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वा बीजी कोई चीज करे ए वस्तुस्वरूप नथी. कोई होशियार माणस होय ने ते नामुं लखे तो मोतीना दाणा जेवा अक्षरो लखे. अहीं कहे छे-ते अक्षरो जे लखाया ते अजीव- परमाणुओनी अवस्था ते ते परमाणुओथी थई छे, जीवथी ते अक्षरोनी अवस्था थई नथी; तथा कलमथीय ते थई नथी. आवी वात छे.
जुओ, परमाणुनो स्कंध होय छे तेमां बे-गुण चीकाशवाळो परमाणु, चारगुण चीकाशवाळा परमाणु साथे स्कंधमां भळे त्यारे ते परमाणु चारगुण चीकाशवाळो थई जाय छे. ते चारगुण चीकाशवाळी पर्याय ते परमाणुमां ते काळे पोताथी थवानी हती ते थई छे, तेनो कर्ता बीजो परमाणु नथी. चारगुण चीकाशवाळा परमाणु साथे ते भळ्यो माटे तेनी चारगुण चीकाशवाळी पर्याय थई छे एम नथी. एक परमाणुमां बे गुण स्पर्शनी पर्याय होय अने बीजा परमाणुमां चारगुण स्पर्शनी पर्याय होय. ते बन्ने भेगा थाय त्यां बे गुणवाळो परमाणु चारगुणवाळी पर्यायरूपे परिणमी जाय छे; पण ते पर्याय पोताथी थई छे. बे गुण, त्रण गुण, असंख्य गुण, अनंतगुणरूप स्पर्श, रस, गंध, वर्णनी पर्याय जे समये जे थवानी होय ते पोताथी थाय छे; बीजा परमाणुने लीधे ते पर्याय थती नथी; बीजा परमाणुनी त्यां कोई असर के प्रभाव पडे छे एम नथी. भाई! समयसमयनी पर्याय जे जे थवानी होय ते ते काळे ते ज थाय छे, एमां बीजानी अपेक्षा नथी, जरूर नथी. अहो! आवुं पर्यायनुं तत्त्व निरपेक्ष छे! द्रव्य अने गुणनी तो शुं वात? त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य तो पर्याय विनानुं परम निरपेक्ष तत्त्व छे. अहा! आवा परम निरपेक्ष तत्त्व उपर आनी द्रष्टि जाय ते आ समजवानुं तात्पर्य अने फळ छे. क्रमबद्धने समजवानुं तात्पर्य आ छे बापु!
त्यारे कोई वळी एम पण कहे छे के-क्रमबद्ध जे थवानुं हशे ते थशे, माटे आपणे हाथ जोडीने बेसी रहीए.
पण भाई! हाथ जोडे कोण अने बेसी रहे कोण? बापु! ए तो बधी शरीरनी अवस्थाओ पोतपोताना कारणे पोताना काळे थाय छे. तेनो तुं कर्ता थवा जा’छ ए तो तारी मिथ्याबुद्धि छे. अने ते ते विकल्पनो कर्ता थाय ए पण मिथ्याभाव, अज्ञानभाव छे.
अहीं तो आ सिद्धांत छे के परमाणु आदि अजीवनी पर्याय अजीवथी ज थाय छे, जीवथी नहि अने बीजी चीजथीय नहि. आ चोखा पाणीमां चडे छे ने? ते उना-उकळता पाणीथी चडे छे एम कोई कहेतुं होय तो अहीं कहे छे ए बराबर नथी. चोखा, ज्यारे तेनो चडवानो काळ छे त्यारे स्वयं ते-रूपे क्रमबद्ध परिणमी जाय छे. चोखा चडे त्यारे पाणी हो भले; पाणी नथी एम वात नथी, पण पाणी
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तेनी पोतानी सत्तामां रह्युं छे. चोखानी पर्यायनी सत्तामां पाणीनी पर्यायनी सत्ता जती नथी. माटे, पाणीना कर्तापणा विना ज, चोखा पोतानी पर्यायनी योग्यताथी ते काळे चडी जाय छे. पोतानी पर्यायोना क्रममां नियत समये ते चोखानी चडवानी पर्याय उत्पन्न थाय छे, बीजो तेनो कर्ता नथी-पाणीय नहि अने कोई बाई पण नहि. ल्यो, आवी वात छे!
आ तो वीतरागनो मारग बापा! आ तो ज्ञाता-द्रष्टा थवानी रीत प्रभु! कहे छे-जीव द्रव्यनुं अजीव कांई न करे, अने अजीव द्रव्यनुं जीव द्रव्य कांई न करे. अहाहा...! छए द्रव्य क्रमबद्ध एवा पोत-पोताना परिणामोथी उपजे छे. प्रत्येक द्रव्यमां जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ते समये थाय छे. अने ते एनी काळलब्धि छे. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामां छए द्रव्यनी प्रतिसमय थती पर्यायने काळलब्धि कहेल छे. जे समये जे द्रव्यमां जे पर्याय थाय ते तेनी काळलब्धि छे.
जुओ, पाणीमां लीलो रंग नाखीए तो लीली पर्याय थाय, पीळो रंग नाखीए तो पीळी पर्याय थाय अने काळो रंग नाखीए तो काळी पर्याय थाय त्यां पाणीनी ते ते पर्याय जे थवानी होय ते पाणीथी क्रमबद्ध थाय छे; ते पर्याय बीजा पदार्थथी (रंगथी) थाय छे एम नथी.
आप कहो छो-पाणी अग्निथी उनुं थतुं नथी; परंतु विना अग्नि पाणी उनुं थाय नहि एम प्रत्यक्ष देखाय छे ने?
समाधानः– अरे भाई! तुं संयोगथी जुए छे; वस्तुना सहज परिणमन- स्वभावनी द्रष्टिथी जुए तो जणाय के पाणी ज पोते क्रमबद्ध उपजतुं थकुं उष्णपर्यायरूपे थाय छे, तेमां अग्निनुं कांई कार्य नथी. भाई! पाणीमां उनुं थवानी अवस्थानो ते काळ छे तेथी उनुं थयुं छे. ते काळे अग्नि छे खरी, पण अग्नि पोतानी सत्ता छोडी पाणीमां क्य ां प्रवेशे छे? एक सत्ता बीजी सत्तामां जाय ए वस्तुस्वरूप ज नथी. भाई! एक द्रव्यनो बीजा द्रव्यमां अत्यंत अभाव छे अने एक परमाणुनी पर्यायनो बीजा परमाणुनी पर्यायमां अन्योन्य अभाव छे. आ वस्तुस्वरूप छे.
चार प्रकारना अभाव छे ने? १. अत्यंत अभाव २. अन्योन्य अभाव ३. प्राग अभाव ४. प्रध्वंसाभाव एमां अग्नि अने पाणी वच्चे अन्योन्य अभाव छे. तेओ परस्पर प्रवेशतां नथी. भाई! आ वात समजवा खूब धीरज केळववी जोईए.
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जुओ, शास्त्रमां आवे छे के- भगवाननी दिव्यध्वनि गर्जे छे ते बार बार जोजनमां संभळाय छे. मनुष्य, देव अने तिर्यंच-एम त्रण प्रकारना जीवो आ ॐध्वनि सांभळवा समोसरणमां आवे छे. नारकी जीवो आवी शकता नथी. ते भगवाननी वाणी अनक्षरी होय छे अने सौ पोतपोतानी भाषामां समजे छे. अहाहा...! सभामां बेठेलां तिर्यंच पण पोतानी भाषामां समजी जाय के भगवान आम कहे छे. अहा! आ ॐध्वनि पण, अहीं कहे छे, ते काळे ते-रूपे थवायोग्य भाषावर्गणानुं क्रमबद्ध परिणमन छे. भाषावर्गणानो ॐध्वनिरूपे ते काळे परिणमवानो काळ हतो तो ते ॐध्वनिरूपे थाय छे, भगवान तेना कर्ता छे वा भगवानना कारणे ते वाणी नीकळे छे एम नथी. जुओ, अहीं शुं कहे छे? के अजीव पण क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी. भाई! आ तो सिद्धांत छे के अजीव पदार्थ क्रमे पोतानी अवस्थापणे थाय- उपजे तेमां जीवनुं कांई कर्तव्य नथी. कोई बीजी चीजनी असरप्रभावथी ते पदार्थना परिणाम थाय छे एम त्रणकाळमां नथी.
