाहा....! एक कळशमां आचार्यदेवे केटलुं भरी दीधुं छे? कहे छे-भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यनी पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप निजरसथी-चैतन्यरसथी भरेलो त्रिकाळी ध्रुव-ध्रुव प्रवाह छे. अहा! आवो आत्मा टंकोत्कीर्ण सदाय एकरूप महिमावाळो छे.
अरे! पोतानी चीजनो महिमा शुं छे एने जाण्या विना ए (-जीव) अनंतकाळथी संसारमां परिभ्रमण करे छे. अहा! मनुष्य पण ए अनंतवार थयो पण पोतानी चीजने जाणवानी दरकार ज करी नहि! धर्मना नामे एणे व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि क्रियाओ करी, मोटां मंदिरो बंधाव्यां, वरघोडा काढया, हजारो-लाखो लोको भेगा थाय एवा गजरथ काढया; पण एथी शुं? ए तो बधी क्रियाओ परनी बापा! एमां जो रागनी मंदता होय तो पुण्यबंध थाय, पण
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एथी कांई धर्म न थाय. अहीं कहे छे-आवा पुण्यना भावथी पण अंदर सच्चिदानंदमय ज्ञानपुंज प्रभु आत्मा भिन्न चीज छे अने ते स्वानुभवमां प्रगट थाय छे, ए ज कहे छे के-
‘एवो ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे.’ एटले के आवो आत्मा ज्ञानप्रकाशनो पुंज प्रभु अंतर्मुखाकार स्वसंवेदनमां जणाय छे. राग वडे जणाय एवो एनो स्वभाव ज नथी. आवी वात छे.
हवे सर्वविशुद्ध ज्ञानने प्रगट करे छे. तेमां प्रथम, ‘आत्मा कर्ता-भोक्ताभावथी रहित छे’ एवा अर्थनो आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः-
‘कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न’ कर्तापणुं आ चित्स्वरूप आत्मानो स्वभाव नथी, ‘वेदयितृत्ववत्’ जेम भोक्तापणुं स्वभाव नथी.
शुं कीधुं? अहाहा....! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु शुद्ध एक चिन्मात्र वस्तु छे. एमां राग ने रागनुं करवुं क्यां छे? अहाहा.....! अनंत गुण-स्वभावोथी भरेला चित्स्वरूप भगवान आत्मामां एवो गुण-स्वभाव ज नथी के जेथी ते रागने करे के भोगवे. अहा! जेम भोक्तापणुं एनो स्वभाव नथी तेम रागनुं कर्तापणुं एनो स्वभाव नथी.
हवे एक बीडी सरखाईनी पीवे त्यारे तो भाईसा’बना मगजने चेन पडे एवी जेनी मान्यता छे एने आवी वात केम बेसे? (न बेसे). पण शुं थाय? अहीं तो चोकखी वात छे के भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावी छे. तेनी एक समयनी पर्यायनी अस्तिमां दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादिनो राग थाय तेनो ते जाणनारो (एय व्यवहारे) छे पण एनो कर्ता-भोक्ता तो नथी ज नथी.
अहा! आ चित्स्वरूप आत्मानो स्वभाव ज एवो छे के एमां ज्यां अंतर्द्रष्टि थई त्यां पोताने जाणवानी जे पर्याय थई ते ज्ञाननी पर्याय रागने पण जाणे; त्यां राग संबंधीनुं जे ज्ञान पोताना स्वपरप्रकाशक सामर्थ्यथी पोताना कारणे थयुं ते ज्ञाननो कर्ता आत्मा छे, पण रागनो कर्ता ते नथी. आवी वात! बापु! कर्तापणुं आत्मानो स्वभाव ज नथी, जेम भोक्तापणुं स्वभाव नथी. हवे कहे छे-
‘अज्ञानात् एव अयं कर्ता’ अज्ञानथी ज ते कर्ता छे, तद्–अभावात् अकारकः’ अज्ञाननो अभाव थतां अकर्ता छे.
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आत्मा स्वभावथी तो अकर्ता ज छे. पण ए स्वभावनुं भान करे त्यारे अकर्ता छुं एम समजाय ने? दया, दान आदि राग भलो छे, कर्तव्य छे एम ज्यां सुधी रागनी रुचि छे त्यां सुधी अज्ञान छे; अने अज्ञानथी ए रागादिनो कर्ता छे. स्वभावनी रुचि वडे ज्यारे अज्ञाननो अभाव थाय त्यारे अकर्ता छे. माटे तारी रुचि पलटी दे भाई! जो; रागनी रुचिवाळो अज्ञानी जीव गमे तेवां दुर्द्धर व्रत, तप आदि आचरे तोय शास्त्रमां तेने ‘कलीब’ -नपुंसक कह्यो छे. केम? केमके जेम पावैयाने (-नपुंसकने) प्रजा न होय तेम रागनी रुचिवाळाने धर्मने प्रजा (-पर्याय) उत्पन्न थती नथी. आकरी वात बापा! पण आ त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्माए कहेली सत्य वात छे.