अरे! अज्ञानी जीव तो ज्यां होय त्यां ‘आ में कर्युं, में कर्युं’ -एम परना कर्तापणानुं मिथ्या अभिमान करे छे. एक पदमां कह्युं छे ने के-
“हुं करुं हुं करुं ए ज अज्ञानता, शकटनो भार जेम श्वान ताणे.” कुतरुं गाडा नीचे चालतुं होय अने ठाठुं उपर अडतुं होय एटले कुतरुं माने के गाडुं हुं चलावुं छुं. तेम अज्ञानी जीव दुकानना थडे बेठो होय अने मालनी ले-वेच थाय अने पैसानी लेती-देती थाय त्यां ए जडमां थती क्रिया हुं करुं छुं, ए बधी जडनी अवस्थाओनो कारोबार हुं चलावुं छुं एम ते माने छे. पण ए बधो एनो दुःखदायक भ्रम छे, केमके जडनी क्रियामां चेतननो प्रवेश ज नथी.
कोई डोकटर दर्दीने ईन्जेकशन आपे अने एने रोग मटी जाय. त्यां ते एम माने के में एना रोगने मटाडयो तो ए तेनो भ्रम छे; केमके रोगनी अने निरोगनी अवस्थाए तो शरीरना परमाणु स्वयं क्रमबद्ध उपज्या छे, डोकटर तो शरीरने अडतोय नथी ते शरीरनुं शुं करे? वास्तवमां तो डोकटर इन्जेकशन देय नहि अने शरीरनो रोग मटाडेय नहि. ए तो बधी जडनी अवस्थाओ जडथी ते ते काळे प्रगट थाय छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे.
प्रवचनसारनी १६० मी गाथामां कह्युं छे के-हुं शरीर, मन, वाणी नथी; हुं शरीर, मन, वाणीनुं कारण नथी. तेमनो कर्ता नथी. कारयिता नथी तथा कर्तानो अनुमोदक पण नथी. अहाहा....! शरीर-मन-वाणीनी जे जे क्रियाओ -अवस्थाओ थाय ते मारा (-जीवना) कारणे थाय एम छे नहि. अहा! ते ते जडनी अवस्थाओनो
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हुं कर्ताय नहि, कारयिताय नहि अने कर्तानो अनुमोदक पण नहि- आवुं वस्तुस्वरूप छे. भाई! आ समजे एनुं तो अभिमान उडी जाय एवी वातु छे. शुं थाय? अज्ञानी ज्यां होय त्यां एम माने छे के-अमे आ कर्युं ने ते कर्युं, छोकरां पाळी-पोषीने मोटां कर्यां, भणाव्यां-गणाव्यां अने धंधे लगाव्यां इत्यादि. पण भाई! ए बधी परद्रव्यनी अवस्थाओने कोण करे? ए तो बधी पोतपोताना द्रव्यमां थवा काळे एना पोतानाथी थाय छे. एने हुं करुं एम माने ए तो अज्ञान छे.
आ लोको उपवास करे छे ने? त्यां तेओ एम माने छे के-अमे आहार-पाणी छोडी दीधां. अरे भाई! आहारादिनी ते अवस्था ते समये जे थवानी हती ते एना पोतानाथी थई छे. परद्रव्यनुं ग्रहण-त्याग भगवान! तारामां क्यां छे? आहारादिनी ते काळे आववानी योग्यता न होय तो आहारादि आवतां नथी. अजीवनी अवस्था अजीवथी ज क्रमबद्ध थाय छे. जीव तेमां कांई करतो नथी. भाई! आ तो वीतराग जैन परमेश्वरे ॐध्वनिमां जाहेर करेली वात छे. भगवाननो आ ढंढेरो छे के छए द्रव्य पोतपोताना क्रमबद्ध परिणामोथी उपजता थका स्वतंत्र छे. हवे दाखलो आपी समजावे छेः
‘कारण के जेम (कंकण आदि परिणामोथी उपजता एवा) सुवर्णने कंकण आदि परिणामो साथे तादात्म्य छे तेम सर्व द्रव्योने पोताना परिणामो साथे तादात्म्य छे.’
जुओ, शुं कहे छे? आ कंकण, कडु, सांकळी, वींटी आदि क्रमे थती सुवर्णनी अवस्थाओ छे, ते ते अवस्थाओथी उपजता सुवर्णने ते ते पोतानी अवस्थाओ साथे तादात्म्य छे. पण ते ते अवस्थाओ साथे सोनीने तादात्म्य नथी. शुं कीधुं? सोनी ते ते अवस्थाओथी उपजतो नथी. माटे सुवर्णनी ते ते अवस्थाओनो कर्ता सोनी नथी. ल्यो, आवी वात!
तेम, कहे छे, सर्व द्रव्योने पोतपोताना परिणामो साथे तादात्म्य छे. अर्थात् पोताना परिणामोथी उपजता द्रव्यना ते ते परिणामोनुं कर्ता अन्यद्रव्य नथी, ते द्रव्य पोते ज छे. ए ज विशेष कहे छेः
‘आम जीव पोताना परिणामोथी उपजतो होवा छतां तेने अजीवनी साथे कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी, कारण के सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे;...’
ल्यो, सर्व द्रव्यो माटे आ सिद्धांत छे. शुं? के सर्व द्रव्योने पोताना परिणामो साथे तादात्म्य छे. माटे सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो
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अभाव छे. कोई द्रव्यनुं उत्पादक एटले कारण कोई बीजुं द्रव्य छे एम छे नहि. अर्थात् एक द्रव्यने बीजा द्रव्य साथे कार्यकारणभाव छे एम सिद्ध थतुं नथी.
प्रश्नः– एक गायनो गोवाळ ते पांच गायोनो गोवाळ, तेम जीव ते ते समये पोताना परिणामरूप पोतानुं कार्य करे पण साथे साथे बीजानुं पण करे के नहि? परनी दया पाळे, परनी मदद करे, पैसा-धन कमाय इत्यादि कार्य ते करे के नहि? करे तो एमां शुं हरकत छे?
समाधानः– भाई! केटलाक अज्ञानी जीवो आवुं माने छे पण ते बराबर नथी; केमके जेम पोताना परिणामरूप पोताना कार्यमां तेने तादात्म्य छे तेम परद्रव्यना परिणाममां तेने तादात्म्य नथी. परद्रव्यना परिणाम साथे तादात्म्य विना ते परद्रव्यना परिणामने केवी रीते करे? तेथी तो अहीं कह्युं के सर्वद्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य- उत्पादकभावनो अभाव छे. आवी वात छे भाई!
अहाहा....! भगवान आत्मा अनंतगुणनुं धाम प्रभु अनादि-अनंत ध्रुव चैतन्यतत्त्व छे. भगवान सर्वज्ञदेवे जोयो ने कह्यो एवो आ जीव पदार्थ प्रतिसमय क्रमे थता पोताना परिणामस्वरूपे उपजे छे. अहीं कहे छे-पोताना परिणामोथी उपजता जीवने अजीवनी साथे कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी. आ जड शरीर, मन, वाणीनुं कार्य थाय तेने जीव करे अने तेनुं जीव कारण थाय एम, कहे छे, सिद्ध थतुं नथी. आ हाथ हले, होठ हले, वाणी बोलाय, आंखनी पांपण ऊंची थाय इत्यादि जडनुं कार्य थाय ते जडथी एनाथी थाय, तेने आत्मा करे एम सिद्ध थतुं नथी. केम? कारण के सर्वद्रव्योने अन्यद्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे. भाई! आ प्रत्येक द्रव्यनी-रजकणे-रजकण अने जीव-जीवनी वात छे. हवे जैनमां जन्म्या एनेय खबर न मळे के जैन परमेश्वर शुं कहे छे? एम ने एम आंधळे-बहेरुं कूटे राखे, पण एनुं फळ बहु आकरुं आवशे भाई!
जुओ, निगोदमां अनंत जीव छे. आ लसण ने डुंगळीनी एक कणी लो एमां असंख्य औदारिक शरीर छे. ते दरेक शरीरमां अनंत निगोदना जीव छे. ते दरेक जीव पोताना परिणामपणे उपजतो होवा छतां तेने बीजा जीवना के बीजा द्रव्यना परिणाम साथे कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी. पोताना परिणामने उपजावतो ते जीव बीजा जीवना परिणामने उपजावे एम बनतुं नथी. कारण के सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे.
उत्पाद्य एटले कार्य, अने उत्पादक एटले कारण. बीजुं द्रव्य आत्मानुं उत्पाद्य अर्थात् कार्य ने आत्मा तेनुं उत्पादक अर्थात्
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कारण एम बनी शकतुं नथी. जुओ माटीमांथी घडो थाय छे. त्यां घडो छे ते माटीनुं उत्पाद्य एटले कार्य छे तथा माटी तेनुं उत्पादक एटले कारण छे. परंतु कुंभार घडानो उत्पादक अने घडो कुंभारनुं उत्पाद्य- एम छे नहि.