अहा! एकली पवित्रतानो पिंड एवा ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी प्रभु आत्माने पर्यायमां कर्तापणुं होवुं ए कलंक छे. माटे हे भाई! रागनी रुचि छोडीने स्वभावनी रुचि कर; ते वडे अज्ञाननो अभाव थतां ते साक्षात् (-पर्यायमां) अकर्ता थाय छे. समजाणुं कांई....?
हवे आत्मानुं अकर्तापणुं द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः-
‘प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी;...’
जुओ, पाठमां-संस्कृतमां ‘तावत्’ शब्द पडयो छे. ‘तावत’ एटले प्रथम तो.... , अर्थात् मूळमां वात आ छे के.... , शुं? के ‘जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी.’ अहा! जीवमां प्रत्येक समये जे पर्याय थाय छे ते क्रमबद्ध छे. तेमां त्रिकाळ जे जे पर्यायो थाय छे ते बधीय क्रमबद्ध थाय छे. एम कहे छे. जेम माळामां मणका पोतपोताना स्थानमां रहेला एक पछी एक होय छे, ते मणका आडा-अवळा न होय-पछीनो मणको आगळ न आवी जाय अने आगळनो मणको पाछळ न चाल्यो जाय-तेम जीवमां जे समये जे पर्यायनी उत्पत्तिनो काळ होय ते समये ते ज पर्याय उत्पन्न थाय छे. आम जीवननी बधी पर्यायो पोतपोताना काळे क्रमबद्ध उत्पन्न थाय छे, आडी अवळी नहि.
हवे आमां केटलाकने वांधा छे; एम के पर्याय एक पछी एक क्रमसर थाय ए तो बराबर पण आना पछी आ ज थाय एम क्रमबद्ध नथी एम तेओ कहे छे.
भाई! तारी आ मान्यता यथार्थ नथी. द्रव्यमां जे पर्याय जे काळे थवायोग्य होय ते ज पर्याय ते काळे क्रमबद्ध थाय छे. जुओने, अहीं टीकामां शुं कहे छे?
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‘जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, ना जीवः.....’ ‘क्रम नियमित’ शब्द छे. एटले के क्रम तो खरो अने क्रमथी नियमित-निश्चित, अर्थात् द्रव्यमां आ समये थवायोग्य आ ज पर्याय थशे एम निश्चित छे.
भाई! तुं भगवान सर्वज्ञदेवने माने छे के नहि? अहाहा....! त्रणकाळ-त्रणलोकने एक समयमां युगपत् प्रत्यक्ष जाणनार भगवान सर्वज्ञदेवने जो तुं माने छे तो (बधी) पर्यायो द्रव्यमां (प्रत्येक द्रव्यमां) क्रमबद्ध थाय छे एम सिद्ध थई जाय छे. भगवान सर्वज्ञदेव द्रव्यनी त्रणे काळनी पर्यायोने युगपत् जाणे छे एनो अर्थ ज ए थयो के द्रव्यनी त्रणे काळनी पर्यायोनो क्रम निश्चित छे. अहा! द्रव्यमां जे समये जे पर्याय थवानी होय ते समये ते ज पर्याय थाय; एम समस्त पर्यायो पोतपोताना समये क्रमबद्ध उत्पन्न थाय छे. समजाणुं कांई...?
हा, पण आवुं बधुं क्रमबद्ध माने तो धर्म करवा माटे पुरुषार्थ करवानुं क्यां रह्युं? ल्यो, आवो केटलाकनो प्रश्न छे. एम के क्रमबद्धमां धर्म थवानो हशे ते दि’ थशे.
समाधानः– भाई! एम आ वात नथी. बापु! तुं एकवार सांभळ. क्रमबद्धनो निर्णय करनारनी द्रष्टि त्रिकाळी शुद्ध एक निज ज्ञायकभावमात्रवस्तु आत्मा पर होय छे. भाई! ज्ञायकस्वभाव पर द्रष्टि जाय त्यारे ज क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय थाय छे-एवी आ वात छे. क्रमबद्धनो निर्णय पर्यायना आश्रये थतो नथी पण क्रमबद्धनो निर्णय त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायक तत्त्वना आश्रये थाय छे. आ प्रमाणे क्रमबद्धनो निर्णय करनारने ज्ञायकस्वभावी आत्माना आश्रयनो पुरुषार्थ थतो होय छे अने एनुं ज नाम धर्म छे. समजाणुं कांई....? अहा! क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय करनारने तो कर्ताबुद्धि उडी जाय छे ने स्वभाव प्रति सम्यक् पुरुषार्थ जाग्रत थाय छे. आवी आ वात छे.
जुओ, अहीं पहेलां जीवनी पर्यायोनी वात करी छे. जीव जाणनार ज्ञायक तत्त्व छे ने? पोतानी जे पर्यायो क्रमबद्ध थाय तेनो जाणनारो छे ने? माटे जीवनी वात प्रथम करीने पछी अजीवनी वात करी छे. अजीवमां-जडमां पण पर्यायो तो बधी क्रमबद्ध थाय छे, पण जडने कांई नथी अर्थात् जड कांई जाणतुं नथी, जीव एनो जाणनारो छे. अहा! जीवने पोतानुं ज्ञान (-आत्मज्ञान) थाय त्यारे ते जाणे छे के पोतामां जे क्रमबद्ध पर्यायो थाय छे तेनो हुं जाणनार छुं अने जडमां-अजीवमां जे क्रमबद्ध पर्यायो थाय छे तेनोय हुं जाणनार छुं. (कर्ता छुं एम नहि). अहा! त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावनी जेने अंतर्द्रष्टि थई छे ते जीवने पर्यायमां रागादि भाव जे क्रमबद्ध थाय छे तेनो ते कर्ता थतो नथी पण मात्र तेनो ज्ञाता-
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साक्षी रहे छे. अहो! धर्मी पुरुषनी आवी कोई अलौकिक अंतरदशा होय छे.
परंतु अज्ञानी जीव, पोताने निज ज्ञाता-द्रष्टास्वभावमात्र आत्मानुं भान नहि होवाथी जे जे रागादि पर्यायो क्रमबद्ध प्रगट थाय छे तेनो ते कर्ता थाय छे अने तेथी ते दीर्घ संसारमां रखडी मरे छे.
शुं कहीए? भाई! तारो अनंत अनंत काळ चतुर्गति परिभ्रमणमां गयो छे. अरे! चोरासी लाख योनिमां प्रत्येक योनिमां भगवान! तुं अनंतवार उपज्यो! पण अरे! एणे कदी पोतानो विचारेय कर्यो नथी. अरेरे! क्यां क्यां एणे अवतार कर्या? निज स्वरूपना भान विना नरकमां, ढोरमां, कीडा-कागडा-कंथवामां अने पृथ्वी पाणी ने वनस्पति आ एकेन्द्रियमां अरेरे! एणे अनंत अनंत वार अवतार कर्या छे. अरे! एणे जे पारावार कष्ट-दुःख सह्यां तेने केम करीने कहीए? भाई! अहीं आचार्यदेव तारां दुःख दूर करवानो उपाय बतावे छे. कहे छे-
‘प्रथम तो जीव क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी.’ आ मूळ मुदनी वात छे. शुं? के भगवान आत्मा अनंतगुणनुं वास्तु प्रभु वस्तुपणे तो पर्यायथी भिन्न छे. छतां तेनुं पर्यायमां जे परिणमन-बदलवुं थाय छे एमां बदलती जे अवस्थाओ समये समये प्रगट थाय छे ते, कहे छे, क्रमबद्ध थाय छे; आघी- पाछी के आडी-अवळी नहि. जेम मोतीनी माळामां पोतपोताना स्थानोमां प्रकाशतां मोती जो आघां-पाछां थाय तो माळा तूटी जाय. तेम द्रव्यमां पोतपोताना अवसरोमां प्रगट थती पर्यायोमां जो क्रमभंग थाय तो द्रव्य ज ना रहे. एटले के पोतपोताना अवसरोमां प्रगट थती पर्यायो आघी-पाछी के वहेली-मोडी थवानुं जो कोई माने तो तेनी ए मान्यता विपरीत छे, मिथ्याश्रद्धान छे. वास्तवमां द्रव्यमां जे पर्याय जे समये थवानी होय ते समये ज ते पर्याय प्रगट थाय छे; वर्तमान थवानी होय ते वर्तमान थाय छे ने भविष्यमां थवानी होय ते भविष्यमां एना काळे थाय छे. आवी झीणी वात छे भाई!
जुओ, एक वखते एक छोकराए बीजा छोकराने वातवातमां गुस्से थईने गाल उपर जोशथी थप्पड लगावी दीधी. पछी कोई समजु माणसे एने ठपको आप्यो तो ते कहे-“ए तो जे समये जे थवानुं हतुं ते थयुं छे. में एमां शुं कर्युं छे? एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं शुं करी शके छे? ” ल्यो, आवुं एणे कह्युं.
पण भाई! एनी ए वात बराबर नथी. जडमां-शरीरमां जे क्रिया ते समये थवानी हती ते थई तथा ते जडनी क्रिया छे ए तो यथार्थ छे. परंतु क्रमबद्ध जे हिंसानो-मारवानो भाव थयो ते कोणे कर्यो? ते भावनो अज्ञानी जीव अवश्य
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कर्ता छे. कोई कर्ता थईने परिणमे अने जे समये जे राग थवानो हतो ते थयो एम क्रमबद्धनुं नाम ले तो ए तो स्वच्छंदी मिथ्याद्रष्टि छे; एने क्रमबद्धनुं साचुं श्रद्धान ज नथी. बापु! आ कांई स्वच्छंद पोषवा माटे वात नथी पण स्वभावना आश्रये साचो निर्णय करी स्वच्छंद मटाडवानी आ वात छे.
भाई! भगवाननी वाणीनो, चारे अनुयोगनो सार एकमात्र वीतरागता छे. पंचास्तिकाय गाथा १७२नी टीकामां कह्युं छे के-“विस्तारथी बस थाओ. जयवंत वर्तो वीतरागपणुं के जे साक्षात् मोक्षमार्गनो सार होवाथी शास्त्रतात्पर्यभूत छे.” अहा! आ वीतरागता केम प्रगटे? के जीवने ज्यारे पर्यायबुद्धि मटीने द्रव्यद्रष्टि थाय त्यारे वीतरागता प्रगटे छे. अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकनी द्रष्टि थाय ए एक ज वीतरागता प्रगट थवानुं कारण-साधन छे.