जुओ, बीजा जीवनी दया पाळवानो आने भाव थयो अने त्यां बीजा जीवनी रक्षा थई. बीजा जीवनी रक्षा अर्थात् एना आयुनुं अने देहनुं टकी रहेवुं थयुं ते कार्य थयुं. अहीं कहे छे-ते कार्यनो कर्ता आ जीव नथी. पर जीवनी रक्षा थई ते आ जीवनुं कार्य अने आ जीव ते कार्यनुं कारण एम छे नहि. बीजाना दयाना भावना कारणे बीजा जीवनी दया पळे एम त्रणकाळमां छे नहि. भाई! आवुं जैन तत्त्व अति गंभीर छे.
भगवान जिनेश्वरदेवे केवळज्ञानमां छ द्रव्य जोयां छे. जाति तरीके छ छेः जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ. तेमां जीव अनंता, पुद्गल अनंतानंत, धर्म, अधर्म, ने आकाश एकेक अने असंख्य कालाणुओ छे. ते सर्व द्रव्योने पोताना सिवायना अन्यद्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अर्थात् कार्य-कारणभावनो अभाव छे. जीव गति करे ते एनुं उत्पाद्य-कार्य छे अने जीव ते कार्यनुं उत्पादक कारण छे; पण धर्मास्तिकाय द्रव्य एनुं कारण थाय एम छे नहि. उत्पाद्य पर अने उत्पादक पर-एम कदी होतुं नथी.
हा, पण जीव गति करे त्यां धर्मास्तिकायने सहायक कहेल छे.
भाई! त्यां सहायक एटले निमित्तमात्र बस. सहायक एटले साथे रहेली बीजी चीज. सहायक एटले परना कार्यनो उत्पादक एम नहि. धर्मास्तिकाय कांई जीवनी गतिनो वास्तविक उत्पादक छे एम नहि. समजाणुं कांई...?
आ वाणी जे बोलाय ते वाणीनुं उत्पाद्य-कार्य छे, वाणी (वचनवर्गणा) तेनो उत्पादक छे, पण हुं बोलुं एवो जीवनो जे राग भाव ते काळे थयो ते तेनो उत्पादक छे ज नहि. परमां कार्य थाय ते उत्पाद्य अने आत्मा तेनो उत्पादक एवुं त्रणकाळमां छे नहि. कार्य-कारण नियमथी अभिन्न होय छे. आ लाकडी आम ऊंची थाय ते उत्पाद्य नाम कार्य छे. ते लाकडीनुं (लाकडीना परमाणुओनुं) कार्य छे, पण आंगळी तेनो कर्ता छे, वा आ जीव तेनो कर्ता छे -एम छे नहि. आवो मारग, अलौकिक भाई!
आ भगवाननी प्रतिमानी अहीं स्थापना थई ते कार्य छे. ते परमाणुनुं उत्पाद्य छे; जोडे तेवा रागवाळो जीव निमित्त छे (निमित्त-परवस्तु छे एनो निषेध नथी), पण ते तेनो उत्पादक छे वा तेनुं कारण थाय छे एम नथी. आ तो महासिद्धांत छे भाई! शरीर अने इन्द्रियोनी चेष्टा जे थाय ते कार्य जडनुं जडथी थाय छे, तेमां अज्ञानीनो जे राग ते कारण छे, उत्पादक छे एम नथी.
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आ शरीर छे ते अनंता रजकणोनो पिंड छे. आ कांई एक चीज नथी; तेमां एक रजकण बीजा रजकणनुं कार्य करे एवुं वस्तुस्वरूप नथी; भगवाने एवुं जोयुं नथी, अने भगवाने एवुं कह्युंय नथी. भाई! वीतराग परमात्माए कहेलुं सत्नुं स्वरूप लोको माने छे एनाथी जुदी जातनुं छे. आ मारगडा जुदा भगवान! प्रत्येक द्रव्यनी जे ते अवस्था जे ते काळे थाय छे ते ते द्रव्यनुं कार्य छे, बीजुं द्रव्य तेनुं कारण वा उत्पादक थाय एम छे ज नहि.
‘सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्’ -आ पाठ छे. छे के नहि?
हा छे, पण नियमसारमां तो काळद्रव्य विना (कोई द्रव्यना) परिणाम न होय एम कह्युं छे.
समाधानः– त्यां तो काळद्रव्यने सिद्ध करवा ए वात करी छे, त्यां कांई द्रव्योनुं परिणमन सिद्ध करवुं नथी. वास्तवमां तो द्रव्यत्वगुणना कारणे प्रत्येक द्रव्यमां निरंतर सहज ज परिणमन थतुं होय छे. परिणमन ए द्रव्यनो सहज स्वभाव छे. तेथी प्रत्येक द्रव्यमां प्रतिसमय जे जे परिणाम थाय ते ते द्रव्यनुं उत्पाद्य छे अने ते द्रव्य ते ते परिणामोनुं उत्पादक छे, पण काळद्रव्य के अन्य द्रव्य ते ते परिणामोनो उत्पादक छे एम छे ज नहि, अन्य द्रव्योना परिणमनमां काळद्रव्य निमित्त हो, नियमरूप निमित्त छे तेथी ‘काळद्रव्य विना परिणाम न होय’ एम त्यां कह्युं छे, पण काळद्रव्य अन्य द्रव्योना परिणामोनुं उत्पादक छे माटे कह्युं छे एम नथी. समजाणुं कांई....?
भाई! आ तो भगवाने जेवुं स्वरूप भाळ्युं तेवुं भाख्युं छे. भाख्युं छे ए तो निमित्तथी कहेवाय, बाकी वाणीनुं कार्य क्यां भगवाननुं छे? ए तो भाषावर्गणाना परमाणुओ, ते काळे भाषारूपे परिणमवानो काळ हतो तो ते-रूपे परिणमी गया छे. भगवान महावीरने केवळज्ञान थयुं, ने वाणी ६६ दिवस सुधी न छूटी. ते वाणी छूटवानो त्यां काळ न हतो माटे वाणी न छूटी. अषाड वदी १ ना दिने वाणी छूटवानो काळ हतो तो त्यारे वाणी छूटी. बापु! आ तो परमाणुओनी अवस्थाओ जे समये जे थवानी होय ते त्यां थाय छे. ते भाषानी पर्यायनो कर्ता वा कारण आत्मा नथी.
बहारथी ईश्वर कर्ता नथी एम माने पण शरीरनी पर्यायनो कर्ता हुं छुं एम माने तो ए तो मूढपणुं छे. जेम ईश्वर कर्ता नथी तेम अंदर आ परमेश्वर प्रभु आत्मा छे ते पण परनी पर्यायनो कर्ता नथी. तेवी रीते कोई पण द्रव्य अन्यद्रव्यनी पर्यायनो कर्ता त्रणकाळमां नथी. प्रत्येक द्रव्यनी ते ते समये थती ते ते पर्याय स्वतंत्र छे अने ते पर्याय ते नियत समये ज थाय छे, बीजा समये नहि एम क्रमबद्धनो
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नियम समजावीने आचार्यदेव अहीं अकर्तापणुं सिद्ध करे छे. शेत्रुंजयना पहाड उपर चढतां एकदम झडपथी पग उपडवानी क्रिया थाय त्यां आ माने के ते माराथी थाय छे तो ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे; केमके आत्माने परद्रव्यनी क्रियानुं कर्तापणुं नथी.
अहा! सत्ने असत् माने ने असत्ने सत् माने तेने आवी वात गळे केम उतरे? अने तेने धर्म क्यांथी थाय?
हा, पण एने आ समजावीए तो? समजावीए? कोण समजावे? जे पोते समजे तेने बीजो शुं समजावे? अने जे पोते न समजे तेने पण बीजो शुं समजावे? भाई! बीजो बीजाने समजावी दे अने समजाववाथी बीजो समजी जाय एवुं वस्तुस्वरूप ज नथी. समज ए अंतरनी चीज छे अने पोते पोताथी समजे तो गुरुए समजाव्युं एम निमित्तथी कहेवामां आवे छे. बापु! वीतराग परमेश्वर तत्त्वने जे रीते कहे छे ते रीते तुं नहि माने तो तने सत् हाथ नहि आवे. गमे तेटला व्रत, तप, भक्ति, जात्रा आदि करे पण ए बधा फोगट छे केमके ए तो बधा एकला रागना ज परिणाम छे. तेमांय वळी परने लईने मने ए भाव थया एम माने ए तो नरी मूढता ने अज्ञान छे.
अज्ञानीने भगवाननी प्रतिमा देखी शुभभाव थाय छे. त्यां एना शुभभावउत्पाद्य अने भगवाननी प्रतिमा एनो उत्पादक एम छे नहि. भाई! तारी थती दशाना कर्तापणे परद्रव्य नथी अने परद्रव्यनी थती दशाना कर्तापणे तुं नथी. तुं तो अकर्ता छो प्रभु! अर्थात् मात्र जाणनारपणे छो. खरेखर परनुं कार्य अने रागनुं कार्य थाय तेनो कर्ता जीव नथी केमके जीव कांई रागस्वरूप नथी, जीव तो एकला ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा शुद्ध एक चैतन्यमात्र वस्तु छे. ते पोतानी निर्मळ चैतन्यनी पर्यायपणे ऊपजे एवो कारण-कार्यभाव अथवा कर्ताकर्मभाव अभेद छे. आत्मा कर्ता अने एना शुद्ध रत्नत्रयना वीतरागी परिणाम एनुं कर्म-एम कारणकार्यभाव अभेद छे. आम जीव पोताना निर्मळ वीतरागी कार्यपणे उपजतो होवा छतां तेने अजीव साथे कार्य-कारणभाव सिद्ध थतो नथी. ल्यो, शुं कीधुं? कर्मना क्षय, उपशम आदि अजीव साथे जीवने कार्य-कारणभाव नथी. पर जीवने मारी शके, जीवाडी शके, दाळ, भात, रोटली- शाक, दवा-दारू, कपडां-लतां इत्यादि पर पदार्थनुं कार्य जीव करे एवो कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी. खेडूत हळ हलावे, मजुर पाकने लणे, वेपारी सोनुं-चांदी, झवेरात इत्यादिनो वेपार करे इत्यादि जडद्रव्यमां नीपजतां जडनां कार्यो जीव करे एवो परद्रव्य साथे जीवने कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी. ल्यो, आवी वात!
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जीव पोताना परिणामनुं कार्य करे अने भेगुं परना परिणाम करवानुं कार्य पण करे एम कोई रीते सिद्ध थतुं नथी.
जीव पोताना परिणामने करे, पण अजीवना नहि. आ रागभाव जे थाय छे ते खरेखर तो अजीव छे. तेथी जीव पोताना ज्ञाताभावे परिणमे-उपजे ए तो ईष्ट ज छे. परंतु शुभाशुभ परिणामे उपजे ते कांई एनुं स्वरूप नथी. कळशटीकामां कळश १०८ मां पं. श्री राजमलजीए कह्युं छेः- “अहीं कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवायोग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी. उत्तर आम छे के- वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं दुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषय-कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.”
तो शुं समकितीने के मुनिराजने शुभभाव होतो ज नथी? होय छे ने, समकिती ने मुनिराजनेय शुभभाव होय छे, पण ए छे दुष्ट, अनिष्ट अने घातक; केमके ते स्वभावनी निराकुळ शांतिनो घात करे छे. भाई! शुभराग होय ए जुदी वात छे अने एने हितनुं कारण जाणी कर्तव्य माने ए जुदी वात छे. प्रथम अवस्थामां के साधकनी दशामां पुण्यभावनो क्षय सर्वथा भले न थाय, पण ए भाव क्षय करवालायक छे एवी द्रष्टि तो चोथे गुणस्थानेथी ज एने होय छे. एनो क्षय तो शुद्धोपयोग पूर्ण थाय त्यारे थाय छे, पण ए क्षय करवालायक छे एवुं श्रद्धान तो समकिती धर्मात्माने पहेलेथी ज निरंतर होय छे.
अज्ञानीने एकांते कर्मधारा होय छे, भगवान केवळीने एकली ज्ञानधारा छे; ज्यारे साधकने बेउ धारा साथे होय छे. निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ज्ञानधारा अने शुभाशुभभावना परिणामरूप कर्मधारा-एम ए बन्ने ज्ञानीने साथे होय छे. पण त्यां कर्मधारा छे ते बंधनुं ज कारण छे अने ज्ञानधारा ज एक अबंधनुं कारण छे. तेथी तो कह्युं के-क्रियारूप चारित्र विषय-कषायनी माफक निषिध छे. चारित्रभावमां अंशे अशुद्धता भले हो, पण द्रष्टिमां-श्रद्धानमां तो तेनो निषेध ज छे. द्रष्टिमां शुभभावने आदरवा लायक माने तो ए तो मिथ्याद्रष्टि ज छे.
अरे! एने कया पंथे जवुं एनी खबर नथी! पुण्य भलुं एम मानी ते अनंतकाळथी पुण्यना पंथे पडयो छे. पण बापु! ए तो संसारनो-दुःखनो पंथ छे. भाई! धर्मीने अशुभथी बचवा शुभना-पुण्यना भाव आवे छे पण तेने धर्मी पुरुष कांई भला के आदरणीय मानता नथी, पण अनर्थनुं मूळ जाणी हेयरूप ज माने छे. पंचास्तिकायमां पुण्यभावने पण अनर्थनुं ज कारण कह्युं छे.
शास्त्रमां एवां कथन आवे के पहेलुं पाप टळीने पछी पुण्य टळे. पण ए तो
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चारित्रनी अपेक्षाए एना क्रमनी वात करी छे. परंतु द्रष्टिमां तो पुण्य-पापना भाव एकसमानपणे ज होय छे केमके बन्नेय बंधननां ज कारण छे.
-पुण्य-पापना भाव बन्ने विभावभाव छे, चंडालणीना पुत्र छे. -ते बन्ने आस्रव अने बंध तत्त्व छे. -ते बन्ने भाव जड पुद्गलमय छे अने एनुं फळ पण पुद्गल छे. माटे बन्ने हेय छे, आदरणीय नथी-एवुं श्रद्धान ज वास्तविक श्रद्धान छे.
अहीं कहे छे-जीवनो एक ज्ञानानंदस्वभाव छे. ते पोताना स्वभावनी पर्यायपणे उपजे ए तो बराबर छे, परंतु रागना परिणामे उपजे वा रागना परिणामनुं ते कारण थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. ए तो पछी कळशमां कहेशे के आ बंध थाय छे ते कोई अज्ञाननो महिमा छे. अहा! एने निजस्वरूपनी खबर नथी माटे अज्ञानथी बंध थाय छे, बाकी कांई ज्ञानस्वभाव छे ते बंधनुं कारण नथी.
अहाहा...! पोते अंदर शुद्ध एक चैतन्यना प्रकाशस्वरूप प्रभु छे; एकला ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी भरेलो पोते भगवान छे, तेने उपादेय मानीने तेनां द्रष्टि ने अनुभव जेणे कर्यां ते जीव कल्याणना पंथे छे. भले एने हजु कांईक राग होय, पण तेने ए (पोतानी) कांई चीज नथी. पोताने इष्ट एवा शुद्धोपयोगपणे उपज्यो तेने शुभाशुभ (पोताना) कांई नथी. एमां (शुभाशुभमां) हेयबुद्धि छे ने! तेथी धर्मी पुरुषने एनुं स्वामित्व होतुं नथी.
अरे भाई! जरा विचार कर! क्षणमां आंखो मिंचाई जशे; अने तुं क्यांय चाल्यो जईश प्रभु! आ बधा अहीं तने अभिनंदन आपे छे ने? बापु! ए तने कांई काम नहि आवे. पुण्यना योगथी कदाचित् पांच-पचास लाखनो संयोग मळी जाय तो एय काम नहि आवे. जे क्षणमां छूटी जाय ते शुं काम आवे? अंदर शाश्वत महान चैतन्यदेव विराजे छे तेनां द्रष्टि ने अनुभव वर्तमान न कर्यां तो बापु! तुं क्यां जईश? त्यां तने कोण शरण? भाई! आ बधुं तुं पोते ज तारा हित माटे विचार; अत्यारे आ अवसर छे.
अहाहा..! कहे छे-सर्व द्रव्योने अन्यद्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे. भाई! आ तो त्रणलोक त्रणकाळना सर्व अनंता पदार्थोना कारणकार्यनुं स्वरूप थोडा शब्दोमां बताव्युं छे. आ लोकोने अनाज औषध अने कपडां अमे आप्यां ने अमे खूब देश सेवा करी-एम लोको कहे छे ने! धूळेय सेवा करी नथी सांभळने. ए अन्यद्रव्यनां काम तुं केम करे? वळी आणे जैनधर्मनी खूब सेवा करी एम कहे छे ने! परंतु जैनधर्मनी सेवा एटले शुं? अहाहा...! शुद्ध एक ज्ञायक-
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भावना आश्रये निर्मळ रत्नत्रयना परिणाम प्रगट करे, एक शुद्धोपयोगरूप परिणमे ए जैनधर्मनी सेवा छे. बाकी दया, दान ने बहारनी प्रभावनानां कामोमां रोकाई रहे ते कांई जैनधर्मनी सेवा नथी. अहाहा...! दया, दान आदि विकल्प उत्पाद-कार्य अने तेनो तुं उत्पादक एवुं वास्तविक कार्य-कारणनुं स्वरूपनुं नथी. जड अचेतन विकल्पोना कार्यनो चेतनद्रव्य कर्ता थाय एवो कार्यकारणभाव बनी शकतो नथी.