त्यारे कोई वळी क्रमबद्धनी ओथ लईने कहे छे-वीतरागतानी पर्याय जे काळे थवानी हशे ते काळे ते उत्पन्न थशे. (एम के एमां द्रव्यद्रष्टिनुं शुं प्रयोजन छे?)
हा, वीतरागतानी पर्याय तो जे काळे थवानी हशे ते काळे ते उत्पन्न थशे; ए तो एम ज छे, पण एवो निर्णय कोनी सन्मुख थईने कर्यो? अहा! त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकस्वरूपनी सन्मुख थईने हुं आ एक चिन्मात्र-ज्ञानमात्र ज्ञाताद्रष्टा-स्वभावी वस्तु आत्मा छुं एम जेणे निर्णय कर्यो तेने जे काळे जे पर्याय थवानी हशे ते थशे एम यथार्थ निर्णय होय छे; अने तेने ज क्रमबद्ध वीतरागता थाय छे. बाकी रागनी रुचि छोडे नहि अने वीतरागता जे काळे थवानी हशे त्यारे थशे एम कहे ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. एने तो क्रमबद्ध रागनुं ज अज्ञानमय परिणमन थया करे छे. आमां समजाणुं कांई...! एम के कई पद्धतिए कहेवाय छे एनी कांई गंध आवे छे के नहि? अहा! पूरुं समजाई जाय एनुं तो तत्काळ कल्याण थई जाय एवी वात छे.
जुओ, द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु आखी आत्मा छे. तेमां ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत गुणथी रचायेलुं जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमान छे ते द्रव्य छे अने प्रतिसमय उत्पाद- व्ययरूप पलटती जे अवस्था छे ते पर्याय छे. तेमां गुणो छे ते अक्रम अर्थात् एकसाथे रहेनारा सहवर्ती छे अने पर्यायो क्रमवर्ती छे. ते पर्यायो एक पछी एक थती क्रमबद्ध थाय छे एम वात छे. मतलब के जीवमां जे पर्याय जे समये थवानी होय ते तेना स्व- अवसरे ज प्रगट थाय छे. शुं कीधुं? वर्तमान-वर्तमान जे पर्याय प्रगट थाय ते तेनी उत्पत्तिनो काळ छे, जन्मक्षण छे. प्रत्येक समये प्रगट थती पर्याय ते तेनी जन्मक्षण छे. सूक्ष्म वात छे; पण आ सर्वज्ञ परमात्माना पेटनी वातु छे प्रभु! आमां बे मुद रहेला छे.
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१. जीवनी जे समये जे पर्याय थवाथी होय ते समये ते ज थाय ए तेनी काळलब्धि छे. अने
२. जे पर्याय थाय ते बाह्य निमित्तथी, तेना द्रव्य-गुणथी अने तेनी पूर्व पर्यायना व्ययथी पण निरपेक्ष छे; अर्थात् ते पर्यायने बाह्य निमित्तनीय अपेक्षा नथी, एना द्रव्य-गुणनीय एने अपेक्षा नथी अने पूर्व पर्यायना व्ययनीय एने अपेक्षा नथी. अहा! जीवनी एक समयनी पर्याय जे विकाररूपे परिणमे ते पोताना षट्कारकथी पोते स्वतंत्रपणे परिणमे छे. आ वात पंचास्तिकायनी गाथा ६२ मां आवी छे.
जीवद्रव्यनी जे पर्याय थाय ते जीव ज छे; अर्थात् तेनो कर्ता जीव ज छे अन्य द्रव्य नथी, जड कर्म नथी. जड कर्मनी पर्याय जड कर्मना कारणे क्रमबद्ध थाय छे अने जीवनी पर्याय जीवना कारणे क्रमबद्ध थाय छे. द्रव्य पोते ज पोतानी पर्यायने करे छे, पण भिन्न पदार्थ ते पर्यायने करे एम त्रणकाळमां नथी. चाहे जीवनी विकारी पर्याय हो के समकित आदि निर्मळ निर्विकारी पर्याय हो, ते पर्याय तेना क्रममां थवानी होय ते ज थाय छे अने एमां तेने कर्म वगेरे कोई परकारकोनी अपेक्षा नथी. आवी वात छे.
अहो! संतो आडतिया थईने भगवान केवळीना घरनो माल जगतने आपे छे. कहे छे-जो तो खरो प्रभु! केवो आश्चर्यकारी माल छे! अहा! सर्वज्ञदेवे जीवनी जे पर्याय जे समये थवानी जोई छे ते समये ते ज पर्याय थाय छे, अने ते थाय छे तेमां कोई अन्यद्रव्यनी अपेक्षा नथी; अरे! ते पूर्व पर्यायना व्ययना कारणे थाय छे एम पण नथी.
जुओ, भगवान केवळी सर्वज्ञदेवना नामथी पर्यायने क्रमबद्ध सिद्ध करवी ए तो परथी सिद्ध करवानी वात छे. अने पूर्व पर्यायना व्ययपूर्वक वर्तमान पर्याय थई एम कहेवुं ए पण परथी पर्यायने सिद्ध करवानी वात छे. (केमके पूर्व पर्याय वर्तमान पर्यायनुं पर छे). वास्तवमां तो जे समये जे पर्याय-विकारी के निर्विकारी प्रगट थाय छे ते ते काळे पोताना कर्ता, कर्म, करण आदि षट्कारकथी स्वतंत्रपणे प्रगट थाय छे. अहो! आ अलौकिक सिद्धांत छे के जीव पोतानी क्रमबद्ध एकेक पर्यायना षट्कारकथी पोतानी ते ते पर्यायपणे उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी. बापु! तें बहार लौकिकमां घणुं-बधुं सांभळ्युं होय एनाथी आ तद्न जुदी वात छे.
जुओ, पांच वात अहींथी मुख्य बहार आवी छे. १. निमित्त, २. उपादान, ३. निश्चय, ४. व्यवहार, अने प. आ क्रमबद्ध.
निमित्त छे ते परवस्तु छे, ते उपादानमां कांई करे नहि. निमित्त छे खरुं, एना
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अस्तिपणानो निषेध नथी, पण ते उपादाननी पर्यायनुं कांईपण करे नहि.
तेम व्यवहार छे ते निश्चयनुं कांई करे नहि. केमके व्यवहार छे ते पण निमित्त छे. व्यवहार छे खरो, पण व्यवहार निश्चयनुं कांई करे नहि.
पांचमो आ क्रमबद्धनो विषय; प्रत्येक द्रव्यनी सर्व पर्यायो तेना थवाना काळे स्वतंत्रपणे पोताथी ज क्रमबद्ध थाय छे. तेमां कांई आघुं-पाछुं कदीय थाय नहि.
हवे एक छठ्ठी वातः बहार एम वात आवी छे के-पर्याय अशुद्ध होय तो द्रव्य पण अशुद्ध थई जाय.
परंतु आ मान्यता यथार्थ नथी. वस्तु जे द्रव्य छे ए तो अनादि अनंत एकरूप पवित्रतानो पिंड छे. विकारी-निर्विकारी सर्व पर्यायोना काळे द्रव्य तो शाश्वत एकरूप शुद्ध छे. अरे! तीव्र मिथ्यात्वना काळे पण द्रव्य-वस्तु तो जेवी छे तेवी शुद्ध ज छे.
प्रश्नः– तो शुद्ध-अशुद्ध द्रव्य एम कहे छे ने?
समाधानः– हा, पण ए तो पर्याय-अपेक्षाए वात छे. शुद्धता ने अशुद्धता ए तो पर्यायनी वात छे भाई! वस्तु-द्रव्य तो त्रिकाळ एकरूप शुद्ध ज छे. अरे! पोते कोण छे? केवो छे? केवडो छे? एनी पोताने कांई खबर न मळे अने बधी परनी मांडी छे. कहेवत छे ने के- ‘घरनां छोकरां घंटी चाटे ने पाडोशीने आटो’ -एम आ पण पोतानी खबर करे नहि अने बहारमां डहापण डहोळे-जाणे देवनो दीकरो; पण भाई! स्वने जाण्या विना ए बधुं तारुं डहापण तो नरी मूढता छे, पागलपणुं छे-बापु!
भाई! तुं सांभळ तो खरो के अहीं आ शुं कहे छे! अहाहा....! कहे छे-प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी. जुओ, त्रिकाळी शुद्ध जीव-वस्तु छे ए तो ध्रुव अपरिणामी छे; तेमां बदलवुं (क्रिया) नथी. पण वर्तमान पर्याय छे ते एनी बदलती दशा छे. अहीं कहे छे-ते वर्तमान-वर्तमान बदलती दशा छे ते क्रमबद्ध छे. मूळ पाठमां ‘क्रमनियमित’ शब्द छे, तेनो अहीं ‘क्रमबद्ध’ अर्थ कर्यो छे. मतलब के जीवनी अनादि अनंत त्रणकाळनी जे पर्यायो छे ते प्रत्येक पोताना स्वकाळे क्रमनियमित-क्रमबद्ध प्रगट थाय छे. वळी जीवनी ते प्रत्येक बदलती-उपजती दशा-पर्याय जीव ज छे, अजीव नथी. एटले शुं? के ते ते उपजता परिणामोमां जीव ज तन्मय छे, पण एमां
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अजीव तन्मय छे एम नथी. अहा! ते ते परिणाम अजीवना छे वा ते अजीवथी नीपज्या छे एम नथी. जीवना परिणाम जीव ज छे एम अहीं वात छे.
प्रश्नः– हा, पण एक बाजु आप कहो छो के जीव पर्यायने करे नहि अने वळी अहीं कहो छो-जीवना परिणाम जीव ज छे-आ केवी रीते छे?
समाधानः– हा; समयसार गाथा ३२० मां एम आवे छे के पर्यायनो कर्ता जीव नथी. पर्याय पोताना कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण एवा षट्कारकना परिणमनथी स्वयं स्वतः सहजपणे स्वकाळे उपजे छे. त्यां द्रव्यथी पर्यायने भिन्न बतावी द्रव्यद्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे. त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव सिद्ध करवो छे ने! तो कह्युं के द्रव्य पर्यायनुं कर्ता नथी, द्रव्य पर्यायनुं दाता नथी; आवो अक्रिय एकरूप द्रव्यस्वभाव छे.