समयसार कळशटीका कळश १०६ मां कह्युं छे के- “शुद्ध वस्तुमात्र, तेनी स्वरूपनिष्पत्ति, तेनाथी जे स्वरूपाचरणचारित्र ते ज, ते ज मोक्षमार्ग छे; आ वातमां संदेह नथी.” त्यां स्वरूपाचरणचारित्र संबंधी विशेष वात करीने छेल्ले कह्युं छे के-“त्रणे काळे आवुं छे जे शुद्ध चेतनापरिणमनरूप स्वरूपाचरणचारित्र ते आत्मद्रव्यनुं निजस्वरूप छे. शुभाशुभ क्रियानी माफक उपाधिरूप नथी, तेथी एक जीवद्रव्यस्वरूप छे.” जुओ आ स्वरूपाचरण चारित्र! निजानंदरसमां लीन रही तेमां ज रमवुं ते स्वरूपाचरण छे. आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि रागनुं थवुं ए कांई स्वरूपाचरण नथी; केमके ते जीव द्रव्यस्वरूप नथी, अन्य द्रव्यस्वरूप छे. ल्यो, आ प्रमाणे जीवद्रव्यने अन्यद्रव्यस्वरूप जे राग तेनी साथे कार्य-कारणभाव सिद्ध थतो नथी. आवी वात छे.
हवे कहे छे- ‘ते (कार्यकारणभाव) नहि सिद्ध थतां, अजीवने जीवनुं कर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी;..’
शुं कीधुं? आ शरीरनी हालवा-चालवानी क्रिया थाय तेने जीव करे ए वात सिद्ध थती नथी.
आ मोटा डुंगरा तोडीने तेमां रेलवे काढे ए कार्य तो जीवे कर्युं के नहि? तो कहे- ना; ते कार्य जीवे कर्युं एम सिद्ध थतुं नथी. भाई! तुं धीरो था बापु! तारुं तो ज्ञानस्वरूप छे ने प्रभु! ते ज्ञान परनुं शुं करे? जेम आंख परनुं कांई न करे तेम जीव परनुं कांई न करे. आ वात गाथा ३२० मां हवे पछी आवशे. आंख तो परने जुए, परने देखे. तेम ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा परनी-जडनी ने रागनी जे क्रिया थाय तेने जाणे, पण तेनुं शुं करे? कांई ज न करे. अरे! आ जीव क्षणेक्षणे मरणनी समीप धसी रह्यो छे पण एने पोतानुं सत्य स्वरूप समजवानी दरकार नथी.
अजीवने जीवनुं कर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी. एटले शुं? के अजीवनुं कार्य जीवनुं छे एम सिद्ध थतुं नथी. ज्ञानावरणादि कर्म जे बंधाय ते कार्य जीवनुं छे एम सिद्ध थतुं नथी. अरे! आ पुण्य ने पापना भाव, दया, दान ने व्रत आदिना विकल्प जे थाय छे ते निश्चयथी जीवनुं कर्म-कार्य छे एम सिद्ध थतुं नथी; केमके
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विकारी परिणाममां चैतन्यनो अभाव छे. निश्चयथी ते विकारी परिणाम अरूपी अचेतन छे. शरीर, मन, वाणी रूपी अचेतन छे अने विकारी परिणाम अरूपी अचेतन छे, छे बन्ने अचेतन-अजीव. शुं थाय? मार्ग तो आवो छे भाई!
अहा! काया अने कषाय पोतानी चीज छे एम मानीने भगवान! तुं महाव्रतादि पाळे पण ए तो बधो मिथ्याभाव छे बापु! ए महाव्रतादिना परिणाम अचेतन छे अने तेने, अहीं कहे छे, जीवनुं कर्मपणुं (जीवनुं कार्य होवापणुं) सिद्ध थतुं नथी. जेम बीजा जीव अने अजीव पदार्थो जे छे तेना कार्यनुं कारण आ जीव नथी तेम अचेतन रागादि परिणामनुं आ जीव कारण नाम कर्ता नथी. हवे आवी वात बिचाराने सांभळवाय मळे नहि ए शुं करे? मांड वात बहार आवी ने सांभळवा मळी त्यां आ ‘एकान्त छे एकान्त छे’ - एम कहीने वातने उडाडी दे छे पण भाई! एकवार फुरसद लईने धीरजथी सांभळ तो खरो के आ शुं कहेवाय छे? भाई! एम ने एम (समज्या विना) तुं खोटा तर्क करी वातने उडाडी दे छे पण तेमां तने भारे नुकशान छे. भाई! कदाच लौकिकमां तारी प्रशंसा थशे (केमके लोको तो अवळे मार्गे छे ज) पण तेमां तने शुं लाभ छे? जो ने प्रभु! अहीं आ चोकखुं तो कहे छे के-अजीवने जीवनुं कर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी.
हवे कहे छे- ‘अने ते (-अजीवने जीवनुं कर्मपणुं) नहि सिद्ध थतां, कर्ता-कर्मनी अन्यनिरपेक्षपणे (-अन्यद्रव्यथी निरपेक्षपणे, स्वद्रव्यमां ज) सिद्धि होवाथी, जीवने अजीवनुं कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी, माटे जीव अकर्ता ठरे छे.’
शुं कीधुं? के आ शरीर अने कर्म इत्यादि अजीवनी पर्यायने जीव करे एम साबीत थतुं नथी; केमके ते ते परमाणुओ पोते ज शरीरादिनी पर्यायपणे परिणमे छे. वास्तवमां कर्ता-कर्मनी अन्यद्रव्यथी निरपेक्ष स्वद्रव्यमां ज सिद्धि छे. अहाहा.....! प्रत्येक द्रव्य अन्यद्रव्यनी सहाय-अपेक्षा विना ज पोताना परिणामने करे छे एवी वस्तुस्थिति होवाथी जीवने अजीवनुं कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी. माटे जीव अकर्ता नाम ज्ञाता-द्रष्टा ज ठरे छे.
प्रश्नः– भगवान श्री महावीरने केवळज्ञान थया पछी छासठ दिवस पछी ॐध्वनि छूटी; ते गौतम गणधर सभामां पधार्या त्यारे छूटी एम बराबर छे के नहि?
समाधानः– भाई! वाणी- ॐध्वनि छूटी ते वचनवर्गणानुं कार्य छे. ते कार्यनो कर्ता वचनवर्गणाना परमाणुओ छे. तेमां भगवान गौतम गणधरनुं शुं काम छे? वचनवर्गणा पोताना काळे वाणीरूपे परिणमी तेमां गौतम गणधरनी कोई
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अपेक्षा नथी. गौतम गणधरनी उपस्थिति होवी अने वाणीनुं छूटवुं ए बन्नेने समकाळ होवा छतां वाणी छूटी तेने गौतम गणधरनी कोई अपेक्षा नथी.
भाई! आ तो सिद्ध थयेली वात छे के चौद ब्रह्मांडना अनंत तत्त्वोने -प्रत्येकने पोतानी क्रमबद्ध पर्यायना कार्यकाळमां बीजी चीजनी अपेक्षा नथी. शुं कीधुं? बीजी चीज होती नथी एम नहि, पण बीजी चीजनी अपेक्षा नथी; अर्थात् बीजी चीज छे माटे एमां कार्य थयुं छे एम नथी. गौतम गणधर पधार्या माटे वाणी छूटी एम नथी. अहो! क्रमबद्धनी आ वात करीने आचार्यदेवे आत्मानो अकर्तास्वभाव सिद्ध कर्यो छे. अहा! छए द्रव्योमां जे जे कार्य थाय तेनो आत्मा अकर्ता अर्थात् मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे.
परमाणु-परमाणुनी अने प्रत्येक जीवनी तेनो स्वकाळे जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय. ते ते पर्यायनो कोई बीजो कर्ता नथी अने तेमां कोई बीजानी अपेक्षा नथी. अहा! आवुं अन्यद्रव्यथी निरपेक्ष कर्ताकर्मनुं स्वरूप होवाथी जीवने अजीवनुं कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी.
तत्त्वार्थराजवार्तिकमां कार्यनां बे कारणनी वात आवे छे; पण ए तो त्यां कार्य थाय त्यारे बीजी चीज निमित्त होय छे एनुं ज्ञान कराववा माटे वात छे. जुओ, भगवाननी वाणी सांभळीने कोई जीवे स्व-आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं. त्यां स्वद्रव्यनो आश्रय लीधो ते कारण छे अने सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं ते कार्य छे. आ प्रमाणे कर्ता-कर्म छे अने भगवाननी वाणी तो तेमां बाह्य निमित्तमात्र छे. सम्यग्दर्शन थयुं ते वाणीनुं कार्य नहि तथा वाणीना कारणे ते कार्य थयुं छे एमेय नहि. अहा! आमां केटकेटला न्याय आप्या छे!