ज्यारे अहीं परद्रव्य पर्यायनुं कर्ता नथी, दाता नथी एम सिद्ध करवुं छे. तो द्रव्य-पर्यायने अभेद करीने वात करी छे के जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी. अहाहा....! जे काळे क्रमबद्ध जे पर्याय थई ते जीव छे एम अहीं केम कह्युं? केमके ते पर्यायमां ते काळे जीव तन्मय छे, पण अजीव तन्मय नथी. ते पर्याय परथी के अजीवथी थई छे एम नथी. भाई! आ विकारना परिणाम जे थाय छे ते कर्मथी थाय छे एम नथी; तथा सम्यग्दर्शननी पर्याय थई ते दर्शनमोहनो अभाव थयो माटे थई छे एम नथी. ते काळे जीवनी ते ते पर्याय जीवस्वरूप छे. ल्यो, आवी वस्तुस्थिति छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी वात होय तेने ते रीते यथार्थ समजवी जोईए.
अत्यारे तो आ विषयमां केटलाके गडबड ऊभी करी छे. तेओ कहे छे-जो क्रमबद्ध मानो तो बधुं नियत थई जाय छे अने तो आत्माने कांई पुरुषार्थ करवानो रहेतो नथी.
भाई! वस्तु-व्यवस्था तो नियत अने स्वाधीन ज छे. एमां फेरफार करवानी तुं चेष्टा करे एने तुं शुं पुरुषार्थ कहे छे? बापु! ए पुरुषार्थ नथी पण तारा मिथ्या (- वांझणा) विकल्प छे. वास्तवमां तो द्रव्यनी पर्याय तेना काळे, परना कर्तापणा विना स्वतंत्र-स्वाधीनपणे पोताथी क्रमबद्ध उत्पन्न थाय छे एम जेणे यथार्थ मान्युं ते पुरुषार्थी छे, केमके एम माननार परथी हठीने स्वाभिमुख थाय छे अने स्वाभिमुख थवुं ने रहेवुं ए ज सम्यक् पुरुषार्थ छे.
तो बे कारणथी कार्य थाय छे एम तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि सिद्धांत-ग्रंथोमां आवे छे ने?
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भाई! ए तो वास्तविक कारण जे निश्चय उपादान तेना सहचरपणे बाह्य निमित्त शुं होय छे तेनुं ज्ञान कराववानी त्यां वात छे. बाकी निमित्त कांई वास्तविक कारण छे एम नथी. वास्तवमां जे समये जे पर्याय थाय ते पर्याय ते समयनुं सत् छे. ते कोईथी आघुं-पाछुं न थाय. भाई! ते पर्याय परना कारणे तो थती नथी पण तेने पूर्व पर्यायनीय अपेक्षा नथी. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामां आवे छे ने? के पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य ते कारण अने उत्तरपर्याययुक्त द्रव्य ते कार्य-एय व्यवहारनी वात छे. भाई! सामान्य जे वस्तु छे ते, ते समयना पर्यायरूप विशेषमां उपजे छे अने ते पर्याय-विशेष ते समयनुं सत् छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?
तो आ पैसा दानमां देवा, मंदिरो बनाववां, आरसनी मूर्ति स्थापवी-आ बधुं शुं छे? एम के आ बधुं कोण करे?
भाई! ते ते अवस्थानी व्यवस्था करनार ते ते द्रव्य-परमाणु छे; जीव तेने करतो नथी, करावतोय नथी. अहा! बीजा द्रव्यना कर्या विना ज, ते ते अवस्थानी व्यवस्था स्वतंत्रपणे तेनाथी तेना काळे थाय छे. अहो! भगवान वीतरागदेवे कहेलुं तत्त्व आवुं सूक्ष्म गंभीर छे! परने लईने उत्पाद थाय एम तो नहि पण व्ययने लईने उत्पाद थाय एमेय नहि. उत्पादथी उत्पाद छे. उत्पादपणे उत्पादनो ते समये त्यां काळ छे अने द्रव्य त्यां उपजे छे. आवी वात छे!
पं. देवकीनंदन साथे आ क्रमनियमितनी वात थयेली त्यारे तेओ बोल्या-“ओहो! आ तो अपूर्व वात छे. भाई! आ तो परमेश्वर त्रिलोकनाथ जिनेश्वरदेवनी वाणी- आगम! आगम तो आंख-चक्षु छे. मुनिराजने आगमचक्षु कहेल छे ने? अहा! एवा आगममां कह्युं छे के-भगवान! तुं ज्ञानस्वरूप छो. अने तारी जे जे पर्यायो-विकारी के निर्विकारी-थाय छे ते ते सर्व पर्यायो क्रमसर पोतपोताना काळे थाय छे.
कळशटीकामां चोथा कळशनी टीकामां आवे छे के-“सम्यक्त्व-वस्तु यत्नसाध्य नथी, सहजरूप छे.” त्यां विशेष आम कह्युं छे के-“ते जीव संसारमां भमतां भमतां ज्यारे अर्धपुद्गलपरावर्तनमात्र रहे छे त्यारे ज सम्यक्त्व उपजवाने योग्य छे. आनुं नाम काळलब्धि कहेवाय छे. यद्यपि सम्यक्त्वरूप जीवद्रव्य परिणमे छे तथापि काळलब्धि विना करोड उपाय करवामां आवे तोपण जीव सम्यक्त्वरूप परिणमनने योग्य नथी एवो नियम छे. आथी जाणवुं के सम्यक्त्व-वस्तु यत्नसाध्य नथी, सहजरूप छे.”
त्यां आ पहेलां उपर आम कह्युं छे के-“भव्यजीवोमां केटलाक जीवो मोक्ष
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जवाने योग्य छे. तेमने मोक्ष पहोंचवानुं काळ परिमाण छे. विवरण-आ जीव आटलो काळ जतां मोक्ष जशे एवी नोंध केवळज्ञानमां छे.”
जुओ, आ जीव आटलो काळ वीततां मोक्ष जशे एवी नोंध केवळज्ञानमां छे. एटले शुं? के आ जीवने आ काळे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अने केवळज्ञान थशे-एम एनी बधी पर्यायो केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष जाणवामां आवे छे. अहा! जे समये जे द्रव्यनी जे पर्यायो जे प्रकारे थवा योग्य छे ते ते बधी पर्यायो एकी साथे केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष थाय छे. अहो! केवळज्ञाननुं आवुं कोई अद्भूत दिव्य सामर्थ्य होय छे.
केवळज्ञानमां नोंध छे एम कह्युं एटले के केवळज्ञाननी एक समयनी पर्यायमां त्रणकाळना समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय एक साथे प्रत्यक्ष थाय छे. अहाहा...! वस्तुनी भूत, वर्तमान अने भविष्यनी जे रीते जे पर्यायो थई, थाय छे अने थशे ते समस्त पर्यायोने केवळज्ञान वर्तमान प्रत्यक्ष जाणे छे. भविष्यनी पर्याय थई नथी माटे भविष्यनी पर्याय थशे त्यारे जाणशे एम कोई माने तो ते बराबर नथी. अरे भगवान! सांभळ तो खरो. क्षायिक ज्ञान कोने न जाणे? तेने शुं अपेक्षा छे? (कांई नहि). प्रवचनसार गाथा ४७ नी टीकामां आचार्यदेव कहे छे-“अति विस्तारथी बस थाओ; अनिवारित जेनो फेलाव छे एवा प्रकाशवाळुं होवाथी क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वने जाणे छे.” भाई! भविष्यनी जे पर्यायो जे समये जे प्रकारे थशे ते सर्वने केवळज्ञान वर्तमान प्रत्यक्ष जाणे छे. बापु! तने केवळज्ञान बेसवुं कठण पडे छे तो क्रमबद्ध पण बेसवुं कठण छे.
‘सम्यक्त्व-वस्तु यत्नसाध्य नथी, सहजरूप छे’ -एम कळशटीकामां कह्युं ए तो पुरुषार्थने गौण गणीने काळलब्धिनी मुख्यताथी वात करी छे. बाकी सम्यग्दर्शन थाय त्यां तो पांचेय समवाय कारणो एकसाथे होय छे; काळलब्धि होय छे ने पुरुषार्थेय भेगो होय छे.
पहेलां संप्रदायमां अमारे आ विषयनी चर्चा चालेली; तेओ कहे-भगवाने दीठुं होय त्यारे (समकित आदि) थाय, आपणा पुरुषार्थथी कांई न थाय. आपणे पुरुषार्थ शुं करीए?
त्यारे कह्युं-अरे भाई! आ तमे शुं कहो छो? भगवाने दीठुं होय त्यारे थाय ए वात तो एम ज छे, यथार्थ ज छे. पण भगवाननुं केवळज्ञान के जे एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने प्रत्यक्ष जाणे छे तेनी सत्तानो-हयातीनो अंदर तने स्वीकार छे? जो नथी तो ‘भगवाने दीठुं त्यारे थाय’ -एम तुं क्यांथी लाव्यो! अने जो छे तो एनो स्वीकार तें कोनी सन्मुख थईने कर्यो छे? जो केवळज्ञान-
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स्वभावी शुद्ध एक चिन्मूर्ति निज आत्मद्रव्यनी सन्मुख थई एनो स्वीकार कर्यो छे तो ते यथार्थ छे अने ए ज पुरुषार्थ छे. अहा! जे जीव पोताना ज्ञानस्वभावनो अंतर्मुख थई निर्णय करे छे तेने ‘आपणे पुरुषार्थ शुं करीए? ’ एम संदेह रहेतो नथी, केमके एने तो पुरुषार्थनी धारा क्रमबद्ध शरू ज थई गई छे. समजाणुं कांई....?
अहाहा...! केवळज्ञाननी एक समयनी पर्यायनी ताकात केटली? जेमां त्रणकाळना अनंत केवळी, अनंता सिद्धो अने अनंता निगोद पर्यंतना संसारी जीवो वर्तमानमां प्रत्यक्ष जणाय. अहा! ए केवळज्ञाननी कोई अद्भूत ताकात छे. अहा! आवा केवळज्ञाननी सत्ता जगतमां छे तेनो स्वीकार पर्यायना के परना अवलंबने थतो नथी, पण पोताना त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञानस्वभावना ज अवलंबने तेनो स्वीकार थाय छे. अहा! जेनी द्रष्टि पर्याय परथी खसीने शुद्ध एक ज्ञानस्वभावना अवलंबनमां गई तेने सर्वज्ञनी सत्तानो स्वीकार थई गयो, तेने ज्ञानस्वभावना पुरुषार्थनो क्रम पण शरू थई गयो, अने काळलब्धि आदि पांचे समवाय थई गयां. भाई! सर्वज्ञनी सत्तानो अने क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय पोताना ज्ञानस्वभावना लक्षे-आश्रये ज थाय छे अने एनुं नाम धर्म छे. आवी वात छे.