-अजीवनुं कार्य थाय तेनो कर्ता जीव नहि.
-जीवनुं कार्य थाय तेनो कर्ता अजीव नहि. अने
प्रत्येक द्रव्यना कार्यमां अन्य द्रव्यनी अपेक्षा नहि. गजब वात छे भाई! आ तो प्रत्येक द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय स्वकाळे परद्रव्यथी निरपेक्ष (-स्वापेक्ष) प्रगट थाय छे-एम वात छे.
शास्त्रमां आवे छे के वज्रवृषभनाराय संहनन होय अने मनुष्य गति होय एने केवळज्ञान थाय छे. पण ए तो बहारमां निमित्तनुं ज्ञान कराववा पूरती वात छे. बाकी वज्रवृषभनाराच संहनन के मनुष्य गति ए कांई केवळज्ञाननुं कारण नथी. केवळज्ञान थवानुं कारण तो तद्रूपे परिणमेलो जीव पोते छे अने केवळज्ञान तेनुं कार्य छे, अरे! संहनन आदि तो दूर रहो, केवळज्ञान प्रगट थाय तेमां पूर्वनी
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चार ज्ञाननी पर्यायनीय अपेक्षा नथी. वास्तवमां केवळज्ञान प्रगट थवानो क्रमबद्धमां जे काळ छे ते काळे केवळज्ञाननी पर्याय सहज ज स्वतः प्रगट थाय छे.
अहा! दरेक जड अने चेतन वस्तुमां प्रत्येक समये तेना क्रमबद्ध जे जे परिणाम थाय तेने कोई पर वस्तुनी-निमित्तनी अपेक्षा नथी. एनी पर्यायना कार्यकाळे निमित्त हो भले, पण तेने निमित्तनी अपेक्षा नथी; अर्थात् निमित्तना कारणे ते कार्य निपज्युं छे एम नथी. अहा! आत्मा-जीव पदार्थ क्रमबद्ध जे पोतानुं कार्य थाय तेने निपजाववा ते पुरुषार्थवाळो छे, शक्तिवान छे पण ते परनुं कांई कार्य करवा छेक पंगु छे, असमर्थ छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे अने आवो निर्णय करवो एनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे.
द्रव्यमां गुणो सहवर्ती छे. अनंता गुणो द्रव्यमां एक साथे रहेला छे. पर्याय पण आयत एटले लंबाईरूपे-प्रवाहरूपे एक साथे छे. एटले शुं? के द्रव्यनी पर्यायो एक पछी एक दोडती प्रवाहमां प्रगट थाय छे. परंतु द्रव्यनी जे समये जे पर्याय थवानी होय ते समये ते ज प्रगट थाय छे. द्रव्यमां पर्यायनी आवी प्रवाहधारा क्रमनियमित चाले छे, जेम जमणा पछी डाबो ने डाबा पछी जमणो पग चाले छे तेम. पंचाध्यायीमां आने क्रम-पद कहेल छे. भक्तामरस्तोत्रमां पण आवे छे के-प्रभु! आपना चरण क्रमसर एक पछी एक चाले छे. स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षामां द्रव्यनी जे समये जे पर्याय प्रगट थाय तेने एनी काळलब्धि कही छे. छए द्रव्यमां काळलब्धि छे एम त्यां कह्युं छे. प्रवचनसारमां (गाथा-१०२ मां) तेने ज ते ते पर्यायनी जन्मक्षण-उत्पत्तिक्षण कही छे. आवी ज वस्तुस्थिति छे.
भगवान सर्वज्ञदेवे केवळज्ञानमां त्रणकाळ त्रणलोक एकीसाथे जोया छे. जड अने चेतन-एम छए द्रव्यनी जे जे पर्यायो थई गई, वर्तमान थाय छे अने भविष्यमां जे जे थवानी छे ते बधी पर्यायोने केवळज्ञान वर्तमान प्रत्यक्ष जाणे छे. शुं कीधुं? जे पर्यायो प्रगट थई नथी अने हवे पछी थशे ते पर्यायोने पण केवळज्ञान वर्तमानमां प्रत्यक्ष जाणे छे. जाणे ज छे बस; पण ज्ञान ते ते पर्यायोनुं कर्ता नथी. ते ते पर्यायोनुं कर्ता तो ते ते द्रव्य छे. अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. जाणवुं-जाणवुं-जाणवुं-ए एनुं स्वरूप छे; पण परनुं करवुं के तेनुं आघुं-पाछुं करवुं-ए एना स्वरूपमां ज नथी. ज्यां प्रत्येक द्रव्य पोताना क्रमनियमित परिणामोथी प्रतिसमय उपजे छे त्यां आत्मा-जीव तेनुं शुं करे? कांई ना करे. (बस जाणे ज)
अहीं परद्रव्यथी भिन्न पोते (-आत्मा) पोताना परिणामनो कर्ता छे, पण परनो अकर्ता छे एम बताववुं छे. पर्यायनो कर्ता पर्याय छे, पर्यायनो कर्ता द्रव्य नथी ए वात अहीं नथी लेवी. पंचास्तिकाय, गाथा-६२ मां ए वात करी छे. त्यां
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पर्यायनुं कर्ता द्रव्य नथी, पण पर्याय कर्ता, पर्याय कर्म, पर्याय करण, पर्याय संप्रदान, पर्याय अपादान अने पर्याय अधिकरण-आम पर्याय पोते पोताना षट्कारकथी परिणमे छे एम कह्युं छे. त्यां ए वात बीजी छे. अहीं तो पोताना परिणामोथी उपजतुं थकुं द्रव्य पोते ज तेमां तन्मयपणे छे. अन्यद्रव्य नहि. माटे द्रव्य पोते पोताना परिणामोनुं कर्ता छे, अन्यद्रव्य तेनो कर्ता नथी.
सूक्ष्म वात छे प्रभु! जीवद्रव्यनी ज्ञानगुणनी एक समयनी पर्याय (-केवळज्ञान) छ द्रव्यने जाणे छे, स्वद्रव्यने पण जाणे छे. अहा! त्यां स्वद्रव्यमां जेम तद्रूप छे तेम ते अन्यद्रव्यमां तद्रूप नथी. ते पर्याय छ द्रव्य साथे एकमेक नथी. छ द्रव्य ते पर्यायमां आवता नथी. अहा! छ द्रव्यना त्रिकाळी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूपनुं ज्ञान तेमां थयुं छे पण छ द्रव्य तेमां आवतां नथी, अने ते पर्याय छ द्रव्यमां तद्रूप नथी. माटे छ द्रव्योनी पर्यायोनो कर्ता ज्ञान नथी, आत्मा नथी. आत्मा पोताना ज्ञान-परिणामनो कर्ता छे, पण परद्रव्यनो कर्ता नथी, अकर्ता छे. आवी वात छे.
अहाहा...! प्रत्येक द्रव्य-प्रत्येक आत्मा अने प्रत्येक परमाणु पोताना क्रमनियमित उपजता परिणामोथी ते काळे तद्रूप छे, तादात्म्यरूप छे; अने परथी पृथक् छे. जीवना परिणाममां जीव तद्रूप छे अने ते अजीवथी पृथक छे. तेम अजीवना परिणाममां अजीव तद्रूप छे अने जीवथी ते पृथक् छे. आ प्रमाणे जीव पोताना परिणामोनो कर्ता छे, पण परनो-अजीवनो अकर्ता छे. अने तेथी ज जगतनां अनंत द्रव्यो अनंतपणे त्रणे काळ रहे छे. भाई! जीव पोताना परिणामनेय करे अने परनेय करे एवुं पदार्थोनुं स्वरूप ज नथी. तेथी जीव परनो अकर्ता ठरे छे. आवी वात छे.
‘सर्व द्रव्योना परिणाम जुदा जुदा छे. पोतपोताना परिणामोना, सौ द्रव्यो कर्ता छे; तेओ ते परिणामोना कर्ता छे. ते परिणामो तेमनां कर्म छे. निश्चयथी कोईनो कोईनी साथे कर्ताकर्मसंबंध नथी.’
शुं कहे छे? के प्रत्येक आत्मा अने प्रत्येक परमाणुना समयसमये थता परिणाम भिन्नभिन्न छे अने ते परिणामना कर्ता ते ते द्रव्य पोते ज छे अने ते परिणाम ते ते द्रव्यनुं कर्म छे. अन्यद्रव्य कर्ता अने अन्यद्रव्यनुं परिणामकर्म-एम कर्ताकर्म-संबंध छे नहि. बापु! आ तो वीतराग जैन परमेश्वरनी वाणीमां आवेली वात छे.