अहीं कहे छे-जीव क्रमनियमित एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी. अहा! पोताना क्रमबद्ध नीपजता परिणामने, कहे छे, परनी कोई अपेक्षा नथी; परनी अपेक्षा विना ज क्रमबद्ध पोताना परिणाम प्रति-समय नीपजे छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-तमे एक निश्चयनी वात करो छो, पण बे कारणोथी कार्य थाय छे एम शास्त्रोमां आवे छे.
हा, आवे छे. पण ए तो भाई! त्यां साथे निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे वात करी छे, जेम मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारे छे तेम. मोक्षमार्गप्रकाशकमां आचार्यकल्प पं. श्री टोडरमलजी कहे छे-“हवे मोक्षमार्ग तो बे नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चयमोक्षमार्ग छे तथा ज्यां जे मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहारमोक्षमार्ग छे, कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे. अर्थात् साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग जाणवो. पण एक निश्चयमोक्षमार्ग छे अने एक व्यवहारमोक्षमार्ग छे एम बे मोक्षमार्ग जाणवा मिथ्या छे.”
अहाहा...! एक शब्दमां केटलुं सिद्ध कर्युं छे? जीवद्रव्यनी जे समये जे
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अवस्थानी व्यवस्था थाय तेनो करनार ते जीव ज छे, तेनो करनार कोई बीजी चीज नथी. तत्त्वार्थराजवार्तिक आदिमां जे बे कारणोथी कार्य थाय एम कह्युं छे ए तो त्यां प्रमाणनुं ज्ञान कराववा निश्चयनी वात राखीने कथन कर्युं छे. निश्चयनी वात राखीने व्यवहारनुं ज्ञान करे तो ते प्रमाणज्ञान छे, परंतु निश्चयनी वात उडाडीने एकांते व्यवहारनुं ज्ञान करे तो त्यां प्रमाणज्ञान क्यां रह्युं? ए तो मिथ्याज्ञान थयुं.
आ प्रमाणे जीव पोताना परिणामनो, बीजाना कर्तापणा विना ज, पोते कर्ता छे. बीजी चीज सहायक छे एम कह्युं होय एनो अर्थ ए ज छे के ते काळे बीजी चीज होय छे अने तेने निमित्त कहेवामां आवे छे. बाकी एने (बीजी चीजने) लईने अहीं जीवना परिणाम थाय छे वा तेमां कोई विलक्षणता आवे छे एवुं वस्तुनुं स्वरूप नथी. भाई! सत्नुं जेवुं स्वरूप छे तेवी ज तेनी प्रतीति करे तो ते साची प्रतीति छे. बापु! जीवनी कोईपण पर्याय आघीपाछी के आडी-अवळी त्रणकाळमां थवी संभवित नथी. त्यां बीजी चीज (निमित्त) शुं करे? अहा! आ तो भगवान केवळीए कहेली परम सत्यार्थ वात छे. भाई! तारे ते ए रीते ज मानवुं छे के स्वच्छंदे कल्पनाथी मानवुं छे? सत्ने सत्रूपे स्वीकारे तो ज धर्म थाय; बाकी बीजुं बधुं तो संसारनी रखडपट्टी माटे ज छे.
हवे बीजा बोलमां अजीवनी वात करे छेः- ‘एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी उपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी;...’
जुओ, प्रथम जीवनी वात करी; ने हवे कहे छे-एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी. अहा! अजीवमां- पुद्गलादिमां पण प्रगट थती त्रणेकाळनी पर्यायो पोताना स्वकाळे प्रगटती थकी क्रमबद्ध ज छे. आ माटीमांथी घडो थाय छे ने? त्यां घडानी पर्याय जे काळे थवानी होय ते काळे घडो माटीथी थाय छे. माटी ज (माटीना परमाणु) क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामथी उपजती थकी घडो उपजावे छे, पण कुंभार घडो उपजावे छे एम नथी; कुंभार घडानो कर्ता नथी. कुंभारना कर्तापणा विना ज, माटी पोते घडानो कर्ता छे.
आ बाईओ खाटला उपर लाकडानुं पाटियुं राखीने घउंनी सेव नथी वणती? अहीं कहे छे ते कार्य बाईथी थयुं नथी, बाईना हाथथीय थयुं नथी अने लाकडाना पाटियाथीय थयुं नथी, ए तो लोटना परमाणु छे ते ते समये क्रमबद्ध परिणमता थका सेवनी अवस्थारूपे उपजे छे. अहा! आवी वात? मानवीने बहु कठण पडे पण आ सत्य वात छे. जुओने, कह्युं छे ने के-अजीव पण क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी. अजीव पुद्गलादिनुं कार्य जीव