एक बाजु तुं लोकमां अनंत द्रव्य माने अने वळी एक द्रव्यने बीजा द्रव्यनो
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कर्तापण माने तो ए तो विरुद्ध मान्यता थई गई; केमके एक द्रव्य अन्यद्रव्यनुं कर्ता थाय तो बन्ने मळीने एक थई जाय अने तो अनंत द्रव्य स्वतंत्र रहेशे नहि. शुं कीधुं? एक द्रव्य परद्रव्यनुं करे अने वळी ते अन्यद्रव्यनुं करे-जो एम थाय तो बधां अनंतद्रव्यो भिन्न नहि रही शके, एक थई जशे. (पण एम बनतुं नथी). माटे निश्चयथी कोई द्रव्यने कोई अन्यद्रव्य साथे कर्ताकर्मसंबंध छे ज नहि. कुंभारे घडो कर्यो एम व्यवहारथी कहेवाय ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे, बाकी कुंभार घडानो कर्ता नथी, घडो कुंभारनुं कर्म नथी ए निश्चयार्थ छे तेम एक द्रव्यने निश्चयथी अन्यद्रव्य साथे कर्ताकर्मसंबंध नथी. हवे कहे छेः-
‘माटे जीव पोताना परिणामनो ज कर्ता छे, पोताना परिणाम कर्म छे. एवी ज रीते अजीव पोताना परिणामनुं ज कर्ता छे, पोताना परिणाम कर्म छे. आ रीते जीव बीजाना परिणामोनो अकर्ता छे.’
अहाहा....! भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप छे. अहा! आवा निजस्वरूपने जेणे जाण्युं-अनुभव्युं ते जीवने पर्यायमां किंचित् राग थाय छे तेने ते मात्र जाणे छे. त्यां जे ज्ञाननी पर्याय रागने जाणे छे ते ज्ञान ज तेनुं (-आत्मानुं) कर्म छे अने आत्मा ते ज्ञाननो कर्ता छे, पण राग एनुं कर्म अने आत्मा रागनो कर्ता एम छे नहि. ज्ञान रागने जाणे छे ए पण व्यवहारथी वात छे. वास्तवमां ज्ञान कर्ता अने राग एनुं कर्म एम छे नहि. तथा राग कर्ता अने ज्ञान एनुं कर्म एम पण छे नहि. ल्यो, आ राग (शुभभाव, पुण्यभाव) करतां करतां ज्ञान थई जशे एम लोको माने छे ने? अहीं कहे छे-ए तद्न विपरीत वात छे, जूठी मान्यता छे.
४७ शक्तिओमां एक अकार्यकारणत्व शक्ति कही छे. जेम ज्ञान, आनंद आदि आत्मानी शक्तिओ छे तेम आत्मामां एक अकार्यकारणत्व शक्ति छे. आ शक्तिनुं कार्य शुं? तो कहे छे-आत्मा रागनुं कार्य पण नहि अने आत्मा रागनुं कारणेय नहि-आवुं अकार्यकारणत्वशक्तिनुं कार्य छे.
लोकोने लागे के आमां तो सर्व व्यवहारनो निषेध-लोप थई जाय छे.
अरे भाई! दान, पूजा, भक्ति इत्यादिना भाव तने गृहस्थदशामां आवे पण ते जीवना स्वरूपभूत क्यां छे? नथी. माटे जीव एनो कर्ता नथी, अकर्ता छे, ज्ञाता छे. बहारनां कार्यो आ मंदिरादि बने ए तो जड पुद्गलमां एना थवा काळे एनाथी थाय छे. तेने कोण करे? शुं जीव करे? जडनी क्रियाने ते केम करे? अहा! बहारनां जडनां काम तो ते न करे, पण शुभाशुभ रागनां कर्मनो पण ए कर्ता नथी. वीतरागनो आवो मारग छे बापा!
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अहाहा....! भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप प्रभु- एनी द्रष्टि थतां ते परनो अने रागनो कर्ता थतो नथी. अकर्ता रहे छे. ज्ञातापणे रहे छे अने एनुं नाम जैनधर्म छे. समजाणुं कांई...?
‘आ रीते जीव अकर्ता छे तोपण तेने बंध थाय छे ए कोई अज्ञाननो महिमा छे’ - एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘स्वरसतः विशुद्धः’ जे निजरसथी विशुद्ध छे, अने ‘स्फूरत्–चित्–ज्योतिर्भिः छुरित–भुवन–आभोग–भवनः’ स्फुरायमान थती जेनी चैतन्यज्योतिओ वडे लोकनो समस्त विस्तार व्याप्त थई जाय छे एवो जेनो स्वभाव छे, ‘अयं जीवः’ एवो आ जीव ‘ईति’ पूर्वोक्त रीते (परद्रव्य अने परभावोनो) ‘अकर्ता स्थितः’ अकर्ता ठर्यो......
शुं कीधुं? के आत्मा पोते निजरसथी एटले सहज ज्ञानानंदरसथी विशुद्ध नाम पवित्र छे, निर्मळ छे. अहाहा...! पोतानी शक्तिथी-स्वभावथी ज आत्मा निर्मळानंद प्रभु पवित्र छे. एटले शुं? के ज्ञान अने आनंदपणे थाय एवो एनो स्वभाव छे पण रागना के परना कर्तापणे थाय एवो एनो स्वभाव ज नथी. ल्यो, आवी सूक्ष्म वात छे.
जीव चार गति अने चोरासी लाख योनिमां अनंतकाळथी परिभ्रमण करीने दुःखी दुःखी थई रह्यो छे. अहा! एना दुःखनुं शुं कहेवुं? अहीं कहे छे-ते दुःख जीवनो स्वभाव नथी. दुःखना भावे थवुं ए एनो स्वभाव नथी.
आ शरीर, कर्म वगेरे तो जड माटी-धूळ छे; अंदर पुण्य-पापना जे विकल्प उत्पन्न थाय छे ते राग छे, ते शुद्ध अंतःतत्त्वथी भिन्न छे. भाई! नवे तत्त्व भिन्न भिन्न छे. अजीव तत्त्व अजीवपणे छे, पुण्य तत्त्व पुण्यपणे छे ने पाप तत्त्व पापपणे छे; तथा भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकभावपणे छे. अहाहा....! भगवान आत्मा आनंद- अमृतनुं वास्तु प्रभु निजरसथी विशुद्ध छे, पवित्र छे. अहाहा..!
वहाॉं है अमीका वासा,
सुगुरा होय सो भर भर पीए
नगुरा जावै प्यासा... .... .... संतो.... .... ....
अहाहा...! लोकाकाशमां आकाशथी भिन्न भगवान आत्मा अंदर एकला अमृतनो वास छे. कोई सुगुरा जीव तो अंतरमां स्वस्वरूपना भावनुं भासन करी,
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शेरडीनो रस पीतो होय तेम, निज आनंद-अमृतने घूंट भरी भरीने पीए छे. अरे! पण बीजा (नगुरा) तो प्यासा ज रही जाय छे.
जुओ, आ आत्मा स्वभावथी अकर्ता होवा छतां ते कर्ता केम थाय छे एनी आ वात चाले छे. शुं कहे छे? के आत्मा निजरसथी एटले के स्वस्वभावथी रागादिरहित निर्मळ छे. केवो छे स्वभाव? तो कहे छे-स्फुरायमान थती जेनी चैतन्यज्योतिओ वडे लोकनो समस्त विस्तार व्याप्त थई जाय छे एवो जेनो स्वभाव छे.
अहाहा...! त्रणकाळ त्रणलोकमां जे अनंता द्रव्य-गुण-पर्याय छे ते ते समस्त क्षणमात्रमां जाणवानी शक्तिवाळो-स्वभाववाळो प्रभु आत्मा छे. अहीं अकर्तास्वभावनी सिद्धि करे छे ने! कहे छे-आखो लोकालोक (स्व ने पर) जेमां जाणवामां आवे छे एवो भगवान आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; परंतु लोकालोकनी कोई चीजने करे वा रागने करे एवो एनो स्वभाव नथी. अहाहा...! आवी स्वपरप्रकाशक चैतन्यप्रकाशनी अति उज्ज्वल विशुद्ध ज्योति भगवान आत्मा छे.
त्यारे कोई कहे छे- अमने आत्मा जाणवामां आवतो नथी. तेने पूछीए छीए के-भाई! आत्मा जाणवामां आवतो नथी एवो निर्णय तें क्यां ऊभा रहीने कर्यो? स्वभावमां के विभावमां? आत्मानो चैतन्यस्वभाव तो प्रभु! आवो छे के स्फुरायमान थती ज्ञाननी ज्योतिओ वडे आखा लोकालोकमां व्यापी जाय. अहाहा...! स्व-पर समस्तने जाणवानुं भवन-परिणमन थाय एवो एनो स्वभाव छे. पण बापु! तुं परना कर्तृत्वमां अने रागना कर्तृत्वमां ऊभो छे तो तने आत्मा केम जणाय? न जणाय; केमके परनुं कांई करवुं के रागनुं करवुं ए एनो स्वभाव ज नथी. समजाय छे कांई..? भाई! आ तो न्यायथी-लोजीकथी वात छे. जेवी चीज छे तेवी तेने जाणवा प्रति ज्ञानने दोरी जवुं एनुं नाम न्याय छे.
कोईने थाय के आ तो आत्मानी एकनी एक वात फरीफरीने कहे छे. पण बापु! आ तो कदी नहि सांभळेली अध्यात्मतत्त्वनी वात भाई! तेमां पुनरूक्ति कांई दोष नथी. अहीं कहे छे-आ रीते शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय अने अन्य जीव इत्यादि परद्रव्य अने दया, दान, भक्ति, तथा हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील इत्यादि परभावो-ए बधायनो आत्मा अकर्ता सिद्ध थयो; कारण के भगवान आत्मा सर्वने जाणवाथी व्याप्त थयो छे, पण सर्वने करवाथी व्याप्त थाय एवो एनो स्वभाव नथी. भाई जरा धीरज केळवीने शांतिथी आ वात समजवी, केमके आ तो अंतःतत्त्व जे सर्वज्ञ परमेश्वरे जाण्युं अने कह्युं ते तने कहेवाय छे.
अहा! प्रभु! तुं कोण छो? तो कहे छे-निजरसथी निर्मळ ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावी
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प्रभु आत्मा छो. पण अरे! सर्व लोकालोकने जाणवाना स्वभाववाळो पोते पोताना अपराधथी ढंकायेलो मालुम पडे छे.
समयसार गाथा १६० नी टीकामां कह्युं छे के-“ जे पोते ज ज्ञान होवाने लीधे विश्वने (-सर्व पदार्थोने) सामान्य-विशेषपणे जाणवाना स्वभाववाळुं छे एवुं ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादि काळथी पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता एवा कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं-होवाथी ज, बंध-अवस्थामां सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने अर्थात् सर्व प्रकारे सर्व ज्ञेयोने जाणनारा एवा पोताने नहि जाणतुं थकुं, आ प्रमाणे प्रत्यक्ष अज्ञानभावे (-अज्ञानदशामां) वर्ते छे; तेथी ए नक्की थयुं के कर्म पोते ज बंधस्वरूप छे. माटे, पोते बंधस्वरूप होवाथी कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.”
अरे भाई! जैनदर्शननी आवी अलौकिक वात तने सांभळवा मळी तो एक वार सांभळ! नाथ! तारी चीज अंदर केवी छे ते एकवार सांभळ! कहे छे-भगवान आत्मा अंदर निजरसथी स्फुरायमान चैतन्यज्योतिना विस्तारथी आखा लोकालोकने जाणे एवो एनो स्वभाव छे. अहाहा...! बस जाणे एवो एनो स्वभाव छे, पण लोकनी कोई चीजनुं-राग, रजकण के शरीरादिनुं कांई करे एवो एनो स्वभाव नथी. आ प्रमाणे जीव परद्रव्यनो अने पर भावोनो अकर्ता सिद्ध थाय छे. हवे कहे छे-
‘तथापि’ तोपण ‘अस्य’ तेने ‘इह’ आ जगतमां ‘प्रकृतिभिः’ कर्मप्रकृतिओ साथे ‘यद् असौ बन्धः किल स्यात्’ जे आ (प्रगट) बंध थाय छे. ‘सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा स्फुरति’ ते खरेखर अज्ञाननो कोई गहन महिमा स्फुरायमान छे.
जुओ, महाविदेहमां श्री सीमंधर भगवान अरिहंतपदे विराजमान छे. पांचसो धनुष्यनुं देहमान छे; एक करोड पूर्वनुं आयुष्य छे. बे हजार वर्ष पहेलां संवत ४९ मां आचार्य श्री कुंदकुंद प्रभु त्यां समोसरणमां पधार्या हता. त्यांथी आ संदेश लाव्या छे के- भगवान आत्मानो तो सर्वने (स्व-परने) जाणवानो सर्वज्ञस्वभाव छे; तथापि कर्मप्रकृति अने रागना संबंधथी एने जे आ बंध थाय छे ते खरेखर कोई अज्ञाननो महिमा छे.
शुं कीधुं? पोते स्व अने परने संपूर्णपणे जाणे एवा सर्वज्ञ स्वभावथी-एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावथी त्रिकाळ भरेलो भगवान छे; परंतु आवा निज स्वभावना भान विना अनंतकाळथी ए दया, दान, व्रतादिना रागने पोतानी चीज माने, ए लाभदायी छे एम माने, ए पोतानुं कर्तव्य छे एम माने ए अज्ञानभाव छे. आवो जे अज्ञानभाव एनाथी बंध थाय छे. ज्ञानभाव अबंध छे, अने अज्ञानभावथी बंध छे-बस आ वात अहीं सिद्ध करवी छे.
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भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यनो पुंज प्रभु त्रिकाळ एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी वस्तु छे. तेनो द्रष्टिमां पोतापणे स्वीकार करवो ते ज्ञानभाव अबंध छे. पण तेनो अनादर करीने रागादिभाव ते हुं छुं, हुं तेनो कर्ता छुं एम मानवुं ते अज्ञानभाव छे अने ते वडे एने बंध थाय छे. अहा! पोतानी त्रिकाळी विद्यमान-छती चीजने न मानीने, तेने बीजी रीते मानवी ते तेनो अभाव करवारूप भावहिंसा छे. अने ते वडे तेने बंध थाय छे, जे चार गतिमां रखडवानुं कारण थाय छे श्रीमद्मां आवे छे ने के-
बापु! आ बधुं अत्यारे नहि समजे तो क्यारे समजीश भाई! आ देह तो जोतजोतामां छूटी जशे; अने स्वरूपना भान विना आ (-जीव) क्यांय चाल्यो जशे. अहीं मोटो करोडपति शेठियो होय पण रागादिनी ममतामां देह छूटीने पशुमां अवतार थाय. अरे! गरोळी थाय, गधेडीनुं खोलकुं थईने अवतरे! शुं थाय? बापु! आवा आवा तो एणे अनंत भव कर्या छे. भाई! शुं तने भवनो भय नथी? जो छे तो कहीए छीए के-स्वरूपनुं भान कर्या विना अर्थात् सम्यग्दर्शन पाम्या विना, रागनी-महाव्रतादिनी क्रिया मारी छे, ए मने लाभदायी छे एवुं माननार अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिने भवना अंत नहि आवे; केमके एवी मान्यता अज्ञानभाव छे अने ते वडे बंध ज थाय छे.
हा, पण तत्त्वार्थ राजवार्तिकमां आवे छे के-द्रव्यलिंग धारण कर्युं होय, पंचमहाव्रतनुं पालन करतो होय एवो मिथ्याद्रष्टि कोई जीव सम्यग्दर्शन पामे छे.
अरे भाई! एने पंचमहाव्रतादिनो जे राग छे एनाथी ते सम्यग्दर्शन पामे छे एम त्यां क्यां अर्थ छे? एम अर्थ छे ज नहि. परंतु द्रव्यलिंगनी भूमिकामां द्रष्टि फेरवीने रागथी भिन्न अंतःस्वभावनो आश्रय करे तो कोई जीव सम्यग्दर्शन पामे छे एम वात छे. द्रव्यलिंगना कारणे सम्यग्दर्शन पामे छे एम छे ज नहि. बापु! एवां द्रव्यलिंग ने मुनिपणां तो एणे अनंतवार धारण कर्यां छे. अनंतवार शुक्ल लेश्याना परिणाम करीने ए नवमी ग्रेवेयक गयो छे, पण सम्यग्दर्शन पाम्यो नथी. बापु! ए तो बधी रागनी मंदतानी क्रिया छे, पण ए कांई धर्म के धर्मनुं कारण नथी. रागनी (समस्त रागनी) उपेक्षा करीने स्वद्रव्यनी अपेक्षा करे त्यारे जीव समकित आदि धर्म पामे छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे; पण व्यवहारथी निश्चय थाय एवुं वस्तुस्वरूप नथी. समजाणुं कांई...?
जुओ, मृगनी डुटीमां कस्तुरी भरी छे. एनी एने सुगंध आवे छे. पण अरे